ट्रैक्टेटस लॉजिको—फिलोसफिकस (ओशो की प्रिय पुस्तकें)
विटगेंस्टीन ऑस्टिया के वियना शहर में एक रईस खानदान में पैदा हुआ। उसके पिता उद्योगपति थे उनके पास धन का अंबार था। अंत: विटगेंस्टीन को उसके सात भाई-बहनों के साथ उच्च कोटि की शिक्षा मिली। उसकी मां और पिता दोनों ही संगीतज्ञ थे और अत्यंत सुसंस्कृत थे।
विटगेंस्टीन ऑस्टिया के वियना शहर में एक रईस खानदान में पैदा हुआ। उसके पिता उद्योगपति थे उनके पास धन का अंबार था। अंत: विटगेंस्टीन को उसके सात भाई-बहनों के साथ उच्च कोटि की शिक्षा मिली। उसकी मां और पिता दोनों ही संगीतज्ञ थे और अत्यंत सुसंस्कृत थे।
इंजीनियरिंग तथा गणित को सीखने के लिए विटगेंस्टीन 1908 में इंग्लैड गया। वह बहुत ही मेधावी छात्र था और हर सिद्धांत का खुद प्रयोग करने में विश्वास रखता था। 1903 में बर्ट्रेंड रसेल की विख्यात किताब ‘’प्रिंसिपल ऑफ मैथेमेटिक्स’’ प्रकाशित हुई थी। तो विटगेंस्टीन सहज ही रसेल की और खिंचा चला आया। 1911 में वह केंब्रिज जाकर रहने लगा जो कि रसेल का ठिकाना था। विटगेंस्टीन रसेल का विद्यार्थी बन गया। सामान्यतया बर्ट्रेंड रसेल किसी विद्यार्थी से प्रभावित नहीं होता था—उसकी अपनी प्रतिभा इतनी बुलंद थी कि उसने सामने सभी बौने लगते थे।
लेकिन विटगेंस्टीन के संबंध में उसने लिखा है, ‘’विटगेंस्टीन को पढ़ाना मेरे जीवन के सर्वाधिक रोमांचकारी बौद्धिक अभियानों में एक रहा है। इसकी आग, कुशाग्र बुद्धि और बुद्धि की निर्मलता असाधारण थी। मैं जो कुछ सिखा सकता था वह उसके शीध्र ही आत्मसात कर लिया।‘’
1912 तक रसेल को यह सुनिश्चित हो गया कि विटगेंस्टीन एक जीनियस है और उसकी प्रतिभा को गणित के दर्शन की दिशा में मोड़ना जरूरी है। विटगेंस्टीन गणित और तर्क के सवालों का अध्ययन करने में डूब गया लेकिन उसके लिए उसे केंब्रिज छोड़कर नार्वे जाकर एकांत में रहना पडा क्योंकि केंब्रिज के बुद्धिजीवी सिर्फ चर्चा करने में उत्सुक थे। उनकी बातचीत में कोई गहराई नहीं थी।
1914 में पहला विश्वयुद्ध शुरू हुआ और विटगेंस्टीन स्वदेश ऑस्ट्रिया जाकर सेना में भर्ती हुआ। सेना में वह एक बहादुर सैनिक साबित हुआ और वीरता के लिए मैडल भी मिला। मजे की बात, युद्ध की इस धमा चौकड़ी के बीच भी उसने किताब लिखी। जिसकी एक झलक हम यहां देख रहे है। इटली में वह बंदी बनाया गया और उसके थैले में ‘’ट्रैक्टेटस फिलोसफस’’ की पांडुलिपि मिली। इटालियन सरकार ने मेहरबानी की और इस पांडुलिपि को बर्ट्रेंड रसेल के पास भिजवानें की अनुमति दी।
1919 में विटगेंस्टीन आजाद किया गया। इसी समय उसे बहुत बड़ी पारिवारिक विरासत मिली। लेकिन विटगेंस्टीन ने उसे दान कर दिया क्योंकि उसका मानना था कि दार्शनिक को अमीर नहीं होना चाहिए। विटगेंस्टीन ऐसे कई इरछे-तिरछे विचार पालता जो आम आदमी से हटकर होते। ‘’ट्रैक्टेक्स’’ उसकी एक मात्र रचना है जो उसके रहते प्रकाशित हुई। इसका एक यह था कि वह अपने लेखन से कभी संतुष्ट नहीं होता था। उसमें निरंतर सुधार करता रहता।
वह जब कक्षा में पढ़ता था तो कभी नोटस लेकिर नहीं जाता। उसने किसी दोस्त से कहा था कि जब भी वह अपना व्याखान लिखकर ले जाता तो कागज पर लिख हुए शब्द उसे मुद्रा शरीर की भांति लगते। इसलिए कक्षा में जब वह पढ़ाता था तो वे विचार सहजस्फूर्त होते थे। उनमें विलक्षण ऊर्जा होती थी। विद्यार्थी उसे सुनते मंत्रमुग्ध हो जाते थे।
फिर भी विटगेंस्टीन की अपनी मान्यता थी कि उसके विद्यार्थियों के मानसिक विकास के लिए उसका प्रभाव हानिकारक था। और इसमें सचाई थी। उसके विचार सुदूर आकाश के पंछियों की तरह कहीं से उड़कर आते थे। और विद्यार्थियों के सिर के ऊपर से गुजर जाते थे। उन्हें समझना कठिन था ही, लेकिन उन्हें पचाना और भी कठिन था। लेकिन इसके बावजूद, विटगेंस्टीन के व्यक्तित्व का सम्मोहन उसकी आवाज की सांगतिक लयकारी उसके श्रोताओं को बांधकर रखती थी।
सभी प्रतिभाशालियों की जो नियति होती है वह विटगेंस्टीन की भी थी; निहायत अकेलापन। उसे एक बेचैन ख्याल हमेशा कुरेदता रहता था कि वह इस संसार के लिए लायक नहीं है। हकीकत यह थी कि वह इस संसार के लायक नहीं था। वह अपना मत या प्रणाली बनाना नहीं चाहता था। क्योंकि वह अपने आपको छोटा बनाना नहीं चाहता था। 1947 में उसने केंब्रिज से अवकाश ले लिया। और आयरलैंड में एक छोटे से मकान में अकेला रहने लगा। 1949 में पता चला कि उसका एक साथी है, और वह है कैंसर। लेकिन वह साथी उसे पूरी तरह से स्वीकृत था क्योंकि विटगेंस्टीन और जीना नहीं चाहता था। 1951 में उसकी मृत्यु हुई। लेकिन अंत तक उसका चिंतन और बौद्धिक अनुसंधान जारी था। उसकी प्रतिभा की रोशनी जरा भी कम नहीं हुई थी।
यह किताब सबसे पहले 1921 में लंदन में प्रकाशित हुई। यह विटगेंस्टीन की एकमात्र दार्शनिक रचना है जो उसकी हयात में प्रकाशित हुई। यह किताब जि अंदाज में लिखी गई है—छोटे-छोटे परिच्छेद जिनके क्रमांक दिये गये है। और सूत्र मय, सारगार्भित शैली में लिखे हुए विचार—उस वजह से छपते ही यह बुद्धिजीवियों के बीच में चर्चा का विषय बन गई। इस किताब का अनूठापन इसकी विषय वस्तु में है; और वह है, भाषा का दर्शन शास्त्र।
भाषा का उपयोग हम सभी करते है लेकिन वह उपयोग हम यंत्रवत करते है। आदतवश करते है। जब हम शब्दों का प्रयोग करते है तो उस समय हमारे मन की क्या स्थिति होती है। हमारे मस्तिष्क पर क्या प्रभाव पड़ता है इस बारे में हम कभी नहीं सोचते। लेकिन विटगेंस्टीन की प्रतिभा इसकी गहराई में प्रवेश कर गई और उसने भाषा के कई अनजाने पहलू उजागर किये। सिर्फ भाषा के विभिन्न पहलूओं पर कोई दार्शनिक किताब लिख सकता है। यह बात ही असाधारण है। इसलिए पहले तो पाठक चौंक जाता है। उसकी रीढ़ सीधी हो जाती है।
दूसरी बात, किताब की भूमिका रसेल ने लिखी है। यह भूमिका कुछ लंबी है और इसकी शैली विटगेंस्टीन की शैली से ठीक उलटी है। विटगेंस्टीन जितना संक्षेप में लिखता है उतना ही रसेल लंबे-लंबे वाक्यों में अपने विचार व्यक्त करता है। लेकिन रसेल के वक्तव्य भी काफी रोचक है। यह लिखता है:
‘’दूसरी समस्या : विचार, शब्द और वाक्य, इनका आपसी संबंध क्या है? और ये तीनों जिस अर्थ को प्रगट करते है उसका इन तीनों से क्या रिश्ता है? यह समस्या बौद्धिक है।
‘’तीसरी बात, वाक्यों का प्रयोग सत्य कहने के लिए किया जाता है। झूठ के लिए नहीं। यह समस्या विशिष्ट विज्ञान की है।
चौथी एक वाक्य का दूसरे वाक्य के साथ क्या संबंध हो जिससे कि वह दूसरे के लिए एक प्रतीक बने? यह सवाल तर्क का है। और विटगेंस्टीन का पूरा प्रयास यह है कि तर्क की दृष्टि से परिपूर्ण भाषा कैसे बने।
भाषा का बुनियादी फर्ज है तथ्यों को स्वीकार तथा अस्वीकार करना। हम बोलते या लिखते क्यों है? क्योंकि हमें कुछ कहना होता है। इसका मतलब हुआ, हम जिन शब्दों का प्रयोग करते है वह अर्थ से लबालब होते है। क्या ऐसी भाषा की कल्पना की जा सकती है जिसमे कोई अर्थ न हो, आशय न हो, वह जिबरिश होगी, भाषा नहीं।
यदि शब्दों की गहराई में उतरें तो शब्द क्या है? मात्र आकृतियां प्रतीक। इन प्रतीकों के बारे में विटगेंस्टीन ने बहुत गहराई से सोचा है। उसकी दृष्टि में शब्द जो है वे तथ्यों के चित्र है। उदाहरण के लिए आम का फल है, उसका कोई नाम नहीं है। लेकिन हम जब उसे एक नाम देते है, ‘’आम’’ तो हमने अक्षरों के ज़रिये एक चित्र बनाया जिसे यह भाष न आती हो उसके लिए ‘’आम’’ शब्द सिर्फ एक चित्र है। तथ्य का चित्र।
भाषा के एक-एक अंग को लेकिर उसका बारीक से बारीक विश्लेषण करना विटगेंस्टीन या रसेल जैसे असाधारण प्रतिभाशाली विचारकों के लिए एक बौद्धिक खेल होगा लेकिन सामान्य आदमी भाषा की इतनी बारीकियों पर सोचने लगे तो उसका सर चकराने लगेगा। और वह सोचेगा कि इस तरह सोच-विचार बोलने से अच्छा है चुप रह जाओ।
खुद विटगेंस्टीन भी इससे नावाकिफ नहीं है। उसने अपनी किताब की भूमिका में लिखा है--
‘’शायद यह किताब वही व्यक्ति समझ सकेगा जिसके ऐसे विचार है जो इस किताब में लिखे है। तो टेक्स्ट बुक नहीं है। यदि कोई एक व्यक्ति भी इसे पढ़ेगा और समझ लेगा तो किताब का उद्देश्य सफल हुआ।
‘’इस किताब में दर्शन शास्त्र की समस्याओं की चर्चा है। किताब यह दिखाती है कि ये समस्याएं इसलिए खड़ी होती है क्योंकि हमारी भाषा का तर्क शास्त्र नहीं समझा जाता है। पूरी किताब का सारांश इन शब्दों में समा सकता है; जो कहा जा सकता है उसे साफ कहा जा सकता है। और जिसके बारे में हम चर्चा नहीं कर सकते उसके करीब से हम मौन में गुजर जायें।
तो किताब का लक्ष्य है, विचारों की सीमा बनाना; या फिर विचारों की नहीं, विचारों की अभिव्यक्ति की। क्योंकि विचारों की सीमा बनाने के लिए हमें दोनों छोर पर सोचने को खोज लेना चाहिए।
तो केवल भाषा में ही सीमा बनायी जा सकती है। और सीमा के दूसरे छोर पर सिर्फ अर्थहीनता शेष रहेगी।
9मैं इसकी निर्णय नहीं कर पाऊंगा। कि मेरे प्रयास अनय दार्शनिकों से कितना मेल खायेंगे। और मेरा यह दावा नहीं है कि मैंने जो लिखा है वह बिलकुल नया है। और मैंने किन्हीं किताबों के नाम इसलिए नहीं दिए क्योंकि मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मेरे विचार किसी और के दिमाग में आये थे।
‘’मैं इतना जरूर कहूंगा कि मैं फ्रेज के महान ग्रंथों का आभारी रहूंगा और मेरे मित्र बर्ट्रेंड रसेल की रचनाओं से मैने बहुत प्रेरणा पायी है। अगर इस रचना का कोई कीमत है तो वह दो बातों में: एक, इसमें विचार प्रगट किये है—और जितने विचार प्रगट किये गये है उतने तीन निशाने पर लगे है। यहां मैं कमजोर सिद्ध हुआ हूं। क्योंकि मैं इस काम को सफलता पूर्वक करने में सक्षम नहीं हूं। दूसरे लोग आयें और इसे हासिल करें।
दूसरी तरफ इन विचारों में निहित सत्य सुनिश्चित अनयुजेबल है। इसलिए मुझे हर तरफ से इस समस्या का समाधान मिल गया है। और अगर मैं गलत न होऊं तो इस किताब से यह साबित होता है कि समस्या का समाधान होने के बाद भी कितना कम हासिल होता है।
किताब की एक झलक:
जो भी है वह यह जगत है।
जगत तथ्यों की समग्रता है, वस्तुओं की नहीं।
जगत तथ्यों के द्वारा निर्धारित होता है, और इससे कि वे सभी तथ्य है।
संसार में चीजें जैसी है, उन्हें किसी श्रेष्ठतर से कोई मतलब नहीं है। ईश्वर संसार में स्वयं को प्रगट नहीं करता।
सभी तथ्य समस्या को बनाने में योगदान देते है। उसे हल करने में नहीं।
संसार में चीजें जैसी है वैसी वे रहस्यपूर्ण नहीं है वरन वे ‘’है’’ यही रहस्य है।
जब उत्तर को शब्दों में नहीं कहा जा सकता तब प्रश्न को भी शब्दों में नहीं कहा जा सकता।
पहली है ही नहीं।
अगर प्रश्न को बनाना संभव हो तो उसका उत्तर देना भी संभव होगा।
संदेशवाद को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन वह ज़ाहिर रूप से मूढ़ता पूर्ण होता है। जब वह वहां संदेह करता है जहां प्रश्न भी पूछा नहीं जा सकता।
क्योंकि संदेह तभी हो सकता है जब प्रश्न होता है। प्रश्न तब होता है जब उत्तर होता है। और उत्तर तब होता है जब कुछ कहा जा सकता है।
हमे लगता है कि अगर सभी वैज्ञानिक प्रश्नों के उत्तर दिये जाएं तब भी जीवन की समस्याएं पूरी तरह से अछूती रह जाती है। उस समय कोई प्रश्न नहीं बचते, और यही अपने आपमें उत्तर है।
जीवन की समस्या का समाधान उसके विलीन होने में देखा जाता है।
मेरे सिद्धांत इस प्रकार मार्गदर्शक बनते है: जो मुझे समझता है वह अंतत: उनकी व्यर्थता को समझ लेता है। जब वह सीढ़ीयों की मानिंद उनका उपयोग करता है—उन पर चढ़कर उनके पार जाने के लिए। जब वह ऊपर चढ़ जाता है तब सीढ़ी को फेंक दे।
उसे इन सिद्धांतों के पार जाना होगा, तभी वह संसार को सम्यक् देख पायेगा।
हम जिसके संबंध में बात नहीं कर सकते वहां से चुपचाप गुजर जाना चाहिए।
ओशो का नजरिया:
तीसरी किताब फिर एक जर्मन की है—लुडविग विटगेंस्टीन। जरा इसका शीर्षक सुनो: ट्रैक्टेटस लॉजिको फिलोसफिकस। हम इसे सिर्फ ट्रैक्टेटस कहेंगे। इस वक्त जो भी किताबें है उनमें यह सबसे मुश्किल किताबों में से एक है। जी. ई. मूर जैसा आदमी, जो कि बहुत बड़ा अंग्रेज दार्शनिक है, और बर्ट्रेंड रसेल—एक और महान दार्शनिक, न केवल इंग्लैंड की बल्कि पूरी दूनिया का—दोनों सहमत थे कि विटगेंस्टीन उनसे कई गुना श्रेष्ठ था।
लुडविग विटगेंस्टीन वाकई प्यारा आदमी था। मैं उससे नफरत नहीं करता और नापसंद भी नहीं करता। मैं उसे पसंद करता हूं। उससे प्रेम भी करता हूं, लेकिन उसकी किताब से नहीं। उसकी किताबें सिर्फ एक कवायद है। सिर्फ कभी-कभार, पन्नों पर पन्ने गुजरने के बाद कोई वाक्य मिलता है जो रोशन होता है। जैसे, ‘’जिसे कहा नहीं जा सकता उसे नहीं कहना चाहिए। उसके संबंध में मौन रहना चाहिए।‘’ अब यह एक खूबसूरत वक्तव्य है। संत, रहस्यदर्शी, कवि इन सबको इससे बहुत सीखना चाहिए। जिसे कहा नहीं जा सकता उसे नहीं कहना चाहिए।
विटगेंस्टीन गणित की शैली में लिखता था—छोटे-छोटे वाक्य। परिच्छेद भी नहीं, सिर्फ सूत्र, लेकिन आज के विकसित विक्षिप्त आदमी के लिए इस किताब से बहुत मदद मिल सकती है। वह ठीक आत्मा पर चोट कर सकती है। मस्तिष्क पर नहीं।
कील की तरह वह उसके अंतरतम में प्रवेश कर सकती है। वह उसे दु:स्वप्न से जगा सकती है।
लुडविग विटगेंस्टीन प्यारा आदमी था। उसे ऑक्सफर्ड जैसे पद के लिए निमंत्रित किया गया था जिसे सभी चाहते है। लेकिन उसने इंकार कर दिया। मुझे उसकी यही बात पसंद है। वह किसान और मछुआरा बनने गया। यही उसकी प्यारी बात है। ज्यां पाल सार्त्र से यह अधिक अस्तित्वगत है। हालांकि विटगेंस्टीन ने अस्तित्वाद के बारे में कभी बात नहीं की। आस्तित्ववाद के बारे में कुछ चर्चा नहीं की जा सकती, उसे जीना होता है और कोई उपाय नहीं है।
यह किताब उस समय लिखी गई जब विटगेंस्टीन जी ई मूर तथा, बर्ट्रड के मार्ग दर्शन में पढ़ रहा था। इंग्लैंड के दो महान दार्शनिक और साथ में एक जर्मन—‘’ट्रैक्टेटस लॉजिको फिलोसफिकस’’ लिखने के लिए वह काफी है। इसका अनुवादित रूप होगा: विटगेंस्टीन, मूर, रसेल। मैं विटगेंस्टीन को गुर्जिएफ के मार्ग दर्शन में पढ़ाना अधिक पसंद करता। बजाएं मूर और रसेल के। उसके लिए वह सही जगह थी मगर वह चूक गया। शायद अगली बार, मेरा मतलब है अगले जन्म में........उसके लिए कह रहा हूं, मेरे लिए नहीं। मेरे लिए यह काफी है। यह आखरी है। लेकिन उसके लिए, कम से कम एक बार उसे च्वांगत्सु, गुर्जिएफ या बोधिधर्म जैसे की संगत में रहना जरूरी है। लेकिन मूर, रसेल और व्हाइटहेज नहीं। वह इन लोगों के साथ था। गलत लोगों के साथ। गलत लोगों के साथ सही आदमी। यही उसे ले डूबा।
मेरा अनुभव यह है कि सही संगत से गलत आदमी भी सही हो जाता है। और इससे उल्टा भी सच है—गलत संगत में सही आदमी भी गलत हो जाता है। लेकिन यह सिर्फ अज्ञानी पर लागू होता है। ज्ञानी आदमी प्रभावित नहीं होता। इसीलिए मैंने जो कहा वह सिर्फ साधारण मानवता पर लागू होता है, जो जाग गये है उन पर नहीं।
विटगेंस्टीन जाग सकता था, वह इसी जीवन में जाग सकता था। लेकिन वह गलत संगत में पड़ गया। लेकिन उसकी किताब उन लोगों के काम आ सकती है जो तीसरे दर्जे के पागल है। यदि यह उनकी समझ में आ जाए तो वक पुन: स्वस्थ हो जायेंगे।
ओशो
बुक्स आय हैव लव्ड
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