(अमेरिका में तथा विश्व भ्रमण के दौरान ओशो ने जगह-जगह विश्व के पत्रकारों के साथ वार्तालाप किया। ये सभी वार्तालाप ‘’दि लास्ट टैस्टामैंट’’ शीर्षक से उपलब्ध है। इसके छह भाग है लेकि अभी केवल एक भाग ही प्रकाशित हुआ है।)
ये पत्रकार वार्ताएं जुलाई 1985 और जनवरी 1986 के बीच संपन्न हुई।
(इस अंक में प्रकाशित अंश ओशो के अमेरिका प्रवास से है)
प्रश्न—आपके लोग लाल रंग की विविध छाया के वस्त्र क्यों पहनते है? वे अलग-अलग तरह के लाल रंग के कपड़े और माला क्यों पहनते है?
ओशो—मैं चाहता हूं कि वे मेरे अन्य लोगों के द्वारा पहचाने जायें। मैं चाहता हुं कि वे संसार का सामना करें...बतायें कि वे इस संसार के बाहर हो चूके है। मैं चाहता हूं कि वे स्पष्ट रूप से व्यक्तिनिष्ठ बने। वे इस सड़े हुए संसार का हिस्सा नहीं है। जिस दिन मैं देखूँगा कि अब इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। वे अन्य रंगीन कपड़े पहनने लग जायेगे। इसका आध्यात्मिकता या धार्मिकता से कोई लेना देना नहीं है। यह मात्र पूरे शरीर पर पहना हुआ एक पहचान पत्र है।
प्रश्न—कुछ लोग है जिन्हें आप पर और जो लोग यहां रह रहे है, उन पर आरोप लगाया गया है। कि आपने धर्म और शासन (राज्य) की सीमा को दुरूह कर दिया है। क्या यह एक धार्मिक नगरी है? या फिर यह एक शहर है कि जो उदाहरणत: स्कूल के लिये आर्थिक अनुदान पाने के योग्य है? धर्म और शासन के विभाजन को लेकर आपके क्या विचार है?
ओशो—यह कोई धार्मिक नगरी नहीं है। इस शहर की अपनी कार्यप्रणाली है, धर्म का उसके साथ कोई लेना-देना नहीं है। धर्म एक वैयक्तिक घटना है। उसका सड़कों से, घरों से, शहर की व्यवस्था से कोई संबंध नहीं है। धर्म नितांत व्यक्तिगत है। यह शहर यहां के निवासियों की सामूहिक रूप से देखभाल करता है। ये दोनों भिन्न आयाम है। वे एक दूसरे को व्याप्त नहीं करते, वे कहीं एक दूसरे से नहीं मिलते।
प्रश्न—लेकिन प्रत्येक व्यक्ति जो यहां रह रहा है वह आपमें विश्वास कर रहा है। और आपका अनुगमन कर रहा है।
ओशो—कोई मेरा अनुगमन नहीं करता, क्योंकि मेरा कोई अनुयायी नहीं है। क्योंकि कोई मेरे पीछे चल रहा है, इसका मतलब यह नहीं होता कि वि मेरा अनुगामी है। यदि किसी को ऐसा लगता है कि जो मैं कह रहा हूं वह सत्य है। और उस सत्य का अनुभव करता है तो उसमें शहर कहा बीच में आता है। जो व्यक्ति इस शहर में निवास कर रहे है उनके सत्य का अनुभव उनका निजी अनुभव है।
शहर और कामों के लिए है—सांसारिक। उसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। जो मैं कह रहा हूं वह केवल यहां के लिये ही सही है, कि यहां कोई धर्म और शासन का मेल नहीं है। इसके बाहर की दुनिया में यह बात सही नहीं है। बाकी सब जगह धर्म और शासन एक दूसरे से धुले हुए है। अन्यथा कोर्ट में किसी को शपथ लेने कि लिये बाईबिल की क्या आवश्यकता है? उसका क्या मतलब है? प्रत्येक कोर्ट में से बाईबिल को उठाकर बाहर फेंक देना चाहिए। यह धर्म के साथ मिश्रण करना है। और क्या आप मानते है कि जो लोग राष्ट्र प्रमुख है, प्रधानमंत्री है, गवर्नर है, वे किसी ने किसी धर्म के प्रति पूर्वाग्रह नहीं रखते? क्या वे भेद करने में सक्षम है। ताकि जब तक वे अपने पद पर हों वे ईसाई नहीं होंगे? हमें यहां इस बात का अभी तक कोई अनुभव नहीं हुआ है।
प्रश्न—यदि संभव हो तो मैं कुछ वर्ष पूर्व लौटना चाहता हूं। क्योंकि उस समय के बारे में कुछ बातें लिखी गई है। अपने भारत क्यों छोड़ा?
ओशो—स्वास्थ्य के कारण। मैं कभी भी भारत छोड़ना नहीं चाहता था। भारत गरीब होगा, उसकी अनेक कठिनाइयां और समस्याएं होंगी परंतु उसका अपना एक अनूठा सौंदर्य है।
प्रश्न—उस समय ऐसी खबरें छपी थी कि आपको वहां से जबर्दस्ती निकाला गया था। क्या यह सही है?
ओशो—यह सब बकवास है। मैं वहां लौट कसता हूं। मुझे कोई कहीं से जबर्दस्ती नहीं निकाल सकता। यदि ऑरेगान के लोग मुझे ऑरेगान से जबर्दस्ती नहीं निकला सकते तो क्या तुम मानते हो कि भारतीय मुझे भारत से बाहर जबर्दस्ती निकाल सकेंगे?
प्रश्न—क्या आप ऑरेगान छोड़ने की योजना बन रहे है?
ओशो—नहीं मैं कभी कोई योजना नहीं बनता। मैं किसी भी दिन छोड़ सकता हूं या कभी भी नहीं छोडू।
प्रश्न—क्या आपको ऐसा लगता है कि आव्रजन अधिकारी इस आशा में है कि आप यह देश छोड़ देंगे?
ओशो—वे राह देख रहे है, शायद। वे रहा देखते रहें......ओर अगर मुझे नहीं जाना हो तो मैं नहीं जाऊँगा। मैं आखिर तक लड़ता रहूंगा। मैं नहीं जाऊँगा। और अगर मुझे जाना हो—फिर चाहे सारा अमेरिका मुझसे विनती करे कि मैं यहां रहूँ—मैं एक पल नहीं रुकूंगी। किसी ने मुझसे जबर्दस्ती भारत नहीं छुडवाया। भारत में मैं अपने कम्यून के साथ रह रहा था। दस हजार संन्यासी मेरे साथ रह रहे थे। यह तो मेरा स्वास्थ था जो निरंतर बिगड़ता जा रहा था।
प्रश्न–-क्या अब आप स्वास्थ हो गये है? क्या आपका स्वास्थ पहले से बेहतर है?
ओशो—पूरी तरह से तो नहीं, मैं पहले से बेहतर अनुभव कर रहा हूं, परंतु वह बस सीमा रेखा पर, किसी भी क्षण, जरा सी बात और मुश्किल खड़ी हो सकती है।
प्रश्न—आपका और आपके लोगों का भविष्य क्या है?
ओशो—मैं भविष्य के बारे में नहीं सोचता। इस समय हम आनंदित है।
प्रश्न—ओशो, मैं आपसे कह कहना जरूरी समझता हूं कि इस रात मुझे ठीक नहीं लग रहा क्योंकि मैंने काफी देर से धूम्रपान नहीं किया है।
ओशो—मुझे पता है तुम उत्तेजित अनुभव कर रहे हो। एक घंटा और, और तुम्हारी मानसिक स्थिति जवाब दे देगी। लोगों के लिये धूम्रपान छोड़ना कठिन होता है।
प्रश्न–क्या आप संक्षेप में थोड़ा-बहुत अपनी दिनचर्या के बारे में बात सकेंगे, आप यहाँ क्या करते है?
ओशो—मैं तो एक बड़ा आलसी आदमी हूं, मैं अपने आपको बुद्धत्व के लिये आलसी आदमी का पथप्रदर्शक बहता हूं। मैं कुछ नहीं करता। जैसा कि मैं तीस वर्ष किया करता था। मैंने सुबह बोलना शुरू कर दिया है। मुझे उसमें बड़ा मजा आता है। वह कोई प्रवचन नहीं है। कोई तैयार किया हुआ भाषण नहीं है। लोग प्रश्न पूछते है, और जो भी स्वत: स्फूर्त प्रति संवेदन मुझसे निकलता है मैं उन्हें कह देता हूं। और क्योंकि मैं जरा भी किसी तरह की संगति या अवरोध की फिक्र नहीं करता, मैंने जो मेरे साथ है उन्हें स्पष्ट कर दिया हे कि वे यह कभी भी न कहें कि, ‘’कल तो आपने यह कहा था। और आज आप यह कह रहे है। और दोनों बातें विरोधाभासी है।‘’
मैंने हमेशा इस बात पर जोर देकर कहा है कि जो मैं अभी इस वक्त कह रहा हूं वही सत्य है।
प्रश्न—आपके विषय में कहा जाता है कि आप एक विरोधाभासी व्यक्ति है, क्या आप है?
ओशो—मैं हूं, क्योंकि सारा जीवन विरोधों से भरा है। मेरा जीवन के साथ पूरा तालमेल है। मेरा अरस्तू के साथ कोई तालमेल नहीं है। मैं तो समझता हूं अरस्तू एक बीमारी है। मैं उसे ‘’एरिस्टोटल-इटिज़’’ कहता हूं। जीवन एक और ही बात है। वह कोई तर्कपूर्ण व्यवस्था नहीं है। आज भौतिक विज्ञान को इस प्रकार के तथ्य उपलब्ध हुए है। कि जिसके कारण वैज्ञानिक चकरा गए है। क्योंकि वे तथ्य अरस्तू के तर्क और यूक्लिडी की ज्यामिती नहीं है। वे उसके विपरीत पड़ते है। उनके तथ्यों पर ऐसा कोई दायित्व नहीं है कि वे मनुष्य के द्वारा बनाए गए तर्क के अनुकूल चलें। वे अपने रास्ते चलते है, अपना काम अपने ढंग से करते चलते है।
मैं कोई तार्किक नहीं हूं। और मैंने कभी भी यह दावा नहीं किया कि मैं विरोधाभासी व्यक्ति नहीं हूं। मैं काफी विशाल हूं, जैसा कि वाल्ट व्हाइटहेज ने एक बार कहा है—‘’मैं सारे विरोधों को अपने आप में समा सकूँ इतना विशाल हूं।‘’
और फिर भी, यह पूरी संभावना है कि ये सारे विरोध एक गहरी तारतम्यता बन जायेंगे। वे मात्र विरोधाभासी न रहें बल्कि एक दूसरे के परिपूरक बन जायें। ऐसा ही आस्तित्व में है, ऐसा ही जीवन में भी होना चाहिए।
अब इन्हें सिगरेट दो।
ओशो
दि लास्ट टैस्टामैंट
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