काम संबंधि
दूसरा सूत्र--
‘’ऐसे
काम-आलिंगन
में जब तुम्हारी
इंद्रियाँ
पत्तों की
भांति कांपने
लगें उस कंपन
में प्रवेश
करो।‘’
जब
प्रेमिका या
प्रेमी के साथ
ऐसे आलिंगन
में, ऐसे
प्रगाढ़ मिलन
में तुम्हारी
इंद्रियाँ
पत्तों की
तरह कांपने
लगें, उस कंपन
में प्रवेश कर
जाओ।
तुम भयभीत
हो गए हो,
संभोग में भी
तुम अपने शरीर
को अधिक हलचल
नहीं करने
देते हो। क्योंकि
अगर शरीर को
भरपूर गति
करने दिया जाए
तो पूरा शरीर
इसमें संलग्न
हो जाता है
तुम उसे तभी
नियंत्रण में
रख सकते हो जब
वह काम-केंद्र
तक ही सीमित
रहता है। तब उस
पर मन
नियंत्रण कर
सकता है।
लेकिन जब वह
पूरे शरीर में
फैल जाता है
तब तुम उसे
नियंत्रण में
नहीं रख सकते
हो। तुम
कांपने
लगोगे। चीखने
चिल्लाने
लगोगे। और जब
शरीर मालिक हो
जाता है तो फिर
तुम्हारा
नियंत्रण
नहीं रहता।
हम शारीरिक
गति का दमन
करते है।
विशेषकर हम स्त्रियों
को दुनियाभर
में शारीरिक
हलन-चलन करने
से रोकते है।
वे संभोग में
लाश की तरह
पड़ी रहती है।
तुम उनके साथ
जरूर कुछ कर
रहे हो, लेकिन
वे तुम्हारे
साथ कुछ भी
नहीं
करती, वे
निष्क्रिय
सहभागी बनी
रहती है। ऐसा
क्यों होता
है। क्यों
सारी दुनिया
में पुरूष स्त्रियों
को इस तरह
दबाते है।
कारण भय
है। क्योंकि
एक बार अगर स्त्री
का शरीर पूरी
तरह कामाविष्ट
हो जाए तो
पुरूष के लिए
उसे संतुष्ट
करना बहुत
कठिन है। क्योंकि
स्त्री एक
शृंखला में,
एक के बाद एक
अनेक बार आर्गाज्म
के शिखर को
उपलब्ध हो
सकती है।
पुरूष वैसा
नहीं कर सकता।
पुरूष एक बार
ही आर्गाज्म
के शिखर अनुभव
को छू सकता
है। स्त्री
अनेक बार छू
सकती है। स्त्रियों
के ऐसे अनुभव
के अनेक विवरण
मिले है। कोई
भी स्त्री एक
शृंखला में
तीन-तीन बार
शिखर-अनुभव को
प्राप्त हो
सकती है।
लेकिन पुरूष
एक बार ही हो
सकता है। सच
तो यह है कि
पुरूष के शिखर
अनुभव से स्त्री
और-और शिखर
अनुभव को उत्तेजित
होती है।
तैयार होती
है। तब बात
कठिन हो जाती
है। फिर क्या
किया जाए?
स्त्री को
तुरंत दूसरे
पुरूष की
जरूरत पड़
जाती है। और
सामूहिक कामाचार
निषिद्ध है।
सारी दुनियां
में हमने एक
विवाह वाले
समाज बना रखे
है। हमें लगता
है कि स्त्री
का दमन करना
बेहतर है।
फलत: अस्सी
से नब्बे
प्रतिशत स्त्रियां
शिखर अनुभव से
वंचित रह जाती
है। वे बच्चों
को जन्म दे
सकती है। यह
और बात है। वे
पुरूष को तृप्त
कर सकती है।
यह भी और बात
है। लेकिन वे
स्वयं कभी
तृप्त नहीं
हो पाती। अगर
सारी दुनिया
की स्त्रियां
इतनी कड़वाहट
से भरी है,
दुःखी है, चिड़चिड़ी
है, हताश
अनुभव करती
है। तो यह स्वाभाविक
है। उनकी
बुनियादी
जरूरत पूरी
नहीं होती।
कांपना
अद्भुत है। क्योंकि
जब संभोग करते
हुए तुम
कांपते हो तो
तुम्हारी
ऊर्जा पूरे
शरीर में
प्रवाहित
होने लगती है।
सारे शरीर में
तरंगायित
होने लगती है।
तब तुम्हारे
शरीर का
अणु-अणु संभोग
में संलग्न
हो जाता है।
प्रत्येक
अणु जीवंत हो
उठता है। क्योंकि
तुम्हारा
प्रत्येक
अणु काम अणु है।
तुम्हारे
जन्म में दो
कास-अणु आपस
में मिले और
तुम्हारा
जीवन निर्मित
हुआ, तुम्हारा
शरीर बना। वे
दो काम अणु
तुम्हारे
शरीर में
सर्वत्र छाए
है। यद्यपि
उनकी संख्या
अनंत गुनी हो
गई है। लेकिन तुम्हारी
बुनियादी
इकाई काम-अणु
ही है। जब
तुम्हारा
समूचा शरीर
कांपता है तो
प्रेमी
प्रेमिका के
मिलन के साथ-साथ
तुम्हारे
शरीर के भीतर
प्रत्येक
पुरूष-अणु स्त्री
अणु से मिलता
है। वह कंपन
यही बताता है।
यह पशुवत
मालूम
पड़ेगा।
लेकिन मनुष्य
पशु है और पशु
होने में कुछ
गलती नहीं है।
यह दूसरा
सूत्र कहता
है: ‘’ऐसे काम-आलिंगन
में जब तुम्हारी
इंद्रियाँ
पत्तों की
भांति कांपने
लगे।‘’
मानो तूफान
चल रहा है और
वृक्ष कांप
रहा है। उनकी
जड़ें तक
हिलने लगती
है। पत्ता-पत्ता
कांपने लगता
है। यही हालत
संभोग में
होती है।
कामवासना
भारी तूफान
है। तुम्हारे
आर-पार एक
भारी ऊर्जा
प्रवाहित हो
रही है। कंपो।
तरंगायित
होओ। अपने शरीर
के अणु-अणु को
नाचने दो। और
इस नृत्य में
दोनों के
शरीरों को भाग
लेना चाहिए।
प्रेमिका को
भी नृत्य में
सम्मिलित
करो। अणु-अणु
को नाचने दो।
तभी तुम दोनों
का सच्चा
मिलन होगा। और
वह मिलन
मानसिक नहीं
होगा। वह
जैविक ऊर्जा
का मिलन होगा।
‘’उस कंपन
में प्रवेश
करो।‘’
और कांपते
हुए उससे
अलग-थलग मत
रहो, मन का स्वभाव
दर्शक बने
रहने का है।
इसलिए अलग मत
रहो। कंपन ही
बन जाओ। सब
कुछ भूल जाओ
और कंपन ही
कंपन हो रहो।
ऐसा नहीं कि
तुम्हारा
शरीर ही
कांपता है।
तुम पूरे के
पूरे कांपते
हो, तुम्हारा
पूरा अस्तित्व
कांपता है।
तुम खुद कंपन
ही बन जाते
हो। तब दो
शरीर और दो मन
नहीं रह
जाएंगे। आरंभ
में दो कंपित ऊर्जाऐं
है, और अंत में
मात्र एक
वर्तुल है। दो
नहीं रहे।
इस वर्तुल
में क्या
घटित होगा।
पहली बात तो
उस समय तुम
अस्तित्वगत
सत्ता के अंश
हो जाओगे। तुम
एक सामाजिक
चित नहीं रहोगे।
अस्तित्वगत
ऊर्जा बन
जाओगे। तुम
पूरी सृष्टि
के अंग हो
जाओगे। उस
कंपन में तुम
पूरे ब्रह्मांड के भाग बन
जाओगे। वह
क्षण महान
सृजन का क्षण है।
ठोस शरीरों की
तरह तुम विलीन
हो गए हो, तुम तरल
होकर एक दूसरे
में प्रवाहित
हो गए हो। मन
खो गया,
विभाजन मिट
गया, तुम एकता
को प्राप्त
हो गए।
यही
अद्वैत है। और
अगर तुम इस
अद्वैत को
अनुभव नहीं
करते हो
अद्वैत का
सारा दर्शन
शास्त्र व्यर्थ
है। वह
बस शब्द ही
शब्द है। जब
तुम इस अद्वैत
अस्तित्वगत
क्षण को जानोंगे
तो ही तुम्हें
उपनिषद समझ
में आएँगे। और
तभी तूम संतों
को समझ पाओगे।
कि जब वे जागतिक
एकता की अखंडता
की बात करते
है तो उनका क्या
मतलब है। तब
तुम जगत से
भिन्न नहीं होगे।
उससे अजनबी
नहीं होगे। तब
पूरा अस्तित्व
तुम्हारा घर
बन जाता है।
और इस भाव के
साथ कि पूरा अस्तित्व
मेरा घर है।
सारी चिंताएं
समाप्त हो
जाती है। फिर
कोई द्वंद्व न
रहा, संघर्ष न रहा,
संताप न रहा।
उसका ही लाओत्से
ताओ कहते है,
शंकर अद्वैत
कहते है। तब
तुम उसके लिए
कोई अपना शब्द भी दे
सकते हो।
लेकिन
प्रगाढ़
प्रेम आलिंगन
में ही उसे
सरलता से
अनुभव किया
जाता है।
लेकिन जीवंत
बनो, कांपो,
कंपन ही बन
जाओ।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग—3
प्रवचन-33
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें