पांचवी
तंत्र विधि--
‘’भोजन करते
हुए या पानी
पीते हुए भोजन
या पानी का स्वाद
ही बन जाओ, और उससे
भर जाओ।‘’
हम खाते
रहते है, हम
खाए बगैर नहीं
रह सकते।
लेकिन हम बहुत
बेहोशी में भोजन
करते है—यंत्रवत।
और अगर स्वाद
न लिया जाए तो
तुम सिर्फ पेट
को भर रहे हो।
तो धीरे-धीरे
भोजन करो, स्वाद
लेकिर करो और स्वाद
के प्रति सजग
रहो। और स्वाद
के प्रति सजग
होने के लिए
धीरे-धीरे
भोजन करना
बहुत जरूरी
है। तुम भोजन
को बस निगलने
मत जाओ। आहिस्ता-आहिस्ता
उसका स्वाद
लो और स्वाद
ही बन जाओ। जब
तुम मिठास
अनुभव करो तो
मिठास ही बन
जाओ। और तब वह
मिठास सिर्फ
मुंह में नहीं,
सिर्फ जीभ में
नहीं, पूरे
शरीर में
अनुभव की जा
सकती है। वह
सचमुच पूरे
शरीर में फैल
जायेगी। तुम्हें
लगेगा कि
मिठास—या कोई
भी चीज—लहर की
तरह फैलती जा
रही है। इसलिए
तुम जो कुछ
खाओ, उसे स्वाद
लेकर खाओ और स्वाद
ही बन जाओ।
यहीं तंत्र
दूसरी
परंपराओं से
सर्वथा भिन्न
है। विपरीत मालूम
पड़ता है। जैन
अस्वाद की
बात करते है।
महात्मा
गांधी ने तो
अपने आश्रम में
अस्वाद को एक
नियम बना लिया
था। नियम था
कि खाओ स्वाद
के लिए मत
खाओ। स्वाद
मत लो, स्वाद
को भूल जाओ।
वे कहते थे कि
भोजन आवश्यक
है, लेकिन
यंत्रवत भोजन
करो। स्वाद
वासना है, स्वाद
मत लो।
तत्र कहता
है कि जितना
स्वाद ले सको
उतना स्वाद
लो। ज्यादा
से ज्यादा
संवेदनशील
बनो, जीवंत
बनो। इतना ही नहीं
कि संवेदनशील
बनो, स्वाद
ही बन जाओ।
अस्वाद से
तुम्हारी इंद्रियाँ
मर जाएंगी।
उनकी
संवेदनशीलता
जाती रहेगी। और
संवेदनशीलता
के मिटने से
तुम अपने शरीर
को, अपने
भावों को
अनुभव करने में
असमर्थ हो
जाओगे। और तब
फिर तुम अपने
सिर के
केंद्रित
होकर रह
जाओगे। और सिर
में केंद्रित
होना विभाजित
होना है।
तंत्र कहता
है: अपने भीतर
विभाजन मत
पैदा करो। स्वाद
लेना सुंदर
है, संवेदनशील
होना सुंदर
है। और तुम
जितने
संवेदनशील
होगे, उतने ही
जीवंत होगे। और
जितने तुम
जीवंत होगे,
उतना ही अधिक
जीवन तुम्हारे
अंतस में प्रविष्ट
होगा। तुम
अधिक खुलोगें।
उन्मुक्त
अनुभव करोगे।
तुम स्वाद
लिए बिना कोई
चीज खा सकते
हो। यह कठिन नहीं
है। तुम किसी
को छुए बिना
छू सकते हो।
यह भी कठिन नहीं
है। हम वही तो
करते है, तुम
किसी के साथ
हाथ मिलाते हो
और उसे स्पर्श
नहीं करते। स्पर्श
करने के लिए
तुम्हें हाथ
तक आना
पड़ेगा। हाथ
में उतरना
पड़ेगा। स्पर्श
करने के लिए
तुम्हें
तुम्हारी
हथेली, तुम्हारी
अगुलियां बन
जाता पड़ेगा—मानो
तुम, तुम्हारी
आत्मा तुम्हारे
हाथ में उतर
आयी है। तभी
तुम स्पर्श
कर सकते हो, वैसे
तुम किसी का
हाथ में हाथ
लेकिर भी उससे
अलग रह सकते
हो। तब तुम्हारा
मुर्दा हाथ
किसी के हाथ
में होगा। वह
छूता हुआ
मालूम
पड़ेगा।
लेकिन वह छूता
नहीं है।
हम स्पर्श
करना भूल गए
है। हम किसी
को स्पर्श
करने से डरते
है। क्योंकि
स्पर्श करना
कामुकता का प्रतीक
बन गया है।
तुम किसी भीड़
में, बस या रेल
में अनेक
लोगों को छूते
हुए खड़े हो
सकते हो, लेकिन
वास्तव में न
तुम उन्हें
छूते हो और न
वे तुम्हें
छूते है। सिर्फ
शरीर एक दूसरे
को स्पर्श कर
रहा है। लेकिन
तुम दूर-दूर
हो। और तुम इस
फर्क को समझ
सकते हो। अगर
तुम भीड़ में किसी
को वास्तव में
स्पर्श करो
तो वह बुरा
मान जाएगा।
तुम्हारा
शरीर बेशक छू
सकता है।
लेकिन तुम्हें
उस शरीर में नहीं
होना चाहिए।
तुम्हें
शरीर से अलग
रहना चाहिए,
मानो तुम शरीर
में नहीं हो,
मानो कोई
मुर्दा शरीर
स्पर्श कर
रहा है।
यह
संवेदनहीनता
बुरी है। यह
बुरी है, क्योंकि
तुम अपने को
जीवन से बचा
रहे हो। तुम
मृत्यु से
इतने भयभीत हो
और तुम मरे
हुए हो। सच तो
यह है कि तुम्हें
भयभीत होने की
कोई जरूरत नहीं
है। क्योंकि
कोई भी मरने
वाला नहीं है।
तुम तो पहले
से ही मरे हुए
हो। और तुम्हारे
भयभीत होने का
कारण भी यही
है कि तुम कभी जीए
ही नहीं। तुम
जीवन से चूकते
रहे और मृत्यु
करीब आ रही
है।
जो व्यक्ति
जीवित है वह
मृत्यु से नहीं
डरेगा। क्योंकि
वह जीवित है।
जब तुम वास्तव
में जीते हो
तो मृत्यु का
भय नहीं रहता।
तब तुम मृत्यु
को भी जी सकते
हो। जब मृत्यु
आएगी तो तुम
इतने
संवेदनशील होगे
कि मृत्यु का
भी आनंद लोगे
मृत्यु एक
महान अनुभव
बनने वाली है।
अगर तुम सचमुच
जिंदा हो तो
तुम मृत्यु
को भी जी सकते
हो। और तब
मृत्यु-मृत्यु
नहीं रहेगी। अगर
तुम मृत्यु
को भी जी सको।
जब तुम अपने
केंद्र को लौट
रहे हो, जब तुम
विलीन हो रहे
हो, उस क्षण
यदि तुम अपने
मरते हुए शरीर
के प्रति भी
सजग रह सको,
अगर तुम इसको
भी जी सको—तो तुम
अमृत हो गए।
‘’भोजन करते
हुए या पानी
पीते हुए भोजन
या पाना का स्वाद
ही बन जाओ। और उससे
भर जाओ।‘’
पानी पीते
हुए पानी का
ठंडापन अनुभव
करो। आंखे बंद
कर लो,
धीरे-धीरे
पीनी पीओ और उसका
स्वाद लो।
पानी की
शीतलता को महसूस
करो और महसूस
करे कि तुम
शीतलता ही बन
गए हो। जब तुम
पानी पीते हो
तो पानी की
शीतलता
तुममें
प्रवेश करती
है। तुम्हारे
अंग बन जाती
है। तुम्हारा
मुंह शीतलता
को छूता है।
तुम्हारी
जीभ उसे छूती
है। और ऐसे वह
तुम में
प्रवेश हो जाती
है। उसे तुम्हारे
पूरे शरीर में
प्रविष्ट
होने दो। उसकी
लहरों को
फैलने दो और तुम
अपने पूरे
शरीर में वह
शीतलता महसूस
करोगे। इस
भांति तुम्हारी
संवेदनशीलता
बढ़ेगी।
विकसित होगी। और
तुम ज्यादा
जीवंत, ज्यादा
भरे पूरे हो
जाओगे।
हम हताश,
रिक्त और खाली
अनुभव करते
है। और हम
कहते है कि
जीवन रिक्त
है। लेकिन
जीवन के रिक्त
होने का कारण
हम स्वयं है।
हम जीवन को
भरते ही नहीं है।
हम उसे भरने नहीं
देते है। हमने
अपने चारों और
एक कवच लगा
रखा है—सुरक्षा
कवच। हम वलनरेबल
होने से, खुले
रहने से डरते
है। हम अपने
को हर चीज से
बचाकर रखते
है। और तब हम
कब्र बन जाते
है। मृत
लाशों।
तंत्र कहता
है: जीवंत बनो,
क्योंकि
जीवन ही
परमात्मा
है। जीवन के
अतिरिक्त
कोई परमात्मा
नहीं है। तुम
जितने जीवंत
होगे उतने ही
परमात्मा
होगे। और जब
समग्रता
जीवंत होगे तो
तुम्हारे
लिए कोई मृत्यु
नहीं है।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग-3
प्रवचन—33
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