ध्वनि-संबंधी
दूसरी विधि:
ध्वनि के
केंद्र में स्नान
करो, मानो
किसी
जलप्रपात की
अखंड ध्वनि
में स्नान कर
रहे हो। या
कानों में
अंगुलि डालकर नांदों
के नाद, अनाहत
को सुनो।
इस
विधि का
प्रयोग कई ढंग
से क्या जा
सकता है। एक
ढंग यह है कि
कहीं भी बैठकर
इसे शुरू कर
दो। घ्वनियां
तो सदा मौजूद
है। चाहे
बाजार हो या
हिमालय की गुफा,
घ्वनियां सब
जगह है। चुप
होकर बैठ जाओ।
और
ध्वनियों के
साथ एक बड़ी
विशेषता है,
एक बड़ी खूबी
है। जहां भी,
जब भी कोई ध्वनि
होगी, तुम
उसके केंद्र
होगे। सभी घ्वनियां
तुम्हारे
पास आती है,
चाहे वे कहीं
से आएं, किसी
दिशा से आएं।
आँख के साथ,
देखने के साथ
यह बात नहीं है।
दृष्टि
रेखाबद्ध है।
मैं तुम्हें
देखता हूं तो
मुझसे तुम तक
एक रेखा खिंच
जाती है।
लेकिन ध्वनि वर्तुलाकार
है; वह
रेखाबद्ध
नहीं है। सभी घ्वनियां
वर्तुल में
आती है। और
तुम उसके
केंद्र हो। समूचे
ब्रह्मांड का
केंद्र। हरेक
ध्वनि
वर्तुल में
तुम्हारी
तरफ यात्रा कर
रही है।
यह
विधि कहती है:
‘’ध्वनि के
केंद्र में स्नान
करो।‘’
अगर
तुम इस विधि
का प्रयोग कर
रहे हो तो तुम
जहां भी हो
वहीं आंखें
बंद कर लो और
भाव करो कि सारा
ब्रह्मांड ध्वनियों
से भरा है।
तुम भाव करो
कि हरेक ध्वनि
तुम्हारी और
बही आ रही है।
और तुम उसके
केंद्र हो। यह
भाव भी कि मैं
केंद्र हूं
तुम्हें
गहरी शांति से
भर देगा। सारा
ब्रह्मांड
परिधि बन जाता
है। और तुम
उसके केंद्र
होते हो। और
हर चीज, हर ध्वनि
तुम्हारी
तरफ बह रही
है।
‘’मानों
किसी
जलप्रपात की
अखंड ध्वनि
में स्नान कर
रहे हो।‘’
अगर
तुम किसी
जलप्रपात के
किनारे खड़े
हो तो वहीं
आँख बंद करो
और अपने चारो
और से ध्वनि
को अपने ऊपर बरसतें
हुए अनुभव
करो। और भाव
करो कि तुम
उसके केंद्र
हो।
अपने
को केंद्र
समझने पर यह
जोर क्या है? क्योंकि
केंद्र में
कोई ध्वनि
नहीं
है; केंद्र
ध्वनि शून्य
है। यही कारण
है कि तुम्हें
ध्वनि सुनाई
पड़ती है; अन्यथा
नहीं सुनाई
पड़ती। ध्वनि
ही ध्वनि को
नहीं सुन
सकती। अपने
केंद्र पर ध्वनि
शून्य होने
के कारण तुम्हें
घ्वनियां
सुनाई पड़ती
है। केंद्र तो
बिलकुल ही मौन
है, शांत है।
इसलिए तुम ध्वनि
को अपनी और
आते, अपने
भीतर प्रवेश
करते, अपने को
घेरते हुए
सुनते हो।
अगर
तुम खोज लो कि
यह केंद्र
कहां है, तुम्हारे
भीतर वह जगह
कहां है। जहां
सब घ्वनियां
बहकर आ रही
है। तो अचानक
सब घ्वनियां
विलीन हो
जाएंगी और तुम
निर्ध्वनि
में, ध्वनि
शून्यता में
प्रवेश कर
जाओगे। अगर
तुम उस केंद्र
को महसूस कर
सको जहां सब
ध्वनियां
सुनी जाती है
तो अचानक
चेतना भीतर
मुड़ जाती है।
एक क्षण तुम निर्ध्वनि
से भरे संसार
को सुनोंगे और
दूसरे ही क्षण
तुम्हारी
चेतना की और
मुड़ जाएगी और
तुम बस ध्वनि
को, मौन को सुनोंगे।
जो जीवन का
केंद्र है। और
एक बार तुमने
उस ध्वनि को
सुन लिया तो
कोई भी ध्वनि
तुम्हें
विचलित नहीं
कर सकती। वह
तुम्हारी और
आती है; लेकिन
वह तुम तक पहुँचती
नहीं है। वह
सदा तुम्हारी
और बह रही है।
लेकिन वह कभी
तुम तक पहुंच नहीं
पाती। एक
बिंदु है जहां
कोई ध्वनि
नहीं प्रवेश
करती है; वह
बिंदु तुम हो।
बीच
बाजार में इस
विधि का
प्रयोग करो।
बाजार जैसा कोई
दूसरा स्थान
नहीं है। वह
शोरगुल है,
पागल शोरगुल
से इस कदर भरा
रहता है।
लेकिन इस
शोरगुल के
संबंध में
सोच-विचार मत
करो; यह मत कहो
कि यह ध्वनि
अच्छी है, यह
बुरी है। यह
उपद्रव पैदा
करती है, यह सुंदर
और लयपूर्ण
है। ध्वनियों
के संबंध में
तुम्हें
सोच-विचार
नहीं करना है।
तुम्हारा यह
काम नहीं है।
कि जो भी ध्वनि
तुम्हारी
तरफ बहकर आए
उस पर तुम
विचार करो कि
यह काम नहीं
है। कि यह अच्छी
है, बुरी है,
सुंदर है, तो
तुम इतना ही
स्मरण रखना
है कि मैं
केंद्र हूं और
सभी ध्वनियां
बहकर मेरे पास
आ रही है।
शूरू-शूरू
में घबराहट
होगी; क्योंकि
तुम अपने
चारों और उठने
वाली सब ध्वनियों
को नहीं सुनते
हो। तुम सुनने
में चुनाव
करते हो। अब
वैज्ञानिक
शोध करती है
कि हम सिर्फ
दो प्रतिशत
सुनते है। अट्ठानवे
प्रतिशत
अनसुना कर
देते है। अगर
तुम शत प्रतिशत
सुनो तो तुम
पागल हो
जाओगे। अपने
चारों और की आवाज़ों
को शत-प्रतिशत
सुनकर तुम
पागल होने सक
नहीं बच सकते।
पहले
यह समझा जाता
था कि इंद्रियाँ
द्वार दरवाजे
है। जिनसे
बाहर की
दुनियां भीतर
प्रवेश करती
है। लेकिन अब
वे कहते है कि
ऐसी बात नहीं
है। वे दरवाजे
नहीं है, वे
उतनी खुली नहीं
है जितना समझा
जाता था। वे
द्वार नहीं
है, बल्कि वे
नियंत्रण का,
सेंसर का काम
करती है; वे पहरेदार
की तरह हर
क्षण देखती
रहती है कि
किसे भीतर
जाने दिया जाए
और किसे नहीं।
दो प्रतिशत सुनकर
ही तो तुम
पागल हो गए हो;
शत-प्रतिशत
सुनकर तुम्हारा
क्या हाल
होगा।
तो
जब तुम इस
विधि का
प्रयोग शुरू
करोगे तो तुम्हारा
सिर चकराने
लगेगा। उस से
मत डरना।
केंद्र पर
रहो, और जो कुछ
भी हो रहा है
उसे होने दो।
सब कुछ को आने
दो। अपनी
इंद्रियों को
शिथिल करो, पहरेदारों
को आराम करने
दो। सब कुछ को विश्राम
में जाने दो
और तब सब कुछ
को अपने भीतर
प्रवेश करने
दो। अब तुम ज्यादा
तरल हो गए हो;
तुम खुले हो।
और सब ध्वनियां
सब आवाजें
तुम्हारी और
आ रही है, तब ध्वनियों
के साथ चल
पड़ो और इस
केंद्र पर पहु्ंचो
जहां तुम उन्हें
सुनते हो।
ध्वनियों
काम में नहीं
सुनी जाती है।
कान उन्हें
सुन भी नहीं
सकते; कान सिर्फ
संचारण करने
का काम करते
है। और इस
संचारण के
क्रम में वे
उस सब को छांट
देते है जो
तुम्हारे
लिए जरूरी
नहीं है। वे
चुनाव करते
है, वे छाँटते
है, और फिर वे
चुनी हुई ध्वनियां
तुम्हारे
भीतर प्रवेश
करती है। अब
भीतर खोजों कि
तुम्हारा
केंद्र कहां
है। कान केंद्र
नहीं है। तुम
कहीं किसी
गहराई में
सुनते हो। कान
तो कुछ चुनी
हुई ध्वनियों
को ही भेजते
है। तुम कहां
है? तुम्हारा
केंद्र कहां
है?
अगर
तुम ध्वनियों
के साथ प्रयोग
जारी रखते हो
तो देर अबेर
तुम जानकर
चकित होगे कि
यह केंद्र सिर
में नहीं है।
मालूम तो होता
है कि सिर में
है। क्योंकि
तुम ध्वनि
नहीं, शब्द
सुनते हो, शब्दों
के लिए तो सिर
ही केंद्र है;
लेकिन ध्वनि
के लिए वह
केंद्र नहीं
है। यही कारण
है कि जापान
में वह कहते
है कि आदमी
सिर से नहीं,
पेट से सोचता
है। जापान में
उन्होंने
बहुत लंबे समय
से ध्वनि पर काम
किया है।
तुमने
मंदिरों में
घंटे लगे देखे
होंगे। वे वहां
साधकों के लिए
ही ध्वनि
पैदा करने के
लिए रखे गए
है। कोई साधक
ध्यान कर रहा
है और घंटे बजाएं
जा रहे है।
तुम्हें
लगेगा कि इस
घंटे की आवाज
से साधक के
लिए बाधा खड़ी
हो रही है।
लगेगा कि ध्यान
करने वाले को
बाधा महसूस हो
रही है। यह क्या
उपद्रव है।
मंदिर में आने
वाला हरेक
दर्शनार्थी
घंटे को बजा
देता है।
पर
यह आवाज
उपद्रव नहीं
है। वह साधक
तो इस ध्वनि
की प्रतीक्षा
कर रहा है। हर
दर्शनार्थी इसमे
सहयोग दे रहा
है। बार-बार
घंटा बजता है।
ध्वनि होती
है और ध्यानी
फिर अपने में
डूब जाता है।
वह उस केंद्र को
देखता है जहां
वह ध्वनि
गहरे में
उतरती जाती
है। पहली चोट
दर्शनार्थी
घंटे पर लगाता
है। दूसरी चोट
कही ध्यानी
के भीतर होती
है। यह दूसरी
चोट कहां लगती
है।
यह
दूसरी चोट सदा
पेट में लगती
है; सिर में
कभी नहीं। अगर
चोट सिर में
लगे तो समझना
चाहिए कि वह
ध्वनि नहीं
है, शब्द है।
तब तुमने ध्वनि
के संबंध में
सोचना शुरू कर
दिया। तब शुद्धता
नष्ट हो गई।
अभी
गर्भस्थ
शिशुओं पर
बहुत अनुसंधान
हो रहा है।
उन्हें भी ध्वनि
का आघात लगता
है। और वे भी
प्रतिक्रिया
करते है। वे
भाषा के प्रति
प्रतिक्रिया
नहीं कर सकते,
अभी उनके सिर
नहीं है। उन्हें
अभी तर्क करना
नहीं आता है।
वे भाषा और समाज-सम्मत
नियम नहीं
जानते है। वे
भाषा नहीं
जानते है,
लेकिन वे ध्वनि
ठीक कसे सुनते
है। और हर ध्वनि
मां से ज्यादा
बच्चे को
प्रभावित
करती है। क्योंकि
मां ध्वनि
नहीं सुनत वह
शब्द सुनती
है। और हम
पागल और अराजक
आवाजें पैदा करते
रहते है और वे
आवाजें
गर्भस्थ बच्चों
को पीडित कर
रही है। वे
बच्चे पागल
पैदा होंगे।
तुमने उन्हें
बहुत उपद्रव
में डाल दिया
है।
ध्वनि
से पौधे भी
प्रभावित
होते है। अगर
पौधों के निकट
संगीत पूर्ण
ध्वनि पैदा
की जाए तो
उनका विकास
अधिक होता है।
और उनके निकट
अराजक ध्वनि
पैदा करने से
विकास कम होता
है। तुम उन्हें
बढ़ने में मदद
दे सकते हो।
ध्वनियों के
द्वारा तुम
उन्हें बहुत
मदद दे सकते
हो।
अब
तो वह कहते है
कि ट्रैफिक के
शोर से,
आधुनिक शहरों
में होने वाले
यातायात के शोर
से आदमी पागल
हुआ जा रहा
है। ट्रैफिक
का शोर अराजक
है, उसमे जरा
भी लयबद्धता
नहीं है। कहते
है कि यह शोर
अपनी चरम सीमा
पर पहुंच गया
है। और अगर वह
इससे भी आगे
गया तो आदमी
के लिए कोई
आशा नहीं
रहेगी।
ये
ध्वनियां निरंतर
तुम पर आघात
कर रही है।
अगर तुम उनके
संबंध में
विचार करोगे
तो वह
तुम्हारे
सिर पर चोट
करेंगी। और
सिर केंद्र
नहीं है।
केंद्र नाभि
में है—नाभि
केंद्र, इसलिए
ध्वनियों के
संबंध में
विचार मत करो।
सभी
मंत्र
अर्थहीन ध्वनियां
है। अगर कोई
गुरु किसी
मंत्र को अर्थ
बताता है तो
समझना चाहिए
कि वह मंत्र ही
नहीं है। यह
जरूरी है कि
मंत्र में कोई
अर्थ न हो।
उसकी
उपयोगिता है;
लेकिन उसमें
कोई अर्थ नहीं
है। वह तुम्हारे
भीतर कुछ
करेगा। लेकिन
उसमे कोई अर्थ
नहीं है। उसे
तुम्हारे
भीतर शुद्ध ध्वनि
के रूप में ही
काम करना है।
यही कारण है
कि मंत्र का
विकास हुआ।
उसमें कोई
अर्थ नहीं है।
वह अर्थहीन
है। वह शुद्ध ध्वनि
है। अगर तुम्हारे
भीतर यह शुद्ध
ध्वनि पैदा
की जा सके, अगर
तुम इसे पैदा
कर सको तो भी
यही विधि
प्रयोग की जा
सकती है।
‘’ध्वनि
के केंद्र में
स्नान करो,
मानों किसी
जलप्रपात की
अखंड ध्वनि
में स्नान कर
रहे हो। या
कानों में
अंगुलि डालकर नांदों
के नाद, अनाहत
नाद को सुनो।‘’
तुम
अंगुलि के
जरिए कानों को
बंद करके भी
ध्वनि पैदा
कर सकते हो।
कोई भी चीज जो
बलपूर्वक कानों
को बंद कर दे,
काम दे देगी।
उस हालत में भी
एक ध्वनि
सुनाई देती
है। वह कौन सी
ध्वनि है जो
कान के बंद
करने पर सुनाई
देती है? और उसे तुम
क्यों सुनते
हो?
अमेरिका
में ऐसी घटना
घटी। किसी नगर
के पास से
रेलगाड़ी
गुजरती थी।
आधी रात उसके
गुजरने का समय
था; कोई दो
बजे। फिर एक
नई लाइन का
उदघाटन हुआ;
पुरानी लाइन
से गाड़ी का
चलना बंद हो
गया। लेकिन एक
बड़ी हैरानी
की बात हुई कि
जिस इलाके से
पुरानी लाइन
गुजरती थी और
जिधर से गाड़ी
का चलना बंद
हो गया था। उन
लोगों ने
पुलिस से
शिकायत की कि
उन्हें रात के
दो बजे के समय
कुछ रहस्यपूर्ण
आवाज सुनाई
देती है। और
इस तरह की
इतनी शिकायतें
आईं कि पुलिस
को
जांच-पड़ताल
करनी पड़ी।
और
पहली बार पता
चला कि अगर
कोई ध्वनि
तुम निरंतर
सुनते रहे हो
तो और फिर वह
बंद हो जाए तो
तुम उसकी
अनुपस्थिति
को सुनने
लगोगे। यह मत
सोचो कि बस
तुम्हें
उसका सुनाई
देना बंद हो
जाएगा; उसका
अभाव सुनाई
देने लगेगा।
यह
ऐसा ही है कि
मैं यहां तुम्हें
देख रहा हूं
और फिर अगर
मैं आंखें बंद
कर लूं तो
तुम्हारा
निगेटिव, तुम्हारा
उलटा रूप
दिखाई देने
लगेगा। अगर
तुम खिड़की को
देखो और फिर
आंखें बंद कर
लो तो तुम्हें
खिड़की का
निगेटिव
दिखाई देने
लगेगा। और यह
निगेटिव
चित्र इतना
जोरदार हो
सकता है कि
अगर तुम अचानक
दीवार को
देखो, तो वह
दीवार पर
प्रक्षेपित
हो जाएगा और
तुम उसे देख
सकोगे।
‘’या
कानों में
अंगुलि डालकर नांदों
के नाद, अनाहत
को सुनो।‘’
वह
निगेटिव ध्वनि
ही अनाहत
कहलाती हे। क्योंकि
वह दरअसल ध्वनि
नहीं है। ध्वनि
की अनुपस्थिति
है। या वह
नैसर्गिक ध्वनि
है; क्योंकि
वह पैदा नहीं
की जाती है।
सभी ध्वनियां
पैदा की जाती
है। लेकिन तुम
जो ध्वनि कान
बंद करके
सुनते हो वह
अनाहत ध्वनि
है। अगर सारा
संसार पूरी
तरह मौन हो जाए तो
तुम उस मौन का
भी सुनोंगे।
पास्कल
ने कही कहा है कि
जिस क्षण मैं
अनंत
ब्रह्मांड की
सोचता हूं,
उसका मौन मुझे
बहुत भयभीत कर
देता है। उसे
मौन भयभीत
करता है, क्योंकि
ध्वनियां तो
पृथ्वी पर ही
है। ध्वनि के
लिए वायुमंडल
चाहिए। जिस
क्षण तुम पृथ्वी
के वायुमंडल
के बाहर निकल
जाते हो वहां
कोई ध्वनि
नहीं मिलेगी।
वहां परम मौन
है। उस मौन को
तुम पृथ्वी
पर भी पैदा कर
सकते हो, अगर
तुम अपने
दोनों कान
पूरी तरह से
बंद कर लो।
तूम धरती पर
होकर भी धरती
पर नहीं हो,
तुम ध्वनि से
नीचे उतर गये।
अंतरिक्ष
यात्रियों को
अनेक चीजों के
लिए प्रशिक्षित
किया जा रहा
है। उनमें उन्हें
मौन में रहना
भी सिखाया
जाता है। उन्हें
ध्वनि शून्य
कक्षों में
रखकर निर्ध्वनि
में रहने का
अभ्यास
कराया जाता
है। अन्यथा
वे अंतरिक्ष
में जाकर पागल
हो जाएंगे। उन्हें
अनेक समस्यों
का सामना करना
पड़ता है। उन्हें
सबसे गंभीर
समस्या यह है
कि मनुष्य के
ध्वनि भरे
जगत के बाहर
कैसे रहा जाए।
वहां तुम अलग
थलग पड़ जाते
हो। अकेले हो
जाते हो।
अगर
तुम किसी जंगल
में खो जाओ और
कोई आवाज तुम्हें
सुनाई दे तो
उसके स्त्रोत
को न जानते
हुए भी तुम कम
भयभीत होते
हो। तुम्हें
लगता है कि
कोई है। तुम
अकेले नहीं
हो; कोई है। सन्नाटे
में तुम अकेले
हो जाते हो।
अगर तुम भीड़ में
अपने दोनों
कान पूरी तरह
से बंद करके
अपने में डूब
जाओ। तो तुम
अकेले हो
जाओगे। भीड़
विलीन हो
जाएगी। क्योंकि
तुम शोरगुल से
ही भीड़ को
जानते हो।
‘’कानों
में अंगुलि
डालकर नांदों
के नाद, अनाहत
नाद को सुनो।‘’
यह
ध्वनियों की
अनुपस्थिति
बहुत ही
सूक्ष्म
अनुभव है। यह
तुम्हें क्या
दे सकता है? जिस
क्षण ध्वनियों
नहीं रहती है,
तुम अपने पर आ
जाते हो। ध्वनि
के साथ तुम
अपने से दूर
चले जाते हो।
ध्वनि के साथ
तुम दूसरे की
तरफ चल पड़ते
हो। इसे समझने
की कोशिश करो।
ध्वनि से हम
दूसरे से
संबंधित होते
है। दूसरे से
संवाद करते
है।
इसीलिए
एक अंधा आदमी
भी उतनी
कठिनाई में
नहीं होता
जितनी कठिनाई
में गूंगा
होता है। किसी
बहरे आदमी का
निरीक्षण करो;
वह अमानुषिक
मालूम पड़ता
है। अंधा आदमी
अमानुषिक
नहीं मालूम
पड़ता, लेकिन
गूंगा अमानुषिक
मालूम पड़ता
है। गुँगा
आदमी अंधे से
अधिक कठिनाई
में होता है।
अंधा आदमी देख
नहीं सकता।
लेकिन वह
दूसरे से
संवाद तो कर
सकता है। वह
समाज और
परिवार
वह बडी मनुष्यता
का अंग हो
सकता है। वह
बातचीत कर
सकता है। गुँगा
आदमी अचानक
समाज से बहार
पड़ जाता है।
तुम
कल्पना करो
कि तुम एक
वातानुकूलित
और साउंड-प्रूफ
कांच के कमरे
में हो। वहां
न कोई ध्वनि
पहूंच सकती
है। वहां तुम
चीख नह सकते।
अपने को अभिव्यक्त
करने के लिए
कुछ भी नहीं
कर सकते हो।
एक बहरा आदमी
सतत ऐसे ही दुख
स्वप्न में
जीता है।
संवाद के बिना
वह मनुष्यता
का अंग नहीं
हो पाता है।
अभिव्यक्ति
के बिना उसके
जीवन का फूल
नहीं खिल सकता
है। वह किसी
के भी संपर्क
में नहीं आ सकता
है। वह तुम्हारे
साथ होकर भी
तुमसे बहुत
दूर रहता है।
अगर
ध्वनि दूसरे
तक पहुंचने का
वाहन है तो
मौन स्वयं तक
पहुंचने का
वाहन है। ध्वनि
के द्वारा तुम
दूसरे के साथ
संवाद करते हो;
मौन के द्वारा
तुम अपने में,
अपने अतल में
उतर जाते हो।
यही कारण है
कि अनेक
विधियों में
अंतर्यात्रा
के लिए मौन को
काम में लाया
जाता है।
बिलकुल गूंगे
और बहरे हो
जाओ—जरा देर
के लिए ही
सही। तब तुम
अपने अतिरिक्त
और कहीं नहीं
जा सकते हो।
अचानक तुम्हें
लगेगा की तुम
अपने अंतस में
विराज गये हो।
गुरूजिएफ
अपने शिष्यों
को लंबे मौन
में जाने को
कहता था। वह
इस बात पर जोर
देता था कि
मौन में न
सिर्फ भाषा का
व्यवहार बंद
रहे। बल्कि
आँख या हाथ के
इशारे से भी
बातचीत न की
जाए। किसी तरह
का भी संवाद
निषिद्ध था।
मौन का अर्थ
ही है, संवाद
शून्यता।
तुमने
शायद ये देखा
होगा कि जो
लोग खूब बात
करना जानते है
वे समाज में
प्रसिद्ध हो
जाते है; जो
अपने विचारों
को ठीक से
संप्रेषित कर
सकते है वे
नेता हो जाते
है। धार्मिक,
राजनीतिक या
साहित्यक,
किसी भी
क्षेत्र में
यही होता है
कि जो कुशलता
से अपने विचार
व्यक्त कर
सकते है, जो
निपुणता से
बातचीत कर
सकते है, वे
नेता बन जाते
है? क्योंकि
वे ज्यादा से
ज्यादा
लोगों तक
सर्वसाधारण
तक पहुंच सकते
है।
क्या
तुमने कभी
सुना है कि
कोई गूंगा
आदमी नेता हुआ
है? अंधा
आदमी आसानी से
नेता हो सकता
है। कोई कठिनाई
नहीं है।
कभी-कभी तो वह
बड़ा नेता हो
जाता है, क्योंकि
उसकी आंखों की
उर्जा भी उसके
कानों को मिल
जाती है। कोई
गूंगा आदमी
जीवन के किसी
क्षेत्र में
नेता नहीं हो
सकता है। उसमे
संवाद की क्षमता
ही नहीं है।
वह समाजिक
नहीं हो सकता।
समाज
भाषा है।
सामाजिक जीवन
के लिए, संबंध
के लिए भाषा
आधारभूत है।
भाषा को
छोड़कर तुम
अकेले पड़
जाते हो। पृथ्वी
करोड़ो लोगों
से भरी हो;
लेकिन भाषा के
खोते ह तुम
अकेले हो
जाओगे।
मेहर
बाबा निरंतर
चालीस वर्षों
तक मौन में रहे।
मौन में वे क्या
करते थे? सच तो यह है
कि मौन में
तुम कुछ नहीं
कर सकते। क्योंकि
हर कृत्य
किसी न किसी
भांति दूसरों
से संबंधित
होता है। यदि
कल्पना में
भी तुम कुछ
करोगे तो तुम्हें
दूसरों को कल्पित
करना होगा।
तुम अकेले
नहीं कर सकते
हो। अगर तुम
बिलकुल अकेले
हो तो कृत्य
असंभव हो
जाएगा। करना दूसरों
से संबंधित
है। यदि तुम
भीतर भाषा
छोड़ दो तो सब
करना समाप्त
हो जाता है।
तुम तो हो,
लेकिन तुम कुछ
कर नहीं रहे
हो।
कभी-कभी
मेहर बाबा
अपने शिष्यों
को लिखकर
सूचित करते थे
कि अमुक तारीक
को मैं अपना
मौन तोड़ने जा
रहा हूं।
लेकिन उस दिन
के आने पर वे
मौन नहीं
तोड़ते थे। यह
सिलसिला चालीस
वर्षों तक
चलता रहा। और
तब वे मौन ही
मर गए। बात क्या
थी। वे क्यों
कहते थे कि
मैं अमुक वर्ष,
माह और दिन को
अपना मौन तोडूगा।
लेकिन उसे
तोड़ नहीं
पाते थे? उन्हें
अपना यह
कार्यक्रम क्यों
बार-बार स्थगित
करना पड़ता
था। उनके भीतर
क्या हो रहा
था? वे अपना
वचन क्यों
नहीं पूरा कर
पाते थे?
अगर
तुम लंबे अरसे
के लिए मौन
में रह जाओ,
उसे जान लो तो
तुम्हारे
लिए ध्वनि के
जगत में लौटना
असंभव हो
जाएगा। एक
नियम है जिसका
कि पालन मेहर
बाबा ने नहीं
किया और इसीलिए
वे मौन से
नहीं
लौट सके।
नियम यह है कि
किसी को तीन
साल से ज्यादा
समय तक मौन
में नहीं रहना
चाहिए। अगर
तुम उस सीमा
को पार कर जाओ
तो तुम ध्वनि
के जगत में
फिर वापस नहीं
आ सकते। तुम
प्रयेत्न कर
सकते हो।
लेकिन यह
असंभव है। ध्वनि
से मौन में
जाना आसान है।
लेकिन मौन से
ध्वनि में
लौटना बहुत
कठिन है। तीन
वर्षो के बाद
बहुत बातें
कठिन हो जाती
है। तब मैकेनिज्म
वही नहीं रह
जाता है।
पुराने ढंग से
काम नहीं कर
सकता है। उसको
निरंतर उपयोग
में लाना जरूरी
है। कोई ज्यादा
से ज्यादा
तीन साल मौन
रह सकता है।
उससे आगे उसे
खींचने से ध्वनि
और शब्द पैदा
करने वाला मैकेनिज्म
बेकार हो जाता
है। वह मर
जाता है।
दूसरी
बात यह है कि
अपने साथ
अकेले
रहते-रहते
आदमी इतना मौन
और शांत हो
जाता है कि अब
उसके लिए बातचीत
बहुत दुखदायी
हो जाती है।
तब किसी से
बातचीत करने
में उसे लगेगा
कि मैं दीवार
से बात कर रहा
हूं। क्योंकि
जो व्यक्ति
इतने दिन मौन
रह गया है वह
जानता है कि
तुम उसे समझ
पाओगे। वह यह
भी जानता है
कि मैं वही
नहीं कह रहा
हूं जो कहना
चाहता हूं।
पूरी बात ही
समाप्त हो
गई। इतने गहरे
मौन के बाद अब
वह ध्वनियों
के जगत में
नहीं लौट सकता
है।
यही
कारण है कि
मेहर बाबा
कोशिश करने के
बावजूद फिर
बोल नहीं पाए।
और वे कुछ
कहना चाहते थे;
उनके पास कुछ
कहने योग्य
भी था। लेकिन
नीचे तल पर
उतरने का
यंत्र ही व्यर्थ
हो चला था।
ऐसे जो वे
कहना चाहते थे
उसे वे कहे
बिना चले गए।
यह
समझना उपयोगी
होगा। जो भी
करो, उसके
विपरीत भी
करते चलो।
विपरीत में
गति करना मत भूलों।
कुछ घंटों के
लिए मौन रहो
और बातचीत
करो। किसी एक
ही ढांचे में
बंद मत हो
जाओ। तब तुम
अधिक जीवित और
गतिमान
रहोगे। कुछ
दिनों तक ध्यान
करो, और फिर
उसे अचानक बंद
कर दो। और कुछ
ऐसा करो की
जिससे तनाव
निर्मित हो
सके। तब फिर ध्यान
में उतर जाओ।
विपरीत छोरों
के बीच गति
करते रहो;
उससे तुम ज्यादा
जीवित और गति
मान रहोगे।
बंध मत जाओ।
अटक मत जाओ।
अटक मत जाओ।
एक बार अटक गए
तो तुम दूसरे
छोर पर गति
नहीं कर
पाओगे। और
दूसरे छोर पर
गति करना ही
जीवन है। यह
गति गई कि तुम
भी गए। तब तुम गुर्दा
हो। यह गति
बहुत शुभ है।
गुरजिएफ
अपने शिष्यों
को आकस्मिक
बदलाहट करना
सिखाता था।
पहले वह उपवास
पर जोर देता
था। और फिर
कहता था कि
जितना खा सको
खाओ। और फिर
उपवास करवाता
था। कुछ शिष्यों
से वह कहता था
लगातार कुछ
दिन-रात जागते
रहो। और फिर
कुछ दिन-रात
सोते रहो।
ध्रुवीय
विपरीतताओं
के बीच गति
करते रहने से जीवंतता
और गति उपलब्ध
होती है।
‘’या
कानों में
अंगुलि डालकर नांदों
के नाद, अनाहत
को सुनो।‘’
एक
ही विधि में
दो विपरीत
बातें कही गई
है।
‘’ध्वनि
के केंद्र में
स्नान करो।
मानो किसी
जलप्रपात की
अखंड ध्वनि
में स्नान कर
रहे हो।‘’ यक एक
अति है। ‘’या
कानों में अंगुलि
डालकर नांदों
के नाद को
सुनो।‘’ यह
दूसरी अति है।
एक हिस्सा
कहता है कि
अपने केंद्र
पर पहुंचने
वाली ध्वनियों
को सुनो और
दूसरा हिस्सा
कहता है कि सब
ध्वनियों को
बंद कर ध्वनियों
की ध्वनि को सुनो।
एक ही विधि
में दोनों को
समाहित करने
का एक विशेष
करण है। ताकि
तुम एक छोर से
दूसरे छोर पर
गति कर सको।
यहां
‘’या’’ शब्द
चुनाव करने को
नहीं कहता है
कि इनमें से
किसी एक को
प्रयोग करना
है। नहीं,
दोनों को
प्रयोग करो।
इसीलिए एक
विधि में
दोनों को
समाविष्ट
किया गया है।
पहले कुछ
महीने तक एक
का प्रयोग करो
और फिर कुछ
महीने बाद
दूसरे का
प्रयोग करो।
इस प्रयोग से
तुम ज्यादा
जीवंत होगे।
और तुम दोनों
छोरों को जान
लोगे। और अगर
तुम दोनों
छोरों के बीच
आसानी से डोलते
रहो तो तुम
सदा-सर्वदा
युवा बने
रहोगे। जो लोग
सदा एक ही छोर
से अटके रहते
है वह बूढे हो
जाते है। और
मर जाते है।
ओशो
विज्ञान भैरव
तंत्र, भाग—2
प्रवचन—25
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