ध्वनि-संबंधी
पाँचवीं विधि:
‘’तार
वाले वाद्यों
को सुनते हुए
उनकी संयुक्त
केंद्रित ध्वनि
को सुनो; इस
प्रकार
सर्वव्यापकता
को उपलब्ध
होओ।
वही
चीज।
‘’तार
वाले वाद्यों
को सुनते हुए
उनकी संयुक्त
केंद्रीय ध्वनि
को सुनो; इस
प्रकार
सर्वव्यापकता
को उपलब्ध
होओ।‘’
तुम
किसी वाद्य को
सुन रहे हो—सितार
या किसी अनय
वाद्य को।
उसमें कई स्वर
है। सजग होकर
उसके
केंद्रीय स्वर
को सुनो। उस
स्वर को जो
उसका केंद्र
हो और उसके
चारों और सभी स्वर
घूमते हों;
उसकी आंतरिक
धारा को सुनो,
जो अन्य सभी
स्वरों को
सम्हाले हुए
हो। जैसे तुम्हारे
समूचे शरीर को
उसका मेरुदंड,
उसकी रीढ़ सम्हाले
हुए है। वैसे
ही संगीत की
भी रीढ़ होती
है। संगीत को
सुनते हुए सजग
होकर उसमे
प्रवेश करो और
उसके मेरुदंड
को खोजों—उस
केंद्रीय स्वर
को खोजों जो
पूरे संगीत को
सम्हाले हुए
है। स्वर तो
आते जाते रहते
है। लेकिन
केंद्रीय तत्व
प्रवाहमान रहता
है। उसके
प्रति जागरूक
होओ।
बुनियादी
रूप से मूलत:
संगीत का
उपयोग ध्यान
के लिए किया
जाता था।
भारतीय संगीत
का विकास तो
विशेष रूप से
ध्यान की
विधि के रूप
में ही हुआ
था। वैसे ही
भारतीय नृत्य
का विकास भी
ध्यान विधि
के लिए के लिए
तैयार किया
गया था। संगीतज्ञ
या नर्तक के
लिए ही नहीं
श्रोता या
दर्शक के लिए
भी वे गहरे ध्यान
के उपाय थे।
नर्तक
या संगीतज्ञ
मात्र टेक्नीशियन
भी हो सकता
है। अगर उसके
नृत्य या
संगीत में ध्यान
नहीं है तो वह
टेक्नीशियन
ही है। वह
बड़ा टेक्नीशियन
हो सकता है।
लेकिन तब उसने
संगीत में आत्मा
नहीं है, शरीर
भर है। आत्मा
तो तब होती है
जब संगीतज्ञ
गहरा ध्यानी
हो। संगीत तो
बाहरी चीज है।
सितार बजाते हुए
वादक सितार ही
नहीं बजाता
है, वह भीतर
अपने बोध को
भी जगाता है।
बाहर सितार
बजता है और भीतर
उसका गहन बोध
गति करता है।
बहार संगीत
बहता रहता है;
लेकिन
संगीतज्ञ
अपने अंतरस्थ
केंद्र पर सदा
सजग बोधपूर्ण
बना रहता है।
वही बोध समाधि
बन जाता है।
वही शिखर बन
जाता है।
कहते
है कि
संगीतज्ञ जब
सचमुच
संगीतज्ञ हो
जाता है तो वह
अपना वाद्य
तोड़ देता है।
वह अब उसके
काम का न रहा
है। और अगर
उसे अब भी
वाद्य की
जरूरत पड़ती
है तो वह अभी
संगीतज्ञ
नहीं हुआ है।
वह अभी सिक्खड़
ही है। सीख
रहा है। अगर
तुम ध्यान के
साथ संगीत का
अभ्यास करते
हो, उसे ध्यान
बनाते हो तो
देर-अबेर
आंतरिक संगीत
ज्यादा महत्वपूर्ण
हो जाएगा। और
बाहरी संगीत
ने सिर्फ कम महत्वपूर्ण
रहेगा, बल्कि
अंतत: वह बाधा
बन जाएगा। तुम
सितार को उठाकर
फेंक दोगे।
तुम वाद्य को
अलग रख दोगे।
क्योंकि अब
तुम्हें
तुम्हारा
आंतरिक वाद्य
मिल गया है।
लेकिन वह बहारी
वाद्य के बिना
नहीं मिल
सकता। बहारी
वाद्य के साथ
आसानी से सजग
हुआ जा सकता
है। लेकिन जब
सजगता सध जाए
तो तुम बाहर
को छोड़ो और
भीतर गति कर
जाओ। यही बात
श्रोता के लिए
भी सही है।
लेकिन
जब तुम संगीत
सुनते हो, तो
क्या करते हो? तुम
ध्यान नहीं
करते हो; उलटे
तुम संगीत का
शराब की तरह
उपयोग करते
हो। तुम
विश्राम के
लिए उसका उपयोग
करते हो। यही दुर्भाग्य
है। यही पीड़ा
है। जो
विधियां
जागरूकता के
लिए विकसित की
गई थी उनका
उपयोग नींद के
लिए किया जा
रहा है। और
ऐसे ही आदमी
अपने को धोखा
दिये जा रहा
है। अगर तुम्हें
कोई चीज जागने
के लिए दि जा
रही है।
यही
कारण है कि
सदियों-सदियों
तक सदगुरूओं
के उपदेशों को
गुप्त रखा
गया। क्योंकि
सोचा गया कि
सोए हुए व्यक्ति
को विधियां
बताना व्यर्थ
है। वह उसे
सोने के ही
काम लगाएगा;
अन्यथा वह
नहीं कर सकता।
इसलिए
पात्रों को ही
विधियां दी
जाती थी। ऐसे
विशेष शिष्यों
को ही उनका
प्रयोग बताया
जाता था जो
अपनी नींद को
छोड़ने को
राज़ी है। जो
अपनी नींद से
जागने के लिए
तैयार है।
ओस्पेंस्की
ने अपनी एक
पुस्तक
जार्ज गुरजिएफ को यह
कहकर समर्पित
की है कि ‘’इस व्यक्ति
ने मेरी नींद
तोड़ी है।‘’
ऐसे
लोग उपद्रवी
होते है।
गुरजिएफ,
बुद्ध या जीसस
जैसे लोग
उपद्रवी ही
होंगे। यही
कारण है कि हम
उनसे बदला लेते
है। जो हमारी
नींद में बाधा
डालता है। उसे
हम सूली पर
चढ़ा देते है।
वह हमें नहीं
भाता है। हम
सुंदर सपने
देख रहे थे और
वह आकर हमारी
नींद में बाधा
डालता है। तुम
उसकी हत्या
कर देना चाहते
हो। स्वप्न
इतना मधुर था।
स्वप्न
मधुर हो चाहे
न हो, लेकिन एक
बात निश्चित
है कि वह स्वप्न
है और व्यर्थ
है, बेकार है।
और स्वप्न
अगर सुंदर है
तो ज्यादा
खतरनाक है; क्योंकि
उसमें आकर्षण
अधिक होगा। वह
नशे का काम कर
सकता है।
हम
संगीत का,
नृत्य का
उपयोग नशे के
रूप कर रहे
है। और अगर
तुम संगीत और नृत्य
का उपयोग नशे
की तरह कर रहे
हो तो वे तुम्हारी
नींद के लिए
ही नहीं, तुम्हारी
कामुकता के
लिए भी नशे का
काम देंगे। और
यह स्मरण रहे कि
कामुकता और
नींद
संगी-साथी है।
जो जितना सोया-सोया
होगा, वह उतना
ही कामुक
होगा। जो जितना
जागा हुआ
होगा, वह उतना
ही कम कामुक
होगा। कामुकता
की जड़ नींद
में है। जब
तुम जागोगे तो
ज्यादा
प्रेमपूर्ण
होओगे;
कामवासना की पूरी
ऊर्जा प्रेम
में
रूपांतरित हो
जाती है।
यह
सूत्र कहता
है: ‘’तार वाले
वाद्यों को
सुनते हुए
उनकी संयुक्त
केंद्रीय ध्वनि
को सुनो; इस
प्रकार
सर्वव्यापकता
को उपलब्ध
होओ।‘’
और
तब तुम उसे
जान लोगे जो
जानना है, जो
जानने योग्य
है। तब तुम
सर्वव्यापक
हो जाओगे। उस
संगीत के साथ,
उसके केंद्रीय
तत्व को
प्राप्त कर
तुम जाग
जाओगे। और उसे
जागरूकता के
साथ तुम
सर्वव्यापी
हो जाओगे।
अभी
तो तुम कहीं
एक जगह हो; उस
बिंदु को हम
अहंकार कहते
है। अभी तुम
उसी बिंदु पर
हो। अगर तुम
जाग जाओगे तो
यह बिंदु
विलीन हो
जायेगा। तब
तुम कहीं एक जगह
नहीं होगे, सब
जगह होगे।
सर्वव्यापी
हो जाओगे। तब
तुम सर्व ही
हो जाओगे। तुम
सागर हो
जाओगे, तुम
अनंत हो
जाओगे।
मन
सीमा है; ध्यान
से अनंत में
प्रवेश है।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र, भाग—2
प्रवचन—27
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