आत्म-स्मरण
की पहली विधि--
‘’हे
कमलाक्षी, हे,
सुभगे, गाते
हुए, देखते
हुए, स्वाद
लेते हुए यह
बोध बना रहे
कि मैं हूं, और
शाश्वत
आविर्भूत
होता है।‘’
हम है,
लेकिन हमें
बोध नहीं है
कि हम है।
हमें आत्म-स्मरण
नहीं है। तुम
खा रहे हो, या
तुम स्नान कर
रहे हो, या टहल
रहे हो। लेकिन
टहलते हुए तुम्हें
इका बोध नहीं
है कि मैं
हूं। सजग नहीं
हो कि मैं हूं
सब कुछ है,
केवल तुम नहीं
हो। झाड़ है,
मकान है, चलते
रास्ते है,
सब कुछ है; तुम
अपने चारों और
की चीजों के प्रति
सजग हो, लेकिन
सिर्फ अपने
होने के प्रति
कि मैं हूं,
सजग नहीं हो।
लेकिन अगर तुम
सारे संसार के
प्रति भी सजग
हो और अपने
प्रति सजग नहीं
हो तो सब
सजगता झूठी
है। क्यों? क्योंकि
तुम्हारा मन
सबको
प्रतिबिंबित
कर सकता है।
लेकिन वह तुम्हें
प्रतिबिंबित
नहीं कर सकता।
और अगर तुम्हें
अपना बोध है
तो तुम मन के
पार चले गए।
तुम्हारा
आत्म-स्मरण
तुम्हारे मन
के
प्रतिबिंबित
नहीं हो सकता,
क्योंकि तुम
मन के पीछे
हो। मन उन्हीं
चीजों को
प्रतिबिंबित
करता है जो
उसके सामने
होती है। तुम
केवल दूसरों
को देख सकते
हो। तुम अपने
को नहीं देख
सकेत। तुम्हारी
आंखें सबको देख
सकती है।
लेकिन अपने को
नहीं देख
सकती। अगर तुम
अपने को देखना
चाहो तो तुम्हें
दर्पण की
जरूरत होगी।
दर्पण में ही
तुम अपने आप
को देख सकते
हो। लेकिन
उसके लिए तुम्हें
दर्पण के
सामने खड़ा
होना होगा।
तुम्हारा मन
दर्पण है तो
वह सारे संसार
को प्रतिबिंबित
कर सकता है।
लेकिन तुम्हें
प्रतिबिंबित
नहीं कर सकता।
क्योंकि तुम
अपने सामने
नहीं खड़े हो
सकते। तुम सदा
पीछे हो,
दर्पण के पीछे
हो।
यह विधि
कहती है कि
कुछ भी करते
हुए—गाते हुए,
देखते हुए, स्वाद
लेते हुए—यह
बोध बना रहे
कि मैं हूं, और शाश्वत
को आविर्भूत
कर लो। आपने
भीतर उसे
आविष्कृत कर
लो जो सतत
प्रवाह है,
उर्जा है,
जीवन है, शाश्वत
है।
लेकिन
हमें अपना बोध
नहीं है। पश्चिम
में गुरजिएफ
ने आत्म-स्मरण
का प्रयोग एक
बुनियादी
विधि के रूप
में किया। वह
आत्म-स्मरण
इसी सूत्र से
लिया गया है।
और गुरजिएफ की
सारी साधना
इसी एक सूत्र
पर आधारित है।
सूत्र है कि तुम
कुछ भी करते
हुए अपने को
स्मरण रखो।
यह बहुत
कठिन होगा। यह
सरल मालूम
होता है। लेकिन
तुम भूल-भूल
जाओगे। तीन या
चार सेकेंड के
लिए भी तुम
अपना स्मरण
नहीं रख सकते।
तुम्हें
लगेगा कि मैं
अपना स्मरण
कर रहा हूं और
अचानक तुम
किसी दूसरे
विचार में चले
गए। अगर यह
विचार भी उठा
कि ठीक, मैं तो
अपना स्मरण
कर रहा हूं तो
तुम चूक गये।
क्योंकि यह
विचार आत्म-स्मरण
नहीं है। आत्म-स्मरण
में कोई विचार
नहीं होगा।
तुम बिलकुल
रिक्त और
खाली होगे। और
आत्म-स्मरण
कोई मानसिक प्रक्रिया
नहीं है। ऐसा
नहीं है कि
तुम कहते रहो
कि हां, मैं
हूं। यह कहते
ही कि हां, मैं
हूं, तुम चूक
गये। मैं हूं,
यह सोचना एक
मानसिक कृत्य
है। यह अनुभव
करो कि में
हूं। इन शब्दों
को नहीं अनुभव
करना है। उसे
शब्द मत दो,
बस अनुभव करो
कि मैं हूं, इन
शब्दों को
नहीं अनुभव
करना है। और
शब्द मत दो,
बस अनुभव करो
कि मैं हूं।
सोचो मत, अनुभव
करो।
प्रयोग
करो। कठिन है,
लेकिन अगर तुम
प्रयोग में
लगन से लगे
रहे तो यह
घटित होता है।
टहलते हुए स्मरण
रखो कि मैं
हूं। अपने
होने को महसूस
करो। ऐसा किसी
विचार या
धारणा को नह
लाना है। बस
महसूस करना
है। मैं तुम्हारा
हाथ छूता हूं,
या तुम्हारे
सिर पर अपना
हाथ रखता हूं,
तो उसे शब्द
मत दो। सिर्फ
स्पर्श को
अनुभव करो। और
इस अनुभव में
स्पर्श को ही
नहीं, स्पर्शित
को भी अनुभव
करो। तब तुम्हारी
चेतना के तीर
में दो फलक
होंगे।
तुम
वृक्षों की
छाया में टहल
रहे हो; वृक्ष
है, हवा है, उगता
सूरज है, यह है
तुम्हारे
चारो और का
संसार और तुम
उसके प्रति सजग
हो। घूमते हुए
क्षण भर के
लिए ठिठक जाओ
और अचानक स्मरण
करो कि मैं
हूं, यह शब्द
हिन अनुभूति,
क्षण मात्र के
लिए ही सही।
तुम्हें सत्य
की एक झलक दे
जायेगी। क्षण
भर के लिए तुम
अपने आस्तित्व
के केंद्र पर फेंक
दिये जाते हो।
तुम दर्पण के
पीछे हो, तुम
प्रतिबिंबों
के जगत के पार
चले गए हो। जब
तुम अस्तित्वगत
हो।
और यह
प्रयोग तुम
किसी भी समय
कर सकते हो।
इसके लिए न
किसी खास जगह
की जरूरत है
और न किसी समय
की। तुम यह
नहीं कह सकते
कि मेरे पास
समय नहीं है।
तुम भोजन करते
हुए इसका
प्रयोग कर
सकते हो। तुम
स्नान करते
हुए इसका
प्रयोग कर
सकते हो। चलते
हुए या बैठे
हुए। किसी समय
भी यह प्रयोग
कर सकते हो।
कोई भी काम
करते हुए
अचानक अपना स्मरण
करो और फिर
अपने होने की उस
झलक को जारी
रखने की चेष्टा
करो।
यह कठिन
होगा। एक क्षण
लगेगा कि यह
रहा और दूसरे
क्षण यह विदा
हो जाएगा। कोई
विचार प्रवेश
कर जायेगा।
कोई
प्रतिबिंब,
कोई चित्र मन
में तैर
जायेगा। और
तुम उसमें उलझ
जाओगे। उससे
दुःखी मत
होना, निराश
मत होना। ऐसा
होता है, क्योंकि
हम जन्मों-जन्मों
से
प्रतिबिंबों
में उलझे रहे
है। यह यंत्रवत
प्रक्रिया बन
गई है। अविलंब
आप ही आप हम प्रतिबिंबों
में उलझ जाते
हो।
लेकिन
अगर एक क्षण
के लिए भी
तुम्हें झलक
मिल गई तो वह
प्रारंभ के
लिए काफी है। और
वह क्यों
काफी है?
क्योंकि
तुम्हें कभी
दो क्षण एक
साथ नहीं
मिलेंगे। सदा
एक क्षण ही
तुम्हारे
हाथ में होता
है। और अगर
तुम्हें एक
क्षण के लिए
भी झलक मिल
जाए तो तुम
उसमें ज्यादा
बने रह सकते
हो। सिर्फ
चेष्टा की
जरूरत है। सतत
चेष्टा की।
तुम्हें एक
क्षण ही तो
दिया जाता है।
दो क्षण तो
कभी एक साथ
नहीं आते। दो
क्षणों की
फिक्र मत करो।
तुम्हें सदा
एक क्षण ही
मिलेगा। और
अगर तुम्हें
एक क्षण के
लिए बोध हो
सके तो जीवन भर
के लिए बोध
बना रह सकता
है। अब सिर्फ
प्रयत्न चाहिए।
और यह प्रयोग
सारा दिन चल
सकता है। जब
भी स्मरण आए,
अपने को स्मरण
करो।
‘’हे कमलाक्षी,
हे सुभगे,
गाते हुए,
देखते हुए, स्वाद
लेते हुए, यह
बोध बना रहे
कि मैं हूं, और
शाश्वत अविभूत
होता है।
जब
सूत्र कहता है
कि ‘’बोध बना
रहे कि मैं
हूं’’, तो तुम क्या
करोगे? क्या तुम
याद करोगे कि
मेरा नाम रमा
है, या जीसस है,
या और कुछ है? क्या
तुम स्मरण
करोगे कि मैं
फलां परिवार
का हूं, फलां
धर्म का हूं,
फलां परंपरा
का हूं। क्या
तुम याद करोगे
कि मैं अमुक
देश का हूं? अमुक
जाती का हूं,
अमुक मत का
हूं, क्या
तुम स्मरण
करोगे कि मैं
कम्युनिस्ट
हूं, या हिंदू
हूं,
ईसाई हूं? तुम क्या
स्मरण करोगे?
यह
सूत्र कहता है
कि ‘’बोध बना
रहे कि मैं
हूं’’ इतना ही
कहता है कि
मैं हूं। किसी
नाम की जरूरत
नहीं है। किसी
देश कि जरूरत
नहीं है।
सिर्फ होने की
जरूरत है। कि
तुम हो। तो
अपने से मत
कहो कि तुम
कौन हो। यह मत
कहो कि मैं यह
हूं, वह हूं।
तुम हो, इस अस्तित्व
को स्मरण
करो।
लेकिन
यह कठिन हो
जाता है। क्योंकि
हम कभी मात्र
अस्तित्व
को स्मरण
नहीं करते हम
सदा उसे स्मरण
करते है जो एक
लेबल है, पदवी
है, नाम है, वह
अस्तित्व
नहीं है। जब
भी तुम अपने
बारे में
सोचते हो, तुम
अपने नाम,
धर्म देश, इत्यादि
की सोचते हो,
तुम कभी इस
मात्र आस्तित्व
की नहीं सोचते
हो कि मैं
हूं।
तुम
इसकी साधना कर
सकते हो। अपनी
कुर्सी में या
किसी पेड़ के
नीचे विश्राम
पूर्वक बैठ
जाओ, सब कुछ
भूल जाओ और इस
अपने होने पन
को अनुभव करो।
न ईसाई हो, न
हिंदू हो, ने
बौद्ध हो, न जैन
हो, न अंग्रेज
न, न जर्मन, बस
तुम हो। इसकी
प्रतीति भर
हो, भव भर हो।
और तब तुम्हें
यह याद रखना
आसान होगा कि
मैं हूं, जो यह
सूत्र कहता
है।
‘’बोध
बना रहे कि
मैं हूं, और
शाश्वत
आविर्भूत
होता है।‘’
जिस
क्षण तुम्हें
बोध होता है
कि मैं कौन
हूं, उसी क्षण
तुम्हें
शाश्वत की
धारा में फेंक
दिया जाता है।
जो असत्य है,
उसकी मृत्यु
निश्चित है।
केवल सत्य
शेष रह जाता
है।
यही
कारण है कि हम
मृत्यु से
इतना डरते है।
क्योंकि झूठ
को मिटना ही
है। असत्य
सदा नहीं रह
सकता। और हम
असत्य से
बंधे है। असत्य
से तादात्म्य
किए बैठे है।
तुममें जो
हिंदू है। वह
तो मरेगा—जो-जो
नाम रूप है वह
मरेगा।
लेकिन
तुम्हारे
भीतर जो सत्य है। जो अस्तित्वगत
है। जो
आधारभूत है,
वह अमृत है।
जब नाम रूप
भूल जाते है
और तुम्हारी
दृष्टि भीतर
क अनाम और
अरूप पर पड़ती
है, तब तुम शाश्वत
में प्रवेश कर
गए।
‘’बोध
बना रहे कि
मैं हूं, और
शाश्वत
आर्विर्भूत
होता है।‘’
यह विधि
अत्यंत
कारगर
विधियों में
से एक है। और
हजारों साल से
सदगुरूओं ने
इका प्रयोग
किया है।
बुद्ध इसे
उपयोग में
लाए, महावीर
लाए, जीसस
लाए। और आधुनिक
जमाने में
गुरूजिएफ ने
इसका उपयोग किया।
सभी विधियों
में इस विधि
की क्षमता
सर्वाधिक है। इसका
प्रयोग करो।
यह समय लेगा,
महीनों लग
सकते है।
जब ओस्पेंस्की
गुरूजिएफ के
पास साधना कर
रहा था तो उसे
तीन म4हीने तक
इस बात के लिए
बहुत श्रम
करना पडा कि
आत्मा-स्मरण
की एक झलक
मिले। निरंतर
तीन महीने तक ओस्पेंस्की
एक एकांत घर
में रहकर एक
ही प्रयोग
करता रहा—आत्म
स्मरण का
प्रयोग। तीस
व्यक्तियों
ने उस प्रयोग
में हिस्सा
लिया। और पहले
ही सप्ताह के
खत्म
होते-होते सत्ताईस
व्यक्ति
भाग खड़े हुए।
सिर्फ तीन
बचे। सारा दिन
वे और कोई काम नहीं
करते थे।
सिर्फ स्मरण
करते थे कि
मैं हूं। सत्ताईस
लोगों को ऐसा
लगा कि इस
प्रयोग से हम
पागल हो
जाएंगे।
हमारे
विक्षिप्त
होने
के सिवाय कोई
चारा नहीं है।
और वे गायब हो
गये। वे फिर
कभी नहीं वापस
आये। वे
गुरूजिएफ से
फिर कभी नहीं मिले।
हम जैसे
है, असल में हम
विक्षिप्त
है। पागल ही
है। जो नहीं जानते
है कि हम क्या
है, हम कौन है, वे
पागल ही है। लेकिन
हम इस
विक्षिप्तता
को ही स्वास्थ्य
माने बैठे है।
जब तुम पीछे
लौटने की
कोशिश करोगे।
जब तुम सत्य
से संपर्क
साधोगे तो वह विक्षिप्तता
जैसा पागलपन
जैसा ही मालूम
पड़ेगा। हम
जैसे है, जो है
उसकी पृष्टभूमि
से सत्य ठीक
विपरीत है। और
अगर तुम जैसे
हो उसको ही स्वास्थ्य
मानते हो तो
सत्य जरूर
पागलपन मालूम
पड़ेगा।
लेकिन
तीन व्यक्ति
प्रयोग में
लगे रहे। उन
तीन में पी. डी. ओस्पेंस्की
भी एक था। वे
तीन महीने तक
प्रयोग में जुटे
रहे। पहले
महीने के बाद
उन्हें
मात्र होने की—कि
मैं हूं, झलक
मिलने लगी।
दूसरे महीने
के बाद मैं भी
गिर गया और उन्हें
मान होने पन
की हूं—पन की
झलक मिलने
लगी। इस झलक में
मात्र होना
था। मैं भी नहीं
था, क्योंकि
मैं भी एक
संज्ञा है।
शुद्ध अस्तित्व
न मैं है न तू,
वह बस है। और तीसरे
महीने के बाद
हूं, पन का भाव
भी विसर्जित
हो गया। क्योंकि
हूं-पन का भाव
भी एक शब्द
है। यह शब्द
भी विलीन हो
जाता है। तब
तुम बस हो और तब
तुम जानते हो
कि तुम कौन हो।
इस घड़ी
के आने के
पूर्व तुम नहीं
पूछ सकते कि
मैं कौन हूं।
या तुम सतत
पूछते रह सकते
हो कि मैं कौन
हूं। और मन जो
भी उत्तर
देगा वह गलत
होगा।
अप्रासंगिक
होगा। तुम पूछते
जाओ कि मैं
कौन हूं, मैं
कौन हूं, एक
क्षण आएगा जब
तुम यह प्रश्न
नहीं पूछ
सकते। पहले सब
उत्तर गिर
जाते है और फिर
खुद प्रश्न
भी गिर जाता
है। और खो
जाता है। सब
कुछ कि मैं
कौन हूं। गिर
जाता है, तुम
जानते हो कि
तुम कौन हो।
गुरजिएफ
ने एक सिरे से
इस विधि का
प्रयोग किया:
सिर्फ यह स्मरण
रखना है कि
मैं हूं। रमण महर्षि
ने इसका
प्रयोग दूसरे
सिरे से किया।
उन्होंने इस
खोज को कि ‘’मैं कौन
हूं।‘’ पूरा ध्यान
बन दिया। उन्होंने
इस खोज को कि ‘’मैं
कौन हूं।‘’ और इसके
उत्तर में मन
जो भी कहे उस
पर विश्वास
मत करो। मन
कहेगा कि क्या
व्यर्थ का
सवाल उठ रहे हो।
मन कहेगा कि
तुम यह हो, तुम
वह हो, कि तुम
मर्द हो। तुम
औरत हो। तुम
शिक्षित हो,
अशिक्षित हो,
कि गरीब हो,
अमीर हो, मन
उत्तर दिए
जाता है।
लेकिन तुम
प्रश्न
पूछते चले
जाना। कोई भी
उत्तर मत स्वीकार
करना। क्योंकि
मन के लिए दिए
गये सभी उत्तर
गलत होगे। वे
उत्तर तुम्हारे
झूठे हिस्से
से आते है। वे
शब्दों से
आते है। वे
शास्त्रों
से आते है। वे
तुम्हारे
संस्कारों
से आते है, वे
समाज से आते
है। सच तो यह
है कि वे सब के
सब दूसरों से
आते है। तुम्हारे
नहीं है। तुम पूछे
ही चले जाओ।
इस मैं कौन
हूं, के
तीन को गहरे
से गहरे में उतरने
दो।
एक क्षण
आएगा जब कोई उत्तर
नहीं आएगा। वह
सम्यक क्षण
होगा। अब तुम
उत्तर के
करीब हो। जब
कोई उत्तर नहीं
आता है, तुम
उत्तर के
करीब होते हो।
क्योंकि अब
मन मौन हो रहा
है। अब तुम मन
से बहुत दूर
निकल गए हो।
जब कोई उत्तर
नहीं होगा और जब
तुम्हारे
चारो और एक
शून्य
निर्मित हो
जाएगा तो तुम्हारा
प्रश्न पूछना
व्यर्थ
मालूम होगा।
अचानक
तुम्हारा
प्रश्न भी
गिर जायेगा। और
प्रश्न के
गिरते ही मन
का आखिरी हिस्सा
भी गिर गया।
खो गया क्योंकि
यह प्रश्न भी
मन का ही था।
वे उत्तर भी
मन के थे और यह प्रश्न
भी मन का था।
दोनों विलीन
हो गए। अब तुम
बस हो।
इसे
प्रयोग करो।
अगर तुम लगन
से लगे रहे तो
पूरी संभावना
है कि यह विधि
तुम्हें सत्य
की झलक दे
जाए। और सत्य
शाश्वत है।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग-3
प्रवचन—35
Osho naman
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