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मंगलवार, 10 जुलाई 2012

तंत्र-सूत्र—विधि—45 (ओशो)

ध्‍वनि-संबंधी नौवीं विधि:
            ‘’अ: से अंत होने वाले किसी शब्‍द का उच्‍चार चुपचाप करो। और तब हकार में अनायास सहजता को उपलब्‍ध होओ।‘’
      ‘’अ: से अंत होने वाले किसी शब्‍द का उच्‍चार चुपचाप करो।‘’
कोई भी शब्‍द जिसका अंत अ: से होता है, उसका उच्‍चार चुपचाप करो। शब्‍द के अंत में अ: के होने पर जोर है। क्‍यो? क्‍योंकि जि क्षण तुम अ: का उच्‍चार करते हो, तुम्‍हारी श्‍वास बाहर जाती है। तुमने ख्‍याल नहीं किया होगा। अब ख्‍याल करना कि जब भी तुम्‍हारी श्‍वास बाहर जाती है, तुम ज्‍यादा शांत होते हो। और जब भी श्‍वास भीतर जाती है, तुम ज्‍यादा तनावग्रस्‍त होते हो। कारण यह है कि बाहर जाने वाली श्‍वास मृत्‍यु है। और भीतर आने वाली श्‍वास जीवन है। तनाव जीवन का हिस्‍सा है। मृत्‍यु का नहीं। विश्राम मृत्‍यु का अंग है, मृत्‍यु का अर्थ है पूर्ण विश्राम। जीवन पूर्ण विश्राम नहीं बन सकता। वह असंभव है। जीवन का अर्थ है तनाव, प्रयत्‍न; सिर्फ मृत्‍यु विश्रामपूर्ण है।

      तो जब भी कोई व्‍यक्‍ति पूरी तरह विश्राम पूर्ण हो जाता है, वह दोनों हो जाता है—बाहर से वह जीवित होता है। और भीतर से मृत। तुम बुद्ध के चेहरे पर जीवन मृत्‍यु एक साथ देख सकते हो। इसलिए उनके चेहरे पर इतना मौन, इतनी शांति है—मौन और शांति मृत्‍यु के अंग है।
      जीवन विश्राम पूर्ण नहीं है, राम में जब तुम सो जाते हो तो तुम विश्राम में होते हो।  इसी लिए पुरानी परंपराएं कहती है कि मृत्‍यु और नींद समान है। नींद अस्‍थायी मृत्‍यु है। और यही कारण है कि रात्रि विश्राम दायी होती है। वह बाहर जाने वाली श्‍वास है। सुबह भीतर आने वाली श्‍वास है। दिन तुम्‍हें तनाव से भर देता है। रात तुम्‍हें विश्राम से भरती है। प्रकाश तनाव पैदा करता है, अंधकार विश्राम लाता है। यही वजह है कि तुम दिन में नहीं सो सकते। दिन में विश्राम करना कठिन है। प्रकाश जीवन जैसा है, वह मृत्‍यु विरोधी है। अंधकार मृत्‍यु जैसा है। वह मृत्‍यु के अनुकूल है।
      तो अंधकार में गहरी विश्रांति है।  और जो लोग अंधकार से डरते है, वे विश्राम में नहीं उतर सकते। यह असंभव है।
      विश्राम अंधेरे में घटित होता है। और तुम्‍हारे जीवन के दोनों छोरों पर अंधरा है। जन्‍म के पहले तुम अंधेरे में होते हो। और मृत्‍यु के बाद तुम फिर अंधेरे में होते हो। अंधकार असीम है। और यह प्रकाश, यह जीवन उस अंधकार के भीतर एक क्षण जैसा है। अंधकार के समुद्र में प्रकाश लहर जैसा है जो उठता-गिरता रहता है। अगर तुम जीवन के दोनों छोरों को घेरने वाले अंधकार को स्‍मरण रख सको तो तुम यहीं और अभी विश्राम में हो सकते हो।
      जीवन और मृत्‍यु अस्‍तित्‍व के दो छोर हे। भीतर आने वाली श्‍वास जीवन है, बहार जाने वाली श्‍वास मृत्‍यु है। ऐसा नहीं है कि तुम किसी दिन मरोगे, तुम प्रत्‍येक श्‍वास के साथ मर रहे हो।
      यही कारण है कि हिंदू जीवन को श्‍वासों की गिनती कहते है, वे उसे वर्षों की गिनती नहीं कहते। तंत्र, योग आदि सभी भारतीय परंपराएं जीवन को श्‍वासों में गिनती है। वे कहती है कि तुम्‍हें इतनी श्‍वासों का जीवन मिला है। वे कहती है कि अगर तुम तेजी से श्‍वास लोगे, थोड़े समय में ज्‍यादा श्‍वासें लोगे तो तुम बहुत जल्‍दी मरोगे। और अगर तुम बहुत धीरे-धीरे श्‍वास लोगे, अगर एक निश्‍चित समय में कम श्‍वास लोगे तो तुम ज्‍यादा समय तक जीओगे।
      और बात ऐसी ही है। अगर तुम पशुओं का निरीक्षण करोगे तो पाओगे कि बहुत धीमी श्‍वास लेने वाले पशु लंबी उम्र जीते है। उदाहरण के लिए हाथी है, हाथी की उम्र बड़ी है। क्‍योंकि उसकी श्‍वास धीमी चलती है। फिर कुत्‍ता है, उसकी श्‍वास तेज चलती है। और उसकी उम्र बहुत कम है। जो भी पशु बहुत तेज श्‍वास लेता होगा, उसकी उम्र लम्‍बी नहीं हो सकती। लंबी उम्र सदा धीमी श्‍वास के साथ जुड़ी है।
      तंत्र, योग और अन्‍य भारतीय साधना पथ तुम्‍हारे जीवन का हिसाब तुम्‍हारी श्‍वासों से लगाते है। सच तो यह है कि तुम हरेक श्‍वास के साथ जन्‍मते हो और हरेक श्‍वास के साथ मरते हो। यह विधि बाहर जाने वाली श्‍वास को गहरे मौन में उतरने का माध्‍यम बनाती है। उपाय बनाती है। यह एक मृत्‍यु-विधि है।
      ‘’अ से अंत होने वाले किसी शब्‍द का उच्‍चार चुपचाप करो।‘’
      श्‍वास बाहर गई है—इसलिए अ: से अंत होने वाले शब्‍द का उपयोग है यह अ: अर्थपूर्ण है; क्‍योंकि जब तुम अ: कहते हो वह तुम्‍हें पूरी तरह खाली कर देता है। उसके साथ पूरी श्‍वास बाहर निकल जाती है। कुछ भी भीतर बची नहीं रहती है। तुम बिलकुल खाली हो जाते हो—खाली और मृत। एक क्षण के लिए, बहुत थोड़ी देर के लिए जीवन तुमसे बाहर निकल गया है और तुम मृत और खाली हो।
      अगर इस रिक्‍ता इस खाली पन को तुम जान लो। उसके प्रति बोधपूर्ण हो जाओ तो तुम पूर्णत: रूपांतरित हो जाओगे। तुम और ही आदमी हो जाओगे। तब तुम भली भांति जान लोगे कि न यह जीवन तुम्‍हारा जीवन है और न यह मृत्‍यु ही तुम्‍हारी मृत्‍यु है। तब तुम उसे जान लोगे जो आती-जाती श्‍वासों के पास है, तब तुम साक्षी आत्‍मा को जान लोगे।  और साक्षित्‍व उस समय आसानी से घट सकता है जब तुम श्‍वासों से खाली हो, क्‍योंकि तब जीवन उतार पर होता है। और सारे तनाव भी उतार पर होते है। तो इस विधि को प्रयोग में लाओ। यह बहुत ही सुंदर विधि है।
      लेकिन आमतौर से, सामान्‍य आदत के मुताबिक, हम सदा भीतर आने वाली श्‍वास को ही महत्‍व देते है। हम बाहर जाने वाली श्‍वास को कभी महत्‍व नहीं देते। हम सदा भीतर लेते है। उसे बाहर नहीं छोड़ते। हम श्‍वास लेते है और शरीर उसे छोड़ता है। तुम अपनी श्‍वसन क्रिया का निरीक्षण करो और तुम्‍हें यह पता चल जाएगा।
      हम सदा श्‍वास लेते है। हम उसे छोड़ते नहीं। छोड़ने का काम शरीर करता है। और इसका कारण यह है कि हम मृत्‍यु से भयभीत है। बस यही कारण है। अगर हमारा बस चलता तो हम कभी श्‍वास को बाहर जाने ही नहीं देते। हम श्‍वास को भीतर ही रोक रखते। कोई भी व्‍यक्‍ति श्‍वास छोड़ने पर जोर नहीं देता। सब लोग श्‍वास लेने की ही बात करते है। लेकिन श्‍वास को भीतर लेने के बाद उसे बाहर निकालना अनिवार्य हो जाता है। इसलिए हम मजबूरी में उसे बाहर जाने देते है। उस हम किसी तरह बरदाश्‍त कर लेते है। क्‍योंकि श्‍वास छोड़े बगैर श्‍वास लेना असंभव है। इसलिए श्‍वास छोड़ना आवश्‍यक बुराई के रूप में स्‍वीकृत है। लेकिन बुनियादी तौर से श्‍वास छोड़ने में हमारा कोई रस नहीं है।
      और यह बात श्‍वास के संबंध में ही सही नहीं है। पूरे जीवन के प्रति हमारी दृष्‍टि यही है। जो भी हमें मिलता है, उसे हम मुट्ठी में बाँध लेते है। उसे छोड़ने का नाम ही नहीं लेते। यही मन का कृपणता है। और याद रहे, इसके बहुत परिणाम होते है। अगर तुम कब्‍जियत से पीडित हो तो उसका कारण यह है कि तुम श्‍वास तो लेते हो, लेकिन उसे छोड़ते नहीं। जो व्‍यक्‍ति श्‍वास लेना जानता है। लेकिन छोड़ना नहीं, वह कब्‍जियत से पीडित होगा। कब्‍जियत उसी चीज का दूसरा छोर है। वह किसी भी चीज को अपने से बाहर जाने देने के लिए राज़ी नहीं है। वह सिर्फ इकट्ठा करता जाता है। यह भयभीत है और भय के कारण  यह इकट्ठा किए जाता है।
      लेकिन जो चीज रोक ली जाती है वह  विषाक्‍त हो जाती है। तुम श्‍वास तो लेते हो लेकिन अगर उसे छोड़ते नहीं तो वह श्‍वास जहर बन जाएगी और तुम उसके कारण मरोगे। अगर तुमने कंजूसी की तो तुम एक जीवनदायी तत्‍व को जहर में बदल दोगे। क्‍योंकि श्‍वास का बाहर जाना नितांत जरूरी है। बाहर जाती श्‍वास तुम्‍हारे भीतर से सब जहर को बाहर निकाल फेंकती है।
      तो सच तो यह कि मृत्‍यु शुद्धि की प्रक्रिया है और जीवन अशुद्धि की, विषाक्‍त करने की प्रक्रिया है। यह बात विरोधाभासी मालूम पड़ेगी। जीवन विषाक्‍त करने की प्रक्रिया है, क्‍योंकि जीने के लिए बहुत सी चीजों को उपयोग में लाना पड़ता है। और जैसे  ही तुम उनका उपयोग करते हो। वे विष में बदल जाती है। तब तुम श्‍वास लेते हो तो तुम आक्‍सीजन का उपयोग कर रहे हो, लेकिन उपयोग करने के बाद जो चीज बच रहती है वह विष है। आक्‍सीजन के कारण ही वह जीवन था। लेकिन जब तुमने उसका उपयोग कर लिया तो शेष विष हो जाता है। ऐसे ही जीवन हर चीज को जहर में बदलता रहता है।
      मृत्‍यु शुद्ध की प्रकिया है। जब सारा शरीर विषाक्‍त हो जाता है। तब मृत्‍यु तुम्‍हें उस शरीर से मुक्‍त कर देती है। मृत्‍यु तुम्‍हें फिर से नया बना देती है। तुम्‍हें नया जन्‍म दे देगी। तुम्‍हें नया शरीर मिल जाएगा। मृत्‍यु के द्वारा शरीर का सब संग्रहीत विष प्रकृति में विलीन हो जाता है। और तुम्‍हें एक नया शरीर उपलब्‍ध होता है।
      और यह बात प्रत्‍येक श्‍वास के साथ घटित होती है। बाहर जाने वाली श्‍वास मृत्‍यु के समान है, वह विष को बाहर ले जाती है। और जब वह श्‍वास बाहर जाती है। तो तुम्‍हारे भीतर सब कुछ शांत होने लगता है। अगर तुम सारी की सारी श्‍वास बाहर फेंक दो, कुछ भी भीतर न रहने पाए तो तुम शांति के उस बिंदु को छू लोगे जो श्‍वास के भीतर रहते हुए कभी नहीं छुआ जा सकता था। यह ज्‍वार-भाटे जैसा है। आती हुई श्‍वास के साथ तुम्‍हारे पास जीवन-ज्‍वार आती है और जाती हुई श्‍वास के साथ सब कुछ शांत हो जाता है। ज्‍वार चला गया तब, तुम खाली, रिक्‍त सागर तट भर रह जाते हो। इस विधि का यही उपयोग करो।
      ‘’अ से अंत होने वाले किसी शब्‍द का उच्‍चार चुपचाप करो।‘’
      बाहर जाने वाली श्‍वास पर जोर दो। और तुम इस विधि का उपयोग मन में अनेक परिवर्तन लाने के लिए कर सकते हो। अगर तुम कब्‍जियत से पीड़ित हो तो श्‍वास भूल जाओ। सिर्फ श्‍वास को बहार फेंको। श्‍वास भीतर ले जाने का काम शरीर को करने दो। तुम छोड़ने भर का काम करो। तुम  श्‍वास को बाहर निकाल दो और भीतर ले जाने की फिक्र ही मत करो। शरीर वह काम अपने  आप ही कर लेगा, तुम्‍हें उसकी चिंता नहीं लेनी है। उससे तुम मर नहीं जाओगे। शरीर ही श्‍वास को भीतर ले जाएगा। तुम छोड़ने भर का काम करो, शेष शरीर कर लेगा। और तुम्‍हारी कब्‍जियत जाती रहेगी।
      अगर तुम ह्रदय रोग से पीड़ित हो तो श्‍वास को बाहर छोड़ो। लेने की फिक्र मत करो। फिर ह्रदय रोग तुम्‍हें कभी नहीं होगा। अगर सीढ़ियां चढ़ते हुए या कहीं जाते हुए तुम्‍हें थकावट महसूस हो, तुम्‍हारा दम घुटने लगे तो तुम इतना ही करो: श्‍वास को बाहर छोड़ो, लो नहीं। और तब तुम कितनी ही सीढ़ियां चढ़ जाओगे। और नहीं थकोंगे। क्‍या होता है?
            जब तुम श्‍वास छोड़ने पर जोर देते हो तो उसका मतलब है कि तुम अपने को छोड़ने का, अपने खोने को राज़ी हो। तब तुम मरने को राज़ी हो, तब तुम मृत्यु से भयभीत नहीं हो। और यही चीज तुम्‍हें खोलती है। अन्‍यथा तुम बंद रहते हो। भय बंद करता है। जब बंद करता है। जब तुम श्‍वास छोड़ते हो तो पूरी व्‍यवस्‍था बदल जाती है। और वह मृत्‍यु को स्‍वीकार कर लेती है। भय जाता रहता है और  तुम मृत्‍यु के लिए राज़ी हो जाते हो।
      और वही व्‍यक्‍ति जीता है जो मरने के लिए तैयार है। सच तो यह हे कि वही जीता है जो मृत्‍यु से राज़ी है। केवल वही व्‍यक्‍ति जीवन के योग्‍य है। क्‍योंकि वह भयभीत नहीं है, जो व्‍यक्‍ति मृत्‍यु को स्‍वीकार करता है, मृत्‍यु का स्‍वागत करता है, मेहमान मानकर उसकी आवभगत करता है। उसके साथ रहता है। वही व्‍यक्‍ति जीवन में गहरे उतर सकता है।
      जब एक कुत्‍ता मरता है तो दूसरे कुत्‍ते को कभी पता नहीं होता की मैं भी मर सकता हूं। जब भी मरता है, कोई दूसरा ही मरता है। तो कोई कुत्‍ता कैसे कल्‍पना करे के मैं भी मरने वाला हूं। उसने कभी अपने को मरते नहीं देखा। सदा किसी दूसरे ही मरते है। वह कैसे कल्‍पना करे, कैसे निष्‍पति निकाले कि मैं भी मरूंगा। पशु को मृत्‍यु का बोध नहीं होता। इसलिए कोई पशु संसार का त्‍याग नहीं करता। कोई पशु संन्‍यासी नहीं हो सकता है।
      केवल एक बहुत ऊंच्‍ची कोटि की चेतना ही तुम्‍हें संन्‍यास की तरफ ले जा सकती है। मृत्‍यु के प्रति जागने से ही संन्‍यास घटित होता है। और अगर आदमी होकर भी तुम मृत्‍यु के प्रति जागरूक नहीं हो तो तुम अभी पशु ही हो। मनुष्‍य नहीं हुए हो। मनुष्‍य तो तुम तभी बनते हो जब मृत्‍यु का साक्षात्‍कार करते हो। अन्‍यथा तुममें और पशु में कोई फर्क नहीं है। पशु और मनुष्‍य में सब कुछ समान है, सिर्फ मृत्‍यु फर्क लाती है। मृत्‍यु का साक्षात्‍कार कर लेने के बाद तुम पशु नहीं रहते। तुम्‍हें कुछ घटित हुआ है जो कभी किसी पशु को घटित नहीं होता है। अब तुम एक भिन्‍न चेतना हो।
      ऐसा ही इन विधियों के साथ है। वे सरल मालूम होती है। लेकिन वे बुनियादी सत्‍य को स्‍पर्श करती है। जब श्‍वास बाहर जा रही है, जब तुम जीवन से सर्वथा रिक्‍त हो, तब तुम मृत्‍यु को छूते हो, तब तुम उसके बहुत करीब पहुंच जाते हो। तब तुम्‍हारे भीतर सब कुछ मौन और शांत हो जाता है।
      इसे मंत्र की तरह उपयोग करो। जब भी तुम्हें थकावट महसूस हो, तनाव महसूस हो तो अ: से अंत होने वाले किसी शब्‍द का उच्‍चार करो। अल्‍लाह से भी काम चलेगा। कोई शब्‍द जो तुम्‍हारी श्‍वास को समग्ररतः: से बाहर ले आए। जो तुम्‍हें श्‍वास से बिलकुल खाली कर दे। जिस क्षण तुम श्‍वास से रिक्‍त होते हो  उसी क्षण तुम जीवन से भी रिक्‍त हो जाते हो।
      और तुम्‍हारी सारी समस्‍याएं जीवन की समस्‍याएं है, मृत्‍यु की कोई समस्‍या नहीं हे। तुम्‍हारी चिंताएं, तुम्‍हारे दुःख-संताप, तुम्‍हारा क्रोध, सब जीवन की समस्‍याएं है। मृत्‍यु तो समस्‍याहीन है। मृत्‍यु असमस्‍या है। मृत्‍यु कभी किसी को समस्‍या नहीं देती है। तुम भला सोचते हो कि मैं मृत्‍यु से डरता हूं, कि मृत्‍यु समस्‍या पैदा करती है। लेकिन हकीकत यह है कि मृत्‍यु नहीं जीवन के प्रति तुम्‍हारा आग्रह, जीवन के प्रति तुम्‍हारा लगाव समस्‍या पैदा करता है। जीवन ही समस्‍या खड़ी करता है। मृत्‍यु तो सब समस्‍याओं का विसर्जन कर देती है।
      तो जब श्‍वास बिलकुल बाहर निकल जाए—अ:sis—तुम जीवन से रिक्‍त हो गए। उस क्षण अपने भीतर देखो। जब श्‍वास बिलकुल बाहर निकल जाए। दूसरी श्‍वास लेने के पहले उस अंतराल में गहरे उतरो जो रिक्‍त है और उसके आंतरिक मौन और शांति के प्रति सजग होओ। उस क्षण तुम बुद्ध हो।
और अगर तुम उस क्षण को पकड़ लो। तो तुम्‍हें वह स्‍वाद मिल जाएगा जिसे बुद्ध ने जाना। और एक बार यह स्वाद जान लिया गया तो फिर तुम उसे आने-जाने वाली श्‍वास से अलग कर ले सकते हो। फिर श्‍वास आती-जाती रह सकती है। और तुम चेतना की उस अवस्‍था में रह सकते हो। वह तो सदा है, फिर उसे उघाड़ना है। और उसे उस समय उघाड़ना आसान होता है जब तुम जीवन से, श्‍वास से रिक्‍त होते हो।
      और जब श्‍वास बाहर निकल जाती है, तब सब कुछ निकल जाता है।  इस क्षण किसी प्रयास की जरूरत नहीं है। इस क्षण अनायास बिना प्रयास के सजगता को, बोध को उपल्‍बध हुआ जा सकता हे। मृत्‍यु के इस क्षण को उपलब्‍ध होओ। यही वह क्षण है जब तुम द्वार के बिलकुल करीब होते हो, परमात्‍मा के द्वार के बिलकुल पास होते हो। जो प्रकट है, जा असार है, वह बाहर चला गया; इस क्षण मे तुम लहर नहीं रहे। सागर हो गए। अभी तुम बिलकुल सागर के निकट हो। अगर तुम बोधपूर्ण हो सके, सजग हो सके, तो तुम भूल जाओगे कि मैं लहर हूं। फिर लहर आएगी। लेकिन अब तुम लहर के साथ कभी तादात्‍म्‍य नहीं बनाओगे। तुम सागर बने रहोगे। एक बार तुमने जान लिया कि तुम सागर हो, फिर तुम लहर नहीं हो सकते।
      जीवन लहर है, मृत्‍यु सागर है। इस कारण ही बुद्ध इस बात पर जोर देते है कि मेरा निर्वाण मृत्यु वत है। वे कभी नहीं कहते कि तुम अमरत्‍व को प्राप्‍त हो जाओगे। वे इतना ही कहते है कि तुम मिटोगे, समग्ररतः: जीसस कहते है; मेरे पास आओ और मैं तुम्‍हें विराट जीवन दूँगा। बुद्ध कहते है: मेरे पास मिटने के लिए आओ, मैं तुम्‍हें समग्र मृत्‍यु दूँगा। और दोनों एक ही बात है। लेकिन बुद्ध की शब्‍दावली ज्यादा बुनियादी है। मगर तुम उससे भयभीत हो।
      यही कारण है कि बुद्ध का भारत में प्रभाव नहीं पड़ सका। उन्‍हें पूरी तरह उखाड़ फेंका गया। और हम कहे चले जाते है कि भूमि धार्मिक है। लेकिन यहां जो सर्वाधिक धार्मिक पुरूष हुआ उसे यहां हमने जमने नहीं दिया। किस तरह की धार्मिक भूमि है यह?  हम दूसरा बुद्ध नहीं पैदा कर सकते। बुद्ध अप्रतिम है। जब भी संसार भारत को धर्म-भूमि के रूप में स्‍मरण करता है, वह बुद्ध को स्‍मरण करता है। और किसी को नहीं। बुद्ध के कारण ही भारत धार्मिक समझा जाता है। किसी प्रकार की धर्म-भूमि हे यह। बुद्ध को यहां जगह नहीं मिली उन्‍हें सर्वथा उखाड़ फेंका गया। कारण यह था कि बुद्ध को यहां जगह नहीं मिली, उन्हें सर्वथा उखाड़ फेंका गया।
      कारण यह था कि बुद्ध ने मृत्‍यु की भाषा उपयोग की। ब्राह्मण जीवन की भाषा उपयोग करते है। वे कहते है ब्रह्म; बुद्ध ने कहा निर्वाण। ब्रह्म का अर्थ जीवन, अनंत जीवन है; और निर्वाण का अर्थ परिसमाप्‍ति, मृत्‍यु , समग्र मृत्‍यु। बुद्ध कहते है कि तुम्‍हारी सामान्‍य मृत्‍यु समग्र नहीं होती। तुम्‍हें फिर-फिर जन्‍म लेना होता है। साधारण मृत्‍यु समग्र नहीं है। तुम पून: संसार में आना पड़ता है। बुद्ध कहते थे कि मैं तुम्‍हें ऐसी समग्र मृत्‍यु दूँगा। कि तुम्‍हें फिर कभी जन्‍म लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी। समग्र मृत्‍यु का अर्थ है कि अब दुबारा जन्‍म संभव नहीं है।
      इसलिए बुद्ध कहते है कि यह तथाकथित मृत्‍यु-मृत्‍यु नहीं है। यह विश्राम है, तुम फिर जीवित हो उठते हो। यह मृत्‍यु तो बाहर गई श्‍वास जैसी है। तुम फिर श्‍वास भीतर लोगे। और तुम्‍हारा पुन: जन्‍म हो जाएगा। बुद्ध कहते है कि मैं तुम्‍हें वह उपाय बताता हूं कि बाहर गई श्‍वास फिर वापस नहीं लौटेंगी। वही समग्र मृत्‍यु है। निर्वाण है।
      ‘’तब हकार में अनायास सहजता को उपलब्‍ध होओ।‘’
      इसका प्रयोग करो। किसी भी समय यह प्रयोग कर सकते हो।  बस या रेलगाड़ी में यात्रा कराते हुए, या अपने आफिस जाते हुए। जब भी तुम्‍हें समय मिले अल्‍लाह शब्‍द बड़ा काम का है—इस कारण नहीं कि वहां आसमान में कोई अल्‍लाह है। वरन इस अ: के कारण। यह शब्‍द सुंदर है। और जितना कही कोई अल्‍लाह-अल्‍लाह कहता है उतना ही वह शब्‍द छोटा होता जाता है। अल्‍लाह से वह लाह हो जाता है। और फिर लाह से आह रह जाता है। यह अच्‍छा है। लेकिन तुम अ: से अंत होने वाले  किसी भी शब्‍द को काम में ला सकते हो, केवल अ: से भी चलेगा।
      तुमने देखा होगा कि जब भी तुम तनाव से भरते हो, तुम एक आह भरकर हलके हो जाते हो। या जब तुम खुशी से भरते हो, बहुत खुशी से, तब तुम अहा कहते हो और पूरी श्‍वास बाहर निकल जाती है। और तुम अपने भीतर एक अपूर्व शांति अनुभव करते हो। इसे प्रयोग करो। जब तुम खूब प्रसन्‍न हो तो श्‍वास अंदर लो और देखो कि क्‍या होता है। तुम स्‍वस्‍थ अनुभव नहीं करोगे। जितना अहा कहने से करते हो। वह फर्क श्‍वास के कारण है।
      भाषाएं अलग-अलग है, लेकिन ये दो चीजें सभी भाषाओं में समान हे। सारी धरती पर जहां भी कोई थकावट अनुभव करता है वह आह करता है। दरअसल वह मृत्‍यु को बुलाकर कहता है कि मुझे विश्राम दो। और जब वह आह्लादित होता है। आनंदित होता है, तब वह अहा कहता है। वह आनंद से इतना पूरित है कि वह मृत्यु से नहीं डरता। वह अपने को पूरी तरह छोड़ने को खोने को राज़ी है।
      और अगर तुम इस विधि का निरंतर प्रयोग करते रहो तो उसके गहरे परिणाम होंगे। तब तुम्‍हारे भी जो सहज है, तुम उसके बोध से भर जाओगे। तब तुम अपनी सहजता को उपलब्‍ध हो जाओगे। तुम सहज ही हो, लेकिन तुम जीवन से इतने बंधे हो, ग्रस्‍त हो कि उसके पीछे खड़ी सहज सत्‍ता से अपरिचित रह जाते हो। लेकिन  तब तुम जीवन से, आने वाली श्‍वास से ग्रस्‍त नही हो, तब वह सहज सत्‍ता प्रकट होती है। तब उसकी झलक मिलती है। और धीरे-धीरे वह झलक उपलब्‍धि में बदल जाती है। तुम्‍हारी सिद्धि बन जाएगी।
      और तुमने उसे एक बार जान लिया तो फिर तुम उसे भुला नहीं सकोगे। वह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे तुम निर्मित करते हो। वह स्वाभाविक है, सहज है; उसे बनाना नहीं , उघाड़ना भर है। वह तो है ही, तुम भूल गए हो। बस स्‍मरण करना है, उघाड़ना है।
      शरीर अपने विवेक से चलता है। वह उतना ही ग्रहण करता है जितना जरूरी है। जब उसे ज्‍यादा की जरूरत होती है तो वैसी स्‍थिति बना लेता है और कम की जरूरत होती है तो वैसी ही स्‍थिति बना लेता है। शरीर कभी अति पर नहीं जाता है। वह सदा संतुलित रहता है। जब तुम श्‍वास लेते हो तब वह संतुलित नहीं है। क्‍योंकि तुम्‍हें नहीं मालूम है कि शरीर की जरूरत क्‍या है। और यह जरूरत क्षण-क्षण बदलती रहती है।   
      इसलिए शरीर को मौका दो, तुम तो बस श्‍वास छोड़ने भर का काम करो, उसे बाहर फेंको। और तब शरीर खुद श्‍वास लेने का काम कर लेगा। और शरीर जब खुद श्‍वास अंदर लेता है तो वह धीरे-धीरे लेता है। और गहरे लेता है। और पेट तक ले जाता है। वह श्‍वास ठीक नाभि-केंद्र पर चोट करती है। जिससे तुम्‍हारा पेट ऊपर नीचे होता है। और अगर श्‍वास लेने का काम भी तुम करोगे तो फिर समग्रता से श्‍वास छोड़ ने सकोगे। तब श्‍वास भीतर बची रहेगी। और उपर  से ली गई श्‍वास गहराई में न उतर सकेगी। इसीलिए श्‍वास क्रिया उथली हो जाती है। तुम श्‍वास भीतर लेते रहते हो और भीतर जहर इकट्ठा होता जाता है।
      वे कहते है कि तुम्‍हारे फेफड़े में कई हजार छिद्र है। और उनमें से सिर्फ  दो हजार छिद्रों तक ही श्‍वास पहुंच पाती है। बाकी चार हजार छिद्र तो सदा ज़हरीली गैस से भरे रहते है। जिन्‍हें सदा खाली करने की जरूरत है। वह जो तुम्‍हारी छाती का दो तिहाई हिस्‍सा जहर से भरा रहता है। वह तुम्‍हारे शरीर में मन  में दुःख और चिंता और संताप लाता है। 
      बच्‍चा सदा श्‍वास छोड़ता है लेता नहीं। लेने का काम सदा शरीर करता है। जब बच्‍चा जन्‍म लेता है तो वह जो पहला काम करता है वह रोना है। उसे रोने के साथ ही उसका कंठ खुलता है। रोने के साथ ही वह पहल अ: बोलता है, उस रोने के साथ ही मां के द्वारा भीतर ली गई हवा बाहर निकल जाती है। वह उसकी पहल श्‍वास क्रिया है। श्‍वास क्रिया का आरंभ।
      बच्‍चा सदा श्‍वास छोड़ता है। और जब बच्‍चा श्‍वास लेने लगे, जब उसका जोर छोड़ने से हटकर लेने पर चला जाए तो सावधान हो जाना; तब बच्‍चा बूढ़ा होने लगा। उसका अर्थ है कि बच्‍चे ने वह तुमसे सीखा है, वह तनावग्रस्‍त हो गया है।
      जब तुम तनाव ग्रस्‍त होते हो तो तुम गहरी श्‍वास नहीं ले सकते हो। क्यों? तब तुम्‍हारा पेट सख्‍त होता है। जब तुम तनाव में होते हो तो तुम्‍हारा पेट सख्‍त हो जाता है। वह सख्‍ती श्‍वास को गहरे नहीं जाने देती। तब तुम उथली श्‍वास ही लेने लगते हो।
      अ: का प्रयोग करो। वह तुम्‍हारे चारो और एक सुंदर भाव निर्मित करता है। जब भी तुम थकावट महसूस करो, अ: कहकर श्‍वास को बाहर फेंको। और श्‍वास छोड़ने पर बल दो। तुम भिन्‍न ही आदमी होगे और एक भिन्‍न ही मन विकसित होगा। श्‍वास लेने पर जोर देकर तुमने कंजूस मन और कंजूस शरीर विकसित किए है। श्‍वास छोड़ने पर बल देकर वह कंजूसी विदा हो जाएगी। और उसके साथ ही अन्‍य अनेक समस्‍याएं विदा हो जाएंगी। तब दूसरे पर मलकियत करने का भाव तिरोहित हो जायेगा।
      तो तंत्र यह नहीं कहता है कि मलकियत का भाव छोड़ो, तंत्र कहता है कि अपने श्‍वास-प्रश्‍वास का ढंग बदल दो और मलकियत अपने  आप छूट जायेगी। तुम अपनी श्‍वास को देखो, अपने भावों को देखो और तुम्‍हें बोध हो जाएगा। जो भी गलत है वह भीतर जाने वाली श्‍वास को महत्‍व देने के कारण है और जो भी शुभ है ओर सत्‍य है , शिव है, और सुंदर है। वह बाहर जाने वाली श्‍वास के साथ संबंधित है। जब तुम झूठ बोलते हो, तुम अपनी श्‍वास को रोक रखते हो, और जब सच बोलते हो तो श्‍वास को कभी नहीं रोकते। झूठ बोलते समय तुम्‍हें डर लगता है और उस डर के कारण तुम श्‍वास को रोक रखते हो। तुम्‍हें यह डर भी होता है कि बाहर जाने वाली श्‍वास के साथ कही छिपाया गया सत्‍य भी प्रकट न हो जाये।
      इस अ: का ज्‍यादा से ज्‍यादा प्रयोग करो और तुम शरीर और मन से ज्‍यादा स्‍वस्‍थ रहोगे। और तुम्‍हें एक विशेष ढंग की शांति और विश्राम का अनुभव होगा।
 ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग2
प्रवचन31

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