1989
में ओशो से
जुड़ने के बाद
से ही मुझे लगने
लगा कि
दाढ़ी-बाल ध्यान
में विशेष रूप
से सहयोगी हो
रहा है।
जैसे-जैसे आप
गहरे जा रहे
है, ये आपको
अति और अति
शांत करती चले
जाने में आपकी
मदद और सहयोग
कर रहे है। एक
प्रकार से ध्यान
के कच्चे
पौधों के चारो
और बागड़ का
काम कर रहे थे
दाढ़ी बाल।
अगर ये इतना
आनंद दायी न
हो तो इसे
रखाना एक तपस्या
जैसा है। यह
बहुत रखरखाव माँगती
है। बहुत कठिन
कार्य है
दाढ़ी-बाल का रखना।
समय के
साथ-साथ दाढ़ी
बाल भी बढ़ते
चले गये। जिस
समय 1994 में
मैंने सन्यास
लिया उस समय
मेरे दाढ़ी-बाल
बहुत लंबे हो चुकी
थी। नाचते हुए
बालों के साथ
झूमना, आपके
नाच को की बदल
देता है। एक
बात और है, बाल
अंदर से पोले
होते है। और
इसमे भरी उर्जा
उसकी लंबाई के
हिसाब से
हमारे साथ
काफ़ी दिनों
तक रहती है।
जैसे आपकी ध्यान
की उर्जा जो
आज आपके
सहस्त्र सार
की और चढ़ी है
तो वह इन
बालों में महीनों
आपके संग
रहेगी। खेर
कुछ हो मेरे
बाल सांसारिक
कार्यों में
लाख बाधा डाल
रहे हो, फिर भी
इसे कटवाने का
मन नहीं कर
रहा था।
पिरामिड
के बनाने में
जो मैंने
काम-ध्यान
किया, उसमे
टाईल का काटन,
रस्सियों का
बांधना,
बल्लीयों का
उठाना, मशीन
का चालान।
सारा दिन रेत
मिटी में सन होते
थे मेरे बाल।
सरदी, गर्मी, बरसात
के किसी भी
मौसम में काम
के बाद रोज सर
धो कर नहाना
पड़ता था। क्योंकि
टाईल का चुरा, सीमेंट....सारा
मुहँ
बाल-दाढ़ी अंट
जाता था।
2006
में पिरामिड
बन कर तैयार
हुआ। अप्रैल
माह में मैं
और अदवीता
पूना गये। उसे
समय पूना में
दाढ़ी रखना एक
प्रकार से
अपराध हो गया
था। सब लोग
मुझे ऐसे देख
रहे थे जैसे
में किसी चिड़ियाँ
घर से आया हुआ
प्राणी हूं।
परंतु इस बात
की मुझे कोई परवाह
नहीं थी। इसी
बीच एक दिन
मां अमृत
साधना ने वैल्कम
डे पर मुझे
टोक दिया कि
ये बाल और
दाढ़ी बढ़ा कर
आप हमारा
ह्रासमैंट कर
रहे हो। मेरी
समझ में नहीं
आया की बाल और
दाढ़ी बढ़ाने
से किसी को
ह्रासमैंट हो
सकता है। शायद
कोई हीनता की
ग्रंथी कुछ
आश्रम चलाने
वालों के अंदर
होगी। उन्होंने
वहां रहने
वाले सभी संन्यासियों
की दाढ़ी छोटी
करवा दी थी।
तब मैने मां
साधना को कहा
कि इस तरह से
तो आप औरत
होकर बाल कटा
कर हम पुरूषों
का ह्रासमैंट
क्यों कर रही
है। ये मान्यता
की बात आप
जैसे उचे साधक
को शोभा नहीं
देती।
वो मेरा मुहँ
देखती रही।
खेर
बात आई गई हो
गई। 2007 के दिसम्बर
माह में ओशो
के जन्म दिन में
मैं और अदवीता
‘’ओशो धाम’’ एक
दिन के शिविर
के लिए चले
गये। मुझे इस बात
का पहले से ही
अहसास था की
आध्यात्मिक
में अति से
अति वासना अगर
कुछ है, तो ‘’गुरुडेम’’
है। क्यों इस
अवस्था तक
साधक इतना जान
चुका होता है।
आत्मा
परमात्मा,
परम ज्ञान, ध्यान-मुक्ति
की बातों में
वह , वाक पटुता
में अति माहिर
हो चूका होता
है। अभी उसने
पाया नहीं होता
है। पर एक शीतलता
जो नदी को
छूकर आ रही है,
उसे महसूस
होने लग जाती
है। अंधकार
में कभी जुगनू
की चमक दिखाई
दे जाती है।
साधक जब साधना
शुरू करता है
तो उसकी पहली
बाधा अगर कुछ
है तो...कंजुसियत
है, इसी लिए
प्रत्येक
धर्म दान की
बात करता है।
ताकी उसका
पहला द्वार खुल
जाये। कंजूस
आदमी कभी ध्यान
कर ही नहीं
सकता। उसके
बाद फिर बारी
आती है, काम,
क्रोध, नाम , पद
और अहंकार की।
और इसके बाद जो
अंतिम वासन है
या बाधा है।
वह गुरु बनने
की। जिससे
साधक का बचना
बहुत-बहुत
कठिन है।
इस सब
के लिए मैं
पहले से ही
तैयार कर रहा
था। क्यों
शुरू से ही
मेरे आस पास
पाँच-दस साधक
ध्यान करने
आते रहे है। इस
लिए मुझे उनको
ध्यान की
विधि बतानी और
उन्हें
देखना की वे
कैसा ध्यान
कर रहे है। तभी
मुझे लगने लगा
था की ये
मार्ग तो बहुत
खतरनाक है। इस
बीच कभी-कभी
ध्यान के बीच
में खड़ा होकर
भी देखता होता
था, कि कोन ध्यान
कर रहा है और
कौन सही या
गलत कर रहा
है। तभी मुझे
गुरु की पदवी
के झटके लगने
शुरू हो गये थे।
इस की काट यही
थी में खुद
डूब कर ध्यान
करू । या आपको
जब भी मुझे
मोका मिले तो आप
इधर-उधर कहीं
भी किसी भी
केंद्र में
जाकर ध्यान
करे। इसी के
लिए में झटिकरा,
या किसी दूसरे
साधक के यहां
ध्यान करने
जरूर चला जाता
था। और देखता
रहता था कि मन
कोई प्रश्न तो
नहीं उठा रहा
कि ये गलत ध्यान
करा रहे है, या ध्यान
ऐसे कराना
चाहिए, इस
साधक को वैसे करना
चाहिए। इस सब से
अनभिग मैं
पीछे खड़े
होकर मस्त ध्यान
करता था। एक
दो बार मुझे स्वामी
बहल साहब (पंजाबी
बाग़ वाले स्वामी
जी) ने आगे बुला
कर प्रश्न
चर्चा में
शामिल भी
किया। कि साधकों
की ध्यान की
कोई समस्या
हो तो वह अपने
प्रश्न पूछ
सकते है।
परंतु इस बीच
कुछ पुराने साधकों
को बुरा लगा
कि कल का
छोकरा आज गुरु
बन गया है। जब
की मेरी ऐसी
कोई भावना
नहीं थी। मेरी
भावना तो
शुद्ध थी अगर
कोई ध्यान को
समझ नहीं रहा
है या विधि को
गलत तरह से कर
रहा तो मैं
उसे अपने
अनुभव के आधार
पर उसका मार्ग
दर्शन करू।
ताकी उसका ध्यान
जल्दी से जल्दी
गहरा जा सके।
और वह अपनी
भूल सुधार ले।
ओशो
धाम स्वामी
ओम प्रकाश जी
मेहनत का फल
है। बहुत ही
रमणीक और भव्य
बनाया है उन्होंने।
परंतु मुझे
वहां ध्यान
करना कभी अच्छा
नहीं लगा। ये
बात मैंने स्व
स्वामी ओम
प्रकाश जी को
भी कितना बार
कही की आप
अपना म्यूजिक
सिस्टम ठीक
कर लो। ये जो
आप आहूजा का
डिब्बा लगाये
हुए हो यह तो शेर
मचाने के काम
के है इन से ध्यान
करना ठीक नहीं
है। क्योंकि
ओशो के सभी ध्यान
संगीत प्रधान
है। पर न तो
उन्होंने
किया और न आज
जब चैतन्य कीर्ति
जी ने उसे
बदलने की सोची
जब की में दो
तीन बार उसे विषय
में उन्हें
लिख चूका हूं।
जबकि इस मामले
में पूना को
कोई जवाब
नहीं। उनके पिरामिड
में जो ‘’बास’’ का
म्यूजिक
सिस्टम है,
उसमे ओशो जी
की आवाज
जीविंत हो
उठती है, लगता
है, ओशो जी
प्रवचन न देकर
लोरी गा रहे
है।
दिन
में खाना खाने
के बाद अकसर
या तो कोई स्वामी
अपने अनुभव साधकों
में बाँटता या
प्रश्न चर्चा
होती थी। उस
दिन भी ये
कार्यक्रम चल
रहा था। मैं
और अदवीता
पीछे बैठे
प्रश्न चर्चा
सुन रहे थे।
मुझे अंदर से
लगा की मैं भी
आगे जाऊं,
मैंने अदवीता
को कहा की मैं
आग जा रहा
हूं...तब वह
मुझे देख कर हंसी।
उसकी आंखें
शरारत भरी अदा
में कह रही थी
कि ‘’लगी खुजली
चलें आग’’। मैं
आगे जाकर बैठ
गया। धीरे-धीर
संन्यासियों
की भीड़ इक्कठी
होने लगी इस
समय तक 500 से भी
अधिक संन्यासियों
शांत मौन
प्रश्न पूछ
रहे थे और उसे
सून रहे थे। अचानक
न जाने मुझे
क्या हुआ और
मैं खड़ा होकर
प्रश्न पूछने
लगा....
स्वामी
जी, ‘’हम होश को
समझते से भी
दिखते है,
जानते से भी
दिखते है,
परंतु इसे हम जीवन
के दैनिक
कार्य में
अपना क्यों
नहीं पाते।‘’
माईक
था स्वामी
‘’स्वामी वेदांत
जी के हाथ
में। उन्होंने
कहां पहले तो
हम सब को इस
प्रश्न से हटाओं।
और इसे अपनी
बात कहो। तब
मैंने प्रश्न
को दोबारा
दोहराया.....माफ
करो, ये मेरी
ही समस्या
है। कि मैं
होश को समझाता
हूं, जानता सा
भी दिखता हूं,
परंतु जीवन के
दैनिक कार्य
में इसे अमल
क्यों नहीं
कर पाता हूं....क्यों
यह बार-बार
छूट जाता है।
और में इसे शुरू
करना चहा कर भी
नहीं कर पता
हूं।
कुछ
देर तक स्वामी
वेदांत जी
मुझे देखते
रहे, चारों और
एक दम सन्नाटा
छा गया।
प्रश्न बड़ा
सार्थक और
जीविंत था हर
साधक के मार्ग
में आई बाधा
के काम का था।
और ये प्रत्येक
साधक के लिए
अति उपयोगी भी
था। कोई
किताबी
प्रश्न या खुजलाहट
नहीं थी की
उसे यूं ही
हंसी में टाल
दिया जाता। स्वामी
वेदांत ओशो
मल्टीविष्ट
के वाइस चांसलर
रहे है। 15-20 किताबें
उन्होंने
ओशो पर लिखी
है। ओशो के
कुछ गिने चुने
विद्वानों
में से एक है।
कुछ देर सभा
में सन्नाटा
छाया रहा लोग
दिल थाम कर बैठ
गये की अब उत्तर
आया कि जब उत्तर
आया। स्वामी
वेदांत अपनी
आंखें बंद कर
बैठ गये। परंतु
प्रश्न का
उत्तर तो
नहीं आया तो
नहीं आया। उन्होंने
कुछ देर के
लिए अपनी
आंखें बंद कर
ली। मानों
प्रश्न का उत्तर
गहरे में ढूंढ
रहे हो। कुछ
देर बाद सभा
में खुसर-फुसर
होने लगी। सभी
लोग मुझे
घूर-घूर करे
देखने लगे। कि
ये कैसा
प्रश्न पूछ
लिया। कुछ देर
बार उन्होंने
आंखें खोली और
माईक उठा कर
पास बैठे स्वामी
चैतन्य कीर्ति
जी को दे
दिया। चैतन्य कीर्ति
जी आँख बंद
किये बैठे थे।
एक गुरु के
पोज में । उन्होंने
माईक हाथ में
लिया..........और कुछ
देर मुझे गोर
से देखा। और
फिर माई स्वामी
ओम प्रकाश जी(
नैनीताल वाले).....की
और बढा दिया
अब लोग
जोर-जोर से
हंसने लगे। इसी
तरह से पंद्रह
मिनट गुजर गई
लोग हंसते रह।
प्रश्न इधर से
उधर फेंका
जाता रहा। और
एक सार्थक
प्रश्न यूहीं
हंसी की भेट
चढ़ गया। मुझे
लोग....बडी अजीब
सी निगाह से
देखने लगे.....जिनका
मैंने
इससे पहले
कभी सामना नहीं
किया था। शायद
मैंने ये
प्रश्न पूछ
कर अच्छा नहीं
किया। सारी
सभा के रंग
में भंग डाल
दिया। ये बात
मेरी समझ के
बाहर थी कि ये
कोई अति प्रश्न
नहीं है। आम
साधक की दैनिक
समस्या है।
क्या
हो गया था सभा
में? क्या
प्रश्न इतना
जटिल था? या
ये किताबी
प्रश्न नहीं
था, यह एक ध्यान
से उठा जीवित
प्रश्न था।
जो प्रत्येक
साधक के अति
उपयोगी था।
फिर क्यों
इतने महान विद्वान
इस प्रश्न का
उत्तर न दे
सके। या ये
प्रश्न उत्तर
देने लायक ही
नहीं था?
केवल मन की
खुजलाहट था।
मैं तो मान ही
नहीं सकता की
एक साधारण से
और अति महत्वपूर्ण
प्रश्न में कुछ ऐसा
हो सकता है।
जो किसी के
मान सम्मान
को दाव पर लगा
रहा हो। ये
मेरी ही नहीं
सभी साधकों की
समस्या था।
मेरी कतई इच्छा
नहीं थी की
में किसी कोन
नीचा दिखाऊ।
या उससे तर्क
कर के अपने का
महान साबित कर
दूँ।
वैसे
तो सालों से
हर साल मैं और
मां अदवीता एक
महीने के लिए
अवश्य ध्यान
करने के लिए
पूना जाते ही
रहते है।
परंतु 2004 की
घटना है। अभी
हमें चार या पाँच
ही दिन हुए थे
पूना गये। हम
दो एकांत में
पीछे बैठे थे।
अदवीता कुछ उस
दिन उदास थी।
उसके चेहरे से
लगा रहा था कुछ
उसके अंदर उठ
रहा है, पर वह जूबान
पर नहीं आ
रहा। अचानक
उसने हिम्मत
कर के कहां स्वामी
एक समस्या
है। न जाने
मुझे क्या हो
गया। जो सालों
से मैं इतने
होश से काम करती
थी, नाचती थी।
खाती थी, चलती
थी। वह कहां
खो गया। मैं
अपने को एक
अंधेरी गुफा
में खड़ा हुआ
पा रही हूं। मेरा
सालों का
सिंचित होश अचानक
क्यों गायब
हो गया। अब
मैं क्या करू
और क्या न
करू मेरी कुछ समझ
में कुछ नहीं
आ रहा है। ये ऐसा
क्यों हो
गया।
अदवीता
का प्रश्न
सुन मैं अंदर
से बहुत प्रश्नन
हुआ। और उस
खुशी को रोक
नहीं सका और
गंभीर हुए माहोल
को कुछ हलका
करने के लिए
मैं हंस पडा।
और कहने लगा।
ये तो बहुत ही
अच्छा हुआ? एक
तो अदवीता
अपनी समस्या
से परेशान थी।
और फिर उसे
लगा की उसके
प्रश्न को
यूं ही हंसी
में उड़ाया जा
रहा है। जब की
उसे लग रहा था
ये प्रश्न
उसके जीवन मरन
का है।
उसकी
आंखों में
क्रोध था।
उसने मुझे
गुस्से से
देखते हुए कहा
‘’तुम्हें तो
मजाक सूझ रहा
है, यहां जान
पर बनी है। सालों
का मेरा होश
अचानक ऐसे
कैसे गायब हो
सकता है। आप
हंस रहे
है.....मुझे आप से
ये उम्मीद
नहीं थी। सच
ही उसका गुस्सा
करना जायज था।
तभी मैंने उसे
अपने पास आपने
सिने से लगा
लिया और वह
सुबक-सुबक कर
रो पडा। उसे
आगे कोई मार्ग
नजर नहीं आ रहा
था। और उसका
प्रश्न अति
प्रश्न बन गया
था उसके लिए।
अब गुरु भी शरीर
में नहीं है।
तो कौन उसे
मार्ग दे। तब
संध का सहारा
ही उसकी बाधा
का सुलझा सकता
है। जो उस पथ
से गुजरा है,
जो उस समस्या
में जिया है।
कुछ देर बाद मैंने
कहां ऐसा मेरे
साथ भी हुआ
था। जब हम सन्यास
लेने के लिए 1994
के आखिरी दिन
ध्यान करते
हुए मेरे साथ
ऐसा ही कुछ
हुआ। अचानक
मैं ऐसी जगह
खड़ा हो गया
जहां मुझे न अपने
हाथों का पता,
न चाल का पता। अभी क्षण
भर पहले तक जो
होश मेरे साथ
था। मुझे हर
काम को ध्यान
को खेल बना
रहा था। वह
अचानक गायब हो
गया। मेरी समझ
में नहीं आ
रहा था। कि क्या
करू किस से
कहूं। और इस
उधेड़ बुन में
मेरे चार माह
गुजर गये मैं
होश को साधने
में सतत लगा
रहा।
धीरे-धीरे चार
माह बाद
कुछ-कुछ कार्य
में होश से
करने लगा।
ये
एक समस्या है
नहीं जो हम
लगती है। क्योंकि
होश के भी तल
होते है।
जैसे-जैसे
हमारा ध्यान
गहरा जाता है।
हमारा होश भी
प्रगाढ़ होता जाना
चाहिए। लेकिन
कई बार ऐसा
होता है। कभी
किसी खास जगह
अचानक अपका ध्यान
गोता मार जाता
है। और होश तो
उसी तल पर
रहता है। तब
उस जगह हम
दोनो में
तालमेल नहीं
बिठा पाते। और
यही हुआ है
आपके साथ।
आपका ध्यान
गहरा चला गया।
घबराओ मत आप
होश से काम
करने की कोशिश
करते रहो। इस
छोड़ो मत,
इससे टूटो मत।
कुछ ही दिनों
में से समतुल्य
आ जायेंगे। और
फिर देखना
आपका बढ़ा होश
और ध्यान मिल
कर आपके जीवन
में अधिक आनंद
भर देंगे।
परंतु ये अवस्था
साधक की बहुत
खतरनाक है। वह
त्रिशंकु की
भांति हो जाता
है। उसे कोई
मार्ग नहीं
सूझता। जब की
उस समय उसे
अपने किसी
मित्र की सखा
की आवश्यकता
होती है। जो
उसे थोड़ा साहस
और धैर्य दे
सके, उसके थके पैरो
को थोड़ी हिम्मत
दे सके। और
ठीक ऐसा ही अदवीता
को लगा होगा।
क्यों जैसे
हम धूप में खड़े है
और अचानक अंधेरे
कमरे में चले
जाये। तो वहां
हमें कुछ भी
दिखाई नहीं
देगा। न ही समझ
में ही आयेगा
की वहां पर क्या
है। तब क्या
हमारे देखने
की शमता गायब
हो गई। या हम
अंधे हो गये।
ऐसा कुछ नहीं
हुआ है। बस
हमें कुछ इंतजार
करना है। कुछ धैर्य
चाहिए। की कुछ
देर वहां खड़े
रह सके, और
हमारी आंखें
उस अंधेरे में
देखने के लिए
अपना ताल मेल
बिठा ले। और धीरे-धीरे
हम फिर हम उस
स्थान को देखने
लगते है। ठीक
ऐसा ही साधक
को होश के तल
पर होता है।
और यह तब
बार-बार
आयेगा। एक गियर
की भांति हमारा
तल लगाता बदलता
जायेगा और
गहरा और
गहरा......अनंत की
और।
इस
अवस्था में
कोई भी साधक न
तो घबराये और
न ही हिम्मत
हारे। बल्कि
उसे घबरानें
की बजाएं अपने
अंदर एक खुशी
एक आनंद भरना
चाहिए। कि मेरा
तल बदल गया
है। और होश से दैनिक
कार्य करना
जारी रखे।
चाहे वह
बार-बार भूलता
रहे। इससे थके
न। हिम्मत न
हारे। जब होश
आये तब भी
कार्य शुरू कर
दे। मेरी
प्रत्येक
साधक से ये
गुजारिश है जो
होश को अपने
जीवन में
अपनाना चाहता
है। कि होश एक
दिन में या महीने
में नहीं साधा
जा सकता। वह
सतत प्रयास है।
मानों आप एक
हजार काम
बेहोशी में
रोज करते थे।
और आपने आज होश
से काम करने
का प्रयास
किया तो आप
महज 10 काम भी
पूरे दिन में
होश से कर
लेते है तो यह
आपकी बहुत
बड़ी उपलब्धि
है। 990 की चिंता
न करे। 10 का
आनंद ले। जब
जागे तभी
सवेरा का
सिद्धांत
अपनाये। क्योंकि
बेहोशी जन्मों–जन्मों
से भरी है।
होश की एक-एक बूंद
ही भरेगी।
जैसे-जैसे होश
एक-एक पग
चलेगा। बेहोशी
कम होती चली
जायेगी। आप
सतत प्रयास
करते रहे। और
जैसे-जैसे
आपका होश
बढ़ेगा वह और
होश को बढ़ाने
में आपका
सहयोग करेगा।
मार्ग का ही
तो आनंद है।
मंजिल मिल गयी
तो सब खत्म।
मार्ग पर जब
साधक चलता है।
उसे आस पास क्या
घट रहा है,
प्रकृति
कितनी मधुर
है, पक्षियों
की मधुर आवाज
आपके काने के
साथ चेतना में
एक नई उमंग भर
देगी। जीवन की
तपीस में आनंद
और उत्सव की सीतलता
मार्ग के आनंद
को दो गुण कर देंगे।
और फिर आप का
जीवन एक खेल
हो जायेगा।
काम नहीं
रहेगा।
मैं
समझ नहीं पा
रहा था कि इस
अति जरूरी
प्रश्न को
हंसी में उड़ा
दिया। क्या
ये समस्या
इनके जीवन में
नहीं आई। क्या
ये लोग। आज भी
होश में नहीं
जीते या जीने
का प्रयास
करते। केवल
किताबी ज्ञान
में ही उलझ कर
रह गये। क्योंकि
इस प्रश्न का
उत्तर कोई
मुझ से पूछता
तो मुझे खुशी
होती। क्योंकि
वहां पर 500 से
अधिक साधक
बैठे थे। अगर
ये बात उन में
से 10 को भी समझ
में आ जाती तो
मेरा प्रश्न
करना सार्थक
हो जाता। और
ऐसा नहीं है
बहुतों की ये
समस्या
होगी। परंतु
ये मार्ग अति
कठिन है.....और
इतना आसान भी।
बस केवल एक
ताल की जरूरत
है और कदम तो
थिरकने के लिए
तैयार ही खड़े
है।
ओशो
के समकालीन साधकों
को जब में देखता
हूं....तो मुझे
डर लगाता है।
क्योंकि उन्होंने
इस होश का
आनंद को ओशो
की सभा में,
बिना कुछ दिये
या किये सत्संग
में मधुर आनंद
उठाया है। उन्हें
ऐसे पंख मिले
की वह हिमालय
की उतंग
उच्चाईयों को
भी पार कर
अंनत आकाश में
उड़ आते थे।
परंतु वह उधार
के पंख थे।
सत्संग के
पंख थे, वह ओशो
की उर्जा आपको
एक झलक दे
सकती थी। सदा आपको
साथ नहीं रह
सकती थी। जैसे
सूखे कुएँ में
कोई दो बाल्टी
पानी डाल दे।
और कुआँ समझने
लगे की मेरा
स्त्रोत फूट
पडा। तब वह
कभी अपने स्त्रोत
तक नहीं पहूंच
सकता। और ऐसा
ही कितने साधकों
के साथ हुआ, जो
ओशो समय में
जब गुरु
प्रवचन दे रहा
होता तो वह
अपने कमरे में
ताश खेल रहे
होते। और वह
इस बात पर गर्व
करते है। कि
हम कोई कुछ
नहीं कहता था।
कभी गुरु ने
भी उन्हें
आदेश नहीं
दिया कि तुम
सभा में क्यों
नहीं आ रहे।
और वह इस
अहंकार के
कारण पूना आश्रम
छोड़ कर आ
गये। और आज
महान गुरु बन
कर लाखों को
मार्ग दिखाने
का भ्रम पाले
है। जिसे खुद
अपने मार्ग का
ही पता नहीं।
जो केवल जीवन
भर काले शब्दों
में ही उलझा
रहा। उसे इस
काम के बदले। संध्या
सत्संग में
ओशो की उर्जा लबरेज
कर देती थी।
परंतु अब तो
उसे अपने पैरो
से ही चलना
होगा। पेर तो
जमीन पर है।
वहां कांटे
है, झाड़ झंकाड़
है, और लिया
उसने उड़न का
बादलों के पार
के आनंद। तब
वह नीचे देखता
है। तो चल
नहीं पता। वह
मान ही लेता
है कि उसे पंख
लग गये और उसे
उड़ना आ गया।
परंतु उसकी दिन
चर्या ही बता
रही है, उसे
कैसा आनंद उत्सव
मिला है, शराब
और सिगरेट, ओर
सेक्स ही उसकी
दिन चर्या है।
तब
वह उसे भी ध्यान
प्रेम आदि का
सुंदर नाम दे
कर भोगे आदि
डूबता चला जा
रहा है। एक गुरुडेम
के कारण। कैसे
वह ध्यान कर
सकता है। एक
साधारण साधक
की तरह। अब तो वह
गुरु हो गया।
लोगों को ध्यान
के विषय में
बता रहा है।
सन्यास दे
रहा है। लोग
उसके पैरों
में मथ्था
टेक रहे है।
वह गुरु बन
गया है। पर
किसे धोखा दे
रहा है। अपना
पूरा जीवन दाव
पर लगा कर अगर क्षण
भर के लिए
गुरु का सम्मान
पाने के लिए।
बहुत बड़ी
कीमत चूका रहा
है।
इस
गुरु को नाटक
करने के लिए।
उसे चेतना
चाहिए....
इस
सब को मैंने
बड़े होश से
देखा, और मैं
बहुत सम्हल,
सम्हल कर चल आ
रहा हूं, की
गुरु बनने के
इस अहंकार से
में बचता
जाऊं। ये
मार्ग की अति खतरनाक
बाधा है। और
शायद आखरी भी,
प्रकृति इसे
प्रत्येक
साधक पर
अपनाती है। जो
उपर पहूंच गया
है, इस
जाल से बचना
बहुत कठिन है।
क्योंकि
साधन इस अवस्था
तक बहुत कुछ
जान चुका होता
है। वह अपने
पैरो पर
अहंकार की छुरी
बड़े मजे से
मार सकता है।
और उसे इस बात
की पीड़ा का एहसास
या दर्द भी
नहीं होगा। क्योंकि
वह मानता है
कि वह लाखों
का मार्ग दर्शन
करा रहा है।
एक
घटना और फिर
खत्म....अभी
मैंने सन्यास
भी नहीं लिया
और में दिल्ली
के पंजाबी बाग़
‘’मधुशाला’’ जो आज
‘’आस्था ध्यान
केंद्र’’ नाम
से ध्यान
केंद्र है, जिसे
स्वामी बहल
जी चलाते है।
एक दिन प्रश्न
चर्चा में, एक
स्वामी अपनी
समाधि का
अनुभव लोगों
को बांटने लगे।
वह स्वामी
सन्यासी
वैद्य से नाम
से पूरी दिल्ली
में मशहूर थे।
हालाकि वह न तो
कभी पूना गये
थे और न ही उन्होने
अभी तक सन्यास
ही लिया था।
फिर भी अपनी दाढ़ी
और वेशभूषा के
कारण सन्यासी
वेद्य थे। वह
कह रहे थे।
समाधि में
कैसा लगाता
है। जब हम
आपने अंदर
गहरे में अंदर
जाकर बैठ जाते
है। और शरीर
हमसे दूर रह
जाता है। और विचार
भी एक रील की
भाति दूर पीछे
छूट जाते है।
और बहार की घ्वनियां
दूर कही दूर
रह जाती
है।.....तब केवल
में अकेला होता
हूं.....ओर अपने
को पूर्ण हुआ
पाता हूं। ऐसी
अवस्थ में जो
आनंद बरसता
है। वही समाधि
है।‘’
मैं
भी सून रहा
था। मैंने कहा
स्वामी एक
प्रश्न जिस
अवस्था की आप
बात कर रहे
है। ऐसा मुझे
अब लगता है। फिर
भी मन में समाधान
नहीं है। अंदर
शांति है,
आनंद है, शरीर
दूर रह जाता
है। जो
कभी-कभी तो
मुझे अपना भी
नहीं लगता। क्योंकि
दूर हाथों को
जब देखता हूं
तब भी मैं जानता
हूं, की वो
मेरे हाथ नहीं
है। क्योंकि
इस शरीर के
अलावा भी मैं
अपने को पूर्ण
हुआ पाता हूं,
शरीर बहार है।
और मैं बिना
शरीर के भी
पूर्ण हूं...न
वहां मुझे श्वास
चाहिए। श्वास
भी बंद हो
जाती है, मैं
उसके बीना भी कितनी
ही देर रह
लेता हूं, एक
मजे की बात
जैसे ही आपकी
श्वास बंद
होती है टक से
आपके विचार भी
बंद हो जायेगे।
ये कभी आज़मा
कर देखना तब
साधक को अ-मन की
अभूतपूर्व अनुभूति
होगी।......फिर भी
मुझे क्यों नहीं
लगता की मेरा
समाधान हो गया
मुझे समाधि
मिल गई। समाधि
का मतलब है,
आपके सभी
प्रश्न गिर
जाये। सारे
समाधान हो
जाये। पर अभी
तो सब अंदर बहुत
कुछ भरा है।
और मंजिल इतनी
मधुर है की चलते
जाने को मन कर
रहा है। और आप
इस तरह की बात
कर के नाहक साधकों
के मन में भ्रम
पैदा मत करो।
और इस उच्च
अवस्थ पर आ
कर साधक भ्रम
में फंस जाये
की उसे समाधि मिल
गई और वह रूक
जाये। तब वह
मेरी बात से
थोड़ा झेपे।
और इधर उधर
देखते लेग.....ओर
कहने लगे। कि
हो सकता है।
मैं गलत हूं
और जो स्वामी
जी कह रहे है।
वही सही हो।
अभी में भी
मार्ग पर ही हूं.......पर
आनंद वहां
बहुत है।
नाश्ते
के समय मुझे
एकांत में
मिले और कहने
लगे सच आपने
मुझे टोक
दिया। नहीं तो
मैं भी इसी
भ्रम जाल में
फंसा ही रहता।
तब मैंने उनसे
पूछा की अभी
तो अपने संन्यास
भी नहीं लिया
है। गुरु के
हाथ में आपने
अपना हाथ भी
नहीं दिया है।
पहले अपने को
गुरु के हाथों
समर्पण करो
गुरु के चरणों
में झुको। और जाओ
एक बार पूना।
और लो ओशो की
उर्जा का
आनंद.....फिर
मेरी मुलाकात
उनसे नहीं
हुई। अब तो वह
स्वर्ग
सिधार गये है।
और मेंने वहां
जाना भी बंद
कर दिया। क्योंकि
वहां पर मेरा
अंहकार बहुत बलिष्ठ
खड़ा हो जाता
है। लोग मुझे
गुरु की नजरों
से देखते थे।
जो मेरे मार्ग
में बाधा बन
रहा था। मैं
उस मार्ग पर
बहुत सोच-सोच
कर कदम रखता
हूं। क्योंकि
जहां गलत होगा
मैं चुप रह
नहीं सकता क्योंकि
मैं जानता हूं
कि ये गलत है।
मन
बहुत चालबाज
है, वह आपको
उसी जगह ले
जाना चाहेगा
जहां वह जीवित
रह सके। और
जहां उसके
अहंकार को ठेस
लगे वह आपको
वहां जाने से
रोकेगा। लेकिन
मैं ठीक इसके
विपरीत करता
हूं। मन बेचार
तरस कर रह
जाता है। कि
वहां पर कितना
मान सम्मान
मिल रहा है और
तुम वहां पर
नहीं जा रहे
ये तुम्हारे
अहंकार है।
तुम्हें
ज्ञान का
अहंकार हो गया
है......वह लाख सब्ज
बाण मुझे
चुभोता है। पर
मैं केवल हंस
कर रह जाता
हूं। परंतु
में उस जगह
जाने सक
कतराता हूं
जहां मेरा सम्मान
हो, मेरे अहंकार
को पोषकता
मिले।
इस
सब से मेरे
दिल को बहुत
ठेस पहुंची क्योंकि
मैं किसी का
अपमान करना
नहीं चाहता
था। तब घर आकर
मैंने सोचा की
कहां गलती
हुई। तब मुझे
लगा की इस
दाढ़ी में ही
कहीं ने कही
ये रहस्य छुपा
है। और मैंने
वरूण को कहां
की आप मेरी
दाढ़ी को दो
चार फोटो ले
लो में इसे
कटाने जा रहा
हूं। उन्होंने
जवानी के कुछ
फोटो तो मेरे
देखे थे बिना
दाढ़ी के
परंतु जब से
होश सँभाला है
उन्होंने ने
तो मुझे इसी
रूप में देखा
था। वह मना करते
रहे, की अच्छी
लग रही है। में
जानता था अच्छी
के साथ-साथ ध्यान
में भी सहयोगी
है। परंतु अब
इसके साथ बहुत
साधना हो चुकी
ये दाढ़ी भी
कहीं अंहकार
तो नहीं बन गई
है। की कही भी जाउं
तो बहुत महान
आत्मा लगता
था।
अगली
सुबह मैंने
अपने बाल-दाढ़ी
सतरह साल बाद कटावा लिए।
और मजे की बात
अब पेड़ को
किसी बागुड़
की जरूरत नहीं
है। वह लोगों
की पहूंच के पार
उँचा उठ गया
है। और दाढ़ी
कटा कर ध्यान
में जो आनंद
मुझे मिल रहा
है। वह दाढ़ी
में नहीं मिल
पा रहा था। क्योंकि
उसमें आप भीड़
में अलग खड़े नहीं
रह सकते थे।
हर आदमी आपकी
और देख कर आक्रषित
होता था, आप एक
विशेष व्यक्ति
बन जाते थे,
जहां भी जाते
थे भीड़ आपको
घूरती रहती,
क्योंकि
आपका रहन सहन
उनसे कुछ भिन्न
है। एक महात्मा
का ढकोसला एक बलबादा आपको
चारों और से
घेरे रहता है।
अब में किसी
भी भीड़ में
अनछुआ सा घूमता
रहता
हूं....अलिप्त
कमल वत कोई
जान भी नहीं
पता की मैं
किसी मार्ग पर
चल रहा हूं....न
किसी को दुख न
पीड़ा। और
अपना आनंद सो
गुण बढ़ गया।
धन्यवाद मेरे
दाढ़ी-बालों
जो तुम जाते
हुए भी मुझे
अपने से मुक्त
कर गये। एक
सुगम और
सुरभित मार्ग
दे गये.... आभार
तुम्हारा.....तुम
जब थे जब भी
आनंद था। जब
तुम चले गये तो
महाआनंद दे
गये। आभार।
स्वामी
आनंद प्रसाद ‘’मनसा’’
मार्ग
की अनुभूतियां
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