ध्वनि-संबंधी
सातवीं विधि:
‘’मुंह को
थोड़ा-सा खुला
रखते हुए मन
को जीभ के बीच
में स्थिर
करो। अथवा जब
श्वास
चुपचाप भीतर
आए, हकार ध्वनि
को अनुभव
करो।‘’
मन
को शरीर में
कहीं भी स्थिर
किया जा सकता
है। सामान्यत:
हमने उसे सिर
में स्थिर कर
रखा है; लेकिन
उसे
कहीं भी स्थिर
किया जा सकता
है। और स्थिर
करने के स्थान
के बदलने से
तुम्हारी
गुणवता बदल
जाती है।
उदाहरण के
लिए, पूर्व के
कई देशों में,
जापान, चीन,
कोरिया आदि
में परंपरा से
सिखाया जाता
है कि मन पेट
में है। सि
में नहीं है।
और इस करण उन
लोगों के मन
के गुण बदल
जाते है। जो
सोचते है कि
मन पेट में
है। जो लोग
सोचते है कि
मन सिर में
है। उनके ये
गुण नहीं हो
सकते।
असल
में मन कहीं
भी नहीं है।
सिर में है
मस्तिष्क;
मन का अर्थ है
एकाग्रता; तुम
मन को कही भी
स्थिर कर
सकते हो। और
जहां उसे एक
बार स्थिर कर
दोगे वहां से
उसे हटाना
कठिन होगा।
उदाहरण के
लिए, अब
मनोवैज्ञानिक
और मनुष्य के
गहरे में शोध
करने वाले लोग
कहते है कि जब
तुम संभोग कर
रहे हो तो
तुम्हारा मन
सिर से उतर कर
कामेंद्रित
पर चला जाता
है। अन्यथा
तुम्हारी
काम-क्रिया
बेकार जाएगी।
अगर मन सिर
में ही रहे तो
तुम काम-भोग
में गहरे नहीं
उतर पाओगे। तब
काम-समाधि
नहीं घटित
होगी और तुम्हें
आर्गाज्म का
अनुभव नहीं
होगा। तब तुम्हें
उसका शिखर
नहीं प्राप्त
होगा। तुम बच्चे
पैदा कर सकेत
हो; लेकिन
तुम्हें
प्रेम के शिखर
का कोई अनुभव
नहीं होगा।
तुम्हें
उसकी कोई समझ
नहीं है।
जिसकी तंत्र
चर्चा करता है
या जिसे खजुराहो
चित्रित करता
है। तुम नहीं
समझ सकते। क्या
तुमने
खजुराहो देखा
है, अगर तुम
खजुराहो नहीं
गए हो तो
तुमने
खजुराहो के
मंदिरों के
चित्र अवश्य
देखे होंगे।
उनके चेहरों
को ध्यान से
देखो; संभोग रत
जोड़ों को
देखो, उनके
चेहरो को
देखो। वे
चेहरे दिव्य
मालूम पड़ते
है। वे
काम-भोग में संलग्न
है; लेकिन
उनके चेहरों
में बुद्ध की
समाधि झलकती
है। उन्हें
क्या हो गया
है?
उनका
काम भोग
मानसिक नहीं
है। वे बुद्धि
से संभोग नहीं
करते है; वे
उसके संबंध
में विचार नहीं
करते है। वे
बुद्धि से
नीचे उतर आए
है; उनका फोकस
बदल गया है; और
सिर से हट
जाने के कारण
उनकी चेतना कमेंद्रिय
पर उतर आई है।
अब मन नहीं
है। अब मन अ-मन
हो गया है।
इसीलिए उनके
चेहरों पर
बुद्ध की
समाधि झलकती
है। उनका
काम-भोग ध्यान
बन गया है।
क्यों
फोकस बदल गया।
अगर तुम अपने
मन के फोकस को बदल
देते हो, अगर
तुम उसे सिर
से हटा लेते
हो। तो सिर
विश्राम में
होता है।
चेहरा
विश्राम में
होता है। तब
सभी तनाव
विलीन हो जाते
है। तब तुम
नहीं हो, तब
अहंकार नहीं
है।
यही
कारण है कि
चित जितना
बौद्धिक होता
है, बुद्धिवादी
होता है, उतना
ही वह प्रेम
करने में असमर्थ
हो जाता है।
प्रेम के लिए
भिन्न
फोकसिंग की
जरूरत है।
प्रेम में
तुम्हारा
फोकस ह्रदय के
पास होने की
जरूरत है; संभोग
में तुम्हारा
फोकस काम
केंद्र के पास
होने की जरूरत
है। जब तुम
गणित करते हो
तो सिर उसके
लिए उचित जगह
है। लेकिन
प्रेम गणित
नहीं है;
संभोग बिलकुल
गणित नहीं है।
और अगर सिर में
गणित से भरे
होकर तुम
संभोग में
उतरते हो तो तुम
अपनी ऊर्जा
नष्ट करते
हो। तब सारा
श्रम बेचैनी
पैदा करेगा।
लेकिन
मन को बदला जा
सकता है।
तंत्र कहता है
कि शरीर में
सात चक्र है
और मन को
उनमें से किसी
भी चक्र पर स्थिर
किया जा सकता
है। प्रत्येक
चक्र का अलग गुण
है। और अगर
तुम एक विशेष
चक्र पर
एकाग्र करोगे
तो तुम भिन्न
ही व्यक्ति
हो जाओगे।
जापान
में एक सैनिक
समुदाय हुआ
है, जो भारत के क्षत्रियों
जैसा है। उन्हें
समुराई कहते
है, उन्हें
सैनिक के रूप
में
प्रशिक्षित
किया जाता है।
और उन्हें
पहली सीख यह
दी जाती है कि
तुम अपने मन
को सिर से
उतार कर
नाभि-केंद्र
के ठीक दो इंच
नीचे ले आओ।
जापान में इस
केंद्र को
हारा कहते हे।
समुराई को मन
को हारा पर
लाने का
प्रशिक्षण
दिया जाता है।
जब तक समुराई
हारा को अपने
मन का केंद्र
नहीं बना लेना
है तब तक उसे
युद्ध में भाग
लेने की इजाजत
नहीं है।
और
यही उचित है।
समुराई संसार
के
सर्वश्रेष्ठ
योद्धाओं में
गिने जाते है।
दुनिया में
समुराई का कोई
मुकाबला नहीं
है। वह भिन्न
ही किस्म का
मनुष्य है,
भिन्न ही
प्राणी है; क्योंकि
उसका केंद्र
भिन्न है।
वे
कहते है कि जब
तुम युद्ध
करते हो तो
समय नहीं रहता
है। और मन को
समय की जरूरत
पड़ती है। वह
हिसाब-किताब
करता है। अगर
तुम पर कोई
आक्रमण करे और
उसे समय तुम्हारा
मन सोच-विचार
करने लगे कि
कैसे बचाव
किया जाए, तो
तुम गए; तुम
अपना बचाव न
कर सकोगे। समय
नहीं है; तुम्हें
तब समयातित
में काम करना
होगा। और मन समयातित
में काम नहीं
कर सकता है।
मन को समय
चाहिए। मन को
समय चाहिए।
चाहे कितना भी
थोड़ा हो, मन
को समय
चाहिए।
नाभि
के नीचे एक
केंद्र है
जिसे हारा
कहते है; यह
हारा समयातित
में काम करता
है। अगर चेतना
को हारा पर स्थिर
किया जाए और
तब योद्धा
लड़े तो वह
युद्ध
प्रज्ञा से
लड़ा जाएगा।
मस्तिष्क
से नहीं। हारा
पर स्थिर योद्धा
आक्रमण होने
के पूर्व जान जाता
है के आक्रमण
होने वाला है।
यह हारा का एक
सूक्ष्म भाव
है। बुद्धि का
नहीं। यह कोई
अनुमान नहीं
है; यह
टेलीपैथी है।
इसके पहले कि
तुम उस पर आक्रमण
करो, उसके
पहले कि तुम
उस पर आक्रमण
करने की सोचो।
वह विचार उसे
पहुंच जाता
है। उसके हारा
पर चोट लगती
है और वह अपना
बचाव करने को
तत्पर हो
जाता है। वह
आक्रमण होने
के पहले ही
अपने बचाव में
लग जाता है।
उसने अपना
बचाव कर लिया।
कभी-कभी
जब दो समुराई
आपस में लड़ते
है तो हार-जीत
मुश्किल हो
जाती है। समस्या
यह होती है कि
कोई किसी को
नहीं हरा
सकता। किसी को
विजेता नहीं
घोषित कर
सकता। एक तरह
से निर्णय
असंभव है; क्योंकि
आक्रमण ही
नहीं हो सकता।
तुम्हारे
आक्रमण करने
के पहले ही वह
जान जाता है।
एक
भारतीय
गणितज्ञ हुआ।
सारा संसार
चकित था; क्योंकि
वह कोई
हिसाब-किताब
नहीं करता था।
उसका नाम
रामानुजम था।
तुम उसे कोई
भी समस्या दो
और वह तुरंत
उत्तर बता
देता था।
इंग्लैंड का
सर्वश्रेष्ठ
गणितज्ञ
हार्डी तो
रामानुजम के
पीछे पागल था।
हार्डी
सर्वश्रेष्ठ
गणितज्ञ था।
लेकिन उसे भी
किसी-किसी
प्रश्न को हल करने
में छह-छह
घंटे लग जाते
थे। लेकिन
रामानुजम का
हाल यह था कि
तुम उसे प्रश्न
दो और वह उसका
उत्तर तुरंत
बता देता था।
इस ढंग से मन
के काम करने
का कोई उपाय
नहीं है। मन
को तो समय
चाहिए। रामानुजम
को बार-बार
पूछा गया कि
तुम यह कैसे
करते हो? वह कहता था
कि मैं नहीं
जानता; तुम
मुझे प्रश्न
कहते हो और
मुझे उसका उत्तर
आ जाता है। वह
कहीं नीचे से
आता है। वह
मेरे सिर से
नहीं आता है।
यह
उत्तर उसके
हारा से आता
था। उसे खुद
यह बात नहीं मालूम
थी। उसे कोई
प्रशिक्षण भी
नहीं मिला था।
लेकिन मेरे
देखे वह अपने
पिछले जन्म
में जापानी
रहा होगा; क्योंकि
भारत में हमने
हारा पर काम
नहीं किया है।
तंत्र
कहता है कि
अपने मन को
भिन्न-भिन्न
केंद्रों पर
स्थिर करो और
उसके भिन्न-भिन्न-भिन्न
परिणाम
होंगे। यह
विधि मन को
जीभ पर, जीभ के
मध्य भाग पर
स्थिर करने
को कहती है।
‘’मुंह
को थोड़ा सा
खुला रखते
हुए....।‘’
मानो
तुम बोलने जा
रहे हो। मुंह
को बंद नहीं, थोड़ा
सा खुला रखना
है—मानो तुम
बोलने वाले
हो। ऐसा नहीं
है कि तुम बोल
रहे हो; ऐसा ही
कि तुम बोलने
जा रहे हो।
मुंह को इतना
ही खोलों
जितना उस समय
खोलते हो जब
बोलने को होते
हो। और तब मन
को जीभ के बीच
में स्थिर
करो। तब तुम्हें
अनूठा अनुभव
होगा। क्योंकि
जीभ के ठीक
बीच में एक
केंद्र है जो
तुम्हारे
विचारों को
नियंत्रित
करता है। अगर
तुम अचानक सजग
हो जाओ और उस
केंद्र पर मन
को स्थिर करो
तो तुम्हारे
विचार बंद हो
जाते है। जीभ
के ठीक बीच में
मन को स्थिर
करो—मानो तुम्हारा
समस्त मन जीभ
में चला आया
है। जीभी के
ठीक बीच में।
मुंह
को थोड़ा सा
खुला रखो,
जैसे कि तुम
बोलने जा रहे
हो। और तब मन
को इस तरह स्थिर
करो कि वह सिर
में न होकर
जीभ में आ जाए,
जीभ के ठीक
मध्य भाग
में।
जीभ
में वाणी का,
बोलने का
केंद्र है; और
विचार वाणी
है। जब तुम
सोचते हो,
विचार करते हो
तो क्या करते
हो? तुम
अपने भीतर
बातचीत करते
हो। क्या
तुम भीतर
बातचीत किए
बिना विचार कर
सकते हो? तुम अकेले
हो; तुम किसी
दूसरे व्यक्ति
के साथ बातचीत
नहीं कर रहे
हो। लेकिन तब
भी तुम विचार
कर रहे हो। तब
तुम विचार कर
रहे हो तो क्या
कर रहे हो? तुम
अपने बातचीत
कर रहे हो,
उसमें तुम्हारी
जी संलग्न
है।
अगली
दफा जब तुम
विचार में
संलग्न होओ
तो सजग होकर
अपनी जीभ पर
अवधान दो। उस
वक्त तुम्हारी
जीभ ऐसे कंपित
होगी जैसे वह
किसी के साथ बातचीत
करते समय होती
है। फिर अवधान
दो और तुम्हें
पता चलेगा कि
तरंगें जीभ के
मध्य में केंद्रित
है; वे मध्य
से उठकर पूरी जीभ
पर फैल जाती
है।
विचार
करना अंतस की बातचीत
है। और अगर
तुम अपनी
चेतना को,
अपने मन को
जीभ के मध्य
में केंद्रित
कर सको तो
विचार ठहर
जाते है। जो
लोग मौन का
अभ्यास करते
है, वे यही तो
करते है कि
बातचीत के
प्रति बहुत बोधपूर्ण
हो जाते है। और
अगर तुम महीने
दो महीने, या वर्ष
भर बिलकुल मौन
रह सको। बिना
बातचीत के रह
सको , तो तुम देखोगें
कि तुम्हारी
जीभ कितनी जोर
से कंपित होती
है। तुम्हें
इसका पता नहीं
चलता है; क्योंकि
तुम निरंतर
बात करते रहते
हो। और उससे
तरंगों का
निरसन हो जाता
है।
लेकिन
अगर अभी भी
तुम रुककर
अपने विचार के
प्रति सजग होओ
तो तुम्हें
मालूम होगा कि
जीभ
थोड़ी-थोड़ी कंपित
हो रही है। अब
अपनी जीभ को
पूरी तरह ठहरा
दो, रोक दो और तब
सोचने की चेष्टा
करो; तुम नहीं
सोच पाओगे।
जीभ को ऐसे स्थिर
कर दो जैसे वह
जग गई हो।
उसमें कोई गति
मत होने दो; और तब
तुम्हारा
सोचना-विचारना
असंभव हो
जाएगा।
केंद्र ठीक
मध्य में है;
मन को वहीं स्थिर
करो।
‘’मुंह
को थोड़ा-सा
खुला रखते हुए
मन को जीभ के बीच
में स्थिर
करो। अथवा जब
श्वास
चुपचाप भीतर
आए, हकार ध्वनि
को अनुभव करो।‘’
यह
दूसरी विधि है
और पहली जैसी
ही है।
‘’अथवा
जब श्वास
चुपचाप भीतर
आए, हकार ध्वनि
को अनुभव करो।‘’
पहली
विधि से तुम्हारा
विचार बंद हो
जाएगा। तुम
अपने भीतर एक
ठोसपन अनुभव
करोगे—मानो तुम
ठोस हो गए हो।
जब विचार नहीं
होते है तो
तुम अचल हो
जाते हो। थिर
हो जाते हो। और
जब विचार नहीं
है और तुम अचल
हो तो तुम
शाश्वत के
अंग हो जाते
हो। यह शाश्वत
बदलता हुआ लगाता
है। लेकिन
दरअसल वह अचल
है, ठहरा हुआ
है।
निर्विचार
में तुम शाश्वत
के, अचल के अंग
हो जाते हो।
विचार
के रहते तुम
चलायमान के,
परिवर्तनशील
के अंग हो; क्योंकि
प्रकृति
चलायमान है,
संसार
चलायमान है।
यही कारण है
कि हम इसे
संसार कहते
है। संसार का
अर्थ है: चक्र,
चाक। यह चल
रहा है। चल
रहा है; यह सतत
घूम रहा है।
संसार निरंतर
गति है। और जो
अदृश्य है,
परम है, वह अचल
है, ठहरा हुआ
है।
यह
ऐसा है जैसे
की चाक तो
घूमता है।
लेकिन जिसके
सहारे वह
घूमता है वह
धुरी अचल है।
चाक तभी घूम
सकता है जब
उसके केंद्र
पर कुछ है जो
सदा अचल है—धुरी
अचल है। संसार
चल रहा है, और ब्रह्मा
अचल है। जब
विचार
विसर्जित
होता है तो
तुम अचानक इस
लोक से दूसरे
लोक में प्रवेश
कर जाते हो।
भीतरी गति के
बंद होते ही
तुम शाश्वत
के अंग हो
जाते हो—उस शाश्वत
के, जो कभी
बदलता नहीं है।
‘’अथवा
जब श्वास
चुपचाप भीतर
आए, अकार ध्वनि
को अनुभव करो।‘’
मुंह
को थोड़ा-सा
खुला रखे,
मानों तुम
बोलने जा रहे
हो। और तब श्वास
को भीतर ते जाओ।
और उस ध्वनि
के प्रति सजग
रहो जो भीतर
आती हुई श्वास
से पैदा होती
है। वह ही
हकार है। चाहे
श्वास भीतर जाती
है, या बाहर।
इस ध्वनि को
तुम्हें
पैदा नहीं
करना है; तुम्हें
तो अंदर आती
श्वास को
अपनी जीभ पर केवल
महसूस करना है।
यह बहुत धीमा
स्वर है।
लेकिन है। वह
हकार जैसा
मालूम होता
है। वह बहुत
मौन है; मुश्किल
से सुनाई देता
है। उसे सुनने
के लिए तुम्हें
बहुत सजग होना
पड़ेगा।
लेकिन उसे
पैदा करने की
चेष्टा मत
करना। अगर
तुमने उसे
पैदा करने की
चेष्टा की तो
तुम चुक
जाओगे। पैदा
की हुर्इ
ध्वनि किसी
काम की नहीं होती।
जब-जब श्वास
भीतर जाती है
या बाहर आती
है, तब जो ध्वनि
अपने आप पैदा
होती है वह स्वाभाविक
है।
लेकिन
विधि कहती है
कि भीतर आती
श्वास के साथ
प्रयोग करना
है, बाहर जाती
श्वास के साथ
नहीं। क्योंकि
बाहर जाती श्वास
के साथ तुम भी
बाहर चल
जाओगे। ध्वनि
के साथ-साथ
तुम भी बाहर
चले जाओगे। जब
कि चेष्टा
भीतर जाने की
है। अंत: भीतर
जाती श्वास
के साथ हकार
ध्वनि को
अनुभव करो।
देर-अबेर तुम्हें
अनुभव होगा कि
यह ध्वनि
सिर्फ जीभ में
ही नहीं, कंठ
में भी हो रही
है। लेकिन तब
वह बहुत ही
धीमी हो जाती
है। उसे सुनने
के लिए
प्रगाढ़
जागरूकता की
जरूरत है।
तो
जीभ से शुरू
करो; फिर
धीरे-धीरे
सजगता को बढ़ाओं,
उसे महसूस
करो। तब तुम
उसे कंठ से सुनोंगे।
और उसके बाद
उसे अपने
ह्रदय में सुनने
लगोगे। और जब
वह ह्रदय में पहुँचती
है तो तुम मन
के पार चले
गए। ये सारी
विधियां वह
सेतु निर्मित
करती है जहां
से तुम विचार
से निर्विचार
में, मन से अ-मन
में, सतह से
केंद्र में
प्रवेश करते
हो।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र, भाग—2
प्रवचन—29
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