‘’28 अगस्त 1968 को
जो क्रांति–स्वर
उठाया था,
उसका अलगा चरण
प्रारंभ हुआ 28
सितंबर से।
ऐतिहासिक गोवालिया
टैंक मैदान
में, जहां
गांधी जी ने
भारत छोड़ो
आंदोलन की
शुरू आत की
थी। संयोगवश
उसी वर्ष भारत
छोड़ो आंदोलन
की रजत जयंती
के अवसर पर
गोवालिया टैंक
का नाम बदल कर
अगस्त कांति
मैदान कर दिया
गया। उस समय
कौन जानता था
कि 1968 की अगस्त
कांति पूरी
मनुष्यता के
इतिहास का ही
नया खाका
खींचने वाली
है।‘’
ढलते
हुए मानसून का
मौसम बंबई में
बड़ा खूबसूरत
होता है,
इसलिए चार दिन
को ये सभा
खुले मैदान
में रखने का
तय हुआ था। लेकिन
28 सितंबर को
सुबह से ही
झड़ी लगी हुई
थी। आशंका थी
कि शायद काफी
लोग जो आना
चाहते थे वे न
आ पाएँ। लेकिन
शाम होते-होते
बादल भी छंट
गये और सभा शुरू
होने से काफी
पहले ही मैदान
भी पूरा भर गया।
इधर प्रेस भी
अपने पूरे
दल-बल समेत
मौजूद था। अध्यात्म
से जुड़े एक
व्यक्ति
द्वारा सेक्स
पर चर्चा
होगी। यह
प्रेस के लिए
एक अच्छी
कहानी का
मसाला था।
लेकिन शायद इस
सभा में उन्हें
बहुत बार
चौंकना था।
सभा
शुरू करते हुए
ओशो जब यह
बोले कि ‘’आने
वाले इन दिनों
में मैं जीवन
के धर्म के
संबंध में बात
करना चाहता
हूं....., तो एकदम
सक सब चोंके
कि यह क्या। पिछली
बार उनसे
प्रेम पर
बोलने को कहा
गया था तो वे
सेक्स पद
बोले थे और आज
सेक्स की जगह
धर्म पर...।
लेकिन अगले दो
वाक्य में
उन्होंने
फिर से
चौंकाया जब
उन्होंने
जीवन के धर्म
की परिभाषा
की। ....इस लिए एक सूत्र
समझ लेना
जरूरी है। और
इस सूत्र के
संबंध में आज
तक छिपाने की,
दबाने की, भूल
जाने की सारी
चेष्टा की गई
है। लेकिन
जानने और
खोजने की
नहीं।
मनुष्य
के सामान्य
जीवन में
केंद्रीय तत्व
क्या है—परमात्मा? आत्मा? सत्य?
‘’नहीं।
अगर हम सामान्य
मनुष्य की
जीवन ऊर्जा
में खोज करे।
उसकी जीवन-शक्ति
को हम खोने
जाएं, तो न तो
वहां परमात्मा
दिखाई
पड़ेगा। न
पूजा न
प्रार्थना, न
ध्यान। वहां
कुछ और ही
दिखाई
पड़ेगा। और जो
दिखाई उसे भुलाने
की चेष्टा की
गई है। क्या
दिखाई पड़ेगा
अगर हम आदमी
के प्राणों को
चीरे और फाड़े
और वहां खोजें? आदमी को
छोड़ दे, अगर
आदमी से इतर
जगत की भी हम खोज
बीन करें, तो
वहां प्राणों
की गहराइयों
में क्या
मिलेगा। अगर
हम एक पौधे की
भी छान-बीन
करें, तो क्या
मिलेगा? एक पौधा क्या
कर रहा है?
‘’एक
पौधा पूरी
चेष्टा कर
रहा है—नए बीज
उत्पन्न
करने की, एक
पौधे के सारे
प्राण, सारा
रस, नए बीज
इकट्ठे करने,
जन्मानें की
चेष्टा कर
रहा है। एक
पक्षी क्या
कर रहा है, एक
पशु क्या कर
रहा है?
अगर
हम सारे जीवन
को देखें तो
जीवन जन्मनें
की एक अनंत
क्रिया का नाम
है, जीवन एक ऊर्जा
है, तो स्वयं
को पैदा करने
के लिए सतत
संलग्न है और
सतत चेष्टा
शाली है।
आदमी
के भीतर भी
वहीं है। आदमी
के भीतर उस
सतत सृजन की
चेष्टा का
नाम: हमने
सेक्स दे रखा
है। काम दे
रखा है। इस
नाम के कारण
उस ऊर्जा को
एक गाली मिल
गई है। एक
अपमान। इस नाम
के कारण एक
निंदा का भाव
पैदा हो गया
है। मनुष्य
के भीतर भी
जीवन को जन्म
देने की सतत
चेष्टा चल
रही है। हम
उसे सेक्स
कहते है, हम
उसे काम की
शक्ति कहते
है।
‘’लेकिन
काम की शक्ति
क्या है..... ?’’
इसके
बाद तो कब
आसमान छींटे
बरसाता रहा और
कब बादलों के
बीच से सूरज झाँकता
रहा, किसी को
कोई सुध ही न
थी। सुध थी तो
बस उस एक वज़नदार
आवाज की जो
जीवन के धर्म
का मर्म समझा
रहा था।
अगले
दिन बरसात कुछ
ज्यादा तेज
थी लेकिन
मैदान पहले
दिन से भी ज्यादा
भरा हुआ था। कुछ
लोग बारिश से
बचने के लिए
छाते भी ले आए
थे। लेकिन ओशो
ने जब बोलना
शुरू किया तो
उन्होंने
सबको बरसात
में भीगने का
आमंत्रण देते हुए
सब छाते बंद
करवा दिये। यह
शायद एक संकेत
था, एक निवेदन
था अपने
पूर्वाग्रहों
के छाते समेटकर
एक और कर देने
का।
इधर
छाते बंद हुए
और उधर उन्होंने
सवाल किय,
‘’मनुष्य के
मन में सेक्स
का इतना
आकर्षण क्यों
है?
और
बरसात की धार
की मानिंद
बहता उन्हीं
का उत्तर
आया...., पहली बात
तो यह है कि
मनुष्य के
प्राणों में
जो सेक्स का आकर्षण
है, वह वस्तुत:
सेक्स का
आकर्षण नहीं
है। मनुष्य
के प्राणों
में जो
काम-वासना है,
वह वस्तुत:
काम की वासन
नहीं है। इस
लिए हर आदमी
काम के कृत्य
के बाद पछताता
है। दुःखी
होता है।
पीडित होता
है, सोचता है
कि इससे मुक्त
जो जाऊं। यह
क्या है?
लेकिन
शायद आकर्षण
कोई दूसरा है।
और वह आकर्षण
बहुत रिलीजस,
बहुत धार्मिक
अर्थ रखता है।
वह आकर्षण यह
है कि सामान्य
जीवन में सिवाय
पाता है। आदमी
दुकान करता
है, धंधा करता
है, यश कमाता
है,
पैसे कमाता
और उस गहराई
में दो घटनाएं
घटती है।
लेकिन एक
अनुभव काम का,
संभोग का, उसे
गहरे से गहरे
ले जाता है।
और उस गहराई
में दो घटनाएं
घटती है। एक—संभोग
के अनुभाव में
अहंकार नहीं
रह जाता। एक क्षण
काक यह याद भी
नहीं रह जाता
कि मैं हूं।
क्या
आपको पता है,
धर्म के श्रेष्ठतम
अनुभव में,
‘’मैं’’ बिलकुल
मिट जाता है।
अहंकार बिलकुल
शुन्य हो
जाता है। सेक्स
के अनुभव में
क्षण भर को जो
अहंकार मिटता
है। लगता है
कि हूं या
नहीं । एक
क्षण को विलीन
हो जाता है। ‘’मेरा
पन का भाव।‘’
दूसरी
घटना घटती है:
एक क्षण के
लिए समय मिट
जाता है,
टाइमलेसनेस
पैदा हो जाता
है।
दो
तत्व है,
जिनकी वजह से
आदमी सेक्स
की तरफ आतुर
होता है। और
पागल होता है।
वह आतुरता स्त्री
के शरीर के
लिए नहीं है
पुरूष की, न
पुरूष के शरीर
के लिए स्त्री
की है। वह
आतुरता शरीर
के लिए बिलकुल
भी नहीं है। वह
आतुरता शून्यता
का अनुभव समय
शून्यता का
अनुभव, लेकिन
समय शून्य और
अहंकार शून्य
होने के लिए
आतुर क्यों
है? क्योंकि
जैसे ही
अहंकार मिटता
है, आत्मा की
झलक उपलब्ध
होती है। जैसे
ही समय मिटता
है, परमात्मा
की झलक उपलब्ध
होती है।
सदियों
में धल में
दबे हीरे
जौहरी के साथ
पड़ चमक उठे
थे। और उनकी
चमक ने मनुष्यता
का एक नया युग
प्रारंभ होने
को था—हर
लांछन, हर
विरोध के
बावजूद।
2
अक्तूबर को इस
ऐतिहासिक सीरीज
का आखरी
प्रवचन था। आज लोगो
के सवालों के
जवाब दिए जाने
थे। पहला सवाल
स्वभाविक
यही पूछा गया
कि, ‘’आपने बोलने
के लिए सेक्स
का विषय क्यों
चूना?’’ उत्तर
में ओशो ने
अपने शब्दों
से एक चित्र
उकेरना शुरू
किया, ‘’एक बड़ा
बाजार है। उस
बड़े बजार को
कुछ लोग बंबई
कहते है। उस
बड़े बजार में
एक सभा थी और उस
सभा में एक
पंडित जी कबीर
क्या कहते
है, इस संबंध
में बोलते थे।
उन्होंने
कबीर की एक
पंक्ति कही और
उसका अर्थ
समझाया। उन्होंने
कहा, ‘’कबिरा खड़ा
बजार में लिए लुकाठी
हाथ, जो घर
बारे अपना चलो
हमारे साथ।
उन्होने कहा
कि कबीर बाजार
में खड़ा था और
चिल्ला रहा
था, कि मैं
लकड़ी उठा के
बोल रहा हूं
जो अपने घर को
जलाने की हिम्मत
रखते है।‘’
उस
सभा में मैंने
देखा कि लोग
यह बात सुनकर
बहुत खुश हुए।
मुझे बड़ी
हैरानी है—मुझे
हैरानी यह हुई
कि वे लोगे
खुश हो रहे थे,
उनमें से कोई
भी अपने घर को
जलाने को कभी
भी तैयार नहीं
था। लेकिन उन्हें
प्रसन्न
देखकर मैंने
सोचा कि
बेचारा कबीर
आज होता तो
कितना खुश न
होता। जब तीन
सौ साल पहल वह
था और बजार में
चिल्लाकर
उसने कहा होगा
तो एक भी आदमी
खुश नहीं
हुआ।
आदमी
की जात बड़ी अद्भुत
है। जो मर
जाते है, उनकी
बातें सुनकर
लोग खुश होते
है। और जो
जिंदा होते
है, उन्हें
मार डालने की
धमकी देते है।
‘’मैंने
सोचा कि आज
कबीर होते, इस
बंबई के बजार
में तो कितने
खुश होते कि लोग
कितने खुश है,
कितने प्रसन्न
है। लोगों की
प्रसन्नता
देख कर मुझे
ऐसा लगता है,
कि जो लोग
अपने घर को
जलाने के लिए
हिम्मत रखते
है और खुश
होते है,
उनमें कुछ दिल
की बातें आज
कही जाएं। तो
मैं
उसी धोखे में
आ गया, जिसमे
कबीर और क्राइस्ट
और सारे लोग
हमेशा आते रह है।
मैंने
लोगों से सत्य
की कुछ बातें
कहनी चाही। और
सत्य के
संबंध में कोई
बात कहनी हो
तो उन असत्यों
को सबसे पहले
तोड़ देना
जरूरी है, जो
आदमी ने सत्य
समझ रखे है।
मुझे
कहा गया था कि
इस सभा में कि
में प्रेम के
संबंध में कुछ
कहूं, और मुझे
लगा कि प्रेम
के संबंध में तब
तक बात समझ में
नहीं आ सकती,
जब तक कि हम
काम और सेक्स
के संबंध में
कुछ गलत धारणाएं
लिए हुए बैठे
रहे। अगर गलत
धारणाएं है
सेक्स के
संबंध में तो
प्रेम के
संबंध में हम
जो भी बात चीत
करेंगे, वह अधूरी
होगी, वह झूठी
होगी। वह सत्य
नहीं हो सकती।
इसलिए
उस सभा में
मैंने काम और सेक्स
से संबंध में कुछ
कहा। और यह
कहा कि काम की
उर्जा ही
रूपांतरित होकर
प्रेम की
अभिव्यक्ति
बनती है।
लेकिन
जो काम के
विरोध में हो
जाएगा, वह उसे
प्रेम कैसे
बनाएगा। जो
काम का शत्रु
हो जाएगा। वह
उसे कैसे
रूपांतरित
करेगा। इसलिए
सेक्स इस लिए
सेक्स को
समझना जरूरी
है। यह मैंने
कहा कि उसे
रूपांतरित
करना जरूरी
है।
मैंने
सोचा था, जो
लोग सिर
हिलाते थे घर
जलाने पर, वे
लोग मेरी बातें
सुनकर बड़े
खुश होंगे।
लेकिन मुझसे
बड़ी गलती हो
गइ। जब मैं
मंच से नीचे उतरा
तो जितने नेता
थे, जितने
संयोजक थे, वे
सब भाग गये
थे। वे मुझे
उतरते वक्त
कोई नहीं मिला।
वे शायद अपने
घर चले गये।
कि कहीं घर में
आग न लग जाये।
उस के बुझाने
का इंतजाम
करने के लिए।
मुझे धन्यवाद
करने को भी
संयोजक वहां नहीं
थे। जितनी भी
सफेद टोपियों
थी, जितने भी
खादी वाले लोग
थे, वे जा चुके
थे।
लेकिन
कुछ हिम्मतवर
लोग जरूर आगे
आए। कुछ बच्चे
आए, कुछ बच्चियां
आई, कुछ बूढे
आये। कुछ जवान
आये। और उन्होंने
मुझसे कहा कि
आपने वह बातें
हमें कही है, जो
हमें किसी ने
भी कभी नहीं कही।
और हमारी आंखे
खोल दी है।
हमें बहुत ही
प्रकाश अनुभव
हो रहा है। तो
फिर मैंने
सोचा कि उचित
होगा इस बात
को और ठीक से
पूरी तरह कहा
जाए, इसलिए यह
विषय मैंने यहां
चुना। इन चार
दिनों में वह कहानी
जो वहां अधूरी
रह गई थी, उसे
पूरा करने का
एक कारण यह था
कि लोगों ने
मुझे कहा, और उन
लोगों ने
कहां, जिनकी
जीवन को समझने
की हार्दिक
चेष्टा है।
एक तो कारण यह
था।
और
दूसरा कारण यह
था कि वे जो
लोग भाग गए थे मंच से,
उन्होंने
जगह-जगह जाकर
कहना शुरू कर
दिया कि मैंने
तो ऐसी बातें
कही है कि
धर्म का विनाश
ही हो जाएगा।
तो
मैंने कहा कि
अगर थोड़ी सी
किरण से इतनी
बेचैनी हुर्इ
है तो फिर
पूरे प्रकाश
की चर्चा कर
लेनी ही उचित
है। ताकि बात
साफ हो सके।
ज्ञान मनुष्य
को धार्मिक
बनाता है या
अधार्मिक। यह
कारण था इसलिए
यह विषय चुना।
और अगर यह
कारण न होता
तो शायद मुझे
अचानक ख्याल
न आता इसे
चुनने को।
शायद इस पर
मैं कोई बात न
करता। इस
लिहाज से वे
लोग धन्यवाद
के पात्र है,
जिन्होंने
अवसर पैदा कर
दिया और यह
विषय मुझे चुनना
पडा.....।
इसी
प्रश्न के
जवाब में आगे
बोलते हुए उन्होंने
बताया कि
भारतीय
विद्या भवन में
बोल कर जब वे
जबलपुर वापस
लोटे तो तीसरे
दिन उन्हें
एक पत्र मिला
कि अगर आप इस
तरह की बातें
करना बंद नहीं
कर देते है तो
आपको गोली क्यों
न मार दी जाए? उस
पत्र का
सार्वजनिक
जवाब देते हुए
वे बोले, ‘’मैंने
उन्हें उत्तर
देना चाहा,
लेकिन वह गोली
मारने वाले
सज्जन बहुत
कायर थे। न
उन्होंने
अपना नाम ही
लिखा, न पता,
शायद वे डर
गये होगें कि
मैं कहीं पुलिस
को न दे दूँ। लेकिन
अगर वह यहां
कही हो—अगर होंगे
तो जरूर किसी
झाड़ के पीछे
या किसी दिवाल
के पीछे छिपे
होंगे। अगर यह
यहां कहीं हो
तो मैं उनको
कहना चाहता
हूं कि पुलिस
को देने की कोई
जरूरत नहीं हे।
वह अपना नाम और
पता मुझे भेज
दे। ताकि मैं
उनको उत्तर
तो दे सकूँ।
लेकिन अगर
उनकी हिम्मत
न हो तो मैं उत्तर
यही दिए देता
हूं, ताकि वे
सून सके।
पहली
तो बात यह है
कि इतनी जल्दी
गोली मारने की
मत करना, क्योंकि
गोली मारते ही
जो बात में कह
रहा था वह परम
हो जाएगी।
इसका उनको पता
नहीं है। जीसस
क्राइस्ट को
दुनियां कभी
की भूल चूकि
होती। अगर
उनको सूली नहीं
दी जाती। सूली
देने वाले ने
बड़ी कृपा की।
दूसरी
बात यह कहना
चाहता हूं कि घबराइए
न वे। मेरे
इरादे खाट पर
मरने के है भी
नहीं। मैं
पूरी कोशिश
करूंगा कि कोई
न कोई मुझे
गोली मारे। तो
मैं खुद ही
कोशिश करुंगा,
जल्दी उनको
करने की आवश्यकता
नहीं है। जिंदगी
काम आती है और गोली
लग जाए तो मौत
भी काम आ जाती
है। और जिंदगी
से ज्यादा
काम आ जाती
है। जिंदगी जो
नहीं कर पाती
वह गोली लगी
हुई जिंदगी
काम कर जाती
है।
सुकरात
से किसी ने
पूछा, उसके मित्रों
ने कि अब तुम्हें
जहर दे दिया
जाएगा, अब तुम
मर जाओगे। तो
हम तुम्हारे गाड़ने
की कैसी व्यवस्था
करेंगे? जलाएं, कब्र
बनाए, क्या
करें?
सुकरात ने
कहा, पागलों
तुम्हें पता
नहीं है कि
तुम मुझे गाड़
नहीं सकोगे।
तुम जब सब मिट
जाओगे, तब भी
मैं जिंदा रहूंगा।
मैंने मरने की
जो तरकीब चुनी
है। वह हमेशा
जिंदा रहने
वाली है।
पूरी
सभा स्तब्ध
थी। इतिहास भी
स्तब्ध था।
दो दशक बाद ही
ओशो के ये शब्द
यथार्थ होने
को थे।
स्वामी
संजय भारती
अप्रकाशित
पुस्तक ‘’ओशो की
शौर्य गाथा’’
namana !!!!
जवाब देंहटाएंrula diya swamiji !!!
sukriyaaaaa