काम
संबंधि चौथा सूत्र--
‘’बहुत समय
बाद किसी
मित्र से
मिलने पर जो
हर्ष होता है,
उस हर्ष में
लीन होओ।‘’
‘’बहुत समय
बाद किसी
मित्र से
मिलने पर जो
हर्ष होता
है।‘’
तुम्हें
अचानक कोई
मित्र मिल
जाता है जिसे
देखे हुए बहुत
दिन, बहुत
वर्ष हो गए
है। और तुम अचानक
हर्ष से,
आह्लाद से भर
जाते हो।
लेकिन अगर
तुम्हारा ध्यान
मित्र पर है,
हर्ष पर नहीं
तो तुम चूक
रहे हो। और यह
हर्ष क्षणिक
होगा। तुम्हारा
सारा ध्यान
मित्र पर
केंद्रित
होगा, तुम
उससे बातचीत करने
में मशगूल
रहोगे। तुम
पुरानी स्मृतियों
को ताजा करने
में लगे
रहोगे। तब तुम
इस हर्ष को
चूक जाओगे। और
हर्ष भी विदा
हो जाएगा।
इसलिए जब किसी
मित्र से
मिलना हो और
अचानक तुम्हारे
ह्रदय में
हर्ष उठे तो
उस हर्ष पर
अपने को
एकाग्र करो।
उस हर्ष को
महसूस करो।
उसके साथ एक
हो जाओ। और तब
हर्ष से भरे
हुए और
बोधपूर्ण रहते
हुए अपने
मित्र को मिलो।
मित्र को बस
परिधि पर रहने
दो और तुम
अपने सुख के
भाव के में
केंद्रित हो
जाओ।
अन्य अनेक
स्थितियों
में भी यह
किया जा सकता
है। सूरज उग रहा
है और तुम
अचानक अपने
भीतर भी कुछ
उगता हुआ अनुभव
करते हो। तब
सूरज को भूल
जाओ, उसे
परिधि पर ही
रहने दो और
तुम उठती हुई
उर्जा के अपने
भाव में केंद्रित
हो जाओ। जब
तुम उस पर ध्यान
दोगे, वह भाव
फैलने लगेगा।
और वह भाव
तुम्हारे
सारे शरीर पर,
तुम्हारे
पूरे अस्तित्व
पर फैल जाएगा।
और बस दर्शन
ही मत बने
रहो। उसमे
विलीन हो जाओ।
ऐसे क्षण
बहुत थोड़े
होते है, जब
तुम हर्ष या
आह्लाद अनुभव
करते हो, सुख
और आनंद से
भरते हो। और
तुम उन्हें
भी चूक जाते
हो। क्योंकि
तुम विषय
केंद्रित
होते हो। जब
भी प्रसन्नता
आती है। सुख
आता है, तुम
समझते हो कि
यह बाहर से आ
रहा है।
किसी मित्र
से मिलने हो,
स्वभावत:
लगता है कि
सुख मित्र से
आ रहा है।
मित्र के
मिलने से आ
रहा है। लेकिन
यह हकीकत नहीं
है। सुख सदा
तुम्हारे
भीतर है।
मित्र तो
सिर्फ परिस्थिति
निर्मित
करता है।
मित्र ने सुख
को बाहर आने
का अवसर दिया।
और उसने तुम्हें
उस सुख को
देखने में हाथ
बंटाया।
यह नियम
सुख के लिए ही
नहीं। सब
चीजों के लिए है;
क्रोध, शोक,
संताप, सुख, सब
पर लागू होता
है। ऐसा ही
है। दूसरे
केवल परिस्थिति
बनाते है
जिसमे जो तुम्हारे
भीतर छिपा है
वह प्रकट हो
जाता है। वे
कारण नहीं है।
वे तुम्हारे
भीतर कुछ पैदा
नहीं करते है।
जो भी घटित हो
रहा है वह
तुम्हें
घटित हो रहा
है। वह सदा
है। मित्र का
मिलन सिर्फ अवसर
बना, जिसमे
अव्यक्त व्यक्त
हो रहा है।
अप्रकट हो
गया।
जब भी यह
सुख घटित हो,
उसके आंतरिक
भाव में स्थित
रहो और तब
जीवन में सभी
चीजों के
प्रति तुम्हारी
दृष्टि भिन्न
हो जाएगी।
नकारात्मक
भावों के साथ
भी यह प्रयोग
किया जा सकता
है। जब क्रोध
आए तो उस व्यक्ति
की फिक्र मत
करो जिसने
क्रोध करवाया,
उसे परिधि पर
छोड़ दो और
तुम क्रोध ही
हो जाओ। क्रोध
को उसकी
समग्रता में
अनुभव करो,
उसे अपने भीतर
पूरी तरह घटित
होने दो।
उसे
तर्क-संगत
बनाने की चेष्टा
मत करो। यह मत कहो
कि इस व्यक्ति
ने क्रोध
करवाया। उस व्यक्ति
की निंदा मत
करो। वह तो
निर्मित
मात्र है। उसका
उपकार मानों
कि उसने तुम्हारे
भीतर दमित
भावों को
प्रकट होने का
मौका दिया।
उसने तुम पर
कहीं चोट की। और
वहां से घाव
छिपा पडा था।
अब तुम्हें
उस घाव का पता
चल गया है। अब
तुम वह घाव ही
बन जाओ।
विधायक या
नकारात्मक,
किसी भी भाव
के साथ प्रयोग
करो और तुम में
भारी
परिवर्तन
घटित होगा।
अगर भाव
नकारात्मक
है तो उसके
प्रति सजग
होकर तुम उससे
मुक्त हो
जाओगे। और अगर
भाव विधायक है
तो तुम भाव ही
बन जाओगे। अगर
यह सुख है तो
तुम सुख बन
जाओगे। लेकिन
यह क्रोध
विसर्जित हो
जाएगा। और नकारात्मक
और विधायक
भावों का भेद
भी यही है।
अगर तुम किसी भाव
के प्रति सजग
होते हो और उससे
वह भाव
विसर्जित हो
जाता है तो
समझना कि वह
नकारात्मक
भाव है। और यदि
किसी भाव के
प्रति सजग
होने से तुम
वह भाव ही बन
जाते हो और वह
भाव फैलकर
तुम्हारे
तन-प्राण पर
छा जाता है तो
समझना कि वह
विधायक भाव
है। दोनों
मामलों में बोध
अलग-अलग ढंग
से काम करता
है। अगर कोई जहरीला
भाव है तो बोध
के द्वारा तुम
उससे मुक्त
हो सकते हो। और
अगर भाव शुभ
है, आनंदपूर्ण
है, सुंदर है
तो तुम उससे
एक हो जाते
हो। बोध उसे
प्रगाढ़ कर
देता है।
मेरे लिए
यही कसौटी है।
अगर कोई वृति
बोध से सघन
होती है तो वह
शुभ है और अगर
बोध से
विसर्जित हो
जाती है तो
उसे अशुभ मानना
चाहिए। जो चीज
होश के साथ न
जी सके वह पाप है
और जो होश के
साथ वृद्धि को
प्राप्त हो
वह पुण्य है।
पुण्य और पाप
सामाजिक धारणाएं
नहीं है। वे
आंतरिक उपलब्धियां
है।
अपने बोध
को जगाओं,
उसका उपयोग
करो। यह ऐसा
ही है जैसे कि
अंधकार है और तुम
दीया जलाये
हो। दीए के
जलते ही
अंधकार विदा
हो जाएगा।
प्रकाश के आने
से अँधेरा नहीं
हो जाता है।
क्योंकि वस्तुत:
अँधेरा नहीं था।
अंधकार
प्रकाश का
आभाव है। वह
प्रकाश की अनुपस्थिति
था। लेकिन
प्रकाश के आने
से वहां मौजूद
अनेक चीजें
प्रकाशित भी
हो जाएंगी।
प्रकट हो जायेगी।
प्रकाश के आने
से ये
अलमारियां,
किताबें,
दीवारें विलीन
नहीं हो
जाएंगी।
अंधकार में वे
छिपी थी, तुम
उन्हें नहीं देख
सकते थे।
प्रकाश के आने
से अंधकार
विदा हो गया
लेकिन उसके
साथ ही जो
यथार्थ था वह
प्रकट हो गया।
बोध के द्वारा
जो भी अंधकार
की तरह
नकारात्मक है—धृणा,
क्रोध, दुःख, हिंसा—वह
विसर्जित हो
जाएगा और उसके
साथ ही प्रेम, हर्ष,
आनंद जैसी
विधायक चीजें
पहली बार तुम
पर प्रकट हो
जाएंगी।
इसलिए ‘’बहुत
समय के बाद
किसी मित्र से
मिलने पर जो
हर्ष होता है,
उस हर्ष में लीन
होओ।‘’
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग—3
प्रवचन-33
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