परीक्षा
के गहन
सोपान—प्रवचन—दूसरा
दिनांक:
27 सितंबर, 1976
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
सूत्र्?
इहामुत्र
विरक्तस्थ
नित्यानित्यविवेकिन:।
धीरस्तु
भोज्यमानोउयि
यीड्यमानोऽपि
सर्वदा।
आत्मानं
केवलं पश्यन्
न तुष्यति न
कुष्यति।।54।।
चेष्टमानं
शरीरं स्व पश्यत्यन्यशरीरवत्।
संस्तवे
चापि निदाया
कथं मुध्येत्
महाशय:।।55।।
मायामात्रमिद
विश्व पश्यन्
विगतकौतुक।
अपि
सन्निहिते
मृत्यौ कथं
त्रस्यति
धीरधी।! 56।।
निस्थृहं
मानस यस्य
नैराश्येउयि
महात्मन:।
तस्यात्म
ज्ञानतृप्तस्थ
तुलना केन
जायते।।57।।
स्वभावादेव
जानानो
झयमेतब्र
किंचन।
हद
ग्राह्यमिदं
त्याज्य स किं
पश्यति धीरधी।।
58।।
अन्तस्लक्तकषायस्थ
निर्द्वन्द्वस्थ
निराशिष।
एक
फूल का खिल
जाना ही,
उपवन
का मधुमास
नहीं है।
बाहर
घर का जगमग
करना,
भीतर
का उल्लास
नहीं है।
ऊपर
से हम खुशी
मनाते,
पर
पीड़ा न जाती
घर से।
अमराई
के लहराने पर
भी,
सुलगा
करते हैं भीतर
से।
रेतीले
कण की तृप्ति
से,
बुझती
अपनी प्यास
नहीं है।
एक
फूल का खिल
जाना ही,
उपवन
का मधुमास
नहीं है।
इधर
गरजता काला
बादल,
आग
उगलता सागर
गहरा।
कुटि
पुरानी
सन्यासिन पर,
अवसादों
का निशि—दिन
पहरा।
इक
पहरे का सो
जाना ही,
मुक्ति
का आभास नहीं
है।
एक
फूल का खिल जाना
ही,
उपवन
का मधुमास
नहीं है।
खतरा
इसका है कि एक
फूल के खिल
जाने को कोई
समझ ले वसंत
का आगमन हो
गया! जब तक कि
पूरे प्राण ही
न खिल जाएं, जब
तक कि पूरी
चेतना ही
कमलों से न ढक
जाए, जब तक
कि सारा
अंतस्तल
प्रकाश से
मंडित न हो
जाए..।
एक
किरण के उतर
लेने को सूर्य
का आगमन मत
मान लेना, और
एक फूल के खिल
जाने को
मधुमास मत मान
लेना। इसलिए गुरु
के द्वारा
परीक्षा
जरूरी है। हम
इतने अंधेरे
में रहे हैं, इतने जन्मों,
जीवनों, कि
जरा—सी भी
तृप्ति की
झलक—और हमें
लगता है आ गया
मोक्ष का
द्वार! जरा—सी
सुगंध—लगता है
पहुंच गए उस
महा उपवन में।
आंख में
प्रकाश का
सपना भी डोल
जाए तो लगता
है —हो गया
सूर्योदय।
हमारा
लगना भी ठीक
है,
क्योंकि
हमने कभी दुख
के सिवाय कुछ
जाना नहीं।
सुख की जरा—सी
पुलक, सिहरन,
जरा—सा
रोमांच हमें
आह्लादित कर
जाता है। हम नर्क
में ही जीए
हैं; स्वर्ग
का स्वप्न भी
हमें तृप्ति
देता मालूम
पड़ता है।
लेकिन
गुरु की जरूरत
ही यही है कि
वह हमें जगाए
जाए;
वह कहे, अभी
बहुत फूल
खिलने को हैं,
वह हमें
रुकने न दे, वह हमें
बढ़ाए चले; वह
कहे चले. और
आगे, और
आगे.! वह तब तक
हमें न ठहरने
दे, जब तक
कि समस्त जीवन
सुगंध से न भर
जाए; जब तक
कि प्राणों का
कोना—कोना ही
प्रकाश से
आच्छादित न हो
जाए; जब तक
कि हम स्वयं
प्रकाश—रूप न
हो जाएं; हमारे
भीतर सिवाय
प्रकाश के और
कुछ भी न बचे। तभी
जानना कि हुआ
वसंत का आगमन।
एक
फूल का खिल
जाना ही
उपवन
का मधुमास
नहीं है।
और
एक पहरे का सो
जाना ही
मुक्ति
का आभास नहीं
है।
इसलिए
जनक का यह जो
आनंद है, इसको
अष्टावक्र ने
चुपचाप
स्वीकार नहीं
कर लिया। इसकी
वे बड़ी कसौटी
करने लगे।
कहीं ऐसा तो
नहीं है कि
बहुत दिन का
भूखा—प्यासा
रूखी—सूखी
रोटी पा गया
है और समझ रहा
है कि मिल गया
अंतिम ?
ऐसा तो नहीं
है कि बहुत
थका—मादा धूप
का, जरा—सी
छाया में बैठ
गया है—चाहे
खजूर के वृक्ष
की छाया ही
क्यों न हो—और
सोचता है, आ
गया
कल्पवृक्ष के
नीचे न:
क्योंकि हम जो
भी देखते हैं,
वह हमारे
अतीत अनुभव से
देखते हैं।
एक
गरीब आदमी को
एक रुपया पड़ा
हुआ मिल जाए
तो आह्लादित
हो जाता है।
अमीर को एक
रुपया पड़ा हुआ
मिले, तो कुछ
भी पड़ा हुआ
नहीं मिला।
रुपया वही है,
लेकिन गरीब
अपने अतीत से
तौलता है, अमीर
अपने अतीत से
तौलता है।
बहुत है उसके
पास; उसमें
एक रुपये के
जुड्ने से कुछ
भी नहीं जुड़ता।
गरीब के पास
कुछ भी नहीं
है; उसमें
एक रुपये का
जुड़ जाना, जैसे
सारे जगत की संपदा
का जुड़ जाना
है। रुपया तो
वही है, लेकिन
हमारी
प्रतीति
तुलनात्मक और
सापेंक्ष
होती है। हम
अपने ही अनुभव
से देखते हैं।
मैं
कल एक छोटी—सी
कहानी पढ़ता
था। एक
भूतपूर्व
महाराजा ने
अपने
संस्मरणों
में लिखी है, कि
उन्होंने एक
नए नौकर को
नौकरी पर रखा।
और उसे हुक्म
दिया : झिनकु
पीकदान उठा कर
ला। झिनकू की
समझ में नहीं
आया। पीकदान
शब्द उसने कभी
सुना ही नहीं
था। थूकने के
लिए भी
स्वर्णपात्र
होते हैं, यह
उसका अनुभव न
था। कोने में
ही रखा है
स्वर्णपात्र—हीरे—जवाहरातो
से
जड़ा। सम्राट
ने फिर कहा कि
समझ में नहीं
आया रे? अबे,
वह कोने में
जो
स्वर्णपात्र
रखा है, उसे
उठा
कर
ला।
झिनकू
ने पीकदान में
झांक कर देखा
और बोला. तनिक
रुको हजूर! एह
में कौन्हों
मूरख यूकी मरा
है। मेहंतरवा
बुलाई...।
पीकदान
गरीब का अनुभव
नहीं है! वह तो
कहीं भी थूकता
रहता है; सारी
पृथ्वी
पीकदान है। और
स्वर्णपात्र!
यूकने के लिए
सोने का
पात्र!
हम
अपने अनुभव से
तौलते हैं। हम
जो भी व्याख्या
करते हैं जीवन
की,
वह
व्याख्या
हमसे आती
तो
अष्टावक्र
सोचते हैं.
जनक ने कभी
जाना नहीं यह
अहोभाव, यह
आश्चर्य, यह
अपूर्व घटना
कभी घटी
नहीं—कहीं ऐसा
तो नहीं है, एक फूल के
खिल जाने को मधुमास
का आगमन समझ
बैठा हो?
जिसने
फूल देखे ही
नहीं, जो
मरुस्थलों
में ही जीया
हो, वह एक
फूल के आगमन
को भी मधुमास
समझ सकता है।
उसके भीतर की
भूख धोखा दे
सकती है। इसी
तरह तो मृग—मरीचिका
पैदा होती है।
मरुस्थल में
जब कोई भटक
जाता है, घंटों
और दिनों की
प्यास से जब
घिर जाता है, तो
मृग—मरीचिका
पैदा होती है।
यही आदमी अगर
तृप्त हो, इसके
पास जल की
बोतल हो, सुराही
हो और जब
प्यास लगे, तब यह अपना
जल पी ले—तो
मृग—मरीचिका
नहीं होती।
लेकिन जब
प्यास बहुत हो
जाती है और
प्राण तड़पने
लगते हैं, और
मरुस्थल में
कहीं कोई उपाय
नहीं देखता कि
कहीं कोई
जलधार है, कि
कोई मरूद्यान
है, फिर
भ्रम होने
शुरू होते
हैं। फिर
किरणों के ही
नियम के आधार
पर इसे दूर
मरूद्यान
दिखाई पड़ने
लगता है।
मरूद्यान का
धोखा किरणों
के कारण जितना
होता है, उससे
भी ज्यादा
प्यास के कारण
होता है।
प्यास इतनी है
कि जो नहीं है,
उसे भी देख
लेने की आकांक्षा
होने लगती है।
प्यास इतनी है
कि जो नहीं है,
उसका भी
स्वप्न हम
साकार कर लेते
हैं।
प्यासे
को
मृग—मरीचिका
का भ्रम हो
जाता है। भयभीत
को रस्सी में
सांप दिख जाता
है। रस्सी में
सांप नहीं
होता—भय में
होता है। अगर
बहुत बार सांप
से मुकाबला
हुआ हो और
बहुत बार सांप
का दंश झेला
हो और सांप की
घबड़ाहट
प्राणों में
बैठ गई हो, तो
रस्सी में
सांप दिख जाए,
इसमें
आश्चर्य
नहीं। रस्सी
में सांप नहीं
होता—देखने
वाले की आंख
और उसके भय
में होता है, उसे आरोपित
कर लेता है।
तो
अष्टावक्र
परीक्षा ले
रहे हैं इसीलिए।
हो भी सकता है
सूर्योदय हुआ
हो,
और हो भी
सकता है सिर्फ
अंधेरे में
रहने के कारण
प्रकाश का
सपना देखा हो।
फिर
दूसरी
बात—इसके पहले
कि हम सूत्र
में उतरें—जिसके
अनुभव में आता
है,
अनुभव तो
सत्य है। जैसे
मैंने जाना तो
वह मेरे लिए
सत्य है—तुमसे
कहा, वह
असत्य होना
शुरू हो गया।
सत्य कहते ही
असत्य होना
शुरू हो जाता
है। जब तक
मैंने अपने
भीतर रखा—जो
मैंने जाना—तब
तक वह सत्य है;
क्योंकि
मैंने जाना, अनुभव किया,
वह मेरी
प्रतीति है, मेरा
साक्षात्कार
है। जैसे ही
तुमसे कहा, शब्द बनाए, व्यवस्था दी,
संवाद किया,
तुम तक
पहुंचाया—वह
असत्य होना
शुरू हो गया।
पहले तो जब
मैंने शब्दों
में बांधा
निःशब्द को, तब बहुत कुछ
टूट गया। जब
मैंने विराट
को भरा छोटे
—से आंगन में, तब बहुत कुछ
छूट गया। जब
सुबह की ताजगी
को शब्दों की
मंजूषा में
कैद किया,
तब
कुछ मर गया।
जैसे सुबह का
सूरज निकला है, नाचती
किरणें हरे
वृक्षों को
पार करती हैं,
वृक्ष
मस्ती में
मदमाते हैं, सुबह की हवा
आनंद से नाचती—
भागती है, खिलखिलाती,
ठिठलाती है—इस
सबको तुम एक
छोटी—सी पेटी
में बंद कर
लो। तुम जाओ
उस जगह जहां
सूरज की
किरणें वृक्ष
से छन—छन कर
जमीन पर गिर
रही हैं और
हवा ने जहां पत्तों
के साथ रास
रचाया है, और
जहां गंध है
और जहां सुबह
का ताजा
माधुर्य है—तुम
इसे एक पेटी
में बंद कर
लो। पेटी तुम
उठा कर ले आओ —खाली
पेटी ही आती
है! शायद थोड़ी—बहुत
भनक आ जाए
सुगंध की।
लेकिन कैसे
बाधोगे प्रकाश
को? और
सुगंध भी पेटी
में बंद होते
ही जल्दी ही दुर्गंध
हो जाएगी।
जो
जाना जाता है, वह
तो है शून्य
में, मौन
में, प्रगाढ़
निःशब्द में,
फिर जैसे ही
शब्द में रखा—
अस्तव्यस्त
हुआ। फिर
कठिनाई यही
नहीं है। शब्द
में रखने से
आधा सत्य तो
मर जाता है, आधा भी बच
जाए तो बहुत; यह कहने
वाले की
कुशलता पर
निर्भर है।
इसलिए
दुनिया में
ज्ञानी तो
बहुत होते हैं, सदगुरु
बहुत नहीं।
सदगुरु का
अर्थ है :
जिसने जाना और
जो ऐसी कुशलता
से कह देता है
कि सत्य का
कुछ अंश तो
पहुंच ही जाए
तुम तक। शिष्य
तक कुछ पहुंच
जाए, ऐसी
कुशलता का नाम
सदगुरु है।
ज्ञानी तो
बहुत होते
हैं।
बुद्ध
को किसी ने पूछा
है एक दिन कि
ये दस हजार
भिक्षु हैं
तुम्हारे, वर्षों
से तुम्हारे
साथ हैं, जीवन
अर्पित किया
है, साधना
की है, साधना
में लगे हैं, इनमें से
कितने
बुद्धत्व को
उपलब्ध हुए? बुद्ध ने
कहा : इनमें से
बहुत उपलब्ध
हुए हैं, बहुत
उपलब्ध हो रहे
हैं, बहुत
उपलब्ध होने के
मार्ग पर हैं।
कुछ चल पड़े
हैं, कुछ
पहुंचने के
करीब हैं, कुछ
पहुंच भी गए
हैं।
पूछने
वाले ने कहा, इस
पर भरोसा नहीं
आता, क्योंकि
इनमें से आप
जैसा तो कोई
भी नहीं दिखता।
बुद्ध हंसने
लगे।
उन्होंने कहा
: यह सच है। बुद्ध
होने से ही
कोई दिखाई
नहीं पड़ता, जब तक कि बुद्धत्व
को
अभिव्यक्ति न
दे; जब तक
कि बुद्धत्व
को बोले न; जब
तक कि
बुद्धत्व को
गुनगुनाए
नहीं, गीत
न बनाए; जब
तक कि
बुद्धत्व को
बांधे नहीं
छंद और मात्रा
में; जब तक
कि बुद्धत्व
को दूसरे तक
पहुंचाए
नहीं। जब तक
बुद्धत्व
सवांदित न हो,
तब तक पता
कैसे चले? और
जब तक मैं
जीवित हूं तब
तक ये बोलेंगे
भी नहीं। क्योंकि
ये कहते हैं, जब आप मौजूद
हैं तो हम
बोलें क्या? आपकी
मौजूदगी में
क्या बोलें?
इनमें बहुत
पहुंच गए हैं।
बहुत तो बोलेंगे
भी नहीं, क्योंकि
बोलना एक अलग
कुशलता है।
पा
लेना एक बात
है,
बोलना बड़ी
दूसरी बात है।
पा लेने वाले
को
जैनशास्त्र
कहते हैं :
केवली जिन। और
बता देने वाले
को
जैनशास्त्र
कहते हैं : तीर्थंकर।
हजारों 'केवली'
होते हैं, तब कहीं
एकाध
तीर्थंकर
होता है।
तीर्थंकर का अर्थ
है : जो खुद ही
पार नहीं हुआ,
बल्कि
जिसने घाट
बनाया, नाव
बनाई, औरों
को भी बिठाया
नाव में, घाट
से उतारा और
चलाया। तीर्थ
यानी घाट।
तीर्थंकर
यानी घाट को
बनाने वाला; खुद तैर कर
तो बहुत लोग
पार हो जाते
हैं, लेकिन
दूसरों को नाव
पर ले जाने
वाला। पर ध्यान
रखना, जैसे
ही—बडे से बड़ा
तीर्थंकर हो,
बड़ा से बड़ा
सदगुरु हो—जैसे
ही शब्द देता
अनुभव को, अनुभव
झूठ होने लगता
है। उसमें से
कुछ तो
तत्क्षण मरने
लगता है; अंश
ही पहुंचता
है। फिर
पहुंचने वाले
पर निर्भर है
कितना
पहुंचेगा।
पहले तो बोलने
वाले पर निर्भर
है कितना भर
पाएगा; फिर
सुनने वाले पर
निर्भर है
कितना खोल
पाएगा!
तो
सभी सुन रहे
हो तुम, लेकिन
सभी उतना ही न
खोल पाओगे, एक जैसा न
खोल पाओगे।
कोई बहुत खोल
लेगा, कोई
तुम्हारे पास
में ही बैठा
हुआ गदगद हो
जाएगा और तुम
चौंकोगे कि
क्या यह आदमी
पागल है! उसने
कुछ तुमसे
ज्यादा खोल
लिया। उसके
हृदय तक बात
पहुंच गई।
तुम्हारे
शायद सिर में
ही गूंजती रह
गई। शायद तुम
शब्दों का ही
हिसाब बिठाते
रहे। उस तक
मर्म पहुंच
गया। फिर तुम
पर निर्भर है
कि कितना तुम
खोलोगे।
लेकिन फिर कुछ
सत्य मरेगा
तुम्हारे
खोलने में। जो
बांधा गया है
शब्दों में, वह शब्दातीत
है। फिर शब्द
से तुम्हें
शब्दातीत को
छांटना होगा;
शब्द से फिर
तुम्हें अर्थ
को अलग करना
होगा, फिर
शब्द की परिधि
तोड़नी होगी, सीमा तोड़नी
होगी, असीम
को फिर मुका
करना होगा।
एक
पक्षी को, अनंत
के पक्षी को
पिंजरे में रख
कर मैं तुम्हें
देता हूं।
उनमें से बहुत
से तो ऐसे हैं
कि पिंजरे के
सौंदर्य पर
मोहित हो
जाएंगे, पक्षी
को भूल
जाएंगे।
बहुत—से तो
ऐसे हैं, पिंजरे
को सिर पर ले
कर चलने
लगेंगे, पक्षी
की उन्हें याद
नहीं आएगी, पहचान भी न
होगी।
पिंजरे
के लिए पिंजरा
नहीं दिया था, भीतर
एक जीवंत
पक्षी है, उसके
दिए दिया था।
पिंजरा तो
बनाया ही
इसलिए था कि
पक्षी तुम तक
पहुंच जाए, नहीं तो
मेरे हाथ से
उड़ेगा और तुम
तक कभी
पहुंचेगा
नहीं।
इसलिए
शब्द का, शास्त्र
का पिंजरा है;
सिद्धात का,
भाषा का
पिंजरा है।
उसे जितना
सुंदर बना
सकें, बनाने
की कोशिश की
जाती है, ताकि
उसके सौंदर्य
से तुम उसके
भीतर प्रवेश पाने
की आकांक्षा
से भरो; ताकि
तुममें प्यास
उठे कि जो
बाहर से इतना
सुंदर है पिंजरा,
भीतर भी
देखें! लेकिन
बहुत हैं, जो
पिंजरे को
सम्हाल कर रख
लेंगे; वे
पंडित हो
जाएंगे। वे
दोहराने
लगेंगे मेरे शब्दों
को; वे
मेरे पिंजरे
को ले कर
घूमने लगेंगे
और दिखाने
लगेंगे लोगों
को कि देखो, कैसा सुंदर
पिंजरा है!
कैसा सुंदर
दर्शनशास्त्र,
कैसा
प्यारा सिद्धात,
कैसा
हृदयग्राही
मंतव्य, कैसी
बात कही, कैसी
भा गई मन को, कैसी रच गई, कैसी रंग से
भरी, कैसी
इंद्रधनुषी!
मगर भूल
जाएंगे कि
पिंजरे के लिए
पिंजरा नहीं
दिया था। कुछ
उनमें से पिंजरे
के भीतर छिपे
पक्षी को भी
पहचान लेंगे,
लेकिन उसे
पिंजरे से
मुक्त न कर
पाएंगे, वह
पिंजरे में ही
बंद रहेगा।
अगर बहुत
ज्यादा दिन
बंद रह गया, तो पक्षी की
उड़ने की
क्षमता खो
जाएगी।
मुझसे
शब्द मिलें तो
देर मत करना, उसे
जल्दी
निःशब्द में
खोल लेना। तुम
मुझसे जो सुनो,
देर मत करना,
उसे ध्यान
में जल्दी ही
रूपांतरित कर
लेना। क्योंकि
जितनी देर हो
जाएगी, उतनी
ही कठिनाई हो
जाएगी। इधर
सुनो, उधर
ध्यान में
मुक्त कर
लेना। इधर मैं
पिंजरा तुम्हारे
हाथ में दूं
तुम रुकना मत!
पिंजरा हाथ
में लेते ही
द्वार खोलना,
पक्षी को
मुक्त कर
लेना। अगर
ज्यादा देर हो
गई, तुमने
कहा कल करेंगे,
तुमने कहा
परसों करेंगे,
तुमने कहा
जब सुविधा
होगी तब
करेंगे, अभी
तो नोट—बुक
में लिख लें, फिर पीछे
अर्थ निकाल
लेंगे, फिर
सोच लेंगे, जल्दी क्या
है? सुविधा
से, मौके
पर—तो तुम जब
अर्थ निकालने
जाओगे, तब
तक अर्थ मर
चुका होगा; शब्द ही रह
जाएंगे, पिंजरा
ही रह जाएगा।
तुमने अगर
पक्षी मुक्त न
किया, तो
पक्षी मर
चुकेगा। फिर
तुम जब खोलोगे
भी, तो लाश
मिलेगी; उसके
प्राण तो जा
चुके होंगे, क्योंकि
उसके प्राण तो
अनंत के हैं, उसके प्राण
तो शून्य के
हैं, उसके
प्राण तो आकाश
के हैं। वह
पक्षी पिंजरे
में रहने को
बना नहीं। देह
पड़ी रह जाएगी,
प्राण का
पखेरू तो उड़
जाएगा। फिर
तुम उस देह की
कितनी ही पूजा
करो, तो भी
उसमें प्राण न
आएंगे। ऐसे ही
तो तुम पूजा
कर रहे हो
मंदिरों में,
मस्जिदों
में, गुरुद्वारों
में—मरे
पक्षियों की
पूजा कर रहे
हो! अब प्राण
डाले नहीं जा
सकते हैं।
तुमने अवसर खो
दिया।
सदगुरु
से जब वचन
निकले तो उसे तत्क्षण
खोल लेना; उसमें
एक क्षण की भी
देरी खतरनाक
है; जब वह
गर्म —गर्म हो
तभी खोल लेना,
जब उसकी
ऊष्मा समाप्त
न हो गई हो…...।
जब
मैं तुम्हें
दे रहा हूं
कुछ तो वह
गर्म है, ताजा
है। तुम उसे
रख कर मत बैठ
जाना। तुम जा
कर अपने फ्रिज
में मत रख
देना कि जब
सुविधा होगी
तब खोल लेंगे,
जब जरूरत
होगी तब निकाल
लेंगे। वह मर
जाएगा, उसकी
ऊष्मा खो
जाएगी; प्राण—पखेरू
जा चुके होंगे,
देह पड़ी रह
जाएगी।
सत्य
की पड़ी हुई देहों
का नाम ही
शास्त्र है।
फिर तुम सिर
पर रखो गीता
और कुरान और
बाइबिल, और
लाख करो पूजा
और लाख पटको
सिर, चढाओ
फूल, अर्चना—सब
व्यर्थ है; सब बिलकुल
व्यर्थ है! इस
आयोजन से अब
कुछ होने वाला
नहीं।
तो
जब सदगुरु
बोले, उसे
तन्धण खोल
लेना। इधर मैं
बोलता जाऊं, उधर तुम
खोलते चले
जाना। तुम
शब्द में बहुत
ज्यादा मत
उलझना; तुम
अर्थ को मुक्त
करते चले
जाना। तुम फूल
में मत उलझना,
तुम तो
सुवास को
मुक्त करते
चले जाना। तुम
तो पिंजरे को
भूल ही जाना।
तुम तो मेरे
साथ उड़ना आकाश
में, तो
ज्यादा पा
सकोगे।
साधारणत:
तो ऐसा नहीं
होगा। तुम
मुर्दा —मुर्दा
पाओगे।
फिर
अगर तुमने
किसी दूसरे को
कहा,
जो तुमने
मुझसे सुना, तब तो वह मरे
से भी
गया—बीता है, वह सड़ी हुई
लाश है। और
ऐसा ही हुआ
है। ऐसे ही संप्रदाय
बनते हैं।
मैंने तुमसे
कहा, तुम
किसी और को
कहोगे, वह
किसी और को
कहेगा, पीढ़ियां
दूसरी
पीढ़ियों से
कहेंगी, एक
समय दूसरे समय
से
कहेगा—उतरता
चला जाता है।
फिर सड़ती जाती
है लाश। इसलिए
तो धर्मों से
इतनी दुर्गंध
आती है और
धर्मों के नाम
पर इतने कल्ल
होते हैं। और
धर्मों से
प्रेम नहीं
फैला दुनिया
में, घृणा
फैली है। और
धर्मों से
संघर्ष हुआ, हत्याएं
हुईं, युद्ध
हुए; प्रार्थना
नहीं उतरी, परमात्मा का
द्वार नहीं
खुला। धर्मों
से शैतान की
शक्ति बढ़ी, परमात्मा की
शक्ति नहीं बढ़ी।
क्योंकि तुम
जिसे धर्म
कहते हो, वह
सड़ी हुई लाश
है।
अष्टावक्र
पूछने लगे, बार—बार
चोट करने लगे
जनक को।
क्योंकि जब
गुरु देता है,
तो वह यह
जानना चाहता
है कि तुम तक
जीवित पहुंचा?
जीवंत
पहुंचा?
ऊष्ण था तभी
पहुंचा? तुमने
खोला ठीक—ठीक? कहीं तुम
शब्द से तो आंदोलित
नहीं हो गए? कहीं यह जनक
पिंजरा ही तो
नहीं हिला रहा
है? इसके
भीतर पक्षी भी
है? जीवित
पक्षी है? उस
जीवित पक्षी
को मुक्त करने
की चेष्टा
इसने की है या
केवल शब्द—जाल
में पड़ गया? क्योंकि
जो—जो
अष्टावक्र ने
कहा, वही—वही
जनक ने दोहरा
दिया है—सिर्फ
'आश्चर्य'
शब्द
जोड़—जोड़ कर
वही—वही दोहरा
दिया है। तो
कहीं यह
पुनरुक्ति तो
नहीं? कहीं
यह यांत्रिक
स्मृति तो
नहीं? कहीं
यह जनक बहुत
स्मृतिवान
व्यक्ति तो
नहीं? यह
वस्तुत: इसे
हो रहा है जो
यह कह रहा है?
तो
अष्टावक्र सब
तरफ से खोदने
लगे। ये सूत्र
उनकी खुदाई के
हैं। इनमें बड़ी
करुणा है और
बड़ी कठोरता
भी। कठोरता, कि
जनक तो अहोभाव
की बात कर रहे
हैं और
अष्टावक्र
परीक्षा लेने
लगे।
करुणा, क्योंकि
परीक्षा अगर
समय पर न ली
जाए और समय खो
जाए, तो
फिर बात
बेमौसम की हो
जाती है, फिर
उसका कुछ अर्थ
नहीं रह जाता।
तो अभी— अभी ताजी—ताजी
परीक्षा वे ले
रहे हैं कि वह
जो मैंने तुझे
कहा है वह पहुंच
गया तेरे हृदय
तक? बन गया
तेरा रक्त, मांस—मज्जा?
तूने उसे
रूपांतरित कर
लिया अपने
प्राणों में?
वह तेरे
अस्तित्व का
हिस्सा हो गया?
या केवल
बुद्धि में
भटकती हुई बात
है? कि
बुद्धि में
भटकते हुए
शब्द और विचार
हैं? तू
कहां से कह
रहा है? तेरे
भीतर हो
गया—वहां से
कह रहा है? या
तूने मुझे सुन
लिया और तू
मेरे सामने ही
मुझ ही को
दोहरा रहा है?
तू कहीं
ग्रामोफोन का
रिकार्ड तो
नहीं?
इसका
खतरा है ही।
क्योंकि
सदगुरुओं के
वचनों की एक
खूबी है कि वे
बड़े प्यारे
हैं। वे इतने
प्यारे हैं कि
उन पर भरोसा
कर लेने का मन
होता है। वे इतने
प्यारे हैं कि
उन पर विश्वास
जगता है। यही
खतरा है। अगर
सत्य पर
विश्वास जग
गया तो खतरा
है। खतरा यही
है कि सत्य
कभी विश्वास
नहीं बन सकता।
विश्वास तो
सदा झूठ हो
जाता है।
विश्वासमात्र
झूठ है। सत्य
से कानी चाहिए
श्रद्धा, विश्वास
नहीं।
मैंने
तुम्हें एक
बात कही, मैंने
तुम्हें बड़ी
प्यारी बात
कही—तुम उससे
मोहित हुए।
तुमने मान ली
कि बात इतनी
प्यारी है कि
सच होगी ही, कि जिसने
कही उससे
तुम्हें
प्यार है, तो
झूठ कैसे होगी?
तो तुमने
विवाद भी न
किया, तुमने
तर्क भी न
किया। तुमने
चुपचाप
स्वीकार कर
लिया। तुमने
एक विश्वास
बनाया, तुम
उस विश्वास के
सहारे जीने
लगे —तुम झूठ
के सहारे जीने
लगे। मैंने
कही थी, सच
ही थी, लेकिन
तुमने
विश्वास
बनाया तो झूठ
हो गई, श्रद्धा
बननी चाहिए।
क्या
फर्क है
श्रद्धा और
विश्वास में? जब
हम दूसरे को
बिना अपने
किसी अनुभव की
गवाही के मान
लेते हैं तो विश्वास।
जब हम दूसरे
को अपने अनुभव
की कसौटी पर
कस कर मानते
हैं तो
श्रद्धा।
श्रद्धा अनुभव
है। विश्वास
दूसरे का
अनुभव है, तुम्हारा
नहीं। इससे
सावधान रहना।
तो
यह जो जनक कह
रहा है
विश्वास है या
श्रद्धा, इसकी
ही कसौटी
अष्टावक्र
करने लगे हैं।
अष्टावक्र ने
कहा :
इहामुत्र
विरक्तस्य
नित्यानित्यविवेकिन:।
आश्चर्य
मोक्षकामस्य
मोक्षादेव
विभीषिका।।
'जो इहलोक और
परलोक के भोग
से विरक्त है
जनक, और जो
नित्य और
अनित्य का
विवेक रखता है,
और मोक्ष को
चाहने वाला है,
वह भी मोक्ष
से भय करता
है—यही तो
आश्चर्य है!'
तेरे
भीतर कहीं
मोक्ष का भय
तो नहीं बचा
है?
इसे
समझना, यह
बड़ा अदभुत
सूत्र है!
मोक्ष का भय? तुम कहोगे, मोक्ष का भय?
स्वतंत्रता
का भय? हम
सभी स्वतंत्र
होना चाहते
हैं। यह बात
क्या हुई कि
स्वतंत्रता
का भय? स्वतंत्रता
से कौन भयभीत
है?
लेकिन
तुम्हें पता
नहीं।
अष्टावक्र
ठीक कह रहे
हैं। इस जगत
में बहुत कम
लोग हैं, जो
स्वतंत्र
होना चाहते
हैं। सौ में
निन्यानबे
आदमी तो बातें
करते हैं
स्वतंत्रता
की, लेकिन
स्वतंत्र
होना नहीं
चाहते।
परतंत्रता
में बड़ी
सुरक्षा है।
मुक्त होने
में बड़ा खतरा
है, जोखिम!
इसलिए लोग एक
परतंत्रता से
दूसरी
परतंत्रता में
उतर जाते हैं।
बस, परतंत्रता
बदल लेते हैं,
लेकिन
स्वतंत्र कभी
नहीं होते।
पूंजीवाद साम्यवाद
बन जाता है, लेकिन कुछ
फर्क नहीं
होता।
परतंत्रता
वहीं की वहीं।
एक की गुलामी
दूसरे की
गुलामी से बदल
जाती है, मगर
फर्क कोई भी
नहीं पड़ता।
आदमी
स्वतंत्र
होना ही नहीं
चाहता। तो इसे
हम समझें।
स्वतंत्रता
का भय है। और
मोक्ष तो परम
स्वतंत्रता
है, उसका
तो बड़ा भय है।
जो बात
अष्टावक्र ने
उठाई है, उसे
पांच हजार साल
के बाद पश्चिम
में मनोविज्ञान
अब समझ पा रहा
है। पश्चिम के
बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक,
ऐरिक फॉम ने
इस पर बड़ा जोर
दिया, बड़ी
खोज की है इस
संबंध में—फीयर
ऑफ फ्रीडम; स्वतंत्रता
का भय! हम
चाहते हैं कि
कोई हमें बांध
ले। इसीलिए तो
लोग हमें बांध
पाते हैं। तुम
सोचते हो लोग
बांध लेते हैं
इसलिए तुम
बंधे हो, तो
तुम गलती में
हो। जो नहीं
बंधना चाहता,
उसे कोई भी
नहीं बांध
सकता। तुम
बंधना चाहते हो,
इसलिए लोग
बांध लेते
हैं।
तुम्हारे
बंधने की चाह
पहले है, बांधने
वाला बाद में
आता है। पहले
मांग, फिर
पूर्ति। तुम
पुकारते हो कि
कोई बांध ले, तो बांधने
वाला आ जाता
है। फिर तुम
चीखते —चिल्लाते
हो कि मुझे
बांध लिया
गया।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं,
'बड़े बंधन
में हैं!
पत्नी है, बच्चे
हैं!' मगर
किसने
तुम्हें कहा
था? कौन
तुम्हारे
पीछे पड़ा था? और लाख लोग
पीछे पड़े थे, अगर तुम्हें
नहीं बंधना था
तो कौन बांध
सकता था रू
तुम भाग निकले
होते। घर में
आग लगी हो और तुम
घर के भीतर
बैठे हो, लाख
तुम्हें लोग
समझाएं कि अरे
बैठे रहो, कोई
हर्जा नहीं—तुम
बैठ न सकोगे।
तुम कहोगे, 'हो गई
समझदारी की
बातें, मैं
बाहर चला। तुम
बैठो!' तुम
भाग खड़े होते,
अगर
तुम्हें बंधन
दिखाई पड़ता।
लेकिन बंधन तुम्हें
दिखाई पड़ा
नहीं था।
और
मजा यह है कि
अगर यह पत्नी
मर जाए तो
बहुत संभावना
है कि जल्दी ही
तुम दूसरा
विवाह करोगे।
पत्नी के मरने
के बाद ज्यादा
दिन याद न रख
सकोगे। मन नई
कल्पनाएं
करने लगेगा।
मन कहेगा, 'सभी
स्त्रियां
थोड़े ही एक
जैसी होती हैं
पू यह दुष्ट
मिल गई थी तो
भाग्य की बात,
अब सभी थोड़े
ही दुष्ट मिल
जाएंगी? दुनिया
में अच्छी
स्त्रियां भी
हैं। अपनी पत्नी
को छोड़ कर सभी
स्त्रियां
अच्छी हैं ही।
कोई अच्छी
स्त्री मिल
जाएगी तो जीवन
में सुख हो जाएगा।
' फिर तुम
खोजने लगे।
देर नहीं
लगेगी, जल्दी
ही तुम फिर
बंधन में पड़
जाओगे, फिर
तुम चीखने—पुकारने
लगोगे कि मैं बंधन
में पड़ गया।
तुम्हीं
बनाते हो अपने
बंधन, क्योंकि
बिना बंधन के
रहने के लिए
बड़ा साहस चाहिए।
अनबंधा रहने
के लिए बड़ा
साहस चाहिए।
क्योंकि बिना
बंधन के रहने
का अर्थ हुआ
कि न कोई सुरक्षा
है, कल का
पता नहीं क्या
होगा! पत्नी
तुम क्यों खोज
लाए हो? —कल
की व्यवस्था
के लिए। कल
अगर तुम्हारे
जीवन में
कामवासना उठेगी
तो कौन तृप्त
करेगा? तो
तुमने पत्नी
खोज ली है, जो
कल भी मौजूद
होगी। पत्नी
ने पति खोज
लिया है; क्योंकि
कल की क्या
सुरक्षा है, भोजन कौन
देगा, मकान
कौन देगा, वस्त्र
कौन देगा, अलंकरण
कौन देगा! कल
की सुरक्षा
तुमने कर ली
है, परसों
की सुरक्षा कर
ली है। लोगों
ने आगे तक की
सुरक्षा कर
रखी है। फिर
उस सुरक्षा
में बंध गए
हैं।
तुमने
एक मकान बना
लिया, तुमने
बैंक में
बैलेंस
इकट्ठा कर
लिया, तुमने
धन—प्रतिष्ठा
बना ली—अब तुम
कहते हो, बड़ा
बंध गया हूं!
लेकिन कौन
तुम्हें
बांधता है? तुम बंधे हो
इसलिए कि बंधन
में कुछ
सुरक्षा है—कल
अगर बीमार हुए
तो क्या होगा?
मरने लगे तो
क्या होगा?
मुहम्मद
के जीवन में
उल्लेख है, उनको
जो कुछ मिलता
दिन भर में, वे खाने—पीने
के बाद जो
बचता सांझ को
बांट देते, रात भिखारी
हो कर सो
जाते। यह उनके
जीवन भर की व्यवस्था
थी। जिस रात
मरे, उनकी
पत्नी ने यह
सोच कर कि मौत
करीब आती है, चिकित्सक
कहते हैं बचने
का अब कोई
उपाय नहीं है,
दवादारू की
जरूरत पड़े, रात वैद्य
बुलाना पड़े, हकीम बुलाना
पड़े—तो उसने
पांच रुपये
बचा कर रख लिए,
पांच दीनार
बचा कर रख
लिए।
बारह
बजे रात
मुहम्मद बड़े
तड़पने लगे।
उन्होंने
अपनी पत्नी को
बुलाया और कहा
कि देख, मुझे
लगता है कि
मेरे जीवन भर
का जो नियम था,
वह टूटा जा
रहा है मरने
का वक्त।
मैंने कल के लिए
कभी कोई
व्यवस्था
नहीं की। और
मुझे आज डर लग
रहा है कि घर
में कुछ रुपये
हैं। अगर हों,
तो जल्दी
उन्हें तू बांट
दे, नहीं
तो परमात्मा
के सामने
आखिरी दिन
लज्जित होना
पड़ेगा। वह
मुझसे पूछेगा
: तो फिर आखिरी
दिन तूने
रुपये बचा लिए?
पत्नी
तो घबड़ा गई कि
इन्हें पता
कैसे चला! उसने
जल्दी से पांच
दीनार जो बचाए
थे,
निकाल कर दे
दिए कि क्षमा
करें, मुझसे
भूल हो गई! मैं
तो यह सोच कर
कि रात—बेरात,
आधी रात
जरूरत पड़ सकती
है, फिर
मैं कहां
मांगूगी?
तो
मुहम्मद ने
कहा : पागल, जिसने
हर बार दिया
है, हर दिन
दिया है, इतने
दिन तक दिया।
कभी हम भूखे
मरे? कभी
जरूरत पूरी
नहीं हुई, ऐसा
हुआ? जो
सुबह देता है,
सांझ देता
है, वह आधी
रात न दे
सकेगा? तू
जरा दरवाजे पर
तो जा कर देख!
वह
पांच दीनार ले
कर गई, वहा एक
भिखारी खड़ा है;
वह कहता है,
मुझे पांच
दीनार की
जरूरत है। वे
पांच दीनार उस
भिखारी को दे
दिए गए।
मुहम्मद
ने कहा. देख, लेने
भी वही आ जाता
है, देने
भी वही आ जाता
है। हम नाहक
चिंता खड़ी कर
लेते हैं। फिर
चिंता में
बंधते हैं, फिर बंधन से
पीड़ित होते
हैं और
चिल्लाते
हैं। अब मैं
निश्चित हुआ।
अब मैं उसके
सामने सिर उठा
कर खड़ा हो
सकूंगा कि तू
ही मेरा
एकमात्र भरोसा
था। तेरे
अलावा मैंने
भरोसा और किसी
चीज में न
रखा।
जिसका
परमात्मा में
भरोसा है, उसको
फिर कोई बंधन
नहीं। लेकिन
परमात्मा में
हमारा भरोसा
नहीं है; भरोसा
हमारा हजार और
चीजों में है—इश्योरेंस
कंपनी में है,
बैंक में है,
स्त्री में
है, पति
में है, मित्रों
में, परिवार
में, पिता
में, पुत्र
में, सरकार
में, और
हमारे हजार
भरोसे हैं!
नास्तिक
भी जो अपने को
कहता है, वह भी
नास्तिक नहीं
है। बैंक का
जहां तक सवाल
है, वह भी
आस्तिक है, इंश्योरेंस
कंपनी का जहां
तक सवाल है, वह भी
आस्तिक है; सिर्फ भगवान
के संबंध में
वह आस्तिक
नहीं है।
आस्तिक
का अर्थ है :
जिसने अपना
सारा भरोसा परमात्मा
में रखा, जिसने
सारा भरोसा
जीवन की ऊर्जा
में रखा, अस्तित्व
में रखा।
जैसे
ही रुपये बांट
दिए,
मुहम्मद
हंसे और
उन्होंने कहा
: अब शुभ हुआ, अब ठीक घड़ी आ
गई, अब मैं
निश्चित जा
सकता हूं।
चादर
उन्होंने अपने
मुंह पर डाल
ली और कहते
हैं, प्राण
उड़ गए। पत्नी
ने चादर उघाड़ी,
वहां तो लाश
पड़ी थी, मुहम्मद
जा चुके थे। जैसे
वे पांच दीनार
अटकाए थे!
जैसे उनके
कारण वे बेचैन
थे, बोझ था,
बंधन था!
हम
कहते तो हैं
कि हम
स्वतंत्र
होना चाहते
हैं,
लेकिन
स्वतंत्र
होने के लिए
हम जो
व्यवस्था करते
हैं वही हमें
बांध लेती है।
तुमने
देखा, धन की
आदमी आकांक्षा
क्यों करता है?
इसलिए ताकि
स्वतंत्र हो।
धन से
स्वतंत्रता
मिलती है, ऐसा
खयाल है। ऐसी
भ्रांति है कि
जितना धन होगा,
उतनी
तुम्हारी
स्वतंत्रता
होगी; जहां
जाना होगा जा
सकोगे; जिस
होटल में
ठहरना होगा, ठहर सकोगे; हवाई जहाज
में उड़ना होगा,
हवाई जहाज
में उड़ोगे; महल में
रहना होगा, महल में
रहोगे; जिस
स्त्री को
चाहोगे वह
तुम्हारे पैर
दाबेगी; जो
कुछ तुम करना
चाहोगे, कर
सकोगे। धन
स्वतंत्रता
देता है, इस
आशा में आदमी
धन इकट्ठा
करता है।
लेकिन धन इकट्ठा
करने में ही
बंध जाता है, बुरी तरह
बंध जाता है!
धन का बोझ
भारी हो जाता
है और छाती
उसके नीचे
टूटने लगती
है।
यह
तो हमारी
साधारण
स्वतंत्रता
है। फिर परम स्वतंत्रता
का नाम मोक्ष
है।
अष्टावक्र
कहते हैं : 'सुन
जनक, जो
इहलोक और
परलोक के भोग
से विरक्त है
और जो नित्य
और अनित्य का
विवेक रखता
है...। '
जैसा
तेरी बातों से लग
रहा है। तेरी बातों
से ऐसा
लग रहा है कि
तू तो बिलकुल
मुक्त हो गया!
न इस लोक की
तेरी कोई
आकांक्षा है, न
परलोक की तेरी
कोई आकांक्षा
है। न तू यहां
कुछ चाहता है,
न स्वर्ग
में कुछ चाहता
है। और ऐसा
लगता है तेरी बातों
से कि
तुझे तो विवेक
उत्पन्न हो
गया। तुझे तो
पता है :
अनित्य क्या
है, नित्य
क्या है; सार
क्या, असार
क्या? तुझे
तो दिखाई पड़
गया है, ऐसा
मालूम होता
है। तुझे
दर्शन हो गया
है, ऐसा
मालूम होता
है। लेकिन फिर
भी मैं तुझसे
पूछता हूं कि
मोक्ष को
चाहने वाला
मोक्ष से ही भय
करे, इस
आश्चर्य का
तुझे पता है? कहीं तेरे
भीतर मोक्ष से
भी तो भय नहीं
है अभी। अगर
है, तो यह
सब बातचीत है,
जो तू कर
रहा है। उस भय
के कारण तू
बंधा ही रहेगा,
तू संसार
निर्मित करता
रहेगा।
हमने
भय के कारण ही
संसार
निर्मित किया
है। संसार
यानी हमारे भय
का विस्तार।
और तब एक बड़े मजे
की बात, कि
तुम्हारा
भगवान भी
तुम्हारे भय
का विस्तार; और तुम्हारा
स्वर्ग भी
तुम्हारे भय
का विस्तार, तुम्हारा
पुण्य भी
तुम्हारे भय
का विस्तार। तुम
अगर पुण्य भी
करते हो तो
इसी भय से कि
कहीं नर्क न
जाना पड़े। तुम
अगर पाप भी
नहीं करते तो इसी
भय से कि कहीं
नर्क न जाना
पड़े। तुम अगर
पुण्य करते हो
तो इसी भय से
कि कहीं
स्वर्ग न खो जाए,
स्वर्ग की
अप्सराएं और
कल्पवृक्ष और
शराब के बहते
झरने न खो
जाएं। तुम अगर
मंदिर और
मस्जिद में जा
कर सिर टेक
आते हो, तो
सिर्फ इसीलिए
कि परमात्मा
अगर कहीं हो
तो नाराज न हो
जाए।
तुम्हारा
धर्म
तुम्हारे भय
से निकलता है—अधर्म
हो गया। इस
जहर से अमृत न
निकलेगा; इससे
तो जहर ही
निकलता है। भय
से जो निकलता
है, वह
संसार है। तुम
उसे परमात्मा
कहो, स्वर्ग
कहो, बहिश्त
कहो, जो
तुम कहना चाहो,
लेकिन एक
बात याद रखना,
भय से संसार
के अतिरिक्त
और कुछ भी
नहीं निकलता।
भय से मोक्ष
कैसे निकलेगा?
यह तो ऐसा
होगा जैसे रेत
से कोई निचोड़
ले तेल को।
नहीं, यह
होता नहीं।
भय
से मोक्ष नहीं
निकलता। अभय
से मोक्ष
निकलता है।
फिर मोक्ष का
भय क्या है? अष्टावक्र
क्यों कहते
हैं कि देख ले
तू अपने भीतर
खोजबीन करके,
कहीं मोक्ष
का भय तो नहीं
है?
मोक्ष
का भय क्या है? मोक्ष
का भय
महामृत्यु का
भय है। मोक्ष
तुम्हारी
मृत्यु है।
तुम्हारे
मुक्त होने का
एक ही अर्थ है.
तुम्हारा
बिलकुल मिट
जाना। तब जो शेष
बचेगा वही
मोक्ष है; तुम
जहां बिलकुल न
रहोगे; तुम्हारी
रूपरेखा भी न
बचेगी; तुम
बिलकुल खो
जाओगे जहां।
मृत्यु
में तो आदमी
बचता है, मोक्ष
में बिलकुल
नहीं बचता।
मृत्यु में तो
शरीर खोता है;
मन बचता है,
अहंकार
बचता है, संस्कार
बचते हैं, सब
कुछ बच जाता
है, सिर्फ
शरीर बदल जाता
है। मृत्यु
में तो केवल वस्त्र
बदलते हैं; पुराने
जीर्ण —शीर्ण
वस्त्र छूट
जाते हैं, नए
वस्त्र मिल
जाते हैं।
मोक्ष में
शरीर भी गया, संस्कार भी
गए, अहंकार
भी गया, मन
भी गया; तुमने
जो जाना, अनुभव
किया—सब गया।
तुम गए! तुम
पूरे के पूरे
गए, समग्रता
से गए! फिर जो
शून्य बचता है,
तुम्हारे
अभाव में, तुम्हारी
गैर मौजूदगी
में जो बचता
है—वही मोक्ष
है, वही
परमात्मा है,
वही सत्य
है। तुम तो
ऐसे चले जाओगे
जैसे प्रकाश
के आने पर
अधंकार चला
जाता है।
मोक्ष के आने
पर तुम न बचोगे
—मोक्ष
महामृत्यु
है।
उपनिषद
कहते हैं; गुरु
महामृत्यु
है। क्योंकि
गुरु के
माध्यम से
मोक्ष की तरफ
चलना पड़ता है।
गुरु सिखाता
ही है मरने की
कला।
अष्टावक्र
ठीक कहते हैं
आश्चर्य
मोक्षकामस्य
मोक्षादेव
विभीषिका।
मैंने
देखा है, अष्टावक्र
कहते हैं कि
मोक्ष की
कामना करने वाले
लोग भी मोक्ष
से ही डरे
होते हैं। जनक
तू जरा गौर से
देख ले, कहीं
तेरे भीतर भी
कोई भय की
रेखा तो नहीं
है। अगर है, तो फिर
मोक्ष की ये
बातें सब
व्यर्थ हैं, अनर्गल
प्रलाप हैं, पागल का
प्रलाप हैं!
इनमें फिर कुछ
भी सार नहीं।
मोक्ष का स्वर
तो तुम्हारे
भीतर तभी
फूटता है, जब
तुम्हारे सब
स्वर बंद हो
जाते हैं। जब
तुम्हारी सब
आवाज खो जाती
है, तभी उस
महासंगीत में
तरोबोर होने
की घड़ी आती है।
तुम खाली करो
सिंहासन!
सिंहासन पर
बैठे —बैठे
मोक्ष नहीं
है। जब तक तुम
हो, तब तक
मोक्ष नहीं
है। जैसे ही
तुम न हुए, मिटे,
झुके, खोए—मोक्ष
है! मोक्ष था
ही सदा से—तुम्हारे
कारण दिखाई न
पड़ता था, तुम
ओट थे; तुम
पर्दा थे; तुम
ही अड़चन थे; तुम ही बाधा
थे।
अब
बड़ी अड़चन उठी।
मोक्ष का तो
अर्थ ही यह है
कि जिसने इस
सचाई को पहचान
लिया कि मैं ही
रोग हूं।
मोक्ष का अर्थ
तुम्हारी
मुक्ति नहीं
है,
मोक्ष का
अर्थ है—तुमसे
मुक्ति।
जिसने पहचान
लिया कि मैं
ही रोग हूं
सारे रोग का
आधार मैं ही
हूं और जिसने
कहा कि ठीक अब
मैं यह आधार
छोड़ता हूं,
अब मैं न होने
की तैयारी
दिखलाता हूं, अब मैं मरने
को राजी हूं; हो—हो कर देख
लिया, कुछ
पाया नहीं, हो—हो कर देख
लिया, सिवाय
खोने के कुछ
भी नहीं हुआ; हों—हों कर
देख लिया, अनेक
बार हो कर देख
लिया, कितने
जन्मों तक हो
कर देख लिया, काफी देर हो
चुकी है। तुम
बहुत बार हो
कर देख लिए, हर होना
खाली गया। अब
जरा न हो कर
देख लें। मोक्ष
का मतलब इतना
है : कि हो कर
देख लिया, असफल
हुए; अब
जरा न हो कर
देख लें।
'जनक, कहीं
तेरे भीतर कुछ
भय तो नहीं है?'
मोक्षकामस्य
मोक्षात् एव
विभीषिका
आश्चर्यम्!
अष्टावक्र
कहते हैं : तू
आश्चर्य की
बात करता है, सुन,
बड़े
आश्चर्य मैं
तुझे बताता
हूं! बड़े से बड़ा
आश्चर्य यह है
कि मोक्ष की
कामना करने
वाला भी मरने से
डरता है। और
जो मरने से
डरता है, वह
मोक्ष को कैसे
उपलब्ध होगा ? मोक्ष तो
महामृत्यु
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन और
उसकी पत्नी
खाना खा रहे थे, तभी
रेडियो पर राग
मल्हार आने
लगा। 'वाह—वाह!'
मुल्ला ने
कहा, 'क्या
प्यारी चीज
है। '
'क्या?' पत्नी
ने जरा जोर से
पूछा।
'मैंने कहा, क्या प्यारी
चीज है!' मुल्ला
ने और जरा जोर
से दोहराया।
पत्नी
बोली, 'इस
रेडियो को बंद
करो तो कुछ
सुनाई दे। इस
बेसुरी आऽऽऽ
आऽऽऽ के कारण
तुम्हारी बात
सुनाई ही नहीं
दे रही है। '
मुल्ला
उसी मल्हार
राग की बात कर
रहा है, जिसको
पत्नी कह रही
है यह बेसुरी
आऽऽऽ आऽऽऽ इसके
कारण
तुम्हारी बात
ही सुनाई नहीं
दे रही।
वह
जो मोक्ष का
स्वर है, किन्हीं
को तो मल्हार
राग मालूम
होती है, किन्हीं
को सिर्फ आऽऽऽ
आऽऽऽ..। क्या
लगा रखा है
शोरगुल! जो
भयभीत हैं, उन्हें तो
वह व्यर्थ का
शोरगुल मालूम
होता है।
क्योंकि
उन्होंने
व्यर्थ के
शोरगुल को
सार्थक समझ
रखा है, इसलिए
सार्थक
उन्हें
व्यर्थ मालूम
होने लगा। वे
उल्टे खड़े हैं,
शीर्षासन
कर रहे हैं।
लेकिन
जिन्होंने
व्यर्थ को
व्यर्थ जान
लिया है, उन्हें
तत्क्षण वह
जो मोक्ष की
ध्वनि है, जो
तुम्हारी मृत्यु
में थोड़ी—सी
आती है—वह राग
मल्हार हो
जाती है, वह
जीवन का
महासंगीत हो
जाता है।
अगर
तुमने जीवन से
कुछ भी समझा
है तो एक बात
तो समझो कि
जीवन बिलकुल
असार है।
इसमें सार
जैसा कुछ भी
तो। नहीं है।
दौड़ो—को, आपा—
धापी, खूब
करो श्रम—हाथ
कुछ भी लगता
नहीं है। यह बड़ा
आश्चर्य है!
और फिर भी तुम
मरना नहीं
चाहते। फिर भी
तुम मिटना
नहीं चाहते।
फिर भी तुम कहते
हो, कोई
तरकीब बताएं
कि मैं सदा
बना रहूं,
सदा—सदा बना
रहूं! क्या
करोगे सदा बने
रह कर?
कहते
हैं,
जब सिकंदर
पूरब आया तो
उसके
दरबारियों
में से एक
ज्ञानी ने उसे
कहा कि तू
पूरब जा रहा
है, मार्ग
में कहीं एक
ऐसा स्थान है,
जहां जल का
एक झरना है
मरुस्थल में,
उसे जो पी
लेता है वह
अमर हो जाता
है। अब तू जा ही
रहा है, तो
उसकी भी खोज
कर लेना; शायद
मिल जाए; शायद
यह कथा ही न हो,
सच हो।
सिकंदर
ने अपने
सैनिकों को
सचेत कर दिया
कि खोजबीन करते
रहना। कहीं भी
ऐसी जरा भी
भनक पड़े, कान
में अफवाह पड़े,
मुझे खबर कर
देना। खबर आ
गई। बीच एक
रेगिस्तान से
गुजरते वक्त
खबर आई कि
यहीं है वह
झरना। सिकंदर
ने उसकी खोज
कर ली। वह
सारे
सिपाहियों को
बाहर छोड़ कर, सैनिकों को
बाहर छोड़ कर
उतरा उस गुफा
में, जहां
वह झरना था।
वह उतर गया
गुफा में, सीढ़ियों
से उतर कर
झरने में खड़ा
हो गया, बड़ा
आह्लादित था
कि इस झरने के
जल को पी कर अब
मैं सदा—सदा
के लिए अमर हो
जाऊंगा। उसने
चुल्ल भी भर ली।
तभी एक कौआ
बैठा है पास
ही चट्टान पर।
वह कहने लगा
रुक! सिकंदर
तो बहुत
घबड़ाया कौए को
बोलते सुन कर।
उसने कहा :
घबड़ा मत, मेरी
बात सुन ले
इसके पहले कि
तू पानी पीए
क्योंकि मैं
पी कर बड़ी
झंझट में पड़
गया हूं।
सिकंदर
ने कहा : क्या
झंझट? कौए ने
कहा : मैंने भी
इसकी बड़ी खोज
की, बामुश्किल
मैं आ पाया।
मैं कौओं का
राजा हूं जैसा
तू आदमियों का
राजा है। मैं
कोई छोटा—मोटा
कौआ नहीं हूं।
तू शाही कौए
से बात कर रहा है।
बामुश्किल
मैं खोज पाया,
मैंने
हजारों कौए इस
खोज में लगा
दिए थे, आखिर
इसका पता चल
गया, आखिर
मैं आ गया और
मैंने यह पी
भी लिया—पी कर
मैं फंस गया।
अब मैं मरना
चाहता हूं,
क्योंकि
सदियां बीत
गईं तब से मैं
जिंदा हूं। अब
मैं मरना
चाहता हूं मर
नहीं सकता।
सिर पटकता हूं
चट्टानों पर,
कोई सार
नहीं। जहर पी
लेता हूं कुछ
सार नहीं। गर्दन
में फासी लटका
कर लटक जाता
हूं कुछ सार नहीं।
कोई उपाय मेरे
मरने का नहीं
है। यह पानी
बड़ा खतरनाक है
सिकंदर!
सिकंदर
ने पूछा. तू और
मरना क्यों
चाहता है?
उस
कौए ने कहा : अब
क्या करूं? वही—वही
राग, वही—वही
उपद्रव, कब
तक देखूं? मिलता
तो कुछ है ही
नहीं—दौड़— धूप,
दौड़— धूप, दौड़— धूप...! अब
तो मैं उनसे
ईर्ष्या करने
लगा जो मर जाते
हैं; कम से
कम शांति तो
मिल जाती है।
मुझसे ज्यादा अशात
इस पृथ्वी पर
कोई नहीं
सिकंदर! फिर
तेरी मर्जी!
कहते
हैं,
सिकंदर ने
हाथ से पानी
नीचे गिरा
दिया। सीढ़ियां
चढ़ कर वापिस
लौट आया। पानी
उसने पीया
नहीं।
कहानी
सच हो या झूठी, मगर
कहानी बड़ी
सार्थक है।
तुम्हीं सोचो,
अगर तुम अमर
हो जाओ, क्या
करोगे? यह
पचास—साठ—सत्तर
साल की जिंदगी
तो किसी तरह
कट जाती है।
यह कोई बड़ी
जिंदगी नहीं है।
सत्तर साल
आदमी जीता है,
उसमें से
बीस—पच्चीस
साल तो सोने
में निकल जाते
हैं; आठ
घंटा रोज सोया
तो एक तिहाई
तो सोने में
निकल गया।
पंद्रह—बीस
साल पढ़ने—लिखने
में, स्कूली
उपद्रव में
निकल गए, तब
कुछ होश ही
नहीं था। बचे
बीस—स्व साल—तो
दफ्तर, फैक्टरी,
दूकान, मजदूरी,
पत्नी, बच्चे,
हजार
उपद्रव! मंदिर,
मस्जिद—इसमें
निकल गए।
तुम्हारे पास
बचता क्या
सत्तर साल में?
सात मिनट भी
बचते हैं?
लेकिन
तुम जरा सोचो
कि अगर मरो ही
न, तो कैसी
असुविधा न खड़ी
हो जाएगी? जिसको
जीवन की यह
व्यर्थता
दिखाई पड़ती है,
वह अमरत्व
की आकांक्षा
नहीं करता। वह
कहता है : 'हे
प्रभु!
महामृत्यु
घटित हो, ऐसी
मृत्यु घटित
हो कि फिर
जीवन न मिले। '
इसी को हम
आवागमन से
मुक्ति कहते
हैं। यही तो पूरब
की बड़ी से बड़ी
निधि और खोज
है। पश्चिम अभी
बचकाना है।
अभी पश्चिम
जीवन से ऊबा
नहीं। पूरब
बड़ा प्राचीन
है, बड़ा
प्रौढ़ है—जीवन
से ऊब गया।
पश्चिम के तो
विचारक सोच कर
हैरान होते
हैं कि यह
मामला क्या है?
बुद्ध, महावीर,
पतंजलि, अष्टावक्र,
लाओत्सु—ये
सब यही एक बात
करते हैं कि
कैसे छुटकारा
हो? यह
मामला क्या है?
अरे जीवन
छूटने के लिए
है? जीवन
को थोड़ा लंबा
करो, नई
औषधियां खोजो,
नए उपाय
खोजो, आदमी
लंबा जीए, खूब
जीए! ये लोग
क्या पागल हैं?
ये सारे
बुद्धपुरुष, इनका दिमाग
फिर गया है? ये कहते हैं
कि कैसे
आवागमन से
छुटकारा हो?
पश्चिम
अभी बचकाना
है। अभी
पश्चिम को
जीवन का अनुभव
नहीं। पूरब ने
जीवन का बड़ा
लंबा अनुभव
लिया है और
पाया : यह
बिलकुल ही असार
है। 'पानी केरा
बुदबुदा!' क्षणभंगुर
है! और भीतर
कुछ भी नहीं।
फूटता है तो
शून्य हाथ
लगता है।
प्याज की तरह
है : पर्त —पर्त
उघाडते चलो,
नई
पर्तें
निकलती आती, निकलती
आती, एक
दिन शून्य, कुछ हाथ
नहीं लगता।
दौड़ो— धापो, कहीं
पहुंचते नहीं,
जहां के
तहां खड़े—खड़े
मर जाते हो।
कहीं पहुंचे
हो तुम? चले
तो हो—कोई तीस
साल चल लिया, कोई पचास
साल चल लिया, कोई साठ साल
चल लिया—लेकिन
कहीं पहुंचे
हो? कहीं
ऐसा लगता है
कि कोई
पहुंचना हुआ,
कोई मंजिल
आई? मार्ग
ही मार्ग..
.घूमते रहते!
कहीं पहुंचना
तो होता नहीं,
तृप्ति तो
कुछ होती
नहीं। एक
अतृप्ति
दूसरी अतृप्ति
में ले जाती
है; दूसरी
अतृप्ति
तीसरी
अतृप्ति में।
दो अतृप्तियों
के बीच थोड़ी—सी
आशा रहती कि
शायद तृप्ति
हो, बाकी
तृप्ति कभी
होती नहीं; संतोष कभी
आता नहीं।
संतुष्टि इस
जगत में है ही
नहीं।
जन्म—मरण
से छुटकारे की
आकांक्षा
मोक्ष है।
अष्टावक्र
ने कहा कि तू
जरा गौर से
देख,
जरा हाथ में
खुर्दबीन ले
कर देख जनक!
कहीं भी भय तो
नहीं है मरने
का? नहीं
तो यह सब बात, ऊंची—ऊंची
बात, बात
की बात रह
जाएगी। अगर
तेरे प्राण
में यह उतर गई
हो, तो
तुझे मरने को
राजी होना
चाहिए; तुझे
महामृत्यु के
लिए राजी होना
चाहिए। तब तो
तुझे अहोभाव
से नाचता हुआ
मृत्यु के
स्वागत के लिए
जाना चाहिए।
जो
नाचता हुआ, गीत
गुनगुनाता
हुआ मृत्यु के
स्वागत को गया
है, उसी ने
जीवन को जाना
है। जो डरते
और कंपते मृत्यु
की तरफ जा रहे
हैं, वे
जीवन को नहीं
जाने, नहीं
पहचाने। और
चूंकि जीवन को
नहीं पहचाने,
इसलिए
मृत्यु का
अर्थ भी नहीं
समझ पाते।
मृत्यु तो
छुटकारा है।
मृत्यु तो
विश्राम है।
लेकिन अगर
मरते समय
तुम्हारे मन
में यह कामना
रही कि फिर हो
जाऊं, फिर
हो जाऊं, मरते
वक्त अगर
तुम्हारे मन
में यह कामना
रही कि अभी
थोड़ी देर और
जी जाता, और
जी जाता—तो
तुम फिर लौट
आओगे, तुम्हारी
वासना
तुम्हें फिर
खींच लाएगी।
वासना के धागे
फिर तुम्हें
वापिस किसी
गर्भ में ले
आएंगे। मरते
वक्त जो कहता
है : अहो, धन्यभागी
मैं, आश्चर्य
कि अब मैं जा
रहा हूं और
फिर कभी न आऊंगा!
बुद्ध
ने ऐसी चेतना
को अनागामिन
कहा है —जो
जाता है और
फिर कभी नहीं
आता,
फिर जिसका
आगमन कभी नहीं
होता। बुद्ध
ने कहा : धन्य
हैं वे जो
अनागामिन हैं—मरते
क्षण जो पूरे
मर जाते हैं
और जो कहते
हैं यह यात्रा
समाप्त हुई, यह व्यर्थ
की दौड़— धाप
बंद हुई, यह
सपना अब और
नहीं देखना
है!
मोक्षकामस्य
मोक्षात् एव
विभीषिका
आश्चर्यम्।
—तो तू जरा
देख, उस पर
आश्चर्य कर
अगर कहीं भय
हो।
'धीर—पुरुष
तो भोगता हुआ
भी और पीड़ित
होता हुआ भी नित्य
केवल आत्मा को
देखता हुआ न
प्रसन्न होता है
और न क्रुद्ध
होता है। '
धीरस्तु
भोज्यमानोउपि
पीड्यमानोउपि
सर्वदा।
आत्मानं
केवलं पश्यन्
न तुष्यति न
कुप्यति।।
कहने
लगे
अष्टावक्र कि
जनक,
देख, जो
वस्तुत: ज्ञान
को उपलब्ध हो
गया, जो
धीर—पुरुष है,
वह फिर न तो
प्रसन्न होता
है और न
क्रुद्ध होता
है। हानि हो
तो अप्रसन्न
नहीं, लाभ
हो तो प्रसन्न
नहीं। मान हो
तो प्रसन्न नहीं,
अपमान हो तो
क्रुद्ध
नहीं। तू जरा
भीतर देख, अगर
तेरा सम्मान
हो, तो तू
प्रसन्न होगा?
अगर तेरा
अपमान हो, तो
तू नाराज होगा?
अगर तू हारे
जीवन में—आज
तू सम्राट है कल
भिखारी हो
जाना पड़े—तो
तेरे चित्त
में कोई अंतर
पड़ेगा? अगर
रेखा—मात्र का
भी अंतर पड़ता
हो, तो अभी
जल्दी मत कर।
यह घोषणा बड़ी
है जो तू कर
रहा है, यह
घोषणा मत कर।
फिर यह घोषणा
अयोग्य है और
खतरनाक है, क्योंकि
कहीं इस घोषणा
का तू भरोसा
करने लगे कि
यह सत्य है, तो फिर तू
सत्य को कभी
भी न पा
सकेगा।
गुरु
की यह सतत
चेष्टा
दिखाने की, कि
कहीं तुम किसी
भ्रांत धारणा
को जो नहीं
हुई है, ऐसा
मत मान लेना
कि हो गई है।
बड़ी अनिवार्य
है गुरु की यह
उपदेशना, बड़ी
करुणामयी है!
क्योंकि मन तो
बड़े जल्दी मानने
को होता है कि
हो गया और जब
बिना किए हो
रहा हो तो
दिक्कत ही
क्या? पतंजलि
के साथ तो यह
खतरा नहीं है,
अष्टावक्र
के साथ बहुत खतरा
है। इसलिए
पतंजलि कोई
परीक्षा भी
नहीं लेते, अष्टावक्र
परीक्षा लेते
हैं।
यह
तुमने खयाल
किया? पतंजलि
के साथ कोई
खतरा नहीं है;
वे एक—एक
इंच बढ़ाते
हैं। वे उतना
ही बढ़ाते हैं
जितना संभव है
साधारण
मनुष्य को
बढ़ना। छलांग
वहां नहीं है।
और एक सीढ़ी
चढ़ो तो ही
दूसरी सीढ़ी पर
चढ़ सकते हो।
पहली सीढ़ी अगर
नहीं चढ़ पाए
तो दूसरी पर
चढ़ ही न
पाओगे। इसलिए
पतंजलि परीक्षा
की कोई
व्यवस्था
नहीं करते।
लेकिन अष्टावक्र
ने परीक्षा की
व्यवस्था की—करनी
ही पड़ी।
क्योंकि
अष्टावक्र तो
कहते हैं कोई
सीढ़ी नहीं; चाहो तो तत्क्षण,
अभी इसी
क्षण मुक्त हो
सकते हो! यह
सुन कर कई
पागल तल्लण
घोषणा कर
देंगे कि हम
मुक्त हो गए।
इन पागलों को
खींच कर इनकी
जगह लाना
पड़ेगा। इनके
लिए सूत्र दिए
जा रहे हैं।
'जो अपने
चेष्टारत
शरीर को दूसरे
के शरीर की भांति
देखता है, वह
महाशय पुरुष
स्तुति और
निंदा में भी
कैसे क्षोभ को
प्राप्त होगा?'
चेष्टमानं
शरीरं स्वं
पश्यत्यन्यशरीरवत्।
जो
अपने शरीर को
भी ऐसा देखता
है जैसे किसी
और का शरीर है; जो
अपने शरीर को
भी अपना नहीं
मानता; जिसने
अपने शरीर से
भी उतनी ही
दूरी कर ली है
जितनी दूसरे
के शरीर से
है। जैसे
तुम्हारे शरीर
को कोई चोट
पहुंचाए, तो
मुझे चोट नहीं
लगती—ऐसा ही
मेरे शरीर को
कोई चोट
पहुंचाए और तब
भी मैं जानता
रहूं कि मुझे
चोट नहीं लगती;
जैसे यह
किसी और का
शरीर है। तो
ही.।
'जो अपने
चेष्टारत
शरीर को दूसरे
के शरीर की भांति
देखता है, वह
महाशय पुरुष
स्तुति और
निंदा में
कैसे क्षोभ को
प्राप्त होगा?
संस्तवे
चापि निदाया
कथं
क्षुभ्येत्
महाशय:।
यह
'महाशय' शब्द
बड़ा प्रिय है।
बना है महा फ़
आशय से—जिसका
आशय महान हो
गया; जो
क्षुद्र
आशयों से नहीं
बंधा है; शरीर
के और मन के, वृत्ति के
और विचार के
आशय जिसके
जीवन में नहीं
रहे; जिसने
अपने समस्त
आशय, अपनी
समस्त
आकांक्षाएं
परमात्मा के
चरणों में, महंत के
चरणों में
समर्पित कर दी
हैं।
'महाशय' बड़ा
अनूठा शब्द
है। हम तो
साधारण उपयोग
करते हैं। कोई
घर आता है तो
कहते हैं. आइए
महाशय, बैठिए!
लेकिन उपयोग
ठीक है। हमें
यह मान कर चलना
चाहिए कि
दूसरा महाशय
है; किसी
क्षुद्र
प्रेरणा से
नहीं आया होगा,
प्रभु—प्रेरणा
से आया है।
इसलिए तो हम
अतिथि को देवता
कहते हैं।
अतिथि आया है
तो प्रभु ही
आया है। जो
आया है वह
महाशय है। चोर
भी आया है तो
भी किसी महाशय
से आया होगा।
ऐसी प्रतीति
साधु—स्वभाव
की होनी
चाहिए।
कहते
हैं. 'वह महाशय
पुरुष स्तुति
और निंदा में
कैसे क्षोभ को
प्राप्त होगा?'
तो तू देख
जनक, तुझे
क्षोभ होगा? तेरी स्तुति
करूं तो तुझे
प्रसन्नता
होगी?
प्रसन्नता
भी क्षोभ है।
क्षोभ का मतलब
होता है :
तरंगें उठ आना; क्षुब्ध
हो जाना।
क्रोध तो
क्षोभ है ही, प्रसन्नता
भी क्षोभ है।
दुखी होना तो
क्षोभ है ही, सुखी होना
भी क्षोभ है; क्योंकि
दोनों हालत
में चित्त
तरंगों से भर
जाता है, क्षुब्ध
हो जाता है।
जो सुख और दुख
के पार है, वही
क्षुब्ध होने
के पार है।
उसे फिर कोई
क्षुब्ध नहीं
कर पाता।
तो
वे कहते हैं
कि अगर तेरा
कोई अपमान करे
जनक,
तो तू
क्षुब्ध होगा? तेरा कोई
सम्मान करे तो
तू क्षुब्ध
होगा? तुझमें
कोई अंतर
पड़ेगा—कोई भी
अंतर पड़ेगा? अंतर—मात्र
पड़े तो तू जो
अभी कह रहा है,
वह तूने
मेरी सुनी बात
दोहरा दी। और
सत्य को पुनरुक्त
नहीं करना
चाहिए। सत्य
को अनुभव करना
चाहिए।
'जो इस विश्व
को माया—मात्र
देखता है और
जो कौतुक को
पार कर गया है,
वह
धीरपुरुष
मृत्यु के आने
पर भी क्यों
भयभीत होगा पू
'
जिसकी
जिज्ञासा, कुतूहल,
अज्ञान सब
बीत गए; जिसको
अब पूछने को
कुछ नहीं बचा
है, जो
पूछने की
यात्रा
समाप्त कर
चुका; जिसके
सब प्रश्न गिर
गए हैं।
विगतकौतुक!
यह
शब्द प्यारा
है। जिसके मन
में अब पूछने
के लिए कुछ भी
नहीं है, प्रश्न
ही नहीं है।
मायामात्रमिद
विश्व पश्यन्
विगतकौतुक:।
'जो इस विश्व
को मायामात्र
देखता है और
जो कौतुक को
पार कर गया है...।'
अपि
सन्निहिते
मृत्यौ कथं
त्रस्यति
धीरधी:।
'.
…..क्या
मृत्यु को पास
आया हुआ देख
कर वह भयभीत
होगा?'
क्या
जरा भी भय की
रेखा उसमें
उठेगी? तू तो
देख, आ रही
जैसे मृत्यु,
खड़ी तेरे
द्वार पर
दस्तक दे रही
मृत्यु, आ
गए यमदूत अपने
भैंसों पर
सवार हो कर—तू
उनका स्वागत
करके उनके साथ
जाने को तत्पर
होगा कि जरा
भी तेरा मन
झिझकेगा? अगर
जरा भी झिझक
रह गई हो, तो
फिर तू अभी
विगतकौतुक
नहीं। अगर जरा
भी झिझक रह गई
हो, तो अभी
श्रद्धा का
जन्म नहीं
हुआ। अगर जरा
भी झिझक रह गई
हो, तो अभी
बहुत कुछ करने
को बाकी है, क्रांति घटी
नहीं। तू समझा
बुद्धि से, अभी प्राणों
से नहीं समझा।
तूने जाना ऊपर
से, अभी
अंतरतम में
प्रकाश का दीया
नहीं जला।
'जिस महात्मा
का मन मोक्ष
में भी स्पृहा
नहीं रखता और
जो आत्मज्ञान
से तृप्त है, उसकी तुलना
किसके साथ हो
सकती है?'
'जिस महात्मा
का मन मोक्ष
में भी स्पृहा
नहीं रखता...।'
निस्पृह
मानस यस्य
नैराश्येउपि
महात्मन:।
जो
इतना ज्यादा
वासना के पार
हो गया कि मोक्ष
की भी वासना
नहीं है। हो
तो हो, न हो तो न
हो—यह
आत्यंतिक
स्थिति है। जब
मोक्ष की भी
वासना नहीं
होती, तभी
मोक्ष फलित
होता है। यह
मोक्ष का
विरोधाभास
है।
कल
मैं एक सूफी
फकीर का जीवन
पढ़ता था। वह
बड़ा धनपति था—फकीर
होने के पहले।
दमिश्क में
रहता था। और
दमिश्क की जो
बड़ी प्रसिद्ध
मस्जिद है, जगत—प्रसिद्ध
मस्जिद है, उसके मन में
यह आकांक्षा
थी कि वह उस
मस्जिद का
व्यवस्थापक
हो जाए, वह
उसके
नियंत्रण में
चले। वह बड़े
सम्मान की बात
थी। वह दमिश्क
का सबसे ऊंचा
पद था—उस
मस्जिद का
व्यवस्थापक
हो जाना। तो
वह धनी तो था
ही, सब काम
छोड़ कर वह
सुबह मस्जिद
में प्रवेश
करने वाला
पहला व्यक्ति
होता और सांझ
मस्जिद को
छोड़ने वाला
आखिरी
व्यक्ति
होता। वह दिन
भर नमाज में
लीन रहता। वह
चौबीस घंटे
तन्मय हो कर
प्रार्थना
करता—इस आशय
से भीतर कि जब
लोग मुझे इतनी
प्रार्थना
में देखेंगे,
तो आज नहीं
कल, मस्जिद
में आने वाले
लोगों का यह
भाव होगा ही कि
इतने बड़े
नमाजी के रहते
हुए कोई और
दूसरा व्यवस्थापक
हो!
नमाज
में उसका रस न
था। रस तो
इसमें था कि
लोग देख लें।
लोगों ने देखा
भी। महीने
बीते, साल भी
बीतने लगा; लेकिन कोई
परिणाम दिखाई
न पड़े। ईश्वर
से तो कुछ उसे
लेना—देना भी
न था; वह तो
सिर्फ
प्रदर्शन था।
साल पूरा हो
गया तो उसने
कहा, यह तो
फिजूल की बात
है। अगर साल
भर में गांव
के लोगों को
इतना भी पता
नहीं.. .कि कोई आ
कर कहता भी नहीं
मुझसे कि तुम
व्यवस्थापक
हो जाओ। तो उस
रात उसने कहा
कि व्यर्थ है
यह। बात छोड़
दी। उसने उस
रात परमात्मा
से प्रार्थना
की कि मुझे
क्षमा कर।
मैंने भी कहां
की व्यर्थ बात
में साल भर
गंवाया! साल
भर अगर तेरे
को पाने की
प्रार्थना की
होती, तो
शायद तेरे ही
दर्शन हो
जाते। मगर इन
मूढ़ों को कुछ
अक्ल न आई।
मगर मैं भी
मूढ़ हूं मुझे
क्षमा कर!
उस
रात उसने बड़े निस्पृह
मन से
प्रार्थना की, उसमें
कुछ मांग न थी!
वह प्रार्थना
करके उठ कर द्वार
पर आया कि
देखा कि गांव
के लोग इकट्ठे
हो रहे हैं।
उसने पूछा :
मामला क्या है?
लोगों ने
कहा. हम सबने
मिल कर तय
किया कि तुम
उस मस्जिद के
व्यवस्थापक
हो जाओ। साल
भर से हम देखते
हैं, तुम
जैसा कोई
नमाजी कभी
हुआ!
वह
तो बड़ा हैरान
हुआ कि आज तो
मैंने छोड़ी आकांक्षा
और आज ही आकांक्षा
पूरे होने का
दिन आ गया!
लेकिन तब उसे
होश भी आया।
उसने कहा कि
क्षमा करो
मित्रो, साल
भर तो मैं आकांक्षा
करता था, तब
तुम कहां थे? अब तुम आए हो
जबकि मैं आकांक्षा
छोड़ चुका। जब आकांक्षा
छोड़ने से ऐसा
फल मिलता है
तो अब आकांक्षा
न करूंगा, अब
तुम
व्यवस्थापक
किसी और को
बना लो। और
उसे इतना बोध
हुआ इस घटना
से कि वह सब
छोड़—छाड़ कर
फकीर हो गया। 'मलिक बिन
दीनार' उसका
नाम था। कहते
हैं कि उसने
मोक्ष की भी आकांक्षा
नहीं की फिर।
स्वर्ग की
आकांक्षा का
तो सवाल ही
नहीं; उसने
आकांक्षा ही
नहीं की। जब
मरा तो किसी
बुजुर्ग को
सपने में
दिखाई दिया और
बुजुर्ग ने
पूछा क्या खबर
है? वहा
कैसा हुआ?
क्योंकि
जिस दिन मलिक
बिन दीनार मरा, उसी
दिन एक और
फकीर मरा—हसन
नाम का एक
फकीर मरा।
दोनों की बड़ी
ख्याति थी। तो
पूछा बुजुर्ग
ने कि तुम
दोनों साथ—साथ
मरे, एक ही
समय मरे, तो
मोक्ष के
दरवाजे पर एक
साथ पहुंचे
होओगे, पहले
प्रवेश किसको
मिला?
मलिक
बिन दीनार ने
कहा कि मैं भी
बड़ा चकित हूं,
पहले प्रवेश
मुझको मिला।
और मैंने पूछा
प्रभु को कि
मुझे प्रवेश
पहले देने का
क्या कारण है?
क्योंकि
हसन मुझसे
ज्यादा
बुद्धिमान
है। हसन
मुझसे
ज्यादा
ज्ञानी है।
हसन के पास तो
मैं भी सीखने
जाता था। तो
प्रभु ने कहा.
तुझसे ज्यादा
ज्ञानी है, वह
तुझसे ज्यादा
त्यागी है; लेकिन उसके
मन में मोक्ष
की आकांक्षा
थी और तेरे मन
में मोक्ष की आकांक्षा
न थी! तू पहले
प्रवेश का
हकदार है।
मोक्ष
की आकांक्षा
भी जिसकी छूट
गई हो; जिस
महात्मा का मन
मोक्ष की भी
स्पृहा न करता
हो और जो
आत्मज्ञान से
तृप्त है, और
जो अपने होने
से तृप्त है; जिसकी
तुष्टि अपने
में है; जो
अब कुछ भी
नहीं मांगता,
जो कहता है
मेरा होना
काफी है, काफी
से ज्यादा है;
और मुझे
चाहिए क्या—जो
ऐसा कहता है!
जो कहता है, मैंने अपने
को जान लिया, भर पाया, खूब
पाया, मिल
गया सब, अब
मुझे कुछ भी
नहीं चाहिए!
'आत्मशान से
जो तृप्त है.......।
'
तस्यात्म
ज्ञानतृप्तस्य
तुलना केन
जायते।
'…….उसकी तुलना
किसी से भी
नहीं हो सकती।
'
तो
हे जनक, तेरे
मन में मोक्ष
की स्पृहा तो
नहीं है? अभी
भी तेरे मन
में मुक्त
होने की
आकांक्षा तो
नहीं है? तुझे
जो यह
आत्मज्ञान
हुआ है, जैसा
तू कह रहा है
कि हो गया, इससे
परितृप्त हो
गया तू? अब
और तो कुछ
नहीं चाहिए? तेरी तृप्ति
पूरी हो गई? अब तू कुछ और तो
न मांगेगा? अगर प्रभु
तेरे सामने आ
जाए और कहे कि
सुन जनक, तुझे
क्या चाहिए, मैं देने को
तैयार हूं —तो
तेरे पास
मांगने को कुछ
होगा, या
तू सिर्फ
धन्यवाद देगा?
तू कुछ
मांगेगा या
धन्यवाद देगा?
तू यह कहेगा
कि आपने दे
दिया सब, अब
मुझे कुछ
चाहिए नहीं।
अब तो कुछ भी
नहीं चाहिए, ऐसा तू कह
सकेगा बिना
किसी अड़चन के?
जरा—सी भी
भीतर द्वंद्व
की स्थिति न
बनेगी, मन
तेरा न कहेगा
कि अरे, अब
प्रभु कहते
हैं तो थोड़ा
कुछ मांग ही
लो? जन्मों
—जन्मों तक आकांक्षा
की, अब घड़ी
आई, शुभ
घड़ी कि
परमात्मा
स्वयं कहता है
कुछ मांग लो, मेरे वरदहस्त
आज तुम्हें
लुटाने को
तैयार हैं, खड़े हैं
तुम्हारी
झोली भरने को—तो
तेरा मन झोली
फैला तो न
देगा?
ये
सारी बातें
अष्टावक्र
कहने लगे, ताकि
जनक अपने को
देख ले कहां
है।
'जो जानता है
कि यह दृश्य
स्वभाव से ही
कुछ भी नहीं
है, वह
धीरबुद्धि
कैसे देख सकता
है कि यह ग्रहण
करने योग्य है
और यह त्यागने
योग्य?'
यह
बड़े महत्व का
सूत्र है इन
सब सूत्रों
में महत्व का
सूत्र है। इस
सूत्र का अर्थ
है कि अष्टावक्र
कहते हैं कि
जनक देख, इन
सारी बातों को सुन
कर—मैंने कहा
कि धीरपुरुष
धन में
आकांक्षा न
रखेगा; मैंने
कहा कि
धीरपुरुष
मोक्ष में भी
आकांक्षा न
रखेगा; मैंने
कहा, धीर—पुरुष
साम्राज्य
में, महल
में, संपत्ति
के विस्तार
में आकांक्षा
न रखेगा—इससे
ऐसा तो नहीं
होता कि तेरे
मन में एक
सवाल उठ रहा
हो : तो मैं इस
सबका त्याग कर
दूं? यह
बड़ी बारीक बात
है। मेरी ये
बातें सुन कर
तेरे मन में
ऐसा तो नहीं
हो रहा है कि
इस सबका त्याग
कर दूं? क्योंकि
धीरपुरुष तो
धन की आकांक्षा
नहीं रखता, महल की
आकांक्षा
नहीं रखता, सुख—सुविधा
की आकांक्षा
नहीं रखता, तो मैं इन
सबको छोडूं और
जंगल चला जाऊं—अगर
तेरे मन में
ऐसा हो रहा हो,
तो अभी तू
धीरपुरुष
नहीं।
क्योंकि
धीरपुरुष न तो
वस्तु की आकांक्षा
करता है, न
वस्तु के
त्याग की
आकांक्षा
करता है। तो
तेरे भीतर
कहीं भोग बचा
है? इसके
लिए अब तक के
सूत्र कहे कि
अगर कहीं भी
भोग की आकांक्षा
बची है तो खोज
ले।
अब
यह बड़ा सूत्र, उससे
भी बड़ा सूत्र
है कि वे कहते
हैं. अब मैं तुझसे
यह पूछता हूं
कि हो सकता है
भोग न बचा हो, त्याग की आकांक्षा
तो नहीं है
कहीं?
क्योंकि
त्याग की
आकांक्षा भोग
का ही दूसरा रूप
है। त्याग की
आकांक्षा भोग
ही है—सिर के
बल खड़ा, कुछ
फर्क नहीं।
भोग कहता है
पकड़ो, त्याग
कहता है छोड़ो;
लेकिन
पकड़ने और
छोड़ने में जिस
पर ध्यान होता
है, वह तो
एक ही चीज है—धन,
कामिनी या
काचन। भोग
कहता है : ' और
स्त्रियां। '
त्याग कहता
है. 'बिलकुल
नहीं। 'लेकिन
दोनों की नजर
तो स्त्री पर
होती है या पुरुष
पर होती है।
भोग कहता है. 'और— और धन!' त्याग
कहता है. 'बिलकुल
नहीं; .और—और
त्याग!' लेकिन
दोनों के मन में
अभी ' और' तो होता है।
न
भोगी को तुम
तृप्त पाओगे, न
त्यागी को।
क्योंकि
त्यागी सोचता
है अभी और त्याग
करना है, और
भोगी सोचता है
अभी और भोग
करना है। बड़े
मजे की बात है,
दोनों की
दृष्टि ' और'
पर लगी है—और!
इस ' और' को
ठीक से समझना,
इस ' और' में ही सारा
संसार समाया
है।
तुम
भोगी को भी
बेचैन पाओगे।
वह कहता है कि
है,
कार तो है, लेकिन और
बड़ी चाहिए; मकान है, लेकिन
और बड़ा चाहिए।
तुम त्यागी के
भीतर खोजो।
त्यागी कहता
है, किए तो
उपवास, लेकिन
और! त्याग
किया तो, लेकिन
और! अभी और
बहुत कुछ
छोड़ने को है।
क्रोध छोड़ा, माया छोड़ी, मोह छोड़ना
है, प्रतिष्ठा
छोड़नी है, अहंकार
छोड़ना है।
लेकिन 'और'
की दौड़ तो
बराबर जारी
है। न भोगी
तृप्त है, न
त्यागी तृप्त
है।
स्वभावादेव
शानानो
दृश्यमेतन
किंचन।
इदं
ग्राह्यमिदं
त्याज्य स किं
पश्यति धीरधी:।।
जो
वस्तुत: धीर
हो गया, जो
वस्तुत: धैर्य
को उपलब्ध हो
गया, जो
वस्तुत: शात
हो गया और
जिसने वस्तुत:
जान लिया कि
ये सब दृश्य
स्वभाव से ही
कुछ भी नहीं
हैं—उसके मन
में न तो
ग्रहण करने की
कोई वासना उठती,
और न त्याग
की कोई वासना
उठती है।
भोगी
और योगी में
बहुत अंतर
नहीं है, वे एक
ही सिक्के के
दो पहलू हैं।
भोगी और त्यागी
में कोई भेद
नहीं है; वे
एक ही तर्क की
दो
व्याख्याएं
हैं। मगर तर्क
एक ही है।
वास्तविक धीर
तो वही है जो
दोनों के पार
हो गया।
देखते
हैं,
परीक्षा
कैसी कठिन
होती जाती है!
जनक को कैसे कसते
जाते हैं सब
तरफ से, भागने
की कोई जगह
नहीं दे रहे
हैं! अभी तक
भोग का खंडन
किया था, तो
एक उपाय था
जनक को भागने
का, कि जनक
सोचता कि ठीक
है, अष्टावक्र
कहते हैं कि
यह सब ज्ञानी
नहीं करता—धन,
माया, मद,
पद, व्यवस्था,
साम्राज्य,
महल, यह
सब नहीं करता।
तो एक छुटकारे
की जगह थी—तो
ठीक है, सब
छोड़ दूंगा।
अहंकार
शान के दावे
में छोड़ भी सकता
है। अगर इस पर
ही कसौटी हो
जाए कि तुमने
जो वक्तव्य
दिया है जनक, कि
मैं जाग गया, यह वक्तव्य
तभी सही सिद्ध
होगा, जब
तुम यह सब छोड़
दो, क्योंकि
जागा हुआ आदमी
इन सब चीजों
में नहीं होता—तो
अहंकार
की यह खूबी है,
सूक्ष्म
खूबी कि
अहंकार इसके
लिए भी राजी
हो जाएगा। जनक
कहता. अच्छा, अगर यही
कसौटी है, हम
पूरी किए देते
हैं! मैं जाता
यह सब छोड़ कर!
यह रहा पड़ा
साम्राज्य, मैं चला!
लेकिन
उससे कुछ
सिद्ध न होता।
उससे यह
बिलकुल भी
सिद्ध न होता
कि साम्राज्य
स्वन्नवत
हुआ। क्योंकि
स्वप्न न तो
पकड़े जा सकते
हैं और न छोड़े
जा सकते हैं।
जब तुमसे कोई
कहे कि मैंने
लाखों रुपये त्याग
कर दिए तो समझ
लेना कि त्याग
नहीं हुआ, हिसाब
जारी है। तब
तुम पक्का समझ
लेना कि यह आदमी
अभी भी हिसाब
कर रहा है कि
इसने कितने
रुपये छोड़ दिए;
रुपये अभी
भी बहुत
वास्तविक
हैं।
मेरे
एक मित्र हैं, उन्होंने
लाखों रुपये
छोड़े हैं।
मुझसे
बुजुर्ग हैं।
कई वर्ष हो गए,
तब
उन्होंने
छोड़े, मगर
जब भी मैं
उनसे मिलने
जाता था तो वे
किसी न किसी
बहाने यह बात
निकाल ही देते
कि मैंने लाखों
रुपयों पर लात
मार दी। एक
दफा सुना
मैंने, दो
दफे सुना, तीसरी
दफे मैंने
उनसे कहा कि
सुनें, नाराज
न हों। यह लात
आपने कब मारी
थी?
कहने
लगे,
कोई तीस—पैंतीस
साल पहले की
बात है, लाखों
पर लात मार दी!
मैंने
कहा,
यह लात आपने
मारी, लेकिन
लग नहीं पाई।
इसको दोहराते
क्यों हैं? तीस—पैंतीस
साल की बात गई—बीती
हो गई, इसको
दोहराते
क्यों हैं?
वह लाखों का
हिसाब अभी भी
कायम है? पहले
अकड़ कर चलते
रहे होंगे कि
मेरे पास
लाखों हैं, अब अगडु कर
चलते हैं कि
लाखों पर लात
मार दी—अकड़
वहीं की वहीं
है! पहली अकड़
से दूसरी अकड़
थोड़ी ज्यादा
खतरनाक है।
क्योंकि पहली
अकड़ तो दिखाई
भी पड़ जाती है,
दूसरी
दिखाई भी नहीं
पड़ती, अति
सूक्ष्म है।
जनक
के लिए वह
दरवाजा खुला
रखा था इतनी
देर तक अष्टावक्र
ने,
अब उसे भी
बंद कर दिया।
अब जनक को
भागने की कोई जगह
नहीं रही। अब
तो जागने की
ही जगह रही, भागने की
कोई जगह नहीं
रही। अब तो
सीधे सत्य को
स्वीकार करना
होगा कि या तो
हुआ है तो हुआ
है, या
नहीं हुआ है
तो नहीं हुआ
है। बचने का
कोई उपाय नहीं
है।'
स्वभावादेव
ज्ञानानो
दृश्यमेतव्र
किंचन।
अरे, जिसे
सब माया दिखाई
पड़ने लगी, उसे
कैसा छोड़ना, कैसा पकड़ना!
इर्द
ग्राह्यमिदं
त्याज्य स किं
पश्यति धीरधी:।
उसे
तो कुछ दिखाई
ही नहीं पड़ता
कि इसमें
पकड़ना और
छोड़ना क्या?
धीर—पुरुष
ऐसा नहीं कहता
कि सोना
मिट्टी है।
धीर—पुरुष
कहता है. सोना
सोना है, मिट्टी
मिट्टी है; पर दोनों
अर्थहीन, दोनों
सारहीन। वह
कहता है. महल
में बैठो तो, महल के बाहर
बैठो तो—सब
बराबर हैं, दोनों सपने
हैं। अमीर का
सपना है, गरीब
का सपना है; सफल का सपना
है, असफल
का सपना है—दोनों
सपने हैं।
सपने बदलने से
कुछ भी न
होगा। एक रात
तुमने सपना
देखा कि डाकू
हो, दूसरी
रात सपना देखा
कि संत हों—दोनों
सपने हैं, दोनों
का कोई मूल्य
नहीं है। न
तुम डाकू हो, न तुम साधु
हो।
तुम
जब तक अपने को
कोई
तादात्म्य
देते हो तब तक
भांति जारी
रहेगी। तुम तो
परम शून्य हो, तुम
तो परम
प्रज्ञा हो, तुम तो परम
साक्षी हो।
त्याग
भी तो कृत्य
हुआ! जैसे भोग
कृत्य है, वैसे
त्याग भी
कृत्य है। और
अष्टावक्र का
पूरा क्रांति—सूत्र
यही है. कर्ता
नहीं, भोक्ता
नहीं—साक्षी।
छोड़ा, वह
भी कर्म हुआ।
पकड़ा, वह
भी कर्म हुआ।
दोनों में तुम
कर्ता हो गए, दोनों में
अहंकार
निर्मित
होगा। कृत्य
से अहंकार
निर्मित होता
है। तुम
साक्षी
हो जाओ।
'जिसने
अंतःकरण के
कषाय को त्याग
दिया है और जो
द्वंद्व—रहित
और आशा—रहित
है, ऐसे
पुरुष को
दैवयोग से
प्राप्त
वस्तु से न
दुख होता है
और न सुख होता
है।'
'जिसने अंतःकरण
से कषाय को
त्याग दिया,…..। '
अंतःकरण
से कषाय को
त्यागने का
अर्थ है.
जिसने जाग कर
देख लिया कि
कषाय मेरे
नहीं, जिसने
दीया जला कर
देख लिया कि
मैं तो सिर्फ
प्रकाश हूं और
मैं कोई भी
नहीं। न क्रोध
मेरा, न
मोह मेरा।
पकड़ने—छोड़ने
की बात नहीं; इतना जानने
की बात है कि
दोनों मेरे
नहीं। न भोग
मेरा, न
त्याग मेरा।
'जिसने
अंतःकरण से
कषाय को त्याग
दिया है और जो
द्वंद्व—रहित
और आशा रहित
है...।'
अब
न तो कोई
द्वंद्व है
भीतर, क्योंकि
दो बचे नहीं, सिर्फ
साक्षी बचा
है। साक्षी
सदा एक है। और
यह शब्द बड़ा
अदभुत है.
निरद्वंद्वस्य
निराशिषः। जो
द्वंद्व से
रहित और आशा
से रहित है! अब
जो कोई भी आशा
नहीं करता कि
ऐसा हो, वैसा
हो, यह
मिले, वह
मिले—जिसके
लिए कल समाप्त
हो गया!
दो
कल हैं हमारे
आज के दोनों
तरफ। एक कल है
बीता हुआ, उससे
द्वंद्व पैदा
होता है। एक
कल है आने
वाला, उससे
आशा जगती, वासना
जगती। जिसने
अतीत के कल को
छोड़ दिया, जिसने
कह दिया कि जो
भी मैं अब तक
था, सब
सपना था—वह
मुक्त हुआ
अतीत से। और
जिसने सब आशा
छोड़ दी, जिसने
कहा जो मैं
हूं वह काफी
हूं अब मुझे
कुछ और होना
नहीं, कहीं
और जाना नहीं;
जहं। हूं
वहीं मेरा घर
है; जहां
हूं वैसा होना
ही मेरा
स्वभाव है; जैसा हूं
तैसा ही होना
मेरा नियति है,
अन्यथा की
कोई चाह नहीं—उसने
भविष्य को
मिटा दिया।
जिसने अतीत और
भविष्य को
पोंछ डाला, वह शाश्वत
में प्रवेश कर
जाता है।
अंतस्मक्तकषायस्य
निर्द्वन्द्वस्य
निराशिष:।
यदृच्छयागतो
भोगो न दुखाय
न तुष्टये।
उसे
जो मिल जाए, वह
दैवयोग से, भाग्य से—सुख
मिले तो, दुख
मिले तो।
यह
समझना। यह
सूत्र याद
रखना, भूलना
मत। तुम कहते
हो : जो मिलता
है, अपने
कृत्य से, कर्म
से..। यह कर्म
की फिलॉसफी
नहीं है। यह
साक्षी का
दर्शन है।
अष्टावक्र
कहते हैं. उसे
दुख मिलता है
तो वह कहता है :
दैवयोग, प्रभु
इच्छा, अदृश्य
की इच्छा! दुख
मिलता तो, सुख
मिलता तो! न तो
सुख में वह
कहता है कि
मेरे कारण
मिला, न
दुख में कहता
है मेरे कारण
मिला। वह तो
कहता है, मैं
तो सिर्फ
देखनेवाला
हूं; यह
मिलना न मिलना
उसकी लीला!
फिर कैसा खेद!
न तो फिर
प्राप्त
वस्तु में दुख
है और न सुख
है।
जीसस
ने सूली पर
आखिरी क्षण
में कहा है :
तेरी मर्जी
पूरी हो! मेरी
मर्जी मत सुन!
मैं क्या कहता
हूं इस पर
ध्यान मत दे!
तेरी मर्जी
पूरी हो! क्योंकि
मैं तो जो भी
कहूंगा वह गलत
होगा और तू जो
भी कहेगा, वही
ठीक है। मैं
चाहूं या न
चाहूं वही हो
जो तेरी मर्जी
है!
जब
भी तुम प्रभु
से प्रार्थना
करते हो और
कहते हो ऐसा
कर दे, वैसा कर
दे—तभी
तुम्हारी
प्रार्थना
विकृत हो गई, खंडित हो गई,
प्रार्थना
न रही। तुम तो
प्रभु को
सुझाव देने लगे।
तुम तो कहने
लगे मैं तुझसे
ज्यादा
समझदार, तू
यह क्या कर
रहा है?
एक
सूफी फकीर हुआ, उसके
दो बेटे थे—जुडवां
बेटे, बड़े
प्यारे बेटे
थे! और बड़ी देर
से बुढ़ापे में
पैदा हुए थे।
उसका बड़ा मोह
था उन पर। वह
एक दिन मस्जिद
में प्रवचन दे
कर लौटा, घर
आया तो वह आते
ही से रोज
पूछता था कि
आज बेटे कहां
हैं? अक्सर
तो वे मस्जिद
जाते थे, आज
नहीं गए थे
सुनने। उसने
पूछा पत्नी से,
बेटे कहां
हैं? उसने
कहा, आते
होंगे, कहीं
खेलते होंगे,
तुम भोजन तो
कर लो! उसने
भोजन कर लिया।
भोजन करके
उसने फिर पूछा
कि बेटे कहा
हैं? क्योंकि
ऐसा कभी न हुआ
था, वे
भोजन उसके साथ
ही करते थे।
तो उसने कहा, इसके पहले
कि मैं बेटों
के संबंध में
कुछ कहूं एक
बात तुमसे
पूछती हूं। अगर
कोई आदमी बीस
साल पहले
अमानत में कुछ
मेरे पास रख
गया था, दो
हीरे रख गया
था, आज वह
वापिस मांगने
आया, तो
मैं उसे लौटा
दूं कि नहीं?
फकीर
ने कहा, यह भी
कोई पूछने की
बात है? यह
भी तू पूछने
योग्य सोचती
है? लौटा
ही देने थे, मेरे से
पूछने की क्या
बात थी? उसके
हीरे उसे
वापिस कर देने
थे, इसमें
हमारा क्या
लेना—देना है?
तू मुझसे
पूछने को
क्यों रुकी?
उसने
कहा,
बस, ठीक
हो गया। पूछने
को रुक गई थी, अब आप आ जाएं!
वह
कमरे में ले
गई,
दोनों बेटे
मुर्दा पड़े
थे। पास के एक
मकान में खेल
रहे थे और छत
गिर गई। फकीर
ने देखा, बात
को समझा, हंसने
लगा। कहा.
तूने भी ठीक
किया। ठीक है,
बीस साल
पहले कोई हमें
दे गया था, अदृश्य,
दैवयोग, परमात्मा
या जो नाम
पसंद हो—आज ले
गया, हम
बीच में कौन? जब ये बेटे
नहीं थे, तब
भी हम मजे में
थे, अब ये
बेटे नहीं हैं
तो हम फिर
वैसे हो गए
जैसे हम पहले
थे। इनके आने—जाने
से क्या भेद
पड़ता है! तूने
ठीक किया। तूने
मुझे ठीक
जगाया। जो भी
हो रहा है, वह
मेरे कारण हो
रहा है—इससे
ही 'मैं' की भ्रांति
पैदा होती है।
जो हो रहा है, वह समस्त के
कारण हो रहा
है, मैं
सिर्फ
द्रष्टा—मात्र
हूं—ऐसी समझ
प्रगाढ़ हो जाए,
ऐसी ज्योति
जले अकंप, निर्धूम,
तो साक्षी
का जन्म होता
है।
अष्टावक्र
ने जनक को कहा.
तू देख ले
अपने को इन सब बातों
पर कस
कर। अगर इन सब बातों
पर ठीक उतर
जाता हो, तो
तूने जो घोषणा
की, वह परम
घोषणा है। अगर
इन बातों पर ठीक न
उतरता हो, तो
अपनी घोषणा
वापिस ले ले।
क्योंकि झूठी
घोषणाएं
खतरनाक हैं।
तू मुझे सुन
कर विश्वास मत
बना, तू
मुझे सुन कर
श्रद्धा को
जगा! तू सत्य
में स्वयं
जाग। मेरी जाग
तेरी जाग नहीं
हो सकती और मेरी
रोशनी तेरी
रोशनी नहीं हो
सकती। मेरी आंखें
मेरे काम
आएंगी और मेरे
पैर से मैं
चलूंगा। तुझे
तेरे पैर
चाहिए और तेरी
आंखें चाहिए
और तेरी रोशनी
चाहिए। तू ठीक
से पहचान ले
तू मुझसे
प्रभावित तो
नहीं हो गया
है?
कृष्णमूर्ति
निरंतर कहते
हैं किसी से
प्रभावित मत
होना। वे ठीक
कहते हैं। वह
अष्टावक्र का
ही सूत्र है।
किसी से
प्रभावित मत
होना। जागो, अनुकरण
में मत पड़
जाना। अनुकरण
तो सिर्फ नाटक
है, अभिनय
है; जीवन
का उससे कुछ
लेना—देना
नहीं।
यही
मैं तुमसे भी
कहता हूं।
मुझे सुनो, लेकिन
सुन लेना काफी
नहीं है।
सुनते—सुनते
जागो! जो सुनो,
उसको पकड़ कर
मत बैठ जाना।
नहीं तो
पिंजरा हाथ लगेगा,
पक्षी उड़
जाएगा या मर
जाएगा। जो
सुनो, उसे
जल्दी खोल
लेना, गुन
लेना। जो सुनो,
उसे जल्दी
रूपांतरित
करना; पचाना;
नहीं तो अपच
हो जाएगा। उसे
पचाना! वह
तुम्हारा खून
बने, तुम्हारे
खून में बहे, तुम्हारी
हड्डी बने, तुम्हारी
मज्जा
बने,
तुम्हारा
प्राण बने—तो श्रद्धा!
श्रद्धा
का अर्थ है :
पचाया हुआ।
विश्वास का
अर्थ है :
अनपचा।
विश्वास
बोझ हो जाता
है,
श्रद्धा
मुक्ति लाती
है!
हरि. ओंम
तत्सत्!
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