24
सितंबर, 1976;
ओशो
आश्रम,
कोरेगांव
पार्क,
पूना।
पहला
प्रश्न :
मनोवैज्ञानिक
सिग्मंड
फ्रायड ने
मृत्यु—एषणा, थानाटोस
की चर्चा की।
आपने कल
जीवेषणा, ईरोस
की चर्चा की।
फ्रायड की
धारणा को क्या
आप आधुनिक युग
की
आध्यात्मिक
विकृति कहते
हैं? कृपा
करके हमें
समझाएं।
जीवन
द्वंद्व है।
और जो भी यहां
है उससे विपरीत
भी जरूर होगा, पता
हो न पता हो।
जहां प्रेम है
वहां घृणा है।
और जहां
प्रकाश है
वहां अंधकार
है। और जहां
परमात्मा है
वहां पदार्थ
है। तो
जीवेषणा के
भीतर भी छिपी
हुई मृत्यु—एषणा
भी होनी ही
चाहिए।
आधुनिक
युग की विकृति
नहीं है
फ्रायड का
वक्तव्य।
फ्रायड ने एक
बहुत गहरी खोज
की है।
जीवेषणा की
चर्चा तो सदा
से होती रही।
फ्रायड ने जो
थोड़ा—सा
अनुदान किया
है जगत की
प्रतिभा को, उस
अनुदान में
मृत्यु —एषणा
की धारणा भी
है। आदमी जीना
चाहता है, यह
तो सच है; लेकिन
ऐसी घड़ियां भी
होती हैं जब
आदमी मरना चाहता
है, यह भी
उतना ही सच है।
थोड़ा
सोचो, जवान हो
तुम, तो
जीना चाहते हो।
फिर एक दिन
वृद्ध हुए, शिथिल हुए
गात, अंग
थके, जीवन
में जो जानने
योग्य था जान
लिया, करने
योग्य था कर
लिया, भोगने
योग्य था भोग
लिया, अब
सब विरस हुआ, अब किसी बात
में कोई रस
नहीं आता, अब
सब पुनरुक्ति
मालूम होती है,
ऊब पैदा
होती है—तो
क्या तुम मरना
न चाहोगे? क्या
अंतरतम में एक
गहरी आवाज न
उठने लगेगी कि
अब बहुत हुआ, अब परदा
गिरे, अब
नाटक समाप्त
हो?
जिसे
पूरब के
मनीषियों ने
वैराग्य कहा
है,
वह मृत्यु—एषणा
की ही छाया है।
जिसे बुद्ध ने
निर्वाण कहा
है, वह
मृत्यु—एषणा
की ही आत्यंतिक
परिकल्पना है।
क्या
है निर्वाण?
हम कहते हैं
कि इस देश में
आवागमन से
छुटकारा।
क्या हुआ इसका
अर्थ? इसका
अर्थ हुआ.
बहुत हो चुका
जीवन, अब
हम लौट कर
नहीं आना
चाहते; बहुत
हो चुका, एक
सीमा है, अब
हम थक गए हैं
और हम परम
विश्राम
चाहते हैं।
इसको ही
फ्रायड मृत्यु—एषणा
कहता है। शब्द
से ही मत घबड़ा
जाना।
जीवेषणा है
राग, मृत्यु
—एषणा है
विराग।
जीवेषणा
तुम्हें
बांधे रखती है
माया से; मृत्यु
—एषणा मुक्त
करेगी। खुद
फ्रायड को भी
ठीक—ठीक साफ
नहीं है कि
उसने जो खोज
लिया है, उसका
पूरा —पूरा
अर्थ क्या
होगा! मृत्यु—एषणा
की खोज उसने
अपने जीवन के
अंतिम चरण में
की; शायद
स्वयं भी
मृत्यु —एषणा
से भर गया
होगा, तब
की। स्वयं भी
परेशान हो गया,
क्योंकि
जीवन भर तो
लस्ट, लिबिडो,
जीवेषणा, वासना—इसका
ही अनुसंधान
किया और जीवन
की अंतिम घड़ियों
में मृत्यु—एषणा
का भी पता चला।
वह हैरान हुआ,
क्योंकि वह
तार्किक
व्यक्ति था।
उसे बड़ी
बेचैनी हुई कि
यह' तो
सारे जीवन में
मैंने जो खोजा
था, उसका
विरोध हो
जाएगा। मैंने
तो सदा यही
कहा था कि
आदमी जीने के
पागलपन से जी
रहा है और
कामवासना
मनुष्य—जीवन
का एकमात्र
आधार है, ईरोस।
अब आज अचानक
जीवन के अंतिम
पहर में यह भी
भीतर पता चला
कि मरने की भी आकांक्षा
है। फिर ईरोस
का क्या हुआ, जीवेषणा का
क्या हुआ?
फ्रायड
कोई लाओत्सु
का अनुयायी तो
नहीं था; अरस्तु
का अनुयायी था।
विपरीत को
मानने में उसे
बड़ी अड़चन थी।
वैज्ञानिक
बुद्धि का
व्यक्ति था।
चाहता था, एक
से ही सब
सुलझा लूं; एक ही धारणा
से सब सुलझा
लूं दूसरी कोई
धारणा बीच में
न लानी पड़े।
और यह तो
दूसरी धारणा
थी; न केवल
दूसरी, सारे
जीवन की खोज
का विरोध थी, ऐंटी— थीसिस
थी, उसका
प्रतिवाद थी।
मगर आदमी
ईमानदार था।
उसने छिपाया न।
थोड़ा कम ईमान
का आदमी होता
तो दूसरी बात
को उठाता ही
नहीं। जीवन के
अंतिम क्षण
में कौन अपने
जीवन के किए को
लीपता—पोतता
है! चालीस
वर्षों के अथक
श्रम से जिसने
सिद्ध किया था,
उसके
विपरीत एक
धारणा को अंत
में डाल जाना
सारे विचार को
अस्त—व्यस्त
करना होगा।
थोड़ा कम ईमान
का आदमी होता,
थोड़ा कम
प्रामाणिक
होता, ताल
जाता बात—मजबूरी
कहां थी ई
कहता न किसी
से, चुपचाप
बैठा रहता।
नहीं, लेकिन
आदमी ईमानदार
था। उसने
फिक्र न की।
उसने जाना कि
अगर मेरे जीवन
का पूरा
दृष्टिकोण भी
गिरता हो, अगर
मेरे वक्तव्य
में
विरोधाभास भी
आता हो, तो
आए; लेकिन
जो मैंने जाना
है, जो
मैंने देखा है,
उसे कहूंगा।
बड़े झिझकते मन
से उसने
मृत्यु—एषणा
का सिद्धात
प्रतिपादित
किया।
और
मेरे देखे, उसके
जीवन भर की
खोज अधूरी रह
जाती अगर यह
दूसरी बात उसे
पता न चलती।
जब
तुम जीवेषणा
में बहुत गहरे
खोज करोगे तो
वहीं तुम छिपा
हुआ पाओगे
विरोध भी।
इसीलिए तो
कहते हैं कि
जैसे ही जन्म
हुआ,
वैसे ही
मृत्यु भी
होनी शुरू हो
गई। जीवन में
ही छिपा है
मृत्यु का
स्वर। बने
नहीं, मिटना
शुरू हो गया।
जो भी बना है, मिटेगा। जो
भी संगृहीत है,
बिखरेगा।
तो
यह जीवन जो
हमारा है, इसके
साथ—साथ
मृत्यु की
छाया भी चलती
होगी। एक पैर
जीवन का, तो
दूसरा पैर
मृत्यु का—दोनों
पर सधे हम
चलते हैं।
तीसरी
खोज भारत की
है। वह भारत
की खोज यह है
कि न तो हम
जीवन हैं और न
हम मृत्यु हैं; ये
दोनों हमारे
पैर हैं।
द्वंद्व
इसलिए मालूम
होता है, अगर
हम तीसरे को न
देख पाएं। अगर
तीसरा दिखाई
पड़ जाए......
सिंथीसिस।
ऐसा
समझो, ईरोस की
धारणा, जीवेषणा
की धारणा है.
थीसिस, एक
वाद, एक
सिद्धात। फिर
थानाटोस, मृत्यु—एषणा
की धारणा है.
प्रतिवाद, एंटी—थीसिस।
अगर दो ही
रहें तो विवाद
ही होगा; हल
होना मुश्किल
हो जाएगा।
फ्रायड
अगर थोड़े दिन
और जीता—नहीं
जीया, किसी
अगले जन्म में,
कहीं और
खोजबीन करते—सिंथीसिस,
संवाद भी
घटित होगा; वह समन्वय
की अंतिम दशा
भी घटित होगी,
जब वह
साक्षी को भी
पकड़ लेगा। वह
ठीक रास्ते पर
था; मंजिल
अभी अधूरी थी,
मगर रास्ता
गलत न था। अभी
मंजिल आई न थी,
यात्रा
अधूरी थी, लेकिन
मार्ग ठीक था,
दिशा ठीक थी।
जीवन से
मृत्यु पर
पहुंचा था; अब एक ही
उपाय बचा था
कि जीवन और
मृत्यु दोनों का
अतिक्रमण कर
जाता।
उसी
को अष्टावक्र
ने साक्षी—
भाव कहा है। न
तुम जीवन हो, न
तुम मृत्यु हो।
जीवन और
मृत्यु दोनों
ही खेल हैं, जो तुम
चुनते हो। और
एक को चुना तो
दूसरा भी
अनिवार्यत: चुनना
होता है।
जिसने जीवन को
चुना उसे
मृत्यु भी
चुननी होगी।
जिसने प्रेम
को चुना उसे
घृणा भी चुननी
होगी। जिसने
सम्मान चुना
उसे अपमान भी
स्वीकार कर लेना
होगा। जिसने
मुस्कुराहट
चुनी, वह आंसुओं
से बच न सकेगा।
वे साथ —साथ
हैं। देर—
अबेर हो सकती
है, लेकिन
द्वंद्व साथ—साथ
है।
जब
तक तुम चुनोगे, तब
तक विपरीत भी
अपने —आप चुन
लिया जाएगा।
तुम चाहो न
चाहो, तुम्हारी
चाह— अचाह का
सवाल नहीं।
तुमने सिक्के
का एक पहलू
चुना, दूसरा
पहलू
तुम्हारे हाथ
में अपने — आप आ
गया। तुम देखो
वर्षों बाद, इससे क्या
फर्क पड़ता है?
लेकिन आ गया।
चुनो मत, दोनों
के साक्षी बनो—तो
तुम दोनों के
पार हो गए।
आवागमन से
मुक्ति, जीवन—मृत्यु
से मुक्ति, जन्म—मरण से
मुक्ति घट
सकती है।
तीसरे
तत्व की खोज
करनी होगी। वह
तीसरा ही
महिमावान है, आत्यंतिक
रूप से
महिमावान है।
उस तीसरे का
ही महत्व है।
पूछते
हो तुम, 'क्या
यह
आध्यात्मिक
विकृति है
आधुनिक युग की—मृत्यु—एषणा
की खोज?
नहीं, यह
आधुनिक भाषा
में विराग की
खोज है, वैराग्य
की खोज है। यह
नया शब्द है।
विरागी का
अर्थ क्या
होता है? विरागी
का इतना ही
अर्थ होता है,
वह कहता है,
अब मैं विदा
होना चाहता
हूं। विरागी
का इतना ही
अर्थ होता है
राग—रंग टूट
गया, वीणा
के तार उखड़ गए;
अब मैं विदा
होना चाहता
हूं। विरागी
यही कहता है
कि अब यहां घर
बनाने योग्य
कोई जगह नहीं
मालूम होती, मुझे जाने
दो। यह मरने
की ही आकांक्षा
है।
फ्रायड
भी ठीक से
नहीं समझा।
उसने अपनी इस
खोज के संदर्भ
में ऐसा सोचा
कि बुद्ध
मृत्यु—एषणा
से भरे हुए
हैं। एक अर्थ
में ठीक है; क्योंकि
जीवेषणा अब
नहीं है, अब
जीने की कोई
आकांक्षा
नहीं है। वह
तृष्णा, वह
तन्हा गई। अब
कोई वासना
जीने की नहीं
है।
इसलिए
फ्रायड ने
सोचा कि बुद्ध
मृत्यु —एषणा
से भरे हैं और
यह बुद्ध का
धर्म मरने
वालों का धर्म
है;
निराशा, अवसाद,
संताप से
भरे लोगों का
धर्म है, नकारात्मक
है। थोड़ी दूर
चला, लेकिन
पूरी बात उसकी
पकड़ में न आई।
बुद्ध
का धर्म न तो
राग का धर्म
है न विराग का—वीतराग
का धर्म है।
परम संन्यासी
वीतरागी है।
वीतरागी का
अर्थ हुआ :
विराग से भी
राग न रहा। वह
आखिरी ऊंचाई
है चैतन्य की।
राग से राग न
रहे,
तो विराग।
फिर विराग से
भी राग न रहे, तो वीतराग।
संसारी संसार
से छूटने लगे,
तो
संन्यासी; फिर
संन्यास के भी
ऊपर उठने लगे,
तो वीतराग।
विराग
में भी थोड़ा
राग तो रहता
है—विराग से
हो जाता है।
कोई धन से राग
करता है; कोई
निर्धनता से
राग करने लगता
है; कोई
कहता है
निर्धनता में
बड़ा सुख है।
कुछ न हो पास, तो बड़ा सुख
है। कोई
वस्त्रों से
राग करता, कोई
कहता है नग्न
होने में बड़ा
सुख है, दिगंबर
हो जाने में
बड़ा सुख है।
कोई कहता है
स्त्रियां
चाहिए तो सुख
है, पुरुष
चाहिए तो सुख
है, सुंदर
देह चाहिए तो
सुख है; कोई
कहता है, नहीं,
स्त्रियों
से दूर, पुरुषों
से दूर, देहों
से दूर, जंगल
में, एकांत
में, अकेले
में, जहां
कोई न बचे वहा
सुख है। लेकिन
ये एक ही
सिक्के के
पहलू हैं, एक
—दूसरे के
विपरीत मालूम होते
हैं, पर एक—दूसरे
के सहयोगी हैं।
वीतराग
की दशा है
दोनों के पार; पूरा
सिक्का छोड़
दिया हाथ से—कृष्णमूर्ति
जिस अवस्था को
च्चॉयसलेसनेस
कहते हैं, निर्विकल्पता,
चुनाव का
अभाव। फ्रायड
उसके करीब आता
जरूर। आदमी
अनूठा था।
लेकिन उसकी
अपनी सीमाएं
थीं। और पूरब
के धर्मों से
वह कभी ठीक से
परिचित नहीं
हुआ। उसके मन
को ईसाइयत और
यहूदी धर्मों
ने बड़े विरोध
से भर दिया था।
ईसाइयत
और यहूदी धर्म, धर्म
की कोई बड़ी
ऊंची
अभिव्यक्तियां
नहीं हैं। बड़ी
साधारण
अभिव्यक्तियां
हैं।
क्राइस्ट तो
ठीक वहीं हैं
जहा बुद्ध हैं,
लेकिन
ईसाइयत उस
ऊंचाई को नहीं
पहुंच सकी
जहां बुद्ध के
अनुयायियों
ने बुद्ध के
विचार को
पहुंचाया—उस
परिशुद्धि को,
उस प्रज्ञा
को। मौजेज तो
वहीं हैं, जहां
लाओत्सु है, लेकिन यहूदी
मौजेज को वहां
न उठा सके
जहां लाओत्सु
के शिष्यों ने
लाओत्सु को
उठाया, और
लाओत्सु के विचार
पर आकाश में
एक ताना—बाना
बुना— अत्यंत
परिशुद्ध!
ईसाइयत
और यहूदी, धर्म
की बड़ी साधारण
अभिव्यक्तियां
हैं, बड़ी
प्राथमिक, परिष्कार
नहीं है; राजनीति
ज्यादा है, धर्म कम है, व्यवसाय
ज्यादा है, धर्म कम है, धर्म
औपचारिक
मालूम होता है।
रविवार को
चर्च हो आता
है आदमी और
सोच लेता है बात
पूरी हो गई।
रविवारीय
धर्म है, बाकी
छह दिन कोई
प्रयोजन नहीं
है। थोड़ी—बहुत
प्रार्थना को
जगह है, ध्यान
के लिए कोई
जगह नहीं है; समाधि की
कोई धारणा
नहीं है।
इसलिए बहुत
ऊंचाई की बात
नहीं थी।
फ्रायड
सिर्फ इन दो
धर्मों से
परिचित था।
पूरब के धर्म—उपनिषद, ताओ—तेह—किग,
झेन, तंत्र,
तिलोपा, बोधिधर्म,
नागार्जुन,
बसुबंधु, धर्मकीर्ति—इनकी
कोई पहचान उसे
न थी। (रेसे
कमल भी खिले
हैं, इसका
उसे कुछ पता न
था। इसलिए
उसकी सीमाएं
थीं। उसने
पश्चिम के
साधारण
धर्मों को ही
धर्म मान लिया।
धर्म
की गहरी समझ
चाहिए हो तो
पूरब में
डुबकी लगानी
जरूरी है; जैसे
विज्ञान की
गहरी समझ
चाहिए हो तो
पश्चिम में
डुबकी लगानी
जरूरी है; पश्चिम
की मौलिक
प्रतिभा
विज्ञान में
प्रगट हुई है।
पूरब की
प्रतिभा धर्म
में प्रगट हुई
है। जैसे पूरब
का वैज्ञानिक
मध्य श्रेणी का
होता है।
जिसको तुम
पूरब में
वैज्ञानिक
कहते हो वह
कोई बड़े मूलन
का नहीं होता,
तकनीशियन
होता है, वैज्ञानिक
नहीं होता; पश्चिम से
सीख कर आ जाता
है, उधार
उसका ज्ञान
होता है। पूरब
के पास
विज्ञान की
सीधी—सीधी
प्रतिभा नहीं
मालूम होती, क्योंकि
विज्ञान की
प्रतिभा के
लिए तर्क
चाहिए और
विज्ञान की
प्रतिभा के लिए
गणित चाहिए—और
पूरब की
प्रतिभा
काव्यात्मक
है, रहस्यात्मक
है, संगीत
में प्रगट हुई
है, ध्यान
में प्रगट हुई
है।
तो
अगर किसी को
भी धर्म का
ठीक परिचय
करना हो तो
पूरब से ही
परिचित होना
होगा।
विज्ञान पढ़ना
हो तो ऑक्सफर्ड
जाओ,
कैम्बिज
जाओ, हार्वर्ड
जाओ। लेकिन
अगर धर्म पढ़ना
हो तो भटको
कहीं पूरब के गली—कूचों
में, भटको
पूरब की
घाटियों—वादियों,
पहाड़ों में।
विज्ञान को
समझना हो तो
पश्चिम की
धारा ने विज्ञान
को ठीक—ठीक
उसके
निष्कर्ष पर
पहुंचा दिया
है, तर्क
को उसकी
आत्यंतिक
निष्पत्ति दे
दी है। अगर
अतर्क्य हृदय
की, अंतरतम
की बात सुननी
हो तो पूरब के
सन्नाटे में
सुनो; उसकी
गुनगुनाहट, उसका नाद
पूरब में है।
फ्रायड
की सीमा थी वह
पूरब से
परिचित न था।
वही सीमा
मार्क्स की भी
थी,
वह भी पूरब
से परिचित न
था। दोनों ने
धर्म—विरोधी
वक्तव्य दिए। उनके
धर्म—विरोधी
वक्तव्यों का
बहुत मूल्य
नहीं है, क्योंकि
वे अपरिचित
लोगों के
वक्तव्य हैं,
वे परिचित
लोगों के
वक्तव्य नहीं
हैं।
उन्होंने कुछ
जान कर नहीं
कहा है; ऊपर—ऊपर
से, जो
सतही परिचय हो
जाता है, उसके
आधार पर कुछ
कह दिया है।
उन्होंने
गहरी डुबकी न
ली। वे पूरब
की गहराई में
उतर कर मोती न
लाए। बुद्ध से
उनका मिलन
नहीं हुआ।
लाओत्सु से
साक्षात्कार
नहीं हुआ।
कृष्ण की
बांसुरी
उन्होंने
नहीं सुनी।
ये
सीमाएं थीं, अन्यथा
शायद फ्रायड
उस सिंथीसिस
को, उस परम
समन्वय को भी
उपलब्ध हो
जाता, जो
वीतरागता का
है। पर जो बात
उसने मृत्यु—एषणा
के संबंध में
कही, वह सच
है। हम तो उसे
जानते रहे हैं।
हमने उसे
मृत्यु—एषणा
कभी नहीं कहा
था, यह बात
भी सच है।
हमने उसे कहा
था वैराग्य—
भाव।
मगर
क्या अर्थ
होता है
वैराग्य—भाव
का?
अगर राग का
अर्थ होता है :
और जीने की
इच्छा, तो
वैराग्य का
अर्थ होता है :
अब और न जीने
की इच्छा—बहुत
हुआ, पर्याप्त
हो गया, हम
भर गए, अब
हम विदा होना
चाहते हैं।
नहीं, आधुनिक
मन की कोई
विकृति नहीं
है; आधुनिक
वैज्ञानिक
पद्धति के
द्वारा
पुराने वैराग्य
को नया नाम
दिया गया है।
शुभ है! मेरे
लेखे, फ्रायड
की मृत्यु—एषणा
का गहन अध्ययन
होना चाहिए!
वह उपेक्षित
है, उसका
बहुत अध्ययन
नहीं किया गया।
जैसे हम
मृत्यु की
उपेक्षा करते
हैं, वैसे
ही हमने
मृत्यु—एषणा
के सिद्धात की
भी उपेक्षा की
है। तो फ्रायड
के लिबिडो, कामवासना का
तो खूब अध्ययन
हुआ है, बड़ी
किताबें लिखी
जाती हैं; लेकिन
मृत्यु—एषणा
का बहुत कम
अध्ययन हुआ है।
बड़ी मूल्यवान
खोज है वह, और
जीवन के अंतिम
परिपक्व
दिनों में
उसने दी है—इसलिए
मूल्य और भी
गहन हो जाता
है।
इतना
ही स्मरण रखो
कि जीवन में
सब चीजें
द्वंद्व हैं।
द्वंद्व से
चलता है जीवन।
जिस दिन तुम
द्वंद्व से
जाग गए, जीवन
रुक जाता है।
जिस दिन तुम
द्वंद्व से
जागे, निर्द्वंद्व
हुए, तब
तुम भी कहोगे
जनक जैसे :
आश्चर्य कि
मैं इतनी बार
जन्मा और कभी
नहीं जन्मा, और इतनी बार
मरा और कभी
नहीं मरा!
आश्चर्य! मुझको
मेरा नमस्कार!
इतने जन्म, इतनी
मृत्युएं आईं
और गईं और कोई
रेखा भी मुझ पर
नहीं छोड़ गईं!
इतने पुण्य
इतने पाप, इतने
व्यवसाय इतने
व्यापार, आए
और गए और
सपनों की तरह
चले गए, पीछे
पदचिह्न भी
नहीं छोड़ गए!
आश्चर्य मेरी
इस आत्यंतिक शुद्धता
का! आश्चर्य
मेरे इस क्वांरेपन
का। धन्यभाग!
मेरा मुझको
नमस्कार!
ऐसा
किसी दिन
तुम्हारे
भीतर भी, तुम्हारे
अंतरतम में भी
उठेगी सुगंध!
लेकिन
ध्यान रखना, आना
है
निर्द्वंद्व
पर। जहां
तुम्हें
द्वंद्व
दिखाई पड़े, वहीं साक्षी
साधना।
द्वंद्व को
तुम सूचना मान
लेना कि
साक्षी साधने
की घड़ी आ गई, जहा द्वंद्व
दिखाई पड़े—प्रेम
और घृणा—तो
तुम चुनना मत,
दोनों के
साक्षी हो
जाना। क्रोध
और दया—तो तुम
चुनना मत, दोनों
के साक्षी हो
जाना। स्त्री
और पुरुष—तो
तुम चुनना मत,
दोनों के
साक्षी हो
जाना। सम्मान—अपमान—
चुनना मत, दोनों
के साक्षी हो
जाना। सुख—दुख—साक्षी
हो जाना। जहां
तुम्हें
द्वंद्व
दिखाई पड़े, वहीं साक्षी
हो जाना।
अगर
यह एक
स्वर्ण-सूत्र
तुमने पाल
लिया, तो
वीतराग की दशा
बहुत दूर नहीं
है। बूंद-बूंद
घड़ा भर जाता
है, ऐसे ही
बूंद-बूंद इस
निर्विकल्पता
को साधने से
तुम्हारी
समाधि का घड़ा
भी भरेगा, एक
दिन तुम ऊपर
से बहने
लगोगे। न केवल
तुम समाधिस्थ
हो जाओगे, तुम्हारे
पास जो आएंगे
उन्हें भी
समाधि की सुवास
मिलेगी, वे
भी भर उठेंगे
किसी अलौकिक
आनंद से।
दूसरा
प्रश्न :
आपके
कहे अनुसार और
समस्त बद्ध-परुषों
के कहे अनुसार
अहंकार की
सत्ता नहीं
है- और फिर भी
अहंकार के
साक्षी होने को
आप कहते हैं!
कृपा करके इस
अबूझ पहेली को
हमें समझाएं।
तो
अबूझ है, न
पहेली है।
सीधी-सी बात
है : तुम
अंधेरे को देख
पाते हो या
नहीं? और
अंधेरे की कोई
सत्ता नहीं
है। अंधेरा
मात्र अभाव
है। फिर भी
अंधेरे को तुम
देख पाते हो या
नहीं? देख
तो पाते हो।
तुम्हारे
देखने से ही
अंधेरे की
सत्ता थोड़े ही
सिद्ध होती
है। जब तुम
अंधेरा देखते
हो तो तुम
वस्तुत: यही
देखते हो कि
प्रकाश नहीं
है-और क्या
देखते हो? जब
तुम अंधेरा
देखते हो तो
तुम अंधेरा
थोड़े ही देखते
हो, प्रकाश
का अभाव देखते
हो। अंधेरा तो
है ही नहीं-काटो
तो काट नहीं
सकते, बांधो
तो बांध नहीं
सकते, धकाओ
तो धका नहीं
सकते, जलाओ
तो जला नहीं
सकते, मिटाओ
तो मिटा नहीं
सकते। अंधेरा
हो कैसे सकता
है? कुछ तो
कर सकते। जब
कोई चीज होती
है तो उसके साथ
हम कुछ कर
सकते हैं।
होने का
प्रमाण क्या?
उसके साथ
कुछ किया जा
सकता है। न
होने का प्रमाण
क्या? उसके
साथ कुछ भी
नहीं किया जा
सकता।
अंधेरा
भरा है
तुम्हारे
कमरे में, ले
आओ तलवारें, काटो, धक्के
दो, बुला
लो पहलवानों
को, मार-काट
मचाओ-तुम्हीं
थक कर गिरोगे,
तुम्हीं को
चोटें लग
जाएंगी, अंधेरा
अपनी जगह
रहेगा।
अंधेरे का तुम
कुछ भी नहीं
कर सकते, क्योंकि
अंधेरा अभाव
है।
हौ, रोशनी
के साथ तुम
बहुत कुछ कर
सकते हो। दीया
जलता हो, बुझा
दो फूंक कर-गई
रोशनी। बुझा
दीया हो, जला
दो-हो गई
रोशनी। इस
कमरे में न हो,
दूसरे कमरे
से ले आओ।
अपने घर में न
हो, पड़ोसी
से मांग लो।
प्रकाश के साथ
तुम हजार काम
कर सकते हो।
खयाल
किया? अंधेरे
के साथ कुछ
करना हो तो भी
प्रकाश के साथ
कुछ करना पड़ता
है। अंधेरे को
हटाना है, जलाओ
प्रकाश को; लेकिन जलाते
प्रकाश को हो।
अंधेरे को
लाना है, बुझाओ
प्रकाश को, लेकिन
बुझाते
प्रकाश को हो।
जो है, उसके
साथ कुछ किया
जा सकता है।
लेकिन फिर भी
अंधेरा दिखाई
तो पड़ता है।
ऐसा
ही अहंकार है।
उसकी कोई
सत्ता नहीं।
वह आत्मा का
अभाव है।
तुम्हें अपना
पता नहीं
इसलिए अहंकार
मालूम होता
है। जिस दिन
तुम्हें अपना
पता चल जाएगा, उसी
दिन अहंकार
मालूम न होगा।
आत्मभाव में
कोई अहंकार
नहीं रह जाता।
और यूंइक तुम
अपने को भुला
बैठे, विस्मरण
हो गया, तुम्हें
याद न रही कि
तुम कौन हो-तो
बिना कुछ प्रतिमा
के बनाए काम
नहीं चल सकता,
तो एक
कल्पित
प्रतिमा बना
ली है अहंकार
की, कि मैं
यह हूं : मेरे
पिता का नाम, घर का नाम, मेरा
पता-ठिकाना, कितनी
डिग्रियां, कितने
प्रमाण-पत्र,
लोग क्या
कहते हैं मेरे
बाबत-तुमने एक
फाइल बना ली।
इससे तुम किसी
तरह इस जिंदगी
में अपने संबंध
में कुछ भान
पैदा कर लेते
हो, एक रूप
बना लेते
हो-जिसके
सहारे काम चल
जाता है, अन्यथा
बड़ी मुश्किल
हो जाएगी।
कोई
तुमसे पूछे कि
तुम कौन हो और
अगर तुम सच्चा
उत्तर देना
चाहो, तो तुम
खड़े रह जाओगे।
वह आदमी फिर
पूछे कि भाई बोलते
नहीं तुम कौन
हो, और तुम
कंधे बिचकाओ।
यही सच्चा
होगा उत्तर, क्योंकि पता
तो तुमको भी
नहीं है कि
तुम कौन हो, तो वह आदमी
तुम्हें पागल
समझेगा। कहां
से आ रहे
हो-तुम कोई
उत्तर नहीं दे
सकते हो। दे
सकते नहीं, क्योंकि
तुम्हें पता
नहीं कहां से
आ रहे हो। कहा
जा रहे हो, कुछ
पता नहीं। तो
तुम पागल ही
समझे जाओगे।
बड़ी
मुश्किल हो
जाएगी अगर सभी
लोग इस तरह
करने लगें।
अगर सभी लोग
छोड़ दें झूठी
मान्यताएं
अपने संबंध
में,
तो बड़ी
कठिनाई खड़ी हो
जाएगी। झूठी
मान्यताएं इस
झूठे समाज में
उपयोगी हैं।
इस झूठे माया
के लोक में
झूठी
मान्यताएं
उपयोगी हैं।
उनसे काम चल
जाता है। वे
सच हैं या झूठ,
इससे कोई
प्रयोजन नहीं
है। उनसे काम
चल जाता है, वे उपयोगी
हैं।
इसीलिए
तो लोग जब
स्वयं की खोज
पर निकलते हैं
तो बड़ी घबड़ाहट
पकड़ती है, क्योंकि
ये सब झूठी
मान्यताएं
हटानी होती हैं।
जिनको सदा-सदा
से माना कि
मेरा यह नाम
है, मेरा
यह पता-ठिकाना,
मेरी यह देह,
मैं देह, मेरा यह मन, मेरे ये
विचार, मेरा
यह धर्म, मेरा
यह देश-सब
खोने लगते
हैं। इन सबके
साथ ही मेरा 'मैं' भी
बिखरने लगता
है, पिघलने
लगता है, तिरोहित
होने लगता है।
एक घड़ी आती है
कि तुम शून्य
सन्नाटे में
रह जाते हो, जहां
तुम्हें पता
ही नहीं होता
कि तुम कौन हो।
उस
घड़ी को जीने
का नाम
तपश्चर्या
खै। वह घड़ी बड़ी
तप की है, जब
तुम्हें
बिलकुल पता
नहीं रहता कि
मैं कौन हूं।
जब तुम्हारे
सब धारणा के
बनाए हुए महल
भूमिसात हो
जाते हैं, जब
तुम निबिड़
अंधकार में, शून्य में
खड़े हो जाते
हो, प्रकाश
की एक किरण
नहीं मालूम
होती कि मैं
कौन हूं-ईसाई
फकीरों ने
इसके लिए ठीक
नाम दिया है
डार्क नाइट आफ
द सोल, आत्मा
की अंधेरी
रात। और इसी
अंधेरी रात के
बाद सुबह है।
जो इससे
गुजरने से डरा
वह सुबह तक कभी
नहीं पहुंच
पाता।
तो
पहले तो झूठी
धारणा छोड़नी
होगी, झूठा
तादात्म्य
छोड़ना होगा।
एक घड़ी आएगी
कि तुम सब भूल
जाओगे कि तुम
कौन हो; बिलकुल
पागल जैसी दशा
होगी। अगर तुम
हिम्मतवर रहे
और इस घड़ी से
गुजर गए तो एक
घड़ी फिर से
आएगी, जब
सुबह का सूरज
निकलेगा; पहली
दफा तुम्हें
पता चलेगा तुम
कौन हो। जब तुम्हें
पता चलता है
कि वस्तुत:
तुम कौन हो, यथार्थत:
तुम कौन हो,
परमार्थत:
तुम कौन हो—तब
तुम जानते हो
कि अहंकार एक
व्यावहारिक
सत्य था।
यह
बात समझ लेनी
चाहिए।
व्यावहारिक
सत्य और
पारमार्थिक
सत्य के बीच का
भेद समझ लेना
चाहिए। एक
कागज का टुकड़ा
मैं तुम्हें
देता हूं और
कहता हूं यह
सौ रुपये का
नोट है; तुम
कहते हो, यह
कागज का टुकड़ा
है। मैं
तुम्हें सौ
रुपये का नोट
देता हूं और
कहता हूं यह
कागज का टुकड़ा
है; तुम
कहते हो, नहीं
यह सौ रुपए का
नोट है। दोनों
कागज के टुकड़े
हैं। जिसको
तुम सौ रुपये
का नोट कह रहे
हो वह व्यावहारिक
सत्य है, पारमार्थिक
नहीं। अगर
सरकार बदल जाए
या सरकार का
दिमाग बदल जाए
और वह आज सुबह
घोषणा कर दे
कि सौ रुपये के
नोट अब सौ
रुपये के नोट
नहीं, अब
नहीं चलेंगे,
चलन के बाहर
हो गए—तो तत्क्षण
सौ रुपये का
नोट कागज का
टुकड़ा हो
जाएगा। लोग
निकाल कर
घूरों पर फेंक
आएंगे कि क्या
करेंगे। कल तक
इतना सम्हाल—सम्हाल
कर रखते थे, अब बच्चों
को खेलने को
दे देंगे कि
खेलो, कागज
की नाव बना कर
नदी में चला
दो। क्या
करोगे? व्यावहारिक
सत्य था, माना
हुआ सत्य था।
माना था, इसलिए
सत्य था। सबने
मिल कर माना
था, इसलिए
सत्य था। सबने
इंकार कर दिया,
बात खत्म हो
गई।
अहंकार
व्यावहारिक
सत्य है—सौ
रुपए का करेंसी
नोट है। मानो
तो है। और
जिंदगी के लिए
जरूरी भी है।
मैं तुमसे यह
नहीं कह रहा
हूं कि तुम
अहंकार को छोड़
कर जिंदगी में
अड़चन बन जाओ।
मैं तुमसे यह
कह रहा हूं कि
अहंकार से जाग
जाओ;
इतना समझ लो
कि यह
व्यावहारिक
सत्य है, पारमार्थिक
नहीं। इसका
उपयोग करो—भरपूर!
करना ही होगा।
लेकिन इसे
सच्चाई मत
मानो। सच्चाई
मानने से बड़ी
अड़चन हो जाती
है। हम जो मान
लेते हैं वैसा
दिखाई पड़ने
लगता है। कल
मैं एक घटना
पढ़ रहा था—एक
प्रयोग।
हार्वर्ड
विश्वविद्यालय
में
मनोविज्ञान—विभाग
ने एक प्रयोग
किया। एक बड़ा
मनोवैज्ञानिक,
जिसकी
ख्याति सारे
मुल्क और
मुल्क के बाहर
है, उसको
उन्होंने कहा
कि हम एक
प्रयोग करना
चाहते हैं, आप सहयोग
दें। एक आदमी
पागल है, दिमाग
उसका खराब है
और वह घोषणा
करता है कि वह बड़ा
भारी
मनोवैज्ञानिक
है। एक दूसरे
विश्वविद्यालय
के
मनोवैज्ञानिक
का वह नाम
लेता है कि
मैं वही हूं।
आप उसका इलाज
करें। और आप
जो एक—दूसरे
के साथ बात
करेंगे, वह
हम सब उसकी
फिल्म लेना
चाहते हैं, ताकि हम
उसका अध्ययन
कर सकें बाद
में। वह
मनोवैज्ञानिक
राजी हो गया।
वे
दूसरे आदमी के
पास गए—मनोवैज्ञानिक
के पास, दूसरे
विश्वविद्यालय
के। और उससे
कहा कि एक
पागल है, वह
अपने को बड़ा
मनोवैज्ञानिक
समझता है। आप
उसका इलाज
करेंगे? हम
फिल्म लेना
चाहते हैं। वह
भी राजी हो
गया।
ये
दोनों बड़े
मनोवैज्ञानिक, इन
दोनों को वे
एक कमरे में
लाये, पर
दोनों एक—दूसरे
को मान रहे
हैं कि दूसरा
पागल है और
गलती से, भ्रांति
से घोषणा कर
रहा है कि मैं
बड़ा
मनोवैज्ञानिक
हूं।
उन्होंने
पूछा, आप
कौन? दोनों
ने उत्तर दिया।
दोनों ने वही
उत्तर दिया जो
सही था—उनके
लिण्र सही था।
लेकिन दूसरा
मुस्कुराया—उसने
कहा, 'तो
अच्छा तो
बिलकुल दिमाग
इसका खराब ही
है? यह
अपने को क्या
समझ रहा है?' दोनों एक—दूसरे
के इलाज का
उपाय करने लगे।
और जितना वह
पागल— क्योंकि
दोनों एक—दूसरे
को पागल समझते
हैं—जितना एक—दूसरे
का उपाय करने
लगा इलाज का, वह दूसरा भी
चकित हुआ कि
हद हो गयी, पागलपन
की भी सीमा है!
न केवल यह
पागल है, बल्कि
मुझे पागल समझ
रहा है, मुझे
ठीक करने का
उपाय कर रहा
है।
दस
मिनट तक बड़ी
अदभुत स्थिति
रही होगी। दस
मिनट के बाद
एक को याद आया
कि यह चेहरा
तो पहचाना—सा
मालूम पड़ता है।
अखबारों में
फोटो देखे
मालूम पड़ते
हैं,
हो न हो यह
आदमी सच में
ही तो वही
नहीं है जिसका
यह दावा कर
रहा है!
और
जैसे ही उसे
याद आया तो
सारी बात याद
आ गई। उसने उस आदमी
की किताबें भी
पढ़ी हैं; वह जो
बोल रहा है, उसमें उसके
शब्द भी उसकी
पहचान में आने
लगे। तब वह
चौंका। तब वह
समझा जाल क्या
है। यह एक
प्रयोग था
जिसमें
मान्यता के
आधार पर, हम
जो मान लेते
हैं, वही
सत्य प्रतीत
होने लगता है।
तब वे दोनों
हंसे खिलखिला
कर। तब दोनों
ने असली
स्थिति पहचान
ली। तब कोई भी
पागल न रहा।
मगर दस मिनट
तक दोनों पागल
थे और
प्रत्येक सोच
रहा था दूसरा
पागल है। दस
मिनट तक जो
स्थिति थी, वह
व्यावहारिक
सत्य थी, पारमार्थिक
नहीं। उखड़ गई।
जैसे ही
सच्चाई की याद
आई, टूट गई।
एक
और प्रयोग मैं
पढ़ रहा था। एक
दूसरे
विश्वविद्यालय
में एक बड़ा
जर्मन संगीतज्ञ
आया। वह सिर्फ
जर्मन भाषा
जानता है, अंग्रेजी
के दो चार
शब्द बोल लेता
है। उसके एक
विद्यार्थी
ने आ कर पहले
परिचय दिया श्रोताओं
को। और जैसा
वह संगीत
बजाने जा रहा
है, उसके
संबंध में
परिचय दिया कि
बहुत अनूठी
कृति है, शायद
मनुष्य—जाति
के इतिहास में
ऐसी कोई दूसरी
संगीत की कृति
नहीं। इसकी
खूबी यह है कि
संगीतज्ञ तो
पूरा गंभीर
रहता है, लेकिन
यह एक बड़ा
गहरा व्यंग्य
है। और आप
अभागे हैं कि
आपको जर्मन
नहीं आती और
आप पूरा न समझ
पाएंगे, लेकिन
जर्मनी में
जहां भी उसने
अपने इस संगीत
का प्रदर्शन
किया है वहां
लोग लोट—पोट
हो जाते हैं, हंसी के
फव्वारे छूट
जाते हैं; लोग
पेट पकड़ लेते
हैं, लोगों
के पेट में
दर्द होने
लगता है। और
खूबी यह है इस
संगीतज्ञ की
कि वह लेकिन
अपनी गंभीरता,
गुरु—गंभीरता
बनाए रखता है,
मुस्कुराहट
भी नहीं आती।
जैसे— जैसे
लोग हंसते हैं,
वह और भी
गंभीर होता
जाता है। यही
तो उसकी खूबी
है। और इसी से
वह हंसी और भी
बढ़ती चली जाती
है। वह नाराज
तक होने लगता
है। वह
चिल्लाने तक
लगता है कि यह
तुम क्या कर
रहे हो? मगर
वह सारे
व्यंग्य का
हिस्सा है कि
वह अपनी गंभीरता
को गहन रखता
है! और
गंभीरता के
गहन रखने के
कारण
पृष्ठभूमि
में व्यंग्य
और भी प्रगाढ़
हो जाता है, पैना हो
जाता है।
फिर
संगीतज्ञ आया।
उसने अपना
संगीत का
प्रदर्शन
शुरू किया। वह
विद्यार्थी
उसके पीछे खड़ा
हो गया। अब
लोग भाषा नहीं
जानते, मगर
तैयारी है
उनकी। कोई
धीरे से
खिलखिलाया, कोई हंसा, फिर हंसी
फैलने लगी।
फिर सब लोगों
ने नजर उस
विद्यार्थी
पर रखी जो पीछे
खड़ा है। वह कई
दफे ऐसा हंसता
है, पेट
पकड़ लेता है, धीरे — धीरे
लोग उसकी नकल
करने लगे—उस
विद्यार्थी
की— क्योंकि
जब वह हंस रहा
है तो कोई बात
हंसी की हो ही
रही होगी। फिर
थोड़ा— थोड़ा लोग
अपनी तरफ से
भी करने लगे।
और वह
संगीतज्ञ
नाराज होने
लगा। और वह
चीखने—चिल्लाने
लगा। गालियां
बकने की नौबत
आ गई। वह छोड़
कर खड़ा हो गया
और जो दो —चार
शब्द उसे
अंग्रेजी के
आते थे, उसने
उससे समझाया
कि यह क्या
नालायकी है? यह मैं एक
गंभीर, अति
गंभीर संगीत
पेश कर रहा
हूं। और यह
क्या पागलपन
है? तुम्हें
भाषा भी समझ
में नहीं आती
और तुम लोट—पोट
हुए जा रहे हो!
तब
लोगों ने
निवेदन किया
कि हमको पहले
बताया गया है।
उन्होंने इधर—उधर
देखा, वह
विद्यार्थी नदारद
है, वह जा
चुका है। वह
प्रयोग पूरा
हो गया। वहा
कुछ भी हंसी
जैसी बात न थी।
वह जो गा रहा
था गीत, वह
बड़ा दुखांत था।
लेकिन धारणा
अगर पकड़ जाए
तो
व्यावहारिक
रूप से सत्य
मालूम होने
लगती है।
अहंकार
एक धारणा शै।
सभी को पकड़ी
है। और खूब उस
धारणा के नीचे
सभी की
छातियां दबी हैं!
लेकिन है केवल
व्यावहारिक
सत्य। उपयोगी
है निश्चित, यथार्थ
नहीं है।
उपयोग खूब करो,
लेकिन भूल
कर भी अपने को
अहंकार मत समझ
बैठना। काम ले
लो, लेकिन
अहंकार के
वशीभूत मत हो
जाना। इतना ही
प्रयोजन है
साक्षी— भाव
का कि तुम
साक्षी— भाव
से देखो कि
क्या
व्यावहारिक
है, क्या
पारमार्थिक
है, क्या
वस्तुत: है और
क्या है केवल
मान्यता के
आधार पर।
एक
सूफी कथा है।
एक आदमी था।
उसे अपनी
परछाईं सै
घृणा हो गई। न
केवल परछाईं
से घृणा हो गई, उसे
अपने पद—चिह्नों
से भी घृणा हो
गई। उस आदमी
को अपने से ही
घृणा थी। जब
अपने से घृणा
थी तो अपने पद—चिह्नों
से भी घृणा हो
गई। और जब
अपने सै घृणा
थी तो अपनी
छाया. से भी
घृणा हो गई।
वह बचना चाहता
था। वह चाहता
था कि यह छाया
मिट जाए। और
वह चाहता था
कि मैं कोई पद—चिह्न
पृथ्वी पर न
छोडूं? मेरी
कोई याद न रह
जाए, मैं
इस तरह मिट
जाऊं कि जैसे
मैं कभी हुआ
ही नहीं। वह
भागने लगा—छाया
और पद—चिह्नों
से बचने को।
वह खूब दूर
मीलों भागने
लगा। लेकिन
जितना ही वह
भागता, छाया
उसी के साथ
घसिटती हुई
भागती। वह
जितना भागता,
उतने ही पद—चिह्न
बनते। आखिर
उसकी बुद्धि
ने कहा कि तुम
ठीक से नहीं भाग
रहे, तुम
तेजी से नहीं
भाग रहे हो।
उसके तर्क ने
कहा कि इस तरह
काम न चलेगा, ऐसे तो तुम
भागते रहोगे,
छाया साथ
लगी है।
तुम्हारे
दौड़ने में
जितनी गति
होनी चाहिए उतनी
गति नहीं है।
गति से दौड़ो!
तुम जितनी
तेजी से दौड़
रहे हौ, उतनी
तेजी से तो
छाया भी दौड़
रही है। इसलिए
छाया भी उतना.
दौड़ सकती है।
इतने दौड़ो कि
छाया न दौड़
सके, तो
संबंध टूट जाए।
तो वह इतना ही
दौड़ा और कहते
हैं, गिरा
और मर गया।
सूफी
इस कहानी की
व्याख्या
करते हैं। वे
कहते हैं, ऐसी
ही आदमी की
दशा है। कुछ
हैं यहां, जो
छाया को भरने
में लगे हैं, जो छाया पर
हीरे—मोती लगा
रहे हैं, जो
छाया को सोने से
मढ़ रहे हैं।
वे कहते हैं, यह हमारी
छाया है, इसे
हम सजाएंगे; इसे हम
रूपवान
बनाएंगे, इस
पर हम इत्र
छिड़केगे; इस
पर हम मखमल
बिछाएगे। यह
हमारी छाया है;
यह किसी
गरीब—गुरबे, किसी
भिखमंगे की
छाया नहीं। यह
ऐसे सड़क के
कंकड़—पत्थरों
पर न पड़ेगी; यह
सिंहासनों पर
पड़ेगी; यह
स्वर्ण—पटे
मार्गों पर
पड़ेगी।
राजाओं
को चलते देखा
है?
जब वे चलते
हैं तो आगे
उनके मखमल
बिछाई जाती है।
उनके पदचिह्न
मखमल पर पड़ते
हैं। ये कोई
साधारण आदमी
थोड़े ही हैं
कि मिट्टी पर. साधारण
मिट्टी पर तो
सभी के
पदचिह्न पड़ते
हैं।
एक
हैं,
जो इस छाया
को सजाने में
लगे हैं। यह
एक तरह का
पागलपन है।
फिर दूसरे हैं,
जो इस छाया
से भयभीत हो
गए हैं—भगोड़े,
तथाकथित
साधु—संत।
संसारी छाया
को सजाने में
लगे हैं, छाया
के आस—पास महल
बना रहे हैं।
और जिनको तुम
गैर—संसारी
कहते हो, विरागी
कहते हो, वै
भाग खड़े हुए, वे भाग रहे
हैं कि छाया
से दूर निकल
जाएं। और छाया
है नहीं। सजाओ
तो भ्रांति है,
भागों तो
भ्रांति है।
दोनों हालत
में तुम मरोगे।
कुछ सजाते—सजाते
गिर पड़ेंगे, कुछ भागते—
भागते गिर
पड़ेंगे। सूफी
कहते हैं, काश
उस पागल आदमी
को इतनी अक्ल
होती कि मैं
छाया में जा
कर बैठ जाऊं
किसी वृक्ष की,
तो छाया मिट
जाती। छाया
बनती है जब
तुम सूरज के
सामने खड़े
होते हो, सूरज
के नीचे खड़े
होते हो। छाया
बनती है जब
तुम धूप में
खड़े होते हो, प्रकाश में
खड़े होते हो।
छाया बनती है
जब तुम अहंकार
की घोषणा करते
हो, जब तुम
कहते हो. 'देख
दुनिया मुझे!
पहचाने
दुनिया मुझे!
पड़े प्रकाश
सारी दुनिया
का मुझ पर!' जब
तुम सम्मान
चाहते हो, सफलता
चाहते हो, तब
छाया बनती है।
सूरज की रोशनी
में।
सूफी
कहते हैं; काश
यह पागल आदमी
हट गया होता, किसी छप्पर
के नीचे शांति
से बैठ गया
होता, छाया
मिट गई होती!
जो
सम्मान नहीं
चाहते, जो पद—प्रतिष्ठा
नहीं चाहते, जो यश—गौरव
नहीं चाहते, उनकी छाया
मिट जाती है।
वे छाया में
खुद ही बैठ गए,
अब छाया
बनेगी कैसे? काश यह आदमी
बैठ जाता तो
पदचिह्न बनने
बंद हो जाते।
भागने से कहीं
पद—चिह्न बनने
बंद होंगे? और बनेंगे, और ज्यादा
बनेंगे।
तुमने देखा? यहां
सांसारिक लोगों
को चाहे लोग
भूल भी जाएं, संतों को
नहीं भूल पाते।
सांसारिक
आदमी के पद—चिह्न
तो जल्दी ही
मिट जाते हैं,
क्योंकि
वहां बड़ी भीड़
चल रही है।
वहा करोड़ों
लोग चल रहे
हैं, कौन
तुम्हारे
पदचिह्नों की
चिंता करेगा?
तुम निकल भी
न पाओगे कि
तुम्हारे
पदचिह्न रौंद
दिए जाएंगे।
लेकिन साधु—संतों
के पदचिह्न
बनते हैं।
वहां कोई भी
नहीं चलता।
वहां ज्यादा
संघर्ष और
प्रतियोगिता
ही नहीं है।
साधु—संत बड़े
अकेले चलते
हैं। उनके
पदचिह्न
सादेयों तक
बने रहते हैं।
काश!
वह आदमी सिर्फ
बैठ जाता
विश्राम में—जिसको
अष्टावक्र ने
कहा,
काश उसने
अपनी चेतना
में विश्राम
कर लिया होता—तो
न पद—चिह्न
बनते, न
पृथ्वी विकृत
होती, न
छाया बनती, न छाया से
बचने का उपाय
करना पड़ता, न वह आदमी इस
बुरी मौत मरता,
इस कुत्ते
को मौत मरता। अहंकार
कुछ है नहीं, जिससे छूटना
है। सिर्फ जाग
कर देखना है
कि कुछ भी
नहीं है, छाया—मात्र
है। तुम
व्यर्थ ही
भागे जा रहे
हो, व्यर्थ
ही परेशान हो
रहे हो। बैठ
जाओ, कुछ
भी नहीं है।
एक
व्यावहारिक
उपयोगिता है,
उपयोगिता
कर लो। बोलोगे
तो कहना पड़ेगा,
मैं। मैं भी
बोलता हूं तो
कहता हूं —मैं।
बुद्ध भी
बोलते हैं तो
कहते हैं मैं।
कृष्ण भी
बोलते हैं तो
कहते हैं मैं।
लेकिन वहां
मैं जैसा कोई
भी नहीं। वे
जानते हैं कि
मैं सिर्फ एक
भाषागत
उपयोगिता है,
एक
व्यवहारगत
उपयोगिता है।
संवाद की
जरूरत है।
कहनी पड़ती है।
मानी हुई बात
है, सत्य
नहीं।
साक्षी
होने का इतना
ही अर्थ है कि
तुम गौर से देख
लो जो भी
तुम्हारी दशा
है। उस गौर से
देखने में
तुम्हें पता
चल जाएगा क्या
है और क्या
नहीं है? जो है,
वही है
आत्मा। जो
नहीं है, वही
है अहंकार।
तीसरा
प्रश्न :
आपने
उस रोज कहा, तुम
किसी अंश में
नहीं, पूरे
के पूरे गलत
हो। जो भी हो, गलत ही हो।
इसका क्या
कारण है? अहंकार
या अज्ञान
दर्प या
भ्रांति? और
क्या अहंकार और
अज्ञान
अन्योन्याश्रित
हैं?
पहली
बात,
ये सब नाम
ही हैं एक ही
बीमारी के अलग—अलग।
जैसे कि
तुम्हें कोई
बीमारी हो, तुम आयुवेदिक
चिकित्सक के
पास जाओ और वह
कोई नाम बताए,
वह कहे कि
तुम्हें दमा
हो गया। और
तुम जाओ
एलोपैथिक
चिकित्सक के
पास और वह कहे
कि तुम्हें
अस्थमा हो गया।
तो तुम इस
चिंता में मत
पड़ना कि
तुम्हें दो बीमारियां
हो गई हैं, कि
तुम बड़ी
मुश्किल में
पड़े—दमा भी हो
गया, अस्थमा
भी हो गया।
फिर तुम जाओ
और किसी
यूनानी हकीम
के पास, और
किसी
होमियोपैथ के
पास और वे अलग—अलग
नाम देंगे; क्योंकि अलग—अलग
भाषाएं हैं
उनकी, अलग
पारिभाषिक
शब्द हैं।
आदमी
की बीमारी तो
एक है—कहो
अज्ञान, कहो
अहंकार कहो
माया, कहो
भ्रांति, कहो
बेहोशी, मूर्च्छा,
प्रमाद, पाप,
विस्मरण—जों
तुम कहना चाहो।
बीमारी एक है,
नाम हजार
हैं।
तो
पहली बात तो
यह स्मरण रखना
कि तुम्हारी
बीमारियां बहुत
नहीं हैं, इससे
भी मन हलका हो
जाएगा कि एक
ही बीमारी है।
और तुम्हें
हजारों
बीमारियों का
इलाज भी नहीं
करना है, नहीं
तो बीमारी तो
बीमारी, इलाज
मार डालेंगे।
बीमारी तो एक
तरफ रहेगी, औषधियां मार
डालेंगी।
तुम्हारी
बहुत
बीमारियां
नहीं हैं।
माया, मत्सर, लोभ, मोह,
क्रोध—ये सब
अलग—अलग
बीमारियां
नहीं हैं; ये
एक ही बीमारी
की अलग—अलग
अभिव्यक्तियां
हैं, अलग—अलग
रूप—रंग हैं।
ये एक ही
बीमारी के अलग—अलग
नाम हैं।
अहंकार
बिलकुल ठीक है
नाम,
मुझे पसंद
है। क्योंकि
इस 'मैं'— भाव से ही सब
पैदा होता है। 'मैं'—
भाव से 'मेरा'
पैदा होता,
'मेरे' से
सारा माया—मोह
बनता है। 'मैं'
भाव से जरा—जरा
में क्रोध आता
है। जरा चोट
लग जाए तो
क्रोध आ जाता
है। 'मैं'— भाव से
दूसरों के
प्रति दूसरों
के प्रति निंदा
पैदा होती है,
अपने को
ऊंचा करने की,
दूसरों को नीचा
करने की
आकांक्षा
पैदा होती है।
'मैं'— भाव
से
प्रतिस्पर्धा,
गला—घोंट
प्रतिस्पर्धा
शुरू होती है
कि सब को पछाड़
देना है, हरा
देना है, पराजित
कर देना है; मुझे जीत की
घोषणा करनी है
कि मैं कौन
हूं। 'मैं'
से संघर्ष
पैदा होता है,
विरोध पैदा
होता है, युद्ध
पैदा होता है,
हिंसा पैदा
होती है। और
जितना ही यह 'मैं' में
तुम डूबने
लगते हो, उतनी
ही बेहोशी
बढ़ती जाती है।
यह गहरा नशा
हो जाता है।
तुमने
देखा, अहंकारी
को चलते हुए? जैसे हमेशा
शराब पीये हुए
है! उसको हमने
अहंकार का मद
इसीलिए तो कहा
है। उसके पैर
जमीन पर ही
नहीं पड़ते और
वह तत्क्षण
उलझने को
तैयार है। वह
खोज ही रहा है
कि कोई मिल
जाए, जिसके
सामने वह अपने
अहंकार को
टकरा ले, क्योंकि
अहंकार का पता
ही टकराहट में
चलता है। जैसी
टकराहट, उतना
ही अहंकार का
पता चलता है।
बड़ी टकराहट, तो बड़ा पता
चलता है। छोटी—मोटी
टकराहट, तो
छोटा—मोटा पता
चलता है। तो
अहंकार शत्रु
की तलाश करता
है। एक ही नाम
काफी है—अहंकार।
दूसरी
बात,
मैंने
निश्चित कहा
कि तुम किसी
अंश में नहीं,
पूरे के
पूरे गलत हो।
यह अहंकार की
एक बड़ी
बुनियशदीत
व्यवस्था है कि
अहंकार तुमसे
कहता है कि
तुम गलत हो
माना, लेकिन
अंश में गलत
हो, अंश
सभी गलत होते
हैं। थोड़ी
गलती किसमें
नहीं है? थोड़ी
गलती है, सुधार
लेंगे। इससे
तुम्हारे
जीवन में एक
तरह का
सुधारवाद चलता
है, क्रांति
नहीं हो पाती।
अहंकार कहता
है, यह गलत
है, इस को
सुधार लो, यहां
पलस्तर उखड़
गया है, पलस्तर
कर दो, यहां
जमीन में
गड्डा हो गया
है, पाट दो;
यहां की
दीवाल गिरने
लगी है, संभाल
दो; यहां
खंभा लगा दो; यहां नए
खपड़े बिछा दो।
अहंकार कहता
है, मकान
तो बिलकुल ठीक
है; जरा—जरा
कहीं गड़बड़
होती है, उसको
ठीक करते जाओ,
एक दिन सब
ठीक हो जाएगा।
तो कभी ठीक न
होगा। यह
अहंकार के
बचाव की
बुनियबादी तरकीब
है कि वह कहता
है कि थोड़ी—सी
गलती है, बाकी
तो सब ठीक है।
तुमसे
कहना चाहता
हूं जब तक
अहंकार है तब
तक सभी गलत है।
ऐसा थोड़े ही
होता है कि कमरे
एक कोने में
प्रकाश है और
पूरे कमरे में
अंधकार है।
ऐसा थोड़े ही
होता है कि
कमरे के जरा—से
हिस्से में
अंधकार है और
बाकी प्रकाश
है। प्रकाश
होता है तो
पूरे कमरे में
हो जाता है।
प्रकाश नहीं
होता तो पूरे
कमरे में नहीं
होता।
साक्षी
जब जागता है
तो सर्वांश
में जागता है।
ऐसा नहीं कि
थोड़ा— थोड़ा जग
गए,
थोड़ा— थोड़ा
सोए। जब
तुम्हारा
ध्यान फलता है
तो
समग्ररूपेण
फलता है।
इस
अहंकार की
तरकीब से बचना, नहीं
तो तुम एक
सुधारवादी, एक
रिफार्मिस्ट
हो जाओगे। और
तुम्हारे
जीवन में वह
महाक्रांति न
हो पाएगी, जो
महाक्रांति
इस महागीता
में जनक के
जीवन में हुई।
वह क्षण में
हो गई, क्योंकि
जनक ने देख
लिया कि मैं
पूरा का पूरा गलत
था।
इसे
मैं फिर
दोहराऊं कि या
तो तुम पूरे
गलत होते हो, या
तुम पूरे सही
होते हो; दोनों
के बीच में
कोई पडाव नहीं
है। अहंकार को
यह बात माननी
बहुत कठिन है
कि पूरा का
पूरा गलत हूं।
अहंकार कहता
हैं, होऊंगा
गलत, लेकिन
कुछ तो सही
होऊंगा।
जिंदगी पूरी
की पूरी गलत
मेरी?
मगर
यहीं से क्रांति
की शुरुआत
होती है।
एक
बड़ी प्राचीन
कथा है कि एक
ब्राह्मण सदा
लोगों को
समझाता कि जो
कुछ करता है
परमात्मा
करता है; हम तो
साक्षी हैं, कर्ता नहीं।
परमात्मा ने
उसकी परीक्षा
लेनी चाही। वह
गाय बन कर
उसकी बगिया
में घुस गया
और उसके सब
वृक्ष उखाड़
डाले और फूल
चर डाले और
घास खराब कर
दी और उसकी
सारी बगिया
उजाड़ डाली। जब
वह ब्राह्मण
अपनी पूजा—पाठ
से उठ कर बाहर
आया— पूजा—पाठ
में वह यही कह
रहा था कि तू
ही है कर्ता, हम तो कुछ भी
नहीं हैं, हम
तो द्रष्टा—मात्र
हैं— बाहर आया
तो द्रष्टा
वगैरह सब भूल
गया। वह बगिया
उजाड़ डाली थी;
वह उसने बड़ी
मेहनत से बनाई
थी, उसका
उसे बड़ा गौरव
था। सम्राट भी
उसके बगीचे को
देखने आता था।
उसके फूलों का
कोई मुकाबला न
था; सब
प्रतियोगिताओं
में जीतते थे।
वह भूल ही गया
सब पूजा—पाठ, सब साक्षी
इत्यादि उसने
उठाया एक डंडा
और पीटना शुरू
किया गाय को।
उसने इतना पीटा
कि वह गाय मर
गई। तब वह
थोड़ा घबड़ाया
कि यह मैंने
क्या कर दिया!
गौ—हत्या
ब्राह्मण कर
दे? और
ब्राह्मणों
की जो संहिता
है, मनुस्मृति,
वह कहती है,
यह तो
महापाप है।
इससे बड़ा तो
कोई पाप ही
नहीं है। गौ—हत्या!
वह कंपने लगा।
लेकिन तभी
उसके शान ने
उसे सहारा
दिया। उसने
कहा, 'अरे
नासमझ!
सदा
तू कहता रहा
है कि हम तो
साक्षी हैं, यह
भी परमात्मा
ने ही किया।
कर्ता तो वही
है। यह कोई
हमने थोड़े ही
किया। ' वह
फिर सम्हल गया।
गांव के लोग आ
गए। वे कहने
लगे, महाराज!
ब्राह्मण
महाराज, यह
क्या कर डाला?
उसने
कहा,
मैं करने
वाला कौन! करने
वाला तो
परमात्मा है।
उसी ने जो
चाहा वह हुआ।
गाय को मरना
होगा, उसे
मारना होगा।
मैं तो
निमित्त
मात्र हूं।
बात
तो बड़े ज्ञान
की थी। ज्ञान
की ओट में छिप
गया अहंकार।
ज्ञान की ओट
में छिपा लिया
उसने अपने
सारे पाप को।
कोई इसका खंडन
भी न कर सका।
लोगों ने कहा, ब्राह्मण
देवता पहले से
ही समझाते रहे
हैं कि यह सब
साक्षी है; तब यह भी बात
ठीक ही है, वे
क्या कर सकते
हैं g:
परमात्मा
दूसरे दिन फिर
आया,
तब वह एक
भिखारी
ब्राह्मण की
तरह आया। उसने
आ कर कहा कि
अरे, बड़ा
सुंदर बगीचा
है तुम्हारा!
बड़े सुंदर फूल
खिले हैं। यह
किसने लगाया?
उस
ब्राह्मण ने
कहा,
किसने
लगाया? अरे,
मैंने
लगाया! वह उसे
दिखाने लगा
परमात्मा को ले
जा ले जा कर—जो
वृक्ष उसने
लगाए थे, संवारे
थे, जो बड़े
सुंदर थे। और
बार—बार
परमात्मा
उससे पूछने
लगा, ब्राह्मण
देवता, आपने
ही लगाए? सच
कहते हैं?
वह बार—बार कहने
लगा, ही, मैंने ही
लगाए हैं। और
कौन लगाने
वाला है? अरे
और कौन है
लगाने वाला ई
मैं ही हूं
लगाने वाला।
यह मेरा बगीचा
है।
विदा
जब होने लगा
वह ब्राह्मण—छिपा
हुआ परमात्मा—तो
उसने कहा, ब्राह्मण—देवता,
एक बात कहनी
है मीठा—मीठा
गप्प, कडुवा—कडुवा
यू!
उसने
कहा,
मतलब?
ब्राह्मण ने
पूछा, तुम्हारा
मतलब? मीठा—मीठा
गप्प, कडुवा—कडुवा
यू! उसने कहा, अब तुम सोच
लेना। गाय
मारी तो
परमात्मा ने,
तुम साक्षी
थे, और
वृक्ष लगाए
तुमने!
परमात्मा
साक्षी है!
अहंकार
बड़ी तरकीबें
करता है. मीठा—मीठा
गप्प, कडुवा—कडुवा
धू! और वही
उसके बचाव के
उपाय हैं। क्रांति
तो तब घटित
होती है जब
तुम जानते हो
कि सर्वांश
में मैं गलत
था; समग्ररूपेण
मैं गलत था; मेरा अब तक
का होना ही
गलत था। उसमें
प्रकाश की कोई
किरण न थी। वह
सब अंधकार था।
ऐसे बोध के
साथ ही क्रांति
घटित होती है
और तत्क्षण
प्रकाश हो
जाता है।
सुधारवादी
मत बनना।
सुधारवादी से
ज्यादा से
ज्यादा तुम
सज्जन बन सकते
हो। मैं
तुम्हें क्रांतिकारी
बनाना चाहता
हूं। क्रांति
तुम्हारे
जीवन में
संतत्व को
लाएगी।
तुम्हारे जो
संत हैं वे
सज्जन से
ज्यादा नहीं
हैं।
वास्तविक संत
तो परम
विद्रोही
होता है।
विद्रोह—स्वयं
के ही अतीत से।
विद्रोह— अपने
ही समस्त अतीत
से। वह अपने
को विच्छिन्न
कर लेता है।
वह तोड़ देता
है सातत्य। वह
कहता है, मेरा
कोई नाता नहीं
उस अतीत से; वह पूरा का
पूरा गलत था; मैं सोया था
अब तक, अब
मैं जागा। जब तुम
सोए थे, तब
तुम सोए थे, तब सब गलत था।
ऐसा थोड़े ही
है कि सपने
में कुछ चीजें
सही थीं और
कुछ चीजें गलत
थीं, सपने
में सभी चीजें
सपना थीं। ऐसा
थोड़े ही है कि
सपने में से
कुछ चीजें तुम
बचा कर ले
आओगे और कुछ
चीजें खो
जाएंगी। सपना
पूरा का पूरा
गलत है।
अहंकार
एक मूर्च्छा
है,
एक सपना है।
उसे तुम पूरा
ही गलत देखना।
यद्यपि
अहंकार कोशिश
करेगा कि कुछ
तो बचा लो, एकदम
गलत नहीं हूं
कई चीजें
अच्छी हैं।
अगर तुमने कुछ
भी बचाया अहंकार
से, अहंकार
पूरा बच जाएगा।
अगर सपने में
से तुमने कुछ
भी बचा लिया
और तुम्हें
लगता रहा कि
यह सच है तो
पूरा सपना बच
जाएगा।
क्योंकि
जिसको सपने
में अभी सच
दिखाई पड़ रहा है,
वह अभी जागा
नहीं।
इसलिए
मैं जोर दे कर
बार—बार कहता
हूं. तुम पूरे
गलत हो। इससे
तुम्हें
बेचैनी होती
है। तुम मुझसे
कभी नाराज भी
हो जाते हो कि
पूरे गलत! ऐसा
तो नहीं हो
सकता कि हम
बिलकुल ही गलत
हों! तुम्हारे
अहंकार को मैं
कोई जगह बचने
की नहीं देता।
तुमसे कहता
हूं तुम पूरे
ही गलत हो।
लेकिन इससे
तुम उदास मत
होना, क्योंकि
इससे मैं एक
और बात भी कह
रहा है जो शायद
तुम्हें
सुनाई न पड़
रही हो, कि
तुम चाहो तो
पूरे के पूरे
अभी सही हो
सकते हो। उस
आशा के दीप पर
ध्यान दो। अगर
पूरे गलत हो
तो पूरे के
पूरे सही हो
सकते हो। अगर
तुम थोड़े—
थोड़े गलत हो, थोड़े— थोड़े
सही हो—तो तुम
थोड़े— थोड़े
गलत और थोड़े —
थोड़े सही ही
रहोगे। तब तुम
पूरे के पूरे
सही न हो.
सकोगे। तब तुम
घसीटते रहोगे
अपने अतीत को।
तब तुम एक
मिश्रित
खिचड़ी रहोगे।
और खिचड़ी होने
में सुख नहीं।
खिचड़ी होने
में नर्क है।
तुम
शुद्ध हो। तुम
एक रोशनी से
भरो। और उस
रोशनी से भरने
के लिए इतना
ही जानना जरूरी
है कि तुमने
अभी तक अपने
को जो माना है, वह
तुम नहीं हो।
तुम कोई और हो।
कोई अज्ञात
तुम्हारे
भीतर छिपा है।
कोई अज्ञात
कमल तुम्हारे
भीतर खिलने को
राजी है, जरा
मुड़ो भीतर की
तरफ! 'जरा
रुको, किसी
छाया में बैठो।
धूप में मत
भागो!
विश्राम! और
उसी विश्राम
में ध्यान और
समाधि है।
चौथा
प्रश्न :
कल
आपने कहा कि
धार्मिक व्यक्ति
सदा विद्रोही
होता है। तो
क्या
विद्रोही व्यक्ति
सहज हो सकता
है?
मैं ने निश्चित
कहा कि
धार्मिक
व्यक्ति सदा
विद्रोही
होता है, लेकिन
मैंने यह नहीं
कहा कि सभी
विद्रोही व्यक्ति
धार्मिक होते
हैं।
विद्रोही कोई
हो सकता है
बिना धार्मिक
हुए, लेकिन
धार्मिक कोई
नहीं हो सकता
बिना विद्रोही
हुए।
तो
फिर धार्मिक
विद्रोही और
विद्रोही में
क्या फर्क
होगा? जो
साधारण
विद्रोही है,
जिसमें
धर्म नहीं है,
राजनीतिक, सामाजिक
विद्रोही है,
उस
विद्रोही का
जीवन कभी सहज
नहीं हो सकता।
वहां तो बड़ा
तनाव होगा।
वहां तो चौबीस
घंटे चिंता और
बेचैनी होगी।
धार्मिक
विद्रोही का
अर्थ है. सहज।
विद्रोह करने
के लिए
विद्रोह नहीं; किसी
के खिलाफ
विद्रोह नहीं—अपनी
सहजता में
रहने की
आकांक्षा है
धार्मिक व्यक्ति
का विद्रोह।
वह स्वयं में
जीना चाहता है।
इस स्वयं में
जीने में जो
चीजें भी बाधा
डालती हैं, वह उन्हें
स्वीकार नहीं
करता। उसकी
तोड़ने की कोई
आकांक्षा
नहीं। वह किसी
के विरोध में
भी नहीं जाना
चाहता। वह
इतना ही चाहता
है कि उसकी
स्वतंत्रता
में कोई बाधा
न बने। न तो वह
किसी की
स्वतंत्रता
में बाधा बनना
चाहता है, न
किसी को अपनी
स्वतंत्रता
में बाधा बनने
देना चाहता है।
धार्मिक
विद्रोही
प्रतिक्रियावादी
नहीं है। वह
किसी के विरोध
में नहीं है, वह
सिर्फ अपने
पक्ष में है।
इस बात को तुम
खयाल में ले
लेना।
राजनीतिक
विद्रोही को
अपना तो कुछ
पता ही नहीं
है, वह
किसी के विरोध
में है; जो
भी सत्ता में
है, उसके
विरोध में है;
जिसके हाथ
में भी ताकत
है, उसके
विरोध में है।
क्योंकि ताकत
उसके हाथ में
होनी चाहिए, अपने हाथ
में होनी
चाहिए; दूसरे
हाथ में है तो
गलत है।
राजनीतिक
विद्रोही
अहंकार का
विद्रोह है।
धार्मिक
विद्रोही
अहंकार का
विसर्जन है और
सहज—स्वभाव
में जीने की
प्रक्रिया है।
इसका यह अर्थ
नहीं होता कि
धार्मिक
व्यक्ति अकारण
बाधाएं खड़ी
करेगा। नियम
है कि बाएं
चलो तो वह
दाएं चलेगा—ऐसा
नहीं है।
धार्मिक
व्यक्ति तो
भूल कर भी यह
झंझट न लेगा दाएं
चलने की, क्योंकि
दाएं चलो कि
बाएं चलो, सब
बराबर है।
इसमें झगड़ा
क्या है? वह
बाएं ही चलेगा।
तुम
धार्मिक
विद्रोही के
जीवन में कोई
अकारण झंझट न
देखोगे। वह सौ
में
निन्यानबे
मौकों पर समाज
के साथ ही
होगा। समाज के
साथ किसी भय
के कारण नहीं
होगा; यह समझ
कर होगा कि
कुछ चीजें तो
औपचारिक हैं,
इनमें अर्थ
ही क्या है? इनमें झगड़ा
क्या करना? लेकिन एक
मुद्दे पर, जहां भी
आत्मा बेचने
का सवाल होगा,
वह सब कुछ
दाव पर लगा
देगा। बाएं—दाएं
चलने में उसे
कोई अड़चन नहीं
है। नियम पालन
करने में उसे
कोई अड़चन नहीं
है। लेकिन जहा
नियम
आत्मघाती
होने लगेगा, वहां वह बगावत
करेगा; वहां
वह राजी नहीं
होगा; वहा
वह मर जाना
पसंद करेगा, ऐसे जीने के
मुकाबले जहां
आत्मा खो देनी
पड़ती हो।
धार्मिक
व्यक्ति में
बड़ी सहजता
होगी। तनाव तो
पैदा होता है
जब हम किसी से
संघर्ष करते
हैं। धार्मिक
व्यक्ति का
किसी से कोई
संघर्ष नहीं है।
धार्मिक
व्यक्ति का तो
अपने में रस
है। वह अपने
रस के उद्रेक
में जीना
चाहता है और
वह नहीं चाहता
कि कोई उसे
बाधा दे; वह
नहीं चाहता कि
वह किसी को
बाधा दे। वह
चुपचाप अपने
में डूबना
चाहता है। बस
इस बात में
अगर कोई अड़चन
डाली जाए तो
वह इंकार
करेगा, तो
वह सूली चढ़ने
को राजी रहेगा।
लेकिन
तुम चकित
होओगे यह जान
कर कि
तुम्हारी अंतरात्मा
में बाधा कोई
देता नहीं।
लोगों को
अंतरात्मा का
पता ही नहीं, बाधा
देने का सवाल
ही कहा? लोग
तो ऊपर—ऊपर की
बातों में
चलते हैं। मैं
तुम्हें एक
घटना कहूं।
रामकृष्ण के
बचपन की घटना
है। रामकृष्ण
बचपन से ही
भक्त थे, भजन
करते—करते
बेहोश हो जाते
थे। गदाधर
उनका नाम था।
मां—बाप थोड़े
चिंतित हुए, जैसे कि सभी
मां—बाप
चिंतित हो
जाते हैं कि
यह लड़का कुछ
सामान्य नहीं
मालूम होता।
कोई कहता कि
मिरगी
आती
है,
कोई कहता कि
मूर्च्छा
आरती है, कोई
कहता कि इसको
समाधि लग जाती
है। अलग—अलग
लोग, अलग—अलग
व्याख्यायें
थी। और इस
लड़के की
सामान्य
रुचियां भी न
थी, न तो यह
खेलता बच्चों
के साथ, न
इसको स्कूल
में पढ्ने—लिखने
में कोई रुचि
थी। दूसरी
क्लास से आगे
रामकृष्ण कभी
गए नहीं। जंगल
में चला जाता।
नदी—पोखर के
पास बैठ जाता।
और कभी छोटी—छोटी
घटनाएं.. एक
सुबह पोखर के
किनारे बैठे—बैठे
बगुलों की एक
कतार आकाश से
उड़ी, रामकृष्ण
की समाधि लग
गई। काली
घटाओं में
उड़ते हुए सफेद
बगुलों की
पंक्ति.
पर्याप्त थी।
किसी और लोक
की याद आ गई।
रामकृष्ण का
हंस उड़ चला!
चले मानसरोवर!
छूट गई देह
जैसे यहीं! उड़
चले आकाश में!
घंटों बेहोश रहे।
मां—बाप को
लोग सलाह देने
लगे, इसकी
शादी कर दो।
लोग एक ही
उपाय जानते
हैं : जरा कुछ
गड़बड़ दिखाई
पड़े, शादी
कर दो। सब
रोगों की एक
दवा : झंझट में
डाल दो। तो
लोगों ने कहा,
जरा झंझट
में डालो, यह
कोई झंझट में
नहीं है; न
स्कूल जाता है,
न कोई काम—धाम
करता है, गीत—
भजन, साधु—सत्संग—अभी
से बिगाड़ रहे
हो; अभी
बांध दो पैर
में झंझट। पर
उन्होंने कहा,
यह करेगा
शादी?
क्योंकि यह
दिखता नहीं
शादी करने
वाला जैसा।
तो
रामकृष्ण से
डरते—डरते
पिता ने पूछा
कि बेटा! तू
शादी करेगा? तो
रामकृष्ण ने
कहा, जरूर
करेंगे। पिता
भी थोड़े चौंके
कि यह क्या
मामला है? उनको
भी थोड़ा धक्का
लगा। सोचते तो
यही थे कि यह
इंकार करेगा।
इंकार करता तो
भी धक्का लगता।
तो शायद
समझाने—बुझाने
की कोशिश करते;
लेकिन इसने
इंकार की कोई
बात ही न उठाई।
इसने कहा, करेंगे;
किससे करनी
है?
जल्दी
ही इंतजाम
किया गया। एक
लड़की खोजी गई।
रामकृष्ण
उसको देखने गए
दूल्हा बन कर, सज—संवर
कर। बड़े
प्रसन्न थे।
मां ने ग्यारह
रुपए खीसे में
रख दिए थे, उनको
बार—बार गिन
लेते थे, फिर
रख लेते थे।
छोटी उम्र थी,
शायद
ग्यारह साल से
ज्यादा नहीं
थी। फिर गए तो
भोजन परोसने
लड़की आई। उसकी
उम्र सात साल
से ज्यादा की
नहीं थी—शारदा
की उस समय। जब
वह भोजन
परोसने आई तो
ग्यारह रुपए
निकाल कर उसके
पैर में रख कर
उन्होंने
उसके पैर छू
लिए। अब और एक
मुसीबत हो गई।
बाप
कहा,
नासमझ! यह
क्या करता है?
पहली तो यह
नासमझी कि
शादी करने को
तैयार हो गया
अब यह क्या
किया?
उसने
कहा कि मुझे
तो बिलकुल मां
का स्वरूप मालूम
पड़ता है। यह
मेरी मां है।
शादी तो
करेंगे, मगर यह
है मेरी मां।
शादी
भी हुई—और
शारदा मां ही
रही। यह सहजता
है;
इसमें कहीं
कोई बगावत
नहीं है। शादी
से इंकार भी न
किया। शादी भी
कर ली। पिता
को भी प्रसन्न
कर दिया, मां
को भी प्रसन्न
कर दिया। कहा,
बंधन डालते
हो, अच्छा
बंधन डाल दो।
फिर बंधन को
चरण छू कर
नमस्कार करके
मां भी बना
लिया। ऐसे
कारागृह को ही
मंदिर बना
लिया। ऐसे
बंधन ही
मुक्ति हो गई।
धार्मिक
व्यक्ति
अकारण उपद्रव
में नहीं पड़ेगा।
कोई कारण नहीं
है। राजनीतिक
व्यक्ति
विक्षिप्त है।
राजनीति एक
तरह की
न्यूरोसिस है, एक
तरह का उन्माद
है। तो
राजनीतिक
व्यक्ति तो
झगड़े की तलाश
में है; जब
झगड़ा नही होता
तब वह बड़ा
बेचैन होता है
कि, अब
क्या करें।
अभी
जैसे भारत में
अनुशासन—पर्व
चल रहा है, तो
राजनीतिक
व्यक्ति बड़े
बेचैन हैं!
कुछ तो भीतर
जेल के बंद
हैं, तो
थोड़ी हालत
उनकी ठीक भी
है कि कम से कम
चलो जेल में
तो बंद हैं, कर भी क्या सकते
हैं? लेकिन
जो बाहर हैं, तुम्हें
उनका पता नहीं;
वे बड़े
कसमसा रहे हैं।
वे भीतर ही
भीतर डावाडोल
हो रहे हैं कि
न हड़ताल हो
रही है, न
नारेबाजी, न
झंडा ऊंचा रहे
हमारा! कुछ भी
नहीं हो रहा।
सब जिंदगी
बेकार मालूम
होती है।
तुम्हें पता
नहीं कि सब
राजनीतिक
लोगों की हालत
कैसी बुरी है!
कुछ करने जैसा
नहीं लगता।
कोई उपद्रव, कोई उत्पात!
वही उत्पात
उनका भोजन है।
राजनीतिक
व्यक्ति
उत्पात में रस
रखता है।
उत्पात करने
के लिए वह
कारण खोजता है,
बड़े सुंदर
कारण खोजता है
कभी गरीब के
बहाने, कभी
स्वतंत्रता
के बहाने, कभी
प्रजातंत्र—
लोकतंत्र के
बहाने, कभी
यह कभी वह, लेकिन
वह हमेशा कारण
खोज लेता है।
कोई न कोई
कारण खोज लेता
है कि उपद्रव
चाहिए, क्योंकि
उपद्रव के
बिना वह रह
नहीं सकता।
राजनीतिक
व्यक्ति एक
तरह की बेचैनी
है। और बेचैनी
मार्ग खोजती
है बहने का।
उसके लिए
कैथार्सिस
चाहिए, रेचन
चाहिए।
धार्मिक
व्यक्ति एक
सहज शांति है।
सौ में से
निन्यानबे
मौकों पर तो
तुम उसे कभी विरोध
में न पाओगे।
ही,
एक मौके पर
वह 'नहीं' कहेगा, जरूर
कहेगा। और उस
मौके पर जब वह 'नहीं' कहेगा
तो वह 'नहीं'
निरपेक्ष 'नहीं' होगी,
उसमें कोई
शर्त न होगी, उसके 'ही'
में बदलने
का कोई उपाय
नहीं है। तुम
मार डाल सकते
हो सुकरात को।
तुम जीसस को
सूली पर लटका
सकते हो। तुम
मैसूर का गला
काट सकते हो।
लेकिन उस एक
मौके पर जब वह 'नहीं' कहता
है तो उसकी 'नहीं' शाश्वत
है, उसको
तुम 'ही' में नहीं
बदल सकते।
क्योंकि वह
उसी एक मौके
पर 'नहीं' कहता है जहा
उसकी आत्मा को
खोने का सवाल
है, अन्यथा
तो उसके पास
खोने को कुछ
भी नहीं है; अन्यथा तो
सब खेल है।
पांचवां
प्रश्न :
आप
तो सतत प्रभ—प्रसाद
लटा रहे हैं, प्रभु—कृपा
की वर्षा हो
रही है, परंतु
हम चूकते ही
चले जाते हैं।
पात्रता कैसे
संभव होगी?
मुल्ला
नसरुद्दीन से
कोई पूछता था
कि आपकी सफलता
का रहस्य क्या
है? 'सही
निर्णय पर काम
करना', मुल्ला
नसरुद्दीन ने
उत्तर दिया। 'लेकिन सही
निर्णय किए
कैसे जाते हैं?'
उस आदमी ने
पूछा। ' अनुभवों
के आधार पर', मुल्ला ने
कहा। 'और
अनुभव किस
प्रकार
प्राप्त होते
हैं?' उस आदमी
ने फिर पूछा।
मुल्ला ने कुछ
सोचा और फिर
कहा, 'गलत
निर्णयों पर
काम करके।'
मैं
तुमसे कुछ कह
रहा हूं अब
तुम यह
प्रतीक्षा मत
करो कि जब सही
निर्णय होगा
तब कुछ करेंगे।
सही—गलत की
अभी फिक्र
छोड़ो। निर्णय
करके तुम कुछ
करोगे तो
निर्णय कभी
होगा नहीं।
कुछ करो, उससे
निर्णय होता
है। तुम मुझे
सुनते ही मत
रहो। जो
तुम्हें भा
जाए, जल्दी
से उसे करो।
उसे जीवन में
उतारों। मैं
सागर उड़ेल दूं
तुम में, तो
किसी काम का
नहीं; एक
बूंद तुम
उपयोग में ले
आओ तो काम की
सिद्ध होगी।
वही तुम्हारा
सागर बनेगी।
सुनते ही मत
रहो कि अभी तो
गुनेंगे, सुनेंगे,
समझेंगे, सोचेंगे, औरों से
पूछेंगे, तुलना
करेंगे, फिर
निष्पत्तिया
बनाएंगे, फिर
अनुभव में
उतारेंगे—तों
तुम चूक जाओगे।
तो यह वर्षा
हो कर भी चली
जाएगी, तुम
खाली के खाली
रह जाओगे। ये
बादल आए और न
आए बराबर हो
जाएंगे।
कुछ
करो। थोड़ी—सी
बात जो
तुम्हें भा
जाए! मैं कहता
हूं भा जाए, मैं
यह भी नहीं कह
रहा हूं कि
तुम्हारी
बुद्धि को
तर्करूप से
सही लगे, मैं
कहता हूं भा
जाए, तुम्हें
पसंद आ जाए, तुम्हारे
भीतर गुनगुन
होने लगे किसी
बात से, कोई
बात तुम्हारे
मन में
गुदगुदी ले आए,
कुछ गदगद कर
जाए—उसे करो!
जरूरी नहीं है
कि वह सही ही
हो। मैं कहता
भी नहीं कि
जरूरी है। पर
इतना मैं कहता
हूं, उसे
करने से लाभ
होगा। सही
होगी तो पता
चल जाएगा सही
है, तो तुम
और और उसे
करना। अगर गलत
होगी तो पता
चल जाएगा कि
गलत है, तो
तुम उसे छोड़
देना। और उस
तरह की बातों
के भ्रम में
दुबारा मत पड़ना।
हर हालत में
करना ही
निर्णायक है।
जैसे
मैं साक्षी की
बात कह रहा
हूं —साक्षी
बनो! थोड़ी—
थोड़ी साक्षी
की तरफ जीवन—चेतना
को दौड़ाओ, थोड़े
झरोखे खोलो।
तुम
कभी—कभी कुछ
करते भी हो, ऐसा
भी नहीं कि
तुम नहीं करते;
मगर तुम जो
करते हो, वहां
भी भूल कर
जाते हो। वह
भूल ऐसी है.
अगर तुम क्रोध
से भरे हो और
मुझे सुनने
आते हो तो तुम
सुनते वक्त
यही तरकीब लगाए
रखते हो कि
कोई ऐसी कुंजी
मिल जाए जिससे
क्रोध अलग हो
जाए। तो मैं
जो कह रहा हूं
वह तुम सुन ही
नहीं पाते, तुम अपनी
कुंजी ही
खोजते रहते हो।
तुम अशांत हो
तो तुम सुनते हो
मेरी बातें—एक
दृष्टि से कि
शांति का कोई
सूत्र मिल जाए
शायद! तो बाकी
सब सूत्र जो
मैं लुटा रहा
हूं वे खो
जाते हैं। और
उन्हीं सबको
तुम समझते तो शांति
का सूत्र भी
समझ में आता।
और
तुम,
मैं जो कह
रहा हूं,
अगर अपने
संदर्भ में
उसको पकडोगे
तो उसका अर्थ
विकृत हो
जाएगा। तो
क्रोधी क्रोध
का दमन करने
लगेगा। मैं तो
कह रहा हूं
साक्षी बनो, लेकिन तुम
साक्षी के नाम
पर दमन करने
लगोगे।
क्योंकि
तुम्हारी मूल
इच्छा साक्षी
बनने की है ही
नहीं, तुम्हारी
मूल इच्छा तो
इतनी ही थी कि
क्रोध से
छुटकारा हो
जाए। तो तुम
साक्षी का
उपयोग भी इस
तरह करोगे कि
तुम क्रोध को
दबा लोगे। वह
साक्षी बनना न
हुआ, वह
फिर चूक हो गई।
ऐसा
हुआ कि एक
आदमी ने मुझे
आ कर कहा कि कल
रात सर्कस में
बहुत भगदड़ मच
गई। एक शेर
पिंजड़े से
निकल भागा।
फिर क्या हुआ? मैंने
पूछा। उसने
कहा, प्रत्येक
व्यक्ति भाग
खड़ा हुआ।
लेकिन एक संत
पुरुष वहां
मौजूद थे; वे
बड़े हौसले में
रहे, वे
जरा भी न डरे, जरा भी
भयभीत न हुए।
मैंने
पूछा, उन्होंने
क्या किया?
तो उसने कहा
कि वे संत
पुरुष तत्क्षण
शेर के खाली
पिंजड़े में जा
कूदे और अंदर
दरवाजा बंद गए
अब
तुम भागो या
पिंजड़े में
कूद कर दरवाजा
बंद करके बैठ
जाओ—यें
प्रक्रियाएं
उल्टी दिखाई
पड़ती हैं लेकिन
उल्टी नहीं।
वस्तुत: तो
संत पुरुष ही
ज्यादा कुशल
आदमी है।
क्योंकि एक
बात पक्की है
कि सिंह और
कहीं जाए, पिंजड़े
में वापिस आने
वाला नहीं है;
अपने से तो
आने वाला नहीं
है। सब जगह
खतरा है, सिर्फ
पिंजड़े में
खतरा नहीं है।
मैं
तुम्हें ऐसे
संत पुरुष
नहीं बनाना
चाहता हूं।
लोग संसार से
भाग कर
पिंजड़ों में
बंद हो जाते हैं।
मंदिर, मस्जिद,
गुरुद्वारे
पिंजड़े हैं।
वहां सीखचों
में बैठ जाते
हैं। वहा कोई
सिंह इत्यादि
नहीं आते।
लेकिन वह भी
बचाव है; जीवन—क्रांति
नहीं, पलायन
है।
तुम
मुझे जब सुनो
तो मुझे ऐसे
सुनो जैसे कोई
किसी गायक को
सुनता है। तुम
मुझे ऐसे सुनो
जैसे कोई किसी
कवि को सुनता
है। तुम मुझे
ऐसे सुनो कि
जैसे कोई कभी
पक्षियों के
गीतो को सुनता
है,
या वृक्षों
में हवा के
झोकों को
सुनता है, या
पानी की मरमर
को सुनता है, या वर्षा
में गरजते
मेघों को
सुनता है। तुम
मुझे ऐसे सुनो
कि तुम उसमें
अपना हिसाब मत
रखो। तुम आनंद
के लिए सुनो।
तुम रस में
डबो। तुम यहां
दूकानदार की
तरह मत आओ।
तुम यहां बैठे—बैठे
भीतर गणित मत
बिठाओ कि क्या
इसमें से चुन
लें और क्या
करें और क्या
न करें। तुम
सिर्फ मुझे
आनंद—भाव से
सुनो।
स्वांत:
सुखाय रघुनाथ
गाथा. स्वात:
सुखाय तुश्लसी
रघुनाथ गाथा!
स्वात:
सुखाय! सुख के
लिए सुनो। उस
सुख सुनते—सुजनते
जो चीज
तुम्हें गदगद
कर जाए, उसमें
फिर थोड़ी और
डुबकी लगाओ।
मेरा गीत सुना,
उसमें कड़ी
तुम्हें भा
जाए फिर तुम
उसे गुनगुनाओ।
उसे तुम्हारा
मंत्र बन जाने
दो। धीरे—धीरे
तुम पाओगे कि
जीवन में बहुत
कुछ बिना बड़ा
आयोजन किए
घटने लगा।
हवा
कहीं से उठी
बही
ऊपर ही
ऊपर चली गई
पथ
सोया ही रहा
किनारे
के क्षुप चौके
नहीं
न कापी
डाल
न
पत्ती कोई
दरकी
अंग
लगी लघु ओस
बूंद
भी एक न ढरकी
हवा
कहीं से उठी
बही
ऊपर ही
ऊपर चली गई।
वनखंडी
में सधे खडे
पर
अपनी
ऊंचाई में
खोंए,—से
चीड़
जाग कर सिहर
उठे
सनसना
गए
एक
स्वर नाम वही
अनजाना
साथ
हवा के गा गए
मैंने
उठ कर
खोल
दिया वातायन
और
दुबारा चौंका
वह
सन्नाटा नहीं
झरोखे
के बाहर
ईश्वर
गाता था।
हवा
कहीं से उठी
बही
ऊपर ही
ऊपर चली गई
पथ
सोया ही रहा।
तुम पथ
की तरह मत
सोएरहना, पत्थर
की तरह मत
सोएरहना!
किनारे
के कूप चौंके
नहीं
न कापी
डाल
न
पत्ती कोई
दरकी
अंग
लगी लघु ओस
बूंद
भी एक न ढरकी।
यह
जो हवा मैं
तुम्हारे आसपास
उठा रहा हूं
इसके लिए जरा तुम
ऊंचे उठो। अगर
तुम नीचे ही
पड़े रहे तो ओस
की एक बूंद भी
तुमसे न
ढरकेगी, एक आंसू
भी न बहेगा।
तुम ऐसे ही
अछूते पड़े रह
जाओगे।
वनखंडी
में सधे खडे
पर
अपनी
ऊंचाई में
खोंए,—से
चीड़
जाग कर सिहर
उठे
सनसना
गए।
जरा
ऊंचे उठो। मैं
जहां की खबर लाया
हूं वहाँ की खबर
लेने के लिए चीड़
बनो। थोड़े सिर
को उठाओ। थोड़े
सधो।
वनखंडी
में सधे खडे
पर
अपनी
ऊंचाई में
खोंए,—से
चीड़
जाग कर सिहर
उठे
सनसना
गए।
एक
स्वर नाम
अनजाना
साथ
हवा के गा गए।
मेरे
साथ गुनगुना लो
थोड़ा। जिस एक की
मैं चर्चा कर रहा
हू उस एक की गुनगुनाहट
को तुममें भी
गज जाने दो।
एक
स्वर नाम वही
अनजाना
साथ
हवा के गा गए।
और
तब तुम्हें
पता चलेगा कि
जैसे खुल गई
कोई खिड़की। और
जिसे तुमने
समझा था सिर्फ
एक विचार, वह
विचार न था, वह ध्यान बन
गया। और जिसे
तुमने समझा था
सिर्फ एक
सिद्धात, एक
शास्त्र, वह
सिद्धात न था,
शास्त्र न
था; वह
सत्य बन गया।
मैंने
उठ कर खोल
दिया वातायन
और
दुबारा चौंका
वह
सन्नाटा नहीं
झरोखे
के बाहर
ईश्वर
गाता था।
तो
थोड़े उठो।
थोड़े जागो।
थोड़े सधो। और
छोड़ो अपनी
क्षुद्र
चिंताएं; उनका
हिसाब—किताब
मत बिठाओ मेरे
पास। तुम मुझे
पीयो। तुम
मेरे पास ऐसे
रहो जैसे कोई
फूल के पास
रहता है।
तुम
इसमें से कुछ
उपयोग की
बातें
निकालने की चिंता
न करो, क्योंकि
उपयोगिता से
ईश्वर का कोई
संबंध नहीं है।
ईश्वर से
ज्यादा
अनुपयोगी और
कोई वस्तु जगत
में नहीं है।
क्या संबंध है
ईश्वर का
उपयोगिता से?
बाजार में
बेच न सकोगे।
क्या उपयोग है
ईश्वर का? किसी
काम न आएगा।
अर्थहीन, प्रयोजन—शून्य!
मैं
तुमसे जो कह
रहा हूं तुमने
अगर उसे
उपयोगिता की
दृष्टि से
सुना तो तुम
चूक जाओगे। मैं
कोई शिक्षक
नहीं हूं। मैं
तुम्हें कोई
उपयोगी बातें
नहीं सिखा रहा
हू जौ
तुम्हारी
जिंदगी में
काम आएंगी।
मैं तुम्हें
कुछ दर्शन
कराना चाहता
हूं जिसका कोई
उपयोग नहीं है
सिवाए इसके कि
तुम सच्चिदानंद
से भर जाओगे, सिवाए
इसके कि तुम
आनंद—मग्न हो
जाओगे, मदमस्त
हो जाओगे। यह
तो मस्ती की एक
हवा यहां मैं
फैलाता हूं।
मगर तुम पर
निर्भर है।
तुम रास्ते पर
पटे पत्थर की
तरह पड़े रह
सकते हों—हवा
आएगी, चली
जाएगी; तुम
अछूते रह
जाओगे।
तुम्हारे
कानों में भनक
भी न पड़ेगी।
या राह के
किनारे छोटे —छोटे
पौधों की तरह
तुम रह जा
सकते हो। उनके
शिखर ही इतने
ऊंचे नहीं कि
आकाश की हवाएं
उन्हें छू
सकें। तो एक
ओस की बूंद भी
न ढरकेगी। एक आंसू
भी न बहेगा.।
तुम्हें पता
भी न चलेगा कि
हवा आई और चला
गई।
बुद्ध
आए,
कितनों को
पता चला?
थोड़े—से चीड़
जैसे उठे
वृक्ष अपने
में खोए—से, आकाश में
खड़े—से, उतुंग
उनके शिखर पर
बुद्ध की हवा
छुई। कृष्ण आए,
किसने सुना
न: कृष्ण की
बांसुरी सभी
तक तो नहीं
पहुंची।
अष्टावक्र ने
कहा, कोई
जनक ने सुना।
कोई चीड़ जैसे
वृक्ष! उठो
थोड़े ऊंचे!
और
मुझे ऐसे सुनो
जिसमें
प्रयोजन का
कोई भाव न हो।
जो मुझे
प्रयोजन से
सुनेगा, वह
चूकेगा। जो
मुझे
निष्प्रयोजन,
आनंद से
सुनेगा—स्वात:
सुखाय तुलसी
रघुनाथ गाथा—वही
पा लेगा। उसके
जीवन में धीरे—
धीरे क्रांति
घटनी शुरू हो
जाती है।
आखिरी
प्रश्न :
मैं
स्त्रैण—चित्त
का आदमी हूं, संकल्प
बिलकुल नहीं
है। क्या
संकल्प का विकास
करना जरूरी है?
जरा
भी जरूरी नहीं
है। समर्पण
पर्याप्त है।
अपने चित्त को
पहचानो। कुछ
भी थोपना
आवश्यक नहीं
है। चित्त
जैसा हो उसी
चित्त के
सहारे
परमात्मा तक
पहुंचो।
परमात्मा
तक स्त्रैण
चित्त पहुंच
जाते हैं, पुरुष—चित्त
पहुंच जाते
हैं।
परमात्मा तक
तुम जहा हो, वहीं से
पहुंचने का
उपाय है, बदलने
की कोई जरूरत
नहीं है। और
बदलने की झंझट
में तुम पड़ना
मत, क्योंकि
बदल तुम पाओगे
न। अगर
तुम्हारा
चित्त
भावपूर्ण है
तो तुम लाख उपाय
करो, तुम
उसे संकल्प से
न भर पाओगे।
अगर तुम्हारा
चित्त हृदय से
भरा है तो तुम
बुद्धि का
आयोजन न कर
पाओगे। जरूरत
भी नहीं है।
ऐसी उलझन में
पड़ना भी मत।
अन्यथा तुम जो
हो, वह भी न
रह पाओगे; और
तुम जो होना
चाहते हो वह
तो तुम हो न
सकोगे।
गुलाब
का फूल गुलाब
के फूल की तरह
ही चढ़ेगा प्रभु
के चरणों में।
कमल का फूल
कमल के फूल की
तरह चढ़ेगा।
तुम जैसे हो
वैसे ही
स्वीकार हो।
तुम जैसे हो
वैसा ही प्रभु
ने तुम्हैं
बनाया। तुम
जैसे हो वैसा
ही प्रभु ने
तुम्हें चाहा।
तुम अन्यथा
होने की
चेष्टा में
विकृत मत हो जाना, क्षत—विक्षत
मत हो जाना।
तुमसे मै एक
छोटा—सा गीत
कहता हूं.
तू
नहीं कहेगा, मैं
फिर भी सुन ही
लूंगा
किरण
भोर की पहली, भोलेपन
से बतलावेगी
झरना
शिशु—सा अनजान
उसे
दोहरावेगा
घोंघा
गीली—पीली
रेती पर धीरे —
धीरे आकेगा
पत्तों
का मरमर
कनबतियों में
जहा—तहां
फैलावेगा
पंछी
की तीखी कूक
फरहरे मढ़े
शल्य—सी आसमान
पर टाकेगी
फिर
दिन सहसा खुल
कर उसको सब पर
प्रगटावेगा।
तू
नहीं कहेगा, मैं
फिर भी सुन ही
लूंगा
मैं
गुन ही लूंगा।
तु
नहीं कहेगा
आस्था
है।
नहीं
अनमना होऊंगा
तब मैं
सुन लूंगा।
और दे
भी क्या सकता
हूं हवाला
या
प्रमाण अपनी
बात का?
अब से
तेरा कर एक
वही गह पाएगा।
संभ्रम
अवगुंठित
अंगों को
उसका
मृदुतर
कृत्हल
प्रकाश
की किरण
छुआएगा।
तुझसे
रहस्य की बात
निभृत में
एक वही
कर पाएगा।
तू
उतना वैसा
समझेगी
वह
जैसा जो
समझाएगा
तेरा
वह प्राप्य
वरद कर
तुम पर
जो बरसाएगा
उद्देश्य, उसे
जो भावे
लक्ष्य
वही,
जिस ओर मोड़
दे वह
तेरा
पथ मुड़—मुड़ कर
सीधा उस तक ही
जाएगा।
तू
अपनी भी उतनी
ही होगी जितना
वह अपनाएगा
ओ
आत्मा री!
तू गई
वरी
महाशून्य
के साथ भांवरें
तेरी रची गईं।
उद्देश्य, उसे
जो भावे; समर्पण
का यही अर्थ
है।
उद्देश्य, उसे
जो भावे
लक्ष्य
वही,
जिस ओर मोड़
दे वह
तेरा
पथ मुड़—मुड़ कर
सीधा उस तक ही
जाएगा
तू भी
उतनी ही होगी
जितना
वह अपनाएगा
ओ
आत्मा री!
तू गई
वरी
महाशून्य
के साथ भांवरें
तेरी रची गईं।
अगर
तुम्हें लगता
है कि स्त्रैण—चित्त
है तुम्हारे
पास—शुभ है, मंगल
है। पुरुष—चित्त
का कोई अपने—आप
मूल्य नहीं।
हो तो वह भी
शुभ है, वह
भी मंगल है।
परमात्मा
ने दो ही तरह
के चित्त बनाए
: स्त्रैण और
पुरुष; संकल्प
और समर्पण। दो
ही मार्ग हैं
उस तक जाने के।
तुम जहा हो
वहीं से चलो।
तुम जैसे हो
वैसे ही चलो।
प्रभु
तुम्हें वैसा
ही अंगीकार
करेगा।
हरि
ओंम तत्सत !
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