अष्टावक्र
महागीता—(भाग—2)
ओशो
इन
सूत्रों पर
खूब मनन
करना—बार—बार;
जैसे कोई
जूगाली करता
है। फिर—फिर,
क्योंकि
इनमें बहुतरस
है। जितना तुम
चबाओगे,
उतना ही अमृत
झरेगा।
बात
खत्म हो गई,
फिर कचरे में
फेंका। यह कोई
एक बार पढ़
लेने वाली बात
नहीं है,
यह तो किसी
शुभमुहूर्त
में,किसी
शांत क्षण में
किसी आनंद की
अहो—दशा में, तुम
इनका
अर्थ पकड़
पाओगे। यह तो
रोज—रोज,
घड़ी भर बैठ
कर, इन परम
सूत्रों को
फिर
से
पढ़ लेने की
जरूरत है।
अनिवार्य है।
——ओशो
धर्म है जीवन का गौरी शंकर—प्रवचन—एक
दिनांक:
26 सितंबर, 1976,
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्न
सार:
पहला
प्रश्न:
प्रसिद्ध
मनोवैज्ञानिक
ए. एच. मैसलो ने
मनुष्य की
जीवन
आवश्यकताओं
के
क्रम में आत्मज्ञान (Self—actualization) को अंतिम स्थान दिया है। क्या आपके जाने आत्मज्ञान मनुष्य—जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता है, और धर्म, अध्यात्म जैसे संबोधन अनावश्यक रूप से आत्मज्ञान के साथ जोड़ दिए गए हैं? कृपा करके समझाएं।
क्रम में आत्मज्ञान (Self—actualization) को अंतिम स्थान दिया है। क्या आपके जाने आत्मज्ञान मनुष्य—जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता है, और धर्म, अध्यात्म जैसे संबोधन अनावश्यक रूप से आत्मज्ञान के साथ जोड़ दिए गए हैं? कृपा करके समझाएं।
पहली
बात,
कि
आत्मज्ञान न
तो अनिवार्य
है और न
आवश्यकता है।
वैसी
भाषा
आत्मज्ञान के
संबंध में मूलभूत
रूप से गलत
है। भूख है तो
रोटी की
आवश्यकता
है।
देह है तो
श्वास की
आवश्यकता है!
इनके
बिना तुम जी न
सकोगे। लेकिन
आत्मज्ञान के
बिना तो आदमी
मजे से जीता
है। पानी
चाहिए
रोटी चाहिए, मकान चाहिए। इनकी तो आवश्यकता है। इनके बिना तुम एक क्षण न जी सकोगे।
आत्मज्ञान के बिना तो अधिक लोग जीते ही हैं।
रोटी चाहिए, मकान चाहिए। इनकी तो आवश्यकता है। इनके बिना तुम एक क्षण न जी सकोगे।
आत्मज्ञान के बिना तो अधिक लोग जीते ही हैं।
तो
पहली तो बात
आत्मज्ञान
आवश्यकता
नहीं। और अनिवार्य
तो बिलकुल ही
नहीं है। कभी
कोई बुद्ध, कभी कोई अष्टावक्र, कोई क्राइस्ट, मुहम्मद उस दशा को उपलब्ध होते हैं। यह इतना
अद्वितीय है इस घटना का घटना, कि इसको अनिवार्य तो कहा ही नहीं जा सकता, नहीं तो सबको
घटती, प्रत्येक को घटती।
कोई बुद्ध, कभी कोई अष्टावक्र, कोई क्राइस्ट, मुहम्मद उस दशा को उपलब्ध होते हैं। यह इतना
अद्वितीय है इस घटना का घटना, कि इसको अनिवार्य तो कहा ही नहीं जा सकता, नहीं तो सबको
घटती, प्रत्येक को घटती।
अध्यात्म
एक अर्थ में
प्रयोजन—शून्य
है,
अर्थहीन
है। इसलिए तो
हम इस देश में
उसे सच्चिदानंद
कहते हैं।
कहते हैं।
आनंद
का क्या अर्थ? आनंद
की क्या
आवश्यकता? आनंद
की क्या
अनिवार्यता? परमात्मा के
बिना जगत बड़े मजे से चल रहा है। इसलिए तो परमात्मा कहीं दिखाई नहीं देता। उसकी मौजूदगी
आवश्यक नहीं मालूम होती—न दूकान पर जरूरत है, न दफ्तर में जरूरत है, न घर में जरूरत है।
आत्मज्ञान तो आत्यंतिक आभिजात्य, आत्यंतिक ऐरिस्टोक्रेसी है।
बिना जगत बड़े मजे से चल रहा है। इसलिए तो परमात्मा कहीं दिखाई नहीं देता। उसकी मौजूदगी
आवश्यक नहीं मालूम होती—न दूकान पर जरूरत है, न दफ्तर में जरूरत है, न घर में जरूरत है।
आत्मज्ञान तो आत्यंतिक आभिजात्य, आत्यंतिक ऐरिस्टोक्रेसी है।
रोटी
की जरूरत है; लेकिन
माइकल ऐंजिलो
की मूर्तियों
की थोड़े ही
जरूरत है!
उनके बिना
आदमी मजे से रह लेगा। छप्पर की जरूरत है, लेकिन कालिदास की क्या जरूरत है? न हों कालिदास
के ग्रंथ, कौन—सी अड़चन आ जाएगी? क्षुद्र की जरूरत है, विराट की कहां जरूरत है? और अगर
विराट तुम्हारी जरूरत हो तो वह भी क्षुद्र हो जाएगा। विराट तो आनंद है, अहोभाव है। विराट को तुम
आवश्यकता की भाषा में मत खींचना। परमात्मा को अर्थशास्त्र मत बनाना, ईकनॉमिक्स मत बनाना।
इसलिए तो समाजवादी कहते हैं : रोटी, रोजी और मकान। उसमें कहीं परमात्मा को जगह नहीं।
इसलिए कम्यूनिज्य में परमात्मा को कोई जगह नहीं। थोड़ा सोचो, मार्क्स जैसा अर्थशास्त्री... अगर
आदमी मजे से रह लेगा। छप्पर की जरूरत है, लेकिन कालिदास की क्या जरूरत है? न हों कालिदास
के ग्रंथ, कौन—सी अड़चन आ जाएगी? क्षुद्र की जरूरत है, विराट की कहां जरूरत है? और अगर
विराट तुम्हारी जरूरत हो तो वह भी क्षुद्र हो जाएगा। विराट तो आनंद है, अहोभाव है। विराट को तुम
आवश्यकता की भाषा में मत खींचना। परमात्मा को अर्थशास्त्र मत बनाना, ईकनॉमिक्स मत बनाना।
इसलिए तो समाजवादी कहते हैं : रोटी, रोजी और मकान। उसमें कहीं परमात्मा को जगह नहीं।
इसलिए कम्यूनिज्य में परमात्मा को कोई जगह नहीं। थोड़ा सोचो, मार्क्स जैसा अर्थशास्त्री... अगर
परमात्मा
की कोई
आवश्यकता
होती, आत्मज्ञान
की आवश्यकता
होती तो
कम्यूनिज्म में
कुछ जगह रखता।
बिलकुल जगह
नहीं रखी।
शुद्ध
अर्थशास्त्र
में कोई जरूरत
ही नहीं।
सच
तो यह है कि
तुम्हारे
जीवन में
परमात्मा की
किरण उतरेगी
तो बहुत
अड़चनें खड़ी
होंगी।
इसलिए तो बहुत से लोग हिम्मत नहीं करते। परमात्मा की किरण उतरेगी तो तुम जैसे चलते थे फिर
वैसे न चल पाओगे। अड़चनें आनी शुरू हो जाएंगी। तुम्हारे जीवन का ढांचा बदलने लगेगा। तुम्हारी
शैली बदलेगी। तुम्हारा होने का रूप बदलेगा। तुम्हारी दिशा बदलेगी। तुम बुरी तरह अस्त—व्यस्त हो
जाओगे। तुम्हारा जो जमा—जमाया रूप था सब उखडेगा। तुम्हारी जड़ें उखड़ जाएंगी। तुम्हें नई भूमि
खोजनी पड़ेगी; पुरानी भूमि काम न आएगी। तुम पृथ्वी पर न टिक सकोगे, तुम्हें आकाश का सहारा
लेना होगा।
इसलिए तो बहुत से लोग हिम्मत नहीं करते। परमात्मा की किरण उतरेगी तो तुम जैसे चलते थे फिर
वैसे न चल पाओगे। अड़चनें आनी शुरू हो जाएंगी। तुम्हारे जीवन का ढांचा बदलने लगेगा। तुम्हारी
शैली बदलेगी। तुम्हारा होने का रूप बदलेगा। तुम्हारी दिशा बदलेगी। तुम बुरी तरह अस्त—व्यस्त हो
जाओगे। तुम्हारा जो जमा—जमाया रूप था सब उखडेगा। तुम्हारी जड़ें उखड़ जाएंगी। तुम्हें नई भूमि
खोजनी पड़ेगी; पुरानी भूमि काम न आएगी। तुम पृथ्वी पर न टिक सकोगे, तुम्हें आकाश का सहारा
लेना होगा।
इस
बात को तुम
जितनी गहराई
से समझ लो
उतना उपयोगी होगा।
परमात्मा
बिलकुल
गैर—जरूरी है।
इसलिए तो उन थोड़े—से
लोगों के ही
मन में
परमात्मा की
प्यास पैदा
होती है, जिन्हें
यह बात समझ
में आ गई कि
जरूरी में आनंद
नहीं हो सकता।
जरूरी में
ज्यादा से
ज्यादा जरूरत
पूरी होती है।
तुम्हें
भूख लगी, तुमने
भोजन कर लिया।
भूखे रहो तो
तकलीफ होती है,
भोजन करके
कौन—सा सुख
मिल जाता है? धूप पड़ती थी,
पसीना आता
था, तुम
परेशान और
बेचैन थे।
छप्पर के नीचे
आ गए, बेचैनी
मिट गई। लेकिन
छप्पर के नीचे
आ जाने से कोई
सुख थोड़े ही
मिल जाता है।
आवश्यकता
के जगत में
दुख है और दुख
से छुटकारा है; आनंद
बिलकुल नहीं।
यही तो
तकलीफ है कि एक गरीब आदमी, जिसके पास धन नहीं है, सोचता है धन मिल जाएगा तो आनंद
मिल जाएगा। जब धन मिल जाता है, तब पता चलता है : गरीबी तो मिट गई, धन भी मिल गया,
आनंद नहीं मिला।
तकलीफ है कि एक गरीब आदमी, जिसके पास धन नहीं है, सोचता है धन मिल जाएगा तो आनंद
मिल जाएगा। जब धन मिल जाता है, तब पता चलता है : गरीबी तो मिट गई, धन भी मिल गया,
आनंद नहीं मिला।
आवश्यकताओं
की तृप्ति में
आनंद कहां? आवश्यकताओं
की तृप्ति से
दुख कम होता
जाएगा।
और, एक और अनूठी घटना घटती है कि जैसे—जैसे दुख कम होता जाएगा, वैसे—वैसे तुम्हें लगेगा
कि सब दुख भी समाप्त हो जाए और आनंद न मिले तो सार क्या है? एक आदमी है जिसे न कोई
बीमारी है, न कोई कष्ट है, न कोई आर्थिक परेशानी है, सब सुख—सुविधा है—मकान है, कार है,
प्रतिष्ठा है—अब और क्या चाहिए? सब आवश्यकताएं पूरी हो गईं, अब और क्या चाहिए? लेकिन
वह आदमी भी कहता है कुछ खाली—खाली है, कुछ लगता है खो रहा है, कुछ मिला नहीं!
और, एक और अनूठी घटना घटती है कि जैसे—जैसे दुख कम होता जाएगा, वैसे—वैसे तुम्हें लगेगा
कि सब दुख भी समाप्त हो जाए और आनंद न मिले तो सार क्या है? एक आदमी है जिसे न कोई
बीमारी है, न कोई कष्ट है, न कोई आर्थिक परेशानी है, सब सुख—सुविधा है—मकान है, कार है,
प्रतिष्ठा है—अब और क्या चाहिए? सब आवश्यकताएं पूरी हो गईं, अब और क्या चाहिए? लेकिन
वह आदमी भी कहता है कुछ खाली—खाली है, कुछ लगता है खो रहा है, कुछ मिला नहीं!
जब
तक तुम
प्रयोजन—शून्य
से संबंध न
बांधो, जब तक
तुम आवश्यकता
के ऊपर उठकर न
देखो, जब
तक तुम्हारे
जीवन में कुछ
ऐसा न घटे
जिसकी कोई
आवश्यकता
नहीं थी—तब तक
आनंद न घटेगा।
आवश्यकता के मिटने
से, पूरे
होने से दुख
नहीं होता, सुविधा हो
जाती है; आनंद
भी नहीं होता।
आनंद तो घटता
है तब जब तुम आवश्यकता
के पार उठते
हो—अर्थ
—शून्य में, फूलों में, संगीत में, काव्य में।
कोई जरूरत
नहीं है।
वैजनर हो या न
हो, शेक्सपियर
हो या न हो, रवींद्रनाथ
हों या न
हों—क्या सार
है? खाओगे
कविताओं को, पीयोगे, ओढोगे?
लेकिन यह तो
मैं इसलिए नाम
ले रहा हूं कि
तुम्हें समझ
में आ जाएं।
इनमें भी
थोड़ा—बहुत
अर्थ हो सकता
है। परमात्मा
में उतना भी
अर्थ नहीं है।
आत्मज्ञान तो
बिलकुल ही
निरर्थक है।
उसका होने का
रस तो है, अर्थ
बिलकुल नहीं।
उसे तुम 'कमोडिटी',
बाजार में
बिकने वाली
वस्तु न बना
सकोगे।
जिस
दिन कोई
व्यक्ति इस
सत्य को समझने
में समर्थ हो
जाता है कि जब
तक मैं
आवश्यकता की
पूर्ति खोजता
रहूंगा, तब तक
मैं एक वर्तुल
में घूमूंगा।
रोज भूख लगेगी,
रोज खाना
कमा लूंगा,
रोज खाना खा
लूंगा, फिर
भूख मिट जाएगी,
कल फिर भूख
लगेगी। फिर
भोजन, फिर
भूख, फिर
भोजन। भोजन से
कुछ सुख न
मिलेगा; सिर्फ
भूख से जो दुख
मिलता था, वह
न होगा।
सांसारिक
आदमी की
परिभाषा यही
है—जो केवल
सुविधा खोज
रहा है, असुविधा
न हो।
आध्यात्मिक आदमी का अर्थ यही है कि जो इस सत्य को समझ गया कि सुविधा सब भी मिल जाए
तो जीवन में फूल नहीं खिलते, न सुगंध उठती, न गीत बजते। नहीं, जीवन की वीणा खाली ही पड़ी
रह जाती है।
आध्यात्मिक आदमी का अर्थ यही है कि जो इस सत्य को समझ गया कि सुविधा सब भी मिल जाए
तो जीवन में फूल नहीं खिलते, न सुगंध उठती, न गीत बजते। नहीं, जीवन की वीणा खाली ही पड़ी
रह जाती है।
इसलिए
मैं धर्म को
आभिजात्य
कहता हूं।
आभिजात्य का
अर्थ है. इसका
कोई प्रयोजन
नहीं है। यह
प्रयोजन—हीन, प्रयोजन—शून्य
या कहो
प्रयोजन—
अतीत। और तुम्हारे
जीवन में जब
भी कभी कोई
प्रयोजन— अतीत
उतरता है, वहीं
थोड़ी—सी झलक
आनंद की मिलती
है; जैसे
प्रेम में।
प्रेम का क्या
अर्थ है, क्या
सार है? खाओगे?
पीयोगे? ओढोगे? क्या करोगे
प्रेम का न
अगर कोई तुमसे
पूछने लगे कि
क्या पागल हो
रहे हो, प्रेम
से फायदा क्या
है?
बैंक—बैलेंस
तो बढ़ेगा
नहीं। मकान
बड़ा बनेगा नहीं।
प्रेम से
फायदा क्या है? क्यों समय
गंवाते हो?
इसलिए
तो
राजनीतिज्ञ
प्रेम—व्रेम
के चक्कर में
नहीं पड़ता; वह
सारी शक्ति पद
पर लगाता, प्रेम
पर नहीं। धन
का दीवाना, धन का
आकांक्षी, सारी
शक्ति धन को
कमाने में
लगाता है।
प्रेम, वह
कहता है, अभी
नहीं! अभी
फुर्सत कहां?
फिर
प्रेम का
प्रयोजन भी
कुछ नहीं
दिखाई देता—स्व
तरह का पागलपन
मालूम होता
है।
तुम
व्यावहारिक
लोगों से पूछो, वे
कहेंगे, प्रेम
यानी पागलपन।
लेकिन प्रेम
में थोड़ी—सी झलक
मिलती है उसकी, जो प्रयोजन—हीन है, जिसका कोई अर्थ नहीं; फिर भी परम रसमय है, फिर भी परम विभामय है; फिर भी सच्चिदानंद है।
मिलती है उसकी, जो प्रयोजन—हीन है, जिसका कोई अर्थ नहीं; फिर भी परम रसमय है, फिर भी परम विभामय है; फिर भी सच्चिदानंद है।
कोई
आदमी बैठकर
अपनी सितार
बजा रहा है।
तुम उससे पूछो
कि 'क्या मिलेगा
इससे?' वह
उत्तर न दे पाएगा। 'क्या सार है इस तार को ठोकने, खींचने, पीटने से? बंद करो। कुछ काम करो
कुछ काम की बात करो। कुछ उपजाओ, कुछ पैदा करो! फैक्टरी बनाओ, खेत में जाओ! ये तार छेड़ने
से क्या सार है?' लेकिन जिसको तार छेड़ने में रस आ गया, वह कभी—कभी भूखा भी रह जाना पसंद
करता है और तार नहीं छोड़ता।
उत्तर न दे पाएगा। 'क्या सार है इस तार को ठोकने, खींचने, पीटने से? बंद करो। कुछ काम करो
कुछ काम की बात करो। कुछ उपजाओ, कुछ पैदा करो! फैक्टरी बनाओ, खेत में जाओ! ये तार छेड़ने
से क्या सार है?' लेकिन जिसको तार छेड़ने में रस आ गया, वह कभी—कभी भूखा भी रह जाना पसंद
करता है और तार नहीं छोड़ता।
विन्सेंट
वानगॉग भूखा—
भूखा मरा।
उसके पास इतने
ही पैसे थे...
उसका भाई उसे
इतने ही पैसे
देता था कि
सात दिन की
रोटी खरीद
सकता था। तो
वह तीन दिन
खाना खाता, चार
दिन भूखा
रहता। और जो
पैसे बचते, उनसे खरीदता
रंग, कैनवस,
और चित्र
बनाता। चित्र
उसके एक भी
बिकते नहीं।
क्योंकि उसने
जो चित्र बनाए,
वे कम—से—कम
अपने समय के
सौ साल पहले
थे। दुनिया की
सारी प्रतिभा
समय के पहले
होती है।
वस्तुत:
प्रतिभा का
अर्थ ही यही
है, जो समय
के पहले हो।
कोई
खरीददार न था उन चित्रों का। अब तो उसका एक—एक चित्र लाखों में बिकता है, दस—दस लाख
खरीददार न था उन चित्रों का। अब तो उसका एक—एक चित्र लाखों में बिकता है, दस—दस लाख
रुपये
में एक—एक
चित्र बिकता
है। तब कोई दस
पैसे में भी
खरीदने को
तैयार न था।
वह भूखा ही जीया, भूखा
ही मरा। घर के
लोग हैरान थे
कि तू पागल है!
आदमी
की भूख पहली
जरूरत है, लेकिन
कुछ मिल रहा
होगा वानगॉग
को, जो
किसी को दिखाई
नहीं पड़ रहा
था। कोई रसधार
बह रही होगी!
नहीं तो क्यों,
क्या
प्रयोजन? न
प्रतिष्ठा
मिल रही है, न नाम मिल
रहा है, न
धन मिल रहा है;
भूख मिल रही,
पीड़ा मिल
रही, दरिद्रता
मिल रही—लेकिन
वह है कि अपने
चित्र बनाए जा
रहा है। जब वह
चित्र बनाने
लगता तो न भूख
रह जाती, न
देह रह
जाती—वह देहातीत
हो जाता। जब
उसके सारे
चित्र बन गए, जो उसे
बनाने थे, तो
उसने
आत्महत्या कर
ली। और वह जो
पत्र लिखकर
छोड़ गया, उसमें
लिख गया कि अब
जीने में कुछ
अर्थ नहीं रहा।
अब
यह बड़े मजे की
बात है। वह
लिख गया कि जो
मुझे बनाना था, बना
लिया; जो
मुझे
गुनगुनाना था, गुनगुना लिया, जो मुझे रंगों में ढालना था, ढाल दिया; जो मुझे कहनी थी बात, कह
दी; जो मेरे भीतर छिपा था, वह प्रगट हो गया; अब कुछ अर्थ नहीं है रहने का।
गुनगुनाना था, गुनगुना लिया, जो मुझे रंगों में ढालना था, ढाल दिया; जो मुझे कहनी थी बात, कह
दी; जो मेरे भीतर छिपा था, वह प्रगट हो गया; अब कुछ अर्थ नहीं है रहने का।
वह
जो अर्थहीन
चित्र बना रहा
था,
वही उसका
अर्थ था; जब
उसका काम चुक
गया, वह
विदा
हो गया। जीवन में जैसे कोई और अर्थ था नहीं!
हो गया। जीवन में जैसे कोई और अर्थ था नहीं!
क्या
फायदा रोटी
रोज खा लो, फिर
भूख लगा लो; फिर रोटी
रोज खा लो, फिर
भूख लगा लो?
हर रोटी नई भूख ले आती है, हर भूख नई रोटी की मांग ले आती है। यह तो एक वर्तुल हुआ, जिसमें
हम घूमते चले जाते हैं। इससे सार क्या है, तुमने कभी सोचा?
हर रोटी नई भूख ले आती है, हर भूख नई रोटी की मांग ले आती है। यह तो एक वर्तुल हुआ, जिसमें
हम घूमते चले जाते हैं। इससे सार क्या है, तुमने कभी सोचा?
एक
आदमी अगर
अस्सी साल जीए
तो अस्सी साल
में उसने किया
क्या? जिसको
तुम
अर्थपूर्ण
प्रक्रियाएं
कहते हो—रोटी,
रोजी, मकान—उसने
किया क्या? जरा तुम गौर
करो। न मालूम
कितने हजारों
मन भोजन उसने
मल—मूत्र बना
दिया। इतना ही
काम किया। जरा
सोचो, अस्सी
साल में उसने
कितने
मल—मूत्र के
ढेर, अगर
वह लगाता ही
चला जाता तो
कितने ढेर लग
जाते, पहाड़
खड़े कर देता।
बस इतना ही
उसका काम है।
पीछे तुम
मल—मूत्र का
एक पहाड़ छोड़
कर विदा हो
जाओगे। इसको
तुम अर्थ कहते
हो? लेकिन
यही अर्थ जैसा
मालूम पड़ता
है। इसका ही अर्थशास्त्र
है।
मैं
इसीलिए
परमात्मा को
अर्थ नहीं
कहता, क्योंकि
अर्थ देने से
ही तो वह
अर्थशास्त्र
का हिस्सा हो
जाएगा। मैं
उसे कहता हूं 'अर्थातीत'। वह कोई
आवश्यकता
नहीं है। और
जब तक तुम
आवश्यकताओं में उलझे हो, तब तक तुम उस तरफ आंख न उठा सकोगे। इसलिए मैं कहता हूं जब
कोई समाज बहुत समृद्ध होता है, तभी धर्म में गति होती है, अन्यथा नहीं होती।
आवश्यकताओं में उलझे हो, तब तक तुम उस तरफ आंख न उठा सकोगे। इसलिए मैं कहता हूं जब
कोई समाज बहुत समृद्ध होता है, तभी धर्म में गति होती है, अन्यथा नहीं होती।
यह
मेरी बात बड़ी
मुश्किल में
डालती है
लोगों को।
क्योंकि लोग
पूछने लगते
हैं. 'तो फिर क्या
गरीब धार्मिक नहीं हो सकता?' मैं यह नहीं कहता। गरीब भी धार्मिक हो सकता है, लेकिन गरीब
समाज कभी धार्मिक समाज नहीं हो सकता। व्यक्तिगत रूप से गरीब भी इतना प्रतिभावान हो सकता
है कि धार्मिक हो जाए, जीवन की व्यर्थता को समझ ले; जिसको हम अर्थ कहते हैं, उसकी व्यर्थता
समझ ले। तो फिर जो अर्थोतीत है, वही अर्थ हो जाता है। लेकिन वह बड़ी रूपांतरण की, बड़ी क्रांति
की बात है। लेकिन समृद्ध समाज निश्चित रूप से धार्मिक हो जाता है।
गरीब धार्मिक नहीं हो सकता?' मैं यह नहीं कहता। गरीब भी धार्मिक हो सकता है, लेकिन गरीब
समाज कभी धार्मिक समाज नहीं हो सकता। व्यक्तिगत रूप से गरीब भी इतना प्रतिभावान हो सकता
है कि धार्मिक हो जाए, जीवन की व्यर्थता को समझ ले; जिसको हम अर्थ कहते हैं, उसकी व्यर्थता
समझ ले। तो फिर जो अर्थोतीत है, वही अर्थ हो जाता है। लेकिन वह बड़ी रूपांतरण की, बड़ी क्रांति
की बात है। लेकिन समृद्ध समाज निश्चित रूप से धार्मिक हो जाता है।
मेरे
देखे तो वही
समृद्ध समाज
है जो धार्मिक
हो जाए। भारत
जब अपने
स्वर्ण —शिखर
पर था, जब
जरूरतें पूरी
थीं, खलिहान
भरे थे, खेतो
में
फसलें थीं, लोग भूखे न
थे, पीड़ित
न थे, परेशान
न थे, तब
धर्म ने ऊंचे
शिखर छुए, तब
भगवदगीता
उतरी, तब
अष्टावक्र की
महागीता उतरी,
तब
उपनिषद गंजे, तब बुद्ध और महावीरों ने इस देश को जगाया। वह स्वर्ण—शिखर था।
उपनिषद गंजे, तब बुद्ध और महावीरों ने इस देश को जगाया। वह स्वर्ण—शिखर था।
अब
वैसा स्वर्ण
—शिखर पश्चिम
जा चुका है।
अब अगर धर्म
की कोई भी
संभावना है तो
पश्चिम में है, पूरब
में नहीं है।
पूरब के साथ
धर्म का अतीत
है, पश्चिम
के साथ धर्म
का भविष्य है।
तुमने अपने
हाथ गंवाया।
तुमने यह
सोचकर गंवाया
कि क्या रखा
है धन में, संपदा
में! कुछ भी
नहीं रखा है, यह भी सच है।
लेकिन जब
धन—संपदा होती
है तभी पता
चलता है कि
कुछ भी नहीं
रखा है। इतनी
सार्थकता
उसमें है—यह
दिखाने की। और
जब तुम्हारे
जीवन में सब
होता है और
तुम पाते हो
कुछ भी नहीं
हुआ, तो
पहली दफा एक
हूक उठती है
कि अब खोजें
उसे, जो
आवश्यकता
नहीं है।
और
अनिवार्य तो
बिलकुल ही
नहीं है
परमात्मा। अनिवार्य
का तो अर्थ यह
होता कि तुम
चाहे
करो चाहे न करो, हो कर रहेगा। अनिवार्य मौत है, समाधि नहीं। अनिवार्य तो मृत्यु है, ध्यान नहीं।
अनिवार्य बुढ़ापा है, धर्म नहीं। अनिवार्य इतना ही है कि यह जो क्षणभंगुर है, बह जाएगा। शाश्वत
आएगा कि नहीं, यह अनिवार्य नहीं है। शाश्वत तो तुम खोजोगे तो आएगा। खोजोगे, भटकोगे,
बार—बार पा लोगे और खो जाएगा, बड़ी मुश्किल से आएगा। अनिवार्य तो कतई नहीं है। अनिवार्य
का तो यह मतलब है कि तुम बैठे रहो, कुछ न करो, होने वाला है, होकर रहेगा। मौत जैसा होगा
परमात्मा फिर, जैसे सभी आदमी मरते हैं, ऐसे सभी आदमी आत्मज्ञान को उपलब्ध हो जाएंगे। नहीं,
न तो अनिवार्य है और न आवश्यकता है। आत्मज्ञान खोजने से होगा, गहन साधना से होगा, बड़ी
त्वरा से होगा, दाव पर लगाओगे अपने को, तो होगा। आत्मज्ञान भाग्य नहीं है कि हो जाएगा, लिखा
है विधि में। विधि में जो लिखा है, वह तो क्षुद्र है, वह होता रहेगा।
करो चाहे न करो, हो कर रहेगा। अनिवार्य मौत है, समाधि नहीं। अनिवार्य तो मृत्यु है, ध्यान नहीं।
अनिवार्य बुढ़ापा है, धर्म नहीं। अनिवार्य इतना ही है कि यह जो क्षणभंगुर है, बह जाएगा। शाश्वत
आएगा कि नहीं, यह अनिवार्य नहीं है। शाश्वत तो तुम खोजोगे तो आएगा। खोजोगे, भटकोगे,
बार—बार पा लोगे और खो जाएगा, बड़ी मुश्किल से आएगा। अनिवार्य तो कतई नहीं है। अनिवार्य
का तो यह मतलब है कि तुम बैठे रहो, कुछ न करो, होने वाला है, होकर रहेगा। मौत जैसा होगा
परमात्मा फिर, जैसे सभी आदमी मरते हैं, ऐसे सभी आदमी आत्मज्ञान को उपलब्ध हो जाएंगे। नहीं,
न तो अनिवार्य है और न आवश्यकता है। आत्मज्ञान खोजने से होगा, गहन साधना से होगा, बड़ी
त्वरा से होगा, दाव पर लगाओगे अपने को, तो होगा। आत्मज्ञान भाग्य नहीं है कि हो जाएगा, लिखा
है विधि में। विधि में जो लिखा है, वह तो क्षुद्र है, वह होता रहेगा।
चौदह
साल के हो
जाओगे तो
कामवासना
पैदा होगी। अस्सी
साल के हो
जाओगे तो मौत
आ
जाएगी। पचास के पार होने लगोगे तो बुढ़ापा आ जाएगा। कामवासना अनिवार्य है; चौदह साल के
हुए कि हर बच्चे में हो जाती है। अगर किसी बच्चे में न हो तो कुछ गड़बड़ है, तो चिकित्सा की जरूरत
है। होनी ही चाहिए; अनिवार्य है; प्राकृतिक है। लेकिन अध्यात्म अनिवार्य नहीं है और न प्राकृतिक
है। हो जाए तो चमत्कार है। जब हो जाए किसी को तो आश्चर्य है : जो नहीं घटना चाहिए, वह घटा।
इसलिए तो हम सदियों तक याद रखते हैं बुद्ध को, कि जो नहीं घटना था वह घटा, जिसकी कोई
अपेक्षा न थी, वह घटा; जिसकी कोई संभावना न थी, वह घटा। हजारों साल बीत जाते हैं, बुद्धों को
हम नहीं भूल पाते। उनकी याद हमें सताती है। कोई तार हमारे हृदय में बजता रहता है। असंभव भी
हुआ है।
जाएगी। पचास के पार होने लगोगे तो बुढ़ापा आ जाएगा। कामवासना अनिवार्य है; चौदह साल के
हुए कि हर बच्चे में हो जाती है। अगर किसी बच्चे में न हो तो कुछ गड़बड़ है, तो चिकित्सा की जरूरत
है। होनी ही चाहिए; अनिवार्य है; प्राकृतिक है। लेकिन अध्यात्म अनिवार्य नहीं है और न प्राकृतिक
है। हो जाए तो चमत्कार है। जब हो जाए किसी को तो आश्चर्य है : जो नहीं घटना चाहिए, वह घटा।
इसलिए तो हम सदियों तक याद रखते हैं बुद्ध को, कि जो नहीं घटना था वह घटा, जिसकी कोई
अपेक्षा न थी, वह घटा; जिसकी कोई संभावना न थी, वह घटा। हजारों साल बीत जाते हैं, बुद्धों को
हम नहीं भूल पाते। उनकी याद हमें सताती है। कोई तार हमारे हृदय में बजता रहता है। असंभव भी
हुआ है।
इस
पृथ्वी पर
सबसे ज्यादा
असंभव घटना
आत्मज्ञान
है। जब मैं
कहता हूं
असंभव, तो
मैं यह
नहीं कह रहा हूं कि नहीं घटने वाली, घटती है, घट सकती है, लेकिन अनिवार्यता नहीं है। ऐसा नहीं
है कि तुम कुछ न करोगे और अपने से घट जाएगी। प्राकृतिक नहीं है, अति—प्राकृतिक है।
नहीं कह रहा हूं कि नहीं घटने वाली, घटती है, घट सकती है, लेकिन अनिवार्यता नहीं है। ऐसा नहीं
है कि तुम कुछ न करोगे और अपने से घट जाएगी। प्राकृतिक नहीं है, अति—प्राकृतिक है।
पूछा
है कि 'क्या
आपके जाने
आत्मज्ञान
मनुष्य—जीवन
की एक अनिवार्य
आवश्यकता है?'
दोनों बात नहीं है। अनिवार्य हो तो फिर तुम्हें कुछ करने की जरूरत न रही। तुम्हें बहुत कुछ करना
पड़ेगा, तब भी घट जाए तो चमत्कार है। तब भी पक्का नहीं है, आश्वासन नहीं है कि घट ही जाएगी,
कोई गारंटी नहीं है। बड़ी अभूतपूर्व घटना है उतार कर लाना है सीमा में असीम को, उतार कर लाना
दोनों बात नहीं है। अनिवार्य हो तो फिर तुम्हें कुछ करने की जरूरत न रही। तुम्हें बहुत कुछ करना
पड़ेगा, तब भी घट जाए तो चमत्कार है। तब भी पक्का नहीं है, आश्वासन नहीं है कि घट ही जाएगी,
कोई गारंटी नहीं है। बड़ी अभूतपूर्व घटना है उतार कर लाना है सीमा में असीम को, उतार कर लाना
है
देह में
परमात्मा को; उतार
कर लाना है
शून्य को मन
में, महाशून्य
के लिए जगह
बनानी है।
अनिवार्य तो
बिलकुल नहीं है।
अनिवार्य तो
वही है जो हो
गया है। वासना
हो गई है, घर
बस गया है, धन
की दौड़ चल रही
है, पद की
दौड़ चल रही
है। राजनीति
अनिवार्य है,
धर्म
अनिवार्य
नहीं है।
इसलिए
तो हमने इस
देश में
धार्मिक
व्यक्ति को समादर
दिया। हमने
सम्राटों को
आदर नहीं दिया,
क्योंकि
इसमें क्या है
पर सभी सम्राट
होना चाहते
हैं। नहीं हो
पाते, यह
दूसरी बात है;
लेकिन सभी
होना चाहते
हैं, सभी
की आकांक्षा
है। यह होना
कुछ विशेष
नहीं। यह बड़ी
साधारण बात
है। पद पर हो
जाना कुछ विशेष
बात नहीं।
एक
गांव में
बुद्ध का आगमन
हुआ था। तो उस
गाव के वजीर
ने अपने राजा को
कहा कि बुद्ध
आते हैं, हम
स्वागत के लिए
गाव के बाहर
चलें। राजा
अकड़ीला था।
उसने कहा, 'जाने
की हमें क्या
जरूरत है? और
बुद्ध हैं
क्या? भिखारी
ही हैं। आ
जाएंगे अपने —
आप! हमारे
जाने न जाने
की क्या जरूरत
है?
वह
बूढ़ा वजीर तो
यह सुन कर
रोने लगा।
उसने अपना इस्तीफा
लिख दिया।
उसने कहा, 'यह
मेरा इस्तीफा
ले लें, यह
त्यागपत्र!
मुझे क्षमा
करें, मैं
चला! अब
तुम्हारी
छाया में भी
बैठना उचित नहीं।
उस
राजा ने कहा, 'मामला
क्या है? इसमें
इतने नाराज
होने की बात
क्या है? मैंने
कुछ बुरी बात
तो कही नहीं।
मैं सम्राट
हूं, वे
भिखारी हैं।
उनके लिए मुझे
लेने जाने की
जरूरत क्या है?'
उस
वजीर ने कहा, 'बस
बात खत्म हो
गई। अब मैं
तुम्हारे पास
न बैठ सकूंगा।
तुम अपने लिए
वजीर खोज लो।
क्योंकि ऐसे
आदमी के पास
क्या बैठना, जिसे इतनी
भी समझ न हो कि
राजनीति तो
साधारण है, राजा होना
तो साधारण है।
लेकिन यह
बुद्ध का भिखारी
हो जाना
असाधारण है, अपूर्व है, अद्वितीय
है। यहां कुछ
घटा है। जाओ, उनके चरणों
में गिरो! यह
सौभाग्य
तुम्हारा कि वे
इस गांव में
आते हैं। और
मैं तो चला!
तुम्हारे पास
बैठना कुसंग
है। '
यह
ठीक कह रहा है
वजीर। इस बूढ़े
के पास आंखें
हैं। इसके पास
कुछ समझ है, कुछ
परख है।
धन
का हमने समादर
नहीं किया है।
हमने समादर कुछ
और ही बात का
किया है—बोध
का,
संन्यास का, त्याग का। उन्होंने जिन्होंने छोड़ा, उन्होंने जिन्होंने ऊपर आंखें उठाई और आकाश की
तरफ देखा, उनका हमने सम्मान किया है।
संन्यास का, त्याग का। उन्होंने जिन्होंने छोड़ा, उन्होंने जिन्होंने ऊपर आंखें उठाई और आकाश की
तरफ देखा, उनका हमने सम्मान किया है।
पश्चिम
में इतिहास
लिखा गया, पूरब
में इतिहास
नहीं लिखा गया,
हमने पुराण
लिखे। पश्चिम
के विचारक बड़े
हैरान होते
हैं कि भारत
में इतिहास
क्यों नहीं
लिखा गया! वे
समझते हैं, पुराण तो
कथा, कल्पना!
लेकिन
हमने इतिहास
जान कर नहीं
लिखा, क्योंकि
इतिहास तो
होता है
साधारण
घटनाओं का;
पुराण होता है
असाधारण
घटनाओं का।
इसलिए तो कल्पना
जैसा मालूम
होता है पुराण,
क्योंकि उस
पर भरोसा नहीं
आता कि यह घटा
भी होगा।
पुराण का अर्थ
होता है जो
कभी—कभी घटता
है। इतिहास का
अर्थ होता है
जो रोज घटता
है, जो
पुनरुक्ति
है। नेपोलियन
हो, कि
नादिरशाह हो,
कि
तैमूरलंग हो,
कि चंगेज हो,
कि हिटलर हो,
कि स्टेलिन
हो, कि माओ
हो—यह रोज की
घटना है; इससे
इतिहास बनता है। ये तो अखबार की कतरनें हैं, जिनसे इतिहास बनता है।
इतिहास बनता है। ये तो अखबार की कतरनें हैं, जिनसे इतिहास बनता है।
बुद्ध
का घटना
अनहोना है।
नहीं घटना था
और घटा। जैसे
अचानक आधी रात
में सूरज ज्या
आए, कि
अंधेरे में
किरण उतर आए
और हम पकड़ भी न
पाएं और खो
जाए, और
हमारे हाथ भी
न लगे और खो
जाए। हम ठगे
और अवाक रह
जाएं, आए
और चली जाए।
गंजे एक गीत, हम ठीक
से सुन भी न पाएं, क्योंकि हम अपने शोरगुल से भरे हैं, और गीत विदा हो जाए। एक स्मृति भर रह जाए, और हमें खुद ही शक होने लगे कि यह गीत सुना था? ऐसा आदमी देखा था? हमें खुद ही भरोसा न आए। हम खुद संदेह में पड़ने लगें। जैसे—जैसे स्मृति फीकी होने लगे और दूर होने लगे,
वैसे —वैसे हमीं को भरोसा न आए. ऐसा हुआ था?
से सुन भी न पाएं, क्योंकि हम अपने शोरगुल से भरे हैं, और गीत विदा हो जाए। एक स्मृति भर रह जाए, और हमें खुद ही शक होने लगे कि यह गीत सुना था? ऐसा आदमी देखा था? हमें खुद ही भरोसा न आए। हम खुद संदेह में पड़ने लगें। जैसे—जैसे स्मृति फीकी होने लगे और दूर होने लगे,
वैसे —वैसे हमीं को भरोसा न आए. ऐसा हुआ था?
पुराण
का अर्थ होता
है. जो कभी—कभी
होता है, हजारों
साल में
कभी—कभी होता
है। वैसी
अद्वितीय घटनाओं के संग्रह का नाम पुराण है। पुराण पर भरोसा आता ही नहीं। इतिहास तो रही है, इतिहास तो कूड़ा—कर्कट है, कचरे का ढेर है, जो रोज होता है।
अद्वितीय घटनाओं के संग्रह का नाम पुराण है। पुराण पर भरोसा आता ही नहीं। इतिहास तो रही है, इतिहास तो कूड़ा—कर्कट है, कचरे का ढेर है, जो रोज होता है।
पुराने
दिनों में लोग
सुबह उठ कर
गीता पढ़ते थे
या धम्मपद
पढ़ते थे या
कुरान पढ़ते थे, अब
उठ कर अखबार
पढ़ते हैं। जो
रोज होता है.।
तुमने
अखबार में कभी
खयाल किया, तुम
जो पढ़ते हो वह
रोज होता है!
फिर भी तुम
रोज उसी को
पढ़ते हो।
तुमने अखबार
में कुछ नया
होते देखा? किसी ने कभी
अखबार में नया
होते देखा?
अखबार से ज्यादा पुरानी चीज तुमने देखी? कहते हो, नया अखबार है! दो दिन का पुराना हो जाए
तो फिर तुम नहीं पढ़ते।
अखबार से ज्यादा पुरानी चीज तुमने देखी? कहते हो, नया अखबार है! दो दिन का पुराना हो जाए
तो फिर तुम नहीं पढ़ते।
मैं
एक जगह रहता
था,
तो मेरे पास
एक पागल आदमी
रहता था। उसको
अखबारों का
बड़ा
शौक था। वह सब मोहल्ले के अखबार इकट्ठे कर लेता। शायद अखबारों के कारण पागल हो गया
हो, कुछ पता नहीं। लेकिन जब मैं गया वह पागल ही था। वह मुझसे भी आकर जो भी अखबार
वगैरह होते, सब उठा कर ले जाता। कभी मैंने कहा उसको कि तू सात—सात आठ—आठ दिन पुराने
अखबार उठा कर ले जाता है, इनका तू करेगा क्या? वह बोला, अखबार क्या पुराने, क्या नए! अरे
जब पढ़ो—तभी नए! जब हमने पढे ही नहीं, तो हमारे लिए तो नए।
शौक था। वह सब मोहल्ले के अखबार इकट्ठे कर लेता। शायद अखबारों के कारण पागल हो गया
हो, कुछ पता नहीं। लेकिन जब मैं गया वह पागल ही था। वह मुझसे भी आकर जो भी अखबार
वगैरह होते, सब उठा कर ले जाता। कभी मैंने कहा उसको कि तू सात—सात आठ—आठ दिन पुराने
अखबार उठा कर ले जाता है, इनका तू करेगा क्या? वह बोला, अखबार क्या पुराने, क्या नए! अरे
जब पढ़ो—तभी नए! जब हमने पढे ही नहीं, तो हमारे लिए तो नए।
उस
पागल आदमी ने
बड़ी
बुद्धिमानी
की बात कही। कहा
कि क्या नए और
क्या पुराने!
तुम
अखबार पढ़ते हो, तुमने
कभी इस पर
खयाल किया कि
यही तुम
रोज—रोज पढ़ते
हो। कुछ नया
घटता है कभी? नया तो
कुरान में घटा
है, धम्मपद
में घटा है, अष्टावक्र
में घटा है।
पुराने लोग
ज्यादा
होशियार थे।
वे वही पढ़ते
थे जो अघट है, अनिर्वचनीय
है, पकड़
में नहीं आता।
नहीं होना
था, फिर भी हो जाता है। वे दुर्लभ फूल खोजते थे, तुम कूड़ा—कर्कट खोजते हो। दुर्लभ फूलों की खोज
में वे भी धीरे— धीरे दुर्लभ हो जाते थे। अघट की खोज में धीरे — धीरे अघट की घटने की संभावना उनके भीतर भी बन जाती थी।
था, फिर भी हो जाता है। वे दुर्लभ फूल खोजते थे, तुम कूड़ा—कर्कट खोजते हो। दुर्लभ फूलों की खोज
में वे भी धीरे— धीरे दुर्लभ हो जाते थे। अघट की खोज में धीरे — धीरे अघट की घटने की संभावना उनके भीतर भी बन जाती थी।
इसलिए
मैं तुमसे
कहना चाहता
हूं : न तो
अनिवार्य और न
आवश्यक। धर्म
इस जगत में
सबसे गैर— अनिवार्य
बात है और
सबसे
अनावश्यक।
इसलिए तो रूस है, बीस
करोड़ लोग बिना
धर्म के जी
रहे हैं, कौन—सी
अड़चन है? सच
तो यह है, बहुत
मजे से जी रहे हैं।
चिंता—फिक्र
मिटी। सब
सुख—सुविधा से जी रहे हैं। शायर्द कुछ थोड़े —से लोगों को अड़चन है, मगर सौ में निन्यानबे आदमियों
को कोई अड़चन नहीं है। कोई एकाध है सौ में, कोई सोल्वेनित्सिन या कोई और, कोई एकाध है
जिसको अड़चन है। मगर उस एकाध की क्या गणना? लोकतंत्र तो भीड़ के लिए जीता है। निन्यानबे
सुख—सुविधा से जी रहे हैं। शायर्द कुछ थोड़े —से लोगों को अड़चन है, मगर सौ में निन्यानबे आदमियों
को कोई अड़चन नहीं है। कोई एकाध है सौ में, कोई सोल्वेनित्सिन या कोई और, कोई एकाध है
जिसको अड़चन है। मगर उस एकाध की क्या गणना? लोकतंत्र तो भीड़ के लिए जीता है। निन्यानबे
को
तो कोई मतलब
नहीं है।
उन्हें शराब
मिल जाए, सुंदर
पत्नी मिल जाए,
मकान मिल
जाए, कार
मिल जाए, खाने
—पीने की जगह
मिल
जाए—पर्याप्त
है। तुम कितने
क्षुद्र से
राजी हो जाते
हो! तुम ना—कुछ
से राजी हो
जाते हो।
तुम्हारी
दीनता तो
देखो! अष्टावक्र
कहते हैं, यह
तुम्हारा
मालिन्य तो
देखो! कैसे
मलिन हो तुम, कितने
क्षुद्र से
राजी हो जाते
हो!
दुनिया
में धर्म अगर
बिलकुल विदा
हो जाए तो बहुत
थोड़े लोगों को
अड़चन होगी।
कोई गौतम
बुद्ध पैदा होगा तो उसे अड़चन होगी। लेकिन बाकी को तो कोई अड़चन न होगी। अपूर्व है धर्म।
कभी—कभी खिलने वाला फूल है, रोज नहीं खिलता। कभी—कभी खिलने वाला फूल है!
बुद्ध पैदा होगा तो उसे अड़चन होगी। लेकिन बाकी को तो कोई अड़चन न होगी। अपूर्व है धर्म।
कभी—कभी खिलने वाला फूल है, रोज नहीं खिलता। कभी—कभी खिलने वाला फूल है!
मेरे
पास कुछ दिनों
तक एक माली
था। वह एक
पौधा ले आया।
वह मुझसे कहने
लगा,
इसके
पांच सौ रुपए देने हैं, जिससे खरीदा। मैंने कहा, 'पागल इस एक पौधे के पाच सौ रुपये, इसका इतना
मूल्य? मामला क्या है, इस पौधे की खूबी क्या है?'
पांच सौ रुपए देने हैं, जिससे खरीदा। मैंने कहा, 'पागल इस एक पौधे के पाच सौ रुपये, इसका इतना
मूल्य? मामला क्या है, इस पौधे की खूबी क्या है?'
उसने
कहा,
'इसमें फूल
खिलता है, लेकिन
वह बारह साल
में एक बार
खिलता है। '
तो
मैंने कहा, 'फिर
देने लायक है।
फिर तू पांच
सौ नहीं हजार
भी दे। तू ले
जा। क्योंकि
जब
बारह साल में फूल खिलता है तो अद्वितीय है। ऐसे मौसमी फूल हैं, दो सप्ताह चार सप्ताह में खिल
जाते हैं। बारह साल, तो थोड़ा धर्म जैसा फूल है। इसे तू जरूर लगा। इसे मेरे बगीचे में होना ही
चाहिए। हम प्रतीक्षा करेंगे इसकी, जब खिलेगा। '
बारह साल में फूल खिलता है तो अद्वितीय है। ऐसे मौसमी फूल हैं, दो सप्ताह चार सप्ताह में खिल
जाते हैं। बारह साल, तो थोड़ा धर्म जैसा फूल है। इसे तू जरूर लगा। इसे मेरे बगीचे में होना ही
चाहिए। हम प्रतीक्षा करेंगे इसकी, जब खिलेगा। '
और
जब फूल
खिला—वह रात
को ही
खिलता—पूर्णिमा
की रात को वह
खिला, तो सारा
पड़ोस,
दूर—दूर से लोग उसे देखने आने लगे। वह कभी—कभी खिलता, उसके दर्शन रोज—रोज नहीं होते।
बुद्ध—पुरुष कभी—कभी खिलते हैं। वह सहस्रार का कमल कभी—कभी खिलता है। उसकी
आकांक्षा मत करो जो रोज खिलता है, जो रोज मिलता है। उस क्षुद्र में कुछ भी नहीं है। उसकी आकांक्षा
करो जो अपूर्व है, अद्वितीय है, अनिर्वचनीय, पकड़ के बाहर है। उसे चाहो जो असंभव है। जिस दिन
तुमने असंभव को चाहा, उसी दिन तुम धार्मिक हुए। असंभव की वासना— धर्म की मेरी परिभाषा है।
तरतूलियन का बड़ा प्रसिद्ध वचन है, कि मैं ईश्वर में भरोसा करता हूं क्योंकि ईश्वर असंभव
है। असंभव है! इसलिए भरोसा करता हूं। संभव में क्या भरोसा करना! संभव में भरोसा करने के
लिए कोई बुद्धिमानी चाहिए, कोई बड़ी प्रतिभा चाहिए? संभव में भरोसा तो बुद्ध से बुद्ध को आ जाता
है। असंभव में भरोसे के लिए तुम्हारे भीतर श्रद्धा के पहाड़ उठें, गौरीशंकर निर्मित हो, तो असंभव
की श्रद्धा होती है। असंभव की चाह है धर्म। 'पैशनफॉर द इंपॉसिबल!'
दूर—दूर से लोग उसे देखने आने लगे। वह कभी—कभी खिलता, उसके दर्शन रोज—रोज नहीं होते।
बुद्ध—पुरुष कभी—कभी खिलते हैं। वह सहस्रार का कमल कभी—कभी खिलता है। उसकी
आकांक्षा मत करो जो रोज खिलता है, जो रोज मिलता है। उस क्षुद्र में कुछ भी नहीं है। उसकी आकांक्षा
करो जो अपूर्व है, अद्वितीय है, अनिर्वचनीय, पकड़ के बाहर है। उसे चाहो जो असंभव है। जिस दिन
तुमने असंभव को चाहा, उसी दिन तुम धार्मिक हुए। असंभव की वासना— धर्म की मेरी परिभाषा है।
तरतूलियन का बड़ा प्रसिद्ध वचन है, कि मैं ईश्वर में भरोसा करता हूं क्योंकि ईश्वर असंभव
है। असंभव है! इसलिए भरोसा करता हूं। संभव में क्या भरोसा करना! संभव में भरोसा करने के
लिए कोई बुद्धिमानी चाहिए, कोई बड़ी प्रतिभा चाहिए? संभव में भरोसा तो बुद्ध से बुद्ध को आ जाता
है। असंभव में भरोसे के लिए तुम्हारे भीतर श्रद्धा के पहाड़ उठें, गौरीशंकर निर्मित हो, तो असंभव
की श्रद्धा होती है। असंभव की चाह है धर्म। 'पैशनफॉर द इंपॉसिबल!'
और
तुमने पूछा है
कि '
धर्म, अध्यात्म
जैसे संबोधन
अनावश्यक रूप
से आत्मज्ञान
के साथ जोड़
दिए गए हैं?'
दिए गए हैं?'
नहीं, जरा
भी नहीं। वे
संबोधन बडे
सार्थक हैं।
धर्म का अर्थ
होता है.
स्वभाव। वह
बड़ा
सांकेतिक शब्द है। धर्म का अर्थ रिलिजन या मजहब नहीं होता। रिलिजन या मजहब को तो हम
संप्रदाय कहते हैं। धर्म का अर्थ तो बड़ा गहरा है। जिसके कारण इस्लाम, धर्म है; और जिसके कारण
ईसाइयत, धर्म है, और जिसके कारण जैन, धर्म है; और जिसके कारण हिंदू धर्म है; जिसके कारण
ये सारे धर्म, धर्म कहे जाते है—वह जो सबका सारभूत है, उसका नाम धर्म है। ये सब उस धर्म तक
पहुंचने के मार्ग हैं, इसलिए संप्रदाय हैं।
सांकेतिक शब्द है। धर्म का अर्थ रिलिजन या मजहब नहीं होता। रिलिजन या मजहब को तो हम
संप्रदाय कहते हैं। धर्म का अर्थ तो बड़ा गहरा है। जिसके कारण इस्लाम, धर्म है; और जिसके कारण
ईसाइयत, धर्म है, और जिसके कारण जैन, धर्म है; और जिसके कारण हिंदू धर्म है; जिसके कारण
ये सारे धर्म, धर्म कहे जाते है—वह जो सबका सारभूत है, उसका नाम धर्म है। ये सब उस धर्म तक
पहुंचने के मार्ग हैं, इसलिए संप्रदाय हैं।
ईसाइयत
एक संप्रदाय
हुई,
हिंदू एक
संप्रदाय है,
जैन एक
संप्रदाय है,
बौद्ध एक
संप्रदाय है,
इस्लाम एक
संप्रदाय है।
धर्म तो वह है
जहां तक ये
सभी संप्रदाय
पहुंचा देते
हैं। इसलिए
इस्लाम को धर्म
कहना उचित
नहीं, हिंदू
को धर्म कहना
उचित
नहीं—संप्रदाय!
'संप्रदाय'
शब्द अच्छा
है। इसका अर्थ
होता है मार्ग,
जिससे हम
पहुंचें। जिस
पर पहुंचें, वह धर्म है।
'धर्म' बड़ा
अनूठा शब्द
है। उसका गहरा
अर्थ होता है.
स्वभाव; हमारा
जो आत्यंतिक
स्वभाव है; हमारे भीतर
के आखिरी
केंद्र पर जो
छिपा है बीज
की तरह, उसका
प्रगट हो
जाना।
हम
परमात्मा को
बीज की तरह
लिए घूम रहे
हैं। हम
जन्मों
—जन्मों तक
घूमते रहे हैं
परमात्मा को
बीज की तरह
लिए। जब तक हम
उस बीज को
भूमि न देंगे
—ध्यान की—तब
तक धर्म का
वृक्ष खड़ा न
होगा। अगर
धर्म से परिचित
होना है तो
ध्यान में
गहरे उतरना
पड़े। क्योंकि
ध्यान भूमि
बनता है, और
धर्म का बीज
ध्यान की भूमि
में अंकुरित
होता है।
दुनिया
में धर्म नहीं
हैं। ही, कभी—कभी
धार्मिक
व्यक्ति होते
हैं। जो हैं, वे सब
संप्रदाय
हैं। तो धर्म
शब्द व्यर्थ
नहीं है। ऐसे
जबर्दस्ती आत्मज्ञान
के ऊपर नहीं
थोप दिया गया
है।
और
अध्यात्म भी
बड़ा बहुमूल्य
शब्द है। उसका
भी वही मतलब
होता है. वह, जो
तुम्हारी
निजता है।
समझने की
कोशिश करो।
तुम्हारे
पास दो तरह की
चीजें हैं। एक
तो जो तुम्हें
दूसरों ने दी
हैं,
जो
तुम्हारी
निजी नहीं हैं
जैसे भाषा। जब
तुम पैदा हुए
थे तो तुम कोई
भाषा ले कर न
आए थे। भाषा
तुम्हें दी
गई। मौन तुम
ले कर आए थे।
भाषा तुम्हें
दी गई। मौन
अध्यात्म है,
भाषा
सामाजिक है।
जो तुम ले कर
आए थे, जो
तुम्हारा है,
निजी है—वह
अध्यात्म है।
जो उधार है, बासा है, वह
अध्यात्म
नहीं है। जो
भी तुम्हें
दूसरों ने दे
दिया है, वह
अध्यात्म
नहीं है।
तुम्हारे
पास बहुत
ज्ञान हो सकता
है जो तुमने विश्वविद्यालय
से सीखा, शास्त्रों
से सीखा, गुरुओं
से सीखा—वह
अध्यात्म
नहीं है। जिस
दिन तुम्हारा
अंतश्चेतन
जागेगा, तुम्हारी
आंख खुलेगी, तुम्हारे
अपने शान का
प्रादुर्भाव
होगा—उसका नाम
अध्यात्म है।
अध्यात्म
का कोई
शास्त्र नहीं
होता और अध्यात्म
की कोई किताब
नहीं होती और
अध्यात्म को
उधार पाने का
कोई उपाय नहीं
है। अध्यात्म
कोई वस्तु
नहीं जो
हस्तांतरित
हो सके।
अध्यात्म है तुम्हारा
आत्यंतिक निज
रूप,
तुम्हारी
निजता। जिस
दिन तुम सब
उधार को छाटकर
अलग कर दोगे; कहते जाओगे
यह भी मैं
नहीं, यह
भी मैं नहीं, नेति, नेति;
तुम इंकार
करते जाओगे और
वैसी घड़ी
बचेगी जब तुम
इंकार न कर
सकोगे; जिसे
तुम्हें कहना
पड़ेगा, यही
मैं हूं—उस
दिन अध्यात्म!
तो साक्षी— भाव
ही अध्यात्म
है; बाकी
तो सब गैर—
अध्यात्म है।
ये
शब्द बड़े
प्यारे हैं।
इन शब्दों का
अर्थ समझोगे
तो तुम्हारे
भीतर शब्दों
का अर्थ
सुनते—सुनते, समझते—समझते
ही कुछ घटना
घटनी शुरू हो
जाएगी। एक
छोटी—सी
चिनगारी
महावन को जला
देती है। ये छोटे
—छोटे शब्द
नहीं हैं, ये
छोटी—छोटी
चिनगारियां
हैं।
दूसरा
प्रश्न :
गुरु
शिष्य को सीधे
भी देखता है
लेकिन फिर भी उसे
विभिन्न
परीक्षाओं से
जान—बूझ कर
गुजारता है।
क्या इससे
शिष्य का
आत्मज्ञान
तीव्र और शुद्धतर
होता है?
कृपा करके
समझाएं।
गुरु
देखता है
तुम्हारे तीन
रूप—तुम जो थे, तुम
जो हो, तुम
जो हो सकते
हो। तुम जो थे,
उससे
तुम्हें
छुटकारा
दिलाना है।
तुम्हारे अतीत
से तुम्हें
मुक्ति
दिलानी है।
तुम्हारे
अतीत को पोंछ
डालना है, साफ
कर देना है; वह कचरा है
जो तुम्हारे
दर्पण पर
इकट्ठा हो गया।
तुम्हें अतीत
से विच्छिन्न
करना है, यह
पहला काम।
फिर
तुम जो हो, उसके
प्रति
तुम्हें
जगाना है।
क्योंकि तुम्हें
उसका बिलकुल
पता नहीं कि
तुम कौन हो।
तुम जो रहे हो
अब तक, तुम्हारा
अतीत इतना
बोझिल हो गया
है, उससे
तुम इस भांति
दब गए हो कि
तुम्हारा
वर्तमान
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ता। और
वर्तमान बड़ा छोटा—सा
क्षण है, बड़ा
आणविक—इतना
छोटा क्षण है
कि तुम उसे
पकड़ भी नहीं
सकते। तुमने
देखा कि यह
रहा वर्तमान
कि वह गया।
इतना कहने में
कि यह रहा
वर्तमान, वर्तमान
अतीत हो जाता
है। इतने समय
में तो वर्तमान
गया। वर्तमान
को कहने के
लिए शब्द भी
जुटाओ, उतनी
देर में
वर्तमान जा
चुका होता है।
वर्तमान तो
बड़ी पतली धार
है, बड़ी
सूक्ष्म! वहां
तो तुम शात
साक्षी रहोगे
तो ही पकड़
पाओगे।
तो
तुम्हें अतीत
से छुटकारा
दिलाना है; तुम्हें
वर्तमान में
जगाना है; और
भविष्य..। अगर
लुग अतीत में
जकड़े रहे तो
अतीत ही
तुम्हारे
भविष्य का
निर्णायक
होता है, अतीत
ही तुम्हारे
भविष्य को
बनाता है।
मुर्दा तुम्हारे
भविष्य को भी
नष्ट करता चला
जाता है। क्योंकि
तुम भविष्य की
जो योजना
बनाओगे, वह
कहां से लाओगे? तुम्हारे
अतीत से
लाओगे। अतीत
के अनुभव के
आधार पर ही
तुम भविष्य के
भवन खड़े
करोगे। वे पुनरुक्तिया
होंगी। वह
फिर—फिर वही दोहराना
होगा।
थोड़े—बहुत
हेर—फेर कर
लोगे, रंग
बदल लोगे, थोड़ा
रूप बदल लोगे;
लेकिन होगा
वह अतीत ही
सजाया हुआ, संवारा हुआ।
लाश ही
होगी—अच्छे
वस्त्रों में श्रृंगारित।
भविष्य की तुम
योजना जो भी
बनाओगे, अतीत
से आएगी, वह
अतीत का
प्रोजेक्यान
है, प्रक्षेपण
होगा।
तो
गुरु की
चेष्टा होगी
कि वह तुम्हें
अतीत को भविष्य
में
प्रक्षेपित न
होने दे। नहीं
तो तुम्हारा
अतीत तो नष्ट
हुआ,
तुम्हारा
भविष्य भी
नष्ट हो
जाएगा। गुरु
की चेष्टा
होगी कि
तुम्हें अतीत
से मुक्त करवा
दे और गुरु की
चेष्टा होगी
कि तुम्हें
भविष्य की चिंता
और विचारणा से
भी मुक्त करवा
दे। क्योंकि
भविष्य का सारा
विचार भविष्य
को नष्ट करना
है। भविष्य का
विचार कैसे हो
सकता है? भविष्य
तो वही है जो
अभी आया नहीं।
भविष्य तो वही
है जिसका
तुम्हें कोई
पता नहीं।
भविष्य तो अभी
कोरी स्लेट है,
कोरा कागज
है, जिस पर
कुछ लिखा नहीं
गया।
अभी
तुम भविष्य पर
अगर कुछ लिखना
शुरू कर दोगे
तो तुम भविष्य
को खराब कर
लोगे। उसका
कोरापन घर आने
के पहले ही
खराब हो
जाएगा।
तो
वर्तमान में
तुम्हें
जगाना है; अतीत
से तुम्हें
छुटकारा
दिलाना है; भविष्य के
सपनों को
अवरुद्ध करना
है। इन तीन कामों
के लिए गुरु
सारी की सारी
चेष्टा करता
है। तुम्हें
जगाता, फिर
परीक्षाएं भी
खड़ी करता है
कि तुम जागे
या नहीं।
क्योंकि
तुम्हारी
नींद इतनी
गहरी है कि कई
बार तुम नींद
में ही सपना
देख लेते हो
कि जाग गए।
तुम्हें ऐसे
सपने याद
होंगे जिनमें
तुमने नींद
में, सपने
में समझ लिया
कि जाग गए।
सुबह उठकर पता
चला कि सपना
तो झूठा था ही;
सपने में
जागे, वह
भी झूठा था।
बहुत डर है इस
बात का कि
जागने की
बातें सुन—सुन
कर कहीं तुम
जागने का सपना
न देखने लगो!
वह यथार्थ
नहीं होगा।
इसलिए
अष्टावक्र
जनक की खूब कस
कर कसौटी करने
लगते हैं।
मुझे भी देखना
पड़ता है कि
कहीं तुम किसी
नए सपने में न
पड़ जाओ! कहीं
अध्यात्म का
सपना न देखने
लगो! सपने सब
सपने हैं—संसार
के हों कि
अध्यात्म के।
सपने से मुक्त
हो जाना है—तो
अध्यात्म। और
तुम्हें
जल्दी बातें
पकड़ जाती हैं।
क्योंकि
जिस—जिस बात
से अहंकार की
तृप्ति हो, वह
तत्क्षण पकड़
जाती है। जैसे
किसी ने कहा
कि तुम तो
ब्रह्मस्वरूप
हो—पकड़ी! कि
इसमें तो कोई
अडूचन होती
नहीं। इसलिए
तो इतने
करोड़ों लोग इस
बात को मान
लेते हैं कि
हम
ब्रह्मस्वरूप
हैं। इसको
पकड़ने में देर
नहीं लगती।
पापी से पापी
आदमी भी जब
सुनता है
उदघोष
उपनिषदों का,
अष्टावक्र
का—सिंह
गर्जना—कि तुम
परमेश्वर हो,
तो वह भी
सोचता है कि
बिलकुल ठीक है,
यह तो हम
पहले से जानते
थे। कहते नहीं
थे कि कोई
मानेगा नहीं,
लेकिन
जानते तो हम
पहले से थे
ही। पाप
इत्यादि तो सब
सपना है!
हालांकि
तुम किए जाते
हो पाप। अब
तुम एक नई तरकीब
खोज लेते हो
कि यह तो सब
माया है। चोरी
तुम किए चले
जाते हो, बेईमानी
तुम किए चले
जाते हो—अब
तुम कहते हो, यह सब माया
है। तुम अक्सर
पाओगे, जहां
इस तरह के
शुद्ध वेदांत
की बातें होती
हैं, वहा
तुम
महापापियो को
बैठे देखोगे
और प्रसन्न
पाओगे! वहीं
उनको
प्रसन्नता
मिलती है, और
कहीं तो मिल
नहीं सकती। और
तो जहां भी वे
जाते हैं, कोई
कहता है, यह
ब्लैकमाकेंट
करने वाला जा
रहा है, कोई
कहता, यह
चोर है, कोई
कहता, यह
बेईमान है, यह महापापी
है। वह जहां
शुद्ध
अध्यात्म बह
रहा है, वहीं
उनको थोड़ी शांति
मिलती है।
वहां उनको
लगता है कि
बिलकुल ठीक बात
हो रही है।
पाप इत्यादि
सब झूठे हैं!
तुम साधु—संतो
के पास
पापियों को
इकट्ठा
देखोगे। उनके
वचन उनके
अहंकार को बड़ी
तृप्ति देते
हैं चलो, कोई
तो जगह है
जहां हम
प्रफुल्लित
हो कर बैठ सकते
हैं कि कोई
पाप इत्यादि
नहीं है, यह
सब माया है। न
कुछ किया, न
कुछ किया जा
सकता है।
कर्ता हम हैं
ही नहीं, न
हम भोक्ता
हैं—हम तो
साक्षी हैं!
तो
गुरु को देखना
पड़ता है कि
कहीं यह
साक्षी की
धारणा
तुम्हारे लिए
आत्मघाती तो न
हो जाएगी।
जल्दी से यह
घोषणा हो जाती
है। अभी जनक
और अष्टावक्र
की बातें सुन
कर अनेक लोगों
ने मुझे पत्र
लिख दिए कि ' आपने
खूब जगा दिया!
और हमको ज्ञान
हो गया!' एक
मित्र ने लिखा
कि अब तो मैं
जाग कर जा रहा
हूं कि मैं
स्वयं
परमब्रह्म
हूं। वे गए भी!
वे पत्र लिख
कर गए, वे
चले ही गए
पत्र लिख कर!
परीक्षा देने
तक का मौका
उन्होंने
नहीं दिया। वे
तो सिर्फ
घोषणा करके
गए!
'स्वभाव' ने
पत्र लिख दिया
कि 'मैं
जाग गया!
धन्यवाद
प्रभु कि आपने
बता दिया कि
मैं भगवान
हूं। ' न
इतना किया, वे सिर घुटा
लिए उसी जोश
में! लक्ष्मी
मुझसे कहने
लगी कि ऊषा आ
कर रोती है
(उनकी पत्नी)।
मैंने
लक्ष्मी को
कहा, तू
ऊषा को कह, तू
बिलकुल फिक्र
न कर। ऐसे
कहीं कोई... ऐसे
कहीं स्वभाव
जागने वाले
नहीं। सिर
घुटाने से क्या
होता है, देख
चोटी बचा ली
है! उसी
में
सब बच गया!
चोटी क्यों
बचाई स्वभाव
ने?
हिंदू चोटी
तो बचाएगा ही!
मैंने
उनकी पत्नी को
खबर भेज दी कि
तू बिलकुल घबड़ा
मत,
ऊषा। जब तक
मैं ही न कहूं
ये जाग गये, तब तक तू
फिक्र मत कर।
ऐसे तो ये कई
करवटें लेंगे
और फिर—फिर सो
जाएंगे।
उत्तर मैंने
उनके प्रश्न
का दिया नहीं
था, मैंने.
कि जरा तुम
सुन लो पहले
अष्टावक्र
किस तरह जनक
की परीक्षा
करते हैं, फिर
तुम्हारा
उत्तर दे
देंगे। अब
अष्टावक्र की
परीक्षा चल
रही है जनक के
लिए। वह सब
सोचना, गौर
से सोचना।
मन
बड़ा बेईमान
है! मन बड़ा
कुशल है धोखा
देने में!
दूसरों को
धोखा देता ही
देता, अपने को
भी दे लेता
है। जागोगे
निश्चित!
जागना है!
जागरण
तुम्हारा
स्वभाव है, तुम्हारे
भीतर पड़ा है!
लेकिन जल्दी
ही मान लोगे, बहुत जल्दी
मान लोगे, तो
गुरु को
तुम्हारी टाग
खींचनी
पड़ेगी। फिर
तुम्हें
चारों खाने
चित्त! अगर
तुम न गिराए
गए तो तुम
किसी खतरे में
पड़ सकते हो।
जागरण
निश्चित घटता
है—घटना चाहिए
भी! कभी—कभी
तीव्रता से भी
घटता है।
कभी—कभी तत्क्षण
भी घटता है।
लेकिन फिर भी
गुरु को ध्यान
रखना पड़ता है
कि कहीं वह
किसी की भी
भ्रामक दशा
में सहयोगी तो
न बन जाएगा।
हालांकि तुम्हें
कभी—कभी चोट
भी लगेगी, क्योंकि
तुम कुछ मान
कर चलते थे और
मैं कह देता
हूं नहीं यह
नहीं हुआ। तो
तुम्हें चोट
भी लगेगी। वह
मजबूरी है।
उसके लिए मुझे
क्षमा करना।
लेकिन चोट
मुझे करनी ही
पड़ेगी। अगर
मैं चोट न
करूं और तुम्हें
किसी भांति
में चलने दूं
तो मैं तुम्हारा
गुरु नहीं, तुम्हारा
संगी—साथी
नहीं; फिर
तुम्हारा
शत्रु हूं; फिर मैंने
तुम पर करुणा
न की, मैंने
तुम पर प्रेम
न किया।
तुम्हारे
अहंकार को अगर
मैं किसी भी
कारण भरूं तो
मैं तुम्हारा
दुश्मन हूं।
तुम्हारे
अहंकार को तो
मिटाना है।
तुम्हारे
अहंकार को तो
ऐसे मिटा देना
है कि उसका
बीज बिलकुल
दग्ध हो जाए।
अब
ध्यान रखना, कहीं
स्वभाव जा कर
चोटी न घुटा
लें। अब कोई
सार नहीं है
घुटाने से। अब
तो मैंने कह
दिया, अब
कुछ मतलब नहीं
है। अब तुम
घुटा भी लो तो
कोई फर्क नहीं
पड़ता।
चेष्टा
तो है समझने
की,
स्वभाव की!
गहन चेष्टा
है! बड़ी तीव्र आकांक्षा
है! जागना
चाहते हैं।
जागना चाहते
हैं, इसीलिए
तो कभी—कभी
नींद में भी
जागने का सपना
देख लेते हैं।
आकांक्षा शुभ
है। आकांक्षा
होनी चाहिए।
एक अर्थ में
धन्यभागी है
ऐसा व्यक्ति,
क्योंकि
कम—से —कम उनसे
तो बेहंतर है
जो नींद में
भी जागने का
सपना नहीं
देखते। कम —से
—कम जागने का
सपना ही सही।
लेकिन जागने की
आकांक्षा
होगी, तभी
तो जागने का
सपना देखोगे!
अगर अहंकार
संन्यास से भी
भरते हो तो भी
शुभ है एक
अर्थ में कि संन्यास
से भर रहे हो
अहंकार, संन्यास
की आकांक्षा
तो है ही! अब
थोड़े और आगे
जाना है। इस
आकांक्षा को परिशुद्ध
करना पूरा।
जागना ही है, सपना क्या
देखना जागने
का पु जागने
के सपने से
कुछ सार न
होगा।
इस
प्रभु की
यात्रा के
रास्ते पर कई
पड़ाव पड़ेंगे, जहां
तुम्हारा सो
जाने का मन
होगा।
शक्तियां जगेंगी,
तब
तुम्हारा सो जाने
का मन होगा।
तुम कहोगे, 'आ गए बस हो
गया! देखो
शक्ति जग गई!' एक मुसलमान
युवक मेरे पास
साधना करता
था। बड़ी गहन आकांक्षा
से साधना में
लगा था। बड़ी
अटूट उसकी
निष्ठा थी। वह
एक दिन मेरे
पास आया और
उसने कहा कि
घटना घट गई; मालूम होता
है, आत्मज्ञान
हो गया।
मैंने
कहा,
'हुआ क्या?'
तो
उसने कहा, 'मैं
एक बस में
बैठा था। और
ऐसे बस मझी
पहाड़ी के
किनारे तो
मुझे लगा कि
मेरे सामने जो
आदमी बैठा है
वह कहीं गिर
तो न जाएगा! और
जैसे ही मुझे
लगा, कि वह
गिर गया। तो
मैंने सोचा कि
कहीं मेरे विचार
ने तो इसको
नहीं गिरा
दिया। पर
मैंने कहा, संयोग की
बात भी हो
सकती है। तो
मैंने एक दूसरी
दफे, जब मझी
बस, तो
मैंने एक
दूसरे आदमी पर
ध्यान किया और
सोचा कि यह
आदमी गिरेगा!
वह आदमी गिर
गया! तब मैं
थोड़ा घबड़ाया
कि यह मामला
क्या है! पर
फिर भी मैंने सोचा
एक परीक्षा और
कर लेनी
चाहिए। तीसरी
दफे जब बस मझी
तो एक बहुत
मोटे आदमी पर,
जिसके
गिरने की
संभावना ही
नहीं थी, जो
ऐसा फंसा बैठा
था कि सीट ही
छोटी पड़ रही
थी, बस
पूरी भी उलट
जाए तो वह
शायद न
उलटे—उसको सोचा
कि यह गिर जाए,
वह गिर गया!
तो फिर बोला, फिर तो मुझे
एकदम घबडाहट
हो गई। घबड़ाहट
भी हुई और
आनंद भी आया।
मैंने कहा कि
यह तो मालूम
होता है शक्ति
हाथ में आ रही
है।
अब
वस्तुत: उसे
घट रहा था, फिर
भी मुझे कहना
पड़ा, यह
पागलपन है।
यह
एकाग्रता की
क्षमता है।
अगर तुम ध्यान
करते —करते
बहुत एकाग्र
हो जाओ और उस
एकाग्रता में
कोई विचार तुम
सोचो, वह तत्क्षण
घट जाएगा।
इसलिए समस्त
योगशास्त्रों
ने कहा है, इसके
पहले कि तुम
ध्यान की
एकाग्रता में
उतरो, तुम्हें
शुभ विचारों
से भर जाना
चाहिए। क्योंकि
अगर ध्यान की
एकाग्रता के
बाद अशुभ
विचार तुम्हारे
भीतर चलते रहे
तो उनके
परिणाम आने शुरू
हो जाएंगे।
इसलिए पतंजलि
ने, इसके
पहले कि धारणा,
ध्यान, समाधि
साधो—यम, नियम,
प्राणायाम,
प्रत्याहार,
इन सबके
साधने की बात
कही। इतने
परिशुद्ध हो जाओ
कि जब ध्यान
की ऊर्जा उठे
तो तुम्हारे
पास गलत विचार
तो हो ही
नहीं।
इसलिए
महावीर ने कहा, ध्यान
के पहले
अहिंसा का भाव
गहरा कर लो।
बुद्ध ने कहा,
ध्यान के
पहले करुणा का
भाव गहरा कर
लो।
बुद्ध
ने तो यह भी
कहा कि हर
ध्यान के बाद, उठने
के पहले ध्यान
से, सारे
जगत के प्रति
करुणा का
फैलाव करना।
हर ध्यान को
करुणा पर पूरा
करना, करुणा
से शुरू करना;
अन्यथा
खतरा है, क्योंकि
अगर जरा भी
गलत विचार घूम
जाए ध्यान की
स्थिति में तो
वह विचार
परिणामकारी
हो जाएगा। उस
विचार में एक बल
आ जाता है। वह
विचार दूसरे
व्यक्ति में
प्रवेश कर
जाएगा।
शक्ति
जागनी शुरू
होती है, उसे
भी गुरु को
रोकना पड़ता
है। कल्पनाएं
सत्य मालूम
होने लगती हैं,
उसे भी गुरु
को रोकना पड़ता
है।
भ्रांति
जन्मों—जन्मों
की है। उस भ्रांति
का बड़ा फैलाव
है। ऐसा ही
समझो कि इस
बगीचे में
जन्मों
—जन्मों से
कूड़ा—कर्कट
ऊगता रहा है, घास—पात
ऊगता रहा है।
अब तुमने
गुलाब बो दिए,
लेकिन इस
बात की बहुत
संभावना है कि
तुम्हारे गुलाब
पर घास चढ़
दौड़ेगा, उसे
दबा लेगा।
शायद गुलाब का
पता ही नहीं
चलेगा। जन्मों
—जन्मों से
तुम्हारे मन
की भूमि आक्रांत
रही है व्यर्थ
से, असार
से। तो जब सार
की थोड़ी—सी
क्षमता भी
पैदा होगी, तत्क्षण
असार उसे दबा
लेगा। गुरु को
चेष्टा रखनी होगी
कि असार सार
को दबा न पाए।
स्वप्न सत्य पर
हावी न हो
पाए। इसलिए
बहुत—सी
परीक्षाओं से गुजारना
होगा।
गुरु
की मौजूदगी ही
परीक्षा है।
गुरु जब तुम्हारी
आंख में आंख
डाल कर देखता
है,
तभी
परीक्षा चल
रही। गुरु के
पास होने का
अर्थ ही यह
होता है कि
तुम चौबीस
घंटे कसे जा
रहे हो। और इस
कसने से
घबड़ाना मत, इस कसने के
लिए तैयार
रहना। और गुरु
को धन्यवाद
देना कि मुझे
ऐसा छोड़ मत
देना, मुझे
कसते चलना।
क्योंकि
यात्रा लंबी
है र अनजान है,
अपरिचित है!
मुझे तो कुछ
पता नहीं, कहीं
भटक न जाऊं!
भटकाव की
संभावना
ज्यादा है, पहुंचने के
बजाय; क्योंकि
भटकाव हमारा
पुराना
अभ्यास है।
तीसरा
प्रश्न :
हमारी
संन्यास—दीक्षा
के समय आप जिस
कागज पर हमारे
नये नाम और अपने
हस्ताक्षर
अंकित करते
हैं, उसका एक बड़ा
हिस्सा कोरा
ही रह जाता
है। उस पर
क्या लिखते
हैं जो कोरा
रह जाता है? प्रभु, उस
कोरेपन के
पीछे क्या
रहस्य है?
वही
तुम्हारे
संन्यास के
लिए सूत्र है।
जो नाम लिखता
हूं तुम्हारा
कोने में, उसे
तो आज नहीं कल
भूल जाना, उसे
तो मिटा देना।
कोरा कागज ही
रह जाए! तुम कोरे
रह जाओ!
तुम्हें पता
ही न रहे, तुम
कौन हो, क्या
हो! तुम्हें
पता न रहे, कोई
तादात्म्य।
तुम्हारी
सारी सीमाएं
गिर जाएं, तुम
कोरे कागज रह
जाओ!
इसलिए
जान कर ही एक
कोने में
तुम्हारा नाम
लिख देता हूं
वह भी नीचे।
ऊपर कोरा
आकाश! तुमने
कभी चीनी झेन
फकीरों की
बनाई हुई
चित्रकला
देखी? उनके
चित्र
वास्तविक
चित्र हैं।
उनके चित्र में
तुम पाओगे, बड़ा कैनवस
होता, लंबा,
और नीचे
कोने में
जरा—सी
पेंटिंग होती
है। बड़ा विराट
आकाश और
जरा—से कोने
में! वे
ठीक—ठीक सूचना
दे रहे हैं।
वे कह रहे हैं,
आदमी का
जाना हुआ बस
ऐसा है—जरा—सा
कोने में! आदमी
का बनाया हुआ
बस ऐसा
है—जरा—सा
कोने में! फिर विराट
आकाश है।
पश्चिम
में जो
पेंटिंग होती
है,
उसमें आकाश
होता ही नहीं।
सब भरा होता
है, पूरा
कैनवस भरा
होता है। सब
रंग डालते हैं,
कोरा कुछ
छोड़ते नहीं।
जब पश्चिम
पहली दफा झेन
पेंटिंग को
पहचानने लगा
तो बड़ा चकित
हुआ कि इतने
बड़े कागज पर
इतनी सी
पेंटिंग!
इतनी—सी
पेंटिंग तो
थोड़े से कागज
पर हो जाती है!
यह इतना कागज
खाली क्यों
छोड़ा है? वह
खाली बड़ा राज
है, वह
रहस्य है, वह
सूचक है। वह
खाली ही सच है,
बाकी तो
थोड़ी—सी लहरें
हैं। सागर ही
सच है।
यह
पृथ्वी तो
हमारी बड़ी
छोटी—सी है।
यह बड़ा आकाश!
इस
अनुपात को मत
भूलना। इसलिए
कोने में नीचे
दस्तखत कर
देता हूं
तुम्हारा नाम
लिख देता हूं।
और पूरा कागज
खाली छोड़ देता
हूं?
ताकि
बार—बार
तुम्हें याद
आती रहे कि
तुम्हारा नाम
तो बस जरा—सा
कोने में है।
वह भी एक दिन
भूल ही जाना
है। अनाम हो
जाना है, तभी
संन्यास
पूर्ण होता
है। कोरे कागज
जैसे हो जाना
है।
सूफियों
की एक किताब
है,
जो बिलकुल
कोरी है। उस
जैसी बढ़िया
कोई किताब नहीं।
उस किताब में
कुछ लिखा नहीं
है। कोई सात सौ
आठ सौ साल
पुरानी किताब
है। एक गुरु
से दूसरे गुरु
को दी जाती
रही। एक गुरु
ने एक शिष्य
को दे दी, फिर
वह अपने शिष्य
को दे गया, हाथ—हाथ
चलती रही है।
अभी भी
सुरक्षित है।
अभी भी सात सौ
साल के बाद
शिष्य उसे
पढ़ते हैं खोल
कर। उसमें कुछ
लिखा नहीं है।
वह कोरे कागज
हैं। उस किताब
को सूफी छापना
चाहते थे, कोई
पब्लिशर
छापने को राजी
नहीं। फिर
किसी ने हिम्मत
की और छापा।
लेकिन उसने भी
जब छापा उसको
तो कोई
बीस—पच्चीस
पन्ने भूमिका
के लिखवा लिए।..
खराब हो गई
किताब! भूमिका
में सब इतिहास
दे दिया कि
किसने शुरू की
यह किताब, फिर
किसके हाथ में
रही, फिर
किसके हाथ में
गई। मगर उससे
सब खराब हो गया।
वह किताब कोरी
ही होनी
चाहिए। मगर
कौन राजी होगा
कोरी किताब
छापने को! लोग
कहेंगे, कुछ
हो भी तो
छापने को तो
छापें। इसमें
तो कुछ है
नहीं।
राजस्थान
में एक महिला
है : भूरिबाई!
अदभुत महिला
है! जब भी मैं
राजस्थान
जाता था, वह
जरूर मुझे
मिलने आती थी।
बहुत थोड़ी—सी
महिलाएं भारत
में होंगी, जो उस कोटि
की हैं।
बिलकुल
देहाती है, उसे कुछ पता
भी नहीं; मगर
सब पता है। वह
मुझसे कहने
लगी कि 'बापजी,
आप मेरे गाव
आना! मैंने एक
किताब लिखी है,
उसका
उदघाटन करना। '
मैंने
कहा,
'तू किसी और
को धोखा देना।
तेरी किताब
मैं समझ गया, उसमें क्या
होगा। तू उसे
यहीं ले आना, मैं यहीं
उदघाटन कर
दूंगा।
तो
वह ले आई एक
दफा,
सिर पर रख
कर लाई, बड़ी
सुंदर पेटी
में सजा कर
लाई! उसके
भक्त. उसके
भक्त हैं! वह
महिला है
योग्य! उसके
भक्त साथ में
आए। उसकी
किताब का
मैंने उदघाटन
कर दिया। कुछ
भी नहीं, एक
छोटी—सी
पुस्तिका थी
अंदर, खाली!
कुछ उसमें
लिखा नहीं था।
वह लिखना—पढ़ना
जानती भी
नहीं।
जब
पहली दफा मेरे
शिविर में आई
तो जो उसके
साथ आए थे, भक्त,
वे तो सब
ध्यान करने
लगे, वह उठ
कर अपनी कोठरी
में चली गई।
उसके भक्तों ने
जा कर कहा कि
हम आए ही यहां
इसलिए हैं कि
ध्यान करें, आपने ध्यान
नहीं किया? वह कहने लगी
कि तुम बापजी
से पूछ लेना।
वे मेरे पास
आए। उन्होंने
कहा, यह
मामला क्या है?
श्रइरबाई
कहती है, बापजी
से पूछ लेना।
'बापजी' मुझे
कहना नहीं
चाहिए, क्योंकि
वह होगी
सत्तर— अस्सी
साल की। मैंने
कहा, वह
ठीक कहती है।
क्योंकि जो
मैंने कहा था
वही उसने
किया। मैंने
कहा था, कुछ
न करो, शात
साक्षी हो
जाओ! वे उसके
पास गए।
उन्होंने कहा,
उन्होंने
तो ऐसा कहा।
वह कहने लगी
कि ठीक कहा।
वहा तो बड़ी
भीड़— भाड़ थी, उपद्रव था।
कई लोग
कुछ—कुछ कर
रहे थे। मैं
इस कोठरी में
आ कर बैठ गई, मैंने कुछ न
किया, बड़ा
ध्यान लगा।
फिर
वह अपने गांव
वापिस गई तो
गाव के लोगों
ने पूछा कि
वहा से क्या
लाई,
तो उसने
अपनी कोठरी पर
'चुप' लिखवा
दिया। उसने
कहा कि इतना
ही समझी मैं
तो, वे कहे
तो बहुत—सी
बातें लेकिन
मेरी बुद्धि
में ज्यादा नहीं
समाता, मैं
तो गैर—पढ़ी
लिखी हूं; 'चुप'—इतना ही
मेरी समझ में
आया। वह अपनी
कोठरी पर लिखवा
रखा है कि
इतना उनकी बातों
में से
मैं समझ पाई।
कहते तो वे
बहुत कुछ हैं,
इतना मैं
पकड़ पाई। वही
मैं तुमको कह
सकती हूं।
वह
जो कोरा कागज
है,
वह कहता है 'चुप'। वह
जो कोरा कागज
है, वही
कुरान है, वही
धम्मपद वही
अष्टावक्र की
संहिता है। उस
कोरे कागज के
लिए ही सारे
शास्त्रों ने
चेष्टा की है
कि तुम्हारी
समझ में कोरा
कागज पढ़ना आ जाए।
शून्य को
समझाने के लिए
शब्दों का
सहारा लिया है;
लेकिन
शब्दों को
समझाने के लिए
नहीं—शून्य को
समझाने के
लिए। मौन में
ले जाने के
लिए भाषा का
प्रयोजन है।
तुम साक्षी
बनो! तुम कोरे
भीतर शून्य के
साक्षी बनो!
वहीं निर्वाण
घटित होता है,
समाधि घटित
होती है!
चौथा
प्रश्न :
कल
आपने मोह और
ज्ञान के गंगा—तट
जाने की कथा
कही। उसमें
मोह तो
गंगा
में स्नान कर
प्रेम को
उपलब्ध हो गया
लेकिन ज्ञान
का क्या हुआ? कृपा
कर ज्ञान की
नियति
पर भी थोड़ा
प्रकाश डालें!
वह
अभी भी भटक
रहा है। ज्ञान
अभी भी भटक
रहा है।
ज्ञान
बड़ी अकड़ी हुई
बात है। तुम
पंडित से ज्यादा
अहंकारी और
किसको पाओगे? धनी
भी उतना
अहंकारी नहीं
होता, जितना
अहंकारी तथाकथित
ज्ञानी हो
जाता है।
जिसको यह लगता
है कि मुझे
मालूम है, उसकी
अकड़ का क्या
कहना!
तो
ज्ञान तो राजी
न हुआ
कल्प—गंगा में
उतरने को।
कल्प—गंगा ने
तो दोनों को
कहा था—ज्ञान
और मोह दोनों
खड़े थे
किनारे।
ज्ञान और मोह
को तुम ऐसा
समझ लो कि
हृदय और
बुद्धि, संकल्प
और समर्पण, भाव और
विचार—नाम कुछ
भी दे दो।
दोनों खड़े थे।
गंगा ने कहा, ' आओ प्यारे!
स्नान कर लो
मुझमें! हो
जाओ पवित्र! नहलाऊंगी
तुम्हें!
शुद्ध कर
दूंगी! नया कर
दूंगी!
पुनर्जीवन
होगा
तुम्हारा!'
मोह
तो उतर गया; क्योंकि
मोह तो भाव है,
हृदय है; तर्क नहीं
है वहां। उसने
तो निमंत्रण
स्वीकार कर
लिया। उसने
कहा कि चलो, देखें। वह
तो उतर गया।
उसने तो डुबकी
मार ली। वह तो
जब निकला तो
पुराना जा
चुका था, नया
हो चुका था।
मोह प्रेम हो
गया। हृदय
समाधि बन गया।
भाव रस में
डूब गया।
ज्ञान
अकड़ा खड़ा रहा।
उसने कहा, कौन
मुझे शुद्ध
करेगा? यह
किस तरह की
बात? मुझे
और शुद्ध? मैं
शुद्ध हूं! यह
साधारण—सी
गंगा का जल
मुझे शुद्ध
करेगा? अरे
मैं
शास्त्रों का
ज्ञाता! मुझे
कौन शुद्ध करेगा?
मैं दूसरों
को शुद्ध कर
दूं!
वह
अकड़ा खड़ा रहा।
वह मोह पर
हंसा भी कि यह
भी क्या पागल बातों
में आ
रहा है! वह अभी
भी भटक रहा
है। वह अभी भी
वहीं खड़ा है, अब
भी हंस रहा
है। पंडित सदा
ही हंसता है
प्रेमी पर।
लेकिन प्रेमी
ही हैं जो
पाते हैं।
तुमसे
एक और कथा
कहता हूं।
एक
राजा के दो
बेटे थे। राजा
के पास बहुत
धन था। एक
बेटे का नाम
ज्ञान था, एक
बेटे का नाम
प्रेम था।
राजा बड़ी
चिंता में था
कि किसको अपना
राज्य सौंप
जाए। किसी फकीर
को पूछा कि
कैसे तय करूं?
दोनों
जुड़वां थे, साथ—साथ
पैदा हुए थे।
उम्र में कोई
बड़ा—छोटा न था;
नहीं तो
उम्र से तय कर
लेते। दोनों
प्रतिभाशाली
थे, दोनों
मेधावी थे, दोनों कुशल
थे। कैसे तय
करें?
बाप
का मन बड़ा
डावाडोल था, कहीं
अन्याय न हो
जाए! फकीर से
पूछा। फकीर ने
कहा, 'यह
करो। दोनों
बेटों को कह
दो कि यही बात
निर्णायक
होगी। तुम जाओ
और सारी
दुनिया में
बड़े—बड़े नगरों
में कोठियां
बनाओ। जो
कोठियां
बनाने में
पांच साल के
भीतर सफल हो
जाएगा, वही
मेरे राज्य का
उत्तराधिकारी
होगा।'
ज्ञान
चला। उसने
कोठियां
बनानी शुरू कर
दीं। मगर पांच
साल में सारी
पृथ्वी पर
कैसे कोठियां
बनाओगे ?
हजारों बडे
नगर हैं! कुछ
कोठियां
बनायीं, उसका
धन भी चुक गया,
सामर्थ्य
भी चुक गई, थक
भी गया, परेशान
भी हो गया। और
फिर बात भी
मूढ़तापूर्ण मालूम
पडी, इससे
सार क्या है? पांच साल
बाद जब दोनों
लौटे तो जान
तो थका—मादा
था, भिखमंगे
की हालत में
लौटा। सब जो
उसके पास थी संपदा,
वह सब लगा
दी। कुछ
कोठियां जरूर
बन गईं, लेकिन
इससे क्या सार?
वह बड़ा
पराजित और
विषाद में
लौटा।
प्रेम
बड़ा नाचता हुआ
लौटा। बाप ने
पूछा, कोठियां
बनाई? प्रेम
ने कहा कि बना
दीं, सारी
दुनिया पर बना
दीं। सब बड़े
नगरों में क्या,
छोटे —छोटे
नगरों में भी
बना दीं। समय
काफी था।
बाप
भी थोड़ा
चौंका। उसने
पूछा कि यह
तेरा बड़ा भाई, यह
तेरा दूसरा
भाई, यह तो
थका—हारा लौटा
है कुछ नगरों
में बना कर, तूने कैसे
बना लीं? प्रेम
ने कहा कि
मैंने मित्र
बनाए, जगह—जगह
मित्र बनाए।
सभी मित्रों
की कोठिया मेरे
लिए खुली हैं।
जिस गांव में
जाऊं वहीं, एक क्या दो
—दो, तीन—तीन
कोठियां हैं।
मकान मैंने
नहीं बनाए, मैंने मित्र
बनाए। यह आदमी
मकान बनाने
में लग गया, इसलिए चूक
हो गई। मकान
तो मेरे लिए
खुले खड़े हैं,
कोठियां
मेरे लिए
तैयार हैं, जगह—जगह
तैयार हैं।
जहां आप कहें,
वहा मेरी
कोठी। हर नगर
में मेरी
कोठी!
एक
तो ढंग है
प्रेम का और
एक ढंग है
ज्ञान का। शान
से अंततः
विज्ञान पैदा
हुआ। शान की
आखिरी संतति
विज्ञान है।
विज्ञान से
अंततः
टेक्योलॉजी
पैदा हुई। विज्ञान
की संतति
टेक्योलॉजी
है; तकनीक है।
प्रेम
से भक्ति पैदा
होती है।
भक्ति प्रेम
की पुत्री है।
भक्ति से
भगवान पैदा
होता है। वह दोनों
दिशाएं बड़ी
अलग हैं।
ज्ञान
के मार्ग से
जो चला है, वह
कहीं न कहीं विज्ञान
में भटक
जाएगा। इसलिए
तो पश्चिम
विज्ञान में भटक
गया। यूनानी
विचारकों से
पैदा हुई
पश्चिम की
सारी परंपरा।
वह ज्ञान के.
उनकी बडी पकड
थी। अरस्तृ
प्लेटो! तर्क
और विचार और
ज्ञान! जानना
है! जान कर
रहेंगे! उस
जानने का
अंतिम परिणाम
हुआ कि अणुबम
तक आदमी पहुंच
गया। मौत खोज
ली और कुछ सार
न आया। पूरब
प्रेम से चला
है। तो हमने
समाधि खोजी।
हमने कुछ
अनूठा आकाश
खोजा—जहां सब
भर जाता है, सब पूरा हो
जाता है। अब
तो पश्चिम
परेशान है, अपने ही शान
से परेशान है।
अलबर्ट
आइंस्टीन
मरने के पहले
कह कर मरा है
कि '
अगर मुझे
दुबारा जन्म
मिले तो मैं
वैज्ञानिक न
होना
चाहूंगा—कतई
नहीं! प्लंबर
होना पसंद कर
लूंगा, वैज्ञानिक
होना पसंद
नहीं करूंगा। '
बड़ी पीड़ा
में मरा है कि
क्या सार? जानने
का क्या सार? होने में
सार है।
प्रेम
भी जब तक झुके
नहीं तब तक
भक्ति नहीं बनता।
शान भी अगर
झुक जाए तो
ध्यान बन जाता
है। लेकिन शान
झुकने को राजी
नहीं होता।
प्रेम झुकने
को बड़ी जल्दी
राजी हो जाता
है।
अगर
ज्ञान भी उतर
गया होता गंगा
में—समझ लो, उतरा
नहीं, उतर
गया होता—उसने
भी निमंत्रण
स्वीकार कर लिया
होता, डुबकी
मार ली होती, तो जैसे मोह
प्रेम बन कर
निकला, ज्ञान
ध्यान बन कर
निकल सकता था।
लेकिन किनारे
पर अकड़ा खड़ा
रह गया, तो विज्ञान
बन गया, तो
टेक्योलॉजी
बन गई। तो सब
चीजें खराब
होती चली गईं।
ऐसा
नहीं है कि
शान की वृत्ति
वाले व्यक्ति
के लिए मार्ग
नहीं; झुक जाए
वह भी तो उसके
लिए भी मार्ग
है। प्रेमी
झुकता है तो
प्रार्थना
पैदा होती है;
ज्ञानी
झुकता है तो
ध्यान पैदा
होता है। प्रार्थना
भी परमात्मा
पर ले जाती है;
ध्यान भी
परमात्मा पर
ले जाता है।
भाषा अलग होगी।
जब ध्यानी
परमात्मा पर
पहुंचेगा तो
वह कहेगा, आत्मा!
क्योंकि
दूसरे का कोई
उपाय नहीं है
ध्यान में। जब
प्रेमी
परमात्मा पर
पहुंचता है तो
वह आत्मा नहीं
कहता, वह
कहता है, तुम्हीं
हो, मैं
कहां!
ये
सिर्फ भाषा के
भेद हैं।
दोनों एक ही
महाशून्य पर
पहुंच गए हैं।
एक उसे आत्मा
कहता है, एक
उसे परमात्मा
कहता है। ये
भाषा के भेद
हैं। अगर
तुम्हारी
विचार पर बहुत
पकड़ हो तो
ध्यान का
मार्ग पकड़ो; डुबकी मगर
लगाओ। इधर रही
गंगा! यह मैं
कहता हूं कि आ
जाओ, ले लो
डुबकी! मैं
तुम्हें नया
कर दूंगा।
अगर
विचार पर बहुत
पकड़ है, कोई
हर्जा नहीं।
जो मोह तक को
रूपांतरित कर
देती है गंगा,
वह विचार को
न कर पाएगी? मोह तक को
रूपांतरित कर
दिया प्रेम
में, तो
विचार की क्या
ताकत है? विचार
तत्क्षण
ध्यान में
रूपांतरित हो
जाता है। लेकिन
झुकना पड़े।
बिना झुके कुछ
भी नहीं! बिना समर्पित
हुए कुछ भी
नहीं!
पांचवां
प्रश्न :
ऐसा
लगता है कि
पृथ्वीचारी जनक
पहली बार आकाश
को देख कर आश्चर्यचकित
होते हैं। तो
आकाश—विहारी अष्टावक्र
को संसार देख
कर ही आश्चर्य
होता है। क्या
सच ही संसार
और मोक्ष एक—दूसरे
के लिए इतने
आश्चर्य के
विषय हैं? वे
परस्पर—विरोधी
हैं या
एक—दूसरे के
पूरक हैं?
न तो
विरोधी और न
पूरक। जब एक
होता है तो
दूसरा होता ही
नहीं। ऐसा
समझो कि
प्रकाश और
अंधेरा एक—दूसरे
के विरोधी हैं
या एक—दूसरे
के पूरक? न
पूरक न विरोधी,
क्योंकि जब
प्रकाश होता
है तो अंधेरा
नहीं होता, जब अंधेरा
होता है तो
प्रकाश नहीं
होता। पूरक होने
के लिए तो
दोनों को
साथ—साथ होना
चाहिए। विरोधी
होने के लिए
भी दोनों को
साथ—साथ होना चाहिए।
लेकिन एक ही
होता है, दूसरा
तो बचता ही
नहीं।
जब
तुम्हारे
जीवन में आकाश
का अनुभव आना
शुरू होता है, पृथ्वी
खो जाती है।
इसलिए तो उस
परम दशा को प्राप्त
लोगों ने कहा
कि यह पृथ्वी
माया है। माया
का अर्थ है, भ्रम हो गई, खो गई, स्वप्नवत
हो गई। जब
पृथ्वी का
सपना पकड़ता है
तुम्हें जोर
से तो आत्मा, ब्रह्म, ईश्वर
सब स्वप्नवत
हो जाते हैं।
जिसके
लिए पृथ्वी सच
है,
उसके लिए
आत्मा माया
है। जिसके लिए
आत्मा सच है, उसके लिए
पृथ्वी माया
हो जाती है।
लेकिन दोनों
साथ—साथ कभी
नहीं होते, एक ही होता
है।
ऐसा
समझो कि रस्सी
में सांप
दिखाई पड़ गया।
तो जब तक सांप
दिखाई पड़ता है
तब तक रस्सी
दिखाई नहीं
पड़ती। फिर जब
दीया ले आए और
रस्सी दिखाई
पड़ गई, तो सांप
दिखाई नहीं
पड़ता। तो तुम
क्या कहोगे? —एक—दूसरे के
पूरक हैं या
एक—दूसरे के
विरोधी? न
तो पूरक न
विरोधी।
क्योंकि
दोनों कभी
साथ—साथ होते
नहीं। एक ही
है। एक ही
भ्रांति में
दूसरे जैसा
भासता है।
आकाश
ही है, परमात्मा
ही
है—तुम्हारे
देखने के ढंग
में जरा भूल
है! तो तुम
आकार में उलझ
जाते हो, निराकार
को नहीं देख
पाते। तो तुम
रूप में उलझ
जाते हो, अरूप
को नहीं देख
पाते। गुण को
तो पकड़ लेते
हो, निर्गुण
छूट जाता है।
फिर जब
तुम्हारी समझ
गहन होती है, प्रगाढ़ होती
है और तुम
अरूप को देखने
लगते हो तो
रूप खो जाता
है। तब तुम
निराकार को
देखने लगते हो
तो आकार खो
जाता है। और
इसलिए
आश्चर्य पैदा
होता है।
जनक
आश्चर्यचकित
हैं,
क्योंकि जब
पहली दफा आकाश
दिखाई पड़ा तो
पृथ्वी एकदम
खो गई। जिस पर
सदा से खड़े थे,
अचानक वह
पैरों के नीचे
से खिसक गई
जमीन। तो वे
आश्चर्य से
भरे हैं! वे
कहते हैं, ' आश्चर्य,
आश्चर्य! यह
हुआ क्या! यह
कैसे हुआ!'
अष्टावक्र
भी आश्चर्य से
भरे हैं। वे
आकाश की तरफ
से जब देखते
हैं तो पृथ्वी
वहां कहीं भी
नहीं है। तो
वे कहते हैं
कि आश्चर्य!
तुझे आश्चर्य
होता है आकाश
को देख कर, मुझे
आश्चर्य हो
रहा है तेरा
पृथ्वी की
बातें सुन कर।
दोनों
का आश्चर्य
बिलकुल ठीक
है। क्योंकि
जिसने रस्सी
में सांप देखा
था,
जब उसे पता
चलेगा कि यह
रस्सी है तो
वह आश्चर्यचकित
होगा। जो सदा
से जानता रहा
कि रस्सी रस्सी
है, वह भी आश्चर्यचकित
होगा कि किसी
ने इसमें सांप
देख लिया।
दोनों
आश्चर्यचकित
होंगे।
एक
ही हो सकता
है। परमात्मा
और पदार्थ दो
चीजें नहीं
हैं। सत्य और
संसार दो
चीजें नहीं
हैं। जब हम
सत्य को गलत
ढंग से देखते
हैं और हमारी
व्याख्या गलत
होती है —तो
संसार। जब हम
संसार को ठीक
से देख लेते
हैं और
व्याख्या ठीक
हो जाती है—तो
सत्य।
परमात्मा को ही
देखते हैं हम
हर हाल। कुछ
भी देखो, परमात्मा
को ही देखते
हो। और कुछ है
ही नहीं, जिसको
देख सकते हो।
ही, तुम्हारे
देखने में अगर
थोड़ी भांति हो,
तुम्हारी आंख
में अगर थोड़ी
खराबी हो, तो
जो तुम्हें
दिखाई पड़ता है,
जो तुम देख
लेते हो, वह
जो दिखाई पड़
रहा है उससे
भिन्न हो जाता
है। लेकिन जो
दिखाई पड़ रहा
है, वह तो
वही का वही है
—शाश्वत, सनातन!
उसमें कोई
रूपांतरण
नहीं होता है।
आदमी की भूल
है संसार।
आदमी की गलत
व्याख्या है संसार।
रात अंधेरे
में तुम देख
लेते
हो—तुम्हारा
ही लंगोट टंगा
है—और वह
लंगोट में दो
हाथ जैसे
मालूम पड़ते
हैं। लंगोटी
लटकी है, तो
लगता है कोई
आदमी खड़ा है।
तुम्हीं टांग
आए दिन में, और रात
तुम्हीं बाहर
जाने से डरने
लगते हो कि वहां
कोई आदमी खड़ा
मालूम होता
है! लंगोट अब
भी लंगोट है।
लंगोट ने
डराने का
तुम्हें कुछ
भी नहीं किया
है। मगर तुम
घबड़ा सकते हो।
कभी
अंधेरे में
तुमने देखा, अंधेरे
रास्ते पर
एकांत में
चलते हुए अपने
ही जूते की
आवाज ऐसी लगती
है कि कोई
पीछे आ रहा है! घबड़ाहट
पकड़ने लगती
है। छोटी—छोटी
चीजें भ्रम दे
जाती हैं। उन
सभी भ्रमों का
जोड़ संसार है।
जब भ्रम टूट
जाते और वही
दिखाई पड़ जाता
है, जो
है—तो
परमात्मा। परमात्मा
यानी जो है; संसार यानी
जैसा हमने देख
लिया है।
छठवां
प्रश्न :
मैं
कभी—कभी अपने
शरीर पर गैरिक
वस्त्र देख कर
चकित हो उठता
हूं। जीवन में
मैंने अनगिनत
स्वप्न देखे, उनमें
यह स्वप्न
कहां था कि
मैं संन्यासी
भी होऊंगा!
मैंने तो सदा
साधु—संन्यासियों
का मखौल ही उड़ाया
किया। कहीं
ऐसा तो नहीं
है कि उनमें
से किसी सच्चे
संन्यासी ने
मुझे यह वरद
शाप दिया कि
तुम्हारी देह
पर भी गैरिक
वस्त्र उतर
जाएं?
सब सपने
आदमी देखता है; संन्यास
का सपना तो
कभी नहीं
देखता।
क्योंकि संन्यास
सपना
नहीं—सपनों से
जागना है।
तुमने जो सपने
देखे बहुत, वे सपने ही
जब हार गए, थक
गए और पराजित
हो गए; जब
उन सपनों में
से तुम कुछ भी
न निचोड़ पाए, तो संन्यास
फलित हुआ।
संन्यास
संसार की महत्वाकांक्षा
की पराजय से
फलित होता है।
धन पाया तो
व्यर्थ, नहीं
पाया तो
दुखदायी। पद
पाया तो
व्यर्थ, नहीं
पाया तो दुखदायी।
दौड़—दौड़ कर, कभी पा कर
कभी न पा कर, हर हाल दुख
पाया।
'मैत्रेय' का प्रश्न
है। मैत्रेय
मुझे मिले तब
वे पार्लियामेंट
के सदस्य थे, एम पी. थे। राजनिति
में उनकी दौड़
थी। बने रहते
वहां तो अभी
कहीं न कहीं
चीफ मिनिस्टर
होते। बड़ी
संभावना थी।
जवाहर लाल के
प्रिय
पात्रों में
से थे। तो
मेरे चक्कर
में न पड़ते, तो या तो जेल
में होते या
चीफ मिनिस्टर
होते, दो
में से कुछ
होते।
क्योंकि
जयप्रकाश के
भी वे प्रिय
पात्र थे।
दोनों से बचा
लिया मैंने उन्हें।
लेकिन
मैं समझ पाता
हूं उनका
प्रश्न।
उन्होंने कभी
सपना भी नहीं
देखा होगा।
राजनीतिज्ञ
कहीं सपना
देखता है
संन्यासी होने
का!
राजनीति
और धर्म बड़े
विपरीत आयाम
हैं। उनसे ज्यादा
विपरीत और कुछ
भी नहीं।
राजनीति है महत्वाकांक्षा, धर्म
है
महत्वाकांक्षा
से शून्य हो
जाना। राजनीति
है
पद—प्रतिष्ठा
की दौड़, दूसरों
पर काबू पाने
की दौड़; और
धर्म है अपने
मालिक होने की
आकांक्षा। ये
बड़ी भिन्न
बातें हैं।
दूसरे के
स्वामी होने
की जो आकांक्षा
है, वह
राजनीति, अपने
स्वामी होने
की जो आकांक्षा
है, वह
धर्म।
इसलिए
तो
संन्यासियों
को हम स्वामी
कहते हैं।
इससे तुम यह
मत समझ लेना
कि तुम किसी
दूसरे के
स्वामी, मैं
तुमको बना रहा
हूं। ऐसी
भ्रांति हो
सकती है कि हमको
स्वामी बना
दिया, अब
हम सबके
स्वामी हैं!
ऐसा मत सोच
लेना। अपने बस,
इतने हो गए
तो काफी है।
अपना ही कोई
स्वामी हो जाए
तो पर्याप्त
है। और जो
अपना स्वामी
नहीं है, वह
दूसरों के
स्वामी होने
की चेष्टा कर
रहा है, उसकी
यात्रा असफल
होना निश्चित
है। जो अभी
अपना भी
स्वामी नहीं
हो पाया, वह
किसका स्वामी
हो पाएगा?
इसलिए
जिनको तुम
राजनेता कहते
हो,
वे अपने
अनुयायियों
के भी अनुयायी
होते हैं, वे
अपने गुलामों
के भी गुलाम
होते हैं।
अखबारों में
उनकी
तस्वीरें देख
कर बहुत चकित
मत हो जाना।
वे छोटे —छोटे
लुच्चे—लफंगों,
गुंडों से
दुबे होते
हैं। वे पीछे
खड़े रहते हैं।
उन गुंडों की
कहीं अखबारों
में तस्वीर
नहीं छपती।
लेकिन उनके
इशारों पर
चलते होते
हैं। चलना ही
पड़ेगा। जिसको
तुम्हें अपने
पीछे चलाना है,
उसके इशारे
पर चलना होगा।
तुम्हारे
अनुभव में
सिर्फ एक ही
बात होगी, क्योंकि
तुम सभी
राजनीतिज्ञ
नहीं हो।
पत्नी को
तुम्हें अपने
पीछे चलाना हो
तो तुम्हें मालूम
है पत्नी की
एक—एक
आकांक्षा
पूरी करनी होती
है तो ही वह
तुम्हारे
पीछे चलती है।
वह कहती है, आप मालिक, मैं दासी!
मगर दासी होने
का मतलब समझते
हैं? जब तक
आप उसके दास न
हो जाओ, वह
दासी नहीं।
लिखती है 'आपकी
दासी', मगर
मतलब साफ है।
वह आपके
पीछे—पीछे
चलती है, जब
भांवर पड़ती
हैं; लेकिन
अगर उसको
जिंदगी भर
अपने पीछे
चलाना हो तो
बड़े छिपे रूप
में आपको उसके
पीछे चलना
होता है। नहीं
तो वह आपके
पीछे नहीं
चलेगी। यह तो
साझेदारी है.
तुम हमारे
पीछे तो हम
तुम्हारे
पीछे। यह तो
सांठ—गांठ है।
राजनेता
जिनको अपने
पीछे चला रहा
है,
राजनेता
उनके पीछे
चलता होता है।
वह लौट—लौट कर
देखता रहता है,
लोग कहां जा
रहे हैं, उसी
तरफ जाने लगता
है। असली कुशल
राजनीतिज्ञ का
अर्थ
ही यही है।
कुछ
कुशल
राजनीतिज्ञ
नहीं होते तो
उनकी अकुशलता
का कारण क्या
होता है? इतना
ही होता
है—अकुशल
राजनीतिज्ञ
वही है कि जो
यह सोचने लगता
है दुनिया
मेरे पीछे चल
रही है। वह
झंझट में पड़ता
है। मोरारजी
देसाई से पूछो!
अकुशल
राजनीतिज्ञ
की अकुशलता
यही है कि वह
सोचता है सब
मेरे पीछे चल
रहे हैं, मैं
जहां जाऊंगा
वहां दुनिया
जाएगी। वह
गलती में है।
कुशल
राजनीतिज्ञ
वह है जो देख
लेता है, लोग
किस तरफ जा
रहे हैं, उसी
तरफ उनके
आगे—आगे चलने
लगता।
समाजवाद? समाजवाद
सही! यही तो हम
भी चाहते हैं!
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने गधे पर
भागा जा रहा
था। एक बाजार
में लोगों ने
उसे रोक लिया
और पूछा कि कहा
जा रहे हो? उसने
कहा, मुझसे
मत पूछो, मेरे
गधे से पूछो!
क्योंकि मैं
राजनीतिज्ञ
हूं। पहले
मैंने बहुत
कोशिश की इस
गधे को चलाने की,
मगर गधा है।
हम बाएं चलाएं,
वह दाएं
जाए। बीच
बाजार में
मखौल उड़े! भीड़
इकट्ठी हो जाए
कि अरे
नसरुद्दीन, तुम्हारे
गधे पर भी बस
नहीं! क्या
करें? फिर
हमें समझ में
आया कि गधे के
साथ राजनीति करनी
चाहिए। अब गधा
जिस तरफ जाता
है हम उसी तरफ जाते
हैं। दुनिया
यही समझती है
कि हम गधे को चला
रहे हैं, मगर
गधा हमको चला
रहा है।
'मैत्रेय जी'
राजनीति
में थे। उन्होंने
कभी सपना नहीं
देखा होगा
संन्यासी होने
का, यह सच
है। लेकिन रह
कर राजनीति
में कुछ भी न
पाया। उस न
पाने से
संन्यास की
तरफ वृत्ति
हुई। उस न
पाने से वे
दूसरी दिशा
में झुकना
शुरू हुए।
राजनीतिज्ञ
तो थे, लेकिन
उनके पास
राजनीतिज्ञ
की प्रतिभा
नहीं थी, बेईमानी
नहीं थी। बड़े
सरल आदमी हैं।
संन्यास
उन्हें
स्वाभाविक
पड़ा। राजनीति
में वे बड़ी
उलझन में पड़े
थे। राजनीति
में बड़ी
बेचैनी में
थे। अड़चन थी।
वह उनके
अनुकूल न था।
वह उतने ओछे
और छोटे आदमी
नहीं थे।
वहां
सफलता उनकी है
जो जितने ओछे
हैं,
जितने छोटे
हैं। वहां
सफलता उनकी है,
जो जितने
नीचे उतर आएं।
वहा कोई आदमी
अगर सरल हो, सीधा—सादा
हो, तो
वहां सफलता
नहीं है। वे
गलत दिशा में
पड़ गए थे। वह
दिशा उनके लिए
नहीं थी।
शायद
संन्यासियों
का मजाक भी वे
इसीलिए उड़ाते
रहे होंगे, क्योंकि
हम मजाक भी
अकारण नहीं
उड़ाते। अक्सर तो
ऐसा होता है
कि हम मजाक
उन्हीं की
उड़ाते हैं
जिनसे हमारी
ईर्ष्या होती
है। जैसे तुम
पाओगे, सरदारों
का मजाक पूरे
मुल्क में
उड़ाई जाता है।
उसमें कुछ
कारण है
सरदारों से
ईर्ष्या है। ईर्ष्या
के कारण भी
साफ हैं सरदार
तुमसे ज्यादा
मजबूत। गर्दन
दबा दे तो
तुम्हारी ची
बोल जाए! तो
पूरे भारत में
सरदार पास में
खड़ा हो तो
तुम्हें
बेचैनी तो
होती है, कि
यह आदमी
ज्यादा
ताकतवर है, अब इससे
बदला कैसे लो!
इससे
झगड़ा—झांसा
करने में सार
नहीं है। तो
हम मजाक उड़ाते
हैं, हम
मखौल करते
हैं। वह मखौल
झूठ है। वह
ईर्ष्या के
कारण है।
पश्चिम
में यहूदियों
का मजाक उड़ाया
जाता है।
जितनी मजाके
हैं,
यहूदियों
के खिलाफ हैं।
उसके भी पीछे
कारण हैं।
यहूदी की
प्रतिभा से
बड़ी ईर्ष्या
है। जहां यहूदी
पैर रख दे, वहां
से दूसरों को
हट जाना पड़ता
है। जितनी नोबल
प्राईज यहूदियों
को मिलती उतनी
दुनिया में
किसी को नहीं
मिलती। एक तरफ
सारी दुनिया
और एक तरफ
यहूदी अकेले।
उनकी संख्या
ज्यादा नहीं
है, लेकिन
नोबल प्राईज
वे इतनी मार
ले जाते हैं
कि चकित होना
पड़ता है कि मामला
क्या है!
इस
सदी को जिन
तीन लोगों ने
प्रभावित
किया है, वे
तीनों के
तीनों यहूदी
थे—मार्क्स, फ्रायड, आइंस्टीन।
यह सारी सदी, बीसवीं सदी,
यहूदियों
से प्रभावित
है। यह सारी
सदी यहूदियों
के आधार से चल
रही है। हिटलर
इसीलिए कम्यूनिज्म
के खिलाफ था, क्योंकि वह
कहता था कि यह
भी यहूदियों
का षड्यंत्र
है। यह जो
मार्क्स है, यह इसने एक
नई तरकीब
निकाली है
दुनिया पर
कब्जा करने
की। मगर आधी
दुनिया पर
कब्जा कर भी
लिया है। फिर
फ्रायड है; उसने सारे
मनोविज्ञान
पर कब्जा कर
लिया है। आदमी
के मनस के
संबंध में
मालिक हो गया
है। उधर अलबर्ट
आइंस्टीन है;
उसने सारे
विज्ञान पर
कब्जा कर लिया
है।
यहूदी
जहां पैर रख
दे—राजनीति
में रखे तो
राजनीति में, बाजार
में रखे, धन
की दौड़ में
रखे तो धन
में—वह सब जगह
पराजित कर
देता है लोगों
को। उसके पास
प्रतिभा है।
उस प्रतिभा से
बेचैनी होती
है, ईर्ष्या
होती है। तो
मजाक में बदला
लेते हैं हम।
मजाक
का खयाल रखना।
तुम उसी का
मजाक उड़ाते हो
जिससे
तुम्हारी
ईर्ष्या होती
है।
तो
मैत्रेय से मैं
कहता हूं.
संन्यासियों
का तुमने मखौल
उड़ाया होगा, क्योंकि
संन्यासी से
तुम्हारे
भीतर मन में बड़ी
ईर्ष्या रही
होगी कि यह
तुम्हें होना
था और तुम
नहीं हो पाए।
किसी
संन्यासी के
वरद शाप के
कारण
नहीं—तुम्हारे
भीतर ही
संन्यासी में
लगाव था, रस
था। तुम
संन्यासी की
उपेक्षा नहीं
कर सकते थे।
और तुम यह भी
नहीं मान सकते
थे कि
संन्यासी सही
है, क्योंकि
अगर संन्यासी
सही तो तुम
गलत हो। तो मखौल
उड़ाते थे।
लेकिन कहीं
तुम्हें लगता
रहा होगा
अचेतन में, कि संन्यासी
सही है, उसकी
दिशा सही है।
वह तुम्हारी
आत्म—सुरक्षा
(डिफेन्स) का
उपाय था—मजाक।
अगर
तुम मुझे मिले
होते, कभी भी
मिले होते तो
तुम चक्कर में
पड़ते। क्योंकि
मैं कुछ ऐसा
संन्यासी हूं
जो संन्यासी
जैसा है ही
नहीं। इसलिए
बहुत लोग मेरे
चक्कर में पड़
जाते हैं। जो
संन्यासियों
के सदा खिलाफ
रहे वे आ कर
मेरे पास
संन्यास ले
लेते हैं। जो
धर्म के सदा
खिलाफ रहे, वे मेरे पास
आ कर ध्यान
करने लगते
हैं। मेरे पास
नास्तिक आते
हैं और कहते
हैं, 'बड़ी
मुश्किल और
आस्तिकों से
तो हम लड़ लेते
हैं, आपसे
लड़ना नहीं हो
पाता। ' मैं
नास्तिक, महानास्तिक—
मुझसे लड़ोगे
कैसे? तुम
एक नास्तिक
चाल चलो, मैं
दो नास्तिक
चाल चलता हूं।
मेरी
आस्तिकता, नास्तिकता
के विपरीत
नहीं
है—नास्तिकता
के ऊपर है।
मैं
नास्तिकता को
सीढ़ी बना लेता
हूं। मैं कहता
हूं? चलो
यह खेल भी
थोड़ी देर खेल
लें। नास्तिक
हो तो चलो
नास्तिकता का
खेल खेल लें।
नास्तिकता मेरे
लिए आस्तिकता
की सीढ़ियां बन
गई। संसार को मैंने
संन्यास की
सीढ़ी बनाया।
इसलिए जो किसी
भी प्राचीन
परंपरागत
संन्यासी से
प्रभावित न
होंगे, वे
मेरी
प्रतीक्षा ही
कर रहे हैं।
वे जब भी मेरे
संपर्क में
आएंगे, उनको
डूब जाना
पड़ेगा।
मैंने
कुछ फूल चुने
मैंने
कुछ गीत बुने
अपनी
महफिल को
सजाने के लिए
अपने
जीवन को बिताने
के लिए
खाए
कितने ही फरेब
अपने
मन को बहलाने
को
कच्चे
धागों से कई
जाल बुने
मैंने
कुछ फूल चुने।
आसपास
अपने बुनी
सपनों की ठंडी
छाया
मन
लुभाती रहीं
सुंदर काया
फिर
भी यह आस की
माया
मैंने
दिन—रैन कभी
चैन नहीं
क्यों पाया!
मैंने
कुछ गीत बुने
गीत सुने
जो
सुने सर धुने
इन
मधुर गीतो की लय
में खोकर
मुस्कुराते
हुए भोले मन
को
मैंने
बहलाया है
रूप—रस
पाने का भ्रम
खाया है!
मैंने
जो फूल चुने
मैंने
जो गीत बुने
मन
को उन फूलों
ने
उन
गीतो ने
गर्माया है
नौजवानी
के हसी
ख्वाबों ने
चंद
रातो में, मुलाकातो
में
मुझको
बहलाया है
रूप
माया में मगर
सुख
मेरे मन ने
कहां पाया है!
तो
'मैत्रेय जी'
तुम्हारे
सपने थे सब, खूब तुमने
बुने। वे सब
सपने थे, टूटने
को ही थे।
उनमें शांति न
मिली, सुख
न मिला, छाया
न मिली। ज्वर
मिला, बीमारी
मिली, तनाव
मिला, संताप
मिला—शांति न
मिली! संसार
से थके —हारे
को, महत्वाकांक्षा
से थके हारे
कों—संन्यास
के अतिरिक्त
और शरण कहां।
हारे को
हरिनाम।
आखिरी
प्रश्न :
मैं
तेरे मैकदे के
काबिल हूं?
यह
हरगिज मैंने
कहा नहीं।
इस्तिहां
और भी बाकी
हैं क्या,
क्या
है,
जो मैंने
सहा नहीं?
मैं तेरे
मैकदे के
काबिल हूं यह
हरगिज मैंने
कहा नहीं।
इसीलिए
तुम मेरे
मैकदे के
काबिल हो।
जिसने यह कहा
कि मैं काबिल
हूं वह
नाकाबिल है।
जिसने कहा, मेरी
कोई योग्यता
नहीं, उसे
मैं अपनी
मधुशाला में
भरती कर लेता
हूं। योग्यों
की यहां कोई
जगह नहीं। अहंकारियों
के लिए यहां
कोई उपाय
नहीं।
'मैं तेरे
मैकदे के काबिल
हूं
यह
हरगिज मैंने
कहा नहीं। '
ठीक
इसीलिए, बिलकुल
ठीक इसीलिए, मेरे द्वार
तुम्हारे लिए
खुले हैं। यह
मेरी मधुशाला
तुम्हारा
मंदिर है।
यहां न
ज्ञानियों की
जरूरत है; न
पंडितो की। यहां
न
पुण्यात्माओं
की जरूरत है; न
साधु—महात्माओं
की। यहां तो
उनकी जरूरत है
जो विनम्र हैं
और झुकने की
जिनकी तैयारी
है।
'इस्तिहां और
भी बाकी हैं
क्या,
क्या
है,
जो मैंने
सहा नहीं?'
कोई
इस्तिहां
बाकी नहीं है।
अगर तुमने जो
सहा है, उसे
मूर्च्छा में
नहीं सहा है
तो फिर कोई
इस्तिहां
बाकी नहीं है।
तुमने जो सहा
है, अगर
होशपूर्वक सह
लिया है तो
तुम आ गए हो
साक्षी के
किनारे; वह
घटना घटने के
ही करीब है, किसी भी
क्षण घट सकती
है। लेकिन अगर
मूर्च्छा में
सहा है तो एक
इस्तिहान
बाकी है। और
वह है जागने
का। जो—जो
मूर्च्छा में
सहा है, अब
उसे जाग कर सह
लो। जो भी तुम
जाग कर सह
लोगे उससे तुम
मुक्त हो
जाओगे।
जब
से तेरी लगन
लगी है हमें
हम
परीदा—हवास
रहते हैं।
दिल
की दूरी अगर न
हायल हो
पास
ही तेरे दास
रहते हैं।
जब
से तेरी लगन
लगी है हमें
हम
परीदा—हवास
रहते हैं।
तब
से हमारी
बुद्धि का होश
उड़ गया! जिनकी
बुद्धि का होश
उड़ गया है, वही
मेरे काम के
हैं। जब से
तेरी लगन लगी
है हमें
हम
परीदा—हवास
रहते हैं।
दिल
की दूरी अगर न
हायल हो
पास
ही तेरे दास
रहते हैं।
बस
जरा—सी दूरी
रह गई है। वह
दूरी है
तुम्हारे मूर्च्छित
हृदय की। वहा
थोड़ा जागरण का
दीया जल जाए, फिर
कोई दूरी
नहीं। और वही
मूर्च्छा सब
दुखों का कारण
है।
बेहिस
वीरानी छाई है
अलबेले
अरमां रूठे
अक्ल
ने कैसी
बेदर्दी से
दिल
की बस्ती लूटी
है!
बुद्धि
ने तुम्हें
लूटा है। तुम
बुद्धि के हाथों
लूटे गए हो।
बेहिस
वीरानी छाई है
अलबेले
अरमां रूठे
अक्ल
ने कैसी
बेदर्दी से
दिल
की बस्ती लूटी
है!
गुमसुम
रहते हैं दुख
सहते
हाले—दिल
किससे कहते?
अपने—
आप से छूट गए
हम
तेरी
गली क्या छूटी
है!
वह
जो प्रभु की
गली
है—प्रेमगली
अति सीकरी तामें
दो न समाय—वह
जो प्रभु की
गली है जहां
केवल एक ही
समा सकता है, वह
छूट गई उसी
दिन, जिस
दिन तुम हुए।
गुमसुम
रहते हैं दुख
सहते
हाले
—दिल किससे
कहते?
अपने—
आप से छूट गए हम
तेरी
गली क्या छूटी
है!
अगर
उस गली में
फिर,
अगर उस
वृंदावन की
गली में फिर
प्रवेश करना
हो—तब अपने को
छोड़ो! उतनी—सी
दूरी है। बस
तुम्हारे 'मैं'
की दूरी ही
एकमात्र दूरी
है। एक ही कदम
उठाना है—'मैं'
से 'न—मैं'
में; अहंकार
से निरहंकार
में—और शेष सब
अपने से हो
जाता है।
मधुशाला के
द्वार खुले
हैं। तुम 'मैं'
को बाहर रख
कर आ सकी तो यह
मैकदा
तुम्हारा है।
हरि ओंम
तत्सत्!
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