हंसिबा
खेलिबा धरिबा
ध्यानं—प्रवचन—पहला
(न जाने समझोगे या नहीं: मृत्यु बन सकती है द्वार अमृत का)
दिनांक:
1अक्टूबर, 1978;
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
सूत्र:
बसती न
सुन्यं
सुन्यं न बसती
अगम अगोचर ऐसा।
गगन
सिषर महिं
बालक बोले
ताका नांव
धरहुगे कैसा।।
हसिबा
खेलिबा धरिबा
ध्यानं।
अहनिसि कथिबा
ब्रह्मगियानं।
हंसै
षेलै न करै मन
भंग। ते निहचल
सदा नाथ के
संग।।
अहनिसि
मन लै उनमन
रहै, गम की
छाडि अग की
कहै।
छाडै
आसा रहे निरास, कहै
ब्रह्मा हूं
ताका दास।।
अरधै
जाता उरधै धरै, काम
दग्ध जे जोगी
करै।
तजै
अल्यंगन काटै
माया, ताका
बिसनु पषालै
पाया।।
मरी
वे जोगी मरी, मरी
मरन है मीठा।
तिस
मरणी मरौ, जिस
मरणी गोरष मरि
दीठा।।
महाकवि
सुमित्रानंदन
पंत ने मुझसे
एक बार पूछा
कि भारत के
धर्माकाश में
वे कौन बारह
लोग हैं—मेरी
दृष्टि में—जो
सबसे चमकते
हुए सितारे
हैं?
मैंने
उन्हें यह
सूची दी :
कृष्ण, पतंजलि,
बुद्ध, महावीर,
नागार्जुन,
शंकर, गोरख,
कबीर, नानक,
मीरा, रामकृष्ण,
कृष्णमूर्ति।
सुमित्रानंदन
पंत ने आंखें
बंद कर लीं, सोच में पड़
गये...।
सूची
बनानी आसान भी
नहीं है, क्योंकि
भारत का आकाश
बड़े
नक्षत्रों से
भरा है! किसे
छोड़ो, किसे
गिनो?.. वे
प्यारे
व्यक्ति थे—अति
कोमल, अति
माधुर्यपूर्ण,
स्त्रैण...।
वृद्धावस्था
तक भी उनके
चेहरे पर वैसी
ही ताजगी बनी
रही जैसी बनी
रहनी चाहिए।
वे सुंदर से
सुंदरतर होते
गये थे...। मैं
उनके चेहरे पर
आते—जाते भाव
पढ़ने लगा।
उन्हें अड़चन
भी हुई थी।
कुछ नाम, जो
स्वभावत: होने
चाहिए थे, नहीं
थे। राम का
नाम नहीं था!
उन्होंने आंख
खोली और मुझसे
कहा : राम का
नाम छोड़ दिया
है आपने!
मैंने कहा :
मुझे बारह की
ही सुविधा हो
चुनने की, तो
बहुत नाम
छोड़ने पड़े।
फिर मैंने
बारह नाम ऐसे
चुने हैं
जिनकी कुछ
मौलिक देन है।
राम की कोई
मौलिक देन
नहीं है, कृष्ण
की मौलिक देन
है। इसलिये
हिंदुओं ने भी
उन्हें
पूर्णावतार
नहीं कहा।
उन्होंने
फिर मुझसे
पूछा : तो फिर
ऐसा करें, सात
नाम मुझे दें।
अब बात और
कठिन हो गयी
थी। मैंने
उन्हें सात
नाम दिये : कृष्ण,
पतंजलि, बुद्ध,
महावीर, शंकर,
गोरख, कबीर।
उन्होंने कहा
: आपने जो पांच
छोड़े, अब
किस आधार पर
छोड़े हैं? मैंने
कहा :
नागार्जुन
बुद्ध में
समाहित हैं।
जो बुद्ध में
बीज—रूप था, उसी को
नागार्जुन ने
प्रगट किया है।
नागार्जुन
छोड़े जा सकते
हैं। और जब
बचाने की बात
हो तो वृक्ष
छोड़े जा सकते
हैं, बीज
नहीं छोड़े जा
सकते।
क्योंकि
बीजों से फिर
वृक्ष हो
जायेंगे, नये
वृक्ष हो
जायेंगे। जहा
बुद्ध पैदा
होंगे वहा
सैकड़ों
नागार्जुन पैदा
हो जायेंगे, लेकिन कोई
नागार्जुन
बुद्ध को पैदा
नहीं कर सकता।
बुद्ध तो
गंगोत्री हैं,
नागार्जुन
तो फिर गंगा
के रास्ते पर
आये हुए एक
तीर्थस्थल हैं—प्यारे!
मगर अगर छोड़ना
हो तो
तीर्थस्थल
छोड़े जा सकते
हैं, गंगोत्री
नहीं छोड़ी जा
सकती।
ऐसे
ही
कृष्णमूर्ति
भी बुद्ध में
समा जाते हैं।
कृष्णमूर्ति
बुद्ध का
नवीनतम
संस्करण हैं—नूतनतम; आज
की भाषा में।
पर भाषा का ही
भेद है। बुद्ध
का जो परम सूत्र
था—अप्प दीपो
भव—कृष्णमूत्रि
बस उसकी ही
व्याख्या हैं।
एक सूत्र की
व्याख्या—गहन,
गंभीर, अति
विस्तीर्ण, अति
महत्वपूर्ण!
पर अपने दीपक
स्वयं बनो, अप्प दीपो
भव—इसकी ही
व्याख्या हैं।
यह बुद्ध का
अंतिम वचन था
इस पृथ्वी पर।
शरीर छोड़ने के
पहले यह
उन्होंने सार—सूत्र
कहा था। जैसे
सारे जीवन की
संपदा को, सारे
जीवन के अनुभव
को इस एक छोटे—से
सूत्र में
समाहित कर
दिया था।
रामकृष्ण, कृष्ण
में सरलता से
लीन हो जाते
हैं। मीरा, नानक, कबीर
में लीन हो
जाते हैं; जैसे
कबीर की ही
शाखायें हैं।
जैसे कबीर में
जो इकट्ठा था,
वह आधा नानक
में प्रगट हुआ
है और आधा
मीरा में।
नानक में कबीर
का पुरुष—रूप
प्रगट हुआ है।
इसलिए सिक्स
धर्म अगर
क्षत्रिय का
धर्म हो गया, योद्धा का, तो आश्चर्य
नहीं है। मीरा
में कबीर का
स्त्रैण रूप
प्रगट हुआ है—इसलिए
सारा माधुर्य,
सारी सुगंध,
सारा सुवास,
सारा संगीत,
मीरा के
पैरों में
घुंघरू बनकर
बजा है। मीरा
के इकतारे पर
कबीर की नारी
गाई है; नानक
में कबीर का
पुरुष बोला है।
दोनों कबीर
में समाहित हो
जाते हैं।
इस
तरह,
मैंने कहा :
मैंने यह सात
की सूची बनाई।
अब उनकी
उत्सुकता
बहुत बढ़ गयी
थी। उन्होंने
कहा : और अगर
पांच की सूची
बनानी पड़े?
तो मैंने कहा :
काम मेरे लिये
कठिन होता
जायेगा।
मैंने
यह सूची
उन्हें दी :
कृष्ण, पतंजलि,
बुद्ध, महावीर,
गोरख।..
क्योंकि कबीर
को गोरख में
लीन किया जा
सकता है। गोरख
मूल हैं। गोरख
को नहीं छोड़ा
जा सकता। और
शंकर तो कृष्ण
में सरलता से
लीन हो जाते
हैं। क्या के
ही एक अंग की
व्याख्या हैं,
कृष्ण के ही
एक अंग का
दार्शनिक
विवेचन हैं।
तब
तो वे बोले : बस, एक
बार और...। अगर
चार ही रखने
हों?
तो
मैंने उन्हें
सूची दी.
कृष्ण, पतंजलि,
बुद्ध, गोरख।...
क्योंकि
महावीर बुद्ध
से बहुत भिन्न
नहीं हैं, थोड़े
ही भिन्न हैं।
जरा—सा ही भेद
है; वह भी
अभिव्यक्ति
का भेद है।
बुद्ध की
महिमा में
महावीर की
महिमा लीन हो
सकती है।
वे
कहने लगे : बस
एक बार और...। आप
तीन व्यक्ति
चुनें।
मैंने
कहा : अब असंभव
है। अब इन चार
में से मैं
किसी को भी
छोड़ न सकूंगा।
फिर मैंने उन्हें
कहा : जैसे चार
दिशाएं हैं, ऐसे
ये चार
व्यक्तित्व
हैं। जैसे काल
और क्षेत्र के
चार आयाम हैं,
ऐसे ये चार
आयाम हैं।
जैसे
परमात्मा की
हमने चार
भुजाएं सोची
हैं, ऐसी
ये चार भुजाएं
हैं। ऐसे तो
एक ही है, लेकिन
उस एक की चार
भुजाएं हैं।
अब इनमें से
कुछ छोड़ना तो हाथ
काटने जैसा
होगा। यह मैं
न कर सकूंगा।
अभी तक मैं
आपकी बात
मानकर चलता
रहा, संख्या
कम करता चला
गया। क्योंकि
अभी तक जो अलग
करना पड़ा, वह
वस्त्र था; अब अंग
तोड़ने पड़ेंगे।
अंग— भंग मैं न
कर सकूंगा।
ऐसी हिंसा आप
न करवायें।
वे
कहने लगे : कुछ
प्रश्न उठ गये; एक
तो यह, कि
आप महावीर को
छोड़ सके, गोरख
को नहीं?
गोरख
को नहीं छोड़
सकता हूं
क्योंकि गोरख
से इस देश में
एक नया ही
सूत्रपात हुआ, महावीर
से कोई नया
सूत्रपात
नहीं हुआ। वे
अपूर्व पुरुष
हैं; मगर
जो सदियों से
कहा गया था, उनके पहले
जो तेईस जैन
तीर्थंकर कह
चुके थे, उसकी
ही पुनरुक्ति
हैं। वे किसी
यात्रा का
प्रारंभ नहीं
हैं। वे किसी
नयी शृंखला की
पहली कड़ी नहीं
हैं, बल्कि
अंतिम कड़ी हैं।
गोरख
एक शृंखला की
पहली कड़ी हैं।
उनसे एक नये
प्रकार के
धर्म का जन्म
हुआ,
आविर्भाव
हुआ। गोरख के
बिना न तो
कबीर हो सकते
हैं, न
नानक हो सकते
हैं, न
दादू न वाजिद,
न फरीद, न
मीरा—गोरख के
बिना ये कोई
भी न हो
सकेंगे। इन सब
के मौलिक आधार
गोरख में हैं।
फिर मंदिर
बहुत ऊंचा उठा।
मंदिर पर बड़े
स्वर्ण—कलश
चढ़े..। लेकिन
नींव का पत्थर
नींव का पत्थर
है। और स्वर्ण—कलश
दूर से दिखाई
पड़ते हैं, लेकिन नींव
के पत्थर से
ज्यादा
मूल्यवान
नहीं हो सकते।
और नींव के
पत्थर किसी को
दिखाई भी नहीं
पड़ते, मगर
उन्हीं
पत्थरों पर
टिकी होती है
सारी व्यवस्था,
सारी
भित्तिया, सारे
शिखर...।
शिखरों की
पूजा होती है,
बुनियाद के
पत्थरों को तो
लोग भूल ही
जाते हैं। ऐसे
ही गोरख भी
भूल गये हैं।
लेकिन
भारत की सारी
संत—परंपरा
गोरख की ऋणी
है। जैसे
पतंजलि के
बिना भारत में
योग की कोई
संभावना न रह
जायेगी; जैसे
बुद्ध के बिना
ध्यान की
आधारशिला उखड़
जायेगी; जैसे
कृष्ण के बिना
प्रेम की
अभिव्यक्ति
को मार्ग न
मिलेगा—ऐसे
गोरख के बिना
उस परम सत्य
को पाने के लिये
विधियों की जो
तलाश शुरू हुई,
साधना की जो
व्यवस्था बनी,
वह न बन
सकेगी। गोरख
ने जितना
आविष्कार
किया मनुष्य
के भीतर अंतर—खोज
के लिये, उतना
शायद किसी ने
भी नहीं किया
है। उन्होंने
इतनी विधियां
दीं कि अगर
विधियों के
हिसाब से सोचा
जाये तो गोरख
सबसे बड़े
आविष्कारक
हैं। इतने
द्वार तोड़े
मनुष्य के
अंतरतम में
जाने के लिये,
इतने द्वार
तोड़े कि लोग
द्वारों में
उलझ गये।
इसलिए
हमारे पास एक
शब्द चल पड़ा
है—गोरख को तो
लोग भूल गये—गोरखधंधा
शब्द चल पड़ा
है। उन्होंने
इतनी विधियां
दीं कि लोग
उलझ गये कि
कौन—सी ठीक, कौन—सी
गलत, कौन—सी
करें, कौन—सी
छोड़े..? उन्होंने
इतने मार्ग
दिये कि लोग
किंकर्तव्यविमूढ़
हो गये, इसलिए
गोरखधंधा
शब्द बन गया।
अब कोई किसी
चीज में उलझा
हो तो हम कहते
हैं, क्या
गोरखधंधे में
उलझे हो!
गोरख
के पास अपूर्व
व्यक्तित्व
था,
जैसे
आइंस्टीन के
पास
व्यक्तित्व
था। जगत के
सत्य को खोजने
के लिये जो
पैने से पैने
उपाय अलबर्ट
आइंस्टीन दे
गया, उसके
पहले किसी ने
भी नहीं दिये
थे। ही, अब
उनका विकास हो
सकेगा, अब
उन पर और धार
रखी जा सकेगी।
मगर जो प्रथम
काम था वह
आइंस्टीन ने
किया है। जो
पीछे आयेंगे
वे नंबर दो
होंगे। वे अब
प्रथम नहीं हो
सकते। राह
पहली तो
आइंस्टीन ने
तोड़ी, अब
इस राह को
पक्का
करनेवाले, मजबूत
करनेवाले, मील
के पत्थर
लगाने वाले, सुंदर
बनानेवाले, सुगम
बनानेवाले
बहुत लोग
आयेंगे। मगर
आइंस्टीन की
जगह अब कोई भी
नहीं ले सकता।
ऐसी ही घटना
अंतरजगत में
गोरख के साथ
घटी।
लेकिन
गोरख को लोग
भूल क्यों गये? मील
के पत्थर याद
रह जाते हैं, राह तोड़ने वाले
भूल जाते हैं।
राह को सजाने वाले
याद रह जाते
हैं, राह
को पहली बार
तोड़ने वाले
भूल जाते हैं।
भूल जाते हैं
इसलिए कि जो
पीछे आते हैं
उनको सुविधा
होती है
संवारने की।
जो पहले आता
है, वह तो
अनगढ़ होता है,
कच्चा होता
है। गोरख जैसे
खदान से निकले
हीरे हैं। अगर
गोरख और कबीर
बैठे हों तो
तुम कबीर से
प्रभावित
होओगे, गोरख
से नहीं।
क्योंकि गोरख
तो खदान से
निकले हीरे
हैं; और
कबीर—जिन पर
जौहरियों ने
खूब मेहनत की,
जिन पर खूब
छेनी चली है, जिनको खूब
निखार दिया
गया है!
यह
तो तुम्हें
पता है न कि
कोहिनूर हीरा
जब पहली दफा
मिला तो जिस
आदमी को मिला
था उसे पता भी नहीं
था कि कोहिनूर
है। उसने
बच्चों को
खेलने के लिये
दे दिया था, समझकर
कि कोई रंगीन
पत्थर है।
गरीब आदमी था।
उसके खेत से
बहती हुई एक
छोटी—सी नदी
की धार में
कोहिनूर मिला
था। महीनों
उसके घर पडा
रहा, कोहिनूर
बच्चे खेलते
रहे, फेंकते
रहे इस कोने
से उस कोने, आंगन में
पड़ा रहा..।
तुम
पहचान न पाते
कोहिनूर को।
कोहिनूर का
मूल वजन तीन
गुना था आज के
कोहिनूर से।
फिर उस पर धार
रखी गई, निखार
किये गये, काटे
गये, उसके
पहलू उभारे
गये। आज सिर्फ
एक तिहाई वजन
बचा है, लेकिन
दाम करोड़ों
गुना ज्यादा
हो गये। वजन
कम होता गया, दाम बढ़ते
गये, क्योंकि
निखार आता गया—और,
और निखार...।
कबीर
और गोरख साथ
बैठे हों, तुम
गोरख को शायद
पहचानो ही न; क्योंकि
गोरख तो अभी
गोलकोंडा की
खदान से निकले
कोहिनूर हीरे
हैं। कबीर पर
बड़ी धार रखी
जा चुकी, जौहरी
मेहनत कर चुके।...
कबीर तुम्हें
पहचान में आ
जायेंगे।
इसलिये
गोरख का नाम
भूल गया है।
बुनियाद के
पत्थर भूल
जाते हैं!
गोरख
के वचन सुनकर
तुम चौंकोगे।
थोड़ी धार रखनी
पड़ेगी; अनगढ़
हैं। वही धार
रखने का काम
मैं यहां कर
रहा हूं। जरा
तुम्हें
पहचान आने
लगेगी, तुम
चमत्कृत
होओगे। जो भी
सार्थक है, गोरख ने कह
दिया है। जो
भी मूल्यवान
है, कह
दिया है।
तो
मैंने
सुमित्रानंदन
पंत को कहा कि
गोरख को न छोड़
सकूंगा। और
इसलिए चार से
और अब संख्या
कम नहीं की जा
सकती।
उन्होंने
सोचा होगा
स्वभावत: कि
मैं गोरख को
छोडूंगा, महावीर
को बचाऊंगा।
महावीर
कोहिनूर हैं,
अभी कच्चे
हीरे नहीं हैं
खदान से निकले।
एक पूरी
परंपरा है
तेईस
तीर्थंकरों
की, हजारों
साल की, जिसमें
धार रखी गई है,
पैने किये
गये हैं—खूब
समुज्ज्वल हो
गये हैं! तुम
देखते हो, चौबीसवें
तीर्थंकर हैं
महावीर; बाकी
तेईस के नाम
लोगों को भूल
गये! जो जैन
नहीं हैं वे
तो तेईस के
नाम गिना ही न
सकेंगे। और जो
जैन हैं वे भी
तेईस का नाम
क्रमबद्ध रूप से
न गिना सकेंगे,
उनसे भी भूल—चूक
हो जायेगी।
महावीर तो
अंतिम हैं—मंदिर
का कलश! मंदिर
के कलश याद रह
जाते हैं। फिर
उनकी चर्चा
होती रहती है।
बुनियाद के
पत्थरों की
कौन चर्चा
करता है!
आज
हम बुनियाद के
एक पत्थर की
बात शुरू करते
हैं। इस पर
पूरा भवन खड़ा
है भारत के
संत—साहित्य
का! इस एक
व्यक्ति पर सब
दारोमदार है।
इसने सब कह
दिया है जो
धीरे— धीरे
बड़ा रंगीन हो
जायेगा, बड़ा
सुंदर हो
जायेगा; जिस
पर लोग सदियों
तक साधना
करेंगे, ध्यान
करेंगे; जिसके
द्वारा न
मालूम कितने
सिद्धपुरुष
पैदा होंगे!
मरौ
वे जोगी मरौ!
ऐसा
अदभुत वचन है!
कहते हैं : मर
जाओ,
मिट जाओ, बिलकुल मिट
जाओ!
मरौ
वे जोगी मरौ
मरौ मरन है
मीठा?
क्योंकि
मृत्यु से
ज्यादा मीठी
और कोई चीज इस
जगत में नहीं
है।
तिस
मरणी मरौ...
और
ऐसी मृत्यु
मरो
जिस
मरणी गोरष मरि
दीठा।
जिस
तरह से मरकर
गोरख को दर्शन
उपलब्ध हुआ, ऐसे
ही तुम भी मर
जाओ और दर्शन
को उपलब्ध हो
जाओ।
एक
मृत्यु है
जिससे हम
परिचित हैं; जिसमें
देह मरती है, मगर हमारा
अहंकार और
हमारा मन
जीवित रह जाता
है। वही
अहंकार नये
गर्भ लेता है।
वही अहंकार
नयी वासनाओं
से पीड़ित हुआ
फिर यात्रा पर
निकल जाता है।
एक देह से
छूटा नहीं कि
दूसरी देह के
लिये आतुर हो
जाता है। तो
यह मृत्यु तो वास्तविक
मृत्यु नहीं
है।
मैंने
सुना है, एक
आदमी ने गोरख
से कहा कि मैं
आत्महत्या
करने की सोच
रहा हूं। गोरख
ने कहा : जाओ और
करो, मैं
तुमसे कहता
हूं तुम करके
बहुत चौंकोगे।
उस
आदमी ने कहा :
मतलब? मैं आया
था कि आप
समझायेंगे कि
मत करो। मैं
और साधुओं के
पास भी गया।
सभी ने समझाया
कि भाई, ऐसा
मत करो, आत्महत्या
बड़ा पाप है।
गोरख
ने कहा : पागल हुए
हो,
आत्महत्या
कोई कर ही
नहीं सकता।
कोई मर ही
नहीं सकता।
मरना संभव
नहीं है। मैं
तुमसे कहे
देता हूं करो,
करके बहुत
चौंकोगे।
करके पाओगे कि
अरे, देह
तो छूट गयी, मैं तो वैसा
का वैसा हूं!
और अगर असली
आत्महत्या
करनी हो तो
फिर मेरे पास
रुक जाओ। छोटा—मोटा
खेल करना हो
तो तुम्हारी
मर्जी—कूद जाओ
किसी पहाड़ी से,
लगा लो
गर्दन में
फांसी। असली
मरना हो तो
रुक जाओ मेरे
पास। मैं
तुम्हें वह
कला दूंगा
जिससे
महामृत्यु घटती
है, फिर
दुबारा आना न
हो सकेगा।
लेकिन वह
महामृत्यु भी
सिर्फ हमें
महामृत्यु
मालूम होती है,
इसलिए उसको
मीठा कह रहे
हैं।
मरौ वे
जोगी मरौ मरौ
मरन है मीठा।
तिस
मरणी मरौ जिस
मरणी गोरष मरि
दीठा।।
ऐसी
मृत्यु
तुम्हें
सिखाता हूं
गोरख कहते हैं, जिस
मृत्यु से
गुजर कर मैं
जागा। सोने की
मृत्यु हुई है,
मेरी नहीं।
अहंकार मरा, मैं नहीं।
द्वैत मरा, मैं नहीं।
द्वैत मरा तो
अद्वैत का
जन्म हुआ। समय
मरा तो
शाश्वतता
मिली। वह जो
क्षुद्र—सीमित
जीवन था, टूटा,
तो बूंद
सागर हो गयी।
ही, निश्चित
ही जब बूंद
सागर में
गिरती है तो
एक अर्थ में
मर जाती है, बूंद की तरह
मर जाती है।
और एक अर्थ
में पहली बार
महाजीवन
उपलब्ध होता
है—सागर की
भांति जीती
है!
रहीम
का वचन है :
बिंदु
भी सिंधु समान, को
अचरज कासों
कहें,
हेरनहार
हैरान, रहिमन
अपने आपने!
रहीम
कहते हैं.
बिंदु भी
सिंधु के समान
है। को अचरज
कासों कहें!
किससे कहें, कौन
मानेगा! बात
इतनी
विस्मयकारी
है, कौन
स्वीकार
करेगा कि
बिंदु और
सिंधु के समान
है! कि बूंद
सागर है! कि
अणु में
परमात्मा
विराजमान है!
कि क्षुद्र यहां
कुछ भी नहीं
है! कि सभी में
विराट
समाविष्ट है!
बिंदु
भी सिंधु समान, को
अचरज कासों
कहें।
ऐसे
अचरज की बात
है,
किसी से कहो,
कोई मानता
नहीं। अचरज की
बात ऐसी है, जब पहली दफा
खुद भी जाना
था तो मानने
का मन न हुआ था!
हेरनहार
हैरान..!
जब
पहली दफा खुद
देखा था तो
मैं खुद ही
हैरान रह गया
था। हेरनहार
हैरान, रहिमन
अपने आपने।
देखता
था खुद को और
हैरान होता था।
क्योंकि
मैंने तो सदा
यही जाना था
कि क्षुद्र
हूं। लेकिन
स्वयं का
विराट तभी
अनुभव में आता
है जब क्षुद्र
की सीमाएं कोई
तोड़ देता है; क्षुद्र
का अतिक्रमण
करता है जब
कोई।
अहंकार
होकर तुमने
कुछ कमाया
नहीं, गंवाया
है। अहंकार
निर्मित करके
तुमने कुछ
पाया नहीं, सब खोया है।
बूंद रह गये
हो, बड़ी
छोटी बूंद रह
गये हो। जितने
अकड़ते हो उतने
छोटे होते
जाते हो।
अकड़ना
और— और अहंकार
को मजबूत करता
है। जितने
गलोगे उतने
बड़े हो जाओगे, जितने
पिघलोगे उतने
बड़े हो जाओगे।
अगर बिलकुल
पिघल जाओ, वाष्पीभूत
हो जाओ तो
सारा आकाश
तुम्हारा है।
गिरो सागर में
तो तुम सागर
हो जाओ। उठो
आकाश में
वाष्पीभूत
होकर, तो
तुम आकाश हो
जाओ।
तुम्हारा
होना और परमात्मा
का होना एक ही
है।
बिंदु
भी सिंधु समान, को
अचरज कासों
कहें।
लेकिन
जब पहली दफे
तुम्हें भी
अनुभव होगा, तुम
भी एकदम गुंगे
हो जाओगे...
गुंगे केरी
सरकस. अनुभव
तो होने लगेगा,
स्वाद तो
आने लगेगा, अमृत तो
भीतर झरने
लगेगा कंठ में,
मगर कहने के
लिये शब्द न
मिलेंगे। को
अचरज कासों
कहें! कैसे
कहें बात इतने
अचरज की है? जिन्होंने
हिम्मत करके
कहा अहं
ब्रह्मास्मि,
सोचते हो
कोई मानता है?
मंसूर
ने कहा : अनलहक, कि
मैं परमात्मा
हूं। सूली पर
चढ़ा दिया
लोगों ने।
जीसस को मार
डाला, क्योंकि
जीसस ने यह
कहा कि वह जो
आकाश में है मेरा
पिता और मैं, हम दोनों एक
ही हैं। पिता
और बेटा दो
नहीं हैं।
यहूदी क्षमा न
कर सके। जब भी
किसी ने घोषणा
की है भगवत्ता
की, तभी
लोग क्षमा
नहीं कर सके।
बात ही ऐसी है।
को अचरज कासों
कहें! किससे
कहने जाओ?
जिससे कहोगे
वही इनकार
करने लगेगा।
कल
गुरुकुल
कांगड़ी के भूतपूर्व
उपकुलपति
सत्यव्रत का
आश्रम में आना
हुआ। दर्शन
उन्हें आश्रम
दिखाने ले गयी।
सत्यव्रत ने
उपनिषद पर
किताबें लिखी
हैं। वेदों के
ज्ञाता हैं।
इस देश में
कुछ थोड़े ही
लोग वेद को
इतनी गहराई से
जानते होंगे
जैसा
सत्यव्रत
जानते हैं।
उनके वक्तव्य, उनके
विचार मैंने
पढ़े हैं। मगर
उनका भी
प्रश्न दर्शन
से यही था कि
आप अपने गुरु
को भगवान
क्यों कहती
हैं? उनका
भी...! ऐसे हमारे
पंडित में और
अज्ञानी में जरा
भी भेद नहीं
है। दर्शन ने
ठीक उत्तर
दिया उन्हें।
दर्शन ने कहा :
भगवान तो आप
भी हैं, मगर
आपको इसका
स्मरण नहीं है
और उन्हें
स्मरण आ गया
है। मुंहतोड़
जवाब था, दो
टूक जवाब था!
और पंडित जब
कोई इस आश्रम
में आये तो
ध्यान रखना, ऐसा ही ठीक—ठीक
जवाब देना।
उपनिषद पर
किताबें लिखी
हैं सत्यव्रत
ने, जरूर 'अहं
ब्रह्मास्मि'
शब्द के
करीब आये
होंगे, ऐसा
कौन है जो
नहीं आया है!
जरूर यह
महावाक्य
सोचा होगा, विचारा होगा
: तत्वमसि
श्वेतकेतु! हे
श्वेतकेतु, तू वही है।
और इस पर
विवेचन भी
किया होगा। इस
पर व्याख्यान
भी दिये होंगे।
लेकिन यह बात
ऊपर—ऊपर गुजर
गयी। इससे तो
सीधी—साधी
दर्शन में
ज्यादा गहरी
उतर गयी! यह
पांडित्य ही
रहा, थोथा,
कचरे जैसा।
इसका कोई
मूल्य नहीं; दो कौड़ी
इसका मूल्य
नहीं।
उपनिषद
कहते हैं कि
तुम वही हो।
और उपनिषद
कहते हैं : मैं
ब्रह्म हूं।
फिर भी तुम
पूछे चले जा
रहे हो कि
क्यों किसी को
भगवान कहें?
मैं तुमसे
पूछता हूं ऐसा
कौन है जिसको
भगवान न कहें?
रामकृष्ण
से किसी ने
पूछा. भगवान
कहां है? तो
रामकृष्ण ने
कहा : यह मत
पूछो, यह
पूछो कि कहां
नहीं है?
नानक
को काबा के
पुरोहितों ने
कहा. पैर हटा
लो काबा की
तरफ से। शर्म
नहीं आती, साधु
होकर पवित्र
मंदिर की तरफ
पैर किये हो?
नानक
ने कहा. मेरे
तुम पैर उस
तरफ हटा दो
जिस तरफ
पवित्र
परमात्मा न
हो! मैं क्या
करूं, कहां
पैर रखूं? किसी
तरफ तो पैर
रखूंगा, लेकिन
वह तो सब तरफ
मौजूद है। सभी
दिशाओं को उसी
ने घेरा है।
लेकिन मुझे
चिंता नहीं
होती, नानक
ने कहा, क्योंकि
वही बाहर है, वही भीतर है।
उसका ही पत्थर
है, उसके
ही पैर हैं।
मैं भी क्या
करूं? मैं
बीच में कौन
हूं?
दर्शन
ने ठीक कहा कि
जाग जायेंगे
तो आपको भी पता
चलेगा कि
भगवान ही
विराजमान है।
इससे ही मैं
चकित होता हूं
कि जिनको हम
तथाकथित
ज्ञानी कहते
हैं... और यही
ज्ञानी लोगों
को चलाते हैं!
अंधा अंधा
ठेलिया, दोनों
कूप पड़त। बड़ी—बड़ी
उपाधियां हैं—सत्यव्रत
सिद्धातालकार!
सिद्धात के
जाननेवाले!
सिद्धि
के बिना कोई
सिद्धात को
नहीं जानता।
शास्त्र पढ़कर
कोई सिद्धात
नहीं जाने
जाते—स्वयं
में उतरकर
जाने जाते हैं।
बिंदु
भी सिंधु समान, को
अचरज कासों
कहें,
हेरनहार
हैरान, रहिमन
अपने आपने।
रहीम
कहते हैं :
अपने भीतर
देखा तो मैं
खुद ही हैरान
रह गया हूं
चकित, अवाक!
खुद ही भरोसा
नहीं आ रहा है
कि मैं और परमात्मा!
यह जो उठ रही
है वाणी भीतर
से, अनलहक
का नाद उठ रहा
है, यह जो
अहं
ब्रह्मास्मि
की गज आ रही है,
यह जो ओंकार
जग रहा है—मुझे
ही भरोसा नहीं
आता कि मैं, रहीम मैं, मेरे जैसा
क्षुद्र, साधारण
आदमी.. मैं और
भगवान! बिंदु
भी सिंधु
समान! अब मैं किससे
कहूं खुद ही
भरोसा नहीं
आता तो किससे
कहूं?
इसका
ही तुम्हें
भरोसा दिलाने
को यहां मैं
बैठा हूं। यह
भरोसा आ जाए
जो समझना
सत्संग हुआ।
मेरे पास बैठ—बैठ
कर सिद्धात—
अलंकार मत बन
जाना! सिद्ध
बनो,
इससे कम में
कुछ भी न होगा।
इससे कम का
कोई मूल्य
नहीं है। मरने
की कला सीखो।
मरो हे जोगी
मरो! बूंद की
तरह मरो तो
समुंदर की तरह
हो जाओ।
मृत्यु की कला
ही महाजीवन को
पाने की कला
है।
बसती न
सुन्यं
सुन्यं न बसती
अगम अगोचर ऐसा।
गगन
सिषर महि बालक
बोले ताका
नांव धरहुगे
कैसा
बसती न
सुन्यं..।
न
तो हम कह सकते
हैं परमात्मा
है और न कह
सकते हैं नहीं
है। सोचना, विचारना।
परमात्मा
नहीं और है, दोनों का
जोड़ है, इसलिये
दोनों के पार
है। न तो
आस्तिक जानता
है उसे, न
नास्तिक
जानता है उसे।
न तो आस्तिक
धार्मिक है, न नास्तिक।
स्वभावत:, नास्तिक
तो धार्मिक है
ही नहीं; तुम
जिसे आस्तिक
कहते हो वह भी
धार्मिक नहीं
है। तुम्हारे
आस्तिक और
नास्तिक एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
आस्तिक कहता
है—है; नास्तिक
कहता है—नहीं
है। दोनों ने
आधा— आधा चुना
है। परमात्मा
है और नहीं है,
दोनों साथ —साथ,
एक साथ, युगपत।
उसके होने का
ढंग नहीं होने
का ढंग है।
उसकी पूर्णता
शून्य की
पूर्णता है।
उसकी
उपस्थिति
अनुपस्थिति
जैसी है।
परमात्मा में
सारे विरोध, सारे
विरोधाभास
समाहित होते
हैं। और यह
सबसे
बुनियादी
विरोध है : है, या नहीं? अगर
कहो है, तो
आधा ही रह
जायेगा। फिर जब
चीजें नहीं हो
जाती हैं तो
कहां जाती हैं?
नहीं होकर
भी तो कहीं
होती होंगी।
नहीं होकर भी
तो कहीं बनी
रहती होंगी।
एक
वृक्ष है, बडा
वृक्ष है! उस
पर एक बीज लगा
है। वृक्ष मर
जायेगा, अब
तुम बीज को बो
दो, फिर
वृक्ष हो
जायेगा। बीज
क्या था? वृक्ष
का नहीं होना
था, वृक्ष
का नहीं रूप था।
अगर तुम बीज
को तोड़ते और
खोजते तो
वृक्ष तुम्हें
मिलनेवाला
नहीं था। तुम
कितनी ही खोज
करो, बीज
में वृक्ष
नहीं मिलेगा,
वृक्ष कहां
गया? लेकिन
किसी न किसी
अर्थ में बीज
में वृक्ष छिपा
है। अब
अनुपस्थित
होकर छिपा है।
तब उपस्थित
होकर प्रगट
हुआ था, अब
अनुपस्थित होकर
छिपा है। बीज
को फिर बो दो
जमीन में, फिर
सम्यक सुविधा
जुटा दो, फिर
वृक्ष हो
जायेगा। और
ध्यान रखना, जब वृक्ष
होगा तो बीज
खो जायेगा, दोनों साथ
नहीं होंगे।
वृक्ष खोता है,
बीज हो जाता
है; बीज
खोता है, वृक्ष
हो जाता है।
ये एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। तुम
दोनों पहलू एक
साथ नहीं देख
सकते, या
कि देख सकते
हो?
तुम
कोशिश करना, सिक्का
तो छोटी—सी
चीज है, हाथ
में रखा जा
सकता है।
दोनों पहलू
पूरे—पूरे एक
साथ देखने की
कोशिश करना।
तुम मुश्किल
में पड़ जाओगे।
जब एक पहलू
देखोगे, दूसरा
नहीं दिखाई
पड़ेगा; जब
दूसरा देखोगे,
पहला खो
जायेगा।
लेकिन पहले के
खो जाने से
क्या तुम
कहोगे कि नहीं
है?
सृष्टि
भी परमात्मा
का रूप है, प्रलय
भी। उसका एक
रूप है
अभिव्यक्ति
और एक रूप है
अनभिव्यक्ति।
जब तुम तार
छेड़ देते हो
वीणा के, संगीत
जगता है। अभी—
अभी कहां था, क्षण— भर
पहले कहां था?
शून्य में
था। था तो
जरूर, न
होता तो पैदा
नहीं हो सकता
था। छिपा पड़ा
था, किसी
गहन गुफा में।
तुमने तार
क्या छेडे, पुकार दे दी।
तुमने तार
छेड़कर
प्रेरणा दे दी।
गीत तो सोया
पड़ा था, जाग
उठा।
संगीतज्ञ
स्वर पैदा
नहीं करता, सिर्फ जगाता
है—सोये को
जगाता है। कौन
स्वर पैदा
करेगा? स्वर
पैदा करने का
कोई उपाय नहीं
है।
इस
जगत में न तो
कोई चीज बनाई
जा सकती है और
न मिटाई जा
सकती है। अब
तो विज्ञान भी
इस बात से
सहमत है। तुम
रेत के एक
छोटे से कण को
भी मिटा नहीं
सकते और न बना
सकते हो। न तो
कुछ बनाया जा
सकता है, न कुछ
घटाया जा सकता
है। जगत उतना
ही है जितना
है, लेकिन
फिर भी चीजें
बनती और मिटती
हैं। तो इसका
अर्थ हुआ, जैसे
पर्दे के पीछे
चले जाते हैं
रामलीला के खेल
करनेवाले लोग,
फिर पर्दे
के बाहर आ
जाते हैं।
पर्दा उठा और
पर्दा गिरा।
वृक्ष विदा हो
गया, पर्दा
गिर गया।
वृक्ष पर्दे
की ओट चला गया,
बीज हो गया।
पर्दा उठा, बीज फिर
वृक्ष हुआ।
जब
तुम एक
व्यक्ति को
मरते देखते हो
तो तुम क्या
देख रहे हो?
परमात्मा का 'नहीं' रूप,
अभी था, अब
नहीं है। तो
जो था वही
नहीं हो जाता
है, और जो 'नहीं' है
वह फिर 'है'
हो जायेगा।
आस्तिक भी आधे
को चुनता है, नास्तिक भी
आधे को चुनता
है। दोनों में
कुछ फर्क नहीं।
तराजू के एक—एक
पलड़े को चुन
लिया है दोनों
ने। दोनों ने
तराजू तोड़
डाला है।
तराजू के
दोनों पलड़े
चाहिए। तराजू
दोनों पलड़ों
का जोड़ है और
जोड़ से कुछ ज्यादा
भी है।
परमात्मा है
और नहीं का
जोड़ है और
दोनों से कुछ
ज्यादा भी है।
आस्तिक
भी भयभीत है, नास्तिक
भी भयभीत है।
तुम आस्तिक और
नास्तिक के भय
को अगर समझोगे
तो तुम्हें एक
बड़ी हैरानी की
बात पता चलेगी
कि दोनों में
जरा भी भेद
नहीं है; दोनों
की बुनियादी
आधारशिला भय
है। आस्तिक
भयभीत है कि
पता नहीं मरने
के बाद क्या
हो; पता
नहीं जन्म के
पहले क्या था!
पता नहीं, अकेला
रह जाऊंगा, पत्नी छूट
जायेगी, मित्र
छूट जायेंगे,
पिता छूट
जायेंगे, मां
छूट जायेगी, परिवार छूट
जायेगा। सब
बसाया था, सब
छूट जायेगा!
अकेला रह
जाऊंगा
निर्जन की यात्रा
पर! कौन मेरा
संगी, कौन
मेरा साथी!
परमात्मा को
मान लो, उसका
भरोसा साथ देगा।
वह तो साथ
होगा!
आस्तिक
भी डर के कारण
परमात्मा को
मान रहा है।
मंदिर—मस्जिदों
में जो लोग
झुके हैं
घुटनों के बल
और प्रार्थना
कर रहे हैं, उनकी
प्रार्थनाएं
भय से निकल
रही हैं। और
जब भी
प्रार्थना भय
से निकलती है,
गंदी हो
जाती है।
तुम्हारी
प्रार्थना के
कारण मंदिर भी
गंदे हो गये
हैं।
तुम्हारी
प्रार्थनाओं
की गंदगी के
कारण मंदिर भी
राजनीति के
अड्डे हो गये
हैं। वहां भी
लड़ाई—झगड़ा है,
हिंसा—वैमनस्य
है, प्रति—स्पर्धा
है। मंदिर और
मस्जिद सिवाय
लड़ाने के और
कोई काम करते
ही नहीं हैं।
आस्तिक
भयभीत है।
नास्तिक भी, मैं
कहता हूं
भयभीत है, तो
तुम थोड़ा
चौंकोगे।
क्योंकि
आमतौर से लोग
सोचते हैं कि
नास्तिक भयभीत
होता तो
परमात्मा को
मान लेता। लोग
कोशिश करके
हार चुके हैं
उसे डरा —डरा
कर, उसको
डरवाते हैं
नर्क से। वहां
के बड़े दृश्य
खींचते हैं—बड़े
विहंगम दृश्य!
बिलकुल
तस्वीर खड़ी कर
देते हैं नरक
की—आग की
लपटें, जलते
हुए कडाहे, वीभत्स
शैतान!
सतायेंगे
बुरी तरह, मारेंगे
बुरी तरह, आग
में जलायेंगे
बुरी तरह।
इतना डरवाते
हैं, फिर
भी नास्तिक
मानता नहीं है
ईश्वर को, तो
लोग सोचते हैं
शायद नास्तिक
बहुत निर्भय है।
बात गलत है।
जो
मनस की खोज
में गहरे
जायेंगे वे
पायेंगे कि
नास्तिक भी
ईश्वर को इसलिए
इनकार कर रहा
है कि वह
भयभीत है।
उसका इनकार भय
से ही निकल
रहा है। अगर
ईश्वर है तो
वह डरता है।
तो फिर नर्क
भी होगा। तो
फिर स्वर्ग भी
होगा। तो फिर
पाप भी होगा, पुण्य
भी होगा। अगर
ईश्वर है तो
फिर किसी दिन
जवाब भी देना
होगा। अगर
ईश्वर है तो
फिर कोई आंख
हमें देख रही
है; कोई
हमें परख रहा
है; कहीं
हमारे जीवन का
लेखा—जोखा रखा
जा रहा है और
हम किसी के
सामने उत्तरदायी
हैं और हम ऐसे
ही बच न
निकलेंगे।
अगर ईश्वर है
तो फिर हमें
अपने को बदलना
पड़ेगा। फिर
हमें इस ढंग
से जीना होगा
कि हम उसके
सामने सिर
उठाकर खड़े हो
सकें।
और
अगर ईश्वर है
तो एक और
घबराहट पकड़ती
है,
नास्तिक को।
अगर ईश्वर है
तो मुझे उसे
खोजना भी होगा,
जीवन दाव पर
लगाना होगा।
यह सस्ता सौदा
नहीं है।
अच्छा यही हो
कि ईश्वर न हो,
तो छुटकारा
हुआ। ईश्वर के
साथ ही
छुटकारा हो गया—स्वर्ग
से भी, नर्क
से भी। न नर्क
का डर रहा, न
स्वर्ग खोने
का डर रहा। न
यह भय रहा कि
जो मंदिर में
पूजा कर रहे
हैं ये स्वर्ग
चले जायेंगे।
है ही नहीं; कौन स्वर्ग
गया है, कौन
जायेगा, कहां
जायेगा! आदमी
बचता ही नहीं
मरने के बाद; इसलिए कैसा
पुण्य, कैसा
पाप!
चार्वाकों
ने,
जो कि
नास्तिक
परंपरा के
मूलस्रोत हैं,
उन्होंने
कहा : फिक्र मत
करो, ऋणं
कृत्वा घृतं पिबेत।
पियो, अगर
ऋण लेकर भी घी
पीना पड़े तो
पीयो, बेफिक्री
से पीयो।
चुकाने की
चिंता ही मत करो।
कौन लेना, कौन
देना! मर गये, सब पड़ा रह
जायेगा—तुम्हारा
भी और उसका भी।
और पीछे कुछ
बचता ही नहीं
है। जब कोई
बचता ही नहीं
है तो भय क्या?
फिर पाप
करना है पाप
करो, बुरा
करना है बूरा
करो, जैसे
जीना हो मौज
से जीयो। दो
दिन की जिंदगी
है, ठाठ से
जीयो, फिक्र
छोड़ो। दूसरे
को चोट भी
पहुंचती हो, दूसरे की
हिंसा भी होती
हो तो चिंता न
लो। कैसी
हिंसा, कैसी
चोट! सब
पुरोहितों का
जाल है
तुम्हें डरवाने
के लिये।
मगर, अगर
हम चार्वाक—चित्त
के भीतर भी
प्रवेश करें
तो वही डर है।
वह परमात्मा
को इनकार कर
रहा है डर के
कारण। तुमने
खयाल किया, अनेक लोग
हैं, जो
भूत—प्रेत को
इनकार करते
हैं, सिर्फ
डर के कारण! तुम्हारा
उनसे परिचय
होगा... कि नहीं—नहीं,
कोई भूत—प्रेत
नहीं। लेकिन
जब वे कहते
हैं, नहीं—नहीं
कोई भूत—प्रेत
नहीं, जरा
उनके चेहरे पर
गौर करो।
एक
महिला एक बार
मेरे घर
मेहमान हुई।
उसे ईश्वर में
भरोसा नहीं; वह
कहे, ईश्वर
है ही नहीं।
मैंने कहा :
छोड़ ईश्वर को,
भूत—प्रेत
को मानती है? उसने कहा :
बिलकुल नहीं!
सब बकवास है।
मैंने
कहा : तू ठीक से
सोच ले।
क्योंकि आज
मैं हूं तू है, और
यह घर है।
भगवान को तो
मैं नहीं कह
सकता कि तुझे
प्रत्यक्ष
करवा सकता हूं
लेकिन भूत—प्रेत
का करवा सकता
हूं।
उसने
कहा : आप भी
कहां की बातें
कर रहे हैं, भूत—प्रेत
होते ही नहीं!
लेकिन मैं
देखने लगा, वह घबड़ाने
लगी। वह इधर—उधर
देखने लगी।
रात गहराने
लगी।
मैंने
कहा. फिर ठीक
है। मैं तुझे
बताये देता
हूं।
उसने
कहा : मैं
मानती ही नहीं, आप
क्या मुझे
बतायेंगे? मैं
बिलकुल नहीं
मानती।
मैंने
कहा : मानने न
मानने का सवाल
नहीं है। यह
घर जिस जगह
बना है, यहां
कभी एक धोबी
रहता था। पहले
महायुद्ध के
समय। उसकी नई—नई
शादी हुई। बड़ी
प्यारी
दुल्हन घर आयी।
और सब तो
सुंदर था
दुल्हन का, एक ही खराबी
थी कि कानी थी।
गोरी थी बहुत,
सब अंग
सुडौल थे, बस
एक आंख नहीं
थी।
उसका
चित्र मैंने
खींचा।.. धोबी
को युद्ध पर
जाना पड़ा।
पहले ही
महायुद्ध में
भरती कर लिया
गया।
चिट्ठियां
आती रहीं—अब
आता हूं तब
आता हूं। और
धोबिन
प्रतीक्षा
करती रही, करती
रही, करती
रही; वह
कभी आया नहीं।
वह मारा गया
युद्ध में।
धोबिन उसकी
प्रतीक्षा
करते—करते मर
गयी और प्रेत
हो गयी। और
अभी भी इसी
मकान में रहती
है और
प्रतीक्षा करती
है कि शायद
धोबी लौट आये।
एक ही उसकी आंख
है, गोरी—चिट्टी
औरत है, काले
लंबे बाल हैं।
लाल रंग की
साड़ी पहनती है।
वह
मुझसे कहे :
मैं मानती ही
नहीं। मगर मैं
देखने लगा कि
वह घबड़ाकर इधर—उधर
देखने लगी।
मैंने कहा :
मैं तुझे
इसलिये कह रहा
हूं कि तू
पहली दफे नई
इस घर में रुक
रही है आज रात।
इस घर में जब
भी कोई नया
आदमी रुकता है
तो वह धोबिन
रात आकर उसकी चांदर
उघाड़कर देखती
है कि कहीं
धोबी लौट तो
नहीं आया?
तो
उसके चेहरे पर
पीलापन आने
लगा। उसने
कहा. आप क्या
बातें कह रहे
हैं?
आप जैसा
बुद्धिमान
आदमी भूत—प्रेत
में मानता है।
मैंने
कहा : मानने का
सवाल ही नहीं
है,
लेकिन तुझे
चेताना भी
जरूरी है, नहीं
तो डर जायेगी
ज्यादा। अब
तेरे को मैंने
बता दिया है, अगर कोई
कानी औरत, गोरी—चिट्टी,
लाल साड़ी
में तेरी चांदर
हटा दे तो तू
घबड़ाना मत, वह नुकसान
किसी का कभी
नहीं करती, चांदर पटक
कर पैर पटकती
हुई वापस चली
जाती है। और
एक लक्षण और
उसका मैं बता
दूं।
जिनके
घर में उन
दिनों मेहमान
था,
उनको रात दांत
पीसने की आदत
है। रात में
वे कोई दस—पांच
दफा दांत
पीसने लगते
हैं। तो मैंने
कहा, उस
औरत की एक आदत और
तुझे बात दूं
जब वह आयेगी
कमरे में तो
दांत पीसती
हुई आती है।
स्वभावत:, कितनी
प्रतीक्षा
करे? जमाने
बीत गये। उस
औरत का प्रेम
है, क्रोध
से भरी आती है।
धोबी धोखा दे
गया, अब तक
नहीं आया। तो
वह दांत पीसती
है, तुझे दांत
पीसने की आवाज
सुनाई पड़ेगी
पहले।
उसने
कहा : आप क्या
बातें कर रहे
हैं?
मैं मानती
ही नहीं। आप
बंद करें यह
बातचीत। आप
व्यर्थ मुझे
डरा रहे हैं।
मैंने
कहा. तू अगर
मानती ही नहीं
तो डरने का कोई
सवाल ही नहीं।
ऐसी बात चलती
रही और रात
बारह बज गये।
तब मैंने उसको
कहा : अब तू जा, कमरे
में सो जा। वह
कमरे में गयी।
संयोग की बात
वह कमरे में
लेटी कि उन
सज्जन ने दांत
पीसे। वह बगल
के कमरे में
सो रहे थे।
मुझे पक्का
भरोसा ही था, उन पर
आश्वासन किया
जा सकता है।
दस दफे तो वे
पीसते ही हैं
रात में कम—से—कम।
वे पीसेंगे
कभी
न कभी। वह
जाकर बिस्तर
पर बैठी, प्रकाश
बुझाया और
उन्होंने दांत
पीसे। चीख मार
दी उसने। मैं भागा
पहुंचा, प्रकाश
जलाया, वह
तो बेहोश पड़ी
है और कोने की
तरफ मुझे बता
रही है—वह खड़ी
है! उसको
मैंने लाख
समझाया कि कोई
भूत—प्रेत
नहीं होता।
उसने कहा : अब
मैं मान ही
नहीं सकती, होते कैसे
नहीं? वह
सामने खड़ी है.।
और जो आपने कहा
था—एक आंख, गोरा—चिट्टा
रूप, काले
बाल, (नाल साड़ी और दांत
पीस रही है...।
रात—
भर परेशान
होना पड़ा मुझे, क्योंकि
वह न सोये न
सोने दे। वह
कहे : अब मैं सो
ही नहीं सकती।
अब मैं सोऊंगी,
वह फिर
आयेगी। और आप
कहते हैं चांदर
उठायेगी, इतने
पास आ जायेगी?
मैं उसको कहूं
कि कहीं भूत—प्रेत
होते हैं? सब
कल्पना में, मैं तो
कहानी कह रहा
था तेरे से।
तुझे सिर्फ...।
उसको
तो रात बुखार
आ गया! रात को
डाँक्टर बुलाना
पड़ा। और जिनके
घर मैं मेहमान
था वे कहने
लगे कि आप भी
फिजूल के
उपद्रव खड़े कर
लेते हैं। वह
महिला दूसरे
दिन सुबह चली
गयी। फिर कभी
नहीं आयी।
उसको मैंने कई
दफे खबर
भिजवाई कि भई, कभी
तो आओ। वह कहे
कि उस घर में
पैर नहीं रख
सकती हूं। मैं
उसको समझाऊं,
कहीं भूत—प्रेत
होते हैं? वह
कहे : आप छोड़ो
यह बात, किसको
समझा रहे हैं?
मुझे खुद ही
अनुभव हो गया।
खयाल
करना, अक्सर
ऐसा हो जाता
है कि तुम जिस
चीज से डरते
हो उसको इनकार
करते हो।
इनकार
इसीलिये करते
हो, ताकि
तुम्हें यह भी
याद न रहे कि
मैं डरता हूं।
है नहीं तो
डरना क्या है?
आस्तिक
और नास्तिक
में जरा भी
भेद नहीं है।
एक विधायक रूप
से भयभीत है, एक
नकारात्मक
रूप से भयभीत
है, बस। ऋण
और धन का फर्क
है, मगर भय
दोनों का है।
नास्तिक डर के
कारण कह रहा
है ईश्वर नहीं
है। क्योंकि
ईश्वर को
मानना तो फिर
उसके पीछे और बहुत
कुछ मानना
पड़ता है, जो
उसे कंपाता है।
आस्तिक कह रहा
है ईश्वर है; विधायक रूप
से भयभीत है।
वह कह रहा है, ईश्वर है; अगर मैं
उसको न मानूं
उसकी स्तुति न
करूं, प्रार्थना—पूजा
न करूं, उसको
मनाऊं न, तो
सताया जाऊंगा।
धार्मिक
व्यक्ति कहता
है. ईश्वर के
दोनों रूप हैं।
ईश्वर आस्तिक
और नास्तिक
दोनों की
धारणाओं और
विश्वासों के
पार है...।
बसती न
सुन्यं...।
न
तो वह है ऐसा
कह सकते; न कह
सकते कि नहीं
है।
सुन्यं
न बसती...।
न
कह सकते कि
शून्य है, न
कह सकते कि
पूर्ण है। अगम
अगोचर ऐसा।
ऐसा
अगम्य है।
हमारा कोई
शब्द उसको माप
नहीं सकता।
हमारे शब्द
छोटी—छोटी चाय
की चम्मचों
जैसे हैं, वह
सागर जैसा है!
इन चाय की
चम्मचों में
सागर को नहीं
भरा जा सकता
और न सागर को
नापा जा सकता
है। हमारे सब
माप बड़े छोटे
हैं। हमारे
हाथ बड़े छोटे
हैं। हमारी
सामर्थ्य बड़ी
छोटी है। उसका
विस्तार अनंत
है। वह असीम
है। अगम अगोचर
ऐसा...।
रहिमन
बात अगम्य की, कहनि
सुननि की
नाहिं
जे
जानति ते कहति
नहिं, कहत ते
जानति नाहिं।
रहिमन
बात अगम्य की
वह
इतना अगम्य
है! अगम्य
शब्द का अर्थ
समझना। अगम्य
का अर्थ होता
है : जिसकी हम
थाह न पा सकें, अथाह।
लाख करें उपाय
और थाह न पा
सकें।
क्योंकि उसकी
थाह है ही
नहीं। और जो
उसकी थाह लेने
गये हैं, वे
धीरे— धीरे
उसी में लीन
हो गये हैं।
कहते
हैं,
दो नमक के
पुतले एक बार
सागर की थाह
लेने गये थे।
छलांग लगा दी
सागर में। भीड़
इकट्ठी हो गयी
थी। मेला भरा
था सागर के तट
पर, सारे
लोग आ गये थे।
फिर दिनों तक
प्रतीक्षा
होती रही; फिर
मेला धीरे—
धीरे उजड़ भी
गया, वे
नमक के पुतले
न लौटे सो न
लौटे। नमक के
पुतलों को थाह
भी न मिली और
खुद भी मिट गये।
हेरत
हेरत हे सखी, रहा
कबीर हिराइ।
गये
थे खोजने, खो
गये! नमक के
पुतले सागर की
खोज में
जायेंगे, कब
तक बचेंगे? गल गये
होंगे। सागर
के ही हिस्से
थे, इसलिये
नमक के पुतले
का खयाल है।
हम भी नमक के
पुतले हैं, वह सागर है; उसे खोजने
जायेंगे, खो
जायेंगे।
अगम्य
का अर्थ होता
है : सिर्फ
अज्ञात नहीं, क्योंकि
अज्ञात वह है
जो कभी ज्ञात
हो जाएगा। आज
जो ज्ञात हो
गया है, कभी
अज्ञात था।
चांद पर आदमी
नहीं चला था, अब आदमी चल
लिया। अभी तक
चांद अज्ञात
था, अब
ज्ञात हो गया।
हमें अणु का
रहस्य पता
नहीं था, अब
पता हो गया।
परमात्मा
अज्ञात नहीं
है,
यही धर्म और
विज्ञान का
भेद है। धर्म
कहता है : जगत
में तीन तरह
की बातें हैं—ज्ञात,
जो जान लिया
गया; अज्ञात,
जो जान लिया
जाएगा; और
अज्ञेय, जो
न जाना गया है
और न जाना
जायेगा।
विज्ञान कहता
है : जगत में
सिर्फ दो ही
चीजें हैं—ज्ञात
और अज्ञात।
विज्ञान दो
हिस्सों में
बांटता है जगत
को—जो जान
लिया गया और
जो जान लिया
जाएगा। बस उस
एक अज्ञेय
शब्द में ही
धर्म का सारा
सार छुपा है।
कुछ ऐसा भी है
जो न जाना गया
और न जाना
जाएगा।
क्योंकि उसका
राज यह है कि
उसे खोजने वाला
खो जाता है
उसमें।
रहिमन
बात अगम्य की, कहनि
सुननि की
नाहिं
और
जब खोजनेवाला
ही खो गया तो
कौन कहे, क्या
कहे, कैसे
कहे? सब
शब्द बड़े छोटे
हैं, बड़े
ओछे हैं। तुम
जीवन में भी
अनुभव करते हो
तो पाओगे : उठे
सुबह—सुबह, बगीचे में
सूरज उगने लगा,
वृक्ष जगने
लगे। धरती की
सौंधी—सौंधी
सुगंध उठने
लगी। अभी— अभी
वर्षा हुई
होगी। घास के
पत्तों पर ओस
की बूंदें
मोतियों जैसी चमकने
लगीं। पक्षी
गीत गाने लगे।
कोई मोर नाचा,
कोई कोयल
कूकी। फूल
खिले, कमलों
ने अपनी
पंखुड़ियां
खोल दीं। यह
सब तुम देख
रहे हो। यह
अगोचर भी नहीं
है, गोचर
है। यह अज्ञात
भी नहीं है
तुम्हें, ज्ञात
है। यह सारा
सौंदर्य तुम
अनुभव कर रहे
हो। तुमसे कोई
पूछे, कह
डालो एक शब्द
में। क्या
कहोगे? इतना
ही कहोगे—सुंदर
था, बहुत
सुंदर था! मगर
यह भी कोई
कहना है? इस
'बहुत
सुंदर' में
न तो सूरज की
कोई किरण है, न माटी की
सौंधी सुगंध
है, न कमल
की खिलती हुई
पंखुड़ियां
हैं, न
पक्षियों के
गीत हैं, न
शबनम के मोती
हैं, न
वृक्षों की
हरियाली है, न मुक्त
आकाश है। कुछ
भी तो नहीं।
बहुत सुंदर
में क्या है? कुछ भी तो
नहीं।
वर्णमाला के
थोड़े—से अक्षर
हैं।
ऐसे
ही समझो, जैसे
दीया शब्द
लिखकर और
दीवाल पर टांग
दो तो रात कोई
प्रकाश थोड़े
ही हो जायेगा;
अंधेरी रात
है सो अंधेरी
रहेगी। दीये
की बातों से
रोशनी तो नहीं
होती।
पिकासो
से एक महिला
ने कहा कि कल
आपके द्वारा बनाई
गई आपकी ही
तस्वीर, सेल्फपोट्रेंट,
मैंने एक
मित्र के घर
में देखा।
इतना सुंदर, इतना प्यारा
कि मैं अपने
को रोक न पायी;
मैंने उसे
चूम लिया।
पिकासो
ने कहा. फिर
क्या हुआ? उस
तस्वीर ने
तुम्हें चूमा
या नहीं?
उस
स्त्री ने कहा
: आप भी क्या
बात करते हैं!
नहीं चूमा।
तो
पिकासो ने कहा
फिर वह मेरी
तस्वीर न रही
होगी।
मुल्ला
नसरुद्दीन को
उसके पड़ोसी ने
कहा कि आपके
साहबजादे को
सम्हालो, अभी
से ज्या है।
कल मेरी पत्नी
को पत्थर मारा।
मुल्ला
ने पूछा, लगा? उसने कहा कि
नहीं। तो उसने
कहा : वे किसी
और के
साहबजादे
होंगे। मेरे
साहबजादे का
निशाना तो
लगता ही है।
वे किसी और के
होंगे। तुम
गलती समझे।
ऐसा ही पिकासो
ने कहा कि फिर
वह मेरी
तस्वीर न रही
होगी। मैं तो
नहीं था वह।
चुंबन का
उत्तर ही न
आया तो क्या
खाक बात बनी।
प्रत्युत्तर
आना चाहिए।
तस्वीरों
से
प्रत्युत्तर
नहीं आते।
इसलिये
तस्वीरे भी
छोटी पड़ जाती
हैं। हमारे
गीत भी छोटे
पड़ जाते हैं, हमारे
शब्द भी, शास्त्र
भी छोटे पड़
जाते हैं। इस
जगत में जो हम
जानते हैं, वह भी कहा
नहीं जा सकता...।
किसी
मां ने अपने
बेटे को प्रेम
किया। कैसे
कहो,
प्रेम शब्द
में क्या है? कोई भी
दोहराता है।
कहो कि मुझे
अपने बेटे से
बहुत प्रेम है,
या अपनी
पत्नी से बहुत
प्रेम है।
क्या मतलब? यहां तो लोग
हैं जो कहते
हैं, आइस्क्रीम
से प्रेम है।
कोई कहता है, मुझे मेरी
कार से बहुत
प्रेम है। जहा
आइस्क्रीम और
कारों से
प्रेम चल रहा
है, प्रेम
शब्द का अर्थ
क्या रह गया? जब तुम कहते
हो मुझे अपनी
पत्नी से बहुत
प्रेम है, तुम्हारी
पत्नी है या
आइस्क्रीम? प्रेम का
अर्थ क्या रहा?
हमारे शब्द
छोटे हैं, उन्हीं
छोटे शब्दों
का हम सब तरह
से उपयोग करते
हैं। सीमा है
उनकी। जगत में
जो अनुभव में
आता है, वह
भी उनमें नहीं
समाता, तो
वह जो परम
अनुभव है, आत्यंतिक
अनुभव है—जहां
सब विचार
शून्य हो जाते
हैं, शांत
हो जाते हैं, जहां
व्यक्ति भाषा
के पार निकल
जाता है, जहा
तर्कजाल पीछे
छूट जाते हैं,
जहा
निर्विचार
होता है—उसमें
जिसकी
प्रतीति होती
है, उसे कह
न सकोगे।
जे
जानति ते कहति
नहिं.......
इसलिये
जिन्होंने
जाना है, वे
नहीं कह पाये।
आज तक कोई भी
नहीं कह पाया।
तुम सोचते हो
मैं तुमसे रोज
कहता हूं कह
पाता हूं? नहीं,
और सब कह
लेता हूं मगर
वह अगम्य
अगम्य ही रह
जाता है। उसके
आस—पास बहुत
कुछ कह लेता
हूं लेकिन कोई
तीर शब्द का
उस निशान पर
नहीं लगता। और
सब कहा जा
सकता है, लेकिन
सब कहना
इशारों से
ज्यादा नहीं
है।
जो
मैं कहता हूं
उसको मत पकड
लेना। जो कहता
हूं वह तो ऐसा
ही है जैसे
मील का पत्थर।
और उस पर तीर
का निशान लगा
है कि दिल्ली
सौ मील दूर है।
उसी को पकड़कर
मत बैठ जाना
कि आ गए
दिल्ली। मैं
जो कहता हूं
वह तो ऐसे ही
है जैसे कोई
अंगुली से
चांद दिखाये।
अंगुली को मत
पूजने लगना।
सारे शास्त्र
चांद को बताई
गयी
अंगुलियां हैं।
चांद को कोई
अंगुली प्रगट
नहीं करती।
लेकिन जो
समझदार हैं, वे
इशारे को पकड़
लेते हैं।
समझदार को
इशारा काफी।
बुद्ध
के पास एक
आदमी आया।
उसने कहा. जो
नहीं कहा जा
सकता, वही
सुनने आया हूं।
बुद्ध ने आंखें
बंद कर लीं।
बुद्ध को आंखें
बंद किये देख
वह आदमी भी आंख
बंद करके बैठ
गया। आनंद पास
ही बैठा था—बुद्ध
का अनुचर, सदा
का सेवक—सजग
हो गया कि
मामला क्या है?
झपकी खा रहा
होगा, बैठा—बैठा
करेगा क्या।
जम्हाई ले रहा
होगा। देखा कि
मामला क्या है?
इस आदमी ने
कहा, जो नहीं
कहा जा सकता
वही सुनने आया
हूं। और बुद्ध
आंख बंद करके
चुप भी हो गये
और यह भी आंख
बंद करके बैठ
गया। दोनों
किसी मस्ती
में खो गये।
कहीं दूर...
शून्य में
दोनों का जैसे
मिलन होने लगा।
आनंद देख रहा
है, कुछ हो
जरूर रहा है; मगर शब्द
नहीं कहे जा
रहे है—न इधर
से न उधर से। न
ओंठ से बन रहे
हैं शब्द, न
कान तक जा रहे
हैं शब्द; मगर
कुछ हो जरूर
रहा है! कुछ
अदृश्य
उपस्थिति उसे
अनुभव हुई।
जैसे किसी एक
ही आभामंडल
में दोनों डूब
गये। और वह
आदमी आधी घड़ी
बाद उठा। उसकी
आंखों से आनंद
के आंसू बह
रहे थे। झुका
बुद्ध के
चरणों में, प्रणाम किये
और कहा :
धन्यभाग मेरे!
बस ऐसे ही आदमी
की तलाश में
था जो बिना
कहे कह दे। और
आपने खूब
सुंदरता से कह
दिया! मैं
तृप्त होकर जा
रहा हूं।
वह
आदमी रोता
आनंदमग्न, बुद्ध
से विदा हुआ।
उसके विदा
होते ही आनंद
ने पूछा कि
मामला क्या है?
हुआ क्या? न आप कुछ
बोले न उसने
कुछ सुना। और
जब वह जाने
लगा और उसने
आपके पैर छुए
तो आपने इतनी
गहनता से उसे
आशीष दिया, उसके सिर पर
हाथ रखा, जैसा
आप शायद ही
कभी किसी के
सिर पर हाथ
रखते हों! बात
क्या है, इसकी
गुणवत्ता
क्या थी?
बुद्ध
ने कहा : आनंद!
तू जानता है, जब तू जवान
था, हम सब
जवान थे—सगे
भाई थे, चचेरे
भाई थे बुद्ध
और आनंद, एक
ही राजघर में
पले थे, एक
ही साथ बड़े
हुए थे—तो
तुझे घोड़ों से
बहुत प्रेम था।
तू जानता है न,
कुछ घोड़े
होते हैं कि
उनको मारो तो
भी ठिठक जाते
हैं, मारते
जाओ तो भी
नहीं हटते।
बड़े जिद्दी
होते हैं! फिर
कुछ घोड़े होते
हैं, उनको
जरा चोट करो
कि चल पड़ते
हैं। फिर कुछ
घोड़े होते हैं,
उनको चोट
नहीं करनी
पड़ती, सिर्फ
कोड़ा फटकारों,
आवाज कर दो,
मारो मत और
चल पड़ते हैं।
और भी कुछ
घोड़े होते हैं,
तू जानता है
भलीभांति, जिनको
कोड़े की आवाज
करना भी
अपमानजनक
मालूम होगा, जो सिर्फ
कोड़े की छाया
देखकर चलते
हैं। यह
उन्हीं घोड़ों
में से एक था।
कोड़े की छाया।
मैंने इससे
कुछ कहा नहीं,
मैं सिर्फ
अपनी शून्यता
में लीन हो
गया। इसे बस
मेरी छाया दिख
गयी, सत्संग
हो गया। इसका
नाम सत्संग।
और
ऐसा नहीं है
कि बुद्ध
बोलते नहीं
हैं। जो बोलना
ही समझ सकते
हैं,
उनसे बोलते
हैं। जो धीरे—धीरे
न बोलने को
समझने लगते
हैं, उनसे
नहीं भी बोलते
हैं। बोलना 'नहीं—बोलने'
की तैयारी
है।
सत्संग
के दो रूप हैं।
एक—जब गुरु
बोलता है, क्योंकि
अभी तुम बोलना
ही समझ सकोगे,
बोलना भी
समझ जाओ तो
बहुत। फिर
दूसरी घड़ी आती
है—परम घड़ी—जब
बोलने का कोई
सवाल नहीं रह
जाता; जब
गुरु बैठता है,
तुम पास
बैठे होते हो।
इस घड़ी को
पुराने दिनों
में उपनिषद
कहते थे—गुरु
के पास बैठना!
इसी पास बैठने
में हमारे
उपनिषद पैदा
हुए हैं; उनका
नाम भी उपनिषद
पड़ गया! गुरु
के पास बैठ—बैठकर
शून्य में जो
संगीत सुना
गया था, उसको
ही संग्रहीत
किया गया है, उन्हीं से
उपनिषद बने।
उपनिषद का
मतलब होता है :
पास बैठना, सत्संग!
नहीं; जे
जानति ते कहति
नहिं, कहत
ते जानति
नाहिं।
इसलिये जो
कहता हो कि
मैं तुम्हें
ईश्वर जना दूंगा,
सावधान हो
जाना।
तुम्हें धोखा
दिया जायेगा।
तुम्हें शब्द
पकड़ा दिये
जायेंगे। जो
कहता हो कि
मैंने जान
लिया है उसे, उसका दावा
घातक सिद्ध
होगा। उसे
जाना नहीं
जाता। जो उसे
जानता है वही
हो जाता है।
जो उसे जानता
है उसमें और
जो जाना जाता
है उसमें, भेद
नहीं रह जाता।
वहां ज्ञान, ज्ञाता और
ज्ञेय ऐसे खंड
नहीं होते।
वहां ज्ञाता
ज्ञेय में लीन
हो जाता है।
वहा ज्ञेय
ज्ञाता में
लीन हो जाता
है। इसलिये
उसे अगम्य
कहते हैं।
उसकी फिर थाह
नहीं मिलती, थाह लेनेवाला
ही खो गया।
हेरत हेरत हे
सखी, रहा कबीर
हिराइ!
बसती न
सुन्यं
सुन्यं न बसती
अगम अगोचर ऐसा
गगन
सिषर महि बालक
बोले ताका
नांव धरहुगे
कैसा
और
जब कोई इस
अगम्य को
झेलने को राजी
हो जाए, जब
कोई इस अगम्य
में उतरने का
साहस जुटा
लेता है, वही
साहस का नाम
है
मरौ वे जोगी
मरौ मरौ मरण
है मीठा।
तिस
मरणी मरौ जिस
मरणी गोरख मरि
दीठा।।
मिट
जाओ,
मर जाओ, तो
दिखाई पड़े, तो मिलन हो।
खो जाओ तो खोज
पूरी हो जाये।
तो उसके भीतर
मस्तिष्क की
एक नयी
अभिव्यंजना होती
है।
गगन
सिषर महि बालक
बोले...
उसके
सहस्रार में, उसके
मस्तिष्क में
शून्य पैदा हो
जाता है। जब
सब विचार विदा
हो जाते हैं; जब अहंकार
विदा हो जाता
है, जब मैं
हूं ऐसा भाव
ही नहीं रह
जाता; जब
वहा सिर्फ
होता है—मौन, शांत, शून्य—इसको
समाधि कहते
हैं। जब समाधि
फल जाती है! जब
तुम जागरूक
होते हो; मगर
कोई चित्त में
विचार की धारा
नहीं बहती।
विचार का
मार्ग शून्य
हो गया, शात
हो गया, कोई
यात्री नहीं
चलते—निर्विचार,
निर्विषय
चित्त हो गया।
तुम सिर्फ
शुद्ध दर्पण
रह गये, जिसमें
अब कोई छाया
नहीं बनती, कोई
प्रतिबिंब
नहीं बनता। इस
अवस्था में
तुम्हारे
भीतर का कमल
खिलता है, तुम्हारे
मस्तिष्क में
शून्य का जन्म
होता है। वहां
कोई चीज
भरनेवाली
नहीं रह जाती।
तुम सिर्फ एक
खाली, पवित्र
रिक्तता
मात्र रह जाते
हो।
गगन
सिषर महि बालक
बोले...।
और
तब उसकी
निर्दोष आवाज, जैसे
छोटे बच्चे की
किलकारी! जैसे
अभी— अभी पैदा
हुए बच्चे की
आवाज! नई—नई, ताजी—ताजी, सद्य:स्नात,
नहाई—नहाई
कुंवारी आवाज
सुनाई पड़ती है।
उसका नाद
अनुभव होता है।
ऐसी
ही अवस्था में
मुहम्मद ने
कुरान को सुना।
ऐसी ही अवस्था
में ऋषियों ने
वेद सुने। ऐसी
ही अवस्था में
जगत के सारे
महत्वपूर्ण
शास्त्रों का
जन्म हुआ है।
वे सभी
अपौरुषेय हैं—पुरुष
ने उनका
निर्माण नहीं
किया है; आदमी
के हाथ उनमें
नहीं लगे हैं।
परमात्मा बहा
है; आदमी
तो सिर्फ
मार्ग बना है।
गगन सिषर महि
बालक बोले
ताका नांव
धरहुगे कैसा।
और
वह निर्दोष
स्वर जब भीतर
उठता है तो
उसे कोई नाम
नहीं दिया जा
सकता। वह अनाम
है। उसे कोई
विशेषण भी
नहीं दिया जा
सकता, क्योंकि
सब विशेषण
सीमा बांध
देंगे; और
वह असीम है, वह अनंत है।
बिंदु सिंधु
हो गया। बूंद
उड़ गयी, आकाश
हो गयी; अब
कौन बोले, क्या
बोले? वहा
से जब कोई
लौटता है तो
गूंगा, बिलकुल
गूंगा हो जाता
है। बोलता है
बहुत, और—और
बातें बोलता
है। कैसे वहां
तक पहुंचो, यह बोलता है;
किस मार्ग
से पहुंची, यह बोलता है;
किस विधि—विधान
से पहुंचोगे,
यह बोलता है।
लेकिन वहां
क्या हुआ, इस
संबंध में
बिलकुल चुप रह
जाता है। कहता
है तुम्हीं
चलो, तुम्हीं
देखो। झरोखा
कैसे खोलोगे,
यह विधि बता
देता हूं।
ताली कौन—सी
चलाओगे जिससे
ताला खुल जाये,
यह बता देता
हूं। मगर जो
दर्शन होगा, वह तो तुम
जाओगे तभी
होगा! उस
दर्शन को उधार
कोई किसी को
दे नहीं सकता।
हसिबा
खेलिबा धरिबा
ध्यानं।
लेकिन
जिसको यह
अनुभव हो गया
है,
उसके जीवन
में तुम्हें
कुछ चीजें
दिखाई पड़ने लगेंगी।
बड़े प्यारे
वचन हैं, बड़े
गहरे वचन हैं!
हसिबा
खेलिबा धरिबा
ध्यानं...।
उसे
तुम देखोगे
हंसते हुए, खेलते
हुए। जीवन
उसके लिये
लीला हो गया।
उसे तुम गंभीर
नहीं पाओगे।
यह कसौटी है
सदगुरु की।
उसे तुम गंभीर
और उदास नहीं
पाओगे। तुम
उसे हंसता हुआ
पाओगे। हसिबा
खेलिबा धरिबा
ध्यानं...।
उसके
लिये सब हंसी—खेल
है,
सब लीला है।
इसलिये हमने
कृष्ण को
पूर्णावतार
कहा। राम
गंभीर हैं, छोटी—छोटी
बात का हिसाब
रखते हैं, नियम—मर्यादा
से चलते हैं—मर्यादा
पुरुषोत्तम
हैं। कृष्ण
अमर्याद है—न
कोई नियम है, न कोई
मर्यादा है।
कृष्ण के लिये
जीवन लीला है।
जीवन
एक खेल है।
इसको खेल से
ज्यादा मत लेना, खेल
से ज्यादा
लिया कि बस
उलझे। नाटक
समझो, अभिनय
समझो। अभिनय
में कोई
परेशान थोड़े
ही होता है।
जो अभिनय मिल
गया है उसी को
मस्ती से कर
देतां है।
रावण भी बनना
पड़ता है
रामलीला में
किसी को ते कुछ
परेशान थोड़े
ही होता है, कोई दिल ही
दिल में रोता
थोड़े ही है कि
हाय, मैं
कैसा अभागा कि
मुझे रावण
बनना पड़ा!
पर्दा हटते ही
राम और रावण
सब बराबर हो
जाते हैं। यहा
एक—दूसरे की
जान लेने को
उतारू थे, पर्दे
के पीछे जाकर
देखना बैठे
चाय पी रहे
हैं, गपशप
कर रहे हैं।
सीताजी दोनों
के बीच में
बैठी हैं। न
कोई चुराने का
सवाल है, न
कोई बचाने का
सवाल है। जीवन
एक अभिनय है; लेकिन उसी
के लिये पूर्ण
अभिनय हो पाता
है जो शून्य
को उपलब्ध हो
जाता है।
हसिबा
खेलिबा धरिबा
ध्यानं...
फिर
तो ध्यान भी
खेल ही है, हंसी
ही है। मुझसे
लोग पूछते हैं
कि यह आपका
आश्रम कैसा! यहां
लोग हंसते हैं,
नाचते हैं,
खेलते हैं,
कूदते हैं।
और
कैसा आश्रम हो
सकता है?
हसिबा
खेलिबा धरिबा
ध्यान अहनिसि
कथिबा ब्रह्मगियानं
।
और
फिर तो वह जो
भी बोलता है
वही
ब्रह्मज्ञान है।
अहनिसि। जैसे
उठता है, जैसे
बोलता है..।
चुप रह जाये
तो चुप रहने
में
ब्रह्मज्ञान
है, बोले
तो बोलने में
ब्रह्मज्ञान
है, नाचे
तो नाचने में
ब्रह्मज्ञान
है, और शात
बैठ जाये तो
शात बैठ जाने
में ब्रह्मज्ञान
है। उसका सारा
व्यक्तित्व
ब्रह्म को
समर्पित हो गया,
समग्र को
समर्पित हो
गया। अब वह
व्यक्ति अलग
नहीं है।
इसीलिये तो
हंसता है, खेलता
है। अब
परमात्मा की
लीला का अंग
हो गया है।
हंसै
षेलै न करै मन
भंग?
इसलिये
हंसो, और खेलो,
और मन को
व्यर्थ गंभीर
करके दुखी और
परेशान न हो
जाओ। मन— भंग न
करो।
लेकिन
तुम देखते हो, कुछ
लोग सांसारिक
अर्थों में
बड़े परेशान
हैं; और
कुछ लोग
धार्मिक
अर्थों में
बड़े परेशान हैं।
दोनों का मन
भंग हो रहा है।
एक धन के पीछे
दौडा जा रहा
है, उसका
मन भंग हुआ, एक धन से
घबड़ाकर भागा
जा रहा है, उसका
मन भंग हुआ।
एक कहता है कि
जितनी ज्यादा
स्त्रियां
मुझे मिल
जायें उतना
अच्छा। और एक
कहता है कहीं
स्त्री न दिख
जाये, नहीं
तो सब गड़बड़ हो
जायेगा। मगर
ये दोनों के
मन भंग हैं, इन दोनों को
हंसी—खेल नहीं
आया है।
इन्हें
जिंदगी में
लीला की कला
नहीं आयी। ये
बड़े गंभीर हैं।
ये बड़े ही अति
गंभीर हैं।
इनकी गंभीरता
इनकी बीमारी
है।
हसिबा
खेलिबा धरिबा
ध्यान अहनिसि
कथिबा
ब्रह्मगियानं।
हंसै
षेलै न करै मन
भंग...
इसलिए
कहते हैं हंसो, खेलो,
मन को भंग न
करो।
ते
निहचल सदा नाथ
के संग।
तो
इसी हंसी—खेल
में डूबे—डूबे, इसी
मौज, इसी
लीला में पगे—पगे
नाथ के सदा
संग हो जाओगे।
ते निहचल
सदानाथ के संग।
प्रतिपल फिर
परमात्मा और
तुम्हारा साथ
रहेगा। साथ
कहना भी शायद
ठीक नहीं है, तुम एक ही हो
गये। वही अर्थ
है : निहचल सदा
नाथ के संग।
एक क्षण को भी
साथ नहीं
छूटता। साथ
सातत्य बन गया।
अहनिसि
मन लै उनमन
रहै...
प्रतिपल, उठते—बैठते,
जागते—सोते
एक ही खयाल
रहे. मन लै
उनमन रहै। मन
को अमन बनाना
है। जिसको झेन
फकीर कहते हैं—नो
माइंड, उनमन।
चित्त को
शून्य कर देना
है।
मन
क्या है? अतीत
के विचार, भविष्य
की योजनाएं—यही
मन है। जो हो
चुका, उसका
शोरगुल; जो
होना चाहिए, उसकी
अपेक्षाएं—यही
मन है। न अतीत
रह जाये, न
भविष्य रह
जाये। फिर
क्या है? वर्तमान
है।
हसिबा
खेलिबा धरिबा
ध्यानं...।
फिर
तो यह शुद्ध
वर्तमान रह
जाता है, जिसमें
विचार की कोई
छाया भी नहीं
पड़ती। और अतीत
है नहीं, उसी
में तुम उलझे
हो। और भविष्य
अभी हुआ नहीं,
उसमें तुम
उलझे हो। कुछ
लोग अतीत—उन्मुख
हैं, उनकी आंखें
पीछे गडी हैं।
और कुछ लोग
भविष्य—उन्मुख
हैं, उनकी आंखें
आगे गड़ी हैं।
और दोनों
वंचित रह जाते
हैं उससे—'जो
है'। और 'जो है' अभी,
इस क्षण, वही
परमात्मा का
रूप है।
इसी
क्षण जीयो, क्षण—
क्षण जीयो!
फिर कैसी
उदासी?
तुमने
कभी एक बात पर
खयाल किया है, वर्तमान
में सदा रस है
और वर्तमान
में सदा आनंद
है। जब तुम
कभी दुखी होओ
तो थोड़ा सोचना,
दुख या तो
अतीत के संबंध
में होता है
या भविष्य के संबंध
में। या तो
जैसा तुम करना
चाहते थे नहीं
कर पाये अतीत
में, उसका
दुख होता है; या भविष्य
में जैसा तुम
करना चाहते हो,
वैसा कर
पाओगे या नहीं
कर पाओगे, उसके
संबंध में
चिंता और पीड़ा
होती है।
कभी
तुमने इस पर
खयाल किया, इस
छोटे—से सत्य
को कभी देखा
है कि वर्तमान
में कोई दुख
नहीं है, कोई
चिंता नहीं है?
इसलिये
वर्तमान मन को
भंग नहीं करता,
चिंता मन को
भंग करती है।
वर्तमान में
दुख होता ही
नहीं।
वर्तमान दुख
को जानता ही
नहीं।
वर्तमान का
इतना छोटा
क्षण है कि
उसमें दुख समा
ही नहीं सकता।
वर्तमान में
स्वर्ग ही समा
सकता है, नर्क
नहीं समा सकता।
नर्क का बड़ा
विस्तार है।
वर्तमान में
तो सिर्फ शांति
हो सकती है, सुख हो सकता
है, समाधि
हो सकती है।
अहनिसि
मन लै उनमन
रहै...
तो
मन को उनमन कर
दो,
मन को पोंछ
डालो। मतलब
हुआ : अतीत और
भविष्य को
सोचो मत। यह
क्षण जो आया
है, अभी ही
थोड़ा इसका स्वाद
लो।
यह
जो क्षण है.. यह
दूर ट्रेन के
गुजरने की
आवाज, सन्नाटे
में बैठे हुए
लोग, प्रेम—पगे,
मेरी बात को
सुनते हुए, मेरी तरफ
अपलक देखते
हुए तुम, वृक्षों
पर पड़ती हुई
धूप, हवा
के झोंके—अभी
कहां दुख, कैसा
दुख? इस
क्षण में सब
सुख है। इस
सुख को गहराओ।
इस सुख को
पीयो। यही
मदिरा है, जो
ढालनी है। यही
मधुशाला है, जिसके अंग
हो जाना है।
एक क्षण से
ज्यादा तो कभी
कुछ मिलता
नहीं, दो
क्षण एक साथ
तो मिलते नहीं।
बस एक क्षण को
जीयो।
जीसस
ने अपने
शिष्यों को
कहा है देखते
हो,
खेत में उगे
हुए लिली के
फूलों को, इनका
सौंदर्य क्या,
इनके
सौंदर्य का
राज क्या? गरीब
लिली के फूल..
इनके सौंदर्य
का रहस्य क्या
है, इनकी
सुगंध कहां से
उठती है? और
मैं तुमसे
कहता हूं—जीसस
ने कहा—कि
सम्राट
सोलोमन भी
अपने परम वैभव
में इतना सुंदर
नहीं था, जितने
ये लिली के
फूल! राज क्या
है इनके सौंदर्य
का? इनके सौदर्य
का राज एक है :
जो गया गया, जो आया नहीं
आया नहीं।
इन्हें न बीते
कल की चिंता
है, न
आनेवाले कल की
चिंता है। ये
बस यहीं हैं...।
इसलिये, जीसस
ने अपने
शिष्यों को
कहा. कल की मत
सोचो। सब सोच
कल का है। इस
क्षण में कोई
सोच नहीं होता।
और जहा सोच
नहीं है, जहां
विचार नहीं है,
जहां चिंता
नहीं है, वहां
मन नहीं है।
और जहा मन
नहीं है, वहा
परमात्मा है।
मन मर जाये तो
परमात्मा का
अनुभव हो जाये।
मरी हे जोगी
मरी!
छांडै
आसा रहै
निरास........।
आशा
करते हो, उससे
ही मन पैदा
होता है। मन
है और की मांग।
मन कहता है : और,
और...। जो भी
दे दो, वही
कम है, और
चाहिए। यह और
की बीमारी ऐसी
पुरानी
बीमारी है कि
कितना ही देते
चले जाओ, मन
अपनी आदत से
पुराना है, मांगता चला
जायेगा। दस
हजार हैं, दस
लाख मांगेगा;
दस लाख दो, दस करोड़
मांगेगा।
मांगता ही
रहेगा। ऐसी
कोई घड़ी न आने
देगा, ऐसा
कोई पल न आने
देगा, जहां
मन तुमसे कह
दे कि बस...। बस
आता ही नहीं, पूर्ण विराम
लगता ही नहीं।
इसलिये
मन दौड़ाये
रखता है।
सिकंदरों को
भी दौड़ाये
रखता है। सब
भागते चले
जाते हैं, सब
दौड़ते चले
जाते हैं—दौड़ते—दौडते
ही मर जाते
हैं। झूले से
लेकर कब्र तक
सिवाय इस
महत्वाकांक्षा
की दौड़ के और
तुम क्या हो? इस दौड़ से
हासिल क्या, इससे कब
किसको क्या
मिला है?
छांडै
आसा रहै
निरास........
फर्क
समझ लेना, निराश
शब्द का वह
अर्थ नहीं है
जो तुम करने
लगे हो अब।
निराश कहते
हैं उस आदमी
को जो बैठा है
उदास, उसको
हम निराश कहने
लगे हैं। शब्द
को हमने विकृत
कर दिया है।
निराश का
सिर्फ इतना ही
अर्थ होता है :
जिसने सब
आशाएं छोड़ दीं।
और जिसने सब
आशाएं छोड़ दीं,
वह हमारे
आधुनिक अर्थ
में निराश हो
ही नहीं सकता।
निराश तो वही
होता है, जिसकी
आशा होती है, और आशा पूरी
नहीं होती। तब
निराशा होती
है।
जो
आधुनिक अर्थ
है निराशा का, वह
समझ लो ठीक से।
आधुनिक अर्थ
है तुमने आशा
की और पूरी
नहीं हुई—तो
निराशा। बैठे
हो उदास...।
चाहा था कि
मिल जाये
लाटरी और फिर
नहीं मिली।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन उदास बैठा
था। पड़ोसी ने
पूछा कि बड़े
उदास मालूम हो
रहे हो, तुम्हें
तो खुश होना
चाहिए। मैंने
सुना है कि
तुम्हारे
चाचा पिछले
सप्ताह मर गये
और पचास हजार
रुपये
तुम्हारे नाम
छोड़ गये, तुम्हें
तो खुश होना
चाहिए।
नसरुद्दीन
ने कहा : हा, खुश
हुए थे, मगर
अब नहीं हैं
खुश। पिछले
सप्ताह चाचा
जी मर गये थे, पचास हजार
छोड़ गये थे; उससे पिछले
सप्ताह मामा
जी मर गये थे, वे एक लाख
रुपये छोड़ गये
थे।
और
अब एक सप्ताह
पूरा होने आया, अभी
तक कोई नहीं
मरा... क्या खाक...
चित्त बड़ा
निराश हो रहा
है। सप्ताह
पूरा होने आया,
यह शनिवार आ
गया, यह
रविवार आया
जाता है, अभी
तक कोई भी
नहीं मरा।
हंसो मत, मन
की यही
प्रक्रिया है।
जितना दो उतना
ही भिखमंगा
होता चला जाता
है। जितना
मिले उतना दीन—दरिद्र
हो जाता है।
बड़े—बड़े
सम्राट भी हाथ
फैलाये खड़े
हैं—और मिल
जाये...।
पुराना
जो अर्थ है 'निराश'
का, बड़ा
गंभीर है, बड़ा
गहन है, और
बड़ा
अर्थपूर्ण है।
उसका अर्थ है.
आशा गयी, उसकी
तो निराशा भी
गयी। न आशा बची
न निराशा बची,
उस अवस्था
को निराश कहते
थे। निर+आस।
आशा नहीं। उसी
के साथ तो
निराशा भी गयी।
जिसको सफलता
की आकांक्षा
नहीं उसको
विफल कैसे
करोगे? और
जिसकी कोई आशा
नहीं है उसको
निराश कैसे
करोगे?
लाओत्सु
ने कहा है :
मुझे कोई हरा
नहीं सकता, क्योंकि
मेरे मन में
जीतने की कोई
आकांक्षा
नहीं है। आओ, कोई मुझे
हराओ। कोई
मुझे हरा नहीं
सकता, क्योंकि
मैं जीतना ही
नहीं चाहता।
अगर
तुम लाओत्सु
पर हमला करोगे, वह
चारों खाने
चित लेट
जायेगा और
कहेगा. भाई, बैठो, ऊपर
बैठ जाओ। थोड़ा
मजा ले लो, लंगोटा
घुमाओ, अपने
घर जाओ। मुझे
कोई इच्छा ही
नहीं जीतने की,
इसलिए मुझे
हराओगे कैसे?
उसी को हरा
सकते हो जो
विजय का
आकांक्षी हो।
और
वही निराशा को
उत्पन्न होता
है,
जो आशा से
भरा था।
पुराना निराश
का अर्थ बड़ा
बहुमूल्य है।
आशा—निराशा
दोनों की
शून्यता जहां
है, उसको
निराश कहते
हैं। और यह
होना ही चाहिए।
अगर तुम्हारा
अर्थ निराशा
का होता तो
फिर हसिबा
खेलिबा धरिबा
ध्यानं, हैसै
षेलै न करै मन
भंग... फिर इसका
कोई अर्थ नहीं
रह जायेगा।
नहीं; निराश
का अर्थ है.
हमने सब आशाएं
छोड़ दीं। अब
हम मांगते ही
नहीं, हम
भिखमंगे न रहे।
अब भविष्य से
हमारी कोई
अपेक्षा नहीं
है, जो
होगा होगा, जो नहीं
होगा नहीं
होगा। जो होगा
हम उसमें मस्त
हैं। हसिबा
खेलिबा धरिबा
ध्यानं। जो है,
हम उसमें
आनंदित हैं।
जैसा है, उससे
हमें रत्ती—
भर भिन्न की
कोई आकांक्षा
नहीं है। उसने
अब तक दिया है,
देता रहेगा;
हर घड़ी हम
आनंद से जीये
हैं।
और
एक बड़े मजे की बात
है कि जो
जितना आनंद से
जीता है, उतना
ज्यादा आनंद
उसे मिलता है।
जो जितना
ज्यादा दुखी
जीता है, उतना
ज्यादा दुख
उसे मिलता है।
क्योंकि हम जो
अपने प्राणों
में पैदा करते
हैं, वही
आकर्षित होने
लगता है हमारी
तरफ। हम चुंबक
बन जाते हैं।
जीसस
का प्रसिद्ध
वचन है कि
जिनके पास है, उन्हें
और दिया
जायेगा, और
जिनके पास
नहीं है, उनसे
वह भी छीन
लिया जायेगा
जो उनके पास
है। बड़ा कठोर
वचन है! लगता
है बड़ी
अन्यायपूर्ण
बात हो गयी यह
तो, कि
जिनके पास है
उन्हें और
दिया जायेगा
और जिनके पास
नहीं है उनसे
वह भी छीन
लिया जायेगा
जो है। नहीं; लेकिन जीसस
के वचन में
जरा भी अन्याय
नहीं है। यह
जीवन का सीधा—सीधा
नियम है। यही
घट रहा है।
अगर तुम
आनंदित हो, तुम और भी
आनंदित हो
जाओगे। तुम
अगर हंस सकते
हो, तुम्हारी
हंसी में और
चार चांद
जुड़ते जायेंगे।
तुम अगर नाच
सकते हो, तुम्हारे
नाच में और
छंदबद्धता आ
जायेगी। तुम
अगर गा सकते
हो, आकाश
तुम्हारे साथ
गायेगा, पर्वत—शृखलाएं
तुम्हारे साथ
गायेगी, चांद,
तारे
तुम्हारे साथ
गायेंगे। और
तुम अगर रोने
लगे, और
तुम अगर बेचैन
होने लगे तो
चारों तरफ से
बेचैनिया
तुम्हारी तरफ
चलने लगेंगी।
तुम
जो हो, उसी को
तुम आकर्षित करते
हो। यह जीवन
का परम नियम
है। तुम जैसे
हो वही
तुम्हारे पास
आता है।
इसलिये सुखी
आदमी और सुखी
होता जाता है।
शात आदमी और
शात होता जाता
है।
अशांत
आदमी और अशांत
होता जाता है।
दुखी आदमी और
दुखी होता
जाता है।
तुम्हारा
अभ्यास बढ़ता
जाता है। दुखी
आदमी दुख का
अभ्यास कर रहा
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने डाक्टर
के पास गया, सुबह—सुबह
खांसता—खंखारता...।
डाक्टर ने कहा
कि नसरुद्दीन
क्या हालत है,
खांसी कुछ
अच्छी मालूम
होती है? उसने
कहा : अच्छी
क्यों नहीं
होगी, तीन
सप्ताह से
अभ्यास कर रहा
हूं। अच्छी
क्यों नहीं
होगी! रात— भर
अभ्यास किया
है, लयबद्धता
आयी जा रही है।
साज बैठा जा
रहा है। अच्छी
क्यों नहीं
होगी?
लोग
दुख में भी
कुशल हो जाते
हैं,
खयाल रखना।
मैं जानता हूं
हजारों लोगों
को, दुख
में कुशल हो
गये हैं। दुख
के कलाकार हैं
वे! जहां दुख न
भी हो वहां दुख
पैदा कर लेते
हैं। उनकी
कुशलता ऐसी है,
उनकी
प्रवीणता ऐसी
है, कि
जहां न भी हो
काटा वहां भी
काटा गड़ा लेते
हैं। उन्हें
फूल भी काटे
हो जाते हैं।
अब यहां तो
मस्ती का आलम
है, यहां
आकर लोग दुखी
हो जाते हैं।
यह देखकर दुखी
हो जाते हैं
कि दूसरे इतने
मस्त क्यों
हैं? बात
क्या है?
यह कैसा धर्म?
धर्म से
उनका प्रयोजन
है—बैठे हैं
अपनी—अपनी
कब्र पर... एक
पांव कब्र में
डाले, माला
हाथ में लिये,
मुर्दे, ठूंठ,
सब पत्ते झड़
गये...! न कोई फूल
लगता है, न
कोई पक्षी
बोलते हैं, तब वे कहते
हैं : अहा! यह है
धर्म।
महात्मा बहुत
पहुंचे हुए
हैं!
तुम
दुखी हो गये
हो,
तुम दुख की
ही भाषा समझ
पाते हो अब।
तुम दुख को ही
पहचान पाते हो।
तुम्हारी दुख
के संबंध में
इतनी कुशलता
हो गयी है कि
दुखी से ही
तुम्हारा
संबंध जुड़
जाता है। तो
जितना कोई
महात्मा अपने
को सताये, गलाये,
परेशान करे,
उतनी भीड़
उसके पास
इकट्ठी होने
लगती है।
मुझसे
लोग पूछते हैं
कि आपके पास
भारतीय लोग कम
क्यों आ रहे
हैं?
उसका कारण
है : भारत दुख
में निष्णात
हो गया है।
हजारों साल
में इसने
स्वयं को कष्ट
देने की कला
में खूब
कुशलता पा ली
है। कांटे
बिछाते हैं
लोग, उन पर
सोते हैं; जैसे
कि बिना कीटों
के उन्हें
नींद न आयेगी!
वैसे ही आग
बरस रही है, वे और धूनी
लगाकर बैठे
हैं। शरीर
वैसे ही
मिट्टी हुआ जा
रहा है, उस
पर और राख
पोतते हैं। इस
देश ने बहुत
दुख का अभ्यास
कर लिया है।
मेरा संदेश
सुख का है।
हसिबा
खेलिबा धरिबा
ध्यानं...।
इसलिये
उन्हें बात
रुचती नहीं है, उन्हें
बड़ी अड़चन होती
है। उन्हें यह
स्वीकार ही
नहीं हो पाता
कि नृत्य का
और ध्यान से
कोई संबंध हो
सकता है, कि
संगीत का और
ध्यान से कोई
संबंध हो सकता
है। उन्हें यह
बात समझ में
नहीं आती। और
निश्चित ही तब
वे मेरे प्रति
क्रोध से भर जाते
हैं। इस
अपूर्व स्थल
के प्रति उनके
मन में सिवाय द्वेष
के और दुश्मनी
के कुछ भी
पैदा नहीं
होता।
उन्होंने
अपने दुख को
खूब मजबूती से
पकड़ा है। वे
दुख को छोड़ने
को राजी नहीं
हैं। और जब तक
इस देश से दुख
की यह आदत न
टूटेगी, तब
तक इस देश के
सौभाग्य का
उदय होनेवाला
नहीं।
और
मैं तुमसे
कहता हूं कि
धर्म का यह
आदेश नहीं है
कि तुम दुखी
हो जाओ। धर्म
आनंद की खोज
है। तभी तो
हमने
परमात्मा को
सच्चिदानंद
कहा है। धर्म
परम आनंद की
खोज है। और इस
जगत के आनंद, छोटे—छोटे
आनंद, उस
मंदिर की सीढ़ी
बना लेने हैं।
इस जगत के
सुखों को
छोड्कर
सच्चिदानंद
मिलेगा, यह
बात गलत है।
क्योंकि जो इस
जगत के आनंद
लेने को भी
राजी नहीं है
वह परमात्मा
को झेलने का
साहस कब जुटा
पायेगा? जो
छोटे—छोटे सुख
नहीं ले पाता,
वह उस बड़े
सुख को कैसे
झेल पायेगा? जो चुल्ल— भर
पानी नहीं पी
पाता, जब
सागर उसके कंठ
में उतरेगा तो
कैसे पी पायेगा?
नहीं; वह
डूब जायेगा, मर जायेगा।
मेरे
हिसाब में यह
संसार
पाठशाला है।
यहां हमें
छोटे—छोटे पाठ
पढ़ाये जा रहे
हैं...। देखो
फूलों को, खिलो
फूलों जैसे।
देखो
इंद्रधुनषों
को, रंगो
अपने जीवन को
इंद्रधनुषों
जैसा। सुनो
संगीत, बनो
संगीत। उठने
दो गीत
तुम्हारा भी।
पक्षियों
में तुमने कोई
महात्मा देखा
है?
कि बैठे हों
धूनी लगाये, रेत पोते... रो
रहे हैं, त्रिशूल
गड़ाये हैं, उपवास कर
रहे हैं।
तुमने कोई
वृक्ष देखा है
जिसको तुम
महात्मा कह
सको? वृक्ष
ने फैलाई हैं
अपनी जड़ें
भूमि में, पी
रहा है रस, खिलाये
हैं फूल, कर
रहा है
गुफ्तगू चांद—तारों
से। मनुष्य को
छोड्कर
तुम्हें कहीं
महात्मा
मिलते हैं? मनुष्य को
छोड्कर
तुम्हें कहीं
दुख मिलता है?
जरा
सोचो तो, प्रकृति
जो कि मनुष्य
से पीछे है, पशु—पक्षी
और पौधे भी
तुमसे ज्यादा
सुखी हैं!
तुम्हें क्या
हो गया है? तुम्हें
कौन—सी प्लेग
लग गयी? तुम्हारे
चित्त पर
रुग्ण लोग
सवार हो गये
हैं।
तुम्हारे
चित्त पर
विक्षिप्त
लोगों ने साम्राज्य
स्थापित कर
लिया है। जो
सुखी नहीं हो
सकते, उन्होंने
दुख की महिमा
गायी है। जो
सुख की कला
नहीं जानते, ऐसे हीन लोग
दुख का गुणगान
करते रहे हैं।
और उन्होंने
यह बात
तर्कपूर्वक
तुम्हारे चित्त
में बिठा दी
है कि तुम
दुखी होओगे तो
परमात्मा के
प्यारे होओगे।
गोरख
कुछ और कहते
हैं,
मैं कुछ और
कहता हूं :
हसिबा
खेलिबा धरिबा
ध्यान अहनिसि
कथिबा ब्रह्मगियान।
फिर
तुम्हारा
उठना—बैठना, बोलना,
श्वास लेना,
सब
तुम्हारे
ब्रह्मज्ञान
की
अभिव्यक्ति
हो जायेगी।
हंसै
षेलै न करै मन भंग
ते निहचल सदा
नाथ के संग
फिर
जुड़ जायेगा
सत्संग। फिर
प्रभु के साथ
ही हो। फिर वह
तुम्हारे साथ
है। फिर भेद
नहीं है।
छांडै
आसा रहै निरास
कहै ब्रह्मा
हूं ताका दास।।
और
आदमियों की तो
क्या बात, वह
जो ब्रह्मा है,
वह भी आकर
तुम्हारे
आनंद से भरे
हुए जीवन को नमस्कार
करेगा, कहेगा.
कहै ब्रह्मा
हूं ताका दास।
देवता भी उसकी
स्तुति करते
हैं जो मनुष्य
आनंदमग्न हो
जाता है।
देवता भी उसके
प्रति
ईर्ष्या से
भरते हैं।
अभी
तो तुम्हारी
दशा ऐसी हो
गयी कि नरक
में जो नारकीय
हैं,
वे भी तुम
पर दया करते
होंगे। वे भी
सोचते होंगे
कि कहीं कोई
हमसे पाप न हो
जाये, नहीं
तो पृथ्वी पर
पैदा होना पड़े—और
विशेषकर पुण्यभूमि
भारत में! कोई
पाप न हो जाये
नरक में, नहीं
तो पुण्यभूमि
भारत भेजे
जायें। ऐसी
नरक में
अफवाहें दें
उड़ी हैं।
एक
जमाना था कि
हमने ऐसी
कथाएं लिखी
थीं कि जब बुद्ध
को ज्ञान हुआ
तो देवता उतरे
आकाश से उनके चरणों
में सिर
झुकाने। जब
महावीर जागे
तो फूल बरसे
आकाश से, देवता
आये सुनने।
क्योंकि था जब
'कोइ व्यक्ति
परम आनंद को
उपलब्ध होगा
तो देवताओं को
भी ईर्ष्या
होगी, क्योंकि
देवता अभी परम
आनंद के
उपलब्ध नहीं हैं।
पुण्य का फल
भोग रहे हैं; फल चुक
जायेगा कल, वापिस लौट
आना पड़ेगा।
उनका सुख
कितना ही लंबा
हो, अस्थायी
है। शाश्वत
सुख तो वही
जानता है जो
नाथ के सदा
संग हो गया।
अभी वे सदा
संग नहीं हैं।
अरधै
जाता उरधै धरै
काम दग्ध जे
जोगी करै
बड़ा
बहुमूल्य
सूत्र है!
अरधै
जाता उरधै धरै
काम दग्ध जे
जोगी करै।
उस
योगी का काम
दग्ध हो जाता
है—जो अपने
आनंद को नीचे
नहीं जाने
देता, ऊपर ले
जाता है। अरधै
जाता उरधै
धरै!
जो
नीचे की तरफ
बह रहा है, उसी
रस को ऊपर की
तरफ उठाने
लगता है।
तीन
शब्द समझ लेना।
एक है. काम।
काम है. सुख
नीचे की तरफ
बहता हुआ।
दूसरा शब्द
है. प्रेम। प्रेम
है सुख मध्य
में अटका हुआ; न
नीचे जा रहा
है, न ऊपर
जा रहा है। और
तीसरा शब्द है
प्रार्थना।
प्रार्थना है
: सुख ऊपर जाता
हुआ। ऊर्जा
वही है। काम
में वही ऊर्जा
नीचे की तरफ
जाती है, प्रेम
में वही ऊर्जा
बीच में थिर
हो जाती है, प्रार्थना
में वही ऊर्जा
पंख खोल देती
है, आकाश
की तरफ उड़ने
लगती है।
इसलिए मैंने
कहा है, संभोग
और समाधि
संयुक्त हैं,
एक ही ऊर्जा
है, एक ही
सीढ़ी है। नीचे
की तरफ जाओ तो
संभोग, ऊपर
की तरफ जाओ तो
समाधि; और
दोनों के मध्य
में प्रेम है।
प्रेम द्वार
है। प्रेम
दोनों का
द्वार है, प्रेम
संभोग का भी द्वार
है। अगर
तुम्हारी
ऊर्जा नीचे की
तरफ जा रही है
तो प्रेम
संभोग का
द्वार बन
जायेगा। और
अगर तुम्हारी
ऊर्जा ऊपर की
तरफ जा रही है
तो प्रेम
समाधि का
द्वार बन
जायेगा।
प्रेम बड़ा
अदभुत है, सेतु
है, क्योंकि
मध्य है।
अरधै
जाता उरधै
धरै...
वह
जो नीचे की
तरफ ऊर्जा बह
रही है
कामवासना में.
अब धीरे— धीरे
जागो, उसी
ऊर्जा को ऊपर
की तरफ ले
चलना है। और
जिस ऊर्जा को
ऊपर ले जाना
हो, उससे
लड़ना मत।
क्योंकि
जिससे तुम लडे,
उससे संबंध
छूट जाता है।
जिससे तुम लड़े,
उससे तुम
भयभीत हो जाते
हो। जिससे तुम
लड़े, उसका
तुम दमन कर
देते हो। और
जिसका दमन हो
जाता है, उसका
ऊर्ध्वगमन
नहीं हो सकता।
इसलिए
गोरख ने और
गोरख के पीछे
चलनेवाले
नाथपंथियों
ने कामवासना
का दमन नहीं
कहा—कामवासना
का ऊर्ध्वगमन।
भेद समझ लेना, तुम्हारे
तथाकथित
धार्मिक गुरु
कामवासना का
दमन सिखाते
हैं—दबा डालो...।
दबाने से क्या
होगा? कामवासना
को निखारना है,
दबाना नहीं।
कामवासना
हीरा है कीचड़
में पड़ा। कीचड़
धो डालनी है, मगर हीरा
थोड़े ही फेंक
देना है। कीचड़
के कारण हीरा
मत फेंक देना,
नहीं तो
पीछे बहुत
पछताआगे। और
यही हालत
तुम्हारे
साधुओं की है।
उनकी हालत
तुमसे बदतर हो
गयी है।
तुम्हें हीरा
नहीं मिला, क्योंकि
तुम्हारा
हीरा कीचड़ में
पड़ा है; उनने
कीचड़ छोड़ दी, साथ हीरा भी
छूट गया। धोबी
के गधे हो गये
हैं, न घर
के न घाट के।
दुविधा में
दोई गये, माया
मिली न राम।
समाधि का कुछ
पता नहीं चल
रहा है, संभोग
से जो थोड़े—बहुत
सुख की कभी
झलक, किरण
मिलती थी, वह
भी दूर हो गयी।
इसलिए चौबीस
घंटे चित्त
उनका रुग्ण है।
कहीं भी जडें
न रहीं। जमीन
से जड़ें उखाड़
लीं, और
आकाश में जड़ें
जमाने का राज
नहीं आया।
राज
इस बात में है :
हीरे को
निखारना है, साफ
करना है, कीचड़
को धो डालना
है। कीचड़ से
कमल हो जाता
है, तो
कीचड़ से घबड़ाओ
मत। इसलिए कमल
का एक नाम है.
पंकज। पंकज का
अर्थ होता है :
पैक से जो हो
जाये, कीचड़
से जो हो जाये।
कीचड़ से कमल
हो जाता है!
इतना
बहुमूल्य, इतना
प्यारा रूप, इतना
सौंदर्य
प्रगट हो जाता
है! काम की
कीचड़ में राम
का कमल छिपा
है।
अरधै
जाता उरधै
धरै...
इसलिए
जागो, समझो, काम की
ऊर्जा को
पहचानो, उसके
साक्षी बनो।
लड़ो मत।
दुश्मनी नहीं,
मैत्री करो।
मित्र को ही
फुसलाया जा
सकता है ऊपर
जाने के लिये।
हाथ में हाथ
लो काम—ऊर्जा
का, ताकि
धीरे— धीरे
तुम उसे प्रेम
में
रूपांतरित
करो। पहले तो
काम को प्रेम
में
रूपांतरित
करना होगा, फिर प्रेम
को प्रार्थना
में। ऐसे ये
तीन सीढ़ियां
पूर्ण हो
जायें तो
तुम्हारे
भीतर सहस्रार
खुले, शून्य
गगन में उस
बालक का जन्म
हो।
खयाल
रखना, काम से
भी बच्चों का
जन्म होता है,
संभोग से भी
बच्चे पैदा
होते हैं और
समाधि से भी
बालक का जन्म
होता है। वह
बालक
तुम्हारी अंतरात्मा
है। वह बालक
तुम्हारा
भव्य रूप है, दिव्य रूप
है। जैसे
तुम्हारे
भीतर कृष्ण का
जन्म हुआ, कृष्णाष्टमी
आ गयी!
तुम्हारे
भीतर बालक
कृष्ण जन्मा।
गगन
सिषर महि बालक
बोले ताका
नांव धरहुगे
कैसा
अरधै
जाता उरधै धरै
काम दग्ध जे
जोगी करै।
और
वही योगी काम
को दग्ध कर
पायेगा, जो
नीचे जाती
ऊर्जा को ऊपर
की तरफ संलग्न
कर लेता है।
लड़ने की बात
नहीं है।
तजै
अल्यंगन काटै
माया।
जो
क्षुद्र है, नीचा
है, जो
तुमसे बाहर है,
उससे धीरे—
धीरे अपना
आलिंगन छोड़ो।
धीरे— धीरे
उसमें अर्थ है,
यह बात छोड़ो;
उसमें अर्थ
है नहीं। अर्थ
तुम्हारे
भीतर छिपा है।
तजै
अल्यंगन काटै
माया
ममता, मोह,
लोभ धीरे—धीरे
छोड़ो।
क्योंकि तुम
जिस चीज को
बाहर पकड़े हो
वह तो मौत छीन
लेगी। उसे मौत
से छीनने के
पहले छोड़ दो
तो तुम्हारा बड़ा
पुरस्कार है,
तुम फिर
धन्यभागी हो।
क्योंकि जो
मौत के पहले
ही चीजों को
छोड़ देता है, उसकी फिर
मौत नहीं आती।
फिर उसके पास
कुछ बचता ही
नहीं, जो
मौत छीन ले
जाये। उसने
खुद ही छोड़
दिया। इसी का
नाम संन्यास
है। और छोड़ने
का अर्थ भागना
नहीं है। जो
भागता है, वह
तो पकड़े है।
इसीलिए भागता
है, नहीं
तो भागेगा
क्यों? अगर
कोई पत्नी को
छोड्कर जंगल
भागता है, उसका
मतलब पत्नी को
पकडे हुए है।
नहीं तो डर
क्या है, भय
क्या है?
मैं
अपने
संन्यासी को
कहता हूं :
जहां हो वहीं छोड़ा
जा सकता है, भागने
की बात तो भूल
भरी है। भागना
कायरता है।
छोड़ना भागने
से नहीं होता,
छोड़ना
जागने से होता
है। सिर्फ
जागकर देखो।
धीरे— धीरे
होश सम्हालो।
और तुम पाओगे,
उस होश के
प्रकाश में जो
व्यर्थ है, व्यर्थ
दिखाई पड़
जायेगा। और जो
व्यर्थ दिखाई
पड़ गया, उस
पर तुम मुट्ठी
बांधकर न रख
सकोगे, उससे
आलिंगन छूट
जायेगा।
तजै
अल्यंगन काटै
माया ताका
बिसनु पषालै
पाया।
उसका
पैर दबाने
विष्णु आ जाते
हैं! हिम्मत
के वचन हैं।
जिसने कहे
होंगे, जरूर
हिम्मतवर
आदमी था।
इसलिए गोरख को
मैं नहीं छोड़
पाता। चार में
गिनती मुझे
करनी पड़ती है।
विष्णु से पैर
दबवा दे जो
लोगों के, उसकी
कुछ तो हिम्मत
है, कुछ तो
साहस है! कोई
साधारण आदमी
नहीं है!
मरौ वे
जोगी मरौ मरौ
मरन है मीठा।
तिस
मरणी मरौ जिस
मरणी गोरष मरि
दीठा
प्रेम
में मरना होता
है। प्रेम
मृत्यु है। और
जो मरता है
वही पाता है—शाश्वत
को,
अमृत को।
यह न
रहीम सराहिये, लेन—देन
की प्रीति
प्रानन
बाजी राखिये, हार
होय के जीत।
यह न
रहीम सराहिये, देन—लेन
की प्रीति
प्रानन
बाजी राखिये, हार
होय के जीत।
जीतो
कि हारो, प्राण
बाजी पर लगाने
होंगे, तो
ही...। यह प्रेम
कोई लेन—देन
का मामला नहीं
है, यह कोई
व्यवसाय नहीं
है। तुम अपना
पूरा दाव पर
लगा देते हो।
यह जुए का दाव
है।
रहिमन
मैन तुरंग चढ़ि, चलिबो
पावक माहि।
प्रेम—पंथ
ऐसो कठिन, सब
कोऊ निबहत नाहिं।।
रहीम
ने कहा. रहिमन
मैन तुरंग
चढ़ि...। जैसे
कोई मोम का
घोड़ा बना ले, मोम
के घोड़े पर
बैठकर आग में
से गुजरे।
रहिमन
मैन तुरंग चढ़ि, चलिबो
पावक माहि।
मोम
के घोड़े पर
बैठकर आग से
निकलना जितना
कठिन है...। एक
तो मोम का
घोड़ा और फिर
आग... निकल कहा
पाओगे, निकल
कैसे पाओगे? घोड़ा तो गल
ही जायेगा।
रहिमन
मैन तुरंग चढ़ि, चलिबो
पावक माहि।
प्रेम—पंथ
ऐसो कठिन, सब
कोऊ निबहत
नाहिं।।
ऐसा
है प्रेम का
पंथ,
ऐसा कठिन है।
क्योंकि जो
मरने को राजी
हैं, वे ही
केवल प्रेम
में प्रवेश कर
पाते हैं।
मरौ वे
जोगी मरौ मरौ
मरन है मीठा।
लेकिन
बड़ी मिठास है
इस मृत्यु
में...। जो
ध्यान की
मृत्यु मर
जाये, इससे
ज्यादा और
अमृतपूर्ण
कोई अनुभव
नहीं है।
क्योंकि उस
मृत्यु में मर
कर ही पता
चलता है कि
अरे, जो
मरा वह मैं था
ही नहीं। और
जो बच गया है
मरने के बाद
भी, वही
मैं हूं। सार—सार
बच रहता है, असार— असार जलकर
राख हो जाता
है।
मैं
भी मृत्यु
सिखाता हूं।
मरौ वे
जोगी मरौ मरौ
मरन है मीठा
तिस
मरणी मरौ जिस
मरणी गोरष मरि
दीठा
गोरख
कहते हैं :
मैंने मरकर
उसे देखा, तुम
भी मर जाओ, तुम
भी मिट जाओ।
सीख लो मरने
की यह कला।
मिटोगे तो उसे
पा सकोगे। जो
मिटता है, वही
पाता है। इससे
कम में जिसने
सौदा करना
चाहा, वह
सिर्फ अपने को
धोखा दे रहा
है। ऐसी एक
अपूर्व
यात्रा आज हम
शुरू करते हैं।
गोरख की वाणी
मनुष्य—जाति
के इतिहास में
जो थोडी—सी
अपूर्व
वाणिया हैं, उनमें एक है।
गुनना, समझना,
सूझना, बूझना,
जीना...। और
ये सूत्र
तुम्हारे
भीतर गूंजते
रह जायें...
हसिबा
खेलिबा धरिबा
ध्यानं
अहनिसि कथिबा
ब्रह्मगियान।
हंसै
षेलै न करै मन
भंग ते निहचल
सदा नाथ के संग
मरौ वे
जोगी मरौ मरौ
मरन है मीठा।
तिस
मरणी मरौ जिस
मरणी गोरष मरि
दीठा।
आज
इतना ही
बताना चाहूंगा कि यह भगवान की अमृतवाणी में समाई हुई यह वही किताब हैं जो आध्यात्मिक प्रश्नों के जवाब न मिलने से त्रस्त आज से दो साल पहले मैं मरने के आसान तरीके ऑनलाइन ढूंढ रहा था तब अचानक ही मेरे हाथ चढ़ गई थी!और इसे पढ़ने के बाद आज में इस शरीर मे संन्यस्त हूँ!
जवाब देंहटाएंमुझे भगवान से मिलाकर इस शरीर मे बनाए रखने के लिए और संन्यास की अद्भुत यात्रा का मार्ग बताने के लिए हृदय, मन और आत्मा से करबद्ध-चरणस्पर्श नमन मेरे वरिष्ठ!
भरत ठाकुर,
अध्यापक, नवोदय विद्यालय,
भूपदेवपुर-छत्तीसगढ़,
दूरभाष अंक:७०६९५४५३९८