संन्यास
का अनुशासन :
सहजता—प्रवचन—चौथा
दिनांक: 29
सितंबर, 1976;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
सूत्र:
हंतात्मज्ञस्य
धीरस्थ खेलतो
भोगलीलया।
न
हि
संसारवाहीकैर्मूढ़ै
सह समानता।।60।।
यत्यदं
प्रेम्मवो
दीना:
शक्राद्या
सर्वदेइवता:।
अहो
तत्र स्थितो
योगी न
हर्षमुयगच्छति।।61।।
तज्जस्य
पुण्ययायाथ्यां
स्पर्शो ह्रयन्तर्न
जायते।
न
हयकाशस्थ
धूमेन
झयमानोऽयि
संगति:।।62।।
आत्यवेदं
जगत्सर्वं
ज्ञातं येन
महात्मना।
यदृच्छया
वर्तमान तं
निषेद्युं
क्षमेत क्र:।।63।।
आब्रह्मस्तम्बयर्यन्ते
भूतग्रामे
चतुर्विधे।
विज्ञस्यैव
हि सामर्थ्यमिच्छानिच्छाविवर्जने।।
64।।
आत्मानमद्वयं
कश्चिज्जानति
जगदीश्वरम।
अष्टावक्र
ने बड़ी कठिन
परीक्षा ली। और
जनक जैसे
सद्य:, अभी—अभी पैदा
हुए
आत्मज्ञानी
की, अभी— अभी
जन्म हुआ, अभी—
अभी प्रकाश की
किरण उतरी।
अभी सम्हल भी
नहीं पाये
जनक। अभी
आश्चर्य की
तरंगें उठी जा
रही हैं। अभी
भरोसा भी नहीं
बैठा कि जो हो
गया है, वह
हो भी गया!
भरोसा बैठने
में थोड़ा समय
लगता है।
जितनी बड़ी
घटना हो, जितनी
अज्ञात घटना
हो, उतना
ही ज्यादा समय
लगता है। अभी
तो गदगद हैं
जनक। हृदय में
नयी—नयी
तरंगें उठ रही
हैं। जो हुआ
है वह हो भी
सकता है—इस पर
भरोसा नहीं आ
रहा है। जो
हुआ है, वह
मुझे हो सकता
है—इस पर तो और
भी भरोसा नहीं
आ रहा। जो हुआ
है, वह
इतने तत्क्षण
हो सकता है—इस
पर कैसे भरोसा
आये!
बड़े
गहन अहोभाव से
भरे जनक। और
अष्टावक्र
बड़ी कठोर
परीक्षा लेते
हैं;
जैसे अभी—अभी
पैदा हुआ
बच्चा हो और
परीक्षा शुरू
हो गयी।
लेकिन
उस कठोरता में
करुणा है। उस
कठोरता में जनक
का सारा
भविष्य है। और
यह परीक्षा तत्क्षण
ही ली जा सकती
है। अगर थोड़ी
देर हो जाये
और ज्ञान की
ताजगी समाप्त
हो जाये, तो
फिर परीक्षा
लेनी कठिन है।
इसे
थोडा समझने की
कोशिश करें।
जब
ताजा—ताजा शान
है,
तब तरल होता
है, तब उसे
नये रूप दिये
जा सकते हैं, नये ढांचे
दिये जा सकते
हैं। जैसे
छोटा—सा अंकुर
निकलता है, उसे हम कैसे
ही झुका लें
और किन्हीं
दिशाओं में
मोड़ दें, कोई
भी ढंग दे
दें। फिर बड़ा
पुराना वृक्ष
है, उसे
झुकाना
मुश्किल हो
जाता है—टूट
जायेगा, झुकेगा
नहीं!
तो
शान जब पैदा
हो,
तभी अवसर
है। देर हो
जाये, आश्चर्य
समाप्त हो
जाये, तो
शान ठोस हो
गया, तरलता
खो गयी। वह जो
अग्नि पैदा
हुई थी, वह
विलीन हो गयी।
वह जो लावा
बहा था, वह
जम गया, पत्थर
हो गया। फिर
उसकी परीक्षा
बड़ी कठिन है और
परीक्षा
व्यर्थ भी है।
क्योंकि फिर
बड़ी तोड़—फोड़
करनी पड़ेगी।
इसलिए
अष्टावक्र ने
एक क्षण भी न
खोया। इधर जनक
आश्चर्य से
भरे हैं, उधर
अष्टावक्र ने कसना
शुरू कर दिया।
जनक
ने इन सूत्रों
में,
आज के सूत्रों
में, उत्तर
दिया है। जो
परीक्षा ली जा
रही है उसके प्रति
अपने हृदय के
भाव प्रकट
किये हैं—वे
बड़े अनूठे
हैं। जनक न तो
नाराज हुए; जरा भी
नाराज हो जाते
तो असफल हो
जाते; जरा
भी उद्विग्न
हो जाते तो
असफल हो जाते।
क्या कहते हैं,
यह उतना
सवाल नहीं है—कैसे
परीक्षा को
लिया? करुणा
को पहचाने
अष्टावक्र की
या कठोरता को?
अगर कठोरता
को पहचानते और
करुणा को भूल
जाते तो उसका
अर्थ हुआ कि
जनक का अहंकार
अभी भी मरा नहीं।
अहंकार ही
कठोरता को
पहचानता है।
जहां अहंकार
खो गया वहां
तो सिर्फ
महाकरुणा ही
ज्ञात होती
है। वहां तो
गुरु गरदन पर
तलवार भी रख
दे तो फूलों
का हार ही रखा
हुआ मालूम
होता है। वहा
तो गुरु मार
भी डाले तो भी
शिष्य मरने को
तत्पर होता
है। क्योंकि
गुरु के हाथ
से मौत—इससे
शुभ और क्या
होगा! इससे
महाजीवन और
क्या हो सकता
है! यह तो गुरु
की महा
अनुकंपा है कि
वह गरदन को
अलग कर दे, तो
तुम पिंजरे से
मुक्त हो जाओ।
अगर मृत्यु भी
दे गुरु और
अहंकार न हो, तो करुणा का
दर्शन होगा।
और अगर अहंकार
हो और गुरु
महाजीवन भी
देता हो, तो
भी संदेह
उठेंगे।
हजार
संदेह उठ सकते
थे जनक के मन
में। पहली तो बात
यह उठ सकती थी
कि मुझ पर
संदेह किया जा
रहा है ? पहला
तो संदेह यह
उठ सकता था कि
मुझ पर संदेह
किया जा रहा
है? अगर
ऐसा संदेह उठ
आता तो
श्रद्धा खो
जाती। तो वह
जो संवाद चल
रहा था गुरु
और शिष्य के
बीच, रुक
जाता, सेतु
टूट जाता।
दूसरी बात यह
उठ सकती थी कि
कहीं
अष्टावक्र को
ईर्ष्या तो
नहीं हो गयी? मुझ में यह जो
ज्ञान का
प्रादुर्भाव
हुआ है, कहीं
अष्टावक्र
ईर्ष्यालु तो
नहीं हो गये? कहीं ऐसा तो
नहीं है कि
शिष्य के जीवन
में उठती इस क्रांति
को देख कर मन
में जलन पैदा
हुई हो?
अगर
ऐसा भाव उठता
तो फिर शिष्य
शिष्य नहीं रह
गया। फिर तो
शिष्य और गुरु
के बीच हजारों
—हजारों योजन
का फासला हो
गया। फिर तो
एक—दूसरे की
आवाज
पहुंचानी
असंभव है। फिर
तो वे दूसरे
अलग लोकों के
वासी हो गये।
नहीं, न
तो ऐसा संदेह
उठा कि गुरु
को मेरे पर
संदेह है, न
ऐसा भाव उठा
कि गुरु
ईर्ष्या से
भरा है; न
ही जनक ने
अपने पक्ष में
बोलने की
चेष्टा की।
नहीं
तो साधारणत:
जब भी कोई
तुमसे कुछ कहे
और तुम्हें परीक्षा
का संदेह हो
तो तुम तत्क्षण
सुरक्षा को
तत्पर हो जाते
हो। तुम तर्क
देने लगते हो, विवाद
करने लगते हो।
तुम हजार
सिद्धात खड़े
करके बताने
लगते हो कि
नहीं, मैं
ठीक हूं।
अगर
जनक ने जरा भी
कोशिश की होती
कि मैं ठीक
हूं तो वे गलत
हो गये होते।
क्योंकि ठीक
सिद्ध करने की
कोशिश गलत
आदमी ही करता
है। अगर कोई भी
तर्क दिया
होता और यह
सिद्ध करने की
कोशिश की होती
बौद्धिक रूप
से कि नहीं, आप
गलत हैं, मैं
ठीक हूं—तो इस
कोशिश में ही
गलत हो गये
होते।
जीवन
का गणित बड़ा
विरोधाभासी
है। यहां जो
सिद्ध करने
चला है कि मैं
ठीक हूं वह
गलत सिद्ध हो
जायेगा।
क्योंकि ठीक हूं,
ऐसी सिद्ध
करने की आकांक्षा
ही तुम्हारे
अचेतन में तभी
उठती है जब
तुम्हें भीतर
पता ही होता
है कि तुम गलत
हो। आत्मरक्षा
का भाव भीतर
गलत की
प्रतीति से
पैदा होता है—
भय के कारण कि
कहीं बात खुल
तो न जायेगी? कहीं मेरे
भीतर का राज
जाहिर तो न हो जायेगा?
यह तो गुरु
पर्दे उठाने
लगा! यह तो
मुझे नग्न किये
दे रहा है!
नहीं, ऐसी
बात भी नहीं
उठी।
जनक
के ये सूत्र
तुम सुनोगे, ये
चकित करने
वाले सूत्र
हैं। परीक्षा
कठोर थी, गुरु
की आंख तेज
तलवार की धार
की तरह थी। और
गुरु ने जरा
भी रहम न किया
था। गुरु बड़ा
बेरहम था। और
गुरु ने चोट
पूरी की थी, जितनी की जा
सकती थी। और
गुरु ने सब
दरवाजों से
चोट की थी; कहीं
से भागने की
जगह न छोड़ी
थी। पहले भोग
के दरवाजे रोक
दिये, फिर
त्याग का भी
दरवाजा रोक
दिया। बचने का
उपाय न छोड़ा
था। गुरु ने
खूब कसा था, सब तरफ से
कसा था। अगर
थोड़ी भी
संभावना होती
जनक के भीतर
अंधकार की, तो इन
सूत्रों का
जन्म नहीं हो
सकता था। कोई
अंधकार की
संभावना नहीं
रह गयी थी।
जनक
ने ऐसे उत्तर
दिया जिसमें
आत्मरक्षा का
भाव बिलकुल
नहीं; ऐसे
उत्तर दिया
जिसमें तर्क—सरणी
है ही नहीं।
उत्तर कहना भी
ठीक नहीं है। जनक
ने जो उत्तर
दिया है, वह
प्रतिध्वनि
है, उत्तर
नहीं। गुरु ने
दर्पण सामने
रख दिया था, जनक ने अपना
हृदय सामने रख
दिया, उस
दर्पण में जो
झलका, वे
ही ये सूत्र
हैं। जरा भी
अपने को ओट
में छिपाने की
कोशिश न की।
जरा भी चौंक
कर संदेह से न
भरे। जरा भी
तर्क को बीच
में न लाये।
जैसे गुरु ने
कुछ परीक्षा
ही नहीं ली है,
इसी तरह जनक
ने उत्तर
दिये।
पहला
सूत्र, जनक
ने कहा. 'हंत,
भोगलीला के
साथ खेलते हुए
आत्मज्ञानी
धीरपुरुष की
बराबरी संसार
को सिर पर
ढोने वाले मूढ़
पुरुषों के साथ
कदापि नहीं हो
सकती है। '
पहला
शब्द है. 'हंत!'
उसमें सारी
श्रद्धा
उंडेल दी। 'हंत' बड़ा
प्यारा शब्द
है। जैनों में
उसका पूरा रूप
है ' अरिहंत'। बौद्धों
में उसका रूप
है 'अर्हत'। हिंदू
संक्षिप्त 'हंत' का
उपयोग करते
हैं। हंत का, अरिहंत का, अर्हत का
अर्थ होता है,
जिसने अपने
शत्रुओं पर
विजय पा ली—काम,
क्रोध, लोभ,
मोह, भोग,
त्याग, इहलोक,
परलोक!
जिसने अपनी
समस्त
आकांक्षाओं
पर विजय पा ली,
जो
निष्काक्षा
को उपलब्ध हुआ
है, वही है
अरिहंत।
सूत्र
की उदघोषणा
करते हैं जनक, अष्टावक्र
को अरिहंत कह
कर—परम
श्रद्धा से!
इससे बड़ा शब्द
नहीं है भाषा
में। अरिहंत
का अर्थ होता
है. भगवान, अरिहंत
का अर्थ होता
है. आखिरी
चैतन्य की दशा,
जिसके पार
फिर कुछ भी
नहीं है। .जो—जो
हटाना था, हटा
दिया। जो —जो
गिराना था, गिरा दिया।
जो —जो मिटाना
था, मिटा
दिया। जो —जो
जीतना था, जीत
लिया। अब कुछ
भी नहीं बचा!
शुद्ध चैतन्य
का सागर रह
गया। वैसी दशा
का नाम है 'अरिहंत'।
और
हंत का एक
अर्थ और भी है
जो बड़ा कीमती
है। हम तो इसका
एक ही तरह से
उपयोग करते
हैं साधारण
भाषा में। जब
कोई आदमी अपने
को मार लेता
है तो हम कहते हैं
: आत्महंता। हंत
का अर्थ होता
है,
जिसने अपने
को मिटा लिया;
जिसने अपने
को समाप्त कर
दिया; जिसके
भीतर 'मैं'
न रहा; जिसके
भीतर अहंकार न
रहा; जिसने
अपने को
बिलकुल
समाप्त कर
दिया; जिसने
अपनी कोई रूप—रेखा
न बचायी, नाम—पता
न छोड़ा; जो
शून्यवत हुआ;
जो
महाशून्य हुआ;
निर्वाण को
उपलब्ध हुआ; जिसने
वस्तुत:
आत्मघात कर
लिया!
तुम
जिन्हें
आत्मघात कहते
हो वे आत्मघात
नहीं हैं, वे
तो केवल शरीर—घात
हैं। एक आदमी
गोली
मार कर मर
जाता है, इसको
आत्मघात नहीं
कहना चाहिए।
क्योंकि आत्मा
तो नहीं मरती।
अहंकार तो
नहीं मरता। सच
तो यह है कि
अहंकार के
कारण ही उसने
शरीर को मिटा डाला
है। अहंकार पर
चोट पड़ रही थी;
दाब लग गया
था, मुश्किल
दिखता था बचना;
दिवाला
निकल रहा था, कि पत्नी
भाग गयी थी; कि पराजित
हो गया था; चुनाव
में हार गया
था—आत्महत्या
कर ली। 'आत्महत्या'
कहनी नहीं
चाहिए—'शरीर—हत्या',
'देह—हत्या'। मन, अहंकार
सब मौजूद है।
फिर जन्म ले
लेगा। देर
नहीं लगेगी।
फिर किसी देह
में उतर
जायेगा।
लेकिन
ज्ञानी
वस्तुत:
आत्महंता है।
वह अपने को
मिटा ही डालता
है पूरा का
पूरा। और उसके
मिट जाने में
ही परमात्मा
का होना है।
जब तुम खो जाते
हो,
तभी प्रभु
होता है। जहां
तुम नहीं हो, वहीं भगवान
है।
तुम्हारा
मिलन भगवान से
कभी न हो
सकेगा। तुम जब
तक खोजते
रहोगे तब तक
भटकते रहोगे।
क्योंकि तुम
जब तक खोजते
रहोगे तुम तुम
ही बने रहोगे।
कल
एक युवक
इंगलैंड से
आया और मुझसे
कहने लगा कि
मैं आपके पास
आया हूं। मेरी
जीसस में बड़ी
आस्था है; बड़ा
विश्वास है
मुझे जीसस में—उसने
कहा—क्या आप
मेरे विश्वास
को दृढ़ बना
सकेंगे? क्या
आप मेरे
विश्वास को और
मजबूत बना
सकेंगे? तो
मैं संन्यस्त
होने को तैयार
हूं। मैंने उससे
कहा. फिर हमें
बातचीत साफ कर
लेनी चाहिए, क्योंकि
तुम्हारे
विश्वास को
मजबूत बनाने का
अर्थ तो
तुम्हीं को
मजबूत बनाना
होगा। तुम सोचते
हो तुम जीसस
पर विश्वास
करते हो? तुम्हें
जीसस से कोई
भी प्रयोजन है?
तुम्हारा
विश्वास
मजबूत होना
चाहिए! और जब
तक तुम्हारा
सब भाव न मिट
जाये, 'मैं'
होने का, तब तक जीसस
से तुम्हारा
कोई संबंध
नहीं हो सकता।
अगर तुम मुझ
पर छोड़ते हो, तो मेरी
पूरी चेष्टा
यह होगी कि तुम्हारे
विश्वासों को
बिलकुल मिटा
डालूं क्योंकि
उन्हीं
विश्वासों के
सहारे तुम खड़े
हो। जब सब
सहारे गिर
जायेंगे तो
तुम भी गिर
जाओगे। और
जहां तुम
गिरोगे वहीं
सूली लगी!
जहां तुम गिरे,
वहीं
तुम्हारा
संबंध
क्राइस्ट से
हुआ।
उससे
मैंने कहा, जब
तक तुम
क्रिश्चियन
हो, तब तक
क्राइस्ट से
कोई संबंध न
हो सकेगा। तो
अगर तुम मुझ
पर छोड़ते हो, तो मैं
तुम्हारे
क्राइस्ट.
तुम्हारे
क्राइस्ट को
तो बिलकुल
मिटा दूंगा, क्योंकि
तुम्हारा
क्राइस्ट तो
तुम्हीं को भरता
है। जब तुम
समाप्त हो
जाओगे, तुम्हारा
क्राइस्ट, तुम्हारी
क्रिश्चिएनिटी,
तुम्हारा
चर्च, तुम्हारा
शास्त्र सब खो
जायेगा, और
तुम्हीं खो
जाओगे सबके
आधार! —तब
जिसका
प्रादुर्भाव
होगा, उसे
फिर तुम चाहे
क्राइस्ट
कहना, चाहे
बुद्ध कहना, चाहे जिन
कहना, तुम्हें
जो मर्जी हो
कहना। उससे
फिर मुझे कोई प्रयोजन
नहीं, वह
नाम की ही बात
है। न तो जीसस का
नाम क्राइस्ट
था, न
बुद्ध का नाम
बुद्ध था, न
महावीर का नाम
जिन था, वे
तो चैतन्य की
अवस्था के नाम
हैं—आखिरी
अवस्था के नाम
हैं। जिन का
अर्थ : जिसने जीत
लिया। बुद्ध
का अर्थ. जो
जाग गया।
क्राइस्ट का
अर्थ भी है. जो
सूली से गुजर
गया और फिर भी
न मरा। जो
मृत्यु से
गुजर गया और
महाजीवन को
उपलब्ध हो गया—क्राइस्ट
का अर्थ है।
सूली गुजर गयी
और फिर भी कुछ
न मिटा। जो
शाश्वत था वह
बना रहा, जो
व्यर्थ था वही
छूट गया। सूली
पर जो मरा, वे
जीसस थें—सूली
से जो बच रहा, वे
क्राइस्ट! वही
पुनरुज्जीवन
की कथा का
अर्थ है।
हंता
का अर्थ है.
जिसने अपने को
पोंछ डाला, मिटा
डाला; जिसने
अपने हाथ से
अपने अहंकार
को
घोंट दिया, गला
घोंट दिया।
फिर बचते हैं
हम—असीम की
भांति, अनंत
की भांति, शाश्वत—
सनातन की
भाति।
ठीक
किया जनक ने; उत्तर
देने में जो
पहला शब्द
उपयोग किया, उसमें सब कह
दिया। उसमें
सब कह दिया कि
आप मुझे धोखा
न दे पायेंगे।
आप मुझे नाराज
न कर पायेंगे।
कितनी ही
परीक्षा लो
मेरी, क्षण
भर को भी मैं
नहीं भूलूंगा
कि तुम पहुंच गये
हो। तुम्हारी
कठोरता के
कारण मैं ऐसा
सोच भी नहीं
सकता हूं कि
तुम्हारे मन
में ईर्ष्या होगी।
तुम तो हो ही
नहीं, तो
ईर्ष्या कैसी?
तुम तो हो
ही नहीं, तो
अहंकार कैसा?
तुम तो हो
ही नहीं, तो
कठोरता कैसी?
इसलिए
पहला 'हंत' शब्द
उपयोग किया।
उस 'हंत' में सब कह
दिया। बात तो
वहीं खत्म हो
गयी, शेष
सूत्र तो फिर
व्याख्या
हैं। शेष
सूत्रों में
तो इसी बात को
फैला कर कहा।
हंतात्मशस्य
धीरस्य खेलतो
भोगलीलया।
न
हि
संसारवाहीकैर्मूढ़ै
सह समानता।।
'हे हंत, भोगलीला
के साथ खेलते
हुए
आत्मज्ञानी
धीरपुरुष की
बराबरी संसार
को सिर पर
ढोनेवाले मूढ़
पुरुषों के
साथ कदापि
नहीं हो सकती।
'
और
परीक्षा को
व्यक्तिगत
रूप से न
लिया। उत्तर
देखते हैं!
उत्तर में यह
नहीं कहा कि
आप मेरी
बराबरी
अज्ञानियों
से कर रहे हैं! 'मुझको'
तो बीच में
लाये ही नहीं।
'मैं' को
तो उठाया ही
नहीं। मैं का
कोई संबंध न
बांधा। उत्तर
बिलकुल
निवैंयक्तिक
है।
कहा
कि 'भोगलीला के
साथ खेलते हुए
आत्मज्ञानी
धीरपुरुष की
बराबरी संसार
को सिर पर
ढोनेवाले मूढ़
पुरुषों के
साथ कदापि
नहीं हो सकती।
'
दोनों
संसार में खड़े
हैं। अज्ञानी
भी खड़ा है, ज्ञानी
भी खड़ा है।
दोनों बाजार
में खड़े हैं।
लेकिन दोनों
के खड़े होने
के ढंग में
फर्क है। दोनों
का स्थान भला
एक हो, दोनों
की स्थिति अलग
है। अज्ञानी
तो सिर पर ढो
रहा है, ज्ञानी
ने पोटली रथ
पर उतार कर रख
दी। फिर से
तुम्हें वह
कहानी कह दूं।
बार—बार कहता
हूं क्योंकि
बड़ी
महत्वपूर्ण
है।
सम्राट
चला आ रहा है
शिकार खेल कर
अपने रथ में बैठा
हुआ,
देखता है एक
भिखारी को
पोटली लिये
हुए रास्ते पर।
बिठा लेता है
रथ में कि छोड़
दूंगा जहां
तुझे उतरना हो;
कहां तुझे
उतरना है? भिखारी
बड़ा सकपकाता
है। बैठ तो
जाता है रथ
में—डरा—डरा!
कहना तो चाहता
है कि नहीं
महाराज, मैं
और रथ में
बैठुं नहीं, नहीं! मगर
इतनी भी
हिम्मत नहीं,
'नहीं' कहने
से कहीं
सम्राट नाराज
न हो जाये! उस
स्वर्ण —सिंहासन
पर सिकुड़ा—सिकुड़ा
बैठा है, घबड़ाया
हुआ बैठा है
कि कहीं मेरे
कारण सब गंदा
न हो जाये।
मैं दीन—हीन, इस राजरथ पर
बैठूं! लेकिन
पोटली उसने
अपने सिर पर
उठा रखी है।
सम्राट
थोड़ी देर बाद
कहता है : अरे
पागल, पोटली
नीचे रख! अब
पोटली सिर पर
क्यों रखे है?
वह कहता है :
नहीं महाराज,
इतनी ही दया
क्या कम है कि
आपने मुझे
बैठा लिया! और
अपनी पोटली का
वजन भी आपके
रथ पर रखूं? नहीं—नहीं, यह ज्यादती
हो जायेगी। यह
तो
अशिष्टाचार
हो जायेगा।
माना कि मैं
दीन—हीन गरीब
आदमी हूं इतनी
तो बुद्धि
मुझे भी है।
पोटली तो मैं
सिर पर ही
रखूंगा, आप
कुछ भी कहो।
मैं बैठ गया, यही बहुत—बैठना
भी नहीं था
मुझे। डर के
मारे बैठ
गया
हूं कि कहीं
आप नाराज न हो
जायें। मेरे
पैर तो चलने
के लिए ही बने
हैं। मैं तो
गरीब आदमी हूं
यह रथ मेरे
लिए नहीं है।
मुझे बड़ी
दिक्कत हो रही
है। तो कम से
कम पोटली तो
मुझे सिर पर
रखे रहने दें।
इतना बोझ आपके
रथ पर और डालूं—नहीं, यह
मुझसे न हो
सकेगा।
अब
तुम रथ में
बैठे हो, पोटली
सिर पर रखो कि
नीचे—बराबर
है।
जनक
कहते हैं.
ज्ञानीपुरुष
भी रथ में
बैठता, अज्ञानी
भी रथ में
बैठता।
अज्ञानी
पोटली सिर पर
रखे रहता है, ज्ञानी
पोटली नीचे
उतार कर रख
देता है।
'संसार को
सिर पर ढोने
वाले मूढ़
पुरुषों के
साथ ज्ञानी
पुरुष की
समानता कदापि
नहीं की जा
सकती।'
क्यों? भोगलीला
के साथ खेलते
हुए...। वह जो
ज्ञानी पुरुष
है उसके लिए
तो सब लीला हो
गया, सब
खेल हो गया।
वह तो इस जगत
में खेल की
तरह सम्मिलित
है। इस जगत
में उसे कोई
रस नहीं है।
इस जगत में
पक्ष—विपक्ष
नहीं रहा उसके
मन में, इच्छा—
अनिच्छा नहीं
रही। वह तो
सम्मिलित
होता है—प्रभु
—मर्जी से। वे
सूत्र आगे
आयेंगे।
लेकिन जगत उसे
खेल हो गया।
तुम
दुकान पर दो
ढंग से बैठ
सकते हो। एक
ढंग है अज्ञानी
का कि तुम
सोचते हो.
दुकान ही
जीवन। एक ढंग
है ज्ञानी का
कि तुम जानते
हो. एक खेल है—जरूरी; खेलना
आवश्यक, जीवन
का हिस्सा, लेकिन खेल—मात्र!
दोनों दुकान
पर बैठे हैं; दोनों एक
जगह बैठे हैं—लेकिन
दोनों की
चित्त—दशा बड़ी
भिन्न है। एक
साक्षी—मात्र
है, क्योंकि
सब खेल है।
दूसरा भोक्ता
हो गया; कर्ता
हो गया, क्योंकि
सब बड़ा गंभीर है।
अज्ञानी
जगत को
गंभीरता से
लेता है, ज्ञानी
हंस कर लेता।
बस, उतनी
मुस्कुराहट
का फासला है।
पत्नी मर जाती
है तो अज्ञानी
भी उसे मरघट
तक छोड़ आता है,
लेकिन रोता,
चीखता, चिल्लाता।
ज्ञानी भी
मरघट तक छोड़
आता।.. एक खेल
पूरा हुआ। एक
नाटक समाप्त
हुआ, पर्दा
गिरा। रोने, चीखने, चिल्लाने
जैसा कुछ भी
नहीं है। भीतर
वह साक्षी ही
बना रहता है।
द्रष्टा— भाव
उसका क्षण भर
को नहीं खोता।
इतना ही भेद है।
ज्ञानी
संसार को छोड़
कर भागे, तब
ज्ञानी—तब तो
इसका अर्थ हुआ
कि अभी भी
संसार को
गंभीरता से ले
रहा है, छोड़
कर भाग रहा
है। अभी संसार
को देख नहीं
पाया। अभी आंख
गहरी नहीं
हुई। अभी उतरा
नहीं जीवन के
अंतरतम में।
अभी पहचाना
नहीं कि
भोक्ता और
कर्ता मैं
दोनों नहीं हूं, सिर्फ
साक्षी—मात्र
हूं।
अमेरिका
में लिंकन की
पहली शती
मनायी गयी। तो
एक आदमी ने
लिंकन का
पार्ट किया, पार्ट
किया एक वर्ष
तक सारे
अमेरिका में।
उसका चेहरा
लिंकन से
मिलता—जुलता
था। तो उसे
नाटक का काम
दिया गया कि
वह लिंकन का
अभिनय करे। और
वह नाटक की
मंडली सारे अमेरिका
में घूमी, हर
बड़े नगर में
गयी, गांव—गांव
गयी, साल
भर उसने
यात्रा की। वह
आदमी साल भर
तक लिंकन का
अभिनय करता
रहा।
लेकिन
धीरे — धीरे, धीरे
— धीरे लोगों
को थोड़ा शक
हुआ कि उस
आदमी में गड़बड़
होनी शुरू हो
गयी। वह लिंकन
के कपड़े पहनता,
नाटक में तो
पहनता ही, धीरे—
धीरे वह बाहर
भी पहनने लगा।
मंच के बाहर
भी चलने लगा
वैसे ही जैसे
लिंकन चलता
था। थोड़ा लंगड़ाता
था लिंकन, तो
वह ऐसे
ही
लंगड़ा कर बाहर
भी चलने लगा।
लिंकन थोड़ा
हकलाता था, तो
वैसे ही हकला
कर वह बाहर भी
बोलने लगा।
लोगों ने कहा
कि यह क्या
मजाक है?
पहले
तो लोगों ने
समझा, मजाक कर
रहा है। लेकिन
फिर धीरे—धीरे
लोग गंभीर हो
गये, क्योंकि
वह तो बिलकुल
ही मान बैठा
कि लिंकन हो
गया है।
जब
साल भर बाद वह
घर आया तो वह
तो बिलकुल
लिंकन हो कर आ
गया था। साल
भर अभिनय करते—करते
वह यह भूल ही
गया कि मैं
अभिनेता हूं।
उसने तो मान
ही लिया कि
मैं अब्राहम
लिंकन हूं। उसके
संबंध में तो
यह लोकोक्ति
प्रचलित हो गयी
कि जब तक इसको
गोली न मारी
जायेगी तब तक
यह न मानेगा। जैसे
लिंकन को गोली
मारी गयी और
लिंकन की हत्या
हुई—जब तक
इसकी हत्या न
होगी, यह
मानने वाला
नहीं है।
सब
तरह के इलाज
किये गये, चिकित्सा
की गयी; डॉक्टरों
को दिखाया गया,
मनोवैज्ञानिकों
को दिखाया
गया। सब थक
गये समझा—समझा
कर। वे उसको
समझायें, वह
मुस्कुरा कर
बैठा रहे। वह
कहे कि आप बड़े
मजे की बात कह
रहे हैं। हद हो
गयी, आप
मुझको समझा
रहे हैं कि
मैं अब्राहम
लिंकन नहीं
हूं! आपका
दिमाग ठीक है?
मुझमें
क्या कमी
देखते हैं?
कमी
उसमें कुछ भी
न थी,
अभिनय वह
बिलकुल पूरा
कर रहा था।
वैसा चलता, वैसा बोलता,
वैसा उठता—बैठता,
वैसी उसने
दाढ़ी—मूछें
बढ़ा ली थीं—सब
बिलकुल वैसा
था।
आखिर
चिकित्सक भी
उससे थक गये।
और उन्होंने कहा
कि यह आदमी तो
हद है! इसको
भरोसा इतना
गहरा आ गया है!
तभी
अमेरिका में
एक मशीन ईजाद
की गयी थी, जिसको
अदालतों में
उपयोग करते
हैं, झूठ
पकड़ने के लिए—लाइ—डिटेक्टर।
आदमी को मशीन
के ऊपर खड़ा कर
देते हैं, उससे
प्रश्न पूछते
हैं—ऐसे
प्रश्न जिनके
उत्तर वह झूठे
तो कभी दे ही नहीं
सकता। जैसे, उससे पूछते
हैं घड़ी दिखा
कर कि कितना
बजा है? अब
घड़ी में अगर
साढ़े आठ बजा
है तो वह कहता
है, साढ़े
आठ बजा है।
इसमें क्या
झूठ बोलेगा, घड़ी सामने
है। झूठ
बोलेगा कैसे?
उससे पूछते
हैं, यह
रंग कैसा है, गेरुआ है कि
हरा है? तो
वह कहता है, गेरुआ है।
इसमें झूठ
क्या बोलेगा?
उसके सामने
किताब रख कर
कहते हैं, यह
किताब कुरान
है कि बाइबिल
है? वह
कहता है, बाइबिल
है। इसमें झूठ
क्या बोलेगा ? ऐसे पांच—सात
प्रश्न पूछते
हैं, जिनमें
सच बोलना
अनिवार्य ही
है। उनमें झूठ
बोलने की कोई
जगह नहीं है।
नीचे मशीन
ग्राफ बनाती
है। जैसा
तुमने
कार्डियोग्राम
देखा हो, वैसा
ही ग्राफ बनता
है नीचे। उसके
हृदय की धड़कनें
बताती हैं कि
बिलकुल ठीक चल
रही हैं।
तभी
अचानक उससे
पूछते हैं कि
तुमने चोरी की? उसके
हृदय में तो
आवाज आती है
कि की, क्योंकि
उसने की है।
लेकिन वह उसे
गटक जाता है
और कहता है, नहीं! नीचे
कार्डियोग्राम
जो बन रहा है, ग्राफ जो बन
रहा है, वह
झटका खा जाता
है। क्योंकि
अब पहली दफा
कुछ कहना
चाहता था और
कुछ कहा, तो
एक झटका लगा।
हृदय की धड़कन
पर, श्वास
पर एक विरोध
पैदा हुआ, एक
द्वंद्व हुआ;
द्वंद्व
पकड़ जाता है।
बस, वहीं
उसे पकड़ लेते
हैं।
तो
किसी ने सुझाव
दिया कि इस
आदमी को लाइ—डिटेक्टर
पर खड़ा कर के
देखो। तो उसे
खड़ा किया गया।
तो उसके सब
चिकित्सक
इकट्ठे हुए, परिवार
के लोग इकट्ठे
हुए। वह आदमी
भी थक
गया
था;
रोज—रोज, रोज—रोज सभी
समझाते थे।
उसने उस दिन
कहा कि अच्छा चलो,
झंझट खत्म
करो। हूं तो
मैं अब्राहम
लिंकन, लेकिन
क्या करूं! अब
दुनिया ही
मानने को राजी
नहीं है तो
जाने दो
दुनिया को, कह देंगे कि
नहीं हैं। इस
किस्से को अब
खत्म किया
जाये।
लाइ—डिटेक्टर
पर खड़ा किया; पांच—सात
ऐसे प्रश्न
पूछे जो ठीक
उत्तर दिये जा
सकते थे। तब
उससे पूछा कि
क्या तुम
अब्राहम
लिंकन हो? उसने
कहा कि नहीं!
और नीचे लाइ—डिटेक्टर
ने कहा कि यह
झूठ बोल रहा
है। इतना गहरा
भरोसा! ऊपर से
कह रहा है, नहीं!
लाइ—डिटेक्टर
भी कहता है कि
है तो यह
अब्राहम
लिंकन!
हमारी
भी ऐसी दशा
है। जन्मों—जन्मों..।
उसने तो एक ही
साल काम किया
था अब्राहम
लिंकन का, हम
जन्मों—जन्मों
से कर्ता और
भोक्ता बने
हैं। कोई लाइ—डिटेक्टर
हमें पकड़ नहीं
सकता। अगर हम
कहें भी लाइ—डिटेक्टर
पर खड़े हो कर
कि हम साक्षी
हैं, लाइ—डिटेक्टर
कहेगा, यह
आदमी झूठ बोल
रहा है—कर्ता—
भोक्ता है।
साक्षी—बिलकुल
नहीं!
हमारी
आदत लंबी और
प्राचीन हो
गयी है—पुरातन
है! सदियों से
चली आती है।
जब
कोई व्यक्ति
जागता है, तो
भागता थोड़े ही
है कहीं, भागेगा
कहां? जाग
कर इतना ही
अंतर पड़ता है।
यह अंतर बहुत
छोटा और बहुत
बड़ा—दोनों एक
साथ। यह किसी
को पता भी
नहीं चलेगा, ऐसा अंतर
है। यह तो तुम
गुरु के सामने
खड़े होओगे, उसके दर्पण
में ही झलकेगा,
और किसी को
पता भी नहीं
चलेगा। शायद
तुम्हारी पत्नी
भी न पहचान
पाये कि कब
तुम कर्ता से
साक्षी हो
गये। कब, किस
घड़ी में, किस
क्षण में क्रांति
घटी—शायद
तुम्हारा पति
भी न पहचान
पाये; तुम्हारे
बच्चे भी न
जान पायें। जो
तुम्हारे हृदय
के बहुत करीब
हैं, वे भी
न जान
पायेंगे।
क्योंकि यह क्रांति
बड़ी सूक्ष्म
है—सूक्ष्म, अति—सूक्ष्म
है यह। इतनी
बारीक क्रांति
है कि या तो
तुम जानोगे या
गुरु जानेगा।
इसके अतिरिक्त
कोई भी नहीं
पहचान सकेगा।
क्योंकि
रहोगे तो तुम
वैसे के वैसे
ही। दुकान करते
थे तो उस दिन क्रांति
के बाद भी तुम
दुकान पर जा
कर बैठोगे, तराजू
से सामान
तौलोगे, बेचोगे,
ग्राहकों
से मोल—तोल
करोगे—सबकरोगे।
घर आओगे; बच्चों
के सिर
थपथपाओगे, पत्नी
के लिए फूल या
आइस्कीम खरीद
लाओगे—वह सब
करोगे। सब
वैसा ही चलता
रहेगा। शायद
पहले से भी
अच्छा चल
पड़ेगा।
क्योंकि अब एक
गहन समझ का
जन्म हुआ है।
अब तुम किसी
को व्यर्थ
कष्ट न देना
चाहोगे।
लेकिन
भीतर एक क्रांति
घटित हो गयी।
अब तुम दूर—दूर
हो। अब तुम
बहुत दूर हो।
अब तुम कर रहे
हो,
लेकिन करने
में अब कोई
गंभीरता नहीं
है। अब नाटक
है। अब तुम
जाग गये कि यह
सब रामलीला
है। अब तुम्हें
होश आ गया।
इस
होश को तो कोई
होश वाला ही
पहचानेगा और
परखेगा।
इसलिए गुरु की
बड़ी जरूरत है, क्योंकि
गुरु ही
साक्षी हो
सकता है।
जनक
ने कहा. 'भोगलीला
के साथ खेलते
हुए
आत्मज्ञानी
धीरपुरुष की
बराबरी संसार
को सिर पर
ढोने वाले मूढ़
पुरुषों के
साथ कदापि
नहीं की जा
सकती।'
देखना, उत्तर
में ये 'मैं'
को बीच में
नहीं लाये।
अगर थोड़ा भी
अज्ञान बचा
होता तो वे
कहते, 'क्या
आप कहते हैं? मेरी बराबरी,
और संसार के
मूढ़ पुरुषों
से करते हैं? '—ऐसा उत्तर
होता। उत्तर
बिलकुल
ऐसा ही होता, लेकिन
जरा—सा फर्क
होता कि 'आप
मेरी तुलना
मूढ़ों से करते
हैं! मैं
ज्ञानी, मुझे
शान का उदय हो
गया!' नहीं,
वह तो बात
ही नहीं
उठायी। जिसे
शान का उदय हो
गया, उसका 'मैं' तो
अस्त हो गया।
अब मैं की बात
उठाने का कोई
कारण न रहा।
अब तो सीधी
बात की—सिद्धात
की। सीधी बात
की—सत्य की, सूत्र की।
हंतात्मज्ञस्य
धीरस्य खेलतो
भोगलीलया।
'हे हंत, हे
अरिहंत! खेलता
है ज्ञानी तो
भोगमयी लीला
के साथ, ढोता
नहीं। क्रीड़ा
है जगत, कृत्य
नहीं। '
अज्ञानी
तो खेल भी
खेलता है तो
भी उलझ जाता
है,
गंभीर हो
जाता है।
ज्ञानी कृत्य
भी करता है, तो भी उलझता
नहीं, जागा
रहता है।
जानता रहता है
कि मेरा
स्वभाव तो
सिर्फ साक्षी
है। ऐसी
अहर्निश सुन
बजती रहती है
कि मैं साक्षी
हूं। यह 'मैं
साक्षी' का
भाव
पृष्ठभूइम
में खड़ा रहता
है। सब होता
रहता है। जन्म
होता, मृत्यु
होती; हार
होती, जीत
होती, सम्मान—
अपमान होता, सब होता
रहता है। कभी
महल, कभी
झोपड़े, सब
होता रहता।
लेकिन भीतर
बैठा ज्ञानी
जानता रहता है
कि लीला है, खेल है, क्रीडा
है।
तुमने
देखा, तुम उसी
रास्ते पर
सुबह घूमने
जाते हो और
उसी रास्ते पर
दोपहर दफ्तर
के लिए जाते
हो, रास्ता
वही, तुम
वही, रास्ते
के किनारे खड़े
दरख्त वही, सूरज, आकाश
सब वही, पड़ोस
के लोग वही, सब कुछ वही—लेकिन
जब तुम दफ्तर
जाते हो तो
तुम्हारी चाल
में तनाव होता
है। तब
तुम्हारे मन
में चिंता होती
है। सुबह उसी
रास्ते पर तुम
घूमने जाते हो,
तब न कोई
चिंता होती, न कोई तनाव
होता।
क्योंकि तुम
कहीं जा ही
नहीं रहे हों—खेल
है। घूमने
निकले हो; हवा
खाने निकले
हो। कहीं से
भी लौट सकते
हो, कोई
मंजिल नहीं
है। कहीं
पहुंचने का
कोई स्थिर
स्थान नहीं
है। कहीं
पहुंचने को
निकले ही नहीं
हो, सिर्फ
घूमने निकले
हो। घूमने
निकले हो, तो
एक मौज होती
है। काम से जा
रहे हो, सब
मौज खो जाती
है।
ज्ञानी
अपने समस्त
कामों को खेल
बना लेता है और
अज्ञानी खेल
को भी काम बना
लेता है। बस, इतना
ही फर्क है।
इतनी को कर्म
भी अभिनय हो
जाते हैं।
अज्ञानी को
अभिनय भी कर्म
हो जाता है।
वह अभिनय को
भी गंभीरता से
पकड़ लेता है।
ज्ञानी जीवन
में से कुछ भी
नहीं पकड़ता, कुछ भी नहीं
छोड़ता। पकड़ने—छोड़ने
का कोई सवाल
नहीं। जो आ
जाये, जो
होता है—होने
देता है।
सिर्फ देखता
रहता है।
'जिस पद की
इच्छा करते
हुए शक्र और
दूसरे देवता
दीन हो रहे
हैं, उस पद
पर स्थित हुआ
भी योगी हर्ष
को नहीं प्राप्त
होता—यही
आश्चर्य है। '
वक्तव्य
निवैंयक्तिक
है।
यत्पदं
प्रेप्सवो
दीना:
शक्राद्या
सर्वदेवता।
इंद्र
इत्यादि
देवता भी दीन
हो कर माग रहे
हैं : और मिल
जाये, और मिल
जाये, और
मिल जाये।
जिनके पास सब
मिला हुआ
मालूम पड़ता है,
वे भी मांग
रहे हैं। मांग
बंद होती नहीं,
दीनता जाती
नहीं, हीनता
मिटती नहीं।
कितने ही बड़े
पद पर रहो, हीन
बने ही रहते
हो : 'और बड़ा
पद मिल जाये!
और थोड़ी शक्ति
बढ़ जाये! और थोड़ा
साम्राज्य
विस्तीर्ण हो
जाये! तिजोरी
थोड़ी और बड़ी
हो जाये!' इसका
कहीं कोई अंत
नहीं आता। दीन
दीन ही बना रहता
है।
'जिस पद की इच्छा
करते हुए शक्र
और दूसरे
देवता दीन हो
रहे हैं।'
अहो
तत्र स्थितो
योगी न
हर्षमुपगच्छति।
आश्चर्य
है हंत, कि
योगी वहां
बैठा है—उस
परम अवस्था
में जिसके लिए
देवता भी दीन
हो रहे हैं—और
फिर भी हर्ष
को प्राप्त
नहीं होता।
उसकी सारी
दीनता खो गयी
है।
इसे
समझना।
जब
तक तुम सुखी
हो सकते हो तब
तक तुम दुखी
भी हो सकते
हो। सुख—दुख
साथ—साथ हैं—रात—दिन
की भांति। तुम
एक को न बचा
सकोगे। तुम यह
न कर सकोगे कि
हर्ष तो बच
जाये, दुख खो
जाये। तुम यह
न कर सकोगे.
दिन ही दिन
बचें और रातें
समाप्त हो
जायें। दिन
बचाओगे, रातें
भी रहेंगी। सुख
बचाओगे, दुख
भी रहेगा।
जन्म बचाओगे,
मौत भी
रहेगी। मित्र
बचाओगे, शत्रु
भी रहेंगे।
द्वंद्व से
तुम बाहर जा न
सकोगे। जिस
दिन तुम
देखोगे कि ये
तो दोनों जुड़े
हैं. एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं, उस
दिन पूरा
सिक्का हाथ से
गिर जाता है।
योगी उस पद पर
बैठा है जिसकी
बड़े —बड़े
देवता भी
आकांक्षा कर 'रहे हैं।
लेकिन फिर भी
हर्ष को
उपलब्ध नहीं
होता है।
'वह उस पद पर
स्थित हुआ भी,
जरा भी हर्ष
को उत्पन्न
नहीं होता। '
क्यों? क्योंकि
जो उस पद पर
मिला है, वह
तो स्वभाव है।
उसके लिए हर्ष
क्या? जो
मिलना ही
चाहिए वही
मिला है। जो
मिला ही हुआ
था, वही
मिला है।
जिसको भूल से
समझा था कि खो
गया, वही
मिला। खोया तो
कभी भी न था।
हर्ष क्या है?
अपनी स्वयं
की संपत्ति
पाकर हर्ष
कैसा? जनक
कहते हैं :
आश्चर्य यही
है कि सब पाकर
भी हर्ष नहीं
होता योगी को।
हर्ष होता ही
नहीं योगी को।
तुम
आनंद का अर्थ
हर्ष मत
समझना। हर्ष
तो एक
ज्वरग्रस्त
दशा है। हर्ष भी
थकाता है। तुम
ज्यादा देर
हर्ष में न रह
सकोगे। हर्ष
में भी तरंगें
उठती हैं।
जैसे चिंता की
तरंगें हैं
वैसे हर्ष की
तरंगें हैं।
जैसे दुख की
तरंगें हैं, वैसे
हर्ष की
तरंगें हैं।
:र्फ्क इतना
ही है कि दुख
की तरंगों को
तुम पसंद नहीं
करते, सुख
की तरंगों को
तुम पसंद करते
हो—बस। मगर
दोनों तरंगें
हैं। दोनों
में चित्त तो
विक्षुब्ध
होता है।
दोनों में
चित्त तो टूट—टूट
जाता, खंड—खंड
हो जाता है।
तुम्हारी
अखंडता तो
बिखर जाती है।
तुम्हारी शात
झील तो खो
जाती है।
तुम्हारा
दर्पण तो ढंक
जाता है।
तत्र
स्थितो योगी न
हर्षम्
उपगच्छति
अहो।
आश्चर्य
प्रभु! जनक
कहने लगे
अष्टावक्र से
कि जिसे पाने
के लिए सारा
संसार दौड़ा जा
रहा है; जन्मों—जन्मों
की यात्रा चल
रही है ,. अनंत
की खोज चल रही
है, अनंत
से चल रही है—उसे
पाकर भी, उस
सिंहासन पर
विराजमान हो
कर भी योगी
में हर्ष का
भी पता नहीं
होता। वह वहा
भी साक्षी बना
रहता है। उसका
साक्षी— भाव
वहां भी नहीं
खोता। जरा भी
तरंग उठती नहीं।
आकाश उसका
कोरा का कोरा
रहता है। न
दुख के बादल, न सुख के
बादल—बादल
घिरते ही
नहीं।
'उस पद को
जानने वाले के
अंतःकरण का
स्पर्श वैसे
ही पुण्य और
पाप के साथ
नहीं होता है,
जैसे आकाश
का संबंध
भासता हुआ भी
धुएं के साथ नहीं
होता। '
तुमने
देखा, चूल्हा
जलाते हो, धुआं
उठता है। धुआं
आकाश में
फैलता है, लेकिन
आकाश को गंदा
नहीं कर पाता,
न छूता।
इतने बादल
उठते हैं, सब
धुआं हैं; फिर—फिर
खो जाते हैं।
कितनी बार
बादल उठे हैं
और कितनी बार
खो गये हैं—आकाश
तो जरा भी
मलिन नहीं
हुआ। न तो
शुभ्र बादलों
से स्वच्छ
होता है, न
काले बादलों
से मलिन होता
है।
जनक
कहते हैं 'उस
पद को जानने
वाले का
अएंतःकरण ऐसे
ही हो जाता है
जैसे आकाश।'
तन्दास्य
पुण्यपापाभ्यां
स्पर्शो
हयन्तर्न
जायते।
न
हयकाशस्य
धूमेन
दृश्यमानोऽपि
संगति:
जैसे
धुएं के संग
से आकाश अछूता, कुआरा
बना रहता—अस्पर्शित—वैसे
ही ज्ञानी के
साक्षी— भाव
का आकाश किसी
भी चीज से
धूमिल नहीं
होता। उसकी
प्रभा, वह
भीतर की
ज्योति धूम—रहित
जलती है। न
महल उसे अमीर
करते और न
झोपड़े उसे
गरीब करते। न
सिंहासनों पर
बैठ कर स्वर्ण
उसे छूता; न
मार्गों पर
भिखारी की तरह
भटक कर दीनता
उसे छूती।
'जिस महात्मा
ने इस संपूर्ण
जगत को आत्मा
की तरह जान
लिया है, उस
वर्तमान
ज्ञानी को
अपनी स्फुरणा
के अनुसार
कार्य करने से
कौन रोक सकता
है?'
बड़ा
अनूठा सूत्र
है अब।
हि
आकाशस्य
संगति:
दृश्यमाना
अपि धूमेन न।
'आकाश जैसा
हो गया जो, धुआं
जिसे अब छूता
नहीं...। '
'जिस महात्मा
ने इस संपूर्ण
जगत को आत्मा
की तरह जान
लिया है.। '
'मैं' मिटा
कि फिर भेद न
रहा। जैसे
मकान के आसपास
तुम बागुड़
लगा लेते हो, तो पड़ोसी से
भिन्न हो गये।
फिर बागुड़
हटा दी, बागुड़
जला दी—जमीन
तो सदा एक ही
थी, बीच की
बागुड़ लगा
रखी थी, वह
हटा दी, तो तत्क्षण
तुम सारी
पृथ्वी के साथ
एक हो गये।
'मैं' की बागुड़
है। 'मैं' की हमने एक
सीमा खींच रखी
है अपने चारों
तरफ, एक
लक्ष्मण—रेखा
खींच रखी है, जिसके बाहर
हम नहीं जाते
और न हम किसी
को भीतर घुसने
देते हैं। जिस
दिन तुम इस
लक्ष्मण—रेखा
को मिटा देते
हो—न फिर कुछ
बाहर है, न
कुछ फिर भीतर
है, बाहर
और भीतर एक
हुए। बाहर
भीतर हुआ, भीतर
बाहर हुआ।
तुमने मकान
बना लिया है; ईंट की
दीवालें उठा
लीं, तो
आकाश बाहर रह
गया, कुछ
आकाश भीतर रह
गया। किसी दिन
दीवालें तुमने
गिरा दीं, तो
फिर जो भीतर
का आकाश है, भीतर न कह
सकोगे उसे; जो बाहर का
है, उसे
बाहर न कह
सकोगे। बाहर
और भीतर तो
दीवाल के
संदर्भ में
सार्थक थे। अब
दीवाल ही गिर
गयी तो बाहर
क्या? भीतर
क्या? कैसे
कहो बाहर? कैसे
कहो भीतर? दीवाल
के गिरते ही
बाहर— भीतर भी
गिर गया। एक
ही बचा। 'जिस
महात्मा ने इस
संपूर्ण जगत
को आत्मा की
तरह जान लिया
है, उस
वर्तमान
ज्ञानी को
अपनी स्फुरणा
के अनुसार
कार्य करने से
कौन रोक सकता
है?'
आत्मवेदं
जगत्सर्वं
ज्ञात येन
महात्मना।
यदृच्छया
वर्तमान तं
निषेद्धुं
क्षमेत क:।।
किसकी
क्षमता है? कैसे
कोई रोकेगा?
जनक
के इस सूत्र
को बहुत गहराई
में समझना।
जनक का यही
उत्तर है। जनक
कह रहे हैं. अब
कौन रोके? जब
मैं एक हो गया
तो अब कौन
रोके? जो
हो रहा है, हो
रहा है। जो
होगा, होगा।
अब रोकने वाला
न रहा। अब तो 'यदृच्छया'। अब तो
भाग्य! अब तो
विधि। अब तो
परमात्मा या जो
भी नाम दो। अब
तो 'वह' जो
कराये, होगा।
अब तो अपने
किये कुछ न
होगा। हम तो
रहे नहीं। हम
तो गये। तब तो
जो होगा, उसे
देखेंगे। महल
में रखवायेगा
तो महल में रहेंगे।
महल छीन लेगा,
तो महल को
छीनता हुआ
देखेंगे।
ऐसी
जनक के जीवन
में कथा है कि
एक गुरु ने
अपने शिष्य को
बहुत वर्षों
तक मेहनत करने
के बाद भी जब
देखा कि कोई
गति नहीं हो
रही है समाधि
में,
तो कहा कि
तू जनक के पास
चला जा। अब
जिसकी गति समाधि
में नहीं हो
रही थी, जाहिर
है कि बडा
अहंकारी रहा
होगा। उसने
कहा : मैं, और
जनक के पास
जाऊं? और
जनक मुझे क्या
सिखायेंगे? खुद ही तो
पहले सीखें, पहले त्याग
तो करें!
महलों में
रहते हैं; राग—रंग
में जीते हैं—मुझे
क्या खाक
सिखायेंगे? मगर आप कहते
हैं तो चला
जाता हूं।
गुरु— आज्ञा
है, इसलिए
चला जाता हूं।
गया
तो,
लेकिन गया
नहीं। मजबूरी
जैसा गया।
विवशता में
गया। माननी है
आज्ञा, सो
पूरी कर देनी
है। गुरु ने
कहा तो जाओ।
गया, लेकिन
अकड़ थी।
जब
पहुंचा जनक के
दरबार में तो
वहा तो राग—रंग
चल रहा था, संगीत
उठ रहा था।
नर्तकियां
नाच रही थीं।
शराब के
प्याले ढाले
जा रहे थे, दरबारी
मस्त हो रहे
थे। बीच में
बैठे थे जनक।
वह हंसा। अपने
मन में उसने
कहा कि मैं पहले
ही जानता था।
अभी इसको खुद
ही बोध नहीं है।
अब यह बैठा
यहां क्या कर
रहा है? और
अगर यह ज्ञानी
है, तो फिर
अज्ञानी कौन
है? और अगर
इससे मुझे
सीखना है.
हालत तो उलटी
मालूम होती है
: इसको तो मैं
ही सिखा सकता
हूं कुछ।
जनक
उठा।
ब्राह्मण
देवता आये थे
तो उन्होंने उसके
पैर पड़े और
कहा कि आप
विश्राम करें; सुबह
विश्राम के
बाद अपनी
जिज्ञासा
प्रगट करना।
उसने
कहा,
खाक
जिज्ञासा!
तुमने अपने को
समझा क्या है?
कैसी
जिज्ञासा? तुमसे
जिज्ञासा
करूंगा?
उसने
कहा कि नहीं, आपकी
मर्जी, करना
हो करें न
करें; लेकिन
अभी तो
विश्राम कर
लें, भोजन
करें।
भोजन
और विश्राम की
व्यवस्था
करवा दी। जनक
को दिखायी तो
पड़ गया सीधा—सीधा
कि इस आदमी की
अड़चन क्या है; इसके
गुरु ने क्यों
इसे भेजा है? यह भोग से तो
छूट गया था, यह त्यागी
हो गया था। और
भोगी को तो
ध्यान में ले
जाना कठिन है
ही, त्यागी
को महा कठिन
है। ध्यान में
ले जाने में
जो अहंकार
बाधा है, वह
त्यागी के पास
तो और भी
मजबूत हो जाता
है—ठीक इस्पात
का हो जाता
है। त्यागी का
अहंकार तो
स्टैलिन हो
जाता है।
स्टैलिन का
नाम स्टील से
बना है। तो वह
तो बिलकुल
स्टैलिन हो जाता
है। उसको तो
झुकाना
मुश्किल!
देख
तो लिया जनक
ने। पैर धोये
त्यागी के।
त्यागी तो और
भी अकड़ा। उसने
कहा,
'मैं पहले
ही जानता था
कि यह मूढ़
मुझे क्या समझायेगा!
मेरे पैर धो
रहा है! यह खुद
ही मुझसे सीखने
को उत्सुक हो
रहा है। सुबह
यही जिज्ञासा
करेगा। ' तो
वह शान से
सोया। वह थोड़ी—सी
चिंता थी मन
में, वह भी
गयी कि किसी
से कुछ सीखना
पड़ेगा।
सिखाने का मजा
अहंकार को
बहुत है।
सीखने के लिए
अहंकार
बिलकुल राजी
नहीं है। गुरु
होने का मौका
मिले तो
अहंकार तत्क्षण
होने को तैयार
है।
शिष्य
बनने में बड़ी
अड़चन है, बड़ी
कठिनाई है।
सुबह
हुई। जनक ने
उसे द्वार पर
आ कर जगाया और
कहा कि चलें
स्नान को।
पीछे बहती है
नदी,
वहा हम
स्नान कर लें।
वे
दोनों स्नान
को गये।
त्यागी के पास
तो सिवाय
लंगोटी के कुछ
भी न था। दो
लंगोटिया
थीं। तो एक
लंगोटी तो वह
किनारे पर रख
गया और एक
लंगोटी वह
पहने था, तो नदी
में गया। जनक
भी उसके साथ—साथ
गये। जब वे
दोनों नदी में
स्नान कर रहे
थे, तभी वह
त्यागी
चिल्लाया. अरे
जनक, तेरे
महल में आग
लगी! सारा महल
धू—धू कर जल
रहा है।
जनक
ने कहा. मेरा
महल क्या? महल
में आग लगी है,
इतना ही
कहो। अपना
क्या! न ले कर
आये थे, न
ले कर जायेंगे।
उसने
कहा. तू जान, तेरा
महल, मेरी
लंगोटी...! वह
भागा, क्योंकि
वह महल की
दीवाल के पास
ही लंगोटी रखी
है।
बाद
में जनक ने
उसे कहा : सोच, यह
महल धू— धू कर
जल रहा है और
मैं कहता हूं
कि मैं बिना
महल के आया था,
बिना महल के
जाऊंगा।
इसलिए अब महल
रहे कि जले, क्या फर्क
पड़ता है? देखता
हूं! लेकिन तू
अपनी छोटी—सी
लंगोटी का भी
द्रष्टा न हो
सका। तो सवाल
यह नहीं है कि
कितनी बड़ी
संपदा
तुम्हारे पास
है, करोड़
की है या एक
कौड़ी की है—सवाल
यह है कि उस
संपदा के
प्रति
तुम्हारा भाव
क्या है, भोक्ता
का है कि
साक्षी का है?
यह
आग,
कहते हैं, जनक ने
लगवायी थी। यह
उपदेश था जनक
का उस नासमझ
त्यागी को। 'जिस महात्मा
ने इस संपूर्ण
जगत को आत्मा
की तरह जान
लिया है, उस
वर्तमान
ज्ञानी को
अपनी स्फुरणा
के अनसार कार्य
करने से कौन
रोक सकता है?'
कौन
रोकेगा? कोई
बचा नहीं! जनक
यह कह रहे हैं
कि मैं तो अब
हूं नहीं।
परीक्षा
गुरुदेव आप
किसकी लेते हैं?
जिसकी
परीक्षा ली जा
सकती थी, वह
जा चुका। आप
मुझे यह भी
नहीं कह सकते
कि तू ऐसा
क्यों करता है,
वैसा क्यों
नहीं करता? क्योंकि अब
नियंत्रण कौन
करे? मैं
तो रहा नहीं—अब
तो जो होता है,
होता है।
यह
परम अवस्था की
बात है।
तुमने
देखा, छोटे
बच्चों को पाप
नहीं लगता, अदालत में
जुर्म नहीं
लगता, अपराध
नहीं लगता; क्योंकि
उन्हें बोध
नहीं है।
पागलों को भी
अपराध नहीं
लगता, क्योंकि
उन्हें बोध
नहीं है।
बुद्धों को भी
अपराध नहीं
लगता, क्योंकि
वे बोध के पार
चले गये। उलझन
बीच में खड़े
आदमी की है। न
तो नीचे पाप
है, न ऊपर
पाप है।
जानवरों को तो
तुम पापी नहीं
कह सकते, क्योंकि
पापी होने के
लिए बोध तो
चाहिए। लेकिन
बुद्ध को भी
तुम पापी नहीं
कह सकते; क्योंकि
बोध इतना है
कि साक्षी हो
गये, कर्ता
का भाव ही न
रहा।
मैंने
सुना, मुल्ला
नसरुद्दीन—सर्दी
के दिन थे—अपने
घर के बाहर
बैठा धूप ले
रहा है। उसका
बेटा होमवर्क
कर रहा है; वह
उसके कान मरोड़
रहा है, उसे
गालियां दे
रहा है। वह
उससे कह रहा
है. हरामजादे!
किस नालायक ने
तुझे पैदा
किया? अरे
उल्लू के
पट्ठे!
पड़ोस
में पंडित
रहते हैं एक, उन्होंने
सुना। यह हद
हो गयी। यह
गालियां अपने
को ही दे रहा
है!
उल्लू के
पट्टे का मतलब
हुआ कि तुम
खुद ही उल्लू
हो। तब तो उल्लू
का पट्टा!
'किस नालायक
ने तुझे पैदा
किया!
हरामजादे!'
उसने
सोचा, पंडित
ने, वह भी
बैठा धूप ले
रहा है। उससे
न रहा गया।
उसने कहा कि
मुल्ला, तुम
यह सोचो तो, ये गालियां
किसको लगती
हैं? मुल्ला
ने कहा. जो
साला गालियों
को समझता है, उसी को लगती
हैं! मैं तो
समझता नहीं और
यह तो उल्लू
का पट्टा है, यह क्या खाक
समझेगा! आप ही
समझो! जो
समझता है, उसी
को लगती हैं।
कहते
हैं,
पंडित
जल्दी से उठ
कर घर के अंदर
चला गया। उसने
कहा कि झंझट..
हम इस झंझट
में क्यों पड़े?
एक
तो बच्चे हैं, पागल
हैं; पशु—पक्षी
हैं, पौधे
हैं—वहा कुछ
पाप नहीं है, क्योंकि
वहां कोई समझ
नहीं है। फिर
बुद्धपुरुष
हैं, अष्टावक्र
हैं, जीसस
हैं, महावीर
हैं—वहां बोध
इतना सघन हुआ
है कि कर्ता
का भाव नहीं
रहा। इन दोनों
को कोई पाप
नहीं है। पाप
तो बीच में
पंडितो को है, जो समझते
हैं। तुम
समझते हो कि
तुमने किया, इसलिए तुम
पापी हो जाते
हो। तुम समझते
हो कि तुमने
किया, इसलिए
तुम
पुण्यात्मा
हो जाते हो।
हम समझते हो
तुमने किया—इसलिए
भोगी। तुम
समझते हो
तुमने किया—इसलिए
त्यागी। जिस
दिन तुम समझोगे
तुमने कुछ
किया ही नही—जो
हो रहा है, हो
रहा है; तुम
सिर्फ देखने
वाले हो—उस
दिन न पाप है न
पुण्य है; न
योग है न भोग
है।
इसलिए
अष्टावक्र
परम योग की
बात कह रहे
हैं। यह योग
के भी पार
जाने वाली बात
है। ऐसी
अवस्था में न
तो कोई विधि
रह जाती है, न
कोई निषेध रह
जाता है।
जनक
कहने लगे.
आत्यवेदं
जगत्सर्वं
ज्ञात येन
महात्मना।
'जिन
महात्माओं ने
अपने को जगत
के साथ एक समझ
लिया, जान
लिया.। '
यदृच्छया
वर्तमान तं
निषेद्धुं
क्षमेत क।
'..
अब वे कैसे
रोकें, क्या
रोकें, क्या
बदलें?'
बदलाहट
की आकांक्षा
भी अहंकार की
ही आकांक्षा
है। साधना भी
अहंकार का ही
आयोजन है।
अनुष्ठान भी
अहंकार की ही
प्रक्रिया
है। इसलिए तो
जनक ने कहा कि
आप ही तो कहे
कि अधिष्ठान, अनुष्ठान,
आधार, आश्रय
सब बाधाएं
हैं। करने को
कुछ बचा नहीं,
क्योंकि
कर्ता नहीं
बचा। इसका यह
अर्थ नहीं कि
कर्म नहीं
बचा। कर्म तो
चलेगा। कर्म
की तो अपनी
धारा है। शरीर
को भूख लगेगी,
शरीर भोजन
मांगेगा।
इतना ही फर्क
होगा अब कि तुम
जाग कर देखते
रहोगे कि शरीर
को भूख लगी है,
शरीर को
भोजन दे दो।
मगर भूख भी
शरीर की है, भोजन से आने
वाली तृप्ति
भी शरीर की
है। तुम भूख
के भी द्रष्टा
हो, तुम
तृप्ति के भी
द्रष्टा हो, तुम हर हालत
में द्रष्टा
हो। कर्म तो
जारी रहेगा।
कर्म तो विधि
है, भाग्य
है। कर्म तो
समस्त का है, व्यक्ति का
नहीं है—समष्टि
का है। वह
परमात्मा चल
रहा है। हजार—हजार
कृत्य चल रहे
हैं। वह तुमसे
जो भी काम लेना
चाहता है, लेता
रहेगा। लेकिन
अब तुम जानते
हो कि तुम
कर्ता नहीं
हो। तुम
निमित्त
मात्र हो। इस
स्थिति में
जनक कहते हैं.
कौन रोके, कैसे
रोके, रोकने
वाला कौन है, कौन
नियंत्रण करे,
कौन साधना
करे, कौन
अनुशासन दे? 'जिस महात्मा
ने संपूर्ण
जगत को आत्मा
की तरह जान
लिया, उस
वर्तमान
ज्ञानी को..।'
यह
शब्द भी खयाल
करना—कहते हैं, 'वर्तमान
ज्ञानी' को।
ज्ञानी अतीत
में नहीं होता
है और न ज्ञानी
भविष्य में
होता है। शान
की घटना तो
वर्तमान की
घटना है। या
तो अभी या कभी
नहीं। ज्ञान
जब भी घटता है '
अभी' घटता
है। क्योंकि
अभी ही
अस्तित्व है।
जो जा चुका, जा चुका। जो
आया नहीं आया
नहीं। इन
दोनों के मध्य
में जो पतली—सी
धार है, बड़ी
महीन धार है—जीवन—चेतना
की, अस्तित्व
की—वहीं ज्ञान
घटता है।
वर्तमान
ज्ञानी को
अपनी स्फुरणा
से जीना होता
है—स्वत
स्फुरणा। वह 'सर्व' से
आती है
स्फुरणा।
उसके लिए हम
पैदा नहीं करते,
न हम नियंत्रण
करते हैं। न
हम उसके
जन्मदाता हैं,
न हम उसके
नियंत्रक
हैं। वह
स्फुरणा आती
है।
पक्षी
गीत गा रहे
हैं। वृक्षों
में फूल लग
रहे हैं। यह
सब स्वत: हो
रहा है। यह
स्फुरणा
जागतिक है।
वृक्षों को
कोई अहंकार
नहीं है।
वृक्ष ऐसा
नहीं कहते कि
हम फूल खिला
रहे हैं। ऐसी
ही अवस्था फिर
आ जाती है जब
वर्तुल पूरा
होता है और
व्यक्ति
बुद्धत्व को, अरिहंतत्व
को उपलब्ध
होता है, तब
फिर ऐसी दशा आ
जाती है।
तुम
बुद्ध से पूछो
कि आप चल रहे
हैं?
बुद्ध
कहेंगे कि
नहीं, मैं
तो हूं ही
नहीं, चलूंगा
कैसे? वही
चल रहा है, जो
सब में चल रहा
है। जो फूल की
तरह खिल रहा
है, जो नदी
की धार की तरह
बह रहा है, जो
पक्षी की तरह
आकाश में उड़
रहा है, जो
आकाश की तरह
फैलता चला गया
है अनंत तक—वही
चल रहा है।
पूछो
बुद्ध से, आप
बोल रहे हैं? वे कहेंगे
कि नहीं, वही
बोल रहा है।
हम
तो बांस की
पोगरी—कबीर ने
कहा। वह जो
गाता है, उसे
हम प्रगट कर
देते हैं, मार्ग
दे देते हैं; रुकावट नहीं
डालते। हम तो
निमित्त
मात्र हैं।
वर्तमान
ज्ञानी.
वर्तमान के
क्षण में
जिसका साक्षी
जागा हुआ है।
तुम
देखो, चाहो तो
इसे अभी देख
सकते हो, कोई
रुकावट नहीं
है। तुम
साक्षी होकर
अभी देख सकते
हो। चीजें तो
चलती रहेंगी।
शरीर है तो
भूख लगेगी।
शरीर है तो प्यास
लगेगी। धूप
पड़ेगी तो
गर्मी लगेगी।
शीत बढ़ जायेगी
तो सर्दी
लगेगी। भोजन
डाल दोगे शरीर
में तो तृप्ति
हो जायेगी।
गर्म कपड़े पहन
लोगे, शीत
मिट जायेगी।
धूप से हट कर
छाया में बैठ
जाओगे, धूप
मिट जायेगी।
कर्म तो जारी
रहेगा, सिर्फ
कर्ता नहीं रह
जायेगा भीतर।
तुम ऐसा न कहोगे
कि मैं परेशान
हो रहा, कि
मैं पीडित हो
रहा, कि
मुझे भूख लगी।
तुम इतना ही
कहोगे, अब
शरीर को भूख
लगी; अब
चलो इसे कुछ
दें।
और
शरीर को भूख
लगी है, इसमें
तुम्हारा कुछ.
भी हाथ नहीं
है। प्रकृति ही
शरीर में भूखी
हो रही है। और
अगर धूप में
बैठ कर शरीर
को धूप लग रही
है तो
परमात्मा ही
तप रहा है —तुम्हारा
इसमें क्या है?
अब अगर तुम
जबर्दस्ती
बिठा कर इसको
धूप में तपाओ
तो यह अहंकार
का लौटना हो
गया। तुम कहो
कि हम तो
तपायेंगे, क्योंकि
हम त्यागी हैं,
तपायेंगे
नहीं तो तपश्चर्या
कैसे होगी, तो हम तो बैठ
कर तपायेंगे—तो
तुम नियंत्रण
की तरह बीच
में आ गये। तब
जो हो रहा था, तुमने उसे
होने न दिया।
अगर तुम
स्वभावत: होने
देते, तो
शरीर खुद ही
उठता।
तुम
इसे करके
देखो। तुम
इसमें जरा बह
कर देखो। तुम
चकित हो
जाओगे। तुम
धूप में बैठे
हो,
धूप लग रही
है—तुम सिर्फ
देखते रहो।
तुम अचानक
देखोगे, शरीर
उठ कर खड़ा हो
गया। शरीर
चला
छाया की तरफ।
तुम कहोगे कि
हम न चलायेंगे
तो कैसे चलेगा? तुम
फिर गलत बात
कह रहे हो।
तुम्हें पता
ही नहीं।
तुमने कभी
प्रयोग नहीं
किया। भूख लगी,
शरीर चला
रेफ्रिजरेटर
की तरफ। तुम
सिर्फ देख रहे
हो। तुम न
रोकना, न
चलाना। यह परम
सूत्र है.
स्फुरणा से
जीना। जो हो
उसे होने
देना। न शुभ—अशुभ
का निर्णय
करना। —. तुम हो
कौन? न पाप—पुण्य
का हिसाब
रखना। जो होता
रहे, जो
होता जाये—उसके
साथ बहते चले
जाना।
'ब्रह्मा से
चींटी पर्यंत
चार प्रकार के
जीवों के समूह
में ज्ञानी को
ही इच्छा और
अनिच्छा को
रोकने में
निश्चित
सामर्थ्य है। '
इच्छा
और अनिच्छा
दोनों ही
ज्ञानी की रुक
जाती हैं; भोग—त्याग,
दोनों।
इच्छा यानी
भोग, अनिच्छा
यानी त्याग।
पसंद—नापसंद
दोनों रुक
जाती हैं।
क्योंकि
ज्ञानी कहता,
हमारा
चुनाव ही कुछ
नहीं है। जो
होगा, जो
स्वभावत: होगा,
हम उसे
देखते
रहेंगे। हम
उसे होने
देंगे। हम न
उसे
झुकायेंगे इस
तरफ, न उस
तरफ। जो
स्वभावत: होगा,
हम उसे होने
देंगे।
यह
बात तो सुनो।
यह बात तो
गुनो। इस बात
को जरा तुम्हारे
हृदय पर तो
फैलने दो। जरा
प्राणों में
इस बात का
प्रकाश तो
पहुंचने दो।
तुम पाओगे यह
बड़ी मुक्तिदायी
बात है। जो
होगा होने
देंगे। हम कुछ
भी ना—नुच न
करेंगे।
भोगी
कहता है और
भोग चाहिए।
भूख खत्म हो
गयी तो भी
खाये चला जाता
है। शरीर तो
कहता है. रुको
अब! शरीर की
स्फुरणा कहती
है : बस हो गया, अब
मत खाओ। लेकिन
भोगी और खाये
चला जाता है।
भोजन
में भोग नहीं
है,
जब शरीर
कहता है नहीं
और तुम खाये
चले जाते हो, तब भोग है।
फिर त्यागी है;
शरीर तो
कहता है भूख
लगी है, और
त्यागी कहता
है, हमने
उपवास किया
है। ये
पर्युषण चल
रहे हैं। हम
उपवासी हैं, हम नहीं खा
सकते! मांगते
रहो, चिल्लाते
रहो।
शरीर
को जब भूख लगी, वह
तो नैसर्गिक
है। अब तुम जो
जबर्दस्ती कर
रहे हो, वही
अहंकार आ रहा
है।
जबर्दस्ती
में अहंकार है।
हिंसा में
अहंकार है।
हिंसा
दो तरह की है :
भोगी की और
त्यागी की।
लोग मुझसे आ
कर पूछते हैं :
आप अपने
संन्यासियों
को त्याग
क्यों नहीं
सिखाते?. बडा
मुश्किल है!
मैं अपने
संन्यासियों
को सहजता
सिखाता हूं न
भोग न त्याग।
उतना खाओ
जितना सहज
शरीर की
स्फुरणा
मांगती है।
उतना सोओ जितनी
सहज शरीर की
स्फुरणा कहती
है। उतना श्रम
करो, उतना
बोलो, उतना
चुप रहो—जितना
सहज होता है।
असहज मत होने
दो। जहां असहज
हुए, वहीं
संतुलन खोया,
संन्यास
गंवाया।
दो
तरह से
संन्यास गंवा
सकते हो।
संन्यास का अर्थ
ही संतुलन है; सम्यक
न्यास; ठीक—ठीक
बीच में ठहर
जाना; न इस
तरफ न उस तरफ।
त्यागी
संन्यासी है
ही नही—हो ही
नहीं सकता; उसी तरह
नहीं हो सकता
जैसे भोगी
संन्यासी नहीं
हो सकता।
दोनों झुक गये
हैं।
संन्यासी तो
बीच में खड़ा है।
सहजता उसका
अनुशासन है।
परमात्म—स्फूर्ति
एकमात्र उसके
जीवन की
व्यवस्था है।
वही उसकी विधि
है।
इसलिए
झेन फकीर
बोकोजू ने कहा—जब
किसी ने पूछा, आप
करते क्या हो?
तुम्हारी
साधना क्या है?
—कहा कि जब
भूख लगती, भोजन
कर लेता; जब
नींद आती तो
सो जाता।
पूछने वाला
चौंका
होगा। पूछने
वाले ने कहा :
यह भी कोई बात हुई? यह
तो हम सभी
करते हैं। यह
तो कोई भी
करता है। यह
कौन सी बड़ी
बात हुई।
बोकोजू
हंसने लगा।
उसने कहा कि
मैंने तो अभी
तक मुश्किल से
इने —गिने लोग
देखे हैं जो
यह करते हैं।
जब भूख लगती
तब तुम खाते
नहीं या
ज्यादा खा
लेते हो। जब
नींद आती है, तब
तुम सोते नहीं
या ज्यादा सो
जाते हो। या
तो कम या
ज्यादा। कम
यानी त्याग, ज्यादा यानी
भोग। ठीक—ठीक
सम्यक—यानी
संन्यास; उतना
ही जितना सहज
हो पाता है।
सहज
के सूत्र को
पकड़ कर चलते
रहो,
मोक्ष दूर
नहीं है। सहज
के सूत्र को
पकड़ कर चलते
रहो, समाधि
दूर नहीं है।
साधो, सहज
समाधि भली!
वह
जो कबीर ने
सहज समाधि कही
है,
उसकी ही बात
जनक कह रहे
हैं, अपने
गुरु के सामने
निवेदन कर रहे
हैं। वे कह रहे
हैं कि समझ
गया। आप मुझे
उकसाओ, उकसा
न सकोगे।
क्योंकि बात सच्ची
घट गयी है, मुझे
दिखायी ही पड़
गया। अब आप
लाख इधर—उधर
से घुमाओ, आप
मुझे धोखे में
न डाल सकोगे।
अब तो मुझे
दिख गया कि
मैं साक्षी
हूं और जो
स्फुरणा से
होता है, होता
है। न तो मैं
उसे रोकने
वाला, न
मैं उसे लाने
वाला। मेरा
कुछ लेना—देना
नहीं है। मैं
दूर खडा हो
गया हूं। भूख
लगती है, खा
लूंगा। नींद आ
जायेगी, सो
जाऊंगा।
बोकोजू
से किसी ने और
एक बार पूछा
कि जब तुम ज्ञान
को उपलब्ध न
हुए थे, तब
तुम्हारी
जीवन—चर्या
क्या थी? तो
उसने कहा कि
तब मैं गुरु
के आश्रम में
रहता था; जंगल
से लकड़ियां
काटता था और
कुएं से पानी
भर कर लाता
था। फिर उसने
पूछा. अब? अब
जब कि तुम
स्वयं गुरु हो
गये और तुम
ज्ञान को
उपलब्ध हो गये—तुम्हारी
जीवन—चर्या
क्या है?
बोकोजू
ने कहा. वही, जंगल
से लकड़ी काट
कर लाता हूं; कुएं से
पानी भर कर
लाता हूं। उस
आदमी ने कहा हद
हो गयी! फिर
फर्क क्या हुआ?
बोकोजू ने
कहा : फर्क
भीतर हुआ है, बाहर नहीं
हुआ। फर्क
मुझे पता है
या मेरे गुरु
को पता है।
काम में फर्क
नहीं हुआ है।
ध्यान में
फर्क हुआ है।
कृत्य तो वैसा
का वैसा ही
है। लकड़ी अब
भी काट कर
लाता हूं
लेकिन अब मैं
कर्ता नहीं
हूं। पानी अब
भी भर कर लाता हूं, लेकिन अब
मैं कर्ता
नहीं हूं। मैं
साक्षी ही बना
रहता हूं।
कृत्य चलते
चले जाते हैं।
कृत्यों के
पार एक नये भाव
और एक नये बोध
का उदय हुआ
है। एक नया
सूरज चमका है!
विज्ञस्य
एव
इच्छानिच्छा
विवर्जने हि
सामर्थ्यम्!
कहते
हैं : ज्ञानी
की बस एक ही
सामर्थ्य है
कि वह इच्छा
और अनिच्छा
दोनों से
मुक्त हो जाता
है। वह न तो
कहता, ऐसा हो; और न कहता है,
ऐसा नहीं
हो। वह कहता
है, जैसा
हो मैं राजी।
जैसा भी हो, मैं देखता
रहूंगा। मैं
तो द्रष्टा
हूं —तो कैसा
भी हो, फर्क
क्या पड़ता है?
हार हो तो
ठीक, जीत
हो तो ठीक।
हार, तो
तेरी; जीत,
तो तेरी।
सफलता, तो
तेरी, असफलता,
तो तेरी। अब
मैं देखता
रहूंगा। जीवन
को देखूंगा, मृत्यु को
भी देखूंगा।
एक
बार साक्षी उठ
जाये, तो सारा
जीवन
रूपांतरित हो
जाता है।
प्रभु—मर्जी!
जीसस
सूली पर लटके
हैं,
आखिरी क्षण
कहने लगे 'हे
प्रभु, यह
तू मुझे क्या
दिखा रहा है? क्या तूने
मेरा साथ छोड़
दिया?' लेकिन
चौंके; खुद
की ही बात समझ
में आयी कि यह
मैंने क्या कह
दिया, शिकायत
हो गयी! यह तो
यह हो गया
कहने का मतलब
कि मेरी मर्जी
तू पूरी नहीं
कर रहा है। यह
तो मेरी मर्जी
को मैंने ऊपर
रख दिया और
प्रभु की मर्जी
को नीचे रख
दिया। यह तो
मैंने उसे
सलाह दे दी।
यह तो मैंने 'सर्व' को
नियंत्रण
करने की
चेष्टा कर ली।
तो
कहा कि नहीं—नहीं, क्षमा
कर! क्षमा कर
दे, भूल हो
गयी। तेरी
मर्जी पूरी
हो! मुझे तो
भूल ही जा।
मेरी बात को
ध्यान में मत
रखना। बस तेरी
मर्जी पूरी
हो! प्रभु—मर्जी!
प्रभु
—मर्जी—अगर
प्रभु शब्द का
उपयोग
तुम्हें
रुचिकर लगता
हो। अरुचिकर
लगता हों—कोई
जरूरत नहीं है, शब्द
ही है।
सवेंच्छा—कहो 'सर्व की
इच्छा'।
समग्र—इच्छा—समग्र
की, इच्छा।
अस्तित्व की
मर्जी। जो
तुम्हें कहना हो।
इतनी ही बात
खयाल रखो कि
व्यक्ति की
मर्जी नहीं, समष्टि की।
जब तक व्यक्ति
की मर्जी से
जीते हों—संसार।
जब समष्टि की
मर्जी से जीने
लगे तो मोक्ष।
मोक्ष यानी
स्वयं से
मोक्ष। जो है,
है। जो हो, हो। इसमें
मैं बीच में न
आऊं। जो दृश्य
देखने को मिले,
देख लेंगे—मरुस्थल
तो मरुस्थल, मरूद्यान तो
मरूद्यान।
इसमें मैं बीच
में न आऊंगा।
जो हो, हो; जो है, है।
अन्यथा की चाह
नहीं। इच्छा—
अनिच्छा के
विवर्जन का
यही अर्थ है. न
विधि न निषेध।
विधि— निषेध
का कंकर नहीं
है ज्ञानी; गुलाम नहीं
है। ज्ञानी
किसी अनुशासन
को नहीं जानता—सर्वानुशासन
में लीन हो
जाता है।
'कोई ही
आत्मा को
अद्वय और
जगदीश्वर—रूप
में जानता
है..। '
'कोई ही कभी
विरला, आत्मा
को अद्वय और
जगदीश्वर—रूप
में जानता है।
वह जिसे करने
योग्य मानता है,
उसे करता
है। उसे कहीं
भी भय नहीं
है। '
आत्मानमद्वयं
कश्चिज्जानाति
जगदीश्वरम्।
यद्वेति
तत्स कुरुते न
भयं तस्य
कुत्रचित्।।
समझो, कभी
कोई विरला ऐसी
महंत घड़ी को
उपलब्ध होता
है जहां बूंद
को सागर में
लीन कर देता
है; जहां
अहं को शून्य
में डुबा देता
है, जहां
सीमा को असीम
में डुबा देता
है! कोई विरला,
कभी!
धन्यभागी है
वैसा विरला
पुरुष! होना
तो सभी को
चाहिए, लेकिन
हम होने नहीं
देते। हम
अड़ंगे डालते
रहते हैं।
होना तो सभी
को चाहिए। सभी
का स्वभाव—सिद्ध
अधिकार है।
लेकिन हम हजार
अड़चनें खड़ी करते
हैं, हम
होने नहीं
देते।
यह
बड़े मजे की
बात है, तुम
चकित होओगे
सुन कर कि तुम
जो चाहते हो, वही तुम
होने नहीं
देते।
तुम्हारे
अतिरिक्त और
कोई तुम्हारा
दुश्मन नहीं
है। तुम आनंद
चाहते हो और
आनंद होने नहीं
देते! क्योंकि
आनंद हो सकता
है सहजता में।
तुम
स्वतंत्रता
चाहते हो, स्वतंत्रता
होने नहीं
देते।
क्योंकि
स्वतंत्रता
हो सकती है
केवल सर्व की
स्फुरणा के
साथ एक हो
जाने में। तुम
चिंता नहीं
चाहते, दुख
नहीं चाहते; लेकिन तुम
बनाये चले
जाते हो।
क्योंकि
चिंता और दुख
है संघर्ष
में।
समर्पण
में फिर कोई
चिंता और दुख
नहीं है। बहो
धार के साथ।
यह गंगा जाती
है सागर को—तुम
इसी के साथ बह
चलो! इसमें
पतवार भी
चलाने की कोई
जरूरत नहीं है—छोड़
दो नाव को! तोड़
दो पतवार को!
यह गंगा जा ही
रही है सागर।
धार के विपरीत
मत बहो।
गंगोत्री जाने
की चेष्टा मत
करो। अन्यथा
तुम टूटोगे; दुखी
और परेशान हो
जाओगे।
जो
भी प्रकृति से
प्रतिकूल
जाता है वही
टूटता है; नहीं
कि प्रकृति
उसे तोड़ती—अपने
प्रतिकूल
जाने
से ही टूटता
है। जो
प्रकृति के
अनुकूल जाता
है,
उसके टूटने
का कोई उपाय
नहीं।
जो
संघर्ष ही
नहीं करता, वह
हारेगा कैसे?
जो विजय की आकांक्षा
ही नहीं करता,
उसकी कोई
पराजय नहीं।
छोड़ो अपने को,
जाती यह
गंगा—चलो, बह
चलो इस पर।
हिंदुओं
ने अपने सारे
तीर्थ नदियों
के किनारे
बनाये; बहुत
कारणों में एक
कारण यह भी है—ताकि
नदी सामने
रहे! बहती, सागर
की तरफ जाती
नदी का स्मरण
रहे। और यह
भाव कभी न
भूले कि हमें
अपने को छोड़
देना है—नदी
की भांति।
नदी
कुछ भी तो
नहीं करती, सिर्फ
बही चली जाती
है। बहने में
कोई प्रयास भी
नहीं है, चेष्टा
भी नहीं है।
कोई नक्शा भी
ले कर नदी
नहीं चलती।
गंगा जब
निकलती है गंगोत्री
से, कोई नक्शा
पास नहीं होता
कि सागर कहां
है। बिना नक्शे
के सागर पहुंच
जाती है। सभी
नदियां पहुंच
जाती हैं!
नदियां तो
छोड़ो, छोटे—छोटे
झरने, नदी—नाले,
वे भी सब
पहुंच जाते
हैं। खोज लेते
हैं मार्ग—बिना
किसी शास्त्र
के। एक तरकीब
वे जानते हैं कि
उलटे मत बहो, ऊंचाई की
तरफ मत बहो।
बहते रहो, जहां
गड्डा मिल
जाये, वहीं
समाते जाओ।
स्वभाव
पानी का नीचे
की तरफ बहना
है। बस इतने स्वभाव
की बात नदी
जानती है। नदी
के किनारे बैठ
कर हिंदू
तपस्वियों ने, संन्यासियों
ने, मनीषियों
नें—कुछ भी
नाम दो—एक ही
सत्य जाना कि
नदी जैसे बहने
वाले हो जाओ, पहुंच ही जाओगे
सागर। बहने
वाले सदा
पहुंच जाते
हैं।
'कोई कभी
अद्वय और
जगदीश्वर—रूप
को जानता है.। '
जगदीश्वर—रूप
को जानने के
लिए तुम्हें
अपना रूप खोना
पड़े—उतनी शर्त
पूरी करनी पड़े, उतना
सौदा है! तुम
अगर चाहो कि
अपने को भी
बचा लूं और
प्रभु को भी
जान लूं तो यह
असंभव है, यह
नहीं हो सकता।
या तो अपने को
बचा लो तो
प्रभु खो
जायेगा। या
अपने को खो दो
तो प्रभु बच
जायेगा। अब
तुम्हारी
मर्जी! और जो
अपने को खो कर
प्रभु को बचा
लेते हैं, तुम
यह मत सोचना
कि महंगा सौदा
करते हैं।
महंगा सौदा तो
तुम कर रहे हो.
अपने को बचा
कर प्रभु को
खो रहे हो।
कंकड़ बचा लिया,
हीरा खो
दिया।
जिनको
तुम ज्ञानी
कहते हो, उन्होंने
महंगा सौदा
नहीं किया। वे
बड़े होशियार
हैं।
उन्होंने
कंकड़ छोड़ा और
हीरा बचा लिया।
तुम्हारे साथ
सिवाय दुख और
नर्क के है ही
क्या? तुम
हो, तो
सिवाय पीड़ा और
चिंता के है
ही क्या? तुम
तो काटे हो छाती
में चुभे अपनी
ही। इसे बचा—बचा
कर क्या करोगे?
इसको जो
समर्पण कर
देता है, वही
कोई विरला..!
आत्मानमद्वयं
कश्चिज्जानति
जगदीश्वरम्।
वही
कभी,
क्वचित, कोई
जान पाता
प्रभु को। और
जो उसे जान
लेता...
यद्वेति
तत्स कुरुते।
फिर
वह कुछ नहीं
करता। फिर तो
वह जिसे करने
योग्य मानता
है—वह, जिसमें
तुमने अपने को
समर्पित कर
दिया—वह जिसे
करने योग्य
मानता है, वही
करता है। फिर
उसकी अपनी कोई
मर्जी नहीं रह
जाती।
यत्
वेति तत् स
कुरुते।
—वह तो वही
करता है जो
प्रभु करवाता
है।
खूब
जवाब दिया जनक
ने। ठीक—ठीक
जवाब दिया।
अष्टावक्र नाचे
होंगे हृदय
में,
प्रफुल्लित
हुए होंगे!
इसी जवाब की
तलाश थी। इसी
उत्तर की खोज
थी।
तस्य
भयम्
कुत्रचित् न।
—और फिर ऐसे
व्यक्ति को कहां
भय है!
जिसने
परमात्मा में
अपने को छोड़
दिया, उसे कहां
भय है! भय तो
तभी तक है जब
तक तुम लड़ रहे
हो सर्व से।
और भय
स्वाभाविक है,
क्योंकि
सर्व के साथ
तुम जीत सकते
ही नहीं। तो
भय बिलकुल
स्वाभाविक
है। मौत घटने
ही वाली है।
हार होने ही
वाली है।
तुम्हारी
यात्रा पहले से
ही पराजित है।
सर्व
से लड़ कर कौन
कब जीतेगा? अंश
अंशी से लड़ कर
कैसे जीतेगा?
तो भयभीत है,
कैप रहा है।
जैसे छोटा—सा
बच्चा अपने
बाप से लड़ रहा
है—कैसे
जीतेगा? फिर
वही छोटा
बच्चा अपने
बाप का हाथ
पकड़ लिया और
बाप के साथ चल
पड़ा—अब कैसे
हारेगा?
परमात्मा
के साथ अपने
को एकस्वर, एकलीन,
एक तान में
बांध देने पर—फिर
कैसा भय?
तस्य
भयम्
कुत्रचित् न!
शास्त्र
कहते हैं : 'ब्रह्मवित्
ब्रह्मेव
भवति—जों
ब्रह्म को
जानता, वह
स्वयं ब्रह्म
हो जाता है। ' फिर कैसा भय
है? जानते
ही वही हो
जाता है जो हम
जानते हैं।
तुमने
क्षुद्र को
जाना तो
क्षुद्र हो
गये;
विराट को
जाना तो विराट
हो जाओगे।
तुम्हारा जानना
ही तुम्हारा
होना हो जाता
है। ब्रह्मवित्
ब्रह्मेव
भवति! और
शास्त्र यह भी
कहते : 'तरति
शोकमात्मवित्।
' और जिसने
स्वयं को जान
लिया, वह
समस्त शोकों
के पार हो
जाता है। फिर
उसे कोई भय
नहीं, दुख
नहीं, पीड़ा
नहीं।
सब
दुख,
सब पीड़ा, सब भय, सब
नर्क अहंकार—केंद्रित
हैं। अहंकार
के बिना यह सब
ऐसे ही बिखर
जाता, जैसे
ताश के पत्ते
हवा के एक
झोंके में गिर
जाते हैं। शान
का जरा—सा
झोंका, साक्षी—
भाव की जरा—सी
हवा—और सब
पत्ते बिखर
जाते हैं।
जनक
ने सीधा—सीधा
उत्तर नहीं
दिया। सीधा—सीधा
उत्तर चाहा भी
न गया था। जनक
ने तो उत्तर भी
बड़ा
निवैंयक्तिक
दिया और दूर
खड़े हो कर दिया; जैसे
कुछ परीक्षा
उनकी नहीं हो
रही है।
क्योंकि जब
तुम्हें खयाल
हो जाये कि
तुम्हारी
परीक्षा हो
रही है तो
तनाव हो जाता
है। तनाव हो
जाता तो जनक
परीक्षा में
असफल हो जाते।
बेचैन हो जाते
बचाने को, सिद्ध
करने को, तो
गड़बड़ हो जाती।
वे जरा भी
बेचैन नहीं
हैं, जरा
भी चिंता नहीं
है। वे दूर
खड़े हो कर ऐसे
देख लिये जैसे
परीक्षा किसी
और की हो रही
है। जैसे जनक
को कुछ लेना—देना
नहीं है।
अनेक
मित्रों ने
प्रश्न पूछे
हैं कि गुरु
परीक्षा
क्यों लेता है? क्या
गुरु को इतनी
सामर्थ्य
नहीं है कि वह
देख ले कि
वस्तुत: शिष्य
को हुआ या
नहीं? गुरु
तो सब जानता
है, फिर
परीक्षा
क्यों लेता है?
परीक्षा
सिर्फ
परीक्षा ही
नहीं है—परीक्षा
आगे की प्रगति
का उपाय भी
है। ये जो प्रश्न
पूछे
अष्टावक्र ने, यह
सिर्फ
परीक्षा ही
नहीं है।
परीक्षा का तो
मतलब होता है
अब तक जो जाना
उसको कसना है।
अगर ये सिर्फ
परीक्षा ही
होती तो
व्यर्थ थे। अब
तक जो जाना वह
तो अष्टावक्र
को भी दिखायी
पड़ रहा है।
उसकी कोई
परीक्षा नहीं
है। लेकिन अब
तक जो जाना
उसके संबंध
में प्रश्न
उठा कर अब जो
प्रतिक्रिया
भविष्य में यह
जनक करेगा, वह
आगे की प्रगति
बनेगी। तो
परीक्षा
दोहरी है—अतीत
के संबंध में,
मगर वह गौण
है। उसका कोई
बहुत मूल्य
नहीं है। यह तो
अष्टावक्र भी
जान सकते हैं;
सीधा ही जान
रहे हैं कि
क्या हुआ है—लेकिन
जो हुआ है
उसके संबंध
में पूछ कर
जनक जो प्रतिक्रिया
करेगा, जो
उत्तर देगा, उससे आगे के
द्वार
खुलेंगे।
दोनों
संभावनाएं
हैं। अगर जनक
गलत उत्तर दें
तो पीछे के
द्वार बंद हो
सकते हैं; जो
खुलते— खुलते
थे, वे फिर
बंद हो सकते
हैं। और अगर
ठीक—ठीक उत्तर
दे, तो जो
द्वार खुले थे
वे तो खुले ही
रहेगे—और भी
द्वार हैं, वे भी खुल
जायेंगे। सब
निर्भर करेगा
जनक के उत्तर
पर।
गुरु
के सामने जनक
को अब तक जो
घटा है, वह तो
साफ है; लेकिन
जो घटेगा, वह
तो किसी के
लिए भी साफ
नहीं है। जो
घटेगा, वह
तो अभी घटा
नहीं है।
भविष्य तो अभी
शून्य में है,
निराकार
में है, अभी
उसने आकार
नहीं लिया।
अतीत का तो सब
पता है। अतीत
का तो सब पता
अष्टावक्र को
जनक से भी ज्यादा
है। जनक जितना
अपने संबंध
में बता सकेगा,
अष्टावक्र
उससे ज्यादा
देख सकते हैं।
अष्टावक्र
की दृष्टि
निश्चित ही
ज्यादा घिर और
ज्यादा गहरी
है। वे तो
भीतर तक झांक
कर देख लेंगे।
उसका कोई सवाल
भी नहीं है।
अतीत से कुछ
बड़ा सवाल नहीं
है—सवाल है
भविष्य से।
भविष्य का कुछ
पता नहीं है।
एक क्षण बाद
क्या होगा, कुछ
नहीं कहा जा
सकता।
क्योंकि जीवन
यंत्रवत नहीं
है; जीवन
परम
स्वतंत्रता
है। होते —होते
बात रुक सकती
है; घटते —घटते
रुक सकती है।
आदमी आखिरी
क्षण से पहुंच
कर लौट सकता
है।
एक
आदमी छलांग
लगाने जा रहा
था। मुझे बचपन
में बहुत शौक
था नदी पर
ऊंचाई से कूदने
का। जितनी
ऊंचाई हो, उतना
मुझे रस था।
अब मेरे साथ
जो मेरे मित्र
थे, वे बड़े
परेशान रहते
थे। क्योंकि
अगर मैं कूद जाऊं
और वे न कूदे
तो उनके
अहंकार को चोट
लगे। मगर कूदे
तो उनके प्राण
संकट में! तो
कभी—कभी मैं
देखता कि कोई
हिम्मत करके
दौड़ता है, मेरे
साथ दौड़ रहा
है कूदने के
लिए—चालीस फीट
या तीस फीट की
ऊंचाई या पचास
फीट की ऊंचाई।
फिर धीरे—
धीरे तो मुझे
रस इतना आने
लगा कि वह जो
नदी के ऊपर
रेलवे का पुल
था, उससे
जा कर मैं
कूदने लगा। वह
तो बहुत ही
खतरनाक था। उस
पर कोई मेरे
साथ दौड़ कर
आता— आता, आता—
आता बिलकुल
आखिर में; मैं
तो कूद जाता, वे खड़े ही रह
गये! अब
बिलकुल आखिर
पर आ गया था। कोई
शक—शुबा न थी।
मेरे साथ दौड़ा,
किनारे पर आ
गया था...।
एक
बार तो ऐसा
हुआ कि पंचमढ़ी
में—मेरे गांव
से थोड़े फासले
पर पहाड़ी
स्थान है—वहा
के एक
जलप्रपात में
हम कूदने गये।
तो मेरे एक
मित्र थे, जो
मेरे साथ बहुत
जगह कूदे थे, काफी ऊंचाई
थी, घबड़ा
गये। कूद भी
गये, लेकिन
बीच में एक जड़
को पकड़ कर लटक
गये। क्या करोगे?
कूद भी गये!
ऐसा भी नहीं
कि न कूदे हों—कूद
भी गये, लेकिन
बीच में एक जड़
को पकड़ लिया।
मैं जब पानी में
नीचे पहुंच
गया, डुबकी
खा कर ऊपर आया
तो मैंने कहा
कि. अब यह बड़ा
मुश्किल हो
गया। उनको उतारना
बड़ा मुश्किल
हो गया।
जो
हो गया है, वह
तो अष्टावक्र
देख सकते हैं;
लेकिन जो
अभी होने को
है, उसका
कोई उपाय नहीं
है। भविष्य
बिलकुल निराकार
है! हो भी सकता
है, न भी हो!
तो इसको तुम
परीक्षा ही मत
समझना, यह
परीक्षा से भी
ज्यादा।
परीक्षा तो है
ही—परीक्षा से
भी ज्यादा, भविष्य की
तरफ इंगित है।
परीक्षा से भी
ज्यादा, भविष्य
को एक दिशा
में लाने का
उपाय है; भविष्य
को एक रूप
देने का उपाय
है; भविष्य
को जन्म देने
का उपाय है।
और
जनक ने जो
उत्तर दिये
हैं,
वे निश्चित
ही, साफ
कहते हैं कि
छलांग हो गयी—और
होती रहेगी।
जनक के उत्तर
ने साफ कर
दिया कि
परीक्षा में
तो वे पूरे
उतरे, भविष्य
की तरफ भी
यात्रा साफ हो
गयी है, नये
द्वार खुल गये
हैं।
गुरु
जो भी करता है, ठीक
ही करता है।
तुम्हारे मन
में ऐसे
प्रश्न उठे कि
क्या गुरु में
इतनी
सामर्थ्य
नहीं कि वह
जान ले। ऐसा
प्रश्न अगर
जनक के मन में
भी उठता तो
जनक चूक जाते।
वे यह खुद भी
कह सकते थे कि
गुरुदेव, आप
तो
सर्वज्ञाता
हैं; आप, और मेरी परीक्षा
लेते हैं! अरे
आप तो आंख खोल
कर देख लो
मुझमें! तो आप.
खुद ही पता चल
जायेगा।
नहीं, जनक
ने वह भी न
कहा। क्योंकि
अगर गुरु
परीक्षा लेते
हैं तो
परीक्षा में
भी कोई राज
होगा। कोई राज
होगा, जिसका
जनक को अभी
पता ही नहीं।
जनक ने चुपचाप
परीक्षा
स्वीकार कर
ली। गुरु
जितनी
परीक्षाएं
खड़ी करे, स्वीकार
कर लेने में
ही सार है।
क्योंकि तुम जितना
समझ सकते हो
उतना ही
तुम्हें
समझाया जा सकता
है। कुछ है, जो तुम्हें
कराया
जायेगा। यह
परीक्षा तो एक
सिचुएशन, एक
स्थिति थी।
गुरु ने तो एक
स्थिति पैदा
की। इस स्थिति
में कैसा जनक
प्रत्युत्तर
लाते हैं, क्या
प्रतिध्वनि
होती है उनके
भीतर—उस
प्रतिध्वनि
का एक मौका
दिया। इससे
अतीत का तो
पता चल ही
जायेगा, वह
तो बिना इसके
भी पता चल
जाता—लेकिन इससे
भविष्य भी
सुनिश्चित
होगा। एक रेखा
निर्मित होगी,
आयाम साफ
होगा।
ऐसे
प्रश्न एकाध
मित्र ने नहीं, अनेकों
ने पूछे हैं।
मैंने उनके
उत्तर अब तक
नहीं दिये थे,
क्योंकि
मैं चाहता था
जनक का उत्तर
पहले तुम सुन
लो।
जैसे
मैंने 'स्वभाव'
की पीछे
चर्चा की। एक
मित्र ने आ कर
कहा कि आपने
ऐसी बात की कि
कहीं स्वभाव
दुखी न हो
जाये। मैंने
कहा, दुखी
हो जाये तो
हुए
अनुत्तीर्ण। 'कि कहीं
स्वभाव समझे न
और नाराज न हो
जाये; क्रुद्ध
न हो जाये। ' क्रुद्ध हुए,
तो फिर
मैंने जो कहा
कि हाथी तो
निकल गया, पूंछ
रह गयी—पूरा
सिर तो
उन्होंने
घुटा लिया, चोटी रह गयी,
तो हाथी तो
निकल गया, पूंछ
अटक गयी—तो फिर
पूंछ के
द्वारा पूरे
स्वभाव अटक गये!
नहीं, लेकिन
स्वभाव ने
बुरा नहीं
माना, न
दुख लिया।
समझने की
चेष्टा की।
ऐसी चेष्टा जारी
रहे, तो
हाथी तो निकल
ही गया है, किसी
दिन पूंछ भी
निकल जायेगी।
स्वभाव ने ठीक
किया है।
हरि ओंम
तत्सत्!
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