25
सितंबर, 1976;
ओशो
आश्रम,
कोरेगांव
पार्क,
पूना।
अष्टावक्र
उवाब।
अविनाशिनमात्मानमेकं
विज्ञाय
तत्वत:।
तवात्मज्ञस्य
धीरस्य
कथमर्थार्जने
रति: ।।46।।
आत्माउज्ञानादहो
प्रीतिर्विषयभ्रमगोचरे।
शुक्तेरज्ञानतो
लोभो यथा
रजतविभ्रमे ।।47।।
विश्व
स्फुरति
यत्रेदं तरंग
इव सागरे।
सोउहमस्मीति
विज्ञाय किं
दीन हव धावसि ।।48।।
श्रुत्वाउयि
शुद्धचैतन्यमात्मानमतिसुन्दरम्
।
उपस्थेऽत्यन्तसंसक्तो
मालिन्यमधिगच्छति
।।49।।
सर्वभतेषु
चात्मानं
सर्वभूतानि
चात्मनि।
मनेजनित
आश्चर्य
ममत्वमनवर्तंते
।।50।।
आस्थित:
परमाद्वैतं
मोक्षार्थेउयि
व्यवस्थित:।
आश्चर्य
कामवशगो विकल:
केलिशिक्षया ।।51।।
उद्भूतं
ज्ञात्तर्मित्रभवधार्याति
दुर्बल:।
गुरु
मात्र शिक्षक
ही नहीं है, शास्ता
भी है। शास्ता
यानी वह, जो
जीवन को एक अनुशासन
दे, जीवन
को शासन दे।
जो मात्र शब्द
दे, वह
शिक्षक। जो
शासन भी दे, वह शास्ता।
अष्टावक्र
शब्द दे कर ही
संतुष्ट नहीं
हो गए। शब्द
देने के बाद
जो पहला खतरा
है,
उस खतरे की
तरफ इंगित है
इन सूत्रों
में। शब्द सुन
कर गुरु के इस
बात की बहुत
संभावना है कि
तुम शब्द से
ऐसे अभिभूत हो
जाओ कि तुम
समझो सब हो गया;
तुम शब्द को
ही पकड़ लो और
शब्द को ही
सत्य मान लो।
सदगुरु
से निकले हुए
शब्दों का बल
है,
ऊर्जा है।
उस ऊर्जा और
बल में तुम
आविष्ट हो
सकते हो, सम्मोहित
हो सकते हो।
तुम बिना
ज्ञानी हुए
ज्ञानी बन
सकते हो—यही
पहला खतरा है।
शब्द ठीक
मालूम पड़े, तर्कयुक्त
मालूम पड़े, बुद्धि
प्रभावित हो,
हृदय
प्रफुल्लित
हो जाए—तो ऐसी
घड़ियां आ सकती
है सत्संग में,
जब जो
तुम्हारा
अनुभव नहीं है
अभी, वह भी
अनुभव जैसा
मालूम होने
लगे। तो गुरु
परीक्षक भी है।
वह तुम्हारी
परीक्षा भी
करेगा कि जो
तुम कह रहे हो
वह हुआ भी है
या केवल सुनी
हुई बात दोहरा
रहे हो?
अष्टावक्र
ने जो उदघोष
किया—परम सत्य
का—उस उदघोष
का ऐसा परिणाम
हुआ कि जनक
तल्ला प्रतिध्वनि
करने लगे। जनक
भी वही बोले।
और जनक ने कहा
कि आश्चर्य कि
मैं अब तक
कैसे सोया
रहा! और जनक ने
कहा कि मैं
जाग गया! और
जनक ने कहा कि
मैं न केवल
जाग गया हूं
मैं जानता हूं
मैं ही समस्त
का केंद्र, सब
मुझसे ही
संचालित होता!
मुझ का मुझ ही
को नमस्कार
है! ऐसी महिमा
का उदय हुआ।
अष्टावक्र
चुपचाप खड़े
सुनते रहे। यह
जो हुआ है, इसे
देखते रहे। इन
सूत्रों में
परीक्षा है।
अष्टावक्र
प्रश्न उठाते
हैं, संदेह
उठाते हैं।
जनक के घड़े को
जगह—जगह से
ठोंक कर देखते
हैं, कच्चा
तो नहीं है? बातें सुन
कर तो नहीं
बोल रहा है? किसी प्रभाव
के कारण तो
नहीं बोल रहा
है? मेरी
मौजूदगी के
कारण तो ये
तरंगें नहीं
उठी हैं? ये
तरंगें इसकी
अपनी हैं? यह
क्रांति
वस्तुत: घटी
है? यह
कहीं बौद्धिक
मात्र न हो।
मेरे
पास बहुत लोग
आते हैं।
उनमें अनेक
कृष्णमूर्ति
के भक्त हैं।
वे मुझसे आ कर
कहते हैं कि हम
वर्षों से
सुनते हैं; जो
सुनते हैं वह
शत—प्रतिशत
ठीक भी मालूम
होता है, उसमें
हमें कुछ
संदेह नहीं है।
जो
कृष्णमूर्ति
कहते हैं, उसे
हमने समझ भी
लिया है। हम
नहीं समझे, ऐसा भी नहीं
है। लेकिन फिर
भी जीवन में
कोई क्रांति
नहीं घटती।
बौद्धिक रूप
से सब समझ में
आ गया है।
बुद्धि भर गई
है, लेकिन
आत्मा रिक्त
की रिक्त रह
गई है। ऊपर—ऊपर
सब जान लिया
और भीतर— भीतर
हम वैसे के
वैसे हैं; भीतर
कोई घटना नहीं
घटी। अछूते के
अछूते रह गए
हैं। वर्षा हो
गयी है, घड़ा
खाली रह गया
है।
बड़ी
अड़चन में पड़
जाता है
व्यक्ति, जब
उसे बौद्धिक
रूप से सब समझ
में आ जाता है
और अस्तित्वगत
कोई समानांतर
घटना नहीं
घटती।
तुम्हें उसकी
दुविधा का
अंदाज नहीं।
उसे दिखाई
पड़ता है कि
दरवाजा कहा है,
लेकिन
निकलता दीवाल
से है। जिसको
दरवाजा नहीं
दिखाई पड़ता, वह भी दीवाल
से निकलता है;
लेकिन उसे
दरवाजा दिखाई
ही नहीं पड़ता,
इसलिए
शिकायत किससे?
जिस
आदमी को खयाल
है कि मुझे
दरवाजा दिखाई
पड़ता है, समझ आ
गया है कि
कहां है, लेकिन
फिर भी मैं
दीवाल से सिर
तोड़ता हूँ—तुम
उसकी पीड़ा
समझो। जब भी
उसका सिर
टूटता है, वह
महाविषाद से
भर जाता है कि
मुझे मालूम तो
है कि ठीक
क्या है, फिर
मैं गलत क्यों
करता हूं? मुझे
मालूम तो है
कि कहां जाना
चाहिए, फिर
मैं विपरीत
क्यों जाता
हूं?
सब
मालूम है उसे
और कुछ भी
मालूम नहीं। तो
उसके भीतर
सीखने की
क्षमता भी खो
जाती है।
उसमें
शिष्यत्व का
भाव भी खो
जाता है, क्योंकि
उसे मालूम तो
सब है; अब
सीखने को और
क्या है? उसकी
विनम्रता भी
खो जाती है।
और भीतर की
पीड़ा सघन होती
चली जाती है।
उसमें कोई
अंतर पड़ता
नहीं।
ऐसा
ही समझो कि
तुम दवाइयां
इकट्ठी करते
चले जाओ, इससे
तो तुम्हारी
बीमारी
समाप्त न होगी।
पीयोगे तब
समाप्त होगी।
तुम डाक्टरों
के 'प्रिसक्रिपान'
इकट्ठे कर
के फाइलें बना
लो। उन 'प्रिसक्रिपानों'
से तो कुछ
परिणाम न होगा,
जब तक उन 'प्रिसक्रिपानों'
के अनुसार
जीवन न बनेगा।
लेकिन
दवाइयों का
ढेर तुम्हें
एक भ्रांति दे
सकता है कि सब
दवाइयां तो
मेरे पास हैं,
पूरी
केमिस्ट की
दूकान तो उठा
लाया, अब
और क्या है, अब कहां
जाऊं? किससे
पूछूं? अब
तो पूछने को
भी कुछ नहीं
बचा।
तो
एक दंभ पैदा
होता है।
बुद्धि की
थोथी समझ से
एक अहंकार, एक
अस्मिता जगती
है कि मैं
जानता हूं और
भीतर एक पीड़ा
भी होती है कि
मुझे कुछ भी तो
पता नहीं, क्योंकि
कुछ हो तो
नहीं रहा है।
हो, तो
ही कसौटी है।
तुम्हारा
जीवन बदले
किसी सत्य से,
तो ही सत्य
तुम्हारे पास
है। अगर जीवन
न बदले तो
सत्य
तुम्हारे पास
नहीं है।
मैंने
सुना है, स्वामी
रामतीर्थ एक
छोटी—सी कहानी
कहा करते थे।
वे कहते थे, कल्प—गंगा
के किनारे, स्वर्ग की
गंगा के
किनारे, ज्ञान
और मोह एक
सुबह आ कर
रुके। गंगा ने
कहा, भले
आए स्वागत! लो
डुबकी मुझमें,
तुम्हें
पवित्र कर
दूंगी। उतरो
मुझमें। नहा
लो। तुम नए हो
जाओगे।
तुम्हें फिर
कुंआरा कर
दूंगी। सारी धूल
पोंछ डालूंगी।
ज्ञान
तो अकड़ा खड़ा
रहा,
क्योंकि
ज्ञान ने कहा :
तू और मुझे
शुद्ध करेगी?
उसे तो इस
बात पर भरोसा
न आया। और
झुकने की
क्षमता वह खो
चुका था, समर्पण
की कला खो
चुका था, शिष्य
होना भूल चुका
था। किसी
दूसरे कुछ हो
सकता है, यह
बात ही भूल
चुका था।
ज्ञान की अकड़
आ गई थी कि मैं
सब स्वयं कर
लूंगा, किस
गंगा की जरूरत
है? किस
तीर्थ की
जरूरत? किस
गुरु की जरूरत?
किसी की कोई
जरूरत नहीं है।
वह
तो
मुस्कुराया।
वह तो गंगा के
इस बेहूदे
आमंत्रण पर
मुस्कुराया।
लेकिन मोह तो
मोह है—
मोहाविष्ट हो
गया। मोह को
तो बात लुभा
गई। लोभ के
कारण वह तो
उतर गया। गंगा
ने उसे नहला
दिया। वह
शुद्ध हो गया।
वह पवित्र हो
गया। वह
निर्दोष हो
गया। वह बाहर
तो देवताओं ने
उसकी स्तुति
की,
आरती की; क्योंकि मोह
अब प्रेम हो
चुका था। नहा
लिया था गंगा
में, झुक
गया था। मोह
अब प्रेम हो
चुका था।
मोह
ही तो शुद्ध
हो कर प्रेम
हो जाता है।
प्रेम ही की
तो आखिरी
ऊंचाई
प्रार्थना है।
और प्रार्थना
का ही आखिरी
पड़ाव तो
परमात्मा है।
लेकिन
ज्ञान तो अपने
रास्ते पर जा
चुका था—अकड़ा
हु,
अपनी धूल—' सम्हाले हुए,
खोपड़ी भरी
और मजबूत और
भारी, और
हृदय बिलकुल
सूखा और रिक्त
और
अष्टावक्र
सुन कर जनक की
बातें इन
सूत्रों में
पहला सवाल
उठाते हैं कि
जनक,
ऐसा तुझे
हुआ है? या
बातों में उलझ
गया? या
मेरी बातों आ
गया? वे
जगह—जगह से
उसे ठोंकते
हैं।
पहला
सूत्र
अष्टावक्र ने
कहा,
'आत्मा को
तत्वत: एक और
अविनाशी जान
कर भी क्या तुझ
आत्मज्ञानी
धीर को धन
कमाने में अभी
भी रुचि है?'
क्योंकि
जनक ने कोई —महल
तो छोड़ा नहीं।
जनक ने कोई धन
का त्याग तो
किया नहीं।
जनक जैसा है
वैसा का वैसा
है। एक प्रश्न
अष्टावक्र
उठाते हैं।
जब
शिष्य प्रश्न
उठाता है तो
अज्ञान से
उठता है; जब
गुरु प्रश्न
उठाता है तो
ज्ञान से उठता
है। शिष्य के
प्रश्नों के
उत्तर देने
बड़े आसान हैं;
गुरु के
प्रश्नों के
उत्तर तो केवल
जीवन से दिए
जा सकते हैं, और तो कोई
उपाय नहीं।
अविनाशिनमात्मानमेक
विज्ञाय
तत्वत:।
—तत्व घोषणा
कर रहा है कि
एक है अविनाशी,
एक है आत्मा?
अद्वैत की
तू तत्वत:
धोषणा कर रहा
हूं?
तवात्मज्ञस्य
धीरस्य
कथमर्थार्जने
रति:।
—और ऐसी
घोषणा के बाद
क्या धन में
रुचि रह सकती
है? राज्य
में, साम्राज्य
में, महल
में, पद—प्रतिष्ठा
में, सिंहासन
में रुचि रह
सकती है?
जनक
के सामने एक
प्रश्न—चिह्न
खड़ा किया है
अष्टावक्र ने, कि
तुझसे पूछता
हूं जनक, जब
एक का तुझे
पता चल गया और
तुझे बोध हो
गया कि तू
स्वयं
परमात्मा है,
क्या धन के
पीछे अब भी तू
दौड़ सकता है? तू तलाश
अपने भीतर, धन का कहीं
मोह तो शेष
नहीं रहा?
यह
पहली बात धन
की क्यों उठाई? क्योंकि
इस जीवन में
बड़ी से बड़ी
हमारी दौड़ और बड़े
से बड़ा हमारा
पागलपन धन के
लिए है। हम
भीतर हैं खाली,
रिक्त, सूखने;
धन से उसे
भरते हैं।
खालीपन काटता
है। खालीपन
में बड़ी
बेचैनी होती
है कि मैं ना—कुछ,
कुछ कर
दिखाना है!
कैसे दिखाऊं?
तो
पद,
प्रतिष्ठा,
धन—वे सब धन
के ही रूप हैं।
उनसे हम अपने
को भरते हैं, ताकि मैं कह
सकु 'मैं
कुछ हूं! मैं
ना—कुछ नहीं
हूं! देखो, कितना
धन मेरे पास
है!' ताकि
मैं प्रमाण दे
सकूं कि मैं
कुछ हूं! अष्टावक्र
कहते हैं कि
धन की दौड़ तो
उस आदमी की है
जिसे भीतर
बैठे
परमात्मा का
पता नहीं।
जिसे भीतर
बैठे
परमात्मा का
पता चल गया वह
तो धनी हो गया,
उसे तो मिल
गया धन। राम—रतन
धन पायो! अब
उसे कुछ बचा
नहीं पाने को।
अब कोई धन धन
नहीं है; धन
तो उसे मिल
गया, परम
धन मिल गया।
और परम धन को
पा कर फिर कोई
धन के पीछे
दौड़ेगा?
छोटे
थे तुम तो खेल—खिलौनों
से खेलते थे, टूट
जाता खिलौना
तो रोते भी थे;
कोई छीन
लेता तो झगड़ते
भी थे। फिर एक
दिन तुम युवा
हो गये। फिर
तुम भूल ही
गये वे खेल—खिलौने
कहां गये, किस
कोने में पड़े—पड़े
धीरे से झाड़
कर, बुहार
कर कचरे में
फेंक दिये गये।
तुम्हें उनकी
याद भी नहीं
रही। एक दिन
तुम लड़ते थे।
एक दिन तुम
उनके लिए मरने—मारने
को तैयार हो
जाते थे। आज
तुमसे कोई
पूछे कि कहां
गये वे खेल—खिलौने,
तो तुम
हसोगे। तुम
कहोगे, अब
मैं बच्चा तो
नहीं, अब
मैं युवा हो
गया, प्रौढ़
हो गया; मैंने
जान लिया कि
खेल—खिलौने
खेल—खिलौने
हैं।
ऐसी
ही एक प्रौढ़ता
फिर घटती है, जब
किसी को भीतर
के परमात्मा
का बोध होता
है। तब संसार
के सब खेल—खिलौने
धन—पद—प्रतिष्ठा
सब ऐसे ही
व्यर्थ हो
जाते हैं जैसे
बचपन के खेल—खिलौने
व्यर्थ हो गए।
फिर उनके लिए
कोई संघर्ष
नहीं रह जाता,
प्रतिद्वंद्विता
नहीं रह जाती,
कोई
स्पर्धा नहीं
रह जाती।
धन
की दौड़
आत्महीन
व्यक्ति की
दौड़ है। जितना
निर्धन होता
है आदमी भीतर, उतना
ही बाहर के धन
से भरने की
चेष्टा करता
है। बाहर का
धन भीतर की
निर्धनता को
भुलाने की व्यवस्था,
विधि है।
जितना गरीब
आदमी होता है,
उतना ही धन
के पीछे दौड़ता
है।
इसलिए
तो हमने देखा
कि कभी बुद्ध, कभी
महावीर, महाधनी
लोग रहे होंगे,
कि सब छोड़
कर निकल पड़े
और भिखारी हो
गए। इस
आश्चर्य की
घटना को देखते
हो! यहां
निर्धन धन के
पीछे दौड़ते
रहते हैं, यहां
धनी निर्धन हो
जाते हैं।
जिन्हें भीतर
का धन मिल गया,
वे बाहर की
दौड़ छोड़ देते
हैं।
अष्टावक्र
ने पूछा कि
जनक,
जरा पीछे
भीतर उतर कर
टटोल, कहीं
धन की आकांक्षा
तो शेष नहीं? अगर धन की
आकांक्षा शेष
हो तो यह सब जो
तू बोल रहा है,
सब बकवास है।
कसौटी वहां है।
अभी भी तू पद
तो नहीं चाहता?
अभी भी तू
राज्य का
विस्तार तो
नहीं चाहता? अभी भी भीतर
तृष्णा तुझे
पकड़े तो नहीं
है? अगर
वासना अभी भी
मौजूद है भीतर,
तो पक्का
जान कि आत्मा
का तुझे अनुभव
नहीं हुआ।
आत्मा का
अनुभव तो तभी
होता है जब
वासना नहीं रह
जाती। या
आत्मा का
अनुभव होते ही
वासना नहीं रह
जाती। दोनों
साथ—साथ नहीं
हो सकते।
आत्मा और
वासना के बीच
किसी तरह का
सहयोग नहीं हो
सकता; जैसे
अंधेरे और
प्रकाश के बीच
किसी तरह का
साथ—संग नहीं
हो सकता।
प्रकाश—तो
अंधेरा नहीं;
अंधेरा—तो
प्रकाश नहीं।
तू
प्रकाश की
बातें कर रहा
है। तू अचानक
महावाक्य बोल
रहा है, जनक!
यह इतनी जल्दी
हुआ है। इसकी
तू कसौटी कर
ले। इसे तू
जरा खोजबीन कर
ले, जांच—पड़ताल
कर ले। भीतर
उतर। देख, कहीं
धन की
आकांक्षा तो
नहीं छिपी
बैठी। अगर
छिपी बैठी हो
तो यह सब जो
तूने कहा, मुझे
तूने दोहरा
दिया; यह
सब बासा है; यह सब उधार
है; फिर
इसकी बहुत
मूल्यवत्ता
नहीं है। फिर
हमें फिर से अ
ब स से शुरू
करना पड़ेगा।
तो मैं फिर
तुझे जगाऊं, अगर धन की आकांक्षा
कहीं बैठी हो।
अगर तू धन की
आकांक्षा पाए
ही नहीं कहीं,
तो कुछ हुआ
है, अन्यथा
कुछ भी नहीं
हुआ है।
'आत्मा को
तत्वत: एक और
अविनाशी जान
कर भी क्या तुझ
आत्मज्ञानी
धीर को धन
कमाने में
रुचि है?'
जरा—सी
भी रुचि? लेशमात्र
भी रुचि? जरा—सा
भी रस?
खयाल
रखना, जब तक हम
सोचते हैं कि
बाहर कुछ हमें
मिल जाए, उससे
हम कुछ हो
जाएंगे—तब तक
हमारी धन में
रुचि है। यह
भी हो सकता है
कि तुम धन का
त्याग कर दो, लेकिन त्याग
से कुछ मिल
जाएगा, ऐसी
रुचि शेष रह
जाए—कि दुनिया
तुम्हें
त्यागी कहेगी,
कि लोग
प्रशंसा
करेंगे, कि
चरण छुएंगे—तो
फिर कुछ फर्क
न हुआ; तुमने
सिर्फ सिक्के
बदल लिए।
लेकिन अब भी
तुम्हारी आकांक्षा
वही की वही है।
रुचि
तुम्हारी धन
की ही है। धन
से मात्र धन
की तरफ ही
इशारा नहीं है,
धन से एक
भीतर की
आकांक्षा का
इशारा है कि
बाहर कुछ हो
सकता है, जिससे
मैं मूल्यवान
हो जाऊं। धन
का आत्यंतिक
अर्थ इतना ही
है कि बाहर से
कुछ मिल सकता
है जो मुझे मूल्यवत्ता
दे दे! मेरा
मूल्य मेरे
भीतर है; मैं
स्वयं अपना
मूल्य हूं—ऐसी
प्रतीति
वस्तुत:
संन्यास है।
मेरा
मूल्य बाहर से
आता है; लोग
क्या कहते हैं,
इससे मेरा
मूल्य
निर्मित होता
है—तो ऐसी आकांक्षा
धन की
आकांक्षा है।
इसलिए
तुम्हारे सौ
त्यागियों
में निन्यानबे
तो अभी भी धन
की ही
आकांक्षा में
जीते हैं। धन
उन्होंने छोड़
दिया होगा, बाजार
छोड़ दिया, दूकान
छोड़ दी, सब
छोड़—छाड़ कर
मंदिरों में
बैठ गए हैं; लेकिन अब भी
तुम्हारी
प्रतीक्षा
करते हैं कि तुम
आओ और सम्मान
दो। अब भी
तुम्हारे
द्वारा किया
गया अपमान
खलता है, काटे
की तरह गड़ता
है। तुम्हारा
सम्मान अभी भी
गदगद करता है।
तुम कहते हो, महात्यागी
हो आप, तो
भीतर फूल खिल
जाते हैं, कमल
खिल जाते हैं।
अगर
कोई नहीं आता
सम्मान करने
को तो त्यागी
प्रतीक्षा
करने लगता है
कि आज कोई भी
नहीं आया।
दूकान बदल गई, ग्राहक
नहीं बदले।
ग्राहक की अभी
भी प्रतीक्षा
है! जैसे
दूकानदार
सुबह से दूकान
खोल कर बैठ कर
प्रतीक्षा
करता है
ग्राहक आएं, अगर ऐसा ही
त्यागी भी
सुबह से
प्रतीक्षा
करने लगता है
कि मंदिर में
लोग आएं, मेरी
पूजा—अर्चना
हो, लोग
मुझे सम्मान
दें, प्रतिष्ठा
दें—तो दूकान
बदली, कुछ
भीतर बदला
नहीं।
जिस
दिन तुम्हारे
मन में दूसरों
से मिलने वाले
सम्मान का कोई
मूल्य नहीं रह
जाता—न
निषेधात्मक, न
विधायक, न
उनके अपमान का
कोई मूल्य रह
जाता है; तुम्हारे
पास क्या है, इससे तुम
अपनी सत्ता की
गणना नहीं
करते और तुम्हारे
पास क्या नहीं
है, इससे
तुम अपने भीतर
कमी का अनुभव
नहीं करते.
तुम जिस क्षण
बेशर्त पूर्ण
हो जाते हो, जिस क्षण
तुम्हारी
घोषणा
पूर्णता की
अकारण हो जाती
है, जिसमें
कोई बाहरी
कारण हाथ नहीं
देता—उस क्षण
तुम जानना कि
तुमने जाना।
उसके पहले
जानकारी है और
जानकारी को
भूल से जानना
मत समझ लेना।
ऐसा
हुआ कि स्वामी
विवेकानंद
अमरीका से
वापिस लौटे।
जब वे वापिस
आए तो बंगाल
में अकाल पड़ा
था। तो वे तत्क्षण
आ कर
अकालग्रस्त
क्षेत्र में
सेवा करने चले
गए। ढाका की
बात है। ढाका
के कुछ वेदांती
पंडित उनका
दर्शन करने आए।
स्वामी जी
अमरीका से
लौटे, भारत की
पताका
फहरा
कर लौटे! तो
पंडित दर्शन
करने आए थे, सत्संग
करने आए थे।
लेकिन जब
पंडित आए तो
स्वामी
विवेकानंद ने
न तो वेदांत
की कोई बात की,
न ब्रह्म की
कोई चर्चा की,
कोई
अध्यात्म, अद्वैत
की बात ही न
उठाई, वे
तो अकाल की
बात करने लगे
और वे तो जो
दुख फैला था
चारों तरफ
उससे ऐसे दुखी
हो गए कि खुद
ही रोने लगे, आंख से आंसू
झरझर बहने लगे।
पंडित
एक—दूसरे की
तरफ देख कर
मुस्कुराने
लगे कि यह असार
संसार के लिए
रो रहा है। यह
शरीर तो
मिट्टी है और
यह रो रहा है, यह
कैसा ज्ञानी!
उनको
एक—दूसरे की
तरफ व्यंग्य
से
मुस्कुराते
देख कर विवेकानंद
को कुछ समझ न
आया। उन्होंने
कहा,
मामला क्या
है, आप
हंसते हैँ? तो उनके
प्रधान ने कहा
कि हंसने की
बात है। हम तो
सोचते थे आप
परमज्ञानी
हैं। आप रो
रहे हैं? शास्त्रों
में साफ कहा
है कि देह तो
हैं ही नहीं
हम, हम तो
आत्मा हैं!
शास्त्रों
में साफ कहा
है कि हम तो
स्वयं ब्रह्म
हैं, न जिसकी
कोई मृत्यु
होती, न
कोई जन्म होता।
और आप ज्ञानी
हो कर रो रहे
हैं? हम तो
सोचते थे, हम
परमज्ञानी का
दर्शन करने आए
हैं, आप
अज्ञान में
डूब रहे हैं!
विवेकानंद
का सोटा पास
पड़ा था, उन्होंने
सोटा उठा लिया,
टूट पड़े उस
आदमी पर। उसके
सिर पर डंडा
रख कर बोले कि
अगर तू सचमुच
ज्ञानी है तो
अब बैठ, तू
बैठा रह, मुझे
मारने दे। तू
इतना ही स्मरण
रखना कि तू
शरीर नहीं है।
विवेकानंद
का वैसा रूप—मजबूत
तो आदमी थे ही, वे
हट्टे—कट्टे
आदमी थे—और
हाथ में उनके
बड़ा डंडा! उस
पंडित की तो
रूह निकल गई।
वह तो
गिड़गिड़ाने
लगा कि महाराज,
रुको, यह
क्या करते हो?
अरे, यह
कोई ज्ञान की
बात है? हम
तो सत्संग
करने आए हैं।
यह कोई उचित
मालूम होता है?
वह
तो भागा। उसने
देखा कि यह
आदमी तो जान
से मार डाल दे
सकता है। उसके
पीछे बाकी
पंडित भी खिसक
गए।
विवेकानंद ने
कहा : शास्त्र
को दोहरा देने
से कुछ ज्ञान
नहीं हो जाता।
पांडित्य
ज्ञान नहीं है।
पर—उपदेश कुशल
बहुतेरे!
वह
जो पंडित
ज्ञान की बात
कर रहा था, तोतारटत
थी। उस
तोतारटंत में
कहीं भी कोई
आत्मानुभव
नहीं है।
शास्त्र की थी,
स्वयं की
नहीं थी। और
जो स्वयं की न
हो, वह दो
कौड़ी की है।
तो
अष्टावक्र
पहली परीक्षा
खड़ी करते हैं।
पहली परीक्षा, वे
यह कहते हैं :
जनक, ध्यान
कर! तू कहता है,
आत्मा को
तत्वत: तूने
जान लिया, पहचान
गया अविनाशी
को, अब
क्या तुझ
आत्मज्ञानी
धीर को धन
कमाने में थोड़ी
भी रुचि है? इसका मुझे
उत्तर दे।
गुरु
तो दर्पण है।
गुरु के दर्पण
के समक्ष तो
शिष्य को
समग्र—रूप से
नग्न हो जाना
है। उसे तो
अपने हृदय को
पूरा उघाड़ कर
रख देना है, तो
ही क्रांति घट
सकती है।
पुरानी
कथा है जैन—शास्त्रों
में,
मिथिला के
महाराजा नेमी
के संबंध में।
उन्होंने कभी
शास्त्र नहीं
पढ़े।
उन्होंने कभी
अध्यात्म में
रुचि नहीं ली।
वह उनका लगाव
ही न था। उनकी
चाहत ने वह
दिशा कभी नहीं
पकड़ी थी। बूढ़े
हो गए थे, तब
बड़े जोर का
दाह्य—ज्वर
उन्हें पकड़ा।
भयंकर ज्वर की
पीड़ा में पड़े
हैं। उनकी
रानियां उनके
शरीर को शीतल
करने के लिए चंदन
और केसर का
लेप करने लगीं।
रानियों के
हाथ में सोने
की चूड़ियां
थीं, चूड़ियों
पर हीरे—जवाहरात
लगे थे; लेकिन
लेप करते समय उनकी
चूड़ियां
खड़खड़ाती और
बजती। सम्राट
नेमी को वह
खड़खड़ाहट की
आवाज, वह
चूड़ियों का
बजना बड़ा
अरुचिकर
मालूम हुआ। और
उन्होंने कहा,
हटाओ ये चूड़ियां,
इन चूड़ियों
को बंद करो! ये
मेरे कानों
में बड़ी कर्ण—कटु
मालूम होती
हैं।
तो
सिर्फ मंगल—सूत्र
के खयाल से एक—एक
चूड़ी बचा कर, बाकी
चूड़ियां
रानियों ने
निकाल कर रख
दीं। आवाज बंद
हो गई। लेप
चलता रहा।
नेमी भीतर एक
महाक्रांति
को उपलब्ध हो
गए। यह देख कर
कि दस चूड़ियां
थीं हाथ में
तो बजती थीं; एक बची तो
बजती नहीं।
अनेक हैं तो
शोरगुल है। एक
है तो शांति
है। कभी
शास्त्र नहीं
पढ़ा, कभी
अध्यात्म में
कोई रस नहीं
रहा। उठ कर
बैठ गए। कहा, मुझे जाने
दो। यह दाह्य—ज्वर
नहीं है, यह
मेरे जीवन में
क्रांति का
संदेश ले कर आ
गया। यह प्रभु—अनुकंपा
है।
रानियां
पकड़ने लगीं।
उन्होंने
समझा कि शायद
ज्वर की
तीव्रता में विक्षिप्तता
तो नहीं हो गई!
उनका भोगी—रूप
ही जाना था।
योग की तो
उन्होंने कभी
बात ही न की थी, योगी
को तो वे पास न
फटकने देते थे।
भोग ही भोग था
उनके जीवन में।
कहीं ऐसा तो
नहीं कि
सन्निपात हो
गया है! वे तो
घबड़ा गईं, वे
तो रोकने लगीं।
सम्राट
ने कहा, घबड़ाओ
मत। न कोई यह
सन्निपात है।
सन्निपात तो
था, वह गया।
तुम्हारी
चूइड़यों की
बड़ी कृपा!
कैसी जगह से परमात्मा
ने सूरज निकाल
दिया, कहा
नहीं जा सकता!
चूइड़यां बजती
थीं तुम्हारी,
बहुत तुमने
पहन रखीं थीं।
एक बची, शोरगुल
बंद हुआ—उससे
एक बोध हुआ कि
जब तक मन में
बहुत आकांक्षाएं
हैं तब तक
शोरगुल है। जब
एक ही बचे आकांक्षा,
एक ही
अभीप्सा बचे,
या एक की ही
अभीप्सा बचे—और
ध्यान रखना एक
की ही अभीप्सा
एक हो सकती है।
संसार की
अभीप्सा तो एक
हो ही नहीं
सकती—संसार
अनेक है। तो वहां
अनेक वासनाएं
होंगी। एक की
अभीप्सा ही एक
हो सकती है।
नेमी
तो उठ गए, ज्वर
तो गया। वे तो
चल पड़े जंगल
की तरफ। न
शास्त्र पढ़ा,
न शास्त्र
जानते थे।
लेकिन, शास्त्र
पढ़ने से कब
किसने जाना!
जीवन के शास्त्र
के प्रति
जागरूकता
चाहिए तो कहीं
से भी इशारा
मिल जाता है।
अब चूड़ियों से
कुछ लेना—देना
है?
तुमने
कभी सुना, चूड़ियों
और संन्यास का
कोई संबंध? जुड़ता ही
नहीं। लेकिन
बोध के किसी
क्षण में, जागरूकता
के किसी क्षण
में, मौन
के किसी क्षण
में, कोई
भी घटना जगाने
वाली हो सकती
है। तुम सो
रहे हो, घड़ी
का अलार्म जगा
देता है, पक्षियों
की चहचहाहट
जगा देती है, कौओं की कांव—कांव
जगा देती है, दूध वाले की
आवाज जगा देती
है, राह से
निकलती हुई
ट्रक का
शोरगुल जगा
देता है, ट्रेन
जगा देती है, हवाई—जहाज
जगा देता है; कुत्ता
भौंकने लगे
पड़ोसी का, वह
जगा देता है।
ठीक
ऐसे ही हम सोए
हैं। इसमें जागरण
की घटना घट
सकती है, लेकिन
जागरण की घटना
केवल शब्दों
से नहीं घटती।
वास्तविक
ध्वनि...।
शास्त्र तो
ऐसे हैं जैसे
रिकार्ड में
ध्वनियां बंद
हैं। तुम
रिकार्ड रखे
अपने बिस्तर
के पास सोए
रहो, इससे
कुछ भी न होगा।
तुम अपनी
स्मृति में
कितने ही
शास्त्रों के
रिकार्ड भर लो,
इससे कुछ न
होगा।
बड़ी
महिमापूर्ण
घटना घटी है
जनक को, लेकिन
अष्टावक्र
ठीक से कसौटी
कर लेना चाहते
हैं। अष्टावक्र
जनक को भी ठीक
से अपने भीतर
पहुंच कर मौका
देना चाहते
हैं कि वह देख
ले : कहीं धन की आकांक्षा
तो नहीं है? अगर है तो
सम्हलो। तो
इतनी ऊंची बातें
मत करो। तो
तुम्हारे पैर
तो जमीन में
गड़े हैं, आकाश
में उड़ने की
बातें मत करो।
धन तो जमीन है;
अगर
तुम्हारी धन
में आकांक्षा
रुपी है, तो
तुम्हारी
जड़ें जमीन में
गड़ी हैं, फिर
तुम पंख आकाश
में न खोल
सकोगे।
जैन
शास्त्रों
में एक और कथा
है,
अमरावती के
श्रेष्ठि सुमेद
की। सुमेद के
पिता की
मृत्यु हुई।
वह अमरावती का
सबसे बड़ा धनी
व्यक्ति था।
पिता के मर
जाने पर
अंत्येष्टि
क्रिया और
सारे परिजनों-प्रियजनों
के विदा हो
जाने पर, जो
बड़ा मुनीम था,
बूढ़ा मुनीम
था, वह
आया। उसने
सारा
हिसाब-किताब
सुमेद के सामने
रखा। कितनी
उनकी कोठियां
हैं सारे देश
में, किस
कोठी में
कितना धन
संलग्न है, कितने उनके
व्यवसाय हैं,
किस
व्यवसाय में
कितना धन लगा
है, कितनी
उनकी
तिजोरियां
हैं-कहार कि
आप आएं, तलघर
में चलें तो
मैं सारी
चाबियां आपको
सौंप दूं र आप
के पिता मुझे
सब सौंप गए
हैं, अब आप
मालिक हैं।
सुमेद
उठा। उसने
सारे खाते-बही
देखे। करोड़ों
रुपए की
संपत्ति थी।
उसने जा कर
सारी
तिजोरियां देखीं।
उनमें
बहुमूल्य
रत्न भरे थे, अरबों-खरबों
की संपत्ति
थी। उसने यह
सब देखा। लेकिन
मुनीम बड़ा
हैरान हुआ। वह
देख तो रहा था,
लेकिन जैसे
कहीं बहुत दूर
से, पास
नहीं था, लोलुप
नहीं था। और
देखते-देखते
उसकी आंखों
में आंसू आने
लगे। और मुनीम
ने पूछा कि
मैं समझा नहीं।
आप रो रहे हैं!
आप इस वक्त
पृथ्वी के
सबसे धनी
लोगों में एक
हैं। पिता के
जाने पर अब आप
मालिक हैं। ये
आपके पुरखों
की संपदा है।
इसको हरेक
पीढ़ी बढ़ाती
चली गई है, इसमें
से घटा कभी भी
नहीं है। आप
प्रसन्न हों।
सुमेद
ने पूछा, मुझे
एक बात पूछनी
है। मेरे पिता
के पिता मरे, वे भी इसे न
ले जा सके।
मेरे पिता भी
मर गए, वे
भी इसे न ले जा
सके। और मैं
तुमसे कहता
हूं कि मैं
इसे ले जाना
चाहता हूं? तुम कोई
तरकीब खोजो।
तुम कहते हो, पीढ़ियों से
चली आयी है!
इसका मतलब साफ
है. लोग मरते
रहे और सब
यहीं छूटता
गया। अब मैं
यह नहीं करना
चाहता कि मैं
मरूं और सब
यहीं छूट जाए।
क्योंकि जो यहीं
छूट जाए, उसमें
सार क्या? ले
जाऊंगा सब
साथ। या तो
तुम खोज कर कल
सुबह तक मुझे
खबर कर दो या
मैं खोज
लूंगा। लेकिन
अब मुझे चैन
नहीं, क्योंकि
किसी भी क्षण
मौत आ सकती
है। फिर ये चाबियां
किसी और के
हाथ में
होंगी। फिर
तुम किसी और
को दिखाओगे, मेरे बेटे
को दिखाओगे।
लेकिन न मैं
ले जा सकूंगा
न मेरा बेटा
ले जा सकेगा।
नहीं, मैं
यह हिसाब खत्म
ही करना चाहता
हूं। मैं यह सब
साथ ही ले जाना
चाहता हूं।
मुनीम
ने कहा, यह तो
कभी हुआ नहीं
और हो भी नहीं
सकता। कोई इसे
कभी ले नहीं
गया। सुमेद ने
कहा, मैंने
तरकीब खोज ली।
उसने उसी क्षण
सारी संपत्ति
दान कर दी। वह
संन्यस्त हो.
गया। उसने कहा,
मैंने
तरकीब खोज ली।
मैं इसे साथ
ले जाऊंगा! यह
कह कर उसने सब
छोड़ दिया और
संन्यस्त हो
गया।
एक
क्रांति घटती
है,
जब बाहर का
तुम छोड़ते हो,
भीतर का उसी
क्षण मिल जाता
है। लोगों ने
तो एक ही बात
देखी कि उसने
बाहर की
संपत्ति छोड़
दी, तुम्हें
मैं दूसरी बात
में जगाना
चाहता हूं-उसने
बाहर की
संपत्ति यहां
छोड़ी कि भीतर
की संपत्ति वहां
मिली। वह साथ
ले कर गया।
भीतर का ही
साथ जाता है।
बाहर में उलझे
होने के कारण
भीतर का दिखाई
नहीं पड़ता। जब
भीतर का दिखाई
पड़ता है तो
बाहर की पकड़
नहीं रह जाती।
आश्चर्य!
कहा
अष्टावक्र ने।
जैसे बार—बार
जनक ने कहा
आश्चर्य! कि
परम ब्रह्म
शाश्वत
चैतन्य, और
कैसे माया में
भटक गया था.
जैसे बार—बार
जनक ने कहा कि
आश्चर्य! कि
मैं स्वयं परमात्मा
और कैसे सपने
में खो गया था! ऐसे
ही अब बार—बार
अष्टावक्र
कहते हैं।
'आश्चर्य! कि
जैसे सीपी के
अज्ञान चांदी
की भ्रांति
में लोभ पैदा
होता है, वैसे
ही आत्मा के
अज्ञान से
विषय— भ्रम के
होने पर राग
पैदा होता है।
'
रस्सी
पड़ी देखी और
समझा कि सांप
है तो भय पैदा हो
जाता है। सांप
है नहीं और भय
पैदा हो जाता
है। सांप तो
झूठा, भय बहुत
सच्चा। तुम
भाग खड़े होते
हो। तुम
घबड़ाहट में
गिर भी सकते
हो, भागने
में हाथ—पैर
तोड़ ले सकते
हो और वहां
कुछ था ही नहीं,
सिर्फ
रस्सी थी।
सांप के
ने
काम कर दिया।
अष्टावक्र
कहते हैं, ऐसे
ही सीपी में
कभी चांदी की
झलक दिखाई पड़
जाती है। सीपी
पड़ी है, सूरज
की किरणों में
चमक रही है—लगता
है चांदी!
चांदी वहा है
नहीं, सिर्फ
लगता है चांदी
है। चांदी के
लगते ही उठाने
का भाव पैदा
हो जाता है, मालिक बनने
की आकांक्षा
हो जाती है।
चांदी के भ्रम
में भी लोभ
पैदा हो जाता
है। आश्चर्य
कि भ्रम में
भी लोभ पैदा
हो जाता है! जहां
कुछ भी नहीं
है, वहां
पाने की आकांक्षा
पैदा हो जाती
है!
जहां
से कभी किसी
को कुछ भी
नहीं मिला, वहीं—वहीं
हम टटोलते
रहते हैं। कुछ
मिला हो तो भी
ठीक। इस
पृथ्वी पर
कितने लोग हुए
कितने अनंत
लोग हुए सबने
धन खोजा, सब
निर्धन मरे।
सबने पद खोजा,
सबने
प्रतिष्ठा
खोजी, सब
धूल में गिरे।
बड़े—बड़े
सम्राट पैरों
में दबे पड़े
हैं, धूल
हो गए हैं।
च्चांगत्सु
लौटता था एक गांव
से। मरघट से
गुजरा तो एक
खोपड़ी पर उसका
पैर लग गया।
उसने वह खोपड़ी
उठा ली और
उससे माफी
मांगने लगा कि
क्षमा कर।
उसके शिष्यों
ने कहा, यह
क्या कर रहे
हैं! यह मरी
खोपड़ी से क्या
क्षमा मांग
रहे हैं? इसमें
सार क्या?
च्चांगत्सु
ने कहा
तुम्हें पता
नहीं। एक तो
यह बड़े लोगों
का मरघट है।
यहां सिर्फ
राजा, धनपति, राजनेता
गड़ाए जाते है,। यह कोई
छोटी—मोटी
खोपड़ी नहीं है,
पागलो! यह
किसी बड़े आदमी
की खोपड़ी है।
शिष्य
हंसने लगे।
उन्होंने कहा
आप भी खूब
मजाक करते हैं।
अब यह बड़े की
हो कि छोटे की
हो,
खोपड़ी सब
बराबर हैं। और
मुर्दा खोपड़ी
से क्या क्षमा
मांगते हो?
च्चांगत्सु
कहने लगा,
तुम्हें पता
नहीं, केवल
समय की बात
है। दो चार छह
महीने पहले इस
आदमी के सिर
मे? बात है।
माफी तो मांग
ही लूं। तुम
जरा इसकी भी
तो सोचो। और
कुछ दिनों बाद
मेरी खोपड़ी भी
यहीं कहीं पड़ी
होगी और लोगों
के पैर मेरी
खोपड़ी से
लगेंगे और कोई
क्षमा भी न
मांगेगा। तुम
यह भी तो सोचो!
किसको
क्या मिला है? कुछ
मिला हो और
तुम खोजो, तब
भी ठीक है।
ऐसा
सुलतान महमूद
के जीवन में
उल्लेख है कि
वह रोज रात
अपने घोड़े पर
सवार हो कर निकलता
था गांव में
देखने—कहां
क्या हो रहा
है,
कैसी
व्यवस्था चल
रही है? छिपे
वेष में। वह
रोज रात एक
आदमी को देखता
था—नदी के
किनारे, रेत
को छानते।
उसने एक—दो
दफा पूछा भी
कि तू क्या
करता है आधी—आधी
रात तक? उसने
कहा, मैं
रेत छानता हूं
इसमें कभी—कभी
चांदी के कण
मिल जाते हैं।
उनको मैं
इकट्ठा करता
हूं। वही मेरी
जीविका है।
ऐसा
अनेक रातों
देख कर एक दिन
महमूद को लगा
कि बेचारा
मेहनत तो बड़ी
करता है, मिलता
कुछ खाक नहीं।
तो उसने अपना
भुज—बंध, जो
लाखों रुपये
का रहा होगा, निकाल कर
चुपचाप रेत
में फेंक दिया
और चल पड़ा। उस
रेत छांनने
वाले ने तो
देखा भी नहीं।
लेकिन थोड़ी
देर बाद खोजने
पर उसे मिल
गया भुज—बंध।
दूसरे
दिन फिर महमूद
रात आया। उसने
सोचा कि आज तो
वह रेत छांनने
वाला नहीं
होगा वहा।
लेकिन वह फिर
रेत छान रहा
था। महमूद
हैरान ने मुझे
खबर दे दी है
कि जो भुज—बंध
मैं फेंक गया
था। वह तुझे
मिल गया है।
तू उसे बाजार
में बेच भी
चूका है। वह
भी खबर आ चुकी
है। मैं
सुलतान महमूद
हू! भुज—बंध
लाखों रुपये
का था। तेरे जीवन
के लिए और
तेरे बच्चों
जीवन के लिए
पर्याप्त
हैक्स। अब तू किस
लिए छान रहा
है रेत? उसने कहा
मालिक : इसी
रेत के छांनने
मे भुज—बध
मिला; अब
तो चाहे कुछ
भी हो जाए मैं
छांनना छोड़ नहीं
सकता। अब तो
छानता ही
रहूंगा। अब तो
यह जिंदगी है
और मैं हूं और
यह रेत है।
जहां ऐसी—ऐसी
चीजें मिल
सकती हैं—भुज—बंध
मिल गया! अब
इसको मैं रोक
नहीं सकता।
महमूद
ने अपनी आत्मकथा
में लिखवाया
है कि उसके
तर्क में तो
बल है; लेकिन
हम इस संसार
में क्या खोज
रहे हैं जहां किसी
को कभी कुछ
नहीं मिला? फिर भी रेत
छान रहे हैं।
कुछ मिला किसी
को कभी?
कहते
हैं,
आश्चर्य कि
जैसे सीपी के
अज्ञान से
चांदी की भ्रांति
में लोभ पैदा
होता है, वैसे
ही आत्मा के
अज्ञान से
विषय—भ्रम के
होने पर राग
पैदा होता है।
हे जनक, कहीं
तेरे भीतर राग
तो नहीं बचा
है? कहीं
थोड़ा—सा भी
मोह तो नहीं
बचा, लोभ
तो नहीं बचा
है?
यह
तुम्हें याद
दिला दूं।
तुमने बहुत
बार सुना है
कि लोभ छोड़ो, मोह
छोड़ो, राग
छोड़ो, क्रोध
छोड़ो तो आत्मज्ञान
होगा। हालत
बिलकुल उल्टी
है।
आत्मज्ञान हो
तो राग, मोह,
लोभ, क्रोध
छूटता है, वह
परिणाम है।
अंधेरे को
थोड़े ही छोड़ना
पड़ता है
प्रकाश को लाने
के लिए; प्रकाश
लाना पड़ता है,
अधेंरा
छटता है।
इसलिए
अष्टावक्र यह
प्रश्न पूछ
रहे हैं। वे
कह रहे हैं, आत्मज्ञान
हो गया जनक? तेरी
उदघोषणा से
लगता है
आत्मज्ञान हो
गया। अब मैं
तुझसे पूछता
हूं जरा खोज, कहीं राग तो
नहीं? अभी
भी कहीं
पुराने भ्रम
पकड़े तो नहीं
हैं?
क्योंकि, कई
बार ऐसा होता
है—रोज ही ऐसा
होता है, कई
बार क्यों—रोज
रात तुम सपना
देखते हो, सुबह
सपना टूटता है,
तुम कहते हो
सब सपना था; और फिर
दूसरी रात फिर
सपना देखते हो।
टूट—टूट कर भी
सपना टूटता
नही। सुबह.
बकवास, सब
सपना था, कुछ
भी सार नहीं!
लेकिन यह याद
नहीं रह जाता।
फिर रात आएगी,
फिर तुम
सोओगे, फिर
सपना उठेगा।
तब यह कितनी
बार सपना टूट
चुका और कितनी
बार सुबह
तुमने घोषणा
कर दी कि सपना
टूट गया—ये सब
घोषज्ञणाएं
फिर काम नहीं
आतीं, फिर
सपना पकड़ लेता
है। बडा प्रबल
प्रभाव मालूम
होता है सपने
का। कहीं यह
रोज—रोज सुबह
उठ कर जो
घोषणा हम करते
हैं सपने झूठ होने
की, वैसी
ही अध्यात्म
की घोषणा तो
नहीं है?
मैं एक
कविता कल पढ़
रहा था :
यह
तीसरा फरेबे—मुहब्बत
है मालती,
मैं आज
फिर फरेबे—मुहब्बत
में आ गया।
प्रेमी
अपनी प्रेयसी
से,
किसी मालती
से कह रहा है :
यह
तीसरा फरेबे—मुहब्बत
है मालती,
यह
तीसरी बार
भ्रम हो रहा
है।
मैं आज
फिर फरेबे—मुहब्बत
में आ गया।
रुखसार
दिलशिकार हैं आंखें
हैं दिलनशीं
शोलाजने—खिरद
है तेरा
हुस्ने—आतशीं।
मैं
सोचता रहा, मैं
बहुत सोचता
रहा,
लेकिन
तेरा जमाल, नजर
में समा गया।
पहले
भ्रमों की भी
याद है। पहले
और मालतिया
धोखा दे गईं।
यह तीसरा भ्रम
है;
दो मालतिया
आ चुकीं, जा
चुकीं।
मैं
सोचता रहा, मैं
बहुत सोचता
रहा,
लेकिन
तेरा जमाल नजर
में समा गया।
गो
जानता हूं यह
भी तमन्ना का
है फरेब,
गो
जानता हूं यह
भी तमन्ना का
है फरेब,
गो
मानता हूं
राहे—मुहब्बत
है पुरनसेब,
यह
सब झूठ, यह सब
सपना, यह
सब फरेब—यह सब
जानता हूं।
लेकिन
बगैर इसके भी
चारा नहीं
मेरा,
इसके
बिना भी चलता
नहीं।
लेकिन
बगैर इसके भी
चारा नहीं
मेरा,
कछ भी
बजुज फरेब
सहारा नहीं
मेरा।
और
इन भ्रमों के
सिवाए कोई
सहारा ही नहीं
मालूम होता, सपनों
के सिवाए कोई
जिंदगी ही
नहीं मालूम
होती।
तुझ—सी
परी जमाल
हसीनाओं के
बगैर,
मैं
हूं सनमपरस्त, गुजारा
नहीं मेरा।
मैं आज
फिर फरेबे—मुहब्बत
में आ गया
यह
तीसरा फरेबे—मुहब्बत
है मालती।
तीसरा
क्या, तीसवां,
तीन सौवां,
तीन हजारवा—मगर
फरेब जारी
रहता है।
से
कहने लगे, यह
कहीं सुबह उठे
हुए आदमी की
बात तो नहीं
कि सपना था, और फिर कल तू
सो जाए? इधर
मैं गया और
उधर तू सो
जाए। तो तू
ठीक से देख ले।
सोने की अब और
कोई संभावना
तो नहीं है, यह जागरण
आखिरी है? यह
भ्रम का टूटना
भी कहीं भ्रम
ही सिद्ध न हो?
तू ठीक से
देख ले। यह
टूट ही गया है?
यह ऐसा टूट
गया है कि फिर
न बन सकेगा? तो गौर से
देख ले, इसके
बीज कहीं भीतर
छिपे तो नहीं
हैं? अन्यथा
ऊपर-ऊपर जमीन
साफ हो, भीतर
बीज पड़े हों, फिर अंकुरित
हो जाएं!
इसीलिए
तो होता है, सुबह
हम देख लेते
हैं कि सपना
टूट गया; लेकिन
बीज तो मिटते
नहीं, बीज
तो पड़े ही
रहते हैं। जिन
बीजों से सपने
रात फैले थे, वे बीज तो अब
भी भूमि में
पड़े हैं वैसे
के वैसे। फिर
रात आएगी, ठीक
मौसम पा कर, ठीक वर्षा
होगी, फिर
सपने खड़े हो
जाएंगे। सपने
के टूटने से
क्या होता है?
सपने के बीज
दग्ध होने
चाहिए। अगर
बीज दग्ध नहीं
हुए तो कुछ भी
नहीं हुआ। धन
की आकांक्षा
बीज है। पद की
आकांक्षा बीज
है।
महत्वाकांक्षा
बीज है। इन
बीजों की तलाश
के लिए
अष्टावक्र
कहते हैं, तू
जरा भीतर जा!
देख, कहीं
छिपे हुए बड़े
छोटे-छोटे
बीज..!
बीज
तो बड़े छोटे
होते हैं, वृक्ष
बड़े हो जाते
हैं। वृक्ष
दिखाई पड़ते
हैं, बीज
तो पता भी
नहीं चलते। तो
उन बीजों को
खोज। जब तक बीज
दग्ध न हो
जाएं, तब
तक तू इस भ्रम
में मत आना कि
भ्रम के बाहर
हो गया है।
'जिस
आत्मारूपी
समुद्र में यह
संसार तरंगों
के समान
स्फुरित होता
है, वही
मैं हूं। यह
जान कर भी
क्यों तू दीन
की तरह दौड़ता
है?'
आदमी
के जीवन की
एकमात्र
दीनता है
वासना, क्योंकि
वासना भिखमंगा
बनाती है।
वासना का अर्थ
है. दो। वासना
का अर्थ है.
मेरी झोली
खाली है, भरी!
कोई भरो, मेरी
झोली खाली है।
वासना का अर्थ
है. मांगना।
वासना का अर्थ
है कि मैं
जैसा हूं वैसा
पर्याप्त
नहीं। मैं
जैसा हूं उससे
मैं संतुष्ट
नहीं, दो!
कहते
हैं,
फरीद, उनके
गाव के लोगों
ने कहा कि तुम
अकबर को जानते
हो, अकबर
तुम्हें
जानता है, तुम्हारा
सम्मान भी
करता है। तुम
एक बार जा कर
अकबर से इतना
कह दो कि
हमारे गाव में
एक मदरसा खोल
दे, गाव के
बच्चे पढ़ने को
तड़फते हैं।
गरीब गाव है, तुम कहोगे
तो मदरसा खुल
जाएगा। फरीद
कभी राजमहल
गया नहीं था।
कभी-कभी अकबर
को जब रस होता
था तो फरीद के
दरबार में आता
था। लेकिन जब
मांगना हो तो
जाना चाहिए-यह
सोच कर फरीद
गया। जब वह
पहुंचा, सुबह-सुबह
ही पहुंच गया,
क्योंकि
मांगना हो तो
सुबह-सुबह ही
मांगना चाहिए।
सांझ तक तो
आदमी इतने
क्रोध में आ
जाता है, इतना
परेशान हो
चुका होता है
कि देने की
बात कहां-और
तुमसे छीन ले!
इसलिए
भिखमंगे सुबह
आते हैं। सुबह
तुमसे थोड़ी
आशा है। ताजे
हो,
रात भर
विश्राम के
बाद उठे हो, जिंदगी उतनी
बोझिल नहीं है,
इतना क्रोध
नहीं है। सांझ
तक तो तुम भी
थक जाओगे, सुबह-सुबह
तुम्हारी
ताजगी में..।
फरीद
पहुंचा। अकबर
प्रार्थना कर
रहा था अपनी
निजी मस्जिद
में। फरीद को
तो जाने दिया
गया। लोग जानते
थे अकबर का
बड़ा भाव है
फरीद के
प्रति। फरीद
पीछे जा कर
खड़ा हो गया।
अकबर ने अपनी
नमाज पूरी की, हाथ
उठाए आकाश की
तरफ और कहा, हे
परमात्मा!
मुझे और धन दे,
और दौलत दे,
मेरे
साम्राज्य को
बड़ा कर!
फरीद
की आंखों में
तो आंसू आ गए
यह दीनता देख
कर। यह सम्राट
भी कोई सम्राट
है! इससे तो हम
भले। कम से कम
परमात्मा एक
इल्जाम तो
नहीं लगा सकता
कि हमने कुछ
मांगा हो। और
फिर उसे याद
आया कि इस
आदमी से क्या
मांगना! इससे
तो एक मदरसा
लेने का मतलब
होगा इसको
गरीब बनाना, थोड़ा
गरीब हो
जाएगा। यह तो
वैसे ही गरीब,
इसकी हालत
तो वैसे ही
खराब है! इसकी
दीनता तो देखो,
अभी भी हाथ
फैलाए है!
अकबर जैसा
सम्राट, जिसके
पास सब है, वह
भी मांग रहा
है अभी! होने
से क्या होता
है, भिखमंगापन
थोड़े ही मिटता
है!
दुनिया
में दो तरह के
भिखमंगे
हैं-गरीब और
अमीर।
भिखमंगे तो
सभी हैं। गरीब
को तो क्षमा
भी कर दो; लेकिन
अमीर को कैसे
क्षमा करो, वह भी मांगे
चला जाता है।
फरीद
तो लौटने लगा।
अकबर उठा तो
फरीद को सीढ़ियों
से उतरते
देखा। उसने
कहा,
कैसे आए और
कैसे चले? कभी
तो तुम आए
नहीं। स्वागत!
घर में पधारो!
फरीद
ने कहा, हो
गया, आए थे
एक बात से, लेकिन
वह तो गलत
खयाल था। चूक
हो गई। हमसे
भूल हुई, तुम्हारा
कोई कसूर नहीं
है।
अकबर
तो बड़ा बेचैन
हो गया। उसने
कहा,
हुआ क्या? मैं कुछ
समझूं भी तो!
पहेली मत
बूझो! फरीद ने
कहा, गांव
के लोगों
ने-नासमझों
नें-यह समझ कर
कि तुम सम्राट
हो, तुम्हारे
पास बहुत है, मुझे भी
भ्रम में डाल
दिया। मैं भी
उनकी बातों
में आ कर चला
आया। नासमझों
की दोस्ती ठीक
नहीं। अब मैं
वापिस जा रहा
हूं उनको
समझाने कि तुम
गलती में थे।
मैं आ गया
मागने। गांव
के लोगों ने
कहा था एक
मदरसा खुलवा
दो। नहीं, लेकिन
तुम्हारी
हालत खराब है,
तुम तो दीन
अवस्था में
हो। वह
प्रार्थना
मैं तुमसे न
करूंगा। मेरे
पास कुछ होता
तो वह मैं तुम्हें
दे डालता।
मेरे पास कुछ
है नहीं। तुम्हारी
हालत बड़ी खराब
है। तुम्हारी
तो हालत दिवाले
निकले जैसी
है। तुम
प्रार्थना
करके मांग रहे
थे! मैं आया था
सम्राट से
मिलने, भिखारी
को देख कर
वापिस जा रहा
हूं।
अष्टावक्र
ने कहा.
विश्व
स्फुरति
यत्रेदं तरंग
इव सागरे
'जैसे
आत्मारूपी
समुद्र में यह
संसार तरंगों के
समान स्फुरित
होता, वही
मैं हूं-ऐसा
जानकर..।
सोऽहमस्मीति
विज्ञाय.......
'…….
ऐसा जान कर।
'
किं
दीन इव धावसि।
'.
…….. फिर तू दीन
की तरह दौड़ा
जा रहा है!'
जरा
भीतर तो देख, वहां
कोई दौड़ बाकी
तो नहीं है? वहां कुछ
मांग बाकी तो
नहीं है? वहां
कुछ पाने को
शेष तो नहीं
है? क्योंकि
परमात्मा के
मिलने का अर्थ
यह है कि अब
पाने को कुछ
भी शेष न रहा।
मिल गया जो
मिलना था।
आखिरी मिल गया,
आत्यंतिक
मिल गया; इसके
पार मिलने को
कुछ भी नहीं।
अगर तेरे भीतर
अब भी इसके
पार मिलने को
कुछ हो तो
समझना कि परमात्मा
नहीं मिला, तू शब्दों
के जाल में आ
गया जनक! तू
मेरे प्रभाव
में आ गया
जनक। तू
सम्मोहित हो
गया।
ध्यान
रखना, मन को
अच्छी बातें
मान लेने की
बड़ी जल्दी
होती है। कोई
तुमसे कह दे
कि आप तो
परमात्म—स्वरूप
हैं, कौन
इंकार करना
चाहता है! आप
तो ब्रह्म—स्वरूप
हैं, कौन
इंकार करना
चाहता है!
अहंकार भरता
है। कोई कह दे,
आप तो शुद्ध—बुद्ध
नित्य—चैतन्य—कौन
इंकार करता
है! बुद्ध से
बुद्ध भी
इंकार नहीं
करता जब उससे
कहो कि आप
शुद्ध—बुद्ध!
तो वह कहता है
बिलकुल ठीक, अब तुम
पहचाने। अभी
तक कोई पहचाना
नहीं। नासमझ
हैं; क्या
खाक
पहचानेंगे! आप
बुद्धिमान
हैं, इसलिए
पहचाना।
ज्ञान
की घोषणाएं
कहीं
तुम्हारे
अहंकार के लिए
आधार तो नहीं
बन रहीं? कहीं
ऐसा तो नहीं
है, प्रीतिकर
लगती हैं, इसलिए
मान लीं? कड़वी
बातें कौन
मानना चाहता
है! कोई तुमसे
पापी कहे तो
दिल नाराज
होता है। कोई
तुम्हें
पुण्यात्मा
कहे तो तुम
स्वीकार कर
लेते हो। और
यह हो सकता है
कि जिसने पापी
कहा था, वह
सत्य के
ज्यादा करीब
हो।
टालस्टाय
ने लिखा है
अपनी आत्मकथा
में कि एक दिन
सुबह—सुबह मैं
चर्च गया तो
देखा गांव का
सबसे बड़ा
धनपति, सुबह
के अंधेरे में
चर्च में
प्रार्थना कर
रहा है। तो
मैं तो चकित
हुआ कि यह
आदमी भी
प्रार्थना करता
है! मैं पीछे
खड़े हो कर
सुनने लगा। उस
धनपति को कुछ
पता नहीं था
कि कोई और है
अंधेरे में।
वह धनपति कह
रहा था, 'हे
प्रभु, मैं
महापापी हूं।
मुझ जैसा पापी
इस संसार में
कोई भी नहीं!' वह अपने
पापों का
ककेशन कर रहा
था, स्वीकार—भाव
से सब प्रगट
कर रहा था जो—जो
पाप उसने किए
थे। और शायद, भाव से कर
रहा था।
लेकिन
तभी सुबह होने
लगी। और उसको
खयाल आया, मालूम
हुआ कि कोई और
भी पीछे खड़ा
है। उसने देखा—और
देखा
टालस्टाय है।
वह टालस्टाय
के पास आया।
उसने कहा, क्षमा
करना, यह
बात किसी और
तक न जाए। यह
जो मैंने कहा
है, मेरे
और परमात्मा
के बीच है।
तुमने अगर सुन
लिया, अनसुना
कर दो। यह बात
किसी और तक न
जाए, अन्यथा
मान—हानि का
मुकदमा
चलाऊंगा।
टालस्टाय
ने कहा, यह भी
खूब रही! तुम
परमात्मा के
सामने स्वयं घोषणा
कर रहे हो, फिर
आदमियों से
क्या डरते हो?
उसने
कहा,
तुम इस बात
में पड़ो ही मत।
अगर तुमने यह
बात कहीं भी
निकाली, और
यहां कोई
दूसरा नहीं है,
अगर मैंने
यह बात कहीं
से भी सुनी, तो तुम्हीं
पकड़े जाओगे।
यह मेरे और
परमात्मा के
बीच निजी बात
है। यह कोई
सार्वजनिक
बात नहीं है।
तो
हम पाप को तो
चुपचाप
स्वीकार करना
चाहते हैं—परमात्मा
और हमारे बीच—और
पुण्य की हम
घोषणा करना
चाहते हैं
सारे जगत में।
करना चाहिए
उल्टा। पुण्य
की घोषणा तो
निजी होनी
चाहिए—वह
परमात्मा और
स्वयं के बीच।
पाप की घोषणा
सार्वलौकिक
होनी चाहिए, सार्वजनिक
होनी चाहिए।
तो
अष्टावक्र ने
कहा,
कहीं ऐसा तो
नहीं है कि ये
स्वादिष्ट
बातें, ये
मधुर बातें, ये वेदों का
सार, ये
उपनिषदों का
सार..! तुझे
स्वादिष्ट लग
रहा है, यह
तो पक्का है; लेकिन
स्वादिष्ट
लगने से कुछ
सत्य थोड़े ही
हो जाता है!
आदमी
मौत से डरता
है,
तो जल्दी से
मान लेता है, आत्मा अमर
है। इसलिए
नहीं कि समझ
गया कि आत्मा
अमर है; मौत
के डर के कारण...।
तुमने
देखा, यह भारत
है। यह पूरा
मुल्क मानता
है कि आत्मा
अमर है, और
इससे ज्यादा
कायर कौम
खोजनी
मुश्किल है।
होना तो उल्टा
चाहिए। आत्मा
जिनकी अमर है,
उनको कोई
गुलाम बना
सकता है? लेकिन
एक हजार साल
तक गुलाम बने
रहे। आत्मा
अमर है!
नहीं, आत्मा
अमर है का
सिद्धात हम
पकड़े ही इसलिए
हैं कि मरने
से हम डरे हैं।
यह सिद्धात
हमारी
सुरक्षा है।
हम यह सिद्धात
अनुभव से नहीं
जाने हैं। अगर
अनुभव से जाना
होता तो यह
मुल्क तो
गुलाम बनाया
ही नहीं जा
सकता, इस
मुल्क को तो
कोई दबा ही
नहीं सकता, क्योंकि
जिसकी आत्मा
अमर है, उसको
तुम क्या
दबाओगे? ज्यादा
से ज्यादा
धमकी मार
डालने की दे
सकते हो, वह
धमकी भी नहीं
दे सकते तुम
इस देश को।
आत्मा जिनकी
अमर है, उनके
ऊपर कोई धमकी
न चलेगी।
लेकिन दिखाई
उल्टा पड़ता है।
भयभीत लोग, मौत से डरे
हुए लोग मंत्र—जाप
कर रहे हैं
आत्मा की
अमरता के।
क्षुद्र में
पड़े हुए लोग
विराट की
घोषणा कर रहे
हैं। क्षुद्र
को छिपाने का
आयोजन तो नहीं
है विराट की
चर्चा? पाप
को छिपाने का
आयोजन तो नहीं
है पुण्य की चर्चा?
अगर
ऐसा है तो जनक
से अष्टावक्र
कहने लगे, तू
फिर से एक बार
भीतर उतर कर
देख, ठीक
से कसौटी
'अत्यंत
सुंदर और
शुद्ध चैतन्य
आत्मा को सुन
कर भी कैसे
कोई इंद्रिय—विषय
में अत्यंत
आसक्त हो कर
मलिनता को
प्राप्त होता
है!'
श्रुतापि—सुन
कर भी!
ध्यान
रखना, सुनने
से ज्ञान नहीं
होता। ज्ञान
तो स्वयं के
अनुभव से होता
है। श्रुति से
ज्ञान नहीं
होता, शास्त्र
से ज्ञान नहीं
होता।
हिंदुओं ने
ठीक किया है
कि शास्त्र के
दो खंड किए हैं—श्रुति
और स्मृति।
ज्ञान उसमें
कोई भी नहीं
है। कुछ
शास्त्र
श्रुतियां
हैं, कुछ
शास्त्र
स्मृतियां
हैं। न तो
स्मृति से ज्ञान
होता, न
श्रुति से
ज्ञान होता।
श्रुति का
अर्थ है सुना
हुआ, स्मृति
का अर्थ है
याद किया हुआ।
जाना हुआ दोनो
कोई भी नहीं
है।
श्रत्वगिप
शुद्धचैतन्यमात्मानमतिसुदरम्।
ऐसा
सुन कर कि
आत्मा अति
सुंदर है,
भ्रांति में
मत पड़ जाना।
मान मत लेना।
जब तक जान ही न
ले, जब तक
मानना मत।
विश्वास मत
कर लेना,
अनुभव को ही
आस्था बनने
देना। नहीं तो
ऊपर—ऊपर तू
मानता रहेगा—आत्मा
अति सुंदर है—और
जीवन के भीतर
वही पुरानी
मवाद, वही
इंद्रिय—आसक्ति,
वही वासना
के घाव बहते
रहेंगे, रिसते
रहेंगे।
'अत्यंत
सुंदर और
शुद्ध चैतन्य
आत्मा को सुन
कर भी कैसे
कोई इंद्रिय—विषय
में अत्यंत
आसक्त हो कर
मलिनता को
प्राप्त होता
है!'
इसे
ध्यान रख!
सुनने वाले
बहुत हैं। सुन
कर मान लेने
वाले बहुत हैं।
लेकिन उनके
जीवन में तो
देख। सुन—सुन
कर उन्होंने
मान भी लिया
है,
लेकिन फिर
भी मलिनता को
रोज प्राप्त
होते हैं।
मलिनता जाती
नहीं। जहां
मौका मिला, वहां फिर
तीसरा फरेब कि
तीन सौवां
फरेब, फिर
फरेब खाने को
तैयार हो जाते
हैं।
कितनी
बार तुमने
सोचा कि क्रोध
न करेंगे। तुम
भलीभांति सुन
कर जान चुके
हो कि क्रोध
पाप है, जहर
है, कुछ
लाभ नहीं; लेकिन
फिर भी जब
उठता है तब
तुम खो जाते
हो किसी
झंझावात में,
याद ही नहीं
रहती। जब
क्रोध जा चुका
होता है उजाड़
कर तुम्हारे भीतर
की सारी बगिया,
तब फिर याद
आती है, फिर
पश्चात्ताप
होता है। पर
फिर पछताए होत
का जब चिड़िया
चुग गई खेत!
फिर तुम
पछताते हो। यह
पुरानी आदत हो
गई है। क्रोध
कर लिया, पछता
लिया। फिर
क्रोध कर लिया,
फिर पछता
लिया। क्रोध
और
पश्चात्ताप
एक—दूसरे के
संगी—साथी हो
गए हैं; उनमें
कुछ फर्क नहीं
रहा है।
तुम्हारे पश्चात्ताप
ने क्रोध को
रोका तो नहीं।
साफ है कि
तुमने क्रोध
को अभी देखा
नहीं है; सुन—सुन
कर मान रखा है
कि बुरा है।
यह तुम्हारा
अपना आत्म—दर्शन
नहीं है।
मैं
एक कहानी पढ़ता
था। बौद्ध कथा
है।
श्रावस्ती
में एक सेठ था—मृगार।
उसके लड़के की
पत्नी थी
विशाखा।
विशाखा सुनने
जाती थी बुद्ध
को। मृगार कभी
कहीं सुनने
गया नहीं। वह
धन— लोलुप धन
के पीछे पागल
था। वह सबसे
बड़ा श्रेष्ठि
था श्रावस्ती
का।
श्रावस्ती
भारत की सबसे
ज्यादा धनी
नगरी थी और
मृगार उसका
सबसे बड़ा
धनपति था।
तुम्हें
शायद खयाल में
न हो,
जो शब्द
हिंदी में है
सेठ, वह श्रेष्ठि
का ही अपभ्रंश
है, श्रेष्ठ
का अपभ्रंश है।
अब तो सेठ
गाली जैसा
लगता है।
लेकिन कभी वह
श्रेष्ठतम
लोगों के लिए
उपयोग किया
जाता था।
नगर
का सबसे बड़ा, श्रावस्ती
का सबसे बड़ा
श्रेष्ठि था
मृगार, लेकिन
कभी बुद्ध को
सुनने न गया
था। विशाखा
उसकी सेवा
करती—अपने ससुर
की; उसके
लिए भोजन
बनाती। लेकिन
विशाखा को सदा
पीड़ा लगती थी
कि यह ससुर बूढ़ा
होता जाता है
और बुद्ध के
वचन भी इसने
नहीं सुने।
जानना तो दूर,
सुने भी
नहीं। इसका
जीवन ऐसे ही
धन, पद, वैभव
में बीता जा
रहा है। यह
जीवन यूं ही
रेत में गंवाए
दे रहा है। यह
सरिता ऐसे ही
खो जाएगी सागर
में पहुंचे
बिना।
तो
एक दिन जब
मृगार भोजन
करने बैठा और
विशाखा उसे
भोजन परोसती
थी,
तो वह कहने
लगी : तात! भोजन
ठीक तो है? सुस्वादु
तो है?
मृगार
ने कहा : सदा तू
सुंदर
सुस्वादु
भोजन बनाती है।
यह प्रश्न
तूने कभी पूछा
नहीं, आज तू
पूछती है, बात
क्या है? तेरा
भोजन सदा ही
सुस्वादु
होता है।
विशाखा
ने कहा. आपकी
कृपा है, अन्यथा
भोजन
सुस्वादु हो
नहीं सकता, क्योंकि यह
सब बासा भोजन
है। मैं दुखी
हूं कि मुझे
आपको बासा
भोजन खिलाना पड़ता
है।
मृगार
बोला पागल!
बासा! पर बासा
तू खिलाएगी क्यों? धन—धान्य
भरा हुआ है कोठियों
में, जो
तुझे चाहिए
प्रतिदिन
उपलब्ध है।
बासा क्यों?
उसने
कहा कि नहीं
मैं वह नहीं
कह रही, आप
समझे नहीं। यह
जो धन—धान्य
है, शायद
होगा आपके
पिछले जन्मों
के पुण्यों के
कारण; लेकिन
इस जीवन में
तो मैंने आपको
कोई पुण्य—पुरुषार्थ
करते नहीं
देखा। इस जीवन
में तो मैंने
आपको कोई
पुण्य—पुरुषार्थ
करते नहीं
देखा, इसलिए
मैं कहती हूं
यह सब बासा है।
होगा, पिछले
जन्मों में
आपने कुछ
पुण्य किया
होगा, इसलिए
धनी हैं।
लेकिन मैंने
अपनी आंखों से
जबसे आपके घर
में बहू हो कर
आई हूं मैंने
आपका कोई
पुण्य—प्रताप,
आपका कोई
पुण्य—पुरुषार्थ,
आपके जीवन
में कोई प्रेम,
कोई धर्म, कोई पूजा, कोई
प्रार्थना, कोई ध्यान, कुछ भी नहीं
देखा। इसलिए
मैं कहती हूं
यह पिछले
जन्मों के
पुण्यों से
मिला हुआ भोजन
बासा है तात!
आप
ताजा भोजन कब
करेंगे?
मृगार
आधा भोजन किए
उठ गया। रात
भर सो न सका।
बात तो सही थी, चोट
गहरी पड़ी।
दूसरे दिन
सुबह विशाखा
ने देखा, वह
भी बुद्ध के
वचन सुनने के
लिए मौजूद है,
वह भी सुन
रहा है। तब
सुन—सुन कर वह
ज्ञान की
बातें करने
लगा। वर्ष
बीतने लगे।
पहले वह ज्ञान
की बातें न
करता था, अब
वह ज्ञान की
बातें करने
लगा; लेकिन
जीवन वैसा का
वैसा रहा। फिर
विशाखा ने कहा
कि तात! आप अब
भी बासा ही
भोजन कर रहे
हैं, अब
ज्ञान का बासा
भोजन कर रहे
हैं। ये बुद्ध
के वचन हैं, आपके नहीं।
ये उनकी सुन
कर अब आप
दोहरा रहे हैं।
आप अपनी कब
कहेंगे? आप
जो गीत अपने
प्राणों में
ले कर आए हैं, वह कब प्रगट
होगा? प्रभु,
उसे प्रगट
करें। कुछ
आपके भीतर
छिपा पड़ा है
झरना, उसे
बहाएं! यह अब
भी बासा है।
तुम्हारा
धन भी बासा है, तुम्हारा
ज्ञान भी बासा
है। और बासा
होना ही पाप
है। सब पाप
बासे हैं।
पुण्य तो सदा
ताजा है, सद्यःस्वात!
अभी—अभी हुई
वर्षा में
ताजे खड़े हुए
फूल, अभी—अभी
ऊगे सूरज की
किरणों में
नाचती सुबह की
ताजी—ताजी
पत्तियां—ऐसा
पुण्य है।
ज्ञान
को सुन कर सब
कुछ मत मान
लेना। जब तक
जान न लो, तब तक
रुकना मत।
'सब भूतों
में आत्मा को
और आत्मा में
सब भूतों को
जानते हुए भी
मुनि को ममता
होती है—यही
आश्चर्य है। '
अष्टावक्र
कहने लगे, मुनियों
को देखो, साधु—संन्यासियों
को देखो, संतों
को देखो! कहते
हैं सब भूतों
में आत्मा है
और आत्मा में
सब भूत हैं, फिर भी मुनि
को ममता होती
है! तो जरा
जल्दी न करो
जनक! कहीं तुम
भी ऐसे मुनि
मत बन जाना।
ऊपर—ऊपर से तो
कहे चले जाते
हैं लोग कि
हमारी कोई ममता
नहीं, सब
छोड़ दिया है...!
एक
जैन साध्वी, मैं
दिल्ली जाता
था, तो
मुझे मिलने
आयी। मेरी
बातें सुन कर
उसे लगने लगा
कि वह जिस जाल में
है, उसके
बाहर हो जाए।
मैंने कहा, अपने गुरु
से पहले बात
कर। उसने अपने
गुरु को कही, तो गरु तो
बहुत नाराज हो
गए। गुरु ने
तो कहा कि मुझसे
मिलना चाहते
हैं। मुझसे
मिले तो बड़े
नाराज थे।
नाराजगी में
भूल ही गए वे।
वे कहने लगे
कि यह साध्वी
अगर छोड़ कर
चली जाएगी तो
हमारे
संप्रदाय की
बड़ी हानि होगी।
फिर इस साध्वी
से हमारी बड़ी
ममता है। यह
हमारे बुढ़ापे
का सहारा है।
वे
काफी बूढ़े हो
गए थे। मैंने
कहा,
यह तो बात
वैसी की वैसी
है जैसे कोई
बाप कहता है
कि यह बेटा
हमारे बुढ़ापे
का सहारा है; कोई मा कहती
है, यह
बेटी हमारे
बुढ़ापे का
सहारा है। यह
तो घर—गृहस्थी
की बात हो गई।
यह साधु को
शोभा नहीं
देती। अगर इस
साध्वी को ऐसा
लग रहा है कि
इसके जीवन में
स्वतंत्रता
घटित होगी इस
जाल के बाहर
निकलने से, तो तुम्हारा
आशीर्वाद दो।
अगर तुम्हें
इससे ममता है
तो अपनी ममता
को तुम अपनी
समस्या समझो,
उसको
सुलझाने की
कोशिश करो, मरने से
पहले ममता
छोड़ो।
तब
वे थोड़े चौंके।
कहने लगे, बात
तो ठीक है।
ममता होनी
नहीं चाहिए
लेकिन ममता है।
बेटे—बेटियों
से ममता छूटती
है तो शिष्य—शिष्याओं
से हो जाती है।
ममता थोड़े ही
हटती है। घर
से छूटती है
तो मंदिर से
हो जाती है।
दूकान से
छूटती है तो
आश्रम से हो
जाती है। ममता
थोड़े ही छूटती
है। 'मेरा'
नए—नए आश्रय
बनाता चला
जाता है। एक
आश्रय उजाड़ो,
वह उसके
पहले दूसरी
जगह आश्रय बना
लेता है। एक
नीड़ गिराओ, दूसरी जगह
नीड़ बना लेता
है। लेकिन 'मेरा' तो
बचता ही चला
जाता है।
अष्टावक्र
ने कहा, सब
भूतों में
आत्मा को और
आत्मा में सब
भूतों को
जानते हुए भी
मैं तुमसे
कहता हूं जनक,
ऐसे मुनि
हैं, जिनको
ममता होती है।
असली आश्चर्य
तो यही है।
तुम: क्या
आश्चर्य की
बात कर रहे हो
कि शुद्ध—बुद्ध
आत्मा कैसे
संसार में पड़
गई! छोड़ो यह फिक्र।
उससे बड़े
आश्चर्य
मैंने देखे
हैं। मुनि हो
गए हैं, सब
छोड़ दिया है, घोषणा भी कर
दी...!
सर्वभूतेट्ट
चात्मानं
सर्वभूतानि
चात्मनि।
मुनेजनित
आश्चर्य ममत्वमनुवर्तते।।
मैं
तुम्हें असली
आश्चर्य
बताता हूं।
जिन्होंने सब
छोड़ दिया, फिर
भी कुछ छूटा
नहीं, ममता
मौजूद है—इससे
बड़ा चमत्कार
तुम देखोगे!
साधु भी
गृहस्थ है, संन्यासी भी
बंधा है।
मोक्ष की
आकांक्षा
करने वाले अभी
संसार में ही
भटक रहे हैं।
बातें मोक्ष
की हैं, प्राण
संसार में
अटके हैं। तो
जरा सोच कर
करना, एकदम
जल्दी मुनि मत
बन जाना।
क्योंकि यह
चमत्कार होता
है।
अष्टावक्र
निश्चित ही
कठोर गुरु रहे
होंगे। कठोर
गुरु होना ही
चाहिए। गुरु
कठोर न हो तो
करुणावान
नहीं। उसकी
कठोरता ही
उसकी करुणा है।
वे कसने लगे, खूब
ठोंकने लगे।
जनक भी घबड़ाया
होगा। जनक ने
तो पहले सोचा
होगा कि इतनी
ऊंची बातें कहीं,
गुरु एकदम
छाती से लगा
लेंगे कि
धन्यभाग! कि तू
उपलब्ध हो
गया! लेकिन ये
गुरु भी खूब
हैं! ये अष्टावक्र
तो उल्टी डांट
पिलाने लगे।
मगर
अष्टावक्र ने
ठीक किया।
कसौटियों से
गुजर कर ही सोने
की परख होती
है,
आग से गुजर
कर ही सोना
कुंदन बनता है।
'परम अद्वैत
में आश्रय
किया हुआ और
मोक्ष के लिए
भी उद्यत हुआ
पुरुष काम के
वश हो कर
क्रीड़ा के
अभ्यास से
व्याकुल होता
है—यही
आश्चर्य है। '
आदमी
मरते—मरते दम, मर
रहा हो, आखिरी
क्षण तक भी, मौत द्वार
पर दस्तक दे
रही हो, तब
तक भी
कामवासना से
पीड़ित होता है।
और साधारण
आदमी नहीं—परम
अद्वैत में
आश्रय किया
हुआ! जो परम
अद्वैत में
अपनी आस्था की
घोषणा कर चुका
है, जो
कहता हमने घर
बना लिया
भगवान में, वह भी! और
मोक्ष के लिए
उद्यत हुआ भी;
वह जो कहता
है हम मोक्ष
की तरफ प्रयाण
कर रहे हैं, वह भी!
'..
……पुरुष काम
के वश हो कर
क्रीड़ा के
अभ्यास से व्याकुल
होता है—यही
आश्चर्य है। '
पुरानी
आदतें जाती
नहीं। बोध भी
आ जाता है तो
पुरानी आदतें
लौट—लौट कर
हमला करती हैं।
आदतें बदला
लेती हैं।
मैंने
सुना है, एक
अंधा और एक
लंगड़ा दो
मित्र थे—दोनों
भिखारी। और
दोनों की
मित्रता एकदम
जरूरी भी थी, क्योंकि एक
अंधा था और एक
लंगड़ा था।
लंगड़ा चल नहीं
सकता था, अंधा
देख नहीं सकता
था। तो अंधा
चलता था और
लंगड़ा देखता
था। लंगड़ा
अंधे के कंधों
पर बैठ जाता, दोनों
भिक्षा मांग
लेते।
साझेदारी थी
भिखारी की
दूकान में।
लेकिन कभी—कभी
झगड़ा भी हो
जाता था; जैसा
सभी
साझेदारों
में होता है।
कभी एक ज्यादा
ले लेता, दूसरा
कम ले लेता।
या लंगड़ा चकमा
दे देता अंधे
को, तो
झगड़ा हो जाता
था। एक दिन
झगड़ा इतना बढ़
गया कि मारपीट
हो गई। मारपीट
हो गई और
दोनों ने कहा
कि अब यह
साझेदारी
खत्म, यह
पार्टनरशिप
बंद, अब
नहीं करते। अब
अपनी तरफ से
ही घिसट लेंगे,
मगर यह नहीं
चलेगा। यह तो
काफी धोखा चल
रहा है।
कहते
हैं,
परमात्मा
को बड़ी दया आई।
पहले आती रही
होगी अब नहीं
आती। क्योंकि
परमात्मा भी
थक गया दया कर—कर
के, कुछ
सार नहीं।
आदमी कुछ ऐसा
ह,ऐ कि तुम
दया करो तो भी
उस तक दया
पहुंचती नहीं।
परमात्मा भी
थक गया होगा।
पर यह पुरानी
कहानी है, दया
आ गई।
परमात्मा
मौजूद हुआ, प्रगट हुआ।
उसने उस दिन
सोचा कि आज
दोनो को
आशीर्वाद दे दूंगा।
अंधे के पास
जा कर कहूंगा
मांग ले जो
तुझे मांगना
है। स्वभावत:
अंधा मांगेगा
कि मुझे आंखें
दे दो, क्योंकि
वही उसकी पीड़ा
है,। लंगड़े
से कहूंगा, जो तुझे
मांगना है तू
मांग ले। वह
मांगेगा पैर,
उसको पैर दे
दूंगा। अब
दोनों को
स्वतंत्र कर
देना उचित है।
वह
गया,
लेकिन रोता
हुआ वापिस
लौटा।
परमात्मा
रोता हुआ
वापिस लौटा!
क्योंकि अंधे से
जब उसने कहा
कि मैं
परमात्मा हूं
तुझे वरदान
देने आया हूं
मांग ले जो
मांगना है—उसने
कहा कि लंगडे
को कर दो। जब
उसने लगडे से
कहा तो लंगडे
ने कहा कि
अंधे को लंगडा
कर दो प्रभु। 'ऐसे
ही
अज्ञनुभवों
के कारण उसने
आना भी जमीन
पर धीरे—धीरे
बंद कर दिया।
कोई सार नहीं
है। बीमारी
दुगुनी गई।
आने से कुछ
फायदा न हुआ।
दया का परिणाम
और घातक हो
गया।
आदमी
की आदतें! दुख
भी आदत है! अगर
तुम्हारे सामने
परमात्मा खड़ा
हो जाए तो तुम
जो मांगोगे, उससे
तुम और दुख
खड़ा कर लोगे।
तुम्हारी
पुरानी आदत ही
तो मांगेगी न!
अगर अंधे में
थोड़ी भी अक्ल
होती तो वह
कहता है प्रभु, जो तुम्हे
ठीक लगता हो, मेरे योग्य
हो, वह दे
दो। क्योंकि मै
तो जो भी
मांगता, वह
गलत गलत होगा।
क्योंकि में
अब तक गलत रहा
हूं। मेरी उस
गलत चेतना मे
से तो मेरी
मांग भी आएगी।
नहीं, मैं न
मांगता, तुम
जो दे दो!
तुम्हारी
मर्जी पूरी
हो! तुम ज्यादा
ठीक से देखोगे।
तुम मुझे मेरे
योग्य हो।
अंधे
ने मांगा, वहीं
भूल हो गई।
लंगड़े ने
मांगा, वहीं
भूल हो गई।
आदतें पुरानी
थीं और अभी भी
क्रोध का जहर
बाकी था। तो
परमात्मा भी
सामने खड़ा था,
फिर भी चूक
गए। आदमी के
सामने कई बार
मोक्ष की घड़ी
आ जाती है, फिर
भी आदमी चूक
जाता है (
क्योंकि
पुरानी आदतें
हमला करती हैं
और मोक्ष की
घड़ी में बड़ी
जोर से हमला
करती हैं।
क्योंकि
आदतें भी अपनी
रक्षा करना
चाहती हैं। हर
आदत अपनी
रक्षा करती है,
टूटना नहीं
चाहती।
मेरे
देखे दुनिया में
अधिक लोग दुखी
इसलिए नहीं है
कि दुख के कारण
हैं। सौ में
निन्यानबे
मौके पर तो
कोई कारण नहीं
सिर्फ आदत है।
कछ लोगों ने
दुख का गहन
अभ्यास कर
लिया है। वह
अभ्यास ऐसा हो
गया है, कि
छोड़ते नहीं बनता।
उसमें ही तो
उन्होंने
अपना सारा
जीवन लगाया है,
आज एकदम से
छोड़ भी कैसे
दे न:
मैं
एक किताब पढ़
रहा था। एक
बहुत अनूठी
किताब है, सभी
को पढ़नी चाहिए
उससे सभी को
लाभ होगा।
किताब का नाम
है : हाउ टू मेक
युअरसैल्फ
मिजरेबल; वस्तुत:
दुखी कैसे हों?
और निश्चित
ही लिखने वाले
ने ( डान ग्रीन
वर्ग ) ने बड़ी
खोज की है।
उसने सारे
नियम साफ कर
दिए हैं कि
कहीं कोई चूक
न रह जाए। सब
नियम साफ कर
दिए हैं! थोड़े
से तुम भी
अभ्यास करते
हो, उनमें
से अनजाने; मगर अगर
किताब पढ़ लोगे
तो तुम जान—बूझ
कर, ठीक से,
व्यवस्था
से अभ्यास कर
सकोगे। शायद
कुछ भूल—चूक
हो रही हो और
तुम्हारा दुख
परिपूर्ण न हो
पा रहा हो।
दुख
के अभ्यासी
हैं लोग।
कामवासना एक
बड़ा प्राचीन
अभ्यास है—सनातन—पुरातन!
जन्मों—
जन्मों में
उसका अभ्यास
किया है। कभी
उससे कुछ पाया
नहीं, सदा
खोया, सदा
गंवाया; लेकिन
अभ्यास रोएं—रोएँ
में समा गया
है।
आस्थित:
परमाद्वैतं
मोक्षार्थेउपि
व्यवस्थित:।
—वह जो मोक्ष
के लिए तैयार
है और वह जो
परम अद्वैत
में अपनी
आस्था की
घोषणा कर चुका
है।
आश्चर्य
कामवशगो विकल:
केलिशिक्षया।
केलिशिक्षया—पुरानी
कामवासना की
शिक्षा के
कारण, अभ्यास
के कारण!
आश्चर्य
कामवशगो विकल:
केलिशिक्षया।
—पुराने
अभ्यास के कारण
बार—बार विकल
हो जाता है।
मौत
के क्षण में
तक आदमी
कामवासना के
सपनों से भरा
होता है।
ध्यान करने
बैठता है, तब
भी कामवासना
के विचार ही
मन में दौड़ते
रहते हैं।
मंदिर जाता, मंदिर में
बाहर से दिखाई
पड़ता, भीतर
से शायद
वेश्यालय में
हो।
इसलिए
अष्टावक्र
कहते हैं, जनक,
जल्दी मत कर।
ये जाल बड़े
पुराने हैं।
तू ऐसा एक
क्षण में
मुक्त हो गया?
अष्टावक्र
यह नहीं कह
रहे हैं कि तू
मुक्त नहीं
हुआ।
अष्टावक्र की
तो पूरी धारणा
ही यही है कि
तत्क्षण
मुक्त हुआ जा
सकता है।
लेकिन वे जनक
को सब तरफ से
सावचेत कर रहे
हैं कि कहीं
से भी भ्रांति
न रह जाए। यह
मुक्ति अगर हो
तो सर्वांग हो, यह
कहीं से भी
अधूरी न रह
जाए। कहीं से
भी रोगाणु फिर
वापिस न लौट आएं।
'काम को
ज्ञान का
शत्रु जान कर
भी, कोई
अति दुर्बल और
अंतकाल को
प्राप्त
पुरुष काम—
भोग की इच्छा
करता है—यही
आश्चर्य है।'
उद्भूत
ज्ञानदुर्मित्रम्
अवधार्य अति
दुर्बल: च
अंतकालम्
अनुश्रित
कामम्
आकाक्षेत
आश्चर्यम्!
तू
क्या आश्चर्य
की बातें कर
रहा है जनक, असली
आश्चर्य हम
तुझे बताते
हैं—अष्टावक्र
कहते है—कि मर
रहा है आदमी, सब जीवन—ऊर्जा
क्षीण हो गई, सब जीवन
बिखर गया, फिर
भी कामवासना
बची है। सिवाय
कड़वे तिक्त
स्वाद के कुछ
भी नहीं छूटा है।
सिवाय विषाद
और घावों के
कुछ भी नहीं
बचा है। सारा
जीवन एक
विफलता थी, फिर भी
कामवासना बची
है। कठिन है, दुस्तर है; क्योंकि
अभ्यास अति
प्राचीन है।
तो तू ठीक से
निरीक्षण कर
ले, निदान
कर ले, अंतश्चेतन
में उतर, अचेतन
में उतर।
वस्तुत:
जिसको
फ्राँयड ने
अनकाशस, अचेतन
कहा है—अष्टावक्र
उसी की तरफ
इशारा कर रहे
है—कि तेरे
चेतन में तो
प्रकाश हो गया,
लेकिन तेरे
अचेतन की क्या
गति है? तेरे
बैठक के कमरे में
तो सब साफ—सुथरा
हो गया, लेकिन
तेरे तलघरे की
क्या स्थिति
है? अगर तलघरे
में आग जल रही
है तो धुआ
जल्दी ही
पहुंच जाएगा
तेरे
बैठकखाने में
भी। और अगर
तलघरे में
गंदगी भरी है
तो तू बैठकखाने
में कब तक
सुवास को कायम
रख सकेगा?
उतर भीतर सीढ़ी—सीढ़ी।
खोज बीजों को
अचेतन में, और वहां
दग्ध कर ले।
और अगर तू
वहां न पाए तो
फिर ठीक हुआ।
तो फिर जो हुआ,
ठीक हुआ।
दुख, तृष्णा,
काम लोभ
क्रोध सभी
बीमारियां
हमारे सतत
अभ्यास के फल
हैं। यह अकारण
नहीं है, हमने
बड़ी मेहन,त
से इन,को
सजाया—संवारा
है। हमने बड़ा
सोच—विचार
किया है। हमने
इनमें बड़ी धन—संपत्ति
लगाई है। हमने
बड़ा न्यस्त
स्वार्थ
इनमें रचाया
है। यह हमारा
पूरा संसार है।
जब
कोई आदमी कहता
है कि मैं दुख
से मुक्त होना
चाहता हूं तो
उसे खयाल करना
चाहिए कि वह
दुख के कारण
कुछ लाभ तो
नहीं ले रहा
है,
कोई फसल तो
नहीं काट रहा
है? अगर
फसल काट रहा
है दुख के
कारण तो दुख
से मुक्त होना
भला चाहे, हो
न सकेगा।
अब
कुछ लोग ह,ऐं
जिनका कुल सुख
इतना ही है कि
जब वे दुख में
होते हैं तो
दूसरे लोग
उन्हें
सहानुभूति
दिखलाते हैं।
तुमने देखा, पत्नी ऐसे
बड़ी प्रसन्न
है, रेडियो
सुन रही है।
पति घर की तरफ
आना शुरू हुए,
तो रेडियो
बद, सिरदर्द.......
एकदम सिरदर्द
हो जाता है!
ऐसा मैंने
देखा, अनेक
घरों में मैं
ठहरा हूं इसलिए
कहा रहा हूं। मैं
देख रहा था कि
अभी पत्नी
बिलकुल सब ठीक
थी, मुझसे
ठीक से बात कर
रही थी। यह सब, और तब पति के
आने का हार्न
बजा नीचे और
वह गई अपने
कमरे में और
लेट गई और पति
मुझे बताने
लगे कि उसके
सिर में दर्द
है। यह हुआ
क्या मामला? मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
दर्द नहीं है।
दर्द होगा, मगर दर्द के
पीछे कारण है
गहरा। पति
सहानुक्भूति
ही तब देता है,
पास आ कर
बैठ कर सिर पर
हाथ ही तब
रखता है, जब
दर्द होता है।
यह स्वार्थ है
उस दर्द में।
दर्द वस्तुत:
हो गया होगा, क्योंकि वह
जो आकांक्षा
है कि कोई हाथ
माथे पर रखे...
और पति बिना
दर्द के तो हाथ
रखता नहीं।
अपनी पत्नी के
माथे पर कौन
हाथ रखता है!
वह तो मजबूरी
है कि अब वह
सिरदर्द बना
कर बैठी है, अब करो भी
क्या! हालांकि
उसको अपना
अखबार पढ़ना है
किसी तरह, लेकिन
सिर पर हाथ रख
कर बैठा है।
अब
यह सिर पर हाथ
रखने की जो
भीतर कामना है—कोई
सहानुभूति
प्रगट करे, कोई
प्रेम जाहिर
करे, कोई
ध्यान दे—अगर
यह तुम्हारे
दुख में
समाविष्ट है,
तो तुम लाख
कहो हम दुख से
मुक्त होना
चाहते हैं, तुम मुक्त न
हो सकोगे।
क्योंकि तुम
एक हाथ से तो
पानी सींचते
रहोगे और
दूसरे हाथ से
शाखाएं काटते
रहोगे। ऊपर से
काटते भी
रहोगे, भीतर
से सींचते भी
रहोगे। इससे
कभी छुटकारा न
होगा। देखना,
दुख में
तुम्हारा कोई
नियोजन तो
नहीं है, इनवेस्टमेंट
तो नहीं है?
मंजर
रहीने—यास है, नाजिर
उदास है,
मंजिल
है कितनी
मुसाफिर उदास
है।
परवाज
में कब आएगी
रिफअत खयाल की
नारस
हैं बालो—पर, ताइर
उदास है।
तख्तीके
शाहकार का इम्कां
नहीं अभी,
अशआर
बेकरार है, शायर
उदास है।
मुद्दत
से यात्री को
तरसती है
मूर्ति,
सुनसान
कोहसार का
मंदिर उदास है।
एहसासो—फिक्र
दोनों का
हासिल है
इस्तिराद
शायर
है महूवे —यास मुवक्सिर
उदास है।
यहां
सभी उदास हैं।
पक्षी उदास है, उड़
नहीं पाता। हो
सकता है, सोने
के पिंजड़े से
मोह लग गया हो।
यहां कवि उदास
है, क्योंकि
उदासी के गीत
ही लोग सुनते
हैं और तालियां
बजाते हैं।
यहां विचारक
उदास है, क्योंकि
हंसते और
आनंदित आदमी
को तो लोग
पागल समझते
हैं, विचारक
कौन समझता है?
यहां सब
उदास हैं। इस
उदासी से भरे
वातावरण में,
उदासी के
पार होना बड़ा
मुश्किल
मालूम होता है।
यहां की हवा
उदास है। यहां
की हवा में
कामवासना है,
क्रोध है, लोभ है, मोह
है। यहां
मोक्ष की किरण
को उतारना बड़ा
कठिन है।
लेकिन
जनक के जीवन
में किरण उतरी
है। उतरी है, इसलिए
अष्टावक्र सब
तरह से
परीक्षा कर
लेना चाहते
हैं—कहीं भूल—चूक
न हो जाए कहीं
कोई छिद्र न
रह जाए! इस
महाकरुणा के
वश, वे ऐसे
कठोर वचन जनक
को बोलने लगे
कि तू जरा देख
तो! तू भी कहीं
उसी जाल में न
पड़ जाना, जिसमें
बहुत मुनि पड़े
हैं, बहुत
ज्ञानी पड़े
हैं। बहुत—से
समझदार
नासमझियों
में उलझे हैं।
बहुत—से पंडित
शास्त्रों
में दबे हैं।
और बहुत—से
त्याग की
बातें करने
वाले भीतर अभी
भी धन की
आकांक्षा से
भरे हैं। इन
सबकी ठीक से
तू जांच—पड़ताल
कर ले। यह सब न
हो, तब
तेरी उदघोषणा
में सत्य है।
हरि
ओंम तत्सत्!
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