दिनांक:
30 सितंबर, 1976;
श्री रजनीश
आश्रम, पूना।
प्रश्न
सार:
पहला
प्रश्न :
आप
आज मौजूद हैं, तो
भी मनुष्य नीचे
और नीचे की ओर जा
रहा है; जबकि
बद्धों के आगमन
पर मनुष्यता कोई
शिखर छूने लगती
है। हजारों आंखें
आपकी ओर लगी हैं
कि शायद आपके द्वारा
फिर नवजागरण होगा
और धर्म का जगत
निर्मित होगा।
कृपया बताएं कि
यह विस्फोट कब
और कैसे होगा?
क्योंकि बदलना
तो दूर, उलटे
लोग आपका ही विरोध
कर रहे हैं।
पहली बात, मनुष्यता
सदा ऐसी की ऐसी
ही रही है। कुछ
विरले मनुष्य बदलते
हैं, मनुष्यता
जरा भी नहीं
बदलती बाहर
की स्थितियां बदलती
हैं,
व्यवस्थाएं
बदलती हैं, भीतर मनुष्य
वैसा का ही वैसा
रहता है! तो पहले
तो इस भ्रांति
को छोड़ दो कि आज
का मनुष्य पतित
हो गया है।
सदा
का मनुष्य ऐसा
ही था। बुद्ध के
समय में भी लोग
ऐसे ही प्रश्न
पूछते हैं बुद्ध
से,
कि आज का मनुष्य
पतित हो गया है,
आप कुछ करें।
लाओत्सु से भी
ऐसे ही प्रश्न,
कन्फ्यूशियस
से भी ऐसे ही प्रश्न।
पुराने से पुराना
शास्त्र खोज लें,
पुराने से पुराना
शास्त्र यही रोना
रोता है कि मनुष्य
पतित हो गया है।
बेबिलोन
में छह हजार वर्ष
पुरानी एक ईंट
मिली है जिस पर
शिलालेख है। उस
शिलालेख में यही
लिखा है कि आज के
मनुष्य को क्या
हो गया, पतित हो
गया!
छह
हजार साल पहले
भी यही बात है।
हर समय के आदमी
ने ऐसा सोचा है
कि आज का मनुष्य
पतित हो गया है।
इसके पीछे कुछ
मनोवैज्ञानिक
कारण हैं। अतीत
के मनुष्यों का
तो तुम्हें पता
नहीं। उनके संबंध
में तो तुम कुछ
भी नहीं जानते।
बुद्ध के संबंध
में तो तुम कुछ
जानते हो, लेकिन
बुद्ध किन मनुष्यों
के बीच जी रहे थे,
उनके संबंध में
तुम कुछ भी नहीं
जानते हो। बुद्ध
के संबंध में तो
शास्त्र हैं,
उनकी महिमा के
गीत हैं, उनकी
महिमा के गीत को
तुम उस समय की मनुष्यता
की महिमा मत समझ
लेना। अगर सच में
ही बुद्ध के समय
के लोग ऊंचे होते
तो बुद्ध की कौन
फिक्र करता? अंधेरे काले
बादलों में ही
बिजली चमकती है।
बुद्ध इतने बड़े
होकर दिखाई पड़े,
यह छोटे मनुष्यों
के कारण ही संभव
था। अगर बुद्ध
जैसे ही मनुष्य
होते बड़ी संख्या
में तो बुद्ध को
कौन पूछता? कौन खयाल करता?
सोचो, कोहिनूर
हीरा कीमती है,
क्योंकि अकेला
है। अगर गाव, गली—कूचे, राह के किनारे,
नदी के तटों
पर कोहिनूरों के
ढेर लगे होते तो
कोहिनूर को कौन
पूछता?
राम
की हम याद करते
हैं,
क्योंकि जमाना
राम जैसा नहीं
था। कृष्ण की हम
याद करते हैं,
क्योंकि जमाना
कृष्ण जैसा नहीं
था। जमाना तो रावण
जैसा रहा होगा
और जमाना तो कंस
जैसा रहा होगा।
आदमी
सदा से ऐसा ही है।
लेकिन अतीत के
संबंध में एक धारणा
बन जाती है कि अतीत
सुंदर था, क्योंकि
अतीत के सुंदरतम
लोगों की खबरें
तुम तक आती हैं,
अतीत के सुंदरतम
गीत गूंजते हुए
सदियों में तुम्हारे
पास आते हैं। बाजार
की भीड़— भाड़, छीना—झपटी तो
भूल जाती है, सुंदरतम बचता
है; फूल बचते
हैं, काटे तो
भूल जाते हैं।
और
आज,
जो तुम्हारे
निकट लोग हैं उनमें
तुम्हें काटे दिखाई
पड़ते हैं; कांटे
ही कांटे सब तरफ
दिखाई पड़ते हैं।
समसामयिक बुद्धपुरुष
दिखाई भी नहीं
पड़ता, क्योंकि
इतने कीटों की
भीड़ में भरोसा
भी करना मुश्किल
है कि गुलाब का
फूल खिल सकता है।
तो
जब कोई बुद्धपुरुष
मौजूद होता है, उस
पर भरोसा नहीं
आता; क्योंकि
बुद्धपुरुष तो
एक होता है और अबुद्धपुरुष
अरबों—खरबों होते
हैं। भरोसा आए
भी कैसे? लेकिन
जब समय बीत जाता
है तो उस एक की तो
याद गूंजती रहती
है और उन अनेकों
का विस्मरण हो
जाता है। तब तुम्हारे
सब मूल्यांकन अस्तव्यस्त
हो जाते हैं।
आदमी
सदा से ऐसा ही रहा
है। न तो अतीत के
समय का आदमी श्रेष्ठ
था,
न तुम निकृष्ट
हो। न अतीत के समय
का आदमी निकृष्ट
था, न तुम श्रेष्ठ
हो। आदमी आदमी
जैसा है, चीजों
में फर्क पड़ गए
हैं। यह बात निश्चित
है कि अतीत का आदमी
फिएट कार की आकांक्षा
नहीं करता था,
क्योंकि फिएट
कार नहीं थी। इससे
तुम यह मत सोच लेना
कि आज आदमी बड़ा
पतित हो गया है,
देखो फिएट कार
की आकांक्षा करता
है। अतीत का आदमी
एक शानदार घोड़े
की आकांक्षा करता
था, एक अच्छी
बग्घी की आकांक्षा
करता था, रथ
की आकांक्षा करता
था। आकांक्षा वही
है। बग्घी की जगह
फिएट आ गई, आकांक्षा
में कोई फर्क नहीं
पड़ा है।
अतीत
का आदमी ऐसा ही
लोभी था, ऐसा ही
कामी था, ऐसा
ही क्रोधी था;
नहीं तो बुद्धपुरुष
पागल हैं जो समझाएं
कि क्रोध मत करो,
वासना में मत
पड़ो, जो लोगों
को समझाएं, लोभ छोड़ो। तुम्हारे
सारे शास्त्र शिक्षा
क्या देते हैं?
शिक्षा किसको
दी जाती है? अगर लोग अलोभी
थे तो बुद्ध पागल
थे जो लोगों को
कहते कि लोभ छोड़ो।
लोग तो लोभ छोड़े
ही हुए थे—वे कहते,
आप भी बातें
क्या कर रहे हैं?
लोभी यहां है
कौन? चालीस
साल निरंतर बुद्ध
गांव—गांव घूम
कर लोगों को समझाते
रहे. लोभ छोड़ो,
ईर्ष्या छोड़ो,
महत्वाकांक्षा
छोड़ो, अहंकार
छोड़ो! निश्चित
ही ये बातें लोगों
में रही होंगी,
अन्यथा ये औषधियां
किसको बांटी जा
रही थीं ? लोग
बीमार रहे होंगे।
तुम्हारे
शास्त्र गवाह हैं
कि किस लोगों के
बीच में लिखे गए
होंगे। जो बीमारी
होती है उसकी चिकित्सा
का आयोजन करना
होता है लोग कामी
रहे होंगे इसलिए
तो ब्रह्मचर्य
की इतनी प्रशंसा
है। अगर लोग ब्रह्मचारी
ही थे तो की प्रशंसा
का क्या प्रयोजन
था?
लाओत्सु
ने कहा है : अगर लोग
धार्मिक हों तो
धर्म—शास्त्र व्यर्थ।
ठीक कहा है। अगर
लोग सचमुच धार्मिक
हों तो धर्म —शास्त्र
की क्या जरूरत?
या
दूसरी तरफ से देखें।
कृष्ण ने कहा है
कि जब—जब धर्म की
हानि होगी मैं
आऊंगा। तो उस वक्त
क्यों आए थे? धर्म
की हानि हो गई होगी।
सीधी—सी बात है.
जब—जब अंधेरा घिरेगा,
साधु—संत सताए
जाएंगे, तब—तब
आऊंगा। तो उस समय
यह घड़ी घट गई होगी।
अगर
तर्क को ठीक से
समझें, तो जब तुम्हारे
घर में कोई बीमार
होता है तभी वैद्य
को बुलाते हैं।
जब कोई समाज पतित
होता है तो उसे
उठाने की चेष्टा
होती है।
इतने
अवतार, इतने तीर्थंकर
किसलिए पैदा होते
हैं? कहीं—न—कहीं
आदमी गलत रहा होगा।
तो, पहली तो
बात यह समझ लेना
कि आदमी सदा से
ऐसा ही है।
यह
जो हमें भांति
पैदा होती है, इसके
पीछे और भी कारण
हैं। सभी को ऐसा
खयाल है कि बचपन
बड़ा सुंदर था,
स्वर्णिम! सभी
को! हालांकि बच्चों
से पूछो, कोई
बच्चा इस बात के
लिए राजी नहीं
कहने को कि स्वर्णिम
काल बचपन है। बच्चे
जल्दी से जल्दी
बड़े होना चाहते
हैं। बच्चा बाप
के बगल में कुर्सी
पर खड़ा हो जाता
है और कहता है,
देखो तुमसे.।
वह उसकी आकांक्षा
का सबूत है; वह चाहता है,
तुमसे बड़ा हो
जाए।
एक
छोटे बच्चे को
स्कूल में एक शिक्षक
ने मारा उसने कुछ
भूल—चूक की थी।
मारने के बाद उसे
फुसलाया, समझाया
और कहा, 'बेटा
देख, यह मैं
हूं इसीलिए कि
तुझे मैं प्रेम
करता हूं। ' उस बेटे ने आंख
से आंसू पोंछते
हुए कहा कि प्रेम
तो मैं भी आपको
बहुत करता हूं, लेकिन प्रमाण
अभी दे नहीं सकता।
छोटे
बच्चों से पूछो, वे
जल्दी से जल्दी
बड़े हो जाना चाहते
हैं। लेकिन बाद
में याद रह जाती
है सिर्फ कि बचपन
बड़ा सुंदर था।
कैसे हो सकता है
बचपन सुंदर? क्योंकि तुम
बचपन में बिलकुल
ही परतंत्र थे,
हर बात के लिए
असहाय थे, दीन
थे और हर बात के
लिए तुम्हें किसी
का मुंह तकना पड़ता
था। ऐसी परतंत्र
अवस्था, ऐसी
स्वतंत्रता—हीन
अवस्था कैसे सुंदर
हो सकती है? लेकिन बाद में
यही याद रह जाती
है कि बचपन बड़ा
सुंदर था।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, इसके
पीछे एक कारण है।
आदमी का मन, जो दुखपूर्ण
है उसे भुला देता
है, क्योंकि
दुख को याद रखना
कठिन है। दुख इतना
ज्यादा है कि अगर
हम दुख को याद रखें
तो हम जी न सकेंगे।
तो जो दुखपूर्ण
है उसे हम हटा देते
हैं, उसे हम
अचेतन में, गर्त में डाल
देते हैं। और जो
सुखद—सुखद है उसकी
फूलमाला बना लेते
हैं, जैसे—जैसे
हम आगे बढ़ते जाते
हैं जो सुखद है,
उसको इकट्ठा
करते जाते हैं।
जो सुखद नहीं है
उसे छोड़ते चले
जाते हैं। तो पीछे
के संबंध में हम
जो भी वक्तव्य
देते हैं, वे
सब गलत होते हैं।
और
यही स्थिति बड़े
पैमाने पर समाज
के संबंध में सही
है। हम सोचते हैं
कि अतीत में सब
सुंदर था; सब
स्वर्णयुग अतीत
में हो चुके। यह
बात हर हाल में
गलत है, क्योंकि
अगर अतीत इतना
सुंदर था तो यह
वर्तमान उसी अतीत
से पैदा हुआ है,
यह और भी सुंदर
होना चाहिए। अगर
बचपन इतना सुंदर
था तो जवानी उसी
बचपन से आई है,
यह बचपन से ज्यादा
सुंदर होनी चाहिए।
अगर जवानी सुंदर
थी तो बुढ़ापा जवानी
से आया है, बुढ़ापा
जवानी से भी ज्यादा
सुंदर होना चाहिए।
और अगर जीवन तुम्हारा
सचमुच आह्लाद था
तो मृत्यु भी नृत्य
होगी, उत्सव
होगी, क्योंकि
मृत्यु उसी जीवन
का सार—निचोड़ है।
लेकिन
तुम तो देखते हो
कि बचपन सुंदर
था जवानी से, जवानी
सुंदर बुढ़ापे से;
जीवन सुंदर,
मृत्यु सुंदर
कभी नहीं! यह तो
तुम दुख—दुख को
छोड़ते जाते हो,
सुख—सुख को चुनते
जाते हो। सुख तुम्हें
मिलता तो नहीं,
लेकिन जो कुछ
भी क्षणभंगुर स्मृतियां
रह जाती हैं, उन्हीं को तुम
सजा—संवार कर रख
लेते हो।
तुम
आए हो उन्हीं समाजों
से जिनको लोग स्वर्णयुग
कहते हैं, सतयुग
कहते हैं। यह कलियुग
सतयुग से पैदा
हुआ है। अगर यह
कलियुग बुरा है
तो कहावत है कि
फल से वृक्ष का
पता चलता है। अगर
फल गलत है तो वृक्ष
सड़ा हुआ रहा होगा,
बीज से ही सड़ा
हुआ रहा होगा।
तुम सबूत हो इस
बात के कि सारा
मनुष्य—जाति का
अतीत तुमसे बेहंतर
तो नहीं रहा, किसी हालत में
नहीं रहा। तुमसे
शायद बुरा भले
रहा हो, तुमसे
बेहंतर तो नहीं
हो सकता, क्योंकि
तुम उसके फल हो।
तो
पहली तो मैं यह
भ्रांति तुम्हारे
मन से हटा देना
चाहता हूं। मैं
तुमसे यह भी नहीं
कहना चाहता कि
तुम श्रेष्ठ हो।
तुमसे यह भी नहीं
कहना चाहता कि
तुम निकृष्ट हो।
तुमसे मैं एक बहुत
सीधा—सादा प्रस्ताव
करता हूं कि तुम
वैसे ही हो जैसे
सदा से मनुष्य
रहा है। इसलिए
यह चिंता, विचार
छोड़ कर इस बात पर
ध्यान दो कि कुछ
मनुष्यों ने कभी—कभी
जीवन में क्रांति
की है। तुम सबकी
चिंता भी भूल जाओ।
तुम तो इतनी ही
फिक्र कर लो कि
तुम्हारे जीवन
में प्रकाश उतर
आए, तुम्हारा
दीया जल जाए तो
बस काफी है।
'आप मौजूद हैं
तो भी मनुष्य नीचे
की ओर, नीचे
की ओर जा रहा है।'
मैं
किसी को नीचे की
ओर जाते नहीं देखता
और न किसी को ऊंचे
जाते देखता। लोग
कोल्ह के बैल की
तरह घूम रहे हैं, वहीं
के वहीं घूम रहे
हैं। आंख पर पट्टियां
बंधी हैं, सोचते
हैं कहीं जा रहे
हैं। कोई कहीं
नहीं जा रहा है।
कभी—कभी कोई एकाध
व्यक्तिं आंख से
पट्टियां हटा देता
है—धारणाओ की,
सिद्धातो की, धर्मों
की, राजनीतियों
की; खोल कर देखता
है, देखता है.
अरे, मैं एक
वर्तुल में घूम
रहा हूं कोल्ह
का बैल! वह निकल
पड़ता है वर्तुल
के बाहर। उस वर्तुल
के बाहर छलांग
लगा लेना ही संन्यास
है।
इस
समाज में कभी धर्म
आने वाला नहीं
है;
कुछ संन्यासियों
के जीवन में धर्म
आने वाला है। धर्म
तो महाक्रांति
है—और क्रांति
व्यक्ति में ही
घट सकती है। समाज
में तो ज्यादा
से ज्यादा सुधार
घटते हैं, लीपा—पोती
चलती है। मकान
वही का वही रहता
है, कहीं पलस्तर
गिर गया तो चढ़ा
दिया; कहीं
रंग खराब हो गया
तो रंग कर दिया;
कहीं छप्पर खराब
हो गया तो कुछ खपरे
बदल दिये, कहीं
दीवाल गिरने लगी
तो सहारे और टेक
लगा दी—मगर मकान
वही का वही रहता
है। क्रांति तो
व्यक्ति में घटती
है। नितांत रूप
से वैयक्तिक है
क्रांति।
तो
मैं तो किसी को
नीचे —ऊंचे जाते
नहीं देखता। समाज
तो वहीं का वहीं
है।
पूछा
है. '……जबकि बुद्धपुरुषों
के आगमन पर मनुष्यता
कोई शिखर छूने
लगती है। '
मनुष्यता
नहीं, कुछ मनुष्य!
कुछ मनुष्यों में
छिपी मनुष्यता
जरूर छूने लगती
है। लेकिन उस शिखर
को छूने वाले लोगों
की संख्या सदा
बड़ी होती है। कभी
करोड़ में एक आदमी
बुद्धों के साथ
उस अनंत यात्रा
पर निकलता है।
आज तुम्हें लगता
है कि बुद्ध के
समय में बड़ी क्रांति
हुई होगी, या
के समय में बड़ी
क्रांति हुई होगी;
लेकिन अगर तुम
अनुपात देखो तो
तुम चकित हो जाओगे।
बुद्ध जिस गाव
से गुजरते हैं
अगर उसमें दस हजार
आदमी हैं तो दस
भी सुनने को आ जाएं
तो बस पर्याप्त
है। और उन दस में
भी जो सुनने आ गए
हैं, उनमें
से एक भी सुन ले
तो बहुत। सुनने
आ जाने से ही थोड़े
ही कोई सुन लेता
है। आज तुम्हें
लगता है कि बहुत
लोग...।
अभी
जो मुझे सुन रहे
हैं,
उनकी संख्या
नगण्य है। जो मुझे
समझ रहे हैं उनकी
और भी नगण्य है।
जो मुझे समझ कर
अपने जीवन को बदल
रहे हैं उनकी और
भी नगण्य है। समय
बीत जाने पर यही
संख्या बड़ी दिखाई
पड़ने लगेगी।
आज
जैनों की संख्या
तीस लाख से ज्यादा
नहीं है। अगर महावीर
ने तीस आदमियों
को बदला हो तो दो
हजार साल में उनसे
तीस लाख की संख्या
पैदा हो सकती है।
बहुत ज्यादा लोगों
को नहीं बदला होगा।
ढाई हजार साल में
जैनियों की संख्या
तीस लाख है। तीस
जोड़े इतनी बड़ी
संख्या पैदा कर
सकते हैं ढाई हजार
साल में। बहुत
थोड़े से लोग बदले
होंगे।
बदलाहट
सदा थोड़े से लोगों
में आती है। ही, उन
थोड़े से लोगों
में मनुष्यता जो
है वह बड़े ऊंचे
शिखर छूने लगती
है। मगर तुम इसकी
चिंता न करके,
इसकी ही चिंता
करो कि तुम्हारे
भीतर वह शिखर छुआ
जा रहा है या नहीं?
कहीं ऐसा न हो
कि तुम सबकी चिंता
में खुद को बिसार
बैठो। और वहीं
घटना घट सकती है।
सबकी चिंता में
तुम तो चूक ही जाओगे
और सब को कोई लाभ
न होगा। '.. हजारों
आंखें आपकी ओर
लगी हैं कि शायद
आपके द्वारा फिर
नवजागरण होगा।
'
ये
भ्रांतियां छोड़ो।
किसी के द्वारा
कभी कोई नवजागरण
न हुआ है, न होनेवाला
है। कितने सत्पुरुष
हुए! तुम ये भ्रांतियां
कब तक बांधे रहोगे?
ये भ्रांतियां
तुम्हें भटकाती
हैं। इनके कारण
तुम जो क्रांति
कर सकते थे, वह नहीं करते;
तुम बैठ कर प्रतीक्षा
करते हो, होगा।
जैसे किसी और का
काम है! जैसे यह
मेरी जिम्मेवारी
है। जैसे नहीं
होगा तो मैं दोषी!
तब तो तुम सभी बुद्धपुरुषों
को दोषी पाओगे,
क्योंकि वह नवजागरण
अब तक नहीं आया।
मैं
तुमसे यह कहना
चाहता हूं. वह कभी
नहीं आएगा।
अंग्रेजी
में उस नवजागरण
के लिए जो शब्द
है,
उटोपिया, वह बहुत अच्छा
है। उटोपिया शब्द
का ही अर्थ होता
है, जो न कभी
आया, न कभी आएगा।
वह सिर्फ तुम्हारी
आकांक्षा है—और
नपुंसक आकांक्षा
है। दूसरे के लिए
प्रतीक्षा क्यों
कर रहे हो?
मेरे
पास लोग आते हैं
और कहते हैं ' अब
अवतार का जन्म
कब होगा?' तुम
क्या कर रहे हो? जन्माओ अवतार
को अपने भीतर! तुम
यह उत्तरदायित्व
क्यों टालते हो?
किस पर टाल रहे
हो? मेरे पास
लोग आते हैं, वे कहते हैं. 'भगवान सुनता
नहीं। इतनी आहें
उठ रही हैं, भगवान कहा है? आता क्यों नहीं?'
ये मनुष्य की
जालसाजिया, ये धारणाएं! इनसे
एक तरकीब तुम अपने
भीतर बना लेते
हो कि हमें तो कुछ
करना नहीं, बैठकर राह देखनी
है, जब आएगा
तब होगा। कोई मसीहा
आएगा, कोई पैगंबर
आएगा, कोई अवतार
आएगा।
आ
चुके पैगंबर, आ चुके
मसीहा, आ चुके
अवतार—और नवजागरण
नहीं आया। तुम
कब जागोगे? कितने अवतार,
कितने तीर्थंकर
आ चुके! कहां नवजागरण
आया? कहां हुई
क्रांति रू
नहीं, तुम्हारी
भ्रांति है। किसी
दूसरे से होने
वाली नहीं है।
तुममें घटना घटेगी।
समूह में कभी घटना
नहीं घटेगी। समूह
में जो घटती है
वह राजनीति है;
व्यक्ति में
जो घटता है, वह धर्म। तुम
राजनीति को धर्म
पर आरोपित मत करो।
अगर लोग सोना चाहते
हैं तो कौन जगाएगा,
कैसे जगाएगा
मे' अगर ज्यादा
जगाने वाला गड़बड़
करेगा, सोने
वाले उसकी हत्या
कर देंगे। वही
तो हुआ। जीसस को
सूली पर लटका दिया,
सुकरात को जहर
पिला दिया। ये
लोग जरा ज्यादा
शोरगुल मचाने लगे।
अब
जिसको सोना है, तुम
उठ कर और घंटा बजाने
लगे सुबह से और
कहने लगे प्रभात
—वेला
आ गई, जागो!
पर जिसको सोना
है, वह कहता
है. सोना और जागना
तो कम से कम मेरी
स्वतंत्रता होनी
चाहिए। दूसरा आदमी
आ कर घंटा बजाने
लगे कि जागो तो
उसे गुस्सा आए,
बिलकुल स्वाभाविक
है। और सोने वाले
लोग ज्यादा हैं।
सोए ही हैं। घंटे
बजाने वाले आते
हैं और चले जाते
हैं और सोने वाले
करवट भी नहीं बदलते।
या बहुत—से—बहुत
करवट बदल लेते
हैं, फिर सो
जाते हैं। थोड़े
नाराज हो जाते
हैं। अगर भले हुए
तो कहते हैं, 'महाराज, नमस्कार!
आप बड़े महात्मा
हैं! मगर अभी मुझ
दीन को छोड़ो, अभी मेरी सुविधा
नहीं जागने की।
जपता जरूर। आपकी
बात बिलकुल ठीक
है। '
लोग
कहते हैं कि आपकी
बात बिलकुल ठीक
है,
कि छोडो, मेरा पिंड छोड़ो।
अब
कौन विवाद करे? सोने
वाला विवाद कैसे
करे? सोने वाला
कहता है, मुझे
सोने दो। माना
कि ब्रह्ममुहूर्त
है और उठना चाहिए
ब्रह्ममुहूर्त
में, और कभी
हम जरूर उठेंगे,
और याद रखेंगे
तुम्हारी बात और
तुम्हारा नाम स्मरण
करेंगे, तुम्हारी
पूजा भी करेंगे,
फोटो लटका लेंगे,
मूर्ति लगा देंगे,
सदा—सदा तुम्हें
पूजेंगे—मगर अभी
छोड़ो! अभी मुझे
नींद आ रही है।
अभी मैं इस योग्य
नहीं, अभी मैं
पात्र नहीं। अभी
घर है, गृहस्थी
है, बच्चे हैं,
पत्नी है —अभी
इनको सम्हालने
दो; एक दिन तो
मोक्ष की तरफ जाना
है, आप बिलकुल
ठीक कहते हैं।
इसीलिए
तुम पूजा करते
हो,
मंदिर बनाते
हो। तुम्हारे मंदिर
और तुम्हारी पूजाएं
तुम्हारे बचने
की विधियों का
अंग हैं। जो दुष्ट
हैं, वे झगड़ने
को खड़े हो जाते
हैं, जो सज्जन
हैं, वे पूजा
करने को। मगर जगने
को कोई राजी नहीं।
हमने
भारत में सूली
नहीं दी—सज्जनों
का देश है! मारपीट, झगड़ा—झांसे
में हम भरोसा नहीं
करते—अहिसकों का
देश है! शाकाहारियों
का देश है! बड़ी पुरानी
हमारी परंपरा है।
हम कहते हैं, जिसको हाथ जोड़
कर, पैर छू कर
छुटकारा पाया जा
सकता है, उसको
सूली पर क्यों
लटकाना? और
सूली पर लटकाने
से झंझट ही बढ़ती
है; आखिर सोने
वाले आदमी को सूली
बनाना पड़े, ले जाओ, सूली
पर लटकाओ..। पैर
छू लिए कि महाराज
साष्टाग दंडवत
है, आप जाएं!
हमने समझ ली तरकीब।
तो
जो जीसस के साथ
यहूदियों ने किया, वह
हमने बुद्ध के
साथ नहीं किया।
कभी इक्के—दुक्के
किसी पागल ने पत्थर
फेंक दिया, लेकिन आमतौर
से समाज ने कहा
कि आप ईश्वर के
अवतार हैं। महावीर
को हमने थोड़ी—बहुत
गाली—गलौज दी,
लेकिन कोई जहर
नहीं पिला दिया,
जैसा सुकारात
को यूनान में पिला
दिया। हमने कबीरको
कोई मंसूर की तरह
काट नहीं डाला
है, जैसा मुसलमानों
ने मंसूर को काट
दिया। सज्जनों
का देश है! हम तरकीब
ज्यादा बेहंतर
जान गए। हम समझ
गए कि जहां सुई
से काम हो जाता
है, वहां तलवार
की क्या जरूरत?
मंदिर में बिठा
देते हैं, मूर्ति
बना देते हैं,
फूल चढ़ा देंगे,
शास्त्र बना
देते हैं—और क्या
चाहिए? मगर
जगाने की कोशिश
मत करो!
समाज कभी
भी नहीं जागेगा।
समाज तो सोई हुई
भीड़ है। इस भीड़
में से कभी—कभी
कोई विरला पुरुष
जागता है।
तो
तुम यह तो पूछो
ही मत, यह तो बात
ही मत करो। मैं
तुम्हारी किसी
भ्रांति में किसी
तरह का सहारा देने
को तैयार नहीं
हूं। मैं नहीं
तुमसे कहता कि
मेरे द्वारा नवजागरण
आएगा, सारी
दुनिया में क्रांति
हो जाएगी, राम—राज्य
स्थापित हो जाएगा।
हो चुकीं ये पागलपन
की बातें बहुत।
राम से नहीं हुआ
रामराज्य स्थापित,
तो किसी दूसरे
से कैसे हो जाएगा?
कृष्ण से नहीं
हुआ, हार गए
सिर पटक—पटक कर!
बुद्ध से नहीं
हुआ, तो मुझसे
कैसे हो जाएगा?
नहीं, बुद्ध
और कृष्ण और राम
ने वैसी भ्रांति
पाली ही नहीं;
वह भ्रांति तुम
पाले हुए हो। बुद्ध
तो बार—बार कहते
हैं कि अपने दीये
बनो; मेरे द्वारा
कुछ भी न होगा।
महावीर बार—बार
कहते हैं. अपनी
शरण जाओ, मेरी
शरण आने से क्या
होगा पड
महावीर
ने तो बहुत साफ
कहा है कि मैं स्वयं
जागा हूं, मैं
तुम्हारे कल्याण
के लिए नहीं आया
हूं; यद्यपि
जैन अभी भी कहे
जाते हैं कि जगत
के कल्याण के लिए
उनका जन्म हुआ।
महावीर कहते हैं,
मैं तुम्हारे
कल्याण के लिए
नहीं आया, क्योंकि
कोई दूसरा तुम्हारा
कल्याण कैसे करेगा?
और अगर दूसरा
तुम्हारा कल्याण
कर सके तो वह कल्याण
भी दो कौड़ी का होगा।
उसमें तुम्हारा
विकास फलित नहीं
होगा, तुम्हारी
आंतरिक उत्कांति
घटित नहीं होगी।
वह उधार होगा,
बासा होगा। तो
महावीर कहते हैं.
अपनी शरण जाओ,
समझो, अपने
को जगाओ!
'……
धर्म का जगत
कब निर्मित होगा?'
झूठे
सपने मत देखो।
जगत अधर्म का रहेगा।
इसमें कभी—कभी
धार्मिक व्यक्ति
गाते रहेंगे। यह
रात तो अंधेरी
रहेगी। इसमें कभी—कभी
कोई तारे जगमगाते
रहेंगे। अब तुम
यह प्रतीक्षा मत
करो कि कब पूरी
रात बदलेगी। तुम
तो इसकी फिक्र
करो कि मैं जगमगाने
लगा या नहीं गुम
तुम जगमगा गए, तुम्हारे
लिए रात समाप्त
हो गई। तुम जिस
दिन जगमगाए, तुम्हारी सुबह
हो गई।
इसे
मैं बार—बार दोहराना
चाहता हूं कि यह
क्रांति व्यक्ति
के अंतस्तल में
घटती है! यह बड़ी
आंतरिक है, आत्यंतिक
रूप से निजी है।
समूह, भीड़ से
इसका कुछ नाता
नहीं।
पूछा
है : 'क्योंकि बदलना
तो दूर. कब होगा
विस्फोट? कैसे
होगा? बदलना
तो दूर उल्टे लोग
आपका विरोध कर
रहे हैं। '
वे
सदा से करते रहे
हैं। कुछ नया नहीं
इसमें। वे विरोध
न करें तो आश्चर्य
होगा। विरोध उन्हें
करना ही चाहिए।
वह उनकी पुरानी
आदत है।
जैन
शास्त्रों में
उल्लेख है : एक मुनि
नदी में स्नान
करने उतरा। एक
बिच्छु को उसने
तैरते देखा, डुबकी
खाते। कि मर न जाए,
तो उसने हाथ
पर चढा कर उसे घाट
पर रख देना चाहा;
लेकिन जब तक
उसने घाट पर रखा,
उसने दो —तीन
डंक मार दिए। और
जैसा कि तुमने
देखा होगा, चींटे को अगर
हटाने की कोशिश
करो तो जिस दिशा
से हटाओ वह उसी
दिशा की तरफ भागता
है। बड़े जिद्दी
होते हैं। जितनी
नासमझी, उतनी
ही जिद्द। तो बिच्छु
तो बिच्छु! उसको
छोड़ा तो वह फिर
भागा पानी की तरफ।
उस मुनि ने फिर
उसे उठाया और फिर
किनारे पर रखा।
फिर उसने दो—तीन
डंक मार दिए।
एक
मछुआ राह के किनारे
खड़ा है। वह कहने
लगा कि महाराज
वह आपको डंक मारे
जा रहा है, अब
छोड़ो भी, मरने
भी दो! वह मुनि हंसने
लगा। उसने कहा
कि वह अपनी आदत
नहीं छोड़ता, मैं अपनी आदत
छोड़ दूं? देखें
कौन जीतता है?
बिच्छु है तो
यह मान कर ही चलना
चाहिए कि वह डंक
मारेगा; इसमें
कुछ नया तो नहीं
कर रहा है। न मारे
डंक और अचानक कहे
कि धन्यवाद, तो घबड़ाहट होगी,
तो भरोसा न आएगा।
जब
भी कोई सोए हुए
लोगों को जगाने
की कोशिश करेगा
तो वे डंक मारेंगे, वे
नाराज होंगे। उनकी
बात मेरी समझ में
आती है, मैं
उसमें कुछ एतराज
भी नहीं करता।
मुझे बिलकुल समझ
में आता है. सोए
हुए को जगाओ तो
नाराजगी होती है।
यह भी हो सकता है
कि तुम से कह कर
सोया हो कि सुबह
चार बजे उठा देना,
मुझे ट्रेन पकड़नी
है, लेकिन उसको
भी चार बजे उठाओ
तो वह भी गुस्सा
दिखलाता है। वह
भी तुम्हें दुश्मन
की तरह देखता है.
कि अरे, कहा
था ठीक है, मगर
इसका यह मतलब थोड़े
ही है कि जगाने
ही लगो। अब कह दिया,
भूल हो गई, मगर अब पीछे तो
न पड़ो। रुग्ण आदमी
को दवा दो तो भी
वह पीने में आनाकानी
करता है।
बच्चे
जैसे हैं लोग, नासमझ
हैं। उनकी तरफ
से विरोध बिलकुल
स्वाभाविक है।
अगर इस विरोध का
तुम मनोविज्ञान
समझो तो बड़े चकित
होओगे। वे विरोध
इसीलिए कर रहे
हैं कि उन्हें
बात जंचने लगी
है कि बात में कुछ
सचाई है। नहीं
तो वे विरोध भी
नहीं करते। उन्हें
डर लगने लगा है
कि यह आदमी कहीं
जगा ही न दे। उनके
विरोध की केवल
इतनी ही सार्थकता
है कि वे शंकित
हो गए हैं कि अगर
इस आदमी को सुना,
इसकी बात को
जरा गौर से सुना,
विरोध का धुआं
खड़ा न किया, अपनी आंखें विरोध
से न भर लीं तो कहीं
यह बात समझ में
न आ जाए; कहीं
यह बात हृदय में
न उतर जाए; कहीं
यह बीज आत्मा में
पड़ न जाए।
तो
उनका विरोध सांकेतिक
है। वे कह रहे हैं
कि अब या तो हमें
विरोध करना पड़ेगा
या साथ चलना पड़ेगा—अब
दो ही उपाय छोड़े
हैं। इसलिए सदा
उन्होंने विरोध
किया है। उनके
विरोध की मैं निंदा
नहीं कर रहा हूं, मैं
उसे स्वीकार करता
हूं; वह बिलकुल
स्वाभाविक है।
वे जिस दिन विरोध
न करेंगे उस दिन
समझना कि उनका
अब बुद्धत्व में
कोई रस नहीं रहा।
वे बड़े दुर्दिन
होंगे, जब बुद्धपुरुष
आएगा और लोग बिलकुल
विरोध न करेंगे—लोग
कहेंगे, मजे
से आपको जो कहना
है कहो, जो करना
है करो; हमारा
मनोरंजन होता है,
आप बड़े मजे से
कहो। लोग ताली
बजाएंगे और अपने
घर चले जाएंगे,
कोई विरोध न
करेगा। उस दिन
कठिनाई होगी।
ध्यान
रखना, विरोध का
मतलब ही है, लगाव शुरू हो
गया। घृणा प्रेम
का रूप है। जो आदमी
घृणा करने लगा,
अब ज्यादा देर
नहीं है, वह
प्रेम भी कर सकेगा।
उपेक्षा
खतरनाक है। बुद्धपुरुष
आएं और लोग उनकी
उपेक्षा कर दें; वे
राह से निकलें,
न कोई विरोध
करे, न कोई प्रेम
करे; लोग कहें
कि ठीक आपकी मर्जी,
आपका जैसा दिल
आप कहें, जो
आपको रहना है आप
रहें, हमें
कोई एतराज नहीं।
जरा सोचो उस स्थिति
की बात कि कोई विरोध
न करे; कोई पक्ष
में नहीं, कोई
विपक्ष में नहीं;
बुद्ध आएं,
कहें और चले
जाएं, कोई लकीर
ही न छूटे किसी
पर—तो दुर्दिन
होगा। तो उसका
अर्थ हुआ कि अब
बुद्धत्व में इतना
भी रस नहीं रहा
लोगों का। अब कोई
विरोध भी नहीं
करता।
विरोध
तो रागात्मक है।
एक
यहूदी हसीद फकीर
ने किताब लिखी
थी। किताब बड़ी
बगावती थी। हसीद
बड़े बगावती फकीर
हैं। और उसने अपने
देश के सबसे बड़े
यहूदी धर्मगुरु
को वह किताब भेजी, खुद
अपनी पत्नी के
हाथ भेजी। और उसने
कहा कि कुछ फिक्र
न करना। जो भी हो,
तू उसमें उलझना
मत, सिर्फ देखते
रहना क्या हो रहा
है; सब मुझे
आ कर वैसा का वैसा
बता देना। वह गई।
जैसे ही किताब
उसने दी
पंडित
के हाथ में, उसने
किताब उलट कर देखी,
देखा कि हसीद
फकीर की है। वह
तो ऐसा तिलमिला
गया कि जैसे हाथ
में अंगारा रख
दिया हो। उसने
तो किताब उठा कर
बाहर फेंक दी अपने
मकान के। उसने
कहा कि मेरे हाथ
अपवित्र हो गए,
मुझे स्नान करना
पड़ेगा। वह तो आग—बबूला
हो गया।
उसके
पास ही एक दूसरा
पुरोहित बैठा था, एक
दूसरा धर्मगुरु।
उसने कहा कि माना
कि वह बगावती है,
मगर उसने किताब
भेंट भेजी, तुम थोड़ी देर
बाद फेंक देते,
यह पत्नी को
तो चले जाने देते!
उसने भेजी तो! उसने
तो प्रेम से भेजी,
उपहार दिया।
इस पत्नी को चले
जाने देते, फिर फेंक देते।
इतनी जल्दी क्या
थी? और तुम्हारे
घर में इतनी किताबें
हैं, इतनी बड़ी
लायब्रेरी है,
उसमें यह एक
किताब पड़ी भी रहती
तो क्या बिगाड़
देती?
पत्नी
वापिस लौटी। पति
ने पूछा, क्या हुआ?
उसने कहा कि
प्रधान पुरोहित
ने तो किताब एकदम
बाहर फेंक दी;
वे तो ऐसे नाराज
हो गए कि मुझ पर
हमला न कर दें।
उन्होंने तो ऐसे
किया कि जैसे मैंने
हाथ में अंगारा
रख दिया हो। मगर
उनके पास ही एक
दूसरे धर्मगुरु
बैठे थे। उन्होंने
कहा कि नहीं, यह करना उचित
नहीं है, पत्नी
को चले जाने देते,
फिर फेंक देते,
या फिर रखी रहती
किताब, इतनी
किताबें पड़ी हैं!
तुम्हारे घर में
विरोधियों की किताबें
भी रखी हैं, तो यह तो यहूदी
है, माना कि
बगावती है। रख
लेते, पड़ी रहती
लायब्रेरी में,
क्या बिगड़ता
था?
पति
ने कहा. जिसने किताब
फेंकी, उसे तो
हम किसी न किसी
दिन बदल लेंगे,
लेकिन दूसरे
से हमारा कोई संबंध
नहीं बन सकता।
समझे
आप मतलब?
जिसने
किताब फेंकी, उससे
तो रागात्मक संबंध
बन गया। वह कम से
कम इतना तो राग
है उसका, जोश
तो आया! उसने कुछ
किया तो, तरंग
तो उठी। वह जो बैठ
कर शांति से कह
रहा है, रख लो,
डाल दो, किनारे
में पडी रहेगी
लायब्रेरी में,
वह उपेक्षा से
भरा आदमी है, उससे हम कभी कोई
संबंध न बना पाएंगे।
इस धर्मगुरु को
तो हम बदल लेंगे,
लेकिन दूसरे
धर्मगुरु से हमारा
कोई संबंध न बन
पाएगा। मैं दूसरे
के लिए दुखी हूं।
पत्नी
तो बहुत चौंकी।
वह तो सोचती थी, दूसरा
भला आदमी है; पहला आदमी बुरा
है। लेकिन उसके
पति ने कहा कि पहला
आदमी तो हमारे
चक्कर में आ ही
चुका है, दूसरा
खतरनाक है। मैं
तुमसे कहता हूं
कि पहला तो उठा
कर किताब पडेगा।
जिसने इतने जोश
से फेंकी है वह
बिना पढ़े नहीं
रह सकता, क्योंकि
इस जोश को कैसे
शांत करेगा? वह तो उत्सुक
हो ही गया। मैं
उसका पीछा करूंगा;
रात सपने में
दिखाई पडूगा। मैं
उसके सिर के आसपास
घूमूंगा। वह सोचेगा,
कई बार कि फेंकना
था कि नहीं फेंकना
था, देख तो लूं
इसमें लिखा क्या
है!
जो
मेरा विरोध करते
हैं,
वे निश्चित रूप
से मेरी किताब
पढ़ते हैं—यह तुम
खयाल रखना। उनसे
मेरा संबंध बन
चुका है। उनसे
मेरे हृदय का नाता
जुड़ गया है, धीरे— धीरे खींच
लूंगा। लेकिन जो
विरोध भी नहीं
करते, विरोध
तक नहीं करते,
उनके साथ बड़ा
मुश्किल है। उनके
हृदय का दरवाजा
पाना बहुत मुश्किल
है। उनके दरवाजे
सब बंद हैं।
और
यह बिलकुल स्वाभाविक
है। जितनी क्रांति
की बात होगी, उतनी
ही कठिनाई होती
है। लोग परंपरा
से जीते हैं। लोग
परंपरा में सुविधा
और सुरक्षा पाते
हैं। बदलाहट साहसियों
का काम है,
दुस्साहसियों
का काम है। उतना
साहस जिसमें नहीं
होता, वह विरोध
न करे तो क्या करे?
उसका विरोध तो
समझो, वह यह
कह रहा है कि इतना
साहस मुझ में नहीं
है, तो या तो
मैं यह स्वीकार
करूं कि मैं कायर
और कमजोर हूं और
या सिद्ध करूं
कि यह बात गलत है।
तो पहले वह कोशिश
करता है सिद्ध
करने की कि बात
गलत है, जाने
योग्य है ही नहीं,
इसलिए हम नहीं
जाते। नहीं तो
उसे साफ हो जाएगा,
अगर जाने योग्य
है और नहीं जाते,
तो फिर हम कायर
हैं। अहंकार को
फिर चोट लगती है।
वह अहंकार की सुरक्षा
है विरोध।
लेकिन
जब कोई व्यक्ति
मुझमें और उसके
अहंकार में चुनाव
करने लगा, तो
एक न एक दिन उसे
मुझे चुनना ही
होगा, क्योंकि
अहंकार सिवाए नर्क
के कुछ देता ही
नहीं। उस चुनाव
को तुम कब तक किए
चले जाओगे?
दूसरा प्रश्न
:
आपने
कहा कि उपदेश सबसे
लेना चाहिए, लेकिन
आदेश अपनी अंतरात्मा
से, अपने विवेक
से। प्रश्न है
कि जब तक विवेक
न हो तब तक कैसे
पता चले कि जो आवाज
अंदर से आ रही है,
वह विवेक—जन्य
है या मन का ही एक
खेल है? कृपया
प्रकाश डालें।
स्वाभाविक
प्रश्न उठेगा।
मैंने कहा, उपदेश
सबसे ले लेना,
आदेश अपने ।
से लेना। तुम्हारा
प्रश्न संगत है।
तुम पूछते हो,
तय कैसे होगा
कि जो हम कर रहे
हैं, जो हम मान
कर चल रहे हैं,
जिस दिशा को
हमने चुना, वह हमारी अंतरात्मा
का आदेश है या हमारे
मन का ही खेल है?
चलो!
चलने से ही पता
चलेगा। मैं तुमसे
यह नहीं कह रहा
हूं कि तुम हमेशा
सही चल पाओगे।
यह मैंने कहा भी
नहीं। तुम बहुत
बार चूकोगे। लेकिन
चूक—चूक कर ही तो
पता चलता है कि
गलत क्या है और
सही क्या है। तुम
बहुत बार गिरोगे; गिर—गिर
कर ही तो पता चलता
है कि कैसे चलना
चाहिए ताकि न गिरे।
छोटा
बच्चा चलना शुरू
करता है। अगर वह
कहे कि मुझे बिलकुल
ऐसी तरकीब चाहिए, सौ
प्रतिशत गारंटी
की कि गिरूं न—तो
वह कभी चलेगा नहीं,
कभी चल ही न पाएगा।
फिर वह किसी की
गोदी में ही चढा
रहेगा। गिरना तो
पड़ेगा। और जब मां
कहती है, बेफिक्र
हो कर तू चल, गिरेगा
थोड़े
ही—तो वह जानती
है कि गिरेगा।
लेकिन गिरने के
सिवाए चलना सीखने
का कोई उपाय नहीं।
तुम
साइकिल चलाने के
संबंध में किताब
पढ़ लो, किताब में
सब समझाया हो कि
किस तरह संतुलन
कायम करना चाहिए,
किस तरह पैडल
चलाने चाहिए,
किस तरह हैंडल
पकड़ना चाहिए— इससे
कुछ न होगा। तुम
लाख किताब को कंठस्थ
करके साइकिल चलाने
जाओ, दो—चार
बार गिरोगे, हाथ—पैर पर पट्टी
बंधेगी, चमड़ी
दो—चार बार छिलेगी।
मगर उसी गिरने
से तुम्हें संतुलन
की प्रतीति होगी,
क्या है संतुलन।
किताब में लिखने
से थोड़े ही पता
चलता है कि संतुलन
क्या है, बैलेंस
क्या है? वह
तो साइकिल पर चढ़ने
से पता चलता है।
अब
दो चाक की साइकिल, और
सधी रह जाती है,
चमत्कार है।
गिरना तो बिलकुल
नियमानुसार है;
नहीं गिरना,
चमत्कार है।
मगर दो —चार बार
गिर कर तुमको खयाल
आने लगता है। अब
वह खयाल ऐसा है
कि कोई दूसरा कितना
ही जिंदगी से साइकिल
चला रहा हो तो भी
तुम्हें दे नहीं
सकता। कोई तुम्हें
दे नहीं सकता कि
यह लो मैं तुम्हें
अपनी समझ दिए देता
हूं। वह कितना
ही समझा दे, फिर भी तुम्हें
गिरना पड़ेगा।
तो
जब मैंने तुमसे
कहा,
उपदेश सबसे लेना,
तो मैंने कहा
जितने साइकिल सवार
हों, सबसे पूछ
लेना। मगर इससे
तुम यह मत समझ लेना
कि तुम्हें साइकिल
चलाना आ गया। चढ़ना
तो तुम्हें ही
पड़ेगा। और इससे
मैं यह भी नहीं
कह रहा हूं कि तुम्हें
सौ प्रतिशत गारंटी
है कि तुम न गिरोगे।
ऐसी गारंटी मैं
देता ही नहीं।
गारंटी इतनी दे
सकता हूं कि जरूर
गिरोगे; मगर
गिर—गिर कर सीखोगे।
कई बार गलत रास्तों
पर भटक जाओगे।
लेकिन अगर अपने
ही कारण भटके तो
लौट आओगे, अगर
दूसरे के कारण
भटके तो कभी न लौट
सकोगे। क्योंकि
जो आदमी दूसरे
के पीछे चल रहा
है उसे कभी पता
ही नहीं चलता है
कि मैं ठीक जा रहा
हूं कि गलत जा रहा
हूं।
जैसे
कि तुम किसी साइकिल
सवार के पीछे कैरियर
पर बैठे हुए हो, तुम्हें
थोड़े ही बैलेंस
आएगा! हालांकि
तुम भी साइकिल
पर सवार हो, लेकिन तुम्हें
संतुलन नहीं आएगा।
तुम जन्मों—जन्मों
तक बैठे रहो दूसरे
की साइकिल के पीछे,
यात्रा भी होगी,
मगर संतुलन नहीं
आएगा।
और
असली बात संतुलन
है।
तो
तुम किसी की पीठ
के पीछे चल पड़ो..
.तुम जब किसी के
पीछे चलते हो तो
तुम इसी भय के कारण
तो चलते हो, कहीं
हम चलें तो भूल
न हो जाए, तो
हम जानकार के पीछे
चलें! लेकिन हो
सकता है कि जानकार
भी तुम्हारी जैसी
ही बुद्धि का हो,
किसी और जानकार
के पीछे चल रहा
हो और वे भी इसी
बुद्धि के हों—और
अक्सर इसी बुद्धि
के लोग हैं—तो तुम पाओगे
कि एक आदमी दूसरे
के पीछे चल रहा
है, दूसरा तीसरे
के पीछे चल रहा
है; तीसरा किसी
और के, जो कि
मर चुके हैं, वे किसी और के
पीछे चलते थे जो
कि बहुत पहले मर
चुके हैं, वे
किसी और के पीछे
चलते थे, जो
कभी हुए ही नहीं।
अब चले जा रहे हैं!
अब इनको कभी पता
नहीं चलेगा कि
गलती हो रही है,
क्योंकि गलती
होने का उपाय नहीं
है; यह तो क्यू
है, और इसका
छोर खोजना मुश्किल
है। गलती तो तब
पता चले जब क्यू
का छोर पता चले।
अब
अष्टावक्र की मान
कर चलने लगें जनक, जनक
की मान कर चलने
लगें कोई और, कोई और, पांच
हजार साल में अब
तो तुम्हें पता
लगाना मुश्किल
हो जाएगा कि गलती
कहां हो रही है।
यह तो
बड़ा क्यू है। इसमें
तो अष्टावक्र गिरे
तो भी तुम्हें
पता न चलेगा कि
वे गिर गए खड्ड
में। काम नहीं
आई उनकी गीता।
वे तड़प रहे हैं
पड़े हुए। उसका
भी तुम्हें पता
नहीं चलेगा। तुम
तो भेड़—चाल से चलते
चले जाओगे। जब
दस—पांच हजार साल
में तुम भी उनके
ऊपर गिरोगे, उनकी
हड्डियों पर,
तब तुम्हें पता
चलेगा कि यह तो
भूल हो गई है। लेकिन
तब बहुत देर हो
चुकी होगी।
नहीं, भूल
कर किसी के पीछे
मत चलना। सुन लेना,
जान लेना, समझ लेना; लेकिन उत्तरदायित्व
सदा अपना अपने
हाथ में रखना।
तो उसका लाभ है;
कम से कम क्यू
तो नहीं है आगे।
तुम गिरोगे तो
पता तो चलेगा कि
मैं गिरा। तुम
गिरोगे तो गिरना
क्यों हुआ, किस कारण से हुआ—इसका
तो पता चलेगा! अगली
बार उस तरह का कारण
न दोहरे, इसकी
समझ तो आएगी। दस—पांच
बार गिर कर तुम्हें
साइकिल चलाने की
कला आ जाएगी। वह
कला है, विज्ञान
नहीं। विज्ञान
होता तो दूसरा
दे देता। कला कोई
दे नहीं सकता,
कला सीखनी पड़ती
है अनुभव से।
तो
तुमने मुझसे पूछा
है कि 'प्रश्न है
जब तक विवेक न हो
तब तक कैसे पता
चले कि जो आवाज
अंदर से आ रही है
वह विवेक—जन्य
है या मन का ही एक
खेल है?'
कोई
उपाय नहीं है जानने
का। अनुभव से ही
तुम्हें धीरे —
धीरे पता चलेगा।
कैसे पता चलेगा? जो
मन का खेल है, उससे तुम हमेशा
तकलीफ में पड़ोगे—हमेशा
तकलीफ में पड़ोगे,
दुख आएगा! और
जो मन का खेल नहीं
है, उससे हमेशा
आनंद की स्फुरणा
होगी। वही कसौटी
है। जो भीतर से
आ रही, अंतरात्मा
से, उसका फल
सदा ही आनंद है,
सच्चिदानंद
है। जो मन का है
जाल, उससे तुम
हमेशा दुख पाओगे।
दुख से पता चलेगा।
करके ही पता चलेगा
किससे दुख मिला,
किससे सुख मिला।
जिससे सुख मिले,
वह सत्य की तरफ
जा रही है यात्रा,
और जिससे दुख
मिले, वह असत्य
की तरफ जा रही है
यात्रा।
तुमने
सुना है, पढ़ा है
कि नर्क में दुख
है। अच्छा हो इसे
थोड़ा उल्टा कर
लो : दुख में नर्क
है। तो जहां—जहां
दुख मिले, तुम
समझ लेना कि नर्क
की तरफ चल रहे हो,
गड्डे में गिर
रहे हो। जहां—जहां
सुख मिले, तरंग
आए समाधि की, लहर उठे, गीत
फूटे, खिले
भीतर के इंद्रधनुष,
सुवास उठे,
संगीत जन्मे—समझना
कि चल रहे स्वर्ग
की तरफ।
चलते—चलते, गिरते
—उठते आदमी सीखता
है। एक भूल कभी
मत करना—और वह भूल
है. बैठे मत रह जाना
भूल के डर से। भूल
करनी ही होगी।
हौ, एक ही भूल
को दुबारा करने
की कोई जरूरत नहीं।
तो बोधपूर्वक भूल
करना। और एक भूल
जब हो जाए और पता
चल जाए तो पछताते
मत बैठे रहना कि
भूल हो गई। उतना
अनुभव हुआ। लाभ
हुआ। अब आगे ऐसी
भूल दुबारा न हो,
इसकी गांठ बांध
लेना। ऐसे धीरे
— धीरे तुम पाओगे,
भूल कम होती
गईं, कम होती
गईं, एक दिन
भूल समाप्त हो
गई और तुम्हारे
जीवन में विवेक
का उदय हो गया।
तुमसे
मैं यह पूछता हूं—तुमने
पूछा है कि ' अगर
हम दूसरे से उपदेश
न लें तो हमें कैसे
पक्का पता चलेगा
कि क्या ठीक और
क्या गलत? क्या
मन का खेल और कया
विवेक की आवाज?
'—मैं तुमसे पूछता
हूं बिना विवेक
के जगे तुम कैसे
पक्का करोगे कि
किसकी मानें और
किसकी न मानें?
प्रश्न तो वही
का वही है। हजारों
लोग हैं, हजारों
शास्त्र हैं,
हजारों शास्ता
हैं, सबके मंतव्य
अलग हैं, सबकी
दृष्टि अलग है—इसमें
तुम किसको चुनोगे?
महावीर को चुनोगे
कि कृष्ण को चुनोगे?
कैसे
चुनोगे? क्योंकि
महावीर कहते हैं,
चींटी भी न मरे,
नहीं तो सडोगे
नरकों में। कृष्ण
कहते हैं. फिक्र
ही मत कर, सब
उसकी लीला है! तू
बेधड़क मार। तू
मारने वाला कौन?
और फिर कभी आत्मा
मारी गई है? न हन्यते हन्यमाने
शरीरे। यह तो शरीर
ही गिरता—उठता
है, आत्मा कभी
मरती नहीं। तू
तलवार से काटेगा,
तब भी नहीं कटती।
नैनं छिन्दन्ति
शस्त्राणि। तू
फिक्र ही छोड़,
यह तो खेल है!
किसकी
मानोगे? कैसे तय
करोगे? कौन
ठीक इन दो गुरुओं
में? तय करने
का लोगों ने एक
सस्ता रास्ता निकाल
लिया है. जिस घर
में पैदा हुए।
अगर जैन घर में
पैदा हुए तो महावीर
को मानेंगे। यह
भी कोई बात हुई?
सिर्फ घर में
पैदा हो जाने से!
हिंदू घर में पैदा
हुए तो कृष्ण को
मान लेंगे! कैसे
तय करोगे कौन ठीक
है? अंततः तो
तुम्हीं को तय
करना है।
जब
तुम गुरु भी चुनते
हो,
तब तुम कैसे
तय करते हो यह अंतरात्मा
से आवाज उठी कि
मन की आवाज है?
तुम बच नहीं
सकते। यह निर्णय
तो तुम्हारा ही
होगा। तुम अगर
मुझे गुरु चुन
लो, तो तुम कैसे
पक्का करोगे कि
इस आदमी की बातचीत
में उलझ गए, सम्मोहित हो
गए, प्रीतिकर
थी बातचीत, तर्कयुक्त थी—इसलिए
उलझ गए या कि सच
में यह आदमी जाग्रत
पुरुष है? कैसे
तय करोगे? क्या
उपाय है? क्या
कसौटी है? तुम्हीं
तो तय करोगे न! तो
वही प्रश्न वहीं
का वहीं खड़ा है।
जब
तय तुम्हीं को
करना है तो एक बात
साफ है कि परमात्मा
ने निर्णय की शक्ति
प्रत्येक व्यक्ति
को दी हुई है और
निर्णय किसी दूसरे
पर नहीं छोड़ा जा
सकता। तुम निर्णायक
हो।
सुनो
मेरी, समझो मेरी।
हृदयपूर्वक समझने
की कोशिश करो,
समग्रता से समझने
की कोशिश करो।
लेकिन जब अंतिम
निर्णय लोगे,
तो निर्णय तो
तुम्हीं लोगे कि
यह आदमी ठीक कह
रहा है कि गलत;
इसकी मान कर
चलें कि न चलें।
तो तुम कुछ भी करो,
चाहे किसी के
पीछे चलो, चाहे
न चलो, चाहे
अपने पैर चलो,
चाहे किसी के
कंधे पर सवार हो
कर चलो—निर्णायक
तुम ही हो, जिम्मेवारी
तुम्हारी है। तुम
तो चाहते हो जिम्मेवारी
टल जाए। तो कल अगर
गड्डे में गिरो
तो तुम मेरी गर्दन
पकड़ लो कि देखो,
गिराया गड्डे
में, मैं तो
आपके पीछे चल रहा
था!
इसलिए
मैं पहले ही कहे
दे रहा हूं. मेरे
पीछे चलने से कुछ
मतलब नहीं है।
गड्डे में गिरोगे
तो तुम गिरोगे।
और गड्डे में गिरोगे
तो मैं गड्डे के
किनारे खड़े हो
कर हसूंगा; मैं
कहूंगा, मैंने
पहले ही कह दिया
था। तुम्हारी मर्जी
थी, तुम मेरे
पीछे चले, फिर
भी सुन कर चले।
मैंने पहले ही
कह दिया था कि अगर
गिरोगे तो तुम
गिरोगे। तुम मुझसे
यह न कह सकोगे कि
हम तो आपके पीछे
चल रहे थे। आपने
ही चुना था। मेरे
पीछे चलना भी आपने
चुना था। मैंने
जबर्दस्ती थोप
नहीं दिया था।
जबर्दस्ती कौन
किस पर थोप देता
है? कैसे थोपा
जा सकता है?
लेकिन
आदमी उत्तरदायित्व
से बचता है। आदमी
चाहता है, किसी
के कंधे पर जिम्मेवारी
हो जाए तो कल हम
कह तो सकें; अगर अदालत हो
कहीं परमात्मा
की, तो हम कह
सकें हम तो बिलकुल
निर्दोष हैं,
ये गेरुए वस्त्र
इस आदमी ने पहना
दिए थे। अब क्या
पक्का है तुम्हें
कि परमात्मा गेरुए
वस्त्र के पक्ष
में होगा? कुछ
पक्का नहीं है।
बुद्ध ने पीले
वस्त्र चुन लिए
थे, हो सकता
है, परमात्मा
पीले वस्त्र के
पक्ष में हो। पार्श्वनाथ
ने सफेद वस्त्र
चुन लिए थे, हो सकता है परमात्मा
सफेद वस्त्रों
के पक्ष में हो।
और महावीर नग्न
खड़े हो गए थे, हो सकता है परमात्मा
न्यूइडस्ट हो।
करोगे क्या? यह तो परमात्मा
जब आएगा, तभी।
उस वक्त तुम यह
न कह सकोगे कि हमें
तो कुछ पता ही नहीं
था; हमें तो
इस आदमी ने कह दिया,
गैरिक वस्त्र
पहन लो, हमने
गैरिक वस्त्र पहन
लिए।
नहीं, तब
तुम्हें जवाब स्वयं
ही देना होगा।
यह चुनाव भी तुम्हारा
चुनाव है। अगर
तुमने यह चुना
कि मेरे प्रति
समर्पित हो जाओ,
यह भी तुम्हारा
संकल्प है, यह भी तुमने ही
चाहा है। इस तरह
तुम इस बात को सदा
ही याद रखना कि
तुम्हीं निर्णायक
हो, तुम्हीं
उत्तरदायी हो और
अंतिम रूप से जो
भी फलित होगा,
घटित होगा,
उसका श्रेय भी
तुम्हारा है।
ऐसा
मान कर जो व्यक्ति
चलता है—वही सत्य
का शोधक, खोजी।
खतरे
तो हैं ही। जीवन
जोखिम है। और जो
जितने ज्यादा खतरे
उठाता है, उतना
ही जानने में समर्थ
हो पाता है। जो
लोग खतरे नहीं
उठाते, वे मिट्टी
के लौंदे रह जाते
हैं। उनके जीवन
में कोई धार नहीं
होती। उनके जीवन
में कोई त्वरा
नहीं होती। कोई
चमक नहीं होती।
उनके जीवन में
प्रतिभा नहीं होती।
तुम जा कर देख सकते
हो, ऐसे मिट्टी
के लौंदे तुम्हें
आश्रमों में बैठे
मिलेंगे, मंदिरों
में बैठे मिलेंगे—घंटियां
बजा रहे, पूजा
कर रहे, कोई
उपवास कर रहा——मिट्टी
के लौंदे हैं! उन
आंखों में तुम
बिजलियां न पाओगे,
और उनके प्राणों
में तुम वह ऊर्जा
न पाओगे, जो
ऊर्जा सत्य को
पाने के लिए अत्यंत
अनिवार्य है। तुम
उन्हें मुर्दा
पाओगे। तुम उन्हें
लाश की तरह पाओगे।
तो
मैं तुमसे यह कहता
हूं कि ऐसे तुम
मत बन जाना। तुम
अपनी निजता को
बचाना और अपनी
निजता को निखारना।
और कितनी ही कठिनाई
हो,
कभी अपनी निजता
को मत खोना। क्योंकि
निजता ही तुम्हारी
आत्मा है और उसी
आत्मा में छिपा
है सत्य।
बुद्ध
ने अंतिम वचन कहा
है आनंद को. 'अप्प
दीवो भव!' अपना
दीया स्वयं बन।
आनंद रोने लगा
था बुद्ध को जाता
देख कर, बुद्ध
चले। घबड़ा गया
होगा। इन्हीं के
पीछे चलता रहा
चालीस— व्यालीस
साल। पूरा जीवन
दाव पर लगा दिया।
इन्हीं की पीठ
के सिवाए कुछ देखा
नहीं। इन्हीं के
पीछे चलता रहा,
उठता रहा, बैठता रहा; आज ये चले, तो रोने लगा! स्वाभाविक
था रोना। उसने
कहा कि मैं तो अभी
तक पहुंचा नहीं
और आपके जाने की
घड़ी आ गई। तो बुद्ध
ने कहा. मैंने तुझे
कभी कहा ही नहीं
कि मैं तुझे पहुंचा
दूंगा। अपना दीया
खुद बन! और आनंद,
शायद मेरे कारण
बाधा पड़ती रही
हो, तो अब मैं
जा रहा हूं; अब वह बाधा भी
न रहेगी। अब तेरे
सामने कोई पीठ
न होगी; अब तेरे
सामने खुला आकाश
होगा।
और
आश्चर्य की घटना
है कि आनंद चौबीस
घंटे बाद ही ज्ञान
को उपलब्ध हुआ।
व्यालीस साल में
जो न हो सका, वह
चौबीस घंटे में
हुआ। यह बात तीर
की तरह चुभ गई।
यह बात तो उसकी
समझ में आ गई कि
आज बुद्ध चले,
अब मैं अकेला
रह गया।
अकेले
तो हम सदा से हैं।
किसी के पीछे चलो
तो भी तुम अकेले
हो,
भ्रांति भर पैदा
होती है कोई साथ
है। इस अकेलेपन
को तुम पहले से
ही याद रखो। बुद्ध
ने आनंद से अंत
में कहा था, मैं अपने 'आनंदों' से
प्रथम से कह रहा
हूं कि तुम अपने
दीये स्वयं बनो।
तब कोई जरूरत नहीं
कि मेरे जाने के
बाद चौबीस घंटे
में तुम ज्ञान
को उपलब्ध होओ;
तुम मेरे रहते
चौबीस क्षण में
ज्ञान को उपलब्ध
हो सकते हो। क्योंकि
ज्ञान को उपलब्ध
होने का कुल अर्थ
इतना ही है कि यह
जीवन मेरा है और
मैं उत्तरदायी
हूं। भूल होगी,
चूक होगी तो
मैं जिम्मेवार
हूं। मैं उत्तरदायित्व
पूरा अपने हाथ
में लेता हूं।
मैं अपनी मालकियत
अपने ऊपर घोषणा
करता हूं।
इसलिए
तो तुम संन्यासियों
को मैं स्वामी
कहता हूं। स्वामी
का अर्थ है. तुम्हारी
मालकियत तुम्हारे
हाथ में है। यह
मैंने घोषणा कर
दी कि अब तुम स्वामी
हुए। अब तुम्हारा
कोई भी स्वामी
नहीं है। अब तुम
अपने स्वामी हो।
यह तुम्हारा स्वामित्व
है।
इस
घोषणा के साथ ही
सत्य की यात्रा
शुरू होती है।
और इस घोषणा को
जिस दिन तुम पूरा—पूरा
अनुभव कर लोगे, उस
दिन आ गई मंजिल,
उस दिन आ गया
अपना घर।
सिखलाका
वह ऋत् एक ही अनल
है,
जिंदगी
नहीं वहां, जहां
नहीं हलचल है।
जिनमें
दाहकता नहीं, न तो
गर्जन है, '
सुख
की तरंग का जहां
अंध वर्जन है।
जो सत्य
राख में सने रुक्ष
रूठे हैं,
छोड़ो
उनको, वे सही नहीं,
झूठे हैं।
जो सत्य
राख में सने रुक्ष
रूठे हैं।
छोड़ो
उनको, वे सही नहीं,
झूठे हैं।
जीवंत
सत्य तो तुम्हारे
भीतर पैदा होगा।
बाहर से तुम जो
भी ले आए हो, सब
कूड़ा—कर्कट है;
किसी और से इकट्ठा
कर लिया है, सब उधार और बासा
और व्यर्थ है।
आग लगा दो उस सब
में। वे सब सत्य
राख में सने हैं।
तुम्हारा
सत्य तुम्हारे
भीतर पैदा होगा।
तुम्हारे सत्य
के लिए तुम्हें
ही प्रसव—पीड़ा
से गुजरना होगा।
तुम्हारा सत्य
तुम्हारे भीतर
जन्मेगा। तुम्हें
उस सत्य के लिए
गर्भ बनना होगा, और
प्रसव—पीड़ा से
गुजरना होगा।
खयाल
किया तुमने? कोई
स्त्री को बच्चा
पैदा नहीं होता,
वह किसी के बच्चे
को गोद ले लेती
है। ऐसे मन समझाना
हो जाता है।
मैं
तुमसे कहता हूं.
सत्यों को गोद
मत लेना। यह तो
बड़ी झूठ हो जाएगी।
और हम सबने सत्य
गोद ले लिए हैं।
कोई हिंदू बना
बैठा है, कोई ईसाई,
कोई मुसलमान,
कोई जैन। हमने
सब सत्य उधार ले
लिए हैं।
नानक
का सत्य है; तुम
सिक्ख बने बैठे
हो, यह सत्य
तुम्हारा नहीं
है। नानक ने इसके
लिए पीड़ा सही,
नानक ने गर्भ
धारण किया—इस सत्य
को जन्म दिया।
तुम मुक्त लिए
बैठे हो। तुमने
इसके लिए कुछ भी
नहीं किया। न तुम
आग में गए, न
तुम जले, न तुम
भटके, न तुम
गिरे—तुम्हें यह
मुक्त मिला। पीड़ा
निखारती है। मुफ्त
मिलने से कुछ भी
निखार नहीं आता।
गोद
मत लेना सत्यों
को—जन्माना। और
जब तुम जन्माने
में समर्थ हो पाओगे, तभी
तुम्हारे भीतर
वह तरंग उठेगी
निजता की, व्यक्तिगत
की। तुम अद्वितीय
बनोगे। अद्वितीयता
धर्म का आखिरी
फल है।
और
यह भी मैं जानता
हूं कि अचानक आज
तुम पूरे सत्य
को न पा सकोगे।
इंच—इंच चलना होगा, घिसटना
होगा—और चढ़ाई बड़ी
है और पहाड़ ऊंचा
है, और सांस
घुटेगी, और
सब बोझ छोड़ देना
होगा; क्योंकि
जरा भी बोझ नहीं
ले जाया जा सकता।
जैसे—जैसे पहाड़
पर कोई चढ़ने लगता
है, वैसे—वैसे
बोझ कम करना पड़ता
है। जब हिलेरी
एवरेस्ट पर पहुंचा,
उसके पास कुछ
भी नहीं था। पानी
की बोतल भी थोड़े
पीछे उसे छोड़ देनी
पड़ी, क्योंकि
उतना बोझ ढोना
भी मुश्किल हो
गया। जितनी ऊंचाई
होती है उतना बोझ
मुश्किल हो जाता
है। सब सामान ले
कर आया था, वे
धीरे — धीरे सब छूट
गए; धीरे— धीरे
सब डालता गया,
राह के किनारे
रखता गया, क्योँकि
उनका खींचना मुश्किल
होने लगा था। जब
पहुंचा तो अकेला
था, खाली था।
और
जिस गौरीशंकर की
चढ़ाई की मैं तुमसे
बात कर रहा हूं
वह तो आखिरी ऊंचाई
है अस्तित्व की।
वह आज न घट जाएगी।
इंच—इंच जलना और
तपना होगा। धीरे—
धीरे तुम छोड़ पाओगे।
मगर छोड़ने का खयाल
रहे।
बांसों—बांस
उछलती लहरें।
देख
लिया है चांद सलोना,
लेकिन
हाथ रह गया बौना।
रह—रहकर
कर मलती लहरें,
बांसों—बांस
उछलती लहरें।
शीतलता
कैसी बिखरा दी,
पानी
में ही आग लगा दी।
बुझती
और सुलगती लहरें,
बांसों—बांस
उछलती लहरें।
स्वप्न
—लोक के यात्रा
— पथ पर,
भावुकता
ने रचा स्वयंवर,
असफल
हो सिर हरनती लहरें,
बांसों
— बांस उछलती लहरें।
चांद तो दिखाई
पड़ने लगता है उपदेश
से,
तुम बांसों—बांस
उछलने लगते हो।
मगर इतने से चांद
मिल न जाएगा। उपदेश
से चांद नहीं मिलेगा,
उपदेश से चांद
दिखेगा। मिलेगा
तो तुम्हारे अपने
जीवन को एक अनुशासन
और आदेश देने से।
वह
जो मैंने कहा कि
तुम उपदेश सब से
ले लेना, आदेश स्वयं
देना—उसका इतना
ही अर्थ है। महावीर,
बुद्ध, कृष्ण,
क्राइस्ट, नानक, कबीर,
उनके पास तुम्हें
पहली दफे चांद
की स्मृति आएगी
कि चांद है। पहली
दफे तुम्हारी जमीन
में गड़ी आंखें
ऊपर उठेंगी और
आकाश को देखेंगी।
तुम उछलोगे खूब।
जीवन बड़ी प्रफुल्लता
से भर जाएगा।
सदगुरु
के पास होना एक
अपूर्व अनुभव है।
तो फिर सत्य को
पहुंच जाना तो
कैसा अपूर्व होगा, सोच
लो! सदगुरु के पास
होना भी अपूर्व
अनुभव है। जिसे
सत्य मिला है,
उसके पास होना
भी अपूर्व अनुभव
है।
बांसों
—बांस उछलती लहरें
देख
लिया है चांद सलोना
लेकिन
हाथ रह गया बौना।
रह—रहकर
कर मलती लहरें
बांसों—बांस
उछलती लहरें!
तुम्हारा
हृदय उछलने लगेगा, तरंगें
लेने लगेगा : चांद
दिखाई पड़ने लगा!
लेकिन
उपदेश को ही तुम
सब मत समझ लेना—शुरुआत
है,
प्रारंभ है।
चांद तक चलना है,
चांद तक पहुंचना
है। और तुम अपने
ही पैरों से पहुंच
पाओगे। कोई किसी
और के पैरों से
कभी नहीं पहुंचा
है। अप्प दीपो
भव! अपने दीए बनो!
तीसरा प्रश्न
:
मैं
आंसू का एक झरना
हूं? लेकिन हूं
कंधा हुआ अरसे
से। कैसे चट्टान
हटे बुद्धि की, कैसे मैं फूट
कर बह निकलूं?
पूछा है
'योग प्रीतम'
ने। प्रीतम कवि
हैं। और कवि के
लिए सदा एक कठिनाई
है। और कठिनाई
यह है कि कवि का
अस्तित्व तो होता
है हृदय का, अभिव्यक्ति होती
है बुद्धि की।
तो कवि के भीतर
एक द्वंद्व होता
है, एक सतत द्वंद्व
है। जो उसे कहना
है, वह शब्दों
के पार है। और जो
उसे कहने का माध्यम
है, वे शब्द
हैं। जो वह उडेलना
चाहता है, वह
हृदय है—और उडेलना
पड़ता है बुद्धि
की भाषा में। सब
कट—पिट जाता है,
सब खंड—खंड हो
जाता है, छितर
जाता है।
इसलिए
कवि सदा पीड़ा में
रहता है। कवि कभी
तृप्त नहीं हो
पाता। और जो कवि
तृप्त हो जाए वह
बहुत छोटा कवि
है;
तुकबंद कहना
चाहिए, कवि
नहीं। जितना बड़ा
कवि हो उतनी अतृप्ति
होती है। तडुफता
है कुछ प्रगट होने
को। और जब उसे प्रगट
करना चाहो तब मिलते
हैं छोटे —छोटे
शब्द, जिनमें
वह समाता नहीं।
बड़ा आकाश है हृदय
का और शब्दों के
भीतर जगह नहीं
है, स्थान नहीं,
अवकाश नहीं।
तो
कह—कह कर भी कवि
कह नहीं पाता।
जीवन भर गा—गा कर
भी गा नहीं पाता।
जिसे गाने आया
था वह तो अनगाया
ही रह जाता है।
जिसके लिए जीवन
भर चाहा था कि प्रगट
कर दे, वह
अप्रगट
ही रह जाता है।
तो
कवि की दुविधा
है। वह दुविधा
यह है कि भाव तो
प्रगट करना है
और बुद्धि से प्रगट
करना है। अगर कवि
इसमें ही उलझा
रहे तो सदा बेचैन
और असंतुष्ट रहेगा।
कवि
एक साथ दो संसारों
में जीता है, तो
बड़ा तनाव होता
है। पश्चिम में
बहुत—से कवि आत्महत्या
कर लिए। और बहुत—से
कवि पागल हो जाते
हैं। और अक्सर
कवि शराब पीने
लगते हैं। और उसका
कुल कारण इतना
है कि उनके भीतर
इतनी बेचैनी होती
है कि उस बेचैनी
को ढालने के लिए
सिवाय शराब के,
बेचैनी को ढांकने
के लिए सिवाय शराब
के और कुछ मिलता
नहीं। किसी तरह
अपने को विस्मरण
करना चाहते हैं;
वह तनाव भारी
है।
कवि
तब तक खिंचा रहता
है जब तक कि संत
न बन जाए। कवि तब
तक असंतुष्ट रहता
है जब तक संत न बन
जाए। संत बनने
का अर्थ है कि अब
बुद्धि से प्रगट
करने की चेष्टा
छूटती है, अब
प्रगट करने की
चेष्टा विचार से
छूटती है; और
नए ढंग पकड़ता है
कवि। जैसे मीरा
नाचने लगी, बजाने लगी अपना
सितार; कि बाऊल
ले लेते इकतारा,
ले लेते एक डुगी,
बजाने लगते डुग्गी
और बजाने लगते
इकतारा और नाचने
लगते। जो बड़े—बड़े
कवि नहीं कह पाते,
वे बाऊल कह पाते
हैं। कि चैतन्य
महाप्रभु नाचने
लगे। वे जो कहना
चाहते थे, वह
नाच से ज्यादा
आसानी से कहा जा
सकता है। शब्द
उसके लिए ठीक माध्यम
नहीं हैं। तो जब
तक कवि रहस्य को
अपने समग्र व्यक्तित्व
से प्रगट न करने
लगे, तब तक अड़चन
होती है।
'मैं आंसू का इक
झरना हूं,—पूछा
है—'लेकिन हूं
रुंधा हुआ अरसे
से!'
रुंधे
हुए हो, इसीलिए
आंसू के झरने हो,
ऐसा प्रतीत होता
है। जैसे ही आंसू
प्रगट हुआ, मुस्कान बन जाता
है। मुस्कान रुंधी
रह जाए, आंसू
हो जाती है। रुंधी
मुस्कान का नाम
ही आंसू है।
इसलिए
तो तुम जब कभी रो
लेते हो तो हलके
हो जाते हो। और
अगर तुम दिल भर
कर रो लो तो तुम्हारे
चेहरे पर एक स्मित
आ जाता है, एक
प्रसाद आ जाता
है, एक आशीष
की वर्षा हो जाती
है तुम्हारे ऊपर।
इसलिए तो रोने
में इतना प्रसाद
है।
पुरुषों
ने खो दिया प्रसाद।
स्त्रियों के चेहरे
पर थोड़ा प्रसाद
शेष रहा है, क्योंकि
उन्होंने रोने
की क्षमता कभी
नहीं खोई। स्त्रियों
ने बहुत कुछ खोया,
लेकिन एक बहुत
बहुमूल्य चीज बचा
ली, वह रोने
की क्षमता। पुरुषों
ने बहुत कुछ बचाया,
शक्ति, पद,
प्रतिष्ठा।
लेकिन कुछ बहुत
बहुमूल्य खो दिया,
वह रोने की क्षमता
खो दी। उनकी आंखें
गीली नहीं हो पातीं।
और जिसकी आंखें
गीली नहीं हो पातीं
उसका हृदय धीरे—
धीरे पथरीला हो
जाता है।
तो
मैं तुमसे कहूंगा
: प्रीतम, अगर तुम्हें
लगता है आंसू का
झरना भीतर पड़ा
है—
'... रुंधा
हुआ अरसे से
कैसे
चट्टान हटे बुद्धि
की?
कैसे
मैं फूट कर बह निकलूं?'
और
तुम जो प्रश्न
पूछ रहे हो, वह
फिर बुद्धि का
है—'कैसे?' तुम बुद्धि से
ही बुद्धि को न
हटा सकोगे। रोओ,
दिल भर कर रोओ।
कौन रोकता है?
पहले संकोच लगेगा,
तो एकांत में
चले गए, वृक्षों
के पास बैठ लिए।
वृक्ष तुम्हारा
बिलकुल भी अपमान
न करेंगे कि रो
रहे, अरे स्त्रैण
मालूम होते! वृक्ष
तुमसे बिलकुल न
कहेंगे कि प्रीतम
रोओ मत, यह पुरुष
जैसा नहीं मालूम
पड़ता, अरे बहादुर
आदमी, तुम रो
रहे? चले जाओ
पहाड़ियों में,
चले जाओ नदी
के तट पर। रोओ! वृक्ष
तुम्हें स्वीकार
करेंगे। नदियां
तुम्हें स्वीकार
कर लेंगी! पहाड़
तुम्हें स्वीकार
कर लेंगे। दिल
भर कर रोओ। रोने
के लिए 'कैसे'
क्या पूछना?
रोना शुरू करो।
रोना
तो एक कृत्य है।
कैसे का कोई सवाल
नहीं है। कैसे
का तो मतलब यह है
कि अब तुम पहले
इंतजाम करोगे, विधि—विधान
करोगे, अनुष्ठान
करोगे, आयोजन
करोगे कि कैसे
रोएं। तो क्या
करोगे? मिर्ची
पीस कर आंखों में
डालोगे? तो
रोना झूठा हो जाएगा।
अभिनेता
वैसा करते हैं।
अब रामलीला में
राम को रोना पड़
रहा है और सीता
का उन्हें कोई
दर्द है नहीं।
सीता है भी नहीं
सीता, गांव का कोई
लड़का ही बना हुआ
है। हो सकता है
राम और सीता में
झगड़ा भी हो। तो
अब क्या करना?
तो मिर्च का
थोड़ा—सा मसाला
बना लेते हैं।
उसको हाथ में लगाए
रखते हैं। जब रोना
पड़ता है राम को
तो वे अपनी आंख
में लगा लेते,
आंसू बहने लगते
हैं। आयोजन करके
जो रोना आएगा,
वह झूठा हो जाएगा।
चेष्टा से जो आंसू
आएंगे, वे आंसू
न रहे, उनका
प्रसाद—गुण खो
गया। इतना कुछ
है चारों तरफ इतना
दुख है, उसे
देखकर रोओ! इतनी
पीड़ा है, उसे
देखकर रोओ! इतना
आनंद है, उसे
देखकर रोओ! इतने
फूल खिले हैं,
उन्हें देखकर
रोओ! इतने चांद—तारे
हैं, उन्हें
देखकर रोओ! रोने
के लिए क्या कमी
है? पूरा आयोजन
है। और रोओ—ध्यानपूर्वक!
डोलो रोने में!
नाचो रोने में!
बहने दो आंसुओ
की धार!
शुरू—शुरू
में कठिनाई होगी, क्योंकि
बहुत दिन का अवरुद्ध
है तो शायद तुम
भूल गए होओ। स्वात
में जाकर बैठ जाओ
और प्रतीक्षा करो।
किसी—न—किसी दिन
तुम अचानक पाओगे,
आंखों से आंसू
बहने लगे अकारण।
लोग
सोचते हैं, कारण
चाहिए। घर में
कोई मरेगा तो रोके।
मृत्यु रोज घट
रही है; तुम्हारे
घर में घटेगी,
इसके लिए क्या
प्रतीक्षा करते
हो? जीवन मृत्यु
से घिरा है। चले
जाओ मरघट पर।
बुद्ध
भेज देते थे अपने
भिक्षुओं को मरघट
पर कि तीन महीने
वहीं ध्यान कर
लो। कोई लाश आएगी, जलेगी,
तुम बैठ कर देखते
रहो।
रोना
है तो हर जगह सुविधा
है। कारण खोजने
की कोई विशेष जरूरत
ही नहीं; सब जगह
कारण मौजूद है।
देखते हो, वृक्ष
पर पत्ता था, कल तक हरा था,
आज पीला हो गया!
देखते रहो उस पीले
होते पत्ते को—और
तुम पाओगे तुम्हारी
आंखें डबडबा आईं।
और तुम पाओगे वह
पत्ता पीला होकर
गिरने लगा, वह टूट गया, अब जमीन पर पड़ा
है। ऐसे ही सब गिर
जाएगा। ऐसे ही
तुम गिर जाओगे।
ऐसा गिरना ही होने
वाला है।
जो
फला,
सो झरा। यहां
जो जन्मा, सो
मरा। यहां सब तरफ
इन हरे—से—हरे वृक्षों
को भी मृत्यु की
काली छाया घेर
कर खड़ी है।
फिर
कोई दुख ही जरूरी
नहीं है रोने के
लिए;
सुख भी! इतनी
मृत्यु के घिराव
में भी जीवन नष्ट
नहीं होता—देखो
तो इस अपूर्व चमत्कार
को! इतने कांटे
हैं, फिर भी
फूल खिले चले जाते
हैं। मौत रोज—रोज
आती है, फिर
भी बच्चे जन्मे
जाते हैं। परमात्मा
थकता नहीं। मौत
जीत नहीं पाती।
जीवन हारता नहीं,
जीवन बढ़ता ही
चला जाता है। आये
मौत कितनी, जीवन फिर नई तरंगें
ले कर उठ आता
है।
मौत आती रहती है
और जीवन बढ़ता जाता
है।
इस
अहोभाव को देखो, इस
आनंद भाव को देखो!
इस अपने होने को
सोचो। यह होना
इतना आश्चर्यजनक
है —तुम देख पाते
हो, सोच पाते
हो, अनुभव कर
पाते हो। तुम हो,
इतना ही काफी
है। यह भाव ही तुम्हें
डोला जाएगा।
तो
स्वात में बैठो, शिथिल
हो जाओ, धारणाएं
छोड़ो। देखो आकाश
के तारों को, कि बहती नदी की
धार को, कि आकाश
में उठे हुए वृक्षों
को, कि घूमते—
भटकते बादलों को।
इस जीवन—प्रकृति
के चमत्कार से
घिर जाओ। और तुम
पाओगे आंखों से
आंसू बहने लगे।
विधि
की नहीं बात करूंगा, क्योंकि
तुम पूछते हो 'कैसे?' कैसे
में तो अड़चन हो
जाएगी। कैसे ही
से तो रुकावट पड़
गई है।
फूट
कर बह निकलने में
बुद्धि बाधा नहीं
दे रही है। तुम
बुद्धि को पकड़े
हो,
इसलिए बाधा है।
इसे भी खयाल में
ले लेना। लोग सोचते
हैं, बुद्धि
बाधा दे रही है।
बुद्धि बाधा नहीं
दे रही।
चैतन्य
महाप्रभु के पास
कुछ कम बुद्धि
न थी। लेकिन फर्क
इतना ही है कि उन्होंने
बुद्धि को पकड़ा
नहीं। बुद्धि अपनी
जगह है, हृदय उसे
डुबाता हुआ, सरोबोर करता
हुआ बहता रहता
है। बुद्धि बाधा
नहीं डालती। सच
तो यह है, जहां
चट्टानें होती
हैं। वहां नदी
में संगीत आ जाता
है।
तुमने
देखा, झरना जब चट्टानों
से बह कर निकलता
है तो झरने में
संगीत आ जाता है!
चट्टानें न हों
तो संगीत खो जाता
है। झरना कुछ रिक्त
हो जाता है बिना
चट्टानों के। झरने
में शोर नहीं रह
जाता, स्वर
नहीं रह जाता।
झरना नीरव हो जाता
है। झरने की वाणी
खो जाती है।
तो
मैं तो तुमसे कहता
हूं बुद्धि की
फिक्र ही मत करो।
बुद्धि को रहने
दो पत्थर की तरह, चट्टानों
की तरह; बहो
बुद्धि के ऊपर
से, बहो बुद्धि
को घेर कर। और तुम
पाओगे कि तुम्हारे
हृदय के बहते झरने
पर जब बुद्धि की
चट्टानों की टक्कर
होती है तो उठेगा
एक संगीत, उठेगा
एक निनाद, एक
मरमर! वही काव्य
है। वही असली कविता
है।
एक
तो ऐसी कविता है
जो भाव उठता है
और उसको तुम चेष्टा
करके बुद्धि के
शब्दों में ढालते
हो—वही तुम्हारी
अड़चन है अभी। एक
और भी कविता है, जो
बहती अनायास,
बुद्धि की चट्टानों
से टकराती। उस
टकराहट से जो रव
पैदा होता है,
जो लय पैदा होती
है, वह जो गुनगुनाहट
पैदा हो जाती है—वह
एक कविता है। उस
कविता में अर्थ
कम होगा, लय
ज्यादा होगी। उस
कविता में व्याकरण
कम होगा, संगीत
ज्यादा होगा। उस
कविता को शायद
बुद्धि के ढांचे
में समझा ही न जा
सके, लेकिन
फिर भी हृदय उससे
आंदोलित होगा।
आधुनिक
काव्य की यही खूबी
है। उसने व्याकरण
छोड़ी, लयबद्धता
पुराने ढंग की,
मात्रा, छंद
का आयोजन छोड़ा।
नई कविता शुद्ध
कविता है। पुरानी
कविता से उसने
बड़ी ऊंचाई ली है।
यह बहुत लोगों
की समझ में नहीं
आती, क्योंकि
बहुत लोग सीमा
के बाहर को नहीं
समझ पाते। बहुत
लोग व्याकरण के
बाहर को नहीं समझ
पाते। बहुत—से
लोग परिभाषा के
बाहर को नहीं समझ
पाते।
ऐसा
नए चित्रों में
भी हुआ है, नई
मूर्तियों में
भी हुआ है, नई
कविता में भी हुआ
है। सारे जगत में
एक विस्फोट हुआ
है—वह विस्फोट
हृदय को बहाने
से है। बुद्धि
के पत्थर पड़े रहने
दो। इससे हानि
नहीं है। इससे
बुद्धि के इन पत्थरों
से थोड़ी समृद्धि
ही बढ़ेगी।
और
कवि को चाहिए प्रेम, चाहिए
प्रार्थना, चाहिए परमात्मा;
अन्यथा अड़चन
रहेगी। जब तक कविता
भजन नै बने, तब तक दुविधा
रहेगी। और जब तक
कविता प्रार्थनापूर्ण
न हो जाए, अर्चना
न बने, नैवेद्य
न बने, तब तक
अड़चन रहेगी।
कौन
है अंकुश
इसे
मैं भी नहीं पहचानता
हूं।
पर सरोवर
के किनारे
कंठ
में जो जल रही है,
उस तृषा, उस
वेदना को जानता
हूं।
आग है
कोई नहीं जो शांत
होती
और खुल
कर खेलने से निरंतर
भागती है।
टूट
गिरती हैं उमंगें
बाहुओं
का पाश हो जाता
शिथिल है,
अप्रतिभ
में,
फिर उसी दुर्गम
जलधि में डूब जाता
फिर
वही उद्विग्न चिंतन
फिर
वही पृच्छा चिरंतन
रूप
की आराधना का मार्ग
आलिंगन
नहीं तो और क्या
है?
स्नेह
का सौंदर्य को
उपहार
रस चुंबन
नहीं तो और क्या
है?
रक्त
की उत्तप्त लहरों
की परिधि के पार
कोई सत्य हो तो,
चाहता
हूं भेद उसका जान
लूं
पंथ
औ' सौंदर्य की आराधना
का
व्योम
में यदि
शून्य
की उस रेख को पहचान
लूं।
पर जहां
तक भी उडूं
इस प्रश्न
का उत्तर नहीं
है।
मृत्तिमहद्
आकाश में ठहरें
कहां पर
शून्य
है सब
और नीचे
भी नहीं संतोष।
मिट्टी
के हृदय से
दूर
होता ही कभी अंबर
नहीं है।
इस व्यथा
को झेलता
आकाश
की निस्सीमता में
घूमता, फिरता,
विकल, विभ्रांत
पर कुछ
भी न पाता
प्रश्न
जो गढ़ता
गगन
की शून्यता में
गज कर सब ओर
मेरे
ही श्रवण में लौट
आता।
मैं
न रुक पाता कहीं
फिर
लौट आता हूं पिपासित
शून्य
से साकार सुषमा
के भुवन में
युद्ध
से भागे हुए
उस वेदना—विह्वल
युवक—सा
जो कहीं
रुकता नहीं
बेचैन
जा गिरता अकुंठित
तीर—सा
सीधे प्रिया की
गोद में।
नींद
जल का स्रोत है
छाया
सघन है
नींद
श्यामल मेघ है
शीतल
पवन है।
किंतु
जग कर देखता हूं
कामनाएं
वर्तिका—सी बल
रही हैं
जिस
तरह पहले पिपासा
से विकल थीं
प्यास
से आकुल अभी भी
जल रही हैं।
प्राण
की चिरसगिनी यह
वहि
इसको
साथ लेकर
भूमि
से आकाश तक चलते
रहो
मर्त्य
नर का भाग्य
जब तक
प्रेम की धारा
न मिलती
आप अपनी
आग में जलते रहो।
मर्त्य
नर का भाग्य
जब तक
प्रेम की धारा
न मिलती
आप अपनी
आग में जलते रहो!
काव्य
एक यात्रा का प्रारंभ
है,
अंत नहीं। काव्य
की अंतिम पूर्णाहुति
तो प्रेम में है।
कवि
का हृदय तो केवल
इस बात की सूचना
दे रहा है कि प्रेम
की बड़ी गहरी संभावना
है,
जो नहीं घट रहा
है। करो प्रेम!
तुम
पूछोगे 'कैसे'
फिर। प्रेम के
लिए 'कैसे'
की कोई भी जरूरत
नहीं। शुरू करो;
ऐसे ही जैसे
कोई
तैरना शुरू करता
है,
अनगढ़ हाथ फेंकता
है। कोई भी तो यहां
जन्म से ही सीखा
हुआ नहीं आता।
सभी को हाथ इरछे—तिरछे
फेंकने पड़ते हैं।
फिर धीरे— धीरे
तैरने की कुशलता
आ जाती है।
करो
प्रेम! वृक्षों
से करो, पशु—पक्षियों
से करो, मित्रों
से करो, प्रियजनों
से करो। जहां मौका
मिले प्रेम का,
—खो मत।
हम
बड़े अजीब हैं! हम
प्रेम के संबंध
में बड़े कृपण हैं।
प्रेम में हम ऐसे
कंजूस हैं कि जिनसे
हम कहते हैं, हमारा
प्रेम है, उनसे
भी हम बामुश्किल
से प्रेम का संबंध
बनाते हैं; जैसे कि कुछ लुटा
जा रहा है; जैसे
कि प्रेम क्या
कर लेंगे, तो
कुछ खो जाएगा;
जैसे कि प्रेम
क्या दे देंगे
किसी को तो कुछ
मिट जाएगा भीतर;
जैसे कि कुछ
कम हो जाएगा। प्रेम
ऐसी संपदा नहीं
है। यह तिजोड़ी
नहीं है आदमियों
की, कि तुमने
अगर दस रुपए किसी
को दे दिए तो दस
रुपए कम हो गए।
यह कुछ मामला ही
और है। यह तो ऐसे
है जैसे कुएं से
कोई पानी भर ले।
तुम भर लो पुराना
पानी, नया ताजा
झरना कुएं में
फूटा चला आ रहा
है। पुराने को
हटाओ, नया मिलता
है। सड़े को हटाओ,
गले को हटाओ—ताजा
मिलता है। जैसे
कुएं से पानी को
भरते रहो तो कुआं
जीवंत रहता है,
झरने जागे रहते
हैं, नई—नई धारें
फूटती रहती हैं;
सागर, दूर
का सागर, कुएं
को भरता रहता,
भरता रहता। बीच
की मिट्टी छानती
है। सागर के पानी
को सीधे नहीं पीया
जा सकता। पीयोगे
तो मर जाओगे। लेकिन
बीच की मिट्टी
सागर के पानी को
छान लेती है, छान देती है।
और कुएं में पानी
भागा चला आ रहा
है। अगर तुम भरोगे
न पानी, बांटोगे
नहीं पानी, तुम कहोगे मेरा
कुआ खाली हो जाएगा—तो
तुम्हारा कुआ सडेगा,
मरेगा। धीरे
— धीरे झरने बहेंगे
नहीं, तो सूख
जाएंगे।
अब
तुम पूछते हो कि
झरनों को कैसे
खोलें, मैं अवरुद्ध
पड़ा हूं एक अरसे
से, रुंधा पड़ा
हूं कैसे खोलूं
इस झरने को? मैं कहता हूं
: बांटो प्रेम! निमंत्रण
दो लोगों को! जहां
मौका मिल जाए— परिचित
से, अपरिचित
से; अपने से,
पराए से; पहचान वाले से,
अजनबी से! प्रेम
में कुछ भी तो तुम्हारा
खर्च नहीं होता
है। दो! जरूरी नहीं
कि तुम कुछ दो ही.।
टालस्टॉय
ने अपने संस्मरणों
में लिखा है कि
मैं एक दिन जा रहा
था एक राह के किनारे
से,
एक भिखमंगे ने
हाथ फैला दिया।
सुबह थी, अभी
सूरज ऊगा था और
टालस्टॉय बड़ी प्रसन्न
मुद्रा में था,
इंकार न कर सका।
अभी— अभी चर्च से
प्रार्थना करके
भी लौट रहा था,
तो वह हाथ उसे
परमात्मा का ही
हाथ मालूम पड़ा।
उसने अपने खीसे
टटोले, कुछ
भी नहीं था। दूसरे
खीसे में देखा,
वहा भी कुछ नहीं
था। वह जरा बेचैन
होने लगा। उस भिखारी
ने कहा कि नहीं,
बेचैन न हों,
आपने देना चाहा,
इतना ही क्या
कम है! टालस्टॉय
ने उसका हाथ अपने
हाथ में ले लिया।
और टालस्टॉय कहता
है, मेरी आंखें
आंसुओ से भर गईं।
मैंने उसे कुछ
भी न दिया, उसने
मुझे इतना दे दिया।
उसने कहा कि आप
बेचैन न हों! आपने
टटोला, देना
चाहा—इतना क्या
कम है? बहुत
दे दिया!
न
दे कर भी देना हो
सकता है। और कभी—कभी
दे कर भी देना नहीं
होता। अगर बेमन
से दिया तो देना
नहीं हो पाता।
अगर मन से देना
चाहा, न भी दे पाए,
तो भी देना घट
जाता है—ऐसा जीवन
का रहस्य है।
बांटते
चलो! धीरे— धीरे
तुम पाओगे, जैसे—जैसे
तुम बांटने लगे
ऊर्जा, वैसे—वैसे
तुम्हारे भीतर
से कहीं परमात्मा
का सागर तुम्हें
भरता जाता। नई—नई
ऊर्जा आती, नई तरंगें आतीं।
और एक दफा यह तुम्हें
गणित समझ में आ
जाए. .यह जीवन का
अर्थशास्त्र नहीं
है, यह परमात्मा
का अर्थशास्त्र
है, यह बिलकुल
अलग है। जीवन का
अर्थशास्त्र तो
यह है कि जो है,
अगर नहीं बचाया
तो लुटे। इसको
तो बचाना, नहीं
तो भीख मांगोगे!
मैंने
सुना, एक भिखमंगा
मुल्ला नसरुद्दीन
के द्वार पर भीख
मांग रहा था। मुल्ला
ने उसे खूब दिल
खोल कर दिया। खिलाया,
पिलाया, वस्त्र
पहनाए, जाने
लगा तो दस का नोट
भी दिया। फिर मुल्ला
ने उससे पूछा कि
तुम आदमी तो भले
मालूम पड़ते हो,
तुम्हारे चेहरे
से संस्कार मालूम
पड़ता है। तुम्हारे
वस्त्र भी यद्यपि
दीन, मलिन हैं,
फटे—पुराने हैं,
लेकिन कीमती
मालूम होते हैं।
यह दशा तुम्हारी
कैसे हुई?
वह
कहने लगा, जैसे
आप कर रहे हैं,
ऐसे ही मैं करता
था। जल्दी आपकी
भी यही दशा हो जाएगी।
दे—दे कर यह दशा
हुई। बांटता रहा,
उसी में लुट
गया।
तो
एक तो इस बाहर के
जगत का अर्थशास्त्र
है : यहां छीनो तो
मिलेगा, यहां दो
तो खो जाएगा। एक
भीतर का अर्थशास्त्र
है, कबीर ने
कहा दोनों हाथ
उलीचिए! उलीचते
रही तो नया आता
रहेगा। बांटते
रहो तो मिलता रहेगा।
जो बचाया वह गया;
जो दिया वह बचा।
जो तुमने बांट
दिया और दे दिया,
वही तुम्हारा
है अंतर के जगत
में।
तो
दो काम करो : प्रेम
बाटो और आंसुओ
को आने दो।
और
दोनों साथ—साथ
हो जाएंगे, क्योंकि
दोनों एक ही घटना
के हिस्से हैं।
जितना हृदय में
प्रेम बंटने लगता
है, उतनी आंखें
गीली होने लगती
हैं, नम होने
लगती हैं।
प्राण
की चिरसगिनी यह
वहि
इसको
साथ ले कर
भूमि
से आकाश तक चलते
रहो
मर्त्य
नर का भाग्य
जब तक
प्रेम की धारा
न मिलती
आप अपनी
आग में जलते रहो।
यह
जो आज जलन है, यही
कल फूल की तरह खिलेगी।
यह आज जो अग्नि
है, यही कल तुम्हारे
भीतर कमल बनेगी।
मगर बांटों! प्रेम
सूत्र है। और प्रेम
के जगत में 'कैसे' का कोई
संबंध नहीं! बेशर्त
बांटी। यह भी मत
कहना 'किसको'!
यह तो कंजूस
पूछता है। पात्र—
अपात्र, यह
भी कंजूस पूछता
है। हम कौन हैं
तय करें—कौन पात्र,
कौन अपात्र?
जो मिल जाए,
दे दो।
और
जो तुमसे तुम्हारे
प्रेम को ले ले, उसका
धन्यवाद मानना,
आभार मानना;
इंकार भी कर
सकता था। उसने
इंकार न किया,
तुम धन्यभागी
हो। उसने तुम्हें
अपने को लुटाने
का थोड़ा मौका दिया,
क्योंकि उस लुटाने
से ही तुम और भरोगे,
उसे धन्यवाद
देना!
प्रेम
जीवन में आए तो
धीरे— धीरे प्रार्थना
भी आ जाती है। और
जब तक काव्य की
क्षमता भजन न बने, जब
तक काव्य प्रार्थना
न बने, तब तक
कवि को बड़ी बेचैनी
रहेगी।
तुम्हारा
काव्य जब उपनिषद
बन जाए, तो कवि
मर जाता है और ऋषि
का जन्म होता है।
ऋषि और कवि दोनों
शब्दों का एक ही
अर्थ है। फर्क
इतना ही है कि कवि
चेष्टा करके हृदय
के भावों को शब्दों
में डालता है;
और ऋषि निश्चेष्टा
से, सहजता से,
सहज स्फुरणा
से, भाव को बहने
देता है मस्तिष्क
की चट्टानों पर
से। उससे जो रव
पैदा होता है,
जो संगीत पैदा
होता है—वही उसका
काव्य है। और वही
उसका नैवेद्य है
प्रभु के चरणों
में।
आखिरी प्रश्न
मेरे
माजी के तल्स अंधेरों
में,
बता
'रजनीश ' क्या
देखा तूने?
गर्दिश
—ए— अथ्याम में था
उलझा,
या
बाहर उलझनों से
आते देखा?
(मेरे अतीत के
गहरे अंधेरे में
क्या देखा? क्या मैं भाग्य—चक्र
में उलझा था या
भाग्य— चक्र के
बाहर आ रहा था।)
दिनेश
ने पूछा है।
उलझे
तो अभी भी हो। और
भाग्य—चक्र में
आदमी उलझा ही रहता
है जब तक पूरा न
जाग जाए। भाग्य—चक्र
का अर्थ ही इतना
होता है कि हम बेहोशी
से चले जा रहे हैं।
भाग्य होता ही
बेहोश आदमी का
है। होश से भरे
आदमी का कोई भाग्य
नहीं होता। बेहोश
आदमी के संबंध
में ज्योतिषी भविष्यवाणी
कर सकते हैं। होश
वाले आदमी के संबंध
में कोई ज्योतिषी
कोई भविष्यवाणी
नहीं कर सकता।
क्योंकि होश से
भरा हुआ आदमी क्या
करेगा, इसका कोई
निर्णय अतीत के
हाथों में नहीं
है। बेहोश आदमी
क्या करेगा, यह सब अतीत पर
निर्भर है।
अगर
तुम्हारा अतीत
बता दिया जाए, पता
हो, तो तुम्हारे
भविष्य की भी घोषणा
की जा सकती है।
तुमने कल भी क्रोध
किया था, परसों
भी क्रोध किया
था, और पूरी
पीछे क्रोध किया
था—तुम कल भी क्रोध
करोगे, इसमें
कुछ अड़चन नहीं
है। क्योंकि तुम
वही करोगे जो तुम
करते रहे हो। तुम
आदत से चलते हो,
यंत्रवत हो।
भाग्य यानी यंत्रवत
जीवन।
जैसे—जैसे
होश जगता है, ध्यान
जगता है, आदमी
भाग्य के बाहर
होने लगता है।
फिर तुम अतीत से
संचालित नहीं होते।
फिर प्रतिक्षण
जो घटता है, उसके साथ तुम्हारा
संवाद होता है।
वह संवाद सीधा
है। वह पुरानी
आदत के कारण नहीं।
उसका कोई निर्धारण
तुम्हारे पीछे
के अनुभवों से
नहीं होता। इस
क्षण की मौजूदगी
और इस क्षण की उपस्थिति
और इस क्षण का बोध
ही उसका निर्णायक
होता है। लेकिन
'दिनेश' के जीवन में चेष्टा
तो है बाहर आने
की—और वही शुभ है।
चेष्टा है तो बाहर
आना भी हो जाएगा।
मुझे
इसकी चिंता नहीं
है कि तुमने क्या
किया। तुमने पाप
किए,
तुमने बुरे कर्म
किए—मुझे उसकी
कोई चिंता नहीं,
या कि तुमने
पुण्य किए। न तो
मेरे लिए पुण्य
का कोई मूल्य है
और न पाप का कोई
मूल्य है; क्योंकि
पुण्य भी तुमने
सोए—सोए किए, पाप भी तुमने
सोए—सोए किए। तुम
चोर थे तो सोए थे,
तुम संत थे तो
सोए थे। मेरे लिए
तो एक ही बात का
मूल्य है कि अब
तुम्हारे मन में
जागने की आकांक्षा
पैदा हुई। उस आकांक्षा
पर सब निर्भर है।
वही आकांक्षा जीवन
की सबसे बड़ी घटना
है। मैं कि बरबादे—निगाराने—दिलाआरा
ही सही,
मैं
कि रुसवा—ए—मय— ओ—सागरो
—मीना ही सही,
मैं
कि मक्यूले —गुलो
—नरगिसे—सहला ही
सही,
फिर
भी मैं खाके —रहे—साहिदे
—नजरा हूं दोस्त।
मैं
कि बरबादे —निगाराने
—दिलाआरा ही सही।
—हृदय आकर्षक
सुंदरियों द्वारा
बरबाद, मान
लिया यही सही है।
मैं
कि रुसवा—ए—मय— ओ—सागरो
—मीना ही सही
—या कि शराब के
प्याले और सुराही
के द्वारा अपमानित,
मान लिया, तो वह भी ठीक।
मैं
कि मक्यूले —गुलो—नरगिसे
—सहला ही सही
—और या कि फूलों,
नरगिस के फूल,
ऐसी आंखों वाली
सुंदरियों द्वारा
मारा हुआ! ठीक,
वह भी ठीक, वह भी स्वीकार
कर लिया।
फिर
भी मैं खाके—रहे—साहिदे
—नजरा हूं दोस्त।
—फिर भी मैं पारखियों
के मार्ग की धूल
हूं। बस, वही
बात मूल्यवान है।
'दिनेश' के
भीतर पारखी का
जन्म हो रहा है।
आकांक्षा पैदा
हो रही है—आकांक्षा
के पार जाने की।
पूरब के क्षितिज
पर सूरज की पहली
किरणों की लाली
प्रगट होने लगी।
नहीं, तुम्हारे
अतीत से, तुम्हारे
माजी से मुझे कुछ
लेना—देना नहीं।
तुमने
सपने देखे हैं
अब तक, अब जागने
की पहली झलक आ रही
है। नींद टूटने
के करीब है—वही
मूल्यवान है। तुम
सम्राट थे कि दरिद्र,
तुम साधु थे
कि असाधु, कि
तुमने अब तक पुण्यों
का अंबार लगा लिया
था कि पापों के
संग्रह कर .लिए
थे—सब बात व्यर्थ
है। वह सब तुमने
नींद—नींद में
किया था, वे
सब सपने थे। अब
सपना टूटने की
घड़ी करीब आ रही
है। ध्यान के प्रति
प्रेम पैदा हुआ
है, वही बात
महत्वपूर्ण है।
और
'दिनेश' की
तैयारी है मिटने
की—वही बात महत्वपूर्ण
है। जो मिटने को
तैयार है, वह
अतीत से मुक्त
हो जाएगा। क्योंकि
तुम हो ही अतीत
का संग्रह।
हम
जो निरंतर कहते
हैं यहां कि अहंकार
छोड़ दो, तो उसका
मतलब सिर्फ इतना
ही होता है कि तुम
अब तक जो अतीत ने
तुम्हें बनाया
है उसे विस्मृत
करो, उससे अपने
को विच्छिन्न कर
लो, ताकि ताजे
के लिए घटने के
लिए जगह बन सके।
बावरे, अहेरी
रे! कुछ भी अवध्य
नहीं तुझे,
सब आखेट
है।
एक बस
मेरे मन—विवर में, दुबकी
कलोंच को,
दुबकी
ही छोड़ कर, क्या
तू चला जाएगा?
ले मैं
खोल देता हूं कपाट
सारे
मेरे
इस खंडहर की
शिरा—शिरा
छेद दे
आलोक
की अनि से अपनी।
गढ़ सारा
ढाह कर ढूह भर कर
दे,
विफल
दिनों की तू कलोंच
पर मान जा
मेरी
आंखें आज जा
कि तुझे
देखूं
देखूं
और मन में, कृतज्ञता
उमड़ आए
पहनूँ
सिरोपे से, ये
कनक तार तेरे
बावरे, अहेरी!
'दिनेश' की
प्रार्थना मुझे
सुनाई पड़ रही है.
ले मैं
खोल देता हूं कपाट
सारे
मेरे
इस खंडहर की
शिरा—शिरा
छेद दे
आलोक
की अनि से अपनी!
और
वही शुभ घड़ी है, वही
भाग्योदय है,
जब तुम किसी
के पास जा कर कह
सकी, मिटा दो
मुझे। गढ़ सारा
डाह कर, ढूह
भर कर दे
विफल
दिनों की तू कलोंच
पर मान जा
मेरी
आंखें आज जा!
ध्यान
यानी आंखों का
आंजना है। ध्यान
यानी आंखों को
ताजा करना है, नया
करना है, अतीत
की धूल झाडूना
है!
'मेरे
माजी के तल्स अंधेरों
में
बता
'रजनीश' क्या
देखा तूने?'
नहीं, तुम्हारे
अतीत की मैं चिंता
ही नहीं करता।
जो गया, गया।
जो बीता सो बीता।
'गर्दिश—ए—अथ्याम
में था उलझा
या बाहर
उलझनों से आते
देखा?' '
नहीं, अभी
आए नहीं बाहर।
लेकिन बाहर आने
की पहली आकांक्षा
उठी। और पहली आकांक्षा
का उठ आना आधी यात्रा
का पूरा हो जाना
है।
ले मैं
खोल देता हूं कपाट
सारे,
मेरे
इस खंडहर की
शिरा—शिरा
छेद दे
आलोक
की अनि से अपनी।
इधर
मैं प्रकाश लिए
बैठा हूं, तुम
अगर तैयार हो हृदय
को खोल देने को,
तो मृत्यु घटेगी
और तुम्हारा नया
जन्म भी होगा।
सूली भी लगेगी
और तुम्हारा पुनर्जन्म
भी होगा।
पर
मिटने की तैयारी
चाहिए, पूरी—पूरी
मिटने की तैयारी
चाहिए! वही संन्यास
है. अतीत से अपने
को विच्छिन्न कर
लेना; अतीत
की भूमि से अपनी
जड़ों को बिलकुल
उखाड़ लेना। नई
भूमि की तलाश है
संन्यास। जैसे
अब तक जो था व्यर्थ
था; जो हुआ हुआ;
नहीं हुआ नहीं
हुआ; अब हम उससे
सब संबंध छोड़ लेते
हैं; अब आगे
उसका कोई हिसाब
न रखेंगे, और
अब पीछे लौट—लौट
कर न देखेंगे।
गढ सारा ढाह कर,
ढूह भर कर दे
विफल
दिनों की तू कलोंच
पर मान जा
मेरी
आंखें आज जा।
मैं
तैयार हूं! अगर
तुम तैयार हो, तो
मैं तैयार हूं
तुम्हारी आंखें
आजने को। थोडी
तकलीफ भी होती
है जब आंखें आजी
जाती हैं। आंसू
भी बहते हैं, आंख बंद कर लेने
का भी मन होता है।
वह सब स्वाभाविक
है। लेकिन अगर
साहस हो तो परमात्मा
सुनिश्चित घट सकता
है।
मेरी
तैयारी है; अगर
तुम भी तैयार हो
तो कोई रुकावट
रुकावट नहीं बन
सकती। छोड़ो पीछे
को, आगे की सुधि
लो।
हरि ओंम तत्सत्!
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