दिनांक:
1 अक्टूबर, 1976;
श्री रजनीश
आश्रम पूना।
सूत्र:
अष्टावक्र
उवाच।
न ते
संगोउस्ति केनायि
किं शद्धस्त्यक्तमिच्छसि।
संघातविलयं
कुर्वन्नेमेव
लयं व्रज।।66।।
उदेति
भवतो विश्वं वारिधेरिव
बुदबुद:।
इति
ज्ञात्वैकमात्मानमेवमेव
लय व्रज।। 67।।
प्रत्यक्षमथ्यवस्तुत्वद्विश्वं
नास्तमले त्वयि।
रज्जुसर्प
इव व्यकृमेवमेव
लय व्रज।। 68।।
समदु:ख
सुख: पूर्ण आशानैराश्ययो:
सम:।
समजीवित
मृत्यु: सन्नैवमेव
लयं व्रज।। 69।।
जनक उवाच।
आकाशवदनंतोऽहं
धटवत् प्राकृतं
जगत्।
इति
ज्ञानं तथैतस्थ
न त्यागो न ग्रहो
लय:।।70 ।।
महौदधिरिवाहं
स प्रपंचो वीचिसन्निभि:।
इति
ज्ञानं तथैतस्थ
न त्यागो न ग्रहो
लय:।। 71।।
अहं
स शुक्तिसंकाशो
रूप्पवद्विश्वकल्यना।
इति
ज्ञानं तथैतस्थ
न त्यागो न ग्रहो
लय:।। 72।।
अहं
वा सर्वभूतेषु
सर्वभतान्ययो
मयि।
संसार
छूटता है तो जरूरी
नहीं कि अज्ञान
की पकड़ छूट जाए।
भोग
छूटता है तो जरूरी
नहीं कि भोग के
आंतरिक कारण विनष्ट
हो जाएं। आंतरिक
कारण तो फिर भी
मौजूद रहेंगे।
तुम धन छोड़ दो; वह
जो पकड़ने की आकांक्षा
थी, वह त्याग
को पकड़ लेगी। तुम
घर छोड़ दो; वह
जो पकड़ने की आकांक्षा
थी, आश्रम को
पकड़ लेगी। तुम
बाजार छोड़ दो;
वह जो पकड़ने
की पुरानी वृत्ति
थी, वह एकांत
पकड़ लेगी। और पकड़
पकड़ की है.. पकड़ छोड़नी
है।
इसलिए
जो व्यक्ति भोग
से जागता है, उसके
लिए तत्क्षण एक
दूसरा खतरा पैदा
होता है। वह खतरा
भोगी को कभी नहीं
है। वह खतरा केवल
उसको है जो भोग
से जागता है। वह
खतरा है—त्याग
में उलझ जाने का।
अगर
पुरानी आदत बनी
ही रही और परिवर्तन
बाहरी हुआ, भीतर
क्रांति न घटी,
तो तुम त्याग
में उलझ जाओगे।
संसारी से संन्यासी
हो जाओगे। धन छोड़
दोगे, परिवार,
घर—द्वार छोड़
दोगे, लेकिन
भीतर तुम्हारे
जो जाल थे पकड़ने
के, वे मौजूद
रहेंगे। तुम कुछ
और पकड़ लोगे। एक
लंगोटी काफी है,
कोई साम्राज्य
नहीं चाहिए पकड़ने
को। नंगापन भी
आदमी पकड़ ले सकता
है। त्याग भी आदमी
पकड़ ले सकता है।
पुरानी
सूफियों की एक
कथा है। एक सम्राट
जब छोटा बच्चा
था,
स्कूल में पढ़ता
था, तो उसकी
एक युवक से बड़ी
मैत्री थी। फिर
जीवन के रास्ते
अलग— अलग हुए। सम्राट
का बेटा तो सम्राट
हो गया। वह जो उसका
मित्र था, वह
त्यागी हो गया,
वह फकीर हो गया।
उसकी दूर—दिगत
तक प्रशंसा फैल
गई—फकीर की। यात्री
दूर—दूर से उसके
चरणों में आने
लगे। खोजी उसका
सत्संग करने आने
लगे। जैसे—जैसे
खोजियों की भीड़
बढ़ती गई, उसका
त्याग भी बढ़ता
गया। अंतत: उसने
वस्त्र भी छोड़
दिए, वह दिगंबर
हो गया। फिर तो
वह सूर्य की भांति
चमकने लगा। और
त्यागियों को उसने
पीछे छोड़ दिया।
लेकिन
सम्राट को सदा
मन में यह होता
था कि मैं उसे भलीभाति
जानता हूं, वह
बड़ा अहंकारी था
स्कूल के दिनों
में, कालेज
के दिनों में—अचानक
इतना महात्याग
उसमें फलित हो
गया! इस पर
भरोसा
सम्राट को न आता
था। फिर यह जिज्ञासा
उसकी बढ़ती गई।
अंततः उसने अपने
मित्र को निमंत्रण
भेजा कि अब तुम
महात्यागी हो गए
हो,
राजधानी आओ,
मुझे भी सेवा
का अवसर दो। मेरे
प्रजाजनों को भी
बोध दो, जगाओ!
निमंत्रण
स्वीकार हुआ। वह
फकीर राजधानी की
तरफ आया। सम्राट
ने उसके स्वागत
के लिए बड़ा आयोजन
किया। पुराना मित्र
था। फिर इतना ख्यातिलब्ध, इतनी
प्रशंसा को प्राप्त,
इतना गौरवान्वित!
तो उसने कुछ छोड़ा
नहीं, सारी
राजधानी को सजाया—फूलों
से, दीपों से!
रास्ते पर सुंदर
कालीन बिछाए,
बहुमूल्य कालीन
बिछाए। जहां से
उसका प्रवेश होना
था, वहां से
राजमहल तक दीवाली
की स्थिति खड़ी
कर दी।
फकीर
आया,
लेकिन सम्राट
हैरान हुआ.. वह नगर
के द्वार पर उसकी
प्रतीक्षा करता
था अपने पूरे दरबारियों
को लेकर, लेकिन
चकित हुआ. वर्षा
के दिन न थे, राहें सूखी पड़ी
थीं, लोग पानी
के लिए तडूफ रहे
थे और फकीर घुटनों
तक कीचड़ से भरा
था। वह भरोसा न
कर सका कि इतनी
कीचड़ राह में कहां
मिल गई, और घुटने
तक कीचड़ से भरा
हुआ है! पर सबके
सामने कुछ कहना
ठीक न था। दोनों
राजमहल पहुंचे।
जब दोनों एकांत
में पहुंचे तो
सम्राट ने पूछा
कि मुझे कहें,
यह अड़चन कहां
आई? आपके पैर
कीचड़ से भरे हैं!
उसने
कहा,
अड़चन का कोई
सवाल नहीं। जब
मैं आ रहा था तो
लोगों ने मुझसे
कहा कि तुम्हें
पता है, तुम्हारा
मित्र, सम्राट,
अपना वैभव दिखाने
के लिए राजधानी
को सजा रहा है?
वह तुम्हें झेंपाना
चाहता है। तुम्हें
कहना चाहता है,
'तुमने क्या
पाया? नंगे
फकीर हो! देखो मुझे!'
उसने रास्ते
पर बहुमूल्य कालीन
बिछाए, लाखों
रुपये खर्च किए
गए हैं। राजधानी
दुल्हन की तरह
सजी है। वह तुम्हें
दिखाना चाहता है।
वह तुम्हें फीका
करना चाहता है।.
तो मैंने कहा कि
देख लिए ऐसा फीका
करने वाले! अगर
वह बहुमूल्य कालीन
बिछा सकता है,
तो मैं फकीर
हूं मैं कीचड़ भरे
पैरों से उन कालीनों
पर चल सकता हूं।
मैं दो कौड़ी का
मूल्य नहीं मानता!
जब
उसने ये बातें
कहीं तो सम्राट
ने कहा, अब मैं
निश्चित हुआ। मेरी
जिज्ञासा शांत
हुई। आपने मुझे
तृप्त कर दिया।
यही मेरी जिज्ञासा
थी।
फकीर
ने पूछा, क्या जिज्ञासा
थी?
'यही जिज्ञासा
थी कि आपको मैं
सदा से जानता हूं।
स्कूल में, कालेज में आपसे
ज्यादा अहंकारी
कोई भी न था। आप
इतनी विनम्रता
को उपलब्ध हो गए,
यही मुझे संदेह
होता था। अब मुझे
कोई चिंता नहीं।
आओ हम गले मिलें,
हम एक ही जैसे
हैं। तुम मुझ ही
जैसे हो। कुछ फर्क
नहीं हुआ है। मैंने
एक तरह से अपने
अहंकार को भरने
की चेष्टा की है—सम्राट
हो कर; तुम दूसरी
तरह से उसी अहंकार
को भरने की चेष्टा
कर रहे हो। हमारी
दिशाएं अलग हों,
हमारे लक्ष्य
अलग नहीं। और मैं
तुमसे इतना कहना
चाहता हूं मुझे
तो पता है कि मैं
अहंकारी हूं तुम्हें
पता ही नहीं कि
तुम अहंकारी हो।
तो मैं तो किसी
न किसी दिन इस अहंकार
से ऊब ही जाऊंगा,
तुम कैसे ऊबोगे?
तुम पर मुझे
बड़ी दया आती है।
तुमने तो अहंकार
को खूब सजा लिया।
तुमने तो उसे त्याग
के वस्त्र पहना
दिए।'
जो
व्यक्ति संसार
से ऊबता है, उसके
लिए त्याग का खतरा
है।
दुनिया
में दो तरह के संसारी
हैं—एक, जो दुकानों
में बैठे हैं;
और एक, जो
मंदिरों में बैठे
हैं।
दुनिया
में दो तरह के संसारी
हैं—एक, जो धन इकट्ठा
कर रहे हैं; एक जिन्होंने
धन पर लात मार दी
है। दुनिया में
दो तरह के दुनियादार
हैं—एक जो बाहर
की चीजों से अपने
को भर रहे हैं;
और दूसरे, जो सोचते हैं
कि बाहर की चीजों
को छोड़ने से अपने
को भर लेंगे। दोनों
की भ्रांति एक
ही है। न तो बाहर
की चीजों से कभी
कोई अपने को भर
सकता है और न बाहर
की चीजों को छोड़
कर अपने को भर सकता
है। भराव का कोई
भी संबंध बाहर
से नहीं है।
अष्टावक्र
ने पहले तो परीक्षा
ली जनक की। आज के
सूत्रों में परीक्षा
नहीं लेते, प्रलोभन
देते हैं। वह प्रलोभन,
जो हर त्यागी
के लिए खड़ा होता
है; वह प्रलोभन,
जो भोग से भागते
हुए आदमी के लिए
खड़ा होता है। आज
वे फुसलाते हैं
जनक को कि तू त्यागी
हो जा। अब तुझे
ज्ञान हो गया,
अब तू त्याग
को उपलब्ध हो जा।
अब छोड़ सब! अब उठ
इस मायामोह के
ऊपर!
ये
जो सूक्ष्म प्रलोभन
अष्टावक्र देते
हैं जनक को, यह
पहली परीक्षा से
भी कठिनतर परीक्षा
है। लेकिन यह प्रत्येक
भोग से हटने वाले
आदमी के जीवन में
आता है; इसलिए
बिलकुल ठीक अष्टावक्र
करते हैं। ठीक
ही है यह प्रलोभन
का देना।
और
जब तक कोई त्याग
से भी मुक्त न हो
जाए तब तक कोई मुक्त
नहीं होता। भोग
से तो मुक्त होना
ही है, त्याग से
भी मुक्त होना
है। संसार से तो
मुक्त होना ही
है। मोक्ष से भी
मुक्त होना है।
तभी परम मुक्ति
फलित होती है।
परम
मुक्ति का अर्थ
ही यही है कि अब
कोई चीज की आकांक्षा
न रही। त्याग में
तो आकांक्षा है।
तुम त्याग करते
हो तो किसी कारण
करते हो। और जहां
कारण है, वहा कैसा
त्याग? फिर
भोग और त्याग में
फर्क क्या रहा?
दोनों का गणित
तो एक हो गया।
एक
आदमी भोग में पड़ा
है,
धन इकट्ठा करता,
सुंदर स्त्री
की तलाश करता,
सुंदर पुरुष
को खोजता, बड़ा
मकान बनाता—तुम
पूछो उससे, क्यों बना रहा
है? वह कहता
है, इससे सुख
मिलेगा। एक आदमी
सुंदर मकान छोड़
देता, पत्नी
को छोड़ कर चला जाता,
घर—द्वार से
अलग हो जाता, नग्न भटकने लगता,
संन्यासी हो
जाता—पूछो उससे,
यह सब तुम क्यों
कर रहे हो? वह
कहेगा, इससे
सुख मिलेगा। तो
दोनों की सुख की
आकांक्षा है और
दोनों मानते हैं
कि सुख को पाने
के लिए कुछ किया
जा सकता है। यही
भ्रांति है।
सुख
स्वभाव है। उसे
पाने के लिए तुम
जब तक कुछ करोगे, तब
तक उसे खोते रहोगे।
तुम्हारे पाने
की चेष्टा में
ही तुमने उसे गंवाया
है। संसारी एक
तरह से गवाता,
त्यागी दूसरी
तरह से गवाता।
तुम किस भांति
गंवाते, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। तुम किस
ढंग की शराब पीकर
बेहोश हो, इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता। तुम किस
मार्के की शराब
पीते हो, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता।
लेकिन
इस गणित को ठीक
खयाल में ले लेना।
संसारी कहता है, इतना—इतना
मेरे पास होगा
तो मैं सुखी हो
जाऊंगा। त्यागी
कहता है, मेरे
पास कुछ भी न होगा
तो मैं सुखी हो
जाऊंगा। दोनों
के सुख सशर्त हैं।
और जब तक तुम शर्त
लगा रहे हो सुख
पर, तब तक तुम्हें
एक बात समझ में
नहीं आई कि सुख
तुम्हारा स्वभाव
है। उसे पाने कहीं
जाना नहीं; सुख मिला ही हुआ
है। तुम जाना छोड़
दो। तुम कहीं भी
खोजो मत। तुम अपने
भीतर विश्राम में
उतर जाओ।
यही
तो अष्टावक्र ने
प्राथमिक सूत्रों
में कहा. चैतन्य
में विश्राम को
पहुंच जाना ही
सुख है, आनंद है,
सच्चिदानंद
है।
तुम
कहीं भी मत जाओ!
तरंग ही न उठे जाने
की! जाने का अर्थ
ही होता है : हट गए
तुम अपने स्वभाव
से। मांगा तुमने
कुछ,
चाहा तुमने कुछ,
खोजा तुमने कुछ—स्मृत
हुए अपने स्वभाव
से। न मांगा, न खोजा, न कहीं
गए—की आंख बंद,
डूबे अपने में!
जो
है। वह इसी क्षण
तुम्हारे पास है।
जो है, उसे तुम सदा
से ले कर चलते रहे
हो। जो है वह तुम्हारी
गुदड़ी में छिपा
है। वह हीरा तुम्हारी
गुदड़ी में पड़ा
है। तुम गुदड़ी
देखते हो और भीख
मांगते हो। तुम
सोचते हो, हमारे
पास क्या? और
हीरा गुदड़ी में
पड़ा है। तुम गुदड़ी
खोलो। और जिसे
तुम खोजते थे,
तुम चकित हो
जाओगे, वही
तो आश्चर्य है—जो
जनक को आंदोलित
कर दिया है। जनक
कह रहे हैं, ' आश्चर्य! ऐसा
मन होता है कि अपने
को ही नमस्कार
कर लूं कि अपने
ही चरण छू लूं! हद
हो गई, जो मिला
ही था, उसे खोजता
था! मैं तो परमेश्वरों
का परमेश्वर हूं!
मैं तो इस सारे
जगत का सार हूं!
मैं तो सम्राट
हूं ही और भिखारी
बना घूमता था!'
सम्राट
होना हमारा स्वभाव
है;
भिखारी होना
हमारी आदत। भिखारी
होना हमारी भूल
है। भूल को ठीक
कर लेना है; न कहीं खोजने
जाना है, न कुछ
खोजना है।
तो
जब कोई व्यक्ति
भोग से जागने लगता
है तब खतरा खड़ा
होता है। फिर भी
वह मांगेगा वही।
तंग
आ चुका हूं सिद्दते—जहदे—हयात
से।
मुतरिब!
शुरू कोई मोहब्बत
का राग कर।
—घबड़ा चुका हूं
जीवन के संघर्ष
से!
तंग
आ चुका हूं सिद्दते—जहदे—हयात
से
—बहुत हो गया यह
संघर्ष! अब और नहीं।
अब हिम्मत न रही।
अब टूट चुका हूं।
मुतरिब!
शुरू कोई मोहब्बत
का राग कर।
—हे गायक, अब
तू प्रेम का गीत
गा!
मगर
यह मामला क्या
हुआ?
अगर जिंदगी के
राग से ऊब गये हो
तो यह प्रेम का
गीत? यह तो फिर
जिंदगी का राग
शुरू हुआ। अगर
जिंदगी के संघर्ष
से ऊब गए हो, तो फिर प्रेम
की अभीप्सा, फिर जीवन की शुरुआत
हो जाएगी।
हम
बदलते हैं तो भी
बदलते नहीं। हम
मुड़ते हैं तो भी
मुड़ते नहीं। हम
ऊपर—ऊपर सब खेल
खेल लेते हैं।
हम लहरों —लहरों
में तैरते रहते
हैं,
भीतर हम प्रवेश
नहीं करते।
बे—गोता
कैसे मिलता हमें
गौहरे —मुराद
हम तैरते
रहे सदा, लहरों
के झाग पर।
एक
लहर से दूसरी लहर, दूसरी
से तीसरी लहर।
हम लहरों के झाग
पर ही तैरते रहते
हैं। तो वह जो मणि
है, जिसे मिलकर
मुक्ति मिल जाती
है—कहें मुक्ता,
कहें मणि—वह
जो परम मणि है,
वह तो गहरे डुबकी
लगाने से मिलती
है।
बे—गोता
कैसे मिलता हमें
गौहरे—मुराद
वह
जो हमारी सदा की
आकांक्षाओं की
आकांक्षा है, वह
जो हमारी चाहतों
की चाहत है, 'गौहरे—मुराद',
जिसके अतिरिक्त
हमने कभी कुछ नहीं
चाहा है—हमने सब
ढंग, सब रंग
में उसी को
चाहा
है। कोई धन में
खोजता है, कोई
पद में खोजता है;
लेकिन हम खोजते
परमात्मा को ही
हैं, पद पर बैठकर
परमात्मा होने
का ही थोड़ा मजा
लेते हैं कि थोड़ी
शक्ति हाथ आई! धन
पास होता है तो
परमात्मा का थोड़ा
सा मजा लेते हैं
कि हम दीन—दरिद्र
नहीं। ज्ञान होता
है तो परमात्मा
का थोड़ा सा मजा
लेते हैं कि हम
अज्ञानी नहीं।
बे—गोता
कैसे मिलता हमें
गौहरे—मुराद
वह
परमात्मा ही गौहरे—मुराद
है। उसको हमने
बहुत—बहुत लहरों
में खोजा, कभी
पाया नहीं। हाथ
में झाग लगता है।
लहर को पकड़ते हैं,
झाग मुट्ठी में
रह जाता है। मगर
फिर दूसरी लहर
पर उठा झाग हमें
बुलाने लगता है।
झाग बड़ा सुंदर
लगता है कभी! सूरज
की सुबह की किरणों
में झाग बड़ा रंगीन
लगता है। मणिमुक्ताएं
हार जाएं, ऐसी
शुभ्रता, ऐसे
रंग, ऐसे इंद्रधनुष
झाग में दिखाई
पड़ सकते हैं। दूर
उठती लहर के ऊपर
झाग ऐसे लगता है
जैसे हिमालय पर
बर्फ जमी हो, पवित्र! झाग ऐसे
लगता है जैसे सारे
समुद्र का सार
नवनीत हो। हाथ
बांधो, मुट्ठी
बांधो—कुछ भी हाथ
नहीं आता। बे—गोता
कैसे मिलता हमें
गौहरे—मुराद
हम तैरते
रहे सदा, लहरों
के झाग पर।
हमने
बहुत बार करवटें
बदलीं, मगर एक
लहर से दूसरी लहर
में उलझ गए, मैं तुमसे यह
कहना चाहता हूं
कि तुममें से बहुत
अनेक बार संन्यासी
हुए फिर भोगी हुए,
फिर संन्यासी
हुए, फिर भोगी
हुए। ये करवटें
तुम बहुत बार बदल
चुके हो। यह कुछ
नया खेल नहीं।
यह खेल बड़ा पुराना
है। तुम इसमें
बड़े निष्णात हो
चुके हो। कई बार
मैं देखता हूं
कुछ लोग जब पहली
दफा संन्यास लेने
आते हैं, वे
सोचते हैं कि पहली
दफा संन्यास लेने
आए; उनके भीतर
मैं झांकता हूं
तो आश्चर्य से
भर जाता हूं : यह
तो वे कई बार कर
चुके हैं, क्या
इस बार भी फिर वही
पुराना ही खेल
जारी रखेंगे,
कि इस बार क्रांति
होगी? मैं सोचने
लगता : यह फिर एक
नई लहर होगी या
गहराई में उतरना
होगा?
भोगियों
को देखता हूं तो
भोगी संन्यास का
सपना देखते मिलते
हैं और संन्यासियों
से भी मैं मिलता
रहा हूं। वर्षों
तक घूमता रहा हूं? सब
तरह के संन्यासियों
से मिला हूं। संन्यासियों
को भोग के सपने
आने शुरू हो जाते
हैं। यह बड़ा मजा
है। जो लहर, जिस पर तुम सवार
होते हो, वह
व्यर्थ मालूम होती
है; और जो लहर
दूर है—वे दूर के
ढोल सुहावने—वह
बड़ी आकर्षक मालूम
होती है!
भोगी
कहता है कि त्यागी
बड़ा आनंद ले रहा
होगा। इसलिए तो
भोगी त्यागी के
चरण छूने जाता
है। कब तुम्हें
अक्ल आएगी? कब
तुम्हारी आंखें
खुलेंगी?
अगर
तुमने त्यागी के
चरण सिर्फ इसलिए
छुए हैं कि तुम
सोचते हो कि त्यागी
मजा ले रहा है, तो
खतरा है। जब तुम
भोग से ऊबोगे,
तुम त्यागी हो
जाओगे। क्योंकि
पैर तुम उसी के
छूना चाहते हो,
जो तुम होना
चाहते हो। पैर
छूना तो केवल इंगित
है। तुम तो खबर
दे रहे हो कि अगर
हमारा बस चले तो
ऐसे होते; जरा
मुसीबत है, इसलिए उलझे हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक दिन
बड़ा उदास था। मैंने
पूछा, तुम इतने
उदास क्यों हो?
माना कि तुम्हारी
पत्नी मर गई; लेकिन तुम अभी
जवान हो, दूसरी
शादी हो सकती है।
सच तो यह है कि कुछ
लोगों ने मेरे
पास आकर कहा भी
है, किसी तरह
मुल्ला को राजी
कर दें, उनकी
जवान लड़की है।
मुल्ला
ने कहा, कर तो लूं
लेकिन इसके चार
कारण हैं; कर
नहीं सकता हूं।
चार कारण! मैंने
कहा, ब्रह्मचारी
भी चार कारण नहीं
गिना सके हैं अब
तक शादी न करने
के, तू बता।
चार
कारण.. उसने कहा
चार कारण हैं, तीन
लड़किया और एक लड़का।
इन चार कारणों
के कारण विवाह
कर सकता नहीं।
करना तो मैं भी
चाहता हूं। मगर
ये अटके हैं। इनसे
फांसी लगी है।
भोगी त्यागी के
पैर छूने जाता
है। लेकिन हजार
कारण अटके हैं
उसके गले में,
अन्यथा वह भी
त्यागी होना चाहता।
तुम क्यों जाते
हो महात्मा के
चरण छूने? तुम
सोचते हो, कभी
ऐसे सदभाग्य होंगे
मेरे भी कि मैं
भी महात्मा हो
जाऊंगा! अभी नहीं
हो सकता तो कम से
कम चरण तो छू सकता
हूं। अभी नहीं
हो सकता तो कम से
कम समादर तो दे
सकता हूं।
तुम्हारा
समादर तुम्हारी
अपनी ही भविष्य
की आकांक्षाओं
के चरणों में चढ़ाए
गए फूल हैं। तुम
किसी महात्मा के
चरण थोड़े ही छू
रहे हो; तुम अपने
ही भविष्य की प्रतिमा
के चरणों में झुक
रहे हो। कभी अगर
तुम्हें मौका मिला,
चार कारण न रहे,
तब खतरा आएगा।
तब तुम छलांग लगा
कर संन्यासी हो
जाओगे, त्यागी
हो जाओगे। और मैं
त्यागियों को जानता
हूं वे त्यागी
हो कर तडूफ रहे
हैं।
मुझसे
एक सत्तर—पचहत्तर
साल के के संन्यासी
ने कहा कि ' आपसे
कह सकता हूं किसी
और से तो कह भी नहीं
सकता। यह दर्द
ऐसा है, कहो
किससे! लोग मेरे
पैर छूने आते हैं।
उनसे तो मैं कह
नहीं सकता। वे
तो मुझे आदर देते
हैं, उनसे तो
सत्य कहा नहीं
जा सकता; लेकिन
आपसे कहता हूं
कि चालीस साल हो
गए मुझे संन्यास
लिए। ' जैन मुनि
हैं, चालीस
साल से सब त्यागा
है, लेकिन कुछ
मिला नहीं। ' अब तो यह शक होने
लगा है इस बुढ़ापे
में,' उन्होंने
मुझसे कहा, 'कि कहीं मैंने
भूल तो नहीं कर
दी! अब तो रात मुझे
सपने आने लगे हैं
कि इससे तो बेहंतर
था मैं ग्रहस्थ
ही रहता। घर—द्वार
था, पत्नी थी,
बच्चे थे, इससे तो मैं वहीं
बेहंतर था। अब
तो मुझे शक होने
लगा है अपने उपक्रम
पर। चालीस साल
पहले की बातें
मुझे अब प्रीतिकर
लगने लगीं कि वही
ठीक था, इससे
तो वही ठीक था।
अब वह लहर जो चालीस
साल पहले छोड़ी
थी, अब फिर झाग
से भर गई है। अब
उस लहर के सिर पर
फिर सुंदर झाग
ने मुकुट रचा दिए;
फिर इंद्रधनुष
पैदा हो रहे हैं।
'
यह
तुम चकित होओगे
जान कर कि बुरे
आदमी अच्छे आदमी
होने के सपने देखते
हैं। अच्छे आदमी
बुरे आदमी होने
के सपने देखते
हैं। अगर तुम साधु—संतो
के सपनों
में झांक पाओ तो
तुम घबड़ा जाओगे।
वहा तुम अपराधियों
को छिपा पाओगे।
और अगर तुम जेलखाने
में जाओ और अपराधियों
के सपनों में झांको, उनकी
खोपड़ी में खिड़की
बना लो और उनका
सपना देखो, तुम चकित हो जाओगे,
कि वे सब ऊब गए
हैं, थक गए हैं
बुरा कर—करके,
अब वे भले होना
चाहते हैं। अब
किसी तरह उनको
एक बार मौका मिल
जाए तो वे दुनिया
में सिद्ध कर देना
चाहते हैं कि वे
अपराधी नहीं हैं,
संत हैं। यह
दूसरी बात है कि
जेल से जब वे छूटेंगे
दस—पंद्रह साल
बाद, तब फिर
बाहर की लहरें
ताजी मालूम होने
लगेंगी। यह दूसरी
बात है। लेकिन
आदमी हमेशा वहा
के सपने देखता
है जहां नहीं है।
जनक
की यह जो ध्यान
की घटना घटी है, अष्टावक्र
परीक्षा लिए,
अब उसे प्रलोभन
देते हैं। यह प्रलोभन
और भी गहरी परीक्षा
है। अब वे कहते
हैं कि फिर ठीक,
जब तुझे ज्ञान
ही हो गया जनक,
तो अब... अब छोड़,
अब त्याग में
उतर जा। अगर जनक
इसमें फंस गया
तो असफल हुआ—तो
गहरी परीक्षा में
असफल हुआ।
जनक
की जगह कोई भी साधारण
व्यक्ति होता तो
उलझ जाता झंझट
मैं। क्योंकि अष्टावक्र
इन शब्दों में
बात कर रहे हैं
कि पकड़ना बहुत
मुश्किल है। सुनो
उनके सूत्र।
अष्टावक्र
ने कहा : 'तेरा किसी
से भी संग नहीं
है। तूने घोषणा
कर दी असंग होने
की। '
'तेरा किसी से
भी संग नहीं है,
इसलिए तू शुद्ध
है। तू किसको त्यागना
चाहता है? इस
प्रकार देहाभिमान
को मिटाकर तू मोक्ष
को प्राप्त हो।
'
बड़ा
उलझा हुआ सूत्र
है। उकसाते हैं
बड़े बारीक नाजुक
रास्ते से। पूछते
हैं : तू शुद्ध है, तेरा
किसी से भी कोई
संग नहीं है—फिर
भी जनक, मैं
देखता हूं तेरे
भीतर त्याग की
लहरें उठ रही हैं।
तू किसको त्यागना
चाहता है? ठीक,
अगर त्यागना
ही चाहता है तो
इस प्रकार के देहाभिमान
को त्याग कर तू
मोक्ष को प्राप्त
हो जा।
'देहाभिमान
को त्याग कर मोक्ष
को प्राप्त हो
जा!'
एक
तो कहते हैं कि
मैं तेरे भीतर
त्याग की लहर उठते
देखता हूं धीमी
तरंग है; शायद तूने
भी अभी पहचानी
न हो; शायद तुझे
भी अभी पहचानने
में समय लगे। तेरे
गहरे अतल में उठ
रही है एक लहर,
जो थोड़ी—बहुत
देर बाद तेरी चट्टान
से टकराएगी चैतन्य
की, और तू जान
पायेगा। अभी शायद
तुझे खबर भी नहीं।
जब
मनुष्य के भीतर
कोई विचार उठता
है तो वह चार खंडों
में बांटा जा सकता
है। जब तुम बोलते
हो,
वह आखिरी बात
है। बोलने के पहले
तुम्हारे कंठ में
होता है। तुम जानते
हो। साफ—साफ होता
है, क्या बोलना
है। तुम भीतर तो
परिचित हो गए,
भीतर तो तुमने
बोल लिया। अभी
बाहर प्राट नहीं
किया है। वह तीसरी
अवस्था है।
उसके
पहले दूसरी अवस्था
होती है जब धुंधला
होता है। तुम्हें
साफ नहीं होता
कि क्या है। ऐसा
भी हो सकता है, वैसा
भी हो सकता है।
शायद हो शायद न
हो! रूपरेखा स्पष्ट
नहीं होती। सुबह
के धुंधलके में
छिपा होता है।
मगर थोड़ी— थोड़ी
भनक पड़ती है। लगता
है कुछ है। थोड़ी
आवाज आनी शुरू
होती है। वह दूसरी
अवस्था है।
उसके
पहले एक पहली अवस्था
है. जब तुम्हें
बिलकुल ही पता
नहीं होता, धुंधलके
का भी पता नहीं
होता। गहरी अंधेरी
रात छाई होती है।
लेकिन
तुम्हारे भीतर
वह पहली अवस्था
जब उठती है, तब
भी गुरु देख लेता
है। अष्टावक्र
देख रहे हैं कि
जनक की पहली अवस्था
में विचार की कोई
तरंग है। थोड़ी
देर बाद दूसरी
अवस्था होगी। थोड़ा
धुंधला— धुंधला
आभास होगा। फिर
तीसरी अवस्था होगी.
विचार प्रगाढ़ होगा,
स्पष्ट होगा।
फिर चौथी अवस्था
होगी. जनक उदघोषणा
करेंगे कि मैंने
सब छोड़ा, मैंने
सब त्यागा, अब मैं जाता वन
की ओर।
इसके
पहले कि विचार
यहां तक पहुंच
जाए.. क्योंकि यहां
तक पहुंच कर फिर
लौटना मुश्किल
हो जाता है। विचार
से मुक्त होने
की प्रक्रिया यही
है कि पहली अवस्था
में विचार को अगर
पकड़ लिया जाए तो
तुम कभी उसके बंधन
में नहीं पड़ते।
तुमने बीज में
पकड़ लिया वृक्ष
को,
वृक्ष पैदा ही
नहीं हो पाता।
अधिक लोग तो जब
वृक्ष न केवल पैदा
हो जाता है, उसमें फल लग जाते,
न केवल फल लग
जाते, बल्कि
वृक्ष हजारों बीजों
को अपनी तरफ फेंक
देता है भूमि में—तब
सजग होते हैं,
तब बड़ी देर हो
गई। तब तुम इस वृक्ष
को उखाड़ भी दो तो
भी फर्क नहीं पड़ने
वाला, क्योंकि
हजारों
बीज
फेंक चुका। समय
आने पर वे फूटेंगे, हजारों
वृक्ष बनेंगे।
और तुम्हारी पुरानी
आदत है, तुम
तभी पकड़ोगे जब
वृक्ष बन जाएंगे,
बीज गिर जाएंगे,
तब तुम फिर पकड़ोगे,
फिर तुम काट
देना। तुम वृक्षों
को काटते रहना
और वृक्षों का
कोई अंत न होगा।
वृक्षों की नई
श्रृंखलाएं आती
चली जाएंगी। ऐसा
ही हमारे जीवन
में होता है।
बुद्ध
ने विपस्सना का
प्रयोग दिया है
अपने भिक्षुओं
को। विपस्सना का
कुल अर्थ इतना
ही है कि तुम इस
भांति भीतर सजग
होते जाओ कि धीरे—
धीरे तुम्हें पहली
अवस्था में विचार
दिखाई पड़ने लगे।
जब पहली अवस्था
में विचार दिखाई
पड़ता है, बड़ी सरल
है बात। इतना ही
कह देना काफी है
: 'बस क्षमा कर!
नहीं इच्छा पड़ने
की इसमें। ' इतना भाव ही कि
'नहीं' पर्याप्त
है और बीज दग्ध
हो जाता है। दूसरी
अवस्था में थोड़ा
कठिन है। थोड़ा
संघर्ष करना पड़ेगा।
तीसरी अवस्था में
और भी कठिन है।
संघर्ष करोगे तो
भी जीत पाओगे,
संदिग्ध छै।
चौथी अवस्था में
तो बहुत मुश्किल
है। घोषणा हो चुकी।
तुम फंस गए। लौटना
करीब—करीब असंभव
हो जाता है। अब
तो फल भोगना पड़ेगा,
क्योंकि विचार
कर्म बन गया।
पहले
विचार केवल भाव
होता। उसके पहले
शून्य में बीज—मात्र
होता, संभावना
मात्र होता। फिर
भाव बनता, फिर
विचार बनता, फिर अभिव्यक्ति
बनता।
अभी
जनक को शायद पता
भी न हो, या शायद
पता चलना शुरू
हुआ हो; लेकिन
अष्टावक्र को दिखाई
पड़ा है।
'तेरा किसी से
भी संग नहीं जनक,
तू शुद्ध है!
लेकिन फिर भी किसको
त्यागना चाहता
है?' . एक काम कर,
अगर त्यागना
ही है तुझे, अगर त्यागने
की जिद ही है तो...
'देहाभिमान
को मिटा कर तू मोक्ष
को प्राप्त हो!'
बड़ा
गहरा जाल है! अगर
जनक इतना भी कह
दे कि हा, देहाभिमान
का त्याग करना
है, तो बात तय
हो जाएगी कि कुछ
त्याग करना है
इसे। कुछ भी त्याग
करना हो तो अज्ञान
शेष है। फिर अभी
ज्ञान की क्रांति
नहीं घटी। दीया
जल गया और तुम कहो,
अंधेरे का त्याग
करना है, तो
फिर दीया जला नहीं!
दीया जल जाने पर
अंधेरे का कैसा
त्याग? दीया
जल गया तो अंधेरा
तो जा ही चुका,
त्याग हो ही
चुका। त्याग करना
हो तो गलत, त्याग
हो जाए तो सही।
जो करना पड़े तो
कर्ता बन जाते
हैं हम; जो हो
जाए तो साक्षी
रहते हैं। भोग
हुआ, त्याग
हुआ। न हमने भोग
किया, न हमने
त्याग किया। जो
होता था, होने
दिया। हम करते
भी क्या? जो
होता था, होने
दिया। देखते रहे।
अपने देखने को
विशुद्ध रखा!
न ते
संगोउस्ति केनापि
किं शुद्धस्लक्ट्रमिच्छसि।
संघातविलय
कुर्वन्नेवमेव
लय व्रज।।
ते केन
अपि संग: न..।
तेरा
कोई संगी—साथी
नहीं, छोड़ना किसको
चाहता है? कोई
संगी—साथी होता
तो छोड़ देते। समझो,
बारीक है सूत्र।
समझा तो क्रांति
घट सकती है। कोई
मेरे पास आता है,
वह कहता है,
पत्नी—बच्चे
छोड़ने हैं। तो
उसने एक बात तो
मान ही ली कि पत्नी—बच्चे
उसके हैं। कोई
मेरे पास आता है,
कहता है, धन छोड़ना है,
घर—द्वार छोड़ना
है। मैं उससे पूछता
हूं 'तुझे पक्का
है कि वे तेरे हैं?
तू न छोड़ेगा
तो तेरे रहेंगे?
कल तू मरेगा,
फिर क्या करेगा?
मरते वक्त तू
कहेगा कि ये मेरे
हैं और छूट रहे
हैं, यह मामला
क्या है? जन्म
के पहले तू तो नहीं
था, मकान यहीं
था। जिस तिजोड़ी
में तूने हीरे
भर रखे हैं, वे भी यहीं थे,
तू नहीं था।
वे किसी और के थे।
किसी और को भ्रांति
थी कि मेरे हैं।
अब तुझे भ्रांति
है कि मेरे हैं।
तू जब नहीं था,
तब भी थे; तू नहीं रहेगा,
तब भी होंगे।
छोड़ेगा तू? छोड़ना तो तभी
घट सकता है जब तुझे
पक्का हो कि ये
मेरे हैं। मेरे
हैं, तो छोड़ना
संभव है। अगर मेरे
नहीं हैं तो छोड़ेगा
कैसे? छोड़ने
में तो मालकियत
का दावा जारी है।
जिस
आदमी ने कहा, मैंने
छोड़ दिया संसार,
वह आदमी अभी
छोड़ नहीं पाया,
क्योंकि छोड़ने
में भी दावेदार
मौजूद है। वह कहता
है, मैंने छोड़ा!
तो उसने पहली भांति
को अभी भी पकड़ा
हुआ है कि मेरा
था! जो मेरा हो तो
छोड़ा जा सकता है।
ते केन
अपि संग: न..।
तेरा
कौन संगी, तेरा
कौन साथी! अकेला
तू आता, अकेला
तू जाता! न कुछ ले
कर आता, न कुछ
ले कर जाता! खाली
हाथ आता, खाली
हाथ जाता!
मामला
तो अजीब ही है।
आदमी जब पैदा होता
है तो बंधी मुट्ठी, मरता
है तो खुली मुट्ठी।
और बुरी हालत में
मरता है। कम से
कम बंधी मुट्ठी
ले कर आता है, बच्चा जब आता
है। नहीं सही,
कुछ भी नहीं
है उसमें, कम
से कम बंस्री मुट्ठी.
लोग कहते हैं बंधी
मुट्ठी लाख की,
खुली तो खाक
की! जब मरता है तो
मुट्ठी खुल जाती
है, खाक की हो
जाती है। न तो बंधी
मुट्ठी में कुछ
था, न खुली मुट्ठी
में कुछ था। लेकिन
बंधी मुट्ठी में
कम से कम भ्रम तो
था कि कुछ है। न
हम कुछ लाते, न हम कुछ ले जाते।
छोड़ेगा क्या?
छोड़ने को क्या
है?
ते केन
अपि संग: न अत: शुद्ध:।
बड़ा
अदभुत सूत्र है!
बड़े वैज्ञानिक
सूत्र हैं! तेरा
कोई संगी नहीं, साथी
नहीं, तेरी
कोई मालकियत नहीं,
तेरी कोई वस्तु
नहीं। अत: शुद्ध:।
इसलिए तू शुद्ध
है। क्योंकि मालकियत
भ्रष्ट करती है।
तुमने
देखा, जिस चीज पर
मालकियत कायम करो,
उसी की मालकियत
तुम पर कायम हो
जाती है! बनो किसी
स्त्री के स्वामी
और वह तुम्हारी
मालिक हो गई। बनो
मकान के मालिक
और मकान तुम्हारा
मालिक हो गया।
फरीद
एक रास्ते से गुजरता
था अपने शिष्यों
के साथ और एक आदमी
एक गाय के गले में
रस्सी बांध कर
घसीटे ले जा रहा
था। गाय घिसट रही
थी,
जा नहीं रही
थी। परतंत्रता
कौन चाहता है! फरीद
ने घेर लिया उस
आदमी को, गाय
को। अपने शिष्यों
से कहा, खड़े
हो जाओ, एक पाठ.
ले लो। मैं तुमसे
एक सवाल पूछता
हूं. 'यह आदमी
ने गाय को बांधा
है कि गाय ने आदमी
को बांधा है?'
वह
आदमी जो गाय ले
जा रहा था वह भी
खड़ा हो गया. देखें
मामला क्या है!
यह तो बड़ा अजीब
प्रश्न है। और
फरीद जैसा ज्ञानी
कर रहा है!
शिष्यों
ने कहा, बात साफ
है कि इस आदमी ने
गाय को बांधा है,
क्योंकि रस्सी
इसके हाथ में है।
फरीद ने कहा, मैं दूसरा सवाल
पूछता हूं। हम
इस रस्सी को बीच
से काट दें तो यह
आदमी गाय के पीछे
जाएगा कि गाय आदमी
के पीछे जाएगी?
तो
शिष्यों ने कहा, तब
जरा झंझट है। अगर
रस्सी काट दी तो
इतना तो पक्का
है कि गाय तो भागने
को तैयार ही खड़ी
है। यह इसके पीछे
जाने वाली नहीं
है, यह आदमी
ही इसके पीछे जाएगा।
तो
फरीद ने कहा, ऊपर
से दिखता है कि
रस्सी गले में
बंधी है गाय के,
पीछे से गहरे
में समझो तो आदमी
के गले में बंधी
है।
जिसके
हम मालिक होते
हैं,
उसकी हम पर मालकियत
हो जाती है। तुम
धन के कारण धनी
थोड़े ही होते हो,
धन के गुलाम
हो जाते हो। धन
के कारण धनी हो
जाओ तो धन में कुछ
भी खराबी नहीं
है। लेकिन धन के
कारण कभी कोई विरला
धनी हो पाता है।
धन के कारण तो लोग
गुलाम हो जाते
हैं। उनकी सारी
जिंदगी एक ही काम
में लग जाती है
जैसे... तिजोड़ी की
रक्षा! और धन को
इकट्ठा करते जाना!
जैसे वे इसीलिए
पैदा हुए हैं! ये
महंत कार्य करने
को इस संसार में
आए हैं। तिजोड़ी
में भर कर मर जायेंगे,
उनका महंत कार्य
पूरा हो जाएगा!
तिजोड़ी यहीं पड़ी
रह जाएगी।
अष्टावक्र
कहते हैं. तेरा
कोई नहीं, तू
किसी का नहीं,
अकेला है—अतः
शुद्ध:। इसलिए
मैं घोषणा करता
हूं कि तू शुद्ध
है। शुद्ध तेरा
स्वभाव है।
जब
भी कोई चीज किसी
दूसरी चीज से मिल
जाती है तो अशुद्ध
हो जाती है। विजातीय
से मिलने से अशुद्धि
होती है। प्रत्येक
चीज अपने— आप में
तो शुद्ध ही होती
है,
यह ध्यान रखना।
तुम कहते हो, इस दूध वाले ने
पानी मिला दिया
दूध में, तो
दूध अशुद्ध हो
गया। तुमने कभी
दूसरी बात सोची
कि पानी भी अशुद्ध
हो गया? वह तो
तुम्हें जरूरत
दूध की है, इसलिए
तुम दूध की फिक्र
करते हो कि दूध
अशुद्ध हो गया।
लेकिन दूध, अगर दूध वाला
यह कहे कि मैंने
बिलकुल शुद्ध पानी
मिलाया है, कैसी नासमझी
की बात करते हो
कि अशुद्ध हो गया!
पानी बिलकुल शुद्ध
था, मैंने मिलाया,
दूध भी शुद्ध
था—शुद्धता दोहरी
हो गई! तुम अशुद्धता
की बात कर रहे हो?
कोई अशुद्ध पानी
नहीं मिलाया है,
कोई डबरे से
सड़क के किनारे
नहीं भर कर मिला
दिया, बिलकुल
शुद्ध करके र उबाल
कर, प्राशुक
इसमें मिलाया है।
तुम कैसे कहते
हो कि यह अशुद्ध
है? दो शुद्ध
चीजें जब मिलती
हैं तो सीधा गणित
है कि शुद्धि दोहरी
हो जानी चाहिए,
दुगनी हो जानी
चाहिए।
मगर
जिंदगी में गणित
नहीं चलता। जिंदगी
गणित से कुछ ज्यादा
है। दो शुद्ध चीजों
को भी मिलाओ तो
दोनों अशुद्ध हो
जाती हैं। तुम
कहते हो, दूध अशुद्ध
हो गया, क्योंकि
दूध की तुम्हें
जरूरत है, दूध
के दाम लगते हैं।
पानी भी अशुद्ध
हो गया।
तो
अशुद्धि का अर्थ
समझ लेना मल—मूत्र
भी पड़ा हो और तुम
उसमें सोना डाल
दो तो मलमूत्र
भी अशुद्ध हो गया।
मलमूत्र मलमूत्र
की तरह शुद्ध है।
शुद्ध का मतलब
यह कि सिर्फ स्वयं
है। शुद्ध का अर्थ
ही इतना होता है
: स्वयं होना।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक चाय—घर
मैं बैठ कर गप—शप
कर रहा था और कह
रहा था कि भगवान
ने सब चीजें परिपूर्ण
बनाई हैं। भगवान
पूर्ण है, तो
भगवान ने हर चीज
पूर्ण बनाई। लोग
बड़ी गंभीरता से
सुन रहे थे, बात जंच भी रही
थी, तभी एक कुबड़ा
आदमी—रहा होगा
अष्टावक्र जैसा—खड़ा
हो गया। और उसने
कहा, मेरे संबंध
में क्या ? वह
कई जगह से इरछा—तिरछा
था। थोड़ा तो मुल्ला
भी चौंका कि जरा
मुश्किल बात है।
उसने कहा कि तू
बिलकुल.. तेरे संबंध
में भी सही है।
तुझ जैसा परिपूर्ण
कुबड़ा मैंने देखा
ही नहीं। तू बिलकुल
पूर्ण कुबड़ा है।
इसमें और सुधार
करने का उपाय नहीं
है। परमात्मा बनाता
ही पूर्ण चीजें
है, तुझे पूर्ण
कुबड़ा बनाया है!
प्रत्येक
वस्तु जैसी है, अपने
में शुद्ध है।
तो शुद्ध का अर्थ
हुआ : स्वभाव में
होना। अशुद्ध का
अर्थ
हुआ परभाव में
होना। जब भी तुम
पर का भाव करते
हो,
विशुद्धता खो
जाती है, अशुद्ध
हो जाते हो। धन
चाहा तो तुम्हारी
चेतना में धन की
छाया पड़ने लगी,
पद चाहा तो पद
की छाया पड़ने लगी;
प्रतिष्ठा चाही
तो प्रतिष्ठा की
छाया पड़ने लगी।
जब तक तुमने कुछ
चाहा, चाह का
अर्थ ही है अपने
से अन्यथा की चाह।
स्वयं को तो कौन
चाहता है! स्वयं
तो तुम हो ही, चाहने को कुछ
है नहीं। इसलिए
तो लोग आत्मा को
चूकते चले जाते
हैं, क्योंकि
आत्मा को कोई चाहेगा
क्यों! आत्मा तो
है ही। जो नहीं
है, उसे हम चाहते
हैं। जो हम नहीं
हैं, उसे हमाचाहते
हैं—और उसकी चाह
ही हमें अशुद्ध
करती है।
ते केन
अपि संग: न अत: शुद्ध:
तू शुद्ध
है जनक, क्योंकि
तेरी कोई चाह नहीं।
किम्
त्यक्तुम इच्छसि।
लेकिन
तेरे भीतर मैं
देखता हूं इच्छा
पैदा हो रही है
त्याग की। किसे
तू छोड़ना चाहता
है?
किसे? क्योंकि
छोड़ने में भ्रांति—मेरी
है—ऐसी तो रहेगी
ही। इतना जान लेना
काफी है कि मेरा
कुछ भी नहीं—त्याग
हो गया! न कहीं भागना
है, न कहीं जाना
है। तुम जहां हो
वहीं बैठे —बैठे
किसी को कानों
—कान खबर भी न होगी,
पत्नी पास ही
बैठी रहेगी, बच्चे वहीं खेलते
रहेंगे, दुकान
चलती रहेगी, ग्राहक आते—जाते
रहेंगे, तुम
वहीं बैठे—बैठे
इस छोटे —से बोध
के दीए से मुक्त
हो जा सकते हो कि
मेरा कुछ भी नहीं!
किम्
त्यस्तुम इच्छसि।
तू
किसे छोड़ने की
इच्छा कर रहा है? तेरे
भीतर मैं एक इच्छा
का अंकुर उठते
देखता हूं।
एवम्
एव संघातविलयम्
कुर्वन् लयम् व्रज।
और
अगर ऐसा है तो एक
बात छोड़ने जैसी
है,
वह है देहाभिमान।
यह बात कि मैं देह
हूं यह बात कि मैं
मन हूं, यह बात
कि मेरा कोई तादात्म्य
है—यह छोड़ने जैसी
है, तू इसका
त्याग कर दे। देखें
जाल! ऊपर से कह रहे
हैं कि तेरे भीतर
कोई भी त्याग की
आकांक्षा उठे तो
गलत है। और फिर
बड़ी बारीकी से,
बड़ी कुशलता से
कहते हैं : —लेकिन
फिर भी अगर तेरी
मर्जी हो, छोड़ने
का ही मन हो तो और
कुछ छोड़ना तो व्यर्थ
है, यह बात छोड़
दे कि मैं देह,
कि मैं मन, कि मेरा किसी
से तादात्म्य।
ऐसे वे त्याग के
लिए उकसाते हैं।
बड़ी जटिल बात है!
तुमने
कभी कुम्हार को
घड़ा बनाते देखा? क्या
करता कुम्हार?
भीतर से तो सम्हालता
है घड़े को। चाक
पर रखता है मिट्टी
को, भीतर से
सम्हालता है और
बाहर से चोट मारता
है। एक हाथ से चोट
मारता है, एक
हाथ से सम्हालता
है। इसी से घड़े
की दीवाल उठनी
शुरू होती है।
घड़ा बनना शुरू
होता है। भीतर
से सम्हालता जाता
है, बाहर से
चोट करता जाता
है।
कबीर
ने कहा है : यही गुरु
का काम है। एक हाथ
से चोट करता, एक
हाथ से सम्हालता
है। अगर तुमने
चोट ही देखी तो
तुमने आधा देखा।
तुमने अगर सम्हालना
ही देखा तो भी तुमने
आधा देखा, तो
तुम गुरु की पूरी
कीमिया से परिचित
न हो सके, फिर
पूरा रसायन तुम्हें
समझ में न आएगा।
इधर चोट मारता,
इधर समझा लेता।
इतनी भी चोट नहीं
मारता कि तुम भाग
ही खड़े होओ। इतना
भी नहीं समझा लेता
कि तुम वही के वही
रह जाओ जैसे आए
थे। चोट भी किए
चला जाता है, ताकि तुम बदलो
भी। लेकिन चोट
भी इतनी मात्रा
में करता है—होमियोपैथी
के डोज देता है,
धीरे— धीरे! एकदम
ऐलोपैथी का डोज
नहीं दे देता कि
तुम या तो भाग ही
खड़े होओ या खत्म
ही हो जाओ। बड़ी
छोटी मात्रा में,
चोट करता है!
देखता है कितनी
दूर तक सह सकोगे,
उतनी चोट कर
देता है। फिर रुकता
है; देखता है
कि ज्यादा हो गई,
तिलमिला गए,
भागे जा रहे
हो, बिस्तर—विस्तर
बांध रहे हो, तो फिर थोड़ा समझा
लेता है।
देखा!
'स्वभाव' के
साथ वही तो किया
न। अब उन्होंने
फिर बिस्तर वगैरह
खोल कर रख दिया
है। अब वे फिर मजे
—मजे से बैठे हुए
हैं, सिर घुटाए
हुए, अब उनको
कोई अड़चन नहीं
है। अब फिर चोट
की तैयारी है।
अब उन पर फिर मार
पड़नी चाहिए।
…….एक हाथ से सम्हालो,
एक हाथ से चोट
करते जाओ।
तो
वे उससे कहते, 'ऐसा
कर कि तू छोड़। धन
इत्यादि छोड़ना
तो छोटी बातें
हैं, मैं तुझे
बड़ी बात छोड़ने
की बताता हूं।
तू देहाभिमान छोड़
दे!'
संघातविलयम्!
यह
जो देह का संघात
है,
इसको लय कर दे!
मैं देह हूं ऐसे
भाव को विलीन कर
दे। इस प्रकार
देहाभिमान को मिटा
कर तू मोक्ष को
अभी प्राप्त हो
जा सकता है।
देखना
बारीकी : 'मोक्ष
को प्राप्त हो
जा सकता है, अगर देहाभिमान
को छोड़ दे!' फिर
कारण— कार्य की
दुनिया बनाई जा
रही है। फिर उसे
कहा जा रहा है कि
यह कारण है, देह का अभिमान
छूट जाए तो मोक्ष
फले।
मोक्ष
फल नहीं है; मोक्ष
के लिए कुछ करना
जरूरी नहीं है।
मोक्ष तुम्हारा
स्वभाव है। मगर
जनक भी अदभुत कुशल
व्यक्ति रहे होंगे।
उनके सूत्र शीघ्र
ही आएंगे, तब
तुम समझोगे, उन्होंने कैसा
अदभुत उत्तर दिया!
'तुझसे संसार
उत्पन्न होता है,
जैसे समुद्र
से बुलबुला। इस
प्रकार आत्मा को
एक जान और ऐसा जान
कर मोक्ष को प्राप्त
हो। '
उदेति
भवतो विश्व वारिधेरिव
बुद्वुद:।
इति
ज्ञात्वैकमात्मानमेवमेव
लय ब्रज।।
इतनी
ही भावना कर कि
मुझसे संसार उत्पन्न
हुआ है, जैसे समुद्र
में बुलबुला उत्पन्न
होता है। और अपने
को और जगत को, स्वयं को और समष्टि
को एक मान कर, एक जान कर तू मोक्ष
को प्राप्त हो
जा।
जैसे
कि मोक्ष किसी
जानने पर निर्भर
है! जैसे मोक्ष
के लिए कोई ज्ञान
आवश्यक है!
अगर
मोक्ष के लिए कुछ
भी आवश्यक है तो
वह मोक्ष न रहा।
क्योंकि जिस मोक्ष
के लिए कोई कारण
है,
वह कारण पर निर्भर
होगा; उसकी
शर्त हो गई; वह कारण से बंधा
होगा; किसी
दिन कारण हट जाएगा
तो मोक्ष गिर जाएगा।
मोक्ष अकारण है।
मोक्ष का कोई भी
कारण नहीं है।
तुमने
अगर पूछा कि मैं
कैसे मुक्त हो
जाऊं तो तुम बंधने
का नया उपाय पूछ
रहे हो। तुम पूछ
रहे हो कि मुझे
अब कुछ और बताएं; पुराने
बंधन पुराने पड़
गए, उनमें अब
रस नहीं आता; अब मैं कैसे मुक्त
हो जाऊं? तो
कोई कहता है, अब तुम योगासन
करो, इससे मुक्त
हो जाओगे। तो पहले
तुम
दुकान पर बैठे
थे,
गद्दी पर आसन
लगा रहे थे, अब तुम बैठ गए
कहीं जंगल में
जा कर झाड़ के नीचे,
योगासन लगाने
लगे। मगर, जारी
रहा काम। आकांक्षा
भविष्य की रही।
मोक्ष
तो है ही! तुम कुछ
न करो—मोक्ष है।
जब तुम कुछ भी नहीं
करते होओगे, उसी
क्षण तुम्हें दिखाई
पड़ेगा। क्योंकि
करने से ऊर्जा
मुक्त हुई कि फिर
क्या करेगी? फिर देखेगी!
कर्ता
में ऊर्जा उलझी
रहे तो साक्षी
नहीं बन पाती।
वही ऊर्जा जब कर्ता
में नहीं उलझी
होती, कुछ करने
को नहीं होता,
तो साक्षी बन
जाती है।
झेन
गुरु अपने शिष्यों
को कहते हैं? बस
बैठो और कुछ न करो।
इससे क्रांतिकारी
सूत्र कभी दिया
ही नहीं गया। वे
कहते हैं, बस
बैठो कुछ न करो।
शिष्य बार—बार
आता है कि कुछ करने
को दे दो। सदगुरु
कहता है : कुछ करने
को दे दिया, बस शुरू हुआ गोरखधंधा!
'गोरखधंधा' शब्द बड़ा अदभुत
शब्द है। यह गोरखनाथ
से चला। क्योंकि
जितनी विधियां
गोरखनाथ ने खोजी,
मेरे अलावा किसी
और ने नहीं खोजी।
गोरखधंधा! मानते
नहीं, कुछ करेंगे.
करो! कुंडलिनी
करो, नादब्रह्म
करो! करने के बिना
चैन नहीं है! तुम
कहते हो, बिना
कुछ किए तो हम बैठ
ही नहीं सकते।
तो मैं कहता हूं
चलो ठीक है, कुछ करो! जब थक
जाओगे करने से,
किसी दिन जब
कहोगे कि अब कुछ
ऐसा बताएं कि करने
से बहुत हो गया,
अब करने से कुछ
होता नहीं, तो तुमसे कहूंगा,
अब बैठ रहो!
जैसे
छोटा बच्चा घर
में होता है—बेचैन—तुम
उसे कहते हो, शांत
बैठ! वह शांत क्या,
कैसे बैठे?
इतना बूढ़ा नहीं
है कि शांत बैठे।
अभी ऊर्जा से भरा
है, अभी उबल
रही है आग! अभी वह
शांत भी बैठे तो
कसमसाता है, हिलता—डुलता
है। वह रात में
सो भी नहीं सकता,
बिस्तर से नीचे
गिर जाता है। तो
करवटें बदलता है,
हाथ—पैर फेंकता
है। अभी तो शक्ति
उठ रही है। तुम
उसे कहते हो, 'शांत बैठ! आंख
बंद कर!' वह बैठ
नहीं सकता। उसके
लिए तो एक ही उपाय
है। उससे कहो कि
जा घर के पंद्रह
चक्कर लगा आ, जोर से दौड़ना।
फिर कुछ कहने की
जरूरत न रहेगी।
वे पंद्रह चक्कर
लगा कर खुद ही शांति
से आ कर बैठ जाएंगे।
तब तुम देखना उनकी
शांति में फर्क
है। ऊर्जा बह गई
है, थकान आ गई
है—उस थकान में
बैठना आसान हो
जाता है।
सारी
विधियां गोरखधंधे
हैं। उनका उपयोग
केवल एक है कि तुम
थक जाओ; तुम्हारे
कर्ता में धीरे—
धीरे थकान आ जाए।
तुम यह सोचने लगो,
कर—कर के तो कुछ
'हुआ नहीं,
अब जरा न करके
देख लें! तुम करने
से ऐसे परेशान
हो जाओ कि एक दिन
तुम कहने लगो,
अब तो प्रभु
करने से छुडाओ।
अब तो यह करना बड़ा
जान लिए ले रहा
है। अब तो हम शांत
होना चाहते हैं,
बैठना चाहते
हैं!
जब
तुम्हीं शांत बैठना
चाहोगे, तभी शांत
बैठ सकोगे।
जब
तक शिष्य कर्ता
में अभी रस ले रहा
है किसी तरह का, तब
तक उसे कुछ न कुछ
कर्म देना पड़ेगा,
कोई प्रक्रिया
देनी पड़ेगी। लेकिन
झेन फकीर आखिरी
बात कहते हैं।
वे कहते हैं, बैठ जाओ, कुछ
करो मत! बड़ा कठिन
होता है बैठ जाना
और कुछ न करना।
तुमने
कभी खयाल किया, घर
में कुछ करने को
न हो तो कैसी मुसीबत
आ जाती है! फर्नीचर
ही जमाने लगते
हैं लोग; अभी
कल ही जमाया था,
फिर से जमाने
लगते हैं। झाडू—पोंछ
करने लगते हैं।
कल ही की थी, फिर से करने लगते
हैं। अखबार पुराना
पड़ा है, उसी
को पढ़ने लगते हैं;
उसे पढ़
चुके
हैं पहले ही। तुमने
कभी खयाल किया? कुछ
न कुछ करने लगते
हैं! कुछ न हो तो
कुछ खाने—पीने
लगेंगे।
मैं
यात्रा करता था
वर्षों तक, तो
मेरे साथ एक मित्र
कभी—कभी यात्रा
पर जाते थे। तो
वे मुझसे बोले
कि बड़ी अजीब बात
है, घर ऐसी भूख
नहीं लगती। ट्रेन
में मेरे साथ कभी
उनको तीस घंटे
बैठना पड़ता। घर
ऐसी भूख नहीं लगती,
क्या मामला है?
और घर तो काम
में लगे रहते हैं
और भूख नहीं लगती,
और ट्रेन में
तो सिर्फ बैठे
हुए हैं। ट्रेन
में अनेक लोगों
को भूख लगती है।
और अगर घर से कुछ
कलेवा ले कर चले
हैं फिर तो बड़ी
बेचैनी हो जाती
है। फिर तो कब खोलें..!
तो
मैंने उनसे कहा
कि इसका कारण. कारण
कुल इतना है कि
तुम खाली नहीं
बैठ सकते। अब यह
एक झाझेन हो गया, एक
किया हो गई झेन
की, कि बैठे
ट्रेन में तीस
घंटे तक, अब
कुछ काम भी नहीं
है। बाहर भी कब
तक देखो, आंखें
थक जाती हैं। अखबार
भी कब तक पढ़ो, थोड़ी देर में
चुक जाता है। तो
कुछ खाओ, फिर
से बिस्तर जमाओ,
फिर से सूटकेस
खोल कर देखो; जैसे कि किसी
और का है! तुम्हीं
जमा कर आए हो घर
से। उसको व्यवस्थित
कर लो!
मैंने
देखा कि.. मैं देखता
रहता कि क्या रहे
हैं वे। फिर चले
बाथरूम! क्यों? अभी
तुम गये थे! न मालूम
क्या मामला है?
खिड़की खोलते,
बंद करते!
आदमी
को कुछ उलझन चाहिए।
उलझा रहे, व्यस्त
रहे तो ठीक मालूम
पड़ता है। उलझा
रहे, व्यस्त
रहे तो पुरानी
आदत के अनुकूल
सब चलता रहता है।
खाली छूट जाए,
शून्य पकड़ने
लगता है। वही शून्य
ध्यान है। खाली
छूट जाए, मोक्ष
उतरने लगता है।
मोक्ष
का तुम्हें पता
ही नहीं। तुम दरवाजा
बंद कर—कर देते
हो। जब भी मोक्ष
कहता है, जरा भीतर
आने दो, तुम
फिर कुछ करने में
लग जाते हो।
मोक्ष
तभी आयेगा, जब
तुम ऐसी घड़ी में
होओगे जब कुछ भी
नहीं कर रहे। तब
अचानक उतर आता
है। वह परम आशीष
बरस जाता है। एकदम
प्रसाद सब तरफ
खड़ा हो जाता है।
क्योंकि मोक्ष
तो प्रत्येक का
स्वभाव है, तुम्हारे करने
पर निर्भर नहीं।
लेकिन
गुरु देखता है
अगर कोई वासना
करने की थोड़ी—बहुत
शेष रह गई, उसको
भी निपटा लो। 'तुझ से संसार
उत्पन्न होता है;
जैसे समुद्र
से बुलबुला। इस
प्रकार आत्मा को
एक जान और ऐसा जान
कर मोक्ष को प्राप्त
हो। '
इति
ज्ञात्वैकमात्मानमेवमेव
लय व्रज।
वे
कहते हैं, तू
एक काम कर ले। इतना
जान ले कि आत्मा
सर्व के साथ एक
है।
अब
यह ज्ञान की यात्रा
शुरू करवा रहे
हैं। ऐसे तो कई
नासमझ बैठे हैं, जो
दोहराते रहते हैं
बैठे—बैठे कि मैं
और ब्रह्म एक,
मैं और ब्रह्म
एक। दोहराते रहो
जन्मों तक, कुछ भी न होगा।
तोते बन जाओगे।
दोहराते—दोहराते
ऐसी भ्रांति भी
पैदा हो सकती है
कि शायद मैं और
ब्रह्म एक। मगर
इस भ्रांति का
नाम ज्ञान नहीं
है।
'दृश्यमान जगत
प्रत्यक्ष होता
हुआ भी रज्जु—सर्प
की भांति तुझ शुद्ध
के लिए नहीं है।
इसलिए तू निर्वाण
को प्राप्त हो।
'
यह
सब भांति है। यह
सब भ्रांति से
जाग! निर्वाण को
प्राप्त हो! यह
सब सपना है; जैसे
रस्सी
में
सांप दिखाई पड़
जाए।
व्यक्तम्
विश्वम् प्रत्यक्षम्
अपि अवस्तुत्वात्।
यद्यपि
दिखाई पड़ता है
यह विश्व, फिर
भी नहीं है। ऐसा
ही दिखाई पड़ता,
जैसे रस्सी में
सांप।
अमले
त्वयि रन्तुसर्प:
इव न अस्ति
तुझ
शुद्ध में, तुझ
बुद्ध में, कोई भी मल, कोई भी दोष नहीं
है। अगर दोष दिखाई
भी पड़ता हो तो वह
भी रन्तु में सर्पवत
है।
एवम्
एव लयम् व्रज ।
ऐसा
जान कर तू लय को
प्राप्त हो जा!
तू निर्वाण को
प्राप्त हो जा!
दो
ही बातें हैं जो
संसार के भोग से
जागे हुए आदमी
को पकड़ सकती हैं.
एक त्याग और एक
ज्ञान। त्याग कि
छोड़ो; तपश्चर्या
में उतरो, उपवास
करो, नींद त्यागो,
इसको छोड़ो उसको
छोड़ो; और ज्ञान.
ऐसा जानो, वैसा
जानो, और जानने
को मजबूत करो।
दो
तरह के लोग हैं
संसार में. जो बहुत
सक्रिय प्रवृति
के लोग हैं वे तो
संसार से छूटते
ही त्याग में लग
जाते हैं। जो थोड़ी
निष्किय प्रवृति
के लोग हैं, विचारक
वृत्ति के लोग
हैं, वे संसार
से छूटते ही ज्ञान
में लग जाते हैं।
मगर दोनों ही अड़चनें
हैं।
तुम
अक्सर पाओगे. या
तो संसार से भागा
हुआ आदमी पंडित
हो जाता है, शास्त्र
दोहराने लगता;
या शरीर को गलाने
लगता, सताने
लगता। दोनों ही
अवरोध हैं। न तो
यहां कुछ जानने
को है न यहां कुछ
करने को है। ज्ञाता
तुम्हारे भीतर
छुपा है, जानना
क्या है? जानने
वाला तुम्हारे
भीतर बैठा है,
सबको जानने वाला
तुम्हारे भीतर
बैठा है। जानना
क्या है गु:
ये
अध्यात्म के आत्यंतिक
उदघोष हैं। इसलिए
तुम्हें कठिन भी
मालूम पड़े तो भी
समझने की कोशिश
करना।
'दुख और सुख जिसके
लिए समान हैं,
जो पूर्ण है,
जो आशा और निराशा
में समान है, जीवन और मृत्यु
में समान है; ऐसा हो कर तू निर्वाण
को प्राप्त हो।
'
समदुःखसुखः
पूर्ण आशानैराश्ययो
सम:।
सुख—दुख
जिसे समान दिखाई
पड़े,
आशा—निराशा जिसे
समान दिखाई पड़े—यही
तो वैराग्य की
परिभाषा है।
समजीवितमृत्कृ!
—मृत्यु और जीवन
भी जिसे समान मालूम
पड़े।
सत्रैवमेव
लय व्रज।
—ऐसा जान कर तू
निर्वाण को प्राप्त
कर ले जनक।
फिर
एक लक्ष्य दे रहे
उसे। या तो त्याग
दे देहाभिमान और
या 'मैं स्वयं परमब्रह्म
हूं आत्मा हूं
आत्मा सर्व से
एक है'—ऐसे ज्ञान
को पकड़ ले। ये दो
रास्ते हैं तेरे
मुक्त हो जाने
के।
अगर
कोई भी साधारण
साधक होता तो उलझ
गया होता। अगर
सक्रिय व्यक्ति
होता तो कर्मयोग
में पड़ जाता। अगर
निष्किय व्यक्ति
होता तो ज्ञानयोग
में पड़ जाता।
भक्ति
की—बात अष्टावक्र
ने नहीं उठाई, क्योंकि
जनक में उसकी कोई
संभावना नहीं थी।
ये दो संभावनाएं
थीं। क्षत्रिय
था जनक, तो सक्रिय
होने की संभावना
थी। बीज—रूप से
योद्धा था, तो सक्रिय होने
की संभावना थी।
इसीलिए तो जैनों
के सारे तीर्थंकर,
चूंकि क्षत्रिय
थे, गहन त्याग
में पड़ गए। तो एक
तो संभावना थी
कि जनक महात्यागी
हो जाए। और एक संभावना
थी—क्योंकि सम्राट
था, सुशिक्षित
था, सुसंस्कृत
था उस जगत का, उस जमाने का जो
भी शुद्धतम ज्ञान
संभव था वह जनक
को उपलब्ध हुआ
था—दूसरी संभावना
थी, बड़ा विचारक
हो जाए। भक्ति
की कोई संभावना
न दिखाई पड़ी होगी,
इसलिए अष्टावक्र
ने वह कोई सवाल
नहीं उठाया। ये
दो सवाल उठाए।
ये दो अचेतन में
पड़ी हुई संभावनाएं
हैं, कहीं भीतर
सरकती हुई गुंजाइश
है, इनमें अंकुरण
हो सकता है। हम
अपने ही ढंग से
समझते हैं, कुछ भी कहा जाए।
मैं तुमसे कह रहा
हूं; जितने
लोग यहां हैं,
उतनी बातें पैदा
हो जाएंगी। मैं
तो एक ही हूं कहने
वाला, लेकिन
जितने लोग यहां
हैं उतनी बातें
पैदा हो जाएंगी।
लोग अपने ढंग से
समझते हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन के बेटे
से मेरी बात हो
रही थी। छोटा बच्चा
है,
उसने अचानक मुझसे
पूछा कि आप एक बात
बताएं। आप सबके
सवाल का जवाब देते
हैं, मेरे सवाल
का जवाब दें। आदमी
जब मरता है तो उसकी
जान कहां से निकलती
है?
छोटे
बच्चे अक्सर ऐसी
बात पूछ लेते हैं।
मैं भी थोड़ा चौंका।
मैंने उससे पूछा, तुझे
पता है कहां से
निकलती है? वह हंसने लगा।
उसने कहा, मुझे
पता है। मैंने
कहा, तो पहले
तू बता दे। उसने
कहा,….. खिड़की
से निकलती है।
मैंने
उससे पूछा, अच्छा
यह कैसे? तुझे
कैसे पता चला?
उसने
कहा,
एक दिन मैंने
देखा कि पापा (अर्थात
मुल्ला नसरुद्दीन)
एक दिन मैंने देखा
कि पापा जब खिड़की
के पास खड़े थे,
नीचे सड़क से
कोई लड़की निकल
रही थी तो वे बोले,
ठहरो मेरी जान!
तभी मैंने समझा
कि जान खिड़की से
निकल जाती है।
छोटा
बच्चा है, उसने
ठीक समझा, जहां
तक समझ सकता था
बिलकुल ठीक समझा।
हम
वही समझते हैं
जो हम समझ सकते
हैं। जनक ऐसा समझा
जैसा जनक समझ सकता
है। जनक की समझ
बड़ी असाधारण है, बड़ी
विशिष्ट है। वह
साधारण व्यक्ति
की समझ नहीं है।
अष्टावक्र को भी
थोड़ा—सा रहा होगा
कि पता नहीं, जनक समझ पायेगा
कि नहीं समझ पायेगा।
स्वाभाविक भी है,
क्योंकि यह घटना
इतनी बड़ी है, यह ऊंचाई इतनी
बड़ी है, यहां
तक कोई चढ़ पायेगा
कि नहीं चढ़ पायेगा!
'सुख और दुख जिसके
लिए समान हैं।
'
खयाल
रखना, तुम अगर चेष्टा
करो तो सुख और दुख
समान हो सकते हैं।
और फिर भी तुम बंधन
में रहोगे। जीवन
और मृत्यु भी समान
हो सकती हैं—मान्यता
के आधार पर। तुम
अपने को समझा ले
सकते हो, तुम
अपने को सम्मोहित
कर ले सकते हो,
कि सब समान है।
लेकिन इससे कोई...
कोई महंत घटना
न घटेगी जो तुम्हें
बदल जाए और तुम्हें
नये अर्थ और नये
अभिप्राय और नये
आकाश दे जाए।
जनक
ने कहा..।
अब
जनक के सूत्र हैं।
ये बड़े अनूठे सूत्र
हैं। ऐसा लगता
है जैसे जनक की, गहराई
में उतर कर अष्टावक्र
ने कहे होंगे।
ऐसा लगता है कि
जैसा अष्टावक्र
चाहते होंगे,
ठीक वैसा जनक
ने प्रत्युत्तर
दिया। ऐसा शिष्य
पाना दुर्लभ है।
जनक
ने कहा. 'मैं आकाश
की भांति हूं।
संसार घड़े की भांति
प्रकृति—जन्य है,
ऐसा ज्ञान है।
इसलिए न इसका त्याग
है, और न ग्रहण
है, और न लय है।
'
बड़ी
क्रांति की बात
कही जनक ने! नाच
उठे होंगे अष्टावक्र।
माना कि उनका शरीर
आठ जगह से टेढ़ा
था,
लेकिन इस क्षण
रुक न सके होंगे,
नाचे होंगे।
यह तो परम कमल खिला,
सहस्रार खिला।
आकाशवदनंतोग्ह
घटवत् प्राकृत
जगत्।
मैं
हूं आकाश की भांति।
संसार तो घड़े की
भांति है; बनता
और मिटता रहता
है। आकाश पर इसका
कोई परिणाम नहीं
है। संसार उठते
हैं, बनते हैं,
मिटते हैं;
जैसे सपने बनते,
उठते, मिटते
हैं। लेकिन साक्षी
तो आकाश जैसा शुद्ध
बना रहता है। मुझे
कोई चीज अशुद्ध
कर ही नहीं सकती—इसकी
घोषणा की जनक ने।
इसलिए आप यह तो
बात ही छोड़ दें
कि मैं शुद्ध हो
कर और मुक्ति को
प्राप्त हो जाऊं।
मैं कभी अशुद्ध
हुआ ही नहीं।
माना
कि दूध में पानी
मिलाया जा सकता
है,
क्योंकि दूध
और पानी दोनों
ही एक ही ढंग के
पदार्थ हैं। तुम
तेल में पानी को
तो न मिला सकोगे।
फिर भी तेल और पानी
को साथ—साथ तो किया
ही जा सकता है;
मिलें न मिलें,
एक ही बोतल में
भरा तो जा ही सकता
है। क्योंकि दोनों
फिर भी पदार्थ
हैं। लेकिन आकाश
को तो तुम किसी
चीज से भी मिला
नहीं सकते। आकाश
तो शुद्ध निर्विकार
है।
इस
पृथ्वी पर कितने
लोग पैदा हुए—अच्छे—बुरे, पुण्यात्मा—पापी;
कितने युद्ध
हुए, कितने
प्रेम घटे; कितने वसंत आए
पतझड़ हुए—आकाश
तो निर्विकार खड़ा
रहता। कोई रेखा
नहीं छूट जाती।
आकाश में तो कोई
आकार नहीं बनता।
इति
ज्ञानं!
—यह
बड़ी अदभुत बात
है।
जनक
कहते हैं : मैं आकाशवत
हूं। इति ज्ञानं।
यही ज्ञान है।
अब और किस ज्ञान
की आप मुझसे कह
रहे हैं कि मैं
ज्ञान को पा लूं
ज्ञान को खोज लूं? ज्ञान
हो गया! इति ज्ञानं!
तथैतस्य
न त्यागो न ग्रहों
लय:।
सारे
आध्यात्मिक साहित्य
में ऐसा सूत्र
तुम न खोज सकोगे।
ऐसे तो बहुत—से
शास्त्र हैं जो
कहते हैं. न भोग
है न त्याग है।
लेकिन जनक कहते
हैं. न भोग है, न त्याग
है, न मोक्ष;
लय भी नहीं है।
यह तीसरी बात सोचने
जैसी है।
'मैं आकाश की भांति
हूं। संसार घड़े
की भांति प्रकृति—जन्य
है। '
घड़े
बनते—मिटते रहते
हैं। घड़ा जब बन
जाता है तो घड़े
के भीतर आकाश हो
जाता है, घड़े के
बाहर हो जाता है।
घड़ा फूट जाता है,
भीतर का आकाश
बाहर का आकाश फिर
एक हो जाते हैं।
शायद जब घड़ा बना
रहता है तब भी बाहर
और भीतर के आकाश
अलग नहीं होते।
क्योंकि घड़ा पोरस
है, छिद्रों
से आकाश जुड़ा हुआ
है। आकाश छिन्न—भिन्न
नहीं होता, खंडित नहीं होता।
तुम तलवार से आकाश
को काट तो नहीं
सकते। सब सीमाएं
काल्पनिक हैं,
बनाई हुई हैं।
आकाश पर कोई रेखा
खिंचती नहीं।
मैं
आकाश की भांति
हूं—ऐसा ज्ञान
है। इति ज्ञानं!
इसलिए न इसका त्याग
है,
न इसका ग्रहण
है और
न लय है।
'मैं समुद्र के
समान हूं। यह संसार
तरंगों के सदृश्य
है। ऐसा ज्ञान
है। इसलिए न इसका
त्याग है, न
इसका ग्रहण है
और न इसका लय है।'
महोदधिरिवाह
स प्रपंचो वीचिसन्निभि।
ज्ञान
तथैतस्य न त्यागो
न ग्रहो लय:।।
जनक
कहने लगे, मुझे
गुरुदेव उलझाओ
मत। तुम मुझे उलझा
न सकोगे। मुझे
तुमने जगा ही दिया।
अब जाल न फेंको।
अब तुम्हत्तारे
प्रलोभन किसी भी
काम के नहीं हैं।
खूब ऊचे प्रलोभन
तुम दे रहे हो कि
ऐसा जान कर तू मुक्ति
प्राप्त हो जा।
जनक
कहते हैं, मैं
मुक्त हू। इति
ज्ञान! ऐसा ज्ञान
है; अब और कहां
ज्ञान बचा? मुक्त हो जाऊं—तो
फिर तुम
वासना को जगाते
हो। मोक्ष को खोजूं—तो
फिर तुम आकांक्षा
को जगाते हो। फिर
पल्लवित करते होजो
जल गया दग्ध हो
गया मिट गया। यह
बात किससे कर रहे
हो? बंद कर लो
यह प्रलोभन देना।
अब तुम मुझे न फुसला
सकोगे।'
अष्टावक्र
जैसा कुशल में
छिपे हुए जाल को
जनक को बेच नहीं
पाता है। जनक अब
ग्राहक ही न रहे।
जनक निश्चित ही
जागे हैं।
महोदधि..
.जैसे समुद्र में
महोदधि में उठती
हैं तरंगें—ऐसा
ज्ञान है। मैं
महोदधि हूं। मैं
समुद्र हूं। यह
संसार तरंगों के
सदश्य है। यह संसार
मुझसे दिखाई पड़ता
हुआ भी अलग कहां? लहरें
समुद्र से अलग
कहां हैं? सँमुद्र
में हैं, समुद्र
की हैं। समुंद्र
ही तो लहरात है, और कौन? यह
संसार भी मैं हूं;
इस संसार का
न होना भी मैं हूं,
जब लहरे होती
है तब भी समुद्र
है। जब लहरे नहीं
होती तब भी समुद्र
है। इति ज्ञानं!
अब किसको छोडूं?
समुद्र लहरों
को छोड़े? बात
नासमझी की है।
समुद्र लहरों को
पकड़े? —पकड़ने
की कोई जरूरत ही
नहीं है; लहरें
समुद्र की ही हैं।
मुक्ति कहां,
मोक्ष कहां?
कैसी मुक्ति,
कैसा मोक्ष? ऐसा जान
कर मैं मुक्त
हो गया हूं। इति
ज्ञानं!
'मैं सीपी के समान
विश्व की कल्पना
चांदी के सदृश्य
है। ऐसा ज्ञान
है। इसलिए न इसका
त्याग है, न
इसका ग्रहण है, न लय है।
अहं
स शुक्तिसंकाशो
रूप्यवद्विश्वकल्पना।
इति
ज्ञानं तथैतस्य
न त्यागो न ग्रहो
लय:।
'मैं निश्चित
सब भूतो में हूं और
यह सब भूत मुझमें
हैं। ऐसा ज्ञान
है। इसलिए न इसका
त्याग है, न
ग्रहण है और न लय
है। '
ज्ञान
पाना नहीं है।
ज्ञान है। या तो
है या नहीं है।
पा कर कभी किसी
ने पाया नहीं।
पाने वाला पंडित
बन जाता है; जागने
वाला, ज्ञानी।
जो
होना चाहिए, वह
हुआ ही हुआ है।
जैसा होना चाहिए
वैसा ही है। अन्यथा
क्षण भर को न तो
हुआ था, न हो
सकता है। इस दशा
को जो उपलब्ध
हो जाए वही संत
है।
कुछ
लोग हैं जो संसार
में पाने में लगे
हैं : धन मिलना चाहिए
पद मिलना चाहिए, प्रतिष्ठा...।
कुछ लोग हैं जो
स्वर्ग पाने में
लगे हैं : वहां पद
मिलना चाहिए वहां
प्रतिष्ठा..। कुछ
लोग हैं जो इस संसार
की कमाई कर रहे
हैं, कुछ लोग
परलोक की कमाई
कर रहे हैं। किन्हीं
का, बैंक यहां
है,
किन्हीं
का दूर स्वर्गों
में। पर कोई फर्क
नहीं पड़ता। दोनों
कमाने में लगे
हैं। संत वही है
जो कहता है, कैसा
कमाना? यह सारा
जगत मेरा है। इस
सारे जगत का मैं
हूं। मुझमें और
इस जगत में रत्ती—मात्र
भी फासला नहीं।
अब तो
इस मंजिल पर आ पहुंचे
हैं तेरी चाहत
में,
खुद
को तुझ में पाते
हैं हम, तुझको
खुद में पाते हैं।
अब
यह मैं—तू का फासला
नहीं है। यह सिर्फ
भाषा का खेल है, शायद
लीला है। एक तरंग
दूसरी तरंग से
अलग नहीं है।
अब तो
इस मंजिल पर आ पहुंचे
हैं तेरी चाहत
में,
खुद
को तुझ में पाते
हैं हम, तुझको
खुद में पाते हैं।
ऐसी
घड़ी—इति ज्ञान!
जमाले—निगारां
पे अशआर कह कर,
करारे—दिले
— आशिकां हो गए हम।
शनासा—ए—राजे—जहां
हो गए हम,
तो बेफिक्रे
—को —जिया हो गए हम।
संसार
के रहस्य से परिचित
हो गए। तो फिर सब
लाभ—हानि से निश्चित
हो गए—यहां न कुछ
लाभ है, यहां न
कुछ हानि है; क्योंकि यहां
हमारे अतिरिक्त
कोई है ही नहीं।
न तो कोई छीन सकता
है, न कोई दे
सकता है। न तो लोभ
में कुछ अर्थ है,
न क्रोध में
कुछ अर्थ है।
क्रोध
ऐसा ही है जैसे
कोई अपना ही चांटा
अपने ही गाल पर
मार ले। लोभ ऐसा
ही है जैसे कोई
अपने ही घर में
अपनी ही चीजों
को छिपा कर, सम्हाल
कर रख ले—अपने से
ही—कि कहीं चोरी
न कर बैठूं!
जमाले
—निगारां पे अशआर
कह कर,
करारे—दिले—
आशिकां हो गए हम।
शनासा—ए—राजे—जहां
हो गए हम!
जान
लिया—
शनासा—ए—राजे—जहां
हो गए हम!
जान
लिया रहस्य—जगत
का,
जीवन का, संसार का। रहस्य
खुल गया!
तो बेफिक्रे
—सूदो —जिया हो गए
हम।
अब
न कुछ हानि है, अब
न कोई लाभ है।
'आप किससे कहते
हैं'—जनक ने
कहा—'सुख—दुख
में समान हो जा?
यहां सुख है
कहा? दुख है
कहां? आप कहते
हैं, जीवन—मृत्यु
में समभाव रख।
समभाव रखने का
तो मतलब ही यह हुआ
कि दोनों अलग हैं,
दोनों में समभाव
रखना है। दोनों
एक ही हैं, समभाव
रखना किसको है?
और दोनों मुझमें
ही हैं और दोनों
में मैं हूं। '
व्यक्ति
जहां शून्य हो
जाता, वहा समष्टि
के साथ एक हो जाता।
इसलिए कहा कि ब्रह्म
को जो जान लेता,
वह ब्रह्म वो
जाता। सत्य को
जो जान लेता, वह सत्य हो जाता।
जो हम जान लेते
हैं, वही हम
हो जाते है।
अहं
वा सर्वभूतेषु
सर्वभूतान्यमों
मयि।
इति
ज्ञानं तथैतस्य
न त्यागो न ग्रहो
लय:।।
ये
छोटे—से चार सूत्र
जब जनक ने कहे होंगे, तुम
अष्टावक्र के आनंद
की कल्पना नहीं
कर सकते! जब शिष्य
उपलब्ध होता है
तो तुम गुरु की
प्रसन्नता का अनुभव
नहीं कर सकते।
जैसे फिर से गुरु
को परम आनंद मिलता
है; जो उसे मिला
ही हुआ था, वह
उसे फिर से मिलता
है। जब शिष्य में
दीया जलता है तो
जैसे गुरु के प्रकाश
में और भी एक नया
सूरज जुड़ा! हजारों
सूरज वहा थे, एक हजार एक हुए!
इसकी ही अपेक्षा
थी, इसलिए परीक्षा
थी। इसकी ही अपेक्षा
थी, इसलिए प्रलोभन
था। जनक से यह संभावना
थी, इसलिए जनक
को जल्दी नहीं
छोड़ दिया।
जिन
शिष्यों को गुरु
जल्दी छोड़ देता
है,
वह इसलिए छोड़
देता है कि उनकी
संभावना बहुत नहीं
है; उन्हें
ज्यादा कसने में
वे टूट जाएंगे।
परीक्षा उतनी ही
ली जा सकती है जितनी
सामर्थ्य हो। परीक्षा
सीमा के बाहर हो
तो शिष्य को नष्ट
कर जाएगी, बना
न पाएगी।
जनक
को आखिर तक खींचा, आखिरी
प्रलोभन दिया ज्ञान
का और त्याग का।
ज्ञान और त्याग
आखिरी बाधाएं हैं।
जो उनके भी पार
हो गया, वही
मुक्त है।
जिसने
ऐसा जान लिया कि
मैं मुक्त हूं
वही मुक्त है।
इति ज्ञानं!
ऐसे
तो अज्ञानी भी
बड़ी ज्ञान की बातें
कर लेते हैं। अक्सर
अज्ञानी ज्ञान
की बातें करते
हैं। तभी तो अपने
अज्ञान को छिपा
पाते हैं। नहीं
तो छिपाएगे कैसे? ज्ञान
की बातों में अज्ञान
खूब व्यवस्था से
छिप जाता है। रोग
हो, बीमारी
हो, तो तुम स्वास्थ्य
की चर्चा में छिपा
सकते हो। अक्सर
बीमार ही स्वास्थ्य
की चर्चा करते
हैं। घाव हो, तुम ऊपर से फूल
लगा सकते हो; सुंदर वस्त्रों
में ढांक सकते
हो; मखमल रेशम
में ढांक सकते
हो। लेकिन उससे
घाव मिटेगा नहीं।
तुम्हें
अक्सर इस संसार
में लोग कहते हुए
मिल जाएंगे : सुख—दुख
में समानता रखो, जीवन—मृत्यु
में समानता रखो।
लेकिन समानता रखो?
तो इसका अर्थ
ही यह हुआ कि दोनों
असमान हैं और समानता
तुम्हें रखनी है।
यह तो चेष्टा हुई।
जहां चेष्टा है,
वहा ज्ञान नहीं।
ज्ञान तो सहज है।
सहज है तो ही ज्ञान
है। इति ज्ञानं!
जो चेष्टा से आता
है, वह तो खबर
दे रहा है कि भीतर
विपरीत मौजूद है
नहीं तो चेष्टा
किसके खिलाफ?
एक
आदमी चेष्टा से
क्रोध से लड़ रहा
है और कहता है, शांत
रहना चाहिए, शांत रहना ही
धर्म है। ये तुम्हें
बातें जंचती भी
हैं कि शांत रहना
धर्म है। शांत
रहना धर्म नहीं
है। शांत रहने
की चेष्टा तो केवल
क्रोध को छिपाने
का उपाय है। शांत
हूं ऐसा जान लेना
धर्म है; शांत
रहने की चेष्टा
नहीं। शांत हूं
ही—ऐसे अनुभव में,
ऐसे साक्षात्कार
में उतर जाना।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक दिन
अपने पड़ोसी से
कहता था : घोर मुसीबत
में इतना याद रखना
चाहिए—आधे लोगों
को तुम्हारी मुसीबत
सुनने में रस नहीं
और बाकी आधे लोगों
का खयाल है कि तुम
इसी लायक हो।
अब
वह बड़े ज्ञान की
बात कह रहे हैं।
अज्ञानियों से
भी तुम ज्ञान के
बड़े वचन सुनोगे; हालांकि
उनके कारण हमेशा
गलत होंगे। वे
बातें तो सही करेंगे,
लेकिन कारण गलत
होंगे।
क्रोध
के विपरीत नहीं
है शांति कि तुम
साध लो। जहां शांति
है वहां क्रोध
नहीं है, यह सच है।
शांति क्रोध का
अभाव है, विपरीत
नहीं। लोग यही
सोचते हैं कि शांति
क्रोध का वैपरीत्य
है, विपरीत
स्थिति है; तो क्रोध को हटाओ
तो शांति होगी।
हटाने से शांति
न होगी। हटाने
में तुम और अशांत
हो जाओगे। हटाने
में इतना ही हो
सकता है कि तुम
शांति का एक कलेवर
ओढ़ लो, एक वस्त्राभरण,
और भीतर सब छिप
जाए, जहर की
तरह, मवाद की
तरह। वह कभी फूटेगा।
कामवासना
के विपरीत नहीं
है ब्रह्मचर्य।
जहां ब्रह्मचर्य
है,
वहां कामवासना
नहीं है—यह सच है।
इति ज्ञानं! पर
कामवासना के विपरीत
नहीं है ब्रह्मचर्य।
कामवासना को रोक
रोक कर, सम्हाल—
सम्हाल कर कोई
ब्रह्मचर्य नहीं
होता। कोई जान
लेता है कि मैं
ब्रह्म हूं उसकी
चर्या में ब्रह्म
उतर आता है। ब्रह्मचर्य
यानी ब्रह्म जैसी
चर्या। उसका कामवासना
से कोई भी संबंध
नहीं है। इस शब्द
को तो देखो! इतना
अदभुत शब्द है
ब्रह्मचर्य। उसको
तुम्हारे तथाकथित
महात्माओं ने बुरी
तरह भ्रष्ट किया।
ब्रह्मचर्य का
वे मतलब करते हैं
: कामवासना से मुक्त
हो जाना। ब्रह्मचर्य
में कहीं कामवासना
की बात ही नहीं
है। ब्रह्म जैसी
चर्या! ईश्वरीय
व्यवहार!
मगर
ब्रह्म जैसी चर्या
तो तभी होगी जब
तुम्हें ब्रह्म
का भीतर अनुभव
हो। जिसको ब्रह्म
का अनुभव हो गया, उसकी
चर्या में ब्रह्मचर्य।
वह कहेगा, सागर
में लहरें हैं,
वह भी मेरी।
वह कहेगा, सब
कुछ मेरा है और
सब कुछ का मैं हूं।
न यहां कुछ छोड़ने
को है, न यहां
कुछ पकड़ने को।
संसार ही मोक्ष
है फिर, फिर
जाना कहां है?
झेन
फकीर रिंझाई का
बड़ा प्रसिद्ध वचन
है : संसार निर्वाण
है। सैकड़ों वर्षों
से अनेकों लोगों
को बेचैन करता
रहा रिंझाई का
यह सूत्र। संसार
निर्वाण है? यह
तो बात बड़ी अजीब—सी
है। संसार, और निर्वाण?
यह तो ऐसे हुआ
कि जैसे कोई कहे
भोग त्याग है।
मगर बात सही है।
रिंझाई
यही कह रहा है. न
कुछ छूटने को है, न कुछ
छोड़ने को है, न कुछ पाने को
है—ऐसा जिसने जान
लिया वह निर्वाण
की अवस्था में
आ गया। इति ज्ञान!
फिर वह संसार में
ही रहेगा, भागेगा
कहा? जाएगा
कहा? जाना कहां
है? जो है वह
उसे स्वीकार है।
लहर है तो लहर स्वीकार
है; लहर खो गई
तो लहर का खो जाना
स्वीकार है। उसकी
स्वीकृति परम है।
उसकी अवस्था तथाता
की है। जो है, उसे स्वीकार
है। अन्यथा की
वह मांग नहीं करता;
अन्यथा हो भी
नहीं सकता।
जब
तक तुम चाहते हो
अन्यथा हो जाए, कुछ
और हो जाए, जैसा
है उससे भिन्न
हो जाए—तब तक तुम
बेचैन रहोगे। जिस
दिन तुमने कहा—जैसा
है वैसा है, और जैसा है वैसा
ही रहेगा, और
जैसा है उससे मैं
राजी हूं—तुम मुक्त
हो गए! इति ज्ञानं!
हरि ओंम तत्सत्!
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