विस्मय
है द्वार
प्रभु
का—प्रवचन--तीसरा
दिनांक:
28, सितंबर, 1976;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्न
सार:
मनोवैज्ञानिक
विक्टर ई.
फ्रैंकल ने 'अहा—अनुभव'
(Aha-Experience) एवं 'शिखर—अनुभव'
(peak—Experience) की
चर्चा करके
मनोविज्ञान
को नया आयाम
दिया है। क्या
आप कृपा करके
इसे अष्टावक्र
एवं जनक के
आश्चर्य—बोध
के संदर्भ में
हमें
समझाएंगे?
पहली
बात. जिसे
फ्रैंकल ने 'अहा—अनुभव'
कहा है, वह
' अहा 'तो
है' अनुभव
बिलकुल नहीं।
अनुभव का तो
अर्थ होता है 'अहा' मर
गई। अहा का
अर्थ ही होता
है कि तुम
उसका अनुभव
नहीं बना पा
रहे; कुछ
ऐसा घटा है, जो तुम्हारे
अतीत—ज्ञान से
समझा नहीं जा
सकता, इसीलिए
तो अहा का भाव
पैदा होता है,
कुछ ऐसा घटा
है जो तुम्हारी
अतीत—
श्रृंखला से
जुड़ता नहीं, श्रृंखला
टूट गई; अनहोना
घटा है, अपरिचित
घटा है, असंभव
घटा है; जिसे
न तुमने कभी
सोचा था, न
विचारा था, न सपना देखा
था—ऐसा घटा
है।
परमात्मा
जब तुम्हारे
सामने खड़ा
होगा, तो न तो
वह कृष्ण की
तरह होगा
बांसुरी
बजाता हुआ और
न जीसस की तरह
होगा सूली पर
लटका हुआ और न
राम की तरह
होगा धनुष—बाण
हाथ में लिए
हुए। अगर राम
की तरह धनुष—बाण
हाथ में लिए
खड़ा हो, तो
तुम्हारे
अनुभव से मेल
खा जाएगा। तुम
कहोगे. ठीक है,
प्रभु
द्वार आ गए।
अहा पैदा नहीं
होगा; अनुभव
बन जाएगा; तुम्हारी
धारणा में बैठ
जाएगा। थोड़े—बहुत
चौंकोगे, लेकिन
चौंक इतनी
गहरी न होगी
कि तुम्हारे
अतीत से
तुम्हारे
भविष्य को अलग
तोड़ जाए।
अहा
का अर्थ होता
है ऐसी चौंक
कि जैसे बिजली
कौंध गई और एक
क्षण में जो
अतीत था वह
मिट गया, उससे
तुम्हारा कोई
संबंध न रहा।
कुछ ऐसा घटा, जिसकी
तुम्हें सपने
में भी भनक न
थी। असंभव
घटा! अज्ञेय
द्वार पर खड़ा
हो गया! न
जिसके लिए कोई
धारणा थी, न
विचार था, न
सिद्धात था; जिसे समझने
में तुम
असमर्थ हो गए
बिलकुल, जिस
पर तुम्हारी
समझ का ढांचा
न बैठ सका; जो
तुम्हारी समझ
के सारे ढांचे
तोड़ गया—उसी
अवस्था में ही
अहा का भाव पैदा
होता है।
इसलिए
अहा,
पहली तो बात
खयाल रखना, अनुभव नहीं
है। अनुभव का
तो अर्थ होता
है प्रत्यभिज्ञा
हो गई, रिकॅगनीशन
हो गया, तुम
पहचान गए कि
अरे, यह
गुलाब का फूल!
लेकिन गुलाब
के फूल की
प्रत्यभिज्ञा,
पहचान तभी
हो सकती है, जब अतीत में
देखे गए फूलों
जैसा ही हो।
अगर ऐसा हो
जैसा कि अतीत
में कभी जाना
ही नहीं, तो
तुम पहचान न
सकोगे, तुम
ठगे खड़े रह
जाओगे; तुम्हारा
मन एकदम
स्तब्ध हो
जाएगा।
तुम्हारे मन
की चलती
विचारधारा
एकदम खंडित हो
जाएगी।
उस
खंडित
विचारधारा
में,
उस
निर्विचार—
क्षण में जो
घटता है, वही
अहा है, वह
अनुभव नहीं
है। अनुभव तो
सभी मन के
हैं। वह अनुभवातीत
अनुभव है।
कहने को अनुभव
कहो, अनुभव
नहीं है। उस
अनुभवातीत
अवस्था की तीन
श्रेणियां
हैं। पहली :
जैसे ही किसी
व्यक्ति को
अनजान और
अपरिचित की
प्रतीति होती
है, उसका
सान्निध्य
मिलता है—सबोधि
कहो, समाधि
कहो, परमात्मा
कहो—जैसे ही
तुम्हारे पास
उस अनजान की
तरंगें आती हैं,
तुम
तरंगायित
होते हो, तो
जो पहला भाव
उठता है, वह
होता है. आह!
मुझे, और
हुआ! इस पर
भरोसा नहीं
आता कि मुझे, और हो सकता
है! बुद्ध को
हुआ होगा, कृष्ण
को हुआ होगा, क्राइस्ट को
हुआ होगा—मुझे!
पहली
असंभावना तो
यह दिखती है
कि मुझ पापी
को, मुझ ना—कुछ
को, मुझ
गिरे हुए को, मुझे हुआ! आह!
तो
पहला अनुभव तो
यह होता है कि
जैसे एक छाती
में छुरी चुभ
गई। तुमने कभी
सोचा ही नहीं
था कि तुम्हें
हो सकता है।
तुमने
कभी सोचा, परमात्मा
तुम्हें मिल
सकता है? सदा
किसी और को
मिला है। तुमने
न तो इतनी याद
की है उसकी
कभी कि तुम
मान लो कि
मुझे मिलेगा;
न तुमने ऐसा
कोई पुण्य—
अर्जन किया है
कि मान लो कि
मुझे मिलेगा।
तुम्हारे पास
अर्जित क्या
है? हजार—हजार
भूलें की हैं,
हजार—हजार
पाप किए हैं, हजार—हजार
नासमझिया की
हैं—और की हैं
ऐसा ही नहीं, अब भी जारी
हैं।
तो
जब पहली दफे
परमात्मा
उतरता है तो
अपने पर भरोसा
नहीं आता। तो
पहली तो चोट
उठती है आह! मुझे!
नहीं, नहीं, ऐसा कैसे हो
सकता है! तुम
यह मान ही
नहीं पाते कि
यह प्रसाद तुम
पर भी बरस
सकता है।
लेकिन
मैं तुमसे
कहता हूं कि
यह सभी पर बरस
सकता है। यह
प्रसाद है, इसके
पाने के लिए
तुम्हें
अर्जित करने
की जरूरत ही
नहीं। यह कुछ
ऐसी चीज नहीं
जिसे तुम मोल—तोल
कर लो, जिसे
तुम खरीद लो—त्याग
से, तपश्चर्या
से। जो त्याग
से मिलता है, वह कुछ और
होगा, परमात्मा
नहीं। जो
तपश्चर्या से
मिलता है, वह
कुछ और होगा, परमात्मा
नहीं।
क्योंकि जो
तुम्हारे
करने से मिलता
है वह तुमसे
छोटा होगा, तुमसे बड़ा
नहीं हो सकता।
जो तुम्हारे
कृत्य से
मिलता है, जो
तुम्हारी
मुट्ठी में
बंधा है, उसका
मूल्य ही क्या;
वह विराट
नहीं होगा।
तुम्हारे
कृत्य से जो
मिलता है, वह
कर्ता से तो
बड़ा नहीं हो
सकता। कर्ता तो
अपने कृत्य से
सदा बड़ा होता
है।
तुम
एक चित्र
बनाते हो, कितना
ही सुंदर
चित्र हो, लेकिन
चित्रकार से
बड़ा तो नहीं
हो सकता। चित्रकार
से पैदा हुआ
है, चित्रकार
बड़ा होगा।
तुमने एक गीत
रचा; कितना
ही सुंदर हो, कितना ही
मनमोहक हो, लेकिन
गीतकार से बड़ा
तो नहीं हो
सकता। तुमने
वीणा बजाई, कैसी ही रस
की धार बहे, लेकिन वीणा—वादक
से तो बड़ी
नहीं हो सकती,
जिससे बहती
है, उससे
तो छोटी ही
होगी। अगर
तुम्हारे
कृत्य से परमात्मा
मिले, तो
तुमसे छोटा
होगा। इसलिए
तो लोगों को
जो परमात्मा
मिलते हैं, वे बहुत
परमात्मा
नहीं हैं; वे
उनसे छोटे हैं;
वे उनके ही
मन के खेल हैं;
उनकी ही आकांक्षाओं,
वासनाओं के
रूप हैं। वे
सपने की भांति
हैं, यथार्थ
नहीं।
वास्तविक
परमात्मा तो
प्रसाद—रूप
मिलता है।
वहां
तुम्हारा
कृत्य होता ही
नहीं, न
तुम्हारा
पुण्य होता है,
न तुम्हारा
ध्यान, न
तुम्हारा तप।
वहा कुछ भी नहीं
होता—वहां तुम
भी नहीं होते।
जब तुम मिटते
हो, तब वह
प्रसाद बरसता
है। जब तुम
सिंहासन खाली
कर देते हो, तब वह राजा
आता है।
तो
पहली तो चोट
लगती है? आह!
तुम मान सकते
थे कि किसी और
को मिला, उसने
बड़ी
तपश्चर्या की
थी, जन्मों—जन्मों
तक पुण्य
अर्जन किया
था। तुम्हें
मिला! तो पहला
अनुभव तो है :
आह! जब तुम
थोड़े सम्हलते
हो, जब तुम
सम्हल कर जो
हो रहा है उसे
देखते हो; जिसे
हो रहा है, उसकी
फिक्र छोड़
देते हो, क्योंकि
अब तो यह हो ही
गया इस पर
रुकना क्या; जो हो रहा है,
जब
तुम्हारी नजर
उस पर जाती है—तो
भाव उठता है......अहा!
अपूर्व हो रहा
है, अनिर्वचनीय
हो रहा है!
'अहा' शब्द
बड़ा प्यारा
है। यह किसी
भाषा का शब्द
नहीं है।
हिंदी में कहो
तो अहा है, अंग्रेजी
में कहो तो
अहा है, चीनी
में कहो तो
अहा है, जर्मन
में कहो तो
अहा है। यह
किसी भाषा का
शब्द नहीं है—यह
भाषाओं से पार
है। जिसको भी
होगा...
इकहार्ट को हो
तो उसको भी
निकलता है अहा,
और रिंझाई
को हो तो उसको
भी निकलता है
अहा, और
कबीर को हो तो
उसको भी। सारी
दुनिया में जहां
भी किसी ने
परमात्मा का
अनुभव किया है,
वहीं अहा का
उदघोष हुआ है।
लेकिन
यह भी दूसरी
सीढ़ी है। पहले
तुम अपने पर चौंकते
हो कि मुझे
हुआ,
फिर तुम इस
पर चौंकते हो
कि परमात्मा
हुआ! फिर इन
दोनों के पार
एक तीसरा बोध
है, जिसे
हम कहें : अहो!
वही जनक को हो
रहा है। तीसरा
बोध है; फिर
न तो यह सवाल
है कि मुझे
हुआ, न यह
सवाल है कि
परमात्मा
हुआ। फिर
सब्जेक्ट और
आब्जेक्ट, मैं
और तू के पार
हो गई बात।
हुआ, यही
आश्चर्य है, होता है, यही
आश्चर्य है।
तरतूलियन
ने कहा है कि
परमात्मा
असंभव है; हो
नहीं सकता, लेकिन होता
है। तब तीसरी
बात उठती है.
अहो!
ऐसा
समझो, आह—हृदय
धक्क से रह
गया; ठिठक
कर रह गया; अवाक!
एक पूर्ण
विराम आ गया।
दौड़े चले जाते
थे, न
मालूम कहां—कहां
दौड़े चले जाते
थे; पैर
ठिठक गए; दौड़
बंद हो गई, सब
रुक गया, श्वास
तक ठहर गई। आह..!
जो श्वास आह
में बाहर गई, वह भीतर
नहीं लौटती।
थोड़ी देर सब
शून्य हो गया।
सम्हले—श्वास
भीतर वापिस
लौटी।
यह
जो श्वास का
भीतर लौटना है, यह
बड़ा नया अनुभव
है। क्योंकि
तुम तो मिट गए
आह में, अब
श्वास भीतर
लौटती है एक
शून्य—गृह में,
मंदिर में।
और अब यह
श्वास लौटती
है—वह जो बाहर
खड़ा है
परमात्मा, उसकी
सुगंध से भरी
हुई, उसकी
गंध से आंदोलित,
उसकी
शीतलता, उसके
प्रकाश की
किरणों में
नहाई हुई, उसके
प्रेम में
पगी! जैसे ही
यह श्वास भीतर
जाती है, तो
अहा! पहले तुम
चौंक कर रह गए
थे, श्वास
बाहर की बाहर
रह गई थी, अब
श्वास भीतर
आती है तो
श्वास के
बहाने परमात्मा
भीतर आता है।
तुम्हारा
रोआं—रोआं खिल
जाता है, कली—कली
फूल बन जाती
है, हजार—हजार
कमल खिल जाते
हैं तुम्हारे
चैतन्य की झील
पर। अहा!
और
तब दोनों मिट
जाते है—न तो
तुम हो, न
परमात्मा है,
दोनों एक हो
गए, सीमाएं
खो गईं।
महामिलन होता
है! जहां न मैं
मैं हूं, न
तू तू है—तब
अहो! आह है :
अवाक हो जाना।
अहा है : अवाक+आश्चर्य।
अहो है :
आश्चर्य+अवाक+कृज्ञता।
तो
आह तो घट सकती
है नास्तिक को
भी। आह तो घट
सकती है
वैज्ञानिक को
भी। जब
वैज्ञानिक भी
कोई नई खोज कर
लेता है, तो
धक्क रह जाता
है, भरोसा
नहीं आता, आह
निकल जाती है।
आह तो घट सकती
है गणितज्ञ को
भी। कोई सवाल
जब बरसों तक
उलझाए रहा हो,
जब हल होता
है, तो वर्षों
तक उलझाए रहने
के कारण इतना
तनाव पैदा हो
जाता है और जब
हल होता है तो
सारा तनाव गिर
जाता है, बड़ी
शांति मिलती
है। इससे धर्म
का अभी कोई
संबंध नहीं है।
आह तो घट सकती
है गैर—
धार्मिक को
भी। जब हिलेरी
एवरेस्ट पर
पहुंचा तो आह
निकल गई। इससे
कुछ ईश्वर का
लेना—देना
नहीं है। कोई
कभी नहीं
पहुंच पाया था
वहां, ऐसी
अनहोनी घटना
घटी थी। इससे
हिलेरी का
ईश्वरवादी
होना जरूरी
नहीं है।
जब
पहली दफे आदमी
चांद पर चला
होगा तो आह
निकल गई होगी, भरोसा
न आया होगा कि
मैं चल रहा
हूं चांद पर!
सदियों—सदियों
से आदमी ने
सपना देखा.. हर
बच्चा चांद को
पकड़ने के लिए
हाथ उठाए पैदा
होता है। 'पहली
दफा मैं, पहुंच
गया हूं चांद
पर!' लेकिन
इससे भी ईश्वर
का कोई लेना—देना
नहीं है।
जब
अहा पैदा होती
है,
तो अहा पैदा
हो सकती है
कवि को, चित्रकार
को, मूर्तिकार
को। आह तो
पैदा हो सकती
है—वैज्ञानिक
को, गणितज्ञ
को, तर्कशास्त्री
को। अहा पैदा
होती है—एक
कदम और. अवाक+आश्चर्य—कवि
को, मनीषी
को, संगीतज्ञ
को। जब
संगीतज्ञ
किसी ऐसी धुन
को उठा लेता
है, जिसे
कभी नहीं उठा
पाया था, जब
वह धुन बजने
लगती है, जब
वह धुन
वास्तविक हो
जाती है, सघन
होने लगती है,
जब धुन
चारों तरफ
बरसने लगती
है! या कवि जब
कोई गीत गुनगुना
लेता है, जिसे
गुनगुनाने को
जीवन भर तड़पा
था, शब्द
नहीं मिलते थे,
भाव नहीं
बंधते थे, जब
पंक्तियां
बैठ जाती हैं,
जब लय और
छंद पूरे हो
जाते हैं...।
अहा
थोड़ी रहस्यमय
है। आह बहुत
व्यवहारिक
है। और अहो
धार्मिक है।
वह घटती है
केवल
रहस्यवादी
समाधिस्थ
व्यक्ति को।
वह संबोधि में
घटती है।
ये
जो जनक के वचन
हैं,
ये अहो के
वचन हैं।
सम्हाले नहीं
सम्हल रही है
बात। हर वचन
में कहे जाते
हैं. अहो! अहो!!
इसमें बड़ी
कृतज्ञता का
भाव है, बड़ा
गहन धन्यवाद
है। पहली दफा
आस्था का जन्म
हुआ है, पहली
दफे अंधेरे
में आस्था की
किरण उतरी है।
अब तक माना था,
सोचा था, विचारा था
कि परमात्मा
है—अब
परमात्मा
भीतर आ गया है,
अब
प्रत्यक्ष है!
रामकृष्ण
से विवेकानंद
ने पूछा कि
मुझे परमात्मा
को दिखाएंगे? मुझे
परमात्मा को
सिद्ध करके
बताएंगे? मैं
परमात्मा की
खोज में हूं।
मैं तर्क करने
को तैयार हूं।
रामकृष्ण
सुनते रहे। और
रामकृष्ण ने कहा
: तू अभी देखने
को राजी है कि
थोड़ी देर ठहरेगा? अभी
चाहिए?
थोड़े
विवेकानंद
चौंके।
क्योंकि औरों
से भी पूछा था—वे
पूछते ही
फिरते थे।
बंगाल में जो
भी मनीषी थे, उनके
पास जाते थे
कि ईश्वर है? तो कोई
सिद्ध करता था,
प्रमाण
देता था—वेद
से, उपनिषद
से। और यहां
एक आदमी है
अपढ़, वह कह
रहा है : अभी या
थोड़ी देर
रुकेगा? जैसे
कि घर में रखा
हो, जैसे
कि खीसे में
पड़ा हो
परमात्मा!
अभी!
यह सोचा ही
नहीं था
विवेकानंद ने
कि कोई ऐसा भी
पूछने वाला
कभी मिलेगा कि
अभी। और इसके पहले
कि वह कुछ
कहें, रामकृष्ण
खड़े हो गए।
इसके पहले कि
विवेकानंद
उत्तर देते, उन्होंने
अपना पैर
विवेकानंद की
छाती :से लगा दिया,
और
विवेकानंद के
मुंह से जोर
की चीख निकली :
आह! और वे गिर
पड़े और कोई
घंटे भर बेहोश
रहे।
जब
वह होश में आए
तो आंखें
आसुरों से भरी
थीं,
'आह' 'अहा'
हो गई थी।
जब उन्होंने
रामकृष्ण की
तरफ देखा तो 'अहो' में
रूपांतरण हुआ '
अहा' का।
वे गदगद हो
गए। उन्होंने
पैर पकड़ लिए
रामकृष्ण के
और कहा : अब
मुझे कभी
छोड़ना मत! मैं
नासमझ हूं!
मैं कभी छोडूं
भी, भाग भी,
लेकिन मुझे
तुम कभी मत
छोड़ना! यह हुआ
क्या?
विवेकानंद
पूछने लगे :
मुझे किस लोक
में ले गए? सब
सीमाएं खो गईं,
मैं खो गया,
अपूर्व शांति
और आनंद की
झलक मिली! तो
परमात्मा है!
विचार
ठिठक जाए—आह।
भाव ठिठक जाए—अहा।
तुम्हारी
समग्र आत्मा
ठिठक जाए—अहो।
फ्रैंकल
ने
महत्वपूर्ण
काम किया है
कि मनोविज्ञान
में उसने अहा
अनुभव की बात
शुरू की। लेकिन
फ्रैंकल कोई
रहस्यवादी
संत नहीं। उसे
संबोधि का या
ध्यान का कोई
पता नहीं। इसलिए
वह 'अहा' तक
ही जा पाया, ' अहो' की
बात नहीं कर
पाया है। और
उसकी 'अहा'
भी बहुत कुछ
'आह' से
मिलती—जुलती
है, क्योंकि
उसके स्वयं के
कोई अनुभव
नहीं हैं। यह
तर्क —सरणी से,
विचार की
प्रक्रिया से
उसने सोचा है
कि ऐसा भी
अनुभव होता
है। इकहार्ट
हैं, तरतूलियन
हैं, कबीर
हैं, मीरा
हैं—इनके
संबंध में
सोचा है। सोच—सोच
कर उसने यह
सिद्धात
निर्धारित
किया। लेकिन
फिर भी
सिद्धात
मूल्यवान है,
कम से कम
किसी ने तर्क
से भरे हुए
खोपड़ियों में,
कुछ तो डाला
कि इसके पार
भी कुछ हो
सकता है! लेकिन
फ्रैंकल की
बात प्राथमिक
है। उसे खींच
कर ' अहो' तक ले जाने
की जरूरत है, तभी उसमें
दिव्य आयाम
प्रविष्ट
होता है।
दूसरा
प्रश्न :
हम
मनुष्यों ने
किस महंत आकांक्षा
के वश अपनी
अनुपम
आश्चर्यबोध क्षमता
का त्याग कर
दिया है? कृपा
करके इसे समझाएं।
प्रत्येक
बच्चा
आश्चर्य की
क्षमता से भरा
हुआ पैदा होता
है। प्रत्येक
बच्चा कुतूहल
और जिज्ञासा
में जीता है।
और प्रत्येक
बच्चा छोटी —छोटी
चीजों से ऐसा
अह्लदित होता
है कि हमें
भरोसा नहीं
आता है। नदी के
किनारे, कि
सागर के
किनारे
सीपिया बीन
लेता है, शंख
बीन लेता है—और
सोचता है हीरे—जवाहरात
बीन रहा है!
कंकड़ —पत्थर
लाल—पीले —हरे
इकट्ठे कर
लेता है।
मां—बाप
समझाते हैं कि
फेंक, कहां
बोझ ले जाएगा?
वह छिपा
लेता है अपने
खीसों में।
रात मां उसके
बिस्तर में से
पत्थर
निकालती है, क्योंकि सब
खीसे से पत्थर
बिखर जाते
हैं। वह छिपा—छिपा
कर ले आता है।
हमें
दिखाई पड़ते
हैं पत्थर, उसे
दिखाई पड़ते
हैं हीरे। अभी
उसकी आश्चर्य
की क्षमता मरी
नहीं। अभी
उसके प्राण
पुलकित हैं।
अभी परमात्मा
के घर से नया—नया,
ताजा—ताजा
आया है। अभी आंखें
रंगों को देख
पाती हैं; अभी
आंखें धूमिल
नहीं हो गईं, धुंधली नहीं
हो गईं। अभी
कान स्वरों को
सुन पाते हैं।
अभी हाथ स्पर्श
करने से मर
नहीं गए हैं, अभी जीवंत
चेतना है, अभी
संवेदनशीलता
है। इसलिए
बच्चा छोटी—छोटी
चीजों में
किलकारी
मारता है।
तुमने
छोटे बच्चे को
देखा?... अकारण!...
इतनी छोटी बात
में कि
तुम्हें ही
भरोसा नहीं
आता कि कोई इतनी
छोटी बात में
इतना प्रसन्न
कैसे हो सकता
है! लेकिन
धीरे— धीरे वह
क्षमता मरने
लगती है; हम
उसे मारते हैं,
इसलिए मरने
लगती है। बड़े —के
बच्चे की
जिज्ञासा में
रस नहीं लेते।
बड़े—बूढ़ों के
लिए अड़चन है।
बच्चे की
जिज्ञासा उन्हें
एक उपद्रव है,
एक उत्पात
है। पूछे ही
चला जाता है।
उनके पास
उत्तर भी नहीं
हैं। इसलिए
बार—बार उसका
पूछना उन्हें
बेचैन भी करता
है, क्योंकि
उत्तर भी उनके
पास नहीं हैं।
या जो उत्तर
उनके पास हैं,
उन्हें खुद
भी पता है, वे
थोथे हैं। और
बच्चों को
धोखा देना
मुश्किल है।
बच्चा
पूछता है : यह
पृथ्वी किसने
बनाई है? और
तुम कहो :
परमात्मा ने।
तो वह पूछता
है : परमात्मा
को किसने
बनाया? तुम
डाटते—डपटते
हो। डांटने—डपटने
से तुम सिर्फ
इतना कह रहे
हो कि तुम्हारा
उत्तर थोथा
है। बच्चे ने
तुम्हारा
अज्ञान दिखा
दिया। उसने कह
दिया : पिताजी,
किसको धोखा
दे रहे हो? दुनिया
भगवान ने
बनाई! वह
पूछता है.
भगवान को
किसने बनाया?
तुम कहते हो
: चुप रह नासमझ,
जब बड़ा होगा
तो जान लेगा।
तुमने
बड़े हो कर
जाना? लेकिन
सिर्फ तुम टाल
रहे हो। तुम
छुटकारा कर रहे
हो। तुम कह
रहे हो : मुझे
मत सता, मुझे
खुद ही पता
नहीं। लेकिन
इतना कहने की
तुम्हारी हिम्मत
नहीं कि मुझे
पता नहीं है।
जब बच्चे ने
पूछा, पृथ्वी
किसने बनाई, संसार किसने
बनाया—काश, तुम ईमानदार
होते और कहते
कि 'मैं भी
खोज रहा हूं!
पता चलेगा तो
मैं तुझे कहूंगा।
तुझे कभी पता
चल जाए तो
मुझे कह देना।
मगर मुझे पता
नहीं है। 'तो
आश्चर्य की
क्षमता मरती नहीं।
स्कूल
जाता बच्चा और
शिक्षकों से
पूछता, संसार
किसने बनाया—और
वे कहते कि 'हमें पता
नहीं, हम
खोजते हैं, लेकिन अभी
तक कुछ पता
नहीं चला, बड़ा
रहस्य है। तुम
भी खोजना। ' नहीं, लेकिन
मुश्किल है, बाप का
अहंकार है कि
बाप, और न
जाने! बाप यह
बात मान ही
नहीं सकता। बाप
क्या हो गया, सब बातों का
जानकार हो
जाना चाहिए!
कोई स्त्री मां
क्या बन गई, हर बात की
जानकार हो गई!
कोई आदमी
प्राइमरी स्कूल
में पढ़ाने
क्या लगा, सौ
रुपए की नौकरी
क्या मिल गई—वह
हर चीज का
जानकार हो
गया!
तो
शिक्षक का
अहंकार है, बाप
का अहंकार है,
मां का अहंकार
है, बड़े
भाइयों का, परिवार के
लोगों का, समाज
का अहंकार है—और
छोटा—सा बच्चा
इतने
अहंकारों में
तुम सोचते हो
बच सकेगा? अबोध,
उसका नाजुक
आश्चर्य—तुम्हारे
अहंकारों में
दबेगा, पिस
जाएगा, मर
जाएगा। तुम
सब
उसे पीस
डालोगे। जहां
जाएगा, वहीं
डांट—डपट
खाएगा। जहां
जिज्ञासा
उठाएगा, वहीं
उसे ऐसा अनुभव
होगा कि कुछ
गलती की, क्योंकि
जिससे भी
जिज्ञासा करो
वही कुछ ऐसे भाव
से लेता है
जैसे कोई भूल
हो रही। जिससे
प्रश्न पूछो
वही नाराज हो
जाता है, या
ऐसा उत्तर
देता है
जिसमें कोई
उत्तर नहीं है।
अगर फिर उत्तर
पूछो तो कहता
है, नासमझी
की बात है।
छोटे—मोटे
लोगों की बात
छोड़ दो, जिनको
तुम बड़े—बड़े ज्ञानी
कहते हो उनकी
भी यही हालत
है। जनक ने एक
दफा बड़े
शास्त्रार्थ
का आयोजन
करवाया। उस
समय के बड़े ज्ञानी
याज्ञवल्लव
भी उसमें
शास्त्रार्थ
में गए। जनक
ने हजार गऊएं
खड़ी रखी थीं
महल के द्वार
पर कि जो जीत
जाए, ले
जाए। याज्ञवल्ल
महापंडित थे।
उन्होंने
अपने शिष्यों
को कहा कि
गऊएं धूप में
खड़ी हैं, तुम
इनको ले जाओ, विवाद मैं
पीछे कर
लूंगा। इतना
भरोसा रहा होगा
अपने विवाद की
क्षमता पर।
बड़ा अहंकारी
व्यक्तित्व
रहा होगा। और
सचमुच, वे
पंडित थे, उन्होंने
विवाद में सभी
को हरा दिया।
लेकिन वे
जमाने भी अदभुत
थे! एक स्त्री
खड़ी हो गई
विवाद करने
को। गार्गी
उसका नाम था।
उसने
याज्ञवल्लव
को प्रश्न
पूछे, उसने
मुश्किल में
डाल दिया।
स्त्री, पुरुषों
से ज्यादा
बच्चों के
करीब है।
इसलिए तो
स्त्री उम्र
भी पा जाती है
तो भी उसके चेहरे
पर एक भोलापन
और बचकानापन
होता है; वही
तो उसका
सौंदर्य है।
स्त्री
बच्चों के करीब
है, क्योंकि
अभी भी रो
सकती है, अभी
भी हंस सकती
है। पुरुष
बिलकुल सूख गए
होते हैं।
तो
और तो सब
पंडित थे, उन
सूखे पंडितो को याज्ञवल्लव
ने हरा दिया, एक रसभरी
स्त्री खड़ी हो
गई। और उसने
कहा कि सुनो, मुझसे भी
विवाद करो। वे
दिन अच्छे थे,
तब तक
स्त्रियां
विवाद से
वर्जित न की
गई थीं। याज्ञवल्लव
के बाद ही
स्त्रियों को
विवाद से
वर्जित कर दिया
गया और कहा
गया कि वे वेद
न पढ़ सकेंगी।
यह महंत
अनाचार हुआ।
लेकिन इसके
पीछे कारण था.
गार्गी!
गार्गी ने
याज्ञवल्लव
को पसीने—पसीने
कर दिया। कोई
भी बच्चा कर
देता, इसमें
गार्गी की कोई
खूबी न थी।
खूबी इतनी ही थी
कि अभी वह
आश्चर्य— भाव
से भरी थी। वह
पूछने लगी
प्रश्न। उसने
सीधा—सा
प्रश्न पूछा।
पंडितो ने तो
बड़े जटिल
प्रश्न पूछे
थे, उनके
उत्तर भी
याज्ञवल्ल ने
दे दिए थे।
जटिल
प्रश्न का
उत्तर देना
सदा आसान है।
सरल प्रश्न का
उत्तर देना
सदा कठिन है।
क्योंकि प्रश्न
इतना सरल होता
है कि उसमें
उत्तर की गुंजाइश
नहीं होती। जब
प्रश्न बहुत
कठिन हो तो
उसमें बहुत
गुंजाइश होती
है;
इस कोने, उस कोने, हजार
रास्ते होते
हैं। जब
प्रश्न
बिलकुल सीधा—सरल
हो; जैसे
कोई पूछ ले कि
पीला रंग यानी
क्या? तुम
क्या करोगे? प्रश्न
बिल्कुल सीधा
सरल है। तुम
कहोगे : पीला
रंग यानी पीला
रंग। वह कहे :
यह भी कोई
उत्तर हुआ? पीला रंग
यानी क्या? समझाओ! अब
पीला रंग इतनी
सरल बात है, इसको समझाने
का उपाय नहीं
है, इसकी
परिभाषा भी
नहीं बना
सकते।
परिभाषा भी पुनरुक्ति
होगी। अगर तुम
कहो पीला रंग
पीला रंग, तो
यह तो
पुनरुक्ति
हुई। यह कोई
परिभाषा हुई?
यह तो तुमने
वही बात फिर
दोहरा दी, बात
तो वहीं की
वहीं रही, प्रश्न
अटका ही रहा।
गार्गी
ने कोई बड़े
कठिन प्रश्न
नहीं पूछे; सीधी—सादी
स्त्री रही
होगी। वहीं
मुश्किल खड़ी
हो गई। अगर वह
भी उलझी
स्त्री होती
तो याज्ञवल्लव
ने उसे हरा
दिया होता। वह
पूछने लगी.
मुझे तो छोटे —
छोटे प्रश्न
पूछने हैं। यह
पृथ्वी को
किसने सम्हाला
हुआ है?
याज्ञवल्ल
तभी डरा होगा
कि यह झंझट की
बात है, यह कोई
शास्त्रीय
प्रश्न नहीं
है। तो याज्ञवल्ल
ने जो पौराणिक
उत्तर था दिया
कि कछुए ने
सम्हाला हुआ
है, कछुए
के ऊपर पृथ्वी
टिकी है। यह
उत्तर बचकाना है।
यह उत्तर
बिलकुल झूठा
है। गार्गी
पूछने लगी? और कछुआ किस
पर टिका है? यह बच्चे का
प्रश्न है।
इसलिए मैं
कहता हूं गार्गी
ने उलझन खड़ी
कर दी, क्योंकि
वह सीधी—सादी,
आश्चर्य से
भरी हुई
स्त्री रही
होगी। कछुआ किस
पर खड़ा है?
याज्ञवल्ल
को घबराहट तो
बढ़ने लगी होगी, क्योंकि
यह तो मुश्किल
मामला है। यह
तो अब पूछती
ही चली जाएगी।
तुम बताओ, हाथी
पर खड़ा है। तो
हाथी किस पर
खड़ा है? तुम
कहां तक जाओगे?
आखिर में यह
तो हल नहीं
होने वाला।
तो
उसने सोचा कि
इसे चुप ही कर
देना उचित है, जैसा
कि सभी पंडित,
सभी शिक्षक,
सभी मां—बाप
बजाय उत्तर
देने के चुप
करने में
उत्सुक हैं।
किसी तरह मुंह
बंद कर दो! तो
उसने कहा. सब
परमात्मा पर
खड़ा हुआ है, सभी को उसने सम्हाला
हुआ है।
गार्गी
ने कहा : बस अब
एक प्रश्न और
पूछना है, परमात्मा
को किसने
सम्हाला है?
इसलिए
मैं कहता हूं
यह बिलकुल
बच्चों जैसा
प्रश्न था—सीधा—सरल।
बस याज्ञवल्ल
क्रोध में आ
गया। उसने कहा, यह
अतिप्रश्न है
गार्गी! अगर
आगे पूछा तो
सिर धड़ से
गिरा दिया
जाएगा! यह भी
कोई उत्तर हुआ?
मगर यही
उत्तर सब बाप
देते रहे हैं
कि अगर ज्यादा
पूछा तो पिटाई
हो जाएगी! सिर
धड़ से अलग कर दिया
जाएगा! सिर
गिर जाएगा
गार्गी, अगर
और तूने पूछा
आगे! यह
अतिप्रश्न
है।
अतिप्रश्न
का क्या मतलब
होता है ? कोई
प्रश्न
अतिप्रश्न हो
सकता है? या
तो सभी प्रश्न
अतिप्रश्न
हैं—तो पूछो ही
मत, फिर
उत्तर ही मत
दो। या फिर
किसी प्रश्न
को अतिप्रश्न
कहने का तो
इतना ही अर्थ
हुआ कि मुझे इसका
उत्तर मालूम
नहीं, यह
मत पूछो।
तुम्हें
उत्तर मालूम
नहीं है, इसलिए
प्रश्न अति हो
गया! इससे तुम
नाराज हो गए!
और
वह आखिरी दिन
था भारत के
इतिहास में, उसके
बाद फिर
स्त्रियों को
वेद पढ़ने की
मनाही कर दी
गई, शास्त्र
पढ़ने की मनाही
कर दी गई, क्योंकि
स्त्रियां
खतरनाक थीं।
वे छोटे बच्चों
की तरह थीं।
वे झंझटें खड़ी
करने लगीं
पंडितो को।
भारत में एक
अंधेरी रात
शुरू हुई स्त्रियों
के लिए। उनसे
सारे सोच—विचार
के उपाय छीन
लिए गए।
यही
हमने बच्चों
के साथ किया
है। तो बच्चा
कब तक अपने
आश्चर्य के
भाव को बचा कर
रखे?
देर— अबेर
समझ जाता है
कि कोई मेरे
प्रश्नों में
उत्सुक नहीं
है, कोई
मेरे आश्चर्य
का साथी नहीं
है; और जहां—जहां
मैं आश्चर्य
भाव प्रगट
करता हूं जहां—जहां
मैं उत्सुकता
लेता हूं हर
आदमी ऐसा भाव
प्रकट करता है
कि मैं कोई
पाप कर रहा
हूं। बच्चा इन
इशारों को समझ
जाता है। वह
अपने आश्चर्य
को पीने लगता
है, रोकने
लगता है, दबाने
लगता है। जिस
दिन बच्चा
अपने आश्चर्य
को दबाता है, उसी दिन
बचपन की मौत
हो जाती है।
उस दिन के बाद
वह बूढ़ा होना
शुरू हो जाता
है। उस दिन के
बाद फिर जीवन
में विकास
नहीं होता, सिर्फ
मृत्यु घटती
है।
पूछा
है कि 'किस महंत
आकांक्षा के
वश हम अपनी
अनुपम
आश्चर्यबोध—
क्षमता का
त्याग कर देते
हैं?'
महंत
आकांक्षा है :
लोग स्वीकार
करें! बच्चा
चाहता है. बाप
स्वीकार करे, मां
स्वीकार करे।
क्योंकि
बच्चा उन पर
निर्भर है। वह
चाहता है कि
मां प्रेम करे,
बाप प्रेम
करे—तो ऐसा कोई
काम न करूं, जिससे बाप
नाराज हो जाता
है या बाप को
बेचैनी होती
है, अन्यथा
प्रेम रुक
जाएगा। ऐसी
कोई बात न
पूछुं जिससे
मां नाराज
होती है। ऐसी
कोई बात न
पूछूं जिससे
शिक्षक नाराज
होता है। धीरे—
धीरे प्रेम
पाऊं, स्वीकार
पाऊं, दूसरे
मेरे जीवन में
सहयोगी बनें—इस
आधार पर
आश्चर्य की
मृत्यु हो
जाती है। बच्चा
आश्चर्य को
छोड़ देता है, अहंकार को
पकड़ लेता है।
यह सब अहंकार
की आकांक्षा
है कि लोगों
में सम्मान
मिले, अपमान
न मिले, सभी
लोग मुझे
स्वीकार करें;
सब लोग कहें
कितना अच्छा,
कितना शात,
कितना
सौम्य बच्चा
है!
पूछने
वाला उपद्रवी
मालूम पड़ता
है। सीमा से ज्यादा
पूछने वाला
विद्रोही
मालूम पड़ने
लगता है। अगर
हर चीज पर
पूछताछ करते
चले जाओ, तो
बड़ी अड़चन हो
जाती है।
मैं
छोटा था तो
मेरे घर के
लोग मुझे किसी
सभा इत्यादि
में नहीं जाने
देते थे, कि
तुम्हारे
पीछे हमारा तक
नाम खराब होता
है; क्योंकि
मैं रुक ही
नहीं सकता था।
कोई स्वामी जी
बोल रहे हैं, मैं खड़ा हो
जाऊंगा बीच
में—और सारे
लोग नाराजगी
से देखेंगे कि
यह बच्चा आ
गया गड़बड़! मैं
बिना पूछे रह
ही नहीं सकता
था। और ऐसा
उत्तर मैंने
कभी नहीं पाया,
जिसके आगे
और प्रश्न
करने की
संभावना न हो।
तो स्वाभाविक
था कि स्वामी
लोग नाराज
हों। कॉलेज से
मुझे निकाल
दिया गया, क्योंकि
मेरे शिक्षक
ने कहा कि हम
नौकरी छोड़ देंगे
अगर तुम इस
क्लास में.।
या तो तुम छोड़
दो या हम छोड़
दें।
फिलॉसफी
पढ़ने कॉलेज
गया था और
फिलॉसफी
पढ़ाने वाला
प्रोफेसर
कहता है कि
तुम अगर
प्रश्न पूछोगे
तो हम नौकरी
छोड़ देंगे। तो
हद हो गई! तो
क्या खाक
फिलॉसफी
पढाओगे? दर्शन—
शास्त्र
पढ़ाने बैठे हो,
प्रश्न
पूछने नहीं
देते!
उनकी
कठिनाई भी मैं
समझता हूं —अब
तो और अच्छी
तरह समझता हूं
उनकी कठिनाई!
क्योंकि पढ़ना—लिखना
हो ही नहीं
सकता था। मेरे
पूछने का अंत नहीं
था और उनके
पास इतनी
हिम्मत न थी
कि वे किसी
प्रश्न पर कह
दें कि मुझे
इसका उत्तर
नहीं मालूम—वह
अड़चन थी। वह
कुछ न कुछ
उत्तर देते और
मैं उनके
उत्तर में से
फिर भूल निकाल
लेता।
ऐसा
हुआ कि आठ
महीने तक पहले
पाठ से हम आगे
बढ़े ही नहीं।
तो उनकी
घबड़ाहट भी मैं
समझता हूं मगर
एक छोटी—सी
बात से हल हो
जाता; वे कह
देते, मुझे
मालूम नहीं—बात
खत्म हो जाती।
मैं उनसे यही
कहता कि आप इतना
कह दो कि मुझे
मालूम नहीं, फिर मैं
आपको परेशान
नहीं करूंगा।
फिर बात खत्म
हो गई। अगर आप
कहते हो मुझे
मालूम है तो
यह विवाद
चलेगा, चाहे
जिंदगी मेरी
खराब हो जाए
और आपकी खराब
हो जाए।
आठ
महीने बीत गए
तो उनको लगा, यह
तो अब मुश्किल
मामला है, यह
परीक्षा का
वक्त आने लगा,
औरों का
क्या होगा?
धीरे—धीरे
यह हालत हो गई
कि और
विद्यार्थियों
ने तो आना ही
बंद कर दिया
क्लास में कि
सार ही क्या, ये
दो आदमी लड़ते
हैं, आगे
तो बात बढ़ती
ही नहीं! बढ़
सकती भी नहीं।
क्योंकि ऐसा
कोई भी उत्तर
नहीं है
जिसमें
प्रश्न न पूछे
जा सकें। हर
उत्तर नए
प्रश्न पैदा
कर जाता है।
ही, अगर
उन्होंने जरा
भी विनम्रता
दिखाई होती, बात हल हो गई
होती। मैंने
उनसे बार—बार
कहा कि आप एक
दफे कह दो कि
मुझे इसका
उत्तर नहीं
मालूम, बात
खत्म हो गई; फिर
अशिष्टता है
आपसे पूछना।
लेकिन आप कहते
हो मालूम है, तो मजबूरी
है, फिर
मुझे पूछना ही
पड़ेगा।
उन्होंने
तो इस्तीफा दे
दिया, वे तीन
दिन छुट्टी ले
कर घर बैठ गए।
उन्होंने कहा,
मैं तो
आऊंगा ही तब
जब यह
विद्यार्थी
वहा नहीं
रहेगा!
आश्चर्य
को तुम बचने
नहीं देते। अब
यह स्वाभाविक
था,
क्योंकि
मेरी परीक्षा
के पत्र
उन्हीं के हाथ
में थे। यह तो
तय ही था कि
मैं फेल होने वाला
हूं। इसमें तो
कोई शक—सुबहा
नहीं था। उनको
भी लगता था कि
धीरे—धीरे
मुझे समझ आ
जाएगी कि
परीक्षा करीब
आ रही है, तो
अब मुझे चुप
हो जाना
चाहिए। मैंने
उनको कहा, परीक्षा
वगैरह की मुझे
चिंता नहीं
है। यह प्रश्न
अगर हल हो गया
तो सब हल हो
गया।
अगर
हम सम्मान
चाहते हैं तो
स्वभावत: हमें
राजी होना
होगा—लोग जो
कहते हैं वही
मान लेने को
राजी हो जाना होगा।
तो
तुमने पूछा है
: 'किस कारण से,
किस महंत
आकांक्षा से
आश्चर्य मर
जाता है?'
अहंकार
की आकांक्षा
से आश्चर्य मर
जाता है। सफल
होना है तो
आश्चर्य से
काम नहीं
चलेगा। आश्चर्य
से भरे हुए
लोग असफल
होंगे ही। वे
कहीं भी सफल नहीं
हो सकते, क्योंकि
सफल होने के
लिए दूसरों का
साथ जरूरी है।
सफल होने के
लिए सम्मान
पाना जरूरी
है। सफल होने
के लिए...
दूसरों के
बिना सफलता का
उपाय कहां है?
अगर
तुम असफल होने
को राजी हो तो
फिर तुम्हारे
आश्चर्य को
कोई भी मार
नहीं सकता।
लेकिन यह बड़ा
कठिन है। असफल
होने को कौन
राजी होगा!
अगर तुम ना—कुछ
होने को राजी
हो तो
तुम्हारा
आश्चर्य कोई भी
मार नहीं
सकता।
लेकिन
अहंकार की
स्वाभाविक
आकांक्षा
होती है :
सर्टिफिकेट
हों,
पुरस्कार
मिलें; शिक्षक
सम्मान करें;
मां —बाप
सम्मान करें;
गांव, नगर,
समाज
सम्मान करे, लोग कहें कि
देखो, कैसा
सुपुत्र हुआ!
लेकिन तब
आश्चर्य
मरेगा। तुम्हारे
भीतर का काव्य
मर जाएगा।
तुम्हारे भीतर
का कुतूहल मर
जाएगा।
तुम्हारे
भीतर की वह जो
तरंगायित, रहस्य
अनुभव करने की
क्षमता है, वह जड़ हो
जाएगी! तुम
पथरीले हो
जाओगे।
तुम्हारे
जीवन की रसधार
सूख जाएगी। तुम
एक मरुस्थल हो
जाओगे। सफल हो
जाओगे, लेकिन
सफल होने में
जीवन गंवा
दोगे; मरने
के पहले मर
जाओगे।
मैं
तुमसे कहता
हूं. असफल
रहना, कोई
फिक्र नहीं; आश्चर्य को
मत मरने देना!
क्योंकि
आश्चर्य परमात्मा
तक पहुंचने का
द्वार है। भरो
अपने को
आश्चर्य से!
जितना विराट
तुम्हारा
आश्चर्य हो, जितनी गहन
तुम्हारी
जिज्ञासा हो,
उतनी ही बड़ी
संभावना है
तुम्हारे
भीतर विराट के
उतरने की।
पूछोगे, पुकारोगे,
खोजोगे—तो
मिलेगा।
जीसस
ने कहा है :
खटखटाओ, तो
द्वार
खुलेंगे! पूछो,
तो उत्तर
मिलेगा। मांगो,
तो भर दिए
जाओगे!
लेकिन
अगर तुम्हारे
भीतर
संवेदनशीलता
ही नहीं, तुम
पूछते ही नहीं,
तुम खोजते
ही नहीं, तुम
यात्रा पर
जाते ही नहीं,
तुम बैठे हो
गोबर—गणेश की
तरह..।
हालांकि सब
तुम्हारी बड़ी
प्रशंसा करते हैं
कि देखो, गणेशजी
कितने अच्छे
मालूम होते
हैं!
अक्सर
ऐसा होता है
कि जितना गोबर—गणेश
बच्चा हो, मां—बाप
उसकी उतनी ही
प्रशंसा करते
हैं। बैठा रहे
मिट्टी के
लौंदे जैसा, तो कहते हैं
देखो गणेशजी
कैसे प्यारे!
मगर यह तो मर
गया बच्चा, पैदा होने
के पहले मर
गया। अगर
बच्चा
उपद्रवी है
उपद्रवी का
मतलब ही यह
होता है कि
मां—बाप की
धारणाओं को
तोड़ता है।
उपद्रवी का
अर्थ ही होता
है कि ऐसे
प्रश्न उठाता
है जिनके
उत्तर मां —बाप
के पास नहीं; ऐसी जीवन—शैली
सीखता है, जिसकी
स्वीकार की
क्षमता और
हिम्मत मां—बाप
में नहीं। अगर
मां—बाप
आस्तिक हैं तो
बच्चा ऐसे
प्रश्न उठाता
है जिनसे
नास्तिकता की
गंध आती है।
अगर मां —बाप
परंपरावादी
हैं तो बच्चा
ऐसी बातें
उठाता है, जिनसे
लीक टूटती, परंपरा
टूटती। बच्चा
लकीर का फकीर
नहीं है।
तो
सारा समाज, इतना
बड़ा समाज, राज्य,
पुलिस, अदालतें—सब
आश्चर्य की
हत्या करने को
बैठे हैं। जब
तुम्हारा
आश्चर्य मर
गया तब तुम
यंत्रवत हो गए,
फिर तुम
योग्य हो गए, काम के हो गए
कुशल हो गए।
फिर तुम
पूछोगे नहीं,
तुम प्रश्न
नहीं उठाओगे;
तुम चुपचाप
जो कहा जाएगा,
करोगे।
देखा, मिलिट्री
में यही करते
हैं वे!
मिलिट्री में
घंटों कवायद
करवाते रहते
हैं। कहते
हैं. बाएं घूम,
दाएं घूम!
कोई पूछे कि
तीन—तीन चार—चार
घंटे, बाएं—दाएं
घूम क्यों
करवा रहे हो? उसके पीछे
बड़ा
मनोवैज्ञानिक
कारण है। वे
व्यक्ति के
भीतर
व्यक्तित्व
को मारना
चाहते हैं। वे
कहते हैं : जब
हम कहें बाएं
घूम तो तुम
बाएं घूमो।
तुम्हारे
भीतर ऐसा
प्रश्न नहीं
उठना चाहिए.
क्यों?
किसी
साधारण आदमी
से सड़क पर खड़े
हो कर कहो कि
बाएं घूम तो
वह कहेगा :
क्यों? स्वाभाविक
है, किसलिए
बाएं घूमें? अब कोई कारण
हो तो बाएं
घूमें, लेकिन
मिलिट्री में
अगर तुम कहो
कि किसलिए बाएं
घूमें, क्या
कारण है—तो
तुम गलत बात
पूछ रहे हो।
कारण पूछने का
सवाल नहीं—आज्ञा
मानना है। तुम्हारे
मस्तिष्क को
इस तरह से
ढालना है कि
तुमसे जो कहा
जाए, तुम
बिना सोचे कर
सको—यही
कुशलता है; एफीसिएंसी।
क्योंकि
सोचने में तो
समय लगता है।
तुमसे कहा, बाएं घूमो; तुम सोचने
लगे कि घूमें
कि न घूमें कि
फायदा क्या कि
मतलब क्या, और फिर दाएं
घूमना पड़ेगा
और फिर यहीं
आना पड़ेगा, तो थोड़ी देर
में घूम कर
लोग यहीं आ
जाएंगे, हम
यहीं खड़े रहें,
सार क्या है—तो
तुम सैनिक
नहीं बन सकते।
सैनिक
बनने का अर्थ
ही यही है कि
तुम्हारे भीतर
विचार की कोई
भी ऊर्मि न रह
जाए,
विचार की
कोई तरंग न रह
जाए; तुम
बिलकुल जड़वत
हो जाओ; जब
कहा बाएं घूम,
तो तुम ऐसे
यंत्रवत घूम
जाओ कि तुम
चाहो भी अपने
को रोकना तो न
रोक सको।
विलियम
जेम्स ने
उल्लेख किया
है कि पहले
महायुद्ध के
वक्त वह एक
होटल में बैठा
हुआ है। अपने
मित्रों से
बात कर रहा
है। तभी बाहर
से एक युद्ध
से रिटायर
सैनिक अंडों
की एक टोकरी
लिए सिर पर जा
रहा है। उसने
मजाक में, सिर्फ
यह दिखाने के
लिए कि आदमी
कैसा यांत्रिक
हो जा सकता है,
होटल में
जोर से कहा.
अटेंशन! वह जो
सैनिक बाहर जा
रहा था अंडे
की टोकरी लिए,
वह अटेंशन
में खड़ा हो
गया। उसको
नौकरी छोड़े भी
दस साल हो गए
हैं! वे सारे
अंडे सड़क पर
गिर कर, बिखर
कर टूट गए। वह
बड़ा नाराज
हुआ। उसने कहा
: यह किस नासमझ
ने अटेंशन कहा?
विलियम
जेम्स ने कहा
कि तुम्हें
मतलब? हम
अटेंशन कहने
के हकदार हैं,
तुम मत होओ
अटेंशन!
उसने
कहा. यह भी हो
सकता है? तीस
साल तक, अटेंशन
यानी अटेंशन—अब
तो वह खून में
समा गया है।
ऐसी मजाक करनी
ठीक नहीं।
यह
यंत्रवतता
सैनिक में
पैदा करनी
पड़ती है। तभी
तो एक सैनिक
को कहा—मारो, गोली
चलाओ! तो वह यह
नहीं पूछता कि
इस आदमी ने मेरा
बिगाड़ा क्या,
जिस पर मैं
गोली चलाऊ? वह यह नहीं
सोचता कि इसकी
पत्नी होगी घर,
इसके बच्चे
होंगे; जैसे
मेरी पत्नी और
मेरे बच्चे हैं।
वह यह नहीं
सोचता कि इसकी
की मां होगी, शायद इसी पर
निर्भर होगी।
वह यह नहीं
सोचता कि इसका
बूढ़ा बाप होगा,
शायद आंखें
खो गई होंगी, यही उसके
जीवन की लकड़ी
है, सहारा
है। वह कुछ
नहीं सोचता। 'गोली मार! '—तो वह गोली
मारता है, क्योंकि
वह यंत्रवत
है।
जिस
आदमी ने हिरोशिमा
पर ऐटम बम
गिराया और एक
ऐटम बम के
द्वारा एक लाख
आदमी दस मिनिट
के भीतर राख
हो गए, वह
वापिस लौट कर
सो गया। जब
सुबह उससे
पत्रकारों ने
पूछा कि तुम
रात सो सके? उसने कहा, क्यों? खूब
गहरी नींद
सोया! आज्ञा
पूरी कर दी, बात खत्म हो
गई। इससे मेरा
लेना—देना ही
क्या है कि
कितने लोग मरे
कि नहीं मरे? यह तो
जिन्होंने
पॉलिसी बनाई,
वे जानें; मेरा क्या? मुझे तो कहा
गया कि जाओ, बम गिरा दो
फलां जगह—मैंने
गिरा दिया।
काम पूरा हो
गया, मैं
निश्चित भाव
से आ कर सो
गया।
एक
लाख आदमी मर
जाएं
तुम्हारे हाथ
से गिराए बम
से,
और तुम्हें
रात नींद आ
जाए— थोड़ा
सोचो, मतलब
क्या हुआ? एक
लाख आदमी! राख
हो गए! इनमें
से तुम किसी
को जानते नहीं,
किसी ने
तुम्हारा कुछ
कभी बिगाड़ा
नहीं, तुमसे
किसी का कोई
झगड़ा नहीं।
इनमें छोटे
बच्चे थे जो
अभी दूध पीते
थे, जिन्होंने
किसी का कुछ
बिगाड़ना भी
चाहा हो तो बिगाड़
नहीं सकते थे।
इनमें गर्भ
में पड़े हुए
बच्चे थे, मां
के गर्भ में
थे, अभी
पैदा भी न हुए
थे—उन्होंने
तो कैसे किसी
का क्या
बिगाड़ा होगा!
एक छोटी बच्ची
अपना होमवर्क
करने सीढ़ियां
चढ़ कर ऊपर जा
रही थी, वह
वहीं की वहीं
राख हो कर
चिपट गई दीवाल
से! उसका
बस्ता, उसकी
किताबें सब
राख हो कर
चिपट गए!
लाख
आदमी राख हो
गए और यह आदमी
कहता है, मैं
रात सो सका
मजे से!
यह
सैनिक है।
सैनिक का मतलब
इतना है कि वह
आज्ञा का पालन
करे। दुनिया
में
आज्ञापालन
करने वालों के
कारण जितना
नुकसान हुआ है, आज्ञा
न पालन करने
वालों के कारण
नहीं हुआ। और अगर
एक अच्छी
दुनिया बनानी
हो तो हमें
आज्ञा मानने
की ऐसी अंधता
तोड़नी पड़ेगी।
हमें व्यक्ति
को इतना विवेक
देना चाहिए कि
वह सोचे कि कब
आज्ञा माननी,
कब नहीं
माननी।
थोड़ा
सोचो, यह आदमी
यह कह सकता था
कि ठीक है, आप
मुझे गोली मार
दें, लेकिन
लाख आदमियों
को मैं मारने
नहीं जाऊंगा।
अगर मेरे मरने
से लाख आदमी
बचते हैं तो
आप मुझे गोली
मार दें। थोड़ा
सोचो कि जिस सैनिक
को भी कहा
जाता कि
हिरोशिमा पर
बम गिराओ, ऐटम,
वह कह देता
मुझे गोली मार
दे, मैं
तैयार हूं मगर
मैं गिराने
नहीं जाता—दुनिया
में एक
क्रांति हो
जाती।
क्या
आदमी ने इतना
बल खो दिया है, विचार
की इतनी
क्षमता खो दी
है? मगर
इसी के लिए
कवायद करवानी
पड़ती है, ताकि
धीरे — धीरे, धीरे— धीरे
विचार की
क्षमता खो
जाए।
सैनिक
और संन्यासी
दो छोर हैं।
संन्यासी का अर्थ
है. जो ठीक उसे
लगता है वही
करेगा, चाहे
परिणाम कुछ भी
हो। और सैनिक
का अर्थ है : जो
कहा जाता है
वही करेगा, चाहे परिणाम
कुछ भी
हो।
संन्यासी
बगावती होगा
ही,
बुनियादी
रूप से होगा।
इसलिए मैं
कहता हूं : धार्मिक
आदमी
विद्रोही
होगा
ही। अगर कोई
आदमी धार्मिक
हो और विद्रोही
न हो,
तो समझना कि
धार्मिक नहीं
है। उसने
सैनिक होने को
संन्यासी होना
समझ लिया है।
वह मंदिर भी
जाता है, पूजा
कर आता है, लेकिन
उसकी पूजा
कवायद का ही
एक रूप है।
उसे कहा गया
है कि ऐसी
पूजा करो तो
वह कर आता है, घंटी ऐसी
बजाओ तो बजा
आता है, पानी
छिडको, गंगाजल
डालो, तिलक—टीका
लगाओ—वह कर
आता है; लेकिन
यह सब कवायद
है। यह आदमी
धार्मिक नहीं
है; क्योंकि
धार्मिक आदमी
तो वही है जो
अपने अंतरविवेक
से जीता है।
यह
दुनिया धर्म
के बड़े विपरीत
है। यहां तीन
सौ धर्म हैं
जमीन पर, मगर
यह दुनिया
धर्म के बड़े
विपरीत है। ये
तीन सौ धर्म
सभी धर्म के
हत्यारे हैं।
इन्होंने सब
धर्म को मिटा
डाला है और
मिटाने की
पूरी चेष्टा
है। धर्म मिट
जाता है, अगर
तुम
आज्ञाकारी हो
जाओ। मैं
तुमसे यह नहीं
कहता कि
अनाज्ञाकारी
हो जाओ, खयाल
रखना। मेरी
बात का गलत
अर्थ मत समझ
लेना। मैं
तुमसे कहता
हूं.
विवेकपूर्ण..।
फिर जो ठीक लगे
आज्ञा में, बराबर करो; और जो ठीक न
लगे, फिर
चाहे कोई भी
परिणाम
भुगतना पड़े, कभी मत करो।
तब तुम्हारे
जीवन में फिर
से आश्चर्य का
उदभव होगा।
फिर से
तुम्हारे
प्राणों पर जम
गई राख झड़ेगी
और अंगारा
निखरेगा और
दमकेगा। उस
दमक में ही
कोई परमात्मा
तक पहुंचता
है।
परमात्मा
तक पहुंचने का
मार्ग सैनिक
होना नहीं है—परमात्मा
तक पहुंचने का
मार्ग
संन्यासी
होना है। और
संन्यासी का
अर्थ है :
जिसने निर्णय
किया कि सब जोखिम
उठा लेगा, लेकिन
अपने विवेक को
न बेचेगा; सब
जोखिम उठा
लेगा, अगर
जीवन भी जाता
हो तो गंवाने
को तैयार
रहेगा, लेकिन
अपनी अंतस—स्वतंत्रता
को न बेचेगा।
स्वतंत्रता
का अर्थ
स्वच्छंदता
नहीं है।
स्वतंत्रता
का अर्थ विवेक
है।
स्वतंत्रता
का अर्थ परम
दायित्व है कि
मैं अपना
उत्तरदायित्व
समझ कर स्वयं
जीऊंगा, अपने
ही प्रकाश में
जीऊं—गा; उधार,
परंपरागत, लकीर का
फकीर हो कर
नहीं।
क्योंकि
दुनिया की स्थितियां
बदलती जाती
हैं और लकीरें
नहीं बदलतीं।
दुनिया रोज
बदलती जाती है,
नक्शे
पुराने बने
रहते हैं।
दुनिया रोज
बदलती जाती है,
आदेश
पुराने हैं।
अब तुम वेद से
आदेश लोगे, भटकोगे नहीं
तो क्या होगा? तुम कुरान
से आदेश लोगे,
गीता से
आदेश लोगे, भटकोगे नहीं
तो क्या होगा?
पढ़ो गीता, समझो गीता, लेकिन आदेश
सदा स्वयं की
आत्मा से
लेना। उपदेश
ले लेना जहां
से भी लेना हो,
आदेश कहीं
से भी मत
लेना। उपदेश
और आदेश का यही
फर्क है।
उपदेश
का अर्थ है : जहां
भी शुभ बात
सुनाई पड़े, सुन
लेना, गुन
लेना, समझ
लेना। लेकिन
आदेश कहीं से
मत लेना। आदेश
के लिए तो
तुम्हारे
भीतर बैठा
परमात्मा है,
उसी से
लेना।
आश्चर्य
की क्षमता मर
गई है, क्योंकि
तुमने अहंकार
को चाहा, अहंकार
की आकांक्षा
में मर गई है।
अगर तुम चाहते
हो आश्चर्य
फिर से जागे, तो अहंकार
की चट्टानों
को हटाओ—बहेगा
झरना आश्चर्य
का। और वह
आश्चर्य
तुम्हें ताजा
कर जाएगा, कुंआरा
कर जाएगा, नया
कर जाएगा। फिर
से तुम देखोगे
दुनिया को जैसा
कि देखना
चाहिए। ये हरे
वृक्ष कुछ और
ही ढंग से हरे
हो जाएंगे। ये
गुलाब के फूल
किसी और ढंग
से गुलाबी हो
जाएंगे।
यह
जगत बड़ा सुंदर
है,
लेकिन
तुम्हारी आंखों
का आश्चर्य खो
गया है; तुम्हारी
आंखों पर
पत्थर जम गए
हैं। यह जगत
अपूर्व है, क्योंकि
प्रभु मौजूद
है यहां, यह
प्रभु से
व्याप्त है!
यहां पत्थर—पत्थर
में परमात्मा
छिपा है; इसलिए
कोई पत्थर
पत्थर नहीं है,
यहां सिर्फ
कोहिनूर ही
कोहिनूर हैं।
हर पत्थर से
उसी का नूर
प्रगट हो रहा
है, उसी की
रोशनी है। मगर
तुम्हारे पास
आश्चर्य की आंख
चाहिए। इसलिए
तो जीसस ने
कहा है : धन्य
हैं वे जो
छोटे बच्चों
की भांति हैं,
क्योंकि वे
ही मेरे प्रभु
के राज्य में
प्रवेश पा
सकेंगे। यहां
वे आश्चर्य के
संबंध में ही
इंगित कर रहे
हैं।
तीसरा
प्रश्न :
गुरु
शिष्यों के
साथ क्या कभी छिया
—छी का खेल भी
खेलता है? कृपा
करके कहें।
छिया—छी
ही तो पूरा का
पूरा संबंध है
गुरु और शिष्य
का। कभी—कभी
खेलता है, ऐसा
नहीं; बस
वही तो संबंध
है। और न केवल
गुरु और शिष्य
के बीच वैसा
संबंध है, परमात्मा
और सृष्टि के
साथ भी वैसा
ही संबंध है।
गुरु और शिष्य
तो उसी विराट खेल
को छोटे
पैमाने पर
खेलते हैं
जिसे बड़े पैमाने
पर परमात्मा
सृष्टि के साथ
खेल रहा है।
यहां
परमात्मा सब
जगह छिपा है, पुकार
रहा है जगह—जगह
से : ' आओ, मुझे
छुओ, खोजो!'
जिस दिन तुम
उसकी पुकार
सुन लोगे और
तुम उसे खोजने
लगोगे, उस
दिन तुम पाओगे
कि खोजने में
इतना आनंद है
कि तुम शायद
कहने लगो कि
जल्दी मत करना
प्रगट हो जाने
की।
तुम
कभी छोटे थे, जब
तुमने खेला
बच्चों का खेल
छिया—छी का।
एक ही कमरे
में बच्चे खड़े
हो जाते हैं छिप
कर, कोई
बिस्तर के
नीचे दब गया
है, कोई
कुर्सी के
पीछे छिप गया
है—और सबको
पता है कि कौन
कहां है, क्योंकि
सभी धीरे —
धीरे आंख खोल
कर देख रहे
हैं कि कौन
कहां है, फिर
भी खेल चलता
है। जिसने देख
लिया है, वह
भी इधर—उधर
दौड़ता है; वहां
नहीं आता जहां
कि तुम छिपे
हो, क्योंकि
खेल तो खेलना
है; नहीं
तो अगर सीधे
चले आए, जहां
तुम छिपे हो
तो खेल खत्म
हो गया।
तुम्हें भी
पता है कि वह
कहां से आ रहा
है। तुम भी
देख रहे हो, वह भी देख
रहा है; फिर
भी खेल चल रहा
है।
आत्यंतिक
अर्थों में
यही अर्थ है
लीला का। परमात्मा
ऐसा नहीं छिपा
है कि मिले
नहीं; ऐसा
छिपा है कि
तुम हाथ बढ़ाओ
और मिल जाए।
लेकिन जिस दिन
तुम समझोगे कि
इतने पास छिपा
है, तुम
कहोगे जरा खेल
चलने दो।
चुभते
ही तेरा अरुण
बाण
बहते
कण—कण से फूट—फूट
मधु
के निर्झर से
सजल गान
मेरे
छोटे जीवन में
देना
न तृप्ति का
कणभर
रहने
दो प्यासी आंखें
भरती
आंसू के सागर
तुम
मानस में बस
जाओ
छिप
दुख की
अवगुंठन से
मैं
तुम्हें
ढूंढने के
मिस
परिचित
हो लूं कण—कण
से
तुम
रहो सजल आंखों
की
सित—
असित मुकुरता
बन कर
मैं
सब कुछ तुमसे
देखूं
तुमको
न देख पाऊं
पर।
भक्त
कहता है सब
तुमसे देखूं; तुम
मेरी आंखों
में छिप जाओ; मैं
तुम्हारे
द्वारा ही सब
देखूं— फिर भी
तुम्हें न देख
पाऊं। और यह
खेल चलता रहे।
तुम
मानस में बस
जाओ
छिप
दुख की
अवगुंठन से
मैं
तुम्हें
ढूंढने के
मिस
परिचित
हो लूं कण—कण
से
—ढूंढता
फिरूं
तुम्हें! और
तुम्हें
ढूंढने के बहाने...
मैं
तुम्हें
ढूंढने के मिस
तुम्हें
ढूंढने के
बहाने
परिचित
हो लूं कण—कण
से!
खोजता
फिरूं, एक—एक
कण में
तुम्हें
पुकारता
फिरूं! लहर—लहर
में तुम्हें
झाकता फिरूं—और
इस बहाने सारे
अस्तित्व से
परिचित हो
लूं!
शायद
परमात्मा के
छिपने का राज
और रहस्य भी
वही है कि तुम
उसे खोजने के
बहाने इस
अस्तित्व के
महारहस्य से
परिचित हो
जाओ। वह तब तक
छिपा ही रहेगा
जब तक कि इस
जगत के समग्र
रहस्य से तुम परिचित
नहीं हो जाते।
तुम एक जगह
उसे खोज लोगे, वह
दूसरी जगह छिप
जाएगा कि चलो
अब दूसरी जगह
से भी परिचित
हो लो। तुम यहां
उसे खोज लोगे,
वह वहा छिप
जाएगा, ताकि
तुम वहा से भी
परिचित हो लो।
ऐसे वह तुम्हें
लिए चलता है, तुम्हें
अपने पीछे
दौड़ाए
चलता
है।
जब
भक्त समझ पाता
है ठीक से कि
यह खेल है, चिंता
मिट जाती है
उसी क्षण। फिर
खोजना एक तनाव
नहीं रह जाता,
एक आनंद हो
जाता है। फिर
खोजने में कोई
अधैर्य भी
नहीं होता।
मेरे
छोटे जीवन में
देना
न तृप्ति का
कणभर!
फिर
तो भक्त कहता
है,
मुझे तृप्त
मत कर देना, क्योंकि मैं
तृप्त हो गया
तो फिर
तुम्हें न
खोजूंगा।
तुम्हें
खोजना—इसके
मुकाबले क्या
तृप्ति में रस
हो सकता है? तुम्हारी
प्रतीक्षा, तुम्हारा
इंतजार— इससे
ज्यादा और रस
कहां हो सकता
है?
मेरे
छोटे जीवन में
देना
न तृप्ति का
कणभर
रहने
दो प्यासी आंखें
भरती
आंसू के सागर
तुम
फिक्र मत करना, तुम
ज्यादा
परेशान मत हो
जाना कि मेरी आंख
के आंसू सागर
बनाए दे रहे
हैं। तुम
फिक्र मत
करना। इसमें
मुझे आनंद आ
रहा है। मैं
रसमग्न हूं।
यह मैं दुख से
नहीं रो रहा
हूं! भक्त
आनंद से रोने
लगता हैं, अहोभाव
से रोने लगता
है। उसके आसुओ
में फूल हैं, कांटे नहीं;
शिकायत नहीं,
शिकवा नहीं;
प्रार्थना
है, कृतज्ञता—ज्ञापन
है, आभार
है, शुक्रिया
है!
जो
बड़े पैमाने पर
परमात्मा और
सृष्टि के बीच
हो रहा है, एक
छोटे पैमाने
पर वही खेल
गुरु और शिष्य
के बीच है। और
छोटे पैमाने
पर तुम खेलना
सीख जाओ तो
फिर बड़े
पैमाने पर खेल
सकोगे, इतना
ही उपयोग है।
जैसे
एक आदमी तैरना
सीखने जाता है
तो नदी के किनारे
तैरना सीखता
है;
एकदम से नदी
की गहराइयों
में नहीं चला
जाता, डूबेगा
नहीं तो।
किनारे पर, जहां उथला—उथला
जल है, जहां
गले—गले जल है,
वहां तैरना
सीखता है; फिर
धीरे — धीरे
गहराई में
जाना शुरू
होता है।
गुरु, जैसे
किनारा है
परमात्मा का,
वहां तुम
थोड़ा खेल सीख
लो, वहां
तुम थोड़ी
क्रीड़ा कर लो।
फिर जब तुम
कुशल हो जाओ
तैरने में और
तुम जब खेल के
नियम सीख जाओ
और लीला का
अर्थ समझ जाओ—तो
फिर जाना गहन
में, गहरे
में! फिर
उतरना सागरों
में।
तो
गुरु तो केवल
पाठ है
परमात्मा में
उतरने का।
इसलिए जो बड़े
पैमाने पर
सृष्टि में हो
रहा है वही
छोटे पैमाने
पर गुरु और
शिष्य के बीच
घटता है।
ठीक
तुमने पूछा, छिया—छी
का खेल ही
घटता है।
एक
बात गुरु
तुमसे कहता है, तुम
उसे पूरी करने
लगते हो; वह
तत्क्षण
दूसरी कहने
लगता है। तुम
एक बात मानने—मानने
के करीब आते
कि वह सब उखाड़
डालता है। तुम
घर बनाने को
होते कि वह
आधार गिरा
देता है। तुम
जल्दी में हो
कि किसी तरह
हल हो जाए; गुरु
इतनी जल्दी
में नहीं है।
गुरु कहता है
कि जो जल्दी
हल हो जाएगा, वह कोई हल न
हुआ। यह जीवन
का ऐसा प्रगाढ़
रहस्य है कि
यह जल्दी हल
नहीं हो सकता।
ये कोई मौसमी
फूल के पौधे
नहीं हैं। ये
बड़े दरख्त हैं
जो आकाश को
छूते हैं; जो
हजारों साल
जीते हैं; जो
चांद—तारों से
बात करते हैं;
इनमें
प्रतीक्षा..!
मैंने
सुना है, महर्षि
कश्यप की
पत्नी को बड़ी आकांक्षा
थी कि एक ऐसा
पुत्र हो जो
महासत्व हो।
साधारण पुत्र
की आकांक्षा
नहीं थी।
कश्यप की
पत्नी थी, साधारण
पुत्र की
आकांक्षा भी
क्या करती! कम
से कम कश्यप
जैसा तो हो।
कश्यप से बड़ा
हो, ऐसी आकांक्षा
थी। महासत्व
हो, बोधिसत्व
हो, बुद्ध
जैसा हो! तो
उसने बड़ी
प्रार्थनाएं
कीं। कहते हैं,
ईश्वर उस पर
प्रसन्न हुआ।
और विनीता
उसका नाम था, उसे एक
डिम्ब दिया
गया कि उससे
महासत्व
संतान होगी।
लेकिन वह बड़ी
हैरान हुई।
जैसा नियम होना
चाहिए कि नौ
महीने में
बच्चा पैदा हो,
बच्चे की
कोई खबर ही
नहीं। नौ
महीने क्या, सालों बीतने
लगे। वह बड़ी
परेशान हुई।
वह जल्दी में
थी कि बच्चा
होना चाहिए।
वह के होने के
करीब आ गई तो
उसने डिम्ब
फोड़ डाला।
बच्चा निकला,
लेकिन आधा
निकला। जो
बच्चा पैदा
हुआ, पुराणों
में उसी का
नाम अरुण है।
वही बच्चा बाद
में सूर्य का
सारथी बना।
अरुण
जब पैदा हुआ
तो उसने बड़े
क्रोध से अपनी
मां से कहा कि
सुन,
तू महासत्व
संतान चाहती
है, लेकिन
महाप्रतीक्षा
करने की तेरी
कुशलता और क्षमता
नहीं है। तूने
बीच में ही
अंडा फोड़ दिया!
मैं अभी आधा
ही बढ़ पाया
हूं।
पर
मां ने कहा, प्रतीक्षा
हो गई, सालों
बीत गए। तो उस
बेटे ने कहा
फिर महासत्व संतान
की आकांक्षा
नहीं करनी
चाहिए। फिर
साधारण बच्चा
चाहिए तो नौ
महीने में मिल
जाता है।
महासत्व
चाहिए तो महाप्रतीक्षा
चाहिए।
शिष्य
तो बड़ी जल्दी
में होते हैं।
उन्हें तो लगता
है,
अभी हो जाए,
कोई दे दे
तो झंझट मिटे।
तुम्हें रस
नहीं है खोज
का। गुरु
जानता है कि
खोज में रस
इतना हो जाए
जब कि तुम यह
भी कह सको कि
अब न भी मिलेगा
तो चलेगा, खोज
ही इतनी
रसपूर्ण है, कौन फिक्र
करता है! उसी
दिन मिलता है।
इसे तुम खयाल
में रख लेना
गांठ बांध कर।
मैं
फिर से दोहरा
दूं. जिस दिन
तुम यह कहने
में समर्थ हो
जाओगे कि अब
तू जान, मिलने—जुलने
की हमें फिक्र
नहीं, लेकिन
खोज इतनी
आनदपूर्ण है,
हम खोज करते
रहेंगे, तू
छिपता रह। उसी
दिन खोज
व्यर्थ हो गई,
उसी दिन
छिपने का कोई
अर्थ न रहा।
जब खोज ही मिलन
का आनंद बन गई
और जब मार्ग
ही मंजिल
मालूम होने
लगा, तो
फिर मंजिल छिप
नहीं सकती; उसी दिन
मिलन घटता है।
महाप्रतीक्षा
चाहिए।
तुम
अमर
प्रतिज्ञा हो,
मैं
पग विरह पथिक
का धीमा।
आते
— जाते मिट
जाऊं,
पाऊं
न पंथ की
सीमा।
पाने
में तुमको
खोऊं,
खोने
में समझूं
पाना।
यह
चिर अतृप्ति
हो जीवन,
चिर
तृष्णा हो मिट
जाना।
मेघों
में विद्युत —
सी छवि,
उनकी
बन कर मिट
जाती;
आंखों
की चित्रपटी
में
जिसमें
मैं आंक न
पाऊं।
वह
आभा बन खो
जाते
शशि
किरणों की
उलझन में
जिसमें
उनको कण—कण
में
ढूंढंअ
पहचान न पाऊं।
एक
अनंत
प्रतीक्षा
चाहिए, महंत
प्रतीक्षा
चाहिए।
तो
गुरु कई बार
तुमसे कहता है
: अभी हुआ जाता, अभी
हुआ जाता, बस
होने को ही है!
वह सिर्फ
इसलिए, ताकि
तुम खोज में
लगे रहो, ताकि
तुम्हारा
धैर्य बंधा
रहे। 'पहुंचे,
पहुंचे' —गुरु कहता
जाता है—'देखो
किनारा करीब आ
रहा है, पक्षी
उड़ते दिखाई
पड़ने लगे!
देखो दूर
किनारे वृक्ष
दिखाई पड़ने
लगे, अब हम
पहुंचते हैं!'
ताकि
तुम्हारी
हिम्मत बंधी
रहे।
तुम्हारी
हिम्मत बड़ी
कमजोर है। और
जैसे ही तुम
किसी स्थिति
में थिर होने
लगते हो, किसी
मकान के नीचे
घर बनाने लगते
हो और किसी पड़ाव
को मंजिल
समझने लगते हो—तत्त्वा
गुरु डेरा
उखाड़ देता है।
वह कहता है, चलो बस हो
गया, अभी
मंजिल बहुत
है। अभी बहुत
दूर जाना है।
अभी यहां घर
नहीं बना लेना
है। ऐसी छिया—छी
चलती है। धीरे
— धीरे तुम इस
राज को समझने
लगते हो।
अनुभव से ही
समझ में आता
है। धीरे—
धीरे तुम
समझने लगते हो
कि वास्तविक
बात पाना नहीं
है, खोजना
है। वास्तविक
बात पहुंच
जाना नहीं है,
पहुंचने की
चेष्टा करते
रहना है।
वास्तविक बात
यात्रा है, मंजिल नहीं।
हालांकि मैं
समझता हूं
तुम्हारी बड़ी
जल्दी है किसी
तरह मंजिल मिल
जाए; कोई
चोर—दरवाजा हो,
वहा से
पहुंच जाएं या
कोई रिश्वत
चलती हो तो किसी
द्वारपाल को
रिश्वत दे दें
और अंदर हो
जाएं; या
कोई शार्टकट!
मगर न कोई
शार्टकट है, न कोई चोर
दरवाजा है, न रिश्वत
चलती है। न
तुम्हारे
पुण्य से कुछ
होगा, न तुम्हारी
तपश्चर्या से
कुछ होगा।
अनंत
यात्रा है
परमात्मा।
परमात्मा
मंजिल है, इस
भाषा में सोचा
कि तुम भूल
में पड़ोगे।
क्योंकि
मंजिल का मतलब
है : फिर उसके
बाद बैठ गए, फिर कुछ भी
नहीं।
परमात्मा सतत
जीवन है, इसलिए
बैठना तो घट
ही नहीं सकता,
यात्रा
होती रहेगी।
परमात्मा
प्रक्रिया है—वस्तु
नहीं। वस्तु
की तरह सोचोगे
तो भांति होगी,
भूल होगी।
परमात्मा
प्रक्रिया है—चलते
रहने में, जीते
रहने में, बहते
रहने में।
जैसे नदी बही
जाती है सागर
की तरफ और
सागर उडू—उडु
कर नदी की तरफ
बहता रहता है—ऐसे
ही साधक खोजते
रहते
परमात्मा को,
परमात्मा
साधकों को
खोजता रहता
है। यह खेल
छिया—छी का
है।
जिस
दिन समझ में आ
जाएगा कि यह
खेल है, तनाव
समाप्त हो
जाएगा, फिर
खेल में पूरा
मजा आएगा। हम
तो ऐसे पागल
हैं कि खेल
में भी तनाव
बना लेते हैं।
तुमने देखा दो
आदमी ताश खेल
रहे हों, कैसा
सिर भारी कर
लेते हैं, लड़ने
—मारने को
उतारू हो जाते
हैं! तलवारें
खिंच जाती हैं
शतरंज के
खेलों में!
लोगों ने एक—दूसरे
की हत्या कर
दी है शतरंज
खेलते हुए।
ऐसे पगला जाते
हैं! और कुछ भी
नहीं है वहां।
न हाथी हैं, न घोड़े हैं, न राजा हैं, न कुछ है—लकड़ी
के, या
बहुत हुए हाथी—वत
के। सब नकली
हैं, मगर
ऐसा रस पैदा
हो जाता है कि
जी—जान की
बाजी लग जाती
है। लोग खेल
में इतनी गंभीरता
ले लेते हैं
और साधक वही
है जो गंभीरता
में भी खेल ले
ले।
संसारी
वही है जो खेल
को भी गंभीर
बना लेता है।
और संन्यासी
वही है जो
गंभीरता को भी
खेल बना लेता
है।
तुम
अमर प्रतिज्ञा
हो,
मैं
पग
विरह पथिक का
धीमा!
सुनो—
तुम
अमर
प्रतिज्ञा हो, मैं
पग
विरह पथिक का
धीमा।
आते
—जाते मिट
जाऊं
पाऊं
न पंथ की
सीमा।
भक्त
कहता है पंथ
की सीमा कहा
पानी, किसको
पानी, पा
कर करना क्या?
आते
—जाते मिट
जाऊं
पाऊं
न पंथ की
सीमा।
पाने
में तुमको
खोऊं
खोने
में समझूं
पाना!
यही
छिया—छी का
अर्थ है।
यह
चिर अतृप्ति
हो जीवन
चिर
तृष्णा हो मिट
जाना!
तुम्हें
खोजते —खोजते
मिट जाऊं!
तुम्हारी
तृष्णा बनी ही
रहे! तुम्हारी
प्यास जलती ही
रहे! मैं
तुम्हें पा कर
तृप्त नहीं हो
जाना चाहता—
भक्त कहता है।
भक्त कहता है, तुम्हारी
अतृप्ति इतनी
प्यारी!
मेघों
में विद्युत—सी
छवि
उनकी, बनकर
मिट जाती।
कभी—कभी
बनेगी
परमात्मा की
छवि,
मिटेगी
परमात्मा की
छवि!
आंखों
की चित्रपटी
में
जिससे
मैं आंक न
पाऊं।
वह
बनेगी और
मिटेगी इतनी
शीघ्रता से कि
तुम्हारे मन
में तुम उसको
संजो न पाओगे।
तुम मन में
प्रतिमा न बना
पाओगे।
तुम्हारा
अहोभाव अहोभाव
ही रहेगा। तुम
यह न कह पाओगे :
मैंने जान लिया।
इसलिए उपनिषद
कहते हैं. जो
कहता है मैंने
जान लिया, उसने
नहीं जाना। और
जो कहता है
मुझे कुछ भी
पता नहीं, शायद
उसे पता हो।
मेघों
में विद्युत—सी
छवि
उनकी, बन
कर मिट जाती।
आंखों
की चित्रपटी
में
जिससे
मैं आंक न
पाऊं।
कोई
प्रतिमा नहीं
बन पाती। झलक
आती और जाती—और
इतनी त्वरा से, इतनी
तीव्रता से कि
तुम मुट्ठी
नहीं बांध पाते।
बाधोगे भी तो
मुट्ठी खाली
रह जाएगी।
परमात्मा
मुट्ठी में
बांधा नहीं जा
सकता—न
शब्दों में, न
सिद्धातो में, न
शास्त्रों
में। कहीं भी
उसकी छवि तुम
बांध न पाओगे।
वह अरूप अरूप
ही रहता।
दर्शन भी हो
जाते हैं, फिर
भी अरूप रहता।
मिल भी जाता, फिर भी पाने
को सदा शेष
रहता।
वह
आभा बन खो
जाते
शशि
किरणों की
उलझन में
जिसमें
उनको कण—कण
में
ढूंढंअ
पहचान न पाऊं।
भक्त
को जल्दी नहीं
है। और जिसे
जल्दी नहीं है, जल्दी
ही घटना घट
जाती है। और
जिसे बहुत
जल्दी है, उसे
अनंत— अनंत
काल तक भटकना
पड़ता है और
घटना नहीं
घटती।
अगर
तुम चाहते हो
अभी मिल जाए
परमात्मा, तो
तुम अनंत
प्रतीक्षा के
लिए राजी हो
जाओ। कह दो : जब
मिलना हो मिल
जाना, कुछ
जल्दी नहीं
है। हम खोजते
रहेंगे, हम
खोज में बहुत
तृप्त हैं। हम
अतृप्ति में
भी बहुत तृप्त
हैं। हमारे ये
विरह के आंसू
भी बड़े
आनदपूर्ण
हैं।
आखिरी
प्रश्न :
आप
भीतर के
प्रकाश की तनी
बात करते हैं, लेकिन
मेरा अनुभव कुछ
और है। जब भी
ध्यान में
मेरे विचार शांत
होते हैं तो
मेरे भीतर एक
घना अंधकार घिरता
है, जो
ठंडा और
प्रीतिकर
लगता है। कृपापूर्वक
समझाएं कि यह
क्या है?
सुबह
होने के पूर्व
रात गहन रूप
से अंधेरी हो
जाती है। और
अंधेरे के
गर्भ से ही
सुबह का जन्म
होता है। तो
जब मैं तुमसे
निरंतर बात
करता हूं प्रकाश
की,
तुम यह मत समझ
लेना कि तुम
भीतर जाओगे तो
तत्क्षण
प्रकाश मिल
जाएगा। पहले
तो गुजरना
पड़ेगा गहन रात्रि
से। उसी
रात्रि के अंत
पर सुबह है, प्रकाश है।
ईसाई
फकीरों ने इस
अवस्था को 'डार्क
नाइट ऑफ द सोल'
कहा है—आत्मा
की अंधेरी
रात। सिर्फ
ईसाई फकीरों
ने ऐसा प्यारा
नाम दिया है, किसी और ने
नहीं। और बड़ा
ठीक किया है।
क्योंकि सभी
शास्त्र, कुरान,
वेद, उपनिषद
परमात्मा के
प्रकाश—रूप की
बात करते है—वह
आत्यंतिक बात
है। लेकिन जब
साधक भीतर
उतरेगा तो
प्रकाश एकदम
से नहीं
मिलता। और अगर
एकदम से मिलता
हो तो जरा
संदेह करना; क्योंकि वह
प्रकाश कल्पना
का होगा, वास्तविक
नहीं हो सकता।
वह तुमने
सुन—सुन
कर,
शास्त्रों
में पढ़—पढ़
कर कि
परमात्मा
प्रकाश—रूप है,
प्रकाश
रूप...। और कई तो
ऐसे पागल हैं
जिनका हिसाब
नहीं!
चार—छ:
दिन पहले एक
व्यक्ति ने
संन्यास
लिया। उन्होंने
कहा कि मैंने
बालयोगेश्वर
से दीक्षा ली
है,
तो
उन्होंने
मुझे समझाया
था कि आंख को
अंगूठों से
दबाने से
प्रकाश का
अनुभव होता है,
बड़ा अनुभव
होता है। मैं
दबाता हूं आंख,
बड़ा अनुभव
होता है। तो
वह मैं जारी
रखूं कि बंद
करूं? अब
क्या पागल हो?
आंख को
दबाओगे
अंगूठे से तो
तिलमिलाहट
पैदा होने से
रोशनी मालूम
होती है; वह
तो किसी को भी
मालूम होती है;
उससे
अध्यात्म का
कोई संबंध है?
कोई भी आंख
को जोर से
दबाएगा तो
तिलमिलाहट
पैदा होती है,
तिलमिलाहट
से रोशनी
मालूम होती
है। वह रोशनी तो
सिर्फ आंख के
दबाने के कारण
मालूम हो रही
है। इसको तुम
आध्यात्मिक
प्रकाश समझ
रहे हो? और
वे दो साल से
यही काम कर
रहे हैं।
उसमें उनकी आंखें
भी खराब हो गई
हैं। क्योंकि
जब बहुत आंखों
को दबाओगे...।
और फिर धीरे—
धीरे रस आने
लगा, तो
फिर और ज्यादा
दबाने लगे।
क्योंकि
जितना दबाओ
उतना प्रकाश
दिखाई पड़ता है,
गजब हो रहा
है! इसको
बालयोगेश्वर
ज्ञान कहते
हैं। आंख में
दबाने से जो
रोशनी पैदा
होती है—यह
शान है।
अब
यह मामला ऐसा
है कि किसी की
भी आंख दबा दो, उसको
रोशनी दिखाई
पड़ती है; वह
भी चकित हो
जाता है कि यह
तो बात बिलकुल
ठीक हो रही है!
हमें पता ही
नहीं था, बड़ा
सीधा—सुगम
उपाय मिल गया!
या
फिर ऐसे लोग
हैं जो कहते
हैं,
रोशनी की
भीतर धारणा
करो। आंख बंद
कर लो, दोनों
आंखों के मध्य
में देखो कि
एक दीये की
ज्योति जल रही
है या एक
प्रकाश का
बिंदु, उस
पर ध्यान रखो।
अगर तुम ऐसी
कल्पना करोगे
तो धीरे — धीरे
कल्पना
प्रगाढ़ हो
जाएगी।
तुम्हें रोशनी
दिखाई पड़ने
लगेगी, मगर
यह झूठी रोशनी
है।
धर्म
ज्योति ने
पूछा है यह
प्रश्न। ठीक
हो रहा है!
अंधेरी रात से
गुजर कर ही जो
सुबह होगी, जिस
सुबह को तुम
नहीं ला सकते,
जो अपने—आप
आती है सुबह, वह अंधेरी
रात से गुजर
कर आती है।
तुम अंधेरी रात
में शांति से
गुजरो, जाओ।
प्रकाश करीब
आने से पहले
रात बहुत
अंधेरी हो
जाएगी। मगर
शुभ हो रहा है,
क्योंकि
अंधेरे के साथ
एक ठंडा और
प्रीतिकर भाव
है। तो बिलकुल
शुभ हो रहा
है। भय न हो
अंधेरे से, प्रेम हो
अंधेरे से, तो सुबह
ज्यादा दूर
नहीं। अगर भय
हो तो तुम भागने
लगोगे। भागने
लगे तो सुबह
से दूर हो
जाओगे।
भागोगे तो अंधेरे
से, दूर हो
जाओगे सुबह
से।
और
ठंडा, शीतल..
.बिलकुल शुभ
हो रहा है।
ठंडा और शीतल
ही है अंधेरे
का अनुभव। वह
तो भय के कारण
हम अनुभव नहीं
कर पाते। बचपन
से ही अंधेरे
के संबंध में
हमारी गलत
धारणा हो जाती
है। बच्चा
डरता है अंधेरे
से, क्योंकि
अकेला रह जाता
है। अंधेरे
में घबराता है
कि कोई आ न जाए,
कुछ मार न
दे, कोई
चोट न कर दे, कुछ गिर न
पड़े। छोटा
बच्चा! वह भय
बैठ जाता है। और
फिर मनुष्य—जाति
के इतिहास में
भी आज से कोई
दस हजार, बीस
हजार साल पहले
जब आदमी
जंगलों में था,
गुफाओं में
था, आग का
आविष्कार न
हुआ था—तो रात
बड़ी घबराने
वाली थी।
क्योंकि रात
को ही जंगली जानवर
हमला करते थे,
दिन तो किसी
तरह गुजर जाता
था, रात
में हमला होता
था। दिन में
तो सूरज की
रोशनी होती थी,
आदमी अपने
को बचा लेता, भाग जाता।
रात
को
सिंह गरजते और
शिकार करते।
और हजार तरह
के जंगली
जानवर थे, उन
सबके बीच बचना
बड़ा कठिन था।
तो रात के साथ
उन सबका जोड़ हो
गया।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
प्रत्येक
मनुष्य के
अचेतन मन में
वह गुफा—मानव
का अनुभव अभी
तक पड़ा है, वह
गया नहीं। वह
शरीर की
स्मृति में
समाविष्ट हो
गया है। तो
इसलिए हम
अंधेरे से
डरते हैं। अब
तो कोई कारण
भी नहीं है, घर में बैठे
हैं, बिजली
पास में है, जब बटन दबाओ
रोशनी हो जाए,
कोई झंझट भी
नहीं है ऐसी।
देश में
अनुशासन—पर्व
चल रहा है—कोई
उपद्रव नहीं
है, कोई डर
का कारण नहीं
है। अपने कमरे
में बैठे हैं,
तो भी
अंधेरे से
घबरा रहे हैं।
वह बीस हजार
साल पहले आदमी
का जो अनुभव
था, वह
तुम्हारी नस—नस
में समाया हुआ
है। तुम भी
उसी आदमी से
पैदा हुए हो।
श्रृंखला उसी
से बंधी है।
वह बात भूली
नहीं है, वह
बहुत गहरे में
पडी है। तो
अंधेरे से डर
लगता है।
अंधेरे से
आदमी भयभीत
होता है।
लेकिन
जो आदमी
अंधेरे से
भयभीत होता है
और डरता है, वह
भीतर जा ही न
सकेगा। उसकी
अंतर्यात्रा
ही न हो सकेगी।
अंतर्यात्रा
में अंधेरे से
तो पार होना
ही पड़ेगा।
अंतर्यात्रा
अंतर्गुहा
में प्रवेश
है। शुभ हो
रहा है। जाओ—आनंदपूर्वक,
शांतिपूर्वक!
सुबह भी करीब
है। अंधेरा
बढ़ने लगे, उतना
ही भरोसा जगा
लेना कि अब
सुबह करीब आती
है, अब
करीब आती है।
एक
ही बात ध्यान
रखना इस
अंधेरे से मोह
मत बना लेना।
एक तो खतरा है
भय का कि आदमी
घबड़ा कर भाग जाए।
और दूसरा खतरा
है,
क्योंकि यह
ठंडा और
प्रीतिकर
मालूम हो रहा
है, इससे
मोह मत बना
लेना, नहीं
तो तुम सुबह
को पैदा न
होने दोगे।
तुम्हारा मोह
ऐसा हो जाएगा
कि तुम इसको
पकड़ोगे। तुम
धीरे — धीरे
मोह के कारण
अंधेरे से जकड़
जाओगे।
बहुत
लोग हैं, जिन्होंने
इसी तरह की
जकड़ने पैदा कर
ली हैं।
मेरे
पास इतने लोग
आते हैं, मैं
चकित होता
हूं! देखता
हूं कोई आदमी
उदासी से पकड़े
हुए है अपने
को, जकड़े
हुए है। वह
कहता है कि
मुझे उदासी
नहीं चाहिए, लेकिन सब
उपाय करता है
कि उदास हो
जाए। बातें करता
है कि मुझे
उदासी से बाहर
खींचो, लेकिन
जब मैं उसे
समझा रहा होता
हूं तब मैं देख
रहा होता हूं
कि वह सुन भी
नहीं रहा है।
वह शायद मेरी बातों
को सुन
कर भी उदास हो
जाएगा। ऐसे भी
लोग मैंने देखे,
वे मुझे सुन
कर कहने लगे
कि हम पहले से
ही उदास थे, आपकी बातें
सुन कर और
उदास हो गए।
'मैंने
तुम्हें कौन—सी
बात कही?'
आपने
प्रकाश की और
आनंद की इतनी
बात कही कि उससे
हमें ऐसा लगने
लगा कि अरे, यह
तो हम बड़े चूक
रहे हैं! और
उदासी आ गई।
तो हमारा जीवन
बेकार ही गया!
देखते
हैं,
मैं प्रकाश
की बात कर रहा
हूं परमात्मा
की, कि तुम
उठो, जागो,
खोजो। वे
कहते हैं, कि
हम और सुस्त
हो कर गिर पड़े
कि मार डाला!
हम तो सोचते
थे, सब ठीक
चल रहा है।
आपने और यह
कहां की बात
कह दी? इससे
हम और भी उदास
हो गए।
लोग
दुख से संबंध
बना लेते हैं।
फिर संबंध ऐसे
हो जाते हैं
प्राचीन और
आदत के, कि
छूटना भी चाहो
तो छूटते
नहीं। एक हाथ
से छूटते हो, दूसरे हाथ
से बनाए चले
जाते हो। इसका
थोड़ा खयाल
रखना।
कल
मैं एक गीत
पढ़ता था :
एक
उदास तनहाई
जिंदगी
को रास आई!
कुछ
लोग हैं, जिन्हें
उदासी और
अकेलापन रास आ
जाता है।
क्योंकि किसी
के साथ रहो तो
झंझट तो आती है।
तुम जानते हो :
साथ यानी
झंझट। इसलिए
तो आदमी साथ
से भागता है।
किसी के भी
साथ रहो तो
थोड़ी—बहुत
झंझट होगी, क्योंकि
जहां दो बर्तन
हुए, थोड़ी
आवाज, कलह
होना शुरू
होती है। वहीं
चुनौती भी है।
लेकिन इससे
आदमी डर सकता है,
भाग सकता है
कि इससे तो
अकेले बेहंतर।
अकेले राम—कोई
झंझट नहीं!
मगर
अकेले राम तो
हो गए, लेकिन
चुनौती नहीं
रही; सीता
नहीं रही, रावण
नहीं रहे!
अकेले राम तो
हो गए, लेकिन
रामलीला खत्म!
तो तुम तो राम
से भी ज्यादा
समझदार हो गए।
राम का सारा
व्यक्तित्व
निखरा, क्योंकि
अकेले राम
नहीं थे; बड़ी
चारों तरफ
जीवन के
संघर्ष की
स्थिति थी। उसमें
से
व्यक्तित्व
निखरता है। तो
अकेले में एक
तरह की मुर्दा
शांति है।
एक
उदास तनहाई
जिंदगी
को रास आई
दिल
में तेरी चाहंत
भी
ले
के रंगे—यास
आई।
आशिकी
शक—ए—बाइ
क्यों
न मेरे पास आई?
कितने
जाम खाली हैं
कितने
जाम छलके हैं
इश्क
की फजाओं में
वहम
के महल के हैं
हुस्न
की जियाओं में
सोच
के धुंधलके
हैं
मेरी
आरजुओं के
रंग
कितने हलके
हैं
आह, क्यों
मेरी फितरत
रोशनी
से घबराई?
आह, क्यों
मेरी फितरत
रोशनी
से घबराई?
खलअतो
की
शैदाई
जलवतो
से
शरमाई
एक
उदास तनहाई
जिंदगी
को रास आई।
तुम
कहीं इस उदासी
से रास मत आ
जाना। इस
उदासी से संग—साथ
मत बना लेना।
इस उदासी से
गठबंधन मत कर
लेना। इस
उदासी से
विवाह मत कर
बैठना। यह
ठंडी है और
प्रीतिकर है।
आह, क्यों
मेरी फितरत
रोशनी
से घबराई?
और
अगर इससे तुमने
बहुत संबंध
बना लिया तो
फिर तुम रोशनी
से घबड़ाने
लगोगे।
कुछ
लोग हैं जो
अंधेरे से
घबड़ाते हैं; अंधेरे
से घबड़ा कर
भागते हैं तो
रोशनी तक नहीं
पहुंच पाते।
फिर कुछ लोग
हैं, जो
रोशनी से
घबड़ाने लगते
हैं; क्योंकि
अंधेरे से
उनका प्रेम बन
जाता है। जिसने
पूछा है, धर्म
ज्योति ने, उसके लिए यह
खतरा है, इसलिए
मैं कह रहा
हूं। उसके लिए
खतरा है कि वह इस
अंधेरे, उदासी,
शांति से
कहीं बहुत
ज्यादा संबंध
न बना ले। अगर
यह संबंध
ज्यादा बन गया
तो फिर सुबह, हो सकती थी
जो सुबह, वह
भी न हो
पाएगी।
इसलिए
गुजरो अंधेरे
सें—आनंद से
गुजरो, गीत
गुनगुनाते
गुजरो।
अंधेरा
निश्चित ही ठंडा
और शीतल है, बड़ा
विश्रामदायी
है! लेकिन
खयाल रखना, अंधेरा केवल
गर्भ है उजाले
का। अंधेरा
केवल निषेध
है। विधेय तो
प्रकाश है।
पहुंचना तो
प्रकाश पर है।
अंधेरे से
गुजरो, अंधेरे
में निखरो, नहाओ, लेकिन
जाना तो
प्रकाश पर है।
अगर
कोई व्यक्ति
अंधेरे में ही
रह जाए तो शात तो
हो सकता है, लेकिन
उसके जीवन में
प्रेम पैदा न
होगा।
बुद्ध
ने कहा है : अगर
ध्यान लग जाए
और करुणा पैदा
न हो,
तो समझना कि
कहीं कुछ चूक
हो गई; होते
—होते बात रह
गई। अंधेरे
में आदमी
ध्यान को तो उपलब्ध
हो सकता है, लेकिन जब
प्रकाश का उदय
होगा, तभी
प्रेम को
उपलब्ध होगा।
और जब ध्यान
और प्रेम
दोनों एक साथ
फलते हैं, तभी
व्यक्ति के
वृक्ष में फल
और फूल दोनों
आए; तभी
कोई वस्तुत:
सफल और सुफल
हुआ। धर्म
ज्योति को
खतरा है, क्योंकि
वह प्रेम से
बड़ी डरी हुई
है। उसने जीवन
में प्रेम
जाना नहीं। वह
पहले से ही
कुछ गलत
गुरुओं के चक्कर
में पड़ गई, जिन्होंने
समझा दिया कि
प्रेम पाप है;
जिन्होंने
समझा दिया कि
शरीर पाप है; जिन्होंने
समझा दिया कि
संबंध संसार
है, इससे
तो पार जाना
है। उन्होंने
उसे बहुत घबड़ा
दिया। उनसे वह
छूट भी गई, लेकिन
बड़े गहरे
अचेतन में
उनकी धारणाएं
अब भी पड़ी रह
गई हैं। इसलिए
इस बात का डर
है कि कहीं
अंधेरे से गठबंधन
न बन जाए।
तो
ध्यान रखना, रोशनी
से घबड़ाना मत।
रोशनी करीब आए
तो आंख बंद मत
कर लेना।
रोशनी करीब आए
तो दरवाजा बंद
मत कर लेना।
क्योंकि
परमात्मा के
मार्ग पर भला
अंधेरा हो, परमात्मा की
उपलब्धि पर
प्रकाश है।
उसकी प्रतीक्षा
करते रहना—अंधेरी
रात में भी!
अंधेरी रात
में भी उसे
पहचानने की
कोशिश जारी
रहे।
कुमुद—दल
से वेदना के
दाग को
पोंछती
जब आंसुओ से
रश्मिया
चौंक
उठतीं अनिल के
विश्वास छू
तारिकाएं
चकित—सी अनजान—सी
अवनि
अंबर की रुपहली
सीप में
तरल
मोती—सा जलधि
जब कापता
तैरते
घन मृदुल हिम
के पुंज से
ज्योत्सना
के रजत
पारावार में
सुरभि
बन जो थपकियां
देता मुझे
नींद
के उच्छवास—सा
वह कौन है!
अंधेरे
में भी जो
तुम्हें
थपकियां दे, खयाल
रखना. वही है!
सुरभि
बन जो थपकियां
देता मुझे
नींद
के उच्छवास—सा
वह कौन है!
वह
जो नींद में
भी आ कर
तुम्हें घेर
लेता है, वह भी
वही परमात्मा
है। अंधेरे की
तरह तुम्हें
जो घेर लेता, वह भी वही
परमात्मा है।
शीतल छांह जो
अंधेरे की
मालूम होती है,
वह भी उसी
की शीतल छाह
है। वह जो
मीठा शांतिदायी,
विश्राममयी
भाव घेर लेता
है अंधेरे में,
वह भी उसी
के पास होने
की खबर है; कहीं
पास ही वह
मौजूद है!
उसे
भूलना मत और
उसकी खोज जारी
रखना। जो आज
सोया है, वह कल
जागेगा। जो आज
अंधेरे में
दबा है—उभरेगा।
क्षितिज पर
उसकी लाली
जल्दी ही दिखाई
देने लगेगी।
मुझे
यह महसूस हो
रहा है मेरा
खुदा
ख्वाबगाहे
—गफलत में सो
रहा है
मेरा
दिले —बेकरार
मुद्दत से रो
रहा है
शिकस्त
है यह कि
आजमाइश
कि
रब्बे — आलम कि
लुत्मोंअकराम
की नुमाइश
बफूरे—वहशत
ने जिंदगी का
सुहाग लूटा
तिलिस्म
कैफे—शबाब
लूटा
मुझे
यह महसूस हो
रहा है
कि
खालिके —जीस्त
सो रहा है।
बशर
मुहब्बत से
जीस्त
के हुस्ने—रंग
से हाथ धो रहा
है।
कभी
तो जागेगा
सोने वाला
कभी
तो इस सबकी
तीरगी को
मिटाएगा
सुबह का
उजाला।
कभी
तो जागेगा
सोने वाला
कभी
तो इस सबकी
तीरगी को
मिटाएगा
सुबह का
उजाला।
वह
होगा—होने ही
वाला है!
निश्चित ही
है! जब रात आ गई
तो सुबह दूर
नहीं। जब
अंधेरा घना
होने लगा और
तारों की छांव
गहरी होने लगी, तो
सूरज करीब आने
लगा। जल्दी ही
क्षितिज पर फैल
जाएगी उसकी
लाल रेखा।
प्रतीक्षा
करो!
प्रार्थना
करो! आशा को
जगाए रखो! आंख
खोल कर
पुकारते रहो!
अंधेरा भी
उसका है, प्रकाश
भी उसका है!
मृत्यु भी
उसकी, जीवन
भी उसका।
इसलिए सब जगह
उसे पहचानते
रहो।
हरि ओंम
तत्सत्!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें