23 सितंबर,1976 ओशो आश्रम कोरेगांव पार्क, पूना।
जनक
उवाच।
अहो
जनसमूहेउयि न
द्वैत यश्यतो
मम।
अरण्यमिव
संवृत्त क्य
रति
करवाण्यहम् ।।41।।
नाहं
देहो न मे
देहरे जीवो
नाहमहं हि
चित्!
अयमेव
हि मे बंध
आसीधा जीविते
स्पृहा ।।42।।
अहो
भुवन
कल्लोलैर्विचित्रैद्रकि
समुन्धितम्।
मयनतमहाम्भोधौ
चित्तवाते
समुझते ।।43।।
मयनंतमहाम्मोधरै
चित्तवाते
प्रशाम्यति।
अभाग्याजीववणिजो
जगतयोतो
विनश्वर: ।।44।।
मयनंतमहाम्मोधावाश्चर्य
जीववीचय:।
उद्यन्ति
ध्यन्ति
खेलन्ति
प्रविशन्ति
स्वभावत:
।।45।।
ज्ञान
और ज्ञान में
बड़ा भेद है।
एक तो ज्ञान
है,
जो बांझ
होता है, जिसमें
फल नहीं लगते,
न फूल लगते।
एक ज्ञान है, जिसमें
मुक्ति के फल
लगते हैं, सच्चिदानंद
के फूल लगते, फल लगते, सुगंध
उठती समाधि की।
जिस ज्ञान से
समाधि की
सुगंध न उठे, उसे थोथा और
व्यर्थ जानना।
उससे जितनी
जल्दी
छुटकारा हो
जाए, उतना
अच्छा।
क्योंकि
मुक्ति के
मार्ग में वह
बाधा बनेगा।
मुक्ति के
मार्ग में जो
साधक नहीं है,
वही बाधक हो
जाता है। धन
भी इतनी बड़ी
बाधा नहीं है,
जितनी बड़ी
बाधा थोथा
ज्ञान हो जाता
है। धन इसलिए
बाधा नहीं है
कि धन से कोई
साधन ही नहीं
बनता, धन
से कोई साथ ही
नहीं मिलता
मोक्ष की तरफ
जाने में, तो
धन के कारण
बाधा नहीं हो
सकती।
मोक्ष
की तरफ जाने
में ज्ञान
साधन है।
इसीलिए अगर
गलत ज्ञान हो, मिथ्या
ज्ञान हो तो बाधा
हो जाएगी।
संसार उतनी
बड़ी रुकावट
नहीं है, जितना
शब्दों और
शास्त्रों से
मिला हुआ संगृहीत
ज्ञान रुकावट
हो जाता है।
मैंने
सुना है, पुरानी
कथा है कि
अवंतिका नगर
के बाहर, क्षिप्रा
नदी के पार एक
महापंडित
रहता था। उसकी
दूर—दूर तक
ख्याति थी। वह
रोज क्षिप्रा
को पार करके, नगर के एक
बड़े सेठ को
कथा सुनाने
जाता था—धर्म—कथा।
एक दिन बहुत
चौंका। जब वह
नाव से
क्षिप्रा पार
कर रहा था, एक
घड़ियाल ने सिर
बाहर निकाला
और कहा कि
पंडित जी, मेरी
भी उम्र हो गई,
मुझे भी कुछ
ज्ञान आते —जाते
दे दिया करें।
और मुफ्त नहीं
मांगता हूं।
और घड़ियाल ने
अपने मुंह में
दबा हुआ एक
हीरों का हार
दिखाया।
पंडित
तो भूल गया—जिस
वणिक को कथा
सुनाने जाता
था—उसने कहा, पहले
तुझे
सुनाएंगे।
रोज पंडित
घड़ियाल को कथा
सुनाने लगा और
रोज घड़ियाल
उसे कभी हीरे,
कभी मोती, कभी माणिक
के हार देने
लगा। कुछ
दिनों बाद
घड़ियाल ने कहा
कि पंडित जी!
अब मेरी उम्र
पूरी होने के
करीब आ रही है,
मुझे
त्रिवेणी तक
छोड़ आएं, एक
पूरा मटका भर
कर हीरे
जवाहरात
दूंगा। पंडित
उसे लेकर
त्रिवेणी गया
और जब घड़ियाल
को उसने
त्रिवेणी में
छोड़ दिया और
अपना मटका भरा
हुआ ले लिया
और ठीक से देख
लिया मटके में
कि हीरे—जवाहरात
सब हैं, और
विदा होने लगा
तो घड़ियाल उसे
देख कर हंसने
लगा। उस पंडित
ने पूछा.
हंसते हो? क्या
कारण है?
उसने
कहा,
मैं कुछ न
कहूंगा।
मनोहर नाम के
धोबी के गधे
से अवंतिका
में पूछ लेना।
पंडित को तो
बहुत दुख हुआ।
किसी और से
पूछें—यही दुख
का कारण! फिर
वह भी मनोहर
धोबी के गधे
से पूछें! मगर
घड़ियाल ने कहा,
बुरा न
मानना। गधा
मेरा पुराना
सत्संगी है।
मनोहर कपड़े
धोता रहता है,
गधा नदी के
किनारे खड़ा
रहता है, बड़ा
ज्ञानी है। सच
पूछो तो उसी
से मुझमें भी
ज्ञान की किरण
जगी। पंडित
वापिस लौटा, बड़ा उदास था।
गधे से पूछे!
लेकिन चैन
मुश्किल हो गई,
रात नींद न
आए कि घड़ियाल
हंसा तो क्यों
हंसा? और
गधे को क्या
राज मालूम है?
फिर सम्हाल
न सका अपने को।
एक सीमा थी, सम्हाला, फिर न
सम्हाल सका।
फिर एक दिन
सुबह—सुबह
पहुंच गया और
गधे से पूछा
कि महाराज!
मुझे भी
समझाएं, मामला
क्या है? घड़ियाल
हंसा तो क्यों
हंसा?
वह
गधा भी हंसने
लगा। उसने कहा, सुनो,
पिछले जन्म
में मैं एक
सम्राट का
वजीर था।
सम्राट ने कहा
कि इंतजाम करो,
मेरी उम्र
हो गई, त्रिवेणी
चलेंगे, संगम
पर ही रहेंगे।
फिर त्रिवेणी
का वातावरण
ऐसा भाया
सम्राट को, कि उसने कहा,
हम वापिस न
लौटेंगे। और
मुझसे कहा कि
तुम्हें रहना
हो तो मेरे
पास रह जाओ और
अगर वापिस
लौटना हो तो
ये करोड़ मुद्राएं
हैं सोने की, ले लो और
वापिस चले जाओ।
मैंने करोड़
मुद्राएं
स्वर्ण की ले
लीं और अवंतिका
वापिस आ गया।
इससे मैं गधा
हुआ। इससे
घड़ियाल हंसा।
कहानी
प्रीतिकर है।
बहुत
हैं,
जिनका
ज्ञान उन्हीं
को मुक्त नहीं
कर पाता। बहुत
हैं जिनके
ज्ञान से उनके
जीवन में कोई
सुगंध नहीं
आती। जानते
हैं, जानते
हुए भी जानने
का कोई परिणाम
नहीं है।
शास्त्र से
परिचित हैं, शब्दों के
मालिक हैं, तर्क का
श्रृंगार है
उनके पास, विवाद
में उन्हें
हरा न सकोगे; लेकिन जीवन
में वे हारते
चले जाते हैं।
उनका खुद का
जाना हुआ उनके
जीवन में किसी
काम नहीं आता।
जो
ज्ञान मुक्ति
न दे वह ज्ञान
नहीं। ज्ञान
की परिभाषा
यही है, जो
मुक्त करे।
जीसस
ने कहा है, सत्य
तुम्हें
मुक्त करेगा;
और अगर
मुक्त न करे
तो जानना कि
सत्य नहीं है।
सिद्धात एक
बात है, सत्य
दूसरी बात।
सिद्धात उधार
है, सस्ते
में ले लिया
है; चोर—बाजार
से खरीद लिया
है, मुफ्त
पा गए हो, कहीं
राह पर पड़ा
मिल गया है, अर्जित नहीं
किया है। सत्य
अर्जित करना
होता है। जीवन
की जो आहुति
चढ़ाता है, वही
सत्य को
उपलब्ध होता
है। जीवन का
जो यज्ञ बनाता,
वही सत्य को
उपलब्ध होता
है। सत्य
मिलता है—स्वयं
के श्रम से।
सत्य मिलता है—स्वयं
के बोध से।
दूसरा सत्य
नहीं दे सकता।
इस
एक बात को
जितने भी गहरे
तुम सम्हाल कर
रख लो उतना
हितकर है।
सत्य तुम्हें
पाना होगा।
कोई जगत में
तुम्हें सत्य
दे नहीं सकता।
और जब तक तुम
यह भरोसा किए
बैठे हो कि
कोई दे देगा, तब
तक तुम भटकोगे,
तब तक
सावधान रहना,
कहीं मनोहर
धोबी के गधे न
हो जाओ! तब तक
तुम त्रिवेणी
पर आ—आ कर चूक
जाओगे, संगम
पर पहुंच
जाओगे और
समाधि न बनेगी।
बार—बार घर के
करीब आ जाओगे
और फिर भटक
जाओगे।
मैंने
सुना है, राबिया
अलअदाबिया एक
सूफी फकीर औरत
गुजरती थी एक
रास्ते से।
उसने फकीर हसन
को एक मस्जिद
के सामने हाथ
जोड़े खड़े देखा।
और जोर से वह
फकीर हसन कह
रहा था, हे
प्रभु! द्वार
खोलो! कब से
पुकारता हूं।
कृपा करो! मुझ
दीन पर अनुकंपा
करो! द्वार
खोलो! हसन की आंखों
से आंसू बह
रहे हैं।
राबिया वहां
से निकलती थी,
वह खड़ी हो
गई, हंसने
लगी। और उसने
कहा, भाई
मेरे आंख तो
खोलो, जरा
देखो भी, द्वार
बंद कहां है? द्वार खुला
ही है, जरा
देखो 'तो।
हसन
ने शास्त्रों
में पढ़ा था।
पढ़ा होगा जीसस
का वचन. 'पूछो,
और मिलेगा!
खटखटाओ, और
खुलेगा!' शास्त्र
से पढ़ा था.
चीखो—पुकारो!
आर्त
तुम्हारी
पुकार हो तो
परमात्मा का
द्वार खुलेगा।
यह राबिया
शास्त्र से
पढ़ी हुई नहीं
है। इसने देखा
कि द्वार
परमात्मा का
कभी बंद ही नहीं।
वह कहने लगी, भाई मेरे! आंख
तो खोलो! नाहक
शोरगुल मचा
रहे हो! द्वार
बंद कब था? द्वार
खुला ही है—अपनी
आंख चाहिए!
और
यहां हम सब
उधार आंखों से
जी रहे हैं।
साधारण जीवन
में भी उधार आंख
से नझईं जीया
जा सकता, लेकिन
हम उस अनंत की
यात्रा पर
उधार आंखें ले
कर चल पड़े हैं।
एक
आदमी था, का हो
गया—उसकी आंखें
चली गईं।
चिकित्सकों
ने कहा, आंखें
ठीक हो सकती
हैं, ऑपरेशन
करवाना होगा,
तीन महीने
विश्राम करना
होगा। उस बूढ़े
ने कहा, 'सार
क्या? अस्सी
साल का तो हो
गया। फिर आंखों
की मेरे घर
में कमी क्या
है? आठ
मेरे लड़के हैं,
सोलह उनकी आंखें;
आठ उनकी
बहुएं हैं, सोलह उनकी आंखें;
मेरी पत्नी
भी अभी जिंदा
है, दो
उसकी आंखें—ऐसे
चौंतीस आंखें
मेरे घर में
हैं। दो आंखें
न हुईं, क्या
फर्क पड़ता है?'
दलील तो
जंचती है।
लड़कों की आंखें,
बहुओं की आंखें,
पत्नी की आंखें—चौंतीस
आंखें घर में
हैं। न हुईं
छत्तीस, चौतीस
हुईं, क्या
फर्क पड़ता है?
दो आंख के
कम होने से
क्या बिगड़ता
है? इतने
तो सहारे हैं!
नहीं, वह
राजी न हुआ
ऑपरेशन को। और
कहते हैं, उसी
रात उस घर में
आग लग गई।
चौंतीस आंखें
बाहर निकल गईं;
बूढ़ा, अंधा
का टटोलता, आग में
झुलसता, चीखता—चिल्लाता
रह गया। लड़के
भाग गए, पत्नी
भाग गई, बहुएं
भाग गईं। जब घर
में आग लगी हो
तो याद किसे
रह जाती है
किसी और की!
याद आती है
बाहर जा कर।
बाहर जा कर वे
सब सोचने लगे,
अब क्या
करें? बूढ़े
पिता को कैसे
बचाएं? लेकिन
जब आग लगी तो आंखें
अपने पैरों को
ले कर बाहर
भाग गईं।
दूसरे क़ई याद
कहां ऐसे संकट
के क्षण में!
समय कहां, सुविधा
कहां कि दूसरे
की याद कर लें!
दूसरा तो
सुविधा में, समय हो तो हम
सोच पाते हैं।
जब अपने
प्राणों पर
बनी हो तो कौन
किसकी सोच पाता
है! वह का
चीखने—चिल्लाने
लगा और तब उसे
याद आई कि
मैंने बड़ा गलत
तर्क दिया। आंख
अपनी ही हो तो
ही समय पर काम
आती है।
और
इस जीवन के भवन
में आग लगी है।
यहां हम रोज
जल रहे हैं।
यहां अपनी ही आंख
काम आएगी, यहां
दूसरे की आंख
काम नहीं आ
सकती। फिर
बाहर की
दुनिया में तो
शायद दूसरे की
आंख काम भी आ
जाए, लेकिन
भीतर की
दुनिया में तो
दूसरे का
प्रवेश ही
नहीं है; वहा
तो तुम नितांत
अकेले हो। वहा
तो तुम्हीं हो,
और कोई न
कभी गया है और
न कभी कोई जा
सकता है।
तुम्हारे
अंतरतम में
तुम्हारे
अतिरिक्त किसी
की गति नहीं
है, वहां
तो अपनी आंख
होगी तो ही
काम पड़ेगी।
इसलिए
मैं कहता हूं
कि ज्ञान और
ज्ञान में भेद
है।
जनक
को जो हुआ वह
असली ज्ञान है।
वह पांडित्य नहीं
है। वह
प्रज्ञा की
अभिव्यक्ति
है। जल गया
दीया!
सूफी
एक कहानी कहते
हैं। कहते हैं, एक
युवा सत्य के
खोजी ने अपने
गुरु से कहा
कि मैं क्या
करूं? कैसे
हो मेरा मन शांत
? कैसे
मिटे यह
अंधेरा मेरे
भीतर का? कैसे
कटे मेरी
मूर्च्छा का
जाल? मुझे
कुछ राह सुझाओ।
गुरु
थोड़ी देर उसकी
तरफ देखता रहा, फिर
पास में रखी
हुई उसने
सूफियों की एक
किताब दे दी
और कहा, इसे
पढ़! तल्लीन हो
कर पढ़। डूब
इसमें। लगा
डुबकी! होगा
मन शांत ।
युवा
खूब तन—मन से
पढ़ने लगा। वह
कुछ दिनों बाद
आया। उसने कहा, आपने
कहा, वह
ठीक है, लेकिन
बिलकुल ठीक
नहीं। ठीक है,
जब मैं पढ़ता
हूं डूब जाता हूं, रस—विभोर हो
जाता हूं।
संतों की वाणी
जब मेरे आस—पास
गूंजने लगती
है तो मैं
किसी और लोक
में हो जाता
हूं। बड़े दीये
जल जाते हैं, बड़े कमल खिल
जाते हैं। मगर
फिर किताब बंद
और सब बंद! फिर
कमल विदा हो जाते
हैं; दीए
बुझ जाते हैं।
फिर वही का
वही अंधेरा, फिर मेरा
वही पुराना
अंधेरा। बार—बार
ऐसा होता है, बार—बार फिर
सब खो जाता है।
संपदा बनती
मालूम नहीं
होती, सिर्फ
सपना मालूम
होती है।
गुरु
हंसने लगा।
उसने कहा, सुन!
दो यात्री
तीर्थयात्रा
को गए। एक के
पास लालटेन थी,
दूसरे के
पास लालटेन नहीं
थी। दोनों साथ—साथ
चलते। जिसके
हाथ में
लालटेन थी
उसका प्रकाश
दूसरे के भी
काम आता। राह
दोनों के लिए
प्रकाशित हो
जाती। लेकिन
फिर ऐसी घड़ी
आई, जब
लालटेन वाले
यात्री को
अपना मार्ग
चुनना पड़ा। तो
लालटेन वाला
यात्री तो
अपने मार्ग पर
चला गया—
निश्चित, अभय!
हाथ में अपना
प्रकाश था।
लेकिन जो
यात्री अब तक
प्रकाश में
चला था, वह
अचानक अंधेरे
में खड़ा रह
गया—भयातुर, कंपता हुआ।
ठीक
ऐसी ही अवस्था
शास्त्र के
साथ होती है—गुरु
ने कहा। जब
तुम शास्त्र
को पढ़ते हो तो
दूसरे के
प्रकाश में
थोड़ी देर चल
लेते हो; दूसरे
के प्रकाश में
सब साफ दिखायी
पड़ने लगता है।
फिर दूसरे का
प्रकाश है, सदा के लिए
तुम्हारा हो
नहीं सकता।
राहें जुदा हो
जाती हैं।
शास्त्र एक
मार्ग पर चला
जाता है, तुम
एक मार्ग पर
खड़े रह जाते
हो, फिर
अंधेरा घेर
लेता है।
सत्संग
में बहुत बार
तुम्हारे
भीतर भी दीया
जलता है, मगर
वह तुम्हारा
दीया नहीं। वह
बाहर, सदगुरु
के दीये की
झलक होती है।
वह प्रतिबिंब
होता है।
शास्त्र को
पढ़ते—पढ़ते कभी
नासापुट
सुगंध से भर
जाते हैं; मगर
वह तुम्हारी
सुगंध नहीं।
वह सुगंध किसी
और की है। वह
कहीं बाहर से
आई है। उसका
आविर्भाव
भीतर से नहीं
हुआ। वह जल्दी
ही खो जाएगी।
और
ध्यान रखना!
देखा कभी राह
पर चलते हो, अंधेरी
राह है और फिर
कोई तेज
प्रकाश की कार
निकल जाती है,
तो क्षण भर
को तो सब रोशन
हो जाता है!
लेकिन कार के
चले जाने पर
अंधेरा और भी
घना हो जाता
है, जितना
पहले भी नहीं
था। आंखें
बिलकुल
चुधिया जाती
हैं। कुछ नही
दिखाई पड़ता।
पहले तो थोड़ा—बहुत
दिखाई भी पड़ता
था।
अक्सर
ऐसा होता है, शास्त्र
के प्रकाश में
या सदगुरु के
प्रकाश में
थोड़ी देर को
तो बिजली चमक
जाती है, सब
साफ हो जाता
है; लेकिन
फिर ऐसा
अंधेरा छाता
है जैसा पहले
भी नहीं था—और
भी घना अंधेरा
हो जाता है।
उस
सूफी फकीर ने
अपने शिष्य को
कहा कि अब
शास्त्र बंद कर, तेरा
पहला पाठ पूरा
हुआ, अब
भीतर का दीया
जला। ज्योति
तेरे भीतर है।
अपनी ज्योति
जला। दूसरे की
ज्योति में
थोड़ी—बहुत देर
कोई रोशनी में
चल ले, यह
सदा के लिए
नहीं हो सकता,
यह सनातन और
शाश्वत
यात्रा नहीं
हो सकती। पराए
प्रकाश में हम
थोड़ी देर के
लिए प्रकाशित
हो लें, चाहिए
तो होगा अपना
ही प्रकाश।
इसलिए कहता
हूं ज्ञान और
ज्ञान में भेद
है। एक ज्ञान,
जो तुम्हें
दूसरे से
मिलता है। उसे
तुम सम्हाल कर
मत बैठ जाना।
यह मत सोच
लेना कि मिल
गई नाव, भवसागर
पार हो जाएगा।
दूसरा एक ज्ञान,
जो
तुम्हारी
अंतर्ज्योति
के जलने से
मिलता है, वही
तुम्हें पार
ले जाएगा।
जनक
को कुछ ऐसा
हुआ। चोट पड़ी।
भीतर का तम
टूटा। अपनी
ज्योति जली।
यह ज्योति
इतनी आकस्मिक
रूप से जली कि
जनक भी भरोसा
नहीं कर पाते।
इसलिए बार—बार
कहे जाते हैं. ' आश्चर्य!
आश्चर्य! अहो,
यह क्या हो
गया?' देख
रहे हैं कुछ
हुआ—कुछ ऐसा
हुआ कि पुराना
सब गया और सब
नया हो गया; कुछ ऐसा हुआ
कि सब संबंध
विच्छिन्न हो
गए अतीत से; कुछ ऐसा हुआ
कि अब तक जो मन
की दुनिया थी,
वह खंड—खंड
हो गई, मन
के पार का
खुला आकाश
दिखाई पड़ा।
लेकिन यह इतना
आकस्मिक हुआ
है—अचंभित हैं,
अवाक हैं, ठगे रह गए
हैं! इसलिए हर
वचन में
आश्चर्य और आश्चर्य
की बात कर रहे
हैं।
आज
का पहला सूत्र
है
अहो
जनसमूहेउपि न
द्वैत पश्यतो
मम।
अरण्यमिव
संवृत्त क्य
रतिं
करवाण्यहम्।।
'आश्चर्य कि
मुझे द्वैत
दिखाई नहीं
देता। जनसमूह
भी मेरे लिए
अरण्यवत हो
गया है। तब
मैं कहां मोह
करूं, किससे
मोह करूं, कैसे
मोह करूं?'
दूसरा
बचा ही नहीं
मोह के लिए, कोई
आश्रय न रहा!
'आश्चर्य कि
मुझे द्वैत
दिखाई नहीं
देता। '
और
ऐसा भी नहीं
कि मैं अंधा
हो गया हूं।
दिखाई दे रहा
है,
खूब दिखाई
दे रहा है! ऐसा
दिखाई दे रहा
है जैसा कभी
दिखाई न दिया था।
आंखें पहली
दफे भरपूर
खुली हैं—और
द्वैत नहीं
दिखाई दे रहा,
एक ही दिखाई
दे रहा है। सब
किसी एक ही की
तरंगें हो गए
हैं। सब किसी
एक ही संगीत
के सुर हो गए
हैं। सब किसी
एक ही
महावृक्ष के
छोटे—छोटे
पत्ते, शाखाएं,
उपशाखाए हो
गए हैं। लेकिन
जीवन— धार एक
है! द्वैत
नहीं दिखाई
देता; अब
तक द्वैत ही
दिखाई दिया था।
तुमने
सोचा है कभी? उन
क्षणों में भी,
जहा तुम
चाहते हो
द्वैत न दिखाई
दे, वहा भी
द्वैत ही
दिखाई देता है।
किसी से
तुम्हारा
प्रेम है। तुम
चाहते हो, कम
से कम यहां तो अद्वैत
दिखाई दे। तुम
चाहते हो, यहां
तो कम से कम
एकता हो जाए।
प्रेमी
की तड़फन क्या
है?
प्रेमी की
पीड़ा क्या है?
प्रेमी की
पीड़ा यही है
कि जिससे वह
एक होना चाहता
है उससे भी
दूरी बनी रहती
है। कितने ही
पास आओ, गले
से गले मिलाओ—दूरी
बनी रहती है।
निकट आ कर भी
निकटता कहां
होती है? आत्मीय
हो कर भी
आत्मीयता
कहां होती है?
प्रेमी
की पीड़ा यही
है: चाहता है
कि कम से कम एक
से तो अद्वैत
हो जाए।
अद्वैत की
आकांक्षा
हमारे
प्राणों में
पड़ी है। वह
हमारी गहनतम आकांक्षा
है। जिसको तुम
प्रेम की आकांक्षा
कहते हो, अगर
गौर से समझोगे
तो वह अद्वैत
की आकांक्षा
है। वह
आकांक्षा है
कि चलो न हो
सकें सबसे एक, कम से कम एक
से तो एक हो
जाएं। कोई तो
हो ऐसी जगह, जहां द्वि न
हो, दूजा न
हो, दूसरा
न हो, जहां
बीच में कोई
खाली जगह न रह
जाए; जहा
सेतु बन जाए; जहां मिलन
घटित हो।
प्रेम
की आकांक्षा
अद्वैत की आकांक्षा
है। ठीक—ठीक
तुमने
व्याख्या न की
होगी। तुमने
ठीक—ठीक प्रेम
की आकांक्षा
का विश्लेषण न
किया होगा।
अगर तुम उसका
विश्लेषण करो
तो तुम पाओगे :
समस्त धर्म
प्रेम की ही आकांक्षा
से पैदा होता
है।
लेकिन
प्रेमी भी एक
नहीं हो पाते।
क्योंकि एक
होने के लिए
प्रेम काफी
नहीं। एक होने
के लिए
आकांक्षा
काफी नहीं। एक
होने के लिए
एक को देखने
की क्षमता
चाहिए। देखने
की क्षमता तो
हमारी दो की
है। देखते तो
हम सदा दो को
हैं। देखते तो
हम भिन्नता को
हैं। भिन्नता
हमारे लिए
तन्धण दिखाई
पड़ती है।
अभिन्नता
हमें दिखाई
नहीं पड़ती।
अभिन्नता को
देखने की
हमारी क्षमता
ही खो गई है।
सीमा दिखाई
पड़ती है, असीम
दिखाई नहीं
पड़ता। लहरें
दिखाई पड़ती
हैं, सागर
दिखाई नहीं
पड़ता। तुम
दूसरों से
कैसे भिन्न हो,
यह दिखाई
पड़ता है; तुम
दूसरों से
कैसे अभिन्न
हो, यह
दिखाई नहीं
पड़ता। अद्वैत
तो तभी फल
सकता है, जब
दो के बीच जो
शाश्वत सेतु
है ही, वह
दिखाई पड़े।
आश्चर्य, जनक
कहने लगे, मुझे
दिखाई देता है,
लेकिन
द्वैत दिखाई
नहीं देता! यह
क्या मामला है?
यह क्या हो
गया है मुझे? यह भरोसा
नहीं आ रहा।
यह घटना इतनी
आकस्मिक हुई
है। यह संबोधि
ऐसे क्षण के
अंश में घट गई
है, धीरे—
धीरे घटती तो
आश्चर्य की
कोई बात न थी।
बुद्ध
ने ऐसा नहीं
कहा है, कि
आश्चर्य!
महावीर ने ऐसा
नहीं कहा है, कि आश्चर्य!
जो घटा है, वह
धीरे—धीरे घटा
है, वह
क्रमिक रूप से
घटा है। जो
घटा है वह
एकदम छप्पर
टूट कर नहीं
घटा है।
तुम
एक—एक पैसा
जोड़ो, करोड़ों
रुपये जोड़ लो,
तो भी
आश्चर्य न
होगा। लेकिन
राह के किनारे
करोड़ों रुपए
अचानक पड़े मिल
जाएं तो तुम
भरोसा न कर कर
पाओगे। तुम
बार—बार अपनी आंखों
को साफ करके
देखोगे कि
मुझे, और
करोड़ों रुपये
मिल गए, यह
मामला सच है
कि कोई सपना
तो नहीं देख
रहा हूं? क्योंकि
तुम्हारे
जीवन भर का अनुभव
तो यह है कि जो
भी तुम छूते
हो, मिट्टी
हो जाता है; सोना छूते
हो, मिट्टी
हो जाता है।
यह मामला क्या
है? यह
तुम्हारे साथ
ऐसा अघट घट
रहा है कि आज
मिट्टी सोना
हो कर पड़ी है।
तुम्हें अपने
पर भरोसा न
आएगा। तुम यह
मान न सकोगे
एकदम से।
तो
जब संबोधि की
घटना क्रमश:
घटती है, किरण—किरण
सूरज उतरता है,
एक किरण
उतरी, दूसरी
किरण उतरी, तीसरी किरण
उतरी—इसके
पहले कि दूसरी
किरण उतरे, तुम एक किरण
को अपने में
आत्मसात कर
लेते हो, तुम
दूसरी के लिए
तैयार हो जाते
हो। यह जनक के
लिए कुछ ऐसा
हुआ जैसे आधी
रात, अंधेरे
में सूरज
अचानक निकल आए;
सारे
जन्मों—जन्मों
का अनुभव एकदम
गलत हो जाए।
सूरज सदा सुबह
ही निकलता रहा
था, यह
अचानक आधी रात
निकल आया! या
कुछ ऐसा हो
जाए कि हजार
सूरज एक साथ
निकल आएं तो
भरोसा न आएगा।
पहली बात तो
यही खयाल में
आए कि कहीं
मैं पागल या
विक्षिप्त तो
नहीं हो गया!
इसलिए
जब कभी ऐसी
अनूठी घटना
घटती है तो
गुरु की मौजूदगी
अत्यंत
आवश्यक है, अन्यथा
व्यक्ति पागल
हो जाएगा। जनक
पागल हो सकते
थे अगर
अष्टावक्र की
मौजूदगी न
होती।
अष्टावक्र की
मौजूदगी
भरोसा देगी, आश्वासन
देगी।
अष्टावक्र
चुपचाप सुन
रहे हैं, देखते
हो? जनक
कहे जाते हैं,
अष्टावक्र
चुपचाप सुन
रहे हैं। एक
शब्द नहीं
बोले। वे
चाहते हैं, बह जाए यह
आश्चर्य। एक
बार इसे कह
लेने दो जो
हुआ है, इसके
भीतर जो घटा
है, इसको
फूट कर बह
जाने दो।
तुमने
देखा, कोई
आदमी को दुख
घटता है, वह
अगर दुख कह ले
तो मन हलका हो
जाता है!
तुम्हें अभी
दूसरी घटना का
पता नहीं कि
जब सुख घटता
है तो भी न कहो
तो हलका नहीं
हो पाता आदमी।
सुख घटा नहीं,
इसलिए उस
घटना का
तुम्हें
अनुभव नहीं है।
ये
सारे जगत के
बड़े शास्त्र
जन्मे, ये
इसलिए जन्मे
कि जब आनंद
घटा तो जिसको
घटा वह बिना
कहे न रह सका।
उसे कहना ही
पड़ा। कह कर वह
हलका हुआ। चार
को सुना कर
बोझ टला। दुख
का ही बोझ
नहीं होता, सुख की भी
बड़ी घनी पीड़ा
होती है।
मधुर! आनंद की
भी बड़ी घनी
पीड़ा होती है,
जैसे तीर
चुभ जाए।
गुनगुनाना
होगा; गाना
होगा, नाचना
होगा। पद
घुंघरू बांध
मीरा नाची! वह
नाचना ही पड़ा।
वह जो घटा है
भीतर, वह
इतना बड़ा है
कि वह तुम्हें
अगर
डांवांडोल न
करे तो घटा ही नहीं।
वह अगर
तुम्हें नचा न
दे तो घटा ही
नहीं। वह
तुम्हें कंपा
न दे तो घटा ही
नहीं।
जैसे
बड़े तूफान में
वृक्ष की छोटी—सी
पत्ती नाचती
हो,
कांपती हो—ऐसा
जनक कैप गए
होंगे।
'आश्चर्य
कि मुझे द्वैत
दिखाई नहीं
देता। '
यह
मेरी आंखों को
क्या हुआ? सदा
द्वैत ही देखा
था, अनेक
देखा था; आज
सब एक हो गया
है। एक
व्यक्ति
दूसरे
व्यक्ति में
मिला हुआ मालूम
पड़ता है। सबकी
सीमाएं एक—दूसरे
में लीन हुई
मालूम होती
हैं। सब एक—दूसरे
में प्रविष्ट
हुए मालूम
होते हैं। यह
हुआ क्या!
तुम
यहां बैठे हो, अगर
अचानक
तुम्हें जनक
जैसी घटना घटे
तो तुम क्या
देखोगे? तुम
यह नहीं
देखोगे, यहां
इतने लोग बैठे
हैं; तुम
देखोगे, यह
मामला क्या है?
ये इतने लोग
अचानक खो गए? रूप तो बैठे
हैं, लेकिन
एक की आत्मा
दूसरे में बह
रही है, दूसरे
की आत्मा
तीसरे में बह
रही है, सब एक—दूसरे
में बहे जा
रहे हैं। यह
हुआ क्या है? ये लोग फूट
क्यों गए? इनके
घड़े टूट क्यों
गए? इनके
प्राण एक
दूसरे में
क्यों उतरे जा
रहे हैं?
ऐसा
ही हो रहा है; तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ता है, इसलिए
एक बात है।
ऐसा ही हो रहा
है। तुम्हारी
श्वास दूसरे
में जा रही है,
दूसरे की
श्वास तुम में
आ रही है।
तुम्हारी
ऊर्जा दूसरे
में जा रही है,
दूसरे की
ऊर्जा तुम में
आ रही है।
अब
तो इसके
वैज्ञानिक
प्रमाण हैं कि
हम एक—दूसरे
में बहते रहते
हैं। इसीलिए
तो ऐसा हो
जाता है कि
अगर तुम किसी
उदास आदमी के
पास बैठो तो
तुम उदास हो
जाते हो। उसका
उदास प्राण
तुम में बहने
लगता है। तुम
किसी हंसते, प्रसन्नचित्त
आदमी के पास
बैठो, उसकी
प्रसन्नचित्तता
तुम्हें छूने
लगती है, संक्रामक
हो जाती है, कोई
तुम्हारे
भीतर हंसने
लगता है। तुम
कभी—कभी चकित
भी होते हो कि
हंसी का मुझे
तो कोई कारण न
था, मैं
कोई
प्रसन्नचित्त
अवस्था में भी
न था; लेकिन
हुआ क्या? दूसरे
तुम में बह गए।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
जब तुम किसी
की तरफ बहुत
प्रेम से
देखते हो तो
तुम्हारे
भीतर से एक ऊर्जा
उसकी तरफ बहती
है। अब इस
ऊर्जा को
नापने के भी
उपाय हैं।
तुम्हारी तरफ
से एक विशिष्ट
ऊष्मा, गर्मी
उसकी तरफ
प्रवाहित
होती है—ठीक
वैसे ही जैसे
विद्युत के
प्रवाह होते
हैं; ठीक
वैसे ही
विद्युतधारा
तुम्हारी तरफ
से उसकी तरफ
बहने लगती है।
इसलिए
अगर तुम्हें
कोई प्रेम से
देखे तो अपनी प्रेम
की आंख को
छिपा नहीं
सकता, तुम
पहचान ही लोगे।
तुम्हें जब
कोई घृणा से
देखता है, तब
भी छिपा नहीं
सकता; क्योंकि
घृणा के क्षण
में भी एक
विध्वंसात्मक
ऊर्जा छुरी की
तरह तुम्हारी
तरफ आती है, चुभ जाती है।
प्रेम
तुम्हें खिला
जाता है, घृणा
तुम्हें मार
जाती है। घृणा
में एक जहर है,
प्रेम में
एक अमृत है।
रूस में एक
महिला है, उस
पर बड़े
वैज्ञानिक प्रयोग
हुए हैं। वह
सिर्फ किसी
वस्तु पर
ध्यान करके
उसे चला देती
है। टेबल के
ऊपर—वह दस फीट
की दूरी पर
खड़ी है—और एक
बर्तन रखा है।
वह एक पांच
मिनट तक उस पर
ध्यान करती
रहेगी, उसकी
आंखें उस पर
एकजुट जम
जाएंगी और
बर्तन कंपने
लगेगा। और वह
अगर कहेगी कि
बाएं चलो, तो
बर्तन बाएं
सरकने लगेगा;
दाएं चलो, तो बर्तन
दाएं सरकने
लगेगा।
इस
पर बहुत
अध्ययन हुआ है
कि मामला क्या
है। लेकिन एक
और आश्चर्य की
घटना पता चली
कि अगर वह
पांच मिनट यह
प्रयोग करे तो
उसका आधा किलो
वजन कम हो
जाता है। तो
ऊर्जा
निश्चित ही
प्रवाहित हुई।
उसने ऊर्जा खोई।
पांच मिनट के
प्रयोग में
उसने काफी जोर
से ऊर्जा को
फेंका। उसी
ऊर्जा के
धक्के में
बर्तन हटने
लगा,
सरकने लगा,
बंध गया।
हम
एक—दूसरे में
बह रहे हैं—जानें
हम,
न जानें हम।
तुमने
यह भी देखा
होगा कि कुछ
व्यक्ति ऐसे
होते हैं
जिनके पास
तुम्हें बहाव
मालूम होगा; जैसे
तुम किसी नदी
की धारा में
पड़ गए, जो
बह रही है।
उनके साथ तुम
रहोगे तो
ताजगी मालूम
होगी। उनके
साथ तुम रहोगे
तो एक प्रवाह
है, गति
मालूम होगी।
फिर कुछ ऐसे
लोग हैं जो
डबरों की तरह
हैं; उनके
पास तुम रहोगे
तो ऐसा लगेगा,
तुम भी कुंद
हुए, बंद
हुए, कहीं
बहाव नहीं
मालूम होता, सड़ाध—सी
मालूम होती है,
सब रुका—रुका,
द्वार—दरवाजे
बंद, नई
हवा नहीं, नई
रोशनी नहीं।
तुमने
जाना होगा, देखा
होगा। तुम
जिनको आमतौर
से साधु—संत
कहते हो, वे
ऐसे ही डबरे
हैं। उनके पास
तुम जा कर
बैठो, थोड़ी
देर ठीक, चौबीस
घंटे किसी संत
के पास रहना
बड़ा मुश्किल
है; वह
तुम्हारी जान
लेने लगेगा।
उसके पास तुम
हंस न सकोगे
जोर से, तुम
मजाक न कर
सकोगे, तुम
गीत न गुनगुना
सकोगे। वह खुद
भी बंद है, वह
तुम्हें भी
बंद करेगा। वह
खुद अकड़ा बैठा
है, वह
तुम्हें भी
अकड़ाएगा।
उसने सब द्वार—दरवाजे
अपने बंद कर
लिए हैं। वह
कब्र बन गया
है, वह
तुमको भी कब्र
बना देगा।
इसीलिए
तो लोग साधु—संतों
के दर्शन करके
एकदम भागते
हैं। नमस्कार
महाराज—और
भागे! पैर छुए—और
भागे! ठीक ही
करते हैं।
किसी आतरिक
अनुभूति के बल
ऐसा करते हैं।
पूजा कर लेते
हैं,
सत्संग
नहीं करते।
सत्संग
खतरनाक हो
सकता है।
जिन
व्यक्तियों
के पास प्रवाह
मालूम होता है, जिनके
पास तुम्हारे
जीवन में भी
स्कुरणा होती
है, तुम्हारे
भीतर भी कुछ
कंपने लगता है,
डोलने लगता
है, गति
होने लगती है—उसका
केवल इतना ही
अर्थ है कि वे
लोग तुम्हारे
भीतर अपने
प्राणों को
डालते हैं; वे तुम्हें
कुछ देने को
तत्पर हैं; कंजूस नहीं
हैं, कृपण
नहीं हैं। और
जो तुम्हारे
भीतर कुछ
डालता है वह
तुम्हें भी
तत्पर करता है
कि तुम भी दो!
तुम्हारे
भीतर भी
प्रतिध्वनि
उठती है, संवेदन
उठता है।
और
आदमी जितना
बहे,
उतना ही
शुद्ध रहता है।
ऐसे हम चेष्टा
कर—कर के अपने
को रोके हुए हैं
कि बह न जाएं।
जब जनक को
पहली दफा
दिखाई पड़ा
होगा कि अरे, यह सब
चेष्टा
व्यर्थ है।
कितना ही ऊपर—ऊपर
से रोकते रहो,
लेकिन भीतर
तो हम सब जुड़े
हैं। हम
समुद्र में
उठे छोटे—छोटे
द्वीप नहीं
हैं; हम
महाद्वीप हैं;
हम सब जुड़े
हैं। और द्वीप
भी जो दिखाई
पड़ता है सागर
में उठा छोटा—सा,
वह भी नीचे
गहराइयों में
तो पृथ्वी से
जुड़ा है, महाद्वीप
से जुड़ा है।
जुड़े हम सब
हैं। इस जोड़
का दर्शन जनक
को हुआ, तो
वे कहने लगे :
अहो
जनसमूहेउपि न
द्वैत पश्यतो
मम!
इतना
जन—समूह देख
रहा हूं लेकिन
द्वैत नहीं दिखाई
पड़ता! ऐसा
लगता है कि इन
सबके भीतर एक
ही कोई जी रहा
है,
एक ही श्वास
ले रहा है, एक
ही प्राण
प्रवाहित है।
और यह सारा
संसार मेरे
लिए अरण्यवत
हो गया।
जैसे
कि कोई आदमी
जंगल में भटक
जाए—कभी तुम
जंगल में भटक
गए हो? —जैसे
कभी कोई आदमी
जंगल में भटक
जाए तो वहां
घर थोड़े ही
बनाता है!
भटका हुआ आदमी
तो राह खोजता
है कि कैसे
बाहर निकल
जाऊं? कितने
ही सुंदर
दृश्य हों
आसपास, उनको
थोड़े ही देखता
है। भटका हुआ
आदमी तो बस
खोज करता है
कि कैसे इस अरण्य
के बाहर निकल
जाऊं। न वहां
घर बनाता न
वहां सुंदर
फूलों को
देखता, न
वहां सुंदर
वृक्षों से
मोह लगाता।
जनक
कहते हैं कि
मेरे लिए यह
संसार
अरण्यवत हो
गया है। इस नए
बोध में इस
संसार का सारा
काम मुझे एकदम
जंगल जैसा हो
गया है; जैसे
मैं भटका था
इसमें अब तक, अब बाहर
निकलना चाहता
हूं। और मैं
अब चकित हो
रहा हूं : तब
कहा मैं मोह
करूं? इस
भटकी हुई
अवस्था में, इस जंगल में,
इस अरण्य
में कहां मैं
मोह करूं, किससे
मोह करूं?
अब
तक लोगों ने
कहा होगा जनक
को भी—वें बड़े
ज्ञानियों का
सत्संग करते
थे,
पंडितों का
सत्संग करते
थे, बड़े
गुण—ग्राहक थे—न
मालूम कितने
लोगों ने कहा
होगा : छोड़ो
मोह! छोड़ो
माया! लेकिन
आज जनक पूछते
हैं कि छोड़ो
माया—मोह, यह
तो बात ही
फिजूल है। करो
कैसे? करना
चाहूं तो भी
करने का उपाय
नहीं दिखाई
पड़ता, क्योंकि
दूसरा कोई है
ही नहीं जिससे
मोह करो, मैं
ही बचा हूं। 'मैं
शरीर नहीं हूं।
मेरा शरीर
नहीं है। मैं
जीव नहीं हूं।
निश्चय ही मैं
चैतन्यमात्र
हूं। मेरा यही
बंध था कि
मेरे जीने में
इच्छा थी। '
'मैं शरीर
नहीं.......।
नाहं
देहो न मे
देंहों जीवो
नाहमहं हि
चित्!
'मैं शरीर
नहीं हूं।
मेरा शरीर
नहीं है। मैं
जीव भी नहीं
हूं। मैं तो
केवल चैतन्य
हूं।'
ऐसी
प्रतीति हो
रही है। यह
कोई सिद्धात
नहीं है। ऐसा
साक्षात्कार
हो रहा है।
ऐसा दर्शन हो
रहा है। ऐसा
जनक देख रहे
हैं। यहां वे
किसी
दर्शनशास्त्र
की बात नहीं
कर रहे हैं; जो
उन्हीं
प्रतीत हो रहा
है उसी को
शब्द दे रहे, अभिव्यक्ति
दे रहे हैं।
'मेरा यही
बंध था कि
मेरी जीने में
इच्छा थी। '
जीवेषणा
मेरा बंध था।
मैं जीना
चाहता था, यही
मेरा बंध था।
और कोई बंध न
था। लेकिन अब
तो जीवेषणा भी
कहां रखूं? किससे मोह
करूं? क्योंकि
अब तो मैं देख
रहा हूं,
जो है वह
शाश्वत और
सनातन है; न
कभी जन्मा, न कभी मरा।
यह देह तो
जन्मती और
मरती है। ये
श्वासें तो आज
चलती
हैं;
कल नहीं
चलेंगी। यह मन
जो आज
तरंगायित है,
कल शांत हो
जाएगा। ये
प्राण जन्मे,
मर जाएंगे।
लेकिन अब मुझे
एक बात सीधी—साफ
दिखाई पड़ रही
है, निश्चयपूर्वक
दिखाई पड़ रही
है कि मैं
सिर्फ चैतन्य
हूं साक्षी
हूं।
बंगाल
में एक हंसोड़
आदमी हुआ :
गोपाल भांड।
उसके संबंध
में बड़ी
प्यारी
कहानियां है,।
एक कहानी तो
अति मधुर है।
वह जिस नवाब
के दरबार में
लोगों को
हंसाने का काम
करता था, दरबारी
उससे बड़े
नाराज थे।
क्योंकि वह
सम्राट को
धीरे—धीरे
बहुत प्यारा
हो गया था। जो
हंसी ले आए
जीवन में, वह
अगर प्यारा न
हो जाए तो और क्या
हो? उसके
पास बड़ी
विलक्षण
प्रतिभा थी, इसलिए
ईर्ष्या भी
स्वाभाविक थी।
उसे हराने की
वे बड़ी सोच
करते थे, लेकिन
कुछ उपाय न
खोज पाते थे।
आखिर एक दिन
कोई उपाय न
देख कर
उन्होंने
गोपाल भीड़ को
पकड़ लिया और
कहा कि आज तो
तुझे राज
बताना पड़ेगा
कि तेरी
प्रतिभा का राज
क्या है? गांव
में ऐसी अफवाह
है कि तेरे
पास सुखदामणि
है। तूने कुछ
सिद्धि कर ली
है और तुझे
सुखदा नाम की
मणि मिल गई है,
जिसकी वजह
से न केवल तू
सुख में रहता
है, तू
दूसरों को भी
सुखी करता है,
और यही तेरे
चमत्कार का और
तेरे प्रभाव
का राज है। वह
सुखदामणि
हमें दे दे, अन्यथा ठीक
न होगा।
दरबारी
उसकी मारपीट
भी करने लगे।
उसने कहा कि
ठहरो, तुम ठीक
कहते हो।
अफवाह सच है।
सुखदामणि
मेरे पास है।
लेकिन कोई
चुरा न ले, कोई
छीन न ले, इसलिए
मैंने उसे
जंगल में गड़ा
दिया है। मैं
तुम्हें बता
देता हूं तुम
खोद लो।
पूर्णिमा
की रात, वह सब
दरबारियों को
ले कर जंगल
में गया। एक
वृक्ष के नीचे
बैठ गया। वे
पूछने लगे, बोलो, कहां
गड़ायी है?
उसने
कहा कि अब तुम
खोज लो जगह।
सूत्र यह है
कि जिस जगह पर
खड़े होने से
चांद तुम्हारे
सिर पर चमकता
हो,
उसी जगह गड़ी
है।
वे
दरबारी भागे, खोजने
लगे स्थान, लेकिन जो दरबारी
जहां खड़ा हुआ,
पूर्णिमा
का चांद था, ठीक सिर के
ऊपर था। वह
सभी स्थानों
पर सिर के ऊपर
था तो वे जगह—जगह
खोदने लगे।
रात भर खोदते
रहे, कई
जगह खोदा। और
गोपाल भांड
वृक्ष के नीचे
आराम से सोया
रहा। सुबह
उन्होंने
उससे कहा कि
तुम धोखा दे
रहे हो। हमने
सारा स्थान
खोद डाला
वृक्ष के आस—पास।
रात भर हम थक
गए खोद—खोद कर।
वह सुखदामणि
का कोई पता
नहीं।
गोपाल
भांड हंसने
लगा। उसने कहा, मैंने
कहा था कि
जहां सिर पर
चांद चमकता है,
वहीं
सुखदामणि गड़ी
है। वह
तुम्हारी
खोपड़ी में गड़ी
है, कोई
जमीन में थोड़े
ही गड़ी है। वह
तुम्हारे सिर
में है।
वह
तुम्हारे
चैतन्य में है।
वह तुम्हारे
साक्षी में है।
जो साक्षी हो
जाता, वह सुखी
हो जाता।
जनक
कहने लगे, न
मैं शरीर, न
शरीर मेरा, मैं जीव
नहीं। निश्चय
ही मैं चैतन्य
हूं। मेरा यही
बंध था कि
मेरी जीने में
इच्छा थी।
एकमात्र
बंधन है जीवन
में कि हम
जीना चाहते
हैं। अब यह
बड़े आश्चर्य
की बात है।
तुमने कभी
देखा सड़क पर
किसी को
घिसटते हुए—पैर
टूट गए, हाथ
टूट गए, मरणासन्न
है—फिर भी
जीना चाहता है,
फिर भी घिसट
कर भीख मांगता
है। तुम यह मत
सोचना कि अगर
तुम उसकी जगह
होते तो
आत्महत्या कर
लेते। आसान
नहीं। जीने का
मोह बड़ा गहरा
है। जीने का
मोह ऐसा गहरा
है कि आदमी
किसी भी स्थिति
में जीना
चाहता है, किसी
भी स्थिति के
लिए राजी हो
जाता है।
कुछ
लोग
आत्महत्या
करते हैं, इसलिए
तुम्हें लगता
होगा. उनके
संबंध में क्या?
जो लोग
आत्महत्या
करते हैं, वे
लोग भी जीने
की आकांक्षा
से ही
आत्महत्या
करते हैं।
मरने के लिए
कोई
आत्महत्या
नहीं करता।
लोगों के जीने
की शर्तें हैं।
कोई कहता है, मेरे पास
करोड़ रुपए
होंगे तो ही
मैं जीऊंगा।
दीवाला निकल
गया, करोड़
रुपए हाथ से
खिसक गए—वह
कहता है, अब
जीने में क्या
सार! उसके
जीने की एक
बड़ी शर्त थी
जो टूट गई।
उसने जीने के
लिए एक खास
ढंग चुना था
जो अब संभव
नहीं रहा। वह
कहता है, हम
मर जाएंगे। वह
मरता जीने की
ही किसी विशेष
शर्त के लिए
है।
किसी
ने कहा, मैं
किसी स्त्री
के साथ रहूंगा
तो ही रहूंगा,
नहीं तो मर
जाऊंगा। किसी
स्त्री ने कहा,
किसी पुरुष
को पा लूंगी, तो रहूंगी, नहीं तो मर
जाऊंगी। ये
कोई मरने की
बातें नहीं
हैं, ये सब
जीने के ही
आग्रह हैं।
जीना जैसा
चाहा था वैसा
न हो सका तो
लोग मरने तक
को तैयार हैं।
जीने के लिए
लोग मरने तक
को तैयार हैं।
अगर
आत्महत्या
कभी घटती है
तो वह तो किसी
बुद्ध, किसी
जनक, किसी
अष्टावक्र, किसी महावीर
की घटती है।
वे ठीक
आत्महत्या
करते हैं।
क्योंकि उसके
बाद फिर कोई
जन्म नहीं है।
वे जीने के
लिए मरने की
तो बात दूसरी,
वे जीने के
लिए जीना भी
नहीं चाहते।
वे जीवेषणा को
ही समझ लेते
हैं कि यह
जीवेषणा एक
धोखा है।
इसे
समझें। जब
दिखाई पड़ता है
समाधि की आंखों
से,
ध्यान की आंखों
से, तो
दिखाई पड़ता है
जीवन तो 'है'
ही, यह
तो कभी 'नहीं'
हो ही नहीं
सकता! यह तो
बड़े पागलपन की
बात है कि जो
तुम हो ही, उसकी
आकांक्षा कर
रहे हो। यह तो
ऐसा ही है कि
तुम्हारे पास
धन है और तुम धन
मांग रहे हो।
यह तो ऐसा ही
है कि जो
तुम्हारे पास
है ही, उसके
लिए तुम
भिक्षा
मांगते वन—वन
में भटकते फिर
रहे हो। जिस
दिन यह दिखाई
पड़ता है, जिस
दिन अपना
वास्तविक
जीवन दिखाई
पड़ता है, उसी
क्षण जीवेषणा
खो जाती है।
जब तक तुमने
अपने जीवन को
किसी गलत चीज
से जोड़ा है—किसी
ने शरीर से
जोड़ा है—किसी
ने कहा, मैं
शरीर हूं तो
अड़चन आएगी, क्योंकि
शरीर तो कल
मरेगा, शरीर
के मरने के भय
के कारण
जीवेषणा पैदा
होगी।
मैंने
सुना है, एक
पुरानी
तिब्बती कथा
है कि दो उल्लू
एक वृक्ष पर आ
कर बैठे। एक
ने सांप अपने
मुंह में पकड़
रूखा था। भोजन
था उनका, सुबह
के नाश्ते की
तैयारी थी।
दूसरा एक चूहा
पकड़ लाया था।
दोनों जैसे ही
बैठे वृक्ष पर
पास—पास आ कर—एक
के मुंह में
सांप, एक
के मुंह में
चूहा। सांप ने
चूहे को देखा
तो वह यह भूल
ही गया कि वह उल्लू
के मुंह में
है और मौत के
करीब है। चूहे
को देख कर
उसके मुंह में
रसधार बहने
लगी। वह भूल
ही गया कि मौत
के मुंह में
है। उसको अपनी
जीवेषणा ने
पकड़ लिया। और
चूहे ने जैसे
ही देखा सांप
को, वह
भयभीत हो गया,
वह कंपने
लगा। ऐसे मौत
के मुंह में
बैठा है, मगर
सांप को देख
कर कंपने लगा।
वे दोनों उल्लू
बड़े हैरान हुए।
एक उल्लू ने
दूसरे उल्लू
से पूछा कि
भाई, इसका
कुछ राज समझे?
दूसरे ने
कहा, बिलकुल
समझ में आया।
जीभ की, रस
की, स्वाद
की इच्छा इतनी
प्रबल है कि
सामने मृत्यु
खड़ी हो तो भी
दिखाई नहीं
पड़ती। और यह
भी समझ में
आया कि भय मौत
से भी बड़ा भय
है। मौत सामने
खड़ी है, उससे
यह भयभीत नहीं
है चूहा; लेकिन
भय से भयभीत
है कि कहीं
सांप हमला न
कर दे।'
मौत
से हम भयभीत
नहीं हैं, हम
भय से ज्यादा
भयभीत हैं।
और
लोभ स्वाद का, इंद्रियों
का, जीवेषणा
का इतना
प्रगाढ़ है कि
मौत चौबीस
घंटे खड़ी है, तो भी हमें
दिखाई नहीं
पड़ती। हम अंधे
हैं।
शरीर
से जिसने अपने
को बांधा, वह
अड़चन में
रहेगा।
क्योंकि लाख
झुठलाओ, लाख
समझाओ, यह
बात भुलाई
नहीं जा सकती
कि शरीर मरेगा।
रोज तो कोई
मरता—कहां—कहां
आंखें चुराओ,
कैसे बचो इस
तथ्य से कि
मृत्यु होती
है? रोज तो
चिता सजती।
रोज तो 'राम—राम
सत्य' कहते
लोग निकलते।
हमने सब उपाय
किए हैं कि
मौत का हमें
ज्यादा पता न
चले। मरघट हम गांव
के बाहर
इसीलिए बनाते
हैं, बनाना
चाहिए बीच में
गांव के, ताकि
सबको पता चले।
एक लाश जले तो
पूरे गांव को
जलने का पता
हो। बनाते हैं
गांव के बाहर।
स्त्रियां
अपने छोटे
बच्चों को
भीतर कर लेती हैं,
लाश निकलती
हो, दरवाजे
बंद कर देती
हैं, कि
कोई मर गया, भीतर आ जाओ!
देखो मत मौत!
मौत
की हम ज्यादा
बात नहीं करते, चर्चा
भी नहीं करते।
मरघट पर भी जो
लोग जाते हैं
मुर्दों को ले
कर, वे भी
दूसरी बातें
करते हैं मरघट
पर बैठ कर।
इधर लाश जलती
रहती है, वे
बातें करते
हैं : फिल्म
कौन—सी चल रही
है? कौन—सा
नेता जीतने के
करीब है, कौन—सा
हारेगा? चुनाव
होगा कि नहीं?
राजनीति, और हजार
बातें! उधर
लाश जल रही है!
ये
सब बातें
तरकीबें हैं।
ये तरकीबें
हैं एक परदा
खड़ा करने की
कि जलने दो, कोई
दूसरा मर रहा
है, हम
थोड़े ही मर गए
हैं!
हम
दूसरे के मर
जाने पर बड़ी
सहानुभूति भी
प्रगट करते
हैं—वह भी
तरकीब है।
किससे
सहानुभूति
प्रगट कर रहे
हो?
उसी क्यू
में तुम भी
खड़े हो। एक
खिसका, क्यू
थोड़ा और आगे
बढ़ गया, मौत
तुम्हारी
थोड़ी और करीब
आ गई। नंबर
करीब आया जाता
है, खिड़की
पर तुम जल्दी
पहुंच जाओगे।
लेकिन
हम कहते हैं, बड़ा
बुरा हुआ, बेचारा
मर गया! लेकिन
एक गहन
भ्रांति हम
भीतर पालते
हैं कि सदा
कोई और मरता
है। मैं थोड़े
ही मरता हूं, सदा कोई और
मरता है!
मगर
फिर भी कितने
ही उपाय करो, यह
सत्य है कि
शरीर के साथ
तो सदा जीवन
नहीं हो सकता।
कितना ही
लंबाओ, सौ
वर्ष जीयो, दो सौ वर्ष
जीयो, तीन
सौ वर्ष जीयो—क्या
फर्क पड़ता है?
विज्ञान
कभी न कभी यह
व्यवस्था कर
देगा कि आदमी
और लंबा जीने
लगे। मगर इससे
भी क्या फर्क
पड़ता है? मौत
को थोड़ा पीछे
हटा दो, लेकिन
खड़ी तो रहेगी।
थोड़े धक्के दे
दो, लेकिन
हटेगी तो नहीं।
शरीर तो
जायेगा।
इसलिए
शरीर चला जाए, कहीं
शरीर चला न
जाए, हम
घबड़ा कर जीवन
की आकांक्षा
करते हैं कि
मैं बना रहूं!
इस जीवन की आकांक्षा
में धन इकट्ठा
करते हैं, पद
जुटाते, सब
तरह की
भ्रांति खड़ी
करते हैं कि
और सब मरेंगे,
मैं नहीं
मरूंगा। सब
तरह की
सुरक्षा। फिर
भी मौत तो आती
है।
शरीर
से जिसने अपने
को जोड़ा है, वह
कितना ही धोखा
दे, धोखा
धोखा ही है।
फूट—फूट कर
धोखे के परदे
के पार मौत
दिखाई पड़ती रहेगी।
और जितनी मौत
दिखाई पड़ती है,
उतनी ही
जीवेषणा पैदा
होती है; उतना
ही आदमी जीवन
को घबड़ा कर
पकड़ता है कि
कहीं छूट न
जाऊं।
जनक
को दिखाई पड़ा
उस दिन कि यह
भी क्या मजा
है,
हम मर ही
नहीं सकते, हम अमृत हैं! अमृत
पुत्र:! यह
शरीर से हमने
अपने को एक
समझा, इसलिए
मौत। प्राण से
एक समझा, इसलिए
मौत। मन से एक
समझा, इसलिए
मौत। इनके पार
हम अपने को
देख लें, फिर
कैसी मौत? साक्षी
की कैसी मौत? चैतन्य की
कैसी मौत? एक
ही बंध था—जीने
में इच्छा थी।
अहम् देह: न—मैं
देह नहीं। मे
देह: न—देह
मेरी नहीं।
अहम्
जीव: न—मैं जीव
नहीं। यह
तथाकथित जो
जीवन दिखाई
पड़ता है, यह
मैं नहीं।
अहम्
हि चित्—मैं
तो निश्चित
रूप से चैतन्य
हूं।
मे
एव बंध या
जीविते सहा
आसीत—बस एक था
बंधन मेरा कि
जीने की
स्पृहा थी, आकांक्षा
थी। अब तो मैं
जान गया कि
मैं स्वयं
जीवन हूं जीने
की आकांक्षा
पागलपन है!
मैं सम्राट
हूं व्यर्थ ही
भिखारी बना था।
'आश्चर्य कि
अनंत
समुद्ररूप
मुझमें
चित्तरूपी
हवा के उठने
पर शीघ्र ही
विचित्र
जगतरूपी तरंगें
पैदा होती हैं।
'
अब
आश्चर्य होता
है—जनक कहते
हैं—यह जानकर, कि
जैसे हवा की
तरंगें शांत
झील में लहरें
उठा जाती हैं,
ऐसी ही
चित्त की हवा
मेरी शांत आत्मा
में हजार—हजार
लहरें उठा
जाती है। वे
लहरें मेरी
नहीं हैं। वे
लहरें चित्त
की हवा के
कारण हैं।
'आश्चर्य है
कि अनंत
समुद्ररूप
मुझमें चित्तरूपी
हवा के उठने
पर शीघ्र ही
विचित्र जगतरूपी
तरंगें पैदा
होती हैं। '
और
कैसे—कैसे
विचित्र सपने
पैदा हो जाते
हैं! और कैसे—कैसे
माया और मोह
और लोभ! और
कैसे—कैसे जाल
खड़े हो जाते
हैं! फिर एक
बार इन जालों का
हम अभ्यास कर
लेते हैं तो
छूटना
मुश्किल हो
जाता है।
मैंने सुना है
कि एक यूनानी
संगीतज्ञ था।
जब भी कोई
उसके पास
संगीत सीखने
आता तो पूछता कि
तुमने पहले
कहीं और तो
नहीं सीखा है? संगीत
के संबंध में
कुछ जानते तो
नहीं हो?
अगर
कोई व्यक्ति
कहता कि मैं
बिलकुल संगीत
के संबंध में
कुछ नहीं
जानता तो वह
आधी फीस लेता।
अगर कोई कहता
कि मैं कुछ
जानता हूं तो
दुगनी फीस मांगता।
दो व्यक्ति
साथ ही साथ आए
थे—एक बिलकुल
कोरा कागज और
एक ख्यातिनाम
संगीतज्ञ था, काफी
जानता था, कुशल
संगीतज्ञ था।
और जब उस गुरु
ने कहा कि जो
बिलकुल नहीं
जानता, उससे
आधी फीस, और
तुम, जो
जानते हो, तुमसे
दुगनी फीस! तो
वह कहने लगा, यह अन्याय
है। यह क्या
मामला है? इसका
अर्थ? तो
वह संगीत—गुरु
कहने लगा, इसका
अर्थ सीधा है।
जो नहीं जानता
उसे हम सिर्फ
सिखाएंगे।
तुम जानते हो,
पहले
तुम्हें
भुलाएंगे।
तुम जो जानते
हो, पहले
उसे मिटाएंगे,
तब तुम सीख
सकोगे।
संसार
में हमारा असली
सवाल एक ही है
कि हमने
जन्मों—जन्मों
में कुछ
अभ्यास कर लिए
हैं। कुछ गलत
बातें हम ऐसी
प्रगाढ़ता से
सीख गए हैं कि
अब उन्हें
कैसे भूलें, यही
अड़चन है। यह
बात हमने खूब
गहराई से सीख
ली है कि मैं
शरीर हूं।
भाषा, समाज,
समूह, संस्कार
सब इसी बात के
हैं। भूख लगती
है, तुम
कहते हो : मुझे
भूख लगी है।
जरा सोचो, अगर
तुम इस वाक्य
को ऐसा कहो कि
शरीर को भूख
लगी है, ऐसा
मैं देखता हूं—तुम
फर्क समझते हो
कितना भारी हो
जाता है?
तुम
कहते हो, मुझे
भूख लगी, तो
तुम घोषणा कर
रहे हो कि मैं
देह हूं। जब
तुम कहते हो
शरीर को भूख
लगी, ऐसा मैं
देखता हूं
जानता हूं—तो
तुम यह कह रहे
हो कि शरीर
मुझसे अलग, मैं ज्ञाता
हूं द्रष्टा
हूं साक्षी
हूं।
जब
कोई तुम्हें
गाली देता है
और तुम्हारे
मन में तरंगें
उठती हैं तो
तुम कहते हो
मुझे क्रोध हो
गया,
तो तुम गलत
बात कह रहे हो।
तुम इतना ही
कहो कि मन
क्रोधित हो
गया, ऐसा
मैं देखता हूं।
तुम मन ही
नहीं हो; वह
जो मन में
क्रोध उठ रहा
है, उसको
देखने वाले हो।
अगर तुम मन ही
होते तब तो
तुम्हें पता
ही नहीं चल
सकता था कि
मुझे क्रोध हो
गया है, क्योंकि
तुम तो क्रोध
ही हो गए होते
पता किसको
चलता?
अगर
तुम शरीर ही
होते तो तुम्हें
कभी पता नहीं
चलता कि भूख
लगी है, क्योंकि
तुम तो भूख ही
हो गए होते, पता किसको
चलता? पता
चलने के लिए
तो थोड़ा फासला
चाहिए। शरीर
को भूख लगती
है, तुमको
पता चलता है।
शरीर में भूख
लगती है, तुम
में पता चलता
है। तुम सिर्फ
बोध—मात्र हो।
अगर
हमारी भाषा
ज्यादा वैज्ञानिक
और धार्मिक हो, अगर
हमारे
संस्कार
चैतन्य की तरफ
हों, शरीर
की तरफ नहीं, तो बड़ी
अड़चनें कम हो
जाएं।
'अनंत
समुद्ररूप
मुझमें
चित्तरूपी
हवा के शांत होने
पर जीवरूप
वणिक के
अभाग्य से
जगतरूपी नौका
नष्ट हो जाती
है।
और
जब यह
चित्तरूपी
हवा शांत हो जाती
है,
लहरें खो
जाती हैं और
चेतना की झील
मौन हो जाती
है, तो फिर
जीवरूप वणिक
की नौका
विनष्ट हो
जाती है।
जगतपोत:
विनश्वर:! फिर
इस जगत का जो
पोत है, यह
जो जगत की नाव
है, यह
तत्सण खो जाती
है। जैसे एक
स्वप्न देखा
हो! जैसे कभी न
रही हो! जैसे
बस एक खयाल था,
एक भ्रम था!
तो
करना है एक ही
बात कि यह जो
चित्त की हवा
है,
यह शांत हो
जाए।
इस
संबंध में
अष्टावक्र और
जनक की दृष्टि
बड़ी क्रांतिकारी
है,
जैसा मैं
बार—बार कह
रहा हूं। योग
कहेगा कि कैसे
इस चित्त की
हवा को शांत करो। वह
प्रक्रिया
बताएगा—चित्तवृत्ति
निरोध:! वह
कहेगा योग है :
चित्तवृत्ति
का निरोध। तो
कैसे चित्त की
वृत्ति का
निरोध करें? —यम करो, नियम
करो, संयम
करो; आसन, प्राणायाम,
प्रत्याहार
करो; धारणा,
ध्यान, समाधि
करो। तो फिर
चित्त की
लहरें शांत हो
जाएंगी।
इस
संबंध में
अष्टावक्र और
जनक की दृष्टि
बड़ी अनूठी है।
वे क्या कहते
हैं? वे यह नहीं
कहते कि तुम
कुछ करो। वे
कहते हैं, करने
से तो
चित्तरूपी
तरंगें और
उठेंगी, क्योंकि
करने से तो
उपद्रव ही खड़ा
होगा। करने से
तो और लहरें
हिल जाएंगी।
तुम्हारे कुछ
करने का सवाल
नहीं है। तुम
सिर्फ देखो।
तुम करो कुछ
मत।
'आश्चर्य है
कि अनंत
समुद्ररूप
मुझमें
जीवरूपी
तरंगें अपने
स्वभाव के
अनुसार उठती
हैं, परस्पर
लड़ती हैं, खेलती
हैं और लय
होती हैं।'
अपने
स्वभाव के
अनुसार! यह
कुंजी है। यह
सब हो रहा है—अपने
स्वभाव के
अनुसार। तुम न
इसे शांत कर
सकते हो, न तुम
इसे अशांत कर
सकते हो; तुम
बीच में पड़ो
ही मत; तुम
यह होने दो।
तुम सिर्फ एक
बात स्मरण रखो
कि तुम साक्षी
हो।
तुम
किसी फिल्म को
देखने गए। तुम
फिल्म देखने
बैठे, अंधेरा
हो गया, कमरे
में तस्वीरें
चलने लगीं
परदे पर। इतना
ही अगर तुम
याद रख सको कि
मैं साक्षी
हूं और परदे
पर जो
तस्वीरें चल
रही हैं, केवल
धूप—छाया का
खेल है—तो
कहानी
तुम्हें
बिलकुल
प्रभावित न
करेगी। कोई
किसी की हत्या
कर दे तो तुम
एकदम विचलित न
हो जाओगे।
तुमने
देखा, फिल्म
में हत्या हो
जाती है, लोग
एकदम रीढ़ सीधी
करके बैठ जाते
हैं; जैसे
कुछ सचमुच कुछ
घट रहा है।
कोई मारा जाता
है तो कई की आंखें
गीली हो जाती
हैं, लोग
रूमाल निकाल
लेते हैं। वह
तो अंधेरा
रहता है, इसलिए
अच्छा है।
अपना जल्दी से
आंख पोंछ कर
अंदर रख लिया,
रूमाल को
फिर खीसे में
कर लिया।
लोगों के
रूमाल गीले हो
जाते हैं
फिल्मों में।
जब तक रूमाल
गीले न हों तब
तक वे कहते ही
नहीं कि फिल्म
अच्छी थी।
रोने का
अभ्यास ऐसा
पुराना है कि
जो भी रुला दे,
वही लगता है
कि कुछ गजब का
काम हुआ। लोग
हंसने लगते
हैं, रोने
लगते हैं!
तुमने
देखा कि छाया
चल रही है! वहा
कुछ भी नहीं है।
परदे पर कुछ
भी नहीं है।
लेकिन छाया
तुम्हें जकड़
लेती है। तुम
उसके साथ
डोलने लगते हो।
तुम में क्रोध
पैदा हो सकता
है,
प्रेम पैदा
हो सकता, वासना
जग सकती, उत्तेजना
हो सकती, सब
कुछ घट सकता
है—और परदे पर
कुछ भी नहीं
है। तुम भूल
ही जाते हो।
तुम्हारी
उस भूल को ही
सुधारना है, कुछ
और करना नहीं।
तुम्हें दौड़
कर परदा नहीं
फाड़ डालना है
कि बंद करो; कि तुम्हें
पीछे जा कर
प्रोजेक्टर
नहीं तोड़ देना
है कि बंद करो—यह
क्या मजाक कर
रखी है कि
सिर्फ धूप—छाया
का खेल है और
लोगों को
परेशान कर रहे
हो? इतने
लोग रो रहे
हैं नाहक! अरे
जिंदगी काफी
है रोने के
लिए। बंद करो!
यह तो तुम
नहीं करते। इसकी
कोई जरूरत भी
नहीं है।
क्योंकि जो
रोना चाहते
हैं उनके लिए
परदे को रहने
दो। जिनकी अभी
रोने में
उत्सुकता है,
पैसे चुका
कर जो रोने आए
हैं, उनके
खेल में बाधा
मत डालो। जो
खेलना चाहता
है, खेले।
तुम सिर्फ
इतना समझो कि
तुम साक्षी हो।
और यह सब जो
रहा है, ऊपर—ऊपर
है।
आश्चर्य
मयि अनंत
महाम्भोधि
जीववीचय
उद्यन्ति।
ध्वन्ति
च खेलन्ति च
स्वभावत:
प्रविशन्ति
खेलने
दो इन लहरों
को! उठने दो इन
लहरों को! नाचने
दो इन लहरों
को! जैसे
स्वभाव से ये
उठी हैं, ऐसे
ही स्वभाव से शांत
हो
जाएंगी। तुम
साक्षी— भाव
से किनारे पर
बैठ रहो।
कोई
योग नहीं है।
अष्टावक्र की
दृष्टि में
कुछ साधन नहीं
करना है। सीधी
छलांग है! तुम
सिर्फ देखते
रहो! क्रोध उठे
तो तुम कहो कि
ठीक है, स्वाभाविक
है। काम उठे
तो कहो ठीक है,
स्वाभाविक
है। तुम देखने
वाले बने रहो।
तुम विचलित न
होओ द्रष्टा
से। तुम्हारा
साक्षी न कंपे
बस। और सब
कंपता रहे, सारा संसार
तूफान में पड़ा
रहे—तुम तूफान
के मध्य
साक्षी में
ठहरे रहो।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
समुद्री—यात्रा
पर था। जहाज
डूबने लगा।
बड़ा तूफान आ
गया। लोग भाग—दौड़
करने लगे।
स्त्रियां
रोने—चिल्लाने
लगीं। कुत्ते
भौंकने लगे।
बच्चे बेहोश
होने लगे।
सारे लोग एक
कोने में
इकट्ठे हो गए।
मालिक चिल्ला
रहा है, सम्हालने
की कोशिश कर
रहा है।
कैप्टन
चिल्ला रहा है।
मल्लाह
इंतजाम कर रहे
हैं। एकदम
अराजकता फैल
गई! सिर्फ एक
मुल्ला है कि
जगह—जगह खड़े
हो कर शांति
से लोगों को
देख रहा है।
आखिर एक आदमी
से न रहा गया
और उसने कहा
कि मुल्ला
नसरुद्दीन!
आदमी हो कि
पत्थर? यह
तुम कोई खेल
समझे हो? यह
नाव डूब रही
है। यह जहाज
डूब रहा है।
यह हम सब मरने
जा रहे हैं।
मुल्ला
ने कहा, अपने
को क्या लेना—देना
है? कोई
अपने कोई बाप
का जहाज है?
यह
ठीक कह रहा है।
कोई अपना क्या
बिगड़ रहा है?
एक
ऐसी घड़ी है, जब
सब होता रहता
है और तुम
जानते हो : 'अपना
क्या बिगड़ रहा
है? अपने
बाप का जहाज
है?' तुम
पार, साक्षी
बने रहते हो!
तब तुमने आधी
के बीच में भी
एक शांत स्थान
खोज लिया। तब
तुम अपने
केंद्र पर आ
गए।
दृष्टि
का रूपांतरण
साधन नहीं है।
अष्टावक्र और
जनक एक नई ही
बात कह रहे
हैं। वे कह
रहे हैं, तुम
किनारे बैठ
रहो। ये नदी
में जो इतनी
तरंगें उठी
हैं, ये
अपने से शांत
हो जाएंगी। यह
नदी में जो
इतनी गंदगी
उठी है, यह
अपने से शांत
हो जाएगी। तुम
इसमें कूद कर
इसको शांत करने की
कोशिश करोगे
तो और लहरें
उठ आएंगी।
तुमने
देखा कभी, जब
तुम शांत होने की
ज्यादा
चेष्टा करते
हो, और अशांत
हो
जाते हो!
मेरे
पास अक्सर लोग
आते हैं। मेरे
अनुभव में ऐसा
आया है कि
जिनको तुम
सांसारिक लोग
कहते हो, वे
ज्यादा शांत होते
हैं धार्मिक
लोगों की बजाए।
क्योंकि
सांसारिक
आदमी को संसार
की ही चिंता है;
अशांतियां
हैं, ठीक
है। यह
धार्मिक आदमी
को एक नई अशांति
है कि इनको
शांत भी होना
है। बाकी अशांतियां
तो हैं ही, बाकी
तो सब उपद्रव
इनके भी लगे
ही हुए हैं—घर
है, द्वार
है, गृहस्थी
है, दूकान—बाजार
है, हार—जीत
है—सब लगा हुआ
है—सफलता—असफलता,
वह सब तो है;
और एक नया
रोग : इनको शांत
होना
है! कम—से—कम
उतना रोग
सांसारिक
आदमी को नहीं
है। वह कहता
है, अशांति
है, ठीक है।
उसकी अशांति
इतनी भयंकर
नहीं है जैसी
इस आदमी की
अशांति हो
जाती है, जो
कि इसको शांत
भी करना चाहता
है।
और
जब तुम कभी
मंदिर. जाते
हो,
पूजा करने
बैठते, प्रार्थना
करने बैठते, ध्यान करने—देखा,
उस समय तुम
और भी अशांत हो जाते
हो! इतने तुम
दूकान पर भी
नहीं होते, बाजार में
भी नहीं होते।
क्या होता है?
तुम उतर पड़े
नदी में। तुम
चेष्टा करने
लगे लहरों को शांत
करने
की। तुम्हारी
चेष्टा से तो
और लहरें उठ
आएंगी। तुम कृपा
करके किनारे
पर बैठो।
बुद्ध
के जीवन में
उल्लेख है, मुझे
बड़ा प्यारा
रहा है! बुद्ध
गुजरते हैं एक
पहाड़ से। धूप
है, प्यासे
हैं। आनंद को
कहते हैं कि
आनंद, तू
पीछे लौट कर
जा। कोई दो
मील पीछे हम
एक झरना छोड़
आए हैं, वहा
से तू पानी भर
ला, मुझे
प्यास लगी है।
वे
एक वृक्ष के
नीचे बैठ कर
विश्राम करते
हैं,
आनंद जाता
है भिक्षा—पात्र
ले कर। लेकिन
जब वह पहुंचता
है उस झरने पर,
तो ठीक उसके
सामने ही कुछ
बैलगाड़ियां
उस झरने में
से निकल गईं, तो सारा
पानी कूड़ा—कर्कट
से भर गया।
जमी कीचड़ उठ
आई ऊपर, सूखे
पत्ते ऊपर
तैरने लगे, सड़े पत्ते
ऊपर तैरने लगे।
वह पानी पीने
योग्य न रहा।
वह वापिस लौट
आया। उसने
बुद्ध को कहा,
वह पानी
पीने—योग्य
नहीं है। आगे
चल कर कोई चार—छह
मील दूर नयी—हम
अभी
पहुंचेंगे—नदी
है, वहां
से मैं पानी
ले आता हूं।
आप विश्राम
करें, या
चलते हों तो
मेरे साथ चले
चलें, लेकिन
वह पानी पीने—योग्य
नहीं रहा।
बुद्ध
ने जिद्द की।
उन्होंने कहा, तू
वापिस जा और
वही पानी ले आ।
जब बुद्ध ने
कहा तो आनंद
इंकार भी न कर
सका। फिर गया।
झिझकते हुए
गया कि वह
पानी बिलकुल
बेकार है।
लेकिन वहा जा
कर देखा कि तब
तक तो पानी
स्वच्छ हो गया।
आना—जाना आनंद
का दो मील, उस
बीच धूल फिर
बैठ गई, कीचड़
बह गया, पत्ते
जा चुके, झरना
तो ऐसा स्वच्छ,
स्फटिक—मणि
जैसा हो गया!
वह बड़ा चकित
हुआ!
तब
उसे बुद्ध की
जिद्द का अर्थ
दिखाई पड़ा। वह
पानी भर कर
लाया, नाचता
हुआ आया। उसने
पानी बुद्ध के
चरणों में रखा,
सिर चरणों
में झुकाया और
उसने कहा कि
मुझे ठीक—ठीक
सूत्र दे दिया।
यही मेरे
चित्त की दशा
है। आपने
अच्छा किया
मुझे वापिस
भेजा। मैं
रास्ते में
सोचता जाता था
कि अगर पानी
शुद्ध न हुआ
तो अब की बार
उतर कर झरने
में कीचड़—कर्कट
को अलग करके
किसी तरह भर
लाऊंगा। अगर
मैं उतर जाता
तो फिर गंदा
हो जाता।
उतरने से ही
तो गंदा हुआ
था, बैलगाड़ियां
निकल गई थीं।
मैं किनारे पर
ही रहा और
पानी शांत हो गया!
किसी ने शांत न किया
और शांत हो गया!
'
आश्चर्य!
अनंत
समुद्ररूप
मुझमें
जीवरूप तरंगें
अपने स्वभाव
से उठती हैं, परस्पर लड़ती
हैं, खेलती
हैं, और लय
होती हैं।
'स्वभावत:
प्रविशन्ति!
अपने
स्वभाव से ही
सब बनता, मिटता,
खोता रहता
है। तुम दूर
साक्षी हो
जाओ! तुम खड़े
देखते रहो।
सुना
है मैंने, एक
गांव में एक
पौराणिक कथा
कह रहा था।
उसने गांव के
लोगों को
समझाया कि पाप
से डरो, पाप
से बचो, पाप
से लड़ो! जैसा
कि सभी
तथाकथित धार्मिक
लोग कहते हैं।
एक पागल—सा
संन्यासी वहा
बैठा था, वह
उठ कर खड़ा हो
गया। उसने कहा,
'चुप! बकवास
बंद! पाप में
डूब मरो!' और
वह तो इतना कह
कर चल पड़ा। वह
पौराणिक भी
सकते में आ
गया, लेकिन
गांव के लोगों
ने कहा कि तुम
फिक्र न करो, कथा जारी
रखो। यह आदमी
पागल है! इसे
हम जानते हैं।
इसकी बात का
कुछ खयाल मत
करो।
लेकिन
पौराणिक को
कुछ चोट लग
गयी : उस आदमी
ने कहा, पाप
में डूब मरो!
उसने तो कथा
बंद कर दी। इस
आदमी में कुछ
खूबी है। और
इस आदमी में
कुछ लहर भी
उसे मालूम पड़ी।
इस आदमी में
एक चमक थी, एक
दीप्ति थी। यह
आदमी पागल नहीं
है। यह आदमी
परमहंस हो
सकता है।
वह
पौराणिक तो
कथा—पुराण
वहीं छोड़ कर
भागा इस पागल
के पीछे। कोई
दो मील जा कर
जंगल में उसे
पकड़ लिया। वह
एक वृक्ष के
नीचे बैठा था।
वह पौराणिक
कहने लगा, महाराज!
अब व्याख्या
और कर दें।
सूत्र तो दे
दिया कि पाप
में डूब मरो, अब इसकी
व्याख्या और
कर दें, इसका
भाष्य और कर
दें। मुझे
मुश्किल में
डाल दिया।
तो
उस पागल
संन्यासी ने
कहा कि सुन, एक
आदमी एक गुरु
के पास गया और
कहने लगा, मुझे
शांत होना है।
तो गुरु ने
उसे एक मंत्र
दे दिया और
कहा कि तीन दिन
में तू शांत
हो जाएगा।
मँत्र का रोज
पांच बार पाठ
कर लेना, लेकिन
ध्यान रखना जब
पाठ करे, बंदर
का स्मरण न आए।
तीन
दिन में ठीक
होने को कहा
था,
तीन साल
गुजर गए। वह
आदमी मरा जा
रहा है, लड़ा
जा रहा है, मगर
कुछ उपाय नहीं।
जब भी वह
मंत्र पड़ता है,
बंदरों का
स्मरण आ जाता
है।
वह
पागल
संन्यासी
बोला, किस्सा
खत्म! अब भाग
जा यहां से!
दूसरे
दिन पौराणिक
फिर गांव में
कथा कह रहा था।
उसने लोगों से
कहा. न तो पाप
से लड़ो, न पाप
से डरो, न
पाप से भागो, न पाप. से बचो—बस
देखते रहो!
लड़ने
से.. वह आदमी
बंदर से लड़
रहा है कि
बंदर न आने
पाए! तुम
जिससे लड़ोगे, वही
आएगा।
तुम्हारा
लड़ना ही
तुम्हारा
आकर्षण बन
जाएगा, जो
व्यक्ति
कामवासना से
लड़ेगा, कामवासना
ही उठेगी। जो
लोभ से लड़ेगा,
लोभ ही
उठेगा। जो
क्रोध से
लड़ेगा, वह
और क्रोध
उठाएगा।
क्योंकि
जिससे तुम
लड़ोगे, उसका
स्मरण बना
रहेगा।
तुमने
खयाल किया, जिसे
तुम भूलना
चाहते हो उसे
भूल नहीं
पाते! क्योंकि
भूलने के लिए
भी तो बार—बार
याद करना पड़ता
है, उसी
में तो याद बन
जाती है। किसी
को तुम्हें
भूलना है, कैसे
भूलो? भूलने
की चेष्टा में
तो याद सघन
होगी। भूलने
से कभी कोई
किसी को भूल
पाया? लड़ने
से कभी कोई
जीता?
इस
जीवन का यह
विरोधाभासी
नियम ठीक से
समझ लेना :
जिससे तुम लड़े
उसी से तुम
हारोगे। लड़ना
ही मत! संघर्ष
सूत्र नहीं है
विजय का।
साक्षी! बैठ
कर देखते रहो।
अब
बंदर उछल—कूद
रहे हैं, करने
दो। वे अपने
स्वभाव से ही
चले जाएंगे।
तुमने अगर
उत्सुकता न
ली।, तो
बार—बार
तुम्हारे
द्वार न आएंगे।
तुमने अगर
उत्सुकता ली—पक्ष
में या विपक्ष
में—तो दोस्ती
बनी।
अब
वह जो आदमी
मंत्र पढ़ रहा
है और सोचता
है बंदर न आएं, शायद
इस मंत्र पढ़ने
के पहले कभी
उसके मन में बंदर
न आए होंगे—तुम्हारे
मन में कभी आए?
तुम कोशिश
करना, कल
मंत्र कोई भी
चुन लेना—राम
राम राम—और कोशिश
करना, बंदर
न आएं। बंदर
ही नहीं, हनुमान
जी भी चले
आएंगे उनके
पीछे। और कई
बंदरों को ले
कर, पूरी
फौज—फाटा चला
आएगा। और इसके
पहले कभी ऐसा
न हुआ था।
तुम्हारा
विरोध, तुम्हारे
रस की घोषणा
है। लड़ना मत, अन्यथा
हारोगे।
इस
सूत्र की
महत्ता को, महिमा
को, गरिमा
को समझो। जो
हो रहा है, हो
रहा है। न
तुमसे पूछ कर
शुरू हुआ है, न तुम से पूछ
कर बंद होने
का कोई कारण
है। जो हो रहा
है, होता
रहा है, होता
रहेगा—तुम
देखते रहो। बस
इसमें ही क्रांति
घट जाती है।
दुनियां
में दो तरह के
लोग हैं। एक
हैं—भोगी।
भोगी कहते
हैं. जो हो रहा
है,
यह और जोर
से हो। एक हैं—योगी,
जो कहते
हैं. जो हो रहा
है, यह
बिलकुल न हो।
ये दोनों ही
संघर्ष में
हैं। योगी कह
रहा है, बिलकुल
न हो, जैसे
कि उसके बस की
बात है! जैसे
उससे पूछ कर
शुरू हुआ हो!
जैसे उसके हाथ
में है!
भोगी
कह रहा है, और
जोर से हो, और
ज्यादा हो! सौ
साल जीता हूं
दो सौ साल
जीऊं। एक
स्त्री मिली,
हजार
स्त्रियां
मिलें। करोड़
रुपया मेरे
पास है, बीस
करोड़ रुपया
मेरे पास हो।
भोगी कह रहा
है, और जोर
से हो; वह
भी सोच रहा है.
जैसे उससे पूछ
कर हो रहा है; उसकी अनुमति
से हो रहा है; उसकी
आकांक्षा से
हो रहा है।
दोनों
की भ्रांति एक
है। दोनों
विपरीत खड़े
हैं,
एक दूसरे की
तरफ पीठ किए
खड़े हैं; लेकिन
दोनों की
भ्रांति एक है।
भ्रांति यह है
कि दोनों
सोचते हैं कि
संसार उनकी
अनुमति से चल
रहा है। चाहें
तो बढ़ा लें, चाहें तो
घटा दें।
मुल्ला
नसरुद्दीन सौ
साल का हो गया, तो
दूर—दूर से
अखबारनवीस
उसका
इंटरव्यू
लेने आए। सौ
साल का हो गया
आदमी! वे उससे
पूछने आए कि
तुम्हारे
स्वास्थ्य का
राज क्या है? तुम अब भी
चलते हो, फिरते
हो! तुम
प्रसन्नचित्त
दिखाई पड़ते हो।
तुम्हारे
शरीर में कोई
बीमारी नहीं।
तुम्हारा राज
क्या है?
तो
मुल्ला ने कहा, मेरा
राज! मैंने
कभी शराब नहीं
पी, धूम्रपान
नहीं किया!
नियम से जीया।
नियम से सोया—उठा,
संयम ही
मेरे जीवन का
और मेरे
स्वास्थ्य का
राज है।
वह
इतना कह ही
रहा था कि बगल
के कमरे में
जोर से कुछ
अलमारी गिरी
तो वे सब चौंक
गए।
पत्रकारों ने
पूछा, यह क्या
मामला है? तो
उसने कहा, ये
मेरे पिताजी
हैं! वे मालूम
होता है कि
फिर शराब पी
कर आ गए!
कोई
आदमी सौ साल
जिंदा रह जाता
है,
वह सोचता है
मैंने शराब
नहीं पी, इसीलिए
जिंदा हूं सौ
साल। उनके
पिताजी पी कर
अभी आए हैं।
उन्होंने
अलमारी गिरा
दी है।
अगर
कोई जैन
ज्यादा जी
जाता है, वह
सोचता है शाकाहार
की वजह से
ज्यादा जी गए।
कोई
मांसाहारी
ज्यादा जी
जाता है, वह
सोचता है
मांसाहार की
वजह से जी गए।
धूम्रपान
करने वाले भी
ज्यादा जी
जाते हैं, धूम्रपान
न करने वाले
भी ज्यादा जी
जाते हैं। साग—सब्जी
खा कर भी लोग
ज्यादा जी
जाते हैं; जिन्होंने
साग—सब्जी कभी
छुई ही नहीं, वे भी जी
जाते हैं। और
जो आदमी जिस
ढंग से जी
जाता है, वह
सोचता है यह
मैंने अपने
जीवन का
नियंत्रण किया,
यह मेरे
संयम से हुआ।
तुम्हारे
किए कुछ भी
नहीं हो रहा
है,
तुम कर्ता
नहीं हो।
तुम्हारे किए
कुछ भी न हुआ
है, न हो
रहा है, न
होगा। कभी—कभी
संयोग से, कभी—कभी
बिल्ली के
भाग्य से
छींका टूट
जाता है, वह
संयोग ही है।
कभी—कभी ऐसा
होता है, तुम
जो चाहते हो
वह हो जाता है।
वह होने ही
वाला था; तुम
न चाहते तो भी
हो जाता।
एक
गांव में एक
बूढ़ी औरत रहती
थी। वह नाराज
हो गई गांव के
लोगों से।
उसने कहा, तो
भटकोगे तुम अंधेरे
में सदा।
उन्होंने
पूछा, मतलब?
उसने कहा कि
मैं अपने
मुर्गे को ले
कर दूसरे गांव
जाती हूं। न
रहेगा मुर्गा,
न देगा बांग,
न निकलेगा
सूरज! मरोगे
अंधेरे में!
देखा नहीं कि
जब मेरा
मुर्गा बांग
देता है तो
सूरज निकलता
है?
वह
बूढ़ी अपने
मुर्गे को ले
कर दूसरे गांव
चली गई क्रोध
में,
और बड़ी
प्रसन्न है, क्योंकि अब
दूसरे गांव
में सूरज
निकलता है!
वहां मुर्गा
बांग देता है।
वह बड़ी
प्रसन्न है कि
अब पहले गांव
के लोग मरते
होंगे अंधेरे
में।
सूरज
वहां भी
निकलता है।
मुर्गों के
बांग देने से
सूरज नहीं
निकलता, सूरज
के निकलने से
मुर्गे बांग
देते हैं।
तुम्हारे
कारण संसार
नहीं चलता।
तुम मालिक
नहीं हो, तुम
कर्ता नहीं हो।
यह सब अहंकार,
भ्रांतियां
हैं।
भोगी
का भी अहंकार
है और योगी का
भी अहंकार है।
इन दोनों के
जो पार है, उसने
ही अध्यात्म
का
रस चखा—जो न
योगी है न
भोगी।
'आश्चर्य है कि
अनंत समुद्र रूप
मुझ में जीव रूपी
तरगें अपने स्वभाव
के अनुसार उठती
है, परस्पर
लड़ती हैं, खेलती
हैं और लय भी
होती हैं !'
और
मैं सिर्फ देख
रहा! और मैं
सिर्फ देख
रहा! और मैं
सिर्फ देख
रहा!
रंग—रहित
ही सपनों के
चित्र
हृदय—कलिकामधु—सेसुकुमार।
अनिल
बन सौ—सौ बार
दुलार
तुम्हीं
ने खुलवाए उर—द्वार।
और फिर
रहे न एक
निमेष
लुटा
चुपके से सौरभ—भार।
रह गई
पथ में बिछ कर
दीन
दृगों
की अश्रु—भरी
मनुहार!
मूक
प्राणों की
विकल पुकार!
विश्व—वीणा
में कब से मूक—
पड़ा था
मेरा जीवन—तार!
न
मुखरित कर
पाईं झकझोर
थक गईं
सौ—सौ मलय—बयार।
तुम्हीं
रचते अभिनव
संगीत
कभी
मेरे गायक! इस
पार
तुम्हीं
ने कर निर्मम
आघात
छेड़ दी
यह बेसुर
झंकार।
और
उलझा डाले सब
तार?
सब
हो रहा स्वभाव
से—ऐसा कहो।
या सब कर रहा
प्रभु—ऐसा कहो।
भक्त
की भाषा है कि
परमात्मा कर
रहा है।
ज्ञानी की
भाषा है कि स्वभाव
से हो रहा है।
तुम्हें जो
भाषा
प्रीतिकर हो, चुन
लेना। वह भाषा
का ही भेद है।
एक बात सत्य
है कि तुम
कर्ता नहीं हो—या
तो स्वभाव या
परमात्मा—तुम
कर्ता नहीं हो।
तुम सिर्फ
द्रष्टा हो।
तुम सिर्फ
देखने वाले हो।
प्राण
के निर्वेद का
लघु तोल है यह
शांति
की परिकल्पना
का मोल है यह
यह समुज्ज्वल
भूमि का समतल किनारा
यह
मधुर मधु—माधुरी
रस घोल है यह
यह वही
आनंद चिरसत्य
सुंदर
और उस
आलोक का लघु
दीप पावन
यह
हृदय का हार
हीरक वैजयति
और
जीवन का
मधुरतम सरस
सावन
यह अभय
का द्वार धीरज
अमिट साहस
यह परम
उस सत्य की
पहली झलक है
और
अखिल विराट को
पहचानने की
यह
हृदय की
जागरित पहली
ललक है
और
मेरा कुछ नहीं
सत्यानुभूति
मैं, यह
देह, तेरा
और मेरा
आज तक
जो घेर कर मुझ
को खड़ी थी
यह उसी
काली निशा का
है सवेरा।
यह परम
उस सत्य की
पहली झलक है।
साक्षी
का थोड़ा सा
अनुभव, सत्य
की पहली झलक
है।
यह परम
उस सत्य की
पहली झलक है
और
अखिल विराट को
पहचानने की
यह
हृदय की
जागरित पहली
ललक है
थोड़ा—सा
दर्शन, थोड़ी—सी
दृष्टि, थोड़े—से
साक्षी बनो!
थोड़े—से देखो—जो
हो रहा। उसमें
कुछ भी भेद
करने की
आकांक्षा न
करो। न कहो, ऐसा हो। न
कहो, वैसा
हो। तुम मांगो
मत कुछ। तुम
चाहो मत कुछ।
तुम सिर्फ
देखो—जैसा है।
कृष्णमूर्ति
कहते हैं : दैट
हिच इज। जैसा
है, उसको
वैसा ही देखो;
तुम अन्यथा
न करना चाहो।
और
अखिल विराट को
पहचानने की
यह
हृदय की
जागरित पहली
ललक है
और
मेरा कुछ नहीं
सत्यानुभूति
मैं, यह
देह, तेरा
और मेरा
आज तक
जो घेर कर मुझ
को खड़ी थी
यह उसी
काली निशा का
है सवेरा।
साक्षी
है सवेरा!
कर्ता और
भोक्ता है
अंधेरी रात्रि!
जब तक तुम्हें
लगता है मैं
कर्ता— भोक्ता, तब
तक तुम अंधेरे
में भटकोगे।
जिस क्षण जागे,
जिस क्षण जगाया
अपने को, जिस
क्षण सम्हाली
भीतर की
ज्योति, साक्षी
को पुकारा—उसी
क्षण क्रांति!
उसी क्षण
सवेरा!
हरि
ओंम तत्सत्!
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