22 सितंबर,1976
ओशो
आश्रम
कोरेगांव
पार्क,
पूना।
पहला
प्रश्न :
मेरे
इस प्रश्न का
उत्तर अवश्य
दें, ऐसी
प्रार्थना है।
गुरु—दर्शन को
कैसे आऊं? जब
शिष्य गुरु के
पास जाए तो
कैसे जाए? गुरु
के पास शिष्य
किस तरह रहे, क्या—क्या
करे और क्या—क्या
न करे?
पूछा है
'विष्णु
चैतन्य' ने
शिष्य
का अर्थ होता
है,
जिसे सीखने
की दुष्पूर
आकांक्षा
उत्पन्न हुई
है; जिसके
भीतर सीखने की
प्यास जगी है।
सीखने की
प्यास साधारण
नहीं होती; सिखाने का
मन बड़ा साधारण
है। सीखने की
प्यास बड़ी
असाधारण है।
गुरु
तो कोई भी
होना चाहता है, शिष्य
होना दुर्लभ
है। जो तुम
नहीं जानते, वह भी तुम
दावा करते हो
जानने का, क्योंकि
जानने के दावे
में अहंकार की
तृप्ति है।
जिन बातों का तुम्हें कोई भी पता नहीं है, उनका भी तुम उत्तर देते हो; क्योंकि यह तुम कैसे मानो कि उत्तर, और तुम्हें पता नहीं! तुम ऐसी सलाहें देते हो, जिन्हें कोई माने तो गड्डे में गिरेगा, क्योंकि तुम किसी अनुभव से सलाह नहीं दे रहे हो। तुम तो सलाह देने का मजा ले रहे हो।
जिन बातों का तुम्हें कोई भी पता नहीं है, उनका भी तुम उत्तर देते हो; क्योंकि यह तुम कैसे मानो कि उत्तर, और तुम्हें पता नहीं! तुम ऐसी सलाहें देते हो, जिन्हें कोई माने तो गड्डे में गिरेगा, क्योंकि तुम किसी अनुभव से सलाह नहीं दे रहे हो। तुम तो सलाह देने का मजा ले रहे हो।
देखा
लोगों को, सलाह
देने में कैसा
मजा लेते हैं!
फंस भर जाओ उनके
चंगुल में, और हर कोई
सलाह देने को
उत्सुक है। वह
तो अच्छा है
कि लोग सलाह
लेते नहीं।
दुनिया में
सबसे ज्यादा
दी जानी वाली
चीज सलाह है, और सबसे कम
ली जाने वाली
चीज भी सलाह
है। कौन सुनता
है? कौन
लेता है पू
अच्छा है कि
लोग लेते नहीं
अन्यथा लोग
पागल हो जायें।
सलाह देने
वाले इतने हैं,
मार्गदर्शक
इतने हैं!
सीखने
की इच्छा अति
दुर्लभ है।
क्योंकि
सीखने की
इच्छा का अर्थ
हुआ—यह
स्वीकार कि
मुझे मालूम
नहीं; यह
स्वीकार कि
मैं अज्ञानी
हूं; यह
स्वीकार कि
मैं समर्पित
होने को तैयार
हूं, कि
मैं भिक्षा की
झोली फैलाने
को राजी हूं।
बेशर्म
भिक्षा की
झोली फैलाने
की हिम्मत से
कोई शिष्य
बनता है। लाग—लपेट,
संकोच, शर्म,
सब छोड़ कर
कोई शिष्य
बनता है।
शिष्य
बनने का अर्थ
है,
कि मेरा सारा
अतीत व्यर्थ
था, गलत था—इसे
मैं स्वीकार
करता हूं। कल
एक इटालियन
युवती ने
संन्यास लिया,
वह केवल
भूली— भटकी दो—चार
दिन के लिये यहां
आ गई। घूमती
रही पूरे देश
में। गई बहुत
आश्रमों में,
बहुत
सत्संगों में,
भूली— भटकी,
किसी ने बता
दिया, तो
यहां आ गई। आज
ही उसे वापस
लौटना है। वह
कल बड़े हृदय
से रोने लगी।
और उसने कहा
कि मुझे बड़ी
अड़चन में डाल
दिया। पूछा
मैंने, क्या
अड़चन है? उसने
कहा, अड़चन
यह है कि ये
तीन दिन संकट
के हो गये, न
आती तो अच्छा
था। क्योंकि
इन तीन दिनों
ने मुझे बता
दिया कि अब तक
जो मैं जानती
थी, वह सब
गलत है, और
अब तक जो मैं
सोचती थी ठीक
है, वह
बिलकुल ठीक
नहीं। कुछ और
ही ठीक है। अब
तुमने मुझे
मुश्किल में
डाल दिया। और
मुझे लौट कर
आना पड़ेगा। अब
मैं जा रही
हूं—सिर्फ आने
के लिये।
शिष्यत्व
का जन्म हो
गया!
जिस
क्षण तुम्हें
पता लगता है
कि मेरा सारा
अतीत व्यर्थ
था,
कूड़ा—कर्कट
था। बहुत कठिन
है यह स्वीकार
करना, क्योंकि
अतीत यानी
तुम्हारा
अहंकार। जो
तुमने अब तक
किया, सोचा,
समझा, उसी
पर तो
तुम्हारा
अहंकार खड़ा है।
वह ठीक था तो
अहंकार खड़ा हो
सकता है। वह
सब गलत था.....।
जिस
क्षण तुम्हें
दिखाई पड़ता है
कि मेरा अतीत, सारा
का सारा एक
अंधेरी रात था,
उस क्षण तुम
शिष्य बनते हो।
यहां
यह भी खयाल रख
लेना. तुम यह
मत सोचना कि
हम शिष्य बन
सकते हैं; क्योंकि
अतीत में कुछ
बातें गलत थीं,
वह हम मानते
हैं; कुछ
बातें ठीक थीं,
वह हम मानते
हैं। ऐसा होता
ही नहीं। या
तो तुम गलत
होते हो, या
तुम ठीक होते
हो। कुछ बातें
ठीक और कुछ
बातें गलत—ऐसा
होता ही नहीं।
यह
जो सत्य की
खोज है, यहां
समझौते नहीं
चलते। सत्य
कोई समझौता
नहीं है। अगर
तुम ठीक थे तो
ठीक थे, अगर
गलत थे तो गलत
थे। यह भी
अहंकार की
तरकीब है कि
अहंकार कहता
है. ही, कुछ
बातें हमारे
जीवन में गलत
रहीं, उनको
ठीक कर लेंगे,
ऐसे बाकी
जीवन तो सब
ठीक ही है। तो
तुम्हारे
जीवन में क्रांति
कभी न होगी, सुधार हो
सकता है। और
सुधार की आकांक्षा
शिष्य की आकांक्षा
नहीं है।
शिष्य की
आकांक्षा तो
महाक्रांति
के लिए है।
शिष्य तो कहता
है कि मैं
अपने पूरे
अतीत से स्वयं
को विच्छिन्न
कर लेना चाहता
हूं; मैं
चाहता हूं कि
फिर से मेरी
शुरुआत हो, मैं चाहता
हूं कि फिर क ख
ग से शुरुआत
हो, मैं
चाहता हूं कि
फिर से मेरा
जन्म हो। यही
शिष्य की आकांक्षा
है। एक जन्म
हुआ था—मां से,
पिता से; अब मैं
चाहता हूं
सदगुरु से
जन्म हो। एक
जन्म था शरीर
का, अब मैं
अपनी आत्मा का
जन्म चाहता
हूं।
बड़ी
हिम्मत चाहिए!
यहां तक भी
तुम राजी हो
जाते हो..।
मेरे पास लोग
आते हैं, वे
कहते हैं, ही,
हमारे जीवन
में कुछ गलत
बातें हैं, लेकिन सभी
गलत नहीं हैं।
इसे
तुम फिर से
सोच लो। अगर
तुम गलत हो, तो
कुछ ठीक और
कुछ गलत हो नहीं
सकता; सभी
गलत होगा।
क्योंकि जो
तुमसे निकला
है, जो
तुम्हारी
मूर्च्छा से
निकला है, वह
सयोगवशात ठीक
मालूम पड़े, ठीक हो नहीं
सकता। तुमने
भला दान दिया
हो, मगर
तुम्हारे दान
में भी लोभ
होगा, अगर
तुम लोभी हो।
तो तुम कहोगे,
लोभ तो बुरा
है; लेकिन
मैंने एक
मंदिर बनाया,
एक मस्जिद
बनायी, एक
गुरुद्वारा
बनाया—यह तो
बुरा नहीं हो
सकता! लेकिन
मैं तुमसे कहता
हूं : मंदिर
बनाओ, मस्जिद
बनाओ, गुरुद्वारा
बनाओ, अगर
तुम लोभी हो
तो तुम्हारे
मंदिर में भी
लोभ ही होगा।
होगा परलोक का
लोभ, होगा
स्वर्ग पाने
का लोभ—मगर
लोभ ही होगा।
लोभी से दान
नहीं हो सकता।
लोभी दान भी
करता है तो
वहां, उस
दूसरे किनारे
पर हजार गुना
पाने की
आकांक्षा में
करता है। यह भी
कोई दान रहा? सौदा हो गया।
दान का मतलब
होता है. हम
बेशर्त देते
हैं। दान का
मतलब होता है.
देने में मजा
है, इसलिए
देते हैं।
देने में मजा
अभी और यहीं
है, इसलिए
देते हैं। दान
का मतलब हुआ, आगे इससे
कोई संबंध
नहीं; आगे
हम इसके संबंध
में कोई
प्रतिकार
नहीं चाहते, कोई
पुरस्कार
नहीं चाहते
हैं। देने में
मजा आया, इसलिए
दिया है। अब
देने से कोई
और फल मिलना
चाहिए, तो
फिर लोभ आ गया।
लोभ
का मतलब होता
है : फल की
आकांक्षा, फलाकांक्षा।
दान का अर्थ
होता है :
फलाकांक्षा—
शून्य देना; देने का मजा,
देने का
आनंद।
तुमने
किसी को दिया, और
अगर धन्यवाद
की भी आकांक्षा
रखी तो दान
भ्रष्ट हो गया।
तुमने अगर लौट
कर यह भी देखा
कि इस आदमी ने
शुक्रिया कहा
या नहीं कहा, तुम सोचने
लगे बाद में
कि यह भी कैसे
अपात्र को दे
दिया कि उसने धन्यवाद
भी न दिया.।
एक
झेन फकीर के
पास एक आदमी
हजारों
स्वर्ण—अशर्फियां
ले कर आया।
उसने बड़े जोर
से अशर्फियों
का थैला पटका।
उनकी खनखनाहट
पूरे मंदिर
में गंज गई।
लोग ऐसे ही
दान देते हैं—खनखनाहट
की आवाज! उस
फकीर ने जोर
से कहा कि
झोला धीमे से
नहीं रख सकते? वह
आदमी थोड़ा
हैरान हुआ, क्योंकि वह
करोड़पति था, उस गांव का
सबसे धनपति था।
और यह फकीर..! और
वह देने आया
है; धन्यवाद
की तो बात दूर
रही, यह
उससे कहता है,
झोला शांति
से नहीं रख
सकते? पर
उसने कहा, आप
सुनें महाराज!
लाखों रुपये
लाया हूं आपको
भेंट करने!
उसने कहा, ठीक!
मगर
उसने धन्यवाद
भी न दिया। वह
धनपति जरा
बेचैन होने
लगा। उसने कहा, महाराज
कुछ तो कहे।
उसने
कहा, अब कुछ क्या
कहना है? मुझको
तुम धन्यवाद
दो और जाओं।
वह
धनपति बोला, यह
जरा सीमा के
बाहर की बात
हो गई।
धन्यवाद मैं
आपको दूं और
जाऊं—मतलब?
तो
उसने कहा, दान
स्वीकार कर
लिया है, इसकी
दक्षिणा न
दोगे? तुम्हारा
दान स्वीकार
कर लिया, इसके
लिए धन्यवाद न
करोगे? तुम्हारा
दान इंकार भी
किया जा सकता
था, फिर
क्या करते? तो या तो
धन्यवाद दो, या उठा लो
झोला, जाओ
अपने घर, फिर
दुबारा इस तरफ
मत आना।
दान
का अर्थ ही यह
होता है।
इसलिए
तुमने देखा, हिंदू
दान देते हैं,
फिर
दक्षिणा देते
हैं! दक्षिणा
का मतलब है
धन्यवाद, कि
आपने स्वीकार
कर लिया। दान
दक्षिणा के
बिना अधूरा रह
जाता है। लोभ
से दिया गया
दान तो दान
नहीं, लोभ
का ही विस्तार
है।
तुम
अगर गलत हो तो
तुम जो करोगे, वह
सब गलत होगा।
तुम्हारा
मंदिर जाना
गलत, तुम्हारी
पूजा गलत, तुम्हारी
प्रार्थना
गलत, तुमसे
निकलेगी—सही
हो कैसे सकती
है? और अगर
तुम सही हो, तो तुम जो
करोगे, वह
सही है। इसलिए
तो कृष्ण
अर्जुन से कह
सके कि लड़, बस
तू भीतर सही
हो जा, तू
भीतर परमात्मा
से जुड़ जा, तू
भीतर अनुभव कर
ले कि मैं
नहीं हूं वही
है; फिर तू
काट, बेफिक्री
से काट; फिर
हिंसा में भी
पाप नहीं है।
इसे
तुम समझना।
कृष्ण कह रहे
हैं कि अगर तू
परमात्मा को
समर्पित हो कर
हिंसा भी करता
है,
तो भी पाप
नहीं है। और
अगर—मैं तुमसे
कह रहा हूं—लोभ
की आकांक्षा
से तुम दान भी
करते हो तो
पाप है।
तुम्हारी
प्रार्थना
में अगर मांग
है, तो पाप
हो गया।
तुम्हारी
प्रार्थना
अगर सिर्फ
अहोभाव की अभिव्यक्ति
है तो पुण्य
हो गया।
पूछा
है,
'गुरु—दर्शन
को कैसे आऊं? जब शिष्य
गुरु के पास
जाए तो कैसे
जाए? गुरु
के पास शिष्य किस
तरह रहे, क्या—क्या
करे, और
क्या—क्या न
करे?'
पहली
बात,
आंतरिक
शिष्यता को
जन्म दे। जो
मैं कह रहा हूं, उसे सुन कर
सीख लेना, उसका
ज्ञान बना
लेना, उससे
स्मृति को
परिपुष्ट कर
लेना—शिष्यता
नहीं है।
विद्यार्थी
हो तुम शिष्य
नहीं। तो
विद्यार्थी
और शिष्य का
भेद समझ लो।
विद्यार्थी, विद्या का
अर्जन करता, जो कहा जाता
है, उसे
संयोजित करके
रखता, उसकी
मंजूषा बनाता,
उसको
कंठस्थ करता,
जानकारी
इकट्ठी करता;
उसकी
बुद्धि
ज्यादा
संपन्न हो
जाती, उसकी
स्मृति
ज्यादा भरी—पूरी
हो जाती, वह
हर प्रश्न के
उत्तर भीतर
इकट्ठे करता
जाता। वह
संग्राहक है।
जैसे कोई धन
इकट्ठा करता
है, ऐसे वह
ज्ञान इकट्ठा
करता है। यह
विद्यार्थी
है।
शिष्य
विद्यार्थी
नहीं है।
शिष्य
आत्मार्थी है।
शिष्य
सत्यार्थी है।
उसको इसकी कोई
आकांक्षा
नहीं है कि
स्मृति बहुत
पुष्ट हो जाये, जानकारी
का बहुत अंबार
लग जाये। नहीं,
इससे उसे
प्रयोजन नहीं।
वह चाहता है, उसकी आत्मा
प्रगट हो जाये।
जानकारी रहे न
रहे; कोरा
हो जाऊं, फिक्र
नहीं—मेरी
आत्मा विकसित
हो जाये।
अंग्रेजी
में दो शब्द
हैं. बीइंग और
नॉलेज, आत्मा
और ज्ञान।
विद्यार्थी
की आकांक्षा
नॉलेज, ज्ञान
की है। शिष्य
की आकांक्षा
बीइंग की, आत्मा
की है—मैं और
गहन हो जाऊं, और विराट हो
जाऊं, और
विस्तीर्ण हो
जाऊं, मेरी
सीमायें टूटे;
मैं आकाश
में उडूं? विराट
और विभु में
मेरा प्रवेश
हो जाये। जान
लूं परमात्मा
के संबंध में
तो विद्यार्थी—कैसे
परमात्मा हो
जाऊं, कैसे
उसमें डूब
जाऊं, कैसे
उसमें पग जाऊं
और खो जाऊं; कैसे यह
मेरी छोटी—सी
कल—कल करती
सरिता उसके
सागर में
तिरोहित हो
जाए?
तो
विद्यार्थी
तो कुछ लेने
आता है, शिष्य
कुछ खोने आता
है।
विद्यार्थी
तो कूड़ा—कर्कट
इकट्ठा करके,
पोटली बाध
कर चल देता है;
शिष्य जाते
वक्त पाएगा कि
बचा ही नहीं।
पोटली बांधनी तो
दूर, जो
आया था, वह
भी गया। खाली
हो कर लौटेगा
शिष्य, विद्यार्थी
भर कर लौटेगा।
विद्यार्थी
दुनिया के
बाजार में
बेचने योग्य
कुछ ले जायेगा,
कमायेगा।
शिष्य बिलकुल
शून्य हो कर
लौटेगा।
शून्यता की
तैयारी शिष्यतत्व
है। बड़ी कठिन
है।
रहीम
का वचन है
अब
रहीम मुश्किल पड़ी, गाढ़े
दोऊ काम।
साचे
तो जग नहीं, झूठे
मिलें न राम।।
अब
रहीम मुश्किल
पड़ी—अब बड़ी
झंझट में पड़े
रहीम! गाढ़े
दोऊ काम—अब तो
दोनों काम
मुश्किल हो
गये। सांचे तो
जग नहीं—अगर
सत्य की खोज
करो तो बाजार
खोता है। अगर
सत्य की खोज
करो,
तो संसार
खोता है।
सांचे तो जग
नहीं, झूठे
मिलें न राम—और
अगर झूठ से
चलो, तो
परमात्मा
की कोई
उपलब्धि नहीं
होती।
अब
रहीम मुश्किल
पड़ी...!
शिष्य
ऐसी ही
मुश्किल में
पड़ जाता है।
अब
रहीम मुश्किल
पड़ी,
गाढ़े दोऊ
काम।
अगर
अपने को खोता
है तो
परमात्मा
मिलता है, लेकिन
अपने को खोने
में वह सब खो
जाता है, जिसे
हम संसार कहते
हैं। अपने को
खोता है तो
सत्य मिलता है;
लेकिन अपने
को खोने में
वह सब खो जाता
है, जिसके
कारण हम सत्य
को खोजने
निकले थे।
अब
रहीम मुश्किल
पड़ी।
जब
तुम पहली दफा
सत्य की खोज
करने निकलते
हो तो इसीलिए
कि सत्य भी
तुम्हारी
मुट्ठी में हो।
जब तुम परमात्मा
की खोज करने
निकलते हो तो
इसीलिए कि और
सब तो पा लिया, अब
परमात्मा को
भी पा लें; यह
चुनौती भी
खाली न रह जाए।
सुना
है मैंने, महावीर
गुजरते थे एक
गांव से। उस
नगर का
महाअधिपति, सम्राट उनके
दर्शन को आया।
प्रसेनजित
उसका नाम था।
उस सम्राट ने
कहा, प्रभु!
सब है मेरे
पास, मगर
इधर आपने एक
अड़चन कर दी—ध्यान,
ध्यान, ध्यान!
इससे मन में
एक बेचैनी
रहती है। सब
है मेरे पास, यह ध्यान भर
की कमी अखरती
है। इसके कारण
ऐसा लगता है
कि कुछ कम है।
यह ध्यान मुझे
चाहिए। और मैं
इस ध्यान को
पाने के लिए, जो भी आप
मूल्य चुकाने
को कहें, चुकाने
को राजी हूं।
सुना
होगा उसने
गांव में, महावीर
के आने से
ध्यान की
चर्चा होने
लगी। वह जरा
बेचैन हुआ
होगा। उसके
पास सब है—तिजोरी
में सब बंद है;
धन, पद, प्रतिष्ठा,
सब बंद है।
देखा होगा
खाता— बही खोल
कर, ध्यान
नहीं है, यह
क्या मामला है?
लोग ध्यान
की बात करने
लगे, गांव
में कुछ लोग
ध्यानी भी
होने लगे, कुछ
लोग ध्यान की
मस्ती में भी
चलने लगे, कुछ
लोगों की आंखों
में ध्यान का
नशा भी दिखाई
पड़ने लगा—यह
मामला क्या है?
वह थोड़ा
बेचैन हो गया।
उसने महावीर
से कहा मैं सब
कुछ करने को
तैयार हूं! जो
भी कीमत हो, चुका दूंगा।
महावीर
थोड़ी मुश्किल
में पड़े : इस
पागल प्रसेनजित
को क्या कहें? यह
कोई कीमत
चुकाने से
मिलने वाली
बात नहीं।
थोड़े झिझके
होंगे, इसको
उत्तर क्या
दें, क्योंकि
कहीं यह अकारण
दुखी न हो। यह
बात ही
मूढ़तापूर्ण
पूछ रहा है, लेकिन
सम्राट है। यह
बात ही व्यर्थ
पूछ रहा है। उनको
थोड़ा झिझकता
देख कर
प्रसेनजित ने
कहा, आप
संकोच न करें,
लाख अशर्फी,
दो लाख
अशर्फी, दस
लाख अशर्फी—जितना
कहें, मुंह
मांगा देने को
तैयार हूं,
मगर यह बात
अखरती है कि
गांव में कुछ
लोग ध्यान की
बात करते हैं,
मेरे पास
ध्यान नहीं है।
महावीर
को मजाक सूझी।
उन्होंने कहा, ऐसा
करो, तुम्हारे
गांव में एक
गरीब आदमी है,
उसको ध्यान
उपलब्ध हो गया
है, तुम
उसी से खरीद
लो।
उसने
कहा,
यह आपने ठीक
कहा। मैं अभी
जाता हूं।
वह
अपने रथ पर
सवार हो कर
गरीब के झोपड़े
पर पहुंच गया, गरीब
तो घबड़ा गया।
वह गरीब आदमी
बाहर आ कर
चरणों में गिर
पड़ा। सम्राट
ने कहा, फिक्र
मत कर। जो
तेरी मांग हो,
बोल
मुंहमांगा
दाम देने को
तैयार हूं। यह
ध्यान क्या
बला है? यह
तू मुझे दे दे।
और महावीर ने
कहा कि तुझे
मिल गया है।
उसने
कहा कि मिल तो
गया है और मैं
देने को भी तैयार
हूं;
लेकिन आप
लेने को तैयार
नहीं। सम्राट
ने कहा, पागल!
होश की बातें
कर रहा है? मैं
जो भी मूल्य
चुकाना हो, चुकाने को
तैयार हूं। और
तू कहता है, लेने को
तैयार नहीं!
उसने
कहा,
इसलिए तो
मैं कहता हूं
आप लेने को
तैयार नहीं।
आप ध्यान को
भी कोई संपदा
समझ रहे हैं!
यह कोई वस्तु
है जो मैं दे
दूं? जिसका
हस्तांतरण कर
दूं? इसके
लिए तो
तुम्हें
रूपांतरित
होना पड़ेगा।
यह मूल्य से
नहीं मिलेगी,
इसके लिये
तो तुम्हें
पूरा आत्म—विसर्जन
करना होगा।
इसके लिए तो
तुम जैसे हो
वैसे न रहोगे,
तुम्हारे
भीतर एक नए
चैतन्य, एक
नई ऊर्जा का
जन्म होगा तो
मिलेगी। तुम
मुझसे प्राण
मांगो, मैं
प्राण दे दूं;
मगर ध्यान
मत मांगो, क्योंकि
ध्यान मैं
कैसे दूं? प्राण
मांगो, देने
को तैयार हूं;
अभी यहीं
छुरा मारूं, मर जाऊं; तुम्हारे
लिए सब निछावर
कर दूं। तुम
सम्राट हो, इस गांव के
मालिक हो। मैं
गरीब आदमी, सदा
तुम्हारी
सेवा में रहा
हूं। प्राण ले
लो, तो
तैयार हूं; लेकिन ध्यान
कैसे दूं?
प्राणों
में छुरी भुंक
जाए तो प्राण
चले जाते हैं; ध्यान
में छुरी
भोंकने का भी
उपाय नहीं।
इसलिए तो
कृष्ण कहते
हैं, नैनं
छिन्दति
शस्त्राणि!
उसे शस्त्र भी
नहीं छेद पाते।
उसे आग भी
नहीं जला पाती।
उस अवस्था की
खोज में जब
तुम निकलते हो,
शुरू में, तो तुम्हें
ठीक—ठीक पता
भी नहीं होता
कि तुम क्या
खोजने निकले
हो? तुम तो
उसको भी ऐसे
ही खोजने
निकलते हो, जैसे तुम और
चीजों को
खोजने निकलते
हो। वह भी एक
महत्वाकांक्षा
होती है। वह
तो धीरे — धीरे
गुरु के
सत्संग में
तुम्हें
अनुभव होगा कि
यह तो महत्वाकांक्षा
छोडने से
मिलेगा।
ध्यान, महत्वाकांक्षा
का हिस्सा
नहीं हो सकता।
आते तुम किसी
और कारण से हो,
लेकिन आने
के बाद धीरे—धीरे,
धीरे—धीरे
तुम्हें पता
चलता है कि
तुम्हारा आने
का कारण ही
गलत था।
अब
रहीम मुश्किल
पड़ी,
गाढ़े दोऊ
काम।
सांचे
तो जग नहीं, झूठे
मिलें न राम।।
शिष्य
ऐसी दुविधा
में पड़ जाता
है। इधर
पुकारता है
गुरु, दूर
शिखरों की
पुकार, अनंत
का आकर्षण, थोड़ी— थोड़ी
झलकें भी
मिलनी शुरू हो
जाती हैं, थोड़ी—
थोड़ी रस की
बूंदें भी
बरसने लगती, थोड़ी— थोड़ी
बरखा भी होती—और
उधर संसार, और जन्मों—जन्मों
की वासनाओं का
बल और जोर, पुकारती
हुई कामवासना,
पुकारता
हुआ अहंकार, वे सब चीखते—पुकारते
हैं कि कहां
चले?
अब
रहीम मुश्किल
पड़ी,
गाढ़े दोऊ
काम।
और
शिष्य बीच में
झूल जाता है।
तो
तुम मुझसे
पूछते हो कि 'गुरु—दर्शन
को कैसे आऊं?'
गुरु—दर्शन
को आने का एक
ही अर्थ होता
है : अपने को मिटाने
की तैयारी।
गुरु को देखना
चर्म—चक्षुओं
की बात नहीं।
मेरे पास जब
कोई शिष्य आता
है,
तब वह ऐसी आंखें
ले कर आता है
कि मैं उसे
दिखाई पड़ता
हूं। जब कोई
विद्यार्थी
आता है, तब
वह दूसरे ढंग
की आंखें ले
कर आता है; उसे
मैं दिखाई
नहीं पड़ता।
उसे भी दिखाई
पड़ता हूं, लेकिन
उसकी आंखों के
अनुकूल। कोई
मित्र आता है'
सहानुभूति
से, प्रेम
से समझने—उसे
कुछ और दिखाई
पड़ता हूं। कोई
शत्रु आता है—विवाद
लिए
मन में, शास्त्रार्थ
लिए मन में—उसे
कुछ और दिखाई
पड़ता हू।
तुम्हारी आंख
पर निर्भर है।
अगर तुम शिष्य
की भांति आना
चाहते हो, तो
शून्य की
भांति आना
सीखो। जब मेरे
पास आओ तो
अपने को बाहर
ही छोड़ आना।
अगर तुम अपने
को ले कर मेरे
पास आए, तो
तुम ही तुमको
दिखाई पड़ते
रहोगे, तुम
मुझे न देख
पाओगे; मैं
तुम्हारी ओट
में पड़ जाऊंगा।
जब
तुम अपने को
रख कर आओगे
बाहर, ऐसे
आओगे जैसे एक
शून्य आया, एक कोरे कागज
की तरह आओगे, तब तुम मुझे
देख पाओगे। तब
उस संबंध की
घटना घटेगी
जिसको गुरु—शिष्य
का संबंध कहें,
तब एक सेतु
निर्मित होता
है।
प्रीतम
छवि नैनन बसी, पर—छवि
कहां समाए?
भरी
सराय रहीम लखि, पथिक
आप फिर जाए।
और
जब तुम मुझसे
भरने लगोगे..।
प्रीतम
छवि नैनन बसी.।
शिष्य
और गुरु का
संबंध तो अथाह
प्रेम का संबंध
है,
ज्ञान का
संबंध नहीं, प्रेम का
संबंध; बुद्धि
का संबंध नहीं,
हृदय का
संबंध।
तुम्हारे
विचार मुझसे
मेल खाते हैं, उससे
थोड़े ही तुम
मेरे शिष्य हो
जाओगे। तुमसे
मेरे विचार
मेल खाते हैं,
इसलिए तुम
मेरे साथ खड़े
हो; कल अगर
तुमसे मेरे
विचार मेल न
खाएं तो फिर? तुम मुझसे
अलग हो जाओगे।
बहुत
लोग मेरे पास
आए हैं और
बहुत लोग मेरे
पास से चले गए
हैं। आए थे, तो
उन्हें लगा
उनके विचार
मेल खाते हैं।
असल में वे
मेरे साथ न थे;
उन्हें लगा
कि मैं उनके
साथ हूं। मेरे
विचार उनसे
मेल खाते हैं;
वे केंद्र
रहे। मेरे
विचारों ने
उनकी पुष्टि
की। वे बड़े
प्रफुल्लित
हुए। लेकिन जब
उन्हें पता
लगा कि मेरे
सभी विचार उनसे
मेल नहीं खाते,
तब अड़चन
शुरू हो गई।
तब वे न रुक
सके। तब वे हट
गए। तब वे
घबड़ा गए।
तुम्हारे
विचार अगर
मुझसे मेल
खाते हैं, इसलिए
तुम यहां हो, तो तुम
ज्यादा से
ज्यादा एक
अनुयायी हों—शिष्य
नहीं। शिष्य
तो वही है, जो
कहता है : छोड़ो
विचार की बात।
दिल से दिल
मेल खाता है।
विचार ऊपर—ऊपर
की बातें हैं;
दिल भीतर की
बात है। आत्मा,
आत्मा से
मेल खाती है।
और शिष्य ऐसा
नहीं सोचता कि
गुरु से मेरे
विचार का मेल
बैठता है।
शिष्य ऐसा
सोचता है कि
मैं गुरु के
साथ मेल खाता
हूं। किसी दिन
मेल न खाए तो
शिष्य अपने
भीतर कारण खोजता
है; उन
कारणों को
हटाता है ताकि
फिर मेल खा
जाए।
जो
लोग सोचते हैं
कि मैं उनसे
मेल खाऊं, जिस
दिन भी अड़चन
होती है, मैं
उनसे मेल नहीं
खाता, वे
मुझे छोड़ देते
हैं। क्योंकि
उनमें तो
बदलने का कोई
सवाल ही नहीं,
वे तो ठीक
हैं ही। सत्य
तो उन्हें
मालूम ही है; वे सिर्फ आए
थे प्रमाण—पत्र
खोजने। वे
शायद मेरी
परीक्षा को आए
थे, या
शायद मुझसे
अपने सत्य को
भरने आए थे।
जो उनका सत्य
है, और
सत्यतर मालूम
होने लगे, और
एक गवाही मिल
जाए, इसके
लिए आए थे।
लेकिन सत्य तो
उनके पास है
ही। जिस दिन
मैं उनसे मेल
नहीं खाता, उसी दिन
उनकी राह अलग
हो जाती है।
शिष्य
का जोड़ कुछ
ऐसा है कि फिर
उसकी राह अलग
नहीं होती।
प्रीतम
छवि नैनन बसी, पर—छवि
कहां समाए?
गुरु
ऐसा छा जाता
है भीतर, शिष्य
गुरु के रंग
में डूब जाता
है, शिष्य
गुरु के रंग
में रंग जाता
है। शिष्य
बचता ही नहीं।
गुरु ही उससे
बोलने लगता है।
गुरु ही उसमें
नाचने लगता।
गुरु ही उसमें
गुनगुनाने
लगता। धीरे —
धीरे शिष्य तो
खो ही जाता है।
गुरु की ही एक
प्रतिछवि
निर्मित हो
जाती है। एक
और गुरु की
प्रतिमा खड़ी
हो गई।
भरी
सराय रहीम लखि, पथिक
आप फिर जाए।
और
जब सराय भरी
हो,
तो पथिक
वापिस लौट
जाते हैं। जब
तुम्हारा
हृदय गुरु से
भरा हो, तो
बहुत—से पथिक
वापिस लौट
जाएंगे, जिनको
तुमने लाख—लाख
बार उपाय किया
था हटाने का
और न हटा पाए
थे, क्योंकि
सराय खाली थी।
जिन्हें
तुमने बहुत
बार सोचा था, किस तरह
छुटकारा हो
क्रोध से, काम
से, लोभ से
कैसे छुटकारा
हों—और नहीं
हो पाता था।
जब तुम भीतर
भर जाते हो
गुरु से, अचानक
तुम पाते हो
बहुत—सी बातें
जो छूटती नहीं
थीं, छूट
गईं, बिना
चेष्टा के छूट
गईं, गिर
गईं।
भरी
सराय रहीम लखि, पथिक
आप फिर जाए।
गुरु
के पास होने
का अर्थ है.
मृत्यु के पास
होना। मरने की
तैयारी चाहिए।
अगर
गुरु नाराज भी
हो,
तो भी शिष्य
जानता है, गुरु
नाराज तो नहीं
हो सकता; ऐसा
तो असंभव है; तो यह भी कोई
उपाय होगा।
गुरजिएफ
ऐसा करता था।
अपने शिष्यों
पर कभी इस तरह
पागल हो कर
नाराज हो जाता
था—अकारण; कोई
कारण भी समझ
में नहीं आता
था। बहुत—से
लोग तो उससे
हट जाते थे।
लेकिन जो टिके
रह गए, उनके
जीवन में उसने
बड़ी क्रांति
ला दी। धीरे—
धीरे समझे राज
कि वह नाराज
क्यों हो जाता
है। वह नाराज
हो कर सिर्फ
तुम्हें एक
मौका देता है
कि देखो, अब
मैं नाराज हूं
तुम नाराज
गुरु के साथ
रुक सकते हो? प्यारे—प्यारे
के साथ तो
रुकने में
क्या कठिनाई
है। कोई भी
रुक जाए। मीठे—मीठे
के साथ रुकने
में तो क्या
अड़चन है? कोई
भी रुक जाए।
गुरजिएफ कहता
है, जब मैं
कडुवा होता
हूं तब भी तुम
मेरे साथ रुक सकते
हो? अगर
तुम मेरे
कड़वेपन में भी
मेरे साथ रुक
सकते हो, तो
ही रुके। और
जो गुरु के
कड़वेपन में
साथ रुक गया, उस पर गुरु
का अमृत बरस
जाता है।
गुरु
के पास होना
एक सतत साधना
है। इस जगत
में बहुत
साधनाओं के
रूप हैं, लेकिन
गुरु के पास
होने से बड़ी
कोई साधना
नहीं है। इसलिए
तो हमने
सत्संग की बड़ी
महिमा कही है।
गुरु के पास
होने की महिमा
इतनी है जिसका
कोई हिसाब
नहीं।
शास्त्र
तो मुर्दा है; तुम
लाख पढ़ो, तुम
अपने ही अर्थ
निकाल लोगे।
शास्त्र तो
तुम्हें नहीं
बदल सकता, तुम
शास्त्र को
जरूर बदल सकते
हो, क्योंकि
शास्त्र क्या
करेगा? तुम
जो अर्थ
चाहोगे, वही
अर्थ निकाल
लोगे।
तुम्हारा
अर्थ तुम
शास्त्र के
ऊपर छाप दोगे,
तुम्हारी
व्याख्या
शास्त्र पर
सवार हो जाएगी।
जीवित गुरु के
ऊपर तुम अपनी
व्याख्या
नहीं थोप सकते।
जीवित गुरु
पारे की भांति
होता है; तुमने
मुट्ठी बांधी
कि वह हटा वहा
से। तुम्हारी
मुट्ठी नहीं
बंधने देता।
तुम्हारी पकड़
में कभी आता
भी नहीं।
क्योंकि उसकी
सारी चेष्टा
यही है कि
तुम्हारी पकड़
छूट जाए, पकड़ने
की आदत छूट
जाए। उसकी
सारी चेष्टा
यही है कि
तुम्हारी
मुट्ठी बंद न
रहे, खुल
जाए। उसकी
सारी चेष्टा
यही है कि
तुम्हारे सब
तनाव—पकड़ने के,
आसक्ति के,
राग के
विसर्जित हो
जाएं। तो वह
आलंबन नहीं
बनता
तुम्हारी पकड़
के लिए। वह
तुम्हारा
आश्रय भी नहीं
बनता, बार—बार
वह हट जाता है।
जैसे ही तुम
उसे अपना
आश्रय और
सुरक्षा
मानने लगते हो,
अचानक वह हट
जाता है, धड़ाम
से तुम जमीन
पर गिरते हो।
वह तुमसे यह
कहना चाहता है
कि मैं
तुम्हें
तुम्हारे पैर
पर खड़ा करना
चाहता हूं मैं
तुम्हें बल
देना चाहता
हूं कि तुम
अपने पैर पर
खड़े हो जाओ।
तो
गुरु नाराज भी
हो तो शिष्य
नहीं देखता कि
गुरु नाराज है।
उसकी जफा, जफा
नहीं उसको न
तू जफा समझ।
गुरु
की निर्दयता, उसकी
कठोरता, कठोरता
नहीं है। उसकी
जफा, जफा
नहीं उसको न
तू जफा समझ।
हुस्न—ए—जहां
फरेब की यह भी
कोई अदा समझ।
अगर
प्रेम है तो
यह भी गुरु के
सौंदर्य का एक
ढंग है।
ऐसा
हुआ,
नाम तुमने
सुना होगा
नंदलाल बोस का।
भारत के बड़े
चित्रकार! वे
अवनींद्रनाथ
ठाकुर के
शिष्य थे।
अवनींद्रनाथ
ठाकुर रवींद्रनाथ
के चाचा थे।
महाचित्रकार
थे
अवनींद्रनाथ।
एक दिन
रवींद्रनाथ
बैठे हैं
अवनींद्रनाथ
के साथ और
नंदलाल आए—तब
वे युवा थे—कृष्ण
का एक चित्र
बना कर लाए थे।
रवींद्रनाथ
ने अपने
संस्मरणों
में लिखा है कि
कृष्ण का ऐसा
सुंदर चित्र
मैंने देखा ही
नहीं।
रवींद्रनाथ खुद
महाकवि थे, खुद भी बड़े
चित्रकार थे,
इसलिए उनकी
परख पर तो कोई
संदेह करने का
सवाल नहीं।
उन्होंने
लिखा है कि
मैं
मंत्रमुग्ध
हो गया। लेकिन
मैं बड़ा चौंका।
अवनींद्रनाथ
ने चित्र को
एक नजर देखा
और बाहर फेंक
दिया—दरवाजे
के बाहर! और
नंदलाल से कहा
कि इसको तुम दिखाने—योग्य
समझते हो? तुम
से अच्छे तो
बंगाल के पटिए,
जो
कृष्णाष्टमी
पर दो—दो पैसे
के कृष्ण के
चित्र बना कर
बेचते हैं, वे बेहतर
बना लेते हैं।
जाओ, पटियों
से सीखो।
यह
तो बड़ी कठोर
बात थी। यह तो
बड़ी निर्दय
बात थी। यह तो
रवींद्रनाथ
को भी लगा कि
रोक दूं अपने
चाचा को और
कहूं कि यह
जरा ज्यादती
हो रही है, सीमा
के बाहर हुआ
जा रहा है
मामला। मैंने
ऐसा सुंदर
चित्र नहीं
देखा किसी का
बनाया हुआ।
रवींद्रनाथ
ने लिखा है, मैं
तो यह भी कहने
को तैयार था
कि आपने भी
कृष्ण के
चित्र बनाए, मगर इसका
मुकाबला नहीं
है।
अवनींद्रनाथ
के चित्र भी
फीके हैं, यह
रवींद्रनाथ
कहना चाहते थे।
मगर गुरु—शिष्य
के बीच बोलना
तो उचित नहीं।
वे जानें, उनका
ढंग जाने। वे
चुपचाप बैठे
रहे, अपने
को सम्हाल कर।
नंदलाल
ने पैर छुए, बाहर
चला गया। तीन
साल तक नंदलाल
का कोई पता न
चला।
अवनींद्रनाथ
बड़ी चिंता से
उसकी
प्रतीक्षा करते,
खबरें भी
भेजीं, लोगों
को भी कहा:कहां
गया, क्या
हुआ? रवींद्रनाथ
अनेक बार उनसे
कहे भी कि यह
ज्यादती थी।
आपने उसको
बुरी तरह चोट
पहुंचा दी, उसके हृदय
को आघात
पहुंचा दिया।
अवनींद्रनाथ
रोते नंदलाल
के लिए कि वह
गया कहां? तीन
साल बाद
नंदलाल लौटे।
लौटे तो उनकी
हालत बंगाल
में जैसे गरीब
चित्रकार
होते हैं, पटिए,
उन जैसी हो
गई थी। वही
पुराने तीन
साल पहले के
कपड़े थे, फटे—पुराने,
पहचानना
मुश्किल था।
शक्ल बदल गई
थी, काली
हो गई थी।
लेकिन वे फिर
कुछ चित्र बना
कर ले आए थे।
और उन्होंने
फिर पैर छुए
और कहा, आपने
ठीक कहा था।
इन तीन वर्षों
में 'इतना
सीखने को मिला,
पटियों के
पास। क्योंकि
जो ख्यातिनाम
चित्रकार हैं,
वे तो अपने
अहंकार के
कारण बनाने
लगते हैं।
जिनकी कोई
ख्याति नहीं,
उनके
चित्रों में
एक निर्दोषता,
एक सहजता है—वह
सीखने को मिली।
आपने खूब मुझे
भेज दिया!
आपकी बड़ी कृपा,
अनुकंपा!
रवींद्रनाथ
ने
अवनींद्रनाथ
को पूछा कि
क्या अब मैं
पूछ सकता हूं
मामला क्या था? चित्र
मुझे तो बहुत
सुंदर लगा था।
अवनींद्रनाथ
ने कहा, चित्र
मुझे भी बहुत
सुंदर लगा था।
और आज मैं
तुमसे सच कह
देना चाहता
हूं कि मैंने
भी चित्र बनाए
हैं, लेकिन
उसका कोई मुकाबला
नहीं। मगर
फेंकना पड़ा, मजबूरी थी।
क्योंकि
नंदलाल से
मुझे और भी
बड़ी आशा थी।
उस दिन अगर
मैं कह देता
कि ठीक, सुंदर—वहीं
नंदलाल रुक
जाता। जब गुरु
ने कह दिया
ठीक, सुंदर,
हो गई बात—तो
विकास
अवरुद्ध हो
जाता। अगर
नंदलाल की
प्रतिभा और
बड़ी न होती तो
मैंने उसे पुरस्कृत
किया होता।
लेकिन मैं
जानता था, और
भी छिपा पड़ा
है, अभी
इसे और खींचा
जा सकता है, अभी इसमें
से और बड़ा
शिखर प्रगट हो
सकता है।
उसकी
जफा,
जफा नहीं,
उसको न
तू जफा समझ।
हुस्न—ए
—जहा फरेब की,
यह भी
कोई अदा समझ।
और
यह पाठ धीरे —
धीरे गुरु से
सीखने के बाद, यही
पाठ परमात्मा
पर लागू हो
जाता है। फिर
परमात्मा
दुख दे, तो
भी...!
हुस्न—ए—जहां
फरेब की
यह भी
कोई अदा समझ।
फिर
परमात्मा
पीड़ा दे तो यह
भी निखार का
कोई उपाय समझ।
फिर परमात्मा
मृत्यु दे तो
यह भी नए जीवन
की कोई शुरुआत
समझ।
गुरु
के पास जैसा
घटे,
उसे हंस—हंस
कर स्वीकार कर
लेने की कला
शिष्यत्व है।
बेमन से, उदास
हो कर, जबर्दस्ती
स्वीकार किया
तो सारा मजा
चला जाता है।
स्वीकार होना
चाहिए आनंदपूर्ण।
जीत
अगर किस्मत
में नहीं है, मात
सही, दिन
जो नहीं तो, रात सही
हम से
जहा तक मुमकिन
हो
यह मात
ही हंसते —हंसते
खा लें।
गाहे —गाहे
अंधियारे में
बिजली चमके,
गाहे—गाहे
हंस लें, गा
लें।
गुरु
के पास कैसी
ही अंधेरी रात
हो,
वह जो बिजली
चमकती है कभी—कभी,
उसको भी
काफी समझना।
अंधेरी रात
में जब बिजली
चमकती है, उसे
सौभाग्य
समझना। शायद
बिजली चमकने
के लिए अंधेरी
रात चाहिए।
दिन में तो
बिजली चमकने
का मजा नहीं।
शायद गुलाब की
झाड़ी पर फूलों
के लिए कांटे
चाहिए ही।
तो
गुरु के पास
बहुत—सी
अंधेरी रातें
होंगी, उनकी
गणना मत करना;
कभी—कभी
बिजली चमक जाए,
उसे हृदय
में संजो कर
रख लेना। बहुत
कांटे गड़ेंगे,
उनका हिसाब
मत रखना; कभी—कभी
फूल की गंध आ
जाए तो नाच
लेना, गुनगुना
लेना गीत
धन्यवाद का।
गाहे—गाहे
अंधियारे में
बिजली चमके, गाहे
—गाहे हंस लें,
गा लें।
शिष्य
का अर्थ है, जिसने
किसी में
परमात्मा को
देखना शुरू
किया। यह बड़ी
असंभव बात है।
इसलिए दूसरों
को तो बड़ी
कठिनाई होती
है।
तुमने
देखा, तुम अगर
किसी स्त्री
के प्रेम में
पड़ गए, तो
प्रेम में
पड़ते ही वह
स्त्री इस जगत
की सबसे सुंदर
स्त्री हो
जाती है। फिर
क्लियोपैत्रा
फीकी, फिर
मर्लिन मनरो
फीकी, फिर
सारी दुनिया
की सुंदरतम
स्त्रियां
उसके मुकाबले
कुछ भी नहीं।
अतीत फीका, भविष्य फीका,
बस एक
स्त्री
केंद्र हो जाती।
तुम्हारा
सौंदर्य उसके
भीतर दिव्यता
को उभार देता,
प्रगट कर
देता।
और
यह केवल प्रेम
की कल्पना
नहीं है।
प्रत्येक
व्यक्ति इतना
ही सुंदर है—प्रेमी
देख पाता, सभी
देख नहीं पाते।
जब किसी
व्यक्ति के
प्रति
तुम्हारे मन
में गुरु का
भाव उदय होता
है, तो
तुम्हारे पास
एक नई देखने
की दृष्टि
खुलती है। वह
व्यक्ति
तुम्हारे लिए
परमात्मा हो
गया। इसे तुम
दूसरों के
सामने सिद्ध न
कर पाओगे, सिद्ध
करना भी मत।
यह कोई सिद्ध
करने की बात
भी नहीं है।
जैसे
तुम प्रेमी से
नहीं पूछते कि
सिद्ध करो कि
तुम्हारी जो
प्रेयसी है, वही
दुनिया की सबसे
सुंदर स्त्री
है, तुम इस
तरह के
वक्तव्य
क्यों देते हो?
तुम क्यों
कहते हो कि
यही स्त्री
दुनिया की सबसे
सुंदर स्त्री
है? इसे
सिद्ध करो, प्रमाण
जुटाओ—वैज्ञानिक,
तार्किक।
तुम उससे नहीं
कहते। तुम
कहते हो, पागल
है, प्रेम
में पागल है।
शिष्य
भी प्रेम में
पागल है। और
किसी स्त्री
का या किसी
पुरुष का
सौंदर्य तो
क्षणभंगुर है।
शिष्य एक ऐसे
प्रेम में
पागल है जो
क्षणभंगुर
नहीं है, एक
ऐसी अनुभूति
से आंदोलित
हुआ है, जो
शाश्वत है, जो समय की
धारा से
प्रभावित
नहीं होती।
समय आता है, जाता है। एक
ऐसी श्रद्धा
का जन्म हुआ
है शिष्य में,
जो
रूपांतरित
नहीं होती, जो थिर है।
श्रद्धा, अगर
है तो कभी
पतित नहीं
होती, और
अगर पतित होती
है तो इतना ही
जानना कि थी
ही नहीं; तुमने
समझा था कि है,
लेकिन थी
नहीं; भ्रांत
रही होगी, प्रतीति
रही होगी, आभास
रहा होगा।
किसी
व्यक्ति में
परमात्मा की
प्रतीति होने
लगे,
यह बहुत
असंभव घटना है,
क्योंकि
हमारा अहंकार
बाधा डालता है।
हमारा अहंकार
यह तो मानने
को राजी होता
ही नहीं कि
हमसे कोई
श्रेष्ठतर हो
सकता है। जैसे
ही तुम यह
जानने और
मानने में
उतरने लगते हो
कि हमसे कोई
श्रेष्ठतर है,
हमसे कोई
महानतर है, हमसे कोई
विभु और प्रभु
है, हमसे
कोई ऊपर है—वैसे
ही तुम्हारा
अहंकार
विसर्जित
होने लगता है।
और जिस दिन
तुम्हारा
अहंकार
विसर्जित हो
जाता है, एक
दिन तुमने जिस
परमात्मा को
गुरु में देखा
था, उसी
परमात्मा को
एक दिन तुम
अपने में भी
देख पाते हो।
जिस घटना की
शुरुआत गुरु
पर हुई थी, उस
घटना का अंत
शिष्य पर होता
है।
यह
महानतम क्रांति
है। इस क्रांति
के लिए बड़ा
संवेदनशील
चित्त चाहिए।
'गुरु के पास
कैसे आएं, किस
ढंग से उठे—बैठें?'
संवेदनशील
होओ! कोई अपने
प्रेमी के पास
कैसे जाता है? कैसे
भावों के फूल
सजा लेता
भीतर! कैसे
पवित्र हृदय
को ले कर जाता
है! पापी से
पापी भी जब
किसी के प्रेम
में पड़ता है, तो उन
क्षणों में
पुण्यात्मा
हो जाता है।
हत्यारे से
हत्यारा आदमी
भी अपनी
प्रेयसी की हत्या
तो नहीं करता!
चोर से चोर
आदमी भी अपने
बेटे के खीसे
से तो पैसे
नहीं चुरा
लेता।
तुमने
देखा प्रेम का
क्रांतिकारी
रूप?
दुष्ट से
दुष्ट आदमी के
पास भी उसकी
प्रेयसी तो
रात निश्चित
सो जाती है; यह तो फिक्र
नहीं होती कि
रात को कहीं
उठ कर गला न
काट दे, यह
आदमी हत्यारा
है! नहीं, जहां
प्रेम है, वहां
पवित्रतम की
अभिव्यक्ति
शुरू हो जाती
है।
चोर
भी आपस में एक—दूसरे
को धोखा नहीं
देते—मैत्री।
डाकू एक—दूसरे
के प्रति बड़े
निष्ठावान
होते हैं; दूकानदार
इतने
निष्ठावान
नहीं होते। और
डाकू अगर वचन
दे दे तो पूरा
करेगा, दूकानदार
का कोई पक्का
भरोसा नहीं।
बुरे
से बुरा आदमी
भी प्रेम की
छाया में
रूपांतरित हो
जाता है, कुछ
और का और हो
जाता है। तो
गुरु के पास
जब आओ, तो
अति प्रेम, संवेदना, उत्कुल्लता,
आनंद, रसमग्न
आओ। उदास नहीं,
रोते नहीं।
अगर रोते हुए
भी आओ तो
तुम्हारे आंसुओ
में आनंद हो, शिकायत नहीं।
डबडबाया
है जो आंसू यह
मेरी आंखों
में,
इसको
तेरे किसी
एहसान की
दरकार नहीं।
जो
इबादत भी करे
और शिकायत भी
करे,
प्यार
का है वह
बहाना तो, मगर
प्यार नहीं।
जो
इबादत भी करे
और शिकायत भी
करे,
जहां
इबादत है, वहां
शिकायत कैसी?
जो
इबादत भी करे
और शिकायत भी
करे,
प्यार
का है वह
बहाना तो, मगर
प्यार नहीं।
गुरु
के पास इबादत
से भरे हुए आओ।
गुरु के पास
ऐसे आओ जैसे
मुसलमान जब
मस्जिद में
जाता है; गुरु
के पास ऐसे आओ
जैसे हिंदू जब
मंदिर में जाता
है, कि
सिक्स
गुरुद्वारे
में जाता है।
गुरु के पास
ऐसे आओ, जैसे
कि तुम
साक्षात
परमात्मा के
पास जा रहे हो—उतने
ही पवित्र
प्रसूनों से
भरे—तो क्रांति
घटेगी!
क्योंकि घटना
तो तुम्हारे
भाव से घटने
वाली है।
पत्थर की
मूर्ति के साथ
भी घट सकती है,
अगर भाव गहन
हो; और
जीवित
परमात्मा के
साथ भी नहीं
घटेगी, अगर
भाव मौजूद न
हो।
गुरु
के पास होना
सुखद ही सुखद
नहीं है, यह
मैं जानता हूं।
क्योंकि बहुत
कुछ तुम्हें
तोड़ना पड़ता, तोड़ने में
पीड़ा होती।
तुम्हें
मिटाना पड़ता,
मिटाने में
दर्द होता।
तुम्हें
निखारना पड़ता,
तुम्हें
जलाना पड़ता, आग से
गुजारना पड़ता—ये
सब सुखद
स्थितियां
नहीं हैं।
लेकिन शिष्य
एक परम आशा से
भरा होता, कि
यह विध्वंस
निर्माण के
मार्ग पर है, कि यह
मिटाना बनाने
की तैयारी है।
जैसे
हम एक पुराने
मकान को
गिराते हैं तो
भी हम
प्रफुल्लित
होते हैं, क्योंकि
नए मकान को
बनाने के लिए
जगह तैयार कर
रहे हैं। जब
तुम पुराने
मकान को
गिराने लगते
हो, तो तुम
रोते थोड़े ही
हो! तुम
प्रसन्न होते
हो कि चलो घड़ी
आ गई है, नए
बनाने की
सुविधा हो गई।
कोई दूसरा
तुम्हारे
मकान को आ कर
तोड़ने लगे तो
तुम प्रसन्न न
होओगे, क्योंकि
तुम तब सिर्फ
विध्वंस ही
देखोगे।
दोनों हालतों
में घटना तो
एक ही है—मकान
तोड़ा जा रहा
है। बनने वाली
बात तो भविष्य
की है—बने न
बने। कल आए न
आए, कल
सूरज निकले न
निकले—किसको
पता है? आज
संभावना
दिखती है, कल
संभावना न रह
जाए—किसको पता
है? टूटने
की बात तो
दोनों में एक—सी
है; लेकिन
एक में तुम
दुखी हो, एक
में तुम
प्रसन्न हो; एक में
तुम्हारा
हृदय उत्साह
से भरा है, एक
में तुम
मुर्दे की तरह
खड़े हो। सब
निर्भर करता
है इस बात पर
कि विध्वंस
सृजन के लिए
हो रहा है या
सिर्फ विध्वंस
के लिए हो रहा
है।
गुरु
के पास बहुत
कुछ टूटेगा; बहुत
कुछ क्या, सब
कुछ टूटेगा।
तुम फिर से
बिखेर कर बनाए
जाओगे, तुम्हें
खंड—खंड किया
जाएगा, ताकि
फिर से
तुम्हारे
संगीत को
जमाया जा सके।
तुम्हारी
वीणा
अस्तव्यस्त
है, तार
उल्टे—सीधे
कसे हैं।
इसलिए जहा
संगीत पैदा
होना चाहिए, वहां केवल
संताप पैदा हो
रहा है; जहां
आनंद का जन्म
हो, वहां
सिर्फ नर्क
निर्मित हो
रहा है।
तुम्हारी दशा
अति विकृत है।
सोने में बहुत
मिट्टी मिल गई
है, बहुत
कूड़ा—कर्कट
मिल गया है।
जन्मों—जन्मों
तक सोना
मिट्टी, कूड़ा—कर्कट
में पड़ा रहा
है। आग से गुजारना
पड़ेगा। आग में
वही जल जाएगा,
जो तुम नहीं
हो; वही
बचेगा, जो
तुम हों—शुद्ध
कुंदन, शुद्ध
स्वर्ण हो कर
तुम निकलोगे।
लेकिन आग से
गुजरना पीड़ा
तो है ही।
जख्मे—जिगर
जो मुंदमिल गम
में नहीं हुआ, न
हो
दर्द
की इंतिहा को
तू शौक की इब्तदा
समझ।
घाव
एकदम से न भरे, न
भरे..।
जख्मे—जिगर
जो मुंदमिल गम
में नहीं हुआ, न
हो
जख्म
एकदम से न भरे, न
भरे। घाव
तन्धण भर भी
नहीं सकता।
दर्द
की इंतिहा को
तू शौक की इब्तदा
समझ।
और
पीड़ा की चरम
सीमा भी आ जाए, तो
तू यह याद
रखना कि पीड़ा
की चरम सीमा
प्रेम की
शुरुआत है।
दर्द
की इंतिहा को
तू शौक की
इब्तदा समझ।
साधारणत:
हम सब सुख के
आकांक्षी हैं, दुख
से भयभीत, सुख
के लिए आतुर।
मिलता दुख ही
है, आतुरता
आतुरता ही रह
जाती है, प्यास
प्यास ही रह
जाती है, तृप्ति
होती कहां? सुख तो केवल
उनको मिलता है
जो दुख से
गुजरने के लिए
राजी हो जाते
हैं। इस दुख
से गुजरने का
नाम ही
तपश्चर्या है।
गुरु
के पास होना, मैंने
कहा, मृत्यु
के पास होना
है—तपश्चर्या
है। तुम्हें
निखारा जाएगा।
तुम्हें
उघाड़ा जाएगा।
तुम्हें
मिटाया जाएगा।
तुम्हें
पोंछा जाएगा।
तुम्हारे
भीतर छुपी हुई
संभावनाओं को चेताया
जाएगा, चुनौती
दी जाएगी। श्रम
होगा, तप
होगा—तभी तुम
उसे पा सकोगे,
जिसे पाए
बिना जीवन में
कभी शांति
नहीं। तभी तुम
उसे पा सकोगे,
जिसे पा कर
फिर पाने की
और कोई दौड़
नहीं रह जाती।
गुरु
तुम्हें राह
थोड़े ही
दिखाता है
सिर्फ। राह
दिखाने की बात
होती तो बड़ा
सरल हो जाता
मामला। इतना
ही थोड़े ही है
कि तुमसे कह
दिया, ऐसा कर
लो। वस्तुत:
तो जो गुरु
तुम्हें
सिर्फ राह
दिखाता रहे कि
ऐसा कर लो, वह
बातचीत कर रहा
है। गुरु
तुम्हें
करवाता है।
राह दिखाता
नहीं; राह
पर धक्के देता
है। राह पर
चलाता भी है।
तुम अपने से
चल भी न पाओगे।
तुम जड़ हो गए
हो। पक्षाघात
तुम्हारे
अंगों में समा
गया है। तुमसे
लाख बार कहा
गया है कि यह
है राह, चलो।
तुमने सुन भी
लिया, तुमने
समझ भी लिया—चले
तुम कभी नहीं।
संत
अगस्तीन ने
कहा है कि जो
मुझे करना
चाहिए, वह
मुझे मालूम है;
लेकिन वह
मैं करता नहीं।
और जो मुझे
नहीं करना
चाहिए, वह
भी मुझे मालूम
है; लेकिन
वही मैं करता
हूं।
तुम्हें
भी मालूम है, क्या
ठीक है; अब
राह क्या
बतानी? ऐसा
आदमी तुम पा
सकते हो जिसको
पता नहीं कि
ठीक क्या है? सबको पता है।
सबको पता है.
सही क्या, गलत
क्या? लेकिन
इससे क्या
होता है? राह
बताने से क्या
होता है? कोई
चाहिए जो
तुम्हें चलाए।
मंजिले—राहे—इश्क
की उसको कोई
खबर नहीं,
मंजिले—राहे—इश्क
की उसको कोई
खबर नहीं,
राह
दिखाए जो तुझे, उसको
न रहनुमा समझ।
वह
जो ऐसा दूर
खड़े हो कर राह
बता दे, उसको
रहनुमा मत समझ
लेना। रहनुमा
तो तुम्हारे
साथ चलेगा, तुम्हारे
आगे, तुम्हारे
पीछे, तुम्हारे
पूरब, तुम्हारे
पश्चिम।
रहनुमा तो
तुम्हें
घसीटेगा।
रहनुमा तो
तुम्हें
धकाएगा।
रहनुमा तो
तुम्हें
दौड़ाएगा।
रहनुमा तो
वहां तक आएगा,
जहां तुम हो
और वहां तक ले
जाएगा, जहां
तुम्हें होना
चाहिए।
रहनुमा तो ऐसा
है जैसे कि
कोई बाप अपने
बेटे का हाथ
पकड़ कर चलता
हो।
मंजिले—राहे—इश्क
की उसको कोई
खबर नहीं,
राह
दिखाए जो तुझे—उसको
न रहनुमा समझ।
राह
ही दिखाना
होता तो मील
के पत्थर पर
लगे तीर के
निशान बता
देते हैं, आदमियों
की जरूरत है? राह ही
दिखाना हो तो
शास्त्र दिखा
देते हैं; शास्ता
की जरूरत है? फिर शास्त्र
और शास्ता में
फर्क क्या
रहेगा? फिर
गीता और कृष्ण
में फर्क क्या
रहेगा, अगर
राह ही दिखानी
हो?
कृष्ण
ने अर्जुन को
राह ही थोड़े
दिखाई। बड़ा
संघर्ष किया।
अर्जुन को
खींच—खींच कर
निकाला बाहर
उसके
अंधियारे से, जगाया
उसकी नींद से,
हिलाया—डुलाया।
कई तरफ अर्जुन
ने भागने की
कोशिश की, सब
तरफ से द्वार—दरवाजे
बंद किए, भागने
न दिया। खूब
प्रश्न उठाए,
खूब संदेह
किए—उन सबकी
तृप्ति की।
अंततः ऐसी
हालत में ला
दिया, जहा
सिवाय कृष्ण
को मानने के
और कृष्ण के
साथ चलने के
कोई उपाय न
रहा।
क्षण
होंगे निराशा
के,
क्षण होंगे
दुख—पीड़ा के।
और
'विष्णु
चैतन्य' ऐसे
ही क्षणों में
से गुजर रहा
है—डांवाडोल,
दुविधा से
भरा! मगर
घबड़ाने
की
कोई बात नहीं, सभी
को ऐसे ही
गुजरना पड़ता
है।
स्वाभाविक है।
इसमें विशेष
कुछ भी नहीं।
सभी डांवाडोल
होते हैं। सभी
पहले हजार तरह
की चिंताओं
में, शंकाओं
में, संदेहों
में भरते हैं।
धीरे—धीरे, धीरे—धीरे
निखार आता है।
यह
दर्द विराट
जिंदगी में
होगा परिणत
है
तुम्हें
निराशा, फिर
तुम पाओगे
ताकत
उन
अंगुलियों के
आगे कर दो
माथा नत
जिनके
छू लेने भर से,
फूल
सितारे बन
जाते हैं
ये मन
के छाले,
ओ
मेंजो की
कोरों पर
माथा
रख कर रोने
वाले
हर एक
दर्द को, नए
अर्थ तक जाने
दो।
हर एक
दर्द को, नए
अर्थ तक जाने
दो!
दर्द, दर्द
ही नहीं है—दर्द
नए अर्थ की
शुरुआत है।
जैसे किसी
स्त्री को
बच्चा पैदा
होता है तो बड़ी
प्रसव की पीड़ा
होती। वह
प्रसव की पीड़ा
से घबड़ा जाए...।
अभी
दो—चार साल
पहले
इंग्लैंड में
एक बहुत बड़ा
मुकदमा चला।
एक फार्मेसी
ने,
एक दवाइयों
को बनाने वाले
कारखाने ने एक
दवा ईजाद की—शामक
दवा, जो
प्रसव की पीड़ा
को दूर कर
देती है।
स्त्रियां
उसे ले लें तो
प्रसव की पीड़ा
नहीं होती, बच्चा पैदा
हो जाता है।
लेकिन उसके
बड़े घातक
परिणाम हुए।
बच्चे पैदा
हुए—अपंग, अंधे,
लंगड़े, लूले।
सैकड़ों लोगों
ने प्रयोग
किया और अब
सैकड़ों मुकदमे
चल रहे हैं उस
फार्मेसी पर,
कि
उन्होंने
उनके बच्चों
की हालत खराब
कर दी। मां को
तो पीड़ा नहीं
हुई, लेकिन
जिस जहर ने
मां की पीड़ा
छीन ली, उस
जहर ने बच्चे
को विकृत कर
दिया।
वह
जिसको हम
प्रसव की पीड़ा
कहते हैं, वह
स्वाभाविक है,
वह आवश्यक
है, वह
होनी ही चाहिए।
उसको रोकना
खतरनाक है।
जापान
अकेला
राष्ट्र है, जिसने
कानून बनाया
है कि प्रसव—पीड़ा
को रोकने के
लिए कोई दवा
ईजाद नहीं की
जा सकती। बड़ी
समझदारी की
बात है। सिर्फ
अकेला
राष्ट्र है
सारी दुनिया
में। क्योंकि
प्रसव—पीड़ा
बच्चे के जीवन
की शुरुआत है।
मां को ही
पीड़ा होती है,
ऐसा नहीं है,
बच्चे को भी
पीड़ा होती है।
लेकिन उस पीड़ा
से ही कुछ
निर्मित होता
है।
मैंने
सुना है, एक
किसान
परमात्मा से
बहुत परेशान
हो गया। कभी
ज्यादा वर्षा
हो जाए कभी
ओले गिर जाएं,
कभी पाला पड़
जाए कभी वर्षा
न हो, कभी
धूप हो जाए
फसलें खराब
होती चली जाएं,
कभी बाढ़ आ
जाए और कभी
सूखा पड़ जाए।
आखिर उसने कहा
कि सुनो जी, तुम्हें कुछ
किसानी की
अक्ल नहीं, हमसे पूछो!
परमात्मा कुछ
मौज में रहा
होगा उस दिन।
उसने कहा, अच्छा,
तुम्हारा
क्या खयाल है?
उसने कहा कि
एक साल मुझे
मौका दो, जैसा
मैं चाहूं
वैसा मौसम हो।
देखो, कैसा
दुनिया को सुख
से भर दूं धन—धान्य
से भर दूं!
परमात्मा
ने कहा, ठीक
है, एक साल
तेरी मर्जी
होगी, मैं
दूर रहूंगा।
स्वभावत:
किसान को
जानकारी थी।
काश, जानकारी
ही सब कुछ
होती! किसान
ने जब धूप
चाही तब धूप
मिली, जब
जल चाहा तब जल
मिला, बूंद
भर कम—ज्यादा
नहीं, जितना
चाहा उतना
मिला। कभी धूप,
कभी छाया, कभी जल—ऐसा
किसान मांगता
रहा और बड़ा
प्रसन्न होता
रहा; क्योंकि
गेहूं की
बालें आदमी के
ऊपर उठने लगीं।
ऐसी तो फसल
कभी न हुई थी।
कहने लगा, अब
पता चलेगा
परमात्मा को!
न मालूम कितने
जमाने से
आदमियों को
नाहक परेशान
करते रहे।
किसी भी किसान
से पूछ लेते, हल हो जाता
मामला। अब पता
चलेगा।
गेहूं
की बालें ऐसी
हो गईं, जैसे
बड़े—बड़े वृक्ष
हों। खूब
गेहूं लगे।
किसान बड़ा
प्रसन्न था।
लेकिन जब फसल
काटी, तो
छाती पर हाथ
रख कर बैठ गया।
गेहूं भीतर थे
ही नहीं, बालें
ही बालें थीं।
भीतर सब खाली
था। वह तो
चिल्लाया कि
हे परमात्मा,
यह क्या हुआ?
परमात्मा
ने कहा, अब
तू ही सोच।
क्योंकि
संघर्ष का तो
तूने कोई मौका
ही न दिया।
ओले तूने कभी
मांगे ही नहीं।
तूफान कभी
तुमने उठने न
दिया। आधी कभी
तूने चाही
नहीं। तो आधी,
अंधड़, तूफान,
गड़गड़ाहट
बादलों की, बिजलियों की
चमचमाहट. तो
इनके प्राण
संगृहीत न हो
सके। ये बड़े
तो हो गए
लेकिन पोचे
हैं।
संघर्ष
आदमी को
केंद्र देता
है। नहीं तो
आदमी पोचा रह
जाता है।
इसलिए तो
धनपतियों के
बेटे पोचे
मालूम होते हैं।
जब धूप चाही
धूप मिल गई, जब
पानी चाहा
पानी; न
कोई अंधड़, न
कोई तूफान।
तुम धनपतियों
के घर में कभी
बहुत
प्रतिभाशाली
लोगों को पैदा
होते न देखोगे—पोचे!
गेहूं की बाल
ही बाल होती
है, गेहूं
भीतर होता
नहीं। थोड़ा
संघर्ष चाहिए।
थोड़ी चुनौती
चाहिए।
जब
तूफान हिलाते
हैं और वृक्ष
अपने बल से
खड़ा रहता है, बड़े
तूफानों को
हरा कर खड़ा
रहता है, आंधिया
आती हैं, गिराती
हैं और फिर
गेहूं की बाल
फिर—फिर खड़ी
हो जाती है तो
बल पैदा होता संघर्षण
से ऊर्जा
निर्मित होती
है। अगर
संघर्षण
बिलकुल न हो, तो ऊर्जा
सुप्त की
सुप्त रह जाती
प्रसव—पीड़ा
मां के लिए ही
पीड़ा नहीं है, बेटे
के लिए भी
पीड़ा है।
लेकिन पीड़ा से
जीवन की
शुरुआत है—और
शुभ है। नहीं
तो पोचा रह
जाएगा बच्चा।
उसमें बल न
होगा। और अगर
बिना पीड़ा के
बच्चा हो
जाएगा, तो
मां के भीतर
जो बच्चे के
लिए प्रेम
पैदा होना
चाहिए, वह
भी पैदा न
होगा।
क्योंकि जब हम
किसी चीज को
बहुत पीड़ा से
पाते हैं, तो
उसमें हमारा
एक राग बनता
है। तुम सोचो,
हिलेरी जब
चढ़ कर पहुंचा
हिमालय पर तो
उसे जो मजा
आया, वह
तुम
हेलिकॉप्टर
से जा कर उतर
जाओ, तो
थोड़े ही आएगा।
उसमें सार ही
क्या है? हेलिकॉप्टर
भी उतार दे
सकता है, क्या
अड़चन है? मगर
तब, तब बात
खो गई। तुमने
श्रम न किया, तुमने पीड़ा
न उठाई, तो
तुम पुरस्कार
कैसे पाओगे?
यही
गणित बहुत—से
लोगों के जीवन
को खराब किए
है। मंजिल से
भी ज्यादा
मूल्यवान
मार्ग है। अगर
तुम मंजिल पर
तत्क्षण
पहुंचा दिए
जाओ तो आनंद न
घटेगा। वह
मार्ग का
संघर्षण, वे
मार्ग की
पीड़ाएं, वे
इतंजारी के दिन,
वे
प्रतीक्षा की
रातें, वे आंसू
वह सब
सम्मिलित है—तब
कहीं अंततः
आनंद घटता है
हर एक
दर्द को, नए
अर्थ तक जाने
दो!
तो
विष्णु
चैतन्य! दर्द
है,
मुझे पता है।
आने में भी
तुम मेरे पास
डरते हो, वह
भी मुझे पता
है। घबड़ाओ मत,
आओ! अपने को
बाहर छोड़ कर
आओ। बैठो मेरे
पास एक शून्य,
कोरी किताब
की तरह, ताकि
मैं कुछ लिख
सकूं तुम पर।
लिखे—लिखाए मत
आओ, गुदे—गुदाए
मत आओ; अन्यथा
मैं क्या
लिखूंगा? तुम
मुझे लिखने का
थोड़ा मौका दो।
खाली आओ ताकि
मैं तुममें
उंडेलूं अपने
को और भर दूं
तुम्हें।
शास्त्रों से
भरे मत आओ।
शास्त्र तो
मैं तुम्हारे
भीतर पैदा
करने को तैयार
हूं। तुम्हें
शास्त्र ले कर
आने की जरूरत
नहीं। तुम
सिद्धातों और
तर्कों के जाल
में मत पड़ो।
तुम
आओ चुप, तुम
आओ
हृदयपूर्वक, भाव से भरे।
मुझे एक मौका
दो, ताकि
तुम्हें
निखारूं, तुम्हारी
प्रतिमा गढूं।
दूसरा
प्रश्न :
मैं
तो लाख यतन कर
हारयो, अरे
ही, रामरतन
धन पायो।
पूछा
है ‘अजीत सरस्वती’ ने। ऐसा ही
आदमी का यत्न
कुछ काम नहीं
आता। अंतत: तो
प्रभु—कृपा ही
काम आती है।
मगर प्रभु—कृपा
उन्हें मिलती
है जो यत्न
करते हैं। अब
जरा झंझट हुई,
विरोधाभास
हुआ।
समझने
की कोशिश है
जो हैं। लेकिन
प्रभु कृपा को
वे ही मिलता
है जो प्रभु—कृपा
प्रयत्न से
मिलती है। फिर
प्रभु—कृपा से
प्रभु मिलता
है।
तो
दुनिया में दो
तरह के लोग
हैं। एक तो
हैं वे, जो
कहते हैं हम
अपने प्रयत्न
से ही पा कर
रहेंगे, हम
तुझसे प्रसाद
नहीं मांगते—यें
बड़े अहंकारी
लोग हैं। ये
कहते हैं, हम
तो खुद ही पा
कर रहेंगे, हम मागेंगे
नहीं। हम
मांगने वालों
में नहीं। हम
भिखमंगे नहीं
हैं। हम तो
छीन—झपट कर
लेंगे। ये तो
ईश्वर पर
आक्रमण करने
वाले लोग हैं।
ये तो बैंड—बाजा
ले कर और
मशालें ले कर
और हमला करते
हैं। ये तो
छुरे—भाले ले
कर ईश्वर पर
जाते हैं। ये तो
आक्रमक हैं।
इनको प्रभु
कभी नहीं
मिलता। और जब
इनको नहीं
मिलता, तो
ये कहते हैं :
प्रभु है नहीं;
होता तो
मिलना चाहिए
था। यही तो
विज्ञान की
चेष्टा है।
विज्ञान
आक्रमक है, बलात्कारी
है; जबर्दस्ती
जीवन के रहस्य
को खोल देना
चाहता है।
जैसे कोई किसी
फूल की कली को
जबर्दस्ती
खोल दे; सब
खो जाता है उस
जबर्दस्ती
खोलने में; फूल का
सौंदर्य ही
नष्ट हो जाता
है।
यह
जीवन का रहस्य
जब अपने से
खुलता है—जब
तुम
प्रतीक्षा
करते हो मौन, प्रार्थना
करते हो, शांत—
भाव से बैठते
हो, और
प्रभु को एक
मौका देते हो
कि खुले! तुम
जल्दबाजी
नहीं करते, तुम आग्रह
नहीं करते।
तुम कहते नहीं
कि बहुत देर
हो गई, मैं
कितना यत्न कर
चुका, अब
खुलो! तुम कोई
शर्त नहीं
बांधते, तुम
कोई सौदा नहीं
करते। तुम
कहते हो, जब
तुम्हारी
मर्जी हो, खुलना—मैं
राजी हूं मैं
तैयार हूं।
तुम मुझे
पाओगे मौजूद।
इस जन्म में
तो इस जन्म; अगले जन्म
में तो अगले
जन्म में; जल्दी
मुझे कुछ नहीं
है।
तो
एक तो लोग हैं, जो
आक्रमण करते
हैं, वे तो
कभी नहीं पाते।
फिर दूसरी ओर
अति पर दूसरे
लोग हैं, वे
कहते हैं : जब
प्रयत्न से
मिलता ही नहीं
तो क्या करना;
जब मिलेगा
मिल जाएगा।
कुछ करते ही
नहीं। वे खाली
बैठे रहते हैं।
वे प्रतीक्षा
तक नहीं करते।
वे कहते हैं :
जब करने से
कुछ होता ही
नहीं, भाग्य
का मामला है, जब होना
होगा, होगा;
जब उसकी
कृपा होगी, होगी। उसकी
बिना आज्ञा के
तो पत्ता भी
नहीं हिलता, वे कहते हैं।
ये
दोनों ही
नासमझ हैं। एक
से अति
सक्रियता
पैदा होती है, जो
कि रुग्ण और
बुखार हो जाती
है और
विक्षिप्तता
हो जाती है; और एक से अति
अकर्मण्यता
पैदा होती है,
जिससे
सुस्ती और
आलस्य और तमस
घिर जाता है।
दोनों के मध्य
में मार्ग है।
प्रयत्न भी
करना होगा और
प्रसाद
मांगना होगा। 'मैं तो लाख
यतन कर हारयो।'
मगर
जल्दी मत हार
जाना, लाख यतन
कर हारना। कछ
लोग ऐसे हैं
कि यतन तो
करते नहीं
बैठे हैं; तो
हारे ही नहीं।
लाख यतन कर
लेना। जो तुम
कर सको, पूरा
कर लेना। मगर
अगर तुम्हारे,
करने से न
मिले तो घबड़ा
कर यह मत कहने
लगना कि है ही
नहीं। वहीं तो
ठीक मौका आ
रहा था, जब
मिलने की घड़ी
आ रही थी, उससे
चूक मत जाना।
जब तुम सब
प्रयत्न कर
चुको और हार
जाओ... हारे को हरिनाम.
फिर तुम
हरिनाम लेना।
उस परम हार
में परम विजय
फलित होगी।
'मैं
तो लाख यतन कर
हारयो
अरे हा
रामरतन धन
पायो।'
बस
तुम,
हारे कि
रामरतन धन
मिला। इधर
हारे, उधर
मिला।
क्योंकि इधर
तुम हारे कि
तुम मिटे। तुम
मिटे कि
परमात्मा
बरसा।
तुम्हारी
मिटने की ही
देर थी। लेकिन
बिना यत्न किए
तुम मिट न
सकोगे।
यह
विरोधाभासी
लगता है।
इसलिए मेरे
वक्तव्य
विरोधाभासी
लगते हैं, पैराडॉक्सिकल
लगते हैं। ऐसा
ही समझो कि
कोई आदमी मेरे
पास आता है। वह
कहता है: रात मुझे
नींद नहीं आती, अनिद्रा से
परेशान हूं।
दवाइयां भी
काम नही देती,
अब मै कहता
हूं तुम ऐसा
करो कि शाम को
एक पांच—छह
मील का चक्कर
लगाओ। वह कहता
है, आप
क्या कह रहे
हैं? ऐसे
ही तो नींद
नहीं आती, और
चार—पांच मील
का चक्कर
लगाऊंगा, तो
फिर तो रात भर
नींद न आएगी।
मैं
उसे कहता हूं, चार—पांच
मील का चक्कर
लगाओ। नींद के
लिए जो सबसे जरूरी
बात है, वह
है हार जाना, थक जाना।
आज
बहुत—से लोग
अनिद्रा से
पीड़ित हैं—पूरब
में कम, पश्चिम
में बहुत
ज्यादा।
लेकिन जल्दी ही
पूरब में भी
हो जाएंगे, क्योंकि
पूरब में भी
विज्ञान
फैलेगा, सुख—संपत्ति
बढ़ेगी, दारिद्रध
कम होगा, काम
कम होगा।
पश्चिम में छह
दिन का सप्ताह
था, फिर
पांच दिन का
हो गया, अब
चार दिन के
होने की नौबत
है। काम मशीन
करने लगी है, आदमी के हाथ
से काम सब
जाने लगा है।
जब काम बिलकुल
न बचे तो
विश्राम की
जरूरत ही पैदा
नहीं होती।
विश्राम की
जरूरत तो तभी
पैदा होती है
जब अथक श्रम
किया गया हो।
तो फिर
विश्राम की
जरूरत पैदा
होती है।
विश्राम
एक जरूरत है।
तुम खा—पी कर
बैठे हो
चुपचाप, कुछ
करते—वरते
नहीं, तो
भूख कैसे
लगेगी? अब
तुम पाचक
दवाइयां ले
रहे हो, फिर
ऐपेटाईजर ले
रहे हो कि भूख
लग जाए किसी तरह—और
असली बात कर
ही नहीं रहे
कि तुम वैसे
ही बैठे हो, कुछ हिलो—डुलो,
चलो—फिरो, भोजन पचे।
शरीर में श्रम
हो तो भूख लगे,
श्रम हो तो
विश्राम की
जरूरत पैदा
होती है। जो
आदमी दिन भर
श्रम करता है,
रात मजे से
सो जाता है।
सम्राटों
को भरोसा ही
नहीं आता, जब
वे भिखमंगों
को सड़क पर
सोया देखते
हैं; यह
बड़ा चमत्कार
मालूम होता है।
क्योंकि वे
अपने सुंदरतम
गद्दों में, वातानुकूलित
स्थानों में,
सब तरह की
सुख—सुविधा के
बीच भी रात भर
करवटें बदलते
हैं। और एक
सज्जन हैं कि
वे सड़क के
किनारे पड़े
हैं; न कोई
तकिया है न
कोई बिस्तर है,
झाड़ के नीचे
पड़े हैं, झाड़
की जड़ को ही
उन्होंने
अपना तकिया
बना लिया है, और ऐसे सो
रहे हैं, घुर्रा
रहे हैं! भर—दुपहरी
में पूरा
रास्ता चल रहा
है और तुम्हें
राह के किनारे
भिखमंगे सोए
मिल जाएंगे।
स्टेशन पर
पोर्टर सोया
हुआ मिल जाएगा।
ट्रेनें आ रही
हैं, जा
रही हैं और वह
मजे से
प्लेटफार्म
पर सोया हुआ
है।
तो
कुछ हैं कि
सारी सुविधा
जुटा ली है और
नींद नहीं आती।
उनको लगता है
बड़ा अजीब—सा
मामला है। कुछ
भी अजीब नहीं; जीवन
का गणित समझ
में नहीं आया।
विश्राम
के लिए श्रम
चाहिए। जीत के
लिए हार चाहिए।
प्रसाद के लिए
प्रयत्न
चाहिए। तो तुम
अपनी तरफ से, तो
जब लाख यतन कर
लोगे, तभी
वह घड़ी आती है
जहां तुम कहते
हो. 'अब
मेरे किए कुछ
भी नहीं होता
प्रभु! अब मैं
जो कर सकता था,
कर चुका। ' लेकिन तुम
हकदार तभी हो,
जब तुम कह
सको कि 'जो
मैं कर सकता
था, कर
चुका, मैंने
कुछ उठा न
छोड़ा। ऐसी कोई
बात मैंने
नहीं छोड़ी है
जो मैं कर
सकता था, और
मैंने न की हो।
अब मेरे किए
नहीं होता, अब तुम
सम्हालो। 'तो
तत्क्षण
सम्हाल लिए
जाते हो।
'अरे ही, रामरतन
धन पायो। '
ऐसी
घटना घटती है—
रहे—शौक
से अब हटा
चाहता हूं
कशिश
हुस्न की
देखना चाहता
हूं।
—अब मैं इश्क
के मार्ग से हटना
चाहता हूं और
देखना चाहता
हूं कि
सौंदर्य का
आकर्षण कितना
है?
रहे—शौक
से अब हटा
चाहता हूं
—अब मैं
प्रेम के
मार्ग से हटता
हूं।
कशिश
हुस्न की
देखना चाहता
हूं।
—अब मैं
देखना चाहता
हूं कि
परमात्मा का
आकर्षण कितना
है? मैं हट—
और तुम खींचो!
अब तक मैं
खिंचता था, तुम्हारा
पता न चलता था।
अभी तक मैं
दौड़ता था और
तुम मिलते न
थे, अब मैं
रुकता हूं।
रहे—शौक
से अब हटा
चाहता हूं
कशिश
हुस्न की
देखना चाहता
हूं।
अब
तुम्हीं पर
छोड़ता हूं। अब
देखें। अब तुम
मुझे ढूंढो।
मैंने बहुत
ढूंढा। सब
मैंने उपाय कर
लिए। अब तुम
मुझे ढूंढो!
'अरे
ही रामरतन धन
पायो। '
और
जिस दिन तुम
हार कर बैठ
जाते हो, अचानक
तुम पाते हो
वह सामने खड़ा
है। वह सदा से
खड़ा था। तुम
अपने खोजने की
धुन में लगे
थे। तुम्हारी
धुन इतनी
ज्यादा थी कि
उसे देख न पाते
थे। तुम्हारी
धुन के कारण
ही अवरोध पड़
रहा था।
इसलिए
तो अष्टावक्र
कहते हैं, अनुष्ठान
बाधा है।
लेकिन इससे
तुम यह मत समझ
लेना कि
अनुष्ठान करना
नहीं है।
अनुष्ठान तो
करना ही होगा,
लाख जतन तो
करने ही होंगे।
जब तुम लाख
जतन करके हार
जाते हो, तो
उसका एक जतन
पर्याप्त हो
जाता है उसकी
तरफ से। मगर
तुमने अर्जित
कर लिया, तुम
प्रसाद के
योग्य हुए।
तुम मुफ्त में
नहीं पाते
परमात्मा को,
तुमने अपने
जीवन को
समर्पित किया।
तुमने सब तरह
से अपने जीवन
को यज्ञ बनाया।
जब
कपोल गुलाब पर
शिशु प्रात के
सूखते
नक्षत्र जल के
बिंदु से
रश्मियों
की कनक—धारा
में नहा
मुकुल
हंसते
मोतियों का
अर्ध्य दे
विहग
शावक से जिस
दिन मूक
पड़े थे
स्वप्न नीड़
में प्राण
अपरिचित
थी विस्म०त की
रात
देखा
था स्वर्ण
बन तुम
आए चुपचाप
सिखाने
अपने मधुमय
गान
अचानक
दी वे पलकें
खोल
हृदय
में बेध व्यथा
का बाण
हुए
फिर पल में
अंतरधान।
ऐसा
बहुत बार होगा।
तुम्हारे
प्रयत्नों से तुम
हारोगे। क्षण
भर को हार कर
तुम बैठोगे।
अचानक किरण
उतरेगी।
अचानक नहा
जाओगे उस किरण
में। अचानक
गीत तुम्हें
घेर लेगा।
अचानक तुम
पाओगे किसी और
लोक में पहुंच
गए। अचानक तुम
पाओगे, लग गए
पख, उड़ने
लगे आकाश में,
पृथ्वी के न
रहे, आकाश
के हो गए। फिर
वापिस, फिर
पाओगे वहीं के
वहीं।
बन तुम
आए चुपचाप
सिखाने
अपने मधुमय
गान
अचानक
दी वे पलकें
खोल
हृदय
में बेध व्यथा
का बाण
हुए
फिर पल में
अंतरधान।
नींद
में सपना बन
अज्ञात
गुदगुदा
जाते हो जब
प्राण
ज्ञात
होता हंसने का
मर्म
तभी तो
पाती हूं यह
जान :
प्रथम
छ कर किरणों की
छाह
मुस्कूराताँ
कलियां क्यों
प्रात?
समीरण
का छ—कर चल
लौटते क्यों
हंस—हंस कर पात
एक
बार तुम्हें
प्रभु का
संस्पर्श हो
जाए,
तो तुम भी
समझ पाओगे कि :
नींद
में सपना बन अशांत
गुदगुदा
जाते हो जब
प्राण
शांत होता
हंसने का मर्म
तभी तो
पाती हूं यह
जान :
प्रथम
छ कर किरणों
की छाह
मुस्कूरातीं
कलियां क्यों
प्रात?
सुबह, सूरज
की किरण को छूकर
फूल क्यों मुस्कूराने
लगते हैं? क्यों
अचानक सारी पृथ्वी
एक नए आलोक, एक नई ऊर्जा,
एक नए
प्रवाह से भर
जाती है जीवन
के? क्यों
सब तरफ जागरण
छा जाता है?
प्रथम
छ कर किरणों
की छाह
मुस्कूरातीं
कलियां क्यों
प्रात?
समीरण
का छू कर चल
छोर
लौटते
क्यों हंस—हंस
कर पात
और
जब पत्तों से
खेलने लगता
समीरण, तो
पत्ते क्यों
मुस्कूराने
लगते हैं, क्यों
प्रसन्न होने
लगते हैं?
जब
प्रभु की किरण
तुम्हे छुएगी, तभी
तुम जान पाओगे
यह न प्रकृति में
जो उत्सव चल रहा
है, क्या
है; यह चारों
तरफ जो
महोत्सव
तुम्हें घेरे
है, यह क्या
है? यह
अहर्निश ओंकार
का नाद हो रहा है
चारों तरफ, तुम्हें तभी
सुनाई पड़ेगा।
लेकिन
उसके पहले
श्रम तो करना है, लाख
जतन तो करने है।
यत्न तुम करो,
प्रभु प्रतीक्षा
करता है। जैसे
ही तुम्हारे यत्न
का पात्र पूरा
हो जाता, प्रसाद
बरसता है।
प्रसाद
को मुफ्त में
मत मांगना।
अपनी आहुति
देनी होती है।
अपनी आहुति दे
कर मांगोगे तो
ही मिलेगा। और
कुछ देने से न
चलेगा।
आदमी
ने खूब
तरकीबें
निकाली हैं।
फूल तोड़ लेता
वृक्षों के, मंदिर
में चढ़ा आता—किसको
धोखा देते हो?
फूल चढ़े ही
थे परमात्मा
को वृक्षों पर,
तुमने
उन्हें जुदा
कर दिया। फूल
ज्यादा जीवित
थे वृक्षों पर,
ज्यादा
परमात्मा के
साथ
अठखेलियां कर
रहे थे, तुमने
उन्हें मार
डाला। तुम मरे
इन फूलों को, मरी एक
प्रतिमा के
सामने रख आए—और
सोचे कि फूल
चढ़ा आए? सोचे
कि अर्ध्य हुआ?
सोचे कि
अर्चना पूरी
हुई? प्रार्थना
पूरी हुई? जला
आए एक मिट्टी
का दीया और
सोचे कि रोशनी
हो गई? इतना सस्ता
काम नहीं।
जलाना होगा
दीया भीतर
प्राणों का और
चढ़ाना होगा
फूल—अपने ही
परम चैतन्य के
विकास का!
अपना ही सहस्रार,
अपना ही
सहस्र दलों
वाला कमल जिस
दिन तुम चढ़ा
आओगे—उस दिन!
यह सिर अपना
ही चढ़ाना
होगा!
आदमी
खूब चालाक है!
उसने नारियल
निकाल लिया है।
नारियल आदमी
जैसा लगता है, सिर
जैसा। इसलिए
तो उसको खोपड़ा
कहते हैं।
खोपड़ी! उसमें
दो आंखें भी
होती हैं, दाढ़ी—स्व
सब उसमें होते
हैं। नारियल
चढ़ा आए।
सिंदूर लगा आए।
अपने
रक्त की जगह
सिंदूर लगा आए? अपने
सिर की जगह
नारियल चढ़ा आए?
अपने
सहस्रार की
जगह और
किन्हीं
फूलों के, वृक्षों
के फूल छीन
लिए—उनको चढ़ा
आए? किसको
धोखा देते हो?
अपने को
चढ़ाना होगा!
और अपने को
चढ़ाने का एक
ही उपाय है
'मैं तो लाख
यतन कर हारयो,
अरे
हां,
रामरतन धन पायो।
'
आखिरी
प्रश्न :
जनक
के जीवन में
एक अपूर्व प्रसंग
है—भूमि से
प्राप्त सीता
और सीता के आसपास
जन्मी
रामलीला का।
कृपा करके रामलीला
को आज हमें
समझाएं।
अष्टावक्र
के संदर्भ में
और उस सबके
संदर्भ में जो
मैं तुमसे कह
रहा हूं उस
कथा का अर्थ
बहुत सीधा—साफ
है। सीता है
पृथ्वी, राम
हैं आकाश। उन
दोनों का मिलन
ही रामलीला है—पृथ्वी
और आकाश का
मिलन। और
रामलीला
प्रत्येक के
भीतर घट रही
है। तुम्हारी
देह सीता है, तुम्हारी
आत्मा, राम।
तुम्हारे
भीतर दोनों का
मिलन हुआ है—पृथ्वी
और आकाश का, मर्त्य का
और अमृत का।
तुम्हारे भीतर
दोनों का मिलन
हुआ है। और उस
सब में जो भी
घट रहा है, सभी
रामलीला है।
राम—कथा
को अपने भीतर
पढ़ो। और जिस
दिन तुम यह
पहचान लोगे कि
तुम न तो राम हो
और न तुम सीता
हो,
तुम तो
रामलीला के
साक्षी हो, द्रष्टा हो—उसी
दिन रामलीला
बंद हो जाती
है। जाना है
सीता और राम के
ऊपर।
रामलीला
लोग देखने
जाते हैं, वहां
क्या खाक
मिलेगा? भीतर
रामलीला चल
रही है, वहीं
बैठ कर देखो—तुम
देखने वाले बन
जाओ। रामलीला
देखने से कहते
हैं बड़ा लाभ
होता, पुण्य
होता। वह
पुण्य, अगर
मेरी बात समझ
में आ जाए, तो
होता है। यह
जो सीता और
राम का मिलन
तुम्हारे
भीतर हुआ है, ये जो
पृथ्वी और
आकाश मिले, यह जो
पदार्थ और
चैतन्य का
मिलन हुआ—इसको
मंच बना लो, यह होने दो।
तुम दर्शक हो
कर बैठ जाओ, तुम द्रष्टा
बन जाओ, तुम
साक्षी हो जाओ।
जैसे ही तुम
साक्षी हुए, तुम लीला के
पार हो गए।
कहीं
और रामलीला
देखने नहीं
जाना है। प्रत्येक
के भीतर
जन्मती है
रामलीला। और
जब तक रामलीला
चलती रहती है, तब
तक संसार चलता
रहता है। जिस
दिन तुम्हारा
साक्षी जाग
जाता है और
रामलीला बंद
हो जाती है, उसी दिन
संसार
तिरोहित हो
जाता है।
बहुत
दिन देख ली
रामलीला; लेकिन
जिस ढंग से
देखी, उसमें
थोड़ी भूल है।
वह भूल ऐसी है
कि तुम
रामलीला
देखते—देखते
यह भूल ही
जाते हो कि
तुम द्रष्टा
हो। यह भी रोज
होता है। तुम
फिल्म देखने
जाते हो, तुम
भूल जाते हो
कि तुम देखने
वाले हो, तुम
फिल्म का अंग
बन जाते हो।
जब
पहली दफा श्री
डायमेंशनल
फिल्म बनी और
लंदन में
दिखाई गई, तो
लोगों को समझ
में आया कि हम
कितने भूल
जाते हैं। तीन
डायमेंशनल जो
फिल्म है, उसमें
तो बिलकुल ऐसा
लगता है जैसे
साक्षात व्यक्ति
आ रहा है। एक
घुड़सवार एक
घोड़े पर दौड़ता
एक भाला लिए
आता है, और
ठीक आ कर
पर्दे पर वह
भाला फेंकता
है। पूरा हाल
झुक गया—आधा
इस तरफ, आधा
उस तरफ—भाले
से बचने के
लिए। एक क्षण
को झूठ सच हो
गया। इस झूठ
के सच हो जाने
का नाम माया
है।
बंगाल
में बड़े
प्रसिद्ध
विचारक हुए
ईश्वरचंद्र
विद्यासागर।
वे रामलीला
देख रहे थे, या
कोई और नाटक
देख रहे थे।
सभी नाटक
रामलीला हैं।
और नाटक में
एक पात्र है, जो एक
स्त्री के साथ
बलात्कार
करने की
चेष्टा कर रहा
है। वह इतनी
बदतमीजी कर
रहा है और वह
इतनी कठोरता कर
रहा है कि
ईश्चरचद्र
विद्यासागर
जो सामने ही
बैठे थे
पंक्ति में, भूल गए कि यह
नाटक है।
निकाल लिया
जूता और चढ़ गए
मंच पर, लगे
पीटने उस
अभिनेता को।
अभिनेता ने
ज्यादा
होशियारी की। वह
हंसने लगा।
उसने जूता
पुरस्कार की
तरह ले कर
अपनी छाती से
लगा लिया।
माइक पर खड़े
हो कर उसने
कहा कि धन्य
मेरे भाग्य, मैंने तो
कभी सोचा नहीं
था कि मैं
इतना कुशल अभिनेता
हो सकता हूं
कि
ईश्वरचंद्र
विद्यासागर
धोखा खा जाएं।
ऐसे ज्ञानी
धोखा खा गए! तो
इस जूते को लौटाऊंगा
नहीं; यह
तो मेरा
पुरस्कार हो
गया; इसको
तो, अब
याददाश्त के
लिए रखूंगा।
और बहुत
प्रमाण—पत्र
मुझे मिले हैं,
मैडल मिले
हैं; मगर
इससे बड़ा कोई
भी नहीं मिला।
ईश्वरचंद्र
बड़े सकुचाए
जैसे ही होश
आया कि यह मैं
कर क्या बैठा
हूं।
ईश्वरचंद्र
जैसा
बुद्धिमान
आदमी खो गया
नाटक में! सभी
बुद्धिमान
ऐसे ही खो गए हैं।
जब
तुम देखते हो
नाटक को, तो
तुम भूल ही
जाते हो कि
तुम द्रष्टा
हो। वह जो चल
रहा है धूप—छाया
का खेल मंच पर,
पर्दे पर, वही सब कुछ
हो जाता है।
ऐसा ही घट रहा
है भीतर। यह
जो रामलीला
तुम्हारे
जीवन में घटी
है—सीता और
राम के मिलन
पर, पृथ्वी
और आकाश के
मिलन पर, इसमें
तुम बिलकुल खो
गए हो, तल्लीन
हो गए हो; तुम
भूल ही गए हो
कि तुम सिर्फ
द्रष्टा हो।
करो याद, जगो
अब। जागते ही
तुम पाओगे कि
पर्दा शून्य
हो गया। न
वहां राम हैं,
न वहा सीता।
खेल समाप्त
हुआ। इस खेल
की समाप्ति को
हम कहते हैं :
मुक्ति, मोक्ष,
निर्वाण!
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