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गुरुवार, 2 जनवरी 2014

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-02)

अज्ञात की पुकार—प्रवचन—दूसरा

दिनांक: 2अक्‍टूबर, 1978;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

प्रश्न-- हर बार यहां आती हूं तो बिना संन्यास लिये चली जाती हूं। संन्यास का भाव तो कई बार मन में उठता है, लेकिन लेने का साहस नहीं जुटा पाती हूं। मैं डर जाती हूं। सोचती हूं : क्या इस मार्ग पर मैं आनंद से चल सकूंगी? या रास्ता आधा छोड्कर वापिस लौट आना पड़ेगा? छोड़ देती हूं संन्यास का भाव तो इस दुनिया में जहा मैं अब तक चल रही हूं चलना निरर्थक मालूम पड़ता है। मैं क्या करूं? मार्ग बताने की अनुकंपा करें।

प्रश्‍नतंत्र, वाममार्ग, अघोरपंथ, नाथपंथ जैसे नामों से लोग क्यों डरते हैं? इन मार्गों के सही विश्लेषण और सम्यक अभ्यास से क्या ऐसी संभावना नहीं है कि लोग फिर नये आयाम से इन्हें समझें और इनकी और उपेक्षा न करें?

प्रश्‍नसमाधि का पहला अनुभव कैसा होता है?

प्रश्‍नप्यारे प्रभु! प्रश्नों के अंबार लगे हैं, उत्तर चुप हैं कौन सहेजे इन काटो को, बगिया चुप है, माली चुप है प्रश्न स्वयं में रहता चुप है, दिनकर चुप है, रातें चुप हैं उठी बदरिया कारी—कारी, लगा अंधेरा बिलकुल घुप है प्रभु, इस स्थिति का निराकरण करने की अनुकंपा करें! प्रार्थना क्या है?


हला प्रश्न--  

हर बार यहां आती हूं तो बिना संन्यास लिये चली जाती हूं। संन्यास का भाव तो कई बार मन में उठता है लेकिन लेने का साहस नहीं जुटा पाती हूं। मैं डर जाती हूं। सोचती हूं : क्या इस मार्ग पर मैं आनंद से चल सकूंगी या रास्ता आधा छोड्कर वापिस लौट आना पड़ेगा? छोड़ देती हूं संन्यास का भाव तो इस दुनिया में जहां मैं अब तक चल रही हूं चलना निरर्थक मालूम पडता है।
मैं क्या करूं? मार्ग बताने की अनुकंपा करें।

चंद्ररेखा! नये का सदा ही भय लगता है। परिचित दुखद भी हो तो भी परिचित है, भय नहीं लगता। शात आनंद न भी दे रहा हो तो भी सुरक्षा मालूम होती है; जाना—माना है। अनजान में उतरना, अपरिचित में उतरना. भय बिलकुल स्वाभाविक है। इसलिए भय की समस्या न बनाओ।
जब भी कोई व्यक्ति किसी नये मार्ग पर कदम बढ़ाता है तो झिझकता है। लेकिन नये पर कदम बढ़ाने से ही जीवन में विकास है। जो पुराने वर्तुल में ही घूमता रहता है, कोल्हू का बैल हो जाता है। सदा विचारणीय यह है कि जिस ढंग से मैं जी रहा हूं उस ढंग से जीने में आनंद उपलब्ध हो रहा है? अगर नहीं हो रहा है उपलब्ध तो जोखिम उठानी चाहिए। नये रास्ते, नयी जीवन की पद्धति, नयी खोज करनी ही होगी। इतना तो तय है कि तुम्हारे पास खोने को कुछ भी नहीं है। पुराने जीवन से आनंद तो मिला नहीं; मिल जाता तो नये की कोई जरूरत भी न थी। पुराना तो व्यर्थ हो गया, एक बात निश्चित है; नया सार्थक भी निकल सकता है, व्यर्थ भी निकल सकता है। मगर नये में कम—से—कम एक संभावना है सार्थक होने की। पुराना तो निचुड़ चुका; उसे तो देख लिया, समझ लिया, जी लिया, नहीं कुछ पाया। जैसे कोई रेत से तेल निचोड़ता रहा हो...। अब कब तक रेत के साथ सिर मारना है?
मैं नहीं कहता कि नये से आनंद मिल ही जायेगा : क्योंकि आनंद मार्ग पर कम निर्भर होता है, मार्गी पर ज्यादा निर्भर होता है; पथ पर कम निर्भर होता है, पथिक पर ज्यादा निर्भर होता है। इसलिए असली बदलाहट पथ की नहीं होती, असली बदलाहट तो पथिक की होती है। मगर पथ की बदलाहट से शुरुआत होती है। तुम बाहर हो, इसलिए बाहर से ही रूपांतरण शुरू करना होगा। बाहर को बदलने की हिम्मत जुटाओ तो भीतर बदलने की हिम्मत भी सघन होगी। और अगर थोड़ी बूंदें पड़ने लगीं आनंद की, तो उमंग और उत्साह से नये का अन्वेषण शुरू हो जायेगा।
मगर एक बात तो तय है कि तुम्हारे पास खोने को कुछ भी नहीं है। इसलिये व्यर्थ चिंता मत लो। मिला क्या है पुराने को पकड़े रखने से? तो खो भी कुछ न जायेगा। और जब खोने को कुछ नहीं है तो डर क्या है? या तो कुछ मिलेगा; ज्यादा से ज्यादा यही होगा कि नये से भी नहीं मिलेगा। तो फिर और नये को खोजेंगे।
हमेशा ध्यान इसका करो कि जिस ढंग से हम जीये हैं, जो हम अब तक सोचे हैं, विचारे हैं, उससे कुछ मिला है या नहीं? विचार उसका करो। भविष्य का विचार मत करो कि क्या मिलेगा क्या नहीं मिलेगा, क्योंकि भविष्य तो अज्ञात है। संन्यास तो अपरिचित है। प्रयोग में उतरने से ही पता चलेगा। स्वाद लोगे तो ही पता चलेगा। स्वाद के पहले कैसे तय करोगे कि स्वादिष्ट है वस्तु या नहीं? किसी पर भरोसा करना होगा—किसी ने, जिसने स्वाद लिया हो।
यहां तुम आती हो चंद्ररेखा। मैंने स्वाद लिया है। मैं तुम्हें कहता हूं : आओ, बढ़ो। और यहां बहुत हैं जो मस्त हो रहे हैं, डूब रहे हैं। उनकी मस्ती और डुबकी देखकर ही तो तुम्हारे मन में भी संन्यास का भाव उठता है, नहीं तो संन्यास का भाव क्यों उठे? तुम्हारा हृदय आंदोलित हो रहा है, सिर्फ तुम्हारा मस्तिष्क बाधा डाल रहा है।
मस्तिष्क सदा ही रूढ़िवादी होता है। हृदय सदा नये के साथ जाने को आतुर होता है, और मस्तिष्क सदा पुराने के साथ बंधा रहने के लिये तैयार..। मस्तिष्क के पास अतीत के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। मस्तिष्क के पास जो भी है, स्मृति की संपदा है। वह सब अतीत है। मस्तिष्क का भविष्य होता ही नहीं। कोई भी चीज मस्तिष्क का हिस्सा बनती है, जब अतीत हो जाती है। जब तुम्हारा अनुभव हो जाता है, तब मस्तिष्क का हिस्सा बनता है। मस्तिष्क जीता है अतीत में, मुर्दा में; इसलिए मस्तिष्क डरता है भविष्य में जाने में, हृदय सदा तैयार है छलांग लेने को।
तुम्हारा हृदय तो उछाह से भरा है। तुम्हारा हृदय तो उठा लेना चाहता है कदम। मस्तिष्क चालाकियां बरत रहा है। मस्तिष्क कहता है : ठहरो, सोचो, पहले निर्णय करो, कहीं ऐसा न हो कि जाओ भी नये पथ पर और कुछ न मिले! कहीं ऐसा न हो कि बीच से लौट आना पड़े! कहीं ऐसा न हो कि जीवन की पद्धति बदलो, इतना श्रम उठाओ और श्रम के अनुकूल पुरस्कार न हो!.. तो थोडा सोचो, गणित बिठाओ, हिसाब लगाओ।
लेकिन मस्तिष्क की सुनी अगर तो कभी कदम उठ न सकेगा।
थोड़ा सोचो, छोटा बच्चा मां के पेट में है अभी। जन्म होने के करीब है। अगर मस्तिष्क हो, अगर बुद्धि पैदा हो गयी हो, तो बुद्धि कहेगी : कहां जाते हो? जीवन की यह प्रक्रिया, यह ढंग, यह गर्भ में रहना कितना सुखद है! कोई झंझट नहीं, कोई चिंता नहीं, कोई दायित्व नहीं, चौबीस घंटे सोये रहो। कहां जाते हो? पता नहीं बाहर क्या होगा—कौन—सी मुसीबतें आयें, कौन—सी चुनौतियां आयें!
अगर बच्चे के पास थोड़ा गणित हो, तर्क हो, तो कोई बच्चा मां के गर्भ से पैदा ही न हो। लेकिन गणित नहीं होता, गणित बाद में आता है—सौभाग्य की बात। तर्क बाद में आता है। बच्चे के पास तो सिर्फ हृदय होता है—नये के लिये आतुर, उत्सुक।
अगर हम बुद्धि की बात मानकर चलें तो पृथ्वी जराजीर्ण से भर जाती है। इस देश में ऐसा ही हुआ है, लोगों ने अतिशय बौद्धिकता के साथ अपने गठबंधन बना लिये हैं। इसलिए यह देश जराजीर्ण हो गया है। इस देश में यौवन नहीं रहा। यह खंडहरों में जी रहा है। यह अब भी अतीत के ही गुणगान करता है। इसके पास कोई उमंग नहीं है नये के लिए। यह गिर गये पीले पत्तों की प्रशंसा करता है; नयी जो कोंपलें खिलती हैं उनकी तरफ पीठ फेर लेता है। यह पूजता है पत्थरों को, जड़ को, अतीत की लकीरों को। यह लकीर का फकीर हो गया है। और ऐसा ही सारे लोगों का चित्त हो गया है।
हिम्मत जुटानी पड़ेगी!
और मैं तुमसे इतना कहता हूं कि नये के साथ हारने में भी जीत है, पुराने के साथ जीतने में भी जीत नहीं। पुराने के साथ सुख भी मिले तो ज्यादा से ज्यादा उसका अर्थ सुविधा होती है। नये के साथ दुख भी मिले तो भी विकास होता है। नये के साथ पाया गया दुख ही तपश्चर्या है; उसे ही मैं तपश्चर्या कहता हूं। धूल लगाकर, शरीर पर पोतकर बैठ गये, या कीटों की शैया बनाकर लेट गये, या उपवास किया, इस सबको मैं तपश्चर्या नहीं कहता; इस सब को तो मैं रुग्णचित्त की मूढ़ता कहता हूं।
तपश्चर्या तो एक है—नये के साथ जाने का साहस, अज्ञात में उतरने की हिम्मत! जैसे छोटा बच्चा मां के गर्भ को छोड़ता है!
अभी दो दिन पहले, पास के ही एक वृक्ष पर, एक चिड़िया अपने बच्चों को बड़ा कर रही थी। रोज—रोज बच्चे बड़े होते चले गये। दो दिन पहले, पहली बार घोंसले से बाहर निकले। जब वे पहली बार घोंसले से बाहर निकले, मैं उनके पास खड़ा था। दोनों बैठ गये शाखा पर—बड़े आश्चर्य—विमुग्ध, पर तौलते हुए, सोचते—विचारते, आगे कदम बढ़ाना कि नहीं! अभी तक घोंसले से बाहर नहीं आये थे और उनकी मां दूर वृक्ष पर बैठकर पुकार दे रही है, गुहार दे रही है। यही ढंग है बच्चों को बुलाने का।... पुकार रही है, आवाज दे रही है। उसकी आवाज देखकर वे फड़फड़ाते हैं। पर मोह घोंसले का, सुरक्षा...। और पहले कभी पंख तो खोले नहीं.. तो पंख खोलना या नहीं, उड़ पायेंगे हम या नहीं?
उनकी दुविधा देखकर नये—नये संन्यास लेते व्यक्तियों की दुविधा का मुझे स्मरण आया। ऐसे ही पर तौलते हैं, सोचते हैं, घबड़ाते हैं, पीछे लौटकर देखते हैं। लेकिन कब तक? मां थी कि पुकारे गयी, कि आवाज दिये गयी, कि टेर पर टेर...। कोई आधा घंटा लगा। धीरे— धीरे पंख फड़फड़ाये, थोड़े दूर हटे घोंसले से...। उसी वृक्ष पर दूसरी शाखाओं पर बैठे। थोड़ा भरोसा बढ़ा, थोड़े पंख मारे हवा में, फिर लौट आये। थोड़ा और भरोसा बढ़ा, फिर उड़ गये...। तब से पता नहीं है। दो दिन से मैं देख रहा हूं रोज, फिर नहीं लौटे। अब क्या लौटना? पड़ा रह गया है घोंसला, पड़े रह गये हैं उसमें दो अंडे, टूटे—फूटे। पक्षी भी हिम्मत जुटा लेते हैं आकाश में उड़ने की, जो कभी नहीं उड़े; और मनुष्य होकर भी हम हिम्मत नहीं जुटा पाते!
मैं तुम्हें पुकार रहा हूं दूर वृक्ष से, टेर दे रहा हूं। यह रोज टेर चल रही है।
तुम कहती हो : हर बार यहां आती हूं तो बिना संन्यास लिये चली जाती हूं। संन्यास का भाव तो कई बार मन में उठता है लेकिन लेने का साहस नहीं जुटा पाती।
चंद्ररेखा, थोड़े पर फड़फड़ाओ, थोड़े नये की पुलक से भरो, थोड़ी हिम्मत जुटाओ। पंख तुम्हारे पास हैं। मैं तुम्हें आकाश से बुलाता हूं। मैं तुम्हें दूर का निमंत्रण दे रहा हूं। ऐसा नहीं कि तुम्हारे पास पंख नहीं; उतने ही पंख हैं जितने मेरे पास, सिर्फ भरोसा नहीं है। और भरोसा आये कैसे? उड़ो तो आये। इतना कह सकता हूं कि नये के साथ मिला दुख भी बहुत प्रीतिकर है। और नये में थोड़ा दुख तो मिलेगा। क्या तुम सोचते हो, वे जो बच्चे हैं पक्षियों के, उड़े, पीड़ा नहीं हुई होगी? हवा के झोंके...। रात वर्षा हुई... किसी वृक्ष पर बैठे होंगे बिना घोंसले के अब। पंख भीग गये होंगे। ठिठुरते होंगे सर्दी में...। मन में खयाल भी आता होगा—अपना घोंसला अच्छा था, इस किस झंझट में पड़ गये? लेकिन फिर भी आकाश में उड़ने का आनंद ऐसा है कि ये सब कीमतें चुकाई जा सकती हैं। चुकानी ही पड़ती हैं! और जो चुकाता है कीमत, वही पाता है।
            गंध से बोझिल पवन है
            और फिर चंचल चरण हैं।
            कौन—सा मौसम लगा है?
            दर्द भी लगता सगा है।।

अनमिली स्वर लहरियों के गीत जादू डालते हैं। शारदी मेघों तले मैदान फूल उछालते हैं। आज तो वश में न मन है।
            गीत से भीगा गगन है।
            प्राण को किसने ठगा है?
            दर्द भी लगता सगा है।।

ओ उदासी की किरण! भटकी हुई क्या कह रही तू?
धुंधलके के पार यूं निस्सार ही क्यों बह रही तू?

            प्रीत का कोई वचन है।
            नित निभाना प्रणय प्रण है।
            नयन में सपना जगा है।।
            दर्द भी लगता सगा है।।
पूर्ण यौवन — भार खेतों में लचकती सांध्य—वेला।
बांसुरी के स्वर सरीखा एक मेरा स्वर अकेला।

            टेरता मानो विजन है।
            और तन मन में चुभन है।
            कौन—सा मौसम लगा है?
            दर्द भी लगता सगा है।।

नये के साथ दर्द भी बहुत सगा है; पुराने के साथ सुविधा भी सिर्फ धीमी— धीमी आत्महत्या है, और कुछ भी नहीं। क्या है छोड़ने को, क्या मिट जायेगा? पाया ही कुछ नहीं तो छूटेगा क्या?
इसलिए खोजो। और तब तक खोजते ही रहो जब तक मिल न जाये। तब तक कदम न रुके, तब पक पंख बंद न हों। चाहे कितना ही भय लगे, पर तौलने ही होंगे, आकाश में उड़ना ही होगा। और '।नौती जग गयी है; कब तक झुठलाओगी, कब तक लौट—लौट जाओगी? यह लौट जाना आदत न बन जाये। यह लौट जाना भी लकीर न बन जाये। इसके पहले कि यह आदत बन जाये, कुछ करो, कुछ जगी, कुछ साहस जुटाओ।

            पार करना चाहते हो इस गरजते सिंधु को यदि,
            प्राण लेकर आज लहरों में उतरना ही पड़ेगा।।

            ये तरंगें दूर से चलकर तुम्हारे पास आतीं।
            उस नये जग के नये संदेश अपने साथ लातीं।
            कूल पर बैठे मनन करते रहोगे और कब तक?
            हो मुखर उस पार वीणायें मधुर तुमको बुलातीं।
            चाहते यदि तुम नया जीवन, नया यौवन, नया मन।
            आज बाहों में उमड़ता सिंधु भरना ही पड़ेगा।।

            तुम नया विश्वास लेकर पग बढ़ाओ आज अपना।
            तुम नया इतिहास लेकर दृग उठाओ आज अपना।
            छूट जाने दो बहुत पीछे पुराने इस गगन को।
            तुम नया आकाश लेकर जग सजाओ आज अपना।
            प्राण में यदि हो रहे मुखरित नये निर्माण के स्वर
            आज कण—कण का नया शृंगार करना ही पड़ेगा।

            यह प्रलय की पीर ही नव—सृष्टि का मकान होगी।
            यह तिमिरता ही निशा की सूर्य का वरदान होगी।
            इस पुरातन जर्जरित युग—मूर्ति को अब टूटने दो।
            जिस शिला पर हाथ रख दोगे वही भगवान होगी।
            तुम हिमालय के स्वजन हो सिंधु की गहराई ही क्या?
            आज पंखों में असीमित व्योभ भरना ही पड़ेगा।।

            पार करना चाहते हो इस गरजते सिंधु को यदि
            प्राण लेकर आज लहरों में उतरना ही पड़ेगा।।

उतरो! डूबने का भय लगता है तो भी उतरो। सभी नये तैरना सीखनेवालों को डूबने का भय लगता है। जो डूबने के भय से रुक ही गया है किनारे पर, वह तो जान ही न पायेगा आनंद तैरने और तिरने का। और दूर है किनारा दूसरा, और वही है मंजिल। जाना है पार, तो ही परमात्मा मिले।
संन्यास तो केवल एक छोटी—सी नौका है—उस पार जाने की! माना, दूर धुंधलके में छिपा उस पार का किनारा दिखाई तो पड़ता नहीं। इसलिए किसी आंखवाले से संबंध जोड़ना होता है। इसलिए किन्हीं आंखवालों के पास उठना—बैठना होता है, ताकि तुम्हारे भीतर भी सोये हुए स्वर धीरे—धीरे सबल हो जायें। तुम्हारी वीणा पर भी चोट पड़े!
चंद्ररेखा, इसीलिए तू आती रही। इस आने का कुछ अर्थ न रह जायेगा अगर इस रस में न डूबी। तो फिर ऐसा ही होगा, सरोवर तक आये और प्यासे ही लौटते रहे। सरोवर तक आने से प्यास नहीं बुझती; अंजुली बनानी होगी, झुकना होगा, जल भरना होगा, कंठ में उतारना होगा, तो प्राण तृप्त होते हैं।
संन्यास झुकने की प्रक्रिया है—अंजुली बांधने की।

दूसरा प्रश्न :

तंत्र, वाममार्ग अघोरपंथ नाथपंथ जैसे नामों से लोग क्यों डरते हैं? इन मार्गों का सही विश्लेषण और सम्यक अभ्यास से क्या ऐसी संभावना नहीं है कि लोग फिर से नये आयाम से इन्हें समझें और इनकी निंदा और उपेक्षा न करें?

रु ने पूछा है। और एक नहीं चौदह प्रश्न पूछे हैं। मुझे भी गिनती करनी पड़ी। ऐसा उसने कभी किया नहीं। गोरख से कुछ संबंध रहा है... कोई सोयी स्मृति जग गयी, कोई झरना फूट पड़ा।
यहां कोई भी नया नहीं है, सभी पुराने हैं। न मालूम कितने पथों पर चले हैं। न मालूम किन—किन सदगुरुओं के साथ रहे हैं। मेरे पास आ जाना तुम्हारा आकस्मिक नहीं है। चलते रहे हो, खोजते रहे हो। वही खोज तुम्हें यहां ले आयी है। जो नहीं चले हैं कभी, जिन्होंने कभी खोजा नहीं है, उनसे मेरा संबंध भी बहुत मुश्किल से बन पाता है। वे आ भी जाते हैं तो छिटक जाते हैं। आकस्मिक होता है उनका आना। उनके आने के पीछे कुछ आधारशिला नहीं होती। जो मेरे पास आकर टिक जाते हैं, रुक जाते हैं... और तरु आयी है सो टिक ही गयी है... उसका अर्थ यही है : उनके प्राणों की कोई गहरी तृषा तृप्त हो रही है। बहुत—बहुत द्वारों से जो खोजा है और नहीं मिल पाया है, उसकी झलक मिलने लगी है, मंजिल करीब आ रही है।
गोरख से कुछ संबंध रहा होगा तरु, कुछ नाता रहा होगा। जैसे कोई पुराना सोया हुआ गीत फूट पड़ा हो, ऐसे उससे प्रश्न फूटे हैं और सभी प्रश्न सार्थक हैं। कोई भी प्रश्न बौद्धिक नहीं है, पूछने के लिये नहीं पूछा गया है, उठा है। पूछना चाहिए इसलिए कुछ सोच—सोचकर नहीं पूछा गया है। पूछने से नहीं रुक सकी है। फिर खुद भी डर गयी होगी कि अब चौदह प्रश्न लिखे हैं, तो फिर क्षमा भी मांगी है कि मुझ पर नाराज मत होना। इतने प्रश्न.. जैसे विवश थी। पूछना ही पड़ा है। न पूछे नहीं बनेगा।
उन्हीं चौदह में से एक प्रश्न यह है :
तंत्र वाममार्ग अघोरपंथ नाथपंथ जैसे नामों से लोग क्यों डरते हैं?
पहली बात, ये सब नाम तंत्र के ही नाम हैं। तंत्र का ही एक नाम वाममार्ग है। वाममार्ग का अर्थ होता है : बायें हाथ का रास्ता। तुम्हारे पास दो हाथ हैं : एक दायां हाथ है, एक बायां हाथ है। ये दो हाथ बस दो हाथ ही नहीं हैं, इनके पीछे बड़े राज छिपे हैं। तुम्हारा दायां हाथ तुम्हारे बायें मस्तिष्क के खंड से जुड़ा है, उल्टा। तुम्हारा बायां हाथ तुम्हारे दायें मस्तिष्क के खंड से जुड़ा है। मस्तिष्क दो खंडों में बंटा है। अब तो विज्ञान ने इस पर बड़ी खोज की है। और उस खोज ने बड़े रहस्य प्रगट किये हैं। तुम्हारा दायां मस्तिष्क, जो कि बायें हाथ से जुड़ा है, काव्य का स्रोत है—अनुभूति का, भाव का, कला का, प्रज्ञा का, आनंद, मस्ती, नृत्य, संगीत, उत्सव, कल्पना। जो भी मधुर है, जो भी स्त्रैण है, जो भी सुंदर है, उस सब का जन्म तुम्हारे दायें मस्तिष्क में होता है। उस दायें मस्तिष्क का प्रतीक है बायां हाथ।
तुम्हारा दायां हाथ जुड़ा है बायें मस्तिष्क से। बायें मस्तिष्क में पैदा होता है : तर्क, गणित, कर्मठता, कार्यकुशलता, चालाकी, राजनीति, कूटनीति, संसार, गद्य, विज्ञान, हिसाब—किताब, उपयोगिता, बाजार। इस सब का संबंध बायें मस्तिष्क से है। संसार सदा से दायें हाथ पर जोर देता रहा है, क्योंकि दायें हाथ में उपयोगिता है, हिसाब—किताब है, गणित है, तर्क है, बाजार है, दुकान है, व्यवहार है। बायां हाथ खतरनाक मालूम होता रहा है, सदा से खतरनाक मालूम होता रहा है। कवि का क्या भरोसा! गणितज्ञ का भरोसा किया जा सकता है। नर्तक का क्या भरोसा! वैज्ञानिक का भरोसा किया जा सकता है। फिर विज्ञान का उपयोग है, नृत्य का क्या उपयोग है? नृत्य तो है स्वांत: सुखाय। यह जो बायां हाथ है वह तुम्हारे भीतर स्वांत: सुखाय का प्रतीक है। इसका कोई लक्ष्य नहीं है। इसकी कोई दिशा नहीं है। यह कहीं जा नहीं रहा है। यह तो इसी क्षण में आनंद—मस्त, मुग्ध होकर जीने की कला है।
कविता का क्या मूल्य है? न तो पेट भर सकता है, न तन ढंक सकता है, न छप्पर बन सकता है। तो कवियों को हमने थोड़ा—बहुत सम्मान दिया है एक अनुपात में; जैसे सजावट की तरह, लेकिन गैर—जरूरी। एक— आध आदमी कवि हो जाये समाज में, हम बर्दाश्त करते हैं; लेकिन हम कवियों की जमात बर्दाश्त नहीं करेंगे, क्योंकि कवि किसी काम का नहीं मालूम पड़ेगा। उसकी उपयोगिता क्या है?
किसी ने पिकासो को पूछा कि तुम्हारे चित्रों की उपयोगिता क्या है? उसने अपना सिर पीट लिया। उसने कहा : फूलों से नहीं पूछते कि तुम्हारी उपयोगिता क्या है; और कोयल गीत गाती है उससे नहीं पूछते कि तुम्हारी उपयोगिता क्या है, और आकाश तारों से भर जाता है तब नहीं पूछते कि तुम्हारी उपयोगिता क्या है! मुझसे ही क्यों पूछते हो?
यह कवि और चित्रकार और मूर्तिकार और संगीतज्ञ सदा से कहते रहे हैं—हमारी कोई उपयोगिता नहीं है। मगर जीवन उपयोगिता पर ही समाप्त नहीं होता। जीसस का वचन याद करो : मैन कैन नाट लिव बाय ब्रेड अलोन। आदमी अकेली रोटी से तो नहीं जी सकता, कुछ और भी चाहिए। रोटी से कुछ ज्यादा चाहिए। रोटी जरूरी है, मगर काफी नहीं; आवश्यक है, मगर पर्याप्त नहीं। रोटी के बिना कविता नहीं हो सकती, यह सच है; मगर अगर कविता के बिना रोटी हो तो जीवन हुआ न हुआ बराबर है। रोज पेट भर लिया, जी लिये और मर लिये। अगर जीवन में काव्य न जगा, गीत न उठा, वीणा न बजी, बांसुरी पर संगीत न खिला तो क्या सार है?
स्वांत: सुखाय रघुनाथ गाथा! जो स्वांत: सुख से भरा है, वही उस परमप्रिय के भाव से भी भरता है।
इसलिए बायां हाथ सदा से खतरे का सूचक रहा है। इसलिए जिनसे भी हम डरते हैं, उनको हम वाममार्गी कहते हैं। जिनसे हम भयभीत होते हैं, उनको हम वाममार्गी कहते हैं। तुम्हें हजारों लोग मिल जायेंगे जो मुझे वाममार्गी कहते हैं। ठीक ही कहते हैं। मैं वाममार्गी हूं क्योंकि मैं तुम्हें स्वांत: सुखाय की कला सिखा रहा हूं। हिसाब—किताब ही सब कुछ नहीं है, हिसाब—किताब के बाहर भी एक जगत है और वही जगत तृप्तिदायी है, उसी जगत में परितोष है। उसी जगत में प्रकाश है।
जरूरतें पूरी होनी चाहिए, ठीक है। फिर क्या करोगे? जरूरतें पूरी हो जायेंगी, फिर क्या करोगे? आज पश्चिम में यही अड़चन आ गयी है, जरूरतें पूरी हो गयीं। जो बाहर की जरूरतें थीं, पश्चिम ने पूरी कर लीं। समझना कठिनाई। जरूरतें पूरी करने के लिये बायें हाथ से जुड़े हुए दायें मस्तिष्क का कोई उपयोग नहीं किया। इसलिए पश्चिम ने धर्म को इंकार कर दिया, काव्य को इंकार कर दिया, संगीत को इंकार कर दिया—रहस्य की सारी विधा इंकार कर दी। ठीक गणित, विज्ञान, पदार्थ, ठोस जिसका प्रमाण है उस पर ही पश्चिम जी रहा है। तीन सौ साल के सतत प्रयोग ने, दायें हाथ के प्रयोग ने, पश्चिम को समृद्ध बना दिया। धन है, दौलत है, मकान है, सुंदर रास्ते हैं, सुस्वादु भोजन है, भरपेट भोजन है, सब जरूरत से ज्यादा है। एक संपन्नता का युग पश्चिम में आ गया है। लेकिन तीन सौ साल निरंतर, वह जो स्वांत: सुखाय का स्रोत है, उसको इंकार करके आया।
तो पश्चिम संपन्न हो गया, लेकिन अब क्या करे? क्योंकि उसके पास सिर्फ सुख को भोगने की कला ही नहीं बची। पश्चिम किंकर्तव्यविमूढ़ है। अब कहां जायें, अब क्या करें? काम का जगत जो हो सकता था हो चुका। पश्चिम के भीतर बड़ी बेचैनी है। रविवार के दिन भी पाश्चात्य मनुष्य छुट्टी नहीं मना पाता। छुट्टी मनाने की आदत ही भूल गयी। काम और काम और काम...। काम पर इतना जोर दिया है कि काम को भगवान बना दिया! ती लीला की कला भूल गयी। तो बैठकर हंसें—बोलें, कि वीणा बजायें, कि बगिया में घास उगायें, कि मस्त हो कर लेट जायें तारों तले, कि नौका—विहार करें...। नहीं, यह सारी बात अर्थहीन है। क्योंकि तीन सौ साल एक ही बात दोहराई और सिखाई गयी है स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक कि काम का मूल्य है।
तो आज अगर कोई आदमी अपनी नाव पर लेटा हुआ आकाश के तारों के नीचे तिर रहा है झील में, तो उसे लगता है कि मैं कोई पाप कर रहा हूं क्योंकि काम पुण्य है, मैं पाप कर रहा हूं। एक अपराधभाव पैदा हो गया है सुख के क्षण में। जब भी तुम सुखी होते हो, तुमको लगता है कि कुछ तुम गलती कर रहे हो, कुछ भूल कर रहे हो। क्या कर रहे हो, गीत गुनगुना रहे हो! कंठ में ही दबा देना चाहते हो गीत को। इससे क्या होगा? तर्क उठ आते हैं, गणित खड़ा हो जाता है—इससे क्या होगा, इससे क्या लाभ है? क्यों यह बांसुरी बजा रहे हो, कुछ काम करो!
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं. आप लोगों को ध्यान सिखाते हैं! ध्यान से क्या होगा? कुछ काम सिखाइए।
काम की उपयोगिता है। और मैं नहीं कहता कि काम छोड़ दो, मगर मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि काम की उपयोगिता यही है कि तुम बेकाम क्षणों में आनंदित हो सको। काम का उपयोग यही है कि तुम निष्काम हो सको। छह दिन तुम जो बाजार में मेहनत करते हो वह इसीलिए ताकि सातवें दिन पांव पसारो, धूप में लेटो, कि वृक्ष की छाया तले बैठो, कि फूलों से बात करो, कि चांद—तारों से गुफ्तगू हो, कि मस्ती के गीत गाओ, कि पैरों में शर बांधो और नाचो। यह लक्ष्य था छह दिन मेहनत करने का। और जब पाँच दिन मेहनत करने से काम चल जाये तो पांच दिन मेहनत करना, दो दिन नाचना। जब चार दिन मेहनत करने से काम चल जाये तो तीन दिन... ऐसे घटाते जाना। काम को तो घटाते जाना है। विश्राम को बढ़ाते जाना है। विश्राम लक्ष्य है।
जिनके जीवन में विश्राम नहीं है, ध्यान नहीं है, उनके जीवन में विक्षिप्तता आनी शुरू हो जाती है; जैसे ही काम पूरा हुआ, उनकी समझ में नहीं आता अब क्या करें? अगर पश्चिम में बहुत लोग पागल हो रहे हैं तो उसका कारण है : काम के दिन तो समाप्त हो गये, काम पूरा हो गया। काम को ही जीवन समझा, अब जीवन समझ में नहीं आता कि और जीवन क्या हो सकता है? बहुत लोग आत्महत्या कर रहे हैं; उसका कारण भी वही है। क्या सार है अब जीने का? अब धन को जोड़—जोड़कर इकट्ठा कर लिया, अब कितना जोड़ते जायें? यह भूल ही गये कि धन किसलिये जोड़ते थे? धन जोड़ते थे ताकि किसी क्षण विश्राम से बैठेंगे, कोई चिंता न होगी। वह तो भूल ही गये, क्योंकि धन जोड़ने में मस्तिष्क के एक हिस्से का उपयोग किया। वह हिस्सा तो सक्रिय हो गया। और जिस हिस्से का उपयोग नहीं किया, वह धीरे— धीरे बिलकुल धूल— धवांस से भर गया है।
वाममार्ग का अर्थ होता है : जीवन का लक्ष्य काम नहीं है, विश्राम है। जीवन का लक्ष्य धन नहीं है, ध्यान है। जीवन का लक्ष्य गणित नहीं है, काव्य है। जीवन का चरम शिखर विज्ञान से उपलब्ध नहीं होगा, धर्म से उपलब्ध होगा।
सदा से 'वाममार्ग' निंदा का शब्द रहा। और अतीत में तो स्वभावत: कारण भी थे। क्योंकि जितने तुम पीछे जाओगे उतनी दुनिया दीन थी, दरिद्र थी, साधन नहीं थे। उन दीन—दरिद्रता के दिनों में अगर लोगों ने काम को बहुत बहुमूल्य बना दिया, बहुत कीमत दी, स्वाभाविक मालूम होता है। और जिन लोगों ने काम की जगह विश्राम को मूल्य दिया, उनसे अगर समाज ने विरोध किया तो कुछ आश्चर्य नहीं है। मगर पुरानी आदत अब भी ग्रंथि की तरह बनी रह गयी है। अब भी हमारे भीतर भय है।
फिर, जो गणित, हिसाब—किताब वाला मन है, वह सदा से उन सारी चीजों का विरोधी रहा है, जिनसे तुम्हारे भीतर सुख उत्पन्न होता है। वह स्वाद का विरोधी है, तो वह अस्वाद का व्रत सधवाता है, सौंदर्य का विरोधी है, तो वह कुरूपता को आध्यात्मिक बना लेता है, वह स्वास्थ्य का भी विरोधी है, क्‍योंकि स्‍वास्‍थ्‍य भी शारीरिक सुख है।
जर्मनी के एक प्रसिद्ध विचारक काउंट केसरलिंग ने भारत की यात्रा के बाद अपनी डायरी में लिखा कि भारत जाकर मुझे यह अनुभव हुआ कि बीमारी में एक आध्यात्मिकता है, स्वास्थ्य में एक तरह की नास्‍तिकता है। क्योंकि स्वास्थ्य शरीर का होता है। इसलिए आध्यात्मिक व्यक्ति को स्वास्थ्य का रस नहीं लेना चाहिए। वह तो देह का दुश्मन है। इसीलिए प्रेम का दुश्मन हो गया संसार, क्योंकि प्रेम बड़ा सुख है। सारी चीजों की दुश्मनी साध ली।
वाममार्ग  ने इसके विपरीत संदेश दिया है। वाममार्ग कहता है : प्रेम प्रार्थना है और प्रेम परमात्मा है। और वाममार्ग कहता है : कुछ भी छोड़ना नहीं है, क्योंकि जो भी परमात्मा ने दिया है उसकी उपयोगिता है; उसका उपयोग करो और उसे सीढ़ी बनाओ। उसे परमात्मा के मंदिर की सीढ़ी में रूपांतरित करो। पत्थर मत समझो मार्ग के, अवरोध मत समझो; सीढ़ियां बनाओ, ऊपर उठो। कामवासना की भी सीढ़ी बनाओ, उसका भी विरोध मत करो।
वाममार्ग का अदभुत संदेश है कि अगर तुम बुद्धिमान हो तो तुम जहर का ऐसा उपयोग करोगे कि वह औषधि हो जाये; अगर तुम बुद्ध हो तो तुम औषधि को भी जहर बना लोगे। यह बुनियादी सूत्र है वाममार्ग का कि बुद्धिमान जहर को भी औषधि बना लेता है। यही तो बुद्धिमानी है। भगोड़े कायर होते हैं, बुद्धिमान नहीं होते। वाममार्ग भगोड़ा नहीं है।
इस संसार में अब तक भगोड़ों की बड़ी प्रतिष्ठा रही है। उसका कारण है, क्योंकि भगोड़ों को देखकर तुम्हें यह समझ में आने लगता है कि वे हम से विशिष्ट हैं। तुम धन के पीछे पागल हो और एक आदमी ने लात मार दी धन को और जंगल चला गया, तुम तल्ला प्रभावित हो जाते हो। तुम प्रभावित इसलिए हो जाते हो कि मेरा इतना धन में मोह है, और इस आदमी में जरूर कुछ गरिमा है, इसने लात मार दी! इसलिए तुम महावीर से ज्यादा प्रभावित होते हो बजाय जनक के। जनक का नाम कुछ ज्यादा सुना नहीं जाता। तुम बुद्ध से ज्यादा प्रभावित हो जाते हो, क्योंकि वे राजमहल छोड्कर जाते हैं। तुम कृष्ण की अगर प्रशंसा भी करते हो तो थोड़े दबे—दबे कंठ से, थोड़े डरे—डरे, थोड़े भयभीत।
अगर लोग कृष्ण की प्रशंसा भी करते हैं तो गीता वाले कृष्ण की करते हैं; पूरे कृष्ण को स्वीकार करने की हिम्मत बहुत कम लोगों की है। क्योंकि कृष्ण तो तुम्हारे जैसे ही मालूम पड़ते हैं, बल्कि तुमसे भी आगे बढ़े हुए। तुम किसी तरह अपने को समझा लेते हो कि चलो वे भगवान थे, किया होगा, नाचे होंगे गोपियों के साथ, मगर यह आदमी के लिये शोभा नहीं देता। तुम शायद कृष्ण को भगवान कह कर बच जाना चाहते हो। तुम एक बहाना खोजते हो। तुम्हारा चित्त तो गड़बड़ होने लगता है। तुम्हें बेचैनी होने लगती है।
मैं एक घर में मेहमान था—एक हिंदू परिवार में। संभ्रांत परिवार है, कुलीन परिवार है। कोई दस—बारह साल पहले की बात है। मेरी किताब 'संभोग से समाधि की ओर' छपी थी। वे बड़े बेचैन थे। उन्होंने मुझसे कहा कि आप नाम कम—सेनकम कोई और रख देते। क्योंकि किताब तो जब कोई पड़ेगा तब जानेगा कि क्या है उसमें, मगर यह नाम बड़ा खतरनाक है; आप नाम कुछ और रख देते। फिर जो पहला संस्करण था, उस पर खजुराहो की मूर्तियों का चित्र छपा था कवर पर। वे कहने लगे कि यह भी आपको क्या सूझा! अगर नाम भी यह था तो भी अगर बुद्ध को ध्यान की अवस्था में बैठा हुआ बताया होता कवर पर, तो भी चल जाता... खजुराहो की मूर्तियां! किताब तो कोई पीछे पड़ेगा, यह सब देखकर तो बड़ी बेचैनी हो जायेगी।
मैं उनके बैठकखाने में बैठा था, मैंने कहा दीवाल पर देखो...। वहां एक बड़ी तस्वीर टांग रखी थी उन्होंने कृष्ण की, जिसमें उन्होंने वस्त्र चुरा लिये हैं नग्न स्त्रियों के, जो नदी में नहा रही हैं, और झाडू पर बैठे हैं। मैंने कहा. इसको तुम बैठकखाने में लगाये हो? उन्होंने ऊपर देखा, एक क्षण को तो रुक गये। शायद उन्होंने कभी इस तरह सोचा नहीं था। उन्होंने कहा : आप ठीक कहते हैं। यह लगी है तस्वीर, यह पिता के जमाने से लगी है। और कभी—कभी मुझे संकोच होता भी है, लेकिन इस पर कोई ध्यान देता नहीं; क्योंकि ये भगवान हैं; ठीक कर रहे हैं।
इसको हमने स्वीकार कर लिया है। मगर दोबारा जब मैं उनके घर गया, तस्वीर हट गयी थी। मैंने उनसे पूछा, क्या हुआ? तो उन्होंने कहा कि नहीं, जिस दिन से आपने इशारा किया, मैं सचेत हो गया। फिर मुझे बड़ी बेचैनी होने लगी। फिर मैंने कहा इस तस्वीर को हटा ही देना उचित है। तो तस्वीर हटा दी। तुम्हारा कृष्ण का स्वीकार भी अधूरा—अधूरा है। तुम कृष्ण में से बहुत—सी बातें कांट—छांट कर डालना चाहोगे। तुम कृष्ण में संशोधन करने को सदा तत्पर हो। कृष्ण को लोग अपने—अपने हिसाब से मानते हैं। जितना मान सकते हैं उतना मान लेते हैं, बाकी छोड़ देते हैं। क्या अड़चन है? अड़चन यही है कि महावीर तो तुम्हें साफ अपने से विपरीत जाते मालूम पड़ते हैं; तुम सम्मान दे सकते हो, क्योंकि तुम्हें मालूम है अपने लोभ का, अपने काम का, अपने क्रोध का, अपनी लिप्सा का तुम्हें पता है। और ये उसको छोड्कर जा रहे हैं! विशिष्ट हैं, अब कोई प्रमाण की जरूरत नहीं है। लेकिन कृष्ण? ये वहीं खड़े हैं, उसी संसार में जहां तुम खड़े हो।
कृष्ण को पहचानने के लिये बड़ी गहरी आंख चाहिए! महावीर को पहचानना अंधे के भी बस की बात है, कोई अड़चन नहीं है। अंधा भी पहचान लेगा कि ठीक, सब छोड्कर चले गये। लेकिन कृष्ण को पहचानने के लिए तो जब तक भीतर की आंख न खुली हो, तब तक पहचान मुश्किल है। क्योंकि वे वहीं खड़े हैं, भेद तो कुछ भी नहीं है। ऊपर से भेद नहीं है, भीतर से भेद है। तो जब तक भीतर देखने की क्षमता न हो, तब तक तुम क्या को न समझ पाओगे।
कृष्ण वाममार्गी हैं। इसलिए जैनों ने कृष्ण को नर्क में डाला है। अपने पुराणों में नर्क में डाल दिया है। वाममार्गी हैं। और क्या वाममार्ग होगा? जीवन का सहज स्वीकार, उत्साहपूर्वक स्वीकार, स्वागतपूर्ण स्वीकार...! जीवन को उसकी समग्र विधा में जीने की क्षमता, साहस...। जीवन में कुछ भी बुरा नहीं है। अगर कांटे भी हैं तो फूल की रक्षा के लिये तत्पर हैं, इसलिए हैं। जीवन में जो भी है सुंदर है। और अगर किसी चीज का सौंदर्य हमें दिखाई नहीं पड़ा है तो हमारी कहीं भूल—चूक हो रही है। परमात्मा असुंदर बना कैसे सकता है? परमात्मा ही प्रगट हुआ है सारे रूपों में। काम में भी राम ही छिपा है। इतना साहस बहुत कम लोग जुटा पाते हैं। इतनी दृष्टि भी नहीं होती।
इसलिए तरु! तंत्र, वाममार्ग, अघोरपंथ, नाथपंथ जैसे नामों से लोग डरने लगे। इसीलिए। क्योंकि ये तुम्हारे व्यवस्थित रूढ़ि को छिन्न—भिन्न कर देते हैं। ये प्यारे नाम गालियां बन गये। किसी को वाममार्गी लोग कह देते हैं, बस खतम हो गया मामला। फलां आदमी वाममार्गी है—मतलब तुमने उसका खंडन कर दिया, अब और खंडन करने की जरूरत नहीं है। अब वह क्या कहता है, क्यों कहता है, इस तर्क और विस्तार में जाने का प्रयोजन नहीं है। वाममार्ग का लेबल लगा दिया, अब वह आदमी खतम हो गया। अघोरपंथ! अघोर जैसा प्यारा शब्द गाली बन गया! किसी को अघोरी कह दो वह लड़ने को तैयार हो जाता है। लोग अघोरी कहते ही हैं किसी को तभी, जब उनको गाली देनी होती है।
अघोर शब्द का अर्थ समझते हो? अघोर का अर्थ होता है—सरल। किसी को 'घोरी' कहो तो गाली हो सकती है। घोर का अर्थ होता है जटिल। कहते हैं न घोर—घमासान। खूब भयंकर युद्ध हुआ, तो उसको कहते हैं घोर—घमासान—जटिल, उलझा हुआ, तो घोर...। अघोर का अर्थ होता है सरल, बच्चे जैसा निर्दोष! लेकिन लोग ' अघोरी' गाली देना चाहते हैं तब कहते हैं। लोग कहते हैं मोरारजी देसाई—अघोरी, क्योंकि जीवन —जल पीते हैं—अघोरी! उनका मतलब यह है कि गाली दे रहे हैं वे। अघोर तो सिर्फ थोड़े — से बुद्धों के लिये उपयोग में लाया जा सकता है। गौतम बुद्ध—अघोरी, कृष्ण—अघोरी, क्राइस्ट— अघोरी, लाओत्सु—अघोरी! ऐसे लोगों के लिये ही सिर्फ उपयोग में लाया जा सकता है। गोरख—अघोरी। सरल, निर्दोष, सीधे—सादे...। इतने सरल कि गणित जीवन में है ही नहीं। हिसाब—किताब लगाने का भाव ही चला गया है।
तुम तो जिसको धार्मिक कहते हो, वह भी हिसाब—किताब लगाता है। वह देखता है कि इतने उपवास करूं तो स्वर्ग मिलेगा, इतने व्रत रखूं तो स्वर्ग मिलेगा, इतना दान करूं तो स्वर्ग मिलेगा। यह सब हिसाब—किताब है। इस दान में भी बाजार है। इस दान में भी व्यवसाय है, सौदा है। इस पुण्य में भी छिपा हुआ पाप है। अघोरी का अर्थ होता है : सरल, सीधा—जिसके जीवन से हिसाब—किताब समाप्त ही हो गया। जो बच्चों की भाति जीता है। यह तो परम अवस्था है, परमहंस अवस्था है—अघोर। मगर ये गालियां बन गयीं दुर्भाग्य से।
नाथपंथ... गोरखनाथ और उनके गुरु मच्छिंदरनाथ के कारण तंत्र की यह शाखा नाथपंथ कहलाने लगी। भाव बड़ा प्यारा है! नाथ का अर्थ होता है : मालिक! जिसको सूफी कहते हैं—'या मालिक'। सब उसका है, मालिक का है! हम भी मालिक के, संसार भी उसका है, सब उसका है। जैसी उसकी मर्जी वैसे जीयेंगे। जैसा जिलायेगा वैसे जीयेंगे। हम अपने संकल्प को आरोपित न करेंगे। हम चेष्टा से न जीयेंगे। हम ऐसे बहेंगे जैसे कोई नदी की धार में बह जाये, हम तैरेंगे नहीं। यह भाव है। उस मालिक के रहते हम अपना संकल्प क्यों बीच में लाएं ई हमारा संकल्प आया कि अहंकार आया, अहंकार आया कि हम भटके। तो हम तो बिना अहंकार के जीयेंगे, उसकी जैसी मर्जी..।
जैसे सूखा पत्ता हवा में उड़ता है, पश्चिम जाये कि पूरब, दक्षिण जाये कि उत्तर, उसे कोई चिंता नहीं; हवा जहां ले जाये। लड़ता नहीं, प्रतिरोध नहीं करता, संघर्ष नहीं करता कि मैं तो पश्चिम जाऊंगा, कि मुझे पूरब नहीं जाना, मुझे क्यों पूरब लिये जा रहे हो? नहीं, पत्ते की क्या मर्जी? ऐसा जो हो जाये तो समझना कि नाथपंथी। ऐसे ही रहे गोरख। इस सहज मर्जी से रहे। इस सरलता से रहे। मगर लोग अहंकार से जीते हैं। इस जगत में अधिकतम लोगों के जीवन की भाषा अहंकार की भाषा है। स्वभावत:, इतने सरल लोग उन्हें बर्दाश्त नहीं होंगे। उन्हें तो लगेगा, बड़ा खतरा पैदा हो गया। इतनी सरलता से लोग जीने लगेंगे, उनको लगता है तो फिर नीति का क्या होगा? अनीति ही अनीति फैल जायेगी। जैसे अभी नीति है!
ये बड़े मजे की बातें हैं। लोग इस तरह की बातें करते हैं जैसे कि अभी नीति है, फिर अनीति फैल जायेगी। कहां है नीति दु कैसी नीति? नीति के नाम पर पाखंड है। थोथे मुखौटे लगाये लोग बैठे हैं, झूठे मुखौटे लगाये लोग बैठे हैं। नीति कहां है?
लेकिन लोग समझते हैं कि अगर सब लोग सरल होने लगे, सहज जीने लगे, स्वाभाविक होने लगे और कहा कि जैसी परमात्मा की मर्जी, तो फिर नीति खंडित हो जायेगी।
बात उलटी ही है। लोग संकल्प से जी—जी कर अनैतिक हो गये हैं। मनुष्य से ज्यादा अनैतिक और कौन है इस पृथ्वी पर? मनुष्य से ज्यादा हिंसक और कौन है इस पृथ्वी पर? मनुष्य से ज्यादा संघातक और कौन है इस पृथ्वी पर २ पशु—पक्षी कम—से—कम अपनी जाति के लोगों को मारकर नहीं खाते। कोई सिंह सिंह को मारकर नहीं खाता। कोई बाज बाज पर नहीं हमला करता। आदमी अकेला पशु है इस पूरी पृथ्वी पर, जो स्वयं की जाति में ही मारकाट करता है; और थोड़ी—बहुत नहीं, लाखों की, करोड़ों की! हत्या करने में ऐसा रस! और बड़ा मजा है, इसको भी नैतिक जामा पहना दिया जाता है। इसको कहते हैं जिहाद, धर्मयुद्ध हो रहा है! धर्मयुद्ध हो रहा है तो फिर मारो। फिर कोई हर्जा नहीं, जितने मारे उतना ही लाभ है! जितने मारे उतना ही स्वर्ग निश्चित है।
लोग जिहाद कर रहे हैं, धर्मयुद्ध कर रहे हैं सदियों से; एक—दूसरे को काट रहे हैं परमात्मा के नाम पर! काटना है उन्हें, नाम कोई भी हो। कभी राजनीति के नाम पर काटते हैं, कभी धर्म के नाम पर काटते हैं, कभी सिद्धात के नाम पर, कभी शास्त्र के नाम पर। ये सब बहाने हैं, काटना लक्ष्य है। बिना काटे मन नहीं मानता। यह कैसा मनुष्य हमने पैदा किया है? यह कैसा रुग्णचित्त मनुष्य हमने पैदा किया है।
कामवासना से जल रहे हैं लोग। उनके भीतर कामवासना के सिवाय और कुछ भी नहीं भरा है। दबा — दबा कर बैठ गये हैं। इसलिये जब भी कोई कहता है कामवासना का सहजता से स्वीकार करो, वह भी प्रभु की देन है, तो उनके भीतर बहुत घबराहट हो जाती है। क्योंकि वे जानते हैं कि अगर उन्होंने सहजता से स्वीकार किया तो सब गड़बड़ हो जायेगा। वे इतना दबाकर बैठ गये हैं कि करीब—करीब एक ज्‍वालामुखी उनके नीचे जल रहा है। अब वे सहजता से कैसे स्वीकार करें?
ऐसा ही समझो कि कोई आदमी जिंदगी— भर उपवास करता रहा है, भूखा मरता रहा है और तुम उससे कहो कि भाई, भूख को सहज स्वीकार करो, जब भूख लगे तो भोजन कर लो—वह एकदम घबड़ा जायेगा। वह कहेगा कि अगर मैंने सहजता से स्वीकार किया तो मैं चौके से कभी बाहर निकलूंगा ही नहीं, क्‍योंकि मैं जानता हूं अपने को कि चौबीस घंटे मैं भोजन की ही सोचता हूं। उपवासी आदमी सोचता ही है चौबीस घंटे भोजन की।... तो फिर तो मैं निकल ही न सकूंगा चौके से। फिर तो मुझे वहीं बैठा रहना पड़ेगा।
हालांकि तुम हैरान होगे कि यह क्या कह रहे हो तुम। जो लोग भोजन करते हैं वे चौके में नहीं बैठे रहते चौबीस घंटे। मगर तुम उस आदमी की बात भी समझो, वह भी बेचारा ठीक कह रहा है। वह चौबीस  घंटे भोजन की ही सोचता है; उपवास करनेवाला सोचता ही भोजन की है।
इसलिए मेरे जैसे व्यक्ति जब जीवन को सरल करने की बात करते हैं तो बड़ी बेचैनी फैल जाती है, बड़ी घबराहट फैल जाती है। यहां दमित प्रकार के लोग कभी—कभी आ जाते हैं, उनको बहुत घबराहट हो जाती है। क्योंकि वे जानते हैं, अगर मैं जो कह रहा हूं वह ठीक है, तो उनके भीतर दबे हुए रोग एकदम से प्रगट हो जायेंगे, जिंदगी— भर दबाये रोग एकदम से प्रगट हो जायेंगे। वे विक्षिप्त हो जायेंगे। वे नहीं बर्दाश्त कर सकेंगे। इस घबड़ाहट से बचने के लिये वे मेरे विपरीत हो जाते हैं, मेरे विरोधी हो जाते हैं।
मेरे विरोधी होने में कारण है। मैं जो कह रहा हूं उसका सत्य इतना खतरनाक उन्हें मालूम होता है—खतरनाक इसलिए नहीं मालूम होता है कि सत्य खतरनाक है; खतरनाक इसलिए मालूम होता है कि अब तक वे इतने असत्य में जीये हैं और अब उस असत्य को छोडने में बड़ी मुश्किल मालूम होती है। और वह छूटेगा तो जीवन— भर का जो बांध था, वह टूट जायेगा...।
उनके जीवन में संयम नहीं है, संयम का सिर्फ थोथा आग्रह है। जो आदमी वस्तुत: संयमी है, जिसने वस्‍तुत: जाग्रत होकर सम्यक रूपेण अपनी कामवासना का अतिक्रमण किया है, उसे कुछ भी अंतर न पड़ेगा। उसे मेरी बात में जरा भी कुछ विरोध न दिखाई पड़ेगा। जिसको मेरी बात में विरोध दिखाई पड़ता है, वह केवल खबर दे रहा है अपने रुग्णचित्त की, मगर वह सोचता है कि वह मेरे खिलाफ कुछ कह रहा है।
फ्रायड के खिलाफ बडा प्रचार हुआ सारी दुनिया में। लेकिन फ्रायड जीवन के सीधे—सादे सत्यों की बात कर रहा था। फ्रायड वाममार्गी है। फ्रायड ने, दबाये हुए मनोवेगों को पुन: गतिमान करो, इसका संदेश दिया। सारी दुनिया में विरोध हुआ, सारे धर्मों ने विरोध किया। विरोध इसलिए किया कि तुम्हारे नीचे की जमीन खिसक गई। तुम सब गलत हो जाओगे अगर फ्रायड सही है। और यही उचित है कि तुम अपने को ही सही सिद्ध करते रहो। फिर तुम्हारी भीड़ है। भीड़ तुम्हारे साथ है। सत्य सदा अकेला है। असत्य बहुत प्राचीन है। भीड़ उनके साथ राजी है। भीड़ ने इतने दिन तक उनका साथ दिया है। भीड़ की सारी न्यस्त स्वार्थ की व्यवस्था उनसे जुड़ गयी है। तुम एकदम घबड़ा जाते हो, तुम एकदम भयभीत हो जाते हो। अपने भय से, अपनी घबड़ाहट से तुम विरोध करने लग जाते हो। लेकिन सत्य ऐसे हारता नहीं, सत्य बार—बार लौट आता है।
वाममार्ग लौट—लौट कर आता रहेगा। तंत्र की बार—बार घोषणा होगी, जब तक कि मनुष्य सहज नहीं हो जाता है। जिस दिन मनुष्य सहज हो जायेगा, उस दिन तंत्र की कोई जरूरत न रह जायेगी। तंत्र सिर्फ औषधि है। वाममार्ग, वे जो उलटे चल पड़े हैं लोग, उनको रास्ते पर लाने के लिए सिर्फ एक उपाय है। जो रास्ते पर आ गया, वह न तो दायें का होता है, न बायें का होता है। दायें—बायें दोनों उसके होते हैं; वह किसी का नहीं होता। उसकी अवस्था अतिक्रमण की होती है; वह दोनों के पार चला गया होता है।
पूछा तूने : तंत्र वाममार्ग अघोरपंथ वामपंथ जैसे नामों से लोग क्यों डरते हैं?
डरने का कारण है। तुम इतनी बारूद लिये बैठे हो अपने भीतर कि जरा—सी चिनगारी सत्य की जायेगी कि विस्फोट हो जायेगा। तुम चिनगारी से डरोगे नहीं तो क्या करोगे? जब तुम अपनी बारूद को गिराने को राजी हो जाओगे, तब तुम्हें चिनगारी से कोई भय न रह जायेगा। तुम डरते उसी बात से हो जिस बात से तुम्हारे भीतर बेचैनी पैदा होती है। और सत्य बड़ा बेचैन करता है, अगर असत्य के आग्रहपूर्वक संबंध बना लिये हों। अगर असत्य के साथ भांवर डाल ली है तो सत्य बहुत बेचैन करता है।
मुल्ला नसरुद्दीन की शादी हुई। तो जैसा मुसलमानों में रिवाज है... सुहागरात... पत्नी ने मुल्ला के सामने घूंघट उठाया, बुर्का उठाया। मुल्ला ने पहली दफे पत्नी देखी, पहले तो देखी नहीं थी। एकदम निराश होकर रह गया। इससे ज्यादा बदशकल स्त्री उसने जीवन में देखी नहीं थी। रिवाज के अनुसार पत्नी ने पूछा कि मैं किस—किस के सामने बुर्का उघाड़ सकती हूं? तो मुल्ला ने कहा. तू किसी के सामने उघाड़, बस मेरे सामने मत उघाड़ना। दुनिया भर के सामने उघाड़, तू जिस—जिसके सामने उघाड़ना हो उघाड़, मेरे सामने भर मत उघाड़ना। अब यह बुर्का पड़ा ही रहे तो अच्छा।
यह जो कुरूपता है, इससे घबड़ाहट पैदा होती है। तुम अपने पर बुर्का डाले हो, तुम उघाडते नहीं। जो भी तुम्हारे बुर्के उघाड़ देता है, तुम्हारी गंदगी दिखा देता है, उससे ही तुम नाराज हो जाते हो। जो भी तुम्हारे भीतर का कूड़ा—करकट दिखा देता है, उससे ही तुम नाराज हो जाते हो। और सदगुरु को दिखाना ही होगा तुम्हारे भीतर कूड़ा—करकट, क्योंकि देखोगे नहीं तो उससे मुक्त कैसे होओगे? तुम्हारे भीतर की व्यर्थता जो तुम संग्रहीत करके बैठे हो, जिसकी छाती पर सवार हो, अगर उससे तुम्हारा छुटकारा न होगा तो तुम उसी में डूबोगे, उसी से डूबोगे। वही तुम्हें डुबाने का कारण हो जायेगा। तुमने छाती पर पत्थर बांध रखे हैं, उन पत्थरों को हटाना ही होगा। हालाकि तुम सोचते हो कि पारस पत्थर हैं। वही तुम्हें डुबा रहे हैं।
जब भी सत्य की नवीन उदघोषणा होती है तो असत्य ने जो इतने जाल फैला रखे हैं, सब तरफ बेचैनी की लहर हो जाती है। सत्य की गर्दन काट दो, सत्य को जहर पिला दो, सत्य की वाणी बंद कर दो, इसकी सब तरह की चेष्टाएं शुरू हो जाती हैं। और इसमें नाराज होने की कोई बात नहीं है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। करुणा की ही बात है, दया की ही बात है।
बुद्ध ने अपने शिष्यों को कहा था कि तुम जिन लोगों को समझाने जाओगे, वही तुम्हें मारेंगे। तुम अनुकंपा से सत्य देने जाओगे, वे ही तुम पर पत्थर फेंकेंगे। तो नाराज मत होना। उनकी भी मजबूरी है, वे भी क्या करें? सदियों—सदियों तक उन्होंने जो सत्य माना था, तुम उसे तोड़ने आ गये। तुम उनका भवन हिलाने लगे। इसी भवन को उन्होंने अपनी सुरक्षा समझा था। तुम उनकी दीवालें गिराने लगे। तुम उनके बुर्के उठाकर उनकी कुरूपता दिखाने लगे। वे नाराज होंगे।
एक शिष्य जाता था—पूर्ण—यात्रा पर, बुद्ध का संदेश लेकर। बुद्ध ने पूछा : तू कहां जायेगा?
बिहार का एक हिस्सा था 'सूखा'। उसने कहा कि 'सूखा' अब तक कोई भिक्षु नहीं गया, वहां जाऊंगा। बुद्ध ने कहा वहां तू न जा तो अच्छा, उस इलाके के लोग बड़े खतरनाक हैं, इसलिए अब तक कोई भिक्षु वहां गया नहीं। वे तुझे गालियां देंगे तो तुझे क्या होगा? तो पूर्ण ने कहा : वे मुझे गालियां देंगे तो मैं अपने को धन्‍यभागी समझूंगा कि सिर्फ गालिया देते हैं, मारते नहीं। बुद्ध ने कहा : और उन्होंने तुझे मारा, फिर तुझे क्या होगा पूर्ण? तो पूर्ण ने कहा कि मैं धन्यभागी समझूंगा अपने को, कि मारते ही हैं, मार नहीं डालते हैं। बुद्ध ने कहा : एक सवाल और, अगर वे मार ही डालें, तो मरते—मरते तुझे क्या होगा? तो पूर्ण ने कहा कि और क्या होगा—यही कि कितने भले लोग हैं कि उस देह से छुटकारा दिला दिया जिस देह में रहता तो शायद कोई भूल—चूक हो जाती, अब भूल—चूक न हो सकेगी। उस देह से छुटकारा दिला दिया जिसमें रहता तो शायद कहीं पैर गलत रास्तों पर पड़ जाते, कुछ से कुछ हो जाता, भटक जाता; उस देह से छूटकारा दिला दिया! उनके प्रति अनुकंपा से भरा हुआ मरूंगा। उनके प्रति कृतज्ञता से भरा हुआ मरूंगा।
बुद्ध ने कहा : फिर तू जा, फिर तू कहीं भी जा। तू जहा भी जायेगा, वहीं तेरे मित्र पायेगा। क्योंकि तुझे अब शत्रु दिखाई नहीं पड़ सकता। नहीं दिखाई पड़ने से शत्रु नहीं हो जाता है, ऐसा नहीं है। मगर जिसको शत्रु दिखाई पड़ना बंद हो जाता है, वही सत्य की उदघोषणा कर सकता है। शत्रु तो होंगे पैदा, तत्‍क्षण पैदा हो जायेंगे। सत्य के शत्रु निरंतर पैदा होते हैं। हमारी इतनी समझ कहां है कि हम सत्य को पचा पायें! इतनी छाती कहा है हमारी बड़ी कि हम सत्य को अपने भीतर समाविष्ट करें, अपने भीतर मेहमान प न जाने दें। हम आतिथेय बनें सत्य के, सत्य अतिथि बने—इसकी हमारी पात्रता कहां? इसलिए निरंतर यह होता रहा है। निंदा होती रही, उपेक्षा होती रही, मगर सत्य अपनी उदघोषणा बार—बार करता रहा है।
और मैं तुमसे कहता हूं कि सत्य आता है मस्तिष्क के दायें हिस्से से, जो बायें हाथ से जुड़ा है। हिसाब—किताब आता है मस्तिष्क के बायें हिस्से से, जो दायें हाथ से जुड़ा है। हिसाब—किताब वाला  आदमी कविता के प्रति कभी भी राजी नहीं होता। धन—दौलत को मूल्य समझनेवाला व्यक्ति, ध्यान का मूल्‍य नहीं समझ पाता। और दुकान ही जिसे सब कुछ है, वह मंदिर का नहीं हो पाता। और अगर मंदिर में चला भी जाये, तो मंदिर भी उसके साथ ही भ्रष्ट हो जाता है।

तीसरा प्रश्न.

समाधि का पहला अनुभव कैसा होता है?

होगा तो ही जानोगे। कहा जा सके, ऐसा नहीं है। कुछ—कुछ इशारे किये जा सकते हैं। जैसे अंधेरे में अचानक दीया जल जाये, ऐसा होता है। या जैसे बीमार मरता हो और अचानक कोई दवा लग जाये.. मरते—मरते कोई दवा लग जाये; और जीवन की लहर, जीवन की पुलक फिर फैल जाये—ऐसा तो पा है। जैसे कोई मुर्दा जिंदा हो जाये—ऐसा होता है समाधि का पहला अनुभव।
अमृत का अनुभव है। परम संगीत का अनुभव है। पर होगा तो ही होगा। और होगा तो ही तुम समझ पाओगे, मेरे कहने से समझ में न आ सकेगा। प्रेम में जैसा होता है। अब कोई किसी को कैसे समझाये? जिसने प्रेम न किया हो, जिसने प्रेम जाना न हो, उसके सामने तुम कितना लाख सिर पटको, कितनी व्‍याख्या करो—सुन लेगा सब, मगर फिर भी पूछेगा कि मेरी कुछ समझ में नहीं आया, कुछ और थोड़ी व्‍याख्या करिए।
ऐसा ही जैसे अंधे को तुम प्रकाश समझाओ, या बहरे को नाद समझाओ—नहीं समझ में आ सकेगा। जिसके नासापुट खराब हो गये हैं, जिसे गंध नहीं आती, उसे गंध का कोई अनुभव कैसे बताओगे? अनुभव कभी भी शब्दों में बांधे नहीं जा सकते, लेकिन कुछ इशारे किये जा सकते हैं।

            गीत प्राणों में जगे, पर भावना में बह गए!
            एक थी मन की कसक
            जो साधनाओं में ढली, कल्पनाओं में पली;
            पंथ था मुझको अपरिचित, मैं नहीं अब तक चली
            प्रेम की संकरी गली
            बढ़ गए पग, किंतु सहसा
            और मन भी बढ़ गया
            लोक—लीकों के सभी भ्रम, एक पल में ढह गए!
            गीत प्राणों में जगे, पर भावना में बह गए!

            वह मधुर वेला प्रतीक्षा की मधुर अनुहार थी
            मैं चकित साभार थी;
            कह नहीं सकती हृदय की जीत थी, या हार थी
            वेदना सुकुमार थी
            मौन तो वाणी रही, पर
            भेद मन का खुल गया
            जो न कहना चाहती थी, ये नयन सब कह गए!
            गीत प्राणों में जगे, पर भावना में बह गए!

            कल्पना जिसकी संजोई सामने ही पा गई
            वह घड़ी भी आ गई
            छवि अनोखी थी हृदय पर छा गई
            मन भा गई; देखते शरमा गई;
            कर सकी मनुहार भी कब
            मैं स्वयं में खो गई;
            और अब तो प्राण मेरे कुछ ठगे—से रह गए!
            गीत प्राणों में जगे, पर भावना में बह गए!

जैसे अचानक तुम्हारे हृदय में एक गीत जगे। जैसे अचानक, अनायास; अकारण तुम्हारे भीतर एक रस का झरना फूट पड़े!
            पंथ था मुझको अपरिचित, मैं नहीं अब तक चली
            प्रेम की संकरी गली!
और अचानक प्रेम जग जाये.. ऐसा अनुभव है समाधि का प्रथम अनुभव। जैसे पतझड़ था और  अचानक वसंत आ जाये! और जहां रूखे—सूखे वृक्ष खड़े थे, हरे हो जाएं, लद जायें पत्तों से, फूल खिल जायेंऐसा अनुभव है समाधि का प्रथम।
बढ़ गए पग, किंतु सहसा
और जिसके भीतर प्रेम जगा या जिसके भीतर प्रकाश जगा, या जिसे नाद सुनाई पड़ा, फिर उसके पैर सहसा बढ़ जाते हैं। फिर भय नहीं पकड़ता। जिसके भीतर प्रेम जगा, वह सब भय छोड़ देता है। इसलिए तो गणित, हिसाब बिठानेवाले लोग कहते हैं कि प्रेम अंधा होता है—कि जहां आंखवाले जाने से डरते हैं, वहां प्रेमी चला जाता है। जहां आंखवाले कहते हैं सावधान, सावधान, बचो, झंझट में पड़ोगे—वहां प्रेमी नाचता और गीत गुनगुनाता प्रवेश कर जाता है।
इसलिए समझदार प्रेमी को अंधा कहते हैं। असलियत उलटी ही है। समझदारों के सिवाय कोई और अंधा नहीं। प्रेमी के पास ही आंख होती है। अगर प्रेम आंख नहीं है तो फिर और आंख कहां होगी?
            पंथ था मुझको अपरिचित, मैं नहीं अब तक चली
            प्रेम की संकरी गली
            बढ़ गए पग, किंतु सहसा
            और मन भी बढ़ गया
            लोक—लीको के सभी भ्रम, एक पल में ढह गए!
ऐसा है समाधि का पहला अनुभव। अब तक की सारी धारणाएं अब तक के सारे पक्षपात, अब तक के सारे सिद्धात, शास्त्र, ऐसे बह जायेंगे, जैसे वर्षा का पहला पूर आया नदी में और सब कूड़ा—करकट। किनारों का ले गया... सब बह गया।
            वह मधुर वेला प्रतीक्षा की मधुर अनुहार थी,
            मैं चकित साभार थी
हाँ, चकित होकर रह जाओगे खड़े; सोच न सकोगे क्या हो रहा है। विचार बंद हो जायेंगे। सोचने का अवसर नहीं है। सोचने के पार कुछ घट रहा है।
            वह मधुर वेला प्रतीक्षा की मधुर अनुहार थी,
            मैं चकित साभार थी
            कह नहीं सकती हृदय की जीत थी, या हार थी,
कहना कठिन है—कौन जीता, कौन हारा? क्योंकि वहा दो नहीं हैं, इसलिए जीत कहो तो ठीक, हार कहो तो ठीक। एक अर्थ में हार है, क्योंकि मिट गये; दूसरे अर्थ में जीत है, क्योंकि परमात्मा हो गये। एक अर्थ में हार है बूंद की कि बूंद मिट गई, दूसरे अर्थ में जीत है कि बूंद सागर हो गई।
            कह नहीं सकती हृदय की जीत थी, या हार थी,
            वेदना सुकुमार थी
पर इतना पक्का है कि वह जो पीड़ा थी बड़ी प्रिय थी, बड़ी मीठी थी।
कहा नहीं गोरख ने—मरण है मीठा! तिस मरणी मरो, जिस मरणी गोरख मरि दीठा। बड़ी मीठी प्रीति है, बड़ी मीठी प्रीतिकर मृत्यु है!
            कल्पना जिसकी संजोई सामने ही पा गई
सच तो यह है, तुमने जितनी कल्पनाएं संजोई हैं, सब छोटी पड़ जाती हैं सत्य के समक्ष। तुमने जो मांगा था उससे बहुत ज्यादा मिलता है, जब मिलता है; छप्पर तोड़कर मिलता है।
            वह घड़ी भी आ गई
जिसका भरोसा भी नहीं होता था कि आ जायेगी, घड़ी आती है।
            वह घड़ी भी आ गई
            छवि अनोखी थी हृदय पर छा गई,
            मन भा गई; देखते शरमा गई,
भरोसा नहीं आता कि मेरी ऐसी पात्रता! कि प्यारा मिलेगा, कि प्रियतम से मिलन होगा।
            कर सकी मनुहार भी कब
कहते कुछ न बना। स्वागत के दो शब्द न बोले जा सके...।
            मैं स्वयं में खो गई;
            और अब तो प्राण मेरे कुछ ठगे—से रह गए!
समाधि का पहला अनुभव, जैसे बिलकुल ठग गए, जैसे बिलकुल लुट गये। हारे कि जीते, पता नहीं; इतना— भर पक्का है कि सीमाएं टूट गईं, संकीर्णताएं टूट गईं—उतरा पूरा आकाश। कबीर ने कहा है. बुंद में समुद समाना..। बूंद में समुद्र समा गया। सीमा में असीम आ गया, दृश्य में अदृश्य...। जो गोचर था उसके भीतर अगोचर खड़ा हो गया।
समाधि का पहला अनुभव इस जगत का सर्वाधिक बहुमूल्य अनुभव है। और फिर अनुभव पर अनुभव है, कमल पर कमल खिलते चले जाते हैं। फिर कोई अंत नहीं है, फिर पंक्तिबद्ध कमल खिलते चले जाते हैं। फिर ऐसा कभी होता ही नहीं कि समाधि के अनुभव कम पड़ते हैं, बढ़ते ही चले जाते हैं। इसलिए परमात्मा को अनंत कहा है, कि उसका अनुभव कभी चुकता नहीं है।
जीसस के जीवन में उल्लेख है कि जब बपतिस्मा वाले जीन ने—यह भी एक अदभुत आदमी था जॉन—जीसस को दीक्षा दी। जीसस के गुरु थे जॉन। जोर्दन नदी में जीसस को ले जाकर जब उन्होंने जल से दीक्षा दी तो बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गयी थी, क्योंकि जीन कह रहा था कि जिस आदमी के लिए दीक्षा देने को मैं रुका हूं वह आया, अब आया, अब आया, आने ही वाला है। तो बहुत भीड़ इकट्ठी हो गयी थी उस आदमी को देखने। और जब जीसस आये तो जॉन ने कहा, आ गया यह आदमी, इसी को दीक्षा देने के लिए मैं रुका था, मेरा काम अब पूरा हो गया। अब यह सम्हालेगा। मैं बूढ़ा भी हो चुका हूं।
जब जीसस को दीक्षा दी जोर्दन नदी में तो कहानी बड़ी प्रीतिकर बात कहती है—ये प्रतीक है—कि एक सफेद कबूतर अचानक आकाश से उतरा और जीसस में समा गया...। यह तो प्रतीक है। सफेद कबूतर शांति का प्रतीक है। कोई वस्तुत: कबूतर आकाश से उतरकर जीसस में नहीं समा गया, लेकिन जरूर कोई सफेदी अचानक आकाश से उतरती हुई अनुभव हुई होगी बहुत लोगों कों—जैसे बिजली कौंध गई हो! जिनके पास जरा—सी भी आंख थी... और आंखवाले लोग ही इकट्ठे हुए होंगे। किसको पड़ी है? जीन जोर्दन नदी में जीसस को दीक्षा दे रहा है, किसको पड़ी है? प्यासे इकट्ठे हुए होंगे। जिन्हें थोड़ी बूंदें लग गयी थीं, वे इकट्ठे हुए होंगे। जिन पर थोड़े रंग के छींटे पड़ गये थे, वे इकट्ठे हुए होंगे। जिन पर थोड़ी जॉन की गुलाल पड़ गयी थी, वे इकट्ठे हुए होंगे। देखा होगा एक ज्योतिपुंज, जैसे उतरा आकाश से और जीसस में समा गया..। और जॉन ने तत्‍क्षण कहा कि मेरा काम पूरा हुआ। जिसके लिए मैं प्रतीक्षा कर रहा था, वह आ गया। अब मैं विदा हो सकता हूं।
वह समाधि का पहला अनुभव था जीसस के लिए। समाधि का जब पहला अनुभव किसी को होता है तो उसे तो होता ही है, उसके आसपास भी भनक पड़ जाती है। कहते हैं, जब बुद्ध को समाधि का पहला अनुभव हुआ तो बेमौसम फूल खिल गये। यह भी प्रतीक है, जैसे कबूतर; कबूतर यहूदियों का प्रतीक है—शांति का प्रतीक। फूल का खिल जाना भारतीय प्रतीक है—बेमौसम, अचानक...। जब भी किसी को समाधि फलती है—बेमौसम का फूल है समाधि; क्योंकि इस पृथ्वी पर मौसम ही कहां है समाधि के खिलने के लिये! इस पृथ्वी पर समाधि न खिले, यह तो बिलकुल सामान्य बात है; समाधि खिले, यही असामान्य है। यह पृथ्वी तो रेगिस्तान है, यहां हरियाली कहां, रसधार कहां? जब कभी उतर आती है तो बेमौसम का फूल है। नहीं होना था और हुआ, चमत्कार है! समाधि चमत्कार है!
अनुभव तुम्हें होगा तो ही जान पाओगे। या जिन्हें अनुभव हुआ हो उनके पास बैठो, उठो, शायद। किसी दिन सफेद कबूतर उतरता दिखाई पड़े, या अचानक फूल खिलते दिखाई पड़ जायें।

मेरे आंगन श्वेत कबूतर!
उड़ आया ऊंची मुंडेर से, मेरे आंगन श्वेत कबूतर!

            गर्मी की हल्की संध्या यों—
            झांक गई मेरे आंगन में
            झरीं केवड़े की कुछ बूंदें
            किसी नवोढ़ा के तन—मन में;

लहर गई सतरंगी—चूनर, ज्यों तन्यी के मृदुल गात पर!
उड़ आया ऊंची मुंडेर से, मेरे अपान श्वेत कबूतर!

            मेरे हाथ रची मेहंदी, उर
            बगिया में बौराया फागुन
            मेरे कान बजी बंसी— धुन
            घर आया मनचाहा पाहुन

एक पुलक प्राणों में, चितवन एक नयन में, मधुर—मधुरतर!
उड़ आया ऊंची मुंडेर से, मेरे आंगन श्वेत कबूतर!

            कोई सुंदर स्वप्न सुनहले
            आंचल में चंदा बन आया
            कोई भटका गीत उनींदा
            मेरी सांसों से टकराया;

छिटक गई हो जैसे जूही, मन—प्राणों में महक—महक कर!
उड़ आया ऊंची मुडेर से, मेरे अपान श्वेत कबूतर!

            मेरा चंचल गीत किलकता
            घर—आंगन देहरी—दरवाजे।
            दीप जलाती सांझ उतरती
            प्राणों में शहनाई बाजे

अमराई में बिखर गए री, फूल सरीखे सरस—सरस स्वर!
उड़ आया ऊंची मुंडेर से, मेरे आंगन श्वेत कबूतर!

आता है उतर एक श्वेत कबूतर समाधि के पहले अनुभव में। चारों तरफ फूल खिल जाते हैं। वंशी की धुन बज उठती है। भीतर कोई शहनाई बजाने लगता है। सारे नाद जगते हैं।

            मेरे कान बजी वंशी— धुन
            घर आया मनचाहा पाहुन

आ गया मेहमान जिसकी प्रतीक्षा है—अतिथि। जानते हो न, इस देश में हमने मेहमान को अतिथि इसलिए कहा कि वह बिना तिथि बतलाये आता था। परमात्मा ही एकमात्र अतिथि बचा है अब तो, बाकी सब अतिथि तो तिथि बतलाकर आते हैं। अब तो खबर कर देते हैं कि आ रहे हैं। वे यह कह देते हैं कि धक्का एकदम से देना ठीक नहीं; आ रहे हैं, सम्हल जाओ, कि तैयार कर लो अपने को। क्योंकि अतिथि को देखकर अब कोई प्रसन्न तो होता नहीं। पहले से खबर आ जाती है तो तैयारी हो जाती है गाली—गलौज जो देनी है दे लेते हैं लोग। पत्नी को जो कहना होता है कह लेती है। पति को जो कहना होता है कह लेते हैं। तब तक आते—आते शिष्टाचार वापिस लौट आता है। एकदम से आ जाओ, कौन जाने सच्ची बातें निकल जायें। कहना तो यही पड़ता है कि धन्यभाग, कि आप को देखकर बड़ा हृदय प्रफुल्लित हो रहा है! यह मन की बात नहीं। मन की बात कुछ और है। ठीक ही है पश्चिम का रिवाज कि पहले खबर कर दो, ताकि लोग तैयारी कर लें, अपने हृदय मजबूत कर लें।
अब तो परमात्मा ही एकमात्र अतिथि बचा है—तिथि नहीं बतलाता। उसकी कोई भविष्याणी नहीं हो सकती कब आयेगा। समाधि का पहला अनुभव कब घटेगा, कोई भी नहीं कहं सकता। अनायास, बेमौसम...। सच तो यह है, जब तुम प्रतीक्षा नहीं कर रहे थे, बिलकुल नहीं कर रहे थे, तब घटता है। क्योंकि जब तक तुम प्रतीक्षा करते हो, तुम तने ही रहते हो। तुम्हारे चित्त में तनाव रहता है। तुम राह देखते हो तो तुम पूरे संलग्न नहीं हो पाते। राह देखना भी विचार है, और विचार बाधा है। जब तक तुम सोचते हो अब हो जाये, अभी तक नहीं हुआ—तब तक तो तुम चिंताओं से घिरे हो; बदलिया घिरी हैं, सूरज निकले तो कैसे निकले? आता है आकस्मिक, अनायास—जब तुम सिर्फ बैठे होते हो. कुछ भी नहीं कर रहे होते, ध्यान भी नहीं कर रहे होते—समाधि का पहला अनुभव तब होता है। क्योंकि जब तुम ध्यान भी कर रहे होते हो, तब भी तुम्हारे मन में कहीं वासना सरकती रहती है—शायद अब हो जाये, अब होता होगा; अभी तक नहीं हुआ, बड़ी देर लगाई! शिकायतें उठती रहती हैं।
ध्यान करते—करते, करते—करते एक दिन ऐसी घड़ी घटती है कि तुम बैठे होते हो, ध्यान भी नहीं कर रहे होते हो, शात होते हो, बस स्वस्थ होते हो, मौन होते हो—और आ गया!

            मेरे कान बजी वंशी—धुन
            घर आया मनचाहा पाहुन

छिटक गई हो जैसे जूही, मन—प्राणों में महक—महक कर!

            मेरा चंचल गीत किलकता
            घर— आंगन देहरी—दरवाजे।
            दीप जलाती सांझ उतरती प्राणों में शहनाई बाजे

अमराई में बिखर गए री, फूल सरीखे सरस—सरस स्वर!

घटती है घटना। परिभाषा मत पूछो, राह पूछो। पूछो कि कैसे घटेगी, यह मत पूछो कि क्या घटता है? क्योंकि कहा नहीं जा सकता। बताने का कोई उपाय नहीं है। यह बात कहने की नहीं है, यह बात जानने की है। लेकिन विधि बताई जा सकती है, इशारा किया जा सकता है—ऐसे चलो, ऐसे सम्हलो। चित्त निर्विचार हो, शात हो, अपेक्षा—शून्य हो, वासना, तृष्णा से मुक्त हो—बस उसी क्षण में। जब भी ऐसी वसंत की घड़ी तुम्हारे भीतर सज जायेगी—बज उठती है भीतर की शहनाई; खिल जाते हैं बेमौसम फूल; उतर आती है कोई किरण आकाश से और कर जाती है तुम्हें सदा के लिए और, भिन्न। फिर तुम दोबारा वही न हो सकोगे। समाधि का पहला अनुभव—और स्नान हो गया!
सदियों—सदियों से तुम गंदे हो। — धूल जम गई है बहुत, लंबी यात्राएं की हैं। समाधि का पहला अनुभव सारी धूल बहा ले जाता है। सारी धारणाएं, सारी धारणाओं के जाल—सब समाप्त हो जाते हैं; तुम निर्दोष हो जाते हो।
कहा नहीं गोरख ने कि जैसे छोटा बालक भीतर जन्मता है—अंतर के शून्य में एक बालक बोल उठे, एक नये जीवन का आविर्भाव! समाधि में तुम्हारी मृत्यु हो जाती है।
मरी हे जोगी मरी...। अहंकार मर जाता है। तुम मिट जाते हो और परमात्मा हो जाता है।

चौथा प्रश्न :

प्यारे प्रभु!
प्रश्नों के अंबार लगे हैं
उत्तर चुप हैं
कौन सहेजे इन कांटों को
बगिया चुप है माली चुप है
प्रश्न स्वयं में रहता चुप है
दिनकर चुप है रातें चुप हैं
उठी बदरिया कारी— कारी
लगा अंधेरा बिलकुल धुप है
प्रभु इस स्थिति का निराकरण करने की अनुकंपा करें।

न्‍नूमल! जब तक प्रश्न हैं तब तक उत्तर चुप रहेंगे। प्रश्नों के कारण ही उत्तर चुप हैं। प्रश्नों से उत्तर नहीं मिलता, जब प्रश्न चले जाते हैं और चित्त निष्प्रश्न हो जाता है तब उत्तर मिलता है। प्रश्नों की भीड़ में ही तो उत्तर खो गया है।
ठीक कहते हो तुम : प्रश्नों के अंबार लगे हैं उत्तर चुप हैं
उत्तर चुप रहेंगे ही। प्रश्न इतना शोरगुल मचा रहे हैं, उत्तर बोलें तो कैसे बोलें? और खयाल रखना, प्रश्न अनेक होते हैं, उत्तर एक है। उत्तर तो एकवचन है, प्रश्न बहुवचन। प्रश्नों की भीड़ होती है। जैसे बीमारिया तो बहुत होती हैं, स्वास्थ्य एक होता है। बहुत तरह के स्वास्थ्य नहीं होते। तुम किसी से कहो कि मैं स्वस्थ हूं तो वह यह नहीं पूछता कि किस प्रकार के स्वस्थ, कौन—सी भांति के स्वास्थ्य में हो? लेकिन किसी से कहो मैं बीमार हूं तो तस्सण पूछता है—कौन—सी बीमारी? बीमारियां बहुत हैं, स्वास्थ्य एक है। प्रश्न बहुत हैं, उत्तर एक है। और बहुत प्रश्नों के कारण वह एक उत्तर पकड़ में नहीं आता। भीड़ लगी है प्रश्नों की, सच कहते हो। चारों तरफ प्रश्न ही प्रश्न हैं...... प्रश्न से प्रश्न निकलते जाते हैं, खड़े होते जाते हैं, मिटते जाते हैं, नये बनते जाते हैं। तुम इतने घिरे हो प्रश्नों से यह सच है। मगर इसी कारण उत्तर चुप है।
तुम कहते हो. प्रश्नों के अंबार लगे हैं उत्तर चुप हैं
उत्तर चुप नहीं है; उत्तर भी बोल रहा है; लेकिन उत्तर एक है और प्रश्न अनेक हैं। नक्कारखाने में तूती की आवाज जैसे खो जाये...। बाजार में, शोरगुल में कोई धीमे— धीमे स्वर में गीत गाये, जैसे खो जाये, ऐसा ही सब खो गया है।
उत्तर पाया जा सकता है। उत्तर दूर भी नहीं है। उत्तर बहुत निकट है। उत्तर तुम हो। उत्तर तुम्हारे केंद्र में बसा है। जरा प्रश्नों को जाने दो.। प्रश्नों को मूल्य मत दो। प्रश्नों को बहुत ज्यादा अर्थ भी मत दो। प्रश्नों से धीरे— धीरे उदासीन हो जाओ। प्रश्नों को सहयोग मत दो, सत्कार मत दो। प्रश्नों की उपेक्षा करो। प्रश्नों के प्रति तटस्थ हो जाओ। क्योंकि जो प्रश्नों में चला गया, वह दर्शनशास्त्र के जंगल में भटक जाता है। तुम प्रश्नों को चलने दो, आने दो, जाने दो। ऐसे ही देखो प्रश्नों की भीड़ को, जैसे तुम रास्ते पर चलते लोगों को देखते हो—न कुछ लेना, न कुछ देना—असंग— भाव से, दूर खड़े.। तुम्हारे और तुम्हारे प्रश्नों के बीच जितनी दूरी बढ़ जाये, उतना हितकर है; क्योंकि उसी अंतराल में उत्तर उठेगा। बुद्ध के पास जब भी कोई जाता था; कोई प्रश्न पूछने, तो बुद्ध कहते. रुक जाओ, दो वर्ष रुक जाओ। दो वर्ष चुप बैठो मेरे पास, फिर पूछ लेना।
ऐसा हुआ, एक बड़ा दार्शनिक बुद्ध के पास गया। मौलुंकपुत्त उसका नाम था। जाहिर दार्शनिक था। उसने बड़े प्रश्नों के अंबार लगा दिये। बुद्ध ने प्रश्न सुने और कहा कि मौलुंकपुत्त, तू सच ही उत्तर चाहता है? अगर सच ही चाहता है, कीमत चुका सकेगा?
मौलुंकपुत्त ने कहा : जीवन मेरा अंत होने के करीब आ रहा है। जीवन— भर से ये प्रश्न पूछ रहा हूं। बहुत उत्तर मिले, लेकिन कोई उत्तर उत्तर साबित नहीं हुआ। हर उत्तर में से नये प्रश्न निकल आये हैं। किसी उत्तर में समाधान नहीं हुआ है। आप क्या कीमत मांगते हैं? मैं सब कीमत चुकाने को तैयार हूं। मैं इन प्रश्नों के हल चाहता ही हूं। मैं इनका समाधान लेकर इस पृथ्वी से जाना चाहता हूं।
फिर, बुद्ध ने कहा, ठीक है। क्योंकि लोग उत्तर तो मांगते हैं, मगर कीमत चुकाने को राजी नहीं होते; इसलिए मैंने तुझसे पूछा। फिर दो साल तू चुप बैठ जा, यह कीमत है। तू मेरे पास दो साल चुप बैठ, बोलना ही मत। जब दो साल बीत जायेंगे, मैं खुद ही तुझसे पूछूंगा कि मौलुंकपुत्त, अब पूछ ले। फिर तू पूछ लेना तुझे जो पूछना हो। और आश्वासन देता हूं कि सब उत्तर दे दूंगा, सब निराकरण कर दूंगा! मगर दो साल बिलकुल चुप, सन्नाटा.. दो साल बात मत उठाना।
मौलुंकपुत्त सोच ही रहा था कि ही कहूं कि ना, क्योंकि दो साल लंबा वक्त है और इस आदमी का क्या भरोसा, दो साल बाद देगा भी उत्तर कि नहीं? उसने कहा कि आप पक्का विश्वास दिलाते हैं कि दो साल बाद उत्तर देंगे? बुद्ध ने कहा; बिलकुल विश्वास दिलाता हूं तू पूछेगा तो दूंगा। तू पूछेगा ही नहीं तो मैं किसको उत्तर दूंगा? तभी एक भिक्षु पास के एक वृक्ष के नीचे बैठा ध्यान कर रहा था। खिलखिलाकर हंसने लगा। मौलुंकपुत्त ने पूछा : यह भिक्षु क्यों हंस रहा है? बुद्ध ने कहा. तुम्हीं पूछ लो। उस भिक्षु ने कहा कि अगर पूछना हो, अभी पूछ लो। यही धोखा मेरे साथ हुआ। हम भी ऐसे ही बुद्ध बने! मगर यह बात सच कह रहे हैं वे कि अगर पूछोगे तो दो साल बाद उत्तर देंगे, मगर दो साल बाद कौन पूछता है! दो साल से मैं चुप बैठा हूं। अब वे मुझसे कुरेद—कुरेद कर पूछते हैं कि पूछो भाई, मगर दो साल चुप रहने के बाद पूछने को कुछ बचता नहीं, उत्तर मिल ही जाता है। अगर पूछना हो तो अभी पूछ लो, नहीं तो दो साल बाद फिर पूछने को कुछ न बचेगा।
और यही हुआ, मौलुंकपुत्त दो वर्ष रुका। दो वर्ष पूरे हुए, बुद्ध भूले नहीं, तिथि—तारीख सब याद रखी। ठीक दो साल पूरे होने पर, मौलुंकपुत्त तो भूल ही गया था, क्योंकि जिसके विचार धीरे— धीरे शात हो जायें, उसे समय का बोध भी खो जाता है। क्या समय का हिसाब, कौन दिन आया, कौन वर्ष आया, क्या हिसाब! सब जा चुका था, सब बह चुका था। जरूरत भी क्या थी! बैठना था रोज बुद्ध के पास तो शुक्र हो कि शनि, कि रवि हो कि सोम, सब बराबर था। आषाढ़ हो कि जेठ, गर्मी हो कि सर्दी, सब बराबर था। भीतर तो एक ही रस था—शांति का, मौन का। दो वर्ष पूरे हो गये, बुद्ध ने कहा. मौलुंकपुत्त, तुम खड़े हो जाओ। खड़ा हो गया मौलुंकपुत्त। बुद्ध ने कहा. अब तुम पूछ लो, क्योंकि मैं अपने वचन से मुकरता नहीं। तुम्हें कुछ पूछना है?
मौलुंकपुत्त हंसने लगा और उसने कहा. वह भिक्षु ठीक कहा था। मेरे पास पूछने को अब कुछ भी नहीं है। उत्तर आ ही गया। आपकी कृपा से उत्तर आ ही गया।
उत्तर दिया नहीं गया और आ गया! उत्तर बाहर से आता ही नहीं, उत्तर भीतर से आता है। ऐसा ही समझो, जैसे कोई कुआ खोदता है तो पहले कंकड़—पत्थर निकलते हैं, कूड़ा—करकट निकलता है, सूखी जमीन निकलती है, फिर गीली जमीन आती है, फिर कीचड़ निकलती है, फिर जलस्रोत...। जलस्रोत तो दबे पड़े हैं। तुम्हारे प्रश्नों की ही पर्त—पर्त जम गयी है, उसी के नीचे जलस्रोत दबा पड़ा है। खुदाई करो, इन प्रश्नों को हटाओ। और हटाने का उपाय एक ही है : जाग कर साक्षी— भाव से इन प्रश्नों के प्रवाह को देखते रहो। सिर्फ देखते रहो इस प्रवाह को, कुछ मत करो। बैठ जाओ रोज घटे—दो—घटे, चलने दो प्रवाह को। जल्दी भी न करना कि आज ही बंद हो जाये।
इसलिए बुद्ध ने कहा, दो साल। कोई तीन महीने के बाद पहली सरसराहट सन्नाटे की शुरू होती है। और कोई दो साल होते—होते अनुभव पक जाता है। बस कोई इतना धीरज भी रखे कि दो घंटे रोज बैठता रहे, कुछ न करे...। उस कुछ न करने में सारी कला छिपी है।
लोग पूछते हैं : बुद्ध को पहली समाधि कैसे घटी? बैठे थे वृक्ष के नीचे, कुछ कर नहीं रहे थे, तब घटी। छह साल तक बहुत कुछ किया—बड़े यम, व्यायाम, प्राणायाम, न मालूम क्या—क्या किया। सब करके थक गये थे, उस रात तय करके सोये कि अब कुछ नहीं करना, हो गया बहुत। करने से भी कुछ नहीं होता। उस रात करना भी छोड़ दिया। उस रात बिलकुल बिना करने की अवस्था में सो गये। शून्य भाव था। सुबह आंख खुली और समाधि द्वार पर खड़ी थी। जिस मेहमान की प्रतीक्षा थी, वह आ गया। आखिरी तारा डूबता था सुबह का और भीतर बुद्ध के आखिरी विचार डूब गया। उधर आखिरी तारे से आकाश खाली हुआ, इधर आखिरी विचार भी डूब गया। समाधि आ गयी, उत्तर आ गया। इसीलिए तो समाधि कहते हैं उसे, क्योंकि उसमें समाधान है।

            सांझ आई, चुप हुए धरती—गगन
            नयन में गोधूलि के बादल उठे
            बोझ से पलकें झपीं नम हो गईं
            सांझ ने पूछा, उदासी किसलिए?
            किंतु मेरे पास कुछ उत्तर नहीं!

            रात आई, कालिमा घिरती गई
            सघन तम में द्वार मन के खुल गए
            नगारियां हंसने लगीं
            रात ने पूछा, जलन यह किसलिए?
            किंतु मेरे पास कुछ उत्तर नहीं!

            नींद आई, चेतना सब मौन है
            देह थककर सो गई, पर प्राण को
            स्वप्न की जादूभरी गलियां मिलीं
            नींद ने पूछा, भुलावे किसलिए?
            किंतु मेरे पास कुछ उत्तर नहीं!
            प्रश्न तो बिखरे यहां हर ओर हैं
            किंतु मेरे पास कुछ उत्तर नहीं!

तुम प्रश्नों को पकडो ही मत, उत्तर तुम्हें मिलेंगे भी नहीं। कोई कभी प्रश्नों के सहारे चलकर उत्तर पाया भी नहीं। तुम प्रश्न उठने दो, यह मन की खुजलाहट है। खुजलाहट ठीक शब्द है। कभी—कभी खुजलाहट उठती है, तुम खूजा लेते हो—बस ऐसे ही मन की खुजलाहट हैं प्रश्न। खूजा लेने से कुछ हल नहीं होता, लेकिन न खुजाओ तो भी बेचैनी होती है। खूजा लेने से थोड़ी—सी क्षण— भर को राहत मिलती है। बस ऐसे ही तुम्हारे उत्तर हैं। एक उत्तर पकड़ लिया, थोड़ी देर राहत मिलती है। जल्दी ही उस उत्तर में से भी प्रश्न निकल आयेंगे। फिर राहत खो जायेगी, फिर उत्तर की तलाश शुरू हो जायेगी।
कन्‍नूमल तुम ठीक कहते हो:
            प्रश्नों के अंबार लगे हैं
            उत्तर चुप हैं कौन सहेजे इन कांटों को
            बगिया चुप है माली चुप है
            प्रश्न स्वयं में रहता चुप है
            दिनकर चुप है रातें चुप हैं
            उठी बदरिया कारी कारी
            लगा अंधेरा बिलकुल धुप है
            प्रश्नों के अंबार लगे हैं
            उत्तर चुप हैं
उत्तर चुप रहेंगे। उत्तर बोलते नहीं। तुम बोलना जब बंद कर दोगे, तत्कण उन्हें पहचान लोगे। तुम्हारी वाणी खो जायेगी और तुम पाओगे—शून्य तुम्हारे भीतर बोला, मौन तुम्हारे भीतर बोला। उस मौन में अचानक समाधान है, सब प्रश्नों का उत्तर है; क्योंकि उस मौन में शांति है, सुख है, परम आनंद है।
तुमने एक बात खयाल की, प्रश्न उठते दुख के कारण हैं! दुख प्रश्नों का जन्मदाता है। जैसे तुम्हारे सिर में दर्द होता है तो तुम पूछते हो सिर में दर्द क्यों है? जब नहीं होता तो तुम यह नहीं पूछते कि सिर में दर्द क्यों नहीं है? तुम्हें जब बीमारी होती है तो तुम पूछते हो डाक्टर से जाकर कि बीमार क्यों हूं कारण? लेकिन जब तुम स्वस्थ होते हो तब तुम डाक्टर के पास जाकर नहीं पूछते कि मैं स्वस्थ क्यों हूं कारण? स्वास्थ्य में कोई प्रश्न नहीं उठता, बीमारी में प्रश्न उठता है। दुख से प्रश्नों का जन्म होता है, सुख में प्रश्न क्षीण हो जाते हैं।
तुम जैसे ही अपने भीतर शांत हो जाओगे और थोड़े—से सुख की झलक पाओगे, हैरान हो कर पाओगे—प्रश्न खो गये! कौन पूछता है, किसलिए पूछता है! दर्द ही न रहा तो दर्द से जन्मनेवाले प्रश्न कैसे बच सकते हैं? वे अपने—आप समाप्त हो जाते हैं।

आखिरी प्रश्न :

प्रार्थना क्या है?

प्रार्थना अहोभाव की दशा है।
प्रार्थना है धन्यवाद।
परमात्मा ने इतना दिया है, हम कम—से—कम धन्यवाद तो दें।

प्रार्थना है 'उसके' स्वागत की तैयारी। अतिथि आयेगा, अतिथि आता ही होगा। घर पर बंदनवार लगायें। फूल की माला गूंथे। आरती सजायें। प्रार्थना स्वागत की तैयारी है। अतिथि कब आ जायेगा, पता नहीं; हम तैयार तो हों!

            जब से सुना, द्वार तुम मेरे आओगे,
            नई —नई नित बंदनवार बंधाती हूं!

            प्राण तुम्हारे स्वागत में द्वार, देहरी,
            अंगना देखो, सारा सदन बुहारा है;
            कोमल हैं प्रिय चरण तुम्हारे इसीलिए
            पंखुरियों से सारा पंथ संवारा है;
            जब से सुना, सहन तक तुम आ जाओगे,
            चौक पूरती, मंगल —कलश भराती हूं।
            जब से सुना, द्वार तुम मेरे आओगे,
            नई —नई नित बंदनवार बंधाती हूं!

            वीराना—सा जीवन समझा था मैंने, सोचा,
            कोई भी तो मेरा गीत नहीं है;
            अनजाने अधरों पर सहसा आ जाये,
            ऐसा कोई भी तो मेरा गीत नहीं है;
            जब से सुना, गीत तुम मेरे गाओगे,
            नये — नये नित छंद बनाकर लाती हूं!
            जब से सुना, द्वार तुम मेरे आओगे,
            नई —नई नित बंदनवार बंधाती हूं!

            इन नयनों में नये सपन का मेला है,
            सतरंगी ये चाह हृदय में मुसकाती;
            कैसे काटू पंख कल्पना के सुंदर,
            मन की सोन — चिरैया देखो अकुलाती;
            जब से सुना प्राण पर मेरे छाओगे,
            नये —नये नित मादक सपन सजाती हूं!
            जब से सुना द्वार तुम मेरे आओगे,
            नई —नई नित बंदनवार बंधाती हूं!

            चौराहे पर खड़ी हुई हूं सोच यही,
            पता नहीं तुम किस पथ पर होकर आओ;
            मैं दीवानी बनी तुम्हारी, जग कहता,
            सांवरिया इस पागलपन को दुलराओ;
            जब से सुना अजाना पथ अपनाओगे,
            डगर—डगर पर दीपक रोज जलाती हूं!
            जब से सुना, द्वार पर मेरे आओगे,
            नई—नई नित बंदनवार बंधाती हूं!

कब आ जाये अतिथि, किस मार्ग से आ जाये, किस द्वार से आ जाये, इसकी तैयारी का नाम प्रार्थना है! प्रार्थना एक स्वागत की भाव—दशा है।
औपचारिक प्रार्थना में मत पड़ना, सहज हो प्रार्थना, सरल हो, तुम्हारे हृदय से उठी हो, तो ही सार्थक है। शास्त्रीय न हो— हार्दिक हो। फिर चाहे तुतलाने जैसी ही क्यों न हो..।
तुमने देखा, छोटा बच्चा जब पहली बार तुतलाने लगता है तो उसका तुतलाना भी कितना प्यारा लगता है! फिर बाद में जब ठीक—ठीक बोलने लगेगा, सम्यक रूपेण बोलने लगेगा तो शायद कोई इसकी फिक्र भी न लेगा। लेकिन तुतलाना इतना प्यारा लगता है कि मां मगन हो जाती है, पास—पड़ोस के लोगों को बुलाती है कि देखो! अभी बताने जैसा कुछ भी नहीं है। फिर जब बोलने लगेगा तो कोई फिक्र नहीं लेगा।
प्रार्थना शुरू—शुरू में तुतलाने जैसी है। और जो प्रार्थना तुतलाती है वही परमात्मा तक पहुंचती है, खयाल रखना। हार्दिक हो, सहज हो, तुम्हारी हो।

            आज मैं किसका साथ गहूं?

            गगन में लेती घटा हिलोर
            कल्पना नाचे बनकर मोर
            भावना खींचे अपनी ओर
            कहो, मैं किसके साथ बहू?

            आज तिरती अधरों पर प्यास
            हृदय भी बैठा, मौन, उदास
            श्वास में उद्वेलित उच्छवास
            वेदना से म्रियमाण रहूं?

            नयन की भाषा है अनजान
            विहग से उडुते मेरे गान
            बड़े ही असमंजस में प्राण
            विवशता का अनुताप सहूं?

            सांझ की वेला बहुत अधीर
            थिरकता फिरता मंद समीर
            घुटन भर— भर जाती है पीर
            कसकती किससे बात कहूं?

            आज में किसका साथ गहूं?
            कहो, मैं किसके साथ बहू?

प्रार्थना ऐसा निवेदन है। प्रेम की बात है आकाश से...। दूसरी तरफ से कोई उत्तर नहीं आता। इसलिए जो उत्तर की प्रतीक्षा करेगा, उसकी प्रार्थना जल्दी ही बंद हो जायेगी। उत्तर की प्रतीक्षा ही मत करना, तुम अपना निवेदन जारी रखना। तुम इसकी फिक्र ही न लेना कि वह उत्तर देता है या नहीं, उस तक बात पहुंचती है या नहीं, इस सब की चिंता मत लेना। तुम इसकी कोशिश ही मत करना कि मेरी प्रार्थना परमात्मा को बदले; तुम इतनी ही फिक्र करना कि मेरी प्रार्थना गहरी होती जाये, गहन होती जाये। मेरी प्रार्थना मेरे आसुओ से भीगे, मेरे आनंद से भीगे। मेरी प्रार्थना पर मेरी मुस्कुराहट की छाप हो; और मेरी प्रार्थना पर मेरे प्राणों के हस्ताक्षर हों—बस इसकी फिक्र करना। और एक दिन अचानक प्रार्थना पहुंच जाती है। तुम्हारी तुतलाहट सुन ली गई। और उसी घड़ी तुम्हारे शून्य के मंदिर में उस बालक का जन्म हो जाता है। वह निर्दोष चेतना प्रवेश कर जाती है। उतरा सफेद कबूतर, समाधि की पहली झलक आई।...

आयेगी, निश्चित आयेगी।

जीसस ने कहा है : जो मुझे हुआ, तुम्हें हो सकता है। वही मैं तुमसे कहता हूं : जो मुझे हुआ, वह तुम्हें हो सकता है। जो एक मुनष्य को हुआ, वह सभी का जन्मसिद्ध अधिकार है।

आज इतना ही

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