ओशो
के विषय मे
ओशो
की चेतना बचपन
से ही मुक्त
और विद्रोही
थी। बचपन से
ही वे धर्म, समाज
व राजनीति की
स्वीकृत
परंपराओं को
चुनौती देते
रहे और सत्य
के लिए दूसरों
द्वारा दिए गए
ज्ञान व मतों
को मानने की
अपेक्षा
स्वयं ही
प्रयोग करने
का आग्रह करते
रहे।
21 मार्च 1953
को इक्कीस
वर्ष की आयु
में ओशो परम
संबोधि को उपलब्ध
हुए। अपने
विषय में वे
कहते हैं, '' अब
मैं किसी भी
चीज की खोज
में नहीं हूं।
अस्तित्व ने
अपने सब द्वार
मेरे लिए खोल
दिए हैं; मैं
तो यह भी नहीं
कह सकता कि
मैं अस्तित्व
से संबंध रखता
हूं क्योंकि
मैं तो इसी का
एक हिस्सा
हूं... जब कोई
फूल खिलता है,
तो उसके साथ
मैं भी खिलता
हूं। जब सूर्य
ऊगता है तो
उसके साथ मैं
भी ऊगता हूं।
अहंकार, जो
लोगों को
विभाजित करता
है, अब
मुझमें नहीं
है। मेरा शरीर
प्रकृति का
हिस्सा है और
मेरा होना
पूरी समग्रता
का अंग है। मैं
कोई भिन्न इकाई
नहीं हूं। ''
अपने
कार्य के
दौरान ओशो ने
वस्तुत:
मानव—चेतना के
विकास के हर
पहलू पर बोला
है। सिग्मंड
फ्रायड से
च्चांग्ब्ल
जार्ज
गुरजिएफ से
गौतम बुद्ध, जीसस
क्राइस्ट से
रवींद्रनाथ
टैगोर आदि सैकड़ों
रहस्यदर्शियों
और
विश्व—प्रतिभाओं
को ओशो ने
समसामयिक
मनुष्य के लिए
पुनरुज्जीवित
किया है, जो
बौद्धिक समझ
पर नहीं वरन
उनके अपने
अस्तित्वगत
अनुभव की परख
पर आधारित है।
वे
किसी परंपरा
से संबंध नहीं
रखते— ''मैं एक
बिलकुल नई
धार्मिक
चेतना की
शुरुआत हूं। ''
वे कहते हैं,
''कृपया
मुझे अतीत के
साथ मत
जोड़ो—वह याद
रखने योग्य भी
नहीं है। ''
विश्व
भर से आए
शिष्यों और
साधकों को दिए
गए उनके
प्रवचन लगभग
छह सौ पचास
पुस्तकों में
प्रकाशित हो
चुके हैं और
तीस भाषाओं
में अनुवादित
हो चुके हैं।
वे कहते हैं, ''मेरा
संदेश कोई
सिद्धात, कोई
चिंतन नहीं
है। मेरा
संदेश तो
रूपांतरण की
एक कीमिया, एक विज्ञान
है। वे ही लोग
जो तैयार हों
मरने को और
ऐसे नए रूप
में
पुनरुज्जीवित
होने को जिसकी
वे अभी कल्पना
भी नहीं कर
सकते.. केवल
वही थोड़े से
साहसी लोग
मुझे सुनने को
तैयार होंगे,
क्योंकि
सुनना जोखिम
से भरा होगा।
''सुनकर, तुमने
पुनरुज्जीवित
होने की ओर
पहला कदम उठा
लिया। तो यह
कोई सिद्धात
नहीं है जिसका
तुम दुशाला ओढ़
लो और डींग
हांकते फिरो।
यह कोई चिंतन
नहीं है
जिसमें तुम
पीड़क—प्रश्नों
से सांत्वना
खोज लो. नहीं, मेरा संदेश
कोई शाब्दिक
संप्रेषण
नहीं है। यह
तो ज्यादा
जोखिम से भरा
है। यह मृत्यु
और पुनर्जन्म
से कम नहीं
है। ''
पिछले
पैंतीस
वर्षों से ओशो
बोलकर, मौन
सत्संग देकर
या कम्यून
जीवन का अभिनव
प्रयोग करवा
कर मनुष्य में
क्रांति और
जागरण फलित
हो—इस महासृजन
में सतत रत
रहे हैं।
28 अक्यूबर, 1985 को
रूढ़िवादी व
मतांध ईसाई
नीतियों से
ग्रस्त संयुक्त
राज्य
अमेरिका की
निरंकुश रीगन
सरकार ने ओशो को
अकारण व बिना
किसी वारंट के
गिरफ्तार
करवाया और
बर्बरतापूर्वक
उनको पूरे
अमेरिका भर में
एक जेल से
दूसरी जेल में
बारह दिन तक
घुमाया। इसी
जेल—प्रवास के
दौरान ओशो को
थेलियम नामक
धीमा असर करने
वाला जहर दिया
गया और उनके
शरीर को
प्राणघातक
रेडिएशन से भी
गुजारा गया।
तब से उनका
शरीर निरंतर
अस्वस्थ रहने
लगा और भीतर
से जर्जर होता
चला गया, जिसके
बावजूद वे ओशो
कम्यून
अंतर्राष्ट्रीय,
पूना के
गौतम दि
बुद्धा
आडिटोरियम
में 1०
अप्रैल, 1989
तक प्रतिदिन
संध्या दस
हजार शिष्यों,
खोजियों और
प्रेमियों की
सभा में
प्रवचन देते
रहे और उन्हें
ध्यान में
डुबाते रहे।
फिर 17
सितंबर, 1989
से गौतम दि
बुद्धा
आडिटोरियम
में आधे घंटे
के लिए आकर
ओशो मौन
दर्शन—सत्संग
के संगीत और
मौन में सबको
डुबाते रहे।
यह बैठक '' ओशो
व्हाइट रोब
ब्रदरहुड '' कहलाती है।
16 जनवरी, 199०
तक प्रतिदिन
संध्या सात
बजे से व्हाइट
रोब ब्रदरहुड
की सभा में
ओशो
सत्संग—दर्शन
में उपस्थित
रहे। फिर 17
जनवरी को वे
सभा में केवल
नमस्कार करके
वापस चले गए। 18
जनवरी को
व्हाइट रोब
ब्रदरहुड की
संध्या—सभा में
उनके निजी
चिकित्सक
स्वामी अमृतो
ने सूचना दी
कि ओशो के
शरीर में इतना
दर्द है कि वे
हमारे बीच
नहीं आ सकते, लेकिन वे
अपने कमरे में
ही सात बजे से
हमारे साथ
ध्यान में
बैठेंगे।
दूसरे दिन 19 जनवरी, 199०
की संध्या—सभा
में घोषणा की
गई कि ओशो
अपनी देह
छोड्कर पांच
बजे अपराह्न
को महाप्रयाण
कर गए हैं।
उसी संध्या
ओशो की इच्छा
के अनुरूप
उनका शरीर
गौतम दि
बुद्धा
आडिटोरियम
में दस मिनट
के लिए लाकर रखा
गया। दस हजार
शिष्यों और
प्रेमियों ने
उनकी आखिरी
विदाई का
उत्सव
संगीत—नृत्य,
भावातिरेक
और मौन में
मनाया। फिर
उनका शरीर दाहक्रिया
के लिए ले
जाया गया। 21 जनवरी, 199०
की पूर्वाह्न
में उनके
अस्थि—फूल का
कलश महोत्सवपूर्वक
कम्यून में
लाया जाकर
च्चाग्त्सु हॉल
में निर्मित
एक संगमर्मर
की समाधि में
स्थापित किया
गया। ओशो की
समाधि पर
स्वर्ण अक्षरों
में अंकित है.
ओशो
जिनका
न कभी जन्म
हुआ, न
मृत्यु
जो केवल 11
दिसम्बर 1931 से
19 जनवरी
199० के बीच
इस
पृथ्वी ग्रह
पर आए
विदा
होने के पूर्व
वे ऐसे शांत
थे— मानो कुछ दिनों
की छुट्टियों
के लिए कहीं
जा रहे हैं!
ओशो
ने अपने कार्य
के संबंध में
कुछ बहुत स्पष्ट
मार्गदर्शन
दिए हैं।
ओशो
के शारीरिक
रूप से विदा
हो जाने के
बाद
संन्यासियों
को यह महसूस
हो रहा है कि
ओशो अब हमारे
बीच पहले से
भी ज्यादा
उपलब्ध हैं; कम्यून
में उनकी
ऊर्जा पहले से
भी ज्यादा सघन
और प्रगाढ़
प्रतीत होती
है। ओशो की
जीवंत उपस्थिति
से ओतप्रोत इस
बुद्ध—ऊर्जा—
क्षेत्र में उनके
शरीर छोड़ने के
बाद क्रांतिकारी
रूपांतरण आया
है।
ऐसा
महसूस होता है
कि ओशो का
कार्य समाप्त
नहीं, अब
प्रारंभ हुआ
है।
अपने
शरीर से विदा
होने के
संदर्भ में
ओशो के कुछ
उद्गार इस
प्रकार हैं :
''मैं चाहता
हूं कि मेरे
संन्यासी
मेरी स्वतंत्रता,
मेरा होश, मेरा चैतन्य
अपने
उत्तराधिकार
के रूप में ग्रहण
कर लें। ''
''यदि तुमने
मुझे प्रेम
किया है तो
तुम्हारे लिए
मैं हमेशा
जिंदा
रहूंगा। मैं
तुम्हारे प्रेम
में जीऊंगा।
यदि तुमने
मुझे प्रेम
किया है तो
मेरा शरीर मिट
जाएगा तब भी
मैं तुम्हारे
लिए नहीं मर
सकता। ''
''तुम जहां भी
हो, मौन
तुम्हें
मुझसे जोड़
देगा; और
तुम्हारी
प्रतीक्षा वह
पृष्ठभूमि
पैदा कर देगी
जिसमें
मेरा—तुम्हारा
ऐसा मिलन हो
सके जो अशरीरी,
चिन्मय और
शाश्वत हो।...
''मेरे साथ
तुम बहुत समय
तक रहे हो, तुम
अच्छी तरह
जानते हो कि
मेरी मौजूदगी
में तुम्हारे
साथ क्या घटता
है। बस इसे
मौका दो. आंखें
बंद कर लो, मौन
होकर बैठ जाओ,
और उसी घटना
की प्रतीक्षा
करो। और तुम
हैरान होओगे
कि मेरी
शारीरिक
उपस्थिति की
कोई जरूरत नहीं
है। तुम्हारा
हृदय उसी लय
में धड़क सकता
है—इस अनुभव
से तुम परिचित
हो। तुम्हारे
प्राण उसी
गहराई तक शांत
हो सकते
हैं—उसका
तुम्हें भलीभांति
अनुभव है। और
फिर कोई दूरी
नहीं रह
जाती।...
''यदि संसार
भर में तुम
मेरी मौजूदगी
को अनुभव करने
लगो, तो
कोई देश मेरी
उपस्थिति को
अपनी जमीन में
प्रवेश करने
से नहीं रोक
सकता। कोई
सरकार मुझे तुम्हारे
हृदय में
प्रवेश करने
से नहीं रोक
सकती।...
''तुम जहां भी
हो मैं
तुम्हें
उपलब्ध हूं।
तुम जहां भी
हो मैं
तुम्हारे साथ
हूं। बस खुले
रहो, ग्राहक
रहो। ''
''
(शरीर से
विदा होकर )
मैं अपने
लोगों में
विलीन हो
जाऊंगा। ठीक
जैसे कि तुम
सागर को कहीं
से भी चखो तो
उसे खारा
पाओगे, ऐसे
ही मेरे किसी
भी संन्यासी
को चखोगे और
तुम भगवत्ता
का स्वाद पाओगे।...
''मैं अपने
लोगों को
आनंदोत्सवपूर्वक,
मस्तीपूर्वक
जीने के लिए
तैयार कर रहा
हूं। तो जब
मैं अपने शरीर
में न रहूंगा,
उससे उनको
कोई फर्क न
पड़ेगा। वे तब
भी उसी ढंग से
जीएंगे—और हो
सकता है मेरी
मृत्यु उनमें
और भी त्वरा
ला दे। ''
''मैं सब तरह
के प्रयास
करता रहा हूं
कि तुम अपनी
निजता के
प्रति, अपनी
स्वतंत्रता
के प्रति सचेत
रहो—बिना किसी
सहायता के
स्वयं के
विकास की परम
संभावना के
प्रति सजग
रहो।.. मैं
पूरा प्रयास
कर रहा हूं कि
तुम सबसे
मुक्त हो
जाओ—मुझसे भी
मुक्त हो जाओ
और खोज की
यात्रा में
अकेले होने
में तुम समर्थ
हो जाओ।. और जो
ध्यान की
विधियां
मैंने तुम्हें
दी हैं, वे
मुझ पर निर्भर
नहीं हैं।
मेरी
उपस्थिति या अनुपस्थिति
से उनमें कुछ
फर्क नहीं
पड़ेगा।...
''तो स्मरण
रखो, जब
मैं विदा हो
चुका होऊंगा,
तब तुम कुछ
खोने वाले
नहीं हो। शायद
तुम कुछ ऐसा
उपलब्ध कर पाओगे,
जिसका
तुम्हें
बिलकुल ही कोई
बोध नहीं है।...
''जब मैं विदा
हो जाऊंगा, तो मैं जा
कहां सकता हूं?
मैं यहां ही
रहूंगा—हवाओं
में, सागरों
में। और यदि
तुमने मुझे
प्रेम किया है,
यदि तुमने
मुझ पर भरोसा
किया है, तो
तुम मुझे
हजारों रूपों
में अनुभव
करोगे। अपने
मौन क्षणों
में अचानक तुम
मेरी
उपस्थिति को
अनुभव करोगे।
''एक बार मैं
देहमुक्त हुआ
कि मेरी चेतना
विश्वव्यापी
हो जाएगी। अभी
तुम्हें मेरे
पास आना पडता
है, तब
तुम्हें मुझे
खोजने और
ढूंढने की
जरूरत नहीं
रहेगी। तुम
जहां कहीं भी
हो, तुम्हारी
प्यास, तुम्हारा
प्रेम—और तुम
मुझे अपने
हृदय में
पाओगे, अपने
हृदय की धडकन
में ही पाओगे।
''
''
अस्तित्व
में मेरा
भरोसा और मेरी
आस्था समग्र
है। जो मैं कह
रहा हूं उसमें
यदि कोई भी
सत्य है तो वह
पीछे जीवित
बचेगा। जो लोग
मेरे कार्य
में उत्सुक
बने रहेंगे वे
बस मशाल को
आगे ले चल रहे
होंगे, बिना
किसी पर कुछ
थोपते हुए—न
तलवार (बल
प्रयोग ) के
जरीए, न
ब्रेड (लोभ
प्रयोग ) के
जरीए। मैं
अपने लोगों के
लिए प्रेरणा
का स्रोत बना
रहूंगा, और
ऐसा अधिकांश
संन्यासी
अनुभव
करेंगे। मैं चाहता
हूं कि वे
स्वयं ही
विकसित हों..
ऐसे सद्गुण
जैसे
प्रेम—जिसके
आसपास कोई
चर्च—मंदिर—मस्जिद
अथवा धर्म खड़ा
नहीं किया जा
सकता; जैसे
जागरूकता—जिस
पर किसी का
एकाधिकार
नहीं है; जैसे
उत्सव, उल्लासमयता,
और शिशु
जैसी ताजी और
निर्दोष
आंखें बरकरार
रखना। मैं
चाहता हूं कि
लोग स्वयं को
जानें—किसी और
के अनुसार न
बनें; और
इसका मार्ग
है—भीतर। ''
''मेरे संबंध
में कभी भी
अतीत काल में
बात मत करना।
प्रताड़ित
शरीर के बोझ
से मुक्त होकर
मेरी उपस्थिति
कई गुना बढ़
जाएगी। मेरे
लोगों को याद
दिलाना कि वे
अब मुझे और भी
अधिक महसूस
करेंगे—और वे
इसे तत्क्षण
पहचान
जाएंगे। ''
''
अब जब मैं
अपना शरीर छोड़
रहा हूं और
बहुत से लोग
आएंगे, बहुत—बहुत
से और लोगों
का रस जगेगा।
और मेरा कार्य
इतने
अविश्वसनीय
रूप से बढ़ेगा,
जिसकी तुम
कल्पना भी
नहीं कर सकते।
''
एक
इति.....
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