दुःख का मूल द्वैत है—प्रवचन—ग्यारहवां
20 सितंबर, 1976 ,ओशो आश्रम, कोरेगांव पार्क, पूना।
ज्ञानं
ज्ञेनं तथा
ज्ञाता
त्रितयं नास्ति
वास्तवम्।
अज्ञानाभाति
यत्रेदं सोsहमस्मि
निरंजन:।।35।।
द्वैतमूलमहो
दु:खं नान्यत्तस्यास्ति
भेषजम्।
दृश्यमेतन्मृषा
सर्वमेकोsहं
चिद्रसोsमल:।।36।।
बोधमात्रोउहमज्ञानदुपाधि:
कल्पितो मया
।
एवं
विमृश्यतो
नित्य
निर्विकल्पे
स्थितिर्मम
।।37।।
न में
बंधोउस्ति
मोक्षो व
भ्रंति: शांता
निराश्रया ।
अहो
मयि स्थितं
विश्वं वस्तुतो
न मयि स्थितम्
।।38।।
सशरीरमिदं
विश्वं न
किंचितदिति
निश्चितम् ।
शुद्ध
निन्मात्र
आत्मा न तत्कस्मिन्
कल्पनाधुना
।।39।।
शरीरं
स्वर्गनरकौ
बंध्मोक्षौ
भयं तथा ।
कल्पनामात्रमेवैतत
किं कार्यं
चिदात्मन:
।।40।।
जनक
ने कहा. 'ज्ञान,
ज्ञेय और
ज्ञाता, ये
तीनों यथार्थ
नहीं हैं।
जिसमें ये
तीनों भासते
हैं, मैं
वही निरंजन हूं।
'ज्ञान ज्ञेय
तथा ज्ञाता
त्रितयं
नास्ति
वास्तवम्।
जो
भी दिखाई पड़
रहा है, जिसे
दिखाई पड़ रहा
है, और इन
दोनों के बीच
जो संबंध है—शान
का या दर्शन
का—जनक कहते
हैं, आज
मैं जागा, और
मैंने देखा, यह सब
स्वप्न है। जो
जागा है और
जिसने इन
तीनों को देखा,
स्वप्न की
भांति
तिरोहित होते,
वही केवल
सत्य है।
तो
तुम साक्षी को
द्रष्टा मत
समझ लेना।
भाषाकोश में
तो साक्षी का
अर्थ द्रष्टा
ही लिखा है; लेकिन
साक्षी
द्रष्टा से भी
गहरा है।
द्रष्टा में
साक्षी की
पहली झलक
मिलती है।
साक्षी में
द्रष्टा का
पूरा भाव, पूरा
फूल खिलता है।
द्रष्टा तो
अभी भी बंटा
है। द्रष्टा
है तो दृश्य
भी होगा। और
दृश्य और
द्रष्टा हैं,
तो दोनों के
बीच का संबंध,
दर्शन, शान
भी होगा। तो
अभी तो खंड
हैं।
जहां—जहां
खंड हैं, वहां—वहां
स्वप्न हैं, क्योंकि
अस्तित्व
अखंड है। जहां—जहां
हम बांट लेते
हैं, सीमायें
बनाते हैं, वे सारी
सीमायें
व्यावहारिक
हैं, पारमार्थिक
नहीं।
अपने
पड़ोसी के मकान
से अलग करने
को तुम एक रेखा
खींच लेते, एक
दीवाल खड़ी कर
देते, बागुड़
लगा देते, लेकिन
पृथ्वी बंटती
नहीं।
हिंदुस्तान
पाकिस्तान को
अलग करने के
लिए तुम नक्शे
पर सीमा खींच
देते; लेकिन
सीमा नक्शे
पर ही होती है,
पृथ्वी
अखंड है।
तुम्हारे
अपान का आकाश
और तुम्हारे
पड़ोसी के आंगन
का आकाश अलग—
अलग नहीं है।
तुम्हारे आंगन
को बांटने
वाली दीवाल
आकाश को नहीं
बांटती। जहा —जहा
हमने बांटा है, वहां
जरूरत है, इसलिए
बांटा है।
उपयोगिता है
बांटने की, सत्य नहीं है
बांटने में।
सत्य तो
अनबंटा है।
और
जो गहरे से
गहरा विभाजन
है हमारे भीतर, वह
है देखने वाले
का, दिखाई
पड़ने वाले का।
जिस दिन यह
विभाजन भी गिर
जाता है, तो
आखिरी
राजनीति गिरी,
आखिरी नक्शे
गिरे, आखिरी
सीमायें
गिरीं। तब जो
शेष रह जाता
है अखंड, उसे
क्या कहें? वह द्रष्टा
नहीं कहा जा
सकता अब, क्योंकि
दृश्य तो खो
गया। दृश्य के
बिना द्रष्टा
कैसा? इस
द्रष्टा को जो
हो रहा है, वह
दर्शन नहीं
कहा जा सकता, क्योंकि
दर्शन तो बिना
दृश्य के न हो
सकेगा। तो
द्रष्टा, दर्शन
और दृश्य तो
एक
साथ
ही बंधे हैं; तीनों
होंगे तो साथ
होंगे, तीनों
जायेंगे तो
साथ जायेंगे।
तुमने
देखा! कोई भी
स्वप्न जाता
है तो पूरा, होता
है तो पूरा।
तुम ऐसा नहीं
कर सकते कि
स्वप्न में से
थोड़ा—सा
हिस्सा बचा
लूं र या कि कर
सकते हो?
रात
तुमने एक
स्वप्न देखा
कि तुम सम्राट
हो गये, बड़ा
सिंहासन है, राजमहल है, बड़ा फौज—फांटा
है। सुबह जाग
कर क्या तुम
ऐसा कर सकते
हो कि सपने में
से कुछ बचा लो।
तुम कहो, जाये
सब, यह
सिंहासन बचा
लूं; जाये
सब, कम से
कम पत्नी तो
बचा लूं; जाये
सब, कम से
कम अपना मुकुट
तो बचा लूं।
नहीं, या
तो सपना पूरा
रहता या पूरा
जाता। अगर तुम
जागे, तो
यह संभव नहीं
है कि तुम
सपने का खंड
बचा लो।
द्रष्टा, दृश्य,
दर्शन, एक
ही स्वप्न के
तीन अंग हैं।
जब पूरा
स्वप्न गिरता
है और जागरण
होता है, तो
जो शेष रह
जाता है, उसे
तो तुमने
स्वप्न में
जाना ही नहीं
था, वह तो
स्वप्न में
सम्मिलित ही
नहीं हुआ था; वह तो
स्वप्न से पार
ही था, सदा
पार था। वह
अतीत था। वह
स्वप्न का
अतिक्रमण
किये था।
स्वप्न में
जिसे तुमने
जाना था, वह
सब खो जायेगा—समग्ररूपेण
सब खो जायेगा!
इसलिए
तुमने
परमात्मा की
जो भी धारणा
बना रखी है, जब
तुम्हें
परमात्मा का
अनुभव होगा, तो तुम चकित
होओगे, तुम्हारी
कोई धारणा काम
न आयेगी; तुम्हारी
सब धारणाएं खो
जायेंगी। जो
तुम जानोगे, उसे स्वप्न
में सोये—सोये
जानने का कोई
उपाय नहीं; धारणा बनाने
का भी कोई
उपाय नहीं।
इसलिए तो कहते
हैं, परमात्मा
की तरफ जिसे
जाना हो उसे
सब धारणायें
छोड़ देनी
चाहिए। उसे सब
सिद्धात कचरे—घर
में डाल देना
चाहिए। उसे
शब्दों को
नमस्कार कर
लेना चाहिए; विदा दे
देनी चाहिए कि
तुमने खूब काम
किया संसार
में, उपयोगी
थे तुम, लेकिन
पारमार्थिक
नहीं हो।
इसे
भी समझ लें
सूत्र के भीतर
प्रवेश करने
के पहले।
व्यावहारिक
सत्य
पारमार्थिक
सत्य नहीं है।
व्यावहारिक
सत्य की
उपयोगिता है, वास्तविकता
नहीं।
पारमार्थिक
सत्य की कोई
उपयोगिता
नहीं है, सिर्फ
वास्तविकता
है।
अगर
तुम पूछो कि
परमात्मा का
उपयोग क्या है, तो
कठिनाई हो
जायेगी। क्या
उपयोग हो सकता
है परमात्मा
का? क्या
करोगे
परमात्मा से?
न तो पेट
भरेगा, न
प्यास बुझेगी।
करोगे क्या
परमात्मा का?
कौन—से लोभ
की तृप्ति
होगी? कौन—सी
वासना भरेगी?
कौन—सी
तृष्णा पूरी
होगी? परमात्मा
का कोई उपयोग
नहीं।
परमात्मा के
कारण तुम
महत्वपूर्ण न
हो जाओगे।
परमात्मा के
कारण तुम
शक्तिशाली न
हो जाओगे।
परमात्मा के
कारण इस संसार
में तुम्हारी
प्रतिष्ठा न
बढ़ जायेगी।
परमात्मा का
कोई भी तो
उपयोग नहीं है।
इसलिए तो जो
लोग उपयोग के
दीवाने हैं, वे परमात्मा
की तरफ नहीं
जाते।
परमात्मा का
आनंद है, उपयोग
बिलकुल नहीं।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे पूछते
हैं. 'ध्यान
करेंगे तो लाभ
क्या होगा?' लाभ! तुम बात
ही अजीब—सी कर
रहे हो। तो
तुम समझे ही
नहीं, कि
ध्यान तो वही
करता है जिसने
लाभ—लोभ छोड़ा,
जिसके मन
में अब लाभ
व्यर्थ हुआ, जिसने बहुत
लाभ करके देख
लिये और पाया
कि लाभ कुछ भी
नहीं होता। धन
मिल जाता है, निर्धनता
नहीं कटती। पद
मिल जाता है, दीनता नहीं
मिटती।
सम्मान—
सत्कार मिल
जाता है, भीतर
सब खाली का
खाली रह जाता
है। नाम जगत
भर में फैल
जाता है, भीतर
सिर्फ
दुर्गंध उठती
है, कोई
सुगंध नहीं
उठती है, कोई
फूल नहीं
खिलते। भीतर
काटे ही कांटे,
पीड़ा और
चुभन, संताप
और असंतोष, चिंता ही
चिंता घनी
होती चली जाती
है। भीतर तो
चिता सज रही
है, बाहर
महल खड़े हो
जाते हैं।
बाहर जीवन का
फैलाव बढ़ता
जाता है, भीतर
मौत रोज करीब
आती चली जाती
है।
जिसको
यह दिखाई पड़ा
कि लाभ में
कुछ लाभ नहीं, वही
ध्यान करता है।
लेकिन कुछ लोग
हैं जो सोचते
हैं शायद
ध्यान में भी
लाभ हो, तो
चलो ध्यान
करें। वे
पूछते हैं :
ध्यान में लाभ
क्या? इससे
क्या फायदा
होगा? सुख—समृद्धि
आयेगी? पद—प्रतिष्ठा
मिलेगी? धन—वैभव
मिलेगा? हार,
जीत में
परिणत हो
जायेगी? यह
जीवन का विषाद,
यह जीवन की
पराजय, यह
जीवन में जो
खाली—खालीपन
है—यह बदलेगा?
हम भरे— भरे
हो जायेंगे?
वे
प्रश्न ही गलत
पूछते हैं।
अभी उनका
संसार चुका
नहीं। वे जरा
जल्दी आ गये।
अभी फल पका
नहीं। अभी
मौसम नहीं आया।
अभी उनके दिन
नहीं आये।
ध्यान
तो वही करता
है,
या ध्यान की
तरफ वही चल
सकता है, जिसे
एक बात दिखाई
पड़ गई कि इस
संसार में
मिलता तो बहुत
कुछ और मिलता
कुछ भी नहीं।
सब मिल जाता
है और सब खाली
रह जाता है।
जिसे यह
विरोधाभास
दिखाई पड़ गया,
फिर वह यह न
पूछेगा कि
ध्यान में लाभ
क्या है? क्योंकि
लाभ होता है
व्यावहारिक
बातों में।
ध्यान
पारमार्थिक
है।
आनंद
है ध्यान में, लाभ
बिलकुल नहीं।
तुम ध्यान को
तिजोड़ी में न
रख सकोगे।
ध्यान से बैंक—बैलेंस
न बना सकोगे।
ध्यान से
सुरक्षा, सिक्योरिटी
न बनेगी।
ध्यान
तो तुम्हें
छोड़ देगा
अज्ञात में।
ध्यान में तो
तुम्हारी जो
सुरक्षा थी वह
भी चली जायेगी।
ध्यान तो
तुम्हें छोड़
देगा अपरिचित
लोक में। उस
अभियान पर भेज
देगा, जहां
तुम धीरे—धीरे
गलोगे पिघलोगे,
बह जाओगे।
ध्यान से लाभ
कैसे होगा? ध्यान से तो
हानि होगी—और
हानि यह कि
तुम न बचोगे।
ध्यान तो
मृत्यु है।
लेकिन तब, जब
तुम मर जाते
हो—शरीर से ही
नहीं, शरीर
से तो तुम
बहुत बार मरे
हो, उस
मरने से कोई
मरता नहीं, वह मरना तो
वस्त्र बदलने
जैसा है।
पुराने
वस्त्रों की
जगह नये
वस्त्र मिल
जाते हैं, बूढ़ा
बच्चा हो कर आ
जाता है। उस
मरने से कोई
कभी मरा नहीं।
मरे तो हैं
कुछ थोड़े—से
लोग—कोई
अष्टावक्र, कोई बुद्ध, कोई महावीर—वे
मरे। उनकी
मृत्यु पूरी
है; फिर वे
वापस नहीं
लौटते।
ध्यान
मृत्यु है।
ध्यान में तुम
तो मरोगे, तुम
तो मिटोगे, तुम्हारी तो
छाया भी न रह
जायेगी।
तुम्हारी तो
छाया भी
अपवित्र करती
है। तुम तो
रंचमात्र न
बचोगे, तुम
ही न बचोगे, तुम्हारे
लाभ का कहां
तुम
स्वयं एक
व्यावहारिक
सत्य हो। तुम
सिर्फ एक
मान्यता हो, तुम
हो नहीं। तुम
सिर्फ एक
धारणा हो, तुम्हारा
कोई अस्तित्व
नहीं है।
तुम्हारी
धारणा तो बिखर
जायेगी। सब
धारणायें
बिखर जायेंगी
तुम्हारे
बिखरते ही।
क्योंकि जब
मालिक ही न
रहा, तो जो
सब साज—सामान
इकट्ठा कर
लिया था, वह
सब बिखर
जायेगा। जब
संगीतज्ञ ही न
रहा, तो
वीणा क्या
बजेगी? कहते
हैं : 'न रहा
बांस न बजेगी
बांसुरी। 'तुम
ही गये तो
बांस ही गया, अब बांसुरी
का कोई उपाय न
रहा। तब जो
शेष रह जायेगा,
वही समाधि
है—वह है
पारमार्थिक!
पारमार्थिक
का अर्थ है जो
है! परम
आनंदमय! परम विभामय!
बरसेगा आशीष, अमृत
का अनुभव होगा;
लेकिन लाभ!
कुछ भी नहीं।
व्यावहारिक
अर्थों में
कोई लाभ नहीं।
उससे तुम किसी
तरह की संपदा
निर्मित न कर
पाओगे।
वही
व्यक्ति
ध्यान की तरफ
आना शुरू होता
है,
जिसे संसार
स्वप्नवत हो
गया; जो इस
संसार में से
अब कुछ भी
नहीं बचाना
चाहता; जो
कहता है यह
पूरा सपना है,
जाये पूरा;
अब तो मैं
उसे जानना
चाहता हूं जो
सपना नहीं है।
ये
सूत्र उसी
खोजी के लिये
हैं।
जनक
ने कहा : 'ज्ञान,
ज्ञेय और
ज्ञाता, ये
तीनों यथार्थ
नहीं हैं।
जिसमें ये
तीनों भासते
हैं, मैं
वही निरंजन
हूं। '
जिसके
ऊपर यह सपना
चलता संसार का,..।
रात तुम सोते
हो, तुम
सपना देखते हो।
सपना सत्य
नहीं है, लेकिन
जिसके ऊपर
सपने की तरंगें
चलती हैं, वह
तो निश्चित सच
है। सपना जब
खो जायेगा तब
भी सुबह तुम
तो रहोगे। तुम
कहोगे, रात
सपना देखा, बड़ा झूठा
सपना था। एक
बात तय है, जो
देखा, वह
तो झूठ था, लेकिन
जिसके ऊपर बहा,
उसे तो झूठ
नहीं कह सकते।
अगर देखने
वाला भी झूठ
हो, तब तो
सपना बन ही
नहीं सकता।
सपने के बनने
के लिये भी कम
से कम एक तो
सत्य चाहिये—वह
सत्य है
तुम्हारा
होना। और सुबह
जाग कर जब तुम
पाते हो कि
सपना झूठा था,
तो तुम जरा
खयाल करना :
जिसने सपने को
देखा, और
जो सपने में
भरमाया, जो
सपने का
द्रष्टा बना
था, वह भी
झूठा था।
रात
तुमने सपना
देखा कि एक
सांप, बड़ा
सांप चला आ
रहा है, फुफकारें
मारता
तुम्हारी ओर।
जिसने देखा
सपने में, वह
कैप गया, वह
घबड़ा गया। वह
पसीने—पसीने
हो भागने लगा।
पहाड़—पर्वत
पार करने लगा,
और सांप
पीछा कर रहा
है। और तुम
भागते हो, और
उसकी फुफकार
तुम्हें
सुनाई पड़ रही
है। वह जब तुम सुबह
जागोगे, तो
सांप तो झूठा
हो गया। और
जिसने सांप को
देखा था, जो
देख कर भागा
था, जो भाग—
भाग कर घबड़ाया,
पसीने से
लथपथ हो कर
गिर पड़ा था—क्या
वह सच था? वह
भी झूठ हो गया।
सपना भी झूठ
हो गया, सपने
का द्रष्टा भी
झूठ हो गया।
लेकिन फिर भी
इन दोनों के
पार कोई है, जिस पर
दोनों घटे।
नहीं तो सुबह
याद कौन करेगा?
यह किसको
आती याद? यह
कौन कहता सुबह
कि सपना झूठ
था?
खयाल
रखना, दृष्य
तो झूठ था ही; वह जो
द्रष्टा था
सपने में, वह
भी झूठ था, क्योंकि
वह झूठ के मोह
में आ गया था।
झूठ से जो
प्रभावित हो
जाये, वह
भी झूठ। झूठ
से जो आतंकित
हो जाये, वह
झूठ है।
सत्य
कहीं झूठ से
प्रभावित हुआ
है?
झूठे से जो
भयभीत हो जाये,
वह भी झूठ।
झूठ को जो मान
ले कि सच है, वह भी झूठ।
झूठ को मानने
में ही हम झूठ
हो जाते हैं।
दोनों गये।
जैसे
सुबह जागता
कोई,
ऐसे ही एक
दिन अंतिम
जागरण आता—ध्यान
का, समाधि का,
साक्षी का।
उस दिन तुम
पाते हो, सब
झूठ था। तब
तुम यह नहीं
कहते कि पत्नी
ही झूठ थी—पति
भी झूठ था। तब
तुम यह नहीं
कहते कि धन
झूठ था; वह
जो धन को
इकट्ठा कर रहा
था, वह भी
झूठ था। तब
तुम यह नहीं
कहते सिर्फ कि
मेरे बाहर जो
झूठ था वही
झूठ था; तब
तुम जानते हो
कि तुम्हारे
भीतर भी बहुत
कुछ था, जो
झूठ था। और जो
अब बचा है, वह
तो न तुम्हारे
बाहर था और न
भीतर
था, वह
तो बाहर— भीतर
दोनों के पार
था।
आत्मा
भीतर नहीं है।
बाहर शरीर
दिखाई पड़ रहा
है,
भीतर मन है।
आत्मा न बाहर
है न भीतर है।
आत्मा तो आकाश
जैसी है। सब
उसमें घट रहा।
यह
जो सूत्र है. 'जिसमें
ये तीनों
भासते हैं, मैं वही
निरंजन हूं। '
और
'निरंजन' कहते
हैं जनक।
निरंजन का
अर्थ होता है.
निर्दोष। ऐसी
निर्दोषता
जिसे खंडित
करने का कोई
उपाय नहीं।
ऐसा क्वांरापन
जो कभी व्यभिचारित
नहीं होता।
निरंजन
का अर्थ होता
है : ऐसी
पवित्रता, जिसके
अपवित्र होने
की कोई
संभावना नहीं
है, कोई
उपाय ही नहीं
है। जो
अपवित्र हो
जाये, वह
निरंजन नहीं।
जो सपने में
दब जाये और
सपने में खो
जाये, वह
निरंजन नहीं
जो झूठ से आंदोलित
हो जाये, वह
निरंजन नहीं।
जो झूठ से
इतना
प्रभावित हो
जाये कि झूठ के
पीछे दौड़ने
लगे, वह
निरंजन नहीं।
निरंजन तो सदा
पवित्र, शांत
, आकाश
जैसा निर्मल!
आकाश में देखा,
कितने धूल
के बवंडर उठते
हैं, काले
बादल छाते हैं;
आते हैं, चले जाते
हैं—आकाश का
निरंजनपन शेष
रहता है। न तो
धूल के बादल
आकाश को गंदा
कर पाते, न
काले बादल
आकाश को गंदा
कर पाते। सब
कुछ होता रहता
है, लेकिन
आकाश की
निर्दोषता
शाश्वत है; उस पर कोई
खंडन नहीं
होता। ऐसी दशा
को कहते हैं
निरंजन।
फिर
से दोहरा दूं
तुमने जो अब
तक जाना है, उसमें
से कुछ भी सच
नहीं है।
तुमने अब तक
जो माना है, उसमें से
कुछ भी सच
नहीं है।
तुम्हारा सब
असत्य है, क्योंकि
अभी तो तुम ही
असत्य हो।
असत्य असत्य
का मेल होता
है। सत्य
असत्य का कोई
मेल नहीं होता।
उन्हें
मिश्रित नहीं
किया जा सकता।
अभी
तक तुमने जो
भी जाना है, वह
सभी असत्य है।
तुमने वेद पढ़े,
कुरान पढ़ी,
बाइबिल पढ़ी,
गीता पढ़ी—तुमने
जो पढ़ लिया, वह वहां लिखा
नहीं। तुमने
वही पढ़ लिया
जो तुम अपनी
अज्ञान की दशा
में पढ़ सकते
हो। तुमने
बहुत—से संयम
साधे, मगर
तुम्हारे सब
संयम झूठ को
ही साधने में
सहयोगी होते
हैं। क्योंकि
तुम ही अभी
झूठ हो, तुम
संयम कैसे
साधोगे? तुम्हारा
संयम भी एक
सपना ही होगा।
तुमने तप भी
किये, दान
भी दिये, तुमने
उपवास भी किये,
तुमने पूजा—प्रार्थना
भी की, लेकिन
सब व्यर्थ गई,
सब पानी में
बह गई।
क्योंकि
मौलिक बात, आधारभूत बात
तुम्हें खयाल
में नहीं आई।
कल मैं बच्चों
का एक गीत पढ़
रहा था :
नदी
घाट से बांझ
लदे
चले
शहर को पांच
गधे
पहला
बोला—मैं
राजा!
कहा
दूसरे ने—जा
जा!
बोला
तीसरा—बंद करो
झगड़ा!
क्योंकि
तीसरा था तगड़ा।
चौथे
ने प्रस्ताव
किया
चालाकी
से काम लिया,
लड़ने
से पहले सुन
लो
मुझको
निर्णायक चुन
लो।
आया
ताव पांचवें
को,
शुरू
किया. रेंको—रेंको।
खूब
चली फिर
दुलत्ती
कुचल
गई पत्ती—पत्ती।
मालिक
आया तभी सधे
बदले
बिलकुल नहीं
गधे।
मालिक
को देख कर सध
भी गये, शांत भी
खड़े हो गये—बदले
बिलकुल नहीं
गधे! लेकिन
कहीं मालिक को
देख कर सध कर
खड़े हो जाने
से, सधे हो
जाने से कहीं
गधे बदले?
तो
कुछ गधे हैं
जो बाजार में
तुम्हें
मिलेंगे, कुछ
गधे तुम्हें
आश्रमों में
मिलेंगे—सधे—बधे
गधे, मगर
बदले बिलकुल
नहीं गधे। कोई
धन के पीछे
पागल है, कोई
धन छोड़ने के
पीछे पागल है—लेकिन
धन का प्रभाव
दोनों पर है।
धन से छूट
होती नहीं
दिखती। धन छूट
जाता है, तो
भी धन से छूट
होती नहीं
दिखती। कोई
स्त्रियों के
पीछे दीवाना
है, कोई
स्त्रियों से
घबड़ा कर भाग
गया है। फर्क
कहां? दिशा
बदल गई, मूढ़ता
नहीं बदली।
बदले
बिलकुल नहीं
गधे!
घबड़ाहट
है कि कहीं
स्त्री न छू
जाये, कि कहीं
स्त्री दिखाई
न पड़ जाये! यह
घबड़ाहट कैसी?
अगर
तुम्हें
दिखाई पड़ गया
कि सब सपना है,
तो घबड़ाहट
कैसी? सुबह
जागकर अगर कोई
कहे कि रात
देखा कि सब
सपना है—इस
कमरे में सांप
ही सांप थे, कि सिंह
दहाड़ते थे, सब सपना है।
लेकिन सुबह हम
उससे कहें कि
चलो कमरे के
भीतर, वह
कहे कि मैं
नहीं जाता; सब सपना है, बाकी मैं
जाता नहीं, क्यों जायें?
अगर
तुम्हें
दिखाई पड़ गया
कि सपना है, तो अब क्या
घबड़ाहट? अब
तो कमरे के
भीतर आ जाओ।
नहीं, वह
कहता है, सब
सपना है, सब
समझ में आ गया,
मगर जायें
क्यों कमरे के
भीतर? कमरे
के भीतर हम
नहीं जाएंगे,
हमने कमरे
का त्याग कर
दिया है।
जनक
जैसा ज्ञानी
बहुत मुश्किल
से मिलेगा।
क्योंकि जनक
ज्ञान को
उपलब्ध हुए, और
महल छोड़ा नहीं।
यह परम ज्ञानी
की दशा है।
क्योंकि जब
जान ही लिया, तो छोड़ने को
कुछ न बचा।
जनक ज्ञान को
उपलब्ध हो गये,
रत्ती भर भी
बदलाहट न की।
क्योंकि
बदलाहट कहां
करें? सपना
तो गया। अब जो
जैसा है, है।
अगर
शान के बाद
त्याग की
चेष्टा चले, तो
समझना ज्ञान
अभी घटा नहीं।
मूढ़ों के
सिवाय त्याग
कभी कोई करता
ही नहीं।
ज्ञानी क्यों
त्याग करेगा?
ज्ञानी का
तो बोध—मात्र
पर्याप्त है।
उसे तो दिखाई
पड़ गया कि यह
सब मायाजाल है,
बस ठीक है!
वह उससे आंदोलित
नहीं होता न
पक्ष में, न
विपक्ष में।
उस पर इसकी
छाया नहीं
पड़ती—न तो
आकर्षण की, न विकर्षण
की।
शान
को उपलब्ध
व्यक्ति न तो
रागी होता न
विरागी।
ज्ञान को
उपलब्ध
व्यक्ति न
भोगी हो सकता, न
रागी, न
त्यागी।
क्योंकि भोगी
और योगी होने
के लिये, भोगी
और त्यागी
होने के लिये,
सपना
चाहिये वही।
दोनों का सपना
एक है। दोनों
की मान्यता एक
है। एक कहता
है धन में सब
है, और एक
कहता है धन
मिट्टी है।
मैंने
सुना है, महाराष्ट्र
की एक प्राचीन
कथा है. रांका
और बांका पति—पत्नी
थे। रांका पति
था, बांका
उसकी पत्नी का
नाम था। थी भी
वह बांकी औरत।
रांका बड़ा
त्यागी था।
उसने सब छोड़
दिया था। वह
भीख भी नहीं मांगता
था। वह रोज जा
कर जंगल से
लकड़ी काट लाता
और बेच देता, जो बचता, उससे
भोजन कर लेता।
सांझ अगर कुछ
बच जाता, तो
उसको बांट
देता। रात फिर
भिखमंगे हो कर
सो जाते। सुबह
फिर लकड़ी
काटने चला
जाता।
एक
दिन ऐसा हुआ
कि वह बीमार
था और तीन दिन
तक लकड़ी काटने
न जा सका। तो
तीन दिन घर
में चूल्हा न
जला। चौथे दिन
कमजोर तो था, लेकिन
जाना पड़ा।
पत्नी भी साथ
गई सहारा देने
को। लकड़ियां
काटीं। रांका
अपने सिर पर
लकड़ियों का
गट्ठा लिये
चलने लगा।
पीछे—पीछे
उसकी पत्नी
चलने लगी। राह
के किनारे अभी—अभी
कोई घुड़सवार
निकला है, घोड़े
के पदचाप बने हैं,
और धूल अभी
तक उड़ स्ही है।
और देखा
उन्होंने कि
किनारे एक
अशर्फियों से भरी
थैली पड़ी है, शायद
घुड़सवार की
गिर गई है। रांका
आगे है। उसके
मन में सोच
उठा कि मैं तो
हूं त्यागी, मैंने तो
विजय पा ली, मेरे लिये
तो धन मिट्टी
है; मगर
पत्नी तो
पत्नी है, कहीं
उसका मन न आ
जाये, लोभ
न आ जाये; कहीं
सोचने न लगे
रख लो, कभी
दुर्दिन में
काम आ जायेगी,
अब तीन दिन
भूखे रहना पड़ा,
एक पैसा पास
न था। ऐसा सोच
कर उसने जल्दी
से अशर्फियों
से भरी थैली
पास के एक
गड्डे में
सरका कर उसके
ऊपर मिट्टी
डाल दी। वह
मिट्टी डाल कर
चुक ही रहा था
कि पत्नी आ गई।
उसने पूछा, क्या करते
हो?
तो
रांका ने कसम
खाई थी झूठ
कभी न बोलने
की,
बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया। कहे, तो डर लगा कि
यह पत्नी झंझट
न करने लगे; और कहे कि रख
लो, हर्ज
क्या है, भाग्य
ने दी है, भगवान
ने दी है, रख
लो—कहीं ऐसा न
कहने लगे!
स्त्री का
भरोसा क्या!
साधु—संन्यासी
स्त्री से सदा
डरे रहे। मगर
झूठ भी न बोल
सका, क्योंकि
कमस खा ली थी।
तो उसने
मजबूरी में
कहा कि सुन, मुझे क्षमा
कर, और कोई
और बात मत
उठाना, सत्य
कहे देता हूं. यहां
थैली पड़ी थी, यह सोच कर कि
तेरा लोभ न जग
जाये, मैं
तो खैर लोभ का
त्याग कर चुका,
मगर तेरा
क्या भरोसा!
स्त्री यानी
स्त्री।
स्त्री का
कहीं मोक्ष
होता है! जब तक
वह पुरुष न हो
जाये, तब
तक मोक्ष नहीं
कहते
धर्मशास्त्र—सब
धर्मशास्त्र
पुरुषों ने
लिखे हैं; वहा
भी बड़ी
राजनीति है—तो
तू स्त्री है,
कमजोर हृदय
की है, रागात्मक
तेरी
प्रवृत्ति है।
तू कहीं उलझ न
जाये, इसलिए
तेरे को ध्यान
में रख कर
मैंने ये
अशर्फियां
मिट्टी में ढक
दी हैं और ऊपर
से मिट्टी डाल
रहा हूं।
रांका
की बात सुन कर
बांका खूब
हंसने लगी।
उसे नाम
इसीलिए तो
बांका मिला।
वह कहने लगी, यह
भी खूब रही!
मिट्टी पर
मिट्टी डालते
तुम्हें शर्म
नहीं आती? और
जरूर
तुम्हारे
भीतर कहीं लोभ
बाकी है। जो
तुम मुझ में
सोचते हो, वह
तुम्हारे
भीतर कहीं
छिपा होगा। जो
तुम मुझ पर
आरोपित करते
हो, वह
कहीं
तुम्हारे
भीतर दबा पड़ा
होगा।
तुम्हें अभी
सोना, सोना
दिखाई पड़ता है?
तुम्हें
अभी भी सोने
और मिट्टी में
फर्क मालूम होता
है?
वह
तो रोने लगी, वह
तो कहने लगी
कि मैं तो
सोचती थी कि
तुम त्यागी हो
गये! यह क्या
हुआ, अभी
तक धोखा ही
चला! तुम
मिट्टी पर
मिट्टी डाल रहे
हो!
यह
बांका समझती
जनक का सूत्र।
जनक परम ज्ञान
को उपलब्ध हो
गये और कुछ भी
न छोड़ा!
भोग
और त्याग
दोनों ही
अज्ञानी के
हैं। वे एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
मेरे
पास एक
संन्यासी एक
दफा मिलने आये।
जो उनको साथ
ले आये थे
मेरे पास तक, उन्होंने
कहा कि योगीजी
बड़े महात्मा
हैं, बड़े
पहुंचे हुए
हैं! रुपये—पैसे
को हाथ भी
नहीं लगाते!
कोई रुपया—पैसा
सामने कर दे, तो इधर मुंह
फेर लेते हैं।
और इसलिए तो
मैं इनके साथ
चलता हूं
क्योंकि टिकिट
लेनी, टैक्सी
का भाड़ा
चुकाना, तो
पैसे मैं रखता
हूं।
मैंने
पूछा, 'तुम्हारा
नाम क्या है?'
कहा, ' भोगीलाल
भाई। '
योगी—भोगी
का खूब मेल
मिला! 'पैसे
वस्तुत: किसके
हैं?'
'मेरे तो
नहीं है,' भोगीलाल
भाई ने कहा, 'क्योंकि
मुझे कौन देता
है! देते तो
लोग स्वामी जी
को हैं, रखता
मैं हूं। हैं
तो स्वामी जी
के, अगर सच
पूछें तो, क्योंकि
मैं कौन हूं
मेरी स्थिति
क्या! मैं तो
साधारण आदमी
हूं। चढ़ाते
उनको हैं, सम्हालता
मैं हूं। बाकी
वे छूते नहीं।
वे खड़े योगी
हैं। '
योगी
और भोगी एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। जहा
तुम योगीलाल
भाई को पाओगे
वहीं भोगीलाल
भाई को भी
पाओगे। उन
दोनों का एक—दूसरे
के बिना चल भी
नहीं सकता।
असंभव है, क्योंकि
सिक्का कहीं
एक पहलू का
हुआ है? उसमें
दोनों पहलू ही
चाहिये।
वीतराग
पुरुष तो वही
है,
जिसकी न तो
पकड़ अब भोग की
है और न योग की
है। जिसने जान
लिया कि सब
सपना है, अब
भागना कहां है?
न भोगना है,
न भागना है।
अब तो जो हो
उसे देखते
रहना है। अब
तो साक्षी—
भाव में जीना
है। ऐसा हो तो
ठीक, वैसा
हो तो ठीक।
महल हो तो ठीक,
झोपड़ी हो तो
ठीक। कुछ हो
तो ठीक, कुछ
न हो तो ठीक।
वीतराग
चित्त की दशा
भोग और त्याग
के पार की दशा
है। क्योंकि
भोग भी एक
सपना है और
त्याग भी एक
सपना है।
दोनों से जो
जाग गया, वही
साक्षी है।
लेकिन
हमारे सोचने
के ढंग होते
हैं,
हमारे
सोचने की बंधी
हुई
व्यवस्थायें
होती हैं।
हमने जीवन भर
धन को बहुत
मूल्य दिया, फिर एक दिन
हमें दिखाई
पड़ा कि धन
व्यर्थ है, तो भी हमारे
जीवन भर का
ढांचा इतनी
आसानी से तो
नहीं बदलता।
तब हम विपरीत
ढंग से धन को
मूल्य देने
लगते हैं। हम
कहते हैं, धन
व्यर्थ है, हम धन को
देखेंगे भी
नहीं। पुरानी
आदत जारी रही।
मैंने
सुना कि
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
बार नास्तिक
हो गया! और
मुसलमान
साधारणत:
नास्तिक होते
नहीं, इतनी
हिम्मत
मुसलमान जुटा
ही नहीं पाते।
नास्तिक तो हो
गया, लेकिन
पुरानी आदत तो
नहीं छूटी।
मुझे मिलने
आया तो मैंने
पूछा कि
मुल्ला, मैंने
सुना, तुम
नास्तिक हो
गये! चलो
अच्छा किया, कुछ तो हुए।
अब तुम्हारा सिद्धात
क्या है?
उसने
कहा,
'मेरा
सिद्धात
बिलकुल साफ है।
मैंने टांग
रखा है अपनी
दीवाल पर कि
कोई ईश्वर
नहीं है, और
पैगंबर
मुहम्मद उसके
पैगंबर हैं। '
कोई
ईश्वर नहीं है, और
मुहम्मद उसके
पैगंबर हैं!
वह पुरानी आदत
कि एक ही
अल्लाह, और
एक ही पैगंबर
मुहम्मद!
उसमें से आधा
तो बदला, उतनी
तो हिम्मत
जुटाई कि कोई
ईश्वर नहीं है,
लेकिन
पुरानी आदत!
अब ईश्वर नहीं
है तो भी मुहम्मद
तो पैगंबर हैं
ही।
हमारी
आदतें ऐसी ही
चलती हैं। बड़ी
सूक्ष्म हैं।
एक
मित्र मुल्ला
नसरुद्दीन को
मिल गया होटल
में। तो उसने
कहा,
यार, एक—एक
पैग हो जाये तो
कैसा रहे? मुल्ला
ने कहा, नहीं
भाई, शुक्रिया,
बहुत—बहुत
धन्यवाद! नहीं,
इसलिए कि एक
तो मेरे धर्म
में शराब पीने
की मनाही है।
दूसरे जब मेरी
पत्नी मरने को
थी, तो
मैंने उसके
सामने कसम खा
ली है कि कभी
शराब न पीऊंगा।
और तीसरे अभी—अभी
मैं घर से पी
कर चला आ रहा हूं।
आदमी
बिना देखे, बिना
द्रष्टा बने,
कसमें खाता,
व्रत ले
लेता, त्याग
कर देता, संकल्प
बना लेता—उससे
क्या होगा? उसके सोचने
के ढंग तो
नहीं बदलते।
उसके सोचने की
मौलिक
प्रक्रिया तो
नहीं बदलती।
वह पुराने ही
ढांचे में नये
सिक्के ढालने
लगता है, लेकिन
नये सिक्कों
पर मोहरें तो
पुरानी ही
होती हैं, हस्ताक्षर
तो पुराने ही
होते हैं।
तुम
अगर ऐसे ऊपर—ऊपर
बदलने में लगे
रहे,
तो कभी न
बदलोगे; यह
तुम बदलने का
धोखा दे रहे
हो। बदलाहट तो
आमूल होती है,
जड़मूल से
होती है।
बदलाहट तो एक
झंझावात है, एक क्रांति
है, जिसमें
तुम्हारा सब उखड़
जाता, जिसमें
तुम्हारे
देखने, सोचने,
विचारने की
प्रक्रियाएं
समाप्त हो
जाती हैं।
अभिनव का जन्म
होता है। अतीत
से तुम्हारा
समस्त संबंध
विच्छेद हो जाता
है। उसमें से
कुछ भी तुम
बचा कर नहीं
लाते—किसी भी
बहाने से बचा
कर नहीं लाते।
धन
में रस था, तो
तुम त्यागी बन
सकते हो; लेकिन
तुम्हारा रस
धन में ही
रहेगा। यह हो
सकता है, फिर
तुम लोगों को
समझाओ कि बचो
कामिनी—कांचन
से! कामिनी—काचन
में बड़ा खतरा
है! लेकिन तुम
चर्चा कामिनी—काचन
की ही करोगे।
कभी—कभी
शास्त्रों को
देख कर बड़ी
हैरानी होती
है। ऋषि—मुनि
निरंतर
कामिनी—काचन की
बात करते रहते
हैं—बचो
कामिनी—कांचन
से! ऐसा लगता
है,
अभी भी डरे
हुए हैं, और
शायद दूसरों
को समझाने के
बहाने अपने को
समझा रहे हैं।
यह बात ही
क्या है? ठीक
है, समझाने
के लिये एकाध
बार कह दी, तो
ठीक है, मगर
यह चौबीस घंटे
का राग, कि
बचो कामिनी—काचन
से। ऐसा लगता
है, पीछे
अचेतन में अभी
भी कामिनी—काचन
काम कर रहे
हैं। अभी भी
डरे हुए हैं।
अभी भी लगता
है, भय है।
अभी भी लगता
है, अगर यह
बात बार—बार न
दोहराई, तो
खतरा है कि
कहीं फिर न पड़
जायें उसी जाल
में। तो यह
आत्म—सम्मोहन
का प्रयोग कर
रहे हैं, वे
बार—बार दोहरा
रहे हैं।
फ्रांस
में सम्मोहक
हुआ : इमाइल
कुए। वह अपने
शिष्यों को
कहता था कि बस
एक ही बात को रोज
सुबह—शाम
दोहराओ कि मैं
रोज अच्छा हो
रहा हूं स्वस्थ
हो रहा हूं—तुम
हो जाओगे। ये
सारे लोग
इमाइल कुए के
अनुयायी
मालूम होते
हैं। तुम
दोहराते रहो
कि कामिनी—कांचन
पाप है, कामिनी—कांचन
पाप है। लेकिन
तुमने खयाल
किया? तुम
उसी चीज को
पाप कहते हो, जिसमें
तुम्हारा रस
भी होता है।
सच तो यह है कि
अगर चीजें पाप
न हों तो
उनमें रस ही
खो जाता है।
जिस चीज को
पाप बना दो, उसमें रस
आने लगता है।
कहो कि पाप है
तो आकर्षण
पैदा होता है।
तुम छोटे से
बच्चे को कहो
कि वहां मत
जाना—बस सारी
दुनिया बेकार
हुई, अब
वहीं जाने में
रस मालूम होता
है।
ईसाई
कथा है कि
परमात्मा ने
जब बनाया आदम
और हब्बा को, तो
उसने कहा कि
देखो और सब फल
तो खाना इस
बगीचे के, सिर्फ
यह जो बीच में
एक वृक्ष लगा
है, यह
ज्ञान का
वृक्ष है, इसका
फल मत खाना।
फिर मुश्किल
हो गई।
मुश्किल खुद
परमात्मा ने
पैदा करवा दी।
इतना बड़ा
विराट जंगल था,
कि अगर आदम—हब्बा
को खुद पर छोड़
दिया होता, तो शायद अभी
तक भी वे खोज न पाये
होते उस वृक्ष
को। अनंत! मगर
वह परमात्मा
का कहना, और
तख्ती लगा
देना कि यहां
इस फल को मत
खाना, बस
वही बना
उत्तेजना का
कारण। फिर
सारा बगीचा
व्यर्थ हो गया।
फिर रात सपना
भी आदम और
हब्बा यही
देखते रहे होंगे
कि कब, कैसे!
आखिर
परमात्मा ने
मना क्यों
किया? जरूर
कुछ राज होगा।
और तभी तो वह
सांप उनको, शैतान उनको
भटका सका।
उसने कहा कि
अरे पागलो!
परमात्मा खुद
इसका फल खाता
है! तुम खाओगे,
तुम भी
परमात्मा
जैसे हो जाओगे।
इसलिए तो रोका—ईर्ष्यावश!
अब
अगर दुबारा
परमात्मा
संसार बनाये
तो उससे मैं
कहना चाहूंगा
कि अब की बार
तुम यह कह
देना कि इस
सांप को मत
खाना, बस। आदम—हब्बा
सांप को खा
जाते, अगर
परमात्मा ने
कहा होता कि
सांप को मत
खाना, और
सब खाना!
शैतान को खा
जाते, अगर
तख्ती लगा दी
होती कि शैतान
को छोड़ना, बाकी
सब खा जाना।
मगर वह तख्ती
लगाई थी ज्ञान
के वृक्ष पर।
निषेध
आमंत्रण बन
जाता है।
निषेध बड़ा
निमंत्रण बन
जाता है। कहो, 'नहीं'—और प्राणों
में कोई
छटपटाहट होती
है कि करके
रहो, देखो,
जरूर कुछ
होगा। कामिनी—काचन
को सतपुरुष
निरंतर भजते
हैं कि पाप, बचो, घबड़ाओ!
तो सुनने
वालों को लगता
है कि जरूर
कुछ राज होगा,
जब
महापुरुष
इतनी ज्यादा
चर्चा करते
हैं!
मेरे
देखे, अगर
दुनिया में धन
और काम की
निंदा बंद हो
जाये, तो
धन और काम का
जितना प्रभाव
है, वह अति
शून्य हो जाये,
उसका कोई
मूल्य न रह
जाए।
उपयोगिताएं
हैं ये। न तो
इनको इकट्ठा
करने में कोई
सार है और न
इनको त्यागने
में कोई सार
है।
तुम
जरा सोचो तो
अगर जिस चीज
को इकट्ठा
करने से कुछ
नहीं मिलता, उसको
छोड़ने से कैसे
मिल जायेगा? इकट्ठा करने
से संसार नहीं
मिलता और
छोड़ने से
परमात्मा मिल
जाएगा? तो
त्यागी तो
भोगी से भी
ज्यादा
भ्रांत मालूम होता
है। भोगी तो
इतना ही कह
रहा है कि अगर
हम धन इकट्ठा कर
लेंगे तो
संसार मिल
जायेगा।
त्यागी इससे
भी बड़े भ्रम
में है—वह कह
रहा है, धन
अगर छोड़ देंगे
तो परमात्मा
मिल जायेगा।
लेकिन लगता
ऐसा है कि धन
से ही सब
मिलता है—चाहे
संसार, चाहे
परमात्मा!
जनक
ने कुछ छोड़ा
नहीं, और वे
महात्याग को
उपलब्ध हुए।
इस क्रांति के
सूत्र को समझो। 'अहो!
दुख का मूल
द्वैत है, उसकी
औषधि कोई नहीं।
यह सब दृश्य
झूठ है, मैं
एक अद्वैत
शुद्ध चैतन्य—रस
हूं। '
यह
सूत्र महाक्रांतिकारी
है।
'दुख का मूल
द्वैत है।'
चीजों
को खंडित करके
देखना दुख का
मूल है। मैं
अलग हूं
अस्तित्व से, ऐसा
मानना दुख का
मूल है। जैसे
ही तुम मान लो,
जान लो—'तुम
अलग नहीं हो'—दुख
विसर्जित हो
जाता है।
अहंकार
दुख है।
अहंकार का
अर्थ है. हम
भिन्न हैं, हम
अलग हैं। मैं
अकेला हूं और
सारे संसार से
मुझे लड़ना है।
जीत मुझ पर
निर्भर होगी,
सारा संसार
दुश्मन है। यह
सारा
अस्तित्व
मेरे विरोध
में है, मुझे
मिटाने को
तत्पर है।
तो
बड़ी
प्रतिस्पर्धा
है,
बड़ी
प्रतियोगिता
है। ऐसा
व्यक्ति रोज—रोज
दुख में पड़ता
चला जायेगा।
क्योंकि
वह जिससे लड़
रहा है, उससे
हम अलग नहीं
हैं। यह तो
ऐसे हुआ कि
सागर की एक
लहर सागर से
लड़ने लगे। तो
कष्ट में पड़
जायेगी, पागल
हो जायेगी; जल्दी ही
तुम उसे किसी
मनोवैज्ञानिक
के कोच पर
लेटा हुआ
पाओगे इलाज
करवाते।
जल्दी ही किसी
पागलखाने में
कैद पाओगे, अगर कोई लहर
सागर से लड़ने
लगे।
लहर
सागर से कैसे
लड़ेगी? लहर
तो सागर ही है।
सागर ही
लहराया है लहर
में। हम उस
अरूप के रूप
हैं। हम उस एक
के भिन्न—भिन्न
आकार हैं। हम
उस अनंत की ही
लहरें हैं, तरंगें हैं।
हम में वही
तरंगायित हुआ
है। वही
तुम्हारे
भीतर सुन रहा
है, वही
मेरे भीतर बोल
रहा है। वही
तुम्हारी आंखों
से देख रहा है,
वही
तुम्हारे
कानों से सुन
रहा है। वही यहां
बैठा है। वही
बरस रहा बाहर,
वही
वृक्षों में
हरा— भरा है।
एक ही है!
जनक
कहते हैं, जिसने
दो माना, वह
भ्रांति में
पड़ा, वह
दुख में पड़ा।
क्योंकि दो
मानते ही
हिंसा शुरू हो
जाती है, संघर्ष
शुरू हो जाता
है, लड़ाई
शुरू हो जाती
है। फिर
विश्राम कहां!
जिसने
एक जाना, फिर
लड़ना किससे है?
तुम्हारे
शत्रु में भी
वही है, और
जब मौत आये
तुम्हारे
द्वार, तो
मौत में भी
वही आयेगा; उसके
अतिरिक्त कोई
है ही नहीं।
तुम्हारी
बीमारी में भी
वही है, स्वास्थ्य
में भी वही है।
जवानी में, बुढ़ापे में
भी वही है।
सफलता और
विफलता में भी
वही है। अनेक—अनेक
रूपों में वही
आता—बस वही
आता है, कोई
और आने को
नहीं है!
ऐसी
जिसकी
प्रतीति गहन
हो जाये, फिर
उसे दुख कहां?
द्वैतमूलमहो
दुःखं
नान्यत्तस्यास्ति
भेषजम् ।
दृश्यमेतन्मृषा
सर्वं
एकोग्हं
चिद्रसोउमल:।।
'दुख का मूल
द्वैत, उसकी
औषधि कोई नहीं।
'
अमरीका
के एक बहुत
विचारशील
व्यक्ति ने, फ्रेंकलिन
जोन्स ने एक
किताब लिखी है।
किताब का नाम
है : नो रेमेडी।
औषधि कोई
नहीं! इस सूत्र
की व्याख्या
है पूरी किताब।
शायद इस सूत्र
का फ्रेंकलिन
जोन्स को कोई
पता भी नहीं
है। लेकिन बस
इस एक छोटे—से
सूत्र की
व्याख्या है :
औषधि कोई नहीं—तस्य
भेषजम्
अन्यत् अस्ति—बस!
कोई औषधि नहीं।
इससे
तुम थोड़े
चौंकोगे भी, घबडाओगे
भी। क्योंकि
तुम बीमार हो
और औषधि की
तलाश कर रहे हो।
तुम उलझे हो
और कोई सुलझाव
चाहते हो। तुम
परेशानी में
हो, तुम
कोई हल खोज
रहे हो।
तुम्हारे पास
बड़ी समस्याएं
हैं, तुम
समाधान की
तलाश कर रहे
हो। इसलिए तुम
मेरे पास आ
गये हो। और
अष्टावक्र की
इस गीता में
जनक का उदघोष
है कि औषधि
कोई नहीं।
इसे
समझना। यह बड़ा
महत्वपूर्ण
है। इससे
महत्वपूर्ण
कोई बात खोजनी
मुश्किल है।
और इसे तुमने
समझ लिया तो
औषधि मिल गई।
औषधि कोई नहीं, यह
समझ में आ गया,
तो औषधि मिल
गई। जनक यह कह
रहे हैं कि
बीमारी झूठी
है। अब झूठी
बीमारी का कोई
इलाज होता है?
झूठी
बीमारी का
इलाज करोगे तो
और मुश्किल
में पड़ोगे।
झूठी बीमारी
के लिये अगर
दवाइयां लेने
लगोगे, तो
बीमारी तो झूठ
थी; लेकिन
दवाइयां नयी
बीमारियां
पैदा कर देंगी।
इसलिए पहले
ठीक—ठीक
निर्णय कर
लेना जरूरी है
कि बीमारी सच
है या झूठ?
एक
आदमी के संबंध
में मैंने सुना, वह
बड़ा परेशान था।
उसे एक वहम हो
गया कि रात
उसने एक सपना
देखा—वह मुंह
खोल कर सोता
था, बचपन
से उसकी खराब
आदत पड़ गई थी—रात
उसने सपना
देखा कि मुंह
उसका खुला है,
और एक सांप
उसमें घुस गया।
घबड़ाहट में
नींद तो खुल
गई, लेकिन
जब उसकी नींद
खुली, तब
भी सपना ऐसा प्रगाढ़
था कि उसने
बराबर सांप की
पूंछ सरकते देखी—अंतिम
पूंछ। वह चीखा
भी, चिल्लाया
भी, लेकिन
तब तक वह कंठ
के अंदर उतर
गया। अब उसके
बड़े इलाज किये
गये, एक्सरे
लिये गये, दवाइयां
दी गयीं।
डाक्टर कहें
उससे कि कोई
सांप नहीं है,
क्योंकि
एक्सरे में
आता नहीं। वह
कहे, हम
तुम्हारी
मानें कि अपनी?
वह पेट में
चलता है!
अब
तुम थोड़ा सोचो
उस आदमी को, अगर
तुम भी ऐसा
विचार करो तो
चलने लगेगा।
विचार की बड़ी
क्षमता है।
कल्पना की बड़ी
शक्ति है।
उसकी कल्पना
प्रगाढ़ हो गई।
वह बैठ न सके, पेट में
दर्द हो, कहीं
सांप यहां सरक
रहा है, कहीं
वहा सरक रहा
है! और उसका
जीवन बेचैनी
से भर गया। वह
रात सो न सके।
काम— धाम सब
बंद हो गया।
चिकित्सकों
के पास जाये, वे कहें कि
सांप हो भीतर
तो हम इलाज
करें, कुछ
है ही नहीं।
संयोग
की बात, वह एक
सम्मोहनविद
के पास गया।
उसने कहा कि
सांप है। कौन
कहता है नहीं
है? कहने
वाले गलत।
एक्सरे गलत
होगा। लेकिन
सांप है।
उसकी
बात सुनते ही
वह आदमी
आश्वस्त हुआ, उसने
कहा कि गुरु
मिले! आप की ही
तलाश कर रहा
था। मानते ही
नहीं लोग। अब
मैं मरा जा
रहा हूं.।
और
उसकी तकलीफ तो
सच थी, चाहे
सांप झूठ हो।
इसे थोड़ा समझ
लेना। उसकी
तकलीफ तो सच थी,
चाहे सांप
झूठ हो। सांप
झूठ हो या सच
हो, इससे
क्या फर्क
पड़ता है? उसकी
तकलीफ तो सच
थी। वह दुबला
हो गया, सूख
कर हड्डी—हड्डी
हो गया। उसकी
एक ही घबड़ाहट,
एक ही
बेचैनी, कि
इस सांप से
कैसे छुटकारा
होगा। सब
अस्तव्यस्त
उसका जीवन हो
गया।
लेकिन
उस
सम्मोहनविद
ने कहा, हम हल
कर लेंगे।
उसने इंतजाम
किया। उसने
उसकी संडास
में एक सांप
रखवा दिया। जब
वह सुबह जाये
मल—विसर्जन को,
तो घर के
लोगों को कहा
कि सांप छोड़
देना। बस बाकी
मैं निपटा
लूंगा।
जब
वह मल—विसर्जन
को गया, तो
सांप उसने
सरकता देखा।
नीचे देखा, तो भागा, खुश
हो कर बाहर आया।
उसने कहा कि
देखो, लाओ
तुम्हारे
एक्सरे! वह
डाक्टरों के
पास गया, उसने
कहा कि देखो, सांप था, निकल
गया!
उसी
दिन से वह ठीक
हो गया।
'कोई औषधि
नहीं' का
अर्थ यह होता
है कि बीमारी
झूठ है। इस
झूठ बीमारी को
झूठ जान लेने
में ही छुटकारा
है। अगर
बीमारी सच
होती तो इलाज
हो सकता था।
अगर तुम
परमात्मा से
दूर हो गये
होते तो मिलने
की कोई
व्यवस्था हो
सकती थी। तुम
दूर हुए नहीं,
और तुम
सोचते हो कि
दूर हो गये।
अगर तुमने
अपनी आत्मा से
संबंध छोड़
दिया होता तो
कोई रास्ता
बना लेते, कोई
सेतु बनता, विज्ञान कोई
उपाय खोज लेता
कि फिर से
कैसे जुड़ा
जाये। लेकिन
तुम कभी आत्मा
से अलग हुए
नहीं। तुम
जुड़े हो। अगर
मछली सागर के
बाहर चली गई
होती तो हम
सागर में
वापिस फेंक
देते। मछली
सागर में है—और
चीख—पुकार मचा
रही है और तड़प
रही है और
कहती है कि मुझे
सागर में वापस
भेजो। मैं तड़प
रही हूं इस
रेत पर, मेरे
प्राण जल रहे
हैं।
तो
क्या करोगे? एक
ही उपाय है कि
हम मछली को
जगायें कि
सागर तेरे
चारों तरफ है,
तू कभी छूटी
नहीं सागर से।
अगर
तुम्हें यह
बात खयाल में
आ जाये, तो
परमात्मा को
पाने के जितने
उपाय हैं, वे
झूठी बीमारी
को मिटाने की
औषधियां हैं।
इसलिए मैं
कहता हूं यह
वचन महाक्रांतिकारी
है। यह वचन यह
कह रहा है कि
तुम परमात्मा
हो, तुम्हें
होना नहीं है।
तुम्हें उपाय
नहीं करना है
परमात्मा
होने का। सब
उपाय व्यर्थ
हैं। और जितने
तुम उपाय, अनुष्ठान
करोगे, उतने
ही तुम भटकते
रहोगे।
अनुष्ठान
बंधन है—इस
सूत्र का ठीक—ठीक
अर्थ होगा योग
में मत भटकना; उपाय
में मत लगना।
उपाय तुम्हें
दूर ले जायेगा।
क्योंकि तुम
जिसे खोज रहे
हो, उसे
कभी खोया नहीं
है। अभी मौजूद
है। यहीं
मौजूद है। इसी
क्षण तुम
परमात्मा हो।
बेशर्त तुम
परमात्मा हो!
परमात्मा
होना तुम्हारा
स्वभाव है।
विवेकानंद
कहा करते थे, एक
सिंहनी
गर्भवती थी।
वह छलांग
लगाती थी एक
टीले पर से।
छलांग के झटके
में उसका
बच्चा गर्भ से
गिर गया, गर्भपात
हो गया। वह तो
छलांग लगा कर
चली भी गई, लेकिन
नीचे से भेड़ों
का एक झुंड
निकलता था, वह बच्चा
भेड़ों में गिर
गया। वह बच्चा
बच गया। वह
भेड़ों में बड़ा
हुआ। वह भेड़ों
जैसा ही
रिरियाता, मिमियाता।
वह भेड़ों के
बीच ही सरक—
सरक कर, घिसट—घिसट
कर चलता। उसने
भेq—चाल
सीख ली। और
कोई उपाय भी न
था, क्योंकि
बच्चे तो
अनुकरण से
सीखते हैं।
जिनको उसने
अपने आस—पास
देखा, उन्हीं
से उसने अपने
जीवन का अर्थ
भी समझा, यही
मैं हूं। और
तो और, आदमी
भी कुछ नहीं
करता, वह
तो सिंह—शावक
था, वह तो
क्या करता? उसने यही
जाना कि मैं
भेq हूं।
अपने को तो
सीधा देखने का
कोई उपाय नहीं
था; दूसरों
को देखता था
अपने चारों
तरफ वैसी ही
उसकी मान्यता
बन गई, कि
मैं भेड़ हूं।
वह भेड़ों जैसा
डरता। और
भेड़ें भी उससे
राजी हो गईं; उन्हीं में
बड़ा हुआ, तो
भेड़ों ने कभी
उसकी चिंता
नहीं ली।
भेड़ें भी उसे
भेड़ ही मानतीं।
ऐसे
वर्षों बीत
गये। वह सिंह
बहुत बड़ा हो
गया,
वह भेड़ों से
बहुत ऊपर उठ
गया। उसका बड़ा
विराट शरीर, लेकिन फिर
भी वह चलता
भेड़ों के झुंड
में। और जरा—सी
घबड़ाहट की
हालत होती, तो भेड़ें
भागती, वह
भी भागता।
उसने कभी जाना
ही नहीं कि वह
सिंह है। था
तो सिंह, लेकिन
भूल गया। सिंह
से 'न होने'
का तो कोई
उपाय न था, लेकिन
विस्मृति हो
गई।
फिर
एक दिन ऐसा
हुआ कि एक
बूढ़े सिंह ने
हमला किया
भेड़ों के उस
झुंड पर। वह
बूढ़ा सिंह तो
चौंक गया, वह
तो विश्वास ही
न कर सका कि एक
जवान सिंह, सुंदर, बलशाली,
भेड़ों के
बीच घसर—पसर
भागा जा रहा
है, और
भेड़ें उससे
घबड़ा नहीं
रहीं। और इस
के सिंह को
देखकर सब भागे,
बेतहाशा
भागे, रोते—चिल्लाते
भागे। इस बूढ़े
सिंह को भूख
लगी थी, लेकिन
भूख भूल गई।
इसे तो यह
चमत्कार समझ
में न आया कि
यह हो क्या रहा
है? ऐसा तो
कभी न सुना, न आंखों
देखा। न कानों
सुना, न आंखों
देखा; यह
हुआ क्या?
वह
भागा। उसने
भेड़ों की तो
फिक्र छोड़ दी, वह
सिंह को पकड़ने
भागा।
बामुश्किल
पकड़ पाया :
क्योंकि था तो
वह भी सिंह; भागता तो
सिंह की चाल
से था, समझा
अपने को भेड़
था। और यह
बूढ़ा सिंह था,
वह जवान
सिंह था।
बामुश्किल से
पकड़ पाया। जब
पकड़ लिया, तो
वह रिरियाने
लगा, मिमियाने
लगा। सिंह ने
कहा, अबे
चुप! एक सीमा
होती है किसी
बात की। यह तू
कर क्या रहा
है? यह तू
धोखा किसको दे
रहा है?
वह
तो घिसट कर भागने
लगा। वह तो
कहने लगा, क्षमा
करो महाराज, मुझे जाने
दो! लेकिन वह
बूढ़ा सिंह
माना नहीं, उसे घसीट कर
ले गया नदी के
किनारे। नदी
के शांत जल
में, उसने
कहा जरा झांक
कर देख। दोनों
ने झांका। उस
युवा सिंह ने
देखा कि मेरा
चेहरा और इस
बूढ़े सिंह का
चेहरा तो
बिलकुल एक
जैसा है। बस
एक क्षण में क्रांति
घट गई। 'कोई
औषधि नहीं!' हुंकार
निकाल गया
गर्जना निकल
गई, पहाड़
कैप गये आसपास
के! कुछ कहने
की जरूरत न रही।
कुछ उसे बूढ़े
सिंह ने कहा
भी नहीं—सदगुरु
रहा होगा!
दिखा दिया, दर्शन करा
दिया। जैसे ही
पानी में झलक
देखी— हम तो
दोनों एक जैसे
हैं—बात भूल
गई। वह जो
वर्षों तक भेड़
की धारणा थी, वह एक क्षण
में टूट गई।
उदघोषणा करनी
न पड़ी, उदघोषणा
हो गई। हुंकार
निकल गया। क्रांति
घट गई।
ऐसा
ही ठीक
अष्टावक्र और
जनक के बीच
हुआ।
अष्टावक्र
यानी बूढ़ा
सिंह। जनक
यानी जवान
सिंह। पकड़े
गये!
अष्टावक्र के
सत्संग में
झलक दिखाई पड़ी।
अष्टावक्र की
घोषणा में
अपने स्वभाव
की पहचान हुई
अब
तुम पूछो कि
अगर कोई सिंह
भेड़ों में खो
गया हो, तो
उसे वापस सिंह
बनाने की औषधि
क्या है? औषधि
कोई नही—नो
रेमेडी! उसे
कितने ही
इंजेक्यान
लगाओ, कितना
ही वेटेनरी
डाक्टर के पास
ले जाओ, दवाइयां
पिलवाओ—उससे
कुछ लाभ न
होगा।
तुम्हारी
दवाइयां, तुम्हारे
इंजेक्यान, तुम्हारा
वेटेनरी
डाक्टर के पास
ले जाना, उसे
और कमजोर करता
जायेगा।
तुम्हारी
दवाइयां और
उसे भ्रांति
से भर देंगी
कि हूं तो मैं
भेड़ ही, देखो
इतने उपाय
किये जा रहे
हैं मुझे सिंह
बनाने के, फिर
भी कुछ हो
नहीं रहा। मैं
सिंह तो हो
नहीं पा रहा
हूं। और अगर
मैं सिंह ही
था, तो
उपाय क्यों
किये जाते? जरूर मैं
भेड़ हूं
जबर्दस्ती ये
लोग सिंह
बनाने की
चेष्टा कर रहे
हैं।
फिर
अगर समझा—बुझा
कर किसी तरह, तुम
इसको यह भी
भरोसा दिलवा
दो कि तू रट
रोज, सुबह
ध्यान कर बैठ
कर कि मैं
सिंह हूं मैं
सिंह हूं ऐसा
रोज रट—अहं
ब्रह्मास्मि—धीरे—धीरे
हो जायेगा।
रोज दोहरा कि
मैं सिंह होता
जा रहा हूं।
जैसा कुए कहता
है कि रोज मैं
स्वस्थ होता
जा रहा हूं
सुंदर होता जा
रहा हूं। ऐसा
अगर यह सिंह
वर्षों तक भी
कहता रहे, और
वर्षों कहने
के बाद मान भी
ले, तो भी
क्या यह सिंह
हो जायेगा? यह मान्यता
ही रहेगी। यह
विचार की पतली
पर्त ही रहेगी।
मगर उस बूढ़े
सिंह ने ठीक
किया। उसने
इसे कुछ मंत्र
नहीं दिया, जप—तप नहीं
दिया। घसीट कर
ले गया, एक
स्थिति पैदा
की, जिसमें
इसे अपने
स्वभाव की झलक
मिल गई।
सदगुरु
के सत्संग का
इतना ही अर्थ
होता है कि वह
तुम्हें घसीट
कर वहां ले
जाये, जहा तुम
उसके चेहरे और
अपने चेहरे को
मिला कर देख
पाओ, जहां
तुम उसके भीतर
के अंतरतम को,
अपने
अंतरतम के साथ
मिला कर देख
पाओ। गर्जना
हो जाती है, एक क्षण में
हो जाती है।
सत्संग
का अर्थ ही
यही है कि
किसी ऐसे
व्यक्ति के
पास बैठना, उठना,
जिसे अपने
स्वरूप का बोध
हो गया है; शायद
उसके पास
बैठते—बैठते
संक्रामक हो
जाये बात; शायद
उसकी मौजूदगी
में उसकी आंखों
में, उसके
इशारों में
तुम्हारे
भीतर सोया हुआ
सिंह जाग जाये।
औषधि
कोई भी नहीं, उपाय
कोई भी नहीं, विधि कोई भी
नहीं।
तस्य
भेषजम्
अन्यत् अस्ति।
न
कोई औषधि है, क्योंकि
यह सब दृश्य
झूठ है। उस
सिंह का भेड़
होना झूठ था।
वह सारा दृश्य
झूठ था। माना
था, इसलिए
सच मालूम हो
रहा था। जिस
क्षण जाना, उसी क्षण
झूठ हो गया।
वह स्वम्नवत
था।
'मैं एक
अद्वैत शुद्ध
चैतन्य—रस हूं।
'
सुनो
इस शब्द को. 'मैं
एक अद्वैत
शुद्ध चैतन्य—रस
हूं। '
अहो
द्वैतमूलम्
यत् दु:खम्
—सभी दुख
द्वैत से पैदा
होते हैं।
तस्य
भेषजम् अन्यत्
अस्ति
—इस दुख से
छुटकारे के
लिए कोई औषधि
नहीं है।
सतत्
सर्वम्
दृश्यम्
मृषा।
—क्योंकि सब
झूठ है, सब
स्वम्नवत है।
अहं एक:
अमल: चिद्रस:।
—मैं
एक शुद्ध
चैतन्य—रस हूं।
यह
गर्जना
तुम्हारे
भीतर उठेगी।
इसे तुम
पुनरुक्त मत
करना। तुम
सिर्फ समझना।
तुम सिर्फ आख
खोल कर देखना, कान
खोल कर सुनना।
अष्टावक्र
की गीता में
कोई विधि नहीं
है—यही उसकी
महिमा है।
उसमें कोई
उपाय नहीं
बताया है कि
कैसे परमात्मा
तक पहुंचो।
उसमें तो इतना
ही कहा है कि
तुमने कभी
परमात्मा को
खोया नहीं। बस
जागो! खोलो आख, और
पहचानो अपने स्वरूप
को!
'मैं शुद्ध
बोध हूं।
मुझसे अज्ञान
के कारण उपाधि
की कल्पना की
गई है। इस
प्रकार नित्य
विचार करते
हुए मैं
निर्विकल्प
में स्थित हूं।'
जिस
क्षण तुम्हें
दिखाई पड़ना
शुरू हो
जायेगा कि
स्थिति क्या
है,
उस क्षण तुम
छोड़ोगे नहीं,
कुछ
त्यागने को न
बचेगा, सारा
स्वप्न खो
जायेगा, तुम
सिर्फ एक
अहोभाव से भरे
रह जाओगे। अगर
तुमने सोच—विचार
करके, तर्क
से, चिंतन—मनन
से अपने को
राजी कर लिया
कि नहीं, यह
सब स्वप्न है—तो
इससे कुछ हल न
होगा। यह
तुम्हारी
बौद्धिक
धारणा नहीं
होनी चाहिए, यह तुम्हारा
अस्तित्वगत
अनुभव होना
चाहिए।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन से
उसकी एक पड़ोसी
महिला ने कहा,
पांच वर्ष
पूर्व मेरा
पति आलू
खरीदने गया था,
परंतु आज तक
लौटा नहीं, बताइये मैं
क्या करूं? मुल्ला ने
खूब सोचा, सिर
मारा, आंखें
बंद कीं, बड़ा
ध्यान लगाया—फिर
बोला. ऐसा है, मेरी सलाह
मानिये, आप
गोभी पका
लीजिए। पांच
साल हो गये, पति आलू
लेने गया था, नहीं लौटा, जाने दीजिये;
आप गोभी पका
लें, या और
कोई सब्जी पका
लें।
महिला
कुछ पूछ रही
है,
मुल्ला कुछ
उत्तर दे रहा
है।
तुम
जब किसी से
पूछते हो कि
मैं दुखी हूं
क्या करूं? तो
अष्टावक्र को
छोड़ कर जो भी
उत्तर दिये
गये हैं, वे
बस ऐसे हैं कि
गोभी पका
लीजिये। कोई न
कोई उपाय
बताया जाता है
कि यह उपाय कर
लो, इस
उपाय से सब
ठीक हो जायेगा।
उपाय से
भ्रांति कटती
नहीं।
समझने
की कोशिश करें।
एक आदमी हिंसक
है। वह सुनता
है,
हिंसा बुरी
है, हिंसा
पाप! उसके मन
में भी भाव
उठता है अहिंसक
होने का।
क्योंकि
हिंसा पाप ही
नहीं है, हिंसक
को दुख भी
देती है। जो
दूसरे को दुख
देना चाहता है,
देने के
पहले अपने को
दुख दे लेता
है। जो दूसरे
को दुख देता
है, वह
देने के बाद
भी उस दुख को
भोगता रहता है।
यह असंभव है
कि दूसरे को
हम दुख दें और
खुद दुखी न हो
जायें। जो हम
देंगे, उसे
हमें अपने
हृदय में
पालना पड़ेगा।
और जो हमने
दिया है, उसकी
पश्चात्ताप
की छाया हमें
काटती रहेगी।
तो
जो आदमी हिंसक
है,
वह धीरे—धीरे
अनुभव कर लेता
है कि हिंसा
है तो बुरी, लेकिन करूं
क्या? अहिंसक
कैसे बनूं? वह पूछता है,
अहिंसक
कैसे बनूं? फिर उसे
अहिंसक बनने
की विधि बताने
वाले लोग हैं।
वह हिंसक आदमी
उन विधियों का
पालन भी करने
लगता है, लेकिन
उन विधियों के
पालन करने से
उसकी हिंसा थोड़े
ही मिटती है!
वह उन विधियों
के पालन करने में
ही हिंसक हो
जाता है। वह
दूसरों के साथ
हिंसा बंद कर
देता है, अपने
साथ शुरू कर
देता है। उसकी
हिंसक वृत्ति
कैसे जायेगी?
कल तक वह
दूसरों के साथ
हिंसा कर रहा
था, अब
अपने साथ करता
है।
मैंने
सुना है, एक
आदमी बहुत
हिंसक था।
उसने अपनी
पत्नी को
धक्का दे दिया,
वह कुएं में
गिर कर मर गई।
उसे बड़ा दुख
हुआ। किसी तरह
अदालत से तो
बच गया, सिद्ध
न हो सका; लेकिन
उसके प्राणों
में बड़ा
झंझावात हो
गया। उसने कहा,
अब बहुत हो
गया। गाव में
एक जैन मुनि
आये थे, वह
उनके पास गया।
उसने कहा कि
महाराज, मुझे
मुक्त करो, आप जैन मुनि
हैं और
अहिंसक! और
अहिंसा आपका
परम धर्म! मैं
हिंसक हूं।
मुझे किसी तरह
मुक्त करो।
मुनि
ने कहा कि तुम
मुनि—दीक्षा
ले लो। उसने
कहा,
मैं अभी
तैयार हूं इसी
वक्त!
हिंसक
आदमी! क्रोधी
आदमी कोई भी
चीज शीघ्रता से
कर लेता है।
जो किसी की
हत्या कर दे
शीघ्रता से, वह
अपनी भी हत्या
कर ले शीघ्रता
से, कुछ
अड़चन नहीं है।
मुनि
ने कहा, बहुत
लोग आते हैं, लेकिन तुम
जैसा
संकल्पवान...!
वह संकल्प
नहीं था, वह
तो सिर्फ
हिंसक आदमी की
वृत्ति है, वह क्षण में
कर गुजरता है।
फिर पछताता
रहे चाहे
जिंदगी भर, लेकिन उसकी
मूर्च्छा
इतनी प्रगाढ़
होती है कि वह
कुछ भी करना
चाहे तो क्षण
में कर लेता
है। और चुनौती
दे दी। मुनि
ने कहा कि तुम
फिर मुनि हो
जाओ। उसने कहा
मैं अभी तैयार
हूं। इधर मुनि
सोच ही रहे थे
कि कपड़े गिरा
कर वह नग्न
खड़ा हो गया।
उसने कहा, कि
दें दीक्षा।
मुनि
ने कहा, बहुत
देखे लोग, तुम
बड़े तपस्वी
हो! बड़े
तुम्हारे
पुण्यों का फल
है।
वे
मुनि हो गये!
मुनि ने उनको नाम
'शांतिनाथ' दे दिया। अब
वे ऐसे अशांतिनाथ
थे, मगर
मुनि ने नाम शांतिनाथ
दे दिया इसी
आशा में कि
चलो अब ये..।
उनकी बड़ी
ख्याति हो गई,
क्योंकि
उन्होंने सब
मुनियों को
प्रतियोगिता
में पछाड़ दिया।
कोई दो दिन का
उपवास करे, तो वे चार
दिन का करें।
कोई चार घंटे
सोये, तो
वे दो घंटे
सोये। कोई
छाया में बैठे
तो वे धूप में
खड़े रहें।
पुराने हिंसक!
हिंसा का सारा
का सारा ढंग
अपने पर ही
लौटा लिया।
हिंसा खुद पर
लौटने लगी, आत्महिंसा हो गई।
उन्होंने सब
को मात कर
दिया। वे तो
धीरे—धीरे बड़े
ख्यातिलब्ध
हो गये।
दिल्ली पहुंच
गये। दूर—दूर
से लोग उनके
दर्शन करने को
आने लगे।
एक
पुराने मित्र
उनके दर्शन
करने को आये।
उन्होंने
सुना कि वे जो
अशांतिनाथ थे, शांतिनाथ
हो गये। चलो
दर्शन कर आयें,
क्रांति
हुई! ऐसा
मुश्किल है कि
शाति हो जाये
उनके जीवन में।
वहां जा कर
पहुंचे तो वे
अकड़े बैठे थे।
सब चला गया था,
सब छोड़ दिया
था—लेकिन अकड़!
और सब छोड़ने
की अकड़ और आंखों
में वही हिंसा
थी और वही
क्रोध था और
वही आग जल रही
थी! शरीर
दुर्बल हो गया
था, शरीर
सूख गया था!
खूब
तपश्चर्या की
थी, लेकिन
भीतर की आग
शुद्ध हो कर
जल रही थी।
देख तो लिया
मित्र को, पहचान
भी गये, लेकिन
अब इतने
महातपस्वी, एक साधारण
आदमी को कैसे
पहचानें!
मित्र ने भी देख
लिया, पहचान
भी गया कि
उन्होंने भी
पहचान लिया है,
लेकिन वे
पहचान नहीं
रहे हैं, इधर—उधर
देखते, देखते
ही नहीं उसकी
तरफ।
आखिर
उस मित्र ने
पूछा कि
महाराज! बड़ी
दूर से दर्शन
को आया हूं
आपका नाम क्या
है?
उन्होंने
कहा, 'शांतिनाथ!
अखबार नहीं
पढ़ते? रेडियो
नहीं सुनते? टेलीविजन
नहीं देखते? सारी दुनिया
जानती है।
कहां से आ रहे
हो?'
उसने
कहा,
'महाराज गाव
का गंवार हूं
कुछ ज्यादा
जानता—करता
नहीं, पढ़ा—लिखा
भी ज्यादा
नहीं हूं। '
फिर
थोड़ी देर ऐसी
और बात चलती रही, उस
आदमी ने फिर
पूछा कि
महाराज, नाम
भूल गया आपका!
महाराज तो
भनभना गये।
कहा, कह
दिया एक दफे
कि शांतिनाथ,
समझ में
नहीं आया? बहरे
हो?
वह
आदमी बोला कि
नहीं महाराज, जरा
बुद्धि मेरी
कमजोर है।
मगर
शांतिनाथ का
असली रूप
प्रगट होने
लगा। वह फिर
थोड़ी देर बैठा
रहा और उसने
फिर पूछा कि
महाराज, नाम
भूल गया। तो
वह जो
उन्होंने
पिच्छी रख
छोड़ी थी—जैन
मुनि रखते हैं
पिच्छी—उठा कर
उसके सिर पर
दे मारी बोले,
हजार दफे
समझा दिया तू
ऐसे नहीं
समझेगा! शांतिनाथ.!
उसने
कहा,
'महाराज
बिलकुल समझ
गया, अब
कभी नहीं
भूलेगा। इतना
ही हम जानना
चाहते थे कि
कुछ फर्क हुआ
कि नहीं हुआ? आप बिलकुल
वही हैं। '
फर्क
इतना आसान
नहीं। अगर ऊपर—ऊपर
से विधि और
व्यवस्थायें
की जायें तो
फर्क होता ही
नहीं; दिखाई
पड़ता है।
इसलिए
मैं इस सूत्र
को महाक्रांति
का सूत्र कहता
हूं। तुम
औषधियों में
मत पड़ना। जागो!
जागने के उपाय
करने की जरूरत
नहीं है।
जागने के उपाय
करना, सोने की
तरकीबें
खोजना है।
जागना है तो
अभी और यहीं।
या तो अभी या
कभी नहीं। कल
पर मत छोड़ो।
विधि का तो
मतलब यह होता
है. कल पर छोड़
दिया, स्थगित
कर दिया। सुन
ली बात, ठीक
है, अब
साधेंगे, जन्म—जन्म
लगते हैं, तब
कहीं मिलता है।
यही
तो तरकीब है।
जनक
का वचन है. अहो!
दुख का मूल
द्वैत है!
उसकी औषधि कोई
नहीं।
क्योंकि मूलत:
तुम दो नहीं
हुए हो, इसलिए
औषधि की कोई
जरूरत नहीं है।
टूटे नहीं, इसलिए जोड़ने
की कोई
आवश्यकता
नहीं है। तुम
जुड़े ही हो।
सिर्फ देखो, जागो, पहचानो।
अलग हो कैसे
सकते हो जीवन
से? अस्तित्व
से भिन्न हो
कैसे सकते हो?
श्वास—श्वास
जुड़ी है।
तुम
कभी देखते
नहीं, जीवन का
जोड़ कैसा
रसपूर्ण है।
रस बह रहा है
सबके भीतर; एक—दूसरे
में बदलता जा
रहा है। जो
श्वास अभी
मेरे भीतर है,
क्षण भर बाद
तुम्हारे
भीतर हो जाती
है। फिर भी
तुम नहीं
देखते। क्षण
भर पहले मैं
कहता था, मेरी
श्वास, क्षण
भर बाद
तुम्हारी हो
गई। तो हम और
तुम बहुत अलग
नहीं हो सकते।
क्षण भर पहले
जो तुम्हारी
श्वास थी, अब
मेरी हो गई, तो हम और तुम
बहुत अलग नहीं
हो सकते। यह
श्वास का धागा
जोड़े हुए है।
मैं अगर कहूं
कि मैं तो
अपनी ही श्वास
से जीऊंगा, हर किसी की
ऐसी बासी और
उधार श्वास
नहीं लूंगा—तो
मर जाऊंगा।
मैं कहूं कि न
हम दूसरों के
जूते पहनते न
दूसरों के
कपड़े, दूसरों
की श्वास कैसे
ले सकते है—तो
यह सारी हवा
दूसरों की
श्वास है। यह
हजारों
नासापुटों
में जा रही, आ रही। और
ध्यान रखना, आदमियों की
ही नहीं है
इसमें
सम्मिलित; पशु,
पक्षी, गधे,
घोड़े, सब;
वृक्ष भी
श्वास ले रहे,
छोड़ रहे। हम
सब जुड़े हैं।
देखो तुम, प्राण
का यह सागर, उसमें हम सब
जुड़े हैं।
अभी
नाशपाती का फल
लगा,
या आम लगा, या सेव लगा, वृक्ष पर
लगा, इसे
तुम खा जाओ—जो
रसधार
नाशपाती में
बहती थी, चौबीस
घंटे भर बाद
तुम्हारा खून
हो जायेगी, तुम्हारी
हड्डी बनने
लगेगी, तुम्हारी
मज्जा हो
जायेगी, तुम्हारा
मस्तिष्क बन
जायेगी। फिर
एक दिन तुम
मरोगे, फिर
तुम खाद बन
जाओगे; फिर
कोई वृक्ष
तुममें से रस
ले लेगा, फिर
फल बन जायेगा।
तुम जब वृक्ष
से एक नाशगती
को तोड़ कर ला
रहे हो, तो
ऐसा मत सोचना,
सिर्फ
नाशपाती है, तुम्हारे
बाप—दादे
उसमें हो सकते
हैं। क्योंकि
सभी जमीन में
गिर जाते हैं,
फिर जमीन
में मिल जाते
हैं, सब
खाद बन जाते
हैं, फिर
फल बनते हैं।
वृक्ष
आदमियों में
उतरते रहते
हैं, आदमी
वृक्षों में
उतरते रहते
हैं। एक
वर्तुल है। एक
वर्तुल घूम
रहा है। जो
चांद—तारों
में है वह
तुम्हारे
शरीर में आ
जाता है, जो
तुम्हारे
शरीर में है, वह चांद—तारों
में चला जाता
है।
हम
सब जुड़े हैं।
हम पृथक नहीं
हैं। हम पृथक
हो नहीं सकते।
हम सब परस्पर
निर्भर हैं। न
तो कोई
परतंत्र है और
न कोई
स्वतंत्र है।
हमारे जीवन की
स्थिति को ठीक
नाम अगर देना
हो तो वह है 'परस्पर—तंत्रता'। इंटरडिपेंडेंस!
हम
एक—दूसरे से
जुड़े हैं।
जैसे लहरें
जुड़ी हैं, ऐसे
हम जुड़े हैं।
इस जोड़ के
प्रति जागो!
'औषधि कोई भी
नहीं है। '
और
औषधियां बड़ी
उलझन लाती हैं।
कामवासना से
थक गये, परेशान
हो गये, तो
ब्रह्मचर्य
की औषधि मिल
जाती है, कि
चलो
ब्रह्मचर्य
साधो। फिर तुम
ब्रह्मचर्य
थोपने लगते हो।
फिर
जबर्दस्ती
थोपा हुआ
ब्रह्मचर्य
और नई उलझनें
लाता है। फिर
तुम्हारा
चित्त और भी
काम—विकार से
ग्रस्त हो
जाता है। जिसे
तुमने बाहर से
रोक दिया, फिर
वह भीतर चलने
लगता है, घाव
बन जाता है।
इन घावों से
सावधान रहना।
ये घाव बना—बना
कर ही तुम
रुग्ण और
बीमार हो गये
हो।
जीवन
को सहज
स्वीकार करो।
जीवन जैसा है, उससे
अन्यथा होने
की चेष्टा भी
मत करो। जीवन
जैसा है, ऐसा
ही परमात्मा
ने चाहा है।
तुम इस चाह
में अपने को
विसर्जित कर
दो। तुम कह दो : 'तेरी मर्जी
पूरी हो!' तुम
अपनी मर्जी
बीच में मत
लाओ। तुम कहो
जो तू
दिखायेगा, देखेंगे।
जैसा तू
चलायेगा, चलेंगे।
जहा तू
पहुंचायेगा, पहुंचेंगे।
तू डुबायेगा
मंझधार में, तो वही
हमारा किनारा!
पहुंचा देगा
तो पहुंच
जायेंगे; नहीं
पहुंचायेगा, तो भी पहुंच
गये—क्योंकि
हम तेरे ऊपर
छोड़ते हैं!
समर्पण
की यह दशा, तुम्हें
एकदम निर्भार
कर जायेगी।
इसको
अष्टावक्र ने
कहा है. चित्त
की आंतरिक
स्थिति में
विश्राम!
चैतन्य में
विश्राम! फिर
कहीं जाना
नहीं, कुछ
होना नहीं, कुछ बनना
नहीं। ये सब
अहंकार के ही
खेल हैं। तुम
कहते हो, यह
बन कर रहूंगा...!
किसी को
सिकंदर बनना
है, किसी
को बुद्ध बनना
है, किसी
को महावीर
बनना है—लेकिन
बनने का
पागलपन है!
तुम हो ही, इससे
बेहतर कुछ हो
नहीं सकता।
पूर्ण तुममें
विराजमान है।
तुम लाख उपाय
करो, तो
तुम पूर्ण से
नीचे नहीं गिर
सकते, क्योंकि
पूर्ण
तुम्हारा
स्वभाव है।
तुम कितने ही
पाप करो, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता, तुम्हारी
पूर्णता
अकलुषित रह
जाती है। तुम
निरंजन हो।
तुम्हारे
अशुद्ध होने
का कोई उपाय
नहीं है। इस
सत्य में अपने
को समर्पित कर
देते ही, क्षण
भर में क्रांति
घटित हो जाती
है।
'अहो! दुख का
मूल द्वैत है।
उसकी औषधि कोई
नहीं। यह सब
दृश्य झूठ है।
मैं एक अद्वैत
शुद्ध चैतन्य—रस
हूं। '
उस
रस को पहचानो।
वही रस सब में
बह रहा है—कहीं
वृक्षों में
हरा हो कर, कहीं
पक्षियों में
गुनगुनाहट हो
कर! वही रस मुझसे
बोल रहा है, वही रस तुम
में सुनने चला
आया है। हम उस
एक ही महत रस
की तरंगें हैं।
फिर कहौ जाना,
फिर क्या
होना? फिर
न कोई भविष्य
है, न कोई
लक्ष्य, न
जीवन में फिर
कोई प्रयोजन
है। फिर जीवन
तो एक महोत्सव
है। यह
प्रतिपल चल
रहा नृत्य, इसमें
सम्मिलित हो
जाओ। इससे
झगड़ो मत।
इसमें व्यर्थ
तनाव मत खड़े
करो। छोड़ दो
अपने को इस
बहाव में—यह
गंगा जा रही
है सागर!
मैंने
सुना है, एक
सम्राट आता था,
उसने राह
में एक भिखारी
को देखा चलते,
गठरी रखे
सिर पर। दया आ
गई। कह दिया
भिखारी को कि
तू भी आ कर बैठ
जा रथ में।
कहौ जाना है, उतार देंगे।
भिखारी पहले
तो बहुत
सकुचाया, सम्राट
का रथ, स्वर्ण—रथ!
लेकिन इंकार
करना भी कठिन
था; सम्राटों
की बात इंकार
नहीं की जाती।
चढ़ गया रथ पर, सिकुड़ कर
बैठ गया, लेकिन
पोटली सिर पर
रखे था, सो
रखे ही रहा।
सम्राट ने कहा,
अरे पागल!
अब पोटली तो
नीचे रख दे।
उसने कहा कि
नहीं मालिक, मुझको
बिठाया, यही
क्या कम है! अब
और पोटली का
बोझ भी आपके
रथ पर रखूं? नहीं, नहीं!
अब
तुम जब खुद ही
चढ़ बैठे हो रथ
पर तो पोटली
तुम सिर पर
रखो कि नीचे
रखो,
क्या फर्क
पड़ता है? वजन
तो रथ पर ही है।
यह
जो विराट का
रथ चल रहा है, इसमें
तुम नाहक ही
पोटली सिर पर रखे
बैठे हो। तुम
कहते हो कि
नहीं महाराज,
आपने बिठा
लिया, इतना
ही बहुत!
पोटली भी आप
पर रखें—नहीं,
नहीं।
लेकिन
तुम हर क्षण
परमात्मा में
ही हो। सारा
बोझ उसका है।
तुम नाहक बीच
में यह पोटली
बांधे बैठे हो।
यह पोटली है
अहंकार की। यह
पोटली है
भ्रांति की।
यह पोटली है
द्वैत की, द्वंद्व
की यह पोटली।
है संघर्ष की।
इसे रखो, करो
समर्पण, और
बह चलो! बहाव
धर्म है।
समर्पण धर्म
की
'मैं शुद्ध
बोध हूं मुझसे
अज्ञान के
कारण उपाधि की
कल्पना की गई
है। इस प्रकार
नित्य विचार
करते हुए मैं
निर्विकल्प
में स्थित हूं।
'
संस्कृत
में जो शब्द
है 'विमर्श', उसका
ठीक अर्थ
विचार नहीं
होता।
अहम्
बोध मात्र:।
मैं
केवल बोध—मात्र
हूं होश—मात्र
हूं होश मेरा
स्वभाव है।
शेष सब
स्वन्नवत है।
मया
अज्ञानात्
उपाधि कल्पित:।
और
शेष सब मेरी
कल्पना के
कारण पैदा हुआ
है।
एवम्
नित्यम्
विमर्श्यत मम
स्थिति
निर्विकल्पे।
और
मेरा विमर्श...।
'विमर्श' शब्द
समझने जैसा है।
अंग्रेजी में
एक शब्द है 'रिफ्लैक्यान',
वह ठीक अर्थ
है विमर्श का।
विचार का तो
अर्थ होता है,
तुम्हें
पता नहीं, और
तुम सोचते हो।
तुम कहते हो, हम विचार
करते हैं।
विमर्श का
अर्थ होता है,
जैसे दर्पण
में
प्रतिबिंब
बनता है।
दर्पण सोचता
थोड़े ही है! जब
तुम सामने आये,
तो सोचता
थोड़े ही है, कि देखें
कौन है, आदमी
है कि औरत? सुंदर
है कि असुंदर?
फिर वैसा ही
रूप बता दें।
न, दर्शन
दर्पण में
सिर्फ प्रगट
होता है, तुम्हारी
छवि बन जाती
है।
रिफ्लैक्यान,
विमर्श! जनक
कहते हैं. इस
प्रकार नित्य
विमर्श करते
हुए, इस
प्रकार नित्य
क्षण— क्षण इस
शाश्वत एकता
को देखते हुए,
यह हृदय के
दर्पण में
बनते
प्रतिबिंब को
निहारते हुए,
मैं
निर्विकल्प
चित्त—दशा में
स्थित हूं।
शुद्ध बोध हूं।
जो हुआ, सब
मेरी कल्पना
से हुआ। जो
हुआ, सब
मेरी कल्पना
का खेल है।
कल्पना
मनुष्य की
शक्ति है।
पूरब के
शास्त्र कहते
हैं कि कल्पना
परमात्मा की
शक्ति है।
कल्पना का ही
दूसरा नाम
माया। माया
अर्थात
परमात्मा ने
कल्पना की है।
परमात्मा की
ही कल्पना का
परिणाम है यह
विराट विश्व।
और आदमी जो
कल्पना करता
है,
उसका
परिणाम है हम
सबकी छोटी—छोटी
दुनियाए। हर
आदमी अपनी—अपनी
दुनिया में
रहता है—अपनी—अपनी
दुनिया में
बंद।
तुम
ऐसा मत सोचना
कि हम सब एक ही
दुनिया में रहते
हैं! जितने
आदमी हैं यहां, उतनी
दुनियाएं एक
साथ। इसलिए तो
दो आदमी मिलते
हैं, तो टकराहट
होती है। दो
दुनियाएं
टक्कर खाती
हैं। कठिन हो
जाता है।
अकेले—अकेले
सब ठीक चलता
है, दूसरे
के साथ जुड़े
कि अड़चन हुई।
क्योंकि दो
दुनियाए, दो
ढंग, दो
विचार की
शैलियां, एक—दूसरे
के साथ संघर्ष
करने लगती हैं।
हमारी कल्पना
ही हमारी
दुनिया बन
जाती है।
कल्पना
की शक्ति बड़ी
है। कल्पना का
अर्थ है, जो हम
सोचते हैं, वैसा होने
लगता है। जो
हम सोचते हैं,
उसके
परिणाम बनने
लगते हैं; उसके
चित्र उभरने
लगते हैं।
ठीक
कल्पना वैसी
है जैसी
स्वप्न की
शक्ति है। रात
कुछ भी तो
नहीं होता, परदा
भी नहीं होता।
रात सपने में
तुम्हीं
अभिनेता होते
हो, तुम्हीं
दिग्दर्शक
होते हो, तुम्हीं
कथाकार, तुम्हीं
मंच, तुम्हीं
दर्शक—सभी कुछ
तुम्हीं होते
हो। फिर भी एक
पूरा खेल बन
जाता है। थोड़ा
सोचो!
मैं
एक महिला को
देखने गया था, वह
नौ महीने से
बेहोश है, कोमा
में है। और
डाक्टर कहते
हैं, वह
कोई तीन—चार
साल भी रह
सकती है इस
अवस्था में।
उसका बेटा भी
वहा मौजूद था।
वह मुझसे
पूछने लगा कि
एक बात मुझे
आपसे पूछनी है—मैं
सभी से पूछता
हूं कोई उत्तर
नहीं देता—अगर
मेरी मां सपना
देख रही हो तो
नौ महीने तक उसको
पता ही न चला
होगा कि यह
सपना है। बात
तो उसने बड़ी
गहरी पूछी। यह
महिला जो नौ
महीने से
बेहोश है, वह
बेटा पूछता है
कि अगर यह
सपना देख रही
होगी, तो
हम तो रोज
सुबह उठ आते
हैं तो पता चल
जाता है कि
अरे, सपना
था; यह तो
उठती नहीं। यह
नौ महीने से
सपना चल रहा
होगा, तो
देख ही रही
होगी सपना और
मान रही होगी
कि सच है। नौ
महीने में इसको
एक क्षण भी
खयाल नहीं आया
होगा कि यह
सपना है। बात
तो ठीक है।
सच
तो यह है कि जब
हम आख खोल
लेते हैं, तब
भी सपना बंद
नहीं होता; सपना तो
भीतर चलता ही
जाता है।
इसलिए कभी भी
तुम आख बंद
करो, भीतर
थोड़ा खोजो, तुम पाओगे
कि सपना चल
रहा है।
दिवास्वप्न
शुरू हो जाता है।
जैसे
दिन को सूरज
निकलता है, आकाश
के तारे खो
जाते हैं—क्या
तुम सोचते हो
कहीं चले जाते
हैं? जाएंगे
कहां? जहां
हैं, वहीं
हैं। सिर्फ
दिन की रोशनी
में ढंक जाते
हैं। रात सूरज
विदा हो जाता
है, फिर
तारे प्रगट
होने लगते हैं।
तारे तो वहीं
के वहीं हैं, सिर्फ सूरज
की रोशनी में
ढंक जाते हैं,
रोशनी खो
जाती है, फिर
प्रगट हो जाते
हैं। ऐसे ही
तुम्हारे
सपने की धारा
तो चल ही रही
है। जब तुम आख
खोलते हो, तो
दुनिया के काम—धाम
में भूल जाते
हो, भीतर
धारा चलती
रहती है; फिर
आख बंद की—कभी
करके देख लो, आराम कुर्सी
पर बैठ जाओ, आख बंद कर लो—थोड़ी
देर में तुम
पाओगे : सपना
चल रहा है, इलेक्शन
लड़ रहे, जीत
भी गये, प्रधानमंत्री
हो गये। और
इतना ही नहीं,
प्रधानमंत्री
हो कर जिन—जिन
को तुम्हें
मारना है उनका
सफाया भी कर
दिया; जिन—जिन
को जेल भेजना
है, उनको
जेल भी भेज
दिया, और
जिन—जिन को
तुम्हें मंत्री
बनाना है, उनको
मंत्री भी बना
लिया। तभी
पत्नी आ गई
चाय ले कर कि
यह चाय तैयार
है, चौंक
कर तुम बैठ
गये, अपनी
चाय पीने लगे।
तब तुमको समझ
में आया कि
अरे, कहां
खो गये थे!
जागे—जागे भी
सपने की धारा
भीतर
तुमने
शेखचिल्ली की
कहानियां पढ़ी
होंगी। वे सब
तुम्हारी
कहानियां हैं।
वे आदमी की
कहानियां हैं।
हम सब
शेखचिल्ली
हैं,
जब हम
कल्पना में
पड़े होते हैं।
जब तक कल्पना
पूरी समाप्त न
हो जाये, तब
तक
शेखचिल्लीपन
समाप्त नहीं
होता।
ऐसा
हुआ कि पंडित
जवाहरलाल
नेहरू एक
पागलखाने गये, देखने।
उस गाव में
गये थे तो
पागलखाना
देखने गये। अब
ऐसा अक्सर
होता है, जब
चर्चिल ताकत
में था, तो
इंग्लैंड के
पागलखानों
में कम से कम
चार—पांच आदमी
बंद थे जो
अपने को
चर्चिल मानते
थे। ऐसा नेहरू
के साथ भी था।
जब नेहरू यहां
जिंदा थे, तो
हिंदुस्तान
के पागलखानों
में कोई दस—बारह
आदमी थे, जो
अपने को पंडित
नेहरू मानते
थे।
उस
पागलखाने में
भी एक आदमी था, जो
बिलकुल ठीक हो
गया था, उसी
दिन विदा हो
रहा था। तो
पागलखाने के
अधिकारियों
ने कहा कि
पंडित नेहरू
आते हैं, उन्हीं
के हाथ से
इसको छुटकारा
दिला देंगे।
वह आदमी लाया
गया। पंडित नेहरू
ने पूछा कि
कभी कोई ठीक
भी होते हैं? उन्होंने
कहा, आज ही
एक आदमी आपके
हाथों से विदा
करने को रोक रखा
है। वह आदमी
आया, पंडित
नेहरू ने उसे
फूल भेंट किये,
और कहा कि
स्वागत कि तुम
ठीक हो गये।
उस आदमी ने
देखा पंडित
नेहरू
की
तरफ,
पूछा, 'आपका
नाम?'
उन्होंने
कहा,
मेरा नाम
पंडित
जवाहरलाल
नेहरू है।
उसने
कहा,
घबड़ाओ मत
अगर तीन साल
रह गये यहां, तुम भी ठीक
हो जाओगे। यही
बीमारी मुझे
भी थी। मगर इन
डाक्टरों की
कृपा, ठीक
कर दिया।
वह
आदमी, पंडित
जवाहरलाल
नेहरू अपने को
समझता था।
तुम
हंसते हो, लेकिन
तुमने जो अपने
को समझा है, वह इससे
बहुत भिन्न
नहीं है। वह
जरा हिम्मतवर
रहा होगा तो
उसने अपने को
पंडित
जवाहरलाल
नेहरू समझ
लिया। तुम
उतने
हिम्मतवर
नहीं हो, या
किसी से कहते
नहीं; मन
में तो समझते
ही हो। मगर हर
आदमी कुछ अपने
को समझ रहा है,
कल्पना को
पोषित कर रहा
है। यह कल्पना
का जाल गिर जाये
तो धर्म का
आविर्भाव
होता है।
'मेरा बंध या
मोक्ष नहीं है।
आश्रय—रहित हो
कर, भ्रांति
शांत हो गई है।
आश्चर्य है कि
मुझमें स्थित
हुआ जगत, वास्तव
में मुझमें
स्थित नहीं है।
'
न मे
बंधोउस्ति
मोक्षो वा
भ्रांति:
शांता निराश्रया।
अहो
मयि स्थितं
विश्व
वस्तुतो न मयि
स्थितम्।
मे बंध:
वा मोक्ष: न
अस्ति
मेरा
बंध या मोक्ष
नहीं है।
सुनो!
कैसी अदभुत
बात जनक कह
रहे हैं : 'न
मेरा बंधन है,
न मेरा
मोक्ष है!'
तुमने
यह तो सुना कि
बंधन है संसार।
छोड़ो बंधन!
बंधन से मोक्ष
की खोज करो।
लेकिन सुना
तुमने, जनक
क्या कह रहे
हैं? वे कह
रहे हैं, न
मेरा बंधन है,
न मोक्ष!
ऐसी
चित्तदशा का
नाम ही मोक्ष
है,
जहा
तुम्हें पता
चलता है. न
बंधन है न
मोक्ष। बंधन
भी कल्पित थे,
तो मोक्ष भी
कल्पित है।
कथा
है जीसस के
जीवन में कि
वे एक गांव
में आये, और
उन्होंने एक
वृक्ष के नीचे
कुछ लोगों को
बड़े उदास देखा,
बड़े परेशान
देखा, बड़े
दीन, दुर्बल!
उन्होंने
पूछा, 'तुम्हें
क्या हुआ? तुम
पर कौन—सी
विपदा आ गई?' उन लोगों ने
कहा, 'विपदा
हम पर बड़ी आई।
हम लोग बहुत
घबड़ा गये हैं,
हमने बड़े
पाप किये हैं।
और हम नर्क से
डर रहे हैं, हम थर— थर काप
रहे हैं। '
अब
मुसलमानों का
नर्क खतरनाक
तो होने ही
वाला है। अगर
नर्क जाओ, तो
हिंदुओं का
चुनना, वहा
थोड़ी
अस्तव्यस्तता
रहेगी, मुसलमानों
का मत चुनना।
अगर वहा कोई
चुनाव हो तो
भारतीयों का
चुन लेना, जर्मन
या इस तरह के
लोगों का नर्क
मत चुन लेना; क्योंकि
वहां बड़ी
चुस्ती है, वहा सब नियम
की पाबंदी है।
वहां रिश्वत
भी नहीं चलेगी,
कि जरा
रिश्वत दे दी,
और आग से
जरा बच गये, कि जरा ठंडी
आग में डलवा
लिया अपने को।
कुछ न चलेगा
वहां। अब
मुसलमानों का
नर्क! वे तो
ठीक से
सतायेंगे; छोड़ेंगे
नहीं। वे तो
बड़े धार्मिक
रूप से
सतायेंगे।
उन्होंने
कहा,
हम बड़े घबड़ा
गये हैं। पाप
बहुत किये हैं,
हम घबड़ा रहे
हैं, हम
कंप रहे हैं।
और मरने का
दिन करीब आ
रहा है, दोजख
में पड़ेंगे, नर्क में
सडेंगे। तो
हमें चैन नहीं
है।
जीसस
और आगे बढ़े, एक
वृक्ष के नीचे
उन्होंने और
लोगों को बैठे
देखा। वे बड़े
आशा से भरे
बैठे थे।
लेकिन आशा में
भी भय था। और
उन्होंने बड़ी
तपश्चर्या की
थी, उपवास
किये थे, धूप
में शरीर को
गलाया—सताया
था, सूखे, हड्डियां हो
गये थे।
उन्होंने
पूछा, 'तुम्हें
क्या हुआ? तुम
पर कौन—सी
विपदा पड़ी?
उन्होंने
कहा,
हम स्वर्ग
की तैयारी कर
रहे हैं। नर्क
का भय है तो हम स्वर्ग
की तैयारी कर
रहे हैं। हम
पुण्य—अर्जन
कर रहे हैं।
मगर फिर भी डर
लगता है, कहीं
चूक तो न
जायेंगे! सब
दाव पर लगा
दिया है, जीवन
दाव पर लगा
दिया है; लेकिन
स्वर्ग ले कर
रहेंगे, बहिश्त
में पहुंच कर
रहेंगे। मगर
उसी चिंता में
हम परेशान भी
हैं, तनाव
भी मन में बना
है।
जीसस
और आगे बढ़े।
उन्होंने एक
तीसरे वृक्ष
के नीचे कुछ
लोगों को बैठे
देखा, जो बड़े
मस्त थे। उनकी
हालत बिलकुल
अलग थी। न तो
नर्क से
घबड़ाये जैसे
लोग वैसे भी न
थे, स्वर्ग
के लोभ से भरे
लोग, वैसे
भी न थे। वे
बड़े मस्त थे।
वे गीत
गुनगुना रहे
थे, नाच
रहे थे, आनंद—मग्न
थे। उन्होंने
पूछा, 'तुम्हें
क्या हुआ? तुम
बड़े खुश हो!
तुम पर कोई
विपत्ति नहीं
आई?' उन्होंने
कहा कि नहीं, क्योंकि
हमने जान लिया
कि न स्वर्ग
है न नर्क है।
सब मन का खेल
है।
दुख—सुख
दोनों ही मन
की धारणायें
हैं। दुख का
आत्यंतिक रूप
नर्क है, सुख—का
आत्यंतिक रूप
स्वर्ग है।
सुख—दुख दोनों
मन में हैं, स्वर्ग—नर्क
भी दोनों मन
में हैं। ऐसा
जो जान लेता
है कि सभी
द्वंद्व मन
में हैं, वही
मुका है।
इस
मुक्ति की
आखिरी घोषणा
जनक करते हैं.
मेरा बंध या
मोक्ष नहीं है।
बंधन भी झूठे
हैं,
तो मोक्ष
कैसा? बंधन
हैं ही नहीं, तो मोक्ष
कैसा? दोनों
असत्य हैं।
'आश्रय—रहित
हो कर भ्रांति
शांत हो गई है।
'
अब
मेरा कोई
आश्रय नहीं है।
अब मैं किसी
आशा के सहारे
नहीं जी रहा।
और जब आशा
नहीं है तो
निराशा नहीं
होती।
'आश्रय—रहित
होकर भ्रांति
शांत हो गई है।
आश्चर्य है कि
मुझमें स्थित
हुआ जगत
वास्तव में
मुझमें स्थित
नहीं है। 'यह
आश्चर्य की
बात है कि
सारा जगत है, फिर भी मैं
अकलुषित, फिर
भी मैं निरंजन,
फिर भी मैं
पार हूं!
एक
बौद्ध कथा है, दो
भिक्षु एक नदी
से पार होते
थे कि के
भिक्षु ने
देखा कि एक
युवती नदी पार
करना चाहती है,
तो वह घबड़ा
गया। नदी गहरी
है, शायद
युवती कहे कि
मेरा हाथ
सम्हाल लो। वह
अनजान मालूम
होती है।
सुंदर युवती
है! वह उसके
पास से निकला,
युवती ने
कहा भी कि
मुझे नदी के
पार जाना है, क्या आप
मुझे सहारा
देंगे? उसने
कहा, मुझे
क्षमा करो, मैं भिक्षु
हूं स्त्री को
मैं छूता
नहीं! और उसके
हाथ—पैर कैप
गये और वह
भागा तेजी से
नदी पार कर
गया।
बूढ़ा
आदमी! बहुत
दिन का दबाया
हुआ काम, भीतर
फुफकार मारने
लगा वह; यह
खयाल ही कि
स्त्री का हाथ
पकड़ ले, सपनों
को जन्म देने
लगा। वह तो
नदी पार कर
गया घबड़ाहट
में। सोचा, भगवान को धन्यवाद
दिया कि चलो
बचे, एक
झंझट आती थी, एक गड्डे
में गिरने से
बचे! तब पीछे
लौट कर देखा
तो बड़ा हैरान
हो गया। हैरान
भी हुआ, थोड़ा
ईर्ष्या से भी
भरा, थोड़ी
जलन भी पैदा
हुई। वह जो
युवा
संन्यासी
पीछे आ रहा था,
वह लड़की को
कंधे पर बिठा
कर नदी पार
करवा रहा है।
कंधे पर बिठा
कर! हाथ पकड़ना
भी एक बात थी, स्पर्श भी
वर्जित है, और मैं तो
बूढ़ा हूं और यह
जवान है, और
यह अभी नया—नया
दीक्षित हुआ
है! और यह क्या
पाप हो रहा है?
फिर
दो मील तक
दोनों चलते
रहे। आश्रम
पहुंचने के
पहले तक का
फिर बोला नहीं, बहुत
नाराज था, आगबबूला
था। नाराजगी
में ईर्ष्या
भी थी, नाराजगी
में रस भी था, क्रोध भी था,
अपने को
ऊंचा और
धार्मिक
मानने की
अस्मिता भी थी,
और इसको
निकृष्ट और
अधार्मिक
मानने का भाव
भी था। सभी
कुछ मिश्रित
था। सीढ़ियां
जब वे चढ़ने
लगे आश्रम की,
तब के से न
रहा गया; उसने
कहा कि सुनो
मुझे गुरु से
जा कर कहना ही
पड़ेगा, क्योंकि
यह तो नियम का
उल्लंघन हुआ
है। और तुम
युवा हो, और
तुमने स्त्री
को कंधे पर
बिठाया, स्त्री
सुंदर भी थी!
उस
युवा ने कहा, आप
भी आश्चर्य की
बात कर रहे
हैं। मैं तो
उस स्त्री को
नदी के किनारे
उतार भी आया, क्या आप उसे
अब भी अपने
कंधे पर लिये
हुए हैं? अब
भी! आप भूले
नहीं? दो
मील पीछे की
बात, आप
अभी खींचे
लिये जा रहे
हैं?
ध्यान
रखना, यह
संसार, है
तुम्हारे पास,
तुम में
स्थित, तुम
इसमें स्थित;
मगर ऐसा भी
जीने का ढंग
है कि न तुम
संसार को छुओ,
न संसार
तुम्हें छू
पाये। तुम ऐसे
गुजर जाओ, अस्पर्शित,
क्वारे के
क्वारे। यह
कालख तुम्हें
लगे न। ऐसे
गुजरने का ढंग
है—उस ढंग का
नाम ही साक्षी
है।
'शरीर सहित
यह जगत कुछ
नहीं है—अर्थात
न सत है और न
असत है और
आत्मा शुद्ध
चैतन्य—मात्र
है। ऐसा
निश्चय जान कर
अब किस पर
कल्पना को खड़ा
करें?' अब
कहां अपनी
कल्पना को
रोपे? सब
आश्रय गिर गये।
न सुख की कोई
कामना है, और
न दुख का कोई
भय है। न कुछ
होना है, न
कुछ बचना है।
न कहीं जाना
है, न कुछ
बनना है। सब
आश्रय गिर गये,
अब कल्पना
को कहां खड़ा
करें?
कुछ
लोग धन पर
कल्पना को खड़ा
किये हुए हैं—वह
उनका आश्रय है।
वे हमेशा धन
ही गिनते रहते
हैं। वे नींद
में भी रुपये
गिनते रहते
हैं। रुपये की
खनकार ही
एकमात्र
संगीत है, जिसे
वे संगीत
मानते हैं।
कुछ
लोग हैं पद के
दीवाने, वह बस
उनकी कुर्सी
ऊपर उठती जाये,
इसकी ही
फिक्र में लगे
हैं। बडी से
बड़ी कुर्सी पर
बैठ जायें, चाहे फांसी
क्यों न लगे
बड़ी कुर्सी पर,
कोई हर्जा
नहीं, मगर
कुर्सी बड़ी
होनी चाहिए।
वह उनका आश्रय
है।
फिर
कुछ लोग हैं, जो
स्वर्ग की
कामना कर रहे
हैं, कि
स्वर्ग में
बैठेंगे, यहां
क्या रखा है? यहां की
कुर्सियां आज
मिलती हैं, कल छिन जाती
हैं, यहां
बैठने में
क्या सार है? बैठेंगे
स्वर्ग में, वहां
कल्पवृक्ष के
नीचे बैठ कर
भोगेंगे दिल खोल
कर। फिर समय
का कोई बंधन
नहीं, सीमा
नहीं है। मगर
ये सब आश्रय
हैं मन के।
'ऐसा निश्चय
जान कर अब किस
पर कल्पना को
खड़ा करें?'
'यह शरीर, स्वर्ग,
नर्क, बंध,
मोक्ष और भय
भी
कल्पनामात्र
हैं। मुझे
उनसे क्या
करना है? मैं
तो शुद्ध
चैतन्य हूं। '
खूब
जागरण की घटना
घटी जनक को।
अष्टावक्र की
मौजूदगी में
विमर्श पैदा
हुआ।
अष्टावक्र के
दर्पण में जनक
ने अपना चेहरा
देखा, उसे
आत्मस्मृति
आई। अनूठी
घटना घटी।
बड़ी
मुश्किल से
ऐसा होता है
कि ऐसा गुरु
और ऐसा शिष्य
मिल जाये।
शिष्य तो बहुत, गुरु
बहुत; लेकिन
ऐसा कभी—कभी
घटता है, जबकि
अष्टावक्र
जैसा गुरु और
जनक जैसा
शिष्य मिल
जाये। जब ऐसी
घटना घटती है,
ऐसे गुरु और
शिष्य का मिलन
होता है, तो
सत्य का
विस्फोट न
होगा तो क्या
होगा! ऐसे शुद्ध
दर्पण के
सामने, ऐसा
सरल चित्त व्यक्ति,
विनम्र भाव
से झुका हुआ
खड़ा हो गया, उसे दर्शन
हो गये। हो गई
सिंह—गर्जना।
वह ऐसे बोलने
लगा, जैसे
कभी न बोला था।
वह ऐसे बोलने
लगा, जैसा
अष्टावक्र
बोलते थे; जैसे
खुद तो खो गया
और अष्टावक्र
का ही गीत उसकी
बांसुरी पर
बजने लगा, जैसे
अष्टावक्र ही
उससे बोलने
लगे।
शिष्य
अगर मिटने को
राजी हो तो
गुरु उसके
हृदय के गहरे
कोने से बोलने
लगता है।
शिष्य अगर
झुकने को राजी
हो,
तो गुरु
बाहर नहीं रह
जाता, गुरु
तुम्हारे
अंतरतम में
प्रतिष्ठित
हो जाता है।
ऐसा ही हुआ, ऐसी ही
महत्वपूर्ण
घटना घटी।
विमर्श करो उस
पर! ध्यान करो
उस पर! ऐसी
घटना तुम्हें
भी घट सकती है—कोई
कारण नहीं, कुछ कमी
नहीं है, सिर्फ
तुम्हारी
कल्पना के जाल,
और
तुम्हारी
विधियां, और
तुम्हारी
औषधियों का
अंबार, तुम्हें
स्वस्थ नहीं
होने दे रहा
है। तुम
स्वस्थ हो, ऐसा विमर्श
करो। तुम
परमात्मा हो,
ऐसा विमर्श
करो। जो होना
था, हो ही
चुका है। जो
पाना था, मिला
ही है। तुम
अपने घर में
बैठे हो, सिर्फ
कल्पना के
माध्यम से तुम
दूर निकल गए
हो। एक क्षण—मात्र
में, क्षण
के भी अंश—मात्र
में वापसी हो
सकती है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने डाक्टर
के पास गया था।
'डाक्टर साहब,'
कहने लगा वह,
'अगर किसी
दिन मैं यहां
आ कर पतलून की
जेब से इतने
नोट निकालूं
कि आपके पिछले
सभी बिलों का
भुगतान हो
जाये, तो
आप क्या
मानेंगे? क्या
समझेंगे?'
डाक्टर
ने कहा, 'यही
कि तुम किसी
दूसरे की
पतलून पहने
हुए हो। '
तुम्हें
भरोसा नहीं
आता। मैं कह भी
रहा हूं तो भी
तुम सुनते हो, तुम
कहते हो हुआ
होगा जनक को; मगर यह
पतलून अपनी
नहीं है। तुम
तो जानते हो, अपनी पतलून
में हाथ
डालेंगे तो
खाली है। हाथ
ही तुमने नहीं
डाला है। खाली
का तुमने
भरोसा कर लिया
है, बिना
खोजे।
तुम
तो सदा यह
देखते हो कि
जहा भी आनंद
है,
वह किसी
दूसरे के पास
है; मेरे
पास कहां? मुस्कुराहटें
सब दूसरों की
हैं; आंसू
सिर्फ
तुम्हारे हैं—ऐसी
तुम्हारी
धारणा हो गई
है। दुख केवल
तुम्हारे हैं,
सुख सब
पराये हैं। ये
गीत घटते हैं
किसी और को, तुम्हारे
जीवन में तो
सदा दुख ही
दुख बरसता है।
यह अमृत बरसता
होगा कहीं
किसी
सौभाग्यशाली
को। तुम्हें
भरोसा नहीं
आता!
मैं
कहता हूं यह
पतलून
तुम्हारी है, हाथ
तो डालो! तुम
कहते हो, 'क्या
सार बार—बार
हाथ डालने से?
वहा कुछ भी
नहीं है। ' तुमने
कभी हाथ डाला
ही नहीं; और
कुछ भी नहीं
है, इस
भ्रांति में
तुम पड़ गये हो।
एक बार अपने
भीतर झांकों
तो!
मुल्ला
नसरुद्दीन के
घर एक आदमी
आया हुआ था।
वह पूछने लगा
नसरुद्दीन से, यदि
कोई बाहरी
व्यक्ति आ कर
ऐसा जम जाये
कि जाने का
नाम न ले, तो
आप क्या उपाय
करते हैं? बहुत
देर से जमे
हुए इस आदमी
ने मुल्ला
नसरुद्दीन से
ऐसा पूछा।
'मैं तो कुछ
नहीं कर पाता,
किंतु मेरी
पत्नी बड़ी
चतुर है। ऐसे
मौकों पर वह
आकर, किसी
न किसी बहाने
मुझे अंदर
बुला लेती है।
' मुल्ला
ने जवाब दिया।
वह
आदमी दूसरा
सवाल पूछने जा
ही रहा था कि
परदा उठा, और
एक महिला अंदर
आई, और बोली,
आप भी गजब
करते हैं!
शर्मा जी के
घर छह बजे
चलना है और आप
बैठ कर गप्पे
लगा रहे ?
गुरु
का कुल काम
इतना है कि जो
तुम नहीं कर
पा रहे हो, वह
तुम्हें
चौंका दे, वह
कह दे आ कर कि
छह बजे शर्मा
जी के घर चलना
है, और तुम
बैठ कर गप्पें
लगा रहे हो।
गुरु
तुम्हें कहीं
ले जाता नहीं, सिर्फ
जगाता है, सिर्फ
याद दिलाता है
कि छोड़ो ये
गप्पें, समय
और मत गंवाओ, ऐसे भी बहुत
गंवा चुके हो।
अष्टावक्र
की मौजूदगी
में याद आ गई
जनक को, कि हो
गईं गप्पें सब
व्यर्थ। ये सब
गप्पें हैं कि
कोई सम्राट कि
कोई भिखारी।
ये सब गप्पें
हैं कि कोई
धनिक कि कोई
अमीर। ये सब
गप्पें हैं कि
कोई सफल कि
कोई असफल। ये
बस गप्पें हैं।
ये सब
कल्पनायें
हैं। हम एक—दूसरे
को सहारा दिये
हैं, और इन
कल्पनाओं में
हम जीते चले
जाते हैं। ये
हमारे रचे हुए
नाटक हैं, ये
हमारे खेल हैं।
अगर
किसी को सफल
होना है, तो
किसी को असफल
होना पड़ेगा—इसलिए
खेल में तो
दोनों की
जरूरत पड़ती है।
अगर सभी सफल
होना चाहें, तो खेल बंद
हो जाता है।
सभी असफल हो
जायें, तो
खेल बंद हो
जाता है। तो
हमने एक खेल
रच लिया है, उसमें कोई
असफल होता है,
कोई सफल
होता है; कोई
बुद्धिमान, कोई बुद्ध।
हमने एक खेल
रच लिया है।
एक कल्पना का
जाल है। हमने
एक बस्ती बसा
ली है।
इतना
ही तुमसे कहना
चाहता हूं.
खूब समय हो
गया,
अब उठो!
दर्पण
तुम्हारे
सामने है, थोड़ा
अपने चेहरे को
देखो! तुम्हें
पकड़ कर नदी के
किनारे ले आया
हूं जरा झांको,
और सिंह—गर्जना
किसी भी क्षण
हो सकती है!
हरि
ओंम तत्सत्!
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