कुल पेज दृश्य

रविवार, 9 नवंबर 2025

28 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा-(अध्याय - 28)

पिरामिड का बनाना

पिरामिड के बनने का काम चलता रहा। पिछले दिनों जैसे ही ध्‍यान का कमरा टूटा था और जो लोग ध्‍यान करने के लिए आना बंद हो गये थे। इन कुछ ही महीनों के इंतजार के बाद उन की तादाद बढ़ गई थी। मेरी  समझ में नहीं आ रहा था। ऐसा कैसे हो गया। क्‍योंकि शायद निषेद को निमंत्रण है। और धीरे—धीरे लोगों की भीड़ बढ़ रही थी। जैसे हर चीज का विकास एक समय के बाद ही होता है। जब पेड़ बड़ा होगा तो उसमें फूल आएंगे और उसके बाद वह फलों से लद जायेगा। यहीं शायद कारण रहा होगा। पिरामिड का ढांचा बन कर तैयार तो गया था परंतु अभी उस के अंदर प्लास्टर नहीं हुआ था। लेकिन लोगों को कहां सब्र था। वह तो मौके की तलाश में ही थे। कि जैसे ही ध्‍यान के लिए द्वार खुले और वो आना शुरू हो गए।

क्‍योंकि पापा जी ने ध्‍यान का समय ऐसा र्निधारित कर रखा था। जो पापा जी के लिए सुविधा जनक रहे। जैसे दिन के 10 बजे दुकान बंद कर के आते थे और 11 बजे ध्‍यान शुरू हो जाता था। ध्‍यान के बाद भी पापा जी को बहुत काम होता था। वरूण भैया को स्‍कूल से लेकर आते थे। क्‍योंकि शायद वरूण भैया सबसे ज्‍यादा दूर पढ़ने के लिए जाते थे।

पता नहीं अब कितनी दूर मैं यह कहा नहीं सकता। हिमांशु भैया के तो स्‍कूल की बस आती थी। दीदी तो अब बड़ी हो गई थी वह तो खूद स्‍कूल चली जाती थी और आ भी जाती थी। लेकिन वरूण भैया को स्‍कूल छोड़ना और फिर लेने जाना होता था। वो भी घड़ी की सुइयों कि तरह एक दम अटल। जल्‍दी भी नहीं जाया जा सकते हो और देर भी नहीं की जा सकती क्‍योंकि फिर वहां पर भैया इंतजार करेगा।          

बच्चों की स्कूल की छूटी जिस दिन होती तो उस दिन बहुत ही अधिक लोग ध्‍यान करने के लिए आ जाते थे। एक परिवार तो मेरे को फूटी आंखों नहीं सुहाता था। वह लोग तो हर रविवार के दिन नियम से आते थे। ध्‍यान करते और खाना भी खाते। मेरी समझ में नहीं आता की लोगों के मन में जरा शर्म है या नहीं। इसी तरह से एक और स्‍वामी जी। जो शायद राजस्थान के थे। वह भी शनिवार की श्‍याम को आ जाते और इतवार को रहते और सोमवार के दिन जाते थे। हो न हो ये सब इस घर के लोगों को थोड़ा पागल समझे होंगे। और इसे सांड आश्रम बना लिया था। जरा मेरी चल जाती तो इनका पागल पन मैं एक ही दिन में दूर कर देता।

मैंने इस मामले में पड़ने की कई बार कोशिश की थी। जब वह स्वामीजी आते तो उसकी जगह जान बूझ कर बैठ जाता था। उसे पापा जी हर से दूर हट कर बैठ कर खाना पड़ता और बीच—बीच में उसके कान के पास अपना मुंह ले जा कर बहुत धीरे से घूरा कर उसे डरा भी देता था। कि या तो मुझे खाना दे—दे वरना तेरी खेर नहीं। पर वह लोग भी किस मिट्टी के बने थे इस बात को मैं आज तक नहीं समझ पाया था।

एक ही दुकान से पिरामिड के बनने का काम। और घर का खर्च। बच्‍चों के स्‍कूल की फीस और ऊपर ये लोग आकर खाना खाते परंतु इतने दिन से देखता हूं नित नियम से कभी लाते कुछ नहीं थे। भले आदमी तुम आश्रम में जा रहे हो किसी होटल में तो नहीं जा रहे कि वहां आप पिकनिक मना रहे हो।

वह लोग जब आते तो मुझे बड़ा गुस्‍सा आता। कम से कम जो लोग पास से ध्‍यान करने के लिए आते थे वह ध्‍यान कर के या चाय पी कर तो चले जाते थे। परंतु यह तो 5—6 घंटे की फांसी हो गई। और वह राजस्‍थान के स्‍वामीजी जब आते थे तो मुझे उन्‍हें डराने का बड़ा मजा आता था। क्‍योंकि मैं उनमें पागल पन की कुछ सुगंध महसूस करता था। और सच कहूं पागल लोगो से हमें बड़ा डर लगता है। इसीलिए तो हम उन्‍हें भोंकते है। तब आप कहोगे की आप पुलिस के सिपाही को क्‍यों भोंकते हो साधु संन्यासियों को क्‍यों भोंकते हो। तब मेरा यही जवाब है। उनसे भी हमें डर लगता है।

हजारों सालों से ये सिपाही लड़ते मरते रहे। खून खराब करते है। जहां भी जाते मृत्‍यु का तांडव होता था। गांव के गांव शहर के शहर खाली कर दिये जाते। चारों और मार काट मची रहती होगी इन की क्रूरता के कारण। अब लोग ही नहीं होंगे तो भोजन कौन बनायेगा। और जब बनेगा नहीं तो क्‍या खायेंगे। हमारी जाति इतने सालों से मनुष्‍य के संग साथ रह कर इतनी तो शाकाहारी बन गई थी। हमारे भाई बंध भी तो एक प्रकार की रक्षा सेना ही थी। चाहे वह भोंक कर ही अपना विरोध क्यों न जताते हो। परंतु वेदना और दर्द तो हमारे पूर्वजों ने भी मनुष्य के साथ बहुत सहा होगा। 

कई यहां आने वाले स्वामी तो मुझे पागलपन के किनारे पर खड़े लगते थे। उनकी पागलपन की दुर्गंध अति तेज थी। उसकी आंखों में भी पागल पन का जाला सा बनना शुरू हो गया था। शायद ये बात पापा जी ने भी देख ली और उसे समझाया उन राजस्थान वाले स्वामी को। की तुम अब नौकरी करते हो अच्‍छा पैसा कमाते हो। अपने इस सब कामों को छोड़ कुछ दिन के एकांत और ध्‍यान के लिए पूना चले जाओ। यह मनुष्‍य सुनता सबकी है और करता अपने मन की है। वह हां हूं करता रहा। और धीरे—धीरे ऐसा समय आ गया की जब आप अपनी मदद खुद भी नहीं कर सकते हो। तब बहुत लाचारी हो जाती है और देर भी। पहले जब आप किसी की सहायता से मदद पाकर अपना उद्घार कर सकते थे। अब तो कुछ नहीं किया जा सकता। सच में मेरे देखे ध्‍यान इतना सरल जरूर है, परंतु अगर आप अंदर से दो हिस्सों में बंटे हो तो वह आपके लिए नहीं है। इसलिए प्रत्‍येक गुरु ध्‍यान के लिए समर्पण मांगता है। दो हिस्सों में बटा जीवन सरल नहीं हो सकता वह और भी जटिल बन जाता है। आप के अंदर कुछ है और बहार दिखावा कुछ करना पड़ रहा है। समाज में तो चल जाता है क्‍योंकि उसकी दूरी कम है। आप दस कदम ये चेहरा बना सकते है और वापस आकर फिर दूसरा चेहरा पहन सकते है। लेकिन ध्‍यान करने से दूरी अधिक और गहरी हो जाती है। इसलिए दो चरित्रों की एक्टिंग करना कठिन से कठिनतम होता चला जाता है। वहां तो जो आपके अचेतन में है वहीं चेतन पर रहने दिया जाये। इसी में आपकी भलाई है। वारना तो बज गया आपका डंबरू।

कितने लोग मैंने अपने यहां आने के बाद पागल पन की और जाते दिखाई दिये थे। मेरी समझ में एक बात नहीं आ रही थी की जब ध्‍यान पागल पन की और ले जाता है ये लोग करते ही क्‍यों है। या यहां पर ही कुछ खास बात है। असल में जहां आपको गहराई अधिक मिलेगी वहीं दूरी अधिक बढ़ती जायेगी। एक औरत और जो लगातार ध्यान करने आती थी। परंतु थी बहुत चतुर चालाक दिखावा बहुत करती थी। वही दो रूप ध्यान के सरलता चाहिए। इसी तरह से अपने अंदर डूबती चली गई। और जब वह यहां पर आई अपने पति के साथ तो उसकी हालत अधिक खराब थी। पापा जी ने उसके पति को कहां की आप चाहे तो इसे बचा सकते है। ये इसके लिए आखिरी मोका है।

तब उसके पति ने पापा जी बात मान ली क्‍योंकि शायद वह पापा जी पर अधिक विश्‍वास करता था। पापा जी ने कहां की मैंने इसे पहले भी कहा था तुम कुछ सक्रिय ध्यान करो, कुछ शरीर से मेहनत के साथ कार्य करो। दौड़ों, चलो, बागवानी करो कुछ शरीर की उर्जा को खर्च कर सको। सही में हमारे शरीर की 80 प्रतिशत उर्जा बहुत भारी होती है उसे तमस भी कह सकते है। अगर वह आपके अचेतन में जामा होती रही तो आप ध्यान में गहरे नहीं उतर सकते। तब आपके चारों ओर तमस का धुंधलका गहराता चाला जाये। और आप उस समय एक भंवर में फंस जायेंगे। इस ऐसे साधकों के लिए ये बैठ कर ध्‍यान ठीक नहीं है। इस नकारात्मक उर्जा के खर्च करना जरूरी है। उसके बाद ही ध्यान की शुद्ध उर्जा बचती है। परंतु पापा जी ने जब बात उनके पति को समझाई तो उनकी समझ में आ गई और वह  मान गए।  की आप जो कहते है हमें करेंगे। इसलिए वो लोग इन्‍हें इक्कीस दिन के लिये रोज यहां पर आते रहे। यहां पर सक्रियध्‍यान करने  का विशेष महत्व है क्योंकि अधिक साधक एक साथ जब ध्यान करते है तो उर्जा का वर्तुल बन जाता है। सच में ऐसा ही हुआ। वह बिन नाग के इक्‍कीस दिन ध्‍यान करने के लिए वह महिला आई। कभी अपने लड़के के साथ कभी पति के साथ। और उन दिनों भी खुब रौनक मेला बना रहता था। मैं भी खुश होता था।

सच में वह 21 दिन के ध्‍यान के बाद ठीक हो गई। पूरी तरह से तो कभी वह ठीक नहीं हो सकती परंतु काम चलाने लायक हो ही गई। जिससे वह समाज में रह और जी सके। अब आगे वह आपने घर ध्यान करती रहेगी और-और ठीक हो जायेगी उसकी किसी दवाइयों की जरूरत नहीं रहेगी। पापा जी ने कहां की अभी घर पर भी यह सक्रिय ध्‍यान जरूर करना। सच उस दिन वह पापा ने के सीने से लग कर वह महिला कितना राई। उसके अंदर जमी सभी धूल बह गई। और पापा जी कहते थे कि वह एक मात्र साधक है जो पागल पन के इतने पास जाकर वास संसार में लोट आई थी। क्‍योंकि उसने अपने को छोड़ा किसी के हाथ में और यही तो सन्‍यास है। हम जो भी कहते है लेकिन करते है अपने मन की ही बात।

इसी बीच जब रोज ध्‍यान होता तो खाना खाने के बाद सब को मिठाई मिलती। मेरा भी बहुत मन करता। परंतु मुझे मिठाई नहीं दी जाती। तब उस महिला के पति ने एक चमत्‍कारी काम किया। वह मेरे लिए एक किलो का पेटी गिरी ले आया। वह भी शाकाहारी वह जानता था की यहां सब शाकाहारी है। और सच मैंने उसे पहली बार जब खाया तो मेरे मन बल्लियों उछलने लगा। मैंने भी मन से उस महिला के ठीक होने की दुआ मांगी थी। कितनी अद्भुत चीज थी वह कितना सुस्वाद आपको बता नहीं सकता। और फिर जाने के एक दिन पहले वह मेरे लिए एक मीठी और टाइट सी कुछ हड्डी की तरह लेकर आई थी। मैंने उसे छोटी सी परंतु मीठी सी वस्‍तु को कितनी मुश्‍किल से खाया। मेरा पूरा मुंह चिकना हो जाता था। एक प्रकार के झाग से मेरे मुख में भर गए थे। असल में उसका पति पत्नी कुत्तों के समान की दुकान करते थे। इसलिए ये सब बाते वह जानते थे। हो न हो ये लोग कुत्तों को प्रेम करते हो। उन्‍होंने अपने घर में भी जरूर कुत्‍ते पाल रखे होंगे। जिन्‍हें वह ये सब खाने के लिए देते होंगे। यह दूसरी चीज दाँत साफ करने की हमारी पेस्ट थी। सच ही मेरे दाँत पहले से अधिक साफ हो गये थे। बस फिर तो क्‍या था भला हो उन पति-पत्‍नी का जो उन्‍होंने यह पहली बार मुझे खाने के लिए दिया। अब तो हमारे घर में भी वहीं सब बिना नागा के आने लगी थी। परंतु पहल का अधिक महत्‍व होता है। और उन लोगों ने की थी। सच उनके साथ हुआ भी अच्‍छा जैसा तुम बोओगे वैसा ही काटोगे। शायद पापा मम्मी इन बातों को जानते नहीं होंगे वरना तो पहले ही ले नहीं आते ये सब मेरे लिए।

वह महिला ठीक हो गई थी। लेकिन वह स्‍वामीजी आज भी पागल है, शायद जीवित भी है या नहीं आज कल आते नहीं। क्‍योंकि बाद में पता चला कि उसकी नौकरी छूट गई। पहले जो भाई बहन उसको मान सम्‍मान देते थे। अब उन्‍होंने उसे घर से निकाल दिया। अब पागल को कौन सम्‍हाले भला। इसलिए जब भी छोड़ना है पूरा का पूरा छोड़ना चाहिए ध्यान में आपने आप को। अधूरा कोई भी कार्य खतरनाक होता है। वह परिवार जो हर हफ्ते आता था अब कभी नहीं आता। पता नहीं उन का क्‍या हाल होगा। लेकिन वह थे बड़े कंजूस कभी मेरे लिए एक टॉफी भी नहीं लाये………परंतु में इतना जरूर जानता हूं वे कभी ध्‍यान के मार्ग पर नहीं चल सकते। समाज में चल रहे हो तो कह नहीं सकता। परंतु पहाड़ी पर चढ़ना या तलवार की धार पर चलना ध्‍यान है। असल में हम किसी को छलते तो दिखते है, और अंदर ही अंदर खुश भी बहुत होते है कि देखो हम किसी को बेवकूफ बना सकते है। परंतु छलते हम अपने आप को ही है। दूसरे का छलना अपना ही छलना होता है। अंदर के संसार में, यह एक आईना है, एक परछाई है……मैं तो केवल एक दर्शक की भांति देखता भर था। मैं मूक रहना चाहता तो रह नहीं सकता था। क्‍योंकि मुझे भौंकने से कोई रोक नहीं सकता था। सत्‍य वचन कहना मेरी मजबूरी हो जाती थी।

अगर ऐसा न हो तो आप गली में झांक कर देख सकते हो मेरी ही जाति के अनेक भाई बहनों को अपने रहने के लिए ठीकाना नहीं है। और पूरे मोहल्ले कि रक्षा की जिम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर है। जरा सा भी मोहल्ले में कुछ गलत हो जाये तो भौंक—भौंक गली सर पर उठा लेते है। इस को कहते है वफादारी। वह अंदर और बहार से एक होते है। उन्‍हें इस बात से कोई सरोकार नहीं है की कल रास्‍ते पर चलते हुए आपने उसे लात मारी थी। तब आज आपकी गली में कुछ चौर आ जोते है तो हम क्‍यों भौंकें यह तो खराब बात और आदत हुई। इसने तो आज तक कभी मुझे खाने को भी नहीं दिया था और ऊपर से लात भी मारी थी। तब मैं इस गली या घर की रक्षा क्यों करूं? इस तरह के भेद भाव उनके मन में नहीं होता। इस सब के बाद भी बेचारे की मौत भी कितनी बुरी होती है। कुत्ते की मौत चलो जो भी हो हम किसी का बुरा नहीं चाहते। अगर कुछ कभी गलती से हो जाये तो हम कह नहीं सकते। लेकिन इस तरह की बददुआ तो मत दो, हम आपके जीने की तमन्ना करते है, ताकि हमारा जीवन भी बना रहे, तुम हमारी मौत को भी खरब कर रहे हो।

आज तो केवल मैंने भी ज्ञान का पूरा पिटारा ही खोल दिया…..चलो जो भी हो मन का उदगार तो आपको कह गया। अगर नहीं कहता तो दिल पर एक बोझ बना रहता तो वह कितना कठिन और भारी रहता। परंतु सब के बीच मुझे याद आई राम रत्न की बात। अगर वह इस समय काम कर रहे होते तो पापा जी इतनी लोगों को कैसे यहां बुला सकते थे, ध्यान के लिए। क्योंकि फिर तो पापा जी उनके साथ काम करना होता। परंतु राम रत्न भी एक ही है, होली पर घर गए तो तीन महीने के लिए बात गई। फिर दीपावली तक काम करने के बाद दो-तीन महीने तक गायब रहते है। ये गरीब आदमी अपने परिवार के पास जाकर जल्दी से नहीं आते। पैसे कमाने का लालच तो इन्हें भी होता होगा। परंतु ये जीवन को समतुल विभाजन में जीते है। और यही वह तरीका है जीने का जिससे संतुलन बना रहता है।

मन करता था की राम रत्न आ जाये और फिर से अधूरा काम शुरू हो जाए। और इन आने वाले फालतू के लोगों से छुटकारा हो जाये। परंतु आज तो छुटकारे की बात कर रहा हूं। परंतु आपने सोचा जब पूरा पिरामिड बन जायेगा तब इस भीड़ को कौन रोकेगा....ये मेरी चिंता नहीं है, इसे तो समय ही रोकेगा। इतना चलना सब के बस की बात नहीं होती। ये तो बस बरसाती मेंढक है जैसे की आपने देखा होगा आस पास के मैदानों में। जैसे ही क्रिकेट को कोई मैच होता है तो प्रत्येक पार्क में आपको क्रिकेट खेलते हजूम के हजूम मिल जायेंगे। इनको बोला जाता है बरसाती मेंढक। सब बनने चल देते है गावस्कर, कपिल देव....परंतु उस सब के लिए मेहनत करनी होती है। एक उतुंग चढ़ाई के लिए साहस और संकल्प की अति आवश्यकता रहती है। चलों आज इतना ही ठीक है। कुछ आप भी थके से लग रहे हो मैं भी थक गया हूं थोड़ा कमर सीधी कर लेता हूं। बाकी की बाते कल के लिए....बस।

भू.......भू .....भू ।

आज इतना ही।

 

 

 

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें