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शनिवार, 1 मार्च 2014

पतंजलि: योग—सूत्र (भाग-1) प्रवचन—10

साक्षी और वैराग्‍य—प्रारंभ भी, अंत भी—प्रवचन—दसवां

      दिनांक 4 जनवरी, 1974; संध्‍या।
      वुडलैण्‍डस, बंबई।

प्रश्‍न सार:

1—हमारे मन की समस्याओं को, आप मन के पार होकर भी कैसे समझते हैं?

 2—योगी बनने के लिए हठीले योद्धा के भाव की क्या जरूरत है?

 3—अगर वैराग्य ही मुका कर सकता है तो फिर योगानुशासन का क्या प्रयोजन है?


पहला प्रश्‍न:

यह कैसे संभव हुआ है कि आपने हमारे जीने के ढंग को आप जिसके परे जा हैं इतने सही रूप में और हर ब्योरे में वर्णित कर दिया है जबकि हम इसके प्रति इतने अनजान रहते हैं? क्या यह विरोधाभासी नहीं है?

 ह विरोधाभासी लगता है, पर यह है नहीं। तुम समझ सकते हो, केवल तभी जब तुम परे जा चुके होते द्रँ ज्ञ। जब तुम एक निश्चित मनोदशा में होते हो, तब तुम नहीं समझ सकते मन की वह दशा, क्योंकि तुम उससे बहुत ज्यादा अंतर्ग्रस्त होते हो, उससे बहुत तादात्‍म्य बनाये हुए होते हो। समझने के लिए रिका स्थान की आवश्यकता होती है,
दूरी की जरूरत होती है। और वहां दूरी कोई है नहीं। केवल जब तुम मन की अवस्था का अतिक्रमण करते हो, तुम उसे समझने के योग्य होते हो क्योंकि तब दूरी होती है वहां। तब तुम दूर अलग खड़े हुए होते हो। अब तुम तादात्थ बनाये बिना देख सकते हो। वहां दृश्य है अब, परिप्रेक्ष्य।
जब तुम प्रेम में पड़ते हो, तब तुम प्रेम को नहीं समझ सकते। शायद तुम उसे अनुभव कर लो, लेकिन तुम उसे समझ नहीं सकते। तुम्हारा होना उसमें इतना ज्यादा है, और समझने के लिए अलगाव, विरका अलगाव की आवश्यकता रहती है। समझ के लिए तुम्हें जरूरत है निरीक्षक होने की। जब तुम प्रेम में पड़ते हो तो निरीक्षक पिछड़ जाता है। तुम एक कर्ता बन चुके हो। तुम एक प्रेमी हो। तुम उसके साक्षी नहीं हो सकते। केवल जब तुम प्रेम का अतिक्रमण करते हो, जब तुम संबोधि पाते हो और प्रेम के पार जा चुके होते हो, तब तुम समझ पाओगे उसे।
एक बच्चा नहीं समझ सकता बचपन क्या है। जब बचपन खो चुका हो, तुम पीछे देख सकते हो और समझ सकते हो। युवा नहीं समझ सकता यौवन क्या है। केवल जब तुम बूढ़े हो चुके होते हो और पीछे देखने के योग्य होते हो, विलग, दूर, तब तुम उसे समझ पाओगे। जो कुछ भी समझा जाता है, परे हो जाने के द्वारा ही समझा जाता है। अतिक्रमण, पार हो जाना सारी समझ का आधार है। इसीलिए ऐसा हर रोज होता है कि कोई दूसरा जो मुसीबत में होता है तो तुम उसे सलाह, अच्छी सलाह दे सकते हो, पर अगर तुम उसी मुसीबत में हो, तो तुम वही अच्छी सलाह स्वयं को नहीं दे सकते।
अगर कोई दूसरा मुसीबत में होता है तो तुम्हारे पास देखने को, निरीक्षण करने को एक दूरी होती है। तुम साक्षी हो सकते हो, तुम अच्छी सलाह दे सकते हो। लेकिन जब तुम उसी मुसीबत में होते हो, तो तुम उतने ज्यादा सक्षम न होओगे। तुम सक्षम हो सकते हो अगर तुम तब भी अलग रह सको। तुम सक्षम हो सकते हो अगर तब भी तुम समस्या को यूं देख सको जैसे कि समस्या तुम्हारी नहीं है; जैसे कि तुम बाहर हो, पहाड़ी पर खड़े हुए नीचे देख रहे हो।
कोई भी समस्या हल हो सकती है यदि एक क्षण के लिए भी तुम उससे बाहर होते हो और उसे साक्षी की भांति देख सकते हो। साक्षीभाव हर चीज सुलझा देता है। लेकिन जब तुम किसी अवस्था में गहन रूप से स्थित होते हो तो साक्षी होना कठिन होता है। तुम इतना ज्यादा तादात्‍म्य बना लेते हो। जब तुम क्रोधित हो जाते हो, तब तुम क्रोध बन जाते हो। कोई पीछे नहीं रहा है जो देख सके, निरीक्षण कर सके, ध्यान से देख सके, निर्णय ले सके। कोई पीछे नहीं रह गया है। जब तुम पूर्णतया कामवासना में सरक जाते हो, तब कोई केंद्र वहां ऐसा नहीं रहता जो अंतर्ग्रस्त न हो।
उपनिषदों में यह कहा गया है कि वह व्यक्ति जो स्वयं को ध्यान से देख रहा है, एक वृक्ष की भांति है, जहां दो पक्षी बैठे है। एक पक्षी कूद रहा है, आनन्द मना रहा है, खा रहा है, गा रहा है। और दूसरा पक्षी बस, वृक्ष के शिखर पर बैठा दूसरे पक्षी को देख भर रहा है।
अगर तुम साक्षी व्यक्तित्व बना सकते हो, जो ऊपर बना रहता है और नीचे चल रहे नाटक को देखता चला जाता है—जिसमें तुम अभिनेता हो, जिसमें तुम नाचते और कूदते हो, गाते और बोलते हो, सोचते हो और आवेष्टित हो जाते हो; अगर तुममें गहरे बैठा हुआ कोई इस नाटक को देखता रह सकता है, अगर तुम ऐसी दशा में हो सकते हो जहां तुम रंगमंच पर अभिनेता की भांति अभिनय कर रहे हो और साथ ही साथ दर्शकों में बैठे हुए ध्यान से देख रहे हो; यदि तुम अभिनेता और दर्शक दोनों हो सकते हो, तब साक्षी का उदय हुआ है। यह साक्षी तुम्हें जानने के, समझने के, विवेक पाने के योग्य बना देगा।
इसलिए यह विरोधाभासी लगता है। अगर तुम बुद्ध के पास जाते हो, तो वे तुम्हारी समस्याओं में गहरे उतर सकते हैं। इसलिए नहीं कि वे समस्या में पड़े है, बल्कि केवल इसलिए कि वे समस्याग्रस्त नहीं हैं। वे तुममें प्रवेश कर सकते हैं। वे स्वयं को तुम्हारी स्थिति में रख सकते हैं और फिर भी साक्षी बने रह सकते हैं।
वे जो संसार में होते हैं, संसार को नहीं समझ सकते हैं। केवल वे ही जो इसके पार चले गये हैं, इसे समझते हैं। इसलिए जो कुछ भी तुम समझना चाहते हो, उसके पार जाओ। यह विरोधाभासी जान पड़ता है। कुछ भी जो तुम जानना चाहते हो उसके पार जाओ; केवल तभी बोध घटित होगा। अगर तुम किसी भी बात में ग्रसित हो कर प्रवेश करते हो, तो भले ही ज्यादा जानकारी इकट्ठी कर लो, लेकिन एक प्रज्ञावान व्यक्ति नहीं बनोगे।
तुम क्षण—प्रतिक्षण इसका अभ्यास कर सकते हो। तुम दोनों हो सकते हो— अभिनेता होओ और दर्शक भी। जब तुम क्रोधित होते हो, तब तुम मन को कहीं स्थानांतरित कर सकते हो, जिससे तुम क्रोध से अलग हो जाते हो। यह एक गहन कला है। अगर तुम प्रयास करो, तुम इसे कर पाओगे। तुम मन को स्थानांतरित कर सकते हो।
एक क्षण के लिए तुम क्रोधित हो सकते हो। फिर अलग हो जाओ और क्रोध को देखो। तुम्हारे अपने चेहरे को दर्पण में देखो। देखो उसे जो तुम कर रहे हो, देखो उसे जो तुम्हारे चारों ओर घट रहा है, देखो जो तुमने दूसरों के प्रति किया है और किस तरह वे प्रतिक्रिया कर रहे हैं। क्षण भर को देखो, फिर क्रोधित हो जाओ; क्रोध में सरक जाओ। फिर दोबारा निरीक्षक बन जाओ। यह किया जा सकता है, लेकिन फिर बहुत गहरे अभ्यास की जरूरत होगी।
इसे आजमाओ। जब खा रहे होओ, एक क्षण को खाने वाले ही बन जाना। उसमें पूरा रस लेना। भोजन ही बन जाना, भोजन करना ही बन जाना। भूल जाना कि कोई ऐसा भी है जो इसका निरीक्षण कर सकता है। जब तुम इसमें काफी सरक चुके होते हो, तब एक क्षण को हट जाना। खाते ही जाना पर इसकी ओर देखना शुरू करते हुए— भोजन है, भोजनकर्ता है, और तुम अलग खड़े इसे देख रहे हो।
जल्दी ही तुम दक्ष हो जाओगे, और तुम मन के गियर्स बदल पाओगे— अभिनेता से दर्शक होने तक के, भाग लेने वाले से प्रेक्षक होने तक के। तब यह तुम्हारे सामने उद्घाटित हो जायेगा कि भाग लेने के द्वारा कुछ नहीं जाना है, केवल निरीक्षण द्वारा ही चीजें उद्घाटित होती हैं और ज्ञात होती है। इसीलिए जिन्होंने संसार छोड़ दिया है वे मार्गदर्शक बन गये हैं। वे जो पार चले गये हैं, सद्गुरु बन गये हैं।
फ्रायड अपने शिष्यों को अलगावपूर्ण बने रहने के लिए कहता था। लेकिन यह उनके लिए बहुत मुश्किल था। क्योंकि फ्रायड के अनुयायी—वे मनोविश्लेषक, वे व्यक्ति न थे जो पार हो गये थे। वे संसार में रहते थे। वे विशेषज्ञ मात्र थे। लेकिन फ्रायड ने भी उन्हें सुझाव दिया कि जब रोगियों की सुन रहे होते हो, उसकी जो बीमार है, मानसिक रूप से बीमार है, तो मनोचिकित्सक को अलग बने रहना चाहिए। उसने उनसे कहा था, भावुक तौर पर अभिभूत मत होना। अगर तुम अभिभूत होते हो, तब तुम्हारी सलाह निरर्थक होती है। बस, दर्शक बने रहना।
यह बात कूर भी लगती है। कोई चीख रहा हो, रो रहा हो. और तुम भी महसूस करते हो क्योंकि तुम एक मानव—प्राणी हो। पर फ्रायड ने कहा था, ' अगर तुम मनोवैज्ञानिक की भांति, मनोविश्लेषक की भांति कार्य कर रहे हो, तो तुम्हें असम्मिलित बने रहना चाहिए। तुम्हें व्यक्ति की ओर ऐसे देखना चाहिए जैसे कि वह कोई समस्या ही है। उसकी ओर ऐसे मत देखो जैसे कि वह मानव—प्राणी है; नहीं तो तुम तुरंत अंतर्ग्रस्त हो जाते हो। तुम भाग लेने वाले बन जाते हो और फिर तुम सलाह नहीं दे सकते। तब जो कुछ भी तुम कहते हो वह पक्षपातपूर्ण होगा। तब तुम उसके बाहर नहीं होते हो।
यह कठिन है, बहुत कठिन। अत: फ्रायडवादी बहुत तरह से इसका प्रयत्न करते रहे है। फ्रायडवादी मनोविश्लेषक सीधे तौर पर रोगी के सामने नहीं होगा क्योंकि जब तुम किसी व्यक्ति के सम्मुख होते हो तो असम्मिलित रहना कठिन होता है। अगर तुम किसी व्यक्ति की आंखों में झांकते हो, तो तुम उसमें प्रवेश करते हो। इसलिए फ्रायडियन मनोविश्लेषक पर्दे के पीछे बैठता है, और रोगी कोच पर लेटा रहता है।
यह भी बहुत अर्थपूर्ण है। फ्रायड समझ पाया था कि अगर कोई आदमी लेटा हुआ होता है और तुम बैठे या खड़े हुए होते हो, उसे नहीं देख रहे होते, तो सम्मिलित होने की कम संभावना होती है। क्यों? एक लेटा हुआ व्यक्ति आसानी से कोई समस्या बन जाता है, जिस पर कि कार्य करना होता है—जैसे कि वह सर्जन की मेज पर हो। तुम उसकी चीरफाड़ कर सकते हो। साधारणतया, ऐसा कभी होता नहीं। अगर तुम किसी व्यक्ति से मिलने जाते हो, तो वह तुमसे बात नहीं करेगा जबकि लेटा हुआ हो और तुम बैठे हुए हो—जब तक कि वह रोगी न हो, जब तक कि वह अस्पताल ही में न हो।
तो फ्रायड के मनोविश्लेषण में रोगी को कोच पर लेटे रहना चाहिए। तब मनोविश्लेषक को लगता रहता है कि वह आदमी मरीज है, बीमार है। उसकी सहायता करनी ही है। वह वास्तव में कोई व्यक्ति नहीं है बल्कि एक समस्या है, अत: उसके साथ सम्मिलित होने की किसी को जरूरत नहीं। और मनोविश्लेषक को व्यक्ति के सम्मुख नहीं होना चाहिए। उसे मरीज का सामना नहीं करना चाहिए। पर्दे के पीछे छिपे हुए वह उसे सुनेगा। फ्रायड कहता है कि रोगी को छूना मत, क्योंकि अगर तुम उसे छूते हो, अगर तुम रोगी का हाथ अपने हाथ में लेते हो, तो संभावना है कि तुम उसमें उलझ जाओ।
यह सावधानी लेनी पड़ती थी क्योंकि मनसविद बुद्धपुरुष नहीं होते हैं। पर यदि तुम बुद्ध के पास जाते तो तुम्हें लेटने की कोई जरूरत नहीं। तुम्हें पर्दे के पीछे छिपने की कोई जरूरत नहीं। बुद्ध को सचेत रहने की कोई जरूरत नहीं कि उन्हें अंतर्ग्रस्त नहीं होना है। वे अंतर्ग्रस्त हो नहीं सकते। जो कुछ भी हो दशा, वे असम्मिलित बने रहते हैं।
वे तुम्हारे लिए करुणा अनुभव कर सकते हैं, लेकिन वे सहानुभूति भरे नहीं हो सकते। इसे ध्यान में रखना। और करुणा तथा सहानुभूति के बीच का अंतर समझने की कोशिश करना। करुणा उच्चतर स्रोत से चली आती है। बुद्ध तुम्हारे प्रति करुणामय रह सकते हैं। वे तुम्हारी बात समझते है कि तुम मुश्किल में हो, लेकिन वे तुम्हारे प्रति सहानुभूति भरे नहीं है क्योंकि वे जानते हैं कि यह तुम्हारी मूर्खता के कारण हुआ है कि तुम मुश्किल में हो। यह तुम्हारी छूता के कारण ही है कि तुम कठिनाई में पड़े हो।
उनके पास करुणा है। तुम्हारी नासमझी में से तुम्हें बाहर लाने में वे हर तरह से मदद करेंगे। लेकिन तुम्हारी नासमझी कोई ऐसी चीज नहीं है जिसके साथ वे सहानुभूति करने वाले हैं। तो एक तरह से वे बहुत ऊष्‍मामय होंगे और एक तरह से बहुत शीतल और भावशून्य। जहां तक उनकी करुणा का संबंध है, वे स्नेही होंगे। और वे बहुत शीतल और तटस्थ होंगे—जहां तक कि उनकी सहानुभूति का संबंध है।
और साधारणतया अगर तुम बुद्ध के पास जाते तो तुम अनुभव करोगे कि वे तटस्थ हैं। क्योंकि तुम नहीं जानते करुणा क्या है और तुम नहीं जानते करुणा की शीतलता को। तुम केवल सहानुभूति की गर्मी को जानते हो, और वे सहानुभूतिपूर्ण नहीं हैं। वे जान पड़ते हैं कूर, भावशून्य। अगर तुम रोते—चीखते हो, तो वे नहीं रोने—चीखने वाले तुम्हारे साथ। और अगर वे रोते है, तब कोई संभावना नहीं होती कि कोई सहायता उनसे तुम तक पहुंच सके। तब तो वे उसी स्थिति में हैं जिसमें कि तुम हो। वे नहीं रो सकते, तो तुम्हें इसकी चोट पहुंचेगी— 'मैं चीख रहा हूं रो रहा हूं और वे सिर्फ बुत की तरह बने रहते हैं—जैसे कि उन्होंने सुना ही न हो! ' किन्तु वे तुम्हारे प्रति सहानुभूति नहीं रख सकते। सहानुभूति उसके द्वारा होती है जिसका उसी प्रकार का मन हो, जैसा कि तुम्हारा है। करुणा उच्चतर स्रोत से आती है। वे तुम्हें देख सकते है। तुम उनके सामने पारदर्शी होते हो, पूर्णतया नग्‍न। और वे जानते है कि तुम क्यों दुख भोग रहे हो। तुम्हीं हो कारण। और वे इस कारण को तुम्हें समझाने की चेष्टा करेंगे। यदि तुम उन्हें सुन सकते हो, तो सुनने का कार्य ही तुम्हारी बहुत मदद कर देगा।
यह विरोधाभासी दिखता है लेकिन है नहीं। बुद्ध भी तुम्हारी तरह जीये है। अगर इस जीवन में नहीं, तो किन्हीं पिछले जन्मों में। वे उन्हीं संघर्षो में चलते रहे। वे तुम्हारी तरह नासमझ रहे, उन्होंने तुम्हारी तरह कष्ट पाया, उन्होंने तुम्हारी तरह ही संघर्ष किया। बहुत—बहुत जन्मों से वे उसी मार्ग पर थे। वे सारी यंत्रणा को जानते हैं, सारे संघर्ष को, अंतर्द्वंद्व को, पीड़ा को। वे जागरूक हैं, तुमसे अधिक जागरूक, क्योंकि अब ये सारे पिछले जन्म उनकी नजरों के सामने हैं—केवल अपने ही नहीं बल्कि तुम्हारे भी। उन्होंने वे सब समस्याएं जी ली है जिन्हें कोई मानव—मन जी सकता है, इसलिए वे जानते हैं। लेकिन वे उनके पार चले गये है, अत: अब वे जानते हैं, क्या कारण है। और वे यह भी जानते है कि उन्हें किस प्रकार रूपांतरित किया जा सकता है।
वे हर तरह से मदद करेंगे तुम्हें समझा देने में कि तुम्हीं हो तुम्हारे दुखों का कारण। यह बहुत दुष्कर है। यह समझना सर्वाधिक कठिन होता है कि 'मैं ही मेरे दुखों का कारण हूं। 'यह गहरे चोट करता है। व्यक्ति चोट अनुभव करता है। जब भी कोई कहता है कि कोई दूसरा व्यक्ति है कारण, तब तुम ठीक अनुभव करते हो। जो व्यक्ति ऐसा कहता है, तुम्हें सहानुभूतिपूर्ण जान पड़ता है। अगर वह कहता है, 'तुम कष्ट उठाने वाले हो, एक शिकार और दूसरे तुम्हारा शोषण कर रहे है, दूसरे नुकसान कर रहे है, दूसरे हिंसात्मक हैं', तब तुम अच्छा अनुभव करते हो। लेकिन यह अच्छाई टिकने वाली नहीं है। यह एक क्षणिक सांत्वना है, और खतरनाक; बहुत बड़ी कीमत पर मिलने वाली। क्योंकि वह जो सहानुभूति दे रहा है तुम्हारे दुख के कारण को बढ़ावा दे रहा होता है। तो वे जो तुम्हारे प्रति सहानुभूतिपूर्ण जान पड़ते हैं वस्तुत: तुम्हारे शत्रु होते हैं क्योंकि उनकी सहानुभूति तुम्हारे दुख के कारण के मजबूत होने में मदद करती है। दुख का स्रोत ही मजबूत हो जाता है। तुम अनुभव करते हो कि तुम ठीक हो और सारा संसार गलत है, कि तुम्हारा दुख किसी दूसरी जगह से आता है।
अगर तुम बुद्ध के पास जाते, किसी बुद्ध—पुरुष के पास, तो वे कठिन होंगे ही। क्योंकि वे तुम्हें बाध्य करेंगे इस तथ्य का सामना करने के लिए कि कारण तुम्हीं हो। और एक बार तुम्हें लगने लगता है कि तुम्हारे नरक का कारण तुम हो, तो रूपांतरण आरंभ हो ही चुका होता है। जिस क्षण तुम इसे अनुभव करते हो, आधा काम तो हो ही चुका है। तुम मार्ग पर आ ही पहुंचे हो। तुम आगे बढ़ गये हो। एक बड़ा परिवर्तन तुम पर उतर चुका है। आधे दुख तो अचानक ही तिरोहित हो जायेंगे, यदि एक बार तुम समझ जाओ कि तुम्हीं हो कारण। क्योंकि तब तुम उनके साथ सहयोग नहीं कर सकते। तब तुम इतने अज्ञानी न रहोगे कि उस कारण को मजबूत करने में मदद करो जो दुखों को निर्मित करता है। तुम्हारा सहयोग टूट जायेगा। पर दुख फिर भी कुछ समय के लिए बने रहेंगे—केवल पुरानी आदतों के कारण।
एक बार मुल्ला नसरुद्दीन कचहरी पहुंचने को मजबूर हो गया क्योंकि वह फिर शराब पिये हुए सड़क पर पाया गया था। मैजिस्ट्रेट ने कहा, 'नसरुद्दीन, मुझे याद है कि तुम्हें इसी अपराध के लिए बहुत बार जांचता रहा हूं। क्या तुम्हारे पास कोई स्पष्टीकरण है तुम्हारे पके शराबीपन के लिए? नसरुद्दीन बोला, 'बेशक, युअर ऑनर! मेरे पास मेरे पके शराबीपन के लिए एक सफाई है देने को। यह है मेरी' सफाई—पकी प्यास। '
अगर तुम सजग हो भी जाओ, तो भी अभ्‍यस्‍त ढांचा कुछ देर को तुम्हें उसी दिशा में सरकने को बाध्य कर देगा। लेकिन यह बहुत देर तक नहीं बना रह सकता। ऊर्जा अब वहां नहीं रही। कुछ देर को वह मृत ढांचे की भांति बना रह सकता है, लेकिन धीरे—धीरे यह सूख जायेगा। इसे हर दिन पोषित होने की जरूरत रहती है, इसे हर दिन मजबूत होने की जरूरत होती है। निरंतर तुम्हारे सहयोग की आवश्यकता होती है।
एक बार तुम सजग हो जाओ कि तुम्हारे दुखों का कारण तुम हो, तो सहयोग गिर ही जायेगा। इसलिए जो कुछ मैं तुमसे कहता हूं वह तुम्हें एकमात्र तथ्य के प्रति सजग करने के लिए ही होता है—कि जहां कहीं तुम हो, जो कुछ तुम हो, तुम्हीं कारण हो। और इसके प्रति निराशावादी मत होओ। यह बहुत आशाजनक है। अगर नजरों के सामने हैं—केवल अपने ही नहीं बल्कि तुम्हारे भी। उन्होंने वे सब समस्याएं जी ली है जिन्हें कोई मानव—मन जी सकता है, इसलिए वे जानते हैं। लेकिन वे उनके पार चले गये है, अत: अब वे जानते हैं, क्या कारण है। और वे यह भी जानते है कि उन्हें किस प्रकार रूपांतरित किया जा सकता है।
वे हर तरह से मदद करेंगे तुम्हें समझा देने में कि तुम्हीं हो तुम्हारे दुखों का कारण। यह बहुत दुष्कर है। यह समझना सर्वाधिक कठिन होता है कि 'मैं ही मेरे दुखों का कारण हूं। 'यह गहरे चोट करता है। व्यक्ति चोट अनुभव करता है। जब भी कोई कहता है कि कोई दूसरा व्यक्ति है कारण, तब तुम ठीक अनुभव करते हो। जो व्यक्ति ऐसा कहता है, तुम्हें सहानुभूतिपूर्ण जान पड़ता है। अगर वह कहता है, 'तुम कष्ट उठाने वाले हो, एक शिकार और दूसरे तुम्हारा शोषण कर रहे है, दूसरे नुकसान कर रहे है, दूसरे हिंसात्मक हैं', तब तुम अच्छा अनुभव करते हो। लेकिन यह अच्छाई टिकने वाली नहीं है। यह एक क्षणिक सांत्वना है, और खतरनाक; बहुत बड़ी कीमत पर मिलने वाली। क्योंकि वह जो सहानुभूति दे रहा है तुम्हारे दुख के कारण को बढ़ावा दे रहा होता है। तो वे जो तुम्हारे प्रति सहानुभूतिपूर्ण जान पड़ते हैं वस्तुत: तुम्हारे शत्रु होते हैं क्योंकि उनकी सहानुभूति तुम्हारे दुख के कारण के मजबूत होने में मदद करती है। दुख का स्रोत ही मजबूत हो जाता है। तुम अनुभव करते हो कि तुम ठीक हो और सारा संसार गलत है, कि तुम्हारा दुख किसी दूसरी जगह से आता है।
अगर तुम बुद्ध के पास जाते, किसी बुद्ध—पुरुष के पास, तो वे कठिन होंगे ही। क्योंकि वे तुम्हें बाध्य करेंगे इस तथ्य का सामना करने के लिए कि कारण तुम्हीं हो। और एक बार तुम्हें लगने लगता है कि तुम्हारे नरक का कारण तुम हो, तो रूपांतरण आरंभ हो ही चुका होता है। जिस क्षण तुम इसे अनुभव करते हो, आधा काम तो हो ही चुका है। तुम मार्ग पर आ ही पहुंचे हो। तुम आगे बढ़ गये हो। एक बड़ा परिवर्तन तुम पर उतर चुका है। आधे दुख तो अचानक ही तिरोहित हो जायेंगे, यदि एक बार तुम समझ जाओ कि तुम्हीं हो कारण। क्योंकि तब तुम उनके साथ सहयोग नहीं कर सकते। तब तुम इतने अज्ञानी न रहोगे कि उस कारण को मजबूत करने में मदद करो जो दुखों को निर्मित करता है। तुम्हारा सहयोग टूट जायेगा। पर दुख फिर भी कुछ समय के लिए बने रहेंगे—केवल पुरानी आदतों के कारण।
एक बार मुल्ला नसरुद्दीन कचहरी पहुंचने को मजबूर हो गया क्योंकि वह फिर शराब पिये हुए सड़क पर पाया गया था। मैजिस्ट्रेट ने कहा, 'नसरुद्दीन, मुझे याद है कि तुम्हें इसी अपराध के लिए बहुत बार जांचता रहा हूं। क्या तुम्हारे पास कोई स्पष्टीकरण है तुम्हारे पके शराबीपन के लिए? नसरुद्दीन बोला, 'बेशक, युअर ऑनर! मेरे पास मेरे पके शराबीपन के लिए एक सफाई है देने को। यह है मेरी' सफाई—पकी प्यास। '
अगर तुम सजग हो भी जाओ, तो भी अप्पस्त ढांचा कुछ देर को तुम्हें उसी दिशा में सरकने को बाध्य कर देगा। लेकिन यह बहुत देर तक नहीं बना रह सकता। ऊर्जा अब वहां नहीं रही। कुछ देर को वह मृत ढांचे की भांति बना रह सकता है, लेकिन धीरे—धीरे यह सूख जायेगा। इसे हर दिन पोषित होने की जरूरत रहती है, इसे हर दिन मजबूत होने की जरूरत होती है। निरंतर तुम्हारे सहयोग की आवश्यकता होती है।
एक बार तुम सजग हो जाओ कि तुम्हारे दुखों का कारण तुम हो, तो सहयोग गिर ही जायेगा। इसलिए जो कुछ मैं तुमसे कहता हूं वह तुम्हें एकमात्र तथ्य के प्रति सजग करने के लिए ही होता है—कि जहां कहीं तुम हो, जो कुछ तुम हो, तुम्हीं कारण हो। और इसके प्रति निराशावादी मत होओ। यह बहुत आशाजनक है। अगर कोई दूसरा व्यक्ति कारण होता है, तो कुछ नहीं किया जा सकता।
इसी कारण महावीर ईश्वर को नहीं स्वीकारते। महावीर कहते हैं कि ईश्वर नहीं है। क्योंकि अगर ईश्वर है, तो कुछ नहीं किया जा सकता। जब वही है हर चीज का कारण, तो फिर मैं क्या कर सकता हूं? तब तो मैं. असहाय हूं। तो उसी ने संसार बनाया है। उसी ने मुझे बनाया है। अगर वह है बनाने वाला, तब केवल वही मिटा सकता है। और अगर मैं दुखी हूं तब वही है जिम्मेदार और मैं कुछ कर नहीं सकता।
अत: महावीर कहते हैं, अगर ईश्वर है, तो आदमी असहाय है। इसीलिए वे कहते हैं, 'मैं ईश्वर में विश्वास नहीं करता।और इसका कोई दार्शनिक कारण नहीं है, कारण बहुत मनोवैज्ञानिक है। यह युइका है जिससे कि तुम किसी को अपने लिए जिम्मेदार नहीं ठहरा सको। तो प्रश्न यह नहीं है कि ईश्वर अस्तित्व रखता है या नहीं। महावीर कहते, 'मैं चाहता हूं तुम समझ जाओ कि जो कुछ तुम हो उसके कारण तुम हो।और यह बहुत आशापूर्ण है। अगर तुम ही हो कारण, तो तुम इसे बदल सकते हो। अगर तुम नरक का निर्माण कर सकते हो, तो तुम स्वर्ग का निर्माण भी कर सकते हो। तुम हो मालिक।
इसलिए निराश अनुभव मत करो। जितना ज्यादा तुम दूसरों को जिम्मेदार ठहराते हो तुम्हारी जिंदगी के लिए, उतने ज्यादा तुम गुलाम होते हो। अगर तुम कहते हो, 'मेरी पत्नी मुझे क्रोधी बना रही है', तो तुम एक गुलाम हुए। अगर तुम कहो कि तुम्हारा पति तुम्हारे लिए मुसीबत खड़ी कर रहा है, तो तुम गुलाम हो। अगर तुम्हारा पति तुम्हारे लिए मुसीबत बना भी रहा है, लेकिन तुमने चुना है उस पति को। तुम्हें चाहिए ही थी यह मुसीबत, इस तरह की मुसीबत। यह तुम्हारा चुनाव है। अगर तुम्हारी पत्नी तुम्हारे लिए नरक बना रही है तो याद कर लेना कि तुमने चुना है इस पत्नी को।
किसी ने मुल्ला नसरुद्दीन से पूछा, 'तुम्हारी पत्नी से तुम्हारी पहचान कैसे हुई? किसने तुम्हारा परिचय कराया? 'वह बोला, 'बस, यह हो गया। मैं किसी को दोष नहीं दे सकता।
कोई किसी को दोष नहीं दे सकता। और यह मात्र घटना नहीं है, यह चुनाव है। एक खास तरह का पुरुष एक खास तरह की सी को चुन लेता है। यह संयोग नहीं है। वह उसे खास कारणों से चुनता है। अगर यह सी मर जाये, तो फिर वह उसी प्रकार की सी चुनेगा। अगर वह इस सी को तलाक दे दे, तो फिर वह इसी प्रकार की सी चुनेगा।
एक व्यक्ति पत्नियों को बदलता जा सकता है, लेकिन जब तक वह स्वयं नहीं बदलता, कोई वास्तविक परिवर्तन हो नहीं सकता। केवल नाम बदलते हैं। एक व्यक्ति चुनाव बनाता है। वह विशिष्ट चेहरा पसंद करता है, उसे विशिष्ट नाक पसंद होती है, वह विशिष्ट आंखें पसंद करता है, उसे एक व्यवहार पसंद होता है। यह एक जटिल बात है। तुम एक विशेष प्रकार की नाक पसंद करते हो, लेकिन नाक मात्र नाक ही नहीं है। वह क्रोध वहन करती है, वह अहंता पास रखे है, वह मौन पहुंचाती है, वह शांति पहुंचाती है, वह बहुत सारी चीजों को साथ लिये हुए है।
अगर तुम एक खास तरह की नाक पसंद करते हो, तो तुम शायद उस व्यक्ति को पसंद कर रहे होओ जो तुम्हें क्रोधी होने को विवश कर सकता हो। एक अहंकारी व्यक्ति की अलग प्रकार की नाक होती है। वह तुम्हें सुंदर भी लग सकता है, लेकिन यह सुंदर लगता है केवल इस कारण कि तुम उस किसी की खोज में हो जो तुम्हारे चारों ओर नरक बना सके। देर—अबेर नरक पीछे—पीछे चला ही आयेगा। शायद तुम इसे संबंधित न कर पाओ, तुम इसे जोड़ न सको। जीवन जटिल है, और तुम इसमें इतने उलझे हुए होते कि तुम उसे जोड़ नहीं सकते। तुम केवल तभी देख पाओगे जब तुम इसके पार चले जाते हो।
यह बिलकुल उसी तरह है जब तुम हवाई जहाज में उड़ रहे होते हो बंबई के ऊपर। सारी बंबई देखी जा सकती है—उसका सारा नक्‍शा । लेकिन यदि तुम बंबई में रह रहे होते हो और सड्कों पर चलते हो, तो तुम सारे ढांचे को नहीं देख सकते। बंबई का सारा नक्‍शा—ढांचा उन व्यक्तियों द्वारा नहीं देखा जा सकता जो बंबई में रहते हैं। यह केवल उन्हें दिख सकता है जो उसके ऊपर स्सें। तब सारा ढांचा दिखाई देता है। तब चीजें ढांचे में दिखती हैं। अतिक्रमण का अर्थ है, मानवीय समस्याओं के पार चले जाना। तब तुम उनमें प्रवेश कर सकते हो और उन्हें देख सकते हो।
मैंने बहुत—बहुत लोगों के भीतर झांका है। जो कुछ वे करते हैं, वे सजग नहीं होते कि वे क्या कर रहे हैं। वे सजग होते हैं केवल जब परिणाम चले आते हैं। वे मिट्टी में बीज गिराते जाते हैं, लेकिन वे सजग नहीं होते। केवल जब उन्हें फल—प्राप्ति करनी होती है तो उन्हें होश आता है। और वे जोड़ नहीं बैठा सकते कि वे ही दोनों हैं—उनकी फसल के कारण भी और फसल पाने वाले भी।
एक बार तुम समझ लो कि तुम हो कारण, तो तुम मार्ग पर बढ़ चुके हो। अब बहुत सारी चीजें संभव हो जाती है। अब तुम कुछ कर सकते हो उस समस्या के बारे में जो तुम्हारी जिंदगी है। तुम उसे बदल सकते हो। स्वयं को बदलने मात्र से तुम उसे बदल सकते हो।
एक स्‍त्री मेरे पास आयी। वह बहुत धनी परिवार से है, बहुत भले परिवार से—सुसंस्कृत, परिष्कृत, शिक्षित। उसने पूछा मुझसे, 'अगर मैं ध्यान करना शुरू कर दूं तो क्या यह बात पति के साथ मेरे संबंध को गड़बड़ा देगी? 'और इससे पहले कि मैं उसे उत्तर देता, वह स्वयं कहने लगी, 'मैं जानती हूं यह बात अशांति बनाने वाली नहीं क्योंकि अगर मैं बेहतर हो जाऊं—ज्यादा शांत और ज्यादा प्रेमपूर्ण, तो यह मेरे संबंध को गड़बड़ा कैसे सकती है?'
लेकिन मैंने उससे कहा, 'तुम गलत हो। संबंध अस्त—व्यस्त होने ही वाला है। तुम बेहतर बनो कि बदतर, यह अप्रासंगिक है। तुम बदलते हो, दो में से एक व्यक्ति बदलता है, और संबंध में अड़चन आनी ही होती है। और यही है आश्चर्य। अगर तुम बुरे बन जाओ, तो संबंध में कोई ज्यादा बिगड़ाव नहीं आयेगा। अगर तुम अच्छे बन जाते हो, बेहतर, तो बस संबंध तहस—नहस होने ही वाला है। क्योंकि जब एक साथी नीचे गिरता है और बुरा बन जाता है, तो दूसरा बेहतर अनुभव करता है तुलना में। यह अहंकार पर चोट पड़ने की बात नहीं है। बल्कि यह अहंकार—संतुष्टि है।
इसलिए एक पत्नी अच्छा अनुभव करती है अगर पति शराब पीना शुरू कर दे क्योंकि अब वह नैतिक आचरण की उपदेशक बन सकती है। अब वह उस पर अधिक शासन जमा सकती है। अब, जब कभी वह घर में दाखिल होता है वह अपराधी की तरह दाखिल होता है। और बस, क्योंकि वह शराब पीता है तो, हर चीज जो वह कर रहा है, गलत हो जाती है। उतना भर काफी है क्योंकि अब पत्नी यह बहस बार—बार कहीं से सामने ला सकती है। तो अब हर चीज निंदित है जो पति करता है।
पर अगर पति या पत्नी ध्यानस्थ हो जाये, तब और भी गहरी समस्याएं उठ खड़ी होंगी क्योंकि दूसरे का अहंकार चोट खायेगा। उनमें से एक उच्च हो रहा है, और दूसरा ऐसा न होने देने की हर तरह से कोशिश करेगा। वह हर संभव मुसीबत खड़ी करेगा। और यदि ऐसा घटे भी कि एक ध्यानी बन जाये, तो दूसरा इसे न मानने की चेष्टा करेगा कि ऐसा घटित हुआ है। वह सिद्ध करेगा कि यह अभी तक नहीं घटा है। वह कहता ही रहेगा, 'तुम वर्षों से ध्यान पर जुटे हो और कुछ नहीं हुआ है। इसका क्या लाभ है? यह तो बेकार है। तुम फिर भी क्रोध करते हो, तुम तो वैसे ही बने रहे हो। ' दूसरा जोर देने की कोशिश करेगा कि कुछ नहीं हो रहा है। यह एक तसल्ली है उसके लिए।
और अगर कुछ वास्तव में घटित हुआ हो, अगर पत्नी या पति वास्तव में ही परिवर्तित हो गये हों, तब यह संबंध जारी नहीं रह सकता। यह असंभव है जब तक कि दूसरा भी बदलने को राजी न हो। किंतु स्वयं को बदलने के लिए राजी हो पाना बहुत कठिन है क्योंकि यह अहंकार पर चोट करता है। इसका अर्थ होता है कि जो कुछ तुम हो, गलत हो। परिवर्तन की आवश्यकता है।
इसलिए कभी कोई अनुभव नहीं करता कि उसे परिवर्तित होना है। हर कोई अनुभव करता है, 'सारे संसार को बदलना है, सिर्फ मुझे नहीं। मैं ठीक हूं बिलकुल ठीक, और संसार गलत है क्योंकि यह मेरे अनुसार काम नहीं करता। 'समस्त बुद्ध—पुरुषों की सारी चेष्टा बहुत सीधी है—यह है तुम्हें जागरूक बनाने के लिए कि जहां कहीं तुम हो, जो कुछ तुम हो, तुम हो कारण।

प्रश्‍न—2

क्यों छत लोग योग मार्ग पर एक दृष्टिकोण अपना लेते है—युद्ध का, संघर्ष का कड़े नियम पालने के प्रति अतिचितित होने का, और योद्धा जैसे होने का वस्‍तुत: एक योगी होने के लिए क्या यह आवश्यक है है?

 यह नितांत अनावश्यक है। और न केवल अनावश्यक है, बल्कि योग के मार्ग पर यह हर प्रकार की बाधाएं निर्मित करता है। योद्धा—जैसा दृष्टिकोण सबसे बड़ी अड़चन है जो संभव है क्योंकि कोई है नहीं जिससे लड़ा जाये। भीतर तुम अकेले हो। यदि तुम लड़ने लगते हो, तो तुम स्वयं को ही खंडित कर रहे हो।
यह सबसे बड़ी बीमारी है—बंट जाना, फ्ल्जिाएफ्रेनिक होना। और सारा का सारा संघर्ष निरर्थक है क्योंकि यह कहीं ले जाने वाला नहीं है। कोई नहीं जीत सकता। तुम दोनों तरफ हो। ज्यादा से ज्यादा तुम खेल सकते हो। तुम खेल सकते हो आख—मिचौनी का खेल। कई बार '' नामक हिस्सा जीतता है, कई बार '' नामक हिस्सा जीतता है, फिर दोबारा हिस्सा '', फिर दोबारा हिस्सा ''। इस तरीके से तुम चल सकते हो। कई बार वह जीतता है जिसे तुम अच्छा कहते हो। लेकिन बुरे के साथ लड़ते हुए, बुरे को जीतते हुए, अच्छा हिस्सा थक—हार जाता है और बुरा हिस्सा ऊर्जा एकत्रित कर लेता है। कभी न कभी वह बुरा हिस्सा उठेगा, और यह और आगे चल सकता है अनंत तक।
किंतु ऐसा योद्धा—जैसा भाव घटता क्यों है? अधिकतर लोग लड़ने क्यों लगते है? जिस क्षण वे रूपांतरण की सोचते है, वे लड़ने लगते हैं। क्यों? क्योंकि वे केवल एक ढंग जानते है जीतने का—और वह है लड़ने का। जो संसार बाहर है उसमें, बाह्य संसार में एक तरीका है विजयी होने का और वह है लड़ना—लड़ना और दूसरे को नष्ट करना। बाहरी जगत में केवल यही तरीका है विजयी होने का। तुम इस बाहर के जगत में लाखों—लाखों वर्षों से रह रहे हो और तुम हमेशा लड़ते रहे हो। अगर तुम ठीक से नहीं लड़ते तो कई बार हार जाते हो। कई बार विजयी होते हो, अगर अच्छी तरह लड़ते हो। तो मजबूती से लड़ने का यह एक पका अंदरूनी कार्यक्रम ही बन चुका है। विजयी होने का मात्र एक रास्ता है और वह है, कठोर लड़ाई के द्वारा।
जब तुम भीतर छूते हो, तब तुम प्रोग्राम, वही व्यवस्था भीतर ले जाते हो क्योंकि तुम केवल इसी से परिचित होते हो। किंतु भीतर के संसार में बिलकुल विपरीत है दशा—लड़ो और तुम हार जाओगे, क्योंकि लड़ने को कोई है ही नहीं। अंतर्जगत में विजयी होने का तरीका है छोड़ देना। समर्पण है तरीका विजयी होने का। आंतरिक स्वभाव को बहने देना, लड़ना नहीं—यह तरीका है विजयी होने का। नदी को बहने देना, उसे धकेलना नहीं—यही है मार्ग जहां तक कि अंतर्जगत का संबंध है। लेकिन यह बिलकुल विपरीत है उसके, जिसके तुम अभ्यस्त हो। तुम केवल बाह्य जगत को जानते हो, अत: शुरू में लडाई होगी ही। जो कोई भीतर प्रवेश करता है वह वही शस्त्र ले जाता है—वही भाव, वही लड़ाई, वही मोर्चाबंदी।
मेक्यावेली बाहर के संसार से संबंध रखता है; लाओसु पतंजलि और बुद्ध आंतरिक संसार से संबंध रखते हैं। और वे अलग चीजों को समझाते हैं। मेक्यावेली कहता है, आक्रमण सबसे अच्छा बचाव है। मत करो प्रतीक्षा। दूसरे के आक्रमण करने की प्रतीक्षा मत करो, क्योंकि फिर तो तुम पहले से ही हारने की ओर होते हो। तुम पहले ही हार चुके क्योंकि वह दूसरा शुरू कर चुका है। वह पहले ही आगे बढ़ गया है। तो शुरू कर देना हमेशा ज्यादा अच्छा रहता है। बचाव करने की प्रतीक्षा ही मत करो। हमेशा आक्रामक बनो। इससे पहले कि कोई दूसरा तुम पर आक्रमण करे, तुम. उस पर आक्रमण कर दो। और जितना संभव बन पड़े, उतनी ज्यादा चालाकी से लड़ी। जितना संभव हो सके उतनी बेईमानी के साथ। बेईमान बनो, चालाक बनो और आक्रमणशील बनी। धोखा दो, क्योंकि वही है एकमात्र तरीका। ये साधन हैं, जिनका सुझाव मेक्यावेली देता है। और मेक्यावेली एक ईमानदार आदमी है इसलिए वह ठीक वही सुझाता है, जो कुछ आवश्यक है।
पर अगर तुम लाओत्सु पतंजलि या बुद्ध से पूछो, तो वे एक अलग प्रकार की विजय की बात कह रहे हैं— आंतरिक विजय की। वहां चालाकी काम न देगी, आक्रामकता न चलेगी, क्योंकि धोखा तुम किसे दे रहे हो? किसे तुम हराने वाले हो? तुम अकेले हो वहां। बाह्य संसार में तुम कभी अकेले नहीं होते हो। दूसरे वहां होते हैं, वे हैं शत्रु। लेकिन अंतर्जगत में तुम अकेले ही हो। वहां कोई दूसरा नहीं है। वहां न कोई शत्रु है न कोई मित्र। यह एक पूर्णतया नयी स्थिति है तुम्हारे लिए। तुम पुराने हथियार ले जाओगे, लेकिन वे पुराने हथियार तुम्हारी पराजय का कारण बन जायेंगे। तो जब तुम बाह्य जगत से अंतर्जगत में प्रवेश करने जाओ, तो सब पीछे छोड देना जो तुमने बाहर से सीखा है। उससे मदद नहीं मिलने वाली है।
किसी ने रमण महर्षि से पूछा, 'मुझे क्या सीखना होगा मौन होने के लिए—स्वयं को जानने के लिए?' कहा गया है कि रमण महर्षि ने कहा, ' अंतर—आला तक पहुंचने के लिए तुम्हें कोई चीज सीखने की जरूरत नहीं। तुम्हें अनसीखा करने की जरूरत है; सीखना मदद न देगा। यह मदद करता है बाहर गति करने में। मदद तो करेगा अनसीखा करना।
जो कुछ तुमने सीखा है, उसे अनसीखा करो, उसे भूलो, गिरा दो उसे। भीतर बढ़ो बालसुलभ निदोंषपूर्ण ढंग से। चालाकी और होशियारी के साथ नहीं, बल्कि बच्चे जैसी आस्था और निर्दोषता के साथ। इस भाषा में मत सोचो कि कोई तुम पर आक्रमण करने वाला है। कोई नहीं है। अत: असुरक्षित मत अनुभव करो और प्रतिरक्षा का कोई इंतजाम मत करो। बने रहो सुभेद्य, ग्रहणशील, खुले। यही है अर्थ श्रद्धा का, आस्था का।
बाहर संदेह की आवश्यकता होती है, क्योंकि दूसरा वहां है। वह शायद तुम्हें धोखा देने की सोच रहा हो, इसलिए तुम्हें संदेह करना पड़ता है और संशयी होना होता है। किंतु भीतर संदेह की, अविश्वास की आवश्यकता नहीं होती। कोई नहीं है वहां तुम्हें धोखा देने को। जैसे तुम हो, बस वैसे ही वहां रह सकते हो।
हर कोई यह योद्धा—जैसा भाव भीतर भी ले जाता है, लेकिन इसकी जरूरत नहीं है। यह एक बाधा है, सबसे बड़ी बाधा। इसे बाहर छोड़ो। और तुम इसे सूत्र बना सकते हो याद रखने का कि जो कुछ बाहर आवश्यक है वह भीतर बाधा बनेगा। मैं कहता हूं 'जो कुछ भी! बेशर्त।भीतर ठीक विपरीत का प्रयास करना होता है। अगर संदेह बाहर मदद करता है वैज्ञानिक अनुसंधान में, तो श्रद्धा भीतर मदद करेगी धार्मिक अन्वेषण में। अगर आक्रामकता बाहर मदद करती है—सत्ता, प्रतिष्ठा और दूसरों के संसार में—तो गैर—आक्रामकता भीतर मदद देगी। अगर चालाक, हिसाबी—किताबी मन बाहर मदद करता है—तो एक निर्दोष, गैर—हिसाबी किताबी, बच्चों जैसा मन भीतर मदद देगा।
इसे खयाल में लेना—जो कुछ मदद देता है बाहरी जगत में, उसका ठीक विपरीत भीतर मदद देगा। तो पढ़ो मेक्यावेली का 'दि प्रिंस '। वह ढंग है बाहरी विजय पाने का। फिर मेक्यावेली के 'दि प्रिंस ' के बिलकुल विपरीत करो, और तुम भीतर पहुंच सकते हो। जरा मेक्यावेली को औंधा खड़ा कर दो, और वह लाओत्सु हो जाता है! बस, उसे शीर्षासन में रख दों—सिर के बल। तो अपने सिर पर खड़ा मेक्यावेली पतंजलि बन जाता है।
तो पढ़ना 'दि प्रिंस'। यह सुंदर है। सबसे सुनिश्चित कथन, जो संभव है बाहरी विजय के लिए। फिर पढ़ो लाओत्सु की 'ताओ तेह किंग' या पतंजलि का 'योग—सूत्र ' या बुद्ध का 'धम्मपद ' या जीसस का 'सरमन ऑन दि माउंट'। वे तो परस्पर विरोधी ही है। ठीक उल्टे। ठीक विपरीत।
जीसस कहते है, 'वे सौभाग्यशाली है जो विनम्र है क्योंकि वे पृथ्वी को विरासत में पायेंगे ' —जो विनम्र हैं, निर्दोष, कमजोर। किसी भी अर्थ में प्रबल नहीं। वे कहते हैं, 'सौभाग्यशाली हैं निर्धन, क्योंकि वे मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश करेंगे।और जीसस इसे स्पष्ट कर देते हैं कि उनका मतलब है 'अभिमान में निर्धन।उनके पास दावा करने को कुछ नहीं। वे नहीं कह सकते, 'मेरे पास यह है।वे किसी को कब्जे में नहीं रखते—न शान, न धन, न ही सत्ता या प्रतिष्ठा। वे किसी पर मालकियत नहीं बनाते। वे निर्धन है। वे दावा नहीं कर सकते, 'यह मेरा
हम दावा करते ही रहते हैं; 'यह मेरा है, वह मेरा है।जितना ज्यादा हम दावा कर सकते हैं उतना ज्यादा हम अनुभव करते, मैं हूं। बाह्य जगत में तुम्हारे मन का क्षेत्र जितना बड़ा होता है उतने ज्यादा तुम होते हो। अंतर्जगत में जितना कम होता है मन का क्षेत्र, उतने विशाल तुम होते हो। और जब मन का क्षेत्र मिट जाता है पूरी तरह और तुम शून्य हो जाते हो, तब—तब तुम महानतम होते हो। तब तुम होते हो विजयी। तब विजय घट चुकी है। योद्धा—जैसे भावों वाला चित्त, संघर्ष लड़ाई क्ले नियमों—अधिनियमों के प्रति अतिचितित, हिसाब—किताब योजनाएं बनाने वाला मन ही भीतर चला जाता है। क्योंकि यही तुमने बाहर सीखा है। तुम और कुछ जानते नहीं हो। इसलिए सद्गुरु की आवश्यकता है। वरना तुम अपने पुराने तौर—तरीके आजमाते चले जाओगे जो एकदम असंगत होते हैं अंतर्जगत में।
इसलिए दीक्षा की आवश्यकता है। दीक्षा में अंतर्निहित होता है कि कोई है जो तुम्हें वह मार्ग दिखा सके जिस पर तुम कभी चले नहीं हो। कोई जो तुम्हें अपने द्वारा झलक दे सके उस संसार की, उस आयाम की, जो तुम्हारे लिए बिलकुल अज्ञात है। तुम करीब—करीब अंधे हो उसके प्रति। तुम उसे नहीं देख सकते। क्योंकि आंखें केवल वही देख सकती हैं जो कुछ देखना उन्होंने सीखा है।
अगर तुम यहां आते हो और तुम दर्जी हो तो तुम चेहरों की ओर नहीं देखते, तुम वस्त्रों की ओर देखते हो। चेहरे कुछ बहुत अर्थ नहीं रखते, लेकिन कपड़ों को देखने भर से ही तुम जान लेते हो किस प्रकार का आदमी है। तुम एक विशेष भाषा जानते हो।
अगर तुम जूता बनाने वाले हो, तो तुम्हें वस्त्रों की ओर देखने की भी जरूरत नहीं होती। जूतों से पता चलेगा। एक चमार बस सड़क पर देखता रह सकता है और वह जानता है, कौन गुजर रहा है। वह आदमी कोई बड़ा नेता है या नहीं। केवल जूतों को देखते हुए वह बता सकता है कि वह कोई कलाकार है, बोहेमियन है, हिप्पी है, या धनवान; वह सुसंस्कृत, शिक्षित, अशिक्षित है या नहीं; वह ग्रामीण है या कौन है। केवल जूतों को देखने भर से वह जान लेता है क्योंकि जूते सारी खबर दे देते हैं। मोची वह भाषा जानता है। अगर कोई आदमी जीवन में जीत रहा हो, तो उसके जूते की अलग ही चमक होती है। अगर वह जीवन में हारा हुआ हो, तो उसके जूते हारे हुए लगते हैं। तब जूता फीका—फीका होता है। देख—रेख करवाया हुआ नहीं होता। और जूता बनाने वाला इसे जानता है।. उसे तुम्हारे चेहरे की ओर देखने की जरूरत नहीं है। जूता ही उसे हर बात बता देगा, जो वह जानना चाहता है।
हम कुछ सीखते हैं और फिर हम उसमें आबद्ध हो जाते हैं। फिर वही हम देखने लगते है। तुमने कुछ सीखा है, और तुमने बहुत से जीवन बरबाद किये है उन्हें सीखने में। अब यह गहराई में बद्धमूल है, अंकित हो चुका। यह तुम्हारे मस्तिष्क की कोशिकाओं का हिस्सा बन चुका है। लेकिन जब तुम भीतर मुड़ते हो तो वहां केवल अंधकार होता है, और कुछ नहीं। तुम वहां कुछ नहीं देख सकते। वह सारा जगत जिसे तुम जानते हो, अदृश्य हो जाता है।
यह ऐसे है, जैसे कि तुम कोई एक भाषा जानते हो और अचानक तुम एक देश में भेज दिये गये हो जहां कोई तुम्हारी भाषा नहीं समझता और तुम किसी और को नहीं समझते। लोग बोल रहे है और बड़—बड़ कर रहे हैं, और तुम अनुभव करते हो कि वे निरे पागल हैं। ऐसा लगता है जैसे कि अनाप—शनाप बोल रहे हों। और यह बहुत शोर से भरा हुआ लगता है क्योंकि तुम कुछ समझ नहीं सकते। वे बहुत जोर से बातें करते जान पड़ते है। लेकिन यदि तुम इसे समझ सको, तो सारी बात बदल जाती है। तुम इसके हिस्से बन जाते हो। तब यह अनाप—शनाप नहीं रहती। यह अर्थपूर्ण हो जाती है।
जब तुम भीतर प्रवेश करते हो, तब तुम केवल बाहर की भाषा जानते हो, इसलिए भीतर अंधकार होता है। तुम्हारी आंखें देख नहीं सकतीं, तुम्हारे कान सुन नहीं सकते, तुम्हारे हाथ अनुभव नहीं कर सकते। किसी की जरूरत होती है, कोई जो तुम्हें दीक्षा दे, तुम्हारे हाथ अपने हाथ में ले ले और तुम्हें आगे बढाये इस अज्ञात पथ पर जब तक कि तुम परिचित न हो जाओ; जब तक तुम अनुभव न करने लगो; जब तक तुम्हें अपने चारों ओर के किसी प्रकाश के प्रति, किसी अर्थ के प्रति, किसी सार्थकता के प्रति होश न आ जाये।
एक बार तुम पहली दीक्षा पा लेते हो, तो चीजें घटनी शुरू हो जायेंगी। लेकिन पहली दीक्षा कठिन बात है क्योंकि यह बिलकुल उल्टा घूमना है, एक संपूर्ण परिवर्तन विपरीत दिशा में। अचानक तुम्हारे अभिप्राय का संसार तिरोहित हो जाता है। तुम अपरिचित संसार में होते हो। तुम कोई चीज नहीं समझते। कहां बढ़े, क्या करें और इस दुर्व्यवस्था में से क्या बना लें! गुरु का इतना ही मतलब है कि कोई, जो जानता है। और यह अव्यवस्था, यह भीतरी अंधव्यवस्था, उसके लिए अव्यवस्था नहीं है; यह एक व्यवस्था बन गयी है, ब्रह्मांड—सी एक सुव्यवस्था, और वह तुम्हें इसमें ले जा सकता है।
दीक्षा का अर्थ है अंतर्जगत में झांकना किसी और की आंखों द्वारा। लेकिन बिना श्रद्धा के यह असंभव है क्योंकि तुम अपना हाथ थामने न दोगे। तुम किसी को तुम्हें अज्ञात में ले जाने न दोगे। और गुरु तुम्हें कोई गारंटी नहीं दे सकता। कोई गारंटी किसी काम की न होगी। जो कुछ वह कहे, तुम्हें उसे श्रद्धा पर ग्रहण करना पड़ता
पुराने दिनों में, जब पतंजलि अपने सूत्र लिख रहे थे, श्रद्धा बहुत सरल थी। विशेषकर पूरब में और विशेष रूप से भारत में, क्योंकि दीक्षा का एक ढांचा बाहरी संसार में भी निर्मित कर दिया गया था। उदाहरण के लिए : व्यापार, व्यवसाय परिवारों से संबंधित थे आनुवंशिकता द्वारा। एक पिता बच्चे को दीक्षा देता होगा व्यवसाय में, और स्वभावत: बच्चा अपने पिता पर आस्था रखता था। अगर पिता किसान या कृषक होता, तो वह बच्चे को खेतों पर ले जाता और वह उसे खेती की दीक्षा देता। जो कुछ व्यवसाय, जो कुछ भी व्यापार वह कर रहा होता था, वह युसी की दीक्षा बच्चे को देता।
पूरब में, बाहरी संसार में भी दीक्षा मौजूद होती थी। हर कुछ दीक्षित होने द्वारा किया जाता था। कोई जो जानता था, तुम्हें रास्ता दिखाता था। इससे बहुत ज्यादा मदद मिली क्योंकि फिर तुम दीक्षा से, तुम्हें ले जाने वाले से परिचित होते थे। तब, जब आंतरिक दीक्षा का समय आता था तो तुम श्रद्धा कर सकते थे।
श्रद्धा, आस्था कहीं ज्यादा सरल थी उस संसार में जो टेक्यालाजिकल नहीं था। टेकालाजिकल संसार में चालाकी, हिसाब—किताब, गणित, कुशलता की जरूरत होती है, निर्दोषता की नहीं। टेक्यालाजिकल संसार में अगर तुम निर्दोष हो, तो नासमझ मालूम पड़ोगे। पर अगर तुम चालाक हो तो तुम होशियार, बुद्धिमान दिखाई दोगे। हमारे विश्वविद्यालय इसके अतिरिका कुछ नहीं कर रहे। ये तुम्हें कुशल, चालाक, स्वार्थी बना रहे हैं। ज्यादा हिसाबी—किताबी, और ज्यादा धूर्त होते हो, तो तुम संसार में अधिक सफल हो जाओगे।
अतीत में बिलकुल विपरीत दशा थी पूरब में। अगर तुम धूर्त होते थे तो तुम्हारे लिए बाहर के संसार में सफल होना भी असंभव होता था। केवल निर्दोषता स्वीकार की गयी थी। बाह्य कुशलता की कोई बहुत ज्यादा कीमत न थी, बल्कि आंतरिक गुण बहुत ज्यादा मूल्यवान माना गया था।
अगर कोई व्यक्ति चालाक होता और वह ज्यादा अच्छा जूता बनाता, तो पुराने समय में पूरब में कोई उसके पास न जाता। वे उस व्यक्ति के पास जाते जो सरलचित्त होता था। वह शायद उतने अच्छे जूते न बनाता होता, लेकिन वे उस व्यक्ति के पास जाते जो निर्दोष होता था क्योंकि जूता मात्र एक चीज होने से कुछ ज्यादा है। यह
उस व्यक्ति का गुण—स्वभाव साथ में लिये होता है जिसने इसे बनाया होता है। तो अगर धूर्त और चालाक शिल्पी होता, तो कोई उसके पास न जाता। वह कष्ट उठाता, वह असफलता पाता। लेकिन अगर वह गुणवान चित्त वाला होता, निर्दोष—व्यक्तित्व वाला, तो लोग उसके पास जाते। चाहे उसकी चीजें बदतर होतीं, लोग उसकी चीजों को ज्यादा महत्वपूर्ण समझते।
कबीर एक जुलाहे, एक बुनकर थे और वे बुनकर ही रहे। सम्बोधि प्राप्ति के बाद भी उन्होंने बुनाई जारी रखी। और वे इतने आनंदपूर्ण थे, इतने आनंदमग्न कि उनकी बुनाई बहुत अच्छी नहीं हो सकती थी। वे नाच रहे होते और गा रहे होते और बुन रहे होते! बहुत गलतियां होतीं और बहुत भूलें होतीं, लेकिन उनकी चीजें मूल्यवान जानी जातीं, अति मूल्यवान।
बहुत लोग बस इसी की प्रतीक्षा करते कि कब कबीर कोई चीज लायेंगे। यह मात्र कोई चीज न होती, उपयोगी वस्तु ही न होती, यह तो कबीर के पास से आयी होती। स्वयं चीज में एक आंतरिक गुण होता था। यह कबीर के हाथों में से आयी थी। कबीर ने इसका स्पर्श किया था और कबीर इसके आसपास नाचते रहे थे जब वे इसे बुन रहे थे। और वे निरंतर स्मरण कर रहे थे परमात्मा का। तो वह चीज, कपड़ा या पोशाक या कोई भी चीज पुनीत हो जाती, पावन। बात परिमाण की न थी; गुण की थी। शिल्पगत पहलू द्वितीय था, मानवीय पहलू प्राथमिक बात थी।
अत: पूरब में, बाहरी संसार में भी उन्होंने एक ढांचे की व्यवस्था की हुई थी, जो तुम्हारी मदद करता जब तुम भीतर की ओर मुड़ते, जिससे तुम उस आयाम से पूरी तरह अपरिचित न होते थे। कुछ तो था जो तुम जानते। कुछ मार्गदर्शक दिशाएं तुम्हारे पास का कोई प्रकाश। तुम समग्र अंधकार में नहीं सरक रहे होते थे।
और बाहरी संबंधों में होने वाली यह आस्था हर कहीं थी। एक पति विश्वास ही न कर सकता था कि उसकी पत्नी विश्वासघात कर सकती है। यह करीब—करीब असंभव ही था। और अगर पति मर जाता, तो पत्नी उसके साथ मर सकती थी क्योंकि जीवन ऐसी सम्मिलित होने की घटना थी। उसकी मृत्यु के बाद, यह अर्थहीन होता उसके बिना जीना, जिसके साथ जीवन इतनी सम्मिलित हुई चीज बन चुका होता था।
यह घटना आगे चल कर कुरूप हो गयी, पर आरंभ में यह सुंदरतम चीजों में से एक थी जो कभी भी इस धरती पर घटी है। तुम किसी को प्रेम करते थे और वह समाप्त हो गया, तो तुमने उसी के साथ ही समाप्त हो जाना चाहा। उसके बिना रहना तो मृत्यु से भी ज्यादा बुरा होता। मृत्यु ज्यादा अच्छी और चुनने लायक थी। ऐसी थी आस्था, जो बाहर की चीजों में भी बनी रहती थी। पत्नी और पति के बीच का संबंध एक बाहरी चीज ही है।आस समाज श्रद्धा के, आस्था के, प्रामाणिक साझेदारी के आसपास गतिमान हो रहा था। और यह सहायक था। जब भीतर बढ़ने का समय आता, तो ये सारी चीजें मदद करतीं व्यक्ति के सरलता से दीक्षित होने में, किसी के प्रति श्रद्धा रखने में, समर्पण करने में।
लड़ाई, संघर्ष, आक्रामकता, ये सब बाधाएं हैं। उन्हें साथ मत लिये रहो। जब तुम भीतर की ओर मुड़ते हो, तो उन्हें द्वार पर छोड आओ।
यदि तुम उन्हें पास रखे रहते हो, तुम भीतर के मंदिर को खो दोगे; तुम इस तक कभी न पहुंचोगे। इन चीजों के साथ तुम भीतर की ओर नहीं बढ़ सकते।

प्रश्‍न—3

क्या वैराग्य अनासक्ति या निराकांक्ष स्वयं में पर्याप्त नहीं है किसी को सांसारिक बंधन से मुका करने के लिए? तब क्या प्रयोजन हुआ योग के अनुशासन का अभ्यास का प्रयास और कार्यकलाप का?

 वैराग्य पर्याप्त है, निराकांक्षा पर्याप्त है। फिर किसी अनुशासन की आवश्यकता न रही। लेकिन कहां है वह निराकांक्ष? यह है नही। इसे मदद देने को अनुशासन की आवश्यकता है। अनुशासन आवश्यक है केवल इसीलिए कि निराकांक्षा अपनी संपूर्णता में तुम्हारे भीतर नहीं है।
अगर निराकांक्षा वहां होती है, तब तो किसी चीज का अभ्यास करने की कोई बात ही नही। किसी अनुशासन की जरूरत नहीं। तुम मुझे सुनने नहीं आओगे, तुम पतंजलि के सूत्रों को नहीं पढ़ोगे। अगर इच्छा रहितता, निराकांक्ष पूर्ण है, तो पतंजलि निरर्थक है। अपना समय पतंजलि के सूत्रों में क्यों गवाते हो? फिर मै निरर्थक हूं। तो क्यो आते हो मेरे पास भू:
तुम एक अनुशासन की तलाश में हो। तुम किसी अनुशासन की तलाश मे भटक रहे हो, जो तुम्हें रूपांतरित कर दे। तुम शिष्य हो, और शिष्य का अर्थ ही है वह व्यक्ति, जो अनुशासन की खोज में है। और तुम स्वयं को धोखा मत दो। अगर तुम कृष्ण मूर्ति के पास भी जाते हो, तो तुम अनुशासन की खोज में हो। क्योंकि वह जो जरूरत में नहीं है, जायेगा नहीं! चाहे कृष्णमूर्ति कहते है कि किसी को भी शिष्य होने की जरूरत नहीं; किसी अनुशासन की आवश्यकता नहीं; तो तुम क्यों जाते हो वहां? उनके संकल्प के ये शब्द तुम्हारा अनुशासन बन जायेंगे। तुम उनके आसपास एक ढांचा निर्मित कर लोगे। और तुम उस ढांचे का अनुसरणकरना आरंभ कर दोगे
निराकांक्षा नहीं है भीतर, इसलिए तुम तकलीफ में हो। और कोई व्यक्ति दुख भोगना पसंद नहीं करता है, हर कोई दुख के पार हो जाना चाहता है। दुख का अतिक्रमण कैसे करें? यही है, जिसमें अनुशासन तुम्हारी मदद करेगा। अनुशासनकेवलएकसाधनहैछलांगलगानेकेलिएतुम्हेंतैयारकरनेका—इच्छारहिततामेंछलांग लगाने के लिए। अनुशासन का अर्थ है अभ्यास।
तुम अभी तैयार नहीं हो। तुम्हारे पास बहुत स्थूल यंत्र है। तुम्हारा शरीर और तुम्हारा मन, वे स्थूल हैं। वे सूक्ष्म को ग्रहण नहीं कर सकते। तुम समस्वरित नहीं हो। सूक्ष्म को पक्कने के लिए तुम्हें तालमेल बिठाना होगा। तुम्हारी स्थूलता मिटानी होगी। इसे खयाल में लेना : सूक्ष्म को ग्रहण करने के लिए तुम्हें सूक्ष्म होना होगा। जैसे तुम हो, शायद ईश्वर तुम्हारे आस पास होता है, लेकिन तुम इससे सपर्क नहीं बना सकते।
यह एक रेडियो जैसा ही है जो शायद यहीं कमरे में हो लेकिन कार्य न कर रहा हो। कुछ तार गलत ढंग से जुडे हुए हैं या टूटे हुए है या कोई खूटी खो गयी है। रेडियो है यहां, रेडियो की तंरगे निरंतर गुजर रही हैं, लेकिन रेडियो के सुरों में ताल में लन ही बैठा है। वह ग्रहण शील नहीं बन सकता।
तुम तो बस एक रेडियो जैसे हो, जो उस हालत मे नही है कि कार्य कर सके। बहुत सारी चीजें खोयी हुई है, बहुत चीजें गलत ढंग से जुड़ी हुई है।अनुशासन' का अर्थ है, तुम्हारे रेडियो को क्रियाशील, ग्रहणशील, समस्वरित बनाना। दिव्य तरंगें तुम्हारे चारों ओर है। एक बार तुम स्वरसंगति पा जाते हो, तो वे अभिव्यक्त हो जाती हैं। वे व्यक्त हो सकती हैं तुम्हारे द्वारा ही। और जब तक वे तुम्हारे द्वारा व्यक्त नहीं होती, तुम जान नही



 सकते उन्हें। हो सकता है वे मेरे द्वारा व्‍यक्‍त हो चुकी हों, वे कृष्णमूर्ति या किसी और के द्वारा व्‍यक्‍त हो चुकी हों, लेकिन यह बात तुम्हारा रूपांतरण नहीं बन सकती।
वस्तुत: तुम नहीं जान सकते कि कृष्णमूर्ति के भीतर, गुरजिएफ के भीतर क्या घट रहा है—उनके भीतर क्या घट रहा है, किस ढंग की समस्वरता घट रही है, उनका यंत्र किस तरह इतना सूक्ष्म हो गया है कि यह ब्रह्मांड का सूक्ष्मतम संदेश पकड़ लेता है, कि किस प्रकार अस्तित्व स्वयं को इसके द्वारा प्रकट करने लगता है!
अनुशासन का अर्थ है, तुम्हारे भीतर की यंत्र—संरचना को परिवर्तित करना; इसे समस्वरित करना; इसे एक उपयुक्त साज बना देना ताकि यह अभिव्यक्तिपूर्ण और ग्रहणशील हो सके। कभी—कभी यह बिना अनुशासन के सयोगवशात भी घट सकता है। रेडियो मेज से गिर सकता है। मात्र गिरने से, केवल संयोग द्वारा, कुछ तार शायद जुड़ जायें या अलग हो जायें। मात्र गिरने से ही रेडियो किसी स्टेशन से जुड़ सकता है। तब यह कुछ व्‍यक्‍त करने लगेगा, लेकिन यह तो एक अंधव्यवस्था होगी।
यह बहुत बार घट चुका है। कई बार संयोग द्वारा लोग दिव्यता को जान गये और भगवत्ता को अनुभव कर लिया। लेकिन फिर वे पागल हो जाते हैं क्योंकि वे अनुशासित नहीं होते इतनी बड़ी घटना को धारण करने के लिए। वे तैयार नहीं होते हैं। वे इतने छोटे हैं और इतना विशाल महासागर उन पर टूट पड़ता है। ऐसा घटित हुआ है। सूफी दर्शन में ऐसे व्यक्तियों को प्रभु के मतवाले कहते हैं। वे उन्हें कहते हैं 'मस्त'
बहुत लप्तो, कभी—कभी बिना अनुशासन के, किसी संयोग द्वारा, किसी गुरु द्वारा, किसी गुरु के प्रसाद द्वारा या केवल किसी गुरु की मौजूदगी द्वारा समस्वरित हो जाते हैं। उनका देह—मन का पूरा रचनातंत्र तैयार नहीं होता है, लेकिन कोई हिस्सा क्रियाशील होना शुरू कर देता है। तब वे व्यवस्था के बाहर होते हैं। तब तुम अनुभव करोगे कि वे पागल है, क्योंकि वे कुछ बातें कहने लगेंगे जो असंगत दिखती हैं। वे भी अनुभव कर सकते है कि वे बातें असंगत हैं, लेकिन वे कुछ कर नहीं सकते। कुछ आरंभ हो गया है उनमें, वे रोक नहीं सकते इसे।
वे एक विशिष्ट मस्ती का अनुभव करते हैं। इसीलिए वे कहलाते हैं 'मस्त' —खुश, प्रसन्न लोग। लेकिन वे बुद्ध जैसे नहीं होते है। वे बुद्ध—पुरुष नहीं होते। और यह कहा जाता है कि 'मस्तो' के लिए, इन आनंदित लोगों के लिए जो पागल हो गये हैं, बहुत कुशल गुरु की जरूरत होती है क्योंकि अब वे स्वयं के साथ कुछ नहीं कर सकते। वे तो बस अराजकता में हैं। सुखपूर्वक हैं इसमें, पर एक गड़बड़ी में। अब वे अपने से कुछ नहीं कर सकते।
पुराने दिनों में, महान सूफी गुरु सारी पृथ्वी पर इधर से उधर घूमते। जब कभी वे सुनते कि कोई 'मस्त' कहीं है, कोई मतवाला—पागल है कहीं, तो वे वहां जाते और वे उस आदमी की मदद करते उसका तालमेल ठीक बैठाने में।
इस शताब्दी में ही, मेहरबाबा ने यह कार्य किया है—इस प्रकार का एक बड़ा कार्य, एक दुर्लभ कार्य। निरंतर, कई वर्षों के लिए वे भारत भर की यात्रा करते रहे। और जिन स्थानों को देखने जाते, वे पागलखाने थे। क्योंकि पागलखानों में बहुत 'मस्त' रह रहे होते हैं। किन्तु तुम कोई फर्क नहीं कर सकते दोनों के बीच कि कौन पागल है और कौन 'मस्त' है। वे दोनों ही पागल है। पर कौन वास्तव में पागल है और कौन पागल है केवल एक दिव्य संयोग के कारण—इस कारण कि कोई समस्वरता घट गयी है किसी संयोग द्वारा? इसमें तुम कोई भेद नहीं कर सकते।
बहुत 'मस्त' वहां पागलखानों में हैं, इसलिए मेहरबाबा यात्रा करते और वे पागलखानों में जाकर रहते। वे मदद करते और सेवा देते उन 'मस्तों' को, उन पागलों को। और उनमें से बहुत अपने पागलपन से बाहर हो गये और अपनी यात्रा शुरू कर दी संबोधि की ओर।
पश्चिम में बहुत, लोग पागलखानों में हैं, पागलों के आश्रमों में। बहुत हैं जिन्हें मन: चिकित्सीय सहायता की कोई जरूरत नहीं क्योंकि मनसविद उन्हें केवल सामान्य ही बना सकते हैं फिर से। जो संबोधि को उपलब्ध हो चुका हो, उसकी मदद की जरूरत है उन्हें, मनसविद की नहीं; क्योंकि वे बीमार नहीं हैं। या अगर वे रुग्ण हैं तो वे रुग्ण हैं एक दिव्य रोग से। और तुम्हारी स्वस्थता उस रुग्णता के सामने कुछ नहीं है। वह रुग्णता बेहतर है। तुम्हारी सारी 'स्वस्थता' गंवा देने लायक है। किंतु तब अनुशासन की जरूरत होती है।
भारत में यह घटना बहुत बड़ी नहीं रही, जैसी यह मुसलमानी देशों में रही है। इसीलिए सूफियों के पास विशेष विधियां हैं इन 'मस्त' लोगों को मदद करने की—प्रभु के पागलों को।
किंतु पतंजलि ने इतनी सूक्ष्म पद्धति निर्मित कर दी है कि किसी सांयोगिक दुर्घटना की कोई जरूरत नहीं रही। वह अनुशासन इतना वैज्ञानिक है कि अगर तुम उस अनुशासन में से गुजरते हो तो तुम बुद्धत्व तक पहुंच जाओगे मार्ग पर पागल हुए बिना। यह एक संपूर्ण प्रणाली है।
सूफी धर्म अभी भी कोई संपूर्ण प्रणाली नहीं है। बहुत सारी चीजों का अभाव है इसमें। और उनका अभाव है मुसलमानों की हठी मनोवृत्तियों के कारण। वे इसे इसके शिखर तक, पराकाष्ठा तक विकसित होने नहीं देते। और सूफी साधना को इस्‍लामी धर्म के ढांचे—ढर्रे के पीछे चलना पड़ता है। मुसलमानी धर्म के ढांचे के कारण ही सूफी मार्ग मस्तों के पार नहीं जा पाया और संपूर्ण नहीं हो पाया।
पतंजलि किसी धर्म के पीछे नहीं चलते, वे अनुगमन करते हैं केवल सत्य का। वे हिंदूवाद या मुइस्तमवाद या किसी भी 'वाद' के साथ कोई समझौता न करेंगे। वे वैज्ञानिक सत्य को ही ग्रहण करते हैं। सूफियों को समझौता करना पड़ता था। उन्हें करना पड़ता उन कुछ सूफियों के कारण जिन्होंने कोशिश की थी कोई भी समझौता न करने की। उदाहरण के लिए बिस्ताम के बायजीद या अलहिल्लाज मंसूर—उन्होंने कोई समझौता नहीं किया था। और तब उन्हें मार डाला गया, उनका वध कर दिया गया।
इसलिए सूफी गोपनीयता में उतर गये। उन्होंने अपने विज्ञान को पूर्णतया रहस्य बना दिया। और वे केवल अंशों को, हिस्सों को ज्ञात होने देते—केवल उन अंशों को, जो इसलाम और उसके ढांचे के उपयुका होते। दूसरे सारे हिस्से गोपनीय रखे गये। अत: संपूर्ण प्रणाली ज्ञात नहीं है, यह कार्य नहीं कर रही है। और हिस्सों के द्वारा तो बहुत लोग पागल हो जाते है।
पतंजलि की पद्धति संपूर्ण है, और अनुशासन की आवश्यकता है। इससे पहले कि तुम भीतर के अतात संसार में उतरी, एक गहन अनुशासन की आवश्यकता होती है, ताकि कोई दुर्घटना संभव न हो। पर तुम अनुशासन के बिना आगे बढ़ते हो, तो फिर बहुत सारी चीजें संभव हैं।
वैराग्य पर्याप्त है, किंतु वास्तविक वैराग्य तुम्हारे हृदय में है नहीं। अगर वह वहां है, फिर तो कोई समस्या नहीं। फिर पतंजलि की पुस्तक बंद कर दो और इसे जला दो। यह एकदम अनावश्यक है। पर वह असली वैराग्‍य वहां होता नहीं। और बेहतर है धीरे— धीरे अनुशासित मार्ग पर बढ़ना, जिससे तुम किसी दुर्घटना का शिकार नहीं होते। अन्यथा दुर्घटनाएं घटती हैं; यह संभावना मौजूद रहती है।
बहुत सारी पद्धतियां संसार में काम कर रही है, पर कोई प्रणाली इतनी संपूर्ण नहीं जितनी पतंजलि की है क्योंकि किसी देश ने इतने लंबे समय के लिए प्रयोग नहीं किया है। और पतंजलि इस प्रणाली के आविष्कारक नहीं हैं। वे तो केवल सुव्यवस्था देने वाले हैं। योगमार्ग ने विकास पाया था, पतंजलि से हजारों वर्ष पहले। बहुत लोगों ने काम किया था। पतंजलि ने तो बस हजारों वर्षों के कार्य का सार दे दिया।
किंतु उन्होंने इसे ऐसे ढंग से बनाया है कि तुम खतरे के आगे बढ़ सकते हो। तुम भीतर गति कर रहे हो, तो यह मत सोच लेना कि तुम सुरक्षित संसार की ओर सरक रहे हो। यह संकटपूर्ण हो सकता है। यह खतरनाक भी है और तुम इसमें भटक सकते हो। और अगर तुम इसमें भटक जाते हो, तो तुम पागल हो जाओगे। इसीलिए कृष्णमूर्ति जैसे शिक्षक जो जोर देते हैं कि गुरु की जरूरत नहीं है वे खतरनाक हैं। क्योंकि लोग जो अदीक्षित हैं, शायद उन्हीं का दृष्टिकोण अपना लें और अपने से ही काम करना शुरू कर दें।
खयाल रखना, अगर तुम्हारी कलाई घड़ी बिगड़ भी जाती है, तो तुम्हारी ऐसी प्रवृत्ति और कौतूहल है—क्योंकि यह वृत्ति बंदरों से चली आयी है—कि तुम उसे खोलते हो और कुछ करते हो। कठिन होता है इसे रोकना। तुम विश्वास नहीं कर सकते कि तुम इसके बारे में कुछ नहीं जानते। तुम मालिक हो सकते हो किंतु घड़ी का मालिक होना भर ही यह अर्थ नहीं रखता कि तुम कुछ जानते हो। इसे खोलना मत! यह ज्यादा अच्छा हो कि उसे सही व्यक्ति के पास ले जाओ जो इन चीजों के बारे में जानता हो। और बड़ी तो एक सीधी यंत्ररचना है जबकि मन इतनी बड़ी जटिल यंत्ररचना है। तो इसे अपने से कभी खोलना मत, क्योंकि जो कुछ तुम करते हो, गलत होगा।
कभी—कभी यह होता है कि तुम्हारी घड़ी खराब हो जाती है, तो तुम बस इसे हिला देते हो और यह चलने लगती है किंतु यह कोई वैज्ञानिक कौशल नहीं है। कई बार यह होता है कि तुम कुछ करते हो, और केवल भाग्यवश, संयोगवश तुम्हें प्रतीत होता है कि कुछ घट रहा है। पर तुम सिद्ध नहीं बन गये हो। और अगर यह एक बार घट गया है तो इसे फिर मत आजमाना, क्योंकि अगली बार तुम घड़ी को झटका दो, तो शायद यह हमेशा के लिए बंद हो जाये। यह घडी को झटके देना कोई विज्ञान नहीं है।
संयोगों (ऐक्सडेंट्स) द्वारा मत आगे बढ़ो। अनुशासन बचाव का एक उपाय ही है; संयोगों द्वारा नहीं बढ़ो। गुरु के साथ आगे बढ़ो, जो जानता है कि वह क्या कर रहा है। जो जानता है अगर कुछ गलत हो जाता है, और जो तुम्हें सम्यक मार्ग पर ला सकता है। गुरु, जो तुम्हारे अतीत के प्रति सजग होता है और जो तुम्हारे भविष्य के लिए भी जागरूक होता है; जो तुम्हारे अतीत और भविष्य को एक दूसरे से जोड़ सकता है।
इसलिए भारतीय शिक्षा में गुरुओं पर इतना ज्यादा जोर है। वे जानते थे। और जो वे कहते थे, उसका ठीक—ठीक वही अर्थ होता था। क्योंकि कोई इतना ज्यादा जटिल यंत्र नहीं होता जितना कि मानव—मन। कोई कंप्यूटर इतना जटिल नहीं होता है जैसा कि मनुष्य का मन।
आदमी अभी तक मन के जैसी कोई चीज विकसित करने लायक नहीं हुआ है। और मैं नहीं समझता कि यह कभी विकसित होने भी वाली है। कौन विकसित करेगा इसे? अगर मानव—मन कोई चीज विकसित कर सके, तो यह हमेशा निम्नतर और कमतर ही होनी चाहिए, उस मन से जो इसे निर्मित करता है। कम से कम एक बात तो निश्चित है कि जो कुछ भी मानव—मन निर्मित करता है, वह निर्मित की हुई चीज मानव—मन का निर्माण नहीं कर सकती। तो मानव—मन सर्वाधिक उच्च बना रहता है, सबसे उत्कृष्ट ढंग की जटिल यंत्ररचना।
कुछ मत करो मात्र जिज्ञासा के कारण, या सिर्फ इसीलिए कि दूसरे उसे कर रहे हैं। दीक्षित हो जाओ और फिर उसके साथ आगे बढ़ो, जो मार्ग को ठीक से जानता हो; वरना परिणाम पागलपन हो सकता है। यह पहले घट चुका है, और बिलकुल यही अभी भी घट रहा है बहुत से लोगों को।
पतंजलि संयोग में, एक्सिडेंट्स में विश्वास नहीं करते। वे वैज्ञानिक सुव्यवस्था में विश्वास करते हैं। इसलिए वे एक—एक चरण आगे बढ़ते है। और वे इन दो बातों को अपना आधार बना लेते हैं : वैराग्य—इच्छारहितता और अभ्यास—सतत, बोधपूर्ण आंतरिक अभ्यास। अभ्यास साधन है और वैराग्य है साध्य। इच्छाविहीनता है साध्य और सतत, बोधपूर्ण अभ्यास है साधन।
किंतु साध्य आरंभ होता है बिलकुल आरंभ से। और अंत छिपा रहता है आरंभ में। वृक्ष छिपा हुआ है बीज में, इसलिए आरंभ में ही गर्भित है अंत। इसीलिए पतंजलि कहते हैं कि इच्छारहितता की आरंभ में भी जरूरत होती है। आरंभ के भीतर ही है अंत और अंत के भीतर भी आरंभ होगा।
गुरु भी, जब कि वह सिद्ध हो चुका हो, पूर्ण हो चुका हो, फिर भी वह अभ्यास जारी रखता है! यह असंगत लगेगा तुम्हें तो। तुम्हें अभ्यास करना पड़ता है क्योंकि तुम आरंभ पर हो और लक्ष्य उपलब्ध हुआ नहीं है, लेकिन जब लक्ष्य उपलब्ध भी हो जाता है, तो भी अभ्यास जारी रहता है। अब यह सहज स्वाभाविक हो जाता है, पर यह बना रहता है। यह कभी थमता नहीं। यह थम सकता नहीं, क्योंकि अंत और आरंभ दो चीजें नहीं हैं। अगर वृक्ष है बीज में, तो बीज फिर वृक्ष में चला आयेगा।
किसी ने बुद्ध से पूछा—उनके शिष्यों में से एक पूर्णकाश्यप, उसने पूछा, 'हम देखते हैं, भत्ते, कि आप अब तक भी एक शुनिश्चित अनुशासन का पालन करते है।
बुद्ध फिर भी एक निश्चित अनुशासन पर चल रहे थे। वे एक सुनिश्चित ढंग से चलते, वे एक निश्चित ढंग से बैठते, वे जागरूक हुए रहते, वे निश्चित भोज्य पदार्थ ही खाते, वे निश्चित ढंग से व्यवहार करते—हर चीज अनुशासनपूर्ण जान पड़ती।
तो पूर्णकाश्यप ने कहा, 'आप सखुद्ध हो चुके हैं, किंतु हम अनुभव करते हैं कि तब भी आप एक सुनिश्चित अनुशासन को रखे हुए हैं।बुद्ध बोले, 'यह इतना ज्यादा पका और गहरा हो चुका है कि अब मैं इसके पीछे नहीं चल रहा हूं। यह मेरे पीछे चल रहा है। यह एक छाया बन चुका है। मुझे जरूरत नहीं इसके बारे में सोचने की। वह है यहां। सदा है। यह छाया बन चुका है।
अत: अन्त है आरंभ ही में, और आरंभ भी बना हुआ होगा अंत में। ये दो चीजें नहीं हैं, बल्कि दो छोर हैं एक ही घटना के।
आज इतना ही


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