दिनांक 28 सितम्बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना
प्रश्न-सार
।--कविता को एक
नई विधा, एक नया आयाम देने वाले श्री गिरजाकुमार माथुर,
मेरे गांव अशोकनगर के निवासी हैं। इन दिनों भी वहीं रहते हैं। आप
में उनकी रुचि है। कुछ किताबें भी पढ़ी हैं, टेप-प्रवचन में
भी रुचि दिखाते हैं। कहते हैं--एक बार साक्षात्कार की उत्सुकता तो है, परंतु उनका व्यक्तित्व विवादास्पद होने के कारण घबड़ाता हूं। उचित समझें तो
कुछ कहने की कृपा करें।
2—जीवन इतना
उलटा-उलटा क्यों मालूम होता है? सभी कुछ अस्तव्यस्त
है।
इसमें परमात्मा
की क्या मर्जी है?
3—कोई दस हजार
वर्ष पहले वेद के ऋषियों ने एक प्रश्न पूछा था--कस्मै देवाय हविषा विधेम? हम किस देव की स्तुति व उपासना करें? क्या यह प्रश्न
आज भी प्रासंगिक नहीं है? क्या इस पर पुनः कुछ कहने की
अनुकंपा करेंगे?
पहला प्रश्न:
भगवान! कविता को
एक नई विधा, एक नया आयाम देने वाले श्री गिरजाकुमार माथुर,
मेरे गांव अशोकनगर के निवासी हैं। इन दिनों भी वहीं रहते हैं। आप
में उनकी रुचि है। कुछ किताबें भी पढ़ी हैं, टेप-प्रवचन में
भी रुचि दिखाते हैं। कहते हैं--एक बार साक्षात्कार की उत्सुकता तो है, परंतु उनका व्यक्तित्व विवादास्पद होने के कारण घबड़ाता हूं।
उचित समझें तो
कुछ कहने की कृपा करें।
प्रेम
वेदांत! श्री गिरजाकुमार माथुर से ऐसी आशा न थी। इतनी लचर बात, इतनी थोथी बात, इतना विचारशील कवि कहेगा, ऐसा मैं सोच भी नहीं सकता था। विवादास्पद हूं, यही
तो आने का कारण होना चाहिए। अगर विवादास्पद होने के कारण गिरजाकुमार माथुर आने से
रुकते हैं, घबड़ाते हैं, तो सुकरात से
भी नहीं मिल सकते थे, और जीसस से भी नहीं, और बुद्ध से भी नहीं, और लाओत्सु से भी नहीं। तब तो
इतिहास में जो भी ज्योतिर्मय पुरुष हुए हैं, उनमें से किसी
के भी पास गिरजाकुमार माथुर नहीं जा सकते थे। वे सभी विवादास्पद थे।
अगर विवादास्पद होने से डर लगता हो, तब तो जिसने भी सत्य जाना है उसके पास जाना न हो पाएगा। तब तो
पंडित-पुरोहितों के पास ही जा सकते हो; वे विवादास्पद नहीं
होते। उतना उनका बल भी नहीं होता। उतना उनका अनुभव भी नहीं होता। सत्य की उनकी
अनुभूति नहीं होती है, इसलिए विवादास्पद नहीं होते। लीक पकड़
कर चलते हैं--भेड़चाल; परंपरा से बंधे हुए; इंच भर इधर-उधर नहीं होते रूढ़ि से। इसलिए विवाद पैदा नहीं होता। और जो भेड़
की तरह जी रहा है, जो समाज की जड़ मान्यताओं, सड़ी-गली धारणाओं को चुपचाप स्वीकार किए बैठा है, ऐसे
गुलाम को, ऐसे दास को सत्य का कोई अनुभव हो सकता है?
सत्य तो उन्हें अनुभव होता है जो
विद्रोही हैं, जो मौलिक रूप से क्रांतिमय हैं। क्रांतिकारी ही
नहीं--जो स्वयं क्रांति हैं।
गिरजाकुमार माथुर अगर मेरे विवादास्पद
होने के कारण रुक रहे हैं तो बड़े गलत कारण से रुक रहे हैं। अगर कोई व्यक्ति
विवादास्पद न हो तो जाने योग्य ही नहीं है। विवादास्पद नहीं है, इसका अर्थ ही यह है कि अतीत का गुलाम है। जो मुर्दा का पूजक है, मरे बीते पदचिह्नों पर चल रहा है, वही विवादास्पद नहीं
होता। सत्य तो सदा विवादास्पद है--फिर सुकरात में प्रकट हो कि मंसूर में, कि कबीर में कि पलटू में।
सत्य क्यों विवादास्पद है, इसे समझना चाहिए।
भीड़ कभी सत्य के साथ नहीं हो सकती।
क्योंकि सत्य के साथ होने के लिए व्यक्ति होना जरूरी है। और भीड़ व्यक्तित्व को नष्ट
करती है। भीड़ व्यक्तियों की आत्मा छीन लेती है। भीड़ व्यक्तियों को पोंछ देती है, मिटा देती है; उन्हें केवल भीड़ का अंग बना लेती है।
फिर कोई हिंदू है, फिर कोई मुसलमान है, फिर कोई ईसाई है, कोई जैन है, मगर
व्यक्ति नहीं है। और जहां व्यक्ति नहीं है वहां मनुष्यता नहीं है। और जहां व्यक्ति
नहीं है वहां परमात्मा का अवतरण कैसे होगा? तुम ही नहीं हो,
परमात्मा आए भी तो किसमें आए? तुम तो केवल भीड़
के एक हिस्से हो, एक कल-पुर्जे।
व्यक्ति और कल-पुर्जे में फर्क है।
कल-पुर्जे को बदला जा सकता है। एक पुर्जा खराब हो जाए किसी यंत्र का तो हम दूसरा
पुर्जा उसकी जगह लगा देंगे, यंत्र फिर काम करने लगेगा। व्यक्ति बदले नहीं जा
सकते। प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है। उस जैसा कोई दूसरा व्यक्ति होता ही नहीं;
न कभी हुआ है, न कभी होगा। उस अनूठेपन में ही
व्यक्तित्व है। इसलिए किसी व्यक्ति की जगह किसी दूसरे को नहीं रखा जा सकता। छोटे
से छोटे, अनजान से अनजान व्यक्ति के पास भी एक निजता होती
है। उस निजता को भीड़ बरदाश्त नहीं करती, क्योंकि निजता में
खतरा है। जिस व्यक्ति के पास निजता है वह अंधानुकरण नहीं करेगा। वह खुद सोचेगा,
विचारेगा, अपने अंतःकरण की आवाज से चलेगा। फिर
चाहे वह आवाज रूढ़ि के विपरीत जाती हो, समाज के विपरीत जाती
हो, राज्य के विपरीत जाती हो। वह सब दांव पर लगा देगा,
लेकिन अपनी आवाज को धोखा नहीं देगा, अपनी आवाज
के साथ दगा नहीं करेगा, गद्दारी नहीं करेगा। जीवन भी गंवा
देगा, मगर अपने अंतःकरण को न बेचेगा।
व्यक्ति बाजारों में नहीं बिकते हैं।
और जो बिक जाते हैं वे व्यक्ति नहीं हैं। और जो व्यक्ति नहीं है उसके पास कैसी
आत्मा?
जार्ज गुरजिएफ कहता था: सभी लोगों के
पास आत्मा नहीं होती। और ठीक कहता था। आत्मा का जन्म तो उनमें होता है जो संघर्ष
लेते हैं; जो जूझते हैं; जो जहां भी असत्य
को देखते हैं उससे टक्कर लेते हैं। उसी टकराने में उनके भीतर का सत्य निखरता है।
उसी टकराहट में उनकी तलवार पर धार आती है, उनकी प्रतिभा में
ज्योति का जन्म होता है। जो चुपचाप लीक-लीक चलता है, कोल्हू
के बैल की तरह चलता है, उसके पास जाकर करोगे भी क्या?
उसके पास जाकर मिलेगा भी क्या? कोल्हू का बैल
तुम्हें भी ज्यादा से ज्यादा कोल्हू का बैल बना सकता है।
मैंने सुना है, एक तर्कशास्त्री सुबह-सुबह एक तेली के घर तेल लेने गया था। तेली तेल तौलने
लगा। उसी की पीठ के पीछे कोल्हू चल रहा है। कोल्हू का बैल कोल्हू को चला रहा है,
तेल पेरा जा रहा है। हैरान हुआ तर्कशास्त्री। क्योंकि बैल को कोई
चला नहीं रहा है, वह अपने से ही चल रहा है। पूछा उसने तेली
को। एक जिज्ञासा मेरे मन में उठी है, कहा उसने, इतना धार्मिक बैल कहां पा गए कलियुग में? सतयुग की
छोड़ो, ऐसे ही ऐसे बैल होते थे। लेकिन यह बैल कलियुग में कहां
पा गए? अब तो मारो-पीटो तो भी बैल चलते नहीं हैं। हड़ताल कर
दें, घिराव कर दें, सींग मारें,
शोरगुल मचाएं, झंडा उठाएं, स्वतंत्रता की आवाज दें। यह बैल तुम्हें कहां मिल गया--ऐसा श्रद्धालु कि
कोई चला भी नहीं रहा है और चल रहा है!
तेली हंसने लगा। उसने कहा, आपको राज पता नहीं है। बैल धार्मिक नहीं है, उसे
चलाने के पीछे एक व्यवस्था है। देखते हैं, उसकी आंखों पर
पट्टी बंधी है! उसे सिर्फ अपने सामने दिखाई पड़ता है; न इस
तरफ देख सकता है, न उस तरफ; न बाएं,
न दाएं। इसलिए वह यह सोचता है कि यात्रा कर रहा है, कहीं जा रहा है। उसे पता ही नहीं चलता कि गोल चक्कर खा रहा है; कहीं जा नहीं रहा है; कोई यात्रा नहीं हो रही है।
उसे समझ में आ जाए कि गोल घूम रहा हूं, तो अभी रुक जाए। मगर
वह सोच रहा है--कहीं पहुंच रहा हूं, कोई मंजिल, कोई मुकाम करीब आ रहा है।
तर्कशास्त्री भी तर्कशास्त्री था।
उसने कहा, माना, देखा मैंने कि आंख पर
पट्टी बांधी है। लेकिन कभी रुक कर भी तो देख सकता है कि कोई हांकने वाला है या
नहीं।
उसने कहा, तुमने मुझे नासमझ समझा है? बैल से ज्यादा नासमझ समझा
है? मैंने उसके गले में घंटी बांध रखी है। चलता रहता है,
घंटी बजती रहती है। और मैं जानता हूं कि बैल चल रहा है। जैसे ही
रुकता है, घंटी बंद हो जाती है। मैं जल्दी से उचक कर उसे
हांक देता हूं। उसे पता नहीं चल पाता कि पीछे हांकने वाला नहीं था। जैसे ही घंटी
रुकी कि मैंने हांका, कि मैंने हांक दी। तो वह डरा रहता है
कि कोई पीछे है, जरा रुका कि कोड़ा पड़ेगा।
तर्कशास्त्री तो तर्कशास्त्री फिर भी।
उसने कहा, एक प्रश्न, आखिरी प्रश्न,
क्या बैल खड़े होकर अपना सिर हिला कर घंटी नहीं बजा सकता?
उस तेली ने कहा, महाशय, जरा धीरे बोलिए। अगर बैल सुन लेगा, मेरा सारा धंधा खराब हो जाएगा। और तेल आप आगे से कहीं और से खरीदना। ऐसे
आदमियों का आना-जाना ठीक नहीं। मैं बाल-बच्चे वाला आदमी हूं। यह बैल बिगड़ जाए तो
मेरा सारा व्यवसाय टूट जाएगा। और बैल ही नहीं, मेरे बच्चे
सुन लें तुम्हारी बातें, तो वे भी बिगड़ जाएंगे।
इसलिए तो जीसस को सूली देनी पड़ी, सुकरात को जहर पिलाना पड़ा। ये वे लोग थे जो तुम्हारी आंखों की पट्टियां
उतारने की कोशिश कर रहे थे। ये वे लोग थे जो तुम्हारे गले में बंधी हुई घंटी से
तुम्हें सचेत कर रहे थे। ये वे लोग थे जो कह रहे थे कि तुम गोल चक्करों में घूम
रहे हो; तुम कहीं जा नहीं रहे हो; तुम
व्यर्थ ही मेहनत कर रहे हो। रुको! सोचो पुनः! ये वे लोग थे जो तुम्हें समझा रहे थे
कि आदमी बनो, कोल्हू के बैल नहीं।
स्वभावतः, जिनके हित तुम्हें कोल्हू के बैल बनाने में हैं वे सभी नाराज होंगे।
मां-बाप चाहते हैं बच्चे आज्ञाकारी हों--बिना इसकी फिक्र किए कि उनकी आज्ञाएं
मानने योग्य हैं या नहीं। शिक्षक चाहते हैं बच्चे आज्ञाकारी हों--बिना इसकी फिक्र
किए कि उनकी आज्ञाएं मानने योग्य हैं या नहीं। राजनेता चाहते हैं कि जनता
आज्ञाकारी हो। पंडित-पुरोहित चाहते हैं कि जनता आज्ञाकारी हो। हरेक चाहता है कि
दूसरा आज्ञाकारी हो, क्योंकि आज्ञाकारी का शोषण किया जा सकता
है। कोई नहीं चाहता कि दूसरा विचारशील हो।
विचारशील कभी मानेगा और कभी नहीं
मानेगा। मानेगा तब जब उसके अंतःकरण से मेल होगा; नहीं मानेगा, जब उसके अंतःकरण से मेल नहीं होगा। उसके पास अपना मापदंड है, अपनी कसौटी है। कसेगा। सोना होगा तो हां कहेगा और पीतल होगा तो फेंक देगा।
और सभी चमकने वाली चीजें सोना नहीं
हैं। और सभी आज्ञाएं सत्य नहीं हैं; और सभी आज्ञाएं शिव
नहीं हैं; और सभी आज्ञाएं सुंदर नहीं हैं।
सच तो यह है, आज्ञाकारिता ने मनुष्यता की जितनी हानि की है उतनी किसी और बात ने नहीं की
है। दुनिया में थोड़ी आज्ञाकारिता कम हो तो मनुष्य का सौभाग्य होगा। क्योंकि तब
मुसलमान मौलवी की आज्ञा मान कर मुसलमान हिंदू मंदिर नहीं जलाएंगे। और हिंदू पंडित
की आज्ञा मान कर हिंदू मुसलमानों की मस्जिद में आग नहीं लगाएंगे। सोचेंगे कि मंदिर
उसका है, मस्जिद भी तो उसकी है। गिरजा उसका है, गुरुद्वारा भी तो उसका है। और जिसने हिंदू बनाए, उसी
ने मुसलमान बनाए, उसी ने ईसाई बनाए, उसी
ने सिक्ख बनाए। सबका मालिक एक है। अगर हम मुसलमान को मार रहे हैं तो हम उस मालिक
की सृष्टि को नुकसान पहुंचा रहे हैं; हम अधार्मिक कृत्य कर
रहे हैं।
नहीं लेकिन, हिंदू कहेंगे यह धर्मयुद्ध है; और मुसलमान कहेंगे
जेहाद है; और ईसाई कहेंगे क्रूसेड है। जेहाद में जो मरेगा वह
तत्क्षण बहिश्त जाता है। और धर्मयुद्ध में जो मरता है, स्वर्ग
उसका है, सुनिश्चित उसका है। सब पाप उसके क्षमा कर दिए जाते
हैं।
ये आज्ञाएं जमीन को नरक बना दी हैं।
राजनेता आज्ञाएं देते हैं और चल पड़ते हैं लोग लड़ने--अकारण! वर्षों तक अमरीका
वियतनाम पर बम गिराता रहा--अकारण! और अमरीकी सैनिक आज्ञाएं मानते रहे। नहीं
उन्होंने कहा कि यह क्या हो रहा है? हम आंख वाले हैं,
हम भी सोच सकते हैं। अकारण एक गरीब देश पर बम गिराए जा रहे हैं। कोई
संबंध नहीं अमरीका का। लेकिन तीस साल तक सतत लाखों लोग मार डाले गए--साधारण किसान,
गरीब, बच्चे, स्त्रियां,
बूढ़े।
जिस आदमी ने हिरोशिमा और नागासाकी पर
एटम बम गिराया, उसने भी नहीं कहा कि यह आज्ञा मैं नहीं मानूंगा। इससे
तो बेहतर है तुम मुझे गोली मार दो। एक लाख आदमी मेरे बम गिराने से पांच मिनट के
भीतर राख हो जाएंगे। एक लाख आदमियों को राख करने की बजाय...निहत्थे, जिनका कोई कसूर भी नहीं, जिन्होंने कोई अपराध नहीं
किया, जो अपनी रक्षा भी नहीं कर सकते, जिनको
कोई सूचना भी नहीं कि क्या होने वाला है। बच्चे स्कूल जाने की तैयारी कर रहे हैं,
अपने बस्ते बांध रहे हैं। उनकी मांएं उनके लिए भोजन बना रही हैं।
लोग दफ्तर जा रहे हैं। इन निर्दोष लोगों पर, एक लाख लोगों पर
मैं बम गिराऊं! जिसने बम गिराया उसने भी इस बात का विचार नहीं किया। और जब उससे
पूछा गया कि बम गिराने के बाद उस रात तुम सो सके? तो उसने
कहा, मैं बहुत आनंद से सोया। क्योंकि आज्ञा पूरी की, कर्तव्य पूरा किया। फिर और सैनिक को क्या चाहिए?
उसे इसकी फिक्र ही नहीं कि एक लाख
आदमी मारे, वह हिसाब में ही नहीं है। उसके हिसाब में एक बात है कि
मैंने आज्ञा का पालन किया।
मैं तुम्हें आज्ञा का पालन नहीं सिखा
सकता हूं। मैं तुम्हें बोध दे सकता हूं--ऐसी कसौटी, जिस पर कस कर तुम देख
लो--क्या सोना है, क्या पीतल। सोना हो तो मानना और पीतल हो
तो कभी मत मानना। और तुम्हें जो आज्ञाएं अब तक दी गई हैं उनमें निन्यानबे प्रतिशत
पीतल है।
तो विवाद तो खड़ा हो जाएगा। मैं
विवादास्पद तो हो ही जाऊंगा। क्योंकि मैं कुछ सिखा रहा हूं जिससे न्यस्त स्वार्थों
को बाधा पड़ेगी। अगर तुम मेरी बात समझोगे तो राजनेता तुम्हें धोखा नहीं दे सकेंगे, जितनी आसानी से वे तुम्हें धोखा दे रहे हैं। तुम उनके आश्वासनों में न
आओगे। तुम उनकी जालसाजियां देख सकोगे। तुम उनकी बेईमानियां पहचान सकोगे। तुम देख
सकोगे कि ये छिपे हुए चोर हैं। खादी के शुभ्र वस्त्र इन चोरों को छिपने के लिए खूब
सुरक्षा का कारण बन गए हैं। ये बेईमान हैं। ये अपराधी हैं। मगर इनके अपराध सूक्ष्म
हैं, तुम्हारी पकड़ में नहीं आते।
छोटे-मोटे चोर पकड़े जाते हैं; बड़े चोर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बन जाते हैं। छोटे-मोटे स्मगलर सजा
काटते हैं; बड़े स्मगलर राजनेता हो जाते हैं। छोटे लुटेरे
सूलियां चढ़ते हैं; बड़े लुटेरे-- चंगीजखां, तैमूरलंग, नादिरशाह, अकबर,
औरंगजेब, सिकंदर, नेपोलियन--इन
सबके नाम पर इतिहास में प्रशस्तियां लिखी जाती हैं। ये सब डाकू हैं।
जो ऐसा कहेगा वैसा व्यक्ति विवादास्पद
तो हो ही जाएगा।
और मैं कहता हूं कि शास्त्रों में
सत्य नहीं है। इसलिए हिंदू पंडित नाराज, मुसलमान मौलवी नाराज,
ईसाई पादरी नाराज। शब्दों में कहीं सत्य हो सकता है? शब्द है--"अग्नि'। "अग्नि' में कहीं आग है? कागज पर "अग्नि' लिखोगे, इस पर चाय बना सकोगे? शब्द
है--"पानी'। कागज पर लिख लोगे, या
अगर वैज्ञानिक हुए तो लिखोगे एच टू ओ, इससे प्यास बुझा सकोगे?
लेकिन लोग गीता पढ़ रहे हैं और सोच रहे हैं, कुरान
पढ़ रहे हैं और सोच रहे हैं कि परमात्मा से मिलन हो जाएगा।
कागजों में परमात्मा से मिलन नहीं हो
सकता। परमात्मा से मिलन करना हो तो अपनी स्वयं की चेतना की सीढ़ियों में उतरना
पड़ेगा; अपनी स्वयं की गहराइयों से गहराइयों में जाना पड़ेगा।
परमात्मा तुम्हारे भीतर मौजूद है, लेकिन तुम्हारी आत्यंतिक
गहराई को छूना पड़ेगा। नहीं शास्त्रों में, वरन स्वयं में।
नहीं ज्ञान में, वरन ध्यान में। नहीं मिलेगा शब्द में,
मिलेगा मौन में।
पर जो ऐसी बातें कहेगा वह विवादास्पद
तो हो ही जाएगा।
प्रेम वेदांत, गिरजाकुमार माथुर को कहना: अवसर न चूकें। रस जगा हो तो थोड़ी हिम्मत करें,
थोड़ा साहस करें।
मैं विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था।
जो विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर थे, बड़े पंडित थे। बड़े
चालबाज भी थे, नहीं तो वाइस चांसलर होना मुश्किल। वाइस
चांसलर होने के लिए बड़ा राजनीतिज्ञ होना चाहिए, क्योंकि वे
भी सब राजनीति के दांव-पेंच हैं। उस पद तक पहुंचने के लिए हजार तरह की तिकड़में
बिठानी पड़ती हैं। बुद्ध-जयंती पर उन्होंने व्याख्यान दिया। बड़े भाव-विह्वल होकर
उन्होंने कहा कि मेरे मन में एक भाव उठता है सदा कि काश, भगवान
बुद्ध के समय में मैं मौजूद होता तो जरूर उनके चरणों में बैठता, सत्संग का लाभ लेता!
मैं उठ कर खड़ा हो गया। मैंने कहा, ये शब्द आप वापस ले लो। मैं सुनिश्चित रूप से कहता हूं कि अगर आप भगवान
बुद्ध के समय में होते तो उनके पास भी नहीं गए होते, सत्संग
और चरणों में बैठना तो दूर।
वे थोड़े हक्के-बक्के रह गए कि कोई
विद्यार्थी इतनी हिम्मत करे! थोड़े डर भी गए। कहा, क्यों? क्यों नहीं मैं उनके चरणों में बैठ सकता था?
मैंने उनसे कहा, रमण महर्षि जिंदा थे, आप उनके चरणों में गए?
कहा, नहीं, उनके चरणों में तो नहीं गया।
क्यों नहीं गए? कृष्णमूर्ति जिंदा हैं, आप उनके चरणों में गए?
कहा, नहीं गया।
क्यों नहीं गए? आप बुद्ध के चरणों में कैसे जाते? जो कठिनाइयां
कृष्णमूर्ति के चरणों में जाने में हैं, वही कठिनाइयां बुद्ध
के चरणों में जाने में होतीं। वही विवादास्पद व्यक्तित्व। कौन झंझट ले! लोगों को
पता न चल जाए। नहीं तो लोग कहेंगे, अच्छा, तो तुम भी इस उपद्रव में सम्मिलित हुए!
मैंने उनसे कहा, आप सोच लें दो क्षण आंख बंद करके और शब्द वापस ले लें, क्योंकि मैं नहीं बैठूंगा। आपको मैं भलीभांति जानता हूं। और बेहतर है आप
शब्द वापस ले लें, अन्यथा मुझे आपके संबंध में कुछ और बातें
कहनी पड़ेंगी।
तब वे घबड़ा गए। उन्होंने कहा कि मैं
अपने शब्द वापस लेता हूं।
क्योंकि तब मैं उनके संबंध में बताने
वाला था। क्योंकि यूनिवर्सिटी में उनसे ज्यादा शराब पीने वाला आदमी दूसरा नहीं, ये बुद्ध के चरणों में कैसे जाते? उनसे ज्यादा झूठ
बोलने वाला आदमी दूसरा नहीं, ये बुद्ध के चरणों में कैसे
जाते? राजनीतिज्ञों की खुशामद--दो कौड़ी के राजनीतिज्ञों की
खुशामद! उनके पैर दाब-दाब कर तो वे वाइस चांसलर हुए। ये कैसे बुद्ध के चरणों में
जाते? और इनको अकड़ है ब्राह्मण होने की, पंडित होने की, ज्ञानी होने की। ये बुद्ध के चरणों
में कैसे जाते?
फिर उन्होंने मुझे बाद में अपने घर
बुलाया। कहा, कल नाश्ते पर मेरे घर आओ। घर मुझसे कहा कि इस तरह बीच
में नहीं खड़ा हुआ जाता। आखिर कुछ मेरा भी तो खयाल करते!
मैंने कहा, मैं बुद्ध का खयाल करूं कि आपका खयाल करूं? मैंने
बुद्ध का खयाल किया। और मैं आपको चेतावनी दिए देता हूं कि जब तक दो साल मैं इस
विश्वविद्यालय में रहूंगा, आप सोच-समझ कर बोलें। अगर आपने
कोई ऐसी बात कही जो मुझे लगी कि ठीक नहीं है, तो मुझे रोका
नहीं जा सकता।
वे दो साल फिर बोले ही नहीं। फिर
बुद्ध-जयंती आए और महावीर-जयंती आए और कृष्णाष्टमी आए, दूसरे लोग बोलें, मगर वे बैठे रहें। वे सिर्फ सभापति
का काम करें, बोलें नहीं। क्योंकि मैं बिलकुल सामने बैठा
रहूं।
गिरजाकुमार माथुर को कहना: विवादास्पद
तो होगा ही कोई भी व्यक्ति, जो सत्य के अन्वेषण में लगा हो; जो सत्य के अनुभव को उपलब्ध हुआ हो। वह सत्य को देखे या तुम्हारी सुविधाओं
को देखे? वह सत्य को देखे कि तुम्हारी सामाजिक परंपराओं,
रूढ़ि-रिवाजों को देखे? वह तुम्हारी रस्मों को
देखे कि सत्य को देखे?
और सत्य निरंतर ही रूढ़ि के विपरीत पड़
जाता है। क्योंकि रूढ़ि बनाते हैं वे लोग जिनके द्वारा तुम्हारा शोषण होता है। रूढ़ि
बनाते हैं वे लोग जो तुम्हें जोतना चाहते हैं कोल्हुओं में। और सत्य देते हैं वे
लोग जो तुम्हें स्वतंत्र करना चाहते हैं। संघर्ष अनिवार्य है। संघर्ष होगा ही।
प्रेम वेदांत, तुम कहते हो उन्हें मुझमें रुचि है।
रुचि है, साहस नहीं है। और रुचि अकेली मुर्दा है अगर साहस न हो। उनकी कविताएं मैंने
पढ़ी हैं। उनसे कहना कि उनकी कविताओं से मैंने ऐसी आशा नहीं की थी कि वे इतने कमजोर
साबित होंगे। लेकिन कविताएं लिखना एक बात है, कविता जीना
दूसरी बात है। यहां मैं कविता जी रहा हूं और लोगों को कविता जीना सिखा रहा हूं।
यहां काव्य जीया जा रहा है। मेरा संन्यासी है क्या? एक काव्य
है, एक संगीत है, एक उत्सव है! एक
आनंदोल्लास है! वसंत है! मेरा संन्यासी कोई भगोड़ा नहीं है, पलायनवादी
नहीं है। जीवन को उसकी समग्रता में जीने का संकल्प है।
परमात्मा को कहीं पहाड़ों पर नहीं
खोजना है; यहां और अभी खोजना है--लोगों में, पशुओं में, पक्षियों में, वृक्षों
में, पत्थरों में। आंखें हों देखने को तो पत्थर-पत्थर में
उसका गीत खुदा है और पत्ते-पत्ते पर उसके हस्ताक्षर हैं। कान हों सुनने को तो
सन्नाटे में भी उसकी भगवदगीता ही गूंज रही है, उसका कुरान ही
उठ रहा है।
मगर गिरजाकुमार माथुर अकेले नहीं हैं; ऐसे बहुत लोग हैं। मेरे पास बहुत पत्र आते हैं कि हम आना चाहते हैं,
मगर...। और जहां मगर आया, जहां किंतु-परंतु आया,
वहां सब बात मुर्दा हो जाती है। आना चाहते हैं, फिर किंतु के लिए जगह नहीं। लेकिन लोगों के लिए आना तभी सुगम मालूम पड़ता
है जब सब अर्थों में उन्हें लाभ ही लाभ हो, कोई हानि न हो
जाए। मुझ जैसे व्यक्ति से जुड़ने में प्रतिष्ठा की हानि हो सकती है।
यहां एक और कवि, तन्मय बुखारिया, कुछ दिन पहले आए। आए तो हिम्मत की
बात थी। आए तो रस में डूबे। हैं भी अदभुत कवि! है उनकी कविता में एक तन्मयता। उनका
नाम ही तन्मय नहीं है, उनके काव्य में है तन्मयता, है रस का सागर। तो बातें सुनी ही नहीं, संन्यास में
छलांग लगाने का निर्णय ले लिया। संन्यास लेने को भी आ गए। और इसके पहले कि उनका
नाम पुकारा जाता, भाग खड़े हुए। ठीक उनका नाम जब पुकारा गया,
उसके एक-दो मिनट पहले कोई व्यक्ति उठ कर गया, वह
मैंने देखा। लेकिन जब नाम पुकारा गया तो पता चला कि वे तन्मय बुखारिया थे, वे जा चुके। छलांग लगाते-लगाते चूक गए। भय पकड़ गया होगा। बैठ कर यहां सोचा
होगा। और लोग जब संन्यास ले रहे थे तब उन्हें थोड़ा सोच-विचार आया होगा कि घर
जाऊंगा गैरिक वस्त्रों में, माला में, पत्नी
क्या कहेगी, बच्चे क्या कहेंगे, परिवार,
गांव!
फिर मेरे संन्यासी उनको मिले ललितपुर
में, जहां वे रहते हैं। उनको पूछा। तो उन्होंने कहा कि फिर
से जाऊंगा। जाऊंगा जरूर। एक दिन जाऊंगा। एक दिन जाना ही है।
लेकिन वह एक दिन कब आएगा? शायद कभी न आए। कल पर जिसने टाला उसने शायद सदा के लिए टाल दिया। और जो
यहां आकर भाग गए, अब वे शायद यहां आने की भी हिम्मत न जुटा
पाएं, क्योंकि वह सारा खतरा फिर उनके सामने खड़ा होगा।
गिरजाकुमार माथुर को कहना कि डर क्या
है? डर कहीं यह तो नहीं है कि वहां गए तो कहीं उस रंग में न रंग जाएं? अगर थोड़ा कोई भाव-प्रवण हो, और गिरजाकुमार भाव-प्रवण
कवि हैं, डूब सकते हैं। वही डर है। विवादास्पद हूं, यह तो बहाना है। डर कह नहीं सकते असली अपना। उनसे कहना जाकर: पुनः सोचो!
डर कहीं यह तो नहीं है कि वहां जाएं तो डूब ही न जाएं! रुचि पैदा हो रही है,
रस आ रहा है, कहीं ऐसा न हो कि वहां छलांग लग
जाए और फिर पीछे लौटना मुश्किल हो जाए!
लोग बड़ी होशियारी से कदम रखते हैं, फूंक-फूंक कर कदम रखते हैं। और जिन्होंने जिंदगी का अनुभव किया है वे तो
बहुत डरने लगते हैं। क्योंकि उन्होंने जिंदगी में पाया: जब भी तुमने कुछ ऐसा किया
जो समाज से भिन्न था, तो समाज ने तुम्हें अड़चनें दीं। समाज
तुम्हें क्षमा नहीं करेगा।
समाज चाहता है तुम वैसे ही रहो जैसा
समाज चाहे। कहे बाएं घूमो तो बाएं घूमो, कहे दाएं घूमो तो
दाएं घूमो। समाज चाहता है तुमसे एक आज्ञाकारिता--एक अनुबंध, एक
समझौता--कि तुम हमारी मान कर चलोगे तो हम तुम्हें प्रतिष्ठा देंगे, इज्जत देंगे, सम्मान देंगे। और तुमने अगर हमारे
विपरीत कोई कदम उठाया, हम से भिन्न अगर गए--विपरीत नहीं,
सिर्फ भिन्न भी गए--तो फिर याद रखना, हमसे
बुरा कोई नहीं!
मेरे संन्यासियों को ये सारी
कठिनाइयां झेलनी पड़ रही हैं। पुराने ढंग के संन्यासी तुम हो जाओ, कोई कठिनाई नहीं, क्योंकि वह स्वीकृत है। मेरा
संन्यासी होना कठिन मामला है, क्योंकि वह स्वीकृत नहीं है।
थोड़े से प्राणवान लोग ही साहस कर सकते हैं।
उनको याद दिलाना कि मरने के पहले मर
जाना अच्छा नहीं। उनको याद दिलाना कि अभी जीवित हो! अभी जीवित की तरह व्यवहार करो!
आओ, समझो! और मैं नहीं कहता कि मेरी मान कर डूब ही जाओ। समझो! और तुम्हारी समझ
कहे, तुम्हारे भीतर एक पुकार उठे, एक
आह्लाद उठे, कि डूबने की अभीप्सा जगे--तो फिर रुकना मत;
फिर किसी चिंता को बाधा मत बनने देना।
इतना साहस न हो तो परमात्मा को नहीं
खोजा जा सकता। सत्य की तलाश में साहस से बड़ा और कोई गुण नहीं है और साहस से बड़ी और
कोई पात्रता नहीं है।
यह भी हो सकता है, प्रसिद्ध कवि हैं, तो अहंकार बाधा डालता हो--कि मुझ
जैसा प्रतिष्ठित कवि और किसी को सुनने जाए, किसी को समझने
जाए, तो लोग क्या कहेंगे!
मेरे पास खबरें आती हैं कि हम आपसे
निजी एकांत में मिलना चाहते हैं, सबके सामने नहीं। क्योंकि हमें
कुछ प्रश्न पूछने हैं।
प्रश्न सबके सामने ही पूछने में क्या
हर्ज है?
एक हर्ज है कि लोगों को पता चलेगा कि
अरे, तो तुम भी अज्ञानी ही हो! तो तुम्हें भी अभी जीवन के
प्रश्न हल नहीं हुए! तो एकांत चाहिए।
मैंने यह देखा कि अकेले में लोग कुछ
और पूछते हैं, सबके सामने कुछ और पूछते हैं। पूछने में फर्क पड़ जाता
है। जब मैं लोगों से अकेले मिलता था, तो अकेले में वे अपनी
असली समस्याएं उठाते थे। और जब उन्हीं से लोगों के सामने मिलता, तो ब्रह्म, मोक्ष, कैवल्य,
इस तरह की बातें करते थे। एकांत में मिलते, तो
कामवासना से कैसे छुटकारा हो? क्रोध से कैसे छुटकारा हो?
भोजन के पीछे मैं दीवाना हूं, इससे कैसे
मुक्ति हो? इस तरह के सवाल। और सबके सामने मिलते, तो सृष्टि किसने बनाई? स्रष्टा है या नहीं? इस सारे जगत को चलाने वाला कौन है?
ये प्रश्न ही नहीं हैं उनके। मगर सबको
दिखलाने के लिए कि हमारे प्रश्न आध्यात्मिक हैं! हम कोई साधारणजन नहीं हैं, आध्यात्मिक खोजी हैं! क्रोध, कामवासना इत्यादि तो हम
कब की पीछे छोड़ चुके! धन, भोजन, इनकी
लालसाएं हमें नहीं घेरतीं। हमारे भीतर तो परमात्मा की भक्ति जगी है, मोक्ष का स्वाद लेना है।
फना बगैर बका का मजा नहीं मिलता
खुदी मिटाओ न जब तक खुदा नहीं मिलता
चाहते हो परमात्मा मिले, तो एक चीज तो मिटानी ही पड़ेगी--खुद को मिटाना पड़ेगा।
खुदी मिटाओ न जब तक खुदा नहीं मिलता
फना बगैर बका का मजा नहीं मिलता
जब तक फना न हो जाओ, शून्य न हो जाओ, तब तक अस्तित्व का आनंद नहीं मिलता।
ऐसा विरोधाभासी गणित है जीवन का: जो मिटने को तैयार है उसे जीवन मिलता है; और जो जीवन को पकड़ता है उसको सिवाय बार-बार मरने के और कुछ भी नहीं मिलता।
सत्य स्वयं ही विरोधाभासी है, इसलिए सत्य को जिन्होंने अनुभव किया है वे विवादास्पद न हो जाएं तो और
क्या हो? उनके वक्तव्य भी विरोधाभासी हो जाते हैं। सत्य को
ही बोलना है तो विरोधाभास के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। और सत्य को बोलना है
तो समझौते नहीं किए जा सकते। सत्य समझौता जानता ही नहीं। सत्य तो नग्न, निर्वस्त्र खड़ा होता है, जैसा है वैसा। फिर जो
परिणाम हों। परिणामों की चिंता असत्य करता है, सत्य नहीं।
समझौते असत्य करता है, सत्य नहीं। इसलिए असत्य की तो पूजा
होती है भीड़ के द्वारा; सत्य के ऊपर पत्थर फेंके जाते हैं।
कहना उनसे--
है फर्ज तुझ पै फकत बंदा-ए-खुदा की
तलाश
खुदा की फिक्र न कर, वो मिला, मिला न मिला
ईश्वर कहां है, उसकी तुम खोज भी क्या करोगे? तुम पर तो एक ही
कर्तव्य है कि जिन्होंने ईश्वर को जाना हो उनकी खोज कर लो।
है फर्ज तुझ पै फकत बंदा-ए-खुदा की
तलाश
कोई बंदा मिल जाए खुदा का, कोई उसका प्रेमी मिल जाए, वे आंखें मिल जाएं जिन
आंखों ने परमात्मा का अनुभव किया हो--उन आंखों को तुम खोज लो, इतना तुम्हारा कर्तव्य है। उन चरणों को खोज लो जो प्रभु के मंदिर में
प्रविष्ट हुए हों। उन हाथों में तुम्हारा हाथ पड़ जाए जिन हाथों ने प्रभु का स्पर्श
किया हो। बस इतना तुम्हारा कर्तव्य है।
खुदा की फिक्र न कर, वो मिला, मिला न मिला
उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। कोई बुद्ध
मिल जाए, कोई महावीर मिल जाए, कोई नानक
मिल जाए, कोई मोहम्मद मिल जाए--बस काम हो गया। उसी दर्पण में
तुम्हें परमात्मा की झलक दिखाई पड़ने लगेगी। उसी वीणा में तुम्हें उसके स्वर सुनाई
पड़ने लगेंगे।
लेकिन लोग परमात्मा को तो खोजना चाहते
हैं और जिन्होंने परमात्मा को पा लिया है उनके पास आने से डरते हैं। राज सीधा-सादा
है: परमात्मा को खोजने में कुछ लगता नहीं। हल्दी लगे न फिटकरी, रंग चोखा हो जाए। न परमात्मा खोजने से मिलता है, न
कुछ लगता है। लेकिन सदगुरु के पास आओगे तो गर्दन कटेगी। सदगुरु के पास आओगे तो
प्राणों की आहुति देनी पड़ेगी। और सदगुरु तलाश करने से मिल सकता है। सदगुरु के बिना
तो परमात्मा मिलता नहीं। इसलिए तुम लाख परमात्मा खोजते रहो, वह
सिर्फ दिमागी कसरत, सिर्फ बौद्धिक व्यायाम। बिठाते रहो गणित,
लगाते रहो अनुमान--है या नहीं? है तो कैसा है?
उसका रूप क्या, रंग क्या? निर्गुण है कि सगुण? बैठे रहो, जमाते रहो शब्दों को। शब्दों की चौपड़ खेलते रहो, शतरंज
बिछाते रहो। नहीं तुम्हें परमात्मा मिलेगा।
ठीक है यह बात कि तुम्हारा यह कर्तव्य
भी नहीं कि तुम परमात्मा खोजो। तुम्हारा कर्तव्य तो एक ही है, फर्ज तो केवल एक ही है कि तुम उसे खोज लो जिसने परमात्मा को खोजा हो। जो
उस पार हो आया हो वही तुम्हारा माझी बन सकता है।
सूरते-नक्शे-रहगुजर आजिजी इख्तियार कर
अर्श की रफअतों पै गर तुझको मुकाम
चाहिए
मिटो। निरहंकारिता तुममें उतरे।
सूरते-नक्शे-रहगुजर आजिजी इख्तियार कर
एक ही चीज तुम्हें पात्र बनाएगी कि
तुम्हारा अहंकार गले।
अर्श की रफअतों पै गर तुझको मुकाम
चाहिए
अगर चाहते हो कि आकाश की ऊंचाइयां
तुम्हें मिलें तो एक शर्त पूरी करो--अहंकार को जाने दो। और मैं जानता हूं अड़चन। जो
लोग किसी तरह की ख्याति पा लेते हैं, उनको बड़ी मुश्किल हो
जाती है। कोई कवि की तरह प्रसिद्ध है, कोई अभिनेता की तरह
प्रसिद्ध है। कोई चित्रकार की तरह प्रसिद्ध है, कोई राजनेता
की तरह प्रसिद्ध है। उसकी अड़चन यह हो जाती है कि उसका अहंकार काफी बलिष्ठ हो जाता
है। उसके अहंकार पर शृंगार हो गया। अब वह कैसे जाए? कैसे
झुके? और कुछ मुकाम ऐसे हैं जहां झुके बिना जाना हो ही नहीं
सकता; जहां झुको तो ही जा सकते हो; जहां
जाने की शर्त ही झुकना है। नहीं तो आ भी जाओगे, चले भी
जाओगे। आए भी नहीं, गए भी नहीं। आना भी व्यर्थ हुआ, जाना भी व्यर्थ हुआ।
तो डर लगता होगा, प्रसिद्धि रोकती होगी। उनसे कहना: इस तरह की प्रसिद्धियों से कुछ न कभी
मिला है, न मिल सकता है। ये सब धोखे हैं। और इन धोखों में हम
जी लेते हैं। इन धोखों का नाम ही माया है। इन्हीं धोखों में पड़े रहते हैं और मर
जाते हैं। और फिर-फिर यही धोखे खाते हैं।
इसलिए मैं समझता हूं, अड़चन तो होती है। जब लोग पदों पर होते हैं तो उन्हें आने में अड़चन होती
है। जैसे ही पद से उतर जाते हैं, फिर आने में अड़चन नहीं
होती। यहां बहुत से भूतपूर्व मंत्री आते हैं। भूतपूर्व! और तरह के भूत इस देश में
होते हैं कि नहीं, उनका पता नहीं, मगर
भूतपूर्व मंत्री इतने हैं, वे चले आते हैं। अब पद ही न रहा
तो अब दिक्कत क्या है! जब पद पर होते हैं तब--तब बड़ी अड़चन होती है उन्हें आने में।
आना भी चाहते हैं तो खबर भेजते हैं यहां कि हमें निमंत्रण भेजा जाए। आना है उनको,
निमंत्रण मिले तो आएंगे।
आना है तुम्हें तो आओ, निमंत्रण की क्या आकांक्षा?
नहीं, झुकने से बचने का
पहले ही उपाय शुरू हो गया। फिर आते हैं तो शर्तें हैं कि हम एकांत में मिलेंगे।
क्या डर है सभी के सामने मिलने में? क्या कठिनाई है? लेकिन नहीं उघाड़ सकते अपने हृदय को
सबके सामने। और एकांत में मिलने में विशिष्टता है। इसलिए मैंने तो एकांत में मिलना
बंद ही कर दिया, क्योंकि गलत तरह के लोग ही एकांत में मिलने
की बात करते थे। इसलिए अड़चन पड़ गई है अब उनको। अब उनको आना मुश्किल हो गया है कि
कैसे आएं।
उनको कहना: छोड़ो ये सब बच्चों जैसी
बातें! ये खिलौने छोड़ो!
मुल्ला नसरुद्दीन मनोवैज्ञानिक के पास
गया था और कह रहा था कि कुछ करना पड़ेगा, मेरी पत्नी की हालत
बिगड़ती जा रही है। वह दिन भर खिलौनों से ही खेलती रहती है!
मनोवैज्ञानिक ने कहा कि तुम
सौभाग्यशाली हो नसरुद्दीन! पत्नी उलझी रहती है, तुम्हारी झंझट कटी।
खेलने दो, किसी का कुछ बिगाड़ती तो नहीं।
नसरुद्दीन ने कहा, बिगाड़ती क्यों नहीं, मुझे खेलने का वक्त ही नहीं
मिलता! सारे खिलौनों पर कब्जा किए हुए है। तो मैं कब खेलूं?
यहां सब खिलौनों में उत्सुक
हैं--अहंकार के, पद के, प्रतिष्ठा के, धन के, यश के। न मालूम कितने खिलौने हैं! और लोग खिलौनों
में उलझे हैं। बच्चों से लेकर बूढ़ों तक खिलौनों में उलझे हैं। धन्यभागी है वह जो
खिलौनों से मुक्त हो जाए, खिलौनों के जाल से छूट जाए। उसे ही
मैं संन्यास कहता हूं। उसे ही मैं साधना कहता हूं। जिसे स्वाद लेना हो परमात्मा का
उसे झुकना ही होगा।
कह देना उनसे कि आएं, स्वागत है। मगर अपनी प्रसिद्धि, अपना नाम, पता, सब पीछे छोड़ कर आएं। चले आएं निपट मनुष्य की
तरह, तो कुछ लाभ हो सकता है।
नहीं तो अभी कुछ दिन पहले एक कवि आए।
महाकवि हैं। कई दिन से फोन किए जा रहे थे बंबई से कि आना चाहता हूं, समय दीजिए, समय दीजिए। आखिर मैंने कहा, ठीक है, उन्हें समय दो। आए तो मैंने पूछा कि कहिए,
क्या कहना है?
उन्होंने कहा कि दो-चार कविताएं आपको
सुनाने आया हूं।
न कुछ पूछना है, न कुछ जानना है; उलटे दो-चार कविताएं मुझे सुनाने आए
हैं, ताकि मैं भी प्रशस्ति दूं, प्रशंसा
दूं; ताकि मैं भी प्रमाण-पत्र दूं। मैंने उनसे कहा कि तब फिर
आप कभी और आना। अब वे बार-बार फोन लगाए रखते हैं कि अब मैं कब आ जाऊं?
कुछ लोग इन्हीं खेलों में लगे रहते
हैं। कभी तो अपने अहंकार की चदरिया उतार कर रखनी चाहिए। कभी तो अपने जीवन की सच्ची
जिज्ञासा लेकर आना चाहिए। कहीं तो कोई स्थल खोजना चाहिए जहां उघड़ सको, जहां सारी समस्याओं को नग्न कर सको, ताकि कोई समाधान
मिल सके।
मृत्यु के पहले जिसने समाधि को नहीं
पाया वह व्यर्थ ही जीया; जीया ही नहीं; जीने का अवसर
उसने ऐसे ही गंवा दिया है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान! जीवन
इतना उलटा-उलटा क्यों मालूम होता है? सभी कुछ अस्तव्यस्त
है। इसमें परमात्मा की क्या मर्जी है?
देवानंद!
परमात्मा को क्यों फंसाते हो? जीवन उलटा-उलटा है, क्योंकि हम सबकी मर्जी जीवन को उलटा-उलटा जीने की है। शीर्षासन तुम करो और
कहो कि क्या मामला है, मैं उलटा क्यों खड़ा हूं? इसमें परमात्मा की क्या मर्जी है?
परमात्मा की कोई मर्जी नहीं है।
परमात्मा ने तुम्हें स्वतंत्रता दी है कि चाहो तो पैर से खड़े होओ, चाहो तो सिर से खड़े होओ। परमात्मा ने तुम्हें स्वतंत्रता दी है, चाहे बाएं जाओ, चाहे दाएं जाओ; चाहे अच्छा करो, चाहे बुरा; चाहे
नरक खोजो, चाहे स्वर्ग। परमात्मा ने स्वतंत्रता दी है--यह
उसका महान दान, उसका प्रसाद, उसकी
भेंट। और तुम उसका दुरुपयोग कर रहे हो। इसलिए जीवन उलटा-पुलटा है। इसलिए सब
अस्तव्यस्त है
आज का मनुष्य, मनुष्य नहीं
लुच्चा है, लफंगा है,
ऊपर से सफेदपोश
अंदर से नंगा है।
तमस की तलैया में
कूद-कूद नहाता है,
छल और छंद के
छींटे उड़ाता है,
भीगते हैं भले-भले
किसी का न बस चले
रोके रुकता नहीं
पूरा हुड़दंगा है!
मगर यह आज का ही मनुष्य है, ऐसा नहीं। ऐसा ही मनुष्य रहा है। मनुष्य की खोपड़ी उलटी है।
मुल्ला नसरुद्दीन के संबंध में कहानी
है कि जब वह बच्चा था तभी उसके मां-बाप, पड़ोसी परिचित हो गए
कि वह उलटी खोपड़ी है। तो सब उसको उलटी खोपड़ी जानते थे। जैसे अगर दरवाजा खुला हो और
तुम्हें दरवाजा बंद करवाना हो तो उसके मां-बाप समझ गए थे कि कभी भूल कर उससे मत
कहना कि दरवाजा बंद करो, नहीं तो बंद दरवाजे को खोल देगा।
उलटी खोपड़ी! खुला भी हो दरवाजा तो भी उससे कहो कि बेटा, जरा
दरवाजा खोल दे। वह फौरन बंद कर देगा। तो वे उलटी आज्ञा देते थे उसको।
एक दिन नसरुद्दीन अपने बाप के साथ गधे
पर रेत की बोरियां लाद कर आ रहा है। पीछे बाप है, आगे-आगे नसरुद्दीन
है। एक बोरी बाएं तरफ ज्यादा झुकी जा रही है और ऐसा लग रहा है कि वह पानी में गिर
जाएगी। दो बोरियां दोनों तरफ समतुल हों तो टिकी रह सकती हैं। बाईं बोरी झुकी जा
रही है, खुद भी गिरेगी और दाईं बोरी को भी गिरा लेगी। और रेत
अगर गीली हो गई हो इतनी भारी हो जाएगी कि फिर गधा खींच नहीं सकेगा। तो बाप ने कहा,
बेटा, जरा बोरी को बाईं तरफ झुका दे।
बाईं तरफ गिर रही है, मगर उलटी खोपड़ी है, तो उससे कहना पड़ा कि बेटा,
जरा बोरी को बाईं तरफ झुका दे। और बाप तो हैरान हो गया, उसने बाईं तरफ झुका दिया। बोरियां गिर गईं पानी में। बाप ने कहा, नसरुद्दीन, तुझे क्या हुआ आज?
नसरुद्दीन ने कहा, आज मैं इक्कीस साल का हो गया, अब क्या समझते हैं आप!
अब मैं बालिग हो गया। अब मुझे धोखा न दे सकेंगे। अब मैं सिर्फ उलटी खोपड़ी ही नहीं
हूं, बालिग भी हूं। मैं समझ गया आपका मतलब क्या था। आप सोचते
थे मैं दाईं तरफ झुकाऊंगा। वे बचपन की बातें थीं। बचपन में आपने मुझे खूब धोखा दे
लिया।
आदमी बालिग हो गया है आज का, बस इतना ही फर्क पड़ा है। पहले भी आदमी उलटी खोपड़ी था, आज बालिग और हो गया, और मुसीबत आ गई। प्रौढ़ हो गया
है। इसमें ईश्वर का कोई हाथ नहीं है। मनुष्य अकेला प्राणी है, जिसे परमात्मा ने स्वतंत्रता दी है। कुत्ता कुत्ता है, बिल्ली बिल्ली है। बिल्ली बिल्ली ही पैदा होती है, बिल्ली
ही मरती है। कुत्ता कुत्ता पैदा होता है, कुत्ता ही मरता है।
तुम किसी कुत्ते से यह नहीं कह सकते कि तुम थोड़े कम कुत्ते हो। सब कुत्ते बराबर
कुत्ते हैं। लेकिन आदमी से तुम कह सकते हो कि तुम थोड़े कम आदमी हो। क्यों? क्योंकि आदमी अकेला है जो स्वतंत्र है।
आदमी चाहे तो पशुओं से नीचे गिर जाए
और चाहे तो देवताओं से ऊपर उठ जाए। लेकिन ऊपर उठने में चढ़ाई है और चढ़ाई श्रमपूर्ण
है। नीचे उतरने में ढलान है, श्रम नहीं लगता। इसलिए आदमी नीचे
की तरफ जाना आसान पाता है। जैसे कि कार अगर पहाड़ी से नीचे की तरफ आ रही हो तो
कंजूस आदमी पेट्रोल बंद कर देते हैं। पेट्रोल की जरूरत ही नहीं है, कार अपने से ही चली आती है। ढलान है। लेकिन तुम पेट्रोल बंद करके पहाड़ी
नहीं चढ़ सकते; ऊर्जा लगेगी, शक्ति
लगेगी, श्रम लगेगा, साधना लगेगी।
ऊंचाइयां मांगती हैं साधना। पुण्य मांगते हैं साधना। परमात्मा तक पहुंचना है तो
जैसे कोई गौरीशंकर का पर्वत चढ़े। पसीना-पसीना हो जाओगे। खून पसीना बनेगा। कौन उतनी
झंझट ले! और अगर कभी कोई झंझट लेने भी लगे तो बाकी नहीं लेने देते, बाकी उसकी टांग पकड़ कर नीचे खींच लेते हैं। वे कहते हैं, कहां जाते हो? पागल हो गए हो! क्योंकि बाकी को भी
कष्ट होता है यह देख कर कि कोई ऊपर जाए, कोई हम से ऊपर जाए!
तुमने कहानियां पढ़ी होंगी, पुराणों में कहानियां हैं, वे इसी की सबूत हैं। उन
कहानियों में कोई ऐतिहासिक तथ्य नहीं है, लेकिन प्रतीकात्मक
तथ्य तो है ही। सत्य है, तथ्य हो या न हो। पुराणों में
कहानियां हैं कि जब भी कोई ऋषि-मुनि दुर्धर्ष तपश्चर्या में ऊपर उठता है, तो इंद्र का सिंहासन डोलने लगता है। अब इंद्र का सिंहासन क्यों डोलने लगता
है? इंद्र को क्या पड़ी? घबड़ाहट पैदा
होती है कि कहीं यह मेरा पद न ले ले! तो इसको गिराओ, इसको
डिगाओ।
तो तुमसे कोई अगर थोड़े ऊपर है, वह धक्का मारेगा कि नीचे जाओ। और जो नीचे हैं, वे
तुम्हारी टांग खींचेंगे कि कहां ऊपर जाते हो! भीड़ तुम्हें खींच लेगी अपने में वापस,
कि तुम हमसे अपने को ऊंचा समझना चाहते हो? ऊंचे
उठना चाहते हो? भीड़ तुम्हारे पंख काट देगी। भीड़ बरदाश्त नहीं
करती। भीड़ कभी किसी महामानव को बरदाश्त नहीं करती। महामानव के लिए तो भीड़ गालियां
ही देती है, अपमान ही करती है। यही महामानव का भाग्य है,
नियति है; उसे गालियां झेलनी पड़ेंगी।
तुम पूछते हो: "जीवन इतना
उलटा-उलटा क्यों मालूम होता है?'
मालूम नहीं होता, हमने बना लिया है उलटा-उलटा। हमने सब उपाय करके उलटा-उलटा कर लिया है।
आदमी है परमात्मा होने की क्षमता और हम परमात्मा नहीं हो रहे हैं। हम गिर रहे हैं
पशुओं से नीचे। हम हो रहे हैं हैवान। परमात्मा होना तो दूर, हम
आदमी भी नहीं हो पा रहे हैं। इससे सब उलटा हो गया है। हमारी प्रकृति, हमारा निसर्ग तो चाहता है कि उड़ें, पंख फैलाएं आकाश
में! और हमारी व्यवस्था, हमारे स्वार्थ, हमारा समाज, हमारे चारों तरफ की भीड़ चाहती है कि हम
नीचे रहें, कहीं ऊंचे न जाएं!
मेरी लड़की नाच सकती है, गा सकती है और सितार भी बजा सकती है। वह अभिनय करने में कुशल है और वह एक
अच्छी तैराक भी है। उसे पिक्चर देखने और उपन्यास पढ़ने का बहुत शौक है। जूडो और
कराटे का भी उसे अच्छा ज्ञान है। मेरी लाड़ली बिटिया बड़ी निडर और दुस्साहसी है। वह
हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फ्रेंच और जापानी भाषाएं जानती है तथा जर्मन सीख रही है। पिछले साल
वाद-विवाद और बैडमिंटन प्रतियोगिताओं में वह स्वर्ण-पदक जीत चुकी है। वह
धाराप्रवाह बोल सकती है। सामाजिक कार्यों में उसका झुकाव है। और अगले लोकसभा चुनाव
में वह सूरत क्षेत्र से इलेक्शन लड़ने की तैयारी कर रही है। आप में क्या खूबियां
हैं? ढब्बूजी की होने वाली सास ने अपनी सुपुत्री के विषय में
विस्तार से बताने के बाद ढब्बूजी से पूछा।
बेचारे ढब्बूजी शर्म से सिर झुका कर
बोले, जी, मुझे तो सिर्फ खाना पकाना
ही आता है और मुझे सर्वश्रेष्ठ भोजन पकाने के लिए कई बार पुरस्कार भी मिले हैं।
जिंदगी हम उलटी किए दे रहे हैं। हमने
उलटी कर ली है जिंदगी। स्त्रियां पुरुष होने की कोशिश में लगी हैं और पुरुष
स्त्रैण होने की कोशिश में लगे हैं। स्त्रियां दौड़ रही हैं तेजी से कि पुरुष से
स्पर्धा करें। और पुरुष धीरे-धीरे बर्तन मल रहा है; भोजन बना रहा है;
घर साफ कर रहा है। स्त्रियां सिगरेट पी रही हैं; घुड़सवारी कर रही हैं; जूडो-कराटे की शिक्षा ले रही
हैं। स्त्रैणता नष्ट हो रही है। स्त्रैणता चाहती है एक कमनीयता। पुरुष का पुरुषत्व
भी नष्ट हो रहा है। सब चीजें उलटी होती जा रही हैं। उलटा कोई परमात्मा नहीं कर रहा
है, उलटा हम कर रहे हैं।
लड़की बहुत अमीर थी और मुल्ला
नसरुद्दीन गरीब, पर ईमानदार। वह उसे पसंद करती थी, पर बस इतना ही, यह मुल्ला भी जानता था। एक रात मौका
पाकर मुल्ला बोला, तुम बहुत अमीर हो?
हां--लड़की ने कहा--इस समय मैं एक करोड़
की आसामी हूं। इस समय एक करोड़ रुपया मेरे पास है।
मुझसे शादी करोगी? मुल्ला ने पूछा।
नहीं।
मुझे मालूम था कि तुम यही
कहोगी--मुल्ला ठंडी सांस लेता हुआ बोला।
तो फिर तुमने पूछा ही क्यों? लड़की ने मुल्ला से पूछा।
यह देखने के लिए कि आदमी को कैसा लगता
है एक करोड़ रुपया गंवा कर, मुल्ला बोला।
उसे भी शादी में उत्सुकता नहीं है। एक
करोड़ रुपया गंवा कर कैसा लगता है आदमी को, यह जानने के लिए! वह
जो ठंडी सांस ली थी, वह एक करोड़ रुपया गंवाया, उसके लिए ली थी।
लोग धन के लिए प्रेम करेंगे तो सब
उलटा हो जाएगा। और लोग धन के लिए ही प्रेम कर रहे हैं। प्रेम के लिए भी पूछने जाते
हैं ज्योतिषी से। प्रेम भी मां-बाप तय करते हैं। क्योंकि मां-बाप ज्यादा होशियार
हैं। धन, पद, प्रतिष्ठा, सबका इंतजाम करेंगे। प्रेम का भी मौका मनुष्य को सीधा नहीं रह गया। वह भी
दूसरे तय कर रहे हैं। और उनके निर्णय के आधार क्या हैं? लड़के
के पास कितना धन है, कितनी शिक्षा है? लड़की
के पास कितना दहेज है, कितनी शिक्षा है? लड़कियां कालेजों में पढ़ रही हैं केवल इसलिए कि उन्हें अच्छा वर मिल सके;
पढ़ाई में किसी की उत्सुकता नहीं है।
मैं विश्वविद्यालय में शिक्षक था।
मैंने एक लड़की नहीं देखी जिसको पढ़ाई में उत्सुकता हो। उनकी सारी उत्सुकता यह है कि
किसी तरह अच्छी डिग्री मिल जाए, प्रथम श्रेणी मिल जाए। और
स्वर्ण-पदक मिल जाए तब तो कहना ही क्या! मगर स्वर्ण-पदक, अच्छी
डिग्री, पढ़ना-लिखना, इसमें कोई रस नहीं
है। रस इस बात में है कि तब वे अच्छा पति फांस सकेंगी। नौकरी उसकी अच्छी होगी।
डिप्टी कलेक्टर, कलेक्टर, डाक्टर होगा,
इंजीनियर होगा।
हम जिंदगी को उलटा किए दे रहे हैं।
हमने जिंदगी उलटी कर ली है।
एक युवती ने प्रदर्शनी में एक नये ढंग
का कंप्यूटर देखा। प्रदर्शनी के संचालक ने बताया कि यह ऐसा यंत्र है जो इंसान जैसा
मस्तिष्क रखता है और यह प्रत्येक प्रश्न का सही उत्तर देने की पूरी क्षमता भी रखता
है।
युवती तो बहुत प्रभावित हुई। उसने एक
कागज पर प्रश्न लिखा: मेरा बाप कहां है?
इस प्रश्न को मशीन में डाला गया और एक
बटन दबाई गई। तुरंत मशीन में से एक पुर्जा बाहर निकला, जिस पर लिखा था: तुम्हारा बाप बंबई की एक शराब की दुकान में बैठा शराब पी
रहा है।
एकदम गलत--युवती बोली--मेरे बाप को
मरे तो बीस साल हो गए।
यह मशीन कभी कोई गलती नहीं
करती--संचालक ने पूरे विश्वास से कहा--आप इसी प्रश्न को जरा दूसरे ढंग से पूछिए।
इस बार युवती ने अपने प्रश्न को इस
प्रकार लिखा: मेरी मां का पति कहां है?
फिर से प्रश्न को मशीन में डाला गया
और बटन दबाई गई। बटन के दबाते ही फटाक से एक पुर्जा बाहर आया जिस पर लिखा था:
तुम्हारी मां के पति को मरे बीस साल हो गए हैं, लेकिन तुम्हारा बाप
बंबई की एक शराब की दुकान में बैठा शराब पी रहा है।
परमात्मा नहीं कर रहा है जिंदगी को
उलटा। परमात्मा को बख्शो, उस पर कृपा करो। उसका तुम्हें कुछ पता भी नहीं है।
हमने ही सब गड़बड़ कर लिया है। हमने ही गुड़-गोबर कर लिया है। हमारी जिम्मेवारी है।
मनुष्य ने अपने हाथ से ही अपनी जिंदगी पर कालिख पोत ली है, अपने
चेहरे पर नकाब लगा लिए हैं, मुखौटे पहन लिए हैं, पाखंडी हो गया है। कुछ कहता है, कुछ करता है। किसी
बात का भरोसा नहीं है। उसे खुद अपनी बात का भरोसा नहीं है कि वह जो कह रहा है,
उसमें कितनी सचाई है? दूसरों को तो छोड़ दो;
तुम जब कुछ कहते हो, बिना सोचे-समझे कहे जा
रहे हो। पीछे तुम पछताते हो कि यह मैं क्या कह गया! यह तो मैंने कहना चाहा नहीं
था। यह तो मैंने सोचा भी नहीं था कि कहूंगा।
तुम्हें अपना भी पूरा पता नहीं है।
तुम्हारे भीतर भी कितना अचेतन कूड़ा-कचरा भरा है, उसका तुम्हें होश
नहीं है। वह कूड़ा-कचरा कब तुम्हारे बाहर आ जाता है, तुम्हें
पता भी नहीं चलता। तुम क्यों क्रोधित हो गए? तुमने क्यों
क्रोध में कुछ कह दिया, कुछ तोड़ दिया, कुछ
फोड़ दिया? पीछे तुम खुद ही अपना सिर धुनते हो। तुम कहते हो:
मेरे बावजूद यह हो गया, मैं तो करना ही नहीं चाहता था।
मनुष्य अगर अपने को न जानता हो तो
उलटा हो जाएगा। आत्मज्ञान ही मनुष्य को सीधा रख सकता है। आत्म-अज्ञान में सब उलटा
हो जाने वाला है। और हम सब अज्ञानी हैं। मगर कोई मानने को राजी नहीं है कि वह
अज्ञानी है। सबको भ्रम है ज्ञानी होने का। और जब अज्ञानी को ज्ञानी होने का भ्रम
होता है तो अज्ञान सदा के लिए सुरक्षित हो गया। जब अज्ञानी को इस बात का बोध होता
है कि मैं अज्ञानी हूं, तो उसने ज्ञान की तरफ पहला कदम उठाया। क्योंकि यह
बहुत बड़ा ज्ञान है जान लेना कि मैं अज्ञानी हूं। यह बड़े से बड़ा जानना है।
यहां चरित्रहीन अपने को चरित्रवान समझ
रहे हैं, क्योंकि उन्होंने ऊपर से एक ढोंग रच लिया है। यहां
असाधु अपने को साधु समझ रहे हैं, क्योंकि उन्होंने ऊपर से एक
व्यवस्था बांध रखी है। यहां सब उलटा हो गया है। इस उलटे को अगर सीधा करना हो--और
करना जरूरी है, नहीं तो आदमी बचेगा नहीं--तो एक ही उपाय है
कि मनुष्य को ध्यान की क्षमता दो, कि मनुष्य को ध्यान की
शिक्षा दो, कि मनुष्य को ध्यान के द्वारा आत्म-साक्षात्कार
के उपाय सिखाओ--कि वह स्वयं को पूरा-पूरा जान ले कि मैं क्या हूं, कौन हूं, कैसा हूं, क्या-क्या मेरे
भीतर है, कितने कक्ष मेरे अंधकार में दबे पड़े हैं। जो
व्यक्ति अपने को पूरी तरह पहचानता है उससे जीवन में फिर कुछ उलटा नहीं होता। और एक
व्यक्ति सीधा हो जाए तो उसके आस-पास तरंगें पैदा होती हैं कि अनेक लोग सीधे होने
लगते हैं।
मैं तुम्हें जो सिखा रहा हूं, सीधी-सादी बात है। मैं तुम्हें आचरण नहीं सिखा रहा। क्योंकि आचरण सिखाया
गया सदियों तक, सिर्फ पाखंड पैदा हुआ, आचरण
पैदा नहीं हुआ। मैं तुम्हें नीति नहीं सिखा रहा। क्योंकि नीति सिखा-सिखा कर मर गए
लोग, न वे खुद नीतिवान हो सके, न
दूसरों को नीतिवान कर सके। मैं तुम्हें एक नई ही बात कह रहा हूं। मैं तो कह रहा
हूं: सब नीति, सब आचरण, सब बाह्य उपचार
हैं। तुम चैतन्य को जगाओ। तुम चेतना बनो। तुम ज्यादा से ज्यादा चैतन्य हो जाओ।
तुम्हारी चैतन्यता की क्षमता में ही तुम्हारे जीवन की क्रांति छिपी है। तुम जितने
होश से भर जाओगे उतना ही तुम्हारा जीवन सहज, सीधा, नैसर्गिक, सरल, सत्य और
प्रामाणिक हो जाएगा।
परमात्मा की क्या मर्जी है, यह मत पूछो; तुम्हारी क्या मर्जी है, यह पूछो। तुम्हें जीवन को नैसर्गिक, सहज, सरल और सत्य ढंग से जीना है? इसकी फिक्र करो। तुम
अपनी फिक्र करो। तुम औरों की फिक्र छोड़ो। क्योंकि तुम नहीं थे, और तो लोग थे ही; तुम कल नहीं हो जाओगे, और लोग जारी रहेंगे। यह दुनिया बड़ी है। इस सारी दुनिया को सीधा करने की
चिंता में तुम मत लग जाना। क्योंकि उस तरह की चिंता भी सिर्फ, अपने उलटेपन को न देख पाऊं, इसका उपाय है। तुम अपनी
फिक्र कर लो।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन गया एक दुकान पर लिपस्टिक खरीदने। दुकानदार बड़ा हैरान
हुआ। बहुत लिपस्टिक खरीदने वाले उसने देखे थे, मगर ऐसा
खरीददार नहीं देखा था। वह एक-एक लिपस्टिक को ले और चखे। दुकानदार ने कहा कि बड़े
मियां, क्या कर रहे हो? यह कोई
लिपस्टिक खरीदने का ढंग है? बहुत खरीददार देखे, जिंदगी मेरी हो गई लिपस्टिक बेचते, यही मेरा धंधा है,
तुम पहली दफा आए हो। यह क्या कर रहे हो?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि तुम अपने
काम से काम रखो, मुझे मेरा काम करने दो। बीच में बाधा देने की तुम्हें
जरूरत नहीं। लिपस्टिक मैं खरीद रहा हूं या तुम?
दुकानदार ने कहा, वह तो आप ही खरीद रहे हैं। मगर बेच रहा हूं मैं, तो
कम से कम मुझे इतना हक है पूछने का कि यह क्या ढंग है चुनने का?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि यह निजी
बात है। तुम नहीं मानते तो बताए देता हूं। लगाएगी तो मेरी पत्नी लिपस्टिक, लेकिन चखना तो मुझको ही पड़ेगा! सो पहले से ही मैं चख रहा हूं। मैं अपनी
फिक्र कर रहा हूं।
और मैं भी तुमसे कहता हूं: तुम अपनी
फिक्र कर लो। छोड़ो फिक्र दुनिया की कि उलटी है कि सीधी। तुम इतनी फिक्र कर लो कि
तुम तो कहीं सिर के बल नहीं खड़े हो! बस तुम अपने को सीधा करने में लग जाओ। और तुम
सीधे हो जाओ तो तुम अचानक पाओगे कि तुम्हारे आस-पास की दुनिया भी सीधी होने लगी।
हम जैसे होते हैं, हमारे लिए दुनिया वैसी ही हो जाती है। क्योंकि दुनिया
हम पर वही लौटा कर बरसा देती है जो हम दुनिया को देते हैं। अगर तुम फूल फेंकोगे
दुनिया पर, फूल लौट आएंगे--हजार गुना होकर लौट आएंगे! दुनिया
एक प्रतिध्वनि है। और तुम अगर सीधे हो तो तुमसे जो भी आदमी संबंध बनाएगा, वह संबंध बना ही तब सकेगा जब सीधा होगा; उसे सीधा
होना ही पड़ेगा, नहीं तो तुमसे संबंध नहीं बन सकेगा।
धीरे-धीरे तुम पाओगे तुमसे वे ही लोग संबंध बनाते हैं जो सीधे हैं। पियक्कड़ों के
पास पियक्कड़ इकट्ठे होते हैं। जुआरियों के पास जुआरी इकट्ठे हो जाते हैं। संतों के
पास, जिनके संतत्व की संभावना है, वे
ही लोग खिंचे चले आते हैं। सदगुरु के पास हर कोई नहीं आ जाता। बुद्धों के पास
सिर्फ संभावित बुद्ध ही आते हैं।
तुम सीधे हो तो तुम अचानक पाओगे कि
तुम्हारे संबंध उन लोगों से होने लगे जो सीधे हैं। कम से कम तुम्हारी छोटी सी
दुनिया सीधी हो जाएगी, साफ-सुथरी हो जाएगी। तुम जटिलता छोड़ो। तुम कुटिलता
छोड़ो। तुम इरछा-तिरछापन छोड़ो।
इतना तो हो सकता है। लेकिन तुम अगर दुनिया
को सीधा करने में लग गए तो तुम खुद भी सीधे न हो पाओगे, तुम किसी को सीधा कर भी न पाओगे। तुम्हारा जीवन रेत से तेल निकालने में
व्यतीत हो जाएगा, न कभी तेल निकलेगा, न
कभी तुम्हें तृप्ति होगी, न कभी तुम अनुभव कर सकोगे कि मैं
पा सका वह जो मैंने पाना चाहा था। छोड़ो दुनिया को, अपनी सुध
लो!
तीसरा प्रश्न:
भगवान! कोई दस
हजार वर्ष पहले वेद के ऋषियों ने एक प्रश्न पूछा था--कस्मै देवाय हविषा विधेम? हम किस देव की स्तुति व उपासना करें? क्या यह प्रश्न
आज भी प्रासंगिक नहीं है? क्या इस पर पुनः कुछ कहने की
अनुकंपा करेंगे?
आनंद
मैत्रेय! यह प्रश्न न तो उस दिन प्रासंगिक था, न आज प्रासंगिक है।
हम किस देव की स्तुति व उपासना करें? यह मौलिक रूप से गलत
प्रश्न है। और जब गलत प्रश्न पूछा जाता है तो फिर गलत उत्तर पैदा होते हैं। तो कोई
कहेगा कि गणेशजी की पूजा करो और कोई कहेगा कि शिवजी की पूजा करो और कोई कहेगा कि
रामचंद्रजी की पूजा करो और कोई कहेगा कि कृष्णचंद्रजी की पूजा करो। फिर विवाद
उठेगा, झगड़े खड़े होंगे।
यह प्रश्न ही गलत है--कस्मै देवाय
हविषा विधेम? किस देवता को हम पूजें? इसमें
जोर है देवता के चुनाव पर। इसलिए इसे मैं गलत प्रश्न कहता हूं। यह किसी साधारणजन
ने पूछा होगा। वेद में इसका उल्लेख है, मगर वेद में सभी वचन
ऋषियों के नहीं हैं--नहीं हो सकते हैं। क्योंकि वेद को मैंने देखा तो मैंने पाया
कि अधिकतर बातें तो इतनी छोटी हैं, इतनी ओछी हैं कि वेद में
होनी ही नहीं चाहिए थीं। लेकिन उनके होने का कारण है। वेद उस समय की
एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका है। जो भी उस समय की जानकारी थी, सब वेद में डाल दी गई--अच्छी, बुरी; छोटे लोगों की, बड़े लोगों की; अज्ञानियों
की, ज्ञानियों की। सब इकट्ठा कर दिया गया। उसमें तुम्हें
छांटना होगा। महर्षियों के वचन तो बहुत थोड़े हैं। अधिकतर वचन तो अज्ञानियों के
हैं।
कोई प्रार्थना कर रहा है इंद्र से कि
हे इंद्र, मेरे दुश्मन के खेत में वर्षा ही मत करना!
अब यह कोई महर्षि ऐसी प्रार्थना करेगा? एक तो महर्षि किसी को दुश्मन क्यों मानेगा? और चलो,
मान भी लिया कि दुश्मन कोई है, तो ऐसी
प्रार्थना करेगा कि उसके खेत में पानी कम बरसाना? और न केवल
महर्षि इस तरह की प्रार्थना कर रहे हैं, इंद्र देवता इस तरह
की प्रार्थनाएं मान भी रहे हैं। न तो महर्षि महर्षि मालूम होते हैं, न इंद्र देवता इंद्र देवता मालूम होते हैं। क्योंकि ऋषि कह रहा है कि
नारियल चढ़ाऊंगा। वह रिश्वत दूंगा, कह रहा है, ठीक अर्थों में।
इसीलिए भारत से रिश्वत का मिटना बहुत
मुश्किल है। यह बड़ी पुरानी परंपरा है। हम देवताओं को रिश्वत देते रहे, भगवान को रिश्वत देते रहे, राजाओं-महाराजाओं को
रिश्वत देते रहे। रघुकुल रीत सदा चलि आई! यह तो चलता ही रहा। अब उसी तरह जो भी अब
हैं--प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, कि
गवर्नर, कि कमिश्नर, कि कलेक्टर,
कि डिप्टी कलेक्टर, कि इंस्पेक्टर, कि हवलदार, कि चपरासी--जो भी जहां जरूरत है, हमें एक बात पता है कि नारियल चढ़ाने से सब कुछ होता है। इस देश में रिश्वत
तो धार्मिक कृत्य है। इसलिए इस देश से रिश्वत को मिटाना बहुत मुश्किल है।
दुनिया के किसी देश में इस तरह की
रिश्वत नहीं चलती। चल ही नहीं सकती, क्योंकि लोगों को
थोड़ा सम्मान है अपना। अगर तुम किसी आदमी को रिश्वत देने को कहोगे तो वह चांटा मार
देगा तुम्हें, कि तुम उसका अपमान कर रहे हो। तुम कह रहे हो
कि वह अपने कर्तव्य को बेच दे--दो पैसे में! तुम उससे उसकी आत्मा बेच देने का
आग्रह कर रहे हो--दो पैसे में! पहले तो कोई देने की हिम्मत नहीं करेगा। और देने की
किसी ने हिम्मत की तो उत्तर में बहुत कठिनाई में पड़ जाएगा। इस देश में लेकिन
लेना-देना बिलकुल प्रेम से चलता है। अड़चन ही नहीं है कोई। कोई सोचता ही नहीं कि
रिश्वत लेने में कोई अपमान है। देने वाला भी नहीं सोचता कि वह अपमान कर रहा है।
देने वाला सोचता है सम्मान कर रहा है। लेने वाला भी सोचता है सम्मानित हो रहा हूं।
अगर न दो रिश्वत तो अपमान है। पुरानी आदतें हैं। परंपरागत है।
यह पूछना कि किस देवता की उपासना करें, यह प्रश्न ही गलत है। यह किसी ऋषि का नहीं हो सकता। ऋषि तो उपासना करता है,
देवता का सवाल ही नहीं है। यह सारा अस्तित्व दिव्य है। इसमें कहां
पूछना कि किसकी करें और किसकी न करें! यह पूछना कि मैं किस देवता के सामने झुकूं,
गलत आदमी का सवाल है। सही आदमी पूछता है: झुकने की कला क्या है?
मेरी बात को ठीक से समझ लेना। सही
आदमी पूछता है: झुकने की कला क्या है? वह यह सवाल ही नहीं
कि किसके सामने झुकें। झुकने की कला! फिर जहां भी झुक जाओ वहीं परमात्मा है। गलत
आदमी पूछता है कि परमात्मा हो तो मैं झुकूं। सही आदमी कहता है कि जहां मैं झुक गया
वहीं मैंने परमात्मा पाया। झुकना पहले है, परमात्मा पीछे है।
और गलत आदमी कहता है: पक्का हो जाए कि ये ही सज्जन परमात्मा हैं! यही देवता काम
पड़ेगा! कि यह है भी देवता कि नहीं!
इस प्रश्न में यही सारी बातें छिपी
हैं। कस्मै देवाय हविषा विधेम? किसकी स्तुति करें? किसकी उपासना करें? असल में, जो
अनुवाद किया है, आनंद मैत्रेय--हम किस देव की स्तुति व
उपासना करें? वह अनुवाद भी थोड़ा सा भिन्न है मूल से। कस्मै
देवाय हविषा विधेम? हविषा का अर्थ होता है--भेंट किसको चढ़ाएं?
रिश्वत किसको दें? उसका ठीक-ठीक अर्थ होता है:
भेंट। डाली किसको भेजें? कौन काम पड़ेगा? लड़का बीमार है, पत्नी मिलती नहीं, नौकरी खो गई, दीवाला निकल गया। अब कौन है देवता जो
दीवाले को दीवाली में बदल दे? उसकी हम भेंट करेंगे। उस पर हम
उपासना करेंगे, प्रार्थना करेंगे, स्तुति
करेंगे। उसके चरणों में सिर पटकेंगे। मगर पक्का हो जाए कि वह कर भी सकता है कि
नहीं! उसकी सामर्थ्य में भी है यह बात या नहीं!
तो फिर दावेदार पैदा होते हैं, पंडित-पुरोहित पैदा होते हैं। वे कहते हैं कि यह है असली देवता। इस देवता
का यह रहा मंत्र। इसी मंत्र से यह देवता सिद्ध होगा। और मंत्र की भी यह विशेष
पद्धति है, इसमें इंच भर फर्क किया कि चूक हुई, कि फिर देवता से संबंध छूट जाएगा। और मैं ही कान फूंकूंगा तुम्हारे। और
मैं ही तुम्हें विधि बताऊंगा। और तुम किसी को यह विधि बताना मत।
ये सब धंधे फैलाने के उपाय हैं।
नहीं, यह प्रश्न ऋषि का
नहीं है। यह प्रश्न बहुत सामान्यजन का होगा। ऋषि तो पूछेगा: झुकने की कला क्या है?
निरहंकार होने की कला क्या है? मैं कैसे मिट जाऊं?
शोरे-नाकूसे-बरहमन हो कि हो बांगे-हरम
छुपके हर आवाज में तुझको सदा देता हूं
मैं
फिर चाहे मंदिर में शंख बजता हो कि
चाहे मस्जिद में अजान, कुछ फर्क नहीं पड़ता।
शोरे-नाकूसे-बरहमन...
ब्राह्मण के शंख का नाद।
शोरे-नाकूसे-बरहमन हो कि हो बांगे-हरम
कि काबे में नमाज पढ़ी जा रही हो, कि काबे से अजान उठ रही हो, कुछ फर्क नहीं है।
छुपके हर आवाज में तुझको सदा देता हूं
मैं
मैं ही हर आवाज से तुझे पुकार रहा
हूं। मैं ही हूं ब्राह्मण के शंख की आवाज और मैं ही हूं सुबह-सुबह मस्जिद से उठती
हुई अजान। सब आवाजें मेरी हैं और सब आवाजें तुझ एक की तरफ समर्पित हैं।
"किस देवता की
स्तुति करें?'
क्या बहुत परमात्मा हैं दुनिया में? परमात्मा एक है। उस एक की ही स्तुति है। उस एक की ही उपासना है। और उपासना
में उस एक को पहले नहीं जाना जा सकता--कि वह कौन है? उपासना
करने के बाद ही उसका अनुभव हो सकता है। परमात्मा को जान लेंगे, फिर प्रार्थना करेंगे, अगर तुमने ऐसा निर्णय लिया तो
तुम न कभी परमात्मा को जानोगे, न कभी प्रार्थना करोगे।
तुमसे मैं कहता हूं: प्रार्थना करो, ताकि परमात्मा को जान सको। प्रार्थना पहले है, प्रेम
पहले है। तुम प्रार्थना का मजा लेना शुरू करो। तुम प्रार्थना में मस्त होओ। तुम
प्रार्थना में उन्मत्त होओ। तुम प्रार्थना की शराब पीओ, परमात्मा
खुद खिंचा चला आएगा। कच्चे धागे में बंधे चले आएंगे। वह जो मालिक है, तुम्हारा जरा कच्चा सा धागा भी प्रार्थना का हो तो पर्याप्त है।
जबीं काबे में रख दी या सरे-कूए-बुतां
रख दी
गरज अब उठ नहीं सकती, जहां रख दी वहां रख दी
जरा तरकीब सीखो सिर रखने की, सिर टेकने की, झुकने की। और जहां सिर रख दो, फिर वहां से उठे न। फिर घबड़ाओ मत, परमात्मा तुम्हें
खोजता आ जाएगा। इतना समर्पण हो और परमात्मा न मिले, ऐसा कभी
हुआ है?
हजरते-जाहिद, तुम्हें जन्नत दिखा लाएंगे रिंद
फूल खिलने दीजिए, चश्मे उबलने दीजिए
जरा पियक्कड़ों का साथ करो! क्या पूछते
हो: कस्मै देवाय हविषा विधेम? किस देवता की मैं स्तुति करूं,
किस देवता को भेंट चढ़ाऊं, किस देवता की उपासना
करूं? अरे रिंदों से दोस्ती करो! पियक्कड़ों से दोस्ती करो!
जो पीए बैठे हैं, जो मदहोशी से भरे हैं, जो उसके ध्यान में लीन हैं, जो उसके प्रेम में डूबे
हैं, जो उसकी प्रार्थना में नाच रहे हैं--उनसे दोस्ती करो,
उनका सत्संग करो!
हजरते-जाहिद! तब हे ज्ञानी पंडित, हे विरागी पंडित।
हजरते-जाहिद, तुम्हें जन्नत दिखा लाएंगे रिंद
तब ये पीने वाले पियक्कड़ तुम्हें
स्वर्ग दिखला लाएंगे।
फूल खिलने दीजिए, चश्मे उबलने दीजिए
होने दो आनंद! खिलने दो फूल! झरने
टूटने दो--प्रेम के, प्रार्थना के! मत पूछो किसकी प्रार्थना करें। यही
पूछो, प्रार्थना क्या है? यही पूछो,
प्रार्थना कैसे करें? मत पूछो किसका ध्यान
करें। यही पूछो कि ध्यान क्या है? ध्यान कैसे करें?
मेरे पास भी लोग आकर पूछते हैं, वे पूछते हैं: ध्यान किसका करें?
गलत प्रश्न उन्होंने शुरू किया।
किसका! बस वे पूछ रहे हैं कि गणेशजी का कि हनुमानजी का? कि अब बैठ कर आंख बंद करके हनुमानजी को देखें? जरा
सावधानी रखना, हनुमानजी को देखा, हनुमानजी
ही हो जाओगे। गणेशजी को देखा, गणेशजी हो जाओगे। जिसको देखोगे
वही हो जाओगे, क्योंकि उसी में रंग जाओगे, उसी में पग जाओगे। जरा सावधान रहना। ज्यादा गणेशजी को देखा, सूंड निकलेगी। ज्यादा हनुमानजी को देखा, पूंछ
निकलेगी। किसका ध्यान! किसका सवाल ही नहीं है। ध्यान तो चित्त की निर्विषय अवस्था
है; उसमें कोई विषय होता ही नहीं--न गणेशजी, न हनुमानजी।
बुद्ध ने कहा है: अगर तुम्हारे मार्ग
में कहीं मैं आ जाऊं तो तलवार उठा कर मेरी गर्दन काट देना।
किस मार्ग की बात कर रहे हैं बुद्ध? ध्यान के मार्ग की। वे कह रहे हैं: ध्यान में अगर मैं भी आ जाऊं तुम्हारे,
तो तलवार से काट देना, हटा देना मुझे। क्योंकि
ध्यान है शून्य, निर्विकार, निर्विचार
चित्त की अवस्था। और तुम पूछ रहे हो, किसका करें? तुम पूछ रहे हो, ध्यान में किसको भरें? और ध्यान है खाली करना। बात ही गलत हो गई, शुरू से
ही गलत हो गई।
मगर तुम्हें पंडित-पुरोहित यही समझाते
रहे हैं कि इसका करो ध्यान, उसका करो ध्यान। सदियों-सदियों से गलत बातें कही गई
हैं, तुम उनके आदी हो गए हो।
तू हुस्न की नजर को समझता है बेपनाह
अपनी निगाह को भी कभी आजमा के देख
परदे तमाम उठा के न मायूसे-जलवा हो
उठ और अपने दिल की चिलमन उठा के देख
सवाल यह नहीं है कि किसका ध्यान, जरा भीतर का परदा उठाना है।
तू हुस्न की नजर को समझता है बेपनाह
अपनी निगाह को भी कभी आजमा के देख
जरा अपनी दृष्टि को आजमाओ, अपने दर्शन की क्षमता को आजमाओ।
परदे तमाम उठा के न मायूसे-जलवा हो
उठा चुके बहुत परदे मंदिरों के, मस्जिदों के। मायूस न हो जाओ; उदास न हो जाओ;
हताश न हो जाओ।
उठ और अपने दिल की चिलमन उठा के देख
एक ही परदा उठाने जैसा है, वह अपने दिल पर पड़ा हुआ परदा है। किस बात से बुना गया है वह परदा? विचार से और वासना के ताने-बाने से बुना गया परदा है। विचार और वासना को
हटा दो। एक क्षण को भी न विचार हो, न वासना हो--ध्यान अवतरित
हो गया! और ध्यान में तुम जानोगे--सब कुछ परमात्मा है--तुम भी! कण-कण परमात्मा है।
परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। परमात्मा समष्टि का नाम है।
इश्क है सहल, मगर हम हैं वो दुश्वार-पसंद
कारे-आसां को भी दुश्वार बना लेते हैं
बड़ी सरल बात है प्रेम। प्रार्थना बड़ी
सरल बात है।
इश्क है सहल, मगर हम हैं वो दुश्वार-पसंद
मगर हम कुछ ऐसे उलटे हैं कि हमें
कठिनाई जंचती है। हम चीजों को उलझा लेते हैं और कठिन बना लेते हैं।
कारे-आसां को भी दुश्वार बना लेते हैं
जो बात सरलता से हो सकती थी, उसको भी खूब कठिन कर लेते हैं। क्यों? क्योंकि
अहंकार को सरल बात करने में मजा नहीं आता। कठिन कोई बात हो तो करने में मजा आता
है। जितनी कठिन हो उतना अहंकार को लगता है कि हां, करके
दिखाऊंगा! बात सरल हो तो अहंकार कहता है: यह तो कोई भी कर लेगा, इसमें क्या खूबी है? इसमें क्या अहंकार को भोजन
मिलेगा? तो हमने प्रेम को, प्रार्थना
को भी कठिन बना लिया है। अन्यथा बात बड़ी सरल है।
कछुए के अंगों की भांति
सब वृत्तियां
समेट लीं मैंने।
कमठचर्म सी
ओढ़ ली
ढाल ढिठाई की
बाहर से बंद हो
अंदर को खुल गया।
इंगला ने आसन दिया,
पिंगला ने जलपान,
सुषमना ने सेज बिछा
समादृत मुझे किया।
खुल गया
सूक्ष्म
दिव्य,
चेतना का लोक नया।
बस इतना सा राज है।
कछुए के अंगों की भांति
सब वृत्तियां
समेट लीं मैंने।
सीखो अपने को समेटना!
कमठचर्म सी
ओढ़ ली ढाल
ढिठाई की
बाहर से बंद हो
अंदर को खुल गया।
बाहर से आंख बंद करो, ताकि भीतर आंख खुल सके। पलटू ने कहा न: मेरी बात वे ही समझेंगे जो अंधे
हैं। अंधे! पहले तो बात चौंकाती है, मगर वे ठीक कह रहे हैं।
वे कह रहे हैं: बाहर से जिन्होंने आंख बंद कर ली, वे बाहर के
लिए अंधे ही हो गए। अब वे भीतर ही देखते हैं।
बाहर से बंद हो
अंदर को खुल गया।
इंगला ने आसन दिया,
पिंगला ने जलपान,
सुषमना ने सेज बिछा
समादृत मुझे किया।
खुल गया
सूक्ष्म
दिव्य,
चेतना का लोक नया।
नहीं, यह सवाल पूछने का
नहीं है कि हम किसे स्तुति दें, किसकी उपासना करें, किस पर भेंट चढ़ाएं? कस्मै देवाय हविषा विधेम?
नहीं-नहीं, यह सवाल महर्षि का नहीं है।
महर्षि तो यही पूछता है कि हम कैसे
अपने को जान लें? स्वयं से परिचित हो जाएं? क्योंकि
जो स्वयं को जान लेता है, उसने सब जान लिया। और जो स्वयं को
नहीं जानता, वह और कुछ भी जान ले, उसके
जानने का कोई भी मूल्य नहीं है।
धर्म है आत्म-साक्षात्कार। ये
देवी-देवताओं की बातचीत ही बचकानी है।
और आत्म-साक्षात्कार ही
परमात्म-साक्षात्कार है। तुम्हारे भीतर से ही वह द्वार खुलता है जो परमात्मा का द्वार
है
आज इतना ही।
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