प्रेम की झील में
नौका-विहार—(प्रवचन—पहला)
सूत्र:
बसौ मेरे नैनन में नंदलाल।
मोहनी मूरत सांवरी सूरत, नैना बने
बिसाल।
मोर मुकुट मकराकृति कुंडल, अरुण तिलक
शोभे भाल।
अधर सुधारस मुरली राजति, उर वैजंति
माल।
छुद्र घंटिका कटितट सोभित, नूपुर सबद
रसाल।
मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्त
बच्छल गोपाल।
हरि मोरे जीवन प्राण आधार।
और आसिरो नाहिं तुम बिन, तीनूं लोक
मंझार।
आप बिना मोहि कछु न सुहावै, निरखौ सब
संसार।
मीरा कहै मैं दास रावरी, दीज्यौ
मति विसार।
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न
कोई।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति
सोई।
छाड़ि दई कुल की कानि, कहा करि
है कोई।
संतन ढिंग बैठि बैठि
लोकलाज खोई।
अंसुवन जल सींचि सींचि, प्रेम-बेलि
बोई।
अब तो बेलि फैल गई, आनंद फल
होई।
भगत देख राजी हुई, जगत देख
रोई।
आओ, प्रेम की
एक झील में नौका-विहार करें। और ऐसी झील मनुष्य के इतिहास में दूसरी नहीं है,
जैसी झील मीरा है। मानसरोवर भी उतना स्वच्छ नहीं।
और हंसों की ही गति हो सकेगी मीरा की इस झील
में। हंस बनो,
तो ही उतर सकोगे इस झील में। हंस न बने तो न उतर पाओगे।
हंस बनने का अर्थ है: मोतियों की पहचान आंख
में हो, मोती की आकांक्षा हृदय में हो। हंसा तो मोती चुगे!
कुछ और से राजी मत हो जाना। क्षुद्र से राजी
हो गया, वह विराट को पाने में असमर्थ हो जाता है। नदी-नालों का पानी पीने से जो
तृप्त हो गया, वह मानसरोवरों तक नहीं पहुंच पाता है; जरूरत ही नहीं रह जाती।
मीरा की इस झील में तुम्हें निमंत्रण देता
हूं। मीरा नाव बन सकती है। मीरा के शब्द तुम्हें डूबने से बचा सकते हैं। उनके
सहारे पर उस पार जा सकते हो।
मीरा तीर्थंकर है। उसका शास्त्र प्रेम का
शास्त्र है। शायद शास्त्र कहना भी ठीक नहीं।
नारद ने भक्ति-सूत्र कहे; वह
शास्त्र है। वहां तर्क है, व्यवस्था है, सूत्रबद्धता है। वहां भक्ति का दर्शन है।
मीरा स्वयं भक्ति है। इसलिए तुम रेखाबद्ध
तर्क न पाओगे। रेखाबद्ध तर्क वहां नहीं है। वहां तो हृदय में कौंधती हुई बिजली है।
जो अपने आशियाने जलाने को तैयार होंगे, उनका ही संबंध जुड़ पाएगा।
प्रेम से संबंध उन्हीं का जुड़ता है, जो
सोच-विचार खोने को तैयार हों; जो सिर गंवाने को उत्सुक हों।
उस मूल्य को जो नहीं चुका सकता, वह सोचे भक्ति के संबंध में,
विचारे; लेकिन भक्त नहीं हो सकता।
तो मीरा के शास्त्र को शास्त्र कहना भी ठीक
नहीं। शास्त्र कम है,
संगीत ज्यादा है। लेकिन संगीत ही तो केवल भक्ति का शास्त्र हो सकता
है। जैसे तर्क ज्ञान का शास्त्र बनता है, वैसे संगीत भक्ति
का शास्त्र बनता है। जैसे गणित आधार है ज्ञान का, वैसे काव्य
आधार है भक्ति का। जैसे सत्य की खोज ज्ञानी करता है, भक्त
सत्य की खोज नहीं करता, भक्त सौंदर्य की खोज करता है। भक्त
के लिए सौंदर्य ही सत्य है। ज्ञानी कहता है: सत्य सुंदर है। भक्त कहता है: सौंदर्य
सत्य है।
रवींद्रनाथ ने कहा है: ब्यूटी इज़ ट्रुथ।
सौंदर्य सत्य है। रवींद्रनाथ के पास भी वैसा ही हृदय है जैसा मीरा के पास; लेकिन
रवींद्रनाथ पुरुष हैं। गलते-गलते भी पुरुष की अड़चनें रह जाती हैं; मीरा जैसे नहीं पिघल पाते। खूब पिघले। जितना पिघल सकता है पुरुष, उतने पिघले; फिर भी मीरा जैसे नहीं पिघल पाते।
मीरा स्त्री है। स्त्री के लिए भक्ति ऐसे ही
सुगम है जैसे पुरुष के लिए तर्क और विचार।
वैज्ञानिक कहते हैं: मनुष्य का मस्तिष्क दो
हिस्सों में विभाजित है। बाईं तरफ जो मस्तिष्क है वह सोच-विचार करता है; गणित,
तर्क, नियम, वहां सब
शृंखलाबद्ध है। और दाईं तरफ जो मस्तिष्क है वहां सोच-विचार नहीं है; वहां भाव है, वहां अनुभूति है। वहां संगीत की चोट
पड़ती है। वहां तर्क का कोई प्रभाव नहीं होता। वहां लयबद्धता पहुंचती है। वहां
नृत्य पहुंच जाता है; सिद्धांत नहीं पहुंचते।
स्त्री दाएं तरफ के मस्तिष्क से जीती है; पुरुष
बाएं तरफ के मस्तिष्क से जीता है। इसलिए स्त्री-पुरुष के बीच बात भी मुश्किल होती
है; कोई मेल नहीं बैठता दिखता है। पुरुष कुछ कहता है,
स्त्री कुछ कहती है। पुरुष और ढंग से सोचता है, स्त्री और ढंग से सोचती है। उनके सोचने की प्रक्रियाएं अलग हैं। स्त्री
विधिवत नहीं सोचती; सीधी छलांग लगाती है, निष्कर्षों पर पहुंच जाती है। पुरुष निष्कर्ष पर नहीं पहुंचता, विधियों से गुजरता है। क्रमबद्ध--एक-एक कदम।
प्रेम में काई विधि नहीं होती, विधान
नहीं होता। प्रेम की क्या विधि और क्या विधान! हो जाता है बिजली की कौंध की तरह।
हो गया तो हो गया। नहीं हुआ तो करने का कोई उपाय नहीं है।
पुरुषों ने भी भक्ति के गीत गाए हैं लेकिन
मीरा का कोई मुकाबला नहीं है; क्योंकि मीरा के लिए, स्त्री
होने के कारण जो बिलकुल सहज है, वह पुरुष के लिए थोड़ा आरोपित
सा मालूम पड़ता है। पुरुष भक्त हुए; जिन्होंने अपने को
परमात्मा की प्रेयसी माना, पत्नी माना, मगर बात कुछ अड़चन भरी हो जाती है। संप्रदाय है ऐसे भक्तों का, बंगाल में अब भी जीवित--जो पुरुष हैं लेकिन अपने को मानते हैं कृष्ण की
पत्नी। रात स्त्री जैसा शृंगार करके, कृष्ण की मूर्ति को
छाती से लगा कर सो जाते हैं। मगर बात में कुछ बेहूदापन लगता है। बात कुछ जमती
नहीं। ऐसा ही बेहूदापन लगता है जैसे कि तुम, जहां जो नहीं
होना चाहिए, उसे जबरदस्ती बिठाने की कोशिश करो, तो लगे।
पुरुष पुरुष है; उसके लिए
स्त्री होना ढोंग ही होगा। भीतर तो वह जानेगा ही कि मैं पुरुष हूं। ऊपर से तुम
स्त्री के वस्त्र भी पहन लो और कृष्ण की मूर्ति को हृदय से भी लगा लो--तब भी तुम
भीतर के पुरुष को इतनी आसानी से खो न सकोगे। यह सुगम नहीं होगा।
स्त्रियां भी हुई हैं जिन्होंने ज्ञान के
मार्ग से यात्रा की है,
मगर वहां भी बात कुछ बेहूदी हो गई। जैसे ये पुरुष बेहूदे लगते हैं
और थोड़ा सा विचार पैदा होता है कि ये क्या कर रहे हैं! ये पागल तो नहीं हैं!--ऐसे
ही "लल्ला' कश्मीर में हुई, वह
महावीर जैसे विचार में पड़ गई होगी; उसने वस्त्र फेंक दिए,
वह नग्न हो गई। लल्ला में भी थोड़ा सा कुछ अशोभन मालूम होता है।
स्त्री अपने को छिपाती है। वह उसके लिए सहज है। वह उसकी गरिमा है। वह अपने को ऐसा
उघाड़ती नहीं। ऐसा उघाड़ती है तो वेश्या हो जाती है।
लल्ला ने बड़ी हिम्मत की, फेंक दिए
वस्त्र। असाधारण स्त्री रही होगी! लेकिन थोड़ी सी अस्वाभाविक मालूम होती है बात।
महावीर के लिए नग्न खड़े हो जाना अस्वाभाविक नहीं लगता; बिलकुल
स्वाभाविक लगता है। ऐसी ही बात है।
मीरा में जैसी सहज उदभावना हुई है भक्ति की, कहीं भी
नहीं है। भक्त और भी हुए हैं, लेकिन सब मीरा से पीछे पड़ गए,
पिछड़ गए। मीरा का तारा बहुत जगमगाता हुआ तारा है। आओ इस तारे की तरफ
चलें। अगर थोड़ी सी भी बूंदें तुम्हारे जीवन में बरस जाएं, मीरा
के रस की, तो भी तुम्हारे रेगिस्तान में फूल खिल जाएंगे। अगर
तुम्हारे हृदय में थोड़े से भी वैसे आंसू घुमड़ आएं, जैसे मीरा
को घुमड़े, और तुम्हारे हृदय में थोड़े से राग बजने लगें,
जैसा मीरा को बजा, थोड़ा सा सही! एक बूंद भी
तुम्हें रंग जाएगी और नया कर जाएगी।
तो मीरा को तर्क और बुद्धि से मत सुनना।
मीरा का कुछ तर्क और बुद्धि से लेना-देना नहीं है। मीरा को भाव से सुनना, भक्ति से
सुनना, श्रद्धा की आंख से देखना। हटा दो तर्क इत्यादि को,
किनारे सरका कर रख दो। थोड़ी देर के लिए मीरा के साथ पागल हो जाओ। यह
मस्तों की दुनिया है। यह प्रेमियों की दुनिया है। तो ही तुम समझ पाओगे, अन्यथा चूक जाओगे।
बहुत बार मौके आए जब मैं मीरा पर बोलता; लेकिन
टालता गया। क्योंकि मीरा पर कुछ बोलना कठिन है। महावीर पर बोलना बहुत आसान है।
बुद्ध पर बोलना बहुत आसान है। पतंजलि पर बोलना बहुत आसान है। मीरा पर बोलना बहुत
कठिन है। क्योंकि यह बात बोलने की है ही नहीं; यह बात तो
होने की है। यह भाव की है। मीरा गुनगुनाई जा सकती है, मीरा
पर बोलो क्या? मीरा गाई जा सकती है, मीरा
पर बोलो क्या? मीरा नाची जा सकती है, मीरा
पर बोलो क्या?
इसलिए तुम से कहता हूं: आओ, इस
गौरीशंकर पर चढ़ें--प्रेम के गौरीशंकर पर! इस ऊंचाई पर पंख फैलाएं! केवल वे ही उड़
पाने में समर्थ होंगे जो तर्क का बोझ एक तरफ हटा कर रख देंगे।
मीरा के पास तुम्हें देने को बहुत है। मीरा
एक मेघ है, जो बरस जाए तो तुम तृप्त हो जाओ।
तरानों में मोहब्बत का
तराना ले के आया हूं
फसानों में हकीकत का फसाना
ले के आया हूं
तलाशे बर्के आदम सोज में
निकला हूं जन्नत से
जलाने ही को आखिर आशियाना
ले के आया हूं
जमाने से अलग हूं अहले
सोहबत के लिए लेकिन
नया हक्को अमल का इक जमाना
ले के आया हूं
उठ और तय दो जहां की
मंजिलें एक गाम में कर ले
जनूने अर्शो पैमां वालहाना
ले के आया हूं।
उठ! जाग!
उठ और तय दो जहां की
मंजिलें एक गाम में कर ले
मीरा के साथ सारी यात्रा एक कदम में हो सकती
है। तर्क बहुत कदम लेता है,
क्योंकि विधि से चलता है। मीरा छलांग है।
उठ और तय दो जहां की
मंजिलें एक गाम में कर ले
इसलिए तुमसे कहता हूं कि आओ, एक ही कदम
में यह यात्रा हो सकती है।
जनूने अर्शो पैमां वालहाना
ले के आया हूं।
मीरा मस्ती से भरी हुई एक शराब लिए खड़ी है।
उसका रसास्वादन करो। मीरा शराब है--पीओ। समझो कम--पीओ ज्यादा। उसका तराना प्रेम का
तराना है।
मुझे मौका दो कि मैं तुम्हारे हृदय की वीणा
को थोड़ा बजा सकूं। तो ही तुम समझ पाओगे।
ये मीरा के जो वचन हम सुनेंगे, चर्चा
करेंगे, गुनगुनाएंगे, डूबेंगे--इन
वचनों में ऊपर से कोई तारतम्य नहीं है। ये तो भक्त की अनुभूतियां हैं। लेकिन भीतर
बड़ा तारतम्य है। ऊपर-ऊपर कुछ न दिखाई पड़ेगा कि इनमें क्या संबंध है। मीरा ने कोई
रामचरितमानस नहीं लिखा है कि शुरू किया बालकांड से और चले। ये तो भाव की अराजक
अभिव्यक्तियां हैं। जब उठा भाव, गाया। जैसा उठा वैसा गाया।
फिर यह लोगों के सामने भी गाई गई बातें नहीं हैं। ये तो उस परम प्यारे के सामने
गाए गए गीत हैं। इन गीतों में सुधार भी नहीं किया गया है। कवि लिखता तो खूब
सुधार-संशोधन करता है। ये तो कच्चे, कोरे, वैसे के वैसे जैसे खदान से हीरे निकलते हैं--तराशे नहीं गए--बेतराशे,
अनगढ़!
मीरा को फिकर नहीं है आदमियों की कि इनमें, गीतों में
भूल-चूक लगेगी, काव्य के नियम पूरे होंगे कि नहीं, मात्राएं ठीक बैठती हैं कि नहीं; इस सबका कोई हिसाब
नहीं है।
तुम जब अपने प्रेमी के सामने गीत गाते हो तो
यह सब थोड़े ही फिकर रखते हो! प्रेमी तुम्हारा परीक्षक थोड़े ही है! प्रेमी के सामने
जब तुम गीत गाते हो,
तो तुम यह थोड़े ही सोचते हो कि गीत भाषा की दृष्टि से, व्याकरण की दृष्टि से, मात्रा-छंद की दृष्टि
से--पूरा है या नहीं! इतना ही देखते हो कि मेरा हृदय इस गीत में उंडल रहा है या
नहीं! जब शराब से भरी हुई प्याली हो तो प्याली का आकार कौन देखता है--किस आकार की
है!
तो तुम पीओगे तो समझोगे। और तारतम्य भी
मिलेगा। लेकिन तारतम्य ऐसा रहेगा, ऊपर-ऊपर से दिखाई नहीं पड़ेगा! जैसे एक गुलाब की
झाड़ी पर बहुत से गुलाब के फूल खिले हैं, ऊपर से तो कोई जुड़े
दिखाई नहीं पड़ते। कोई छोटा है, कोई बड़ा है। और अगर माली कुशल
रहा हो तो कोई सफेद है, और कोई लाल है, और कोई पीला है। सब अलग-अलग ढंग के खिले हैं। लेकिन सब एक ही जड़ से जुड़े
हैं। वही जड़ तुम्हें दिखाई पड़ जाए तो तुम मीरा के साथ हो लोगे।
इसके पहले कि हम मीरा के शब्दों में उतरें, मीरा के
संबंध में कुछ बातें समझ लेनी जरूरी हैं।
पहली बात: मीरा का कृष्ण से प्रेम मीरा की
तरह शुरू नहीं हुआ! प्रेम का इतना अपूर्व भाव इस तरह शुरू हो भी नहीं सकता। यह
कहानी पुरानी है। यह मीरा कृष्ण की पुरानी गोपियों में से एक है। मीरा ने खुद भी
इसकी घोषणा की है,
लेकिन पंडित तो मानते नहीं। क्योंकि इसके लिए इतिहास का कोई प्रमाण
नहीं है। मीरा ने खुद भी कहा है कि कृष्ण के समय में मैं उनकी एक गोपी थी, ललिता मेरा नाम था। मगर पंडित तो इसको टाल जाते हैं; यह बात को ही कह देते हैं कि किंवदंती है, कथा-कहानी
है। मैं ऐसा न कर सकूंगा। मैं पंडित नहीं हूं। और हजार पंडित कहते हों तो उनकी मैं
दो कौड़ी की मानता हूं। मीरा खुद कहती है, उसे मैं स्वीकार
करता हूं। सच-झूठ का मुझे हिसाब भी नहीं लगाना है। बात के इतिहास होने न होने से
कोई प्रयोजन भी नहीं है। मीरा का वक्तव्य, मैं राजी हूं।
मीरा जब खुद कहती है तो बात खतम हो गई। फिर किसी और को इसमें और प्रश्न उठाने का
प्रश्न नहीं उठना चाहिए। और जो इस तरह के प्रश्न उठाते हैं वे मीरा को समझ भी न
पाएंगे।
अंग्रेजी में एक शब्द है: देजावुह। उसका
अर्थ होता है: पूर्वभव की स्मृति का अचानक उठ आना। कभी-कभी तुम्हें भी देजावुह
होता है।
कल रात ही एक युवा संन्यासी मुझसे बात कर
रहा था। उसने बार-बार मुझे पत्र लिखे, वह बड़ा परेशान था। परेशानी होगी
ही। उसे कई बार ऐसा लगता है यहां इन गैरिक वस्त्रधारी संन्यासियों के साथ
उठते-बैठते-चलते कि जैसे पहले भी वह कभी ऐसी ही किसी स्थिति में रहा है--पहले कभी
किसी जन्म में। इससे बड़ी बेचैनी भी हो जाती है। कभी-कभी तो कोई घटना उसे ऐसी लगती
है कि बिलकुल फिर से दोहर रही है। तो बेचैनी स्वाभाविक है। और पश्चिम से आया युवक
है तो बेचैनी और स्वाभाविक है। उसने बहुत बार मुझे लिखा। कल वह विदा होने को आया
था, अब वह जा रहा है वापस, तो मुझसे
पूछने लगा: आपने कभी कुछ कहा नहीं कि मैं क्या करूं? मुझे
बार-बार ऐसा लगता है। तो उसे मैंने कहा कि देजावुह, यह
पूर्वभव का स्मरण एक वास्तविकता है। बेचैन तो करेगी, क्योंकि
इससे तर्क का कोई संबंध नहीं जुड़ता है।
हम यहां नये नहीं हैं, हम यहां
प्राचीन हैं; सनातन से हैं। ऐसा कोई समय न था जब तुम न थे।
ऐसा कोई समय न था जब मैं न था। ऐसा कोई समय न था, न ऐसा कोई
कभी समय होगा जब तुम नहीं हो जाओगे। रहोगे, रहोगे, रहोगे। रूप बदलेंगे, ढंग बदलेंगे, शैलियां बदलेंगी--अस्तित्व शाश्वत है। जो शाश्वत है, वही सत्य है; शेष सत्य जो बदलता जाता है, वह तो केवल आवरण है। जैसे कोई वस्त्र बदल लेता है। तो रामकृष्ण ने मरते
वक्त कहा: रोओ मत, क्योंकि मैं केवल वस्त्र बदल रहा हूं। और
रमण ने मरते वक्त कहा--जब किसी ने पूछा कि आप कहां चले जाएंगे? आप कहां जा रहे हैं? हमें छोड़ कर कहां जा रहे हैं?
तो उन्होंने कहा: बंद करो यह बकवास! मैं कहां जाऊंगा? मैं यहां था और यहीं रहूंगा। जाना कहां है! यही तो एकमात्र अस्तित्व है।
रूप बदलते हैं। बीज वृक्ष हो जाता है; वृक्ष बीज
हो जाता है। गंगा सागर बन जाती है; सागर सूरज की किरणों से
चढ़ कर मेघ बन जाता है, मेघ फिर गंगा में गिर जाता है। फिर
गंगा सागर में गिर जाती है। मगर एक जल की बूंद भी कभी खोई नहीं है; जल उतना ही है जितना सदा से था। और एक भी आत्मा कहीं खोई नहीं है।
तो मैंने उस युवक को कहा: बिलकुल घबड़ाओ ना।
हो सकता है, मेरे पास तुम कभी अतीत में न भी बैठे हो; यह हो सकता
है, क्योंकि यह अनंत है जगत। यह हो सकता है कि मेरा तुमसे
मिलना कभी न हुआ हो, लेकिन फिर भी यह बात पक्की है कि मेरे
जैसे किसी आदमी से तुम्हारा मिलना हुआ होगा। तुमने किसी बुद्ध की आंखों में झांका
होगा। तुम किसी सदगुरु के चरणों में बैठे होओगे। फिर वह कौन था, मोहम्मद था कि कृष्ण कि क्राइस्ट इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; क्योंकि सदगुरुओं का स्वाद एक है और उनकी आंखों का दृश्य एक है।
तो कभी-कभी अगर तुम बुद्ध के साथ रहे हो ढाई
हजार साल पहले,
तो मेरे पास बैठे-बैठे एक क्षण को तुम अभिभूत हो जाओगे। एक क्षण को
लगेगा: यह तो फिर वैसे ही कुछ हो रहा है, जैसे पहले हुआ है।
एक क्षण को यहां से तुम विदा जाओगे और अतीत का दृश्य खुल जाएगा। कोई पर्दा जैसे
पड़ा था। और अचानक तुम पाओगे: यह तो वही हो रहा है जो पहले हुआ। शायद कभी ऐसा भी हो
सकता है कि मैं तुमसे जो शब्द कहूं, वे ही शब्द तुमसे बुद्ध
ने भी कहे हों। और यह भी संभव है कि कभी तुम मेरे साथ भी रहे हो। सभी कुछ संभव है।
इस जगत में असंभव कुछ भी नहीं है।
मीरा ने कहा है: मैं ललिता थी। कृष्ण के साथ
नाची, वृंदावन में कृष्ण के साथ गाई। यह प्रेम पुराना है--मीरा यही कह रही
है--यह प्रेम नया नहीं है। और इसकी शुरुआत जिस ढंग से हुई, वह
शुरुआत भी करती है साफ कि पंडित गलत होंगे, मीरा सही है। और
पंडित कितने ही सही लगें, फिर भी सही नहीं होते, क्योंकि उनके सोचने का ढंग ही बुनियाद से गलत होता है। वे प्रमाण मांगते
हैं। अब प्रमाण क्या? किसी अदालत की सील-मोहर लगी हुई कोई
फाइल मौजूद करे मीरा, कि कृष्ण के समय में थी? कहां से प्रमाणपत्र लाए? गवाह जुटाए? अंतर्भाव पर्याप्त है। और उसका अंतर्भाव प्रमाण है।
मीरा छोटी थी, चार-पांच साल की रही होगी,
तब एक साधु मीरा के घर मेहमान हुआ, और जब सुबह
साधु ने उठ कर अपनी मूर्ति--कृष्ण की मूर्ति छुपाए था अपनी गुदड़ी में--निकाल कर जब
उसकी पूजा की तो मीरा एकदम पागल हो गई। देजावुह हुआ। पूर्वभव का स्मरण आ गया। वह
मूर्ति कुछ ऐसी थी कि चित्र पर चित्र खुलने लगे। वह मूर्ति जो थी--शुरुआत हो गई
फिर से कहानी की; निमित्त बन गई। उससे चोट पड़ गई। कृष्ण की
मूरत फिर याद आ गई। फिर वह सांवला चेहरा, वे बड़ी आंखें,
वे मोरमुकुट में बंधे, वे बांसुरी बजाते
कृष्ण! मीरा लौट गई हजारों साल पीछे अपनी स्मृति में। रोने लगी। साधु से मांगने
लगी मूर्ति। लेकिन साधु को भी बड़ा लगाव था अपनी मूर्ति से; उसने
मूर्ति देने से इनकार कर दिया। वह चला भी गया। मीरा ने खाना-पीना बंद दिया।
पंडितों के लिए यह प्रमाण नहीं होता कि इससे
कुछ प्रमाण है देजावुह का। लेकिन मेरे लिए प्रमाण है। चार-पांच साल की बच्ची! हां, बच्चे
कभी-कभी खिलौनों के लिए भी तरस जाते हैं, लेकिन घड़ी-दो घड़ी
में भूल जाते हैं। दिन भर बीत गया, न उसने खाना खाया,
न पानी पीया। उसकी आंखों से आंसू बहते रहे। वह रोती ही रही। उसके घर
के लोग भी हैरान हुए कि अब क्या करें? साधु तो गया भी,
कहां उसे खोजें? और वह देगा, इसकी भी संभावना कम है।
और वह कृष्ण की मूरत जरूर ही बड़ी प्यारी थी, घर के
लोगों को भी लगी थी। उन्होंने भी बहुत मूर्तियां देखी थीं, मगर
उस मूर्ति में कुछ था जीवंत, कुछ था जागता हुआ, उस मूर्ति की तरंग ही और थी। जरूर किसी ने गढ़ी होगी प्रेम से; व्यवसाय के लिए नहीं। किसी ने गढ़ी होगी भाव से। किसी ने अपनी सारी
प्रार्थना, अपनी सारी पूजा उसमें ढाल दी होगी। या किसी ने,
जिसने कृष्ण को कभी देखा होगा, उसने गढ़ी होगी।
मगर बात कुछ ऐसी थी, मूर्ति कुछ ऐसी थी कि मीरा भूल ही गई,
इस जगत को भूल ही गई। वह तो उस मूर्ति को लेकर रहेगी, नहीं तो मर जाएगी। यह विरह की शुरुआत हुई चार-पांच साल की उम्र में!
रात उस साधु ने सपना देखा। दूर दूसरे गांव
में जाकर सोया था। रात सपना आया: कृष्ण खड़े हैं। उन्होंने कहा कि मूर्ति जिसकी है
उसको लौटा दे। तूने रख ली,
बहुत दिन तक; यह अमानत थी; मगर यह तेरी नहीं है। अब तू नाहक मत ढो। तू वापस जा, मूर्ति उस लड़की को दे दे; जिसकी है उसको दे दे। उसकी
थी, तेरी अमानत पूरी हो गई। तेरा काम पूरा हो गया। यहां तक
तुझे पहुंचाना था, वहां तक पहुंचा दिया; अब खतम हो गई।
मूर्ति उसकी है जिसके हृदय में मूर्ति के
लिए प्रेम है। और किसकी मूर्ति? साधु तो घबड़ा गया। कृष्ण तो कभी उसे दिखाई भी न
पड़े थे। वर्षों से प्रार्थना-पूजा कर रहा था, वर्षों से इसी
मूर्ति को लिए चलता था, फूल चढ़ाता था, घंटी
बजाता था, कृष्ण कभी दिखाई न पड़े थे। वह तो बहुत घबड़ा गया।
वह तो आधी रात भागा हुआ आया। आधी रात आकर जगाया और कहा: मुझे क्षमा करो, मुझसे भूल हो गई। इस छोटी सी लड़की के पैर पड़े, इसे
मूर्ति देकर वापस हो गया।
यह जो चार-पांच साल की उम्र में घटना घटी, इससे फिर
से दृश्य खुले; फिर प्रेम उमगा; फिर
यात्रा शुरू हुई। यह मीरा के इस जीवन में कृष्ण के साथ पुनर्गठबंधन की शुरुआत है।
मगर यह नाता पुराना था। नहीं तो बड़ा कठिन है। कृष्ण को देखा न हो, कृष्ण को जाना न हो, कृष्ण की सुगंध न ली हो,
कृष्ण का हाथ पकड़ कर नाचे न होओ--तो लाख उपाय करो, तुम कृष्ण को कभी जीवंत अनुभव न कर सकोगे। इसलिए जीता सदगुरु ही सहयोगी
होता है।
तुम भी कृष्ण की मूर्ति रख कर बैठ सकते हो, मगर
तुम्हारे भीतर भाव का उद्रेक नहीं होगा। भाव के उद्रेक के लिए तुम्हारी अंतर-कथा
में कोई संबंध चाहिए कृष्ण से; तुम्हारी अंतर-कथा में कोई
समानांतर दशा चाहिए।
मीरा का भजन तुम भी गा सकते हो; लेकिन जब
तक कृष्ण से तुम्हारा कुछ अंतर-नाता न हो, तब तक भजन ही रह
जाएगा, जुड़ न पाओगे। हृदय--हृदय न मिलेगा, सेतु न बनेगा।
वह चार-पांच वर्ष की उम्र में घटी छोटी सी
घटना--सांयोगिक घटना--और क्रांति हो गई। मीरा मस्त रहने लगी, जैसे एक
शराब मिल गई। दो वर्ष बाद पड़ोस में किसी का विवाह हुआ, और यह
सात-आठ साल की लड़की ने पूछा अपनी मां को: सबका विवाह होता है, मेरा कब होगा? और मेरा वर कौन है?
और मां ने तो ऐसे ही मजाक में कहा, क्योंकि
वह उस वक्त भी कृष्ण की मूर्ति को छाती से लगाए खड़ी थी--कि तेरा वर कौन है?--यह गिरधर गोपाल! यह गिरधरलाल! यही तेरे वर हैं! और क्या चाहिए? यह तो मजाक में ही कहा था! मां को क्या पता था कि कभी-कभी मजाक में कही गई
बात भी क्रांति हो जा सकती है। और क्रांति हो गई।
और कभी-कभी कितनी ही गंभीरता से तुमसे कहा
जाए, कुछ भी नहीं होता, क्योंकि तुम्हारे भीतर कुछ छूता
ही नहीं। हो तो छुए। बीज को पत्थर पर फेंक दोगे तो अंकुरित नहीं होता; ठीक भूमि मिल जाए तो अंकुरित हो जाता है। वह ठीक भूमि थी। मां को भी पता
नहीं था; सोचती थी कि बच्चे का खिलवाड़ है; कृष्ण एक खिलौना हैं। मिल गए हैं इसको। सुंदर मूर्ति है, माना। तो नाचती-गुनगुनाती रहती है--ठीक है--अपने उलझी रहती है; कुछ हर्जा भी नहीं है। मजाक में ही कहा था कि तेरे तो और कौन पति! ये
गिरिधर गोपाल हैं! ये नंदलाल हैं! मगर उसका मन उसी दिन भर गया। यह बात हो गई।
कभी-कभी संयोग महारंभ बन जाते हैं--महाप्रस्थान के पथ पर। उसने तो मान ही लिया। वह
छोटा सा भोला-भाला मन! उसने मान लिया कि यही उसके पति हैं। फिर क्षण भर को भी यह
बात डगमगाई नहीं। फिर क्षण भर को भी यह बात भूली नहीं।
असल में बचपन में अगर कोई भाव बैठ जाए तो
बड़ा दूरगामी होता है। यह बात बैठ गई। उस दिन से उसने अपना सारा प्रेम, कृष्ण पर
उंडेल दिया। जितना तुम प्रेम उंडेलोगे, उतने ही कृष्ण जीवित
होते चले गए। पहले अकेली बात करती थी, फिर कृष्ण भी बात करने
लगे। पहले अकेली डोलती थी, फिर कृष्ण भी डोलने लगे। यह नाता
भक्त का और मूर्ति का न रहा; भक्त और भगवान का हो गया।
और इसके बाद कुछ घटनाएं घटीं, जो खयाल
में ले लेनी चाहिए--जो महत्वपूर्ण हैं।
मीरा पर जिन लोगों ने किताबें लिखी हैं, वे सब
लिखते हैं: दुर्भाग्य से मीरा की मां मर गई, जब वह बहुत छोटी
थी। फिर उसके बाबा ने उसे पाला। फिर बाबा मर गए। फिर सत्रह-अठारह साल की उम्र में
उसका विवाह किया गया। फिर उसके पति मर गए। फिर ससुर ने उसकी सम्हाल की। और फिर
ससुर भी मर गए। फिर पिता उसकी देखभाल किए, फिर पिता भी मर
गए। ऐसी पांच मृत्युएं हुईं। जब मीरा कोई बत्तीसत्तैंतीस साल की थी, तब तक उसके जीवन में जो भी महत्वपूर्ण व्यक्ति थे, सभी
मर गए। जिनको भी उसने चाहा था और प्रेम किया था, वे सब मर
गए।
जो लोग मीरा पर किताबें लिखते हैं--वे सब
लिखते हैं: दुर्भाग्य से। मैं ऐसा नहीं कह सकता। यह सौभाग्य से ही हुआ। वे लिखते
हैं दुर्भाग्य से,
क्योंकि मृत्यु को सभी लोग दुर्भाग्य मानते हैं। लेकिन यही तो मीरा
के जन्म का कारण बना। जितना भी प्रेम कहीं था, वह सब सिकुड़ता
गया। सारा प्रेम गोपाल पर उमड़ता गया। मां से लगाव था, मां चल
बसी। उतना प्रेम जो मां से उलझा था, वह भी गोपाल के चरणों
में रख दिया। फिर बाबा ने पाला, फिर बाबा चल बसे; उनसे प्रेम था, वह भी गोपाल के चरणों में रख दिया।
ऐसे संसार छोटा होता गया, सिकुड़ता गया और परमात्मा बड़ा होता
गया। तो मैं नहीं कह सकता दुर्भाग्य से; मैं तो कहूंगा
सौभाग्य से; क्योंकि मृत्यु का मेरे लिए कोई ऐसा भाव नहीं है,
मृत्यु के प्रति कि वह कोई आवश्यक रूप से अभिशाप है। सब तुम पर
निर्भर है। मीरा ने उसका ठीक उपयोग कर लिया। जहां-जहां से प्रेम उखड़ता गया,
एक-एक प्रेम-पात्र जाने लगा, वह अपने उस प्रेम
को परमात्मा में चढ़ाने लगी।
अंतिम सूत्र था--पिता का रहना। पिता भी चल
बसे। पति भी चल बसे,
पिता भी चल बसे। पांच मृत्युएं हो गईं सतत। जगत से सारा संबंध टूट
गया। उसने ठीक उपयोग कर लिया। जगत से टूटते हुए संबंधों को उसने जगत के प्रति
वैराग्य बना लिया। और जगत से जो प्रेम मुक्त हो गया, उसको
परमात्मा के चरणों में चढ़ा दिया। वह कृष्ण के राग में डूब गई।
और इन मृत्युओं ने एक और सौभाग्य का काम
किया, कि इन्होंने एक बात दिखा दी कि इस जगत में सब क्षणभंगुर है; अगर प्यारा खोजना हो तो शाश्वत में खोजो। यहां कुछ अपना नहीं है। यहां
भरमो मत, अपने को भरमाओ मत! यहां सब छूट जाने वाला है। यहां
मृत्यु ही मृत्यु फैली है। यहां मरघट है। यहां बसने के इरादे मत करो। यहां कोई कभी
बसा नहीं।
अपनी आंख से देखा सबको जाते उसने।
बत्तीसत्तैंतीस साल की उम्र कोई बड़ी उम्र नहीं। जवान थी। जवानी में इतनी मौत घटीं
कि मौत का कांटा उसे ठीक-ठीक साफ-साफ दिखाई पड़ गया कि जीवन क्षणभंगुर है। और तब
उसका मन यहां से विरक्त हो गया। जो यहां से विरक्त है, वही
परमात्मा में अनुरक्त हो सकता है।
तुम दोनों राग एक साथ नहीं पाल सकते हो। तुम
दो नावों पर एक साथ सवार नहीं हो सकते हो।
तो जब मैंने तुमसे कहा, "आओ,
प्रेम की झील में नौका-विहार को चलें'--तो मैं
तुमसे यह कह रहा हूं: अब तुम अपनी संसार की नाव से उतरो, अब
परमात्मा को नाव बनाओ। "आओ, प्रेम के गौरीशंकर पर चढ़ें'--तो मैं तुमसे यह कह रहा हूं: अपनी अंधेरी घाटियों से लगाव छोड़ो; वहां मृत्यु के सिवाय और कोई भी नहीं है।
जिन्हें तुमने घर समझा है, वह मरघट
है। जिन्हें तुमने अपना समझा है, साथ हो गया है दो क्षण का
राह पर--सब अजनबी हैं। आज नहीं कल सब छुट जाएंगे। तुम अकेले आए हो और अकेले जाओगे।
और तुम अकेले हो। इस जगत में सिर्फ एक ही संबंध बन सकता है--और वह संबंध परमात्मा
से है; शेष सारे संबंध बनते हैं और मिट जाते हैं। सुख तो कुछ
ज्यादा नहीं लाते, दुख बहुत लाते हैं। सुख की तो केवल आशा
रहती है; मिलता कभी नहीं है। अनुभव तो दुख ही दुख का होता
है।
ये जो पांच मृत्युएं थीं, ये पांच
सीढ़ियां बन गईं। और एक-एक मृत्यु मीरा को संसार से विमुख करती गई और कृष्ण के
सन्मुख करती गई। इधर पीठ हो गई संसार की तरफ--कृष्ण की तरफ मुंह हो गया। धीरे-धीरे,
पहले तो मीरा घर में ही नाचती थी--अपने कृष्ण की प्रतिमा पर;
फिर बाढ़ की तरह उठने लगा प्रेम, फिर घर उसे
नहीं समा सका। फिर गांव के मंदिरों में, साधु-सत्संगों में,
वहां भी नाचने लगी। फिर प्रेम इतना बाढ़ की तरह आना शुरू हुआ कि उसे
होश-हवास न रहा। वह मगन हो गई, वह तल्लीन हो गई, वह कृष्णमय हो गई। स्वभावतः राजघराने की महिला थी, प्रतिष्ठित
परिवार से थी। परिवार को अड़चन आई। परिवार को अड़चन सदा आ जाती है। समाज में हजार
तरह की बातें चलने लगीं, क्योंकि यह लोकलाज के बाहर थी बात।
तुम सोच सकते हो, राजस्थान
पांच सौ साल पहले--जहां घूंघट के बाहर स्त्रियां नहीं आती थीं; जिनका चेहरा कभी लोग नहीं देखते थे। फिर राजघराने की तो और कठिन थी बात।
और वह रास्तों पर नाचने लगी। साधारणजनों के बीच नाचने लगी। यद्यपि वह नाच परमात्मा
के लिए था, फिर भी घर के लोगों को तो "नाच' नाच था; उनको तो कुछ फर्क नहीं था। फिर उसके निकटतम
जो लोग थे वे जा चुके थे: उसका देवर गद्दी पर था। जहां-जहां मीरा उल्लेख करेगी कि
राणा ने जहर भेजा, कि राणा ने सांप की पिटारी भेजी, कि राणा ने सेज पर कांटे बिछवा दिए--उस राणा से याद रखना, उसके देवर की तरफ इशारा है। उसके पति तो चल बसे थे।
उसके देवर थे विक्रमाजीत सिंह। वह क्रोधी
किस्म का युवक था। दुष्ट प्रकृति का युवक था। और उसकी यह बरदाश्त के बाहर था। और
उसे मीरा की प्रतिष्ठा भी बरदाश्त के बाहर थी। मीरा इतनी प्रतिष्ठित हो रही थी, दूर-दूर
से लोग आने लगे थे। साधारणजन तो आते थे ही उसके दर्शन को; संत,
साधु, ख्याति-उपलब्ध लोग दूर-दूर से मीरा की
खबर सुन कर आने लगे थे। वह सुगंध उड़ने लगी थी। वह सुगंध कस्तूरी की तरह थी। जिनको
भी नासापुटों में थोड़ा अनुभव था कस्तूरी की गंध का, वे चल
पड़े थे।
यह बड़ी हैरानी की बात है। देश के कोने-कोने
से लोग आ रहे थे,
लेकिन परिवार के अंधे लोग न देख पाए। असल में इन लोगों का आना
उन्हें और अड़चन का कारण हो गया, मीरा की प्रतिष्ठा उनके
अहंकार को चोट करने लगी। जो राणा गद्दी पर था, वह सोचता था
कि मुझसे भी ऊपर कोई मेरे परिवार में हो, यह बरदाश्त के बाहर
है। फिर हजार बहाने मिल गए। और बहाने सब तर्कयुक्त थे--उनमें कभी भूल नहीं खोजी
सकती--कि यह साधारणजनों में मिलने लगी है; घूंघट उघाड़ दिया
है; रास्ते पर नाचती है; नाच में कभी
वस्त्रों का भी ध्यान नहीं रह जाता। यह अशोभन है। यह राजघर की महिला को शुभ नहीं
है।
लेकिन जो कहानियां हैं वे खयाल में लेना।
जहर भेजा और मीरा उसे कृष्ण का नाम लेकर पी गई। और कहते हैं, जहर अमृत
हो गया! हो ही जाना चाहिए। होना ही पड़ेगा। इतने प्रेम से, इतने
स्वागत से अगर कोई जहर भी पी ले तो अमृत हो ही जाएगा। और अगर तुम क्रोध से,
हिंसा से, घृणा से, वैमनस्य
से अमृत भी पीओ तो जहर हो जाएगा।
खयाल रखना, ऐसा इतिहास में हुआ या नहीं,
मुझे प्रयोजन नहीं है। मैं तो इसके भीतर की मनोवैज्ञानिक घटना को
तुमसे कह देना चाहता हूं क्योंकि उसी का मूल्य है। अगर तुम्हारा पात्र भीतर से
बिलकुल शुद्ध है, निर्मल है, निर्दोष
है, तो जहर भी तुम्हारे पात्र में जाकर निर्मल और निर्दोष हो
जाएगा। और अगर तुम्हारा पात्र गंदा है, कीड़े-मकोड़ों से भरा
है और हजारों साल और हजारों जिंदगी की गंदगी इकट्ठी है--तो अमृत भी डालोगे तो जहर
हो जाएगा। सब कुछ तुम्हारी पात्रता पर निर्भर है। अंततः निर्णायक यह बात नहीं है
कि जहर है या अमृत, अंततः निर्णायक बात यही है कि तुम्हारे
भीतर स्थिति कैसी है। तुम्हारे भीतर जो है, वही अंततः
निर्णायक होता है।
मीरा ने देखा ही नहीं कि जहर है। सोचा ही
नहीं कि जहर है। राणा ने भेजा है, तो जो मिलता है, प्रभु ही
भेजने वाला है। राणा के पीछे भी वही भेजने वाला है। उसके अतिरिक्त तो कोई भी नहीं
है। तो अमृत ही होगा। वह अमृत मान कर पी गई।
यह मान्यता इतना फर्क कर सकती है? तुम
सम्मोहनविद से पूछोगे तो वह कहेगा: हां। सम्मोहनविद ही जानता है कि मनुष्य के मन
के काम करने की प्रक्रिया क्या है। अगर किसी व्यक्ति को सम्मोहित कर दिया जाए,
और उसके हाथ में आग का अंगारा रख दिया जाए और सम्मोहित दशा में उससे
कहा जाए कि एक ठंडा कंकड़ तुम्हारे हाथ में रखा है, तो आग का
अंगारा भी उसे जलाता नहीं। क्योंकि उसका मन इस बात को स्वीकार करता है कि ठंडा
कंकड़ है। अंगारा रखा रहता हाथ पर, और चमत्कार घटित हो जाता;
हाथ जलता नहीं। इस पर हजारों प्रयोग हो गए हैं। इसी तरह तो लोग आग
पर चलते हैं और जलते नहीं। वह भाव की दशा है।
और इससे उलटी बात भी हो जाती है। सम्मोहित
व्यक्ति के हाथ में उठा कर एक कंकड़ रख दो--साधारण कंकड़, ठंडा कंकड़
और उससे कहो कि जलता हुआ कोयला रखा है तुम्हारे हाथ पर--वह एकदम फेंक देगा घबड़ा
कर। वह बेहोश है। वह एकदम फेंक देगा घबड़ा कर। और चमत्कार तो यह है कि उसके हाथ पर
फफोला आ जाएगा; जैसे कि वह जल गया। जलने के पूरे लक्षण हो
जाएंगे। इन घटनाओं में, जो संतों के जीवन में भरी पड़ी हैं,
मैं इसी मनोवैज्ञानिक सत्य की उदघोषणा देखता हूं। मीरा ने स्वीकार
कर लिया जहर अमृत की तरह, तो अमृत हो गया।
तुम जैसा जगत को स्वीकार कर लोगे, वैसा ही
हो जाता है। यह जगत तुम्हारी स्वीकृति से निर्मित है। यह जगत तुम्हारी दृष्टि का
फैलाव है।
सांप एक पिटारी में रख कर भेज दिया--जहरीला
सांप--उसने पिटारी खोली और उसे तो सांवले कृष्ण ही दिखाई पड़े। उसने उठा कर उन्हें
गले से लगा लिया। उस सांप ने मीरा को काटा नहीं। सांप इतने अभद्र होते भी नहीं
जितना मनुष्य होता है। सांप इतने जड़ होते भी नहीं जितना मनुष्य होता है। मीरा का
उसे प्रेम से अपने गले से लगा लेना सांप को भी समझ में आ गया होगा कि यहां कोई
शत्रु नहीं, मित्र है। सांप भी तभी हमला करता है जब कोई शत्रु हो: जो कोई चोट पहुंचाने
को उत्सुक हो, तभी हमला करता है, नहीं
तो हमला नहीं करता। हमला तो सुरक्षा के लिए है। आत्मरक्षा के लिए है। सांप को
तुमसे कोई दुश्मनी नहीं है, तुम कभी सांप पर पैर रख दो या
मारने की इच्छा करो--तो। और तब तो लोग कहते हैं कि, सांप ऐसा
होता है कि अगर एक दफे तुमने उससे दुश्मनी ले ली, तो जिंदगी
भर तुमसे बदला लेने की कोशिश करता है; भूलता ही नहीं। उसकी
स्मृति बड़ी मजबूत है। लेकिन मीरा ने जब उसे प्रेम से गले लगा लिया होगा, तो उस तरंग को उसने भी समझा होगा; उस प्रेम में वह
भी डूबा होगा। इस स्त्री को काटा नहीं जा सकता।
समझ लें, फिर से दोहरा दूं, इतिहास से मुझे प्रयोजन नहीं है। इतिहास से भी ज्यादा मूल्यवान है इन
घटनाओं के पीछे छिपा हुआ मनसत्तत्व। क्योंकि वही तुम समझोगे तो काम का है। और
चमत्कार भी इनमें कुछ नहीं है। ये चमत्कार दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि
इनके पीछे का नियम हमारी समझ में नहीं आता। नियम सीधा साफ है: तुम जैसे हो,
करीब-करीब यह जगत तुम्हारे लिए वैसा ही हो जाता है। तुम अगर
प्रेमपूर्ण हो तो प्रेम की प्रतिध्वनि उठती है। और तुमने अगर परमात्मा को सर्वांग
मन से स्वीकार कर लिया है, सर्वांगीण रूप से--तो फिर इस जगत
में कोई, कोई हानि तुम्हारे लिए नहीं है।
लेकिन यह बात बहुत घटी और उसका मीरा का रहना
गांव में मुश्किल हो गया,
तो उसने राजस्थान छोड़ दिया। वह वृंदावन चली गई। अपने प्यारे की
बस्ती में चलें--उसने सोचा। कृष्ण के गांव चली गई। लेकिन वहां भी झंझटें शुरू हो
गईं। क्योंकि कृष्ण तो अब वहां नहीं थे। कृष्ण के गांव पर पंडितों का कब्जा
था--ब्राह्मण, पंडित-पुरोहित।
बड़ी प्यारी घटना है। जब मीरा वृंदावन के
सबसे प्रतिष्ठित मंदिर में पहुंची तो उसे दरवाजे पर रोकने की कोशिश की गई, क्योंकि
उस मंदिर में स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध था, क्योंकि उस
मंदिर का जो महंत था, वह स्त्रियां नहीं देखता था; वह कहता था: ब्रह्मचारी को स्त्री नहीं देखनी चाहिए। तो वह स्त्रियां नहीं
देखता था। मीरा स्त्री थी। तो रोकने की व्यवस्था की गई थी। लेकिन जो लोग रोकने
द्वार पर खड़े थे, वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए। जब मीरा नाचती
हुई आई, अपने हाथ में अपना एकतारा लिए बजाती हुई आई, और जब उसके पीछे भक्तों का हुजूम आया और शराब छलकती चारों तरफ और सब
मदमस्त--उस मस्ती में वे जो द्वारपाल खड़े थे, वे भी ठिठक कर
खड़े हो गए। वे भूल ही गए कि रोकना है। तब तक तो मीरा भीतर प्रविष्ट हो गई। हवा की
लहर थी एक--भीतर प्रविष्ट हो गई, पहुंच गई बीच मंदिर में।
पुजारी तो घबड़ा गया। पुजारी पूजा कर रहा था कृष्ण की। उसके हाथ से थाल गिर गया।
उसने वर्षों से स्त्री नहीं देखी थी। इस मंदिर में स्त्री का निषेध था। यह स्त्री
यहां भीतर कैसे आ गई?
अब तुम थोड़ा सोचना। द्वार पर खड़े द्वारपाल
भी डूब गए भाव में,
पुजारी न डूब सका! नहीं, पुजारी इस जगत में
सबसे ज्यादा अंधे लोग हैं। और पंडितों से ज्यादा जड़बुद्धि खोजने कठिन हैं। द्वार
पर खड़े द्वारपाल भी डूब गए इस रस में। यह जो मदमाती, यह जो
अलमस्त मीरा आई, यह जो लहर आई--इसमें वे भी भूल गए--क्षण भर
को भूल ही गए कि हमारा काम क्या है। याद आई होगी, तब तक तो
मीरा भीतर जा चुकी थी। वह तो बिजली की कौंध थी। तब तक तो एकतारा उसका भीतर बज रहा
था, भीड़ भीतर चली गई थी। जब तक उन्हें होश आया तब तक तो बात
चूक गई थी। लेकिन पंडित नहीं डूबा। कृष्ण के सामने मीरा आकर नाच रही है, लेकिन पंडित नहीं डूबा।
उसने कहा: "ऐ औरत! तुझे समझ है कि इस
मंदिर में स्त्री का निषेध है?'
मीरा ने सुना। मीरा ने कहा: "मैं तो
सोचती थी, कि कृष्ण के अतिरिक्त और कोई पुरुष है नहीं। तो तुम भी पुरुष हो? मैं तो कृष्ण को ही बस पुरुष मानती हूं, और तो सारा
जगत उनकी गोपी है; उनके ही साथ रास चल रहा है। तो तुम भी
पुरुष हो? मैंने सोचा नहीं था कि दो पुरुष हैं। तो तुम
प्रतियोगी हो?'
वह तो घबड़ा गया। पंडित तो समझा नहीं कि अब
क्या उत्तर दें! पंडितों के पास बंधे हुए प्रश्नों के उत्तर होते हैं। लेकिन यह
प्रश्न तो कभी इस तरह उठा ही नहीं था। किसी ने पूछा ही नहीं था, यह तो कभी
किसी ने मीरा के पहले कहा ही नहीं था कि दूसरा भी कोई पुरुष है, यह तो हमने सुना ही नहीं। तुम भी बड़ी अजीब बात कर रहे हो! तुमको यह वहम
कहां से हो गया? एक कृष्ण ही पुरुष हैं, बाकी तो सब उसकी प्रेयसियां हैं।
लेकिन अड़चनें शुरू हो गईं। इस घटना के बाद
मीरा को वृंदावन में नहीं टिकने दिया गया। संतों के साथ हमने सदा दुर्व्यवहार किया
है। मर जाने पर हम पूजते हैं; जीवित हम दरुव्यवहार करते हैं। मीरा को वृंदावन
भी छोड़ देना पड़ा। फिर वह द्वारिका चली गई।
वर्षों के बाद राजस्थान की राजनीति बदली, राजा बदला,
राणा सांगा का सबसे छोटा बेटा राजा उदयसिंह मेवाड़ की गद्दी पर बैठा।
वह राणा सांगा का बेटा था और राणा प्रताप का पिता। उदयसिंह को बड़ा भाव था मीरा के
प्रति। उसने अनेक संदेशवाहक भेजे कि मीरा को वापस लिवा लाओ। यह हमारा अपमान है। यह
राजस्थान का अपमान है कि मीरा गांव-गांव भटके, यहां-वहां
जाए। यह लांछन हम पर सदा रहेगा। उसे लिवा लाओ। वह वापस लौट आए। हम भूल-चूकों के
लिए क्षमा चाहते हैं। जो अतीत में हुआ, हुआ।
गए लोग, पंडितों को भेजा, पुरोहितों को भेजा, समझाने-बुझाने; लेकिन मीरा सदा समझा कर कह देती कि अब कहां आना-जाना! अब इस प्राण-प्यारे
के मंदिर को छोड़ कर कहां जाएं!
वह रणछोड़दासजी के मंदिर में द्वारिका में
मस्त थी।
फिर तो उदयसिंह ने बहुत कोशिश की, एक सौ
आदमियों का जत्था भेजा, और कहा कि किसी भी तरह ले आना,
न आए तो धरना दे देना; कहना कि हम उपवास
करेंगे। वही मंदिर पर बैठ जाना।
और उन्होंने धरना दे दिया। उन्होंने कहा कि
चलना ही होगा,
नहीं तो हम यहीं मर जाएंगे।
तो मीरा ने कहा: फिर ऐसा है, चलना ही
होगा तो मैं जाकर अपने प्यारे को पूछ लूं। उनकी बिना आज्ञा के तो न जा सकूंगी। तो
रणछोड़दासजी को पूछ लूं!
वह भीतर गई। और कथा बड़ी प्यारी है और बड़ी
अदभुत और बड़ी बहुमूल्य! वह भीतर गई और कहते हैं, फिर बाहर नहीं लौटी! कृष्ण
की मूर्ति में समा गई!
यह भी ऐतिहासिक तो नहीं हो सकती बात। लेकिन
होनी चाहिए, क्योंकि अगर मीरा कृष्ण की मूर्ति में न समा सके तो फिर कौन समाएगा! और
कृष्ण को अपने में इतना समाया, कृष्ण इतना भी न करेंगे कि
उसे अपने में समा लें! तब तो फिर भक्ति का सारा गणित ही टूट जाएगा। फिर तो भक्त का
भरोसा ही टूट जाएगा। मीरा ने कृष्ण को इतना अपने में समाया, अब
कुछ कृष्ण का भी दायित्व है! वह आखिरी घड़ी आ गई, महासमाधि
की! मीरा ने कहा होगा: या तो अपने में समा लो मुझे, या मेरे
साथ चल पड़ो, क्योंकि अब ये लोग भूखे बैठे हैं, अब मुझे जाना ही पडेगा।
वह आखिरी घड़ी आ गई, जब भक्त
भगवान हो जाता है। यही प्रतीक है उस कथा में कि मीरा फिर नहीं पाई गई। मीरा कृष्ण
की मूर्ति में समा गई। अंततः भक्त भगवान में समा ही जाता है।
ध्यान रखना, इसे तथ्य मान कर सोचने मत
बैठ जाना। यह सत्य है और सत्य तथ्यों से बहुत भिन्न होते हैं। सत्य तथ्यों से बहुत
ऊपर होते हैं। तथ्यों में रखा ही क्या है? दो कौड़ी की बातें
हैं। तथ्य सीमा नहीं है सत्य की। तथ्य तो आदमी की छोटी सी बुद्धि से जो समझ में
आता है, उतने सत्य का टुकड़ा है; सत्य
बहुत बड़ा है।
मुझसे पूछो तो मैं कहूंगा: ऐसा हुआ। होना ही
चाहिए; नहीं तो भक्त का भरोसा गलत हो जाएगा। मीरा ने यही कहा होगा: अब क्या इरादे
हैं? अब मैं जाऊं? और अब जाऊं कहां?
या तो मेरे साथ चलो, या मुझे अपने साथ ले लो।
इकबाल का एक पद है:
तू है मुहीते बेकरां, मैं हूं
जरा-सी आबजू
या मुझे हमकिनार कर या
मुझे बेकिनार कर।
कहा है: तू है मुहीते
बेकरां...
तू तो सागर है असीम। मुहीते बेकरां! तेरा
कोई किनारा नहीं है,
ऐसा सागर है तू।
तू है मुहीते बेकरां, मैं हूं
जरा-सी आबजू
और मैं हूं एक छोटा सा
झरना या छोटी सी नदी।
या मुझे हमकिनार कर...
या तो मुझे अपने साथ दौड़ने दे--समानांतर, गलबांही
डाल कर।
या मुझे हम किनार कर या मुझे बेकिनार कर।
या मुझे अपने में समा ले और मुझे भी असीम
बना दे। अगर सीमित रखना हो तो मुझे साथ-साथ दौड़ने दे; जहां तू
जाए, मैं चलूं। और अगर यह असंभव हो, क्योंकि
तू असीम है और मैं सीमित, कैसे तेरे साथ दौड़ पाऊंगी; तू विराट, मैं क्षुद्र, तो
कैसे तेरे साथ दौड़ पाऊंगी, कहां तक दौड़ पाऊंगी!
...मैं हूं जरा सी आबजू
मैं तो एक छोटा सा झरना हूं, जल्दी सूख
जाऊंगी, किसी मरुस्थल में खो जाऊंगी! तेरे साथ कैसे दौड़
पाऊंगी? तो फिर दूसरा उपाय यह है:
या मुझे हम किनार कर या मुझे बेकिनार कर।
या तो किनारे पर साथ लगा ले और या फिर मुझे
अपने में डुबा ले,
मुझे भी असीम बना ले।
ऐसा ही मीरा ने कहा होगा:
तू है मुहिते बेकरां मैं
हूं जरा-सी आबजू
या मुझे हमकिनार कर या मुझे बेकिनार कर।
और कृष्ण ने उसे बेकिनार कर दिया। क्योंकि
हमकिनार तो किया नहीं जा सकता। छोटा सा झरना कैसे सागर के साथ दौड़ेगा। कहां तक
दौड़ेगा। थक जाएगा,
टूट जाएगा, उखड़ जाएगा, सूख
जाएगा। यह तो नहीं हो सकता। मीरा को बेकिनार कर दिया--अपने में ले लिया।
मेरे दिल को दोस्त ने
लालाजार कर दिया
ये खिजाजादा चमन पुरबहार
कर दिया
देखते ही देखते बर्के शोला
पाश को
इक निगाहे लुत्फ से आबशार
कर दिया
अब मुझे दिया दिखा मौत से
परे है क्या
जिंदगी का राज सब आशकार कर
दिया
होशियार को दिया इक जनूने
जावदां
मस्त उसे बनाके फिर
होशियार कर दिया,
आबजू जरा-सी थी ऐ मुहीते
बेकरां,
तूने करके हमकिनार बेकिनार
कर दिया!
मेरे दिल को दोस्त ने
लालाजार कर दिया!
मीरा को ले लिया कृष्ण ने अपने में--लालाजार
कर दिया। खिला दिए फूल सब।
ये खिजाजादा चमन पुरबहार
कर दिया
वह जो वैराग्य में, संसार के
वैराग्य में सूख गया था सब, वह जो परमात्मा के विरह में
रोते-रोते, रोते-रोते आंखें मरुस्थल जैसी हो गई थीं--ये
खिजाजादा चमन पुरबहार कर दिया--फिर वसंत आया।
देखते ही देखते बर्के शोला
पाश को
इक निगाहे लुत्फ से आबशार
कर दिया
वह प्रेम की एक निगाह काफी है। उसी निगाह
में डूब गई होगी मीरा। एक क्षण भर को शाश्वत उतर आया होगा उस मूर्ति के बहाने। वे
आंखें, मूर्ति की मुर्दा आंखें, क्षण भर जीवित हो उठी
होंगी। एक बिजली कौंधी होगी। वे मूर्ति की पत्थर जैसी आंखें एक क्षण को पत्थर न
रही होंगी--एक क्षण को सजीव झील बन गई होंगी।
इक निगाहे लुत्फ से आबशार कर
दिया।
बस वह एक प्रेम की नजर उसे मुक्त कर गई
होगी। देह से छुड़ा ले गई होगी। खुल गए होंगे उसके पंख अनंत आकाश में।
अब मुझे दिया दिखा मौत के
परे है क्या
जिंदगी का राज सब आशकार कर
दिया
होशियार को दिया इक जनूने
जावदां।
जो होशियार था, उसको एक
अनंत पागलपन दिया। उसको एक ऐसी बेहोशी दी जो कभी न टूटे।
मस्त उसे बनाके फिर
होशियार कर दिया।
यह भी खूब गजब किया, कि पहले
मस्त बना दिया। और फिर होशियार कर दिया।
यह परमात्मा की शराब ऐसी है: पहले आदमी
डूबता है, फिर उबरता है। पहले बेहोश होता है, फिर होश आता है।
आबजू जरा-सी थी ऐ मुहीते
बेकरां।
मैं तो एक छोटी सी नदी थी।
तू सागर है।
तूने करके हमकिनार बेकिनार
कर दिया।
तूने साथ क्या ले लिया, हमारे
किनारे ही छूट गए!
सागर का साथ हो जाए तो
अपनी सीमाएं छूट जाती हैं।
विराट से दोस्ती करो।
असीम से दोस्ती करो।
क्षुद्र से बंधोगे, क्षुद्र
रह जाओगे।
जो जिससे दोस्ती करेगा
वैसा ही हो जाता है।
तुमने देखा, रुपये-पैसे का दीवाना
धीरे-धीरे रुपये-पैसे जैसा ही हो जाता है। उसके चेहरे पर वही घिसे-पिटे रुपये की
झलक आने लगती है। कामी आदमी के चेहरे पर काम की रुग्णता छा जाती है; एक घृणित भाव समा जाता है। राम के प्रेमी को राम घेर लेता है! अंततः
तुम्हारा प्रेम जिससे है वही तुम हो जाते हो।
सोच-समझ कर प्रेम करना। होशियारी से दोस्ती
बनाना। क्योंकि यह दोस्ती साधारण मामला नहीं है। मीरा ने दोस्ती कृष्ण से की और
अंततः अगर उनकी मूर्ति में समा गई तो मुझे यह बात बिलकुल ही ठीक-ठीक मालूम पड़ती
है। ऐसा होना ही चाहिए। ऐसा होता ही है।
अब मीरा के भजन:
बसो मेरे नैनन में नंदलाल।
मीरा कहती है: मेरी आंखों में बस जाओ
नंदलाल। मेरी आंखों में तुम ही रहो। मेरी आंखें तुम्हारा घर बन जाएं। जागूं तो
तुम्हें देखूं,
सोऊं तो तुम्हें देखूं। आंख खोलूं तो तुम्हें देखूं। रात सपना देखूं
तो तुम्हारा देखूं।
यह मतलब है आंखों में बसने का। तुम्हें
छोडूं ही न। तुम मेरे भीतर रहने लगो।
बसौ मेरे नैनन में नंदलाल।
मोहनी मूरत सांवरी सूरत...
ध्यान करना, भक्त की खोज सौंदर्य के
माध्यम से परमात्मा की खोज है।
मोहनी मूरत सांवरी सूरत...
यह भी ध्यान रखना कि इस देश में हमने कृष्ण
को, राम को सांवरा कहा है। कभी-कभी पश्चिम के लोगों को हैरानी होती है,
कि हमने सुंदरतम व्यक्तियों को सांवरा क्यों कहा है? गोरा क्यों नहीं कहा? कारण हैं। सांवरेपन में एक
गहराई होती है जो गोरेपन में नहीं होती। गोरापन थोड़ा सा उथला-उथला होता है। गोरापन
ऐसा ही होता है जैसे कि नदी बहुत छिछली-छिछली, तो पानी सफेद
मालूम पड़ता है। जब नदी गहरी हो जाती है तो पानी नीला हो जाता है, सांवरा हो जाता है।
कृष्ण सांवरे थे, ऐसा नहीं
है। हमने इतना ही कहा है सांवरा कह कर, कि कृष्ण के सौंदर्य
में बड़ी गहराई थी; जैसे गहरी नदी में होती है, जहां जल सांवरा हो जाता है। यह सौंदर्य देह का ही सौंदर्य नहीं था--यह
हमारा मतलब है। खयाल मत लेना कि कृष्ण सांवले थे। रहे हों न रहे हों, यह बात बड़ी बात नहीं है। लेकिन सांवरा हमारा प्रतीक है इस बात का कि यह
सौंदर्य शरीर का ही नहीं था, यह सौंदर्य मन का था; मन का ही नहीं था; यह सौंदर्य आत्मा का था। यह
सौंदर्य इतना गहरा था, उस गहराई के कारण चेहरे पर सांवरापन
था। छिछला नहीं था सौंदर्य। अनंत गहराई लिए था।
मोहनी मूरत सांवरी सूरत, नैना बने
बिसाल।
ये तुम्हारी बड़ी-बड़ी आंखें सदा मेरा पीछा
करती रहें, ये सदा मुझे देखती रहें। मुझमें झांकती रहें।
मोर मुकुट मकराकृति
कुंडल...
यह तुम्हारा मोर के पंखों से बना हुआ मुकुट, यह
तुम्हारा सुंदर मुकुट, जिसमें सारे रंग समाएं हैं! वही
प्रतीक है। मोर के पंखों से बनाया गया मुकुट प्रतीक है इस बात का कि कृष्ण में
सारे रंग समाए हैं। महावीर में एक रंग है, बुद्ध में एक रंग
है, राम में एक रंग है--कृष्ण में सब रंग हैं। इसलिए कृष्ण
को हमने पूर्णावतार कहा है...सब रंग हैं। इस जगत की कोई चीज कृष्ण को छोड़नी नहीं
पड़ी है। सभी को आत्मसात कर लिया है। कृष्ण इंद्रधनुष हैं, जिसमें
प्रकाश के सभी रंग हैं। कृष्ण त्यागी नहीं हैं। कृष्ण भोगी नहीं हैं। कृष्ण ऐसे
त्यागी हैं जो भोगी हैं। कृष्ण ऐसे भोगी हैं जो त्यागी हैं। कृष्ण हिमालय नहीं भाग
गए हैं, बाजार में हैं। युद्ध के मैदान पर हैं। और फिर भी
कृष्ण के हृदय में हिमालय है। वही एकांत! वही शांति! अपूर्व सन्नाटा!
कृष्ण अदभुत अद्वैत हैं। चुना नहीं है कृष्ण
ने कुछ। सभी रंगों को स्वीकार किया है, क्योंकि सभी रंग परमात्मा के हैं।
मोर मुकुट मकराकृति कुंडल, अरुण तिलक
दिए भाल।
यह तुम्हारा लाल तिलक! ये तुम्हारे मछली के
आकार के कुंडल! ये तुम्हारे मोर के पंखों से बना हुआ मुकुट! ये तुम्हारी बड़ी-बड़ी
आंखें!
बसो मेरे नैनन में नंदलाल।
अधर सुधारस मुरली राजति...
यह तुम्हारे नीचे ओंठ पर रखी हुई मुरली, इसे इससे
और कोई सुंदर जगह तो बैठने को मिल भी नहीं सकती।
अधर सुधारस मुरली राजति...
और यह मुरली कोई साधारण नहीं है। इससे तुम
जब गाते हो तो सुधा बरसा देते हो, अमृत बहा देते हो।
कृष्ण रंग हैं, राग हैं।
महावीर में कोई राग नहीं है। महावीर संगीत-शून्य हैं। कृष्ण जीवन के संगीत से भरे
हैं। तो महावीर में वीतरागता की स्पष्टता है--स्वभावतः क्योंकि एक ही रंग है;
एक स्पष्ट दिशा है। कृष्ण में मेला है सभी रंगों का। स्वभावतः
महावीर के वक्तव्य बहुत तर्कयुक्त होंगे, क्योंकि एक ही रंग
हैं; दूसरे रंग की बात ही नहीं है। कृष्ण के वक्तव्य
विरोधाभासी होंगे, क्योंकि सभी रंग है। अनंत रंगों का मेला
है। महावीर का स्वर बिलकुल स्पष्ट है। कृष्ण के स्वर बेबूझ हैं, अटपटे हैं।
अधर सुधारस मुरली राजति...
कृष्ण सेतु हैं--संसार में और परमात्मा में।
कृष्ण ने दोनों को जोड़ा है। इसलिए कृष्ण के संगीत में अपूर्वता है। संगीत में
बांसुरी है जो संसार की है,
और संगीत है जो परमात्मा का है। ओंठों पर बांसुरी रखी है--ओंठ तो
देह के हैं, लेकिन जो स्वर आ रहे हैं, वे
आत्मा से आ रहे हैं। यह अपूर्व सम्मिलन है।
अधर सुधारस मुरली राजति, उर वैजंती
माल।
वह वैजंतीमाला पहने हुए हो। वैजंतीमाला पांच
रंगों की बनती है। पांचों इंद्रियों ने जो दिया है, कृष्ण ने सभी को समाहित कर
लिया है, समाविष्ट कर लिया है। कृष्ण ने आंख नहीं फोड़ीं,
कान नहीं रौंदे, हाथ नहीं काटे। कृष्ण ने
इंद्रियों को नष्ट नहीं किया। कृष्ण इंद्रियों की सारी संवेदनशीलता को पचा गए।
कृष्ण इंद्रियों के शत्रु नहीं हैं। कृष्ण में जीवन का निषेध नहीं है--जीवन का
परिपूर्ण स्वीकार है; अहोभाव से स्वीकार है।
कृष्ण जैसा व्यक्ति पूरे मनुष्य-जाति के
इतिहास में खोजना कठिन है। क्योंकि कहीं न कहीं, कोई न कोई चीज कम मालूम
पड़ेगी। ईसाई कहते हैं: जीसस कभी हंसे नहीं। क्यों? क्योंकि
जीसस गंभीर हैं, कैसे हंस सकते हैं? तो
जीसस बड़े संगत हैं। कृष्ण खिलखिला कर हंस सकते हैं। और इससे उनकी गंभीरता में बाधा
नहीं पड़ती। यह हंसना उनकी गंभीरता का खंडन नहीं होता। उनमें विरोध एक-दूसरे को
सम्हालते हैं, समृद्ध करते हैं।
ध्यान रखना, दुनिया का कोई भी संत कृष्ण
जैसा रस से सराबोर नहीं है। कुछ है और बड़ी मात्रा में है; लेकिन
कुछ बिलकुल नहीं है। इसलिए हिंदुओं ने ठीक ही किया कि किसी और अवतार को पूर्णावतार
नहीं कहा। बुद्ध को भी पूर्णावतार नहीं कहा। राम को भी पूर्णावतार नहीं कहा। अवतार
कहा। परमात्मा आंशिक रूप में उतरा है। एक ढंग से उतरा है। बुद्ध में ध्यान की तरह
उतरा है, कि महावीर में त्याग की तरह उतरा है। तो महावीर का
जो त्याग है, वह चरम है। मगर बस त्याग है। एकांगी है
व्यक्तित्व। बुद्ध का जो ध्यान है, वह चरम है; लेकिन एकांगी है।
कृष्ण में संतुलन है; तराजू के
सब पलड़े एक तल पर आ गए हैं। कृष्ण में कुछ कमी नहीं है। निश्चित ही खतरा भी है,
क्योंकि कुछ कमी न होने की वजह से सब कुछ है; तुम
जो चाहो चुन लो। इसलिए कृष्ण के भक्तों ने जो चाहा चुन लिया। किसी ने एक बात चुन
ली, किसी ने दूसरी बात चुन ली। किसी ने गीता चुन ली, तो वह भागवत नहीं पढ़ता, क्योंकि भागवत में मुश्किल
हो जाती है उसे। उसे कृष्ण गीता के जंचते हैं। किसी ने भागवत चुन ली तो गीता की
बहुत फिकर नहीं करता। सूरदास कृष्ण के बचपन के गीत गाते हैं।
तुमने पढ़ा न कि सूरदास की कहानी है: एक
सुंदर स्त्री को देख कर उन्होंने अपनी आंखें फोड़ लीं! ऐसे सूरदास कृष्ण के भक्त
हैं। यह करना नहीं चाहिए। कृष्ण का भक्त और ऐसा करे तो फिर राम के भक्त को तो
फांसी लगा लेनी पड़ेगी। फिर तो जीना ही मुश्किल हो जाएगा। यह बात ठीक नहीं है, लेकिन
उन्होंने चुन लिया है। अब यह बात कहां जमती है कृष्ण के साथ? जो कि नदी के तट पर नहाती हुई स्त्रियों के कपड़े लेकर वृक्ष पर बैठ जा
सकता है, उसके साथ यह सूरदास की दोस्ती कैसे जमेगी? एक स्त्री को देख कर इन्होंने आंखें फोड़ लीं कि कहीं इससे कामवासना न जग
जाए--और इनके जो गुरु हैं, वे नहाती अपरिचित स्त्रियों के
कपड़े उठा कर और झाड़ पर बैठ गए हैं। नहीं, यह बात जमती नहीं।
तो इसलिए सूरदास ने कृष्ण के बचपन को चुन लिया है। वे उनके बचपन की बातें करते
हैं। वे बचपन में जो पांव में पैजनियां बजती है, बस उसी की
बात करते हैं। उसके बाद जो बांसुरी बजी है, और ऐसी बजी है कि
दूसरे की स्त्रियां अपने पतियों को छोड़ कर कृष्ण की हो गईं--उसकी बात करने में
डरते हैं कि यह जरा खतरा है।
उसकी बात करने वाले लोग भी हैं। जैसे
गीतगोविंद में,
जयदेव ने उसी की बात की है। मध्य-युग में, रीतिकालीन
कवियों ने बस कृष्ण के उसी शृंगारिक रूप की चर्चा की है, उसी
भोग-विलास को खूब बढ़ा कर बताया है।
ये दोनों बातें गलत हैं। कृष्ण को समझना हो
तो पूरा ही समझना चाहिए। अंग नहीं चुनने चाहिए। पूरा ही समझोगे, तो ही
कृष्ण के साथ ज्यादती करने से बचोगे; नहीं तो ज्यादती हो
जाएगी। फिर मैं समझता हूं कि पूरा समझने में तुम्हें बहुत दिक्कत है, क्योंकि तब बहुत सी असंगतियां दिखाई पड़ेंगी। एक अंग चुनने में संगति मालूम
पड़ती है; बहुत से अंग चुनने में असंगति हो जाती है। क्योंकि
फिर तुम तालमेल नहीं बिठा पाते। तुम बिठा भी न पाओगे, जब तक
कृष्णमय न हो जाओ। कृष्ण की चेतना ही तुम्हारे भीतर जन्मे, तो
ही तुम तालमेल बिठा पाओगे; तभी तुम जान पाओगे कि ये सब अंग
एक-दूसरे के विपरीत नहीं हैं, बल्कि एक-दूसरे को समृद्ध करते
हैं। रात दिन के खिलाफ नहीं है; रात से ही दिन पैदा होता है।
और दिन रात का दुश्मन नहीं है, क्योंकि दिन से ही रात पैदा
होती है। जीवन और मृत्यु सब जुड़े हैं, संयुक्त हैं।
मोर मुकुट मकराकृति कुंडल, अरुण तिलक
दिए भाल।
अधर सुधारस मुरली राजति, उर वैजंती
माल।
छुद्र घंटिका कटितट
सोभित...
कमर में करधनी बांधे हुए हैं, जिसमें
छोटे-छोटे घुंघरू बंधे हैं।
छुद्र घंटिका कटितट सोभित, नूपुर सबद
रसाल।
जैसे मीठा-मीठा स्वर हो रहा है।
मीरा प्रभु संतन सुखदाई...
मीरा कहती है: हे प्रभु, जिनके पास
तुम्हें देखने की आंखें हैं, उनके लिए तुम कितने सुखदाई हो!
मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्त
बच्छल गोपाल।
और तुम भक्तों के प्रति कितने अपूर्व प्रेम
से भरे हो! वात्सल्य से!
वात्सल्य शब्द को समझ लेना। भक्त-वत्सल
गोपाल! वात्सल्य का अर्थ होता है: ऐसा प्रेम जैसा मां को छोटे से बच्चे के लिए
होता है। क्यों?
इसमें क्या विशिष्टता है? इसमें विशिष्टता यह
है कि छोटे बच्चे में कोई भी तो पात्रता नहीं है, कोई
योग्यता नहीं है। न तो पैसा कमा कर लाता है घर में, न कोई
यूनिवर्सिटी के सर्टिफिकेट लाया है, कि गोल्डमेडल जीते हों,
कुछ भी तो नहीं है उसके पास पात्रता! लेकिन मां उसे प्रेम करती है।
यह प्रेम किसी भी पात्रता के कारण नहीं है। बच्चा बिलकुल अपात्र है, अबोध है, और असहाय है। बच्चे से कुछ भी तो उत्तर में
नहीं मिल सकता। इसलिए सौदा नहीं है इसमें। देना ही देना है।
तो जब मीरा कहती है "भक्त बच्छल गोपाल' तो वह यह
कह रही है कि मैं अपात्र हूं, मैं असहाय हूं; मेरी कोई योग्यता नहीं है; प्रत्युत्तर में देने को
मेरे पास कुछ भी नहीं है--फिर भी तुम देते हो!
यह वात्सल्य है। वात्सल्य बेशर्त प्रेम का
दान है। जब एक तरफ दे दिया जाता है, और दूसरी तरफ योग्यता भी नहीं होती
लेने की; और तो देने की बात अलग, बच्चे
में योग्यता भी नहीं होती लेने की, कि वह इतना भी कह दे मां
को कि धन्यवाद। धन्यवाद भी देने की क्षमता भी उसकी नहीं है; अभी
बोल भी नहीं सकता।
भक्त की दशा ऐसी ही है। लेकिन भक्त रो सकता
है, पुकार सकता है; जैसे छोटा बच्चा पुकारता और रोता है।
भक्त का भरोसा रोने में और पुकारने में है।
हम बुरे ही सही
अच्छा भी मिलेगा अब कौन
यूं नहीं करते हैं
हर बात पर झगड़ा, देखो!
भक्त कहता है: हम बुरे ही सही, अच्छा भी
मिलेगा अब कौन? और तुम्हारी आंख में जो अच्छा दिखाई पड़ सके
वैसा हो भी कहां सकता है! तुम्हारी आंख में जो अच्छा उतर सके, तुम्हारी कसौटी पर जो कसा जा सके--ऐसा हो भी कहां सकता है। किसकी योग्यता,
किसकी क्षमता, कि परमात्मा की कसौटी पर उतर
जाए और कहे सके कि मैं ठीक पात्र हूं! यह तो अहंकार की ही घोषणा होगी।
तो भक्त यह नहीं कहता।
भक्त कहता है:
हम बुरे ही सही
अच्छा भी मिलेगा अब कौन
यूं नहीं करते हैं
हर बात पर झगड़ा, देखो!
हरि मोरे जीवन प्राण आधार।
और आसिरो नहीं तुम बिन, तीनूं लोक
मंझार।
कहती है मीरा कि तीनों जगत को खूब मंझार कर
देख लिया, छान-छान कर देख लिया, द्वार-द्वार, दरवाजे-दरवाजे खटका लिए ।
हरि मोरे जीवन प्राण आधार।
तुम्हारे बिना और कोई मेरा
आसरा है नहीं।
और आसिरो नहीं तुम बिन, तीनूं लोक
मंझार।
आप बिना मोहि कछु न सुहावै, निरखौ सब
संसार।
एक-एक चीज की परख कर ली है, सब धोखा
ही धोखा पाया। जिनको अपना माना, वे बीच में छोड़ कर चले गए।
जिन पर भरोसा किया, धोखा दे गए। जहां फुल समझे वहां कांटे
पाए। जहां प्रेम की झलक दिखी थी, खोजने पर सिर्फ घृणा का जहर
मिला। दौड़े बहुत मरुस्थलों में--मरूद्यानों की तलाश में; लेकिन
जब भी हाथ आई तो रूखी रेत ही हाथ आई।
आप बिना मोहि कछु न सुहावै, निरखौ सब
संसार।
मीरा कहै मैं दास रावरी...
मीरा कहती है: मैं तो तुम्हारी दासी हूं।
...दीज्यौ मति विसार।
और तो क्या कहूं? मैं तो
जितना बनता है याद रखती हूं: लेकिन मेरे याद रखने से क्या होगा? अगर तुमने याद न किया, अकेले मेरे याद करने से क्या
होगा, अगर तुमने विसार दिया?
तो भक्त कहता है: मैं याद करता हूं लेकिन
मेरी याद भी मेरे ही जैसी कच्ची है। मेरी याद भी मेरी अपात्रता से भरी है। मैं
भूल-भूल भी जाऊं तो तुम मत भूल जाना।
भक्त भगवान से ऐसे संवाद करता रहता है
निरंतर। दूसरे तो उसे इसलिए पागल समझते हैं--बैठे हैं अपनी मूर्ति के सामने और
बातें कर रहे हैं! लोग पूछते हैं, किससे बातें कर रहे हो? भक्त
मुस्कुराएगा। भक्त तुम्हें देख कर हैरान होता है जब तुम बैठे अपनी पत्नी से बात कर
रहे कि अपने पति से बात कर रहे, तब वह हैरान होता है उस पर
कि किससे बात कर रहे हो! नदी-नाव संयोग! हम उससे बात कर रहे हैं, जो सदा रहेगा; तुम उससे बात कर रहे हो जो अभी चला
जाए, पता नहीं! यह सांस आई, और न आए!
तुम किससे बात कर रहे हो! मरघट पर बैठे कब्रें एक-दूसरे से बात कर रही हैं!
भक्त कहता है: हम उससे बात
कर रहे हैं जो है।
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न
कोई।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति
सोई।
छाड़ि दई कुल की कानि, कहा करि
है कोई।
खयाल करना इस वचन पर। जिन्हें भी जाना है
परमात्मा की तलाश में उन्हें हृदय पर खोद कर रख लेना चाहिए यह वचन:
छाड़ि दई कुल की कानि, कहा करि
है कोई।
अब छोड़ दी सब प्रतिष्ठा कुल की--मान-मर्यादा, ऐसा-वैसा,
नियम, व्यवस्था।
छाड़ि दई कुल की कानि, कहा करि
है कोई।
अब तो यही भाव है कि कोई करेगा भी क्या!
बहुत से लोग पागल कहेंगे,
दीवानी कहेंगे। सो ठीक, स्वीकार है।
परमात्मा के प्रेम में दीवाना होना
बेहतर--धन के प्रेम में होशियार होने की बजाय। पद के प्रेम में होशियारी की बजाय
प्रभु के प्रेम में पागल होना बेहतर।
संतन ढिंग बैठि बैठि, लोकलाज
खोई।
मीरा कहती है: संतों के पास बैठ-बैठ कर वह
जो लोकलाज का व्यर्थ आडंबर था, बोझ था, वह सब उतार दिया।
संत के पास बैठ कर भी अगर लोकलाज न खोई तो संत से कुछ सीखा नहीं।
इसलिए तो संतों से समाज सदा विपरीत पड़ जाता
है, क्योंकि समाज की व्यवस्था संत तोड़ने लगते हैं। संत एक नई व्यवस्था लाते
हैं। वे परमात्मा की किरण लाते हैं। वे एक बड़ा नियम लाते हैं--एक ऊंचा अनुशासन
लाते हैं।
क्षुद्र अनुशासन समाज का व्यर्थ हो जाता है।
वे जो शिष्टाचार के नियम हैं--औपचारिक, वे दो कौड़ी के हो जाते हैं,
क्योंकि जब आत्मा के नियम उतरने शुरू होते हैं।
संतों के पास बैठ कर भी अगर लोकलाज बनी रही
और तुम होशियार बने रहे तो तुम बैठे ही नहीं; सत्संग हुआ ही नहीं। देह से गए
होओगे; आत्मा से नहीं पहुंचे।
संतन ढिंग बैठि बैठि, लोकलाज
खोई।
अंसुवन जल सींचि सींचि, प्रेम-बेलि
बोई।
और तो कोई रास्ता भी नहीं है। भक्ति की बेल
को बोना हो तो आंसू से ही सींचना पड़ता है। आंसू भक्त के लिए वैसे ही हैं जैसे
ज्ञानी के लिए ध्यान। आंसुओं का वही मूल्य है भक्ति के मार्ग पर--पुकार का, रोने का,
अपनी असहाय अवस्था की उदघोषणा का! और हम कर भी क्या सकते हैं?
चिल्ला सकते हैं। इस अरण्य में भटके हैं--पुकार सकते हैं। शायद कोई
आ जाए, साथ दे! और जरूर साथ आता है। पुकार सच्ची हो। पुकार
हार्दिक हो। पुकार पुरी हो। पुकार ऐसी न हो कि देखें शायद आ जाए। शायद से भरी
पुकार में कभी नहीं आता।
इसलिए श्रद्धा अनिवार्य है भक्ति के मार्ग
पर। ज्ञान के मार्ग पर प्रयोग हो सकता है। भक्ति के मार्ग पर प्रयोग नहीं
है--वियोग है। भक्ति के मार्ग पर तो शुरुआत श्रद्धा से है। ज्ञान के मार्ग पर
श्रद्धा अंतिम निष्पत्ति है। प्रयोग करो, करते-करते अनुभव करो, अनुभव करते-करते श्रद्धा आएगी। भक्ति के मार्ग पर श्रद्धा न करो तो वियोग
ही नहीं होता। वियोग नहीं होता तो पुकार नहीं होती, प्रार्थना
नहीं होती, आंसू नहीं बहते। आंसू नहीं बहते तो प्रेम की बेल
सूख जाती है।
अंसुवन जल सींचि सींचि, प्रेम-बेलि
बोई
अब तो बेलि बढ़ गई, आंनद फल
होई।
मीरा कहती है: अब तो बेल बढ़ गई, पहले तो
बड़ी मुश्किल थी, इधर आंसू भी बहे जाते थे, बेल का कुछ पता न चलता था, उधर लोग भी कहे जाते थे
कि पागल हो गई; लेकिन अब कुछ अड़चन न रही। थोड़ी प्रतीक्षा तो
करनी पड़ती है।
बीज बोते हो तो एकदम से तो नहीं लग जाता
पौधा, एकदम से तो फल नहीं आ जाते। प्रतीक्षा करनी होती है। ऐसे ही आंसुओं से
सींचते-सींचते प्रार्थना का फल एक दिन पकता है।
अब तो बेलि बढ़ गई, आनंद फल
होई।
और आंसुओं के द्वारा सींची गई बेल में ही
आनंद के फल लगते हैं।
भगत देख राजी हुई, जगत देख
रोई।
मीरा कहती है: लोग मुझे पागल समझते हैं। और
जब से मेरे जीवन में आनंद के फूल खिले हैं मेरी उलटी हालत हो गई है।
भगत देख राजी हुई...
जहां कहीं भगत को देख लेती हूं, वहां तो
प्रफुल्लित हो जाती हूं; वहां तो आनंदित हो जाती हूं।
क्योंकि वहां जीवन के दर्शन होते हैं और वहां परमात्मा की झलक मिलती है। क्योंकि
भक्त यानी भगवान का मंदिर।
भगत देख राजी हुई, जगत देख
रोई।
लेकिन जब जगत को देखती हूं तो रोना आता है।
रोना आता है लोगों पर कि बेचारे, कितना तड़प रहे हैं! और किसके लिए तड़प रहे हैं?
कचरे के लिए, कूड़ा-कर्कट के लिए।
तुम्हें तरस नहीं आएगा? कोई आदमी
म्युनिसिपल-घर के कचरे-घर के पास बैठा हो और तड़प रहा हो और कचरे में खोज रहा
हो--तुम्हें रोना नहीं आएगा? तुम कहोगे: पागल, इस कचरे में क्या मिलेगा! यह तू क्या कर रहा है? क्यों
अपना जीवन गंवा रहा है?
ठीक, जिन्होंने जाना है परमात्मा को,
तुम्हें देख कर उन्हें भी ऐसी ही दया आती है।
भगत देख राजी हुई, जगत देख
रोई।
दासी मीरा लाल गिरधर, तारो अब
मोहि।
और मीरा कहती है: अब तुम ले चलो उस पार।
अपने से तो यह न हो सकेगा मुझसे। यह भवसागर बड़ा है। दूसरा किनारा दिखाई भी नहीं
पड़ता है। हां,
तुम्हारा प्रेम का हाथ आ जाए तो मैं कहीं भी जाने को तैयार हूं।
दूसरा किनारा न हो तो जाने को तैयार हूं। तुम्हारा हाथ काफी है। तुम बीच मझधार में
डुबा दो तो राजी हूं, क्योंकि तुम्हारे हाथ से डूब जाऊं तो
उबर गई।
दासी मीरा लाल गिरधर, तारो अब
मोहि।
भक्त एक ही बात कहता है अनेक-अनेक ढंगों से; दूसरी बात
वहां है भी नहीं। भक्ति का स्वर एक है। इन अलग-अलग भजनों में अलग-अलग बात नहीं कही
गई है। ये भजन अलग-अलग हैं, लेकिन जो कहा गया है वह तो एक ही
है।
हर लम्हा मेरे चंचल मन के अरमान बदलते रहते
हैं,
किस्सा तो वही फरसूदा है उनवान बदलते रहते
हैं।
--कहानी तो वही है, सिर्फ शीर्षक बदल जाते हैं।
हर लम्हा मेरे चंचल मन के अरमान बदलते रहते
हैं,
किस्सा तो वही फरसूदा है...
--वही पुराना...उनवान बदलते रहते
हैं। लेकिन शीर्षक बदल जाते हैं।
कायम हैं जहां में दो चीजें इक हुस्न तेरा
इक इश्क मेरा
पूजा के मगर ऐ बुत तेरी सामान बदलते रहते
हैं।
--दुनिया में दो ही चीजें शाश्वत हैं
भक्ति में।
कायम हैं जहां में दो चीजें इक हुस्न तेरा
इक इश्क मेरा
--एक परमात्मा का सौंदर्य और एक
परमात्मा के भक्त का सौंदर्य के प्रति प्रेम--बस ये दो चीजें पक्की हैं। फिर इन दो
के बीच बहुत कुछ घटता है, बहुत संवाद होते हैं।
पूजा के मगर ऐ बुत तेरी सामान बदलते रहते
हैं।
--कभी फूल से पूजा और कभी धूप-दीप से,
कभी खाली हाथों से, कभी आंसुओं से, कभी नाच कर, कभी रो कर, कभी गा
कर--मगर इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।
कायम हैं जहां में दो चीजें इक हुस्न तेरा
इक इश्क मेरा
पूजा के मगर ऐ बुत तेरी सामान बदलते रहते
हैं
जब जीस्त का अपना मकसद ही तेरी खिदमत करना
ठहरा
फिर इसकी शिकायत क्या तेरे फरमान बदलते रहते
हैं।
--और जब अपनी जिंदगी का लक्ष्य ही एक
है--तेरी खिदमत, तेरी सेवा, तेरी पूजा,
तेरी आराधना--तो क्या फर्क पड़ता है कि तू आदेश बदल देता है। कभी
कहता है, फूल लाओ; कभी कहता है,
आंसू लाओ; कभी कहता है, ऐसा
करो, कभी कहता है, वैसा करो; कभी कहता है, इधर बैठो, कभी
कहता है, उधर बैठो--कोई फर्क नहीं पड़ता।
जब जीस्त का अपना मकसद ही तेरी खिदमत करना
ठहरा
फिर इसकी शिकायत क्या तेरे फरमान बदलते रहते
हैं
बुत पुजते हैं--मय पीते हैं--करते हैं तवाफे
काबा भी
यूं अहले नजर तेरी खातिर ईमान बदलते रहते
हैं।
तू जो करवाए--मस्जिद भेज दे, मस्जिद
चले जाएंगे; मंदिर भेज दे, मंदिर चले
जाएंगे; काशी तो काशी सही; काबा तो
काबा सही।
बुत पुजते हैं--मय पीते हैं--करते हैं तवाफे
काबा भी
मंदिर की मूर्ति भी पूज लेते हैं, तेरी शराब
भी पीए चले जाते हैं, जाकर काबा की परिक्रमा भी कर आते हैं।
मगर इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।
यूं अहले नजर तेरी खातिर ईमान बदलते रहते
हैं।
कायम हैं जहां में दो चीजें इक हुस्न तेरा
इक इश्क मेरा
पूजा के मगर ऐ बुत तेरी सामान बदलते रहते
हैं।
इन अलग-अलग वचनों में अलग-अलग कुछ भी न
पाओगे। एक ही बात बहुत-बहुत ढंग से कही गई है। एक ही बात, एक ही
पुकार बहुत-बहुत रागों में गाई गई है। उनवान अलग-अलग हैं, शीर्षक
अलग-अलग हैं--कहानी पुरानी है। मगर कौन जाने कौन सा शीर्षक तुम्हें रुच जाए,
कौन सा उनवान जंच जाए! कौन जाने कौन सा शब्द लग जाए तीर की तरह हृदय
पर! कौन सी पूजा की विधि किस क्षण में रुच जाए। इसलिए हम ये गीत गाएंगे। ये
अनेक-अनेक गीतों की नावें एक ही दिशा में जा रही हैं। ये अलग-अलग रंग की होंगी मगर
गंतव्य एक है।
आओ, प्रेम की इस झील में नौका-विहार
करें!
ऐसी झील तुम कहीं और न पाओगे। हिम्मत
की...और हिम्मत के बिना काम नहीं होगा। ज्ञानी को इतनी हिम्मत की जरूरत नहीं है।
वह अपने ज्ञान पर थोड़ा भरोसा कर सकता है। भक्त को तो पूरी हिम्मत चाहिए। भक्त को
तो पूरा साहस चाहिए। अपने पर तो कोई सवाल ही नहीं है--सब कुछ उसका है। ज्ञानी को
तो थोड़ा संकल्प का सहारा है। भक्त को तो कोई संकल्प नहीं है। उसके लिए तो सिर्फ
गिरधर गोपाल हैं। वह तो बेसहारा है। उसके बेसहारा होने में ही उसका बल है। निर्बल
के बल राम। उसकी निर्बलता की पुकार ही उसका बल है।
साहस चाहिए होगा--इस यात्रा पर जाने को। और
सबसे बड़ा साहस है--लोकलाज खोने का साहस। सबसे बड़ा साहस है--संतों के ढिग बैठने का
साहस। सबसे बड़ा साहस है--पागलों की जमात में शामिल होने का साहस।
मैं तुम्हें निमंत्रण देता
हूं। यह पागलों की एक जमात है।
कौन दुनिया पर भला तकिया
करे
है सहारा एक तेरे नाम का
जो भी हूं हूं तेरी रहमत
के तुफैल
वर्ना था मैं आदमी किस काम
का
खुम पै खुम देता चला जा
साकिया
काम सोहबत में तेरी क्या
जाम का
जादे राह लेकर चलें ऐ
हमसफर
नाम हो अल्लाह का या राम
का
दूर जाना है हमें आगे बढ़ो
वक्त आएगा बहुत आराम का
तू उठा कर देख तो अपनी नजर
किस कदर दिलकश है जल्वा
बाम का।
आंख तो उठा कर देखो: किस सुंदर झील की तरफ
मीरा ने इशारा किया है! आंख उठा कर तो देखो: किस सुंदर झील की तरफ मैं इशारा कर
रहा हूं!
तू उठा कर देख तो अपनी नजर
किस कदर दिलकश है जल्वा
बाम का।
दुनिया पर बहुत भरोसा कर
लिए--पाया क्या?
कौन दुनिया पर भला तकिया
करे
है सहारा एक तेरे नाम का।
अब परमात्मा पर भरोसा करके
भी देखो।
जो भी हूं हूं तेरी रहमत
के तुफैल
हो तुम जो भी, उसके कारण हो। लेकिन तुम
अपने पर भरोसा कर-कर के व्यर्थ झंझटें बना रहे हो। वही करने वाला है--तुम कर्ता
नहीं हो। तुम ज्यादा से ज्यादा अभिनय में हो। करने वाला वही है। तुम कठपुतली बन
जाओ। करने दो उसे जो करता है।
जो भी हूं हूं तेरी रहमत
के तुफैल
वर्ना था मैं आदमी किस काम
का
खुम पै खुम देता चला जा साकिया
काम सोहबत में तेरी क्या
जाम का ।
और इन आने वाले दिनों में हम कुल्हड़ में
शराब ढालने वाले नहीं हैं। तुम्हें जितनी पीनी हो--पी लेना। यहां कुल्हड़ों का कोई
काम नहीं। तौलत्तौल कर नहीं देनी है। तो इस मधुशाला में तुम्हें निमंत्रण देता
हूं।
हिम्मत करो! थोड़ी सी हिम्मत, थोड़ी सी
हिम्मत--और अपूर्व घट सकता है।
भक्त जब रोता है तो उसके रोने को तुम सिर्फ
रोना मत समझना। वहां बड़े वसंत छिपे हैं।
मेरी वीरानी को वीरानी-ए-सहारा न समझ
सौ बहारें लिए दामन में
खिजां मेरी है
नगम्मी गम की है और दर्द
का है सरूद
बस रही है सोजे तरन्नुम
में फगां मेरी है
हिज्र में एक नहीं कितने
जन्म बीत गए
वायदा वस्ल से उम्मीद जवां
मेरी है
देखी हैं लाखों बहारें
मेरी आंखों ने मगर
हुई आखिर नजर अफरोज खिजां
मेरी है
अर्श से चंद कदम आगे हे
मस्तों का मुकाम
मंजिल इश्क समझता हूं कहां
मेरी है
जिन फिजाओं में जरूरत नहीं
है बालो पर की
गाहे-गाहे हुई परवाज वहां
मेरी है
मेरी हस्ती है तेरे दम से
जहां में कायम
तेरी हस्ती का तकाजा है न
जां मेरी है
कहलवाता है जो तू बस वही
कह सकता हूं
कहने को यूं तो भला जबां
मेरी है
मेरी वीरानी को
वीरानी-ए-सहारा न समझ।
भक्त की उदासी को उदासी मत समझना। भक्त के
विराग को विराग मत समझना। उसके विराग में परमात्मा का राग छिपा है। भक्त की उदासी
में परमात्मा की तलाश छिपी है। और भक्त के आंसुओं को तुम विफलता के आंसू मत समझना।
भक्त के आंसुओं में हजार वसंत छिपे हैं। वे उसकी प्रार्थनाएं हैं, उसकी आशाएं
हैं, उसके मनसूबे हैं।
मेरी वीरानी को वीरानी-ए-सहारा न समझ
सौ बहारें लिए दामन में खिजां मेरी है।
भक्त का पतझड़ भी अपने भीतर हजारों वसंत
छिपाए हुए है।
नगम्मी गम की है और दर्द का है उसमें सरूद
बस रही सोजे तरन्नुम में फगा मेरी है
हिज्र में एक नहीं कितने जन्म बीत गए
उस परमात्मा को खोजते, वियोग में
एक नहीं, बहुत जन्म बीत गए हैं।
वायदा वस्ल से उम्मीद जवां मेरी है
लेकिन मिलने का वायदा मुझे याद है और मैं
जवान हूं, मेरी उम्मीद जवान है। मिलन हो कर रहेगा। अनंत-अनंत काल भी बीत जाएं विरह
में, तो भी मिलन हो कर रहेगा। ऐसी आस्था, ऐसी श्रद्धा--भक्ति है।
देखी हैं लाखों बहारें मेरी आंखों ने मगर
हुई आखिर नजर अफरोज खिजां मेरी है।
अर्श से चंद कदम आगे है मस्तों का मुकाम।
यह जो पागलों की जमात यहां बैठी है, इसका
मुकाम आकाश के थोड़ा आगे है।
अर्श से चंद कदम आगे है मस्तों का मुकाम
मंजिले इश्क समझता हूं कहां मेरी है।
परमात्मा ही तुम्हारे इश्क की मंजिल है और
वह आकाश से आगे है। सब सीमाओं के पार--असीम से भी पार। सब--निःशब्द से भी पार।
जिन फिजाओं में जरूरत नहीं है बालो पर की
--जहां पंखों की भी जरूरत नहीं रह
जाती उड़ने के लिए।
गाहे-गाहे हुई परवाज वहां मेरी है
--धीरे-धीरे तुम्हें मैं वहां ले
चलूंगा, जहां पंखों की भी जरूरत उड़ने के लिए नहीं रह जाती,
जहां पंख भी उड़ने में बोझ हो जाते हैं; जहां
पंख भी तोड़ देने होते हैं, छोड़ देने होते हैं, पीछे गिरा देने होते हैं; जहां सब सहारे गिरा देने
होते हैं; जहां तुम बिलकुल बेसहारा हो जाते हो; पंख भी सहारा नहीं बचता।
जिन फिजाओं में जरूरत नहीं है बालो पर की
गाहे-गाहे हुई परवाज वहां मेरी है
मेरी हस्ती है तेरे दम से जहां में कायम
तेरी हस्ती का तकाजा है न जां मेरी है।
भक्त जानता है कि मैं तेरी वजह से हूं, तू ही मेरे
भीतर! मेरे प्राण तू है। मेरी आत्मा तू है। मैं नहीं हूं--तू है।
कहलवाता है जो तू बस वही कह सकता हूं।
और जो तू कहलवा देता है वही कह सकता हूं।
कहने को यूं तो भला मेरी जबां मेरी है।
मीरा के ये वचन मीरा के नहीं हैं--कृष्ण के
ही हैं।
कहलवाता है जो तू बस वही कह सकता हूं
कहने को यूं तो भला मेरी जबां मेरी है।
तैयारी करो--इस यात्रा के लिए। जो जन्मों
में नहीं हुआ,
वह क्षणों में भी हो सकता है। पुकार चाहिए। इस प्रेम की बेल को
आंसुओं से सींचो।
आज इतना ही।
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