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सोमवार, 6 जून 2016

कहे होत अधीर--(प्रवचन--15)

मूरख अबहूं चेत—(प्रवचन—पंद्रहवां)
दिनांक 25 सितम्‍बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना
सारसूत्र :

संत संत सब बड़े हैं, पलटू कोउ न छोट।
आतम दरसी मिहीं है, और चाउर सब मोट।।
पलटू ऐना संत है, सब देखैं तेहि माहिं।
टेढ़ सोझ मुंह आपना, ऐना टेढ़ा नाहिं।।
पलटू यहि संसार में, कोऊ नाहीं हीत।
सोऊ बैरी होत है, जाकौ दीजै प्रीत।।
जो दिन गया सो जान दे, मूरख अबहूं चेत।
कहता पलटूदास है, करिले हरि से हेत।।
पलटू नरत्तन जातु है, सुंदर सुभग सरीर।
सेवा कीजै साध की, भजि लीजै रघुवीर।।
पलटू ऐसी प्रीति करूं, ज्यों मजीठ को रंग।

टूक-टूक कपड़ा उड़ै, रंग न छोड़ै संग।।
आठ पहर जो छकि रहै, मस्त अपाने हाल।
पलटू उनसे सब डरैं, वो साहिब के लाल।।
पलटू सीताराम से, हम तो किए हैं प्रीति।
देखि-देखि सब जरत हैं, कौन जगत की रीति।।
पलटू बाजी लाइहौं, दोऊ बिधि से राम।
जो मैं हारौं राम को, जो जीतों तो राम।।
पलटू लिखा नसीब का, संत देत हैं फेर।
सांच नहीं दिल आपना, तासे लागै देर।।
लगा जिकर का बान है, फिकर भई छैकार।
पुरजे-पुरजे उड़ि गया, पलटू जीति हमार।।
बखतर पहने प्रेम का, घोड़ा है गुरुज्ञान।
पलटू सुरति कमान लै, जीति चले मैदान।।


हरें, मन सागर की लहरें
गहरी तह से उछल-उछल कर ऊंचे महल डुबो दें

आशाओं के महल-दुमहले ज्ञान-मान की चट्टानें
बहता पानी मस्त चाल में क्या उनको पहचाने
अपनी काया रूप बदल कर पिघल-पिघल कर रो दें

लहरें, मन-सागर की लहरें
गहरी तह से उछल-उछल कर ऊंचे महल डुबो दें

जगत भया सब पानी-पानी धरती जल-थल सारी
एक ही बहते नशे की धारा, एक ही धुन मतवारी
बढ़ते-बढ़ते भूमंडल को अपने बीच समो दें

लहरें, मन-सागर की लहरें
गहरी तह से उछल-उछल कर ऊंचे महल डुबो दें

चैतन्य का एक सागर हो तुम! तुम्हारी चेतना की एक छोटी सी लहर इस सारे संसार को डुबा सकती है। ऊपर से देखो तो बूंद हो; भीतर से पहचानो तो सागर हो। ऊपर से देखो तो बहुत छोटे; भीतर से देखो तो तुम्हारा कोई न आदि है न अंत। ऊपर से देखो तो क्षणभंगुर; और भीतर से देखो तो सनातन, शाश्वत। ऊपर से देखो तो नाम है, धाम है, पता-ठिकाना है, विशेषण है, जाति है, धर्म है, देश है; भीतर से देखो तो अनिर्वचनीय हो तुम, ब्रह्म-स्वरूप हो तुम! तुम्हारे चैतन्य में उठी छोटी सी लहर सारे अस्तित्व को भिगो दे सकती है।
जिसने अपनी चेतना के इस सागर को पहचाना, वही संत है। जिसने सत्य को जाना, वही संत है। जाना ही नहीं, जो इस सत्य के साथ अपने को एकरूप पहचाना, वह संत है। जानने में तो थोड़ा भेद रह जाता है--जानने वाले का और जाना जाने वाले का; ज्ञान का और ज्ञेय का। लेकिन उतना भेद भी नहीं है सत्य में और संत में। सत्य में जो डूब गया है, सत्य में जिसने अपना अंत पा लिया है, या सत्य में जिसने अपने को डुबा दिया है, और सत्य में जिसने अपना अंत कर दिया है--वही संत है।
संत से कोई आचरण, चरित्र, नीति इत्यादि का लेना-देना नहीं है। ऐसा नहीं है कि संत के जीवन की कोई नीति नहीं होती। ऐसा नहीं कि उसके जीवन का कोई अनुशासन नहीं होता। उसके जीवन का एक अनुशासन है, लेकिन वह अनुशासन बाहर से आरोपित नहीं है, स्व-स्फूर्त है। उसके जीवन का भी एक तंत्र है, लेकिन तंत्र किसी और के द्वारा संचालित नहीं है, वह अपना मालिक है। उसकी मर्यादा है, लेकिन मर्यादा उसके बोध से निर्मित होती है, किन्हीं धारणाओं से नहीं।
संत वह है, जो मन से, तन से अपने को पृथक जानने में समर्थ हो गया है। ऐसे संत जब भी पृथ्वी पर हुए हैं, एक बाढ़ आई प्रकाश की उनके साथ; आनंद की बरखा आई उनके साथ; प्रेम के फूल खिले उनके साथ; पृथ्वी उनके साथ युवा हुई। उनकी मौजूदगी में पृथ्वी ने जाना कि वह भी दुल्हन है। जब कोई बुद्ध मौजूद नहीं होता, पृथ्वी विधवा होती है। जब कोई बुद्ध मौजूद होता है, पृथ्वी सधवा होती है। बुद्ध की मौजूदगी पृथ्वी की मांग भर देती है; उसके पैरों में घूंघर पहना देती है; उसके हाथों में चूड़ियों की खनकार आ जाती है। बुद्ध की मौजूदगी में सृष्टि नाचती है--आनंद से, उत्सव से।
आज के सूत्र बड़े मीठे हैं।
संत संत सब बड़े हैं, पलटू कोउ न छोट।
ध्यान रखना, संत तो वही है जिसने अपने भीतर के सागर को पहचाना; जो बूंद से मुक्त हुआ और सागर हुआ। संत तो विराट के साथ एक होकर ही संत हुआ है। और विराट कहीं छोटा हो सकता है? विराट तो असीम है, अनंत है! और जिसने भी विराट के साथ अपना तादात्म्य पहचान लिया है, वह तो बचा ही नहीं है।
जब तक तुम हो, तब तक छोटे रहोगे; तुम बड़े नहीं हो सकते। अहंकार लाख उपाय करे तो भी छोटा ही रहता है। अहंकार के केंद्र में ही हीनता है, हीनता की ग्रंथि है, मनोविज्ञान कहता है। हीनता की ग्रंथि के कारण ही हम अहंकार की यात्रा पर निकलते हैं; लगता है हमें कि हम छोटे हैं, सो बड़े होने की चेष्टा करते हैं। धन हो बहुत तो बड़े दिखाई पड़ेंगे। ज्ञान हो बहुत तो बड़े दिखाई पड़ेंगे। पद हो बड़ा तो बड़े दिखाई पड़ेंगे।
लेकिन राष्ट्रपति के पद पर बैठ कर जब तुम बड़े दिखाई पड़ते हो, तुम बड़े नहीं दिखाई पड़ रहे हो; वह राष्ट्रपति का पद है, उतरते ही तुम वही के वही हो जाओगे। धन के कारण अगर बड़े हो, कल दिवाला निकल जाए, सरकार बदल जाए, सिक्के बदल जाएं--गया तुम्हारा बड़प्पन! तुम्हारा बड़प्पन कागजी था। जरा सी वर्षा हो जाएगी और तुम्हारे रंग उड़ जाएंगे। उधार था तुम्हारा बड़प्पन। तुमने अहंकार के ऊपर आभूषण बांध लिए थे, सुंदर परिधान पहन रखे थे; मगर सब झूठे थे; दूसरों के हाथों में उनकी बागडोर थी।
अहंकार के कारण जो बड़ा है उसे दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। और वह भी बड़प्पन क्या कोई बड़प्पन है जो दूसरों पर निर्भर रहता हो! सिर्फ संत ही बड़े हैं, क्योंकि उनका बड़प्पन किसी पर निर्भर नहीं--न धन पर, न पद पर, न प्रतिष्ठा पर, न लोगों पर। उनका बड़प्पन अपने भीतर की अनुभूति में है। उनका बड़प्पन अहंकार का आभूषण नहीं है, अहंकार का विसर्जन है।
संतों का बड़प्पन छीना नहीं जा सकता। उनकी गर्दन तुम काट सकते हो, मगर उनके बड़प्पन को न छू सकोगे। उनके बड़प्पन पर तुम जरा सा भी दाग नहीं फेंक सकते, जरा सा आघात नहीं कर सकते। उनका बड़प्पन तुम्हारे हाथों से बहुत पार है, बहुत दूर है। जैसे कोई आकाश पर थूके और थूक वापस अपने पर गिर जाए, ऐसे ही संतों पर थूकने वाले लोग अपने ही थूक में दब जाते हैं। आकाश तो अछूता का अछूता रह जाता है। आकाश तो निर्मल का निर्मल!
ठीक कहते हैं पलटू: संत संत सब बड़े हैं, पलटू कोउ न छोट।
और यह भी खयाल रखना कि दो संतों में कोई एक बड़ा और दूसरा छोटा नहीं होता। और दो असंतों में भी कोई एक बड़ा और दूसरा छोटा नहीं होता। दो असंत दोनों छोटे होते हैं और दो संत दोनों ही बड़े होते हैं। सोए हुए आदमी, सब छोटे। जागे हुए आदमी, सब बड़े। और बड़प्पन में कोई मापदंड नहीं है कि बुद्ध बड़े, कि महावीर बड़े, कि कृष्ण बड़े, कि क्राइस्ट बड़े।
तथाकथित धार्मिक लोग बड़ी चिंता करते हैं--कौन बड़ा? उन्हें असली चिंता यह नहीं है कि बुद्ध बड़े कि मोहम्मद बड़े। उन्हें असली चिंता यह है कि मैंने जिसे मान रखा है संत, वह बड़ा होना चाहिए। क्योंकि उसके बड़प्पन में मेरा बड़प्पन है। यह मुसलमान की चिंता है कि मोहम्मद बड़े हैं या बुद्ध। यह बौद्ध की चिंता है कि बुद्ध बड़े हैं या मोहम्मद।
बुद्ध और मोहम्मद, कोई तुलना नहीं की जा सकती--अतुलनीय हैं, अद्वितीय हैं। और दोनों उस सीमा के पार हो गए हैं जिसको हम अहंकार कहते हैं। दोनों ने अपना बूंद-भाव छोड़ दिया। दो बूंदें सागर में गिर जाएं, कौन सी बूंद अब बड़ी है? दोनों सागर हो गई हैं। दो व्यक्ति परमात्मा में लीन हो जाते हैं, कौन अब बड़ा है? दोनों परमात्मा हो गए। दोनों की उदघोषणा एक है: अहं ब्रह्मास्मि! अनलहक!
परमात्मा तो दो नहीं है, एक ही है। हम अनेक हैं। और जब तक हम अनेक हैं, छोटे हैं। जिस दिन हम उस एक के साथ एक हो जाएंगे, उस दिन कैसे छोटे!
पलटू कहते हैं: तुलना ही मत करना संतों में; वे सब समान हैं। संत भर कोई हो, जाग्रत भर कोई हो, प्रबुद्ध भर कोई हो, फिर कोई छोटा नहीं होता।
संत संत सब बड़े हैं, पलटू कोउ न छोट।
आतम दरसी मिहीं है, और चाउर सब मोट।।
जिन्होंने स्वयं को जान लिया, वे अति-सूक्ष्म में प्रवेश कर गए; और उनको छोड़ कर बाकी सब बहुत मोटे हैं, बहुत स्थूल हैं, बहुत पौदगलिक हैं; उनको नापा जा सकता है। अज्ञानी को नापा जा सकता है; ज्ञानी को नापने का कोई उपाय नहीं, कोई तराजू नहीं, कोई मापदंड नहीं।
आकाश को नापने भी चलोगे तो कैसे नापोगे? हमारे पास जो बड़े से बड़ा नाप है, वह है प्रकाश-वर्ष। आकाश उससे भी नहीं नपता। हमारे इंच, फीट, गज, हमारे फर्लांग, मील, कोस तो बहुत छोटे पड़ जाते हैं। प्रकाश-वर्ष से भी आकाश नहीं नपता। अब तक वैज्ञानिक नहीं नाप पाए कि आकाश कितने प्रकाश-वर्ष की लंबाई का है। और प्रकाश-वर्ष को तुम समझ लेना। प्रकाश-वर्ष बड़े से बड़ा मापदंड है। प्रकाश-वर्ष का अर्थ होता है: एक सेकेंड में प्रकाश एक लाख छियासी हजार मील की गति करता है। सूरज से जब किरणें आती हैं तो प्रति सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील की गति से आती हैं। सूरज से हम तक किरणें पहुंचने में कोई साढ़े नौ मिनट लगते हैं--इस गति से चलने पर। प्रकाश-वर्ष का अर्थ होता है: किरण एक लाख छियासी हजार प्रति सेकेंड की गति से एक वर्ष तक चले तो एक प्रकाश-वर्ष। यह बड़े से बड़ा मापदंड है। जो सबसे निकट का तारा है, वह हमसे चार प्रकाश-वर्ष दूर है। और जो सबसे दूर का तारा अभी तक पहचाना जा सका है, वह हमसे अरबों प्रकाश-वर्ष दूर है। आकाश कितना बड़ा है! उस तारे के आगे भी तारे हैं। और उन तारों के आगे भी तारे हैं। और आकाश का कोई अंत नहीं है। आकाश अनंत है।
इस आकाश को जिन्होंने चैतन्य-रूप में देखा है, उन्होंने परमात्मा को पहचाना है। इस विराट में जो एक हो गए, उनको कैसे नापोगे? कैसे तौलोगे? तुम्हारे शब्द छोटे, तुम्हारे तर्क छोटे, तुम्हारे हाथ छोटे। वे तुम्हारे सब हिसाब के बाहर हो गए। वे निर्गुण हो गए, निराकार हो गए।
उनकी निर्गुणता और उनकी निराकारता के कारण पलटू कहते हैं: आतम दरसी मिहीं है...
बहुत सूक्ष्म हो गए। अब कोई उपाय उन्हें मापने का नहीं है।
और चाउर सब मोट।
उनको छोड़ कर शेष सब नापे जा सकते हैं। कितना धन है, नापा जा सकता है। और कितना बड़ा पद है, नापा जा सकता है। और कितनी प्रतिष्ठा है, नापी जा सकती है। सिर्फ एक तत्व है इस जगत में जो नहीं नापा जा सकता, वह है समाधि, वह है ध्यान की पराकाष्ठा।
और संत वही है जो समाधि को उपलब्ध हो गया है; जिसका सब समाधान हो गया, कोई समस्या न बची, कोई प्रश्न न बचा। चित्त ही न बचा तो कौन उठाए समस्याएं और कौन उठाए प्रश्न? पूछने वाला ही न बचा। जो मिट गया, जिसने अपने को डुबा दिया अस्तित्व में, जो एकाकार हो गया, उसे नापने की कोई व्यवस्था नहीं।
इसलिए कभी भूल कर मत पूछना: बुद्ध बड़े कि महावीर? महावीर बड़े कि मोहम्मद? मोहम्मद बड़े कि मूसा? पूछना ही मत। कृष्ण बड़े कि क्राइस्ट? तुम्हारा यह पूछना ही अज्ञान का द्योतक है। वे सब मिट गए हैं एक में ही। वहीं से उपनिषद पैदा होता है--उसी शून्य से, जिस शून्य से कुरान का जन्म होता है। उसी शून्य से बाइबिल उपजती है, जिस शून्य से धम्मपद का आविर्भाव होता है। बुद्ध वहीं खड़े हैं जहां क्राइस्ट। जरथुस्त्र वहीं विराजमान हैं जहां लाओत्सु।
ये नाम भी हमारे काम के लिए हैं, अन्यथा लाओत्सु का अब क्या नाम! बुद्ध की अब क्या पहचान! महावीर का अब क्या पता-ठिकाना! फूल से उड़ गई सुगंध आकाश में, अब कहां उसे खोजोगे? फूल तक तो पकड़ आ सकती है, क्योंकि फूल स्थूल है; लेकिन सुगंध पकड़ में नहीं आ सकती। और संत तो मात्र सुवास हैं।
पलटू ऐना संत है, सब देखैं तेहि माहिं।
टेढ़ सोझ मुंह आपना, ऐना टेढ़ा नाहिं।।
पलटू कहते हैं: संत तो दर्पण है, ऐना है, आईना है।
पलटू ऐना संत है, सब देखैं तेहि माहिं।
जिसकी मर्जी हो अपना चेहरा देख ले। संत का तो अपना कोई चेहरा बचा नहीं। संत तो केवल निर्विकार प्रतिफलन की क्षमता है; जिसकी मर्जी हो अपना चेहरा देख ले। गुरु का कोई चेहरा नहीं होता। गुरु में तुम जो देखते हो वह तुम्हारा ही चेहरा होता है। और जब तक तुम्हें गुरु के चेहरे में कुछ दिखाई पड़ता रहता है तब तक जानना कि तुम्हारा चेहरा अभी शेष है। एक ऐसी भी घड़ी आती है--आती है ऐसी शुभ घड़ी, ऐसा शुभ मुहूर्त--जब तुम्हें गुरु के दर्पण में कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता। उसका अर्थ है कि तुम्हारा चेहरा भी खो गया। अब दो दर्पण आमने-सामने रखे हैं। जब दो दर्पण आमने-सामने होंगे तो क्या दिखाई पड़ेगा? दर्पण में दर्पण झलकेगा, कुछ दिखाई नहीं पड़ेगा। सूफी फकीर बायजीद ने कहा है: पहली दफा मैं काबा गया तो मुझे काबा का पत्थर दिखाई पड़ा। दूसरी दफा काबा गया तो काबा का पत्थर नहीं दिखाई पड़ा, काबा के पत्थर के पीछे छिपा हुआ परमात्मा, मालिक दिखाई पड़ा। और तीसरी बार जब मैं काबा गया तो न पत्थर दिखाई पड़ा, न मालिक दिखाई पड़ा; कोई भी दिखाई नहीं पड़ा--सन्नाटा ही सन्नाटा, शून्य ही शून्य! इसलिए फिर चौथी बार गया ही नहीं, क्योंकि अब जाने की जरूरत क्या थी! जाकर भी जाता कहां!
ये ही तीन सीढ़ियां शिष्य पार करता है। पहले तो पत्थर दिखाई पड़ता है, क्योंकि तुम पत्थर हो। फिर पत्थर के पीछे से मालिक झलकता हुआ दिखाई पड़ता है, क्योंकि तुम ध्यान में उतरे अब, हटे चित्त से ध्यान में पहुंचे। और तीसरी बार जब तुम ध्यान से भी सरक कर समाधि में पहुंच जाते हो तो फिर मालिक भी नहीं दिखाई पड़ता। देखने वाला ही नहीं बचा तो अब दिखाई क्या पड़ेगा! अब दो दर्पण आमने-सामने रखे हैं। और अदभुत है वह घटना जब दो दर्पण आमने-सामने रखे होते हैं।
पलटू ऐना संत है, सब देखैं तेहि माहिं।
टेढ़ सोझ मुंह आपना, ऐना टेढ़ा नाहिं।।
और अगर कभी तुम्हें आईने में अपनी तिरछी जीवन-धारा, अपना ऐढ़ा-टेढ़ा मुंह दिखाई पड़े, तो यह मत सोचना कि आईना टेढ़ा है। अक्सर यही हो जाता है। सोचना, पलटू कहते हैं, कि मेरा मुंह टेढ़ा है।
मैंने सुना है, एक अति कुरूप स्त्री थी। वह आईने में अपना चेहरा नहीं देखती थी। क्योंकि वह कहती थी, सब आईने गलत हैं, कोई आईना ठीक बना ही नहीं। और अगर कभी कोई उसे मजाक में आईना दिखा देता तो वह आईना फोड़ देती थी। क्योंकि वह कहती थी, ये आईने दुष्ट, इन आईनों के कारण मैं कुरूप हो जाती हूं!
इस स्त्री पर तुम्हें हंसी आ सकती है कि यह पागल है, मगर यह तुम सबकी प्रतिनिधि है। सदगुरुओं के पास जाकर भी तुम कुछ देख लेते हो; वह तुम्हारा ही चेहरा है। लेकिन तुम ऐसा नहीं समझते कि तुम अपना चेहरा देख रहे हो, तुम समझते हो तुम्हें आईने में कुछ खोट दिखाई पड़ गई। तुम्हारे चेहरे पर अगर कालिख का चिह्न है तो आईने में भी कालिख का चिह्न दिखाई पड़ता है। और तुम्हारा चेहरा तो तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता, आईना दिखाई पड़ता है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक रात खूब पीकर लौटा। रास्ते में गिरा-पड़ा, एक दूसरे शराबी से झगड़ा हो गया, तो उस शराबी ने उसका मुंह नोंच लिया। घर आया तो उसे मुंह में दर्द हो रहा था, खून भी बह रहा था। उसने सोचा कि सुबह पत्नी देखेगी, झंझट खड़ी होगी कि तुमने फिर ज्यादा पी। पत्नी को पता चलने के पहले अपने घावों को छिपा लेना जरूरी है। तो गया स्नानगृह में, आईने के सामने खड़ा हुआ। मलहम निकाली, मलहम लगाई, आकर बिस्तर पर सो रहा।
सुबह पत्नी जब स्नानगृह में गई तो वह चिल्लाई। उसने कहा कि नसरुद्दीन, तो तुम फिर रात ज्यादा पीकर आए? यह किसने मेरे पूरे आईने पर मलहम लगाई है?
अब पीया हुआ आदमी, बेहोश आदमी; वह लगा तो अपने ही चेहरे पर रहा था, लेकिन दिखाई तो आईना पड़ रहा था, तो उसने आईने में जगह-जगह जहां-जहां दिखाई पड़ा कि चेहरा छिल गया है, वहां-वहां मलहम लगा दी, पूरा आईना मलहम से पोत दिया। लेकिन ऐसी हमारी दशा है: अपना चेहरा दिखाई नहीं पड़ता। और जिसको अपना चेहरा दिखाई पड़ने लगे, वही सत्संग में प्रविष्ट हो सकता है।
एक प्रसिद्ध नेताजी पर अदालत में मुकदमा था कि वे एक व्यक्ति का छाता वापस नहीं लौटा रहे थे। अदालत में मजिस्ट्रेट ने नेताजी से कहा, नेताजी, आप इस गरीब आदमी का छाता वापस क्यों नहीं कर रहे हैं? आखिर बात क्या है? क्या आप अपनी सफाई में कुछ कहना चाहेंगे?
नेताजी बोले, परम आदरणीय! इस व्यक्ति को मैं अच्छी तरह जानता हूं। यह नंबर एक का कंजूस है। इससे तो मैं छाता मांगने का विचार भी नहीं कर सकता। और यदि मैंने कभी धोखे में या भूल में इससे मांगा भी हो तो यह इतना मक्कार है कि यह मुझे छाता कभी दे नहीं सकता। और यदि इसने अपना समझ कर मुझे छाता दे भी दिया हो तो मैंने इसका छाता कभी का वापस कर दिया होगा। और यदि महानुभाव, मैंने इसका छाता वापस न किया हो तो मैं अब इसका छाता वापस करूंगा भी नहीं, क्योंकि वर्षा फिर शुरू हो गई है और मुझे फिर छाते की जरूरत पड़ सकती है।
कोई अपनी भूल तो किसी भांति भी देखने को राजी नहीं है। दूसरे की तो हम हजार भूलें देख लेते हैं! तिल का ताड़ बना लेते हैं। और अपनी आंखों में अगर पर्वत भी पड़ा हो तो हमें ऐसा भी नहीं लगता कि कंकड़ी भी पड़ी है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गया था। इंटरव्यू लेने वाले अधिकारी ने उससे कहा कि नसरुद्दीन, बताओ तो जरा कि रेडियो का आविष्कार किसने किया था?
नसरुद्दीन ने बहुत सोचा, बहुत सोचा, बहुत सिर मारा और फिर कहा, पता नहीं महानुभाव।
अधिकारी ने कहा, अच्छा चलो यही बताओ कि पेनिसिलीन का आविष्कारक कौन है?
मुल्ला नसरुद्दीन सिर झुका कर खड़ा हो गया सो खड़ा ही रहा। मिनट पर मिनट बीतने लगे। आधा घंटा जब बीत गया तो उस अधिकारी ने कहा कि कुछ बोलोगे या नहीं? चलो छोड़ो इसे, मैं दूसरे प्रश्न पूछता हूं। उसने और दो-चार प्रश्न पूछे, लेकिन हर प्रश्न के उत्तर में या तो उसने कहा कि मुझे पता नहीं और या वह सिर झुका कर खड़ा हो जाए तो सिर ऊपर ही न उठाए। आखिर अधिकारी क्रोध में आ गया। उसने कहा, अरे नसरुद्दीन के बच्चे, मैं जब भी तुझसे कुछ पूछता हूं तो या तो तू कहता है कि मालूम नहीं या फिर चुपचाप खड़ा हो जाता है तो बोलता ही नहीं! तेरे दिमाग में बिलकुल गोबर भरा है।
अब नसरुद्दीन बोला। बड़ी शांत, गंभीर, प्रभावशाली वाणी में उसने कहा, महानुभाव, यदि मेरे दिमाग में गोबर भरा है तो आप उसे चाट क्यों रहे हैं?
मनुष्य की ऐसी वृत्ति है। सभी मनुष्यों की ऐसी वृत्ति है। हम तत्क्षण दूसरे पर टूट पड़ने को तैयार हैं। और यह वृत्ति हमारी इतनी प्राचीन है और इतनी गहरी बैठ गई है कि जब तुम संतों के पास आते हो तो भी इस वृत्ति को छोड़ नहीं पाते। उनमें भी तुम्हें कुछ भूल-चूक दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है। तुम्हें कांटों को गिनने की आदत हो गई है, गुलाब तुम्हें दिखाई ही नहीं पड़ते। तुम्हें रातें गिनने की आदत हो गई है, तुम्हें दिन दिखाई नहीं पड़ते।
टेढ़ सोझ मुंह आपना, ऐना टेढ़ा नाहिं।
पलटू कहते हैं: ध्यान रखना, भूलना मत, नहीं तो संत मिलेंगे और तुम चूकते चले जाओगे। अपना मुंह टेढ़ा है, आईना टेढ़ा नहीं है। एक बार ऐसा निर्णायक रूप से तुम्हारे सामने स्पष्ट हो जाए, यह तुम्हारी भूमिका बन जाए, तो तुम्हारे जीवन में क्रांति बहुत दूर नहीं है।
रूखी, तपी, जलती हुई दोपहर के बाद
यह धूल भरी आंधी!
सब कुछ पर रेत जमी, मन तक ज्यों किसकिसा रहा है!

बेरंगे, गरम दिन--छटपटाती रातें
पूछता हूं रह-रह कर, किससे, क्या जानूं:
"ओ रे! बता मुझको:
यह सब है किसलिए? क्या है इसका निदान?
कब होगा अंत इस जड़ता का, द्विधा का?
कब तक यों और तपूं--
कब तक?
कब आएगी वह वर्षा की एक बूंद, स्नेह की एक कनी
अगली हरियाली की प्रतीक बनी?'

उत्तर में किंतु बस सिर पर यह आसमान--
मटमैला, रेतीला,
और यह दरवाजे फटफटाती आंधी!

रूखी, तपी, जलती हुई दोपहर के बाद
यह धूल भरी आंधी!
सब कुछ पर रेत जमी, मन तक ज्यों किसकिसा रहा है!

न तो आकाश मटमैला है, न आकाश रेतीला है। मटमैलापन है तो तुममें। और रेत भरी है तो तुममें। और जब तक तुम दोष दूसरों में देखते रहोगे तब तक कैसे अपने को रूपांतरित करोगे?
स्वयं में दोष देखना साधक का पहला लक्षण है। इसका यह अर्थ नहीं है कि दूसरों में दोष नहीं होते। होते होंगे। उनसे तुम्हें क्या प्रयोजन है? उनके दोषों के लिए तुम्हारा कोई दायित्व नहीं है। और यह दूसरों में दोष देखने की आदत का सबसे खतरनाक परिणाम है जो वह यह है कि किसी दिन अगर तुम्हें निर्दोष व्यक्ति भी मिल जाए तो तुम उसमें भी दोष देख लोगे। तुमने बुद्धों में दोष देख लिए! तुम्हारी दोष देखने की आदत इतनी सघन हो गई कि जहां नहीं हैं वहां भी तुम आविष्कृत कर लोगे। तुम और तो कुछ आविष्कार करते ही नहीं। तुम्हारी सारी सृजनात्मकता दोषों के निर्माण में बनती है और लगती है। औरों में दोष देखे तो चलेगा, लेकिन जब तुम संतों में दोष देखने लगते हो तब तुम अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार रहे हो।
ठीक कहते हैं पलटू:
पलटू ऐना संत है, सब देखैं तेहि माहिं।
टेढ़ सोझ मुंह आपना, ऐना टेढ़ा नाहिं।।
पलटू यहि संसार में, कोऊ नाहीं हीत।
सोऊ बैरी होत है, जाकौ दीजै प्रीत।।
इस संसार में संतों के अतिरिक्त तुम्हारा कोई कल्याण नहीं कर सकता है। इस संसार में संतों के अतिरिक्त तुम्हारा कोई हितेच्छु नहीं है। तुम्हारा कोई सच्चा मित्र नहीं है। हो ही नहीं सकता। सोए हुए लोग क्या तुम्हें मैत्री देंगे? कैसे तुम्हारा मंगल करेंगे? नींद में खोए हुए लोग, मूर्च्छित--वासनाओं में, एषणाओं में--क्या तुम्हें सहारा देंगे? खुद अपने स्वार्थों से भरे हैं जो और अभी अपने स्वार्थों की दौड़ में लगे हैं, वे तुम्हारे किस काम आ सकते हैं? हां, वे तुम्हें आश्वासन देंगे कि हम काम आएंगे, क्योंकि इसी तरह तुम्हारा शोषण किया जा सकता है।
पलटू यहि संसार में, कोऊ नाहीं हीत।
यहां तुम्हारा हित करने वाला कोई भी नहीं है, तुम्हारा कल्याण चाहने वाला कोई भी नहीं है। सबको अपनी पड़ी है। और अगर कभी कोई तुम्हारे कल्याण की बात भी करता है तो सावधान रहना, वह तुम्हारा उपयोग करना चाहता होगा, तुम्हारा साधन की तरह उपयोग करना चाहता होगा।
जर्मनी के बड़े प्रसिद्ध विचारक इमैनुअल कांट ने नीति की आधारशिलाओं पर जो चर्चाएं की हैं, उनमें सबसे महत्वपूर्ण बात उसने कही वह यह कि नीति का मूलभूत सिद्धांत है: दूसरे का साधन की तरह उपयोग न करना।
मगर यहां तो हम सभी एक-दूसरे का साधन की तरह उपयोग कर रहे हैं। पत्नी पति का उपयोग कर रही है, पति पत्नी का उपयोग कर रहा है। मां-बाप बच्चों का उपयोग कर रहे हैं या उपयोग की आशा कर रहे हैं। बच्चे मां-बाप का उपयोग कर रहे हैं। और इसलिए कलह ही कलह है। हर आदमी का हाथ दूसरे की जेब में पड़ा है। हर आदमी एक-दूसरे की जेब काट रहा है।
बर्नार्ड शॉ से किसी ने एक बार पूछा...सुबह-सुबह थी, सर्द सुबह और बर्नार्ड शॉ बगीचे में घूमने गया है, दोनों हाथ अपने पैंट की जेबों में डाले हुए। किसी ने पूछा बर्नार्ड शॉ से कि क्या कोई आदमी जिंदगी पैंट के खीसों में हाथ डाले-डाले गुजार सकता है?
बर्नार्ड शॉ ने कहा, हां, गुजार सकता है; सिर्फ एक बात का खयाल होना चाहिए--हाथ अपने और जेब दूसरे की। बस इतना खयाल रहे, फिर कोई अड़चन नहीं है।
सबके हाथ दूसरों की जेब में हैं! यहां सब एक-दूसरे का शोषण कर रहे हैं। यहां प्रेम के नाम पर भी शोषण चल रहा है, तो और किसी चीज के नाम पर तो शोषण चलेगा ही।
सोऊ बैरी होत है, जाकौ दीजै प्रीत।
यहां ऐसी उलटी हालत है कि जिसको तुम प्रेम करोगे वही तुम्हारा शोषण करेगा।
मुल्ला नसरुद्दीन ने गांव के सबसे सीधे-सादे आदमी को लूट लिया। जो था उसके घर में सब ले गया। बहुत मित्रता जताई। एक दिन उसके घर मेहमान हुआ और रात सब बांध कर नदारद हो गया। बाद में पकड़ा गया। मजिस्ट्रेट ने कहा कि नसरुद्दीन, पूरा गांव जानता है कि यह आदमी साधु है। इतना सीधा-सादा आदमी! इसे धोखा देते तुम्हें शर्म नहीं आई?
नसरुद्दीन ने कहा, इसके अलावा और किसको धोखा दूं? और तो इस गांव में सब मुझसे बड़े बेईमान हैं। यही एक बेचारा है जिसको मैं धोखा दे सकता हूं, बाकी सब तो मुझे ही धोखा दे रहे हैं। आप कहते हैं इसको भी धोखा न दो। तो मैं किसको धोखा दूं? तो मैं खाली हाथ आया, खाली हाथ जाऊं?
जिससे तुम प्रीति करोगे, प्रीति का अर्थ होता है: तुम उसके लिए अपने द्वार-दरवाजे खोल दोगे। प्रीति का अर्थ होता है: तुम उसके लिए उपलब्ध हो जाओगे। प्रीति का अर्थ होता है: तुम, उसकी मांग कोई होगी, तो पूरा करने को आनंद से तत्पर हो जाओगे। और बस शोषण शुरू हुआ। वही तुम्हारा दुश्मन हो गया। दुश्मन का अर्थ है: उसने तुम्हारा साधन की तरह प्रयोग करना शुरू कर दिया।
सोऊ बैरी होत है, जाकौ दीजै प्रीत।
इस मूर्च्छित संसार में इससे अन्यथा की आशा भी नहीं हो सकती।
मुल्ला नसरुद्दीन, चंदूलाल और ढब्बूजी तीनों एक दिन जम कर पी गए। नशे में ढब्बूजी ने चंदूलाल से कहा, यार, आज तो इच्छा हो रही है कि ताजमहल ही खरीद डालूं।
चंदूलाल बोले, वाह भाई वाह! ऐसे कैसे खरीद लोगे? अरे जब मैं बेचूंगा तभी खरीदोगे न! फिलहाल उसे बेचने का मेरा कोई इरादा नहीं है।
तभी नसरुद्दीन बीच में ही उसकी बात काटते हुए बोला, अबे चंदूलाल के बच्चे, तेरा बेचने का इरादा भी होगा तो कैसे बेचेगा? अरे जब मैं खाली करूंगा तभी तो बेचेगा न! तू क्या सोचता है मैं उसे आसानी से खाली करने वाला हूं?
अगर लोगों का जीवन-व्यवहार देखो...किसी दिन जाग सकोगे और लोगों का जीवन-व्यवहार देखोगे तो बड़े चकित होओगे: लोग ऐसे ही मूर्च्छा में चल रहे हैं, ऐसे ही बेहोशी में चल रहे हैं; कुछ कह रहे हैं, कुछ कर रहे हैं। क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं--साफ नहीं है। जो कहा है, वह किसलिए कहा है, स्पष्ट नहीं है। इसलिए क्षणभंगुर उनके वक्तव्य हैं। अभी कुछ कहते हैं, क्षण भर बाद कुछ और कहने लगते हैं। उनके वचनों का कोई भरोसा नहीं किया जा सकता है। उनके प्रेम का क्या भरोसा करोगे? उनके पास अभी आत्मा ही नहीं है, सच पूछो तो। मन की बस तरंगें ही तरंगें हैं, ऊहापोह है। अभी कोई थिर आत्मा नहीं है, अभी कोई चेतना नहीं है।
चेतना तो केवल तभी उपलब्ध होती है जब तुम ध्यान से मन को शांत करते-करते उस घड़ी पर आ जाओ जहां निस्तरंग हो सको; फिर यही जीवन तुम्हें और ढंग का दिखाई पड़ेगा।
जो दिन गया सो जान दे, मूरख अबहूं चेत।
कहता पलटूदास है, करिले हरि से हेत।।
इस जगत में बहुत हेत बनाए तुमने, बहुत दोस्तियां बनाईं, बहुत मित्र बनाए, कौन काम आए? इस जगत के सब नाते-रिश्ते बस बातचीत के नाते-रिश्ते हैं, सब शब्दों के जाल हैं। यहां की प्रीति झूठी, यहां की मैत्री झूठी।
जो दिन गया सो जान दे...
लेकिन पलटू कहते हैं: अब पीछे दिनों के लिए रोते हुए मत बैठना--कि कितना गंवा दिया! कितनी जिंदगी बेकार चली गई!
जो दिन गया सो जान दे, मूरख अबहूं चेत।
अभी भी चेत जाओ। सुबह का भूला सांझ भी घर आ जाए तो भूला नहीं कहाता। और अभी सांझ नहीं आई है, अब भी चेत जाओ।
कहता पलटूदास है, करिले हरि से हेत।
और चेतने का एक ही अर्थ होता है: सबसे दोस्ती करके देख ली, अब परमात्मा से दोस्ती करके देख लो। सबसे प्रीति लगाई और असफलता पाई। प्रेम में बड़ी आशाएं संजोईं और निराशाएं हाथ लगीं; चाही थी सफलता, असफलता मिली। अब एक प्रयोग और कर लो--प्रभु के प्रेम का प्रयोग और कर लो। क्योंकि जिन्होंने उस प्रयोग को किया है वे कभी नहीं हारे--हार कर भी नहीं हारे! हार कर भी जीते, जीत कर भी जीते! उस प्रेम में हार होती ही नहीं, क्योंकि उस प्रेम में हार भी जीत बन जाती है।
मुल्ला नसरुद्दीन का मित्र उससे कह रहा था, बाप रे बाप! तुम्हारी पत्नी जैसी झगड़ालू स्त्री के साथ रहने से तो पागलखाने में रहना अच्छा है।
मुल्ला नसरुद्दीन बड़े दुखी स्वर में बोला, काश मेरे लिए यह संभव होता।
मित्र ने कहा, क्यों? दिक्कत क्या है?
नसरुद्दीन ने कहा, मेरी पहली दोनों पत्नियां पहले से वहां जो हैं।
इस जगत के तुम्हारे संबंध सब विक्षिप्तता में परिणत हो जाते हैं। अकेले भी नहीं रह सकते, क्योंकि अकेले रहने के लिए ध्यान चाहिए। और साथ भी नहीं रह सकते, क्योंकि साथ रहने के लिए भी ध्यान चाहिए। जो अपने ही साथ नहीं रह सकता वह दूसरे के साथ क्या खाक रह सकेगा! जो अपने अकेलेपन में आनंदित नहीं है, वह किसी के साथ रह कर कैसे आनंदित होगा? दो दुखी लोग साथ हो जाते हैं, दुख कई गुना हो जाता है। दो अंधेरे इकट्ठे हो जाएंगे तो अंधेरा और सघन हो जाता है। दो अमावसों के मिलने से पूर्णिमा नहीं होती। दो भूलों के मिलने से सत्य पैदा नहीं होता। तुम अकेले दुखी हो। जिससे तुमने मैत्री बनाई है, प्रीति बनाई है, वह अकेले में दुखी है। फिर तुम दोनों मिल गए, अब तुम अपने दुख एक-दूसरे पर फेंकने लगते हो; दुगना ही नहीं होता दुख, अनंत गुना हो जाता है, गुणनफल हो जाता है।
पलटू नरत्तन जातु है, सुंदर सुभग सरीर।
सेवा कीजै साध की, भजि लीजै रघुवीर।।
और अगर परमात्मा से प्रेम करना हो तो कैसे करोगे? कहां परमात्मा को खोजोगे? कहीं दिखाई तो पड़ता नहीं। काबा खाली, कैलाश खाली, काशी खाली; मंदिर खाली, मस्जिद खाली, गिरजा-गुरुद्वारा खाली। कहां उसे खोजोगे? उसे तो किसी साधु में ही खोजा जा सकता है। किसी साधु में ही उसका प्रतिबिंब पकड़ा जा सकता है। क्योंकि साधु दर्पण है; उसमें तुम अपना चेहरा भी देख सकते हो और परमात्मा का चेहरा भी देख सकते हो। और यह प्यारा नरत्तन, यह सुंदर देह, यह सुंदर जीवन यूं ही न चला जाए।
पलटू नरत्तन जातु है...
यह जा रहा है। यह गया, यह गया। इसे जाने में देर न लगेगी। यह तो पानी की धार है, यह बहता जा रहा है। तुम किसी और भरोसे बैठे मत रहना। यह प्रतिपल क्षीण हो रहा है। जिस दिन से पैदा हुए हो उसी दिन से मर रहे हो।
पलटू नरत्तन जातु है, सुंदर सुभग सरीर।
ऐसा प्यारा मंदिर पाकर, ऐसी प्यारी देह पाकर, तुम कंकड़-पत्थर ही बीनते रहोगे? फिर हीरे-जवाहरात कब खोजोगे? तुम ठीकरे ही इकट्ठे करते रहोगे? स्वयं को कब जानोगे? तुम संसार की दौड़ में ही लगे रहोगे? परमात्मा से पहचान नहीं करनी है?
सच्चे सदगुरुओं ने कभी शरीर की निंदा नहीं की है; नहीं कर सकते हैं वे। यह परमात्मा की बड़ी से बड़ी भेंट है तुम्हें। और यह देह--मनुष्य की देह--तो परम भेंट है! इस देह में सब कुछ है। इस देह में वे सारे द्वार हैं जिनसे तुम परमात्मा तक पहुंच जाओ। इस देह में वह ऊर्जा है जो तुम्हें पंख लगा दे, आकाश में उड़ा दे। इस देह में बड़े तिलिस्म छिपे हैं। इस देह का बड़ा जादू है। ऐसी देह किसी और पशु-पक्षी के पास नहीं है।
मनुष्य होकर और परमात्मा को न पाना ऐसा ही है, जैसा मैंने सुना है कि एक बार एक हवाई जहाज को मजबूरी में घने जंगल में उतरना पड़ा, उसका पेट्रोल खतम हो गया था। हवाई जहाज का पायलट और उसके सहयोगी जंगल में खोजने निकले कि कोई रास्ता मिले, कहीं से पेट्रोल...! कहां जंगल में पेट्रोल! बहुत खोजते-खोजते बामुश्किल उन्हें राह मिली शहर तक जाने की। वे शहर तो पहुंच गए, लेकिन लौट कर कभी उस हवाई जहाज को लेने आए नहीं। लाना ज्यादा झंझट का काम था। वह हवाई जहाज पड़ गया आदिवासियों के हाथ में। आदिवासी हवाई जहाज को क्या समझें! उन्होंने सब तरफ से जांच-पड़ताल की, उन्होंने कहा कि हो न हो, यह नये ढंग की बैलगाड़ी है। सो उसमें दो बैल जोड़ दिए और बैलगाड़ी की तरह हवाई जहाज को चला कर वे बड़े प्रसन्न थे। उनकी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था।
फिर किसी ने, जो शहर होकर आया था, उसने यह सब देखा। उसने हवाई जहाज तो नहीं देखा था, लेकिन उसने ट्रक और बस इत्यादि देखी थीं। उसने कहा कि अरे पागलो, यह बैलगाड़ी नहीं है, यह बस है। मैं जाऊंगा, शहर से पेट्रोल लाकर तुम्हें बताऊंगा कि यह बस है, इसमें बैल जोड़ने की जरूरत नहीं है। वह शहर गया, पेट्रोल लाया, बैल हटा दिए गए, हवाई जहाज का उपयोग एक बस की तरह होने लगा। और आदिवासी थे, उसमें ढोते भी क्या--कभी घास, कभी लकड़ी!
फिर कभी कोई यात्री शहर से जंगल में आया, कोई शिकारी, उसने यह देखा। उसने कहा, पागलो, यह क्या कर रहे हो! यह हवाई जहाज है। यह आकाश में उड़ सकता है। उसने उन्हें उसे आकाश में उड़ा कर दिखाया।
जैसी यह कहानी है, करीब-करीब ऐसी ही हमारी अवस्था है। जो देह परमात्मा से मिलने का सेतु बन सकती है, उसे हम बैलगाड़ी की तरह उपयोग कर रहे हैं। कोई धन, कोई पद, कोई प्रतिष्ठा--कौड़ियां बटोरने में लगा रहे हैं। जिससे मालिकों का मालिक पाया जा सकता है, उससे हम गुलामों की सेवा कर रहे हैं। भिखारी बने हैं, जब कि सारा साम्राज्य हमारा हो सकता है।
पलटू नरत्तन जातु है, सुंदर सुभग सरीर।
इतना प्यारा, इतना सुंदर, इतना सुभग, इतनी क्षमताओं वाला शरीर पाकर भी तुम ऐसे ही बीत जाओगे, व्यतीत हो जाओगे--खाली के खाली!
सेवा कीजै साध की, भजि लीजै रघुवीर।
पलटू कहते हैं: साधु की सेवा में लग जाओ। किसी सदगुरु को तलाश लो। क्योंकि परमात्मा को पाने का और कोई उपाय नहीं हो सकता। परमात्मा को भज भी सकोगे तुम तभी, जब साधु का रंग तुम पर चढ़ जाए।
सेवा कीजै साध की...
सेवा शब्द समझने जैसा है। इसके अर्थ आधुनिक जगत में बिलकुल बदल गए हैं, इसलिए और भी समझने जैसा है। ईसाइयत ने सेवा का जो अर्थ लिया, उससे पूरब की परंपरा में सेवा का जो अर्थ था वह बिलकुल विकृत हो गया।
ईसाइयत का सेवा से अर्थ है: किसी कोढ़ी के पैर दबाओ, किसी बीमार को दवा पिलाओ। यह अर्थ बुरा नहीं है। किसी बीमार की सेवा करो, किसी दुखी, पीड़ित को सहायता पहुंचाओ। यह अर्थ सुंदर है। मगर यह पूर्वीय अर्थ नहीं है। पूर्वीय अर्थ तो बिलकुल उलटा था। लंगड़े, लूले, अंधे, कोढ़ी की सेवा--ऐसा उसका अर्थ नहीं था। उसका अर्थ था: जिसने परमात्मा को पा लिया हो उसकी सेवा करो। जिसको आंख मिल गई हो भीतर की, उसकी सेवा करो। जिसके पंख खुल गए हों भीतर के, उसकी सेवा करो। जिसके भीतर का दीया जल गया हो उसकी सेवा करो। क्योंकि सेवा में उसके साथ उठोगे, बैठोगे, उसके रस में डूबोगे। सेवा करते-करते उसके दर्पण में तुम्हें अपना चेहरा दिखाई पड़ेगा। सेवा करते-करते किन्हीं घड़ियों में, किन्हीं मौन घड़ियों में उसके दर्पण में तुम्हें परमात्मा की परछाईं दिखाई पड़ेगी। सेवा करते-करते, शायद उसके पैर दाबते-दाबते एक दिन अचानक तुम्हें लगे कि तुम किसी मनुष्य के पैर नहीं दाब रहे, परमात्मा के पैर दाब रहे हो।
यह अभूतपूर्व घटना घटती रही है। सदगुरु की सेवा से बहुत लोगों ने पाया है। और ध्यान रखना, ईसाइयत के अर्थ को मैं गलत नहीं कहता; वह ठीक है, कामचलाऊ है, अच्छा है। सांसारिक है लेकिन वह अर्थ। पूर्वीय सेवा का अर्थ आध्यात्मिक है। पूर्वीय सेवा ध्यान का एक ढंग है; प्रार्थना, उपासना की एक प्रक्रिया है। सेवा तो बहाना है। गुरु को पैर दबवाने की जरूरत है, ऐसा नहीं; शिष्य को दबाने की जरूरत है, ऐसा। बीमार को तो जरूरत है कि उसके कोई पैर दबाए, वह बीमार की जरूरत है। गुरु के पैर दबाए जाएं, यह कोई जरूरत नहीं है उसकी। लेकिन यह शिष्य की जरूरत है कि उन परम-पावन चरणों का स्पर्श हो। तो हम गुरु के चरणों को चरण-कमल कहते रहे हैं। उन कमल जैसे चरणों का स्पर्श हो, उन चरणों की गंध समा जाए। गुरु को जरूरत नहीं है इस बात की, लेकिन शिष्य को जरूरत है। इस भेद को समझ लेना।
शिष्य सेवा कर रहा है--अपने आनंद, अपने ध्यान, अपने प्रेम के आविर्भाव के लिए। गुरु तो उसके लिए मंदिर है। सेवा प्रार्थना है। और गुरु उसके लिए परमात्मा का प्रत्यक्ष रूप है, साकार रूप है--अवतरण है परमात्मा का। परमात्मा से सीधी पहचान मुश्किल, क्योंकि वह अदृश्य है। गुरु परमात्मा का दृश्य-रूप है। जैसे परमात्मा तुम्हारे जगत में, तुम समझ सको इस रूप में प्रकट हुआ है। गुरु तुम्हारी भाषा में परमात्मा का अनुवाद है, रूपांतरण है, भाषांतर है। और एक बार गुरु समझ में आ जाए तो परमात्मा को समझने में कठिनाई न रह जाएगी।
और गुरु के प्रवचन मात्र से तुम न समझ सकोगे। समर्पण चाहिए। गुरु बोले, तुम सुनो, इसका उपयोग है। मगर गुरु की सन्निधि में बैठो, इसका महत उपयोग है। शायद बोलना और सुनना भी उसकी सन्निधि में होने के लिए एक निमित्त-मात्र है। इस बहाने उसके पास बैठते हो। इस बहाने उसकी श्वास तुम्हारी श्वास में सम्मिलित होती है। इस बहाने उसकी गंध से तुम आंदोलित होते हो। इस बहाने उसकी वीणा के कुछ स्वर तुम्हारी हृदयत्तंत्री को छेड़ते हैं। यह सिर्फ एक बहाना है।
सेवा कीजै साध की, भजि लीजै रघुवीर।
बड़ी अदभुत बात कही कि साधु की सेवा कर ली कि रघुवीर का भजन हो गया। दोहराते रहो राम-राम, राम-राम, कुछ भी न होगा। जहां कहीं राम थोड़ा सा प्रकट हो रहा हो, जिसे तुम्हारी आंखें पहचान सकें और तुम्हारे कान समझ सकें और तुम्हारा हृदय जिसके स्पर्श से आंदोलित हो सके, बस वहां झुको।
सेवा कीजै साध की, भजि लीजै रघुवीर।
यही भजन है। सेवा भजन है। लेकिन लोगों ने भजन के सस्ते रास्ते निकाल लिए हैं। माला लेकर बैठ जाते हैं, घड़ी भर को माला फेर ली। जल्दी-जल्दी फेरते हैं, क्योंकि दुकान जाना है, दफ्तर जाना है। राम-राम जपते हैं, जल्दी-जल्दी जपते हैं। सोचते हैं इस तरह जल्दबाजी में राम-राम जप कर और माला फेर कर परमात्मा को धोखा दे लेंगे। लोग औरों को धोखा देते-देते इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि परमात्मा तक को धोखा देने की सोचते हैं।
एक दिन जब रात मुल्ला नसरुद्दीन के मित्र चंदूलाल मुल्ला के घर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि मच्छरदानी तो पलंग पर लगी है और मुल्ला अपने आराम से पलंग के नीचे जमीन पर लेटा हुआ है। वह तो अवाक रह गया। बोला, मुल्ला, यह क्या हो रहा है? तुम नीचे और मच्छरदानी ऊपर पलंग पर! आखिर माजरा क्या है?
मुल्ला नसरुद्दीन ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, चंदूलाल, शायद तुम नहीं समझे। देखो मैंने मच्छरों को धोखा देने का क्या जोरदार तरीका ढूंढा है! मच्छर मच्छरदानी देख कर समझ रहे हैं कि मैं ऊपर सो रहा हूं और मैं यहां मजे में नीचे लेटा हूं। कहो कैसी रही!
आदमियों को धोखा देते-देते तुम मच्छरों को धोखा देने लगोगे! परमात्मा की तो क्या बिसात! तुम्हारे पूजा-पाठ, तुम्हारी उपासनाएं, सब धोखे हैं। सच्ची पूजा तो शिष्य और गुरु के बीच घटती है। जिन्होंने भी कभी पाया है, शिष्य और गुरु के बीच वह अभूतपूर्व घटता है।
गुरु तो शून्य है, जब शिष्य भी शून्य हो जाता है, इन दो शून्यों के बीच पूर्ण का अनुभव होता है। गुरु तो शून्य होकर पूर्ण हुआ। गुरु के पास बैठ-बैठ कर तुम भी शून्य होने का पाठ सीख लोगे। सेवा शून्य होने का पाठ है। सेवा का अर्थ है: झुकना होगा। सेवा का अर्थ है: स्वेच्छा से दास बन जाना। सेवा का अर्थ है: स्वेच्छा से समर्पण कर देना। कह देना कि मैं नहीं हूं, तू ही है! और समग्र भाव से अगर कह पाओ तो उसी क्षण तुम इस लोक से दूसरे लोक में प्रवेश कर जाते हो। उसी क्षण तुम्हें परमात्मा का पहला प्रमाण मिलता है। नहीं तर्क प्रमाण दे सकते हैं, मगर सेवा प्रमाण दे सकती है।
पलटू ऐसी प्रीति करूं, ज्यों मजीठ को रंग।
टूक-टूक कपड़ा उड़ै, रंग न छोड़ै संग।।
पलटू कहते हैं: गुरु मिल जाए, कोई बुद्धपुरुष मिल जाए, तो ऐसी प्रीति करना जैसे मजीठ का रंग होता है, कि जिस कपड़े को रंग दो, कपड़ा चाहे फट जाए मगर रंग नहीं छूटता।
पलटू ऐसी प्रीति करूं, ज्यों मजीठ को रंग।
टूक-टूक कपड़ा उड़ै, रंग न छोड़ै संग।।
चाहे शिष्य जीए चाहे मरे, चाहे खंड-खंड हो जाए, तो भी प्रीति नहीं छोड़ता। गुरु गर्दन काट दे, तो भी प्रीति नहीं छोड़ता। गुरु हजार परीक्षाएं ले, तो भी प्रीति नहीं छोड़ता। गुरु कठोरता से व्यवहार करे, तो भी प्रीति नहीं छोड़ता।
टूक-टूक कपड़ा उड़ै, रंग न छोड़ै संग।
और गुरु को बहुत बार चोट करनी पड़ती है। जैसे मूर्तिकार को छैनी-हथौड़ा लेकर अनगढ़ पत्थर पर चोट करनी पड़ती है, चिनगारियां छूटती हैं, पत्थर के खंड-खंड हो जाते हैं, लेकिन तभी उस पत्थर में कोई मूर्ति प्रकट होती है।
तुम अनगढ़ पत्थर हो। जब गुरु के चरणों में आते हो तो अनगढ़ पत्थर होते हो। गुरु अगर करुणावान है तो चोट करेगा। गुरु अगर गुरु है तो उठाएगा छैनी और हथौड़ा और तोड़ेगा तुम्हें बहुत जगह से। इतनी चोटें तुम तभी सह पाओगे जब तुम पलटू की बात समझ लो।
पलटू ऐसी प्रीति करूं, ज्यों मजीठ को रंग।
टूक-टूक कपड़ा उड़ै, रंग न छोड़ै संग।।
कुछ भी गुरु करे तो भी प्रीति न छूटे। तो जल्दी ही, शीघ्र ही क्रांति घट जाती है। तुम उतनी ही देर लगवा दोगे, जितना तुम अपने को बचाओगे, उतनी ही देर लग जाएगी। देर तुम्हारे कारण होती है, देर गुरु के कारण नहीं होती। गुरु तो चाहता है अभी हो जाए, तत्क्षण। मगर तुम बचते फिरते हो, तुम अपने को बचाते फिरते हो, तुम अपने को छिपाते फिरते हो। तुम गुरु के सामने अपने को पूरी नग्नता में छोड़ते भी नहीं, खोलते भी नहीं। तुम अपनी बीमारियां अपने गुरु के सामने भी नहीं उघाड़ते, उससे भी बचा कर चलते हो। समस्या कुछ होती है, प्रश्न कुछ उठाते हो। उलझन कुछ होती है, बातें तत्वज्ञान की करते हो। वासना सताती है, प्रश्न ब्रह्मचर्य के संबंध में पूछते हो। काम पीड़ित करता है; राम है या नहीं, इसके प्रमाण मांगते हो। ऐसे देर हो जाती है, व्यर्थ देर हो जाती है।
आठ पहर जो छकि रहै, मस्त अपाने हाल।
पलटू उनसे सब डरैं, वो साहिब के लाल।।
जब सदगुरु के पास आओगे तो भय भी लगेगा। क्यों?
आठ पहर जो छकि रहै...
वह चौबीस घंटे मस्त है अपनी मस्ती में। उसने पी ली है कोई शराब, जिसका नशा उतरता ही नहीं। उसके पास आओगे तो डर भी लगेगा। उसके पास आना वैसा ही है जैसे परवाना आता है शमा के पास। घबड़ाहट तो लगेगी, क्योंकि परवाना अपनी मौत के पास आ रहा है। जैसे-जैसे शमा के करीब आएगा वैसे-वैसे खतरा है, जलेगा। मगर परवाने हैं कि आते चले जाते हैं।
और ऐसा मत समझना कि परवाना ही जलता है। परवाने को जलाने में शमा को भी तो जलना ही पड़ता है। शमा जलती है तो ही तो परवाने को जला पाती है। शमा तो परवाने से बहुत पहले से जलती है। जलती हुई शमा ही तो परवाने को निमंत्रण भेजती है। बुझी हुई शमा के पास कभी परवानों को आते देखा?
लेकिन आदमी बेईमान है, वह बुझी हुई शमाओं के पास जाता है। बुद्ध की मूर्ति बना ली, इसकी पूजा करता है। बुद्ध जिंदा हों, घबड़ाता है। क्योंकि जिंदा बुद्ध का अर्थ है: तुम्हें मिटना होगा। तुम बच न सकोगे। यह बाढ़ ऐसी है, यह बुद्धत्व की बाढ़ ऐसी है कि बहा ले जाएगी, तुम्हारा कहीं पता भी नहीं चलेगा!
आठ पहर जो छकि रहै, मस्त अपाने हाल।
जो अपने हाल में मस्त है, जिसको सुध-बुध भी नहीं है संसार की, जिसको सिवाय परमात्मा के और कुछ दिखाई नहीं पड़ता, जो परमात्मा की सुराही से ढालता है और पीता चला जाता है!
पलटू उनसे सब डरैं, वो साहिब के लाल।
उनसे लोग डरते हैं। उनसे डरने के कारण उनकी निंदा करते हैं, आलोचना करते हैं, गालियां देते हैं। ये सच पूछो तो अपने को बचाने के उपाय हैं, सुरक्षा के उपाय हैं। गाली देकर, आलोचना करके, निंदा करके वे अपने को समझा रहे हैं कि वहां कुछ है ही नहीं; जाने योग्य कोई है ही नहीं बात; व्यर्थ क्यों परेशान होना! जाने का मन हुआ है, कहीं किसी मन की गहराई में आवाज सुनाई पड़ी है, पुकार आ गई है। पाती पहुंच गई है, लिफाफा नहीं खोलते हैं। डर लगता है, हस्ताक्षर पहचाने मालूम पड़ते हैं, कि कहीं खोली पाती और पढ़ी और फिर न रोक सके अपने को! तो ऊपर से ही समझा लेते हैं कि क्या रखा है इसमें, कुछ भी नहीं है! हजार तरह के तर्क, शास्त्रों के प्रमाण, परंपराओं की जड़ बातें बीच में खड़ी कर लेते हैं, ताकि सदगुरु दिखाई न पड़े।
बुद्ध जिंदा थे तो लोगों ने कितनी तरकीबें खड़ी कर ली थीं! जैन बुद्ध के पास नहीं गए। क्यों? क्योंकि बुद्ध नग्न नहीं थे और जैन तीर्थंकर को नग्न होना चाहिए। जैन तीर्थंकर तो नग्न होता है और बुद्ध वस्त्र पहनते हैं, तो अभी तीर्थंकर की अवस्था नहीं है। इसलिए क्या जाना!
जैन शास्त्रों में लिखा है कि जिसको समाधि उपलब्ध हो गई, जो कैवल्य को उपलब्ध हो गया, वह त्रिकालज्ञ हो जाता है, वह तीनों काल की बातें जानता है।
बुद्ध त्रिकालज्ञ हैं? तीनों काल की बातें जानते हैं? नहीं जानते, क्योंकि खबरें हैं कि बुद्ध ने किसी गांव के बाहर आकर लोगों से पूछा कि गांव का रास्ता कहां है। जो त्रिकालज्ञ हो, वह गांव का रास्ता पूछे? जिसको तीनों काल प्रत्यक्ष हों, उसको गांव का रास्ता न मिले खुद, पूछना पड़े? त्रिकालज्ञ नहीं हैं। क्या जाना! जिसको अभी तीनों कालों का ज्ञान नहीं है, वह अभी सदगुरु नहीं है।
हिंदू बुद्ध के पास नहीं गए, क्योंकि बुद्ध ने युवकों को संन्यास दे दिया। और शास्त्र कहते हैं: संन्यास अंतिम अवस्था है, चौथा आश्रम, पचहत्तर वर्ष के बाद। तो हमारे ज्ञानी क्या मूढ़ थे जिन्होंने यह लिखा?
मूढ़ तो नहीं थे, होशियार रहे होंगे। क्योंकि पचहत्तर साल, पहले तो जिंदा ही रहना पचहत्तर साल मुश्किल है। और सारी वैज्ञानिक खोजों से पता चलता है कि जब मनु ने यह लिखा कि पचहत्तर साल के बाद आदमी को संन्यास लेना चाहिए, उन दिनों आदमी की ज्यादा से ज्यादा उम्र चालीस वर्ष थी। क्योंकि जितनी हड्डियां मिली हैं आज तक, जितने अस्थिपंजर मिले हैं आदमियों के, वे चालीस वर्ष से ऊपर उम्र वाले के नहीं मिले। यह तो चिकित्सा-शास्त्र का चमत्कार है कि लोग खूब जी रहे हैं।
लेकिन उन पुराने दिनों में, पांच हजार साल पहले, चालीस साल भी शायद सौ साल जैसे लगते रहे होंगे। क्योंकि समय तुलनात्मक है, सापेक्ष है। अगर तुम किसी गांव में जाकर रहो देहात में, जहां न सिनेमा है, न होटल है, न रेडियो, न टेलीविजन, कुछ भी नहीं--वहां चालीस साल ऐसा लगेगा जैसे कि चार सौ साल जिंदा रहे। समय काटे नहीं कटता। अभी वर्षा के दिन हैं, जरा किसी देहात में जाकर देखो, लोग क्या कर रहे हैं? आल्हा-ऊदल पढ़ रहे हैं, जिसमें पढ़ने योग्य कुछ भी नहीं! निपट गधा-पच्चीसी है। मगर आल्हा-ऊदल पढ़ रहे हैं। करें क्या? आल्हा-ऊदल बड़े लड़ैया, जिनसे हार गई तलवार! चौपड़ बिछा कर खेल रहे हैं दिन-रात, समय नहीं कटता।
और आज से पांच हजार साल पहले लोगों को न तो गिनती आती थी, न उम्र को गिनने का कोई हिसाब था। आज भी नहीं है। आज भी किसी दूर देहात में जाकर पूछो कि तुम्हारी उम्र कितनी? तो आदमी को पता नहीं। किसी आदिवासी से बस्तर में पूछो कि तुम्हारी उम्र कितनी? उसे उम्र का कोई बोध ही नहीं है। उसने कभी हिसाब ही नहीं रखा। उसको यह भी पता नहीं कि कब जन्म हुआ था। तो पांच हजार साल पहले न तो लोगों को जन्म का ठिकाना था, न उम्र का ठिकाना था। बड़ी से बड़ी गिनती अंगुलियों पर पूरी हो जाती थी--दस। दस यानी बस। फिर अगर ग्यारह से करना है तो फिर से गिनो। या लोग कंकड़ रख कर गिनती करते थे। गिनती नहीं थी। आज भी नहीं है दूर देहातों में। किसी को पता नहीं कि कौन कितनी उम्र का है।
चालीस साल वैज्ञानिक खोज पाए हैं। मनु के समय में चालीस साल से ज्यादा लोग नहीं जीते थे। चालीस साल जब लोग जीते हों और पचहत्तर साल में संन्यास लेना हो, तो हो गया हल! संन्यास लेने के पहले ही मर जाएंगे। इसलिए जब तक जैनों और बौद्धों का आविर्भाव नहीं हुआ, संन्यासियों की कोई बड़ी जमात नहीं थी। और हिंदू जिनको ऋषि-मुनि कहते थे, वे सब गृहस्थ लोग थे। उनके बाल-बच्चे थे, पत्नी थी, घर-द्वार था, धन-संपत्ति थी। संन्यास का आविर्भाव ही जैनों और बौद्धों के साथ हुआ। और जैनों का संन्यास तो ऐसा था, इतना जीवन-विरोधी था कि बहुत कम लोग उसमें उत्सुक हुए। लेकिन बुद्ध ने संन्यास को बड़ी महिमा दी, बड़ी सहजता और स्वाभाविकता दी। इसलिए लाखों लोग सम्मिलित होने को आतुर हुए। हिंदुओं को बहुत चोट पहुंची। उनकी परंपरा के विपरीत है यह बात--युवक और संन्यासी हों! यह आदमी कैसा भगवान?
और मनु ने तो कहा है कि ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, शूद्र, ये चार वर्ण हैं। और बुद्ध कहते हैं: ये कोई वर्ण नहीं हैं। बुद्ध तो कहते हैं: ब्रह्म को जो जान ले वह ब्राह्मण। यह कोई बात हुई! ब्रह्म को जानने से कोई ब्राह्मण! तब तो फिर शूद्र भी ब्राह्मण हो जाएगा। जन्म से ब्राह्मण होता है। और बुद्ध कहते हैं: जन्म से नहीं, अनुभव से। शास्त्रों के विपरीत बोल रहे हैं।
और बुद्ध कहते हैं: न उपनिषद से, न वेद से तुम्हें मिलेगा परमात्मा--ध्यान से मिलेगा! अप्प दीपो भव! अपने दीये खुद बनो!
यह तो पंडित-पुरोहितों को बहुत अखरी बात। हर आदमी अपना दीया खुद बन जाएगा तो हमारी कौन पूछ रह जाएगी? हमारे पास कौन आएगा? हर आदमी अगर ध्यान में लग जाए और वेदों की जरूरत न रह जाए तो वेद के जानने वालों का क्या होगा? वेद-पाठियों का क्या होगा?
बुद्ध का भारी विरोध हुआ। और सबसे ज्यादा भयभीत थे ब्राह्मण, क्योंकि बुद्ध उनसे छीने ले रहे थे उनकी सारी व्यवसाय की व्यवस्था। लेकिन जो पहुंच गए, जो हिम्मतवर थे, वे रूपांतरित हुए। सारिपुत्र, मोग्गलान, मंजुश्री, ये सब ब्राह्मण थे। हिम्मत जिन्होंने जुटा ली, जो पहुंच गए इस दीये के पास परवाने की तरह, वे जल गए, उन्होंने अपने को समाप्त कर दिया। लेकिन अनेक थे जो गए ही नहीं। बुद्ध गांव में आते थे तो लोग वह गांव छोड़ कर दूसरे गांव चले जाते थे कि भूल-चूक से भी उनके शब्द कान में न पड़ जाएं। ब्राह्मण भागते थे।
क्षत्रिय भागते थे। क्योंकि क्षत्रियों को बड़ा खतरा पैदा हो गया था। बुद्ध चूंकि स्वयं क्षत्रिय थे, राजपुत्र थे, इसलिए बहुत से क्षत्रिय संन्यासी हो गए। क्षत्रियों को तो बड़ी घबड़ाहट पैदा हो गई कि हमारा तो धंधा ही तलवार है और यह आदमी अहिंसा की बातें कर रहा है! यह कहता है: वैर से वैर नहीं जीता जाता। वैर से और वैर पैदा होता है। प्रेम से जीता जाता है वैर।
अगर प्रेम की जीत हो, तलवार का क्या होगा? हमारी तलवारें जंग खा जाएंगी। क्षत्रिय तो मारे जाएंगे।
ब्राह्मण विरोध में हैं, क्योंकि वेद पर संदेह उठा दिया बुद्ध ने। क्षत्रिय विरोध में हैं, क्योंकि तलवार व्यर्थ है, अमानवीय है। और वैश्य भी विरोध में थे, क्योंकि बुद्ध कहते हैं: धन, पद, प्रतिष्ठा की दौड़ नासमझी है, अज्ञान है। जो बहुत बड़ा वर्ग बुद्ध से प्रभावित हुआ, वह शूद्रों का था, क्योंकि उनका कोई न्यस्त स्वार्थ नहीं था। इसलिए डाक्टर अंबेदकर का ढाई हजार साल बाद यह प्रयास कि शूद्र फिर बौद्ध हो जाएं, सार्थक है, इसमें अर्थ है। बुद्ध से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले शूद्र थे। उनको कुछ खोना नहीं था--न वेद था उनको खोने को, न तलवार थी उनके पास, न धन था उनके पास। उनके पास तो कुछ भी नहीं था।
अक्सर ऐसा हुआ है कि बुद्धपुरुषों के पास वे लोग आ सके हैं जिनके पास खोने को कुछ भी नहीं है। जिनके पास खोने को कुछ भी है वे तो डरते हैं।
आठ पहर जो छकि रहै, मस्त अपाने हाल।
पलटू उनसे सब डरैं, वो साहिब के लाल।।
समझ लेना यह कसौटी कि जिनसे सब डरते हों, वे साहिब के लाल हैं, उनको परमात्मा मिला है।
पलटू सीताराम से, हम तो किए हैं प्रीति।
देखि-देखि सब जरत हैं, कौन जगत की रीति।।
पलटू कहते हैं: यह कैसा जगत है! कैसी इसकी रीति है! हम तो परमात्मा से प्रेम किए हैं और आनंदित हो रहे हैं, और लोग जल रहे हैं, लोगर् ईष्या से भर रहे हैं। हमने किसी से कुछ छीना नहीं। हां, धन कोई इकट्ठा कर ले,र् ईष्या पैदा हो, समझ में आता है। क्योंकि अगर एक आदमी धन इकट्ठा कर ले तो दूसरा नहीं कर सकेगा; धन की सीमा है। धन में प्रतिस्पर्धा होगी। लेकिन परमात्मा तो असीम है; कितने ही लोग उसे पा लें तो भी कुछ कम नहीं हो जाता। तुम्हें पाने के लिए शेष रहता है।
कैसी जग की यह रीति! पलटू कहते हैं: कैसे पागल लोग हैं इस दुनिया में! हमने तो परमात्मा से प्रेम किया है, तुम भी करो। कोई हमारा प्रेम तुम्हारे प्रेम में बाधा नहीं बनेगा। कुछ ऐसा नहीं कि हमने परमात्मा को पा लिया तो अब तुम कैसे पाओगे! सच तो यह है कि हमने पा लिया तो तुम भी पा सकते हो, यह सिद्ध होता है। हमने पा लिया तो सब पा सकते हैं, यह सिद्ध होता है।
पलटू सीताराम से, हम तो किए हैं प्रीति।
धन से नहीं, पद से नहीं--राम से प्रेम किया है। और अदभुत लोग हैं!
देखि-देखि सब जरत हैं, कौन जगत की रीति।
बड़ी जलन पैदा होती है। इसमें भी जलन पैदा होती है। कारण है। कारण यह नहीं है कि परमात्मा को एक व्यक्ति ने पा लिया तो दूसरों को पाने को कम बचा। कारण यह है कि हमारे रहते और तुमने पा लिया! कि हमारे रहते और तुम परमात्म-ज्ञान को उपलब्ध हो गए! कि हमारे रहते और तुम ज्ञानी हो गए! यह बरदाश्त के बाहर है। हम स्वीकार नहीं कर सकते।
तुम्हारे अहंकार को चोट लगती है।
किसी ने परसों ही पूछा था कि भारत के बुद्धिवादी आपके विरोध में क्यों हैं?
पहली तो बात, भारत में बुद्धिवादी खोजना बहुत मुश्किल। बुद्धिजीवी हैं, बुद्धिवादी नहीं। बुद्धिजीवी और बुद्धिवादी में बड़ा फर्क है। बुद्धिजीवी तो वैसा ही जैसा श्रमजीवी। कोई अपना श्रम बेच कर जीता है, उसको श्रमजीवी कहते हैं। कोई अपनी बुद्धि बेच कर जीता है, उसको बुद्धिजीवी कहते हैं। बुद्धिवादी बुद्धि बेच कर नहीं जीता; अपनी बुद्धि को निखारता है, उज्ज्वल करता है, उस पर धार रखता है। बुद्धिवादी को तो आज नहीं कल ध्यानी होना ही पड़ेगा। अगर उसमें थोड़ी भी बुद्धि है तो वह ध्यानी होने से नहीं बच सकता। बुद्धि उसे ध्यान तक ले ही आएगी। निर्बुद्धि शायद न आ सके, बुद्धिमान को तो आना ही पड़ेगा। देर-अबेर उसे ध्यान के मंदिर के द्वार पर दस्तक देनी ही होगी। भारत में बुद्धिवादी कहां हैं? बुद्धिजीवी हैं। और भारत में ही क्यों, सारी दुनिया में हालत यह है। बुद्धिवादी कहां हैं? बुद्धिवादी हों तो दुनिया में बुद्धों की कतार लग जाए। बुद्धिजीवी हैं, बुद्धि बेच कर जीते हैं। और जो अपनी बुद्धि बेच कर जी रहे हैं, उन बेचारों के पास बचती कहां बुद्धि! उसी को तो बेच कर जीते हैं। उनको मेरी बात समझ में नहीं आ सकती। और फिर बड़ीर् ईष्या पैदा होती है।
मैं विश्वविद्यालय में था अध्यापक। सैकड़ों विश्वविद्यालय के अध्यापकों से मेरा संबंध था। सिर्फ उनमें से एक अध्यापक इन पांच वर्षों में मुझसे मिलने आया है। और उसने भी कहा कि मैं आता था तो सब मेरा विरोध कर रहे थे। मैं बामुश्किल आ पाया हूं।
मैंने कहा, तुम हिम्मतवर आदमी हो। क्योंकि प्रोफेसर्स, विश्वविद्यालय के अध्यापक समझते हैं कि उन्होंने तो जान लिया, जानने को और क्या है! और मैंने इस व्यक्ति को कहा कि तुमको तो मैं और हिम्मतवर कहता हूं। क्योंकि वे संस्कृत के प्रोफेसर हैं, वेद और उपनिषद के ज्ञाता हैं। तुम हिम्मत करके आ सके। तुम्हारे भीतर जरूर बड़ी हिम्मत है।
उन्होंने कहा कि आकर जो मैंने देखा है यहां, अब फिर आना चाहता हूं एक महीने के लिए। मुझे ध्यान में डुबाएं।
उनकी आंखों में आंसू थे। मगर ऐसे लोग तो खोजने कठिन हैं। अहंकार से भरे हुए लोग बहुत हैं, आंसुओं से भरे हुए लोग कहां हैं!
जलन पैदा होती होगी। पलटू तो सीधे-सादे बनिया थे। लोग कहते होंगे: यह पलटू, यह बनिया, और ज्ञानी हो गया! कभी सुना है कि बनिए और बुद्ध हो जाएं! और पलटू तो बार-बार खुद ही कहते हैं कि पलटू बनिया। पलटू उसको छिपाते नहीं हैं। पलटू तो शान से कहते हैं। पलटू ने तो कहा है कि पहले हम धंधा करते थे छोटा-मोटा, अब बड़ा धंधा करते हैं। पहले हम दुकान चलाते थे ठीकरों की, अब हमने परमात्मा की दुकान खोली। पहले भी हम तौलत्तौल कर देते थे, अब बिन तौले दे रहे हैं। जलन पैदा होती है,र् ईष्या पैदा होती है।
कल ही लंदन से छपने वाली एक पत्रिका ने मेरे संबंध में एक लेख लिखा है। जिसने भी लिखा हो, सोच-विचारशील संपादक मालूम होता है, क्योंकि पहली दफा किसी ने वैसी बात लिखी है। उसने लिखा है कि ऐसा मालूम होता है--सारी दुनिया में बढ़ते मेरे संन्यासियों की जमात--भारत के राजनेताओं कोर् ईष्या का कारण बन रही है। तो दिल्ली मुझसे नाराज है। इसलिए मेरे काम में सब तरह के अड़ंगे डाले जा रहे हैं।
आदमी सूझ-बूझ का मालूम पड़ता है, बात उसने जड़ की पकड़ ली। वहीर् ईष्या है, वही अड़चन है, वही कष्ट है। यहां राजनेता आ भी जाते हैं तो भी विशेष व्यवहार चाहते हैं।
चार दिन पहले मध्यप्रदेश के उप-मुख्यमंत्री पूना में थे। उनके सेक्रेटरी ने फोन किया कि मैं मध्यप्रदेश के उप-मुख्यमंत्री का सेक्रेटरी हूं; उनको अभी मिलने का समय चाहिए।
लक्ष्मी ने कहा कि अभी तो मिलना असंभव है, मिलना तो सात बजे ही हो सकता है।
उसने फिर दोहराया कि शायद आप समझी नहीं, मैं मध्यप्रदेश के उप-मुख्यमंत्री का सचिव हूं!
लक्ष्मी ने कहा, मेरी समझ में बिलकुल आपकी बात आ गई। आप मजे से सचिव रहिए, हमें कोई एतराज नहीं है। मगर सात बजे के पहले मिलना नहीं हो सकता।
तो फिर मंत्री महोदय खुद फोन पर आए। उन्होंने कहा कि मैं खुद मंत्री बोल रहा हूं, अभी मिलना है! और मैं बहुत महाराजों और बहुत मुनियों और महात्माओं को मिला हूं, जब चाहता हूं तब समय मुझे मिलता है!
लक्ष्मी ने कहा कि और जगह की बात और होगी। यहां तो जब हम समय देते हैं तब मिलना हो सकता है।
चोट पहुंचती है। इसी वक्त समय चाहिए! विशेष व्यवहार चाहिए! मंत्रियों की खबरें आती हैं कि हम आश्रम आना चाहते हैं, लेकिन हमें पहले आश्रम की तरफ से निमंत्रण मिलना चाहिए। वे खुद ही खबर कर रहे हैं कि हम आश्रम आना चाहते हैं, लेकिन पहले हमें आश्रम की तरफ से निमंत्रण मिलना चाहिए! फिर हम निमंत्रण स्वीकार करेंगे और आएंगे।
तुम्हें आना है, तुम आओ। सबका स्वागत है, तुम्हारा स्वागत है।
र्ा, अहंकार, मद, पद-मद बहुत बुरी तरह से पकड़े हुए हैं लोगों को। उस कारण यह स्वीकार करना कि कोई ज्ञान को उपलब्ध हो गया है, अत्यधिक कठिन होता है।
पलटू बाजी लाइहौं, दोऊ बिधि से राम।
और पलटू कहते हैं: दुनिया जलती हो, जलती रहे! जलने वाले जला करें! मैं तो दोनों विधियों से राम को जीत लिया हूं।
जो मैं हारौं राम को...
अगर मैं हारूं तो राम का हूं। मेरी हार मेरी हार नहीं। अगर राम से हारूं तो भी राम का हूं; राम जीते, यही तो मेरी जीत है। राम मुझ पर जीत जाएं, इससे बड़ा और सौभाग्य क्या!
जो मैं हारौं राम को, जो जीतों तो राम।
और अगर मेरी जीत हो जाए तब तो जीत है ही। अगर मेरी हार हो जाए तो भी मेरी जीत है, क्योंकि हर हालत में राम की जीत है। और मैं अलग नहीं हूं, मैं पृथक नहीं हूं।
पलटू लिखा नसीब का, संत देत हैं फेर।
यह वचन कीमती है। पलटू कहते हैं कि यह मैंने होते देखा है, अपने साथ होते देखा है। मेरे नसीब को बदल दिया! मेरे गुरु ने मेरे भाग्य की रेखाएं बदल दीं!
पलटू लिखा नसीब का, संत देत हैं फेर।
सांच नहीं दिल आपना, तासे लागै देर।।
अगर देर लगती है तो अपना दिल सच्चा नहीं है, इससे देर लग जाती है। अन्यथा तुम्हारे भाग्य को भी बदला जा सकता है। भाग्य कुछ भी नहीं है। भाग्य होता ही मूर्च्छित आदमी का है। जाग्रत आदमी का कोई भाग्य नहीं होता; वह भाग्य से मुक्त हो जाता है। और संत चूंकि जगा देते हैं, इसलिए भाग्य को बदल देते हैं।
लगा जिकर का बान है, फिकर भई छैकार।
पलटू कहते हैं: जब से गुरु ने जिक्र का बाण, परमात्मा की याददाश्त, स्मरण का बाण छेद दिया है...
लगा जिकर का बान है, फिकर भई छैकार।
तब से सब फिक्र-फांटा मिट गया, तब से सब चिंता मिट गई।
पुरजे-पुरजे उड़ि गया, पलटू जीति हमार।
और पलटू कहते हैं: बड़ी अदभुत घटना घटी! पलटू जिसको हम समझते थे, वह तो पुर्जे-पुर्जे उड़ गया; और फिर भी हम जीत गए। ऐसा चमत्कार हुआ कि कुछ न बचा पलटू का और पलटू जीत गया। सब मिट गया पलटू का और पलटू जीत गया। मिट कर जीता। सब खो गया और सब पा लिया।
जीसस ने कहा है: धन्य हैं वे जो सब खोने में समर्थ हैं, क्योंकि सब पा लेने की उनकी पात्रता है।
बखतर पहने प्रेम का, घोड़ा है गुरुज्ञान।
और पलटू कहते हैं: अब बखतर पहने प्रेम का, अब तो प्रेम हमारी सुरक्षा है, प्रीति हमारी सुरक्षा है। घोड़ा है गुरुज्ञान! और गुरु ने जो ज्ञान दिया है, जो बोध दिया है, जो जागरण दिया है, जो झकझोर दिया है हमें और हमारी नींद तोड़ दी है--वही हमारा घोड़ा है।
पलटू सुरति कमान लै...
और परमात्मा की स्मृति, परमात्मा का स्मरण, जिक्र--वह हमारा कमान है, वह हमारा धनुष है।
पलटू सुरति कमान लै, जीति चले मैदान।
और हम तो मैदान जीत चले। हम तो जीत गए। हम तो मिट कर जीत गए। हम तो हार कर जीत गए। तुम भी कुछ ऐसा करो।
पलटू नरत्तन जातु है, सुंदर सुभग सरीर।
सेवा कीजै साध की, भजि लीजै रघुवीर।।
जो दिन गया सो जान दे, मूरख अबहूं चेत।
कहता पलटूदास है, करिले हरि से हेत।।
पलटू कहते हैं: हम तो चले अब मैदान जीत कर, तुमसे कहे जाते हैं--जीत लो! समय बहुत गंवाया, अब और न गंवाओ। मूरख अबहूं चेत!

आज इतना ही।


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