दिनांक 22 सितम्बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना
प्रश्न—सार:
1—महाप्रयाण के
कुछ दिनों पूर्व पूज्य दद्दाजी ने एक रात चर्चा करते हुए बताया कि वही है, और उसके अलावा कुछ और नहीं।
यह पूछने पर कि
संसार को चलाने वाला कौन है? वे बोले, कोई नहीं। सब अपने आप चल रहा है। जो हो रहा है वह हो रहा है। कोई कुछ कर
नहीं रहा है; सब हो रहा है।
कर्म के
सिद्धांत से संबंधित प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा, वह सब बकवास है।
हमने पूछा, फिर हम क्या करें? वे बोले—खाओ, पीओ और आनंद से रहो। बस, इसके सिवाय संसार में कुछ
और नहीं है।
कृपया उनकी इन
उपदेशनाओं पर कुछ कहें।
2—धन और पद के
संबंध में आपके क्या विचार हैं?
3—मैं एक
ज्योतिषी के पास गया था। उसने मेरा हाथ देख कर कहा कि तुम सत्य के खोजी हो और
तुम्हें सदगुरु भी मिल गया है। साधना जारी रखो, एक दिन श्रेय को भी अवश्य उपलब्ध होओगे।
मैं ज्योतिषी या
ज्योतिष पर विश्वास नहीं करता, लेकिन उसकी बातें तो
सभी सत्य थीं। इसका रहस्य क्या है? आप कुछ कहें।
पहला प्रश्न:
भगवान!
महाप्रयाण के कुछ दिनों पूर्व पूज्य दद्दाजी ने एक रात चर्चा करते हुए बताया कि
वही है, और उसके अलावा कुछ और नहीं। यह पूछने पर कि संसार को
चलाने वाला कौन है? वे बोले, कोई नहीं।
सब अपने आप चल रहा है। जो हो रहा है वह हो रहा है। कोई कुछ कर नहीं रहा है;
सब हो रहा है। कर्म के सिद्धांत से संबंधित प्रश्न के उत्तर में
उन्होंने कहा, वह सब बकवास है। हमने पूछा, फिर हम क्या करें? वे बोले—खाओ, पीओ और आनंद से रहो। बस, इसके सिवाय संसार में कुछ
और नहीं है।
भगवान, कृपया उनकी इन उपदेशनाओं पर कुछ कहें।
शैलेंद्र!
ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है। ईश्वर शब्द से व्यक्ति की भ्रांति पैदा होती है।
ईश्वरत्व है, ईश्वर नहीं। भगवत्ता है, भगवान
नहीं। यह सारा जगत दिव्यता से परिपूरित है। इसका कण—कण, रोआं—रोआं
एक अपूर्व ऊर्जा से आपूरित है। लेकिन कोई व्यक्ति नहीं है जो संसार को चला रहा हो।
हमारी ईश्वर की धारणा बहुत बचकानी है।
हम ईश्वर को व्यक्ति की भांति देख पाते हैं। और तभी अड़चनें शुरू हो जाती हैं। जैसे
ही ईश्वर को व्यक्ति माना कि धर्म पूजा—पाठ बन जाता है; ध्यान नहीं, पूजा—पाठ, क्रिया—कांड,
यज्ञ—हवन। और ऐसा होते ही धर्म थोथा हो जाता है। किसकी पूजा?
किसका पाठ? आकाश की तरफ जब तुम हाथ उठाते हो,
आंखें उठाते हो, तो वहां कोई भी नहीं है। तुम्हारी
प्रार्थनाओं का कोई उत्तर नहीं आएगा। इसका यह अर्थ नहीं है कि प्रार्थना व्यर्थ
है। इसका इतना ही अर्थ है कि प्रार्थना के उत्तर की प्रतीक्षा व्यर्थ है।
प्रार्थना अपने आप में आनंद है; साधन नहीं है, साध्य है। अभिव्यक्ति है तुम्हारे भीतर उठे हुए कृतज्ञता के भाव की।
इस विश्व ने तुम्हें इतना दिया है—बिन
मांगे दिया है; तुम्हारी पात्रता भी नहीं है, वह
सब भी दिया है! सौंदर्य को देखने वाली आंखें दी हैं; संगीत
को सुनने वाले कान दिए हैं; प्रेम को अनुभव करने वाला हृदय
दिया है। जीवन के रहस्यों को प्रतीति करने वाली प्रज्ञा दी है। जीवन के आत्यंतिक
केंद्र का साक्षात्कार करने की, समाधि की क्षमता दी है। और
क्या चाहिए? और क्या मांगोगे? तुम जो
मांगोगे बहुत छोटा होगा। काश, तुमने मांगा होता तो बहुत कम
आशा है कि तुमने समाधि की क्षमता मांगी होती। बहुत कम आशा है कि तुमने सौंदर्य की
प्रतीति मांगी होती, कि तुमने संगीत का अनुभव मांगा होता,
कि तुमने काव्य की स्फुरणा मांगी होती। तुमने कुछ दो कौड़ी की चीजें
मांगी होती—धन, पद, प्रतिष्ठा। तुमने
एक बड़ा मकान मांगा होता, बड़ी दुकान मांगी होती, बैंक में बड़ा खाता मांगा होता।
अच्छा ही है अस्तित्व ने तुमसे नहीं
पूछा—क्या चाहिए? अस्तित्व ने तुमसे बिना पूछे तुम्हें दिया है। और
इतना दिया है कि तुम अगर हिसाब लगाने बैठोगे तो हिसाब न लगा पाओगे। अकूत दिया है!
लेकिन कोई व्यक्ति नहीं है जो दे रहा है; समष्टि है। यह सारा
अस्तित्व ऊर्जा का एक अपूर्व अनुभव है।
परमात्मा को अनुभव समझो। किस बात का
अनुभव? इस बात का अनुभव कि सब जुड़ा है। जोड़ का नाम परमात्मा
है। हम भिन्न—भिन्न नहीं हैं। हम सबके भीतर सेतु है; हम एक—दूसरे
से जुड़े हैं। घास की छोटी सी पत्ती महासूर्यों से जुड़ी है। सुबह सूरज न निकले,
पत्ती हरी न रह जाए। सुबह सूरज न निकले, तुम्हारे
आंगन में फूल न खिलें। रात चांदत्तारे न हों, दुनिया बदल
जाए। लाखों प्रकाश—वर्ष दूर जो तारे हैं, वे भी छोटी से छोटी
चीज से संयुक्त हैं, नहीं तो सब बिखर जाए। यह सब बंधा चल रहा
है। यह रास, यह नृत्य किसी सुर में बद्ध है, किसी लय में आबद्ध है; उस लय का नाम परमात्मा है। उस
लय में तुम भी आबद्ध हो जाओ तो तुम्हारी आबद्धता का नाम प्रार्थना है, ध्यान है। तुम उस लय से दूर—दूर चलो, छिटके—छिटके,
अलग—अलग, तो तुम दुख में रहोगे।
मेरे दुख की यही परिभाषा है: यह जो
परम समारोह चल रहा है, यह जो महोत्सव चल रहा है, इससे
जो अलग—थलग है, जो अपनी ढाई चावल की खिचड़ी अलग पका रहा है...
अंग्रेजी में एक शब्द है ईडियट। वह
शब्द बड़ा प्यारा है! साधारणतः तो उसका अर्थ होता है मूढ़; लेकिन जिस मूल शब्द से वह आता है, जिस मूल धातु से
पैदा होता है, उसका अर्थ होता है: जो अपनी खिचड़ी अलग पका रहा
है। ईडियट का मतलब होता है: जो अपने ढंग से जीने की कोशिश कर रहा है—पृथक। जो
अहंकार में जी रहा है वह ईडियट है। जो समस्त के साथ नहीं, समस्त
के विपरीत जी रहा है वह ईडियट है। जो धारा के साथ नहीं बह रहा, धारा के विपरीत जा रहा है, वही मूढ़ भी है। जो धारा
के साथ बहने लगा, वही ज्ञानी है।
और इस धारा में चांदत्तारे हैं। और इस
धारा में समुद्र हैं। और इस धारा में पृथ्वियां हैं। और इस धारा में पशु हैं, पक्षी हैं, मनुष्य हैं। इस धारा में सब कुछ है। इस
धारा में क्या नहीं है! और तुम हो कि अपने को अलग—थलग किए खड़े हो—सिकुड़े, डरे, कि कहीं धारा तुम्हें डुबा न ले! तुम अपने को
बचाना चाहते हो—अस्मिता की तरह, अहंकार की तरह। यही तुम्हारा
दुख है। और जब तुम अपने को अहंकार की तरह बचाओगे तो मृत्यु का भय पकड़ेगा। क्योंकि
अगर अलग हो तो डर पैदा होगा कि मरना पड़ेगा। जिस व्यक्ति ने जाना कि मैं अलग नहीं
हूं, उसकी मृत्यु का भय गया। न जन्म के पहले मैं अलग था,
न जन्म के बाद अलग हूं, न मृत्यु के बाद अलग
होऊंगा। अस्तित्व तो सदा है।
इसलिए उन्होंने ठीक ही कहा कि—"वही
है, और उसके अलावा कुछ और नहीं।'
लेकिन वही से तुम किसी ईश्वर को मत
समझ लेना। वही का अर्थ है—लयबद्धता। वही का अर्थ है—संगीत। इस संगीत में डूबो। इस
संगीत के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। जिस भांति हो सके अपने को हटा लो, बीच में मत खड़े होओ। जिस भांति हो सके अपने को विदा दे दो, अंतिम नमस्कार कर लो। अहंकार तोड़े हुए है, निरअहंकार
जोड़ देगा। जोड़ का नाम योग है। और जहां योग है वहां समाधि है।
समाधि शब्द को समझते हो? समाधान से बना है। आ गया परम समाधान! आधियां—व्याधियां गईं; समाधि आई। समस्याएं गईं, प्रश्न गए; मौन आया, निःशब्द, आनंद आया।
तुम्हारे भीतर एक झरना फूट पड़ा! जैसे कोयल गाती है, ऐसे तुम
गा उठे, तो प्रार्थना सच्ची है। जैसे वृक्षों में फूल खिलते
हैं, ऐसे तुम्हारे प्राणों में फूल खिल जाएं, तो ध्यान सच्चा है।
मगर ये फूल, ये गीत तुम्हारी मौजूदगी के कारण नहीं खिल पा रहे हैं। तुम जितने मौजूद हो,
परमात्मा उतना गैर—मौजूद है। तुम जितने गैर—मौजूद हो जाओगे, परमात्मा उतना मौजूद हो जाएगा।
उन्होंने ठीक कहा कि—"संसार को
चलाने वाला कोई नहीं है।'
संसार चैतन्य है। चलाने वाले की जरूरत
तो तब होती है जब संसार जड़ हो। तो फिर कोई चेतन चाहिए जो संसार को चलाए। फिर
द्वंद्व पैदा होता है, द्वैत पैदा होता है। फिर एक स्रष्टा और सृष्टि। लेकिन
परमात्मा स्रष्टा नहीं है—सृजनात्मकता है।
तुम एक काम करो, तुम्हें बहुत लाभ होगा: सभी संज्ञाओं को क्रियाओं में बदल दो। स्रष्टा
नहीं, सृजनात्मकता। और तुम परमात्मा को समझने में ज्यादा सफल
हो पाओगे। नर्तक नहीं, नृत्य; गायक नहीं,
गीत; वादक नहीं, वादन—तुम
सारी संज्ञाओं को क्रियाओं में बदल दो।
निश्चित ही फिर तुम परमात्मा की
प्रतिमा न बना सकोगे। और जहां प्रतिमा गई वहां मंदिर गए, पूजागृह गए। फिर पूजा एक आंतरिक आयाम लेगी। फिर पूजा किसी प्रतिमा की नहीं,
फिर पूजा एक भाव होगा—धन्यवाद का। फिर पूजा आंख बंद करके होगी। फिर
तुम वृक्षों से तोड़ कर फूल नहीं चढ़ाओगे और न मिट्टी के दीये जलाओगे। जलाओगे तुम
प्राणों का दीया और चढ़ाओगे तुम चेतना के फूल। और यह सब भीतर हो जाएगा। इसके लिए एक
कदम भी बाहर उठाने की जरूरत न पड़ेगी।
ठीक कहा उन्होंने: "कोई नहीं है
बनाने वाला, कोई नहीं है चलाने वाला। सब अपने से चल रहा है।'
जो भी जानते हैं, ऐसा ही कहेंगे। मगर न जानने वाले को बड़ी अड़चन होती है: सब अपने से कैसे चल
रहा है?
हमारे सोचने के ढंग हमें मजबूर करते
हैं कि कोई चलाने वाला होना चाहिए। लेकिन कभी तुम यह भी सोचते हो कि फिर चलाने
वाले को कौन चलाएगा? चलाने वाला तो अपने से चलेगा न! जब अंततः अपने से
चलाने की बात स्वीकार करनी ही है तो उसे धक्के देकर और आगे क्यों ले जाना? व्यर्थ की उलझन क्यों खड़ी करनी?
इसलिए बुद्ध ने और महावीर ने भी यही
कहा: कोई चलाने वाला नहीं है, सब अपने से चल रहा है। इसलिए
लाओत्सु ने भी यही कहा: सब अपने से चल रहा है। बुद्ध ने तो धर्म का अर्थ ही कहा है—नियम,
महानियम—एस धम्मो सनंतनो! यह शाश्वत नियम है, व्यक्ति
नहीं।
जैसे चीजें नीचे की तरफ गिरती हैं। तो
न्यूटन ने खोजा गुरुत्वाकर्षण का नियम। अब ऐसा नहीं है कि जमीन के भीतर छिपा हुआ
कोई आदमी बैठा है, कि जैसे ही फल पके कि उन्हें खींच लेता है; कि तुमने पत्थर ऊपर फेंका कि उसने जल्दी से नीचे खींचा। जमीन में कोई छिपा
नहीं बैठा है। गुरुत्वाकर्षण कोई व्यक्ति नहीं है, गुरुत्वाकर्षण
नियम है।
जैसे गुरुत्वाकर्षण नियम है ऐसे ही
परमात्मा नियम है। धर्म का अर्थ—नियम। धर्म का अर्थ—स्वभाव। चलना इस जगत का स्वभाव
है। होना इस जगत का स्वभाव है।
लेकिन तब तुम पूछोगे: फिर नास्तिक—आस्तिक
में भेद क्या रहा? नास्तिक भी कहता है ईश्वर नहीं, बुद्ध भी कहते हैं ईश्वर नहीं, महावीर भी कहते हैं
ईश्वर नहीं।
इसीलिए तो हिंदू महावीर और बुद्ध पर
बहुत नाराज हुए। उन्होंने उनके पैर नहीं टिकने दिए इस देश में। क्योंकि वे तो
पंडित—पुरोहित के धंधे को जड़ से काटे डाल रहे थे। अगर ईश्वर नहीं है तो मंदिर नहीं
है, तीर्थ नहीं है। अगर ईश्वर नहीं है तो पूजा नहीं है, पाठ
नहीं है। अगर ईश्वर नहीं है तो पुरोहित की क्या जरूरत है? ईश्वर
गया तो सारा धर्म का जाल गया।
लेकिन बुद्ध ने जो कहा था, वह है परम सत्य और विज्ञान से उसका मेल खाता है। इसलिए पश्चिम में बुद्ध
का प्रभाव बढ़ता जाता है। रोज बढ़ता जाता है। कुछ आश्चर्य न होगा कि विज्ञान रोज—रोज
बुद्ध से सहमत होता जाए—हो रहा है। पच्चीस सौ वर्ष पहले की गईं बुद्ध की घोषणाएं
विज्ञान के द्वारा धीरे—धीरे स्वीकृत होती जा रही हैं।
नास्तिक—आस्तिक में भेद क्या है? तुम पूछोगे। हिंदुओं ने तो महावीर को और बुद्ध को नास्तिक ही कह दिया।
गलत है यह बात। बुद्ध और महावीर से
बड़े आस्तिक पृथ्वी पर दूसरे नहीं हुए। एच.जी.वेल्स ने बुद्ध के संबंध में लिखा है—महत्वपूर्ण
वचन लिखा है—सो गॉडलाइक एंड सो गॉडलेस! इतना ईश्वर जैसा व्यक्ति और इतना ईश्वर—विहीन!
भगवत्ता जैसे साकार उतर आई हो! और फिर भी बुद्ध कहते हैं: कोई ईश्वर नहीं है!
क्यों? फिर हम चार्वाक और बुद्ध को एक ही साथ तौलें, एक ही तराजू पर? गलती हो जाएगी।
चार्वाक कहता है: कोई ईश्वर नहीं है, कोई ईश्वरत्व भी नहीं है। कोई भगवान भी नहीं है, कोई
भगवत्ता भी नहीं है। जगत चेतना से शून्य है।
चार्वाक की इसी धारणा को आधुनिक युग
में कार्ल माक्र्स ने पुनरुक्त किया है कि चेतना केवल एक उप—उत्पत्ति है, इपी फिनामिनन। यह पदार्थ से पैदा हुई चीज है। चार्वाक ने पुराने ढंग से
कहा था, पांच हजार साल पहले ढंग और थे, लेकिन बात उसने यही कही थी। उसने यही कही थी जैसे कि पान हम बनाते हैं—चूना,
कत्था, सुपारी। चूना अलग से खाओ तो भी
तुम्हारे ओंठ रंगेंगे नहीं। और पान अलग से चबाओ तो भी तुम्हारे ओंठ रंगेंगे नहीं।
और कत्था अलग से खाओ तो भी तुम्हारे ओंठ रंगेंगे नहीं। और सुपारी अलग से खाओ तो भी
तुम्हारे ओंठ रंगेंगे नहीं। लेकिन सब के मिलन से जब तुम पान बनाते हो तो तुम्हारे
ओंठ सुर्ख रंग जाते हैं। यह सुर्खी कहां से आ रही है? यह
सुर्खी अलग नहीं है—चार्वाक ने कहा था—यह पान में मिलाई गई चार—पांच चीजों के जोड़
से पैदा हो रही है।
यह पांच हजार साल पुराना ढंग था कहने
का। कार्ल माक्र्स का ढंग नया है, लेकिन कोई नई बात नहीं है। कार्ल
माक्र्स कह रहा है कि पदार्थ के एक विशिष्ट मिलन से चेतना पैदा हो जाती है और
पदार्थ जब बिखर जाता है तो चेतना बिखर जाती है। पदार्थ मूल है; चेतना केवल एक उप—उत्पत्ति है। चेतना वस्तुतः नहीं है, उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं है। पदार्थ का अपना अस्तित्व है।
काश, कार्ल माक्र्स वापस
लौट आए तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा! क्योंकि आधुनिक विज्ञान कह रहा है: पदार्थ है
ही नहीं! जितना पदार्थ को खोजा है उतना ही पाया कि पदार्थ नहीं है। पदार्थ तो कब
का गया! पदार्थ अब बचा नहीं है विज्ञान की भाषा में। अब तो पदार्थ की जगह ऊर्जा है,
शक्ति है। और ऊर्जा बड़ी और बात है।
वही बुद्ध कह रहे हैं। जीवन ऊर्जा है।
और इस ऊर्जा में अचेतना नहीं है। इस ऊर्जा में केंद्र पर चेतना छिपी है। उस चेतना
को खोज लेना परमात्मा को खोज लेना है। इसलिए परमात्मा की खोज पूजा नहीं बनती, ध्यान बनती है। परमात्मा की खोज अगर तुम्हें मंदिर ले जाए, तीर्थ ले जाए, तो गलत हो गई। परमात्मा की खोज अगर
तुम्हें अपने भीतर ले जाए तो सही हो गई।
उन्होंने ठीक कहा कि कोई नहीं है
चलाने वाला; सब चल रहा है, अपने से चल रहा
है, अपने से हो रहा है, कोई कुछ कर
नहीं रहा है।
इससे यह मत समझ लेना कि उन्होंने कोई
नास्तिकता की बात कही। यह आस्तिकता का परम रूप है। यह अद्वैतवाद का निचोड़ है। एक
ही है! स्रष्टा और सृष्टि दो नहीं हैं; स्रष्टा अपनी सृष्टि
में समाया हुआ है। स्रष्टा और सृष्टि के बीच ऐसा भेद नहीं है जैसा चित्रकार और
उसके चित्र में होता है। जब चित्रकार चित्र बनाता है, जैसे—जैसे
चित्र बनता जाता है, चित्र चित्रकार से अलग होता जाता है।
पहले तो चित्रकार के भीतर था, उसकी कल्पना में था, उसके मानस—लोक में था, उसका मानस—पुत्र है। लेकिन
जैसे—जैसे कैनवास पर रंग उतरते हैं, चित्र अलग होता जाता है।
फिर चित्रकार मर जाएगा तो भी चित्र रहेगा। मूर्तिकार मर जाएगा तो भी मूर्ति रहेगी।
मूर्ति पृथक हो गई, चित्र पृथक हो गया।
ईश्वर और उसकी सृष्टि में ऐसा संबंध
नहीं है। इसलिए हमने जो पुरानी से पुरानी धारणा ईश्वर की की है, वह है नटराज की, नर्तक की। तुमने समझा, देखा, नटराज की धारणा में तुमने कभी झांका? नृत्य की एक खूबी है जो किसी और चीज की नहीं। नृत्य और नर्तक को अलग नहीं
किया जा सकता; वह उसकी खूबी है। चित्रकार और चित्र अलग हो
जाते हैं, मूर्तिकार और मूर्ति अलग हो जाते हैं। लेकिन नर्तक
और नृत्य एक हैं; उनमें भेद नहीं किया जा सकता। नर्तन बचेगा
नहीं अगर नर्तक न हो। और अगर नर्तन न हो तो नर्तक कहां? उसको
फिर नर्तक नहीं कहा जा सकता; वह तो जब नृत्यमय होता है तभी
नर्तक होता है।
तो नृत्य और नर्तन एक ही सिक्के के दो
पहलू हैं। सृष्टि और स्रष्टा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और अगर दोनों को जोड़ना
हो एक ही शब्द में तो हमें कहना चाहिए—सृजनात्मकता, क्रिएटिविटी। भूल जाओ
पुराना शब्द सृष्टि, और भूल जाओ पुराना शब्द स्रष्टा। दोनों
संज्ञाओं को एक ही क्रिया में डूब जाने दो—सृजनात्मकता। और तब तुम ईश्वर की अनूठी
प्रतीति कर पाओगे, तब तुम्हें चारों तरफ वह मौजूद मिलेगा। एक
बीज फूट कर अंकुरित हो रहा है—यह सृजनात्मकता है। एक नदी बह कर सागर की तरफ जा रही
है; बादल घिर आए हैं और बूंदाबांदी हो रही है; एक स्त्री गर्भवती हो गई है, मां बनने के करीब आ रही
है—यह सब सृजनात्मकता है—एक चित्रकार के मन में एक सपना सघन हो रहा है, एक मूर्तिकार के भीतर मूर्ति रूप ले रही है।
मेरे देखे, अगर तुम परमात्मा के निकट आना चाहते हो तो सत्यनारायण की कथा तुम्हें उसके
निकट नहीं लाएगी। क्योंकि तुम्हारी सत्यनारायण की कथा में न तो सत्य है और न
नारायण है; वह तो पंडित—पुरोहित का व्यवसाय है। यज्ञ—हवन,
आग में फेंका गया घी, गेहूं, चावल—पागलपन है, विक्षिप्तता है, अपराध है। देश भूखा मरता हो और हजारों मनों का अनाज, सैकड़ों पीपे घी प्रतिवर्ष बहाया जाता है अग्नि में। तुम पागल हो! यह धर्म
नहीं है।
जलानी है अपने भीतर की मशाल। और उसके
जलाने का सुगमतम जो उपाय है, वह है सृजनात्मक हो जाओ। जीवन को
वैसा ही मत छोड़ो जैसा तुमने पाया था। जीवन को कुछ सुंदर करो। उठाओ तूलिका, जीवन को थोड़े रंग दो! उठाओ वीणा, जीवन को थोड़े स्वर
दो! पैरों में बांधो घूंघर, जीवन को थोड़ा नृत्य दो! प्रेम
दो! प्रीति दो! तोड़ो उदासी। जीवन को थोड़ा उत्सव से भरो! और तुम जितने सृजनात्मक हो
जाओगे उतना ही तुम पाओगे, तुम परमात्मा के करीब आने लगे।
क्योंकि परमात्मा अर्थात सृजनात्मकता। उसके करीब आने का एक ही उपाय है: सृजन।
इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि
तुम्हारे पंडित—पुजारी से तो कवि, चित्रकार, मूर्तिकार,
अभिनेता कहीं ज्यादा करीब होता है परमात्मा के। अभिनेता जब अभिनय
में अपने को पूरी तरह डुबा देता है तो वह प्रार्थना का क्षण है। चित्रकार जब चित्र
बनाने में बिलकुल लवलीन हो जाता है, तल्लीन हो जाता है,
भूल ही जाता है अपने को—तब वह प्रार्थना का क्षण है। जब भी तुम सृजन
की किसी क्रिया में अपने को पूरा गला देते हो, पिघला देते हो—मिट
जाते हो। कवि, चित्रकार, अभिनेता,
मूर्तिकार कहीं ज्यादा करीब हैं परमात्मा के—पंडित, पुरोहितों, दार्शनिकों, विचारकों
से।
लेकिन कवि हो, चित्रकार हो, मूर्तिकार हो, बस
क्षण भर को डूबता है, फिर बाहर निकल आता है; उसकी डुबकी गहरी नहीं।
तीन छोटे—छोटे बच्चे बात कर रहे थे।
एक बच्चे ने कहा कि तैरना तो कोई मेरे पिताजी से सीखे, क्या डुबकी मारते हैं!
दूसरे ने कहा, तुम्हारे पिताजी, डुबकी! फिर निकलते हैं या नहीं?
निकल आते हैं।
उसने कहा, डुबकी मेरे पिताजी मारते हैं। आधा—आधा घंटे तक पता ही नहीं चलता।
तीसरे ने कहा, यह भी कोई डुबकी है! मेरी पिताजी ने डुबकी सात साल पहले मारी थी, अभी तक नहीं लौटे। और मैं मां से पूछता हूं, कब
लौटेंगे? मां कहती है, अब वे आने वाले
नहीं, वे डुबकी मार ही गए। डुबकी इसको कहते हैं!
कवि की डुबकी ऐसी है—गया और आया, गया और आया। छूता है, उछलता है, चरणों तक पहुंच जाता है; मगर गिर जाता है वापस।
इसलिए हमारे देश में हमने दो शब्द उपयोग किए हैं, दोनों का
अर्थ तो एक ही होता है—कवि और ऋषि। कवि हम उसे कहते हैं, जो
डुबकी मारता है और निकल आता है, जो क्षण भर को श्वास को साध
लेता है। और ऋषि हम उसे कहते हैं, जो डुबकी मारता है तो फिर
निकलता नहीं—जो डूब ही जाता है; जो परमात्मा से वापस नहीं
लौटता!
पलटू ने कहा न, जैसे नमक की पुतली डूब जाए सागर में, फिर क्या
लौटेगी? गल जाएगी, एक हो जाएगी,
एकरूप हो जाएगी! लेकिन कवि एक महत्वपूर्ण कदम है ऋषि होने के लिए।
मैं अपने संन्यासी को निरंतर कहता
हूं: सृजनात्मक बनो।
पुराने दिनों का संन्यास असृजनात्मक
हो गया था, इसलिए मुर्दा हो गया था। उसका परमात्मा से संबंध टूट
गया था। तुम्हारे पुराने महात्मा क्या सृजन किए हैं? तुम
धीरे—धीरे असृजनात्मक क्रियाओं को बड़ा सम्मान देने लगे थे, क्योंकि
तुम्हें सृजनात्मकता का बोध ही भूल गया। लोग प्रशंसा करते हैं कि फलां महात्मा
बहुत बड़ा है। क्या करता है? क्या किया उसने? क्योंकि वह नग्न है। क्योंकि वह जब सर्दी पड़ती है तो कपड़े नहीं पहनता।
क्योंकि वह धूप में खड़ा होता है। जब लोग छाया तलाशते हैं तब वह धूप में खड़ा होता
है। और जब लोग धूप तलाशते हैं तब वह सर्दी में खड़ा होता है। ये विक्षिप्तता के
लक्षण हैं। यह आदमी दुखवादी है। यह आदमी रुग्ण है, इसको
मानसिक चिकित्सा की जरूरत है।
कोई इसलिए महात्मा है कि कांटों पर
सोता है। अब कांटों पर सोना, यह कोई सहज वृत्ति नहीं है। यह
तो बहुत असहज है, अस्वाभाविक है। कोई पशु—पक्षी को तुमने
देखा कि पहले कांटों की सेज बनाए और फिर उस पर लेटे? सिवाय
आदमियों में, इस तरह के पागल और कहीं नहीं पाए जाते। पशु—पक्षी
हंसते होंगे देख कर तुम्हारे महात्माओं को जब वे कांटे बिछा कर लेटते होंगे। इस
आदमी के भीतर कहीं कुछ गलत हो गया। यह आत्मघाती है। यह शनैः—शनैः आत्मघात कर रहा
है। तुम आदर देते हो इन बातों को। तुम आदर देते हो क्योंकि कोई आदमी लंबे उपवास
करता है, भूखा मरता है। इसके भूखे मरने से क्या सृजन होता है?
इसके भूखे मरने से इसके चारों तरफ विक्षिप्तता की तरंगें पैदा होती
हैं, और कुछ पैदा नहीं होता। यह अपने चारों तरफ रुग्ण कीटाणु
फैलाता है। मनोवैज्ञानिक इस तरह के रोग को मैसोचिज्म कहते हैं, स्वदुखवाद।
दुनिया में दो तरह के दुष्ट हैं। एक
तो वे हैं जो दूसरों को सताते हैं। और एक वे हैं जो स्वयं को सताते हैं। इन दोनों
तरह के दुष्टों में कोई भी धार्मिक नहीं है। ये दोनों ही हिंसक हैं। दूसरे को सताओ
कि स्वयं को सताओ, सताने में हिंसा है। और हिंसा विध्वंस है, सृजन नहीं।
मैं अपने संन्यासी को एक नया आयाम दे
रहा हूं—एक स्वस्थ आयाम। न तो दूसरे को सताओ, न स्वयं को सताओ—सताना
पाप है। चाहे तुम दूसरे की देह को सताओ, तो भी तुम परमात्मा
को सता रहे हो। और चाहे तुम अपनी देह को सताओ, तो भी तुम
परमात्मा को सता रहे हो। क्योंकि सभी देहों में वही व्याप्त है। क्या तुम सोचते
हो...
बड़े आश्चर्य की बात है! ये तुम्हारे
महात्मागण कहते हैं, सब जगह परमात्मा व्याप्त है—सिर्फ इनको छोड़ कर! तो जब
ये भूखे मरते हैं, किसको भूखा मार रहे हैं? और जब ये रात भर जागते हैं तो किसको जगाए रखे हैं? और
जब ये कांटों की सेज पर सोते हैं तो किसको कांटों की सेज पर सुलाते हैं? परमात्मा को ही! क्या इनके भीतर छोड़ कर और सब जगह परमात्मा है?
और इस तरह की प्रक्रियाओं का क्या
प्रयोजन है? दुनिया में वैसे ही दुख बहुत है, और दुख न बढ़ाओ। ऐसे ही दुनिया कांटों की सेज है, और
क्या कांटे तलाशते हो! ऐसे ही दुनिया में चिता पर चढ़े हो, और
क्या चिता खोजते हो!
लेकिन अतीत का संन्यास दुखवादी था, हालांकि तुम उसे त्यागवादी कहते थे। त्याग अच्छा शब्द है दुखवाद के लिए,
बस और कुछ भी नहीं। भोगी दूसरे को सताता है, त्यागी
खुद को सताता है। मगर सताने का गणित एक है। दोनों से सावधान! न तो दूसरे को सताना,
न अपने को सताना। सताना ही नहीं! सब जगह परमात्मा है। बन सके तो सुख
की तरंगें फैलाना! बन सके तो मधुर कोई गीत गाना! बन सके तो रसपूर्ण कोई नृत्य पैदा
करना!
संन्यासी सृजनात्मक होना चाहिए—कवि हो, चित्रकार हो, मूर्तिकार हो, नर्तक
हो। या जो भी करे, उसे इस ढंग से करे, ऐसी
तल्लीनता से करे कि उसका छोटा—छोटा कृत्य भी ध्यान हो जाए।
इस महत प्रयोग को करने के लिए ही यहां
सारा आयोजन चल रहा है। तुम यहां संन्यासियों को जूते बनाते देखोगे; स्नानगृहों, पाखानों को साफ करते देखोगे; बढ़ई का काम करते देखोगे। लेकिन एक अदभुत प्रफुल्लता से! क्योंकि यह कृत्य
नहीं है—यह प्रभु का अर्चन है, यह उसका पूजन है! जब कृत्य
पूजन बन जाएं तभी जानना कि तुम संन्यासी हुए हो।
उन्होंने ठीक कहा: "सब हो रहा
है।'
जीवन में कुछ चीजें हैं जो करने से
होती हैं। वे ही चीजें व्यर्थ चीजें हैं। तुम एक झाड़ के नीचे बैठ जाओ तो धन अपने
आप तुम्हारी तरफ नहीं आएगा, तुम्हें तलाशता हुआ नहीं आएगा। तुम एक झाड़ के नीचे
बैठे रहो...कहानियों की बात छोड़ दो कि जब वह देता है तो छप्पर फाड़ कर देता है।
किसी को छप्पर फाड़ कर नहीं देता। छप्पर भला फाड़ दे, और कुछ
नहीं आता। फिर छप्पर अपना बनाओ। छप्पर कई के फाड़ देता है, लेकिन
छप्पर फाड़ कर किसी को देता नहीं। तुम इस भ्रांति में मत रहना कि पुरानी बच्चों की
कहानियां पढ़ते रहो और भ्रांतियां खाते रहो कि एक आदमी एक नगर में प्रवेश करता है
सुबह—सुबह, उसको पकड़ कर ले जाया जाता है और सम्राट बना दिया
जाता है। तुम दिल्ली में जितनी बार चाहे जाओ—आओ...नेतागण दिल्ली आते—जाते रहते हैं,
दिन—रात चक्कर ही मारते रहते हैं दिल्ली का—इसी आशा में शायद कि
किसी दिन कोई कहानी सच हो जाए, कि गए दिल्ली और एकदम लोगों
ने पकड़ा और कहा कि नहीं, आप राष्ट्रपति हो जाएं! कि
प्रधानमंत्री हो जाएं!
धन और पद ऐसे नहीं आते। धन और पद तो
छीनने होते हैं, झपटने होते हैं; लड़ना होगा,
झगड़ना होगा, प्रतिस्पर्धा करनी होगी,र् ईष्या में जलना होगा और औरों को जलाना होगा। लेकिन कुछ चीजें हैं जो
अपने आप आती हैं। जैसे आनंद, जैसे प्रेम, जैसे ध्यान, जैसे प्रार्थना, जैसे
परमात्मा, जैसे स्वर्ग—ये अपने आप आते हैं। इनके आने का ढंग
और है। ये कृत्य से नहीं आते। ये कर्ता—भाव से नहीं आते। जब तुम अकर्ता—भाव में
होते हो। जब तुम इतने शांत होते हो कि न कोई कृत्य होता है, न
कुछ करने की आकांक्षा होती है; जब तुम परिपूर्ण शून्य होते
हो; जब तुम्हारे भीतर सब थिर होता है, कोई
हलन—चलन नहीं, कोई वासना नहीं, कोई
भविष्य नहीं, कुछ पाने की आकांक्षा नहीं, कुछ होने की आकांक्षा नहीं; तब तुम्हारे भीतर कुछ
उतरना शुरू होता है—जो अलौकिक है! उस अलौकिक को तुम जो नाम देना चाहो...महावीर ने
उसे कहा कैवल्य; बुद्ध ने उसे कहा निर्वाण। तुम परमात्मा
कहना चाहो, परमात्मा प्यारा शब्द है, परमात्मा
कहो। मगर ध्यान रखना, व्यक्ति मत बना लेना परमात्मा को।
परमात्मा व्यक्ति नहीं है। व्यक्ति में तो सीमित हो जाएगा। परमात्मा समष्टि है।
उसे असीम रखो।
परमात्मा सागर है, जिसके कोई ओर—छोर नहीं हैं। और परमात्मा को पाने का एक ही ढंग है कि तुमने
पाने के जितने ढंग सीख रखे हैं वे छोड़ दो। तुम एक ऐसी अवस्था में आ जाओ जहां पाने
की कोई आकांक्षा नहीं, अभीप्सा नहीं। होना काफी हो जहां। बस
तब तुम समझ पाओगे कि सब हो रहा है। जब तुम अपने भीतर परमात्मा को उतरते देखोगे,
आनंद को—और तुमने कुछ किया नहीं, तुम चुपचाप
बैठे थे—तो तुम कैसे कह सकोगे मेरा कृत्य है? तुम यही कह
सकोगे—प्रसाद है!
इसलिए जानने वालों ने परमात्मा को
प्रसाद कहा है। प्रसाद का अर्थ होता है—जो मिला; जो उतरा अनंत से;
जो आकाश से आया है और तुममें समा गया है। उस दिन तुम यह भी जान
पाओगे कि सब अपने से हो रहा है।
वृक्षों को कोई खींच—खींच कर बड़ा थोड़े
ही कर रहा है! बादलों में कोई पानी भर—भर कर थोड़े ही भेज रहा है! सब अपने से हो
रहा है। और सब अपने से हो रहा है, यह जीवन के रहस्य को बढ़ाता है,
कम नहीं करता। तुम जब कहते हो ईश्वर कर रहा है, तो तुम जीवन के रहस्य को मार डालते हो।
असल में, मनुष्य का मन हमेशा रहस्य की हत्या करने में संलग्न रहता है। वह उत्तर
चाहता है। वह कहता है, कोई उत्तर मिल जाए ताकि रहस्य खतम हो।
किसने बनाया संसार? कोई उत्तर नहीं है, क्योंकि संसार कभी बना नहीं—सदा से है और सदा रहेगा, शाश्वत है, आदि—अंतहीन है। मगर इससे जिज्ञासा हल
नहीं होती। लेकिन कोई कह देता है कि ब्रह्माजी ने बनाया; थोड़ा
हलका हुआ मन कि चलो किसी ने बनाया। अब ब्रह्माजी की तलाश करें! अब जिसने जगत बनाया
है उसकी ही पूजा करें, उसका ही पाठ करें, उसकी ही खुशामद करें, स्तुति करें। जिसने जगत बनाया
है वही सम्हालेगा।
फिर कौन सम्हाल रहा है? अगर कोई कहे कोई नहीं सम्हाल रहा है, यह अपने से
सम्हला हुआ है...अधर? तो मन में बड़ी मुश्किल हो जाती है।
एक होटल में एक आदमी आकर रुका। मैनेजर
ने कहा कि क्षमा करें, यद्यपि एक कमरा खाली है मगर हम दे न सकेंगे, आप किसी दूसरी होटल में चले जाएं।
उस आदमी ने कहा, कारण? कमरा खाली है, आप दे
क्यों न सकेंगे?
उन्होंने कहा, उसी कमरे के नीचे एक राजनेता रुके हुए हैं। और अभी पद पर हैं, इसलिए जरा—जरा सी बात में खीझ जाते हैं। अगर ऊपर तुम जरा जोर से चले और
जरा धमक भी उनको सुनाई पड़ गई तो वे पूरी होटल को हिला देते हैं। तो हमने ऊपर का
कमरा खाली ही रखा है। अब कोई आदमी ऊपर रहेगा तो कभी बर्तन भी गिर सकता है हाथ से,
कभी चलने में जोर से भी चल सकता है।
उस आदमी ने कहा, आप निश्चिंत रहें। मैं दिन भर तो बाजार में उलझा रहूंगा, रात बारह बजे लौटूंगा और चार बजे सुबह की गाड़ी मुझे पकड़नी है। तो चार ही
घंटे मुश्किल से मैं सो सकूंगा। सोने में क्या आप सोचते हैं मेरे सपनों की आवाज
उनको सुनाई पड़ेगी? चुपचाप आकर सो जाऊंगा, सुबह चार बजे उठ कर गाड़ी पकड़ लेनी है, कोई अड़चन न
आएगी।
बात मैनेजर को भी जमी। कमरा उसे दे
दिया गया। बारह बजे थका—मांदा दिन भर मेहनत करके वह लौटा। बिस्तर पर बैठ कर उसने
एक जूता खोला और जोर से पटक दिया। जैसे ही जोर से पटका फर्श पर, उसे याद आई कि कहीं नेता जी नाराज न हो जाएं। तो उसने दूसरा जूता आहिस्ता
से रख कर और कंबल ओढ़ कर सो गया।
कोई दो घंटे बाद नेताजी ने आकर उसका
दरवाजा खटखटाया। दो बजे रात! उठा, हैरान हुआ कि कौन जगा रहा है! दरवाजा
खोला, नेता जी खड़े थे, एकदम भनभना रहे
थे। उसने कहा कि क्षमा करें, क्या गड़बड़ हो गई? मैं तो दो घंटे से सोया हुआ हूं। कुछ भूल—चूक हुई?
उन्होंने कहा, हां हुई! दूसरे जूते का क्या हुआ? वह मेरे सिर पर
लटक रहा है। पहला तुमने पटका, वह मैंने कहा कि ठीक है,
सज्जन आ गए। मगर दूसरे का क्या हुआ? फिर मैंने
कई तरह से अपने को समझाने की कोशिश की कि अपने को क्या मतलब! समझो कि एक जूता पहने
ही सो गया होगा। तो भी, एक जूता पहने सो रहा है कोई आदमी,
यह भी मन को बेचैन करता है। कि समझो एक जूता होगा ही नहीं। यह कैसे
हो सकता है? कि समझो उसने धीरे से रख दिया होगा। मगर क्यों
वह धीरे से रखेगा, जब पहला उसने जोर से पटका! हजार तरह से
समझाने की कोशिश की, लेकिन जिज्ञासा है कि बढ़ती चली जाती है;
जब तक उत्तर न मिल जाए मैं सो नहीं सकता। आखिर मजबूरी में मुझे आना
पड़ा। इतना तुम बता दो कि दूसरे का क्या हुआ, ताकि मैं शांति
से सो सकूं।
ऐसी मन की अवस्था है। तुमसे कोई कह
देता है, ब्रह्माजी ने बनाया। न उन्हें ब्रह्माजी का पता है,
न तुम्हें। खुद ब्रह्माजी को भी अपना पता है, यह
भी संदिग्ध है। क्योंकि बौद्ध कथाएं हैं कि जब बुद्ध ज्ञान को उपलब्ध हुए तो जो
पहला व्यक्ति उनके दर्शन को आया वह ब्रह्मा। और उसने आकर उनके चरणों में सिर रखा
और कहा कि मुझे आत्मज्ञान दीजिए।
ब्रह्मा को भी पता नहीं है! यह तो
बौद्धों ने मजाक किया है कि यह ब्रह्मा को भी अभी पता नहीं है कि वे कौन हैं।
जिसको अपना ही पता नहीं वह सारी दुनिया को बना रहा है! यह तो सिर्फ मजाक है, व्यंग्य है—पुराने ढंग का मजाक है।
फिर कौन सम्हाल रहा है? तो उत्तर चाहिए। नहीं तो अधर में लटके हुए हैं! तो बड़ी घबड़ाहट हो जाएगी।
तो विष्णु सम्हाल रहे हैं। फिर कौन इसका अंत करेगा? तो शिव
इसका अंत करेंगे। बस निश्चिंत हो गए। तुम्हें तीनों उत्तर मिल गए। परमात्मा के तीन
चेहरे बना लिए, त्रिमूर्ति बना ली।
तुम देखते हो, ब्रह्मा के बहुत मंदिर नहीं हैं, सिर्फ एक मंदिर है
भारत में! क्यों? क्योंकि कौन फिक्र करे, उनका तो काम खतम हो गया। लेना—देना क्या उनसे! विष्णु के बहुत मंदिर हैं—क्योंकि
सब राम, कृष्ण, विष्णु के अवतार हैं;
ये सब मंदिर विष्णु के हैं। राम को पूजो कि कृष्ण को पूजो, तुम पूज तो विष्णु को ही रहे हो; ये विष्णु के ही
रूप हैं। जो सम्हाल रहा है, उसको लोग पूजते हैं।
अब मोरारजी को कोई पूजता है? हालांकि चरणसिंह केवल सम्हाल रहे हैं—केयरटेकर। कोई ज्यादा कुछ बड़े बल में
नहीं हैं, मगर पूछते लोग चरणसिंह को हैं। पूछना पड़ेगा।
विष्णु—केयरटेकर। तो विष्णु के मंदिर ही मंदिर।
और फिर शिव जी के तो बहुत। गांव—गांव, झाड़—झाड़ के नीचे, जहां देखो वहीं उनकी पिंडी रख दी।
क्योंकि इनसे निपटना ही पड़ेगा आज नहीं कल, ये अंत हैं,
इनके हाथ में अंत है। अब जो गुजरी सो गुजरी, कम
से कम अंत तो सम्हल जाए! इसलिए लोग शिव की पूजा कर रहे हैं, बड़ी
स्तुतियां हो रही हैं। जगह—जगह मंदिर बना लिए हैं, जगह—जगह
पिंडियां स्थापित कर दी हैं। जितने शिव के मंदिर हैं और पिंडियां हैं, उतनी किसी की भी नहीं।
ये तुम्हारे चित्त की सूचनाएं हैं।
ब्रह्मा का एक मंदिर। किसको लेना—देना है! बात ही खत्म हो गई, एक बना दो और झंझट से छुटकारा करो। विष्णु के बहुत, शिव
के और भी बहुत। क्योंकि जो जीवन को सम्हाल रहा है उसका तो ध्यान रखना पड़ेगा। और फिर
जो मृत्यु का मालिक है, विध्वंस का, उसको
तो राजी रखो। नहीं तो कौन सी झंझट में डाले, कौन सी मुसीबत
खड़ी कर दे, क्या पता! कम से कम तुम्हारे सिर पर तांडव नृत्य
न करे, इतना ही बहुत है! ये तुम्हारे मनोविज्ञान के प्रतीक
हैं। न कहीं कोई ब्रह्मा हैं, न कोई विष्णु हैं, न कोई महेश हैं। अस्तित्व अपने से चल रहा है।
मगर इस बात को समझने के लिए कि
अस्तित्व अपने से चल रहा है, बड़ी ध्यान की अवस्था चाहिए।
क्योंकि ध्यान में तुम देखोगे कि सब अपने से हो रहा है। ध्यान में तुम्हें यह
प्रतीति इतनी स्पष्ट हो जाएगी कि सब अपने से हो रहा है, कि
फिर यह कोई तार्किक सिद्धांत नहीं रहेगा, तुम्हारा अनुभव
होगा। ऐसे ही अनुभव से उन्होंने कहा कि सब अपने से हो रहा है।
और तुम पूछते हो शैलेंद्र कि उन्होंने
कहा कि—"कर्म का सिद्धांत इत्यादि सब बकवास है।'
एक अर्थ में बकवास ही है, क्योंकि कर्म का सिद्धांत मनुष्य की चालबाजी है। आज आग में हाथ डालोगे,
आज जलोगे कि अगले जन्म में जलोगे? अभी पानी
में डूबोगे तो अभी मरोगे कि अगले जन्म में मरोगे? गाली अभी
दोगे और फल अगले जन्म में पाओगे! इतना फासला? कार्य और कारण
में इतना फासला? अकारण मालूम होता है। यह आदमी की चालबाजी
है। यह बचने का उपाय है। क्योंकि बीच में अगर समय हो तो इंतजाम की सुविधा रहेगी।
अभी गाली दे लेंगे, फिर कल क्षमा मांग लेंगे, या मंदिर में जाकर पूजा कर लेंगे, या गंगास्नान कर
आएंगे, या कुछ पुण्य कर देंगे, दान कर
देंगे। मंदिर बनवा देंगे, भगवान पर नया स्वर्ण—मुकुट चढ़वा
देंगे। बीच में समय है तो सुविधा है। कुछ कर लेंगे। भगवान की खुशामद कर लेंगे।
और सदियों से तुम्हें समझाया गया है
कि भगवान खुशामदियों को पसंद करता है, स्तुतिकारों को पसंद
करता है। तो तुम्हारी पूजा और तुम्हारी प्रार्थना क्या है? जरा
गौर से देखोगे तो तुम खुद ही चौंकोगे, बड़े शघमदा होओगे। क्या
कर रहे हो तुम प्रार्थना में? तुम खुशामद कर रहे हो। यह
खुशामद वैसी ही है जैसी राजा—महाराजाओं की चलती थी। तुम दरबारी बन रहे हो।
मैंने सुना है कि बल्ख और बुखारा के
नवाब ने अपने एक वजीर को दिल्ली दरबार संदेश लेकर भेजा—मैत्री का संदेश। जिस
दरबारी को भेजा था, दिल्ली के दरबार में जब वह आया तो सम्राट ने पूछा कि
बल्ख और बुखारा का नवाब और मैं, दोनों के बीच तुम क्या तुलना
करते हो?
दिल्ली का मामला! अब बल्ख और बुखारा
तो दूर रह गए, वह नवाब भी दूर रह गया। यह वजीर यहां अकेला, अब यह तुलना भी क्या करे! इसने कहा, बात आप क्या
पूछते हैं! बल्ख और बुखारा का नवाब दूज का चांद, आप पूर्णिमा
के चांद। आपकी उसकी क्या तुलना!
सम्राट बहुत प्रसन्न हुआ। उसने बहुत
हीरे—जवाहरातों से उसको भेंट भेजी और मैत्री स्वीकार की। लेकिन उसके पहले खबर
पहुंच गई। उसके भी दुश्मन थे दरबारियों में। दरबारियों में दुश्मन न हों तो और कौन
हों! दरबारी एक—दूसरे के दुश्मन होते ही हैं! खबर पहले पहुंच गई बल्ख और बुखारा।
नवाब को बताया गया कि अपमान हो गया। जिस आदमी को भेजा वह गद्दार निकला, धोखेबाज निकला। उसने दिल्ली के सम्राट को पूर्णिमा का चांद कहा और आपको
दूज का चांद बताया—जो कि कभी दिखाई भी पड़ता है, कभी दिखाई भी
नहीं पड़ता। दूज का चांद भी कोई चांद है? जरा सी रेखा थोड़ी
देर को दिखती है और गई! उसने बहुत अपमान कर दिया है।
यह तो बहुत भेंट इत्यादि लेकर आ रहा
था, खुश था; लेकिन जैसे ही दरवाजे पर प्रविष्ट हुआ,
वैसे ही पकड़ लिया गया, हथकड़ियां पहना दी गईं।
दरबार में हथकड़ियों में लाया गया। सम्राट ने कहा, तुमने मेरा
अपमान किया है!
लेकिन दरबारी तो दरबारी होते हैं—होशियार, कुशल स्तुति में। उसने कहा, आप समझे नहीं। आप मतलब
नहीं समझे।
अब बल्ख और बुखारा आ गया, अब कहां दिल्ली! अब यह दूसरी झंझट सामने है।
तो उसने कहा, तुम मतलब साफ करो। तुमने दिल्ली के सम्राट को पूर्णिमा का चांद और मुझे
दूज का चांद बताया।
उसने कहा कि निश्चित ही। क्योंकि
पूर्णिमा के चांद का अर्थ है कि अंत का समय आ गया। अब खात्मा! अब आगे कुछ नहीं। और
दूज का चांद बढ़ता हुआ चांद है मालिक, आप समझे नहीं बात को!
आपका भविष्य है, उसका कोई भविष्य नहीं।
हथकड़ियां खोल दी गईं, और हीरे—जवाहरात बरसा दिए गए।
सम्राटों के साथ दरबारी जो करते रहे
हैं वही तुम पूजा—पाठ में कर रहे हो—कि हम पतित हैं, तू पतितपावन है! हम
महापापी हैं, तू महाकरुणावान है!
तुम दोनों बातें झूठ कह रहे हो। न तो
तुम मानते हो कि तुम महापापी हो। जरा दिल पर हाथ रख कर कहो। तुम कहोगे: मैं और
महापापी! अरे मुझसे बड़े—बड़े पड़े हैं। मैं किस गिनती में आता हूं! वह तो कहने के
लिए कह रहा हूं। अपने को महापापी कह रहा हूं, ताकि तुमको
महाकरुणावान कह सकूं। वह तो तुम्हारी प्रशंसा बढ़ाने के लिए अपने मुंह पर कालिख पोत
रहा हूं, ताकि तुम बिलकुल गोरे मालूम पड़ो, तुलना में गोरे मालूम पड़ो। लेकिन दिल से तो पूछो।
ये स्तुतियां वहां काम नहीं करेंगी, क्योंकि वहां कोई है नहीं सुनने वाला। वहां से कोई उत्तर न आएगा। और
तुम्हारी प्रार्थनाओं के उत्तर नहीं आते; इससे दुनिया में
नास्तिकता पैदा होती है। हजारों साल में तुमने प्रार्थनाएं की हैं, उत्तर नहीं आए; इसलिए नास्तिकता बढ़ती गई है।
नास्तिकता बढ़ाने का बुनियादी कारण तुम्हारे पंडित—पुरोहित, उनके
द्वारा दिए गए आश्वासन हैं। चूंकि वे सब आश्वासन असफल हो जाते हैं। हां, कभी—कभी संयोगवशात कोई तीर लग जाता है। अंधेरे में भी चलाओ तो लग जाए कभी—कभी।
कोई प्रार्थना नहीं सुनी जाती; कभी—कभी लग जाता है।
कल मैंने अखबार में एक खबर पढ़ी, मैं हैरान हुआ। अखबार में मैंने खबर पढ़ी, एक व्यक्ति
ने पत्र लिखा है संपादक के नाम कि वह जहांगीर अस्पताल में भर्ती होने गया था। बड़े
दिनों से बीमारियों से पीड़ित था। मैं—मेरे पिता बीमार थे—उनको देखने गया था। उनको
देख कर मैं बाहर निकलता था...मुझे तो पता ही नहीं वह आदमी कहां खड़ा था। उसने लिखा
है कि मैं वहीं खड़ा था और उसने हाथ जोड़ कर नमस्कार किए और मैंने उसे आशीर्वाद दिया—और
तत्क्षण उसकी सारी बीमारियां दूर हो गईं! भर्ती होने गया था जहांगीर अस्पताल में,
कैंसिल करवा दिया, घर लौट आया। सारी बीमारियां
समाप्त हो गईं।
अब यह अंधेरे में लग गया तीर है। मुझे
पता ही नहीं उनका। अब वह मुझे फंसा रहा है। अब ऐसे दूसरे उपद्रवी भी यहां आने
लगेंगे। लक्ष्मी बहुत डरी थी। उसने कहा कि यह अखबार में खबर छपी है, अब दफ्तर में दिक्कत होगी। लोग आएंगे कि हमें आशीर्वाद चाहिए। बीमारों की
कतार लग सकती है।
और मुझे तो यहां तक भी शक है कि वह
मुझे मिला। जहां तक तो संभव है—स्वभाव, क्योंकि वे ही वहां
मेरे पिता की देख—रेख में थे। क्योंकि मैंने न तो किसी को आशीर्वाद दिया, मुझे याद ही नहीं पड़ता। और मेरी याददाश्त इतनी कमजोर नहीं है। जहां तक तो
उसने स्वभाव के चरण छुए होंगे, स्वभाव ने आशीर्वाद दे दिया।
मन ने मान लिया। मन मान ले तो क्रांतियां घट सकती हैं। क्योंकि सौ में से नब्बे
प्रतिशत बीमारियां तो मानसिक होती हैं। अगर मन मान ले तो नब्बे प्रतिशत बीमारियां
तो तत्क्षण तिरोहित हो सकती हैं। मानने की बात है।
तो तुम्हारी प्रार्थनाएं अगर कभी पूरी
भी हो जाती हों तो तुम यही समझना कि लग गया तीर अंधेरे में। कोई परमात्मा तुम्हारी
प्रार्थनाएं नहीं सुन रहा है, लेकिन तुम्हारी प्रार्थना अगर
प्रगाढ़ता से की जाए तो तुम्हारे मन को प्रभावित करती है। और तुम्हारा मन प्रभावित
हो तो रूपांतरण होते हैं।
लेकिन परमात्मा को बीच में लेने की
कोई जरूरत नहीं है। तब तुम प्रार्थना को ज्यादा परिपूर्णता से कर सकोगे। कोई सुनने
वाला नहीं है, यह जान कर तुम्हारी प्रार्थना ज्यादा से ज्यादा
ध्यानमय होने लगेगी। तुम्हारी प्रार्थना धीरे—धीरे किसी की स्तुति न रह जाएगी,
बल्कि एक भाव—दशा बनेगी। और तुम तब चौबीस घंटे प्रार्थनापूर्ण रह
सकते हो। न घंटी बजानी पड़ेगी, न धूप—दीप जलानी पड़ेगी—एक
प्रार्थना का भाव, अस्तित्व के प्रति एक कृतज्ञता का भाव,
कि इसने इतना दिया है मुझ अपात्र को! अमृत बरसाया है मुझ पर! मेरी
कोई योग्यता न थी, मैंने कुछ अर्जित न किया था!
उन्होंने ठीक कहा। और उन्होंने यह
बताया कि सब कर्म की बातचीत बकवास है। कर्म फल लाता है, लेकिन तत्क्षण। तुम बुरा करते हो, उसी क्षण तुम बुरा
पाते हो। तुम भला करते हो, उसी क्षण तुम भला पाते हो। तुम
प्रीति करते हो, तुम्हारे भीतर सुगंध फैल जाती है। तुम क्रोध
करते हो, तुम्हारे भीतर दुर्गंध फैल जाती है। तुम क्रोध करते
हो, तुम नरक में उतर गए। तुमने प्रेम किया, तुम स्वर्ग में उठ गए। यह प्रतिक्षण हो रहा है। इसको कल पर टालने की जरूरत
नहीं है; कल पर टालना बकवास है। और इसको अगले जन्म पर टालना
पंडित—पुरोहित का षडयंत्र है। उस षडयंत्र में बड़ी खूबियां हैं। तुम गरीब हो तो वह
कहता है, तुम्हारे पिछले जन्मों के पापों के कारण तुम गरीब
हो। तो इसका अर्थ तो यह हुआ कि रूस में किसी ने पिछले जन्म में पाप नहीं किए,
क्योंकि अब रूस में कोई गरीब नहीं है। तुम अमीर हो तो वह कहता है,
तुमने पिछले जन्म में पुण्य किए हैं। तो रूस में किसी ने पिछले जन्म
में पुण्य भी नहीं किए, क्योंकि कोई अमीर भी नहीं है। बीस
करोड़ का मुल्क, पिछले जन्म इन लोगों के हुए कि नहीं हुए?
कुछ तो किया होगा! अच्छा किया होगा, बुरा किया
होगा। कुछ तो किया होगा!
लेकिन पंडित ने ईजाद कर रखी थी यह
तरकीब। यह गरीब के लिए अफीम थी कि गरीब संतुष्ट रहता था कि क्या करूं, पिछले जन्मों के कर्मों का फल भोग रहा हूं! और आशा रखता था कि अब अच्छे
कर्म करूंगा तो अगले जन्म में फल पाऊंगा अच्छे। और अच्छे कर्म का क्या अर्थ था?
आज्ञा मानो पुरोहित की! अच्छे कर्म का अर्थ था, जो शास्त्र कहे वैसा करो। अच्छे कर्म का अर्थ था कि शूद्र के घर में पैदा
हुए हो तो शूद्र ही रहो, ब्राह्मण होने की कोशिश मत करना। जो
तुम्हें मिला है उसमें ही जी लो, ताकि अगले जन्म में
तुम्हारे ऊपर बगावत का कोई दोष न रहे, तो अगले जन्म में
तुम्हें अच्छे—अच्छे फल मिलेंगे।
अगले जन्म का क्या पता! न तुम्हें
पिछले जन्म का पता है, न अगले जन्म का पता है।
और अमीर को कह रहा था कि तूने पिछले
जन्म में खूब दान—पुण्य किया था, तू अब भी दान—पुण्य किए जा,
तो अगले जन्म में और अमीर होगा; जितना देगा
उससे करोड़ गुना पाएगा। तो अमीर से पैसे ले रहा था, दान करवा
रहा था। दान ही किसको करवाएगा? सारे शास्त्रों में लिखा है
कि दान ब्राह्मण को करना चाहिए! ब्राह्मण को किया दान ही असली दान है। जैन
शास्त्रों में लिखा है, जैन मुनि को दिया गया आहार ही सबसे
बड़ा पुण्य है। जैन मुनि ही लिख रहे हैं! ब्राह्मण ही लिख रहे हैं! बौद्ध ग्रंथों
में लिखा हुआ है कि बौद्ध भिक्षु को दिया गया दान ही सबसे बड़ा दान है। बौद्ध ग्रंथ
नहीं कहते कि जैन मुनि को दिया गया दान दान है, या ब्राह्मण
को दिया गया दान दान है; यह तो सब अज्ञान है। यह भी खूब मजा
रहा!
तो धनी को समझा रहे हैं कि हमें और
दो। और गरीब को समझा रहे हैं कि तू अपनी गरीबी में तृप्त रह, बगावत मत करना।
इन्हीं पंडितों के कारण पांच हजार साल
में भारत में कोई क्रांति नहीं हुई। भारत दुनिया में सबसे क्रांति—विहीन देश है।
मुर्दा से मुर्दा! और क्रांतियां भी होती हैं तो यहां कचरा क्रांतियां होती हैं।
अभी जयप्रकाश नारायण की जो क्रांति हुई, इतनी कचरा क्रांति
दुनिया में कहीं होती नहीं। उस कचरा क्रांति का एकमात्र परिणाम हुआ: जयप्रकाश खुद
सठिया गए और सारे मुल्क को सठिया गए। जयप्रकाश डायलिसिस पर जी रहे हैं और पूरा
मुल्क डायलिसिस पर जी रहा है। क्रांति! और क्रांति पर जो फूल खिला—मोरारजी देसाई!
ऐसी क्रांति तुमने देखी? चौरासी साल के बूढ़े आदमी सिंहासन पर
विराजमान हो गए, यह तो खूब क्रांति हुई! अब कोई और बड़ी
क्रांति करे और कब्रें खोद कर मुर्दों को बिठा दे तो वह महाक्रांति होगी।
क्रांति की तैयारियां चल रही हैं। अब
तीसरी क्रांति की तैयारियां चल रही हैं। वह राजनारायण करेंगे। और चौथी क्रांति की
तैयारी चल रही है, वह आई.एस.जौहर करेंगे। अब तुम देखना क्रांतियां,
बड़े—बड़े मसखरे करने वाले हैं क्रांतियां, जोकर
क्रांति करेंगे।
किसी ने पूछा है कि कल आपने एक कविता
में उल्लेख किया कि पता नहीं कौन आएगा चुनाव के बाद—मेल या फीमेल! आपका क्या कहना
है?
बहुत मुश्किल सवाल है, क्योंकि ऐसा भी कोई आ सकता है जो न मेल हो, न फीमेल
हो।
राजनारायण से बंबई में किसी पत्रकार
ने पूछा कि आई. एस. जौहर के संबंध में आप क्या कहते हैं?
राजनारायण ने कहा, हू इज़ शी? ये देवीजी कौन हैं?
उस पत्रकार ने कहा, अरे हद्द हो गई! आपको यह भी पता नहीं कि ये देवीजी नहीं हैं, देवता हैं।
राजनारायण ने ठीक जवाब दिया। सार आ
गया। इस देश में क्रांति न तो हुई है अभी तक, न अभी जल्दी कोई आशा
है। क्योंकि क्रांति के लिए जो आधार चाहिए वे नहीं हैं। और क्रांति के लिए बाधा,
सबसे बड़ी बाधा अगर है तो कर्म का सिद्धांत है। और कर्म के सिद्धांत
में जयप्रकाश जैसा आदमी भी भरोसा करता है। आज दो—ढाई साल से निरंतर जसलोक अस्पताल
के डाक्टर प्राणपण से जयप्रकाश को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन इस बार
जयप्रकाश जब पटना लौटे और जब उनका स्वागत किया गया एयरपोर्ट पर तो उन्होंने क्या
कहा मालूम है! उन्होंने कहा, गंगा मइया की कृपा से मैं बच
गया!
जसलोक अस्पताल के डाक्टर मेहनत करें
और बचते हैं गंगा मइया की कृपा से! गंगा मइया तो उनके मकान के पीछे से ही बहती है, फिर जसलोक के लोगों को क्यों परेशान करते हो? जब जस
गंगा मइया का होना है तो जसलोक पर कृपा करो। तुम्हारे आने से जसलोक की हालत खराब हो
जाती है, क्योंकि तब फिर जसलोक जसलोक नहीं रह जाता, दिल्ली से घिर जाता है। दिल्ली में दो सभाएं हैं—राज्यसभा और लोकसभा। फिर
एक तीसरी सभा शुरू हो जाती है—जसलोक—सभा। क्योंकि फिर सब नेता यहां, सब खुशामदी यहां। और जस है गंगा मइया का।
जयप्रकाश जैसा आदमी कहे कि गंगा मइया
के कारण बचा हूं, तो इस मुल्क में क्रांति होगी? गंगा
मइया क्रांति करेंगी? गंगा मइया क्रांति होने देंगी? गंगा मइया तो सारी क्रांति—विरोधी शक्तियों का अड्डा हैं।
नहीं, इस देश के पास
क्रांति के मूल आधार नहीं हैं। और सबसे बड़ी बुनियादी जो दिक्कत है, वह है कर्म का सिद्धांत। हर आदमी अपने कर्म का फल भोग रहा है, क्रांति का सवाल कहां है? बिरला अमीर हैं—पुण्यों के
कारण। और तुम गरीब हो—अपने पापों के कारण। बात खतम हो गई। हमने तो हल कर लिया है
मसला, अब क्रांति कहां! अब तो क्रांति का मतलब यह होगा कि
कर्म के सिद्धांत के विपरीत जाओ। और कर्म के सिद्धांत के विपरीत जरा सम्हल कर जाना,
क्योंकि वह परमात्मा के विपरीत जाना है। उसके फल भयंकर होंगे। नरक
में सड़ोगे सदियों तक। नरक में जलते हुए कड़ाहों में चढ़ाए जाओगे।
इस देश में पंडित ने और राजनीतिज्ञ ने
समझौता कर रखा है; क्रांति हो नहीं पाती।
मैं भी कहता हूं कि कर्म का सिद्धांत, जिस तरह से अब तक निरूपित किया गया है, गलत है। उसे
एक नया अर्थ दिया जाना चाहिए। और वह अर्थ है—तत्क्षण का, आने
वाले जीवन का नहीं। अभी तुम जो करोगे, अभी पाओगे। प्रतिपल
जीओ! क्या भविष्य, क्या अगला जन्म, क्या
पिछला जन्म?
और इसीलिए उन्होंने कहा: खाओ, पीओ और आनंद से रहो।
प्रतिपल जीओ! मौज से जीओ! जीवन को एक
व्यर्थ व्यथा मत बनाओ। और जीवन की छोटी—छोटी चीजों में धन्यता अनुभव करो—खाने में
भी, पीने में भी! प्रत्येक जीवन की छोटी से छोटी चीज को पवित्रता दो, पुण्यता, पावनता। जीवन का प्रत्येक कृत्य धार्मिक हो
उठे। खाना—पीना भी पूजा बन जाए।
कबीर ने कहा है: खाऊं—पिऊं सो सेवा!
कि मैं खुद खाता—पीता हूं, यह परमात्मा की सेवा है। क्योंकि वही तो भीतर बैठा
है। उठूं—फिरूं सो परिक्रमा। मैं उठता हूं, चलता हूं,
फिरता हूं—यह उसकी परिक्रमा हो गई। मैं कोई विश्वनाथ के मंदिर जाने
वाला नहीं हूं—कबीर ने कहा—कि परिक्रमा करूं परमात्मा की जाकर। मेरा उठना, बैठना, चलना उसकी परिक्रमा है, क्योंकि वह सब जगह मौजूद है। उसके लिए तलाशने कहीं जाने की कोई जरूरत नहीं
है।
और मैं जिस धर्म का सूत्रपात कर रहा
हूं, वह धर्म इस जीवन के सारे सुखों को स्वीकार करता है,
त्याग नहीं करता। त्याग में मेरा भरोसा नहीं है। त्याग हार चुका।
त्याग काफी कोशिश कर चुका। हमने काफी समय दिया त्याग को। कम से कम दस हजार साल का
इतिहास हमने त्याग के लिए दिया। और परिणाम क्या है? हाथ में
क्या आया?
मैं त्यागवादी नहीं हूं। लेकिन इसका
अर्थ यह भी नहीं कि मैं भोगवादी हूं। भोग को प्रार्थना बनाओ। भोग को ध्यान बनाओ।
तुम्हारे जीवन का भोग भी परमात्मा को अर्पित करो। और भोग को सीढ़ी बनाओ—परमात्मा के
मंदिर की सीढ़ी। त्याग को तुमने सीढ़ी बना कर देख लिया, सीढ़ी नहीं बनी। मैं कहता हूं: भोग को परमात्मा के मंदिर की सीढ़ी बनाओ। और
भोग परमात्मा के मंदिर की सीढ़ी बनेगा, क्योंकि अस्तित्व,
पदार्थ और अध्यात्म दोनों की एकता है।
तो अस्तित्व एकता होनी चाहिए विपरीत
की। तुम भोगो, लेकिन ऐसे भोगो कि अछूते रहो। खाओ—पीओ, फिर भी साक्षी रहो। खाना—पीना ही मत हो जाना। उतने पर ही जो समाप्त हो गया,
वह अज्ञानी है, वह नास्तिक है, वह चार्वाकवादी है। जो उसके विपरीत भाग गया, वह
भगोड़ा है, पलायनवादी है। भोगो और फिर भी साक्षी रहो। भोग के
बीच जो साक्षी रह सकता है, तूफान के बीच उसने शांत रहने की
कला सीख ली है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान! धन और पद
के संबंध में आपके क्या विचार हैं?
न तो
धन बुरा है, न पद। ध्यान हो तो सब सुंदर है; ध्यान न हो तो कुछ भी सुंदर नहीं है। ध्यान हो तो धन भी सृजनात्मक है।
ध्यानी के पास धन हो तो जगत का हित ही होगा, अकल्याण नहीं,
कल्याण ही होगा, मंगल ही होगा। क्योंकि धन
ऊर्जा है। धन शक्ति है। धन बहुत कुछ कर सकता है। मैं धन—विरोधी नहीं हूं। मैं उन
संत—महात्माओं की कतार का हिस्सा नहीं हूं जो तुमको समझाते रहे कि बचो धन से! भागो
धन से! वे बातें कायरता की बातें हैं।
मैं कहता हूं: जीओ धन में, लेकिन ध्यान का विस्मरण न हो। ध्यान भीतर रहे, धन
बाहर, फिर कोई चिंता नहीं है। फिर तुम कमलवत हो। फिर पानी
में रहोगे और पानी तुम्हें छुएगा नहीं।
मैं कोई पद का भी दुश्मन नहीं हूं।
आखिर दुनिया चलनी है तो लोगों को कहीं न कहीं तो होना होगा। कहीं न कहीं तो होना
ही होगा।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दोपहर घर आया।
जल्दी आ गया। आना था सांझ को। जैसे ही भीतर आया, उसने किसी का छाता
रखा देखा। छाता उठा कर देखा, चंदूलाल का नाम लिखा है। जूते
भी किसी के देखे, चंदूलाल के ही हैं। पुराना परिचित मित्र।
भीतर गया। पत्नी थोड़ी घबड़ाई सी है। उसने पूछा, चंदूलाल कहां
है?
पत्नी ने कहा, कैसे चंदूलाल? यहां कौन चंदूलाल?
उसने एक—एक अलमारी खोल कर देखी। फ्रिज
में छिपे थे चंदूलाल, तो उसने फ्रिज खोला। चंदूलाल उकड़े—सिकुड़े उसके भीतर
बैठे थे। एक तो ठंड और घबड़ाहट। मुल्ला ने कहा, चंदूलाल,
तुम और यहां!
चंदूलाल बाहर निकल आया और उसने कहा कि
भई, कहीं न कहीं तो होना ही पड़ेगा। आखिर जब हूं तो जैसे वहां वैसे यहां,
कहीं न कहीं तो होना ही पड़ेगा। इसमें इतना तूलत्तवाल मचाने की क्या
जरूरत है?
प्रत्येक व्यक्ति को कहीं न कहीं तो
होना ही पड़ेगा। इतना बड़ा संसार है, इसका विस्तार,
इसका काम, इसकी व्यवस्था...किसी को कहीं न
कहीं तो होना ही पड़ेगा। बस इतना ही खयाल रहे, पद से
तादात्म्य न हो। तुम चाहे राष्ट्रपति हो जाओ तो भी राष्ट्रपति मत बन जाना। जानना—एक
काम है, जो पूरा किया। जब राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठो तो
राष्ट्रपति का काम कर देना और जैसे ही कुर्सी से नीचे उतरो और घर आओ, भूल—भाल जाना सब। दुकान पर दुकानदार हो जाना, घर आकर
सब भूल—भाल जाना। लोग भूलते ही नहीं।
मैं कलकत्ता में एक घर में मेहमान
होता था। मित्र थे मेरे, हाईकोर्ट के जज थे। उनकी पत्नी ने मुझसे कहा कि और
किसी से मैं कह भी नहीं सकती, लेकिन आपसे कहूंगी और आप ही
इन्हें समझाइए। हम परेशान हो गए हैं। ये घर से जाते हैं तो घर में हलकापन आ जाता
है। बच्चे हंसने लगते हैं, खेलने लगते हैं, मैं भी प्रसन्न हो जाती हूं। और जैसे ही इनकी कार आकर पोर्च में रुकती है
कि एकदम सन्नाटा फैल जाता है; बच्चे एक—दूसरे को खबर कर देते
हैं कि डैडी आ गए। मैं भी घबड़ा जाती हूं। एकदम घर में उदासी छा जाती है, मातम छा जाता है।
मैंने कहा, मैं समझा नहीं, बात क्या है?
उसने कहा, बात यह है कि ये चौबीस घंटे न्यायाधीश बने बैठे रहते हैं। ये मेरे साथ
बिस्तर पर भी रात जब सोते हैं तो न्यायाधीश की तरह। मेरे पति नहीं हैं ये, ये न्यायाधीश हैं। और इनकी हर बात की आज्ञा वैसे ही मानी जानी चाहिए,
जैसे कि अदालत में ये खड़े हों। इनके सामने हर—एक मुजरिम है। बच्चे
ऐसे खड़े होते हैं डरे हुए कि कोई अपराधी खड़े हों, कि चोर—बदमाश
खड़े हों। इन्होंने ऐसा रोब बांध रखा है घर में, इससे हम सब
परेशान हैं और ये भी सुखी नहीं, क्योंकि इतने तनाव में रहते
हैं।
यह ढंग न हुआ पद पर होने का। यह
पागलपन हुआ।
एक नेताजी पागलखाने में भाषण देने गए।
भाषण के बाद पागलखाने के इंचार्ज ने बतलाया कि आज आपके भाषण के बाद पागल जितने खुश
नजर आ रहे हैं, इतना प्रसन्न तो मैंने उन्हें अपनी पूरी जिंदगी में
नहीं देखा। पच्चीस साल मुझे नौकरी करते हो गए।
नेताजी यह सुन कर मुस्कुराए, बोले, भाषण ही आज मैंने ऐसा दिया था कि अच्छे—अच्छे
तक बिना प्रभावित हुए नहीं रह सकते; फिर ये तो बेचारे पागल
हैं।
ऐ भाई, जरा यहां आओ—एक पागल
को बुला कर राजनीतिज्ञ ने पूछा—तुम लोग आज इतने खुश क्यों नजर आ रहे हो?
पागल ने कहा, खुश क्यों न हों नेताजी, हमारा महासौभाग्य कि आप
यहां पधारे। यह हमारा इंचार्ज तो एकदम पागल है, जब कि आप
बिलकुल हमारे जैसे लगते हैं।
पद तुम्हें पागल न बनाए। पद तुम्हें
विक्षिप्त न करे। पद का उपयोग हो। तुम पद के साथ तादात्म्य न कर लो। आखिर कुछ
लोगों को तो काम करना ही पड़ेगा, किसी को कलेक्टर होना पड़ेगा,
किसी को कमिश्नर होना पड़ेगा, किसी को गवर्नर
होना पड़ेगा, किसी को स्टेशन मास्टर, किसी
को हेडमास्टर, किसी को प्रिंसिपल, किसी
को वाइस चांसलर...
ये काम तो सब चलते रहेंगे। लेकिन
ध्यानी इन कामों से तादात्म्य नहीं करता। इन कामों के कारण अकड़ नहीं जाता। ध्यानी
जानता है कि जूता बनाने वाला चमार उतना ही उपयोगी काम कर रहा है जितना राष्ट्रपति।
इसलिए अपने को कुछ श्रेष्ठ नहीं मान लेता, क्योंकि जूता बनाने
वाला उतना अनिवार्य है जितना कोई और। इसलिए कोई हायरेरकी, कोई
वर्ण—व्यवस्था पैदा नहीं होती कि मैं ऊपर, तुम नीचे; कोई सीढ़ियां नहीं बनतीं। सारे लोग, समाज के लिए जो
जरूरी है, उस काम में संलग्न हैं। जिससे जो बन रहा है,
जिसमें जिसको आनंद आ रहा है, वह कर रहा है।
जिस दिन पद तुम पर हावी न हो जाए उस दिन पद में कोई बुराई नहीं।
और धन तुम्हारे जीवन का सर्वस्व न हो
जाए। तुम धन को ही इकट्ठा करने में न लगे रहो। धन साधन है, साध्य न बन जाए। धन के लिए तुम अपने जीवन के और मूल्य सब गंवा न बैठो। तो
धन में कोई बुराई नहीं है। मैं धन का निंदक नहीं हूं। मैं तो चाहूंगा कि दुनिया
में धन खूब बढ़े, खूब बढ़े, इतना बढ़े कि
देवता तरसें पृथ्वी पर जन्म लेने को!
लेकिन धन सब कुछ नहीं है। कुछ और भी बड़े
धन हैं—प्रेम का, सत्य का, ईमानदारी का, सरलता का, निर्दोषता का, निर—अहंकारिता
का। कुछ और भी धन हैं—धन से भी बड़े धन हैं! कोहिनूर फीके पड़ जाएं, ऐसे भी हीरे हैं—हीरे वे भीतर के हैं! सब कुछ धन न हो जाए।
मैंने एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन से
पूछा, नसरुद्दीन, सुना कि तुमने नई
फर्म बनाई! कितने साझीदार हैं?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, अब आपसे क्या छिपाना! चार तो अपने ही परिवार के लोग हैं और एक पुराना
मित्र। इस तरह पांच पार्टनर हैं।
मैंने पूछा, फर्म का नाम क्या रखा है?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, मेसर्स मुल्ला एंड मुल्ला एंड मुल्ला एंड मुल्ला एंड अब्दुल्ला कंपनी।
मैंने कहा, नाम तो बड़ा अच्छा है, बड़ा सुंदर, मगर यह अब्दुल्ला कहां से बीच में आ टपका!
टपकाना ही पड़ा—दुखी स्वर में मुल्ला
नसरुद्दीन बोला—पैसा तो सब उसी बेवकूफ का लगा है।
यहां मित्रता सब पैसे की है, संबंध सब पैसे के हैं। धन का यहां एक ही अर्थ है—लूटो जितना लूट सको,
जिससे जितना लूट सको। तो फिर धन रोग है।
धन पैदा करो! धन सृजन करो! धन को
लूटने का नुस्खा बहुत पुराना हो गया। और इस देश में अभी वही नुस्खा चल रहा है। अभी
हम धन का एक ही अर्थ लेते हैं कि दूसरे की जेब से निकाल लें। इससे कुछ हल नहीं
होता; उसकी जेब से तुम्हारी जेब में आ जाता है, तुम्हारी जेब से दूसरा कोई निकाल लेता है, ऐसे जेबों
में धन घूमता रहता है, लेकिन धन पैदा नहीं होता। अभी हमने यह
नहीं सीखा कि धन का सृजन किया जाता है। अभी धन हमारे लिए शोषण का ही अर्थ रखता है।
जो सच में समृद्ध देश हैं, जैसे अमरीका, उन्हें पता है कि धन शोषण नहीं है,
सृजन है। धन पैदा किया जाता है। दो सौ वर्षों में अमरीका ने सारी
दुनिया को पीछे छोड़ दिया! हम दस हजार साल से चेष्टा में लगे हैं और भूखे मर रहे
हैं और सड़ रहे हैं—और अमरीका दो सौ वर्षों में शिखर पर पहुंच गया! क्या कारण होगा?
रूस भी, पचास—साठ साल क्रांति गुजर चुकी,
तो भी अमीर नहीं हो पाया है, तो भी गरीब है।
अमीर मिटा दिए गए, इसलिए गरीबों को अब ज्यादा बेचैनी नहीं
है। क्योंकि—यह बड़े मजे की बात है, दुनिया बड़ी अजीब है—यहां
अपनी गरीबी नहीं खलती, यहां दूसरे की अमीरी खलती है! इस देश
में भी अगर बिड़ला, टाटा, डालमिया,
साहू, सिंघानिया, दस—बीस
नाम हैं, ज्यादा तो हैं नहीं, इनको
मिटा डालो तो गरीब बड़े प्रसन्न होंगे; अमीर नहीं हो जाएंगे,
मगर बड़े प्रसन्न होंगे कि आ गया समाजवाद। गरीबी बंट गई। अमीरी तो है
क्या जो बांटोगे? तुम्हारे बिड़ला—टाटा कहां खो जाएंगे,
पता नहीं चलेगा। इनकी सारी संपत्ति भी बांट दोगे तो एक—एक आदमी के
हाथ में क्या पड़ेगा?
मैंने सुना है, राकफेलर से एक भिखारी ने एक दिन आकर कहा कि तुमने बहुत लूटा। यह सारी
संपत्ति बंट जानी चाहिए। मैं भिखारी ही नहीं हूं, मैं
कम्युनिस्ट भी हूं।
राकफेलर ने कहा कि ठीक, तू हिसाब लगा। इतनी मेरे पास संपत्ति है, दुनिया में
कितने लोग हैं?
उसने कहा कि दुनिया में कोई तीन अरब
आदमी हैं।
एक—एक आदमी के हिस्से में कितना पड़ेगा?
एक—एक डालर, उस आदमी ने कहा।
राकफेलर ने एक डालर उसको निकाल कर
दिया और कहा कि तू रस्ता लग, तेरा हिस्सा ले। अब दोबारा यहां
मत आना। जो भी हिस्सा लेने आएगा उसको दे दूंगा।
मगर एक—एक डालर अगर तीन अरब आदमियों
के हाथ भी लग जाए तो कितनी देर चलने वाला है? इस तरह अमीरी को
बांटने से कोई अमीरी नहीं आने वाली है।
रूस गरीब का गरीब है; साठ साल की मेहनत के बाद भी बहुत निम्न तल पर जी रहा है। अमरीका का गरीब
भी रूस के बड़े से बड़े अधिकारी, बड़े से बड़े शक्तिशाली व्यक्ति
से ज्यादा समृद्ध है। कारण क्या है? अमरीका ने एक नई तरकीब
खोजी। उसने धन का सृजन करना सीखा। धन सृजन करना चाहिए।
यहां लोग आते हैं—खासकर भारतीय मित्र
जब यहां आते हैं—तो उनको यही हैरानी होती है कि यह सब चल कैसे रहा है?
यह तो अभी कुछ भी नहीं है। तुम दो—चार
साल में देखोगे, दस हजार संन्यासियों की बस्ती और ऐसी समृद्ध जैसी कि
कोई बस्ती दुनिया में कहीं न हो। धन पैदा किया जा सकता है। और हमारी भूमि किसी
भूमि से गरीब नहीं है। हमारा देश किसी देश से गरीब नहीं है। मगर हम मूढ़ हैं और हम
मूढ़तापूर्ण बातों को बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं।
जैसे कि मैं अगर रोज झाड़ के नीचे बैठ
कर दो घंटे चरखा कातूं तो तुम मुझको महात्मा मानोगे, हालांकि मैं मूढ़ता कर
रहा हूं। चरखा तो बिजली कात सकती है, मैं क्यों कातूं?
और मुझसे बहुत बेहतर कात सकती है। और दो घंटे में जो मैं कर सकता
हूं वह बिजली नहीं कर सकती। मैं वह करूं जो मैं कर सकता हूं; बिजली को वह करने दूं जो बिजली कर सकती है। मगर अगर मैं चरखा कात—कात कर अपना
कपड़ा बनाऊं और अपनी चादरें बनाऊं...अहा! तुम्हारा दिल बड़ा प्रसन्न होगा। तुम्हारी
मूढ़ता इतनी पुरानी हो गई है कि तुम्हें होश ही नहीं है कि तुम क्या कर रहे हो। अगर
मैं अधनंगा रहने लगूं तो तुम कहोगे: हां, ये हैं महात्मा! और
जब तुम अधनंगों को महात्मा समझोगे तो तुमको अधनंगा रहना पड़ेगा, क्योंकि तुम जिसको आदर दोगे वैसे ही तुम रहोगे। तुम अगर उपवास करने वालों
को आदर दोगे तो तुम्हें भूखा मरना पड़ेगा, क्योंकि तुम भूख का
समादर कर रहे हो।
महात्मा गांधी ने दरिद्र को एक नया
नाम दे दिया—दरिद्रनारायण। जब तुम दरिद्र को नारायण कहोगे तो मिटाओगे कैसे? भगवान को कोई मिटाता है? भगवान तो बचाना पड़ते हैं,
उनकी तो रक्षा करनी पड़ेगी। दरिद्र को मिटाओगे कैसे? अछूत नाम अच्छा था; उसमें पीड़ा थी, उसमें दंश था, उसमें कांटा चुभता था। अछूत को मिटाना
ही पड़ेगा। दरिद्रनारायण की तो पूजा करनी होती है। दरिद्रनारायण के तो पैर दबाओ। और
उसको दरिद्र रखो, नहीं तो वह नारायण नहीं रह जाएगा; यह भी खयाल रखना। क्योंकि अब लक्ष्मीनारायण के दिन गए, अब दरिद्रनारायण के दिन हैं।
हम गरीबी की पूजा करेंगे तो कैसे अमीर
होंगे? और हम धन का तिरस्कार करेंगे...और तुम्हारे महात्मा
यही समझाते रहे कि धन का तिरस्कार करो! धन पाप है, महापाप
है! जब धन महापाप है तो धन पैदा होना बंद हो गया। कौन करे अपराध? कौन सड़े नरकों में?
मैं तुमसे कहता हूं: धन में कोई पाप
नहीं है। धन का सृजन करना उतना ही पुण्य है जितना काव्य का सृजन करना, जितना चित्र का सृजन करना, जितना संगीत का सृजन
करना। शायद ज्यादा बड़ा पुण्य है धन का सृजन करना, क्योंकि धन
हो तो और सब हो सकता है—काव्य हो सकता है, संगीत हो सकता है,
ध्यान हो सकता है। धन हो तो हम कुछ और ऊंची खोजों में लग सकते हैं।
पेट भरा हो तो ही वे खोजें हो सकती हैं। भूखे भजन न होहिं गोपाला।
मेरा कोई विरोध धन से नहीं है, कोई विरोध पद से नहीं है। पद से तादात्म्य न करना और धन को सिर्फ शोषण से
मत पैदा करना। धन पैदा करने की, सृजन करने की कीमिया खोजो।
अब तो कीमिया हमारे हाथ में है; मशीनें हैं, टेक्नॉलॉजी है। जमीन से हम उतना ले सकते हैं जितना चाहिए। गाएं उतना दूध
दे सकती हैं जितना चाहिए। मगर उसकी हमें फिक्र ही नहीं है। यहां कोई उपवास नहीं
करता कि गायों से ज्यादा दूध पैदा किया जाए। यहां उपवास करते हैं लोग कि गायों की
हत्या न की जाए।
मैं नहीं कहता कि गायों की हत्या करो।
यहां आदमी जी नहीं पा रहा है, तुम गायों को क्या जिलाओगे!
विनोबा भावे का उपवास...मरी हुई, हड्डी—हड्डी गाएं जगह—जगह
खड़ी दिखाई पड़ेंगी। यह उनको तुम दुख दोगे, सुख नहीं दे सकते।
आदमी का पेट नहीं भर रहा है, उनका तुम पेट कैसे भरोगे?
हमारी गाएं दुनिया में सबसे कम दूध
देती हैं। और हम दस हजार साल से गऊमाता के भक्त हैं। बड़ी हैरानी की बात है! हम बड़े
चमत्कारी लोग हैं! जय गोपाल, जय गोपाल। गोपाल कृष्ण के गीत गा
रहे हैं दस हजार साल से। और गऊएं? किसी की गऊ अगर तीन पाव
दूध देती है तो वह समझता है बहुत दूध है। स्वीडन में कोई गाय अगर तीन पाव दूध दे,
कल्पना के बाहर है। चालीस किलो, पचास किलो,
साठ किलो सहज ही एक गाय दूध देती है। पश्चिम में कोई भैंस का दूध
नहीं पीता। कोई जरूरत नहीं है भैंस का दूध पीने की, गाएं
इतना दूध देती हैं!
सारे तकनीक उपलब्ध हैं। मगर मूढ़ों के
हाथ में तकनीक भी क्या करे! मशीन से काम लो। मगर तुम्हारे महात्मा मशीन के खिलाफ
हैं। महात्मा गांधी मशीन के खिलाफ हैं। वे तो रेलगाड़ी के भी खिलाफ हैं और
टेलीग्राफ के भी खिलाफ हैं। और तुम अगर इस तरह की बातों को मान कर चलते रहे तो
दरिद्र रहोगे, दीन रहोगे। मशीनों का उपयोग करो। मशीनों का जितना
उपयोग हो उतना अच्छा। क्योंकि मशीनें जितनी ज्यादा काम में आएं, आदमी का उतना श्रम बचता है। और आदमी का श्रम बचे तो किन्हीं ऊंचाइयों पर
लगे, किन्हीं नई खोजों में लगे, नये
आविष्कार करे। पृथ्वी सोना उगल सकती है, लेकिन बिना मशीन के
यह नहीं होगा। देश का औद्योगीकरण होना चाहिए, यंत्रीकरण होना
चाहिए। देश समृद्ध हो। और जितना समृद्ध हो उतना ही धार्मिक हो सकता है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान! मैं एक
ज्योतिषी के पास गया था। उसने मेरा हाथ देख कर कहा कि तुम सत्य के खोजी हो और
तुम्हें सदगुरु भी मिल गया है। साधना जारी रखो, एक दिन श्रेय को भी अवश्य उपलब्ध होओगे।
मैं ज्योतिषी या
ज्योतिष पर विश्वास नहीं करता, लेकिन उसकी बातें तो
सभी सत्य थीं। इसका रहस्य क्या है? आप कुछ कहें।
सत्यानंद!
थोड़ा तो बुद्धि का उपयोग करो। गेरुए वस्त्र में किसी ज्योतिषी के पास जाओगे और अगर
वह तुमसे कह दे कि तुम सत्य के खोजी हो, तो इसमें कुछ ज्योतिष
का चमत्कार है? माला मेरी लटकाए हुए हो, ज्योतिषी अंधा था क्या? तुम समझ रहे तुम्हारा हाथ
देख रहा था; वह देख रहा होगा माला। स्वभावतः वह कह देगा कि
सदगुरु मिल गया है, अब साधना जारी रखो। श्रेय को भी अवश्य
उपलब्ध होओगे।
इसमें कुछ ज्योतिष की जरूरत है? ज्योतिषी इसी तरह के लटकों पर तो जीते हैं। किसी का हाथ देख कर कहते हैं
कि धन तो बहुत आता है, लेकिन टिकता नहीं। किसके हाथ में
टिकता है? कभी तुमने किसी के हाथ में धन टिकता देखा? ज्योतिषी लोगों को देख कर कहते हैं: जीवन में चेष्टा तो बहुत करते हो,
मगर सफलता हाथ नहीं लगती। किसको लगती है? किसी
को नहीं लगती। जिनको तुम समझते हो कि लग गई, उनको भी नहीं
लगती। क्योंकि वे और आगे के लिए सफल होने के लिए तैयारी कर रहे हैं। जो डिप्टी
मिनिस्टर हो गया उसे मिनिस्टर होना है, जो मिनिस्टर हो गया
उसको चीफ मिनिस्टर होना है। तुमको लगता है कि फलां आदमी देखो डिप्टी मिनिस्टर हो
गया, सफल हो गया। मगर उसको थोड़े ही लगता है। वह कहता है कि
डिप्टी हुए, यह भी कोई होना हुआ! अरे मिनिस्टर कब होंगे?
श्रम में लगा है। जो मिनिस्टर है, वह सोचता है,
वह सफल हो गया। लेकिन मिनिस्टर चीफ मिनिस्टर होने के पीछे पड़ा हुआ
है। और कतार का कोई अंत नहीं है।
ज्योतिषी इन सीधी—सादी बातों का उपयोग
करता है। वह कहता है: चेष्टा तो बहुत करते हो, मगर सफलता हाथ नहीं
लगती। दुश्मन बाधा डाल रहे हैं।
किसके दुश्मन नहीं हैं? जिसकी स्पर्धा है उसके दुश्मन हैं। और दुश्मनों को तो तुम समझते ही हो कि
उनकी बाधा के कारण ही तो अड़चन आ रही है, नहीं तो तुम तो कभी
के सफल हो जाते। तुम्हारी प्रतिभा, तुम्हारी योग्यता,
तुम्हारी महिमा! लेकिन दुष्ट बाधाएं डाल रहे हैं। सारे दुष्ट
तुम्हारे पीछे पड़े हैं। शैतान तुम्हें बढ़ने ही नहीं देता। नहीं तो तुम जैसा
पुण्यात्मा!
इससे क्या तुम सोचते हो कि ज्योतिषी
कुछ कह रहा है? ज्योतिषी सभी को कहते हैं कि जीवन में तुम्हारे बड़ा
दुख है। और सभी राजी हो जाते हैं। किसके जीवन में सुख है!
अब तुम मुझसे पूछते हो कि आप कुछ कहें
इस रहस्य पर।
रहस्य इसमें कुछ भी नहीं है। मैं
तुमसे एक कहानी कहता हूं।
महानगरी दिल्ली में बड़ा प्रसिद्ध एक
चमचा था, जिसका कि ज्योतिष में बिलकुल भरोसा नहीं था। फिर भी
वह एक दिन अपना हाथ दिखाने ज्योतिषी के पास पहुंच गया। उसने सोचा, चलो इसी बहाने आज यह परीक्षण भी हो जाए कि ज्योतिष में कुछ है भी या यूं
ही बकवास है। तो चमचा ज्योतिषी के पास पहुंचा, ज्योतिषी ने
हाथ देखा और जैसा कि ज्योतिषी शुरू करते हैं, उसने चमचे के
संबंध में बताना शुरू किया। सबसे पहले ज्योतिषी बोला, बच्चे,
तेरा हाथ बता रहा है कि तू किसी महान नेता का चमचा है और वह नेता
शीघ्र ही प्रधानमंत्री होने वाला है।
चमचा बोला, बकवास बंद करो। यह तो कोई अंधा भी बता सकता है कि मैं किसी नेता का चमचा
हूं। देख नहीं रहे, यह चूड़ीदार पाजामा, यह अचकन, यह गांधी टोपी! कोई काम की बात बताओ,
कोई ऐसी बात बताओ कि जिससे सिद्ध हो कि ज्योतिष भी कोई चीज है।
ज्योतिषी ने आगे बताते हुए कहा, बच्चे, तेरे हाथ की रेखाएं बता रही हैं कि तू
शादीशुदा है।
चमचा बोला, रहने दो महाराज, अपनी बकवास को आगे न बढ़ाओ तो अच्छा
है। अरे कोई भी बता सकता है कि मैं शादीशुदा हूं। देख नहीं रहे, अभी—अभी बीबी से पिट कर चला आ रहा हूं! ये चेहरे पर चोटों के निशान! इसमें
ज्योतिष क्या है?
ज्योतिषी आगे बोला, बच्चे, तेरे हाथ की रेखाएं कहती हैं कि तेरे दो
बच्चे हैं।
चमचा बोला, अब तो हद्द हो गई महाराज! अरे मेरे दो नहीं तीन बच्चे हैं।
ज्योतिषी बोला, यह तेरी गलतफहमी है बच्चे। बच्चे तो हैं तीन जरूर, मैं
मना नहीं करता; लेकिन असलियत जो है, सचाई
जो है, वह यही है कि तेरे दो बच्चे हैं, एक बच्चा नेताजी का है।
ज्योतिषी तरकीब निकाल लेते हैं। अगर
तुम...कभी भूल—चूक हो जाए तो उसका भी गणित है कि भूल—चूक के कैसे बाहर होना।
सीधी—सादी बात है सत्यानंद। ज्योतिषी
के पास जाते ही क्यों हो? ज्योतिषी के पास कौन जाता है? जिसे
भविष्य की चिंता है। और मैं तुम्हें सिखा रहा हूं: छोड़ो अतीत, छोड़ो भविष्य। जीओ वर्तमान में। यही क्षण एकमात्र सत्य है। अतीत जा चुका,
भविष्य अभी आया नहीं, दोनों असत्य हैं। सत्य
है केवल वर्तमान। इस क्षण को आह्लादित होकर जीओ। क्या चिंता पड़ी है कल की? कल की चिंता वही करता है, जिसका आज खाली—खाली है,
जिसका आज भरा नहीं है। वह सोचता है शायद कल सब ठीक हो जाए।
मैं तुमसे कहता हूं: आज ही सब ठीक है।
जरा आंख खोलो, जरा जागो! इस क्षण ही कुछ कमी नहीं है। इसलिए क्यों
जाओगे ज्योतिषी के पास! नासमझ ही जाते हैं। और स्वभावतः नासमझ सब जगह लूटे जाएंगे।
ज्योतिष जैसी बातें नासमझों के कारण
चलती हैं। तुम उनको चला रहे हो। तुम जिम्मेवार हो। समझदार वर्तमान क्षण में जीएगा।
जो करेगा उसे ऐसी तल्लीनता से करेगा, ऐसा डूब कर करेगा कि
कल का सवाल ही नहीं उठता, कल का विचार ही नहीं उठता। इसको ही
मैं ध्यान कहता हूं—इस निर्विचार तल्लीनता को ध्यान कहता हूं। ध्यान की फिक्र करो,
हाथ की रेखाओं में क्या रखा है! मैं तुम्हें आत्मा की रेखाएं पढ़ना
सिखा रहा हूं, और तुम हाथ की रेखाओं की बात कर रहे हो!
मैंने तो सुना है कि दो ज्योतिषी पास
ही पास रहते थे। रोज सुबह एक—दूसरे को मिलते, नमस्कार करते;
एक—दूसरे का हाथ देखते कि भई आज धंधा कैसा चलेगा और एक—दूसरे को
चवन्नी भेंट कर देते। हर्जा कुछ था ही नहीं। दोनों को चवन्नी मिल जाती और दोनों एक—दूसरे
का हाथ देख देते और एक—दूसरे के संबंध में भविष्यवाणी कर देते।
जिनको तुम ज्योतिषी कहते हो वे भी
चिंतातुर हैं भविष्य के लिए।
मैं जयपुर में था, एक ज्योतिषी को मित्र पकड़ लाए। बड़ा ज्योतिषी! एक हजार रुपया उसकी फीस!
मित्रों ने कहा कि आपका हाथ दिखाना है। उस ज्योतिषी ने कहा, मेरी
फीस।
मैंने कहा, फीस तुम्हारी मिलेगी। हाथ तुम देखो। अब आ ही गए हो तो तुम्हें खाली नहीं
लौटाऊंगा।
ज्योतिषी बहुत खुश हुआ। मेरे आस—पास
उसने देखे जयपुर के बड़े धनपति बैठे थे। सोहनलाल दूगड़, वहां के एक बड़े धनपति, मेरे बगल में ही बैठे थे। बड़ी
गाड़ियां बाहर रुकी थीं। उसने सोचा कि हजार रुपये की क्या दिक्कत है, मिल ही जाएगा। हाथ देखा, देख—दाख कर उसने कहा कि अब
चलता हूं, मेरी फीस?
मैंने कहा, तुम्हें इतना भी पता नहीं, अपना हाथ तो घर देखा होता
कि यह आदमी फीस देने वाला नहीं है। और मेरा हाथ देख कर भी तुमको पता न चला! शुरू
में पहले यह पता लगाया करें कि यह आदमी फीस देगा कि नहीं देगा। क्या खाक ज्योतिष
का काम करते हो!
वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया। उसकी कुछ
सूझ में न आया कि अब क्या करूं, क्या न करूं! मैंने कहा, तुम असली ज्योतिषी नहीं हो। तुम पढ़ी—पढ़ाई, रटी—रटाई
बातें दोहरा रहे हो। सीखा—साखा! और सीखे सपूत सीढ़ियां नहीं चढ़ते। तुम पहले सीखो,
ज्योतिष की कला सीखो। और अगर न सीख सको तो मेरे पास आओ, मैं तुम्हें सिखाऊंगा।
तुम जिस ज्योतिषी के पास गए थे, सत्यानंद, जरा उसकी शक्ल तो देखते कि वहां बारह बज
रहे हैं! वह तुम्हारा हाथ देख रहा है, तुम्हारा भविष्य बता
रहा है! कल की उसकी रोटी का ठिकाना नहीं है। वह तुम्हारा हाथ देख रहा था, तुम जरा उसका चेहरा देख लेते, बात खत्म हो जाती।
कितने पैसे लिए उसने तुमसे? चार आने, आठ
आने, बारह आने, रुपया...रुपये—रुपये
में जो हाथ देख रहा है वह कुछ जानता होगा भविष्य? भविष्य
जानने वाला इतना सस्ता मिल जाएगा?
उसे कुछ पता नहीं है। अब की बार जाओ, एक चांटा रसीद करना और कहना कि महाराज, कम से कम
इतना तो खयाल रखा करें कि कौन आदमी मारेगा—पीटेगा, कौन झंझट
करेगा खड़ी!
खुद भी जागो, उसको भी जगाओ!
मगर सोए लोग सोए लोगों की दुकानें चला
रहे हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक बार अपने एक
पुराने मित्र सरदार विचित्तर सिंह को दावत पर बुलाया। खाना—पीना हो रहा था कि
एकाएक चावल का एक दाना नसरुद्दीन की मूंछों में फंस गया। नसरुद्दीन के नौकर
बल्लेखां को यह दिखाई दे गया, लेकिन मालिक को सीधे—सीधे कहना
कि आपकी मूंछ में चावल फंसा है, ठीक नहीं था। सो उसने दूर से
ही नसरुद्दीन से कहा, हुजूर, शाख पर
बुलबुल! सुनते ही नसरुद्दीन ने अपनी अंगुली के एक झटके से मूंछ का दाना नीचे गिरा
दिया।
सरदार विचित्तर सिंह तो पूरी घटना बड़ी
हैरानी से देखते रहे और उस नौकर की अक्ल पर कुर्बान हो उठे। खाना इत्यादि पूरा
होने के बाद मुल्ला ने पूछा, सरदार जी, पान
खाएंगे?
सरदार विचित्तर सिंह बोले, नहीं—नहीं, छोड़िए! अब काफी देर हो गई, मुझे अब जाना होगा।
मुल्ला ने कहा, कोई देर नहीं होगी। देखिए! यह बल्लेखां ने जूते पहन लिए, अब वह दरवाजे से बाहर हो गया, अब वह सड़क पार कर रहा
है। अब वह दुकान से पान बंधवा रहा है। उसने फिर लौट कर सड़क पार कर ली, अब वह घर के भीतर आ गया है और उसने जूते उतार लिए हैं और ये रहे पान!
इसके साथ ही बल्लेखां पान लेकर कमरे
में हाजिर हो गया। सरदार विचित्तर सिंह को तो अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। ऐसा
होशियार नौकर उन्होंने जिंदगी में नहीं देखा था। सरदारजी ने तय कर लिया कि वे
मुल्ला को दिखा कर रहेंगे कि उनका नौकर पिचत्तर सिंह भी कोई कम नहीं है। सरदारजी
ने विदा लेते—लेते मुल्ला से आग्रह किया कि वे अगले सप्ताह दावत पर उसके घर आएं।
मुल्ला ने निमंत्रण स्वीकार कर लिया।
मुल्ला जिस दिन आने वाला था, उस दिन सुबह से सरदारजी ने अपने नौकर को ठीक वही का वही करने की पूरी
सूचना दे दी जो बल्लेखां ने किया था—किस तरह सरदारजी चावल का दाना मुल्ला की नजर
बचा कर मूंछों में फंसा लेंगे। किस तरह तू कहेगा, हुजूर,
शाख पर बुलबुल। और वे किस अंदाज से मूंछ से उस दाने को एक झटके से
नीचे गिराएंगे, इत्यादि—इत्यादि...।
शाम को मुल्ला आया। खाना शुरू हुआ।
सरदारजी ने चालाकी से चावल का एक दाना अपनी मूंछ में फंसा लिया और पिचत्तर सिंह के
कहने का इंतजार करने लगे। लेकिन वह तो बेचारा सब कुछ भूल ही गया। सरदारजी ने आंखों
से उसे इशारा किया तो नौकर को एकदम याद आया कि उसे कुछ कहना है, परंतु "शाख पर बुलबुल' वाक्य उसे याद नहीं आ
रहा था। घबड़ाहट में उसने कहा, हुजूर, तुहाड़ी
मूंछों पर वह सुबह वाली गल्ल।
सरदारजी बड़े शघमदा हुए, साथ ही नाराज भी बहुत हुए, लेकिन मुल्ला के सामने
कुछ बोले नहीं। खाना पूरा होने पर उन्होंने मुल्ला से पान के लिए पूछा। मुल्ला ने
कहा, देर बहुत हो चुकी है और घर में गुलजान ने कहा था कि
जल्दी लौट आना, तो अब जल्दी से लौट जाना चाहता हूं।
इस पर सरदारजी बोले, कोई देर नहीं लगेगी। वह देखिए पिचत्तर सिंह ने जूते पहन लिए और वह दरवाजे
के बाहर हो गया। अब वह पान वाले से पान बंधवा रहा है। और अब वह घर की ओर लौट रहा
है, अब वह दरवाजा खोल कर अंदर आ रहा है और उसने जूते उतार
लिए हैं—और ये रहे पान!
लेकिन पिचत्तर सिंह कमरे में आया ही नहीं।
सरदारजी ने झेंप कर चिल्लाते हुए कहा, ओ पिचत्तर सिंह,
पान कहां हैं?
पिचत्तर सिंह बोला, हुजूर, जूतियां ढूंढ रहा हूं।
तुम किन ज्योतिषियों के पास जा रहे हो, जरा उनकी शक्ल तो देखो! जरा गौर से उनकी हालत तो देखो! जिनको भविष्य का
ज्ञान हो, उनकी यह हालत होगी? काश,
तुम उनकी आंखों में झांक कर देखो तो तुम पाओगे कि बेचारे गरीब हैं,
दरिद्र हैं, दीन हैं, दुखी
हैं। कोई और उपाय न खोज कर दो रोटी कमाने के लिए यह व्यवस्था कर ली है। लेकिन इस
दुनिया में मूढ़ इतने हैं, एक ढूंढ़ो हजार मिलते हैं। इसलिए
मूढ़ों से सारा धंधा चलता जाता है।
सत्यानंद! ऐसी मूढ़ताओं में न पड़ो।
भविष्य है ही नहीं, है तो वर्तमान। वर्तमान से इंच भर न हटो, इसमें पूरी डुबकी मारो और तुम सब पा लोगे जो पाने योग्य है। मोक्ष
तुम्हारा है। आनंद तुम्हारा है। समाधि तुम्हारी है। परमात्मा तुम्हारा है।
आज इतना ही।
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