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शुक्रवार, 10 जून 2016

कहे होत अधीर--(प्रवचन--19)

पलटू फूला फूल--(प्रवचन--उन्‍नीसवां)
दिनांक 29 सितम्‍बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना
सारसूत्र :

वृच्छा फरैं न आपको, नदी न अंचवै नीर।
परस्वारथ के कारने, संतन धरै सरीर।।
बड़े बड़ाई में भुले, छोटे हैं सिरदार।
पलटू मीठो कूप-जल, समुंद पड़ा है खार।।
हिरदे में तो कुटिल है, बोलै वचन रसाल।
पलटू वह केहि काम का, ज्यों नारुन-फल लाल।।
सब तीरथ में खोजिया, गहरी बुड़की मार।
पलटू जल के बीच में, किन पाया करतार।।

पलटू जहवां दो अमल, रैयत होय उजाड़।
इक घर में दस देवता, क्योंकर बसै बजार।।
हिंदू पूजै देवखरा, मुसलमान महजीद।
पलटू पूजै बोलता, जो खाय दीद बरदीद।।
चारि बरन को मेटिकै, भक्ति चलाया मूल।
गुरु गोविंद के बाग में, पलटू फूला फूल।।
कमर बांधि खोजन चले, पलटू फिरै उदेस।
षट दरसन सब पचि मुए, कोउ न कहा संदेस।।
सिष्य सिष्य सब ही कहैं, सिष्य भया न कोय।
पलटू गुरु की वस्तु को, सीखै सिष तब होय।।
खोजत गठरी लाल की, नहीं गांठि में दाम।
लोकलाज तोड़ै नहीं, पलटू चाहै राम।।
मरने वाला मरि गया, रोवै जो मरि जाय।
समझावै सो भी मरै, पलटू को पछिताय।।


जाने कौन है गुमराह, कौन आगाहे-मंजिल है
हजारों कारवां हैं जिंदगी की शाहराहों में
रहे-मंजिल में सब गुम हैं, मगर अफसोस तो यह है
अमीरे-कारवां भी है उन्हीं गुमकरदा राहों में

जीवन एक यात्रा है। यात्रा है--मृत्यु से अमृत की ओर; अंधकार से प्रकाश की ओर; व्यर्थ से सार्थक की ओर। एक शब्द में: पदार्थ से परमात्मा की ओर। इस यात्रा में वे सारे लोग जो बाहर तलाश रहे हैं, भटके हुए हैं। लाख तलाशें, कुछ पाएंगे नहीं--न काशी में, न काबा में; न कुरान में, न गीता में। यहां तो केवल वे ही पाने में समर्थ हो पाते हैं जो स्वयं के भीतर छिपे हुए सत्य को पहचानते हैं।
यह यात्रा अनूठी है। यह यात्रा कहीं जाने की नहीं, कहीं से लौट आने की है। जा तो हम बहुत दूर चुके हैं--अपने से दूर। वापस लौटना है अपने पर। जा तो हम बहुत दूर चुके हैं--अपने सपनों में, वासनाओं में, विचारों में। छोड़ देना है सारे स्वप्न, छोड़ देने हैं सारे विचार, सारी वासनाएं, ताकि अपने पर आना हो जाए। संसार नहीं छोड़ना है, स्वप्न छोड़ने हैं; क्योंकि स्वप्न ही संसार है।
तुमने बार-बार सुना होगा पंडितों को, पुरोहितों को कहते हुए, कि संसार स्वप्न है। मैं तुमसे कहना चाहता हूं: स्वप्न संसार है। तुम्हारे भीतर जो स्वप्नों का जाल है वही संसार है। उसे छोड़ देना है। ये बाहर बोलते हुए पक्षी तो फिर भी बोलेंगे--ऐसे ही बोलेंगे, और भी मधुरतर बोलेंगे। इनके कंठों में और भी संगीत आ जाएगा, क्योंकि तुम्हारे पास सुनने वाले कान होंगे। और जिसके पास सुनने वाले कान हैं उससे पत्थर भी बोलने लगते हैं। ये वृक्ष तो ऐसे ही हरे होंगे, और हरे हो जाएंगे। क्योंकि जिसके पास देखने वाली आंख है उसके लिए रंगों में रंग, गहराइयों में गहराइयां, रूप में अरूप दिखाई पड़ने लगता है। यह संसार जो तुम्हारे बाहर फैला हुआ है, यह तो और मधुर, और प्रीतिकर होकर प्रकट होगा। काश, तुम जाग जाओ! तुम सोए हो तो भी यह मधुर है और प्रीतिकर है। तुम जाग जाओ तब तो अकूत खजाना है यह। साम्राज्य है परमात्मा का!
इस संसार को छोड़ने को मैं नहीं कहता हूं। लेकिन स्वप्न का संसार जरूर छोड़ना है। वे जो तुम्हारे भीतर स्वप्न चलते रहते हैं--यह पा लूं, वह पा लूं; यह हो जाऊं, वह हो जाऊं; ऐसा होता तो क्या होता, ऐसा होता तो क्या होता! वह जो अतीत तुम्हें जकड़े हुए है, भविष्य तुम्हें पकड़े हुए है; उन दोनों चक्की के पाटों से तुम बाहर आ जाओ। यही संन्यास है। स्वप्न का त्याग संन्यास है। जागरण संन्यास है। क्योंकि स्वप्न बिना जागे नहीं त्यागे जा सकते। संसार तो बिना जागे छोड़ा जा सकता है।
कोई पचास लाख भारत में साधु-संत हैं। इनमें से कितने बुद्धत्व को उपलब्ध हुए हैं? यह भीड़ है भिखारियों की, चालबाजों की, बेईमानों की, पाखंडियों की, धोखेबाजों की। यह भीड़ है, जो तुम्हें चूस रही है। इस भीड़ में किसके भीतर का दीया जला है? इस भीड़ में किसको परमात्मा के दर्शन हुए हैं? यह भीड़ उधार तोतों की तरह शास्त्रों को दोहराए चली जाती है।
लेकिन इन अंधों की बातें तुम्हें जंचती हैं, क्योंकि तुम भी अंधे हो। ये अंधे तुम्हारी ही भाषा में बोलते हैं; इसलिए बातें जंचती हैं, समझ में आती हैं।
बुद्धों के वचन तुम्हारी पकड़ के बाहर हो जाते हैं, क्योंकि बुद्धों के वचन समझने के पहले तुम्हें किसी क्रांति से गुजरना जरूरी है। बुद्धों के वचन समझने के पहले तुम्हारी प्रतिभा पर धार आनी चाहिए, तुम्हारे भीतर ध्यान का दीया जलना चाहिए। तुम्हारे भीतर भी कुछ बुद्धत्व की लहर उठे तो तुम्हारा बुद्धों से नाता बने। नहीं तो तुम बुद्धुओं के चक्कर में रहोगे।
इन बुद्धुओं ने तुमसे कहा है--संसार छोड़ दो।
संसार छोड़ना बहुत आसान है। सच तो यह है कि जो भी संसार में जी रहा है वह छोड़ना चाहता है। कौन नहीं ऊब गया है? कौन नहीं परेशान हो गया है पत्नियों से, पतियों से, बच्चों से, मां-बाप से? कौन परेशान नहीं है दुकान से, बाजार से, नौकरी से, धंधे से? ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो नहीं ऊब गया है।
यह दूसरी बात है कि नहीं छोड़ता है। नहीं छोड़ने का कारण: जाए तो कहां जाए? छोड़ कर जाने को कोई जगह भी तो हो! रोटी-रोजी तो कहीं भी कमानी ही होगी। भूखे तो नहीं रहा जा सकता। अगर कमाएगा नहीं तो भीख मांगनी होगी। और उतना, भीख मांगने के तल तक गिरने के लिए बहुत कम लोग राजी हैं। या फिर साहस नहीं है। क्योंकि कितनी ही ऊब हो, कितनी ही परेशानी हो, संसार में सुविधाएं भी हैं। या फिर डरता है, लोक-लाज! क्या कहेंगे लोग--भाग गया, भगोड़ा था, नामर्द था, कायर था, युद्ध में पीठ दिखा दी! खुद की ही आंखों में गिर जाएंगे। या कि हिसाब-किताब बिठा रहे हैं--कि छोड़ तो हम दें, लेकिन मिलेगा क्या? हाथ का भी चला जाए और जो मिला नहीं है वह मिले भी नहीं, तो कहीं ऐसी झंझट में हम न पड़ जाएं। और फिर देखते हैं कि जिन्होंने छोड़ दिया उन्होंने क्या पा लिया है? जिन्होंने छोड़ दिया है वे उनकी भीख पर जी रहे हैं जिन्होंने नहीं छोड़ा है।
लोग संसार छोड़ते नहीं, इसलिए नहीं कि संसार में बहुत उन्हें आनंद मिल रहा है, वरन सिर्फ इसलिए कि इस संसार के अतिरिक्त और कोई संसार है भी तो नहीं जहां छोड़ दें और चले जाएं। कोई विकल्प भी तो हो! नहीं है कोई विकल्प, तो जीते हैं, ढोते हैं बोझ। धीरे-धीरे समझौते कर लेते हैं। समझा लेते हैं अपने मन को, सांत्वना दे लेते हैं कि ऐसी ही है यह जिंदगी। और चार दिन की है, गुजर ही गई, गुजर ही जाएगी। कोई लंबी भी तो नहीं है।
मगर जो आदमी भी थोड़ा सोचता-विचारता है, उसके मन में खयाल तो हजार बार आता है कि किस झंझट में पड़ा हूं, भाग जाऊं!
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी ने मायके से उसे पत्र लिखा कि अब और देर न करो। पंद्रह दिन में ही मैं सूख पर आधी हो गई हूं। तुम्हारे बिना नहीं जी सकती हूं। जल्दी चिट्ठी लिखो, कब आ रहे हो!
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि पंद्रह दिन बाद। आधी तो हो ही चुकी है, पंद्रह दिन में फैसला ही हो जाए।
लेकिन पत्नी चली आई, खुद ही चली आई। सो वह आशा भी मिटी। एक डाक्टर से सलाह ली उसने कि क्या करूं? कैसे छुटकारा हो? संसार छोड़ कर भागने की हिम्मत भी नहीं है। और इस पत्नी से कैसे छुटकारा हो, कोई उपाय नहीं दिखता। या तो मैं मरूं या यह मरे।
डाक्टर ने कहा, इतने परेशान न होओ। मैं तुम्हें ऐसी तरकीब बताता हूं, ऐसा मीठा जहर देता हूं कि काम भी हो जाए और कानों-कान खबर भी न पड़े। पत्नी को जितना प्रेम कर सकते हो करो, प्रेम कर-कर के मार डालो।
मुल्ला ने कहा, यह भी खूब रही! यह मुझे सूझा ही नहीं कि पत्नी को प्रेम कर-कर के मार डालो!
डाक्टर तो मजाक कर रहा था, लेकिन मुल्ला ने बात पकड़ ली। कोई तीस दिन बाद...डाक्टर से उसने पूछा था कि कितने दिन लगेंगे? इकतीस दिन का महीना था, तो डाक्टर ने कहा कि एक महीना लगेगा।...तीस दिन बाद रास्ते पर डाक्टर गुजर रहा था। देखा मुल्ला बैठा है झूले पर अपने मकान के सामने, बिलकुल सूख कर हड्डी-हड्डी हो गया है। एकदम पहचान में भी नहीं आता, अस्थिपंजर मात्र रह गया है। डाक्टर ने पूछा, यह तुम्हारी हालत कैसे हुई?
उसने कहा, घबड़ाओ मत। वह जो तुमने तरकीब बताई थी कि प्रेम कर-कर के मार डालो!
इतने में ही पत्नी किसी काम से बाहर आई और भीतर गई। पत्नी तो मस्तत्तड़ंग हो गई है।
डाक्टर ने कहा कि तो अब कब तक यह चलेगा?
नसरुद्दीन ने कहा, अब ज्यादा देर नहीं है, इकतीस का महीना है, तीस दिन तो हो ही गए, एक ही दिन की और बात है, एक दिन बाद छुटकारा हो जाएगा।
पत्नी तो नहीं मरेगी--नसरुद्दीन ने कहा--यह तो मुझे समझ में आ गया, मगर मैं मर जाऊंगा। चलो यही सही। दवा उस पर तो काम नहीं आई, लेकिन मुझ पर काम आ गई।
लोग मरने को भी राजी हैं! जीवन कुछ देता भी नहीं, छीनता मालूम होता है। इसलिए साधु-संतों की बात लोगों को जंची बहुत कि छोड़ दो संसार। उनके भीतर का तर्क भी उनसे यही कह रहा है। तालमेल हो गया। और न मालूम कितने लोगों ने संसार छोड़ा, और कुछ भी नहीं छोड़ा है। संसार वैसा का वैसा है, वे भी वैसे के वैसे हैं।
मैं तुमसे कहता हूं: स्वप्न छोड़ो।
स्वप्न छोड़ना कठिन है। स्वप्न छोड़ना मुश्किल है। स्वप्न छोड़ने का सूक्ष्म विज्ञान है। उस विज्ञान का नाम ही ध्यान है। साक्षी बनो। जैसे-जैसे तुम्हारे भीतर साक्षी सघन होगा, वैसे-वैसे स्वप्न क्षीण हो जाते हैं। जिस दिन साक्षी अपनी परिपूर्णता में विराजमान होता है, स्वप्न बचते ही नहीं। जैसे आकाश बिलकुल बादलों से खाली हो जाए और सूरज अपनी पूरी जगमग में प्रकट हो, ऐसे जब तुम्हारे भीतर स्वप्न नहीं बचते तो तुम्हारे भीतर छिपा हुआ चैतन्य अपनी समग्रता में प्रकट होता है। वही परमात्म-मिलन है। इसे पाने कहीं और नहीं जाना है। इसे पाने अपने घर वापस आना है।
लेकिन यह दुनिया अजीब है! यहां तय करना बहुत मुश्किल है!
न जाने कौन है गुमराह, कौन आगाहे-मंजिल है
कौन यहां भटका हुआ है और किसको मंजिल का पता है, यह तय करना बहुत कठिन है।
हजारों कारवां हैं जिंदगी की शाहराहों में
एकाध कारवां नहीं, हजारों कारवां हैं--हिंदुओं का, मुसलमानों का, ईसाइयों का, जैनों का, बौद्धों का, सिक्खों का। कारवां ही कारवां हैं! यात्रीदल चल पड़े हैं। अपने-अपने झंडे। अपनी-अपनी किताब। अपना-अपना ईश्वर का अर्थ। अपनी-अपनी धारणाएं। अपने-अपने पक्षपात।
न जाने कौन है गुमराह, कौन आगाहे-मंजिल है
हजारों कारवां हैं जिंदगी की शाहराहों में
रहे-मंजिल में सब गुम हैं, मगर अफसोस तो यह है
अमीरे-कारवां भी है उन्हीं गुमकरदा राहों में
रहे-मंजिल में सब गुम हैं! और सब रास्तों में खो गए हैं। रास्ते इतने लंबे हो गए हैं, रास्ते इतने जटिल हो गए हैं कि मंजिल की तो बात ही भूल गई है। सभी रास्तों में खो गए हैं। मगर बड़े अफसोस की बात तो यह है कि लोग खो जाते तो खो जाते, जिनको तुम लोगों के नेता कहते हो, अमीरे-कारवां, जो उनके गुरु हैं, नेता हैं, जो उनके जीवन-मूल्य देने वाले हैं, जो उनके नीति-निर्धारक हैं, जो उपदेशक हैं, वे भी उन्हीं रास्तों पर भटके हुए हैं। और रास्ते ऐसे गोल-गोल हैं कि बस लोग घूमते रहते हैं, घूमते रहते हैं, चक्कर काटते रहते हैं गोल-गोल रास्तों पर। न कहीं कोई पहुंचता हुआ मालूम होता है, न कहीं मंजिल की कोई झलक दिखाई पड़ती है। कब तक यह करते रहोगे?
उस परमात्मा को खोजने के लिए किसी अमीरे-कारवां की जरूरत नहीं है, किसी नेता की जरूरत नहीं है। उस परमात्मा को खोजने के लिए अपने ही भीतर डुबकी मारनी है, किससे पूछना है! पूछे कि भटके। खोजा कि भटके। खोजो मत, खो जाओ। ऐसे डूबो कि फिर निकलो ही नहीं। और इंच भर अपने से बाहर मत जाना। क्योंकि वह है तो तुम्हारे भीतर है। तुम मंदिर हो!
कहा पलटू ने: यह सुंदर देह मंदिर है। इसी मंदिर में वह विराजमान है।
लेकिन तुमने झूठे मंदिर बना लिए हैं, मस्जिदें बना ली हैं, गुरुद्वारे बना लिए हैं। अपने ही बनाए हुए मकानों में, अपनी ही बनाई हुई प्रार्थनाओं से, अपने ही बनाए हुए देवताओं की तुम पूजा कर रहे हो। होश में हो कि पागल हो?
वृच्छा फरैं न आपको, नदी न अंचवै नीर।
वृक्ष अपने लिए नहीं फलते हैं और नदी अपनी ही प्यास बुझाने को नहीं बहती है।
परस्वारथ के कारने, संतन धरै सरीर।
संत तो वे हैं--जिनको तुमने मान लिया वे नहीं--संत तो वे हैं, जो केवल परमात्मा के लिए माध्यम बन गए हैं, उसकी बांसुरी बन गए हैं! अगर वे शरीर में भी हैं तो इसलिए कि प्रभु उनसे कुछ काम लेना चाहता है।
तुम्हारी संत की परिभाषा क्या होती है? क्या खाता, क्या पीता; कैसा उठता, कैसा बैठता; कितने कपड़े रखता, कहां ठहरता--ये तुम्हारे संत को बाहर से जांचने के उपाय हैं। और यह सारा अभ्यास कोई भी कर सकता है। यह अभ्यास कुछ कठिन नहीं है। दो बार न सही एक बार भोजन करो, कुछ दिन में अभ्यास हो जाता है। रात पानी न पीओ, भोजन न करो, कुछ दिन में अभ्यास हो जाता है। नौ बजे सो जाओ, तीन बजे रात उठ आओ, कुछ दिन में अभ्यास हो जाता है। शरीर बड़ा लोचपूर्ण है; उससे तुम किसी भी तरह का अभ्यास करा ले सकते हो। घंटों सिर के बल खड़े रहो, आसन करो, प्राणायाम करो--शरीर हर चीज के लिए झुक जाता है, राजी हो जाता है। शरीर तुम्हारा सेवक है और अदभुत यंत्र है! जड़ नहीं है, लोचपूर्ण है।
और तुम्हारे संतों को नापने के यही उपाय हैं, बस बाहर से ही तुम नापते हो। और बाहर से नापते हो इससे धोखा खा जाते हो।
संतों को नापने का बाहर से कोई उपाय नहीं है। संतों की तो एक ही परिभाषा है।
परस्वारथ के कारने, संतन धरै सरीर।
पलटू ठीक परिभाषा कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि संत अपने लिए नहीं जीता। अपना तो उसका काम पूरा हो चुका। जहां तक उसका संबंध है, उसके सपने तो मिट चुके, उसके विचार तो जा चुके। उसकी तो मन से मुक्ति हो गई। जहां तक उसका निजी संबंध है, उसने मंजिल पा ली। लेकिन जिसने मंजिल पा ली है, परमात्मा उससे कुछ काम लेना शुरू करता है। उससे पुकार देना शुरू करता है--उनके लिए जो अभी रास्तों पर भटक रहे हैं, जो अभी अंधेरे में भटक रहे हैं। परमात्मा उस व्यक्ति से काम लेना शुरू करता है--उनके लिए, जिनकी आंखें अभी नहीं खुली हैं।
जैसे वृक्षों में फल लगते हैं--अपने लिए नहीं; दूसरों के लिए। और नदी खुद अपना जल नहीं पीती, औरों को पिलाती है।
संत की परिभाषा है: जो लुटाए, जो परमात्मा को लुटाए! जो परमात्मा बांटे!
और तो बांटने योग्य सब कूड़ा-कचरा है। तुम अपना सारा धन बांट डालो तो भी तुम संत नहीं हो सकते, क्योंकि धन कूड़ा-कचरा है। सम्हालो तो कूड़ा-कचरा है, बांटो तो कूड़ा-कचरा है। तुम अपना ज्ञान लोगों को बांटते फिरो, वह भी कूड़ा-कचरा है। तुमने उधार इकट्ठा कर लिया है, अब तुम बांट रहे हो। पहले तुम कचरे को अपने भीतर भर लेते हो, फिर वह बोझिल होने लगता है तो तुम दूसरों की झोलियों में डालने लगते हो।
बांटने योग्य बात तो एक ही है, लुटाने योग्य धन तो एक ही है--वह है परमात्मा। लेकिन उसका तुम्हें अनुभव हो, उस स्रोत से तुम जुड़ जाओ, उस गंगोत्री को तुम पा लो जहां से जीवन की गंगाएं निकलती हैं।
संत तो वह है, जिसके भीतर से परमात्मा बोलता है; जिसके भीतर से परमात्मा शब्द बनता है, रूप धरता है, साकार होता है। कभी ऐसा कोई व्यक्ति तुम्हें मिल जाए जिसके शब्दों में निःशब्द का संगीत हो; जिसके उठने-बैठने में बोध साकार होता हो; जिसकी आंखों में ऐसी झील जैसी शांति हो कि आकाश के सारे तारे प्रतिबिंबित हो उठें; जिसके मौन में तुम्हारे भीतर भी मौन की तरंगें डोल जाती हों; जिसके पास बैठ कर तुम भी अकारण किसी अपूर्व आनंद से आंदोलित हो उठते हो; जिसकी मौजूदगी प्रमाण बनती हो कि परमात्मा है; तर्क नहीं, विवाद नहीं, जिसकी मौजूदगी, जिसकी आंखों में आंखें डाल कर देख लेना, या जिसके हाथ में हाथ दे लेना, या जिसके पास भर बैठ जाना, जिसकी सुवास परमात्मा के होने का सबूत बनती हो--उसे जानना संत! तब तुम्हारी ओछी धारणाएं खतम हो जाएंगी। तब संत न हिंदू होता है, न मुसलमान, न ईसाई। ये तो अलग-अलग आचरणों के नाम हैं।
इसीलिए तो, यह बड़े मजे की बात है, जैन मुनि बौद्धों को नहीं लगता कि संत है। जैनों को बौद्ध फकीर नहीं लगता कि संत है। बौद्धों को सूफी फकीर नहीं लगता कि संत है। सूफियों को हिंदुओं के संन्यासी नहीं जंचते कि संत हैं। क्या कारण है?
आचरणों को हमने संत समझा हुआ है। और आचरण तो कितने हैं दुनिया में! हजारों तरह के हो सकते हैं। किसी ने तय कर लिया है कि मांसाहार करना संतत्व के विपरीत है। लेकिन जीसस तो मांसाहार करते थे। और जीसस को तो जाने दो, मोहम्मद को जाने दो--दूर के हैं। रामकृष्ण परमहंस तो बहुत करीब थे, वे भी मछलियां खाते थे! अब जिसने यह धारणा बना ली है कि मांसाहार तो संत कर ही नहीं सकता, वह रामकृष्ण के पास जाकर भी चूक जाएगा; वह यही देखता रहेगा कि अरे मछलियां, यह किस तरह का संत है! संत तो मधुर वचन बोलते हैं। संत तो प्यारी बातें कहते हैं। संतों के वचनों से तो फूल झरते हैं।
लेकिन शिरडी के साईं बाबा डंडा उठा कर मां-बहन की गाली भी देते थे, भक्तों के पीछे दौड़ पड़ते थे, पत्थर भी मारते थे। तो तुम कैसे तय करोगे कि ये संत हैं? देख कर ही तय हो जाएगा कि ये संत नहीं हैं। यह डंडा उठाना, पत्थर मारना, गाली बकना! रामकृष्ण परमहंस भी गालियां देते थे। तो बड़ी अड़चन हो जाएगी। तुम कैसे तय करोगे कौन संत है?
और जिसने शिरडी के साईं बाबा की गाली खाई है और पी ली है गाली और फिर भी झुका रहा, जिसका सिर झुका सो झुका ही रहा--गाली दी, चाहे पत्थर मारे, चाहे डंडा मारा--वह जानता है, वही पहचानता है। लेकिन वह तुम्हें पागल मालूम पड़ेगा, उन्मत्त मालूम पड़ेगा। क्योंकि साईं बाबा के डंडे में उसने तो फूल ही झरते पाए। उन पत्थरों में अमृत बरसता हुआ पाया। वे गालियां तो उनके प्रेम का प्रतीक थीं। तुम ऐसे हो कि बिना गाली के तुम जागोगे ही नहीं। तो उतने तक के लिए वे राजी हैं कि गाली से जागोगे तो गाली दूंगा। तुम्हें गालियां ही शायद थोड़ी झकझोरें तो झकझोरें। नहीं तो तुम तो वैसे ही गहरी नींद में सो रहे हो। अच्छी-अच्छी बातें तो लोरियां बन जाती हैं। और लोरियां तो तुम सुनते रहे हो बहुत दिन से। लोरियां सुन रहे हो, अंगूठे चूस रहे हो, अपने-अपने झूले में पड़े झूला झूल रहे हो।
कैसे तय करोगे? जीसस तो शराब पीते थे। शराब पीते ही नहीं थे, उनके चमत्कारों में एक चमत्कार यह भी है कि जब वे समुद्र के पास आए, हजारों लोग उनके साथ आए थे, तो उन्होंने पूरे समुद्र को चमत्कार से शराब में बदल दिया। अब अगर भारत में होते तो पुलिस पकड़ ले जाती कि यह क्या कर रहे हो! सागर को और शराब बना दिया, कि अब पीएं पीने वाले जितना पीना हो! अब कभी पीने की कमी नहीं होगी।
तुम कैसे जीसस को मान सकोगे कि ये संत हैं? तुम्हें अड़चन होगी।
आचरण तो बहुत तरह के हैं। दुनिया में कोई तीन हजार धर्म हैं--छोटे-मोटे, सब मिला-जुला कर। इन तीन हजार धर्मों की अपनी-अपनी धारणाएं हैं। संत की परिभाषा कैसे करें? पलटू ठीक परिभाषा करते हैं। वे कहते हैं: मेरी तो एक परिभाषा है।
परस्वारथ के कारने, संतन धरै सरीर।
फिर वह क्या खाता, क्या पीता, कैसे उठता, कैसे बैठता--वह जाने। हमारी तरफ से तो जांचने की बात एक है, परखने की बात एक है, कि उसका जीवन परमात्मा को समर्पित है, उसकी वाणी परमात्मा को समर्पित है, वह समग्ररूपेण परमात्मा का हो गया है और अब परमात्मा को बांट रहा है। बांटने के ढंग अलग होंगे, रंग अलग होंगे, लेकिन बांटने की बात एक है। फिर जीसस हों कि महावीर कि बुद्ध कि कबीर कि नानक कि पलटू, कोई फर्क नहीं पड़ता। और जहां कोई परमात्मा को बांटता है वही परार्थ कर रहा है। और किसी चीज के बांटने से परार्थ नहीं होता। तुम धन बांट दो। धन से तुम्हारा ही क्या हल हुआ था? तुम दूसरों को बांट कर दे चले। यह तो ऐसे ही हुआ कि किसी बीमारी में तुम फंसे थे, तुम दूसरों को दे चले कि भइया, सम्हाल कर रखना, कि अब तुम सम्हालो, अब हम जाते हैं।
ऐसी उपनिषद में प्यारी कथा है। याज्ञवल्क्य छोड़ कर जा रहा है। जीवन के अंतिम दिन आ गए हैं और अब वह चाहता है कि दूर खो जाए किन्हीं पर्वतों की गुफाओं में। उसकी दो पत्नियां थीं और बहुत धन था उसके पास। वह उस समय का प्रकांड पंडित था। उसका कोई मुकाबला नहीं था पंडितों में। तर्क में उसकी प्रतिष्ठा थी। ऐसी उसकी प्रतिष्ठा थी कि कहानी है कि जनक ने एक बार एक बहुत बड़ा सम्मेलन किया और एक हजार गौएं, उनके सींग सोने से मढ़वा कर और उनके ऊपर बहुमूल्य वस्त्र डाल कर महल के द्वार पर खड़ी कर दीं और कहा: जो पंडित विवाद जीतेगा, वह इन हजार गौओं को अपने साथ ले जाने का हकदार होगा। यह पुरस्कार है।
बड़े पंडित इकट्ठे हुए। दोपहर हो गई। बड़ा विवाद चला। कुछ तय भी नहीं हो पा रहा था कि कौन जीता, कौन हारा। और तब दोपहर को याज्ञवल्क्य आया अपने शिष्यों के साथ। दरवाजे पर उसने देखा--गौएं खड़ी-खड़ी सुबह से थक गई हैं, धूप में उनका पसीना बह रहा है। उसने अपने शिष्यों को कहा, ऐसा करो, तुम गौओं को खदेड़ कर घर ले जाओ, मैं विवाद निपटा कर आता हूं।
जनक की भी हिम्मत नहीं पड़ी यह कहने की कि यह क्या हिसाब हुआ, पहले विवाद तो जीतो! किसी एकाध पंडित ने कहा कि यह तो नियम के विपरीत है--पुरस्कार पहले ही!
लेकिन याज्ञवल्क्य ने कहा, मुझे भरोसा है। तुम फिक्र न करो। विवाद तो मैं जीत ही लूंगा, विवादों में क्या रखा है! लेकिन गौएं थक गई हैं, इन पर भी कुछ ध्यान करना जरूरी है।
शिष्यों से कहा, तुम फिक्र ही मत करो, बाकी मैं निपटा लूंगा।
शिष्य गौएं खदेड़ कर घर ले गए। याज्ञवल्क्य ने विवाद बाद में जीता। पुरस्कार पहले ले लिया। बड़ी प्रतिष्ठा का व्यक्ति था। बहुत धन उसके पास था। बड़े सम्राट उसके शिष्य थे। और जब वह जाने लगा, उसकी दो पत्नियां थीं, उसने उन दोनों पत्नियों को बुला कर कहा कि आधा-आधा धन तुम्हें बांट देता हूं। बहुत है, सात पीढ़ियों तक भी चुकेगा नहीं। इसलिए तुम निश्चिंत रहो, तुम्हें कोई अड़चन न आएगी। और मैं अब जंगल जा रहा हूं। अब मेरे अंतिम दिन आ गए। अब ये अंतिम दिन मैं परमात्मा के साथ समग्रता से लीन हो जाना चाहता हूं। अब मैं कोई और दूसरा प्रपंच नहीं चाहता। एक क्षण भी मैं किसी और बात में नहीं लगाना चाहता।
एक पत्नी तो बड़ी प्रसन्न हुई, क्योंकि इतना धन था याज्ञवल्क्य के पास, उसमें से आधा मुझे मिल रहा है, अब तो मजे ही मजे करूंगी। लेकिन दूसरी पत्नी ने कहा कि इसके पहले कि आप जाएं, एक प्रश्न का उत्तर दे दें। इस धन से आपको शांति मिली? इस धन से आपको आनंद मिला? इस धन से आपको परमात्मा मिला? अगर मिल गया तो फिर कहां जाते हो? और अगर नहीं मिला तो यह कचरा मुझे क्यों पकड़ाते हो? फिर मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूं।
और याज्ञवल्क्य जीवन में पहली बार निरुत्तर खड़ा रहा। अब इस स्त्री को क्या कहे! कहे कि नहीं मिला, तो फिर बांटने की इतनी अकड़ क्या! बड़े गौरव से बांट रहा था कि देखो इतने हीरे-जवाहरात, इतना सोना, इतने रुपये, इतनी जमीन, इतना विस्तार! बड़े गौरव से बांट रहा था। उसमें थोड़ा अहंकार तो रहा ही होगा उस क्षण में कि देखो कितना दे जा रहा हूं! किस पति ने कभी अपनी पत्नियों को इतना दिया है! लेकिन दूसरी पत्नी ने उसके सारे अहंकार पर पानी फेर दिया। उसने कहा, अगर तुम्हें इससे कुछ भी नहीं मिला तो यह कचरा हमें क्यों पकड़ाते हो? यह उलझन हमारे ऊपर क्यों डाले जाते हो? अगर तुम इससे परेशान होकर जंगल जा रहे हो तो आज नहीं कल हमें भी जाना पड़ेगा। तो कल क्यों, आज ही क्यों नहीं? मैं चलती हूं तुम्हारे साथ।
तो जो धन बांट रहा है वह क्या खाक बांट रहा है! उसके पास कुछ और मूल्यवान नहीं है। और जो ज्ञान बांट रहा है, पाठशालाएं खोल रहा है, धर्मशास्त्र समझा रहा है, अगर उसने स्वयं ध्यान और समाधि में डुबकी नहीं मारी है, तो कचरा बांट रहा है। उसका कोई मूल्य नहीं है। बांटने योग्य तो बात एक ही है: परमात्मा। मगर उसे तुम तभी बांट सकते हो जब पाओ, जब जानो, जब जीओ।
और जिस दिन तुम उसे जानोगे, जीओगे, अनुभव करोगे, उस दिन चकित होओगे: तुमसे पहले बहुत लोग उसे जान चुके हैं! तुम नये नहीं हो। वह अनुभव नया नहीं है। इस अर्थ में नया है कि तुमने उसे पहली दफा जाना। इस अर्थ में तो प्राचीन है, सनातन है, क्योंकि बुद्ध सदा होते रहे, सदियों-सदियों में होते रहे।
कुछ मिटे से नक्शे-पा भी हैं जुनूं की राह में
हमसे पहले कोई गुजरा है यहां होते हुए
जब तुम परमात्मा को जानोगे तब तुम पाओगे कि अरे यहां तो कुछ चरण-चिह्न बने हुए हैं! हमसे पहले भी लोग यहां गुजरे हैं! एस धम्मो सनंतनो! यह धर्म तो सनातन है! यह कुछ मेरा नहीं, तेरा नहीं, यह किसी का नहीं। इस घाट से कितने ही तरे हैं, कितने ही तरते रहेंगे। अनंत-अनंत लोग आए हैं और इस नाव से पार गए हैं, यह नाव किसी की भी नहीं है।
इसलिए धर्म न हिंदू का है, न मुसलमान का, न ईसाई का, न जैन का। धर्म तो उनका है जिनका ध्यान है। धर्म तो उन दावेदारों का है जिन्होंने अपने ऊपर मालकियत पा ली है।
बड़े बड़ाई में भुले, छोटे हैं सिरदार।
यह सूत्र अदभुत है। इस देश में तो पारखी खो गए हैं। हीरे तो हैं, मगर पारखी नहीं हैं। इससे बड़ी अड़चन हो गई है। यह सूत्र जीसस के एक वचन की याद दिलाता है, जिस वचन का इतना सम्मान किया गया है। मगर बेचारे पलटू के इस वचन को किसी ने फिक्र नहीं किया।
बड़े बड़ाई में भुले...
पलटू कहते हैं: बड़े तो अपने बड़प्पन में भूले हुए हैं, अपने अहंकार में डूबे हुए हैं।
छोटे हैं सिरदार।
और सच पूछो तो जिनको अपने बड़प्पन का कोई बोध ही नहीं है, जो अपने को ना-कुछ समझते हैं, जो इतने छोटे हैं, शून्यवत हैं--वे ही सिरदार हैं।
जीसस का वचन है: मेरे प्रभु के राज्य में वे प्रथम होंगे जो यहां अंतिम हैं। इस वचन का सारी दुनिया में गुंजार हुआ है। यह वचन महत्वपूर्ण है। मगर पलटू के वचन का भी यही अर्थ है। जीसस का दूसरा वचन है: धन्य हैं वे जो विनम्र हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उनका है।
बड़े बड़ाई में भुले, छोटे हैं सिरदार।
पलटू कहते हैं: मुझसे पूछो, आंख वालों से पूछो, तो बड़े तो अपने अहंकार में ही डूबे हुए हैं। वे तो अपने को फुलाए जा रहे हैं--धन से, पद से, ज्ञान से, त्याग से। लेकिन असली इस दुनिया में जो, जिनको कहना चाहिए सरदार, जो वस्तुतः प्रथम हैं, वे वे लोग हैं जो विनम्र हैं।
पलटू मीठो कूप-जल...
छोटा सा कुआं, उसका जल मीठा।
समुंद पड़ा है खार।
और इतना बड़ा समुद्र, मगर बिलकुल खारा। बस देखने भर के काम का है। प्यास लगे तो प्यास नहीं बुझा सकता।
अहंकारियों से किसी की प्यास नहीं बुझ सकती। अहंकार खारा है, बहुत खारा है। अगर समुद्र का जल पीओगे तो मरोगे, मृत्यु हो जाएगी, जीवन नहीं मिलेगा उससे। जीवन के लिए तो कोई छोटा सा कुआं खोजना पड़ता है, जिसमें मीठा जल हो। बड़े-बड़े लोग हुए--चंगीजखां, नादिरशाह, तैमूरलंग, सिकंदर, नेपोलियन, हिटलर, स्टैलिन, माओत्से तुंग--बड़े-बड़े लोग! मगर बिलकुल खारे! उनको पीया कि मरे! बचना उनसे! इतिहास उनकी यश-गाथाओं से भरा है। इतिहास की किताबों में बेचारे पलटू जैसे आदमी का नाम ही न पाओगे। पाद-टिप्पणी में भी नहीं, फुट-नोट में भी नहीं पाओगे। जब मैंने पहली दफे पलटू को चुना तो एक मित्र ने कहा कि आप भी कहां-कहां से खोज लेते हैं! यह तो नाम ही नहीं सुना। आप ईजाद तो नहीं कर लेते?
हीरे हैं इस देश में, बहुत हीरे हैं! पर पारखी...पारखी खो गए हैं। यही पलटू के सूत्र अगर दुनिया की दूसरी भाषाओं में अनुवादित हों, सम्मानित होंगे, लोग सिर-आंखों पर लेंगे।
रवींद्रनाथ ने गीतांजलि लिखी, इस देश में किसी ने फिक्र नहीं की। एक-एक सूत्र प्यारा है; उपनिषदों की याद दिलाता है। लेकिन इस देश में किसी ने चिंता ही नहीं ली। जब नोबल प्राइज मिली--जब रवींद्रनाथ ने उसे अंग्रेजी में अनुवादित किया तब नोबल प्राइज मिली--नोबल प्राइज मिली तो सारे देश में स्वागत-समारंभ जगह-जगह। कलकत्ते में जहां रवींद्रनाथ रहते थे, जहां उनका कभी कोई स्वागत-समारंभ नहीं हुआ था--हां, गालियां पड़ी थीं, आलोचनाएं हुई थीं--वे ही आलोचक, वे ही गाली देने वाले स्वागत-समारंभ...।
रवींद्रनाथ ने जाने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि यह स्वागत-समारंभ मैं स्वीकार नहीं करूंगा। यह मेरा स्वागत नहीं है, नोबल प्राइज का स्वागत है। तो यह नोबल प्राइज का जो सर्टिफिकेट है, ले जाओ, इसकी पूजा कर लेना। मैं नहीं आऊंगा। मैं तो यहां वर्षों से हूं और गीतांजलि लिखे मुझे बीस साल हो गए। बीस साल से बंगाली में गीतांजलि मौजूद है, लेकिन कोई देखने वाला नहीं, कोई पूछने वाला नहीं। आज बाहर परदेस में प्रतिष्ठा हुई है तो तुम्हारे मन में सम्मान उठा है! यह सम्मान नहीं है। रवींद्रनाथ ने कहा, लज्जा से मेरा मन झुकता है।
पलटू मीठो कूप-जल, समुंद पड़ा है खार।
बड़ा है समुद्र बहुत, मगर बिलकुल खारा, जीवन के किसी काम का नहीं। छोटे से कुएं से भी प्यास बुझ जाती है। बड़े-बड़े ज्ञानी तुम्हारे काम नहीं आएंगे। बड़े-बड़े त्यागी तुम्हारे काम नहीं आएंगे। किसी ऐसे व्यक्ति को खोज लो, जो छोटा सा कुआं हो भला, अज्ञात नाम हो, न हो उसकी प्रसिद्धि कोई, लेकिन जिसमें मीठे जल के स्रोत हों, जिसमें मिठास हो।
परमात्मा के संदर्भ में एक ही मिठास होती है--जिसके पास बैठ कर तुम्हारे भीतर प्रेम उमगने लगे; जिसकी मौजूदगी में तुम्हारे भीतर कुछ कलियां चटकने लगें, फूल बनने लगें; जिसके पास बैठो तो लगे कि वसंत आया, मधुमास आया।
सालिके-राहे-खुदी इस भेद से वाकिफ नहीं
बेखुदी की राह में भी इक मुकामेऱ्होश है
सालिके-राहे-खुदी, अहंकार के मार्ग का पथिक, इस भेद से वाकिफ नहीं, उसे इस रहस्य का, इस राज का कुछ पता नहीं है।
बेखुदी की राह में भी इक मुकामेऱ्होश है
एक ऐसा होश का मुकाम भी है जो उन्हीं को मिलता है जो बेखुद हो जाते हैं; जो अपनी खुदी खो देते हैं; जो अपना अहंकार खो देते हैं। निरहंकारिता के मार्ग पर एक ऐसा मुकाम भी आता है, जहां होश ही होश रह जाता है। जितनी खुदी है उतनी बेहोशी है। जितनी बेखुदी है उतना होश है।
हिरदे में तो कुटिल है, बोलै वचन रसाल।
पलटू वह केहि काम का, ज्यों नारुन-फल लाल।।
नारुन का फल होता है, देखने में तो सुंदर, सुर्ख, लाल। लेकिन बस देखने में ही सुंदर; खाने में तिक्त और कड़वा। दूर से देखो तो प्यारा; चखो तो जहर।
ऐसा ही अहंकार है। दूर से देखो--स्वर्णमंडित, हीरे-जवाहरातों से जड़ा, मोती की मालाओं से शृंगारित; पास आओ--जहर है, शुद्ध जहर है।
हिरदे में तो कुटिल है, बोलै वचन रसाल।
और अहंकारी हमेशा हृदय में तो कुटिल होता है, जाली होता है, पाखंडी होता है और अगर मीठे वचन भी बोलता है तो वैसे ही बोलता है जैसे कि कोई मछली को पकड़ने के लिए कांटे में आटा लगाता है। कोई मछली को आटा खिलाने के लिए नहीं; मछली को पकड़ने के लिए। दिल तो कांटे पर है; आटा तो सिर्फ कांटे को छुपाने के लिए है।
अहंकार भी बड़े मीठे वचन बोल सकता है। बोलना ही पड़ते हैं उसे, क्योंकि उसी मिठास में जहर छिपाया जा सकता है। एलोपैथी की दवाई देखते हो न! होती तो जहर है, कड़वी होती है, मगर ऊपर छोटी सी शक्कर की पर्त होती है। वह छोटी सी शक्कर की पर्त में तुम उसे गटक जाते हो, नहीं तो उसे भीतर ले जाना मुश्किल हो जाए। अहंकार भी मिठास की भाषा बोल सकता है। पंडित-पुरोहित भी बड़े मीठे वचन बोल सकते हैं। लेकिन भीतर सब कुटिलता है।
मुल्ला नसरुद्दीन को ढब्बूजी ने दावत पर आमंत्रित किया था। ढब्बूजी का स्वास्थ्य उन दिनों खराब चल रहा था, इसलिए भोजन में अन्य व्यंजनों के साथ-साथ खिचड़ी भी थी। ढब्बूजी तो खिचड़ी खा रहे थे, परंतु मुल्ला खिचड़ी को छोड़ कर बाकी सारे मिष्ठान्न, फल-मेवे खा रहा था। यह देख कर आखिर ढब्बूजी से न रहा गया। गुस्से में बोले, क्यों मुल्ला, यह खिचड़ी क्या गधे खाएंगे?
मुल्ला नसरुद्दीन ने धीरे से जवाब दिया, यार ढब्बू, खिचड़ी तो गधे खा ही रहे हैं।
बातें मीठी चल रही हैं, मित्रता की चल रही हैं; नहीं तो निमंत्रण ही क्यों दिया जाए! मित्र हैं तो निमंत्रण दिया है। मगर नजर अटकी है कि यह नसरुद्दीन का बच्चा खिचड़ी नहीं खा रहा है। सम्हाला होगा बहुत, सम्हालते-सम्हालते भी बात निकल ही गई--क्या खिचड़ी गधे खाएंगे? नसरुद्दीन भी कुछ पीछे तो नहीं रह जाएगा। उसने कहा, खिचड़ी तो गधे खा ही रहे हैं।
अहंकार ऊपर-ऊपर से मीठी-मीठी बातें करता है, लेकिन जल्दी ही पर्तें उघड़ जाती हैं। ऊपर से प्रेम जताता है, भीतर घृणा होती है। ऊपर से मित्रता बनाता है, भीतर शत्रुता पलती है। दो अहंकारियों में मैत्री हो ही नहीं सकती, असंभव है। लाख मित्रता की वे बातें करें, मगर भीतर स्पर्धा होगी, प्रतियोगिता होगी--कौन बड़ा? यह संघर्ष जारी रहेगा।
इसलिए राजनीति में कोई दोस्त नहीं होता, क्योंकि वह अहंकार की दौड़ है। वहां कोई दोस्त नहीं है। वहां जो कल दुश्मन था, आज दोस्त हो जाता है; जो आज दोस्त था, कल दुश्मन हो जाता है। साधारणजन तो बहुत चौंकते हैं कि यह खेल किस तरह का है! कल जिसको गालियां दे रहे थे, एकदम उसका सम्मान शुरू हो जाता है।
चरणसिंह ने इंदिरा के ऊपर ऐसा मुकदमा चलाना चाहा था, जैसा मुकदमा दूसरे महायुद्ध के बाद हिटलर के सेनापतियों पर चला। उससे खतरनाक कोई मुकदमा नहीं था। न्यूरेमबर्ग में जो मुकदमा चला वह मनुष्य-जाति के इतिहास का सबसे खतरनाक मुकदमा था, क्योंकि मनुष्य-जाति के सबसे बड़े अपराधियों पर मुकदमा था। चरणसिंह चाहते थे कि इंदिरा पर और संजय पर न्यूरेमबर्ग के ढंग का मुकदमा चलना चाहिए। और वही चरणसिंह, जब मोरारजी को गिराने का समय आया, तो इंदिरा से कहा कि आप तो मेरी छोटी बहन हैं। और संजय! संजय तो मेरे बेटे जैसा है।
तो बेटे पर और बहन पर न्यूरेमबर्ग का मुकदमा चलाने वाले थे! बहुत मजे का खेल है। वहां कोई अपना नहीं है। जिनको तुम अपना समझ रहे हो, वे भी अपने नहीं हैं; वे भी किस घड़ी दूसरे घोड़े पर सवार हो जाएंगे, कहना मुश्किल है। राजनीति में कोई मित्र नहीं होता।
मैक्यावेली ने राजनीति की गीता लिखी है। मैक्यावेली ने अपनी किताब प्रिंस में राजनीति के सारे मूल आधार, मूल सूत्र लिख दिए हैं। मैक्यावेली सोचता था कि मेरी इस किताब के छपने के बाद जरूर मुझे किसी बड़े साम्राज्य का वजीर होने का मौका मिलेगा। कौन सम्राट इतने बुद्धिमान आदमी को नहीं चाहेगा! लेकिन बड़ी नौकरी मिलना तो दूर, मैक्यावेली को किसी देश में टिकने नहीं दिया गया। क्योंकि लोगों ने देखा: जो इतना समझदार है, वह खतरनाक है। और उसने बातें तो लिखी हैं सारी जो नहीं लिखनी चाहिए, सब साफ-साफ लिख दीं। जैसे उसने लिखा कि राजनीति में न कोई मित्र होता है, न कोई शत्रु। इसलिए मित्र को भी ऐसी बात मत कहना जो तुम शत्रु से छिपाना चाहते हो, क्योंकि कल यह मित्र शत्रु हो सकता है। और शत्रु के खिलाफ ऐसे शब्द मत बोलना जो तुम मित्र के खिलाफ नहीं बोलना चाहोगे, क्योंकि कल यह शत्रु मित्र हो सकता है।
मैक्यावेली निश्चित ही राजनीति का सबसे कुशल पंडित था, वैसे ही जैसे भारत में कौटिल्य हुआ। अब कौटिल्य तो कुटिलता का अवतार समझो।
धन की दौड़ हो, पद की दौड़ हो, यश की दौड़ हो, जहां भी अहंकार है वहां यह दोहरा खेल चलेगा।
हिरदे में तो कुटिल है, बोलै वचन रसाल।
पलटू वह केहि काम का, ज्यों नारुन-फल लाल।।
सावधान रहना, मीठे-मीठे वचनों में मत आ जाना। अच्छी-अच्छी बातों में मत उलझ जाना। बातें बहुत लच्छेदार हो सकती हैं, मगर तुम्हारे लिए फांसी का फंदा बन सकती हैं। बहुत सावधानी से फूंक-फूंक कर कदम रखना। इतने जल चुके हो तुम कि मैं तुमसे कहता हूं: छाछ भी फूंक-फूंक कर पीना। कहावत है न: दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है! तुम इतने लूटे गए हो, इतने सताए गए हो, इतने परेशान किए गए हो, सदियों-सदियों में तुम्हारा इतनी तरह से शोषण किया गया है कि मैं तुमसे कहता हूं: छाछ भी फूंक-फूंक कर पीना। कुछ हर्जा नहीं है। थोड़ी देर लगेगी फूंकने में, और क्या होगा! मगर छाछ भी फूंक-फूंक कर पीना। नहीं तो फिर डर है कि फिर जलोगे।
सब तीरथ में खोजिया, गहरी बुड़की मार।
पलटू जल के बीच में, किन पाया करतार।।
पलटू कहते हैं कि मैं खूब जगह-जगह तीर्थों में गया, खूब डुबकी मारी, गहरी डुबकी मारी, कि शायद और गहराई में मिले परमात्मा, और गहराई में मिले परमात्मा।
सब तीरथ में खोजिया, गहरी बुड़की मार।
कोई कमी नहीं की बुड़की मारने में।
पलटू जल के बीच में, किन पाया करतार।
लेकिन न मुझे मिला, न किसी को कभी पहले मिला था, न किसी को कभी आगे मिलेगा।
जल में डुबकी लगाने से परमात्मा के मिलने का क्या संबंध है? अपने जीवन में डुबकी लगाओ! तुम हो प्रयागराज! तुम हो संगम!
संगम के प्रतीक को समझना। कहा जाता है, संगम पर तीन नदियां मिलती हैं--गंगा, यमुना, सरस्वती। गंगाऱ्यमुना तो दिखाई पड़ती हैं; मिल जाती हैं तो भी अलग-अलग दिखाई पड़ती हैं, उनके जल का रंग अलग-अलग है। सरस्वती दिखाई नहीं पड़ती; अदृश्य है। ऐसी ही मनुष्य की दशा है। असल में, यह मनुष्य की दशा का ही प्रतीक है। तुम्हारे भीतर शरीर और मन तो दिखाई पड़ते हैं; यद्यपि मिले-जुले हैं, फिर भी उनकी धारा अलग-अलग दिखाई पड़ती है, रंग अलग-अलग है। चेतना दिखाई नहीं पड़ती। चेतना ही सरस्वती है। सरस्वती देवी है ज्ञान की, चैतन्य की, ध्यान की। तुम्हारी चेतना नहीं दिखाई पड़ती, वह सरस्वती है।
तो मन, शरीर और आत्मा, इन तीन का मिलन तुम्हारे भीतर हो रहा है; यही है प्रयागराज, तीर्थों का तीर्थ! कहीं और जाने की जरूरत नहीं है। कुंभ मेलों में मत भटको! कुंभ मेला तुम्हारे भीतर रोज ही लगा हुआ है। तुम्हीं हो कुंभ! इसमें ही डुबकी मारो!
सब तीरथ में खोजिया, गहरी बुड़की मार।
पलटू जल के बीच में, किन पाया करतार।।
बहरे-हस्ती का अजल से हूं शनावर लेकिन
आज तक वाकिफे-राजेत्तहे-दरिया न हुआ
तैराक हूं, पुराना तैराक हूं!
बहरे-हस्ती का अजल से हूं शनावर लेकिन
अस्तित्व की खोज में तैरने की कला सीख ली है, डुबकी मारने की कला सीख ली है।
आज तक वाकिफे-राजेत्तहे-दरिया न हुआ
यद्यपि खूब तैरा, खूब डुबकी मारी, लेकिन अब तक मुझे जीवन की सार-संपदा हाथ नहीं लगी।
आज तक वाकिफे-राजेत्तहे-दरिया न हुआ
वह जो इस जीवन का अंतस्तल है, वह मेरे हाथ में नहीं आया है। सब तैरना व्यर्थ गया, सब डुबकी लगाना व्यर्थ गया।
जो डूबना हो तो काफी है एक आंसू भी
तेरा कुसूर कि तू गर्के-आब हो न सका
एक आंसू भी काफी है, अगर प्रीति का हो, भक्ति का हो, श्रद्धा का हो, ध्यान का हो, समर्पण का हो--तो एक आंसू भी डुबा लेगा। और एक आंसू में ही करतार मिल जाएगा! और नहीं तो तुम जाओ तीर्थों में, डूबते रहो, व्यर्थ ही तुम्हारी यात्राएं होंगी।
तेरी नजरें दे रही हैं तुझको धोखा पै-ब-पै
है गुबारे-दश्त, दीवाने, यहां महमिल कहां
हर जर्रा दे रहा है "अलम' दावते-जमाल
लेकिन जहां में चश्मे-हकीकत-निगर कहां
कहां खोजते फिर रहे हो?
तेरी नजरें दे रही हैं तुझको धोखा पै-ब-पै
और तुम्हारी आंखें तुम्हें कितना धोखा दे रही हैं!
है गुबारे-दश्त, दीवाने, यहां महमिल कहां
कहां खोज रहे हो? ये तुम्हारी सारी भटकनें सिर्फ तुम्हें गुबार से भर देंगी, धूल-धवांस से भर देंगी। इन यात्राओं से तुम और गंदे होकर लौटोगे। तीर्थों से तुम और अपवित्र होकर लौटोगे, पवित्र होकर नहीं।
हर जर्रा दे रहा है "अलम' दावते-जमाल
लेकिन अगर आंख हो देखने वाली तो कण-कण परमात्मा का निमंत्रण दे रहा है, बुलावा दे रहा है।
हर जर्रा दे रहा है "अलम' दावते-जमाल
लेकिन जहां में चश्मे-हकीकत-निगर कहां
लेकिन मुश्किल यह है कि दुनिया में आंख वाले कहां हैं! आंख वाले यानी--जिनको पलटू कहते हैं अंधे। क्योंकि तुम अगर आंख वाले हो तो आंख वालों को अंधा कहना ही पड़ेगा। या तो तुम अंधे हो तो फिर आंख वालों को आंख वाला कहा जा सकता है। बुद्ध अगर आंख वाले हैं तो तुम अंधे हो। और अगर बुद्ध को अंधा कहना हो तो फिर तुमको आंख वाला माना जा सकता है, फिर कोई अड़चन नहीं है। दो में से कुछ एक तय करना पड़ेगा।
पलटू कहते हैं: भइया, तुम्हीं आंख वाले सही। क्योंकि तुम्हें बाहर की सब चीजें दिखाई पड़ रही हैं तो तुम आंख वाले हो। वे कहते हैं: मेरी बात वह समझेगा जो अंधा है। अंधा वह जिसने बाहर देखना बंद कर दिया और भीतर देखना शुरू किया।
लेकिन जहां में चश्मे-हकीकत-निगर कहां
सत्य को देखने वाली दृष्टि नहीं है, नहीं तो जर्रा-जर्रा, कण-कण परमात्मा का निमंत्रण दे रहा है। और तुम जा रहे हो तीर्थ? तीर्थ वहां है जहां तुम हो! जहां उठते हो वहीं काबा! जहां बैठते हो वहीं काशी! बैठने का सलीका आए, उठने का तरीका आए।
पलटू जहवां दो अमल, रैयत होय उजाड़।
इक घर में दस देवता, क्योंकर बसै बजार।।
पलटू कहते हैं: जहां दो राजा हों वहां जनता की मुसीबत हो जाती है--किसका माने, किसका न माने! एक कुछ कहता है, दूसरा कुछ कहता है। और तुम्हारे भीतर दो राजा हैं। दो ही नहीं, सच पूछो तो बहुत राजा हैं; एक नहीं, अनेक।
इक घर में दस देवता, क्योंकर बसै बजार।
तुम्हारी बस्ती बस नहीं पाती, उजड़-उजड़ जाती है। दस इंद्रियां हैं तुम्हारे भीतर और हर इंद्रिय तुम्हें अपनी तरफ खींच रही है। और तुम्हारा इंद्र सोया हुआ है। इंद्र आकाश में नहीं है, याद रखना। इंद्र तो तुम्हारे भीतर उस तत्व का नाम है जो तुम्हारी सारी इंद्रियों के ऊपर मालकियत कर सकता है। इंद्र वह जो इंद्रियों का मालिक है। इंद्र वह जिसके चारों तरफ इंद्रियां नाचें, जो सिंहासन पर विराजमान हो सके। इंद्र का अर्थ है स्वामित्व। और स्वामित्व किसका हो सकता है? सोए हुए का नहीं। सोया हुआ तो अनेक होगा; जागा हुआ एक हो सकता है। सोने में तो अनेक सपने होंगे; जागने में सब सपने खो जाएंगे, सिर्फ जागरण बचेगा।
पलटू जहवां दो अमल, रैयत होय उजाड़।
एक तुम्हारी आत्मा है, जो कहती है चलो परमात्मा की तरफ। और एक तुम्हारी देह है, जो कहती है चलो पदार्थ की तरफ। देह खिंचती है जमीन की तरफ और आत्मा खिंचती है आकाश की तरफ। और तुम उजड़े जा रहे हो।
तुम्हारा तनाव क्या है? मनुष्य के जीवन में इतनी चिंता क्या है? एक ही चिंता, एक ही तनाव--कि विपरीत की तरफ खिंचाव है। इसमें तय करना जरूरी है कि कौन मालिक है और कौन गुलाम है। अधिक लोगों ने तय कर रखा है शरीर मालिक है। आत्मा का तो पता ही नहीं है; इसलिए शरीर ही मालिक होना चाहिए।
शरीर में दस इंद्रियां हैं। फिर दसों इंद्रियां अपनी-अपनी तरफ खींचती हैं। आंख कहती है सौंदर्य की तरफ चलो। जबान कहती है कि भोजन की तरफ चलो। कान कहते हैं कि आज संगीत की महफिल जमी है, आज तो उपवास भी हो जाए तो कोई फिक्र नहीं, मगर आज संगीत की महफिल से नहीं उठ सकते। आंख कहती है: कहां की संगीत की महफिल! आज सुंदर फिल्म लगी है। यहां चलो, वहां चलो! यह करो, वह करो! दस इंद्रियां हैं, दसों तरफ खींच रही हैं। पांच कामेंद्रियां हैं, पांच ज्ञानेंद्रियां हैं। सबका खिंचाव अलग-अलग चल रहा है।
तुम रोज तो पाते हो यह--क्या करें? रेडियो सुनें, अखबार पढ़ें, सिनेमा देख आएं, क्लबघर हो आएं, किसी मित्र से मिल आएं, बाल-बच्चों के पास बैठें, ताश फैलाएं कि शतरंज बिछा दें--क्या करें, क्या न करें? चौबीस घंटे छोटी-छोटी चीजों के संबंध में भी उलझन चल रही है। स्त्रियां घंटों लगा देती हैं, यही तय नहीं हो पाता कि कौन सी साड़ी पहनें।
मुल्ला नसरुद्दीन अपनी गाड़ी में बैठा हार्न पर हार्न बजा रहा था। देर हुई जा रही है, समय निकला जा रहा है, ट्रेन पकड़नी है--और पत्नी है कि उतर नहीं रही है ऊपर से! जब उसका हार्न पर हार्न बजना सुना तो उसकी पत्नी खिड़की से झांकी और कहा कि सुनो जी, एक घंटे से कह रही हूं कि एक मिनट में आती हूं! लेकिन बस लगे हो हार्न पर हार्न बजाने में।
एक घंटे से कह रही हूं कि एक मिनट में आती हूं! तय ही नहीं हो पाता। तय करना ही मुश्किल होता है, छोटी-छोटी चीजों में तय करना मुश्किल होता है।
मेरे गांव में मेरे घर के सामने एक सुनार रहते हैं। वे जरा डांवाडोल चित्त के आदमी हैं। उनकी डांवाडोल हालत देख कर एक दिन मैंने उनसे रास्ते पर कहा...चले जा रहे थे...मैंने कहा, सोनीजी, कहां जा रहे हैं? कहा, बाजार जा रहा हूं। मैंने कहा, आपने ठीक से देख लिया कि ताला ठीक लगा है कि नहीं? उन्होंने कहा, मैं ताला लगा कर आया हूं।
मगर शक पैदा हो गया। इधर मैं आया, मैंने देखा पीछे-पीछे वे भी चले आ रहे हैं। मैंने कहा, सोनीजी, कहां वापस लौट आए जल्दी? उन्होंने कहा कि तुमने शक पैदा कर दिया। जाकर ताला हिला कर देखा और कहा कि बिलकुल ठीक है।
उस दिन से गांव में खबर हो गई। वे कहीं भी दिखाई पड़ जाएं, लोग कहें--सोनीजी, ठीक से ताला लगा आए? और धीरे-धीरे उनको शक ऐसा बढ़ने लगा कि एक दिन मुझे रास्ते में पकड़ कर बोले कि तुम मेरी जान लेकर रहोगे! जो देखो वही मुझसे कहता है: ताला ठीक से लगा आए? हालांकि मैं जानता हूं कि ठीक से लगा कर आया, लेकिन लौट कर मुझे जाना ही पड़ता है, देखना पड़ता है। और अब तो लोग मेरे पीछे जाते हैं देखने कि सोनीजी गए कि नहीं। अब तो मैं लगा कर भी चार-छह दफे हिला कर देख लेता हूं, पक्का भरोसा है कि कोई भी कहे, मानूंगा नहीं। मगर जब कोई कहता है तो फिर संदेह उठ आता है कि हो न हो, अरे क्या पता! यह भी क्या पक्का कि मैंने छह दफे हिला कर देखा है!
एक दिन मैंने उन्हें देखा कि वे तांगे में बैठे हुए स्टेशन की तरफ चले जा रहे हैं। गांव से स्टेशन कोई दो मील दूर है। मैं घूम कर लौट रहा था। मैंने कहा, सोनीजी, कहां जा रहे हैं आप? पत्नी रो रही है आपकी।
उन्होंने कहा, क्यों रोएगी पत्नी, अभी तो मैं छोड़ कर आ रहा हूं!
मैंने कहा, वह रो रही है, वह समझ रही है कि आप भाग गए घर से। आप बिलकुल छोड़ कर जा रहे हैं।
अरे, उन्होंने कहा कि नहीं, तीन दिन के लिए जा रहा हूं, लौट आऊंगा।
मैंने कहा कि आप पहले घर चल कर पत्नी को समझा दो। मर-मरा गई, आग-वाग लगा ली, कुछ से कुछ हो जाए!
उन्होंने कहा कि नहीं-नहीं।...मगर शक पैदा हो गया।...उन्होंने कहा, यह एक झंझट खड़ी कर दी। इधर मेरी ट्रेन चूक जाएगी, अगर मैं लौट कर गया।
मैंने कहा, आपकी मर्जी।
थोड़ी दूर तो वे गए। गांव के तांगे हैं, वे चलते भी बड़े धीरे-धीरे हैं। तब तक मैं उनके घर पहुंच गया, मैंने उनकी पत्नी को कहा कि सम्हल कर रहना, सोनीजी बहुत नाराज होकर गए हैं! और अगर लौट आए तो पिटाई करेंगे।
उनमें झगड़ा अक्सर होता है। वह तो यह सुन कर ही रोने लगी। तब तक सोनीजी आ गए तांगे में बैठे हुए। पत्नी को रोते देखा, एकदम टूट पड़े--कि मूरख! अरे मैं कहीं भाग गया कि मर गया, तू क्यों रो रही है? आज की गाड़ी तो चुकवा दी तूने!
तुम अपने मन को देखना, कोई भी संदेह पैदा कर दे सकता है। कोई भी संदेह पैदा कर दे सकता है! कमोबेश फर्क हैं लोगों में, लेकिन तुम्हारे मन में संदेह पैदा करना बिलकुल आसान है। मन संदेह से भरा ही है। और एक मन नहीं है तुम्हारे पास, अनेक मन हैं, एक भीड़ है। और इस भीड़ में तुम खिंचे हो, तने हो, परेशान हो रहे हो। इस परेशानी में तुम कभी भी जीवन की थिरता को उपलब्ध नहीं हो सकते। और जो थिर नहीं है, कैसे परिचित होगा स्वयं से?
थी न आजादे-फना किश्ती-ए-दिल, ऐ नाखुदा
मौजेत्तूफां से बची तो नजरे-साहिल हो गई
कोई एजाजे-सफर था या फरेबे-चश्मे-शौक
सामने आकर निहां आंखों से मंजिल हो गई
थी न आजादे-फना किश्ती-ए-दिल, ऐ नाखुदा
मौजेत्तूफां से बची तो नजरे-साहिल हो गई
किसी तरह अगर तूफान से किश्ती को बचा कर आ भी गए, तो किनारे से टकरा जाती है।
कोई एजाजे-सफर था या फरेबे-चश्मे-शौक
सामने आकर निहां आंखों से मंजिल हो गई
कितनी ही बार मंजिल बिलकुल करीब आ गई है--यह रही, यह रही--और फिर आंखों से ओझल हो गई है। क्योंकि तुम मुड़ गए। क्योंकि तुमने मोड़ ले लिया। और मोड़ पर मोड़ हैं, हर कदम पर मोड़ हैं।
हिंदू पूजै देवखरा, मुसलमान महजीद।
पलटू पूजै बोलता, जो खाय दीद बरदीद।।
प्यारा सूत्र है! सम्हाल कर रखना।
हिंदू पूजै देवखरा...
हिंदू पूजता है मंदिर को, देवालय को। मुसलमान पूजता है मस्जिद को।
पलटू पूजै बोलता...
पलटू तो कहता है: हम तो उस सदगुरु को पूजते हैं, जो बोलता है, उठता है, चलता है।
पलटू पूजै बोलता, जो खाय दीद बरदीद।
हम प्रसाद किसी पत्थर की मूर्ति को नहीं चढ़ाते। हम तो उसको प्रसाद चढ़ाते हैं, जो आंखों के सामने खाता है--खाय दीद बरदीद।
पलटू कह रहे हैं: सच्चा धार्मिक व्यक्ति वही है जो सदगुरु को खोज ले। मंदिर-मस्जिद तो सब मजार हैं, कब्रें हैं। हां, कभी वहां रहे होंगे जीवित पुरुष। पर दीये कभी के बुझ गए! ज्योति कभी की उड़ गई! हंस तो जा चुके मानसरोवर, पिंजड़े पड़े रह गए। तुम पिंजड़ों को पूज रहे हो। और फिर पिंजड़े बड़े होते चले जाते हैं, सजते चले जाते हैं।
एक आदमी मरा। उसके बच्चे छोटे-छोटे थे जब वह मरा। जब बच्चे पिता के जाने के बाद सोचने बैठे कि अब हम क्या करें, पिताजी क्या-क्या करते थे, उनकी परंपरा को बचा कर रखना है। तो उन्होंने देखा कि एक बात पिताजी रोज करते थे: खाने के बाद चौके के बाहर ही एक आले में उन्होंने एक सींक रख छोड़ी थी, उससे दांत साफ करते थे। इसमें जरूर कोई रहस्य होगा। ऐसा हमने कभी नहीं देखा...। और कोई काम छोड़ दें वे, मगर इस सींक से दांत साफ जरूर करते थे। इस सींक में कुछ राज है।
अब बच्चे थे, उनको दांत साफ करने की जरूरत भी नहीं थी; बूढ़ा बाप था, उसके दांतों में संधें भी हो गई थीं, सींक की जरूरत भी पड़ती थी। बच्चे तो दांत क्या साफ करें, साफ ही थे, कुछ सींक की जरूरत न थी। उन्होंने दो फूल चढ़ाने शुरू कर दिए सींक पर। और क्या कर सकते हैं!
फिर बड़े हुए। तो उन्होंने कहा कि सींक रखे हुए हैं, यह भी क्या बात है, बाप की याद! तो उन्होंने चंदन की एक बड़ी लकड़ी तैयार करवा ली, खुदवा ली, सुंदर बनवा ली, रख दी।
फिर और बड़े हुए, फिर काफी कमाई की, फिर नया मकान बनाया। नया मकान बनाया तो उन्होंने कहा, आला शोभा नहीं देता, एक छोटा मंदिर ही बना दो। एक छोटा उन्होंने संगमरमर का मंदिर बना दिया, उसमें बीच में एक सोने की, बड़ी लकड़ी की प्रतीक, लेकिन अब कान या दांत खुजाने की लकड़ी से इसका कोई संबंध न रहा, यह प्रतिमा हो गई, इस पर रोज फूल चढ़ाना! और उन्होंने कहा कि अब हम कब तक फूल चढ़ाते रहेंगे, हजार काम हैं, एक पुजारी रख दो। तो सौ रुपये महीने का एक पुजारी रख दिया, जो आरती उतारे और गायत्री पढ़े।
जब कोई फकीर उस घर में ठहरा तो उसने पूछा कि मैंने बहुत मंदिर देखे, ऐसा मंदिर नहीं देखा कि सोने का एक डंडा! यह तुमने कोई शंकरजी की पिंडी का नया आधुनिक ढंग निकाला है? यह तुमने क्या बनाया है? तो उसने खोजबीन की तो बात चली, पीछे गया, पूछात्ताछा, समझा; आखिर में बात यह निकली कि बाप एक सींक रखता था और उससे दांत साफ करता था।
तुम्हारे मंदिरों के पीछे इस तरह की कहानियां निकलेंगी।
मैंने सुना है, एक फकीर एक गांव में ठहरा। एक आदमी ने उसकी बड़ी सेवा की। जब फकीर जाने लगा तो अपना गधा उस आदमी को दे गया। उस पर बड़ा खुश था, उसकी सेवा पर खुश था। और फकीर के पास कुछ था भी नहीं।
फकीर तो चला गया, लेकिन फकीर का गधा था तो शिष्य उसकी पूजा करता। जिस पर उसका गुरु बैठा हो, उस गधे की पूजा की ही जानी चाहिए। वह फूल चढ़ाता, चंदन लगाता। गधा क्या, बिलकुल पंडित-पुजारी मालूम होता। माला पहनाता। और जब वह इतनी सेवा करता उसकी, तो गांव के लोगों ने भी देखा कि कुछ राज होना चाहिए। लोग भी मालाएं पहनाने लगे गधे को, चंदन के टीके लगा जाते, फूल चढ़ा जाते।
फिर कुछ और मनौती करने लगे। किन्हीं की मनौतियां भी पूरी हो गईं। किसी को बच्चा नहीं होता था, बच्चा हो गया। हालांकि गधे का इसमें कोई हाथ नहीं था। लेकिन लोग रुपया चढ़ाने लगे। फिर तो उस शिष्य ने देखा कि यह तो बड़ा धंधा अच्छा भी है! वह गधे को बांधे बैठा रहता। दिन में दस-पच्चीस रुपये भी आ जाते, चढ़ौतरी भी होती।
फिर वह गधा मर गया। शिष्य बड़ा दुखी हुआ। उसने उसकी सुंदर मजार बनवाई। अब मजार पर चमत्कार होने लगे। पहले से भी ज्यादा! क्योंकि पहले तो गधा था तो लोगों को थोड़ा संकोच भी लगता था। अब तो मजार थी, अब तो गधे का कोई सवाल ही नहीं था। मजार किसकी, यह भी कोई नहीं पूछता था। अरे होगी किसी पहुंचे हुए फकीर की! होगी किसी वली की! धीरे-धीरे पैसा इतना इकट्ठा हुआ कि उसने एक बड़ा मंदिर बना दिया। खूब धन आया।
फिर वह फकीर गुजरा एक बार गांव से। उसने पूछताछ की कि मेरा एक शिष्य मैं छोड़ गया था, वह दिखाई नहीं पड़ता।
उन्होंने कहा, वह है। मगर अब आप उसको पहचान नहीं सकेंगे। यह मंदिर...इस मंदिर का पुजारी वही है।
फकीर ने देखा तो वहां तो ठाठ ही कुछ और थे। शिष्य एकदम उठा, पैरों पर गिर पड़ा। शिष्य ने कहा कि मेरे मालिक, क्या भेंट दे गए थे आप भी! मैं तो पहले सोचा कि यह भी कोई भेंट है! मगर संतों के रहस्य संत ही जानें। दे तो गए थे गधा, लेकिन भाग्य खुल गए। क्या गधा था, पहुंचा हुआ गधा था। बड़ा सिद्ध था। लोगों की मनौतियां पूरी हुईं। शादी नहीं होती थीं, उनकी शादी हो गईं। बच्चे नहीं होते थे, उनके बच्चे हो गए। मुकदमे लोग जीत गए। क्या-क्या इस गधे ने चमत्कार न दिखाए! और मर कर भी दिखा रहा है! और मेरे तो भाग्य खुल गए। न काम, न धाम, मस्त पड़ा रहता हूं। दस-पच्चीस तो मेरे शिष्य हैं, सेवा करते रहते हैं।
वह फकीर हंसा। उसने कहा कि यह तू ठीक कहता है। यह गधा कोई साधारण गधा नहीं था। अरे मैं जिस मंदिर में रहता हूं, वह इसकी मां का मंदिर है! यह पुश्तैनी गधा था। इसकी मां भी बड़ी चमत्कारी थी! मेरे गुरु इसकी मां मुझे दे गए थे। यह पीढ़ी दर पीढ़ी से सिद्धों की परंपरा है। ये कोई साधारण गधे नहीं हैं।
मंदिर और मस्जिद, पूजा और पाठ ऐसे ही जाल हैं जो खड़े हो जाते हैं। और फिर एक के पीछे दूसरे लोग चलते रहते हैं। लोग बिलकुल अंधे हैं, अनुकरण करते हैं।
हिंदू पूजै देवखरा, मुसलमान महजीद।
पलटू पूजै बोलता, जो खाय दीद बरदीद।।
पलटू कहते हैं: मैं तो सिर्फ उसको पूजता हूं जो जिंदा है। उसके चरणों में बैठता हूं जहां अभी परमात्मा प्रवाहित है। उसकी सुनता हूं जिससे परमात्मा बोल रहा है।
चारि बरन को मेटिकै, भक्ति चलाया मूल।
जो जाग्रत पुरुष हैं, उन्होंने सारे भेद मेट दिए हैं--चार वर्णों के, चार आश्रमों के, हिंदू मुसलमान ईसाई के। उन्होंने भेद मेट दिए, उन्होंने अभेद को चलाया। अभेद का सूत्र है: भक्ति।
चारि बरन को मेटिकै, भक्ति चलाया मूल।
गुरु गोविंद के बाग में, पलटू फूला फूल।।
और पलटू कहते हैं: मेरे गुरु के बगीचे के कारण ही, मेरे गुरु के सत्संग के कारण ही, मेरे गुरु के आस-पास जो संघ निर्मित हुआ उसके कारण ही!
गुरु गोविंद के बाग में, पलटू फूला फूल।
मैं कभी खिलता नहीं अपने आप। मैंने गुरु को खिले देखा तो मुझे भरोसा आया कि मैं भी खिल सकता हूं। मैंने गुरु के पास औरों को खिलते देखा तो मुझे भरोसा आया कि मैं भी खिल सकता हूं। गुरु के बगीचे में इतने फूल थे कि बिना खिले कोई बच नहीं सकता था।
और यही मैं अपने संन्यासियों से कहता हूं कि अगर टिके रहे, अगर याद रखी पलटू की, और समझाते रहे अपने को कि काहे होत अधीर, तो आज नहीं कल तुम्हारा फूल खिल जाएगा। आश्वासन है कि यहां बहुत फूल खिलने को हैं। तुम्हारी कलियां चटकेंगी, फूल बनेंगी।
नाखुदा डूब चुका, नाव है गर्केत्तूफां
हाय किस वक्त मुझे यादे-खुदा आती है
वो समझते हैं गुलिस्तां में चटकती है कली
टूटने की जो किसी दिल की सदा आती है
तुम तो याद परमात्मा की करते हो केवल दुख में और मैं तुम्हें सिखा रहा हूं कि सुख में उसकी याद करो। दुख में याद करोगे, कुछ काम की नहीं होगी।
नाखुदा डूब चुका, नाव है गर्केत्तूफां
माझी डूब चुका, नाव डूबने के करीब है।
हाय किस वक्त मुझे यादे-खुदा आती है
पछताओगे बहुत, जब सब डूबने लगेगा। माझी गया, नाव जा रही है, तूफान ने घेर लिया, बचने का कोई उपाय नहीं--उस वक्त ईश्वर को याद करोगे, किसी काम नहीं आएगा। उत्सव में, आनंद में उसे स्मरण करो।
वो समझते हैं गुलिस्तां में चटकती है कली
टूटने की जो किसी दिल की सदा आती है
जब टूटने को हो जाओ, दिल टूटे, वह कोई चटकना नहीं है, वह कोई फूल का खिलना नहीं है। दिल टूटे तो भी आवाज आती है। साज टूटे तो भी आवाज आती है। लेकिन साज का टूटना कोई संगीत नहीं है।
सदगुरु के पास भी कली के चटकने की आवाज आती है, लेकिन वह चटकने की आवाज है, फूल बनने की आवाज है, साज पर संगीत उठने की आवाज है।
लेकिन लोग भटके हैं, मुर्दा धर्मों में। और लोग अपने को धोखा देने में बड़े कुशल हैं। धोखा देना सस्ता भी है, कीमत भी नहीं चुकानी पड़ती। मुर्दों को पूजना आसान भी है, क्योंकि मुर्दे तुम्हें बदल नहीं सकते। और तुम्हारे दिल में जो हो अपने संबंध में मान लेना, तुम मान सकते हो, क्योंकि मुर्दे तुम्हें रोक नहीं सकते। जो चाहो अर्थ करो शास्त्रों का, कौन तुम्हें अटका सकता है! शास्त्र नहीं कह सकते कि यह गलत है। सदगुरु मौजूद होगा तो एक तो तुम हिम्मत न कर सकोगे गलत अर्थ करने की। और हिम्मत भी की तो उसका डंडा तुम्हारे सिर पर होगा। उसकी तलवार सदा चोट करने को तत्पर होगी। वह हथौड़ी और छैनी लेकर बैठा है। वह तुम्हारे अनगढ़ पत्थर को काटेगा। वह तुम्हें मूर्ति बनाएगा। लेकिन लोग सस्ता कुछ भी मान लें, मानने में ही लोग जीते हैं।
ट्रेन में तीन महिलाएं बैठी हुई थीं। आपस में गपशप चल रही थी। उनमें से एक स्त्री, जो कि देखने-दिखाने में साठ साल से कम नहीं लगती थी, बड़े ही मोहक स्वर में बोली, अरे, मेरी उम्र कोई कह नहीं सकता कि मैं चालीस साल की हूं। अभी भी मेरा शरीर-विन्यास अच्छे-अच्छे युवकों को दिल थामने पर मजबूर कर देता है।
उसकी बात सुन कर दूसरी महिला, जो कि चालीस साल की रही होगी, आंखें मटकाती हुई बोली, अरे, यह तो कुछ भी नहीं। मैं खुद तीस साल की हूं, लेकिन लोग मुझे बाईस का समझते हैं। और मुझे देख कर युवक तो युवक किशोर तक दीवाने हो जाते हैं।
यह सब सुन कर तीसरी कैसे चुप रह सकती थी! वह बोली, अरे, यह सब तो कुछ भी नहीं। लोग तो मुझे अभी सोलह साल की ही समझते हैं, जब कि मेरी वास्तविक उम्र बीस साल है। और युवक और किशोरों की तो छोड़ो, छोटे-छोटे बच्चे भी मुझे देख अपना कलेजा थाम लेते हैं।
और उस युवती की उम्र रही होगी कोई तीस साल। मगर स्त्रियां तो स्त्रियां!
मुल्ला नसरुद्दीन ऊपर की बर्थ पर लेटा हुआ था। उनकी बातें सुन कर वह धड़ाम से नीचे आ गिरा। महिलाएं तो एकदम घबड़ा गईं। एकदम बोलीं, अरे आप कहां से आ टपके?
मुल्ला बोला, मैं सीधा परमात्मा के यहां से चला आ रहा हूं, अभी-अभी पैदा हुआ हूं।
जो मानना हो मानो, कोई रोकने वाला नहीं है। लोग ऐसे ही मान कर बैठे हैं। उनका धर्म भी उनकी मान्यता है, उनका ज्ञान भी उनकी मान्यता है। उनकी नीति, उनका आचरण भी बस मान्यता है। चाहिए कोई सदगुरु कि तुम्हें झकझोर दे, तुम्हारी सारी मान्यताएं ऐसे झड़ जाएं जैसे पतझड़ में पत्ते झड़ जाते हैं। तब नये अंकुर होते हैं पैदा। तब नये पल्लव निकलते हैं।
कमर बांधि खोजन चले, पलटू फिरै उदेस।
षट दरसन सब पचि मुए, कोउ न कहा संदेस।।
पलटू कहते हैं: कमर बांध कर मैं खोजने निकला था। एक ही लक्ष्य था, एक विशेष लक्ष्य था, परमात्मा को पाना। सारे दर्शन, छहों दर्शन छान डाले, सब मुर्दा हैं, उनसे मुझे कोई संदेश न मिला।
षट दरसन सब पचि मुए, कोउ न कहा संदेस।
वहां लाशें पड़ी हैं सत्यों की, लेकिन सत्य तो वहां से कभी का उड़ चुका है।
कुछ अपनी करामात दिखा, ऐ साकी
जो खोल दे आंख, वो पिला, ऐ साकी
हुश्यार को दीवाना बनाया भी तो क्या
दीवाने को हुश्यार बना, ऐ साकी
कोई साकी चाहिए! कोई सदगुरु चाहिए, जो पिला दे! दीवाने को होशियार बना दे, सोए को जगा दे!
सिष्य सिष्य सब ही कहैं, सिष्य भया न कोय।
पलटू गुरु की वस्तु को, सीखै सिष तब होय।।
सभी अपने को शिष्य कहते हैं। कोई हिंदू है, तो वह समझता है कि शिष्य है हिंदू शास्त्रों का। कोई जैन है, तो समझता है वह शिष्य है जैन शास्त्रों का। शास्त्रों से कोई शिष्यता नहीं होती। शिष्यता तो जीवंत गुरु के साथ ही होती है। हां, महावीर के पास जो थे वे शिष्य थे। मोहम्मद के पास जो थे वे शिष्य थे। मुसलमान शिष्य नहीं हैं, जैन शिष्य नहीं हैं।
शिष्य तुम हो कैसे सकते हो जब तक गुरु मौजूद न हो? गुरु की मौजूदगी हो तो ही तुम्हारे भीतर शिष्यत्व की संभावना है। गुरु का खिला फूल देख कर ही तुम्हारे भीतर आश्वासन जगेगा, श्रद्धा जगेगी--मैं भी खिल सकता हूं! गुरु का खिला फूल देख कर तुम्हें पहचान आएगी कि मैं अभी कली हूं और फूल होने की मेरी पूरी-पूरी संभावना है।
पलटू गुरु की वस्तु को, सीखै सिष तब होय।
जब तुम गुरु के पास बैठ कर गुरु के होने का ढंग सीखोगे, गुरु जैसा जीना सीखोगे, तब शिष्य होओगे। शिष्य कोई पैदाइश से नहीं होता। शिष्यत्व की तलाश करनी होती है।
खोजत गठरी लाल की, नहीं गांठि में दाम।
लोकलाज तोड़ै नहीं, पलटू चाहै राम।।
कहते हैं पलटू: गठरी लाल की खोजने निकले हो, हीरे खरीदने हैं, और नहीं गांठि में दाम! पात्रता नहीं है। पात्रता जन्माओ। शिष्यत्व पैदा करो। झुकने की कला सीखो। मिटने की कला सीखो। खाली हो जाओ। अपने द्वार-दरवाजे खोल दो। किसी एक को तो निमंत्रण करो अपने भीतर कि तुम्हारे अंतस्तल तक प्रवेश कर जाए। बाधा मत दो।
यही शिष्य की कला है कि गुरु जब तुममें प्रवेश करे तो तुम सब द्वार-दरवाजे खोल दो, सब परदे हटा दो। तुम अपनी समग्र नग्नता में उसे उपलब्ध हो जाओ, ताकि वह तुम्हारे अंतरतम को छू ले और बजा दे तुम्हारे हृदय की वीणा को।
खोजत गठरी लाल की, नहीं गांठि में दाम।
लोकलाज तोड़ै नहीं, पलटू चाहै राम।।
और तुम राम चाहने चलते हो और लोकलाज छोड़ी नहीं जाती! जो राम का दीवाना है उसे लोकलाज छोड़नी ही पड़ेगी। उसे तो समाज से बहुत तरह के कष्ट मिलेंगे। उसे तो परंपरा सताएगी। उसे तो सड़ी-गली धारणाओं वाले लोग हर तरह से हैरान करेंगे। यह बिलकुल स्वाभाविक है। यह कीमत है जो चुकानी पड़ती है। यही तो दाम है जो गांठ में होने चाहिए।
मरने वाला मरि गया, रोवै जो मरि जाय।
समझावै सो भी मरै, पलटू को पछिताय।।
और जल्दी करो!
मरने वाला मरि गया...
देखते हो कोई रोज मर रहा! जल्दी करो! वह भी कल पर टालता रहा, टालता रहा और समाप्त हो गया। और वह शुभ घड़ी ही न आई जब शिष्यत्व को ग्रहण करता।
मरने वाला मरि गया, रोवै जो मरि जाय।
और अब तुम उसके पास बैठ कर रो रहे हो। वह तो मर गया, तुम भी रो-रो कर मरोगे। अरे, हंसऱ्हंस कर मरने की कला सीखो! हंसते हुए मरो! मगर हंसते हुए वही मर सकता है जो हंसते हुए जीए। और हंसते हुए कौन जी सकता है? जिसका राम से थोड़ा नाता हो जाए। और राम से नाता किसका हो सकता है? उसका ही, जो किसी सदगुरु के माध्यम से राम के पास प्रेम की पातियां भेजने लगे। सदगुरु तो डाकिया है, समझो; तुम्हारा पत्र वहां पहुंचा देता है, वहां का पत्र तुम्हें पहुंचा देता है।
मरने वाला मरि गया, रोवै जो मरि जाय।
समझावै सो भी मरै...
और कुछ नासमझ समझा रहे हैं। कह रहे हैं--मत रोओ, ऐसा तो संसार में होता ही है। यह तो संसार की गति है। कोई मर गया, गंवा गया जीवन। कोई रो रहा है, वह भी गंवा रहा है समय। और कोई समझा रहा है, वह भी गंवा रहा है समय।
पलटू को पछिताय।
पलटू कहते हैं: शायद ही कोई इनमें एकाध है जो पछताए। और जो पछताए वह पहुंच जाए।
एक पीले पत्ते को वृक्ष से गिरते देख कर लाओत्सु को संबोधि उपलब्ध हुई थी। पीले पत्ते को वृक्ष से गिरते देख कर लाओत्सु को समझ में आ गया--यहां सब मिट जाएगा। मिटने वाली इस दुनिया में क्या बसाना! तो शाश्वत को खोजूं, सनातन को खोजूं।
बुद्ध को एक बीमार, एक बूढ़े, एक मुर्दा और एक संन्यासी को देख कर क्रांति घटित हो गई थी। जहां बीमारी है, जहां बुढ़ापा है, जहां मौत है--वहां क्या है श्रम करने जैसा? सब छिन जाएगा! और संन्यासी को देख कर बुद्ध को लगा: यहां कुछ लोग हैं, जो मृत्यु के पार खोज भी कर रहे हैं।
मुझसे लोग पूछते हैं कि आप कितने संन्यासी चाहते हैं? मैं कहता हूं कि यह कोई गिनती का सवाल नहीं। मैं तो सारी पृथ्वी पर संन्यासी ही संन्यासी चाहता हूं कि ऐसा हो ही न सके कि गैरिक व्यक्ति दिखाई न पड़ें। उनका दिखाई पड़ना भी तुम्हें याद दिलाएगा। बुद्ध पर उस अनजान संन्यासी की कितनी कृपा है, इसका तुमने हिसाब लगाया? उसका तो कुछ नाम भी पता नहीं कौन संन्यासी था! जिसको देख कर बुद्ध को यह याद आई कि यहां कुछ खोजने वाले भी हैं; खोने वाले ही नहीं हैं, गंवाने वाले ही नहीं है, कुछ कमाने वाले भी हैं। उस संन्यासी को देख कर ही तो बुद्ध संन्यस्त हुए।
मैं तो सारी पृथ्वी को गैरिक कर देना चाहता हूं। गली-कूचे, गली-कूचे, जहां से तुम गुजरो वहां संन्यासी दिख जाए। पता नहीं किस शुभ घड़ी, किस मुहूर्त में तुम्हें यह बोध आए कि ये लोग क्या कर रहे हैं? इनको क्या हो गया है? शायद किसी शुभ मुहूर्त में तुम्हारे भीतर भी चिंगारी पैदा हो जाए। और एक चिंगारी जंगल को जला देती है--बस एक चिंगारी काफी है। उस चिंगारी का पैदा करना ही शिष्यत्व है। और उस चिंगारी में जल कर भस्मीभूत हो जाना--और तुम गुरु हो गए!
शिष्य और गुरु में बहुत फासला नहीं है, बस चिंगारी और जंगल में लग गई आग का, मात्रा का। शिष्य अगर सच्चा है तो शीघ्र ही गुरुता को उपलब्ध हो जाएगा।
लेकिन अगर तुम्हारा शिष्यत्व ही झूठा है तो तुम कभी गुरु न हो पाओगे। बहुत से बहुत पंडित, पुजारी--थोथे, तोतारटंत। मुर्दा बातें तुम दोहराते रहोगे। न उन्होंने तुम्हारे जीवन में कोई रोशनी दी, न किसी और के जीवन में उनसे कोई रोशनी हो सकती है।
खोजो गुरु, जीवित गुरु खोजो--पलटू कह रहे हैं।

नजर-नजर में तमाशे दिखा दिए ऐसे
मुझे भी एक तमाशा बना गया कोई
दिखा के शोखनिगाही का जलवए-बेताब
मेरी नजर को तड़पना सिखा गया कोई
नमूदेऱ्हुस्न को खिल्वत में था करार कहां
तअय्युनात की दुनिया में आ गया कोई
दिया वो दर्द कि थी जिसमें एक लज्जते-खास
सितम में शाने-करम भी दिखा गया कोई
यह मोजिजा है कि जिंदा हैं अब मेरे अरमां
मरे हुओं को भी जीना सिखा गया कोई
नकाब रुख से उठा दी मगर कमाल यह है
मेरी नजर का भी पर्दा उठा गया कोई

आज इतना ही।


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