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रविवार, 5 जून 2016

कहे होत अधीर--(प्रवचन--14)

अपना है क्या—लुटाओ—(प्रवचन—चौदहवां)
दिनांक 24 सितम्‍बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना
प्रश्न-सार :

1—संसार में संसार का न होकर रहना ही संन्यास है। मुझे यह असंभव सा क्यों लगता है?

2--पूज्य दद्दाजी मुझे बचपन से ही अपना जान कर, उन्मुक्त स्नेह और प्रेरणा देते रहे हैं। ढेर सारी स्मृतियों के बीच उनका सबके प्रति अपनापन, बालवत प्रेम, सब कुछ लुटा देने की तत्परता और सारे वातावरण को आनंद से भर देने वाला रूप मेरे भीतर भरता गया, भरता गया। वे मुझसे रोज किसी न किसी बहाने कहते थे: अपना है क्या--लुटाओ! अपना है क्या--लुटाओ!
उनके इस प्यारे वचन का आशय कृपा करके हमें कहें।


3—आप अक्सर कहा करते हैं कि अस्तित्व को जो दोगे वही तुम पर वापस लौटेगा; प्रेम दोगे, प्रेम लौटेगा; घृणा दोगे, घृणा मिलेगी।
आप तो प्रेम की मूर्ति हैं, आप प्रेम ही हैं, प्रेम ही बांट रहे हैं; फिर भी आपको इतनी गालियां क्यों मिलती हैं? क्या उपरोक्त नियम सच नहीं है?
4—मैं अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त एक साहित्यकार, विचारक, दार्शनिक, वैज्ञानिक और धर्माचार्य होकर भी मृत्यु को ही जी रहा हूं। मृत्यु से मुक्ति संभव है, तो मित्रता कर उससे एकाकार होने का उपाय क्या है?

5—मैं विवाह से इतना भय क्यों खाता हूं?


पहला प्रश्न:

भगवान! संसार में संसार का न होकर रहना ही संन्यास है। मुझे यह असंभव सा क्यों लगता है?

प्रेम चैतन्य! यह असंभव सा जरूर लगता है, लेकिन असंभव नहीं है। असंभव सा भी इसलिए लगता है कि साक्षी-भाव की जब तक अनुभूति न हो तब तक हम जो भी करते हैं, जहां भी होते हैं, उससे हमारा तादात्म्य हो जाता है। वही तादात्म्य हमारे ऊपर धूल सा जम जाता है। फिर दर्पण चेतना का, अस्तित्व को प्रतिफलित नहीं करता।
झेन कहावत है कि सारस, बगुले झील पर उड़ते हैं; न तो उनकी कोई आकांक्षा है कि झील में उनका प्रतिबिंब बने, मगर प्रतिबिंब बनता है; न झील की कोई आकांक्षा है कि सारस और बगुलों का प्रतिबिंब बनाए, लेकिन प्रतिबिंब बनता है। सारस और बगुले उड़ जाते हैं, प्रतिबिंब खो जाता है।
ऐसी ही साक्षी की दशा है: प्रतिबिंब बनते हैं और खो जाते हैं। साधारणतया हम प्रतिबिंबों को पकड़ लेते हैं। प्रतिबिंब जाने लगते हैं तो हम उनसे जकड़ते हैं, हम उन्हें मनाते हैं, समझाते हैं--रुक जाओ! ठहर जाओ! वे नहीं रुक सकते हैं, इसलिए पीड़ा होती है, दुख होता है। हम अतीत को नहीं छोड़ पाते, हम परिचित से मुक्त नहीं हो पाते, बस इतनी ही अड़चन है। और हम भविष्य की आकांक्षाएं आरोपित करते हैं, फिर वे पूरी हों, न हों। पूरी हों तो भी तृप्ति नहीं मिलती, क्योंकि आकांक्षाएं कोई कभी तृप्त होतीं ही नहीं; पूरी हो जाएं, फिर भी अतृप्ति बनी रहती है। आकांक्षा की दिशा ही गलत है। और अगर पूरी न हों तब तो स्वभावतः बहुत अतृप्ति होती है। जिनकी पूरी हो जाती हैं वे भी रोते पाए जाते हैं; जिनकी पूरी नहीं होतीं वे भी रोते पाए जाते हैं।
संसार का और क्या अर्थ है? संसार का अर्थ है: अतीत+भविष्य। जो नहीं है उसकी तस्वीरें टांगे हुए हो, उसकी तस्वीरों की याददाश्त तुम्हें रुला रही है। और जो अभी हुआ नहीं है उसकी तृष्णा का जाल फैलाया हुआ है, सपने प्रक्षेपित किए हुए हैं। उनमें सौ सपनों में निन्यानबे तो कभी पूरे होंगे नहीं, इसलिए रुलाएंगे बहुत, कांटों की तरह चुभेंगे बहुत, बड़ी पीड़ा छोड़ जाएंगे। और जो एक पूरा होगा वह भी कभी पूरा नहीं होता, पूरा होकर भी पूरा नहीं होता। धन चाहो और धन मिल जाए तो हैरानी होती है कि धन तो मिल गया, लेकिन जिस आशा से धन चाहा था वह आशा तो पूरी नहीं हुई! सोचते थे धन मिलेगा तो तृप्ति हो जाएगी, संतोष मिलेगा। वह संतोष तो उतना ही दूर है जितना पहले था। और धन का बोझ और सिर पर चढ़ गया, धन की चिंता और धन का तनाव और धन का दायित्व और सिर पर आ गया, और जिस शांति का खयाल था, जिस चैन का स्वप्न देखा था, उसकी तो कहीं पगध्वनि भी सुनाई नहीं पड़ती।
अतीत की तस्वीरें तुम्हें सता रही हैं, भविष्य की कल्पनाएं तुम्हें सता रही हैं। अतीत और भविष्य का जोड़ संसार है।
इस संसार से मुक्त होने का एक ही उपाय है। और वह है--वर्तमान के क्षण में जितनी समग्रता से जी सको जीओ। उसे ही मैं ध्यान कहता हूं, उसे ही संन्यास कहता हूं। वही समस्त बुद्धों की उपदेशनाओं का सार है। क्षण के आगे-पीछे न जाओ, क्षण काफी है। और जब क्षण बीत जाए तो रुकावट न डालो, बीत जाने दो, अलविदा दो--प्रसन्नता से, आनंद से! और जो नहीं आया है उसके हिसाब-किताब मत लगाते रहो; जब आएगा, जब सामने होगा, तब प्रतिफलित होगा तुम्हारे चेतना के दर्पण में। तब उसे जी लेना। जब तक नहीं आया है तब तक योजना न बांधो।
लेकिन लोग बहुत अजीब हैं!
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन ट्रेन में यात्रा कर रहा है। एक युवक सामने ही बैठा हुआ है। उस युवक ने पूछा, क्या महाशय बता सकेंगे, आपकी घड़ी में कितना बजा है?
मुल्ला नसरुद्दीन ने घड़ी तो नहीं देखी, युवक को नीचे से ऊपर तक देखा--एक बार, दो बार, तीन बार। युवक तो घबड़ाया। उसने कहा कि मैं सिर्फ इतना पूछ रहा हूं कि आपकी घड़ी में कितना बजा है।
नसरुद्दीन ने कहा कि वही तो मैं देख रहा हूं कि जिस आदमी के पास घड़ी भी नहीं है, उसको समय बताना कि नहीं?
उस युवक ने कहा, आप भी हैरानी की बात करते हैं! घड़ी नहीं है इसीलिए तो पूछ रहा हूं। इसमें आपका क्या बिगड़ जाएगा?
नसरुद्दीन ने कहा कि भाई मेरे, तुम अभी जवान हो, मैं बूढ़ा। अभी तुम्हें अनुभव नहीं। अभी तुम पूछोगे कि कितना बजा है? मैं कहूंगा कि पांच बज गए। फिर बात आगे बढ़ेगी, कोई यहीं तो रुकने वाली नहीं। बीज पड़ गया, अब इसमें अंकुर निकलेंगे। तुम पूछोगे, कहां जा रहे हो? मैं कहूंगा, बंबई जा रहा हूं। तुम पूछोगे, बंबई में कहां रहते हो? ऐसे सिलसिला चलेगा, आखिर में यह होगा कि मैं तुमसे कहूंगा कि अब बंबई तुम भी आ रहे हो तो मेरे घर भोजन ले लेना। मेरी जवान लड़की है। तुम एक-दूसरे को देख कर जरूर बातचीत में लग जाओगे, फिल्म देखने जाना चाहोगे। और झंझटें शुरू होंगी। और आज नहीं कल तुम प्रस्ताव लेकर हाजिर हो जाओगे कि मुझे विवाह करना है आपकी लड़की से। और मैं तुम्हें साफ कहे देता हूं, अभी कहे देता हूं कि जिस आदमी के पास घड़ी भी नहीं है उसके साथ मैं अपनी लड़की का विवाह नहीं कर सकता।
हमें हंसी आती है। मगर ऐसा ही हमारा मन है। ऐसे ही तो तुम कितने जुगाड़ बिठाते रहते हो! देखोगे गौर से तो अपने मन पर भी हंसोगे। मन शेखचिल्ली है। वह दूर-दूर की सोचता है, होनी-अनहोनी न मालूम क्या-क्या सोचता है! तुम जरा लौट कर देखो, तुमने कितना जीवन भर में सोचा कि ऐसा हो, वैसा हो। क्या हुआ? कितना उसमें से हुआ? निन्यानबे प्रतिशत तो कभी हुआ नहीं। लेकिन उस निन्यानबे प्रतिशत के लिए तुमने कितना समय गंवाया! और जो एक प्रतिशत हुआ उससे क्या हुआ?
एक पागलखाने में एक मनोवैज्ञानिक अध्ययन करने आया है। वह पूछता है सुपरिनटेंडेंट से कि यह जो पहला आदमी कठघरे में बंद है और छाती पीट रहा है और हाथ में एक तस्वीर लिए हुए है, उसे चूमता है और छाती से लगाता है--इसे क्या हो गया है?
उस सुपरिनटेंडेंट ने कहा, इसकी बड़ी दुख भरी कथा है। जिसकी यह तस्वीर लिए है, इस स्त्री को प्रेम करता था, विवाह करना चाहता था। लेकिन उस स्त्री ने इनकार कर दिया, तब से यह विक्षिप्त हो गया है। बस उसकी तस्वीर ही अब इसका एकमात्र सहारा है। चौबीस घंटे उसी की धुन लगी है। यह मजनू है--आधुनिक मजनू! लैला इसे मिली नहीं।
थोड़े आगे बढ़े, दूसरे कठघरे में एक आदमी अपने बाल खींच रहा था, सिर पीट रहा था, दीवाल में सिर मार रहा था। उस मनोवैज्ञानिक ने पूछा, इसे क्या हुआ?
सुपरिनटेंडेंट ने कहा, आप न पूछते तो अच्छा था। इसने उस स्त्री से शादी की जिस स्त्री ने पहले आदमी को शादी करने से इनकार कर दिया था। जब से इसने शादी की तब से पागल हो गया है। उस स्त्री ने इसे पगला दिया है। वह स्त्री इसकी जान खाए जा रही है।
एक विवाहित नहीं हुआ, इसलिए रो रहा है, सिर पीट रहा है। एक विवाहित हो गया है, इसलिए रो रहा है और सिर पीट रहा है। और ऐसा सारे जगत में घट रहा है।
तुम पा लोगे तो रोओगे। जिन्होंने पा लिया है उनसे पूछो। उनकी आंखों में आंसू हैं। तुम नहीं पाओगे तो रोओगे, क्योंकि प्राणों में एक पीड़ा रह जाएगी--कुछ भी न कर पाए!
संसार का अर्थ ये वृक्ष, ये चांदत्तारे, यह आकाश, यह सूरज, ये नदी-पहाड़, ये लोग, पशु-पक्षी, यह नहीं है। तुम्हारे तथाकथित महात्मा तुम्हें यही समझाते रहते हैं कि यह जो फैलाव है, यह संसार है। नहीं, यह फैलाव संसार नहीं है। तुम्हारे मन का जो फैलाव है--प्रपंच मन का--वह संसार है। उस संसार से मुक्त हुआ जा सकता है।
असंभव सा लगेगा शुरू में कि कैसे अपने अतीत से मुक्त हो जाओ! लेकिन अतीत है क्या सिवाय स्मृतियों के ढेर के? राख है, अंगार भी तो नहीं बची! राख से मुक्त होने में ऐसा क्या असंभव है? राख को ढोना मूढ़ता है। राख से मुक्त हो जाना सहज-सरल बात होनी चाहिए। जो बीता सो बीता, अब उसको पकड़ कर कहां बैठे हो? तुम्हारे हाथ खाली हैं। हाथ खोलो और देखो, वह जा चुका है। अब तुम रोओ तो भी लौट नहीं सकता। अब तुम लाख परेशान होओ तो भी उसे वापस नहीं ला सकते।
समय लौटता ही नहीं, इसलिए पीछे लौट-लौट कर जो देखता है वह व्यर्थ ही कष्ट पा रहा है, वह अपने को ही अकारण सता रहा है। और कितना समय उसमें जा रहा है! कितना बहुमूल्य वर्तमान तुम नष्ट कर रहे हो अतीत की स्मृतियों में! जीवित को मुर्दे के चरणों में झुका रहे हो, जीवित को मुर्दे के आगे समर्पित कर रहे हो, जीवित को मुर्दे के सामने बलि दे रहे हो!
और या फिर भविष्य तुम्हें पकड़े हुए है कि कल ऐसा करूंगा।
कल तो आने दो! कल, पहली तो बात, कभी आता नहीं। कल कभी आते देखा है? जब आता है आज आता है। और आज को तुम खराब कर रहे हो उस कल के लिए जो कभी आएगा नहीं। और जब आज की तरह कल आएगा भी, तो तुम्हारी आदत मजबूत होती जा रही है रोज-रोज, आज को बरबाद करने की कल के लिए। यह आदत सघन होती जाएगी, यह यंत्रवत हो जाएगी। आज तुम कल के लिए सोचोगे। कल जब आएगा आज की तरह, तब तुम फिर कल के लिए सोचोगे। तुम कल भी यही कर रहे थे। जो बीत गया कल, तब तुम आज के लिए सोच रहे थे। लेकिन जीओगे कब? दो कलों के बीच उलझे तुम जीओगे कब?
ये दो कल ही चक्की के दो पाट हैं, जो तुम्हें पीस रहे हैं। इनके बाहर आ जाओ। ध्यान या साक्षी-भाव इनके बाहर आने की विधि है। ध्यान का केवल इतना ही अर्थ है, जो है उससे इंच भर यहां-वहां न जाऊंगा। मन भागेगा आदतों के अनुसार, वापस ले आऊंगा, फिर-फिर ले आऊंगा। ध्यान की जितनी विधियां हैं, अनंत विधियां हैं ध्यान की, लेकिन सब का मूल सार, सब का राज एक है--किस तरह चैतन्य को वर्तमान में ले आया जाए।
जैसे विपस्सना है--बुद्ध की परम विधि! जितने लोग विपस्सना से ज्ञान को उपलब्ध हुए हैं उतने लोग किसी और विधि से उपलब्ध नहीं हुए, क्योंकि बड़ी सुगम और सरल विधि है। मगर विधि क्या है? विधि सीधी-साफ है: श्वास का बाहर आना, श्वास का भीतर जाना, इसे देखो। विपस्सना का अर्थ होता है: देखो, अंतर्दृष्टि। बस देखते रहो साक्षी बने--यह श्वास भीतर गई, यह भीतर पहुंची, यह क्षण भर ठहरी, यह वापस चली, यह बाहर गई, यह बाहर निकल गई, यह क्षण भर बाहर रुकी रही, यह फिर भीतर आने लगी--बस यह जो श्वास का वर्तुलाकार परिभ्रमण चल रहा है, यह जो श्वास की माला चल रही है, इसको देखते रहो। कुछ मत करो।
क्या होगा इसका परिणाम? इसका परिणाम कि तुम वर्तमान में जीने की क्षमता को उपलब्ध हो जाओगे। श्वास वर्तमान है। बुद्ध यह नहीं कह रहे हैं, जो श्वास जा चुकी है उसके संबंध में सोचो; जो अभी आने वाली है उसके संबंध में सोचो। वे कह रहे हैं, जो अभी है, भीतर जा रही है उसके संबंध में, बाहर जा रही है उसके संबंध में। श्वास के साथ ही डोलते रहो।
मन भागेगा, मन हजार विचार उठाएगा। तुम चुपचाप उसे फिर वापस ले आना श्वास पर। श्वास तो एक बहाना है, निमित्त है, एक खूंटी है। यही सारी और विधियों का सार भी है।
सूफी इसे जिक्र कहते हैं, प्रभु-स्मरण। हर बार अपने मन को वापस लौटाओ प्रभु-स्मरण पर। कोई भी नाम चुन लिया, जैसे राम चुन लिया। मन यहां-वहां भागे, राम की खूंटी पर वापस ले आओ। पलटू इसी को सुरति कहते हैं। सारे संतों ने इसे सुरति कहा है। सुरति बुद्ध का ही वचन है, लेकिन बिगड़ते-बिगड़ते, लोकभाषा में आते-आते, घिसते-घिसते सुरति हो गया। बुद्ध ने तो कहा था: स्मृति। स्मरणपूर्वक जीओ, होशपूर्वक जीओ। जो कर रहे हो उसकी स्मृति बनी रहे, उससे हटो मत। संत कहते हैं सुरति। सूफी कहते हैं जिक्र। कृष्णमूर्ति कहते हैं अवेयरनेस, जागृति। महावीर ने कहा है विवेक, बोध। ये अलग-अलग नाम हैं, मगर बात एक, सार एक, राज एक। अतीत और वर्तमान को जाने दो। वे हैं ही नहीं। तुम छायाओं को पकड़े बैठे हो। और छायाओं के कारण तुम माया में पड़े हो। छाया यानी माया। और दोनों छायाओं के बीच में सत्य मौजूद है, सत्य का द्वार खुला है। प्रभु-मंदिर का द्वार वर्तमान में खुला है। वर्तमान में जिस दिन आ जाओगे, आने की प्रक्रिया का नाम ध्यान; आ गए, ठहर गए, उस अवस्था का नाम संन्यास। फिर तुम संसार में ऐसे रह सकोगे जैसे जल में कमल।
आज, प्रेम चैतन्य, निश्चित ही असंभव सा लगता है। क्योंकि आज तो तुम्हें पता ही नहीं है कि वर्तमान होता भी है। उन दो ने, अतीत और भविष्य ने तुम्हारी सारी चेतना को घेर लिया है। धीरे-धीरे वर्तमान के लिए तलाशो, खोजो। जो आज असंभव सा है, कल धीरे-धीरे संभव हो जाएगा, एक दिन संभव हो जाएगा।
हो तो आज ही सकता है संभव--अगर त्वरा हो, तीव्रता हो, समग्रता हो। आकांक्षा, अभीप्सा गहन हो तो हो तो सकता है अभी और यहीं। मुझे सुनते-सुनते हो जाए। बहुतों को हुआ है, हो रहा है। सिर्फ सुनते-सुनते धुन बंध जाती है, भूल जाते हो कौन हो तुम, भूल जाते हो कल क्या होना है। यही सत्संग का अर्थ है। किसी के साथ बैठ कर वर्तमान में हो जाना सत्संग है।
धीरे-धीरे तोड़ो जमीन, टूटेगी। जलधार को गिरते देखा है चट्टानों पर! चट्टानें बड़ी मजबूत मालूम पड़ती हैं। पहले सोचोगे तो लगेगा असंभव है कि जलधार कभी चट्टानों को तोड़ पाएगी। लेकिन रसरी आवत-जात है, सिल पर पड़त निशान। रस्सी आते-जाते, आते-जाते, आते-जाते कठोर चट्टान पर भी निशान छोड़ देती है। जलधार गिरते-गिरते गिरते-गिरते चट्टानों को तोड़ देती है, चट्टानों को रेत कर देती है। ऐसी ही प्रक्रिया है।
ध्यान कोमल प्रक्रिया है। जैसे कोई फूल! और तुम्हारे मन की आदतें जड़ चट्टानों की तरह हैं--बहुत वजनी, बहुत भारी, बहुत कठोर। पर घबड़ाओ मत, वे मृत हैं और तुम्हारा फूल जैसा ध्यान जीवंत है। और जीवंत में असली बल है, चाहे कितना ही कोमल क्यों न हो। जीवित फूल मुर्दा चट्टानों को तोड़ देगा। तुमने कभी देखा है, चट्टानों में से बीज फूट कर वृक्ष बन जाते हैं! चट्टान दरक जाती है। जीवित था बीज, चट्टान को तोड़ गया, वृक्ष फूट आया। चट्टानों से वृक्षों को निकलते देख कर तुम्हें हैरानी नहीं होती कभी? अदभुत शक्ति होगी जीवन की! छोटा सा बीज, कितनी ऊर्जा लिए था! न केवल खुद टूटा, न केवल अंकुरित हुआ, चट्टान को तोड़ गया है!
ऐसे ही आज जो बीज की तरह है ध्यान, कल वृक्ष बनेगा, उसमें फूल भी आएंगे और फल भी आएंगे, महत सुगंध भी उठेगी। चिंता न लो। असंभव सा लगता है, लेकिन संभव होता है। ऐसा मैं अपने अनुभव से कहता हूं। मुझे भी असंभव सा लगता था, वर्षों असंभव सा ही लगता रहा। लेकिन मैं अधीर न हुआ। कहते पलटू: काहे होत अधीर! जितना असंभव सा लगा उतनी ही मैंने त्वरा से अपनी ऊर्जा लगा दी, उतनी ही मैंने चुनौती स्वीकार की। बस चुनौती को स्वीकार करने की बात है। फिर ध्यान एक अदभुत अभियान है। चांदत्तारों पर पहुंचना आसान है; ध्यान या समाधि में पहुंचना निश्चित कठिन है। मगर चांदत्तारों पर पहुंच कर भी क्या करोगे?
आर्मस्ट्रांग जब पहली दफे चांद पर चला तो उसने क्या किया? सोच रहा था पृथ्वी की कि कब घर पहुंचें, पत्नी-बच्चों की, मित्रों की। सोच रहा होगा कि कौन सी फिल्म लगी है मेरे गांव की टाकीज में। सोच रहा होगा कि आज पत्नी ने क्या भोजन बनाया है। था चांद पर, मगर सोच क्या रहा होगा? सोच रहा होगा कि बस अब एकाध दिन की बात और है कि वापस लौटने की घड़ी आई जाती है, घर पहुंचूंगा।
चांद पर भी तुम तो तुम ही रहोगे। तुम कैसे बदल जाओगे! इसलिए चांद पर पहुंच कर भी कोई कहीं नहीं पहुंचता। लेकिन ध्यान में पहुंच कर जरूर तुम एक नये लोक में प्रवेश करते हो।

प्यार मेरे, भार मत बनो!

राह है यह, चाह रुकने की यहां वर्जित
कामना विश्राम की, गति-चरण में अर्पित
पथिक के उपहार ओ! पथऱ्हार मत बनो!
राह है यह, एक मन-बल ही यहां संबल
मत बटोरो स्वप्न रे! मत बिखेरो दृग्जल
मुक्ति खोजी! मुक्ति का व्यापार मत बनो!

राह है यह, यष्टि ही बस है तुम्हारी टेक
ठोकरों पर मत लुटाओ व्यर्थ भावोद्रेक
सार हो तो मोह का संसार मत बनो!
भार मत बनो!
प्यार मेरे, भार मत बनो!

इतना ही स्मरण रहे कि यह राह है, इस संसार में घर नहीं बनाना है। पलटू कहते हैं, यह सराय है। विश्राम कर लो, सुबह चल पड़ना है। तंबू तान लो, घर न बनाओ। राह है यह। इस पर घर नहीं बनाने हैं, यहां से गुजर जाना है। और धन्यभागी हैं वे जो ऐसे गुजर जाते हैं कि जैसे आए ही न हों।
इसलिए झेन फकीर कहते हैं कि बुद्ध का न कभी जन्म हुआ न मृत्यु।
बात तो ठीक नहीं लगती, इतिहास की तो नहीं है। बुद्ध तो ऐतिहासिक व्यक्ति हैं; एक दिन हुए, एक दिन मृत्यु भी हुई। सच पूछो तो भारतीय इतिहास बुद्ध के साथ ही शुरू होता है; उसके पहले के तो जितने पुरुष हैं, पुराण-पुरुष मालूम होते हैं--हुए भी हों, न भी हुए हों। कृष्ण का कुछ पक्का नहीं है, कोई प्रमाण नहीं है। राम हो सकता है सिर्फ रामायण के एक पात्र हों, जरूरी नहीं है कि हुए हों। धुंधली हैं सारी बातें, धूमिल है सारा अतीत। लेकिन बुद्ध के साथ पहली दफा चीजें स्पष्ट होनी शुरू होती हैं। बुद्ध के साथ पुराण-पुरुष और पुराण-पुरुषों का जगत विदा हो जाता है।
इसलिए झेन फकीरों का यह कहना कि बुद्ध न कभी पैदा हुए न मरे, थोड़ी अड़चन पैदा करता है। इतिहासज्ञ को तो बात जंचेगी नहीं, शास्त्रज्ञ को बात नहीं जंचेगी। लेकिन फकीर ठीक कहते हैं। फकीर जब भी कुछ कहते हैं ठीक ही कहते हैं। उनके कहने का अर्थ यह है कि बुद्ध इस तरह आए जैसे न आए हों और इस तरह गए जैसे कभी न आए हों और न कभी गए हों। उन पर रेखा भी न पड़ी। जैसे पानी पर कोई रेखा खींचे; रेखा खिंच भी नहीं पाती, मिट जाती है। जैसे दर्पण पर प्रतिबिंब बने; दर्पण का कुछ बिगड़ता नहीं, कोई निशान नहीं छूट जाते। जैसे पक्षी आकाश में उड़ें तो पदचिह्न नहीं बनते। ऐसे बुद्ध आए और गए। इसलिए बुद्ध का एक नाम है--तथागत, जिन्हें आने और जाने की कला आती है; जो हवा के झोंके की तरह आते हैं और हवा के झोंके की तरह चले जाते हैं।
कबीर ने कहा है: ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया! वह जो चादर थी शरीर की, मन की, वह वैसी की वैसी रख दी, वह जरा भी मैली न हुई, जरा भी उस पर कालिख न लगी। खूब जतन से ओढ़ी रे चदरिया! जिसको कबीर जतन कहते हैं, वही साधना है। खूब जतन से ओढ़ी रे चदरिया, ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं! वैसी की वैसी लौटा दी जैसी परमात्मा ने दी थी--कि लो तुम्हारी चादर वापस, जरा भी जराजीर्ण न होने दी, दाग न लगने दिए।
कबीर भी जीए तो। और बुद्ध तो संसार छोड़ कर चले गए थे, कबीर तो संसार में ही जीए। पत्नी थी, बेटा था, बेटी थी। और जीवन में कभी भी उन्होंने भिक्षा नहीं मांगी। जुलाहे का काम जारी रखा। कपड़े बुनते रहे और बेचते रहे। भजन भी चला, कीर्तन भी चला, सत्संग भी चला; मगर कपड़ा बुनना भी चलता रहा, उसे कभी बंद नहीं किया। संसार में रहे, लेकिन संसार को अपने में न रखा।
राह है यह...
और कभी-कभी ठोकरें लगेंगी।
ठोकरों पर मत लुटाओ व्यर्थ भावोद्रेक
सार हो तो मोह का संसार मत बनो!
भार मत बनो!
प्यार मेरे, भार मत बनो!
बस इतना ध्यान रहे, तो एक दिन असंभव सा भी संभव हो जाएगा। और जब तुम्हें संभव होगा तभी समझ में आएगा। क्योंकि ये बातें कुछ ऐसी हैं कि कोई दूसरा कितना ही कहे, लाख कहे, भरोसा नहीं बैठता। तुम्हारा अनुभव जब तक न हो तब तक भरोसा नहीं बैठेगा। और बैठना भी नहीं चाहिए।
मुझ पर भरोसा मत कर लेना कि मैंने कहा तो बस हो गया। मेरे कहने से क्या होगा? मेरी मुक्ति तुम्हारी मुक्ति नहीं। मेरा निर्वाण तुम्हारा निर्वाण नहीं। मेरा बोध तुम्हारा बोध नहीं। स्वयं पाना होगा। और यह बात ऐसी है कि पा भी लो तो किसी को कही नहीं जा सकती। इस बात के लिए कोई भाषा नहीं है।
भाषा अशक्त, भावों को व्यक्त न कर पाई
वाणी कायर, ओंठों पर आकर लौट गई
मैं चाह रहा हूं किंतु न कह पाता कुछ भी
यह अनुभव बिलकुल नया, प्राण! यह पीर नई
चाहोगे तो भी कह न पाओगे।
यह अनुभव बिलकुल नया, प्राण! यह पीर नई
सत्य की प्रतीति, उसका स्वाद इतना नया है कि जगत के कोई शब्द काम नहीं आते हैं। जिन्होंने जाना है उनसे सिर्फ इतना संबल मिलता है कि शायद जाना जा सकता है, मैं भी प्रयास करूं! अगर एक को संभव हुआ है तो शायद मुझे भी संभव हो जाए।
आखिर परमात्मा ने सभी को एक सा सामर्थ्य दिया है, एक सा आत्मबल दिया है, एक सी ऊर्जा दी है, एक सी संभावना के स्रोत दिए हैं। अगर बुद्ध को हुआ, महावीर को हुआ, क्राइस्ट को हुआ, मोहम्मद को हुआ--क्यों नहीं तुम्हें होगा? वे भी तुम्हारे ही जैसे हड्डी-मांस-मज्जा के बने हुए पुरुष थे; तुम्हारे ही जैसा चंचल, विक्षिप्त हो जाने वाला उनके पास भी मन था। तुम जैसा ही उन्हें भी संघर्ष करना पड़ा था स्वयं से। अपने अतीत से, अपने भविष्य से उन्हें भी लड़ना पड़ा था। बारह वर्ष महावीर ने संघर्ष किया, तब यह घड़ी आई थी। छह वर्ष बुद्ध जूझे, तब वह शुभ प्रभात हुई।
इन सारे ज्योति-पुरुषों से विश्वास मत लो, संबल लो। इन पर श्रद्धा मत कर लो कि इनको हो गया तो बस हो गया, हमें क्या करना है? इनसे सिर्फ प्रेरणा लो यात्रा की। दूर का तारा है ध्यान, चलोगे तो एक दिन पहुंच जाओगे। आज असंभव सा है, तुम्हें संभव करके दिखाना है। यही निर्णय तो तुम्हारे संन्यास का आधार होना चाहिए, प्रेम चैतन्य! इसी संकल्प से बढ़ो, इसी समर्पण से! एक दिन जरूर प्रसाद बरसेगा।
इस जगत में कोई भी प्रयास व्यर्थ नहीं जाता है और परमात्मा की तरफ उठाया गया कोई कदम कभी व्यर्थ नहीं गया है।


दूसरा प्रश्न:

भगवान! पूज्य दद्दाजी मुझे बचपन से ही अपना जान कर, उन्मुक्त स्नेह और प्रेरणा देते रहे हैं। ढेर सारी स्मृतियों के बीच उनका सबके प्रति अपनापन, बालवत प्रेम, सब कुछ लुटा देने की तत्परता और सारे वातावरण को आनंद से भर देने वाला रूप मेरे भीतर भरता गया, भरता गया। वे मुझसे रोज किसी न किसी बहाने कहते थे: अपना है क्या--लुटाओ! अपना है क्या--लुटाओ!
उनके इस प्यारे वचन का आशय कृपा करके हमें कहें।

रेंद्र! संन्यास का यही तो मौलिक अर्थ है: अपना है क्या--लुटाओ! जिसने कुछ अपना माना उसने संसार बसाया। जिसने संसार बसाया उसने अपने लिए कारागृह बनाया, अपनी जंजीरें ढाल लीं। हमारी जंजीरें मेरेत्तेरे से बनी हैं--यह मेरा, वह तेरा; यह मेरे की सीमा, वह तेरे की सीमा। हमारी सब सीमाएं कारागृह बन जाती हैं; हाथों में, पैरों में जंजीरें बन जाती हैं। और जितना ही हम मेरे में जकड़ते जाते हैं उतने ही कृपण होते जाते हैं, उतने ही कंजूस होते जाते हैं।
और परमात्मा किसी को उपलब्ध हो जाए, कृपण को उपलब्ध नहीं हो सकता।
क्यों कृपण को उपलब्ध नहीं हो सकता? क्योंकि परमात्मा को पाने की एक शर्त कृपण पूरी नहीं कर सकता और वह शर्त है प्रेम। कृपण प्रेम कर ही नहीं सकता, कंजूस के लिए प्रेम असंभव है। कृपण डरता है कि किसी से प्रेम किया तो फिर मेरेत्तेरे का भाव छोड़ना पड़ता है। प्रेम का अर्थ और क्या है? मेरेत्तेरे का भाव छोड़ना। किसी के साथ मेरेत्तेरे का संबंध छोड़ देना। किसी के साथ सीमाएं मिला लेना, किसी के साथ एक हो जाना। किसी के साथ तल्लीनता और तन्मयता। किसी के साथ हार्दिक, आत्मिक संबंध। किसी के लिए प्राण तक दे देने की तत्परता।
और कृपण तो पैसा नहीं दे सकता, प्राण तो देना दूर। कृपण तो कुछ दे ही नहीं सकता। और जो दे नहीं सकता, वह प्रेम कैसे देगा! प्रेम तो सबसे बड़ी संपदा है। पैसा नहीं दे सकता, प्रेम कैसे देगा! और एक बड़ी अनूठी मनोवैज्ञानिक घटना घटती है, एक दुष्टचक्र पैदा होता है: जो कृपण है, प्रेम नहीं दे सकता। और चूंकि प्रेम नहीं दे सकता इसलिए और कृपण होता जाता है। जो लोग धन के दीवाने होते हैं वे वे ही लोग हैं जिनके जीवन में प्रेम का अमृत नहीं बरसा। अगर उनके जीवन में प्रेम हो तो धन का पागलपन पैदा नहीं हो। जिसके पास प्रेम है वह लुटाने का मजा जानता है, बांटने का मजा जानता है। उसकी खुशी ही बांटने में है। और जिसके पास प्रेम नहीं है उसकी एक ही खुशी है--इकट्ठा करना, जोड़ना। और जोड़-जोड़ कर मरोगे। जोड़-जोड़ कर करोगे क्या? सब यहीं पड़ा रह जाएगा। साथ न ले जा सकोगे। जिंदगी भर जोड़ने में बिताई और फिर खाली हाथ चिता पर चढ़ गए, तो तुम्हारी जिंदगी मूढ़ता रही, एक व्यर्थ का उपक्रम रहा, एक अर्थहीन चेष्टा रही! तुमने रेत से तेल निकालना चाहा।
जीसस का बहुत प्रसिद्ध वचन है: जो बचाएगा, खो देगा; और जो खोने को राजी है, बचा लेता है।
ये परम गणित के सूत्र हैं। कल तुमसे मैंने परम गणित का एक सूत्र कहा था कि अंश अपने अंशी के बराबर होता है। यह तर्कातीत है। ऐसे ही आज तुमसे परम गणित का दूसरा सूत्र कहता हूं। साधारण गणित में तो जो बचाता है वह बचा पाएगा। लेकिन इस परम गणित में जो बचाता है वह खो देता है और जो खोने को राजी है वह बचा लेता है।
तुमने प्रेम देकर देखा? चकित करने वाला एक अनुभव होगा: जितना तुम देते हो उतना ज्यादा तुम्हारे पास देने को होता है। ऐसे ही समझो जैसे किसी कुएं से हम पानी भरते हैं; जितना हम पानी भरते हैं, कुएं के झरने उसमें और नये पानी को लेते आते हैं। कोई कृपण अपने कुएं पर ताला डाल दे बंद करके--इस डर से कि कहीं वक्त-बेवक्त, सूखा पड़ जाए, वर्षा न हो, तो कम से कम मेरे कुएं का पानी तो मेरे कुएं के भीतर रहेगा, मेरे तो काम आएगा; ऐसे मुहल्ले-पड़ोस के लोगों को भरने दूं, सारा पानी लुट जाए, वक्त-बेवक्त खुद मुसीबत में पडूंगा--ताला डाल कर अपने कुएं में पानी को बचा ले, तो क्या परिणाम होगा? दो परिणाम होंगे। एक तो यह होगा कि उस कुएं का जल जीवंत नहीं रह जाएगा, मुर्दा हो जाएगा, जहरीला हो जाएगा, विषाक्त हो जाएगा, सड़ जाएगा। जहां बहाव नहीं होता, जहां प्रवाह नहीं होता, वहां सड़ांध पैदा होती है, वहां जहर निर्मित हो जाता है। जो बह कर अमृत था वह अवरुद्ध होकर जहर हो जाता है। अगर ठीक से समझो तो बहने में अमरत्व है और ठहर जाने में जहर है। बहने में महाजीवन है और ठहर जाने में मृत्यु है। और दूसरी घटना यह घटेगी, चूंकि पानी निकाला नहीं जाएगा, इसलिए झरने कुएं के काम में नहीं आएंगे, तो झरने धीरे-धीरे अवरुद्ध हो जाएंगे, मिट्टी की पर्तें जम जाएंगी, पत्थर बैठ जाएंगे। फिर अगर किसी दिन तुमने कुएं से पानी निकाला तो पानी पीने योग्य नहीं होगा, पहली बात; दूसरे, झरने अवरुद्ध हो गए हैं, वे नया पानी नहीं लाएंगे।
ऐसी ही स्थिति प्रेम की है। तुम एक कुआं हो। उलीचो! और तुम्हारे झरने हृदय के परमात्मा से जुड़े हैं। तुम अनंत-अनंत स्रोत से संयुक्त हो। डरो मत कि तुम बांटोगे तो चुक जाएगा। तुम जितना बांटोगे उतने ही नये-नये जलस्रोत खुलते जाएंगे। तुम चकित होओगे कि एक ऐसी संपदा भी है जो बांटने से बढ़ती है। उस संपदा का गणित अलग है।
वे ठीक कहते थे: अपना है क्या--लुटाओ! सब परमात्मा का है। वही देने वाला है, वही लेने वाला है। सब खेल उसका है। तुम्हारे भीतर भी वही देने वाला है और दूसरे के भीतर वही लेने वाला है।
मैं तुमसे बोल रहा हूं; वही बोलने वाला है। तुम सुन रहे हो; वही सुनने वाला है। जिस दिन यह समझ में आ जाता है कि बोलने वाला भी वही, सुनने वाला भी वही--उस दिन न कोई गुरु है, न कोई शिष्य; उस दिन वही बचा। उसने ही अपने को दो में बांट कर सारे खेल, सारी लीला का आयोजन किया है।
इस सूत्र को, नरेंद्र, तुम अपने जीवन में क्रांति की शुरुआत बना सकते हो। इसे याद रख सको अगर, तो तुम रोज-रोज धनी होते जाओगे। तुम रोज-रोज एक बड़े साम्राज्य के मालिक होते जाओगे। यह भी हो सकता है कि बाहर से देखने पर एक दिन तुम भिखमंगे हो जाओ, लेकिन भीतर तुम्हारे सम्राट होगा। और अगर तुम धन इकट्ठा, पद इकट्ठा, प्रेम इकट्ठा, सब इकट्ठा करने में लग गए तो यह हो सकता है कि ऊपर से एक दिन तुम सम्राट दिखाई पड़ो, लेकिन भीतर तुम दीन और दरिद्र, भिखमंगे। और परमात्मा तुम्हारे भीतर का आंकलन करता है। वह तुम्हारे खाते-बही नहीं देखेगा, वह तुम्हारी अंतरात्मा देखेगा। वहां वही लिखा जाता है जो तुम लुटाते हो, जो तुम बांट देते हो। फिर बांटने का अर्थ यही नहीं है कि तुम वस्तुएं ही बांटो। जो तुम्हारे पास हो। अगर तुम गीत गा सकते हो तो गीत गाओ। अगर तुम नाच सकते हो तो नाचो। अगर तुम प्रेम दे सकते हो, प्रेम दो। अगर तुम ज्ञान दे सकते हो, ज्ञान दो; ध्यान दे सकते हो, ध्यान दो। तुम जो दे सकते हो, जो तुम्हारे पास है, तुम उसी को बांटने का माध्यम बन जाओ। और तुम रोज-रोज पाओगे: जो तुम बांट रहे हो वह बढ़ता जाता है, बढ़ता जाता है। कहां तुम बूंद थे, एक दिन पाओगे कि सागर हो गए!
और सब उसी का है, इस पर मालकियत करना, इस पर कहना कि मेरा है--अनुचित है। उपयोग कर लो, मगर मालिक मत बनो।
इस दुनिया में दो तरह के लोग हैं: एक भोगी, वे भी मालिक; और एक त्यागी, वे भी मालिक। भोगी कहता है--मेरा है, छोडूंगा नहीं। त्यागी कहता है--मेरा है, मैं दान करता हूं। मगर दोनों मानते हैं कि मेरा है।
मेरा संन्यासी तीसरे तरह का आदमी है। वह कहता है--मेरा है ही नहीं, तो न तो रोकने का सवाल है, न त्यागने का सवाल है, गुजर जाने की बात है। मेरा है ही नहीं, तो कैसे छोडूं! कैसे त्यागूं! और मेरा है ही नहीं, तो कैसे पकडूं! दोनों में अन्याय हो जाएगा।
जो कहता है कि मैंने त्याग दिया, वह उतनी ही भ्रांति में है जितनी भ्रांति में वह जो कहता है कि मैंने संग्रह कर लिया। संग्रह और परिग्रह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों के पार जाना है। और पलटू कहते हैं बार-बार: दोनों के पार जाना है। संग्रह और परिग्रह, दोनों के पार जाना है। एक ऐसी स्थिति तुम्हारी चेतना की होनी चाहिए--न यह, न वह; नेति-नेति। फिर वह जो तुम्हें देता है, भोगो। और भोगने की सबसे बड़ी कला है बांटना।
इसलिए कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि तुम्हारे तथाकथित साधु-संत भी साधु-संत नहीं होते और कभी-कभी साधारणजनों में अपूर्व साधुता होती है।
मेरे एक प्रोफेसर थे। शराबी थे। सारे विश्वविद्यालय में उनकी निंदा थी। लेकिन मैंने उनमें साधु पाया। शराब वे कभी अकेले नहीं पीते थे। जब तक दस-पांच पियक्कड़ न हों तब तक वे नहीं पीते थे। अगर उनके पास इतनी सुविधा न हो कि दस-पांच को निमंत्रित कर सकें तो बिना पीए रह जाते थे। मैंने उनसे पूछा कि कभी-कभी आप बिना पीए रह जाते हैं, बात क्या है?
उन्होंने कहा कि बात यह है कि मेरे पास सुविधा अगर दस-पांच को पिलाने की न हो, तो क्या अकेले पीना! पीने का मजा संग-साथ में है। जब दस-पांच मिल कर पीते हैं तो मजा है। जब दस-पांच को मैं पिलाता हूं तो मजा है।
और यह उनके पूरे जीवन का हिसाब था। यह शराब के संबंध में ही सच नहीं था, यह हर चीज के संबंध में सच था। जो भी उनके पास होता...उनका घर देख कर कभी-कभी हैरानी होती थी, उनका घर बिलकुल खाली था। मैं कभी-कभी उनके घर ठहरा तो चकित होता था--घर बड़ा, लेकिन बिलकुल खाली! क्योंकि चीजें बचें ही नहीं, वे किसी को भी दे दें। मगर उन जैसा धनी आदमी मैंने नहीं देखा। उनकी समृद्धि परम गणित वाली थी। और उनको साधु तो तुम नहीं कहोगे, क्योंकि शराब पीते थे। लेकिन मैं उनको साधु कहूंगा। जब मैं उनके घर ठहरता तो वे शराब न पीते। मैंने उनसे पूछा कि आप मेरे संकोच में न रुकें, आप पीएं, मजे से पीएं। मैं तो शराब नहीं पी सकता तो बैठ कर सोडा पी लूंगा, मगर आप पीएं, संग-साथ दे दूंगा।
उन्होंने कहा कि नहीं-नहीं, जब तक बांटूं न मैं, जब तक ढालूं न मैं, घर में मेहमान हो और उसको मैं पिला न सकूं, तो मैं भी नहीं पीऊंगा। यह पीना अमानवीय हो जाएगा--घर में मेहमान हो और मैं पीऊं।
मैंने उनसे कहा कि आपकी बात सुन कर मुझे ऐसा लगता है कि मुझे भी पी ही लेनी चाहिए। मगर पीछे मुझे झंझट होगी। मेरे शरीर को आदत नहीं है। मगर आपकी बात से मुझे ऐसा लगता है कि छोडूं फिक्र, पी ही लूं, आपको इतना कष्ट न दूं।
नहीं, उन्होंने कहा कि मुझे कोई तकलीफ नहीं है न पीने में। कई बार ऐसे मौके आ जाते हैं, क्योंकि मेरे पैसे तो पंद्रह तारीख तक खतम हो जाते हैं। पंद्रह दिन तो पीछे फाके में जाते हैं।
कोई भी विद्यार्थी उनके पास पहुंच जाए कि फीस नहीं है, वे फौरन पैसे दे देंगे, उन पर होने भर चाहिए। उधार लेकर भी अगर मिल सकें तो वे फीस चुका देंगे। किसी के पास किताबें नहीं हैं तो किताबें चुका देंगे, किसी के पास कपड़े नहीं हैं तो कपड़े ला देंगे, कोई बीमार है तो उसकी फिक्र में लग जाएंगे।
उनकी पत्नी बहुत परेशान थी। उनकी पत्नी अंततः उन्हें छोड़ कर चली गई। उनकी पत्नी दिल्ली रहती थी, वे सागर रहते। मैंने उनसे पूछा कि पत्नी छोड़ कर चली गई, बात क्या है? आप जैसे आदमी को कोई छोड़ कर जा सके!
उन्होंने कहा, मेरी पत्नी की एक तकलीफ है जो सभी स्त्रियों की होती है--संग्रह। और मैं वह नहीं कर सकता। पड़ोस में एक आदमी बीमार था, उसके पास खाट नहीं थी, तो मैंने पत्नी की खाट दे दी, इससे वह बहुत नाराज हो गई। उसने कहा, अब कम से कम खाट तो बचने देते। मैंने उससे कहा, हम स्वस्थ हैं, हम नीचे सो सकते हैं। मगर यह आदमी बीमार है, इसको जरूरत है। वह उसी दिन चली गई। वह मायके चली गई है और उसने लिख दिया है कि अब मैं आऊंगी नहीं।
शराबी भला वे रहे हों, लेकिन मैं एक साधुता स्पष्ट देखता हूं। और मैं मानता हूं कि परमात्मा भी उनकी शराब का हिसाब नहीं रखेगा, उनकी साधुता का हिसाब रखेगा। परमात्मा नहीं हिसाब रखेगा कि कितनी बोतलें उन्होंने पीं, लेकिन जरूर हिसाब रखेगा कि कितना उन्होंने बांटा।
नरेंद्र, सूत्र सुंदर है: अपना है क्या--लुटाओ!
अपना कुछ भी नहीं है, सभी उसका है। सबै भूमि गोपाल की! जीने की कला एक ही है: बांटना। फिर जो हो वही बांटो। और बांटने में कभी कंजूसी मत करना। और तुम नये-नये साम्राज्य को उपलब्ध होते जाओगे, नई-नई तुम्हारी मालकियत होगी, नया-नया वैभव तुम्हारा होगा। मगर हिम्मत लुटाने की चाहिए ही।


तीसरा प्रश्न:

भगवान! आप अक्सर कहा करते हैं कि अस्तित्व को जो दोगे वही तुम पर वापस लौटेगा; प्रेम दोगे, प्रेम लौटेगा; घृणा दोगे, घृणा मिलेगी। यही नियम है।
भगवान, आप तो प्रेम की मूर्ति हैं, आप प्रेम ही हैं, प्रेम ही बांट रहे हैं; फिर भी आपको इतनी गालियां क्यों मिलती हैं? क्या उपरोक्त नियम सच नहीं है? भगवान, समझाइए!

योग कुसुम! प्रेम जब बहुत बढ़ जाता है तो लोग गालियां देते हैं। तुमने देखा न--आप से तुम, तुम से तू! जैसे-जैसे प्रेम बढ़ता है तो आप से तुम होता है, तुम से तू होता है। जैसे-जैसे मित्रता बढ़ती है लोगों में तो एक-दूसरे को गाली देने लगते हैं। मित्रों का लक्षण ही यह है। अगर मित्र भी एक-दूसरे से कहें--आइए, विराजिए, पधारिए! तो उसका मतलब यह है कि मित्रता नहीं है। मित्र मिलते हैं पहले, तो पहले तो एक-दूसरे की पीठ पर जोर से धपाड़ा देंगे।
मुल्ला नसरुद्दीन ने एक दिन रास्ते पर एक आदमी को जोर से उसकी पीठ पर धपाड़ा दिया कि वह आदमी गिरते-गिरते बचा। और मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, बहुरुद्दीन, बहुत दिन बाद दिखाई पड़े!
उस आदमी ने कहा, क्षमा करिए, मैं बहुरुद्दीन नहीं हूं।
मुल्ला ने कहा, अबे तू मुझको धोखा देता है! और एक दूसरा धपाड़ा दिया कि वह आदमी बिलकुल ही जमीन पर पहुंच गया।
उस आदमी ने कहा, भाई साहब, मैं कह रहा हूं कि मैं बहुरुद्दीन नहीं हूं।
मुल्ला ने कहा, हद हो गई! शक तो मुझे भी थोड़ा सा होता था। क्योंकि बहुरुद्दीन मोटा हुआ करता था, तुम बिलकुल दुबले मालूम होते। वह ठिगना था, तुम लंबे मालूम होते। मगर जिंदगी में चीजें बदलती हैं। सो मैंने सोचा हो न हो, हो तो तुम बहुरुद्दीन।
अब तो उस आदमी को भी गुस्सा आया। उसने कहा कि हद हो गई, जब तुम्हें पता चल रहा है कि तुम्हारा मित्र मोटा था, मैं मोटा नहीं हूं; तुम्हारा मित्र ठिगना था, मैं लंबा हूं; जब तुम्हें यह सब साफ समझ में आ रहा है, फिर भी धपाड़े मारते हो, शर्म नहीं आती!
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, तुम्हें बीच में बोलने की जरूरत क्या है? मैं बहुरुद्दीन को मार रहा हूं, तुमको तो मार भी नहीं रहा।
मित्र गालियों में बात करने लगते हैं। इसलिए कुसुम, कुछ चिंता लेने की बात नहीं है। लोग गालियां देते होंगे, वह भी उनकी मित्रता की शुरुआत है। गाली देने का भी कष्ट करते हैं, यह क्या कुछ कम है! कौन किसके लिए क्या करता है! मेहनत उठाते हैं, गाली देते हैं। और गाली कुछ ऐसे ही तो नहीं दी जाती। चिंता करते होंगे, क्रोध करते होंगे, बेचैन होते होंगे। गाली अचानक तो नहीं पैदा हो जाती, गाली के पीछे लंबा सिलसिला होता है। रात भर सोते नहीं होंगे, करवटें बदलते होंगे। मेरी छाया उनका पीछा कर रही होगी। मेरा नाम उन्हें बार-बार याद आता होगा। यह सब शुरू हुआ होगा। गाली तो सिर्फ लक्षण है इस बात का कि मुझसे नाता बन रहा है। आगे-आगे देखिए होता है क्या! इतना परेशान क्या होना?
फिर लोग हैं, जो उनकी समझ में आता है वही करेंगे न! जितनी उनकी समझ है उससे ज्यादा तो वे नहीं कर सकते।
जहां तक मेरा संबंध है, मैं जितना प्रेम दे रहा हूं उससे अनंत गुना पा रहा हूं। और जो प्रेम मुझ पर बरस रहा है, जो फूल मुझ पर बरस रहे हैं, उनमें अगर कभी एकाध कांटा भी आ जाता है तो उसकी शिकायत क्या! जब गुलाब बरसते हैं तो कभी-कभी एकाध कांटा भी आ जाता है। गुलाबों पर ध्यान रहे तो कांटा भी कांटा नहीं मालूम होता।
तुम्हें अखर जाती होंगी गालियां जो लोग मुझे देते हैं, क्योंकि तुम्हें फूल नहीं दिखाई पड़ते जो लोग मुझ पर फेंक रहे हैं। मुझे जितना प्रेम मिल रहा है, शायद इस पृथ्वी पर किसी और आदमी को नहीं मिल रहा होगा। आखिर तुम सबने अपना हृदय मेरे लिए लुटा रखा है! जब इतना प्रेम मिलेगा, जब इतने मित्र होंगे, इतने प्रेमी होंगे...एक लाख मेरे संन्यासी हैं, इतने मेरे प्रेमी हैं!
किसी ने आनंद तीर्थ से पूछा कि अगर भगवान कहें कि तुम आत्महत्या कर लो तो करोगे? तो आनंद तीर्थ ने कहा, वह मेरा सौभाग्य होगा कि उन्होंने मुझे इस योग्य समझा। अगर वे कहेंगे तो तत्क्षण आत्महत्या कर लूंगा।
जिस व्यक्ति को इतना प्रेम मिल रहा हो कि उसके लिए आत्महत्या करने को कोई सौभाग्य से तैयार हो जाता हो, उसके लिए कुछ गालियां भी जरूरी हैं, नहीं तो भोजन बेस्वाद हो जाए। उसमें थोड़ा नमक चाहिए। एकदम शक्कर ही शक्कर डायबिटीज पैदा करती है। मीठा ही मीठा नहीं, कभी-कभी करेले की सब्जी भी अच्छी लगती है। सो कुछ करेले की सब्जियां भी भेजते हैं लोग। जहां तक मेरा संबंध है, मैं तो उससे भी आनंदित होता हूं। तुम भी उससे आनंदित होना शुरू होओ।
और इस जगत का एक नियम है कि यहां हर चीज संतुलित होती है। अगर इतने लोग मुझे प्रेम देंगे, इतने लोग मेरे मित्र होंगे, तो इतने ही लोग मेरे प्रति क्रोध से भी भरेंगे और इतने ही लोग मेरे प्रति शत्रुता से भी व्यवहार करेंगे। तो संतुलन हो पाएगा, नहीं तो संतुलन नहीं हो पाएगा।
यह जगत ऐसे है जैसे कोई रस्सी पर नट चलता है। तो वह अपने को हमेशा तौलता रहता है; जरा बायां झुका तो फिर दायां झुका, दायां तो फिर बायां। बाएं ज्यादा झुकने लगे, डर पैदा होता है कि गिर जाए, तो फिर दाएं झुक जाता है। जैसे रस्सी पर नट चलता है, ऐसा यह संसार है। यहां प्रत्येक चीज अपने को संतुलित करती रहती है।
अगर तुम चाहते हो तुम्हें कोई गाली न दे, तो एक ही उपाय है कि तुम किसी का प्रेम स्वीकार मत करना। अगर तुम चाहते हो कोई तुम्हारा अनादर न करे, तो एक ही उपाय है कि तुम किसी का आदर मत लेना। अगर तुम चाहते हो कि कांटे तुम्हें न मिलें, तो तुम फूलों से प्रेम छोड़ देना। तो यह हो सकता है। लेकिन मुझे फूलों से प्रेम है। मैं फूल देता हूं, फूल बांटता हूं और जब फूल मेरे पास वापस लौटते हैं तो मैं अनुगृहीत होता हूं। तब स्वभावतः मैं कांटों को भी अंगीकार करता हूं। मुझे कुछ एतराज नहीं है।
मुझे अगर एतराज कभी हो तो इस बात का हो सकता है कि लोग अगर उपेक्षा कर रहे होते तो एतराज की बात थी। लोग उपेक्षा नहीं कर पा रहे हैं। ये अच्छे लक्षण हैं, शुभ लक्षण हैं। ऐसे ही सिलसिले शुरू होते हैं। पहले लोग गालियां देंगे। फिर खुद सोचेंगे कि जिसको हम गालियां दे रहे हैं, आखिर यह आदमी कहता क्या है? इतने लोग प्रेम भी इसे करते हैं। फिर पढ़ेंगे, फिर पूछेंगे, फिर समझेंगे। फिर एकाध दिन यहां खिंचे चले आएंगे। अगर गाली का नाता बन गया तो नाता तो बन ही गया। अब इस गाली के नाते को प्रेम में बदल लेने की बात है। वह मैं कर लूंगा। वह मैं जानता हूं कि गालियों को कैसे फूलों में रूपांतरित किया जाए।
और लोगों को क्षमा करना होगा। लोग अपनी समझ से ही समझ सकते हैं।
न्यायाधीश ने अभियुक्त से पूछा, डाक्टर ने तुम्हें मुफ्त दवाई दी, इस भलाई के बदले में तुम उसकी घड़ी चुरा कर ले गए। यह लज्जाजनक हरकत तुमने क्यों की? तुम्हें शर्म भी नहीं आती?
अभियुक्त ने उत्तर दिया, हुजूर, डाक्टर ने मुझे हर आधे घंटे के बाद दवाई पीने के लिए कहा था और मेरे पास घड़ी नहीं थी।
व्यक्तियों के अपने सोचने के ढंग हैं। और मैं जो कह रहा हूं वह उनको बेचैन करता है; उनकी परंपरा, उनकी रूढ़ियां, उनकी जड़ धारणाओं के विपरीत है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक बार डाक्टर के यहां पहुंचा। दाढ़ी बढ़ी हुई, चेहरे पर बारह बजे हुए, बाल उलझे हुए, कपड़े भी मैले-कुचैले, बिलकुल मजनू बना हुआ था। पहली नजर में तो डाक्टर ने उसे पहचाना ही नहीं कि यह मुल्ला नसरुद्दीन है। जब मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि अरे डाक्टर साहब, आप मुझे नहीं पहचाने? मैं नसरुद्दीन! आज से एक महीने पहले मुझे बुखार चढ़ गया था और मैं इलाज करवाने के लिए आपके पास आया था और आपने मुझे नहाने के लिए मना किया था।
डाक्टर को याद आया तो वह बोला, अच्छा-अच्छा, कहो अब क्या बात है?
नसरुद्दीन बोला, डाक्टर साहब, मैं यह पूछने आया हूं कि अब मैं नहा सकता हूं या नहीं?
एक महीने पहले नहाने के लिए मना किया था--बुखार चढ़ा था, इसलिए। तब से उन्होंने नहाना ही बंद कर दिया है।
मगर यह भी कोई बात नहीं, एक और कहानी है। एक बार एक बुढ़िया एक डाक्टर के पास पहुंची और डाक्टर से बोली, डाक्टर साहब, क्या मैं अब सीढ़ियों के द्वारा चढ़-उतर सकती हूं?
एक महीने पहले ही डाक्टर ने उसके पैर का प्लास्टर छोड़ा था और उसे सीढ़ियां चढ़ने-उतरने के लिए मना किया था। डाक्टर ने बुढ़िया को अच्छी तरह चेक किया और बोला, जी हां, अब आप सीढ़ियां चढ़-उतर सकती हैं।
बुढ़िया ने चैन की सांस लेते हुए कहा, हे भगवान, शुक्र है तेरा! मैं तो पाइप के सहारे चढ़ कर अपने कमरे में जा-जा कर तंग आ गई थी। तुमने अच्छा कहा डाक्टर साहब कि मैं सीढ़ियां चढ़-उतर सकती हूं, वरना मैं तो पाइप के द्वारा चढ़ते-चढ़ते मर ही जाती।
लोग अपने ही ढंग से समझेंगे न! सीढ़ियां नहीं चढ़ना-उतरना, ठीक है। मगर चढ़ना-उतरना तो जारी ही रखेंगे, वे तो पाइप से चढ़ेंगे-उतरेंगे। इससे तो बेहतर होता कि सीढ़ियों से ही चढ़ती-उतरती।
मगर लोग अपने रास्ते निकाल लेंगे। लोग क्या करें, उनके पास सोचने की अपनी बंधी हुई प्रक्रियाएं हैं। मैं जो कह रहा हूं--नया है, नूतन है; और पुरातन भी है, सनातन भी है। सनातन है इस अर्थों में, क्योंकि बुद्धों ने सदा यही कहा है। और नूतन है इस अर्थों में, क्योंकि पंडित-पुरोहित सदा इसके विपरीत रहे हैं। और पंडित-पुरोहितों का प्रभाव है। गालियां कौन दे रहा है? पंडित-पुरोहित दे रहे हैं और दिलवा रहे हैं। फिर पंडित-पुरोहित चाहे धर्म के हों चाहे राजनीति के, इससे फर्क नहीं पड़ता। उनको मेरी बातों से बेचैनी शुरू हुई है, अड़चन शुरू हुई है। यह गैरिक तूफान फैलता जाता है, इससे घबड़ाहट पैदा हुई है, इससे उनको न मालूम कितनी चिंताएं सताने लगी हैं--कि न मालूम मेरे इरादे क्या हैं! क्यों मैं इतने लोगों को संन्यास दे रहा हूं? ये संन्यासी फिर पीछे क्या करेंगे? उनके भीतर संदेह जग रहा है। वे संदेह में ही जीते हैं। उनके भीतर घबड़ाहट भी पैदा हो रही है कि कहीं उनका धंधा, उनका व्यवसाय छीन न लूं, तोड़ न दूं। कहीं उनके द्वार-दरवाजों पर लोग जाने बंद न हो जाएं।
निश्चित ही मेरा जो संन्यासी है वह फिर उनके द्वार-दरवाजों पर नहीं जाता। और जाता भी है तो नये ढंग से जाता है।
एक मित्र ने पूछा है। उनका नाम है भगवानदास भारती। मेरे संन्यासी हैं। पहले तेरापंथी जैन रहे होंगे। अब उन्होंने पूछा है कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। क्योंकि मुनियों के पास जाता हूं तो विवाद हो जाता है। इन्हीं मुनियों के पहले पास जाकर वे पैर छूते थे, सेवा करते थे। अब यह मुनियों को बरदाश्त कैसे हो? क्योंकि उन्होंने अपने किसी मुनि को कह दिया कि क्या आप खाक मुनि हो, पहले मौन होना आना चाहिए! अब यह मुनि कैसे बरदाश्त करे? जिसकी तुम सेवा करते थे, जिसका पैर छूते थे जाकर, जिसको मानते थे कि पहुंचा हुआ है, उससे तुम जाकर कह रहे हो कि तुम क्या कोई खाक मुनि हो, पहले मौन तो सीखो! तो जरूर श्रावक से ऐसी बात सुन कर मुनि अगर नाराज हो तो आश्चर्य क्या है! होगा ही हैरान।
या तो मेरे संन्यासी जाते नहीं। जाएंगे तो अब नई दृष्टि, नया भाव-बोध उन्हें अड़चन में डालेगा। और मेरा संन्यासी जहां खड़ा हो जाएगा वहां वह अलग दिखाई पड़ेगा। वह मुनि को भी अखरता है, महात्मा को भी अखरता है। अगर मेरा संन्यासी कुछ न कहे तो वह महात्मा खुद ही उससे पूछता है कि तुम्हें क्या हो गया है? यह तुमने क्या किया? वह खुद अपनी झंझट अपने हाथ से बुलाता है।
संन्यासियों का बढ़ता हुआ सैलाब, उनकी बढ़ती हुई बाढ़ हजार-हजार तरह की गालियां मेरे लिए लाएगी। तुम उनकी चिंता न लेना। वे गालियां मेरे पास आकर गालियां नहीं रह जातीं। जैसे कि तुम सरोवर में अगर अंगारे भी फेंको तो सरोवर में गिरते ही बुझ जाते हैं, अंगारे नहीं रह जाते। मेरी तरफ आने दो गालियों को जितनी आएं। जितनी ज्यादा आएं उतना अच्छा, क्योंकि उतना तहलका मचेगा, उतना तूफान उठेगा।
और मैं चाहता हूं कि इस देश में एक बड़ी भयंकर अराजकता उठे। क्योंकि उसी अराजकता में इस देश की सदियों की धूल झाड़ी जा सकती है, जड़ताएं तोड़ी जा सकती हैं। उसी अराजकता में इस देश का नया जन्म हो सकता है। उसी अराजकता से नया अनुशासन पैदा होगा। अनुशासन, जो चरित्र का नहीं होगा, चेतना का होगा।
और लोगों को, जब वे गालियां दें तो सहारा दो। उनसे कहो कि दिल खोल कर गालियां दो, क्योंकि जिसको तुम गालियां दे रहे हो वह जानता है कीमिया गालियों को फूल में बदल लेने की। वे जैसा समझते हैं बेचारे वैसा करते हैं। उन पर नाराज मत होना, उनसे झगड़ा मत लेना, उनकी गालियों के उत्तर में तुम गालियां मत देने लग जाना।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी गुलजान अचानक ही सत्तर साल की कम उम्र में चल बसी। मुल्ला नसरुद्दीन कुछ समय तो गुलजान के बगैर रहा, लेकिन फिर अकेले उससे न रहा गया। अंततः वह इस निदान के लिए डाक्टर के पास पहुंचा और डाक्टर को अपनी परेशानी बताई और बोला कि मैं बिना शादी किए नहीं रह सकता।
डाक्टर ने उसकी जांच-पड़ताल की और कहा, नसरुद्दीन, यह शादी जीवन के लिए घातक सिद्ध हो सकती है, फैसला तुम्हारे हाथ में है।
नसरुद्दीन बोला, डाक्टर साहब, कुछ भी हो जाए, शादी मैं करूंगा। फिर आप चिंता न करें, अगर मेरी नई पत्नी को कुछ हो गया तो उसकी छोटी बहन भी मौजूद है।
डाक्टर चौंका कि उसका तो अर्थ अनर्थ हो गया। उसने कहा था जीवन को कुछ हो सकता है। वह कह रहा है मुल्ला नसरुद्दीन के जीवन को कुछ हो सकता है। मुल्ला नसरुद्दीन समझ रहा है कि लड़की के जीवन को कुछ हो जाएगा--तो कोई फिक्र नहीं, उसकी छोटी बहन मौजूद है। अब ऐसे आदमी से क्या बात करनी और आगे। तो डाक्टर ने एक नजर इस बूढ़े नसरुद्दीन की तरफ दया से डाली। पिचके हुए गाल, मुंह में एक दांत नहीं, शरीर की एक-एक हड्डी उभर कर बाहर निकली आ रही है, पेट और पीठ दोनों मिल कर एक हो गए हैं। डाक्टर को देख कर बड़ी दया आई। वह बोला, नसरुद्दीन, यदि ऐसी ही बात है कि तुम बिना पत्नी के नहीं रह सकते, तो जरूर शादी कर लो। मैं शादी करने से तुम्हें रोकूंगा नहीं। लेकिन मेरी एक सलाह है, यदि मानो तो अपने घर में एक जवान मेहमान भी रख लो। यदि पत्नी के साथ-साथ एक जवान मेहमान घर में रख लो तो तुम्हारे स्वास्थ्य के लिए ठीक रहेगा।
मुल्ला बोला, यह बात ठीक रही। आपने हमारी मानी, हम आपकी माने लेते हैं। चलो, पत्नी भी रख लेते हैं और एक मेहमान भी रख लेते हैं।
शादी के सात-आठ माह बाद डाक्टर को अचानक आकस्मिक रूप से बाजार में मुल्ला नसरुद्दीन जाता हुआ दिखाई दिया--चूड़ीदार पाजामा, खादी की अचकन, गांधी टोपी लगाए, कोई फिल्मी धुन गाता हुआ चला जा रहा था। डाक्टर ने उसे रोक कर हालचाल पूछे और पूछा, नसरुद्दीन, तुम्हारी पत्नी के क्या हालचाल हैं? आठ माह हो गए शादी हुए और आज मिल रहे हो! क्या हाल है पत्नी का?
मुल्ला बोला, पत्नी कुछ ही दिनों में मां बनने वाली है।
डाक्टर ने बधाई देते हुए पूछा कि जवान मेहमान का क्या हाल है?
नसरुद्दीन शर्माता हुआ बोला, जी, वह भी मां बनने वाली है।


चौथा प्रश्न:

भगवान! मैं अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त एक साहित्यकार, विचारक, दार्शनिक, वैज्ञानिक और धर्माचार्य होकर भी मृत्यु को ही जी रहा हूं। मृत्यु से मुक्ति संभव है, तो मित्रता कर उससे एकाकार होने का उपाय क्या है?

रामनारायण सिंह चौहान! मृत्यु एक असत्य है--सबसे बड़ा असत्य। न कभी घटा, न कभी घटेगा। मनुष्य दो तत्वों का जोड़ है। एक तत्व तो है मरणधर्मा, जो मरा ही हुआ है। जो मरा ही हुआ है, उसकी तो मृत्यु कैसे होगी? और दूसरा तत्व है अमृत। जो अमृत है, उसकी तो मृत्यु कैसे होगी? फिर मृत्यु किसकी होती है? न शरीर मर सकता है, क्योंकि शरीर मरा ही हुआ है। न आत्मा मर सकती है, क्योंकि आत्मा अमृत है। फिर मरता कौन है?
कोई भी नहीं मरता; सिर्फ शरीर और आत्मा का संबंध छूट जाता है। और तुम संबंध को ही अगर जीवन समझते हो तो फिर संबंध छूटने को तुम मृत्यु समझ लेते हो। संबंध को जीवन समझने की भ्रांति से मृत्यु पैदा होती है। संबंध यानी तादात्म्य। तुमने अगर यह मान रखा है कि मैं शरीर हूं, तो फिर मृत्यु घटेगी। और तुम अगर जान लो कि मैं शरीर नहीं हूं, फिर कैसी मृत्यु! शरीर मरेगा, मरा ही हुआ था। और आत्मा मर नहीं सकती, आत्मा अमृत है।
काश तुम जीवन में ही इस तत्व को जान लो तो तुम मृत्यु में भी हंसते हुए, नाचते हुए, गीत गाते हुए प्रवेश करोगे, क्योंकि सिर्फ संबंध छूट रहा है।
रामनारायण सिंह चौहान अभंग नाम के मासिक पत्र के संपादक हैं। अभंग शब्द प्यारा है। शरीर और आत्मा अलग-अलग हैं, भिन्न-भिन्न हैं; अभिन्न नहीं हैं, अभंग नहीं हैं। और हम सोच लेते हैं कि अभंग हैं, अभिन्न हैं, अनन्य हैं--वहीं भ्रांति हो जाती है।
महाराष्ट्र में हुए संतों के पदों को अभंग कहा जाता है। वह इसीलिए, क्योंकि उन्होंने यह सत्य देख लिया--यह देह और आत्मा का एक होना झूठ है। जिस दिन यह देखा कि देह और आत्मा का एक होना झूठ है, उसी दिन उन्होंने यह जाना कि आत्मा और परमात्मा का एक होना सच है। मराठी संतों के पद अभंग कहे जाते हैं, क्योंकि उन्होंने आत्मा और परमात्मा का एक होना जान लिया, अभंग होना जान लिया। वे उसी अभंग-भाव से पैदा हुए हैं, उसी अखंड-भाव से पैदा हुए हैं। परमात्मा और आत्मा की एकता से ही उनका जन्म हुआ है, वही उनकी गंगोत्री है।
जब तक हम मानेंगे कि शरीर के साथ मैं एक हूं, तब तक अड़चन जारी रहेगी। फिर कुछ फर्क नहीं पड़ता, फिर चाहे कोई अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त साहित्यकार हो, विचारक हो, दार्शनिक हो, वैज्ञानिक हो, धर्माचार्य हो, कोई फर्क नहीं पड़ता। जब तक ध्यानी न हो तब तक कोई फर्क नहीं पड़ता। हां, ध्यानी अगर हो तो क्रांति घट जाती है। क्योंकि ध्यान का अर्थ ही है साक्षी में यह देख लेना कि मैं भिन्न हूं, मैं देह से अलग हूं; जिसे देख रहा हूं उससे द्रष्टा अलग है।
दृश्य और द्रष्टा का भेद जब बिलकुल स्पष्ट झलक जाता है, उसी दिन मृत्यु मर गई; उस दिन के बाद फिर मृत्यु नहीं है। हालांकि बाहर के लोगों को दिखाई पड़ेगी मृत्यु। एक दिन तुम जब छोड़ोगे देह को, इस घर को जब तुम छोड़ोगे, तो लोग समझेंगे मर गए।
लेकिन यह ऐसा ही पागलपन है जैसे कोई आदमी घर बदले--तुम एक मकान को छोड़ कर दूसरे मकान में रहने चले जाओ--और पूरा मोहल्ला रोए कि बेचारा मर गया! लोग नहीं रोते, क्योंकि वे देख लेते हैं तुम्हें जाते हुए दूसरे मोहल्ले, दूसरे मकान में रहते हुए, इसलिए नहीं रोते। अगर तुम दिखाई न पड़ो कि कब निकल गए इस घर से और कब पहुंच गए दूसरे घर में और दूसरे घर में पहुंच कर पहचान में भी न आओ, तो लोग रोएं, बहुत रोएं।
एक देह से दूसरी देह में जाना सिर्फ घर का बदलना है, आवास का बदलना है। लेकिन चूंकि यात्रा अदृश्य की है, लोग नहीं देख पाते। लोग तो सिर्फ इतना ही देखते हैं: अभी तक यह आदमी बोलता था, चलता था, उठता था; अब न बोलता, न उठता, न चलता; मृत्यु हो गई। वह जो असली घटना घटी है वह तो उन्हें दिखाई ही नहीं पड़ रही। चर्म-चक्षुओं से दिखाई पड़ने वाली वह बात भी नहीं है। वह तो उन्हीं को दिखाई पड़ सकती है जो ध्यान को उपलब्ध हुए हों, जिन्होंने अपने भीतर जान लिया हो कि मैं शरीर से भिन्न हूं, वे दूसरे के भीतर भी देख लेंगे कि मृत्यु घटती ही नहीं, कभी नहीं घटी। पंछी उड़ गया, पींजड़ा पड़ा रह गया है। अब पींजड़े को तुम जो चाहो सो करो--चाहे जलाओ, चाहे गड़ाओ। लेकिन बस पींजड़ा है, पंछी उड़ गया।
इसके पहले कि तुम उड़ो इस पींजड़े से, काश जान लो कि मैं पींजड़ा नहीं हूं, तो फिर दूसरे पींजड़े में प्रवेश करने की जरूरत न रह जाएगी! फिर तुम विलीन हो जाओगे अस्तित्व में, एक हो जाओगे। फिर न कोई जन्म होगा, न कोई मृत्यु होगी। फिर शाश्वत तुम्हारा जीवन होगा। फिर तुम सनातन नियम के साथ एक हो जाओगे। एस धम्मो सनंतनो! बुद्ध कहते हैं, ऐसा सनातन धर्म है।
इससे कुछ भेद नहीं पड़ता कि तुम प्रसिद्ध हो कि अप्रसिद्ध हो। क्या भेद पड़ेगा? कितने लोग तुम्हें जानते हैं, इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता। करोड़ों लोग तुम्हें जानते हों तो भी क्या होगा? तुम अपने को जानते हो या नहीं, सवाल यह है। और मजा ऐसा है कि लोग ख्याति की आकांक्षा ही क्यों करते हैं? इसीलिए ताकि लोग उन्हें जान लें। खुद को तो वे जानते नहीं, खुद को पहचानते नहीं, आत्मा से कभी मिलन नहीं हुआ, अपनी तो मुलाकात ही नहीं है उनकी, स्वयं से तो उनका कोई सेतु नहीं बना। इसलिए खालीपन लगता है; जानना चाहते हैं--मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं, इसे जानने के दो उपाय हैं--एक गलत, एक सही। गलत उपाय है: दूसरों से पूछो कि मैं कौन हूं? दूसरे कैसे जानेंगे! ख्याति का क्या अर्थ है? दूसरों से पूछना कि मैं कौन हूं। वे कहेंगे: अरे आप! ख्यातिनाम साहित्यकार, विचारक, दार्शनिक, वैज्ञानिक, धर्माचार्य! आप भी कैसी बात कर रहे हैं! आपको कौन नहीं जानता! आपको दुनिया जानती है! अखबार में रोज तो आपकी खबर छपती है, अखबार में रोज तो आपकी फोटो छपती है। आप भी क्या मजाक कर रहे हैं कि पूछते हैं मैं कौन हूं!
और जब बहुत लोग कहने लगते हैं कि आप महान विचारक, महान दार्शनिक, महान धर्माचार्य, यह-वह, तो उनकी बातें सुन-सुन कर तुम्हें भी भरोसा आने लगता है। तुम भरोसा करना भी चाहते हो, क्योंकि वह खालीपन भरना है भीतर। इनकी बातें सुन-सुन कर तुम कहते हो: ठीक है, ठीक ही कहते होंगे, जब इतने लोग कहते हैं तो कैसे गलत कहेंगे? और बार-बार सुन कर एक आत्म-सम्मोहन पैदा होता है। तुम अपने को मान लेते हो कि मैं यही हूं।
मेरे एक प्रोफेसर थे। उनसे मैंने एक दिन कहा कि हमारी सारी मान्यताएं आत्म-सम्मोहन हैं।
उन्होंने कहा, जैसे?
तो मैंने कहा कि कल। कल आपको उत्तर दूंगा।
वे अक्सर बीमार रहते थे। और चिकित्सक उनसे परेशान थे, क्योंकि बीमारी कुछ थी नहीं, मान्यता की बीमारियां थीं। उनकी धारणाएं थीं। उन धारणाओं के हिसाब से वे बीमार होते थे। बहुत लोग ऐसे ही बीमार होते हैं। उनकी एक पक्की धारणा होती है, बस वह धारणा उनको बीमार बनाए रखती है।
मैं सुबह ही उनके घर पहुंचा। मैंने उनकी पत्नी को कहा--वे अभी सोए ही हुए थे--मैंने उनसे कहा कि सुनो, थोड़ा मेरा साथ दो, मैं एक प्रयोग कर रहा हूं। जब तुम्हारे पति उठें तो तुम उनसे पूछना कि क्या रात तबीयत ठीक नहीं थी? बुखार रहा? क्योंकि चेहरा पीला-पीला मालूम पड़ता है।
पत्नी ने कहा, ठीक है। क्या प्रयोग कर रहे हो?
मैंने कहा, एक मनोविज्ञान का प्रयोग है। जरा सा साथ दोगी तो ठीक होगा। सांझ तक भर जरूरत है।
उन्होंने कहा, जरूर कह दूंगी, मेरा क्या बिगड़ता है कहने में!
उनके नौकर से मैंने कहा कि जब तू कमरा साफ करने जाए और मालिक को मिले तो जरा एकदम चौंक कर देखना और कहना, क्या हुआ आपको? कुछ हाथ-पैर कंपते से लगते हैं! तबीयत खराब है क्या?
उनके बाहर ही बागवान मिल गया, उसको मैंने कहा कि देख, जब वे निकलें यूनिवर्सिटी जाने के लिए तो भूलना मत, ऐसे ही कह देना कि क्या मामला है, इतने पीले आप पड़ रहे हैं! मत जाइए, विश्राम करिए! तबीयत खराब मालूम होती है।
रास्ते में पोस्ट आफिस पड़ता था। पोस्ट मास्टर को भी मैं कह आया कि वे यहां से निकलते हैं रोज, जब वे निकलें तो तुम जरा खयाल रखना। ऐसे ही बाहर खड़े हो जाना, नमस्कार करके कह देना कि बात क्या है? आप ऐसे चल रहे हैं जैसे कि गिर पड़ेंगे!
ऐसा मैं कई लोगों को समझा आया। और यूनिवर्सिटी में जहां वे बैठते थे, उनका जो चपरासी था बाहर, उससे मैंने कहा कि जब वे आएं तो तू एकदम उठ कर उनको पकड़ लेना कि आपको क्या हुआ? आप कैसे चल रहे हैं! पैर लड़खड़ा रहे हैं, चेहरा पीला पड़ रहा है, आंखें जर्द हुई जा रही हैं! क्या मामला है?
उसने कहा कि ऐसा करने में वे नाराज न होंगे?
मैंने कहा, मैं जिम्मा लेता हूं नाराजगी का। मैं एक प्रयोग कर रहा हूं, तू फिक्र मत कर। कुछ नाराज हों, कुछ भी हों, तू फिक्र ही मत करना, शाम को मैं सब हल कर लूंगा।
सुबह वे उठे। पत्नी ने कहा कि क्या हुआ, रात तबीयत ठीक नहीं रही?
उन्होंने कहा, नहीं, तबीयत बिलकुल ठीक है। मैं मस्त सोया, कोई गड़बड़ नहीं। तू ऐसी बात क्यों पूछती है?
नहीं, उसने कहा कि चेहरा आपका थोड़ा पीला सा लगता है और थके-मांदे लगते हो।
उन्होंने कहा कि तेरा भ्रम है। मैं बिलकुल ठीक हूं।
मगर भीतर शक तो आ गया। और जब कमरे में बाथरूम से निकले और कमरा साफ करने वाले नौकर ने कहा, मालिक! आप कैसे चल रहे हैं? तबीयत खराब तो नहीं है?
उन्होंने कहा, हां, कुछ थोड़ी रात नींद ठीक से नहीं आई।
पत्नी ने सुना तो पत्नी हैरान हुई, क्योंकि सुबह उससे वे इनकार कर चुके थे। मगर वह चुप रही, क्योंकि मैंने उससे कहा था कि शाम तक बिलकुल चुप ही रहना।
बाहर निकले, बागवान ने कहा कि आप यूनिवर्सिटी जा रहे हैं? मत जाइए मालिक, आपकी हालत ठीक नहीं है!
उन्होंने कहा, है तो मेरी भी हिम्मत जाने की नहीं। लेकिन एक जरूरी काम है, जाना पड़ेगा। रात तबीयत ठीक नहीं रही, बुखार रहा।
पत्नी सुनी तो बहुत हैरान हुई। वह भी चकित हुई कि मैं भी क्या प्रयोग कर रहा हूं! ये बीमार ही हुए जा रहे हैं।
और जब पोस्ट मास्टर ने बाहर टहलते हुए उनसे कहा कि आपकी हालत ऐसी लग रही है जैसे महीनों से बीमार रहे हों, चेहरा पीला पड़ गया है, हाथ-पैर कंप रहे हैं। और आप पैदल जा रहे हैं? अरे मुझसे कहते तो मैं गाड़ी लेकर आपको यूनिवर्सिटी छोड़ देता।
उन्होंने कहा कि सोचा तो मैंने भी था कि किसी की गाड़ी बुला लूं। फिर मैंने सोचा कि रात भर तबीयत ठीक नहीं रही, सुबह थोड़ा चलूंगा तो थोड़ा ठीक रहेगा। हालांकि तुम्हारी बात ठीक है, मैं हांफ रहा हूं और मेरी हालत खराब है। तुम मुझे गाड़ी से छोड़ ही दो।
तो पोस्ट मास्टर ने अपनी गाड़ी में उनको लाकर यूनिवर्सिटी छोड़ा। जैसे ही वे उतरे, उनके चपरासी ने उन्हें पकड़ा कि मालिक, आप गिर जाओगे!
उन्होंने कहा, तू ठीक कहता है।
वे चपरासी का सहारा लेकर अपने कमरे में गए, वहां मैं मौजूद था। मैंने उनसे कहा, आपकी क्या हालत हो रही है!
उन्होंने कहा कि सुनो, जरूरी काम था इसलिए मुझे आना पड़ा। यह तुम निपटा लेना। वाइस चांसलर से इतनी-इतनी बातें कह देनी हैं, मेरी तरफ से कह देना और क्षमा मांग लेना कि मेरी हालत बहुत खराब है। और मुझे नहीं लगता कि मैं दो-चार दिन बिस्तर से उठ सकूंगा। इतनी खराब तो मेरी हालत कभी हुई नहीं कि इतने लोगों ने, जिसने देखा उसने ही कहा!
मैंने उनको कहा, क्या मैं आपको घर तक छोड़ आऊं चल कर? क्योंकि...और डाक्टर की जरूरत हो तो मैं डाक्टर को बुला लूं।
उन्होंने कहा, डाक्टर को भी बुला लो और मुझे घर भी छोड़ आओ।
डाक्टर को भी ले आया मैं और उनको घर भी छोड़ा। डाक्टर ने देखा तो एक सौ दो डिग्री बुखार! डाक्टर भी हैरान हुआ। उसको मालूम था कि यह सब मैं कह रहा हूं और ये...उसने भी कहा कि हद हो गई कि एक सौ दो डिग्री बुखार और पत्नी भी बड़ी चौंकी कि एक सौ दो डिग्री बुखार! और सुबह ही मुझसे कहा कि बिलकुल ठीक थे! और वे तो बिस्तर से लग गए। और शाम को जब मैं डाक्टर को लेकर पहुंचा तो उनको एक सौ चार डिग्री बुखार था। मैंने उनको हिलाया और मैंने कहा, उठिए! और आपको अब मैं पूरी कहानी कहता हूं कि आपकी पत्नी ने सुबह आपसे ऐसा कहा था?
उन्होंने कहा, हां, तुम्हें कैसे पता चला?
मैंने कहा, आप अपनी पत्नी से पूछो कि उसे कैसे पता चला! आपके नौकर ने ऐसा कहा था? आपने नौकर को ऐसा उत्तर दिया था? आपके माली ने ऐसा कहा था? पोस्ट मास्टर ने ऐसा कहा था? आपके चपरासी ने ऐसा कहा था? और आपने येऱ्ये उत्तर दिए थे। यह बुखार झूठा है, यह मनोकल्पित है।
मगर उन्होंने कहा कि मनोकल्पित कैसे हो सकता है? तुम कहते हो तो बात समझ में आती है, क्योंकि तुम पूरी कहानी कह रहे हो सुबह से शाम तक की। मगर डाक्टर ने भी देखा है और डाक्टर ने थर्मामीटर भी लगाया है।
मैंने कहा, अब डाक्टर को मैं कहता हूं कि फिर थर्मामीटर लगाए। बुखार उतर गया है। जैसे ही यह कहानी पूरी साफ हो गई, धारणा छिन्न-भिन्न हो गई, बुखार विदा हो गया।
उस दिन से उनके जीवन में एक क्रांति हो गई। वे जो निरंतर रोग ही रोग लगाए रखते थे, वे काफी मात्रा में कम हो गए। क्योंकि जब भी वे कहें, लोग हंसने लगें। जब भी वे कहें कि रात तबीयत ठीक नहीं रही, उनकी पत्नी कहे कि तुम रहने ही दो ये बातें! तुम यह अपने भीतर ही रखो बात। यह तुम किसी और को बताना! उनका नौकर भी न माने, उनका माली भी न माने। और यह खबर पूरी यूनिवर्सिटी में फैल गई कि इस तरह का हुआ और इनको एक सौ चार डिग्री बुखार चढ़ा। उनको असली में भी बुखार चढ़े तो उनकी पत्नी डाक्टर न बुलाए--कि तुम रहने ही दो। कोई प्रयोग कर रहा होगा। यह सब तुम्हारा खयाल है। जब तुम्हें खयाल से आ सका था तो खयाल से ही उतारो।
और खयाल से उनका बुखार उतरने लगा, उनका सर्दी-जुकाम कम होने लगा। जब दो साल बाद मैंने विश्वविद्यालय छोड़ा तो मुझे विदाई में उन्होंने जो पार्टी दी थी उसमें उन्होंने यह कहा कि सबसे बड़ा धन्यवाद तो मैं इस बात का देता हूं कि मेरी कम से कम सत्तर प्रतिशत बीमारियां खतम हो गईं, क्योंकि मुझे खुद ही हंसी आने लगी कि जब मैं बातचीत मान कर और एक सौ चार डिग्री बुखार चढ़ा सकता हूं, तो कौन जाने कि क्या सच्चा है! क्या झूठा और क्या सच्चा, अब मुझे कुछ पक्का ही नहीं रहा!
लोगों से हम पूछते हैं: मैं कौन हूं? ऐसा साफ नहीं पूछते, नहीं तो लोग पागल समझेंगे। मगर बड़ी तरकीब से हम पूछते हैं, परोक्ष रूप से पूछते हैं। कोई कह दे कि आप बड़े सुंदर, कि आप बड़े बुद्धिमान, कि आप बड़े ज्ञानी, कि आप बड़े पुण्यात्मा, कि आप बड़े महात्मा। वह महात्मा भी तभी तक महात्मा है जब तक उसको महात्मा कहने वाले लोग हैं; वह भी एक सौ चार डिग्री बुखार है।
इसलिए महात्मा डरता है--उसके शिष्य कहीं छिटक न जाएं। नहीं तो वह बुखार उतरने लगेगा, वह महात्मागिरी जाने लगेगी। अगर उसका शिष्य किसी और के पास चला जाता है तो आगबबूला हो जाता है। डरता है, घबड़ाता है।
भगवानदास भारती ने लिखा है कि मैं आचार्य तुलसी को मिलने गया, बस वे एकदम आपके संबंध में ऊलजलूल बातें कहने लगे।
कहेंगे ही। पहले तुम उनके भक्त थे, श्रावक थे। उनका एक ग्राहक खो गया। और मेरे जैसे आदमियों की बड़ी झंझट है। झंझट यह है कि हमें किसी न किसी के ग्राहक लेने ही पड़ेंगे, क्योंकि लोग पहले ही से किसी न किसी दुकान के हिस्से हैं। तो मेरे जैसे लोग जब भी पैदा होंगे उनकी यह झंझट रहेगी। कोई मुसलमान है, कोई हिंदू है, कोई ईसाई है, कोई जैन है। कोई आस्तिक है, कोई नास्तिक है, कोई कम्युनिस्ट है। मुझे तो किसी न किसी दुकान से ग्राहक खींचने ही पड़ेंगे।
वह जो नास्तिक है उसका भी धर्म है--नास्तिकता। कुछ नास्तिक मेरे पास आकर संन्यासी हो गए हैं तो उनका गिरोह नाराज है। कम्युनिस्ट पार्टी नाराज है मुझ पर, क्योंकि मैंने कुछ कम्युनिस्टों को संन्यासी बना दिया है। तो अब वे माक्र्स की फिक्र नहीं करते। अब वे माक्र्स को कोई आप्त-पुरुष नहीं मानते। अब दास कैपिटल उनकी बाइबिल न रही। हालांकि कम्युनिस्टों को तो खुश होना चाहिए, कितने लोगों को लाल रंग दिया! मगर वे भी नाराज हैं।
मुझे तो किसी न किसी का ग्राहक छीनना पड़ेगा, यह मजबूरी है। बुद्ध आए, उनको किसी न किसी का ग्राहक छीनना पड़ा। जीसस आए, उनको किसी न किसी का ग्राहक छीनना पड़ा। जिनके ग्राहक छिन जाएंगे वे तो तमतमाएंगे। यह बिलकुल स्वाभाविक है। क्योंकि ग्राहकों के आधार पर ही उनकी महात्मागिरी है, उनकी साधुता है। इसलिए जिसके पास जितनी बड़ी भीड़ है...।
जैसे ईसाई कह सकते हैं...एरनाल्ड ने बहुत अदभुत किताब लिखी है बुद्ध पर: लाइट ऑफ एशिया। किताब प्यारी है। बुद्ध पर लिखी गई श्रेष्ठतम पुस्तकों में एक है। लेकिन एरनाल्ड है ईसाई, इसलिए लाइट ऑफ दि वर्ल्ड नाम नहीं दे सका किताब को--लाइट ऑफ एशिया। लाइट ऑफ वर्ल्ड, दुनिया का प्रकाश, वह तो जीसस। एशिया का प्रकाश! फिर एरनाल्ड ने दूसरी किताब लिखी, क्योंकि ईसाई पीछे पड़ गए कि तुमने जब बुद्ध पर ऐसी किताब लिखी तो जीसस पर...। उसको उसने नाम दिया: लाइट ऑफ दि वर्ल्ड! विश्व का प्रकाश। हालांकि दूसरी किताब में जान नहीं है, पोच है, दम नहीं है। पहली किताब तो बहुत अदभुत है, क्योंकि दूसरी किताब तो लिखी है--लिखवाई गई है, चेष्टा है। पहली किताब सहज उतरी है। एरनाल्ड प्रेम में पड़ गया बुद्ध के। मगर फिर भी हिम्मत नहीं जुटा पाया कि कह सके उनको विश्व का प्रकाश।
एक जैन ने किताब लिखी बुद्ध और महावीर पर, तो लिखा--भगवान महावीर एवं महात्मा बुद्ध, किताब को नाम दिया। मैंने उनसे पूछा कि दोनों को भगवान लिख देते तो कुछ बिगड़ता था? या दोनों को महात्मा ही लिखते तो भी ठीक था।
उन्होंने कहा, आप कहते तो ठीक हैं। मगर महावीर भगवान हैं; बुद्ध यद्यपि काफी पहुंचे हुए पुरुष हैं, मगर हैं महात्मा ही, अभी भगवान नहीं।
पैदाइशी जैन संस्कार बुद्ध को कैसे भगवान...। दुकानें बंटी हुई हैं महात्माओं की भी! और उनका महात्मापन भी औरों की आंखों पर निर्भर है। इसलिए महात्मा तुमसे डरते हैं, तुम जैसा कहो वैसा करते हैं। तुम कहो पांच बजे उठिए, तो पांच बजे उठते हैं। तुम कहो तीन बजे उठिए, तो तीन बजे उठते हैं। तुम कहो शाम को नौ बजे सो जाइए, तो नौ बजे सो जाते हैं। तुम कहो एक दफा भोजन करिए, तो एक दफा भोजन करते हैं। तुम जैसा कहो। क्यों? क्योंकि तुम्हें राजी रखना पड़े, तो ही तुम उनको महात्मा बने रहने दोगे, नहीं तो उनका महात्मापन गया। जरा तुम्हारे नियम के विपरीत हो जाएं कि बात खतम हो गई। तुम्हें जरा पता चल जाए कि मुनि महाराज रात को पानी पी लिए, खात्मा हो गया। रात और मुनि पानी नहीं पी सकता। रात भर प्यासा रहे और पानी के संबंध में चिंतन करे, यह स्वीकार है। पानी ही पानी सोचे रात भर, सपनों में सरोवर के सरोवर पी जाए, यह स्वीकार है। मगर एक गिलास भर पानी नहीं पी सकता। चौबीस घंटे भूखा रहे और भोजन के संबंध में ही विचार करे, यह स्वीकार है, लेकिन दो बार भोजन नहीं कर सकता। और इसलिए एक बार में जैन मुनि इतना भोजन कर जाते हैं कि उनकी तोंदें निकल आती हैं।
अब यह बड़े चमत्कार की बात है! दिगंबर जैन मुनि की तोंद अगर है तो फिर इस दुनिया में कोई तोंद से नहीं बच सकता। जो एक ही बार भोजन करता हो चौबीस घंटे में! और दिगंबर जैन मुनि को बैठ कर भी भोजन करने की आज्ञा नहीं है, खड़े होकर ही भोजन करना होता है। वह करपात्री होता है, उसे हाथ में ही लेकर भोजन करना होता है। क्योंकि बैठ कर आराम से भोजन करो तो ज्यादा कर जाओ, खड़े-खड़े थक ही जाओगे, कितना भोजन करोगे! खड़े-खड़े ज्यादा भोजन किया भी नहीं जा सकता। और फिर हाथ में लेकर भोजन करना है। मगर फिर भी तुम दिगंबर जैन मुनि की तोंद देखोगे। बड़ी हैरानी की बात है! ज्यादा खा जाता है।
तुमने मुक्तानंद के गुरु नित्यानंद की तस्वीर देखी? मैं नहीं समझता कि किसी आदमी की दुनिया में इतनी बड़ी तोंद कभी रही हो। ऐतिहासिक तोंद है। ऐसा कहना कि नित्यानंद की तोंद है, गलत; ज्यादा ठीक होगा कहना कि तोंद के नित्यानंद हैं। नहीं तस्वीर देखी हो तो देखने योग्य है, देखना, तोंद ही तोंद है! मात कर दिया मुक्तानंद के गुरु ने दुनिया के सब गुरुओं को। हैं अखंडानंद इत्यादि-इत्यादि, मगर क्या नित्यानंद के मुकाबले! पता नहीं क्यों, दुनिया में किताबें छपती हैं--विश्व रिकार्ड--उनमें क्यों नित्यानंद की तस्वीर अब तक नहीं छपी है, यह हैरानी की बात है। कोई सबसे तेज दौड़ता है, कोई सबसे ज्यादा तैरता है, कोई सबसे ज्यादा साइकिल चलाता है--ये छोटे-मोटे काम हैं। और इस बेचारे ने जिंदगी भर मेहनत करके ऐसी तोंद पैदा की है और इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं! यह बात अनुचित है, अन्यायपूर्ण है। मैं इसका विरोध करता हूं।
जब से मैंने नित्यानंद की तोंद देखी है तब से मैं महात्माओं की जब भी तस्वीरें देखता हूं तो पहले यह देखता हूं कि तोंद है या नहीं। मगर नित्यानंद का कोई मुकाबला नहीं--बेजोड़!
यह कैसे होता होगा? और इन सबको कहा जाता है--अल्पाहारी, उपवासी, एकाहारी। व्रत रखते हैं। कुछ इसमें से दुग्धाहारी होते हैं, वे दूध ही दूध लेते हैं, और कुछ दूसरा नहीं। मगर इनके शरीर की हालत! तुम इनसे जो करवाते हो वह करते हैं।
बुद्धत्व का पहला लक्षण यह है कि श्रावक किसी बुद्ध को चला नहीं सकते। वह अपने ढंग से चलता है, अपने ढंग से जीता है। वह किसी का गुलाम नहीं है। उसे पता है कि वह कौन है, तुमसे पूछता नहीं है। इसलिए तुम पर निर्भर नहीं है। वह जानता है कि वह कौन है। तुम्हारे दर्पण में अपने चेहरे को उसे देखने की जरूरत नहीं है। उसने अपने मौलिक चेहरे को देख लिया है।
तुम ख्याति के लिए इतने दीवाने इसीलिए होते हो कि यही एक रास्ता है अपने को भरने का कि मैं कौन हूं, मैं कौन हूं। दुनिया कहती है कि मैं साहित्यकार हूं, कवि हूं, लेखक हूं, चित्रकार हूं, धर्माचार्य हूं, दार्शनिक हूं--जरूर होऊंगा। नोबल पुरस्कार मिल जाए तो भरोसा आ जाए कि बिलकुल ठीक बात है कि मैं हूं कुछ। यह झूठा उपाय है स्वयं को जानने का। स्वयं को जानने का सच्चा उपाय तो ध्यान है। बाहर नहीं, दूसरे की आंख में नहीं देखना है; अपनी आंख बंद करनी है ताकि बाहर का सब दिखाई पड़ना बंद हो जाए। सुना कल पलटू को!
पलटू ने कहा: मेरी बात वह समझे जो आंख का अंधा हो। बड़ी अदभुत बात कही पलटू ने! किसी ने नहीं कही ऐसी बात। जीसस ने भी कही है यही बात, लेकिन और ढंग से कही है। जीसस ने कहा है: जिसके पास आंखें हों वह मुझे देखे और जिसके पास कान हों वह मुझे सुने। मतलब तो उनका भी यही है। मगर वे भी पलटू के ढंग से नहीं कह सके। पलटू के कहने का ढंग निश्चित अनूठा है, सधुक्कड़ी है, जैसा साधु का होना चाहिए। जीसस ने थोड़ी सौम्यता बरती कि जिसके पास आंखें हों वह मुझे देखे। पलटू कहता है: जो अंधा हो वह मुझे देख सकता है। जीसस का भी मतलब यही है कि बाहर देखने वाली आंखों से तुम मुझे न देख सकोगे, भीतर देखने वाली आंख चाहिए। मगर पलटू बहुत सीधा कह रहे हैं, सीधा-साफ, कि बाहर से तो अंधे हो जाओ, बाहर का कुछ मत देखो, तब तुम मुझे देख पाओगे। बाहर के लिए तो बहरे हो जाओ, तब तुम मुझे सुन पाओगे।
एक तो रास्ता है कि हम दूसरों से पूछते फिरें कि मैं कौन हूं?
वह झूठा और गलत रास्ता है। उस रास्ते पर मृत्यु आएगी, क्योंकि तुम जो अपनी प्रतिमा बनाओगे कि मैं कौन हूं, वह झूठी प्रतिमा होगी, मौत में वह प्रतिमा गिरेगी। जब संयोग टूटेगा शरीर और आत्मा का, वह प्रतिमा खंडित हो जाएगी। तब तुम्हारी विश्वख्याति तुम्हें बचा नहीं सकेगी। तुम्हारा यश, तुम्हारा गौरव, तुम्हारी नोबल प्राइज कुछ काम नहीं आएगी। तब सब कचरा हो जाएगा। लेकिन तब बहुत देर हो चुकी होगी। अब पछताए होत का जब चिड़िया चुग गई खेत!
एक दूसरा रास्ता है: आंख बंद करो और भीतर उतरो। तलाश करो कि मैं कौन हूं? हूं--इतना तो तय है, पर कौन हूं? मैं कौन हूं, यह पूछते चलो। तुम्हारा ध्यान का यह मंत्र बन जाए कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? शब्द में पहले दोहराना, फिर धीरे-धीरे शब्द को छोड़ देना और सिर्फ भाव में यह गूंज रह जाए--मैं कौन हूं? सिर्फ भाव बन जाए यह कि मैं कौन हूं? उतरते-उतरते सीढ़ियां स्वयं की एक दिन यह प्रश्न खो जाएगा। तुम अपने आमने-सामने खड़े होओगे। तुम देख लोगे उसे जो तुम हो। उसी दिन शरीर और तुम अलग-अलग हो गए, असली मौत घट गई। इस मृत्यु को ही हम संबोधि कहते हैं, समाधि कहते हैं। फिर दूसरी मौत जब घटेगी घटेगी, उसका कुछ मूल्य नहीं है। दूसरी मृत्यु में भी तुम जानोगे--यह भी सिर्फ संयोग टूट रहा है। मैं रहूंगा, देह भी रहेगी। इसका जल जल में खो जाएगा, मिट्टी मिट्टी में खो जाएगी, पवन पवन में खो जाएगा। इसके पांच तत्व पांच तत्वों में लीन हो जाएंगे, कुछ नष्ट नहीं होगा। और मेरी आत्मा परमात्मा में लीन हो जाएगी, कुछ नष्ट नहीं होगा।
यहां न तो कुछ विनष्ट होता है जगत में, न कुछ निर्मित होता है। इस जगत में जितना है उतना ही है; नया कुछ बनता नहीं, पुराना कुछ नष्ट नहीं होता। सिर्फ संयोग बनते और मिटते हैं।
मृत्यु, रामनारायण, सबसे बड़ा झूठ है। लेकिन ध्यानी को पता पड़ता है, गैर-ध्यानी को पता नहीं पड़ता। गैर-ध्यानी को तो बहुत बार मरना पड़ता है। ध्यानी एक ही बार मरता है--ध्यान में। उसके बाद सब मृत्यु झूठ हो जाती है।


अंतिम प्रश्न:

भगवान! मैं विवाह से इतना भय क्यों खाता हूं?

सुधाकर! और क्या करोगे? विवाह से भय ही खाया जा सकता है।
पत्नी की मृत्यु के दो वर्ष बाद ही चंदूलाल का भी देहावसान हुआ। चूंकि उन्होंने अपनी जिंदगी में न बड़े पाप किए थे न बड़े पुण्य, इसलिए उन्हें स्वर्ग-नरक में चुनाव की छूट मिली। परलोक कार्यालय के पूछताछ विभाग वाले क्लर्क से बाहर जाकर उन्होंने पूछा कि भाई, आज से दो साल पहले श्रीमती चंदूलाल की मृत्यु हुई थी, क्या आप कृपा कर बताएंगे कि वे स्वर्ग गईं या नरक?
क्लर्क ने खाते-बही पलट कर बताया: श्रीमती चंदूलाल, हिसाब-किताब में कोई बड़े पाप-पुण्य न होने के कारण उन्हें भी कहीं भी जाने की स्वतंत्रता दी गई थी। और जैसा कि सभी चुनते हैं, उन्होंने स्वर्ग चुना। वे आजकल स्वर्ग में रह रही हैं।
ऐसी बात है--चंदूलाल ने हड़बड़ी में कहा--तो फिर मुझे जल्दी से नरक में भेज दीजिए।
ढब्बूजी एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन से पूछ रहे थे, अच्छा यह तो बताओ बड़े मियां कि जिस प्रकार हम अविवाहित और विवाहित स्त्री को बड़ी ही आसानी से पहचान लेते हैं--क्योंकि क्वांरी स्त्रियों की मांग में सिंदूर नहीं होता और विवाहित स्त्री की मांग में सिंदूर होता है--क्या इसी प्रकार से अविवाहित और विवाहित पुरुषों को भी अलग-अलग पहचाना जा सकता है?
मुल्ला नसरुद्दीन बोला, भाई ढब्बूजी, पहचान बड़ी ही सरल है। सुनो, क्वांरे पुरुष की कमीज पर बटन नहीं पाए जाते और जो विवाहित पुरुष होता है उसके शरीर पर बटन तो बटन, कमीज तक नहीं पाई जाती।
घबड़ाते हो, स्वाभाविक है। मगर घबड़ाने से कुछ भी नहीं होगा। गुजरना पड़ेगा। इस पीड़ा से गुजरना पड़ेगा। क्योंकि बिना पीड़ा के घबड़ाते भी रहोगे और रस भी बना रहेगा। रस ही न होता तो प्रश्न ही क्यों उठाते! घबड़ाहट अभी अनुभव की नहीं है। घबड़ाहट अभी स्वानुभव नहीं है। इसलिए प्रश्न उठ रहा है। मन में आकांक्षा है। गुजरो, नाहक समय न गंवाओ। जितने जल्दी गुजरे उतना अच्छा। क्योंकि जितने जल्दी गुजर जाओ उतने जल्दी बाहर आ जाओगे।
सुधाकर, विवाह भी एक पाठशाला है, जो तुम्हें एक बड़ा पाठ देती है कि दूसरे से तृप्ति नहीं हो सकती और दूसरे से आनंद नहीं मिल सकता। और यह एक बहुत बड़ा पाठ है, क्योंकि इसका दूसरा पहलू है कि आनंद स्वयं से ही मिल सकता है, स्वयं में ही मिल सकता है।

आज इतना ही।


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