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शनिवार, 25 जून 2016

अमी झरत बिगसत कंवल--(प्रवचन--08)

सृजन की मधुर वेदना—(प्रवचन—आठवां)
दिनांक १८ मार्च, १९७९;
श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्‍नसार:
1—भगवान! संतों के अनुसार वैराग्य के उदय होने पर ही परमात्मा की ओर यात्रा संभव है और आप कहते हैं कि संसार में रहकर धर्म साधना संभव है। इस विरोधाभास पर कुछ कहने की अनुकंपा करें।
2—भगवान! कभी झील में उठा कंवल देख आंदोलित हो उठता हूं, कभी अचानक कोयल की कूक सुन हृदय गदगद हो आता है, कभी बच्चे की मुसकान देख विमुग्ध हो जाता हूं। तब ऐसा लगता है जैसे सब कुछ थम गया; न विचार न कुछ। भगवान, लगता है ये क्षण कुछ कुछ संदेश लाते हैं, वह क्या होगा?

3—भगवान! यह शिकायत मत समझना, आपकी एक जिंदादिल भक्त की प्रेम—पुकार है।
आपसे दूर रहकर दिल पर क्या गुजरती है वह आप ही समझ सकेंगे।
दिल की बात लबों पर लाकर अब तक हम दुख सहते हैं,
हमने सुना था इस बस्ती में दिलवाले भी रहते हैं,
एक हमें आवारा कहना कोई बड़ा इल्जाम नहीं,
दुनिया वाले दिलवालों को और बहुत कुछ कहते हैं।
बीत गया सावन का महीना मौसम ने नजरें बदलीं
लेकिन इन प्यासी आंखों से अब तक आंसू बहते हैं,
जिनके खातिर शहर भी छोड़ा जिनके लिए बदनाम हुए
आज वही हमने बेगाने से रहते हैं।
4—भगवान! मेरा जीवन कोरा कागज कोरा ही रह गया। प्रभु, आपने बार बार कहा है कि प्रार्थना केवल अनुग्रह प्रकट करना है कुछ मांगना नहीं। परंतु मन बिना मांगे नहीं रह पाता। मांगता हूं प्रभु एक ऐसी प्यास जो तन मन को धू—धू कर जला दे। क्या प्रभु मेरी मांग पूरी करेंगे?
5—भगवान! कुछ पूछना चाहता हूं लेकिन पूछने जैसा कुछ नहीं लगता। बड़ी डांवांडोल स्थिति में हूं। कभी तो एक मस्ती घेर लेती है और अचानक सब विराम हो जाता है। कृपया मार्गदर्शन करें।

पहला प्रश्न: भगवान! संतों के अनुसार वैराग्य के उदय होने पर ही परमात्मा की ओर यात्रा संभव है। और आप कहते हैं कि संसार में रहकर धर्म साधना संभव है। इस विरोधाभास पर कुछ कहने की अनुकंपा करें।
नंद मैत्रेय! विरोधाभास रंचमात्र भी नहीं है। विरोध तो है ही नहीं, आभास भी नहीं है विरोध का। दिखाई पड़ सकता है विरोध, क्योंकि सदियों के संस्कार ठीक—ठीक देखने नहीं देते, देखने में अड़चन डालते हैं, आंखों में धूल का काम करते हैं।
संत ठीक कहते हैं कि वैराग्य के उदय हुए बिना परमात्मा की ओर यात्रा नहीं हो सकती। और जब मैं कहता हूं: संसार में रहकर ही धर्म—साधना संभव है, तो संतों की विपरीत कुछ भी नहीं कह रहा हूं।
संसार में बिना रहे वैराग्य ही कैसे पैदा होगा? संसार ही तो अवसर है वैराग्य का। संसार में ही तो वैराग्य सघन होगा। जो संसार से भाग जाएगा उसका वैराग्य कच्चा रह जाएगा। और कच्चा वैराग्य रहा हो तो राग फिर नए अंकुर फोड़ देगा, नए पल्लव निकल आएंगे।
इस उल्टी सी दिखने वाली बात को ठीक से समझना। संसारी अक्सर संन्यास की बात सोचता है! संसार में दुख इतना है, पीड़ा इतनी है, चिंता इतनी है कि जिसमें थोड़ी भी बुद्धि है वह कभी न कभी सोचता है कि छोडूं—छोडूं! बहुत हो चुका, और कब तक ऐसे ही घिटटे खाना है! कब तक कोल्हू का बैल बना रहूं! वही चक्कर, वही सुबह, वही सांझ, वही दौड़—धूप, वही आपाधापी! क्या ऐसे ही दौड़—दौड़कर मर जाना है या कुछ पाना भी है?
संसार में जिसके मन में संन्यास की वासना न उठती हो, संन्यास की कामना न उठती हो, ऐसा आदमी खोजना कठिन है! भोगी से भोगे को भीतर एक अभीप्सा उठनी शुरू हो जाती है! और जो भाग गए हैं संसार से उन्हें संन्यास का दुख है। वे संन्यास से ऊबे हुए हैं: कब तक बैठे रहे इसी गुफा में और कब तक फेरते रहें माला! और यह रोज—रो की भीख मांगना और द्वार—द्वार से कहा जाना आगे बढ़ो और यह रोटी की चिंता, और बीमारी में कौन फिकिर करेगा, और बुढ़ापे में कौन सहारा देगा...! और हजार उनकी भी चिंताएं हैं, हजार उनके भी कष्ट हैं।
तुम ऐसा मत सोच लेना कि गुफा में जो रह रहा है उसके कोई कष्ट नहीं हैं उसके अपने कष्ट हैं—तुमसे भिन्न हैं...। तुम्हारा कष्ट है कि भीड़ के कारण तुम्हें शांति नहीं मिलती; उसका कष्ट है कि अकेलापन काटता है। तुम अकेले होना चाहते हो, क्योंकि भीड़ से तुम थकते हो; रोज—रोज भीड़ ही भीड़ है, सब तरफ भीड़ है। भाग जाना चाहते हो कहीं। क्षणभर को भी विश्राम मिल जाए, ऐसी आकांक्षा तुम्हारे मन में जगती है। लेकिन जो अपनी गुफा में बैठा है वह राह देखता है कि कोई भूला—भटका शिकारी ही आ जाए कि बैठ कर दो क्षण बातें हो लें, कि कुछ खबरें मिल जाएं कि संसार में क्या हो रहा है। वह भी प्रतीक्षा करता है कि कब भरे कुंभ का मेला, कि उतरूं पहाड़ से, कि जाऊं भीड़—भाड़ में। घबड़ाने लगता है। एकाकीपन, काटने लगता है एकाकीपन।
तुम भी जंगल जाकर देखो, एकाध दिन, दो दिन, तीन दिन अच्छा लगेगा, प्रीतिकर लगेगा। बड़ा सौभाग्य मालूम होगा, स्वतंत्रता मालूम होगी। बस तीन दिन और सुहागरात समाप्त! और घर की याद आने लगेगी और घर की सुविधाएं...सुबह—सुबह स्नान के लिए गर्म जल और सुबह—सुबह पत्नी जगाती चाय हाथ में लिए। अब न तो कोई गर्म जल है, न कोई चाय के लिए जगाता है, न कोई पूछने वाला है कि कैसे हो, अच्छे हो कि बुरे, न कोई पैर दबाने को है। अब तुम्हें वे सब सुख याद आने लगेंगे जो घर में संभव थे। वह घर की सुरक्षा, सुविधा, वह घर की ऊष्मा, वे प्रीति के सारे के सारे फूल स्मरण आने लगेंगे। बच्चों की किलकारियां, उनका हंसना और तुम्हारी गोद में आकर बैठ जाना और क्षणभर को तुम्हें भी बचपन की दुनिया में ले जाना, वह सब तुम्हें याद आने लगेगा।
आदमी का मन ऐसा है कि जो है उसे भूल जाता है और जो नहीं है उसकी याद करता है। महलों में रहने वाले लोग सोचते हैं कि झोपड़ों में रहने वाले लोग बड़ी मस्ती में रह रहे हैं। न कोई चिंता राज्य की, न कोई धन को बचाने की फिकिर, न दुश्मनों का कोई डर, घोड़े बेचकर सोते हैं, मस्त है उनकी नींद! महलों वालेर् ईष्या करते हैं झोपड़े वालों से और झोपड़े में जो रहा है वह सोचता है: अहा! महल में आनंद! उनकी कल्पना करके हीर् ईष्या हीर् ईष्या से जला जाता है।
यही द्वंद्व संसार और संन्यास का भी है। जो शहर में है वह सोचता है: गांव में बड़ा आनंद है, प्राकृतिक सौंदर्य है, शुद्ध हवाएं हैं, सूरज—चांदत्तारे। बंबई में तो चांदत्तारे दिखाई ही कहां पड़ते हैं; पता ही नहीं चलता कब पूर्णिमा आई और कब गई। और जमीन पर ही इतनी रोशनी है कि तारे देखे कौन! फुर्सत किसको है! आंखों जमीन पर गड़ी हैं। हवा इतनी गंदी है!
वैज्ञानिक तो बहुत चकित हैं। न्यूयार्क की हवा का विश्लेषण किया है तो पाया कि हवा में इतना जहर है कि जितने जहर में आदमी को जिंदा रहना ही नहीं चाहिए, आदमी को मर ही जाना चाहिए। मगर आदमी अदभुत है; उसकी समायोजन की क्षमता अदभुत है, वह हर चीज से अपने को समायोजित कर लेता है। अगर तुम जहर भी धीरे—धीरे धीरे—धीरे पीते रहो तो तुम जहर पीने के भी आदी हो जाओगे। फिर जहर तुम्हारा कुछ न कर सकेगा।
तुमने कहानियां सुनी होंगी। पुराने दिनों में सम्राट विषकन्याएं रखते थे राजमहल में। बचपन से ही पैदा हुई कोई सुंदरी लड़की को विष पिलाना शुरू किया जाता था दूध के साथ। छोटी मात्रा, होम्योपैथी की मात्रा। और फिर धीरे—धीरे मात्रा बढ़ाते जाते, बढ़ाते जाते, बढ़ाते जाते; जब तक वह जवान होती तब तक उसका सारा रक्त जहर से भर जाता। उसका रक्त इतना जहरीला हो जाता है कि अगर वह किसी का चुंबन ले ले तो वह आदमी मर जाए। इन विषकन्याएं का उपयोग किया जाता था जासूसों की तरह। चूंकि वे सुंदर होती, उनको भेजा सकता था दूसरे राज्यों में। चूंकि वे इतनी सुंदर होतीं कि स्वयं राजा—महाराजा उनके प्रेम में पड़ जाते और उनको चूमना संघातक! खुद नहीं मरती है वह लड़की, लेकिन जो उसे चूम ले, मर जाता है।
मनुष्य की समायोजन की क्षमता अपार है; हर हालत से अपने को समायोजित कर लेता है। न्यूयार्क में तीन गुना जहर है हवाओं में। वैज्ञानिक सोचते हैं; जितना आदमी सह सकता है उससे तीन गुना ज्यादा...बंबई में दो गुना होगा।
बंबई में जो रहता है, सोचता है गांव का सौंदर्य, नैसर्गिक हवाएं, चांदत्तारे! लेकिन गांव वाले आदमी से पूछो, उसकी आंखें बंबई पर अटकी हैं। वह चाहता है कि कैसे बंबई पहुंच जाए! पत्नी छूटे तो छूटे, कैसे बंबई पहुंच जाए! और बंबई मिलेगी झुपड़—पट्टी रहने को। रहेगा किसी गंदे नाले के करीब, जहां चारों तरफ सिवाय गंदगी के कुछ भी न होगा। लेकिन फिर भी, बंबई इंद्रपुरी मालूम होती है!
मनुष्य का मन ऐसा है, जो पास में नहीं है उसकी आकांक्षा होती है; जो पास है उससे विरक्ति होती है।
इसलिए मैं कहता हूं: संसार से भागो मत, क्योंकि मैं संन्यासियों को जानता हूं जो संसार से भाग गए हैं। इस देश के करीब—करीब सभी परंपराओं के संन्यासियों से मेरे संबंध रहे हैं। और उन सब के भीतर मैंने संसार की गहन वासना देखी है। सत्तर साल की उम्र के एक जैन मुनि ने मुझे कहा कि पचास साल हो गए मुझे मुनि हुए, लेकिन मन में यह बात छूटती नहीं कि कहीं मैंने भूल तो नहीं की! जो संसार में हैं, कहीं वे ही तो मजा नहीं ले रहा हैं! कहीं मैं चूक तो नहीं गया इस झंझट में पड़कर! अब तो देर भी बहुत हो चुकी, अब तो लौट ने में भी कुछ सार नहीं है; लेकिन कौन जाने मैं तो बहुत युवा था, बीस ही साल का था, तब घर छोड़ दिया। आ गया किसी की बातों में प्रभाव में। यह तो धीरे—धीरे पता चला कि जिसकी बातों के प्रभाव में आ गया था उसे भी कुछ आनंद अनुभव नहीं हुआ है। मगर यह तो देर से पता चला, तब तक सम्मानित हो चुका था। लोग चरण छूते थे। वे ही लोग, जो दो दिन पहले जब तक संन्यस्त न हुआ था, अगर उनके घर चपरासी के काम की आकांक्षा करता तो इनकार कर देते—वे ही लोग पैर छूते थे! तो अब लौटूं भी कैसे लौटूं! शोभा—यात्राएं निकालते थे—वे ही लोग, जो दो पैसे दे नहीं सकते थे, अगर मैं भीख मांगने जाता! अब मेरे चरणों पर सब निछावर करने को राजी थे। अब छोडूं तो कैसे छोडूं? जो संसार में प्रतिष्ठा नहीं मिली, अहंकार को तृप्ति नहीं मिली, वह मुनि होकर मिल रही थी। तो छोड़ भी न पाया, मगर मन में यह बात सरकती ही रही और अब भी सरकती है, सत्तर साल की उम्र में भी सरकती है—कि कहीं मैं चूक तो नहीं गया! कहीं ऐसा तो नहीं है कि मैं व्यर्थ के जाल में पड़कर जीवन गंवा दिया! एक पूरा जीवन गंवा दिया! इसलिए मैं कहता हूं: संसार से भागना मत। संसार से ज्यादा और सुविधापूर्ण कोई स्थान नहीं है जहां वैराग्य का जन्म होता है। संसार में रहकर विरागी हो जाओ। भागते क्यों हों? भागने का मतलब है कि अभी कुछ डर है संसार का। डर का अर्थ है: अभी कुछ राग है। डरते हम उसी चीज से हैं जिससे राग होता है। डरते इसीलिए हैं कि हमें अपने पर भरोसा नहीं है। हम जानते हैं कि अगर एकांत और ऐसी सुविधा मिली तो हम अपने को रोक न पाएंगे; अपनी उत्तेजनाओं पर, अपनी वासनाओं पर संयम न रख पाएंगे। हमें अपने संयम के कच्चेपन का पक्का पता है। इसलिए उचित यही है कि ऐसे अवसर से ही पीठ फेर लो; ऐसी जगह से ही हट जाओ। धन का ढेर लगा हो तो हम अपने को रोक न पाएंगे, झोली भर लेंगे।
इसका जिसको अनुभव होता है, वह सोचता है: ऐसी जगह ही मत रखना जहां धन का ढेर लगा हो। अगर कोई सुंदर स्त्री दिखाई पड़ेगी, उपलब्ध होगी, तो हम अपने को रोक न पाएंगे; या सुंदर पुरुष, तो हमारे नियंत्रण टूट जाएंगे, हमारे संयम के कच्चे धागे उखड़ जाएंगे, हमारे भीतर दबी हुई वासनाएं उभर आएंगी, प्रकट हो जाएंगी। इससे बेहतर है ऐसी जगह भा जाओ, जहां अवसर ही न हो। लेकिन अवसर का न हो ना सिद्ध नहीं करता कि वासना समाप्त हो गई है।
क्या तुम सोचते हो कि अंधे आदमी की देखने की वासना समाप्त हो जाती है? क्या अंधा आदमी रंगों को देखना नहीं चाहता? क्या अंधा आदमी सुबह को देखना नहीं चाहता? क्या अंधा आदमी रात तारों से भरे हुए आकाश को देखना नहीं चाहता? क्या अंधा आदमी किसी सुंदर चेहरे को, किन्हीं झील जैसी नीला आंखों को नहीं देखना चाहता? क्या तुम सोचते हो कि बहरे की वासना समाप्त हो जाती है संगीत को सुनने की, या कि लंगड़े की वासना समाप्त हो जाती है चलने की, उठने की, दौड़ने की?
काश, इतना आसान होता तो जंगल में भाग गए संन्यासी विराग को उपलब्ध हो जाते! लेकिन जंगल भागकर वे केवल अवसर से वंचित होते हैं, भीतर की कामनाएं तो और भी प्रगाढ़ होकर, और भी प्रज्वजित होकर जलने लगती हैं, और भी शुद्ध होकर जलने लगती हैं।
तुम्हारे जीवन में ऐसा रोज—रोज अनुभव होता। जिस पत्नी से तुम परेशान हो, चाहते हो कि मायके चली जाए, कुछ देर तो छुटकारा हो; उसके मायके चले जाने पर कितनी देर तक छुटकारा अनुभव होता है? दिन, दो दिन, चार दिन, और उसकी याद आने लगती है—और वे सारे सुख जो उसके कारण थे जो पहले दिखाई ही न पड़े थे। हर चीज में अड़चन मालूम होने लगती है। अब सोचते हो कि वापस लौट आए। अब बड़े प्रेम—पातियां लिखने लगते हो, कि तेरे बिना मन नहीं लगता! और जरा सोचो तो, थूके को चाट रहे हो! अभी चार दिन पहले सोचते थे कि किसी तरह छुटकारा हो और अब तेरे बिना मन नहीं लगता! और जरा सोचो तो, थूके को चाट रहे हो! अभी चार दिन पहले सोचते थे कि किसी तरह छुटकारा हो और अब तेरे बिना मन नहीं लगता!
मन की इस स्थिति को ठीक से समझ लो तो मेरी बात तुम्हें समझ में आ जाएगी और तब तुम पाओगे: मैं जो कह रहा हूं वह संतों के विपरीत नहीं है। मैं जो कह रहा हूं वही संतों के पक्ष में है। मैं कहता हूं: रहो सघन संसार में, ताकि वैराग्य घना होता रहे, घना होता रहे, घना होता रहे! इतना सघन हो जाए एक दिन कि अवसर तो बाहर मौजूद रहे, लेकिन भीतर वासना मर जाए।
ये दो बातें हैं—अवसर और वासना। अवसर का न होना वासना का असिद्ध होना नहीं है। हां, वासना का असिद्ध हो जाना जरूर क्रांति है, रूपांतरण है।
तो मैं कहता हूं: धन में रहो ताकि धन से मुक्त हो जाओ। भोगो, ताकि भोग व्यर्थ हो जाए। इसके सिवाय कोई और उपाय नहीं है। भागे कि भोग कभी व्यर्थ नहीं होगा; भोग सार्थक बना रहेगा; भोग की उमंग भीतर उठती ही रहेगी।
तुम जानते हो, तुम्हारे पुराणों में कथाएं तो भरी पड़ीं हैं कि जब भी कोई ऋषि—मुनि ज्ञान को उपलब्ध होने को हो, बस उपलब्ध होने को होता है कि इंद्र भेज देते हैं उर्वशियों को। आखिरी इंद्र उर्वशी को क्यों भेजते हैं? क्योंकि ये जो ऋषि हैं, ये जो मुनि हैं, स्त्रियों से भागे हैं। गणित साफ है, मनोविज्ञान स्पष्ट है। तुमने शायद ऐसा सोचा हो या न सोचा हो; चाहे कोई इंद्र हों, उर्वशियां हों या न हों—मगर विज्ञान बड़ा साफ है। सूत्र स्पष्ट है। स्त्रियां भाग गया यह मुनि, यह जंगल में बैठा है। एक बात पक्की है कि जिसको छोड़कर आया है उसकी वासना इसके भीतर सर्वाधिक प्रगाढ़ होगी। इसको अगर डुलाना है, इसको अगर गिराना है तो भेज दो एक अप्सरा। यह डोल जाएगा, यह गिर जाएगा। इंद्र को मनोविज्ञान का ठीक—ठीक बोध है।
मेरे संन्यासी को इंद्र नहीं डुला सकेगा! इधर इंद्र चिंतित है। इधर उसके पुराने सारे उपाय व्यर्थ हैं। मेरे संन्यासी के पास उर्वशी आकर भला डोल जाए, मेरा संन्यासी नहीं डोलने वाला है। कोई कारण नहीं है। बहुत उर्वशियां देखीं, उर्वशियां ही उर्वशियां नाच रही हैं! तुम देखते हो, इंद्र की व्यवस्था को मैं किस तरह काट रहा हूं! इंद्र बड़ी बिगूचन में है। पुरानी तरकीबें कोई, पुराने हथकंडे कोई काम आएंगे नहीं। वे पुराने ऋषियों पर काम आ गए, भगोड़े थे। और कोई अप्सरा ही भेजने की जरूरत नहीं थी, कोई साधारण स्त्री पर्याप्त होती। नाहक ही जहां सुई काम कर जाती वहां तलवार चला रहे थे इंद्र, साधारण स्त्री काफी होती।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन ने पहाड़ पर एक मकान बन रखा है। वहां कभी—कभी जाता है—विश्राम के लिए। कह कर जाता है तीन सप्ताह रहूंगा, आ जाता है आठवें दिन! तो मैंने पूछा कि बात क्या है, कह कर गए थे तीन सप्ताह रहूंगा, कभी आठवें दिन आ जाते हो; कभी कहकर जाते हो चार सप्ताह रहूंगा और सातवें दिन वापिस लौट आते हो! उसने कहा: अब आपसे क्या छिपाना! मैंने वहां एक नौकरानी रख छोड़ी है। वह इतनी बदशकल है कि उससे बदशकल औरत मैंने नहीं देखी। उसे देखकर ही वैराग्य उदय होता है। रागी से रागी मन में एकदम वैराग्य उदय हो जाए। वह ऐसा समझो कि उर्वशी से बिलकुल उल्टी है। उसे देखकर ही मन हटता है, जुगुप्सा पैदा होती है, वीभत्स...। तो मैंने यह नियम बना रखा है कि जाता हूं पहाड़ तय करके कि तीन सप्ताह रहूंगा लेकिन जिस दिन वह स्त्री मुझे सुंदर मालूम होने लगती है, बस उसी दिन भाग खड़ा होता हूं। सात दिन आठ दिन, दस दिन ज्यादा से ज्यादा बस। वह मेरा मापदंड है। जिस दिन मुझे लगने लगता है कि यह स्त्री सुंदर है, उस दिन मैं सोचता हूं कि नसरुद्दीन, बस, अब हो गया, अब वापस लौट चलो, अब घर वापस लौट चलो।
कुरूप से कुरूप स्त्री भी सुंदर मालूम हो सकती है, अगर वासना को बहुत दबाया गया हो। भूखे आदमी को रूखी रोटी भी सुस्वाद मालूम होगी।
क्यों अप्सरा भेजी? मैं नहीं मानता कि इंद्र ने अप्सरा भेजी होगी। कोई भी नौकर—चाकरनियां भेज दी होंगी। मुनि महाराज समझे कि अप्सरा आई है। मेरी अपनी समझ यह है। उर्वशी को भेजने भी जरूरत ही क्या है? यही मुल्ला नसरुद्दीन की स्त्री भेज दी होगी, जो उसने पहाड़ पर रख छोड़ी है; मुनि—महाराज समझे होंगे कि भेजी उर्वशी। कोई जरूरत नहीं है।
जिन्होंने दबाया है उन्हें उभारना तो बड़ा आसान है। उन्हें तो छोटी सी चीज भी उभार दे सकती है। इसलिए मैं दमन के विपरीत हूं, क्योंकि जिसने दबाया वह कभी मुक्त नहीं होगा। मैं संसार के पक्ष में हूं। और यही परमात्मा का प्रयोजन है संसार बनाने का। यह अवसर है विराग में ऊपर उठने का। संसार से ज्यादा और सुंदर व्यवस्था क्या हो सकती थी मनुष्य को वैराग्य देने की। सारा उपद्रव दे दिया है संसार में, और ज्यादा उपद्रव की तुम कल्पना भी क्या कर सकते हो! कुछ परमात्मा ने छोड़ा हो तो आदमी ने उसकी पूर्ति कर दी है। सब उपद्रव है यहां, उपद्रव ही उपद्रव है! वैराग्य का कैसा सुअवसर है!
मेरी बात उल्टी दिखाई पड़ती है—उन्हीं को, जिनके पास समझ नाममात्र को नहीं है; अन्यथा मैं जो कह रहा हूं उसके पीछे गहरा विज्ञान है, सीधा गणित है, शुद्ध तर्क है। जिस चीज से मुक्त होना है उसमें पूरे डूब जाओ, तुम्हारी मुक्ति निश्चित है। क्योंकि जितने तुम डुबोगे उतना ही तुम उसकी व्यर्थता पाओगे। जिस दिन पूरे—पूरे डूब जाओगे, जिस दिन व्यर्थता समग्ररूपेण दिखाई पड़ जाएगी, उसी दिन तुम उसके बाहर आ जाओगे।
और वह बाहर आना अपूर्व होगा, सुंदर होगा, सहज होगा, नैसर्गिक होगा। उसमें भगोड़ापन नहीं होगा, पलायनवाद नहीं होगा, दमन नहीं होगा, व्यर्थ की पीड़ा नहीं होगी। जैसे अचानक सहज ही फूल खिल जाए, ऐसे ही तुम्हारे भीतर फूल खिल जाएगा। अभी झरत, बिगसत कंवल!

दूसरा प्रश्न: भगवान! कभी झील में खिला कमल देख आंदोलित हो उठता हूं। कभी अचानक कोयल की कूक सुनकर हृदय गदगद हो जाता है। कभी बच्चे की मुस्कान देख विमुग्ध हो जाता हूं—तब ऐसा लगता है जैसे सब कुछ थम गया है—न विचार, न कुछ...। भगवान, लगता है ये क्षण कुछ संदेश लाते हैं। वह क्या होगा?
प्रदीप चैतन्य! पूछा कि चूकना शुरू किया। उन क्षणों में जहां विचार रुक जाते हैं वहां भी संदेश खोजोगे? तो तुम विचार की खोज में लग गए। जहां विचार थम जाते हैं, अब प्रश्न मत बनाओ, नहीं तो ध्यान से गिरे और चूके। अब तो निष्प्रश्न डुबकी मारो।
ये सब ध्यान के बहाने हैं। उगता सूरज सुबह का, प्राची लाली हो गई, पक्षियों के गान फूट पड़े, बंद कलियां खुलने लगीं—सब सुंदर है! सब अपूर्व है! सब अभिनव है! इस क्षण अगर तुम्हारा हृदय आंदोलित हो उठे तो अब पूछा मत कि ऐसा क्यों हो रहा है? क्योंकि तुमने क्यों पूछा कि मस्तिष्क आया—और मस्तिष्क आया कि हृदय का आंदोलन समाप्त हुआ।
हृदय में प्रश्न नहीं होते, सिर्फ अनुभव होते हैं! और मस्तिष्क में सिर्फ प्रश्न होते हैं, अनुभव नहीं होते। यह मस्तिष्क की तरफ से बाधा है। तुमने रात देखी रातों—भरी, विराट आकाश देखा, कुछ तुम्हारे भीतर स्तब्ध हो गया, विमुग्ध हो गया, विस्मय—लीन हो गया। डूब जाओ, मारो डुबकी! छोड़ो सब प्रश्न! अब यह मत पूछो कि इसका संदेश क्या है। ये सब बातें व्यर्थ की हैं।
यह शून्य ही संदेश है। यह मौन ही संदेश है। यह विस्मय—विमुग्ध भाव ही संदेश है। और क्या संदेश? तुम चाहते हो कोई आयत उतरे कि कोई ऋचा बने, कि शब्द सुनाई पड़े, कि परमात्मा तुम से कुछ बोले, कि प्रदीप चैतन्य, सुनो यह रहा संदेश? वह सब फिर तुम्हारा मन ही बोलेगा। चूक गए। आ गए थे मंदिर के द्वार के करीब और चूक गए। प्रश्न उठा कि द्वार बंध हो गया। निष्प्रश्न रहो तो द्वार तो खुला है।
ऐसा समझो कि बुद्धि के पास प्रश्न ही प्रश्न हैं, हृदय के पास उत्तर ही उत्तर हैं, और दोनों का कभी मिलन नहीं होता। अगर उत्तर चाहते हो तो प्रश्न मत पूछो। अगर प्रश्न ही चाहते हो तो प्रश्न पूछते रहो, प्रश्नों से प्रश्न लगते रहेंगे।
यह सुंदर हो रहा है, शुभ हो रहा है। सौभाग्यशाली हो।
तुम कहते हो: तब ऐसा लगता है कि सब कुछ थम गया। उसी को तो मैं ध्यान कह रहा हूं, जब सब थम जाता है। एक क्षण को कोई तरंग नहीं रह जाती—विचार की, वासना की, स्मृति की, कल्पना की। एक क्षण को न समय होता, न स्थान होता है। एक क्षण को तुम किसी और लोक, किसी और आयाम में प्रविष्ट हो जाते हो। तुम कहीं और होते हो। एक क्षण को तुम होते ही नहीं, कोई और होता है! यही तो ध्यान है।
और ध्यान साधन नहीं है, साध्य है। ध्यान किसी और चीज के लिए रास्ता नहीं है—ध्यान मंजिल है।
इसलिए अब यह मत पूछो कि इन क्षणों में कोई संदेश होना चाहिए, वह संदेश क्या होगा? तुम खराब कर लोगे इन क्षणों को। इन कोरे निर्दोष क्षणों को गूद डालोगे व्यर्थ की बकवास से। अस्तित्व का कोई संदेश नहीं है। अस्तित्व का संदेश अगर कुछ है तो शून्य है, मौन है; शब्द नहीं।
ध्यान मुझको तुम्हारा प्रिये,
चांद और चांदनी का मिलन देख आने लगा,
जिंदगी का थका कारवां सैकड़ों कंठ से प्यारे के गीत गाने लगा।
रात का बंद नीलम किवाड़ा डुला।
लो क्षितिज—छोर पर देव—मंदिर खुला,
हर नगर झिलमिला हर डगर को खिला
हर बटोही जिला ज्योति प्लावन चला;
कट गया शाप, बीती विरह की अवधि,
ज्वार की सीढ़ियों पर खड़ा हो जलधि
अंजली अश्रु भर—भर किसी यक्ष सा,
प्यार के देवता पर चढ़ाने लगा।
आरती थाल ले नाचती हर लहर,
हर हवा बीन अपना बजाने लगी,
हर कली अंग अपना सजाने लगी,
हर कली अंग अपना सजाने लगी,
हर अली आरसी में लजाने लगी,
हर दिशा तक भुजाएं बढ़ाता हुआ,
हर जलद से संदेसा पठाता हुआ
विश्व का हर झरोखा दिया बाल कर,
पास अपने पिया को बुलाने लगा।
ज्योति की ओढ़नी के तले तो तिमिर
की युवा आज फिर साधना हो गई,
स्नेह की बूंद में डूबकर प्राण की
वासना आज आराधना हो गई;
आह री! यह सृजन की मधुर वेदना,
जन्म लेती हुई यह नयी चेतना,
भूमि को बांह भर काल की राह पर,
आसमां पांव अपने बढ़ाने लगा।
यह सफर का नहीं अंत विश्राम रे,
दूर है दूर अपना बहुत ग्राम रे,
स्वप्न कितने अभी हैं अधूरे पड़े,
जिंदगी में अभी तो बहुत काम रे;
मुस्कुराते चलो, गुनगुनाते चलो
आफतों बीच मस्तक उठाते चलो,
ध्यान मुझको तुम्हारा प्रिये,
चांद और चांदनी का मिलन देख देख आने लगा,
जिंदगी का थका कारवां
सैकड़ों कंठ से प्यार के गीत गाने लगा।
हर क्षण, जब तुम चुप हो तो परमात्मा और प्रकृति का मिलन हो रहा है। हर क्षण, जब तुम सन्नाटे में हो तब पृथ्वी आकाश में लीन हो रही है। हर क्षण जब तुम्हारे भीतर मौन का फूल खिला है, तब द्वंद्व समाप्त हुआ है; निर्द्वंद्व घड़ी आई तुम्हारे भीतर मौन का फूल खिला है, तब द्वंद्व समाप्त हुआ है; निर्द्वंद्व घड़ी आई है; पदार्थ और चेतना का भेद मिटा है; सृष्टि और स्रष्टा में अंतर नहीं हरा है। अब और क्या संदेश?
तृप्त हो जाओ इस क्षण में, आंख बंद कर लो, जी भर कर पी लो इस क्षण को! पूछोगे, चूकोगे। प्रश्न उठा कि क्षण तुम्हारे हाथ से छिटक गया। तुम्हें जानना होगा कि अब प्रश्न नहीं उठाना है। अब तुम्हें प्रश्न से सावधान होना पड़ेगा। वह पुरानी आदत तुम्हें त्यागनी होगी। ध्यान सीख सकता है वही जो विचार की पुरानी आदत को त्यागने को तत्पर है।
और तुम सौभाग्यशाली हो प्रदीप चैतन्य, कि ध्यान कि ये छोटी—छोटी झलकें आने लगीं, झरोखे खुलने लगे, बिजली कौंधने लगी। अब मत उठाओ। प्रश्न। रसमय हो जाओ। नाचा तो नाच लो, प्रश्न मत उठाओ। गीत उठे तो गा लो, प्रश्न मत उठाओ। नाद उठे भीतर तो गुंजार करो, प्रश्न मत उठाओ। सम्हाल ही न सको अपने को। बांसुरी बजानी आती हो बांसुरी बजाओ, सितार बजाना आता हो सितार बजाओ, और कुछ भी न आता हो तो नाच तो सकते ही हो! और नाचने के लिए कोई कला की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह तुम किन्हीं दर्शकों के लिए नहीं नाच रहे हो। अपनी मस्ती में, अपनी अलमस्ती में! मगर प्रश्न मत उठाओ।
प्रश्न द्वार नहीं, दीवाल बन जाता है। और प्रश्न उठता है, पुराना संस्कार है। हर चीज पर प्रश्न उठता है!
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं: ध्यान में बड़ा आनंद आ रहा है, क्यों? आनंद को भी निष्प्रश्न न ले सकोगे? आनंद को भी झोली भरकर न ले सकोगे? आनंद से भी डरे—डरे! पहले प्रश्न पूछोगे, पूछताछ करोगे, जानकारी कर लोग कहां से आता है, क्या है, क्या नहीं है—तब लोगे! इतनी देर आनंद तुम्हारे लिए रुकेगा नहीं। आनंद आता है लहर की तरह और तुम अगर इस पूछताछ में लग गए कि कौन आता, कहां से आता, क्यों आता, क्या है—तो गए काम से! जब तक तुम पूछताछ कर पाओगे तब तक आनंद जा चुका, झोली खाली की खाली रह जाएगी।
और पूछताछ से पाओगे क्या? परिभाषाएं तृप्ति तो नहीं देंगी। कोई कह भी देगा कि आनंद का क्या अर्थ है, तो भी तुम्हारे हाथ अर्थ तो न लगेगा।
नहीं, पुरनी यह आदत छोड़ो।
रात का बंद नीलम किवाड़ा डुला,
लो क्षितिज छोर पर देव—मंदिर खुला,
हर नगर झिलमिला हर डगर लो खिला
हर बटोही जिला ज्योति प्लावन चला;
कट गया शाप, बीती बिरह की अवधि,
ज्वार की सीढ़ियां पर खड़ा हो जलधि
अंजली अश्रु भर—भर किसी यक्ष सा,
प्यार के देवता पर चढ़ाने लगा।
रोओ, कुछ न कर सको तो! मगर प्रश्न मत उठाओ। झर—झर बहने दो आंसू, झर—झर झरने दो आंसू—जैसे पतझर में पत्ते झरें, कि जैसे सांझ दिनभर खिला फूल अपनी पंखुरियां को वापस पृथ्वी में लौटाने लगे।
आरती थाल ले नाचती हर लहर,
हर हवा बीन अपना बजाने लगी,
हर कली अंग अपना सजाने लगी,
हर अली आरसी में लजाने लगी,
हर दिशा तक भुजाएं बढ़ाता हुआ,
हर जलद से संदेशा पठाता हुआ,
विश्व का हर झरोखा दिया बालकर,
पास अपने पिया को बुलाने गला।
और तुम पूछ रहे हो संदेशा क्या! परमात्मा ने तुम्हें पुकारा, पिया ने तुम्हें पुकारा, जिसकी तलाश थी उसके पास आ गए अचानक—अब तुम पूछते हो संदेशा क्या! तुम्हें परमात्मा भी मिल जाए तो तुम पहले पूछोगे: आइडेंटिटी कार्ड? पासपोर्ट? कहां से आते कहां जाते? क्या प्रमाण है कि तुम ही परमात्मा हो?
और बेचारा परमात्मा क्या करेगा? कहां से पासपोर्ट लाएगा? कौन उसे पासपोर्ट देगा? और आइडेंटिटी कार्ड, कौन उसका बनाएगा? बड़ा मुश्किल में पड़ जाएगा। वह कहेगा: भाई तो फिर रहने ही दो। क्षमा करो, भूल हो गई। आपके दर्शन हुए यही धन्यभाग! अब दुबारा ऐसी भूल न करेंगे।
जब ऐसी शुभ घड़ियां आएं तो प्रश्न जैसी क्षुद्र बातें मत उठाओ। तब थोड़े निष्प्रश्न श्रद्धा का रस लो।
ज्योति की ओढ़नी के तले तो तिमिर
की युवा आज फिर साधना हो गई,
स्नेह की बूंद में डूबकर प्राण की
वासना आज आराधना हो गई;
आह री! यह सृजन की मधुर वेदना,
जन्म लेती हुई यह नयी चेतना,
भूमि को बांह भर काल की राह पर,
आसमां पांव अपने बढ़ाने लगा।
ये क्षण हैं, जब आसमान पृथ्वी की तरफ आने लगता है। ये क्षण हैं, जब अज्ञात ज्ञात की तरफ हाथ फैलाता है। ये क्षण हैं, जब उस विराट का आलिंगन तुम्हारे लिए उपलब्ध होता है! गिर पड़ो! उसकी गोदी पास है, गिर पड़ो! अब व्यर्थ के प्रश्न न पूछो।
स्नेह की बूंद में डूबकर प्राण की
वासना आज आराधना हो गई;
आह री! यह सृजन की मधुर वेदना,
जन्म लेती हुई यह नयी चेतना!
और तुम प्रश्नों में उलझे हो। तुम पूछते हो, संदेश! तुम शब्दों में ही कुछ समझोगे तभी समझोगे? शब्दों के बिना तुम कोई सेतु नहीं बना सकते? और चांदत्तारे बोलते नहीं, सूरज को कोई भाषा नहीं आती। फूल मौन हैं—या कि मौन की ही उनकी भाषा है! तुम उनकी ही भाषा सीखो। मौन के साथ मौन रह जाओ। जहां दो मौन होते हैं वहां दो नहीं रह जाते, क्योंकि दो मौन मिलकर एक हो जाते हैं। जहां दो शून्य होते हैं वहां दो नहीं रह जाते, क्योंकि दो शून्य मिलकर एक हो जाते हैं।
और ध्यान रखना, ये जो छोटे—छोटे झरोखे खुल रहे हैं, यह तो सिर्फ शुरुआत है। यह तो बांसुरी का पहला स्वर है, अभी तो बहुत बजने को, बहुत होने को है!
यह सफर का नहीं अंत, विश्राम रे,
दूर है दूर अपना बहुत ग्राम रे,
स्वप्न कितने अभी हैं अधूरे पड़े
जिंदगी में अभी तो बहुत काम रे;
मुस्कुराते चलो, गुनगुनाते चलो
आफतों बीच मस्तक उठाते चलो
ध्यान मुझको तुम्हारा प्रिये,
चांद और चांदनी का मिलन देख आने लगा,
जिंदगी का थका कारवां
सैकड़ों कंठ से प्यार के गीत गाने लगा।

तीसरा प्रश्न: भगवान! यह शिकायत मत समझना, आपकी एक जिंदादिल भक्त की प्रेम—पुकार है। आपसे दूर रह कर दिल पर क्या गुजरती है, वह आप ही समझ सकेंगे।
दिल की बात लबों पर ला कर, अब तक हम दुख सहते हैं
हमने सुना था इस बस्ती में, दिल वाले भी रहते हैं।
एक हमें आवारा कहना, कोई बड़ा इलजाम नहीं
दुनिया वाले दिल वालों को, और बहुत कुछ कहते हैं।
बीत गया सावन का महीना, मौसम ने नजरें बदलीं
लेकिन इन प्यासी आंखों से, अब तक आंसू बहते हैं।
जिनके खातिर शहर भी छोड़ा, जिनके लिए बदनाम हुए
आज वही हम से बेगाने बेगाने से रहते हैं।
राधा मोहम्मद! शिकायत तो है, नहीं तो प्रश्न की शुरुआत इस बात से न होती कि इसे शिकायत मत समझना। तुझे भी शक है कि शिकायत समझ ली जाएगी। जब तू ही समझ गई तो मैं न समझ पाऊंगा! जो तुझसे कह गया वही मुझसे भी कह गया!
पुरानी कहानी सुनी न—एक बूढ़ी स्त्री, गांव में ग्रामीण; अपने सिर पर गठरी लिए चल रही है। पास से एक घुड़सवार गुजरा, उस बूढ़ी ने कहा: बेटे, बोझ मेरे सिर पर बहुत है, तू घोड़े पर ले ले। आगे चौराहा पड़ता है, वहां चौराहे पर छोड़ देना। फिर मैं उठा लूंगी, फिर मेरा गांव बहुत करीब है।
घुड़सवार ने कहा: तूने मुझे समझा क्या है, कोई मैं नौकर—चाकर हूं? तूने मुझे कुछ ऐसा—वैसा समझा है? यह घोड़ा बोझ ढोने के लिए नहीं है, ढो अपना बोझ!
लगाम खींची, घोड़े को आगे बढ़ा दिया। कोई मील भर पहुंच कर उसे खयाल आया कि ले ही लेता, पता नहीं बुढ़िया की गठरी में क्या है! अगर कुछ होता तो चौराहे पर छोड़ने की जरूरत न थी, लेकर अपने रास्ते लगता। अगर कुछ न होता तो चौराहे पर छोड़ देता, मैं भी बुद्धू हूं। गठरी ढो रही है तो कुछ होगा जरूर और जब इतना बोझ ढो रही है तो कुछ होना चाहिए—सोना—चांदी हो, जेवर जवाहरात हों, पता नहीं क्या हो।
लौटा। जाकर बुढ़िया से कहा: मां क्षमा करना। भूल की मैंने, ऐसा मुझे करना न था, अशिष्ट था मेरा व्यवहार। ला दे तेरी गठरी, चौराहे पर छोड़ जाऊंगा। वह बुढ़िया हंसी, उसने कहा: बेटा तुझसे कह गया वह मुझसे भी कह गया! अब नहीं।
राधा मोहम्मद, जब प्रश्न की शुरुआत ही ऐसी हो कि इसे शिकायत मत समझना, तो तेरे अचेतन में भी यह बात साफ है कि शिकायत है और शिकायत समझी जाएगी। है तो समझी ही जाएगी। और तेरे प्रश्न में ही शिकायत नहीं है, तेरे चेहरे पर लिखी है, तेरी आंखों में लिखी है। और ऐसा भी नहीं है कि शिकायत अस्वाभाविक है, स्वाभाविक है।
राधा मोहम्मद वर्ष भर आश्रम में रही। अब मैं जानता हूं एक बार आश्रम में रह जाना और अब उसे आश्रम के बाहर रहना पड़ रहा है। तो उसके कष्ट का भी मुझे अनुभव है। मैं जानता हूं यह पीड़ापूर्ण है। और सब छोड़कर राधा मोहम्मद आई आश्रम में। उसके पति की बड़ी नौकरी थी। कृष्ण मोहम्मद की बड़ी नौकरी थी। एयर इंडिया में बड़े पद पर थे। इटली में एयर इंडिया में बड़े अफसर थे। सब छोड़—छाड़ कर आश्रम के हिस्से हो गए। बड़ा त्याग था। बड़ी हिम्मत की थी। इस दृष्टि से भी त्याग था कि बड़ा पद छोड़ा, अच्छी नौकरी छोड़ी, काफी सुख—सुविधा से रहे; वह सब छोड़ा। बड़े बंगले छोड़े। यहां एक छोटे से कमरे मैं दो बच्चे, पति—पत्नी...! इतना ही नहीं, मुसलमान परिवार से आते हैं। मुसलमान होकर भी हिम्मत जुटाई, जो कि जरा कठिन काम है। क्योंकि मुसलमान, कोई मुसलमान उनके घेरे से बाहर हो जाए तो महाशत्रु हो जाते हैं। तो सब तरह की बदनामी सही, सब तरह की मुसीबतें सहीं। मुसलमानों की धमकियां सहीं। कृष्ण मोहम्मद, राधा मोहम्मद को पत्र पर पत्र आते रहे धमकियों  के कि हम जान से मार डालेंगे तुमने दगा किया, तुमने धोखा किया, तुमने इस्लाम के साथ बगावत की। तो और भी कठिन था।
फिर साल भर मेरे पास रहना और फिर साल भर के बाद बाहर जाना और बहार रहना कठिन तो है। शिकायत स्वाभाविक है। लेकिन राधा, बाहर जाना पैसा है तुम्हें—अपने ही कारण! इसलिए शिकायत किसी और से मत करना, शिकायत करना तो अपने भीतर अपनी ही जिम्मेवारी से करना। धन छोड़ना आसान, समाज छोड़ना आसान, अहंकार छोड़ना सबसे कठिन है। साल भर सब तरह की कोशिश की यहां कि तुम दोनों का अहंकार छूट जाए, मगर वह न छूटा। जिस काम में लगाया उसी काम में अहंकार बाधा आया।
यह तो एक कम्यून है; यहां अगर अहंकारी इकट्ठे हो गए तो यह बिखर जाएगी। यहां तो समर्पित लोग चाहिए जो अहंकार को बिलकुल ही छोड़ दें; जो इस परिवार के साथ बिलकुल एक हो जाएं, तादात्म्य कर लें।
और ऐसा भी नहीं है राधा कि तेरा या कृष्ण मोहम्मद का समर्पण मेरे प्रति कम है, मेरे प्रति तुम्हारा समर्पण पूरा है। और मेरे प्रति तुम्हारे मन में कोई अहंकार का भाव नहीं है। लेकिन इस कम्यून में, इस आश्रम में, इस परिवार में सिर्फ मेरे प्रति तुम्हारा समर्पण हो तो पर्याप्त नहीं होगा। आश्रम में अब कोई चार सौ लोग हैं; अगर तुम्हारा समर्पण सिर्फ मेरे प्रति है और बाकी चार सौ लागों के प्रति नहीं है तो अड़चन आएगी। क्योंकि मुझसे तो काम—धाम का नाता क्या है? सुबह मुझे सुन लिया, सांझ कभी मेरे पास आकर बैठ गए; यह तो सरल बात है। लेकिन चौबीस घंटे तो उन चार सौ लोगों से तुम्हें संबंध बनाने होंगे। अगर वहां अहंकार रहा तो हर जगह अड़चन आएगी। हरेक से विरोध होगा, हरेक से अड़चन होगी, हरेक से झंझट होगी।
सालभर जब सब तरफ से यह मेरी समझ में आ गया कि तुम्हें कठिन है अभी अस्मिता को छोड़ना तो तुम्हें बाहर भेजा। बाहर जानकर भेजा है। इसलिए नहीं भेजा है बाहर कि मैं चाहता हूं कि तुम बाहर की रहो; बाहर जानकर भेजा है कि बाहर थोड़ी तकलीफ उठाओ, पीड़ा सहो, प्रेम की पीड़ा भोगो, और अनुभव करो कि आश्रम के भीतर जीना, इस ऊर्जा के क्षेत्र में जीना इतनी बड़ी बात है कि उसके लिए छोटे से अहंकार को छोड़ने में संकोच करने की कोई जरूरत नहीं है। जिस दिन तुम्हें अनुभव हो तो ही द्वार के भीतर प्रवेश हो सकेगा। जब तक यह अनुभव हो जाए तब तक समझो कि बाहर की पीड़ा झेलनी पड़ेगी।
तुम्हारी शिकायत सही है। मैं तुम्हारे दुख को जानता हूं। जानता हूं इसीलिए तुम्हें बाहर भेजा है, ताकि तुम्हें साफ हो जाए, ताकि तुम चुनाव कर सको कि इतना दुख झेलना है? मुझसे वंचित होना है या कि अहंकार छोड़ा है? अब विकल्प सीधे—सीधे हैं। और ध्यान रखना, यह मत सोचना कि अहंकार मेरे प्रति छोड़ना है; वह तो बहुत आसान है। दीक्षा के प्रीति छोड़ना है, शिला के प्रति छोड़ना है, लक्ष्मी के प्रति छोड़ना है और यहां सारे काम करने वाले लोग हैं, उनके प्रति छोड़ना है। तभी यह एक नया परिवार निर्मित हो सकेगा।
और यह तो अभी शुरुआत है, यह परिवार बड़ा होने वाला है। इसलिए अभी मैं लोग तैयार कर रहा हूं—ऐसे लोग केंद्र बन जाएंगे। फिर नए लोग आएंगे तो उनकी हवा में डूब जाएंगे, उनकी बाढ़ में डूब जाएंगे। जैसे ही पांच सौ लोग तैयार हो गए, समग्र रूप से समर्पित, कि जिनके हजारों लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं, जो आना चाहते हैं; मगर उन्हें रोक रहा हूं। हजारों लोग आने के लिए आवेदन कर रहे हैं, लेकिन मैं उन्हें रोक रहा हूं। क्योंकि जब तक कम से कम पांच सौ लोगों का एक ऐसा परिवार निर्मित न हो जाए। कि जिसमें एक नया आदमी आएगा तो डूबना ही पड़ेगा उसे। लेकिन अगर तुम्हारे भीतर ही कलह रही, अगर तुम्हारे भीतर भी दलबंदी रही, तो फिर वह नया आदमी भी आकर तुम्हारी कलह सीखेगा और दलबंदी सीखेगा। तब तक मैं उस नए आदमी को नहीं आने दूंगा, क्योंकि उसके जीवन को रूपांतरित कर सकूं तो ही उसे बुलाना ठीक है। एक बुद्ध—क्षेत्र निर्मित कर रहा हूं।
तुम्हें सालभर का अवसर दिया। तुम्हें बहुत कामों में बदला—एक काम से दूसरे काम, दूसरे से तीसरे काम लेकिन सब जगह वही अड़चन आ जाती है, क्योंकि अड़चन तो तुम्हारे भीतर है, काम में नहीं है। और यह मत सोचना कि जब तुम्हारी किसी से कलह होती है तो उस कलह के लिए तुम तर्क नहीं खोज सकते हो; तर्क तो खोजे ही जा सकते हैं। और यह भी हो सकता है, तुम्हारे तर्क बिलकुल ठीक ही हों। यह भी मैं नहीं कहता। लेकिन समर्पण का अर्थ ही फिर तुम नहीं समझे।
गुरजिएफ ने जब अपना आश्रम बनाया तो किस तरह लोगों को शिक्षा दी। बैनिट ने लिखा है—उसके एक खास शिष्य ने—कि मैंने जिंदगी में कभी गङ्ढे नहीं खोदे। (लेखक, गणितज्ञ, विचार!) गुरजिएफ ने जो पहला काम मुझे दिया वह यह दिया कि बगीचे में गङ्ढा खोदो। छह फीट गहरा गङ्ढा। और जब तक पूरा न हो जाए रुकना मत, खोदते ही जाना। सुबह से खोदना शुरू किया, सांझ हो गई रात होने लगी तब बा—मुश्किल छह फीट पूरा हो पाया। टूट—टूट गया बैनिट, कि रोआं—रोआं थक गया। हाथ उठें न, कुदाली उठे न, लेकिन छह फीट पूरे करने हैं। गुरु ने पहला तो काम दिया है, उसे तो पूरा करना है। और इस आशा में कि जब छह फीट पूरा खुद गया गङ्ढा कि अब गुरजिएफ बहुत प्रसन्न होगा, भागा। गुरजिएफ एक को बुलाकर लाया। गुरजिएफ ने कहा: अब इसको वापस पूरो!
अब तुम सोच सकते हो इसकी तकलीफ! स्वभावतः प्रश्न उठेगा यह क्या फिजूल की बकवास हुई! तो खुदवाया किसलिए? मगर पूछे कि चूके। पूछा तो नहीं उसने, लेकिन चित्त में तो प्रश्न उठा। गुरजिएफ ने कहा कि चित्त में भी नहीं। निष्प्रश्न होना। गङ्ढा पूरो, जब तक गङ्ढा न पुर जाए सोने मत जाना। गङ्ढा पूरो, खोदो, जैसा का तैसा सुबह जैसा मैंने जगह छोड़ी थी और तुम्हें बताई थी, ठीक वैसी कर दो।
तो मैं यह भी नहीं कहता कि राधा को या कृष्ण मोहम्मद को अड़चन न होती होगी। अड़चन होती होगी। अड़चन होती होगी। अड़चन सुनियोजित है। अड़चन है ही इसीलिए, क्योंकि अड़चन होगी तो ही तुम्हारा अहंकार उभरकर सतह पर आएगा। और उसे सतह पर आए अहंकार को विसर्जित करना है। जिस दिन तुम्हारी तैयारी हो जाए, द्वार तुम्हारे लिए खुले हैं। मैं प्रतीक्षा करूंगा। लेकिन अब तैयारी हो जाए तो ही, नहीं तो वही भूल दोहराने से क्या फायदा होगा?
और मैं अति आनंदित हूं कि एक वर्ग सैकड़ों संन्यासियों का ऐसा निर्मित होता जा रहा है, जिस पर भरोसा किया जा सकता है, कि उसके आधार पर हजारों लोगों को रूपांतरित किया जा सकेगा। जल्दी ही यह जो छोटी सी बस्ती है संन्यासियों की, यह दस हजार से बस्ती हो जाएगी, जल्दी ही! बस तुम्हारे तैयार होने की देर है। तुम तैयार हुए कि मैंने निमंत्रण भेजा, कि लोग आने शुरू हुए। तुम भरोसा भी न कर सकोगे कि इतने लोग कहां छिपे बैठे थे और कैसे आने शुरू हो गए!
जिस दिन संन्यास शुरू हुआ था, उस दिन केवल सात लोगों ने संन्यास लिया था। आज केवल सात साल बाद कोई एक लाख संन्यासी हैं सारी दुनिया में। अगर तुम तैयार हो गए—और तुम तैयार हो रहे हो, और राधा भी तैयार होगी और कृष्ण मोहम्मद भी तैयार होंगे, तैयार होना ही पड़ेगा। मेरे जैसे आदमी के हाथ में फंस गए तो भाग नहीं सकते। मैं दो कौड़ी के आदमियों को तो फंसाता ही नहीं; उनको तो जाल में लेता ही नहीं। लेता ही हूं मूल्यवान हीरों को मगर फिर हीरों पर जब काट—छांट करनी होती है तो पीड़ा भी होती है। और जितना बहुमूल्य हीरा होता है उतनी ही उस पर काट—छांट करनी पड़ती है, उतनी ही छैनी चलती है।
तुम्हें पता है, कोहिनूर हीरा जब मिला था तो उसका वजन जितना आज है उससे तीन गुना ज्यादा था! बाकी वजन क्या हुआ? दो तिहाई वजन कहां गया? काट—छांट में चला गया। लेकिन जितना कटा उतना बहुमूल्य होता गया। जितना निखारा गया, जितना साफ किया गया उतना कीमती हो तो गया। तीन गुना वहन था, उसकी कोई कीमत न थी। एक तिहाई वजन है, आज दुनिया में सब से बहुमूल्य हीरा है।
तो जिन पर मेरी नजर है उनको तो बहुत काटूंगा, बहुत छाटूंगा। और राधा, तुझ पर मेरी नजर है। छोटी—मोटी बातें छोड़ो और अहंकार से छोटी कोई और बात नहीं। द्वार खुले हैं। तुम्हें बाहर सदा के लिए नहीं कर दिया गया है—सिर्फ एक अवसर दिया गया है कि अब तुम बाहर और भीतर का भेद देख लो, ताकि तुम्हें स्पष्ट हो जाए कि क्या चुनना है। अगर अहंकार चुनना है तो बाहर ही रहना होगा। फिर शिकायत मत करना। शिकायत मुझसे मत करना, कि शिकायत अपने अहंकार से करना।
और अगर तुम्हें भीतर रहना हो तो फिर अहंकार को छोड़ने की तैयारी दिखाओ—और बेशर्त, कोई शर्तबंदी नहीं कि मुझे ऐसा काम मिलेगा तो ही मैं करूंगी। फिर कोई शर्तबंदी नहीं।
यहां जो पी. एच. डी. हैं वे बाथरूम साफ कर रहे हैं। तुम कभी सोच भी न सकोगे कि यह आदमी यूनिवर्सिटी में बड़े ओहदे पर था। जो डी. लिट. हैं, बर्तन मांज रहे हैं। तुम कभी सोच ही न सकोगे कि किसी विश्वविद्यालय के किसी विभाग में अध्यक्ष था या डीन था! यह सवाल ही नहीं है कि तुम्हारी योग्यता क्या है तुम्हारी योग्यता का सवाल नहीं है। यह तो एक रासायनिक प्रक्रिया है...कि तुम्हें तुम्हारी योग्यता के अनुसार काम मिले, पद मिले, प्रतिष्ठा मिले, तो फिर वह तो बाहर की दुनिया ही यहां भी हुई। यहां तुम्हारी योग्यता, पद—प्रतिष्ठा का कोई मूल्य नहीं है। यहां तो सिर्फ एक बात का मूल्य है—तुम्हारे समर्पण का; तुम्हारे बेशर्त समर्पण का!
और मैं जानता हूं कि राधा तू कर पाएगी, कृष्ण मोहम्मद कर पाएंगे। मेरा भरोसा बड़ा है। देर—अबेर सही, मगर यह होना है। जल्दी ही तुम वापस परिवार में लौट आओगे। मगर सब तुम पर निर्भर है, कितनी देर लगानी, तुम तय कर लो। मगर इस बार जब भीतर आओ तो खयाल रख कर आना कि फिर कोई शिकायत नहीं। सही भी हो शिकायत तो भी शिकायत नहीं। तुम से जो काम ले रहा हो वह गलत भी हो, तो भी सवाल नहीं है। उसकी गलती कि फिक्र मैं करूंगा। हो सकता है मैंने उसे सूचना ही दी हो कि तुम्हारे साथ गलत व्यवहार करे।
आखिर मैं काम कैसे करूंगा? मैं तो कमरे के बाहर निकलता नहीं। मैं तो इस पूरे आश्रम में कभी घूमकर भी नहीं देखा हूं। अगर मुझे किसी का कमरा खोजना पड़े तो मैं खोज ही न पाऊंगा। मुझे यह पक्का नहीं है कौन कहां रहता है, कितने लोग रहते हैं आश्रम के भीतर। मैं काम कैसे करूंगा? मेरा काम का अपना ढंग है। लोगों के द्वारा मैं काम ले रहा हूं। तो ही काम बड़ा हो सकता है। काम इतना बड़ा है कि अगर मैं ही उसे करने चलूंगा सीधा—सीधा तो बस दस—पांच लोगों की जिंदगी को बदल पाऊंगा। इरादा है लाखों लोगों की जिंदगी को बदलने का और इसलिए काम की व्यवस्था अभी से ऐसी है कि मैं सीधा काम करता ही नहीं। मैं काम ले रहा हूं और मुझे वह मिलते जा रहे हैं, जो काम कर सकेंगे; जो कर रहे हैं और ठीक काम कर रहे हैं!
राधा, तू भी वाहन बन सकती है, मगर तेरी शर्तबंदी दिक्कत दे रही है। तेरा तर्क कठिनाई बन रहा है। पढ़ी—लिखी है, औहदों पर रही है, प्रतिष्ठित रही है, कई भाषाओं की जानकार है। सब मुझे पता है। तेरा बहुत उपयोग है। और उससे तुझे कई बार लगता भी होगा कि मेरा कोई उपयोग क्यों नहीं किया जा रहा है।
जब पहली बार तू इटली से यहां आई थी तो मैंने सोचा ही यह था कि थोड़े में तू पक जाए तो तेरा बड़ा उपयोग है। क्योंकि यहां इतनी भाषाएं एक साथ जानने वाला कोई व्यक्ति नहीं है। तो यहां तो सारी दुनिया से लोग आ रहे हैं। हमें ऐसे लोग चाहिए जो बहुत सी भाषाएं एक साथ जानते हो। लेकिन मुझे प्रतीक्षा करनी पड़ी, क्योंकि कुछ चीजें तेरे भीतर टूट जाएं तो ही तू मेरा माध्यम बन सकती है।
लेकिन और सब तो ठीक, अहंकार नहीं टूट रहा है। उसको छोड? दे। आज छोड़ दे तो आज वापस आ जा। थोड़ी देर लगानी हो तो थोड़ी देर लगा। देर हो तो तेरी तरफ से है, मेरी तरफ से नहीं है। और बाहर भेजा है तो सजा नहीं दी है। सजा तो मैं किसी को देता ही नहीं। दंड में मेरा भरोसा नहीं है। बाहर भेजा है तो सिर्फ एक अनुभव के लिए कि तू देख ले, कि अहंकार बचाना है तो फिर यह स्थिति है; और अगर मेरे प्रेम में जीना है और मेरी हवा में जीना है और मेरी सन्निधि को पाना है तो फिर अहंकार की कीमत चुकाने की तैयारी होनी चाहिए।
अकड़ छोड़! पकड़ छोड़!
अहंकार बड़ी सूक्ष्म चीज है—इतनी सूक्ष्म कि हमें उसका पता भी नहीं चलता। और ऐसे छुपकर काम करता है अहंकार कि दिखाई भी नहीं पड़ता।
मेरे गीत अधर में झूमें या मरघट ही में सो जाए,
तुम उनको वरदान न देना,
मैं एकाकी ही गा लूंगा।
दीप जल रहे कब से मन के,
फिर भी रोती रात अंधेरी।
निर्मम स्वर कराहता पंछी,
दूर विहंसता खड़ा अहेरी।
मेरे थके हुए पांवों में पथ के शूल भले चुभ जाए,
तुम तुझको स्थान न देना,
मैं सारे जीवन रो लूंगा।
पलकों पर सावन का मेला,
आंखों की राहें अनजानी।
मचल—मचल सूखे अधरों से,
गीत सदा करते मनमानी।
चाहे स्वप्न मूर्ति बन जाए या स्मृति मुझको डस जाए,
तुम अपना मधुमास न देना,
मैं अधरों के पट सी लूंगा।
अहंकार तो परमात्मा के सामने भी अकड़ता है!
मेरे गीत अधर में झूमें या मरघट ही में सो जाए,
तुम उनके वरदान न देना,
मैं एकाकी ही गा लूंगा।
मेरे थके हुए पांवों में पथ के शूल भले चुभे जाएं,
तुम मुझको स्थान न देना,
मैं सारे जीवन रो लूंगा।
चाहे स्वप्न मूर्ति बन जाए या स्मृति मुझको डस जाए,
तुम अपना मधुमास न देना,
मैं अधरों के पट सी लूंगा।
मैं तो परमात्मा के तक सामने खड़ा होकर आने को बचाने की चेष्टा करता है। लेकिन मेरा भरोसा है, क्योंकि मेरे प्रति राधा मोहम्मद और कृष्ण मोहम्मद का कोई अहंकार नहीं है। जब मेरे प्रति नहीं है तो मेरे इस बुद्ध—क्षेत्र के प्रति भी नहीं होना चाहिए।
तुमने बौद्ध भिक्षुओं की यह घोषणा सुनी न—बुद्धं शरणं गच्छामि! यह पहला सूत्र कि मैं बुद्ध की शरण जाता हूं। फिर दूसरा सूत्र क्या है? सधं शरणं गच्छामि! मैं बुद्ध के भिक्षुओं के संघ की शरण जाता हूं; जो कठिन है। बुद्ध जैसे प्यारे व्यक्ति की शरण जाने में क्या कठिनाई है? शरण जाने से बचने में कठिनाई है। कौन नहीं वे पैर पकड़ लेगा? पैर पकड़ने की आकांक्षा कौन दबा पाएगा? कौन नहीं उन पैरों में सिर रख देगा? वह तो सरल है। तो बुद्धं शरणं गच्छामि, यह तो कोई भी कह सकता है। राधा मोहम्मद कृष्ण मोहम्मद, तुम दोनों ने यह कह दिया है—बुद्धं शरणं गच्छामि। मगर संधं शरणं गच्छामि, बुद्ध के भिक्षुओं की, बुद्ध का जो संध है, उसकी शरण जाता हूं—यह जरा कठिन है। क्योंकि संध में बहुत लोग तुम जैसे ही हैं। संध में बहुत लोग तुम से भी पीछे होंगे। संध में कोई तुम से उम्र में कम होगा, कोई ज्ञान में कम होगा, कोई कुशलता में कम होगा। हजार तरह के लोग होंगे।
अब अगर एक सत्तर का बूढ़ा आदमी भी आकर बुद्ध से दीक्षा लेगा तो बुद्ध के संघ में अगर सत्रह साल का युवक संन्यासी है तो उसके सामने भी उसे झुकना होगा। अगर सत्रह साल का युवक भिक्षु पहले संन्यास लिया है और सत्तर साल का व्यक्ति बाद में संन्यास लिया है, तो सत्तर साल के भिक्षु को सत्रह साले के संन्यासी के सामने झुकना होगा। उम्र शरीर की नहीं नापी जाएगी; उम्र दीक्षा से तय होगी, संन्यास से तय होगी। फिर स्वभावतः कोई सम्राट आकर संन्यास लेगा, बुद्ध के चरणों में झुक जाएगा लेकिन बुद्ध के संध में बहुत से दीन—हीन जन भी हैं, उसकी राजधानी के भिखमंगे भी संन्यासी हो गए हैं, वह उनके चरणों में कैसे झुकेगा? इसलिए दूसरा सूत्र पहले सूत्र से ज्यादा कठिन है और ज्यादा मूल्यवान है—संघं शरणं गच्छामि, कि मैं संघ की शरण जाता हूं।
और तीसरा सूत्र और भी महत्वपूर्ण है—धम्मं शरणं गच्छामि। बुद्ध तो एक उनकी शरण जाता हूं; संध जो मौजूद है अभी, उसकी शरण जाता हूं; धम्म, जितने लोगों ने पहले धर्म के मार्ग पर यात्रा की है और जितने लोग भी धर्म की यात्रा कर रहे हैं और जितने लोग भविष्य में धर्म की यात्रा करेंगे, उन सबकी भी शरण जाता हूं। ऐसी शरणागति से ही कभी कोई बुद्ध—क्षेत्र निर्मित होता है।
यह तो रोज यहां की घटना है। लोग आकर मुझसे कहते हैं कि आपके प्रति हमारा समर्पण पूरा है, मगर हम हर किसी कि नहीं सुन सकते! फिर यह कैसा समर्पण पूरा हुआ? मैं कहता हूं: हर किसी की सुनो! तुम्हारा समर्पण मेरे प्रति पूरा है, मैं कहता हूं: हर किसी की सुनो! और तुम कहते हो हर किसी की नहीं सुन सकते। यह समर्पण कैसे पुरा हुआ?
एक युवती ने संन्यास लिया। उसने कहा कि बस अब सब समर्पण, आपके चरणों में सब समर्पण है! आप जो कहेंगे वही करूंगी।
तो मैंने कहा कि बस, तू यहां ध्यान कर ले दस दिन, सीख ले, फिर अपने घर जा। उसने कहा: घर तो कभी न जाऊंगी। मेरा समर्पण आपके प्रति है; जो कहेंगे, वही करूंगी!
फिर भी दोहरा रही वह वही। मैंने उससे कहा: मैं जो कह रहा हूं वह तो सुन ही नहीं रही। मैं कह कह रहा हूं कि ध्यान करना सीख ले और घर वापस जा।
उसने कहा: घर की तो आप बात ही मत करना। आप जो कहेंगे वही करूंगी!
अब उसे यह समझ में ही नहीं आ रहा कि मैं कह रहा हूं तू घर जा! वह मुझसे कह रही है कि यह तो अप बात ही मत करना नहीं गई घर। नहीं जाएगी, मालूम होता है। अब तो कोई तीन वर्ष हो गए उसको, यहां से नहीं हटी। और अब भी कहती है समर्पण मेरा पूरा है। और मैं अभी भी उससे यही कहे चला जा रहा हूं, तू घर जा। उसके पिता के पत्र आते हैं, उसकी मां के पत्र आते हैं। वे रो—रोकर लिखते हैं कि एक ही लड़की है, उसे वापस पहुंचा दें। वह यहां आकर संन्यास से रहे, ध्यान करे, जो उसे करना हो हमारी कोई बाधा नहीं है।
उसको मैंने और तरह से भी समझाने की कोशिश की कि तू जा तो तेरे पिता भी संन्यासी हो जाएंगे, तेरी मां भी संन्यासी हो जाएंगी। तेरे जीवन में इतना रूपांतरण हुआ है!
मगर वह कहती कि आपके चरण, आपकी शरण...मेरा समर्पण तो समग्र है। मगर उसके समग्र का अर्थ उसकी समझ में नहीं आता कि समग्र का अर्थ होता है कि अगर मैं कहूं कि घर लौट तो घर लौट जाओ। मैं कहूं नर्क चले जाओ तो नर्क चले जाओ। समर्पण बेशर्त होता है।
बेशर्त हो जाओ राधा! होशियारियां छोड़ो। मेरे साथ होशियारी से संबंध नहीं बनेगा। और मुझसे बन भी गया तो संध से न बनेगा। और संघ से न बना तो मुझसे भी टूटने लगेगा। जोड़ मुश्किल हो जाएगा।
एक विराट घटना घट रही है। उस में छोटे—छोटे अहंकारों को गला दो। जब किसी बड़ी घटना में हम सम्मिलित होते हैं छोटी—छोटी बातों को नहीं ले जाते। तो ही यह विराट वृक्ष खड़ा हो सकता है, जिसकी छाया में अनंत—अनंत लोगों को विश्राम मिले; थको को छाया मिले, शीतलता मिले; भटकों को ज्योति मिले। इस दीए में पतंगे की तरह आओ और जल जाओ। इस से कम में नहीं चल सकता है।

चौथा प्रश्न: भगवान!
मेरा जीवन कोरा कागज
कोरा ही रह गया।
प्रभु, आपने बार—बार कहा है कि प्रार्थना केवल अनुग्रह प्रकट करना है—कुछ मांगना नहीं। परंतु मन बिना मांगे नहीं रह पाता। मांगता हूं प्रभु—एक ऐसी प्यास जो तन—मन को धू—धू कर जला दे। क्या प्रभु मेरी मांग पूरी करेंगे?

च्युत भारती! आग जलनी शुरू हो गई है। चिनगारी है अभी, सारा जंगल भी आग पकड़ लेगा। चिनगारी आ गई है तो जंगल भी जलेगा। पहला फूल खिल गया तो वसंत के आगमन की खबर आ गई, और फूल भी खिलेंगे। जल्दी न करो।
और मैं जानता हूं, मन जल्दी करता है, मन धीरज नहीं बांधता। थोड़ा समय दो चिनगारी को। भभकने का, फैलने का। धू—धू कर के भी जलेगी। लेकिन जितना अधैर्य करोगे उतनी ही देर हो जाएगी। यही अड़चन है। धीरज रखोगे, जल्दी हो जाएगी घटना; अधैर्य करोगे, देर लग जाएगी। अगर बहुत जल्दबाजी की तो बहुत देर लग जाएगी। और अगर बिलकुल जल्दबाजी न की तो हुई ही है, अभी हुई, अभी हुई।
समझता हूं तुम्हारी प्रार्थना। जिनके हृदय में भी चिनगारी पड़ती है उनके भीतर यह भावना उठनी स्वाभाविक है।
चाहता हूं मैं न सावन की घटाएं,
चाहता हूं मैं न मधुवन की लताएं,
एक ही जलधार केवल चाहता हूं,
भावना का प्यार केवल चाहता हूं।
त्याग से भयभीत कुंठित साधनाएं,
व्यंग्यमय परिहास मंडित मान्यताएं।
कपट के परिधान में लिपटी अलंकृत,
लूटने को सौम्य कलुषित भावनाएं।
लोक से भयभीत दीपक की शिखाएं,
कुचलती अनुराग लज्जा की शिलाएं।
नत न हो सकतीं विनय के सामने जो,
एंठती उत्तुंग गिरि की शृंखलाएं।
चाहता हूं मैं न वेदों की ऋचाएं,
चाहता हूं मैं न प्रिय अभिव्यंजनाएं,
सत्य की मनुहार केवल चाहता हूं,
निष्कपट व्यवहार केवल चाहता हूं।
विजनतम आदीप्त गहरी कालिमाएं,
सुखदतम सिंदूर संध्या लालिमाएं।
शुभ्र शशि के भाल पर कालिख लगाती,
विश्व से पीड़ित अपरिमित वेदनाएं।
प्रलय मेघों की घुमड़ती गर्जनाएं,
रेत की उथली विभव सरि वंदनाएं।
राह में जब कंटकों की क्यारियां हों,
भ्रमित करती चरण को काली दिशाएं।
चाहता हूं मैं सपनों की दिशाएं
स्वप्न ही साकार केवल चाहता हूं,
भय रहित अभिसार केवल चाहता हूं।
अहं के सौंदर्य की फैली छटाएं,
दीनता को छल रही बल की भुजाएं।
त्रस्त को असहाय पाकर खेल करती,
शक्ति रंजित विभव की सोलह कलाएं।
छोड़ मानवता दनुज सी अर्चनाएं,
ईश कह पाषाण की आराधनाएं।
मनुजता के वक्ष पर मंदिर बनाती,
भक्ति में अंधी छली अहमन्यताएं।
चाहता हूं मैं न सुख की संपदाएं,
चाहता हूं मैं न डसती वासनाएं,
मनुज का सत्कार केवल चाहता हूं,
हृदय का विस्तार केवल चाहता हूं
उठती है प्रार्थना, उठती है अभीप्सा—स्वाभाविक है। उसके लिए अपने को दोष न देना। मगर एक ही बात ध्यान रहे—धीरज, खूब धीरज! मौसमी फूल तो दो—चार सप्ताह में आ जाते हैं, मगर दो—चार सप्ताह में विदा भी हो जाते हैं। जल्दबाजी करोगे, मौसमी फूल जैसी घटनाएं घटेंगी—इधर आई, उधर गई, उनसे कुछ तृप्ति न होगी। अगर चाहते हो कि आकाश को छूते वृक्ष तुम्हारे भीतर पैदा हों, कि बदलियों से गुफ्तगू कर सकें, कि चांदत्तारों की निकटता पा सकें, तो फिर धीरज, तो फिर अनंत धैर्य।
जल्दी भी क्या है? प्रार्थना है तो प्रतीक्षा और जोड़ो बस।
प्रार्थना—प्रतीक्षा। गहरी प्रार्थना है गहरी प्रतीक्षा। कह दो परमात्मा से: जब तेरी मर्जी हो! तेरी मर्जी हो, फिर जब तेरी मर्जी हो! मैं पुकारता रहूंगा! मैं बहाता रहूंगा आंसू! मैं गाता रहूंगा गीत! मैं नाचता रहूंगा! फिर जब पक जाऊं, जब पात्र हो जाऊं, जब तुझे बरसना हो बरसना।
इसे ईश्वर पर छोड़ दो। फलाकांक्षा छोड़ दो, साधना आज भी फल ला सकती है। फलाकांक्षा छोड़ते ही फल लगने शुरू हो जाते हैं।

आखिरी प्रश्न: भगवान! कुछ पूछना चाहता हूं, लेकिन पूछने जैसा कुछ भी नहीं लगता। बड़ी डांवाडोल स्थिति में हूं। अभी तो एक मस्ती घेर लेती है और अचानक फिर सब वीरान हो जाता है! कृपया मार्गदर्शन करें।
हेंद्र भारती। पूछने को कुछ है भी नहीं और फिर भी पूछने की आकांक्षा उठती है! प्रश्न नहीं नहीं हैं भीतर, एक प्रश्नचिह्न है—मात्र, कोरा प्रश्नचिह्न! और वह प्रश्नचिह्न तुम किसी भी प्रश्न के पीछे लगा दो; प्रश्न हल हो जाएगा, प्रश्नचिह्न वैसा हो खड़ा रह जाएगा। वह प्रश्नचिह्न तो तभी मिटता है जब आत्मजागरण होता है, जब समाधि लगती है।
समाधि शब्द पर ध्यान देना। उसी धातु से बना है, उसी मूल से, जिस से समाधान। समाधि में समाधान है। समाधि में कोई उत्तर नहीं मिलता, खयाल रखना। समाधि में प्रश्नचिह्न गिर जाता है। वह तो सतत, शाश्वत, प्रश्नचिह्न हमारे प्राणों में बैठा है, जरूरी है कि वह किसी प्रश्न के पीछे ही लगे। अक्सर वह प्रश्न के पीछे लगता है, क्योंकि हम ही को अड़चन मालूम होती है बिना प्रश्न पीछे लगता है। प्रश्नचिह्न को सम्हालना, बड़ी झिझक मालूम होती है, बड़ा पागलपन मालूम होता है।
अब किसी से कहो, जैसा महेंद्र कह रहे हैं, कि कुछ पूछना चाहता हूं, लेकिन कुछ पूछने जैसा लगता भी नहीं, तो लगता है कि यह बात तो जंचती नहीं। जब पूछने जैसा कुछ लगता नहीं तो क्या पूछना चाहते हो? ऐसा किसी से कहोगे तो समझेगा कि पागल हो गए कि नशे में हो? मगर यही असलियत है। और चूंकि, असलियत को प्रकट नहीं किया जा सकता, इसलिए हम मनगढ़ंत प्रश्न खड़े कर लेते हैं, ताकि प्रश्नचिह्न की सार्थकता मालूम पड़े। पूछते हैं ईश्वर क्या है। मतलब नहीं है ईश्वर से तुम्हें कुछ भी। मतलब तो है प्रश्नचिह्न से, लेकिन प्रश्नचिह्न को अकेला ही खड़ा कर दें तो कोई भी कहेगा: पागल हो?
एक झेन फकीर मर रहा था। अचानक उसने आंख खोलीं और पूछा कि उत्तर क्या है? शिष्य इकट्ठे थे। इधर—उधर देखने लगे कि उत्तर क्या है! प्रश्न तो पूछा ही नहीं गया, उत्तर क्या खाक होगा! मगर जानते थे अपने गुरु को। जिंदगीभर से उसकी ऐसी आदतें थीं। बेबूझ था आदमी। सभी सदगुरु बेबूझ रहे हैं। अब यह भी आखिरी मजाक; प्रश्न पूछा ही नहीं, पूछता है उत्तर क्या है! एक शिष्य ने हिम्मत की। कहा: गुरुदेव कम से कम जाते वक्त तो हमें दिक्कत में न डाल जाएं! आप तो चले जाएंगे, हम जिंदगीभर यही सोचते रहेंगे कि यह क्या मामला था—उत्तर क्या है! प्रश्न क्या है? पहले प्रश्न तो पूछे फिर, उत्तर!
मरते गुरु ने कहा: चलो ठीक, तो यही पूछता हूं, प्रश्न क्या है?
अगर ठीक से समझो तो मनुष्य की अंतरात्मा में कोई प्रश्न नहीं हैं, प्रश्नचिह्न है। जिज्ञासा है। किसकी? किसी की भी नहीं। अभीप्सा है। किस दिशा में? किसी दिशा में नहीं। बस शुद्ध एक प्रश्नचिह्न खड़ा है आत्मा में, लेकिन सीधे प्रश्नचिह्न को पूछने में तो अड़चन होती है, तो हम उसके सामने कुछ प्रश्न जोड़ देते हैं—आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है, मैं कौन हूं, सृष्टि किसने बनाई? फिर तुम हजार प्रश्न बना लेते हो। मगर गौर करना, सारे प्रश्न व्यर्थ हैं। तुम पूछना नहीं चाहते वे प्रश्न। तुम्हीं थोड़ा सोचोगे तो तुम कहोगे मुझे लेना—देना क्या, किसने बनाई दुनिया! बनाई होगी या नहीं बनाई होगी, इससे मेरा क्या प्रयोजन है? इस से मेरी जिंदगी का क्या नाता है?
ठीक महेंद्र कि तुमने हिम्मत की और कहा कि कुछ पूछना चाहता हूं, लेकिन पूछने जैसा कुछ लगता नहीं।
इसी हिम्मत से कोई सत्य के अन्वेषण में उतरता है।
प्रश्नचिह्न है। और यह प्रश्नचिह्न तभी मिटेगा जब तुम्हारे भीतर सारे विचार विदा हो जाएं। जब तक विचार रहेंगे, यह प्रश्नचिह्न विचारों की ओट में अपने को बचाता रहेगा। यह विचार के छातों में अपने को बचाता रहेगा। जब कोई विचार न रह जाएंगे तो प्रश्नचिह्न को मरना ही होगा, क्योंकि इसको भोजन मिलना बंद हो जाएगा। विचारों से भोजन मिलता है, पुष्टि मिलती है। एक प्रश्न हल हो जाता है, दूसरे प्रश्न पर जाकर प्रश्नचिह्न बैठ जाता है; उसका शोषण करने लगता है; उसका खून पीने लगता है। उसकी तृप्ति हुई, वह तीसरे पर बैठ जाता है। वह नए—नए प्रश्न खोजता रहता है। वे नई—नई सवारियां हैं। लेकिन अगर कोई सवारी न मिले, अगर कोई विचार न मिले तो प्रश्नचिह्न अपने से गिर जाता है। विचारों के सहारे न रह जाएं तो प्रश्नचिह्न अपने से भूमिसात हो जाता है।
ध्यान में मिटता है प्रश्नचिह्न, ज्ञान में नहीं। ज्ञान में तो और बड़ा होता जाता है।
दरिया ठीक कहते हैं: ध्यान सान लो, ज्ञान की फिकिर न करो। ज्ञान की फिकर की कि भटके। सब प्रश्न ज्ञान में ले जाएंगे। ध्यान में कौन ले जाएगा? निष्प्रश्न दशा। प्रश्नचिह्न है, रहने दो। विचारें को विदा करो, प्रश्नों को विदा करो, प्रश्नचिह्न को अकेला रहने दो। और तुम बड़े चकित होओगे, जैसे कि तुम सारे मंदिर के खंभे अलग कर लो तो मंदिर का छप्पर गिर जाए, ऐसे जिस दिन तुम सारे विचारों के खंभे अलग कर लोगे उस दिन प्रश्नचिह्न का छप्पर गिर जाएगा। न रहेंगे प्रश्न, न रहेगा प्रश्नचिह्न। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। और जहां न प्रश्न हैं प्रश्नचिह्न हैं, वह समाधि का आविर्भाव है। उस समाधि में समाधान है। उसकी ही तलाश है। उसकी ही पीड़ा है। उसकी ही प्यास है।
तुम कहते हो: बड़ी डांवांडोल स्थिति में हूं। सभी हैं डांवाडोल स्थिति में। कोई कहता है, हिम्मत जुटाता है; कोई नहीं कहता। मगर सभी डांवाडोल स्थिति में हैं, सभी लड़खड़ा रहे हैं। क्योंकि मन की आदत ही डांवांडोल होना है। मन यानी डांवांडोल होना। अभी ऐसा अभी ऐसा। पल भर कुछ, पल भर कुछ। क्षण में क्रुद्ध, क्षण में करुणा से भर। क्षण में प्रेम बह रहा, क्षण में घृणा उठ आई। फूल अभी फूल था, अब कांटा हो गया। कांटा अभी कांटा था, अब फूल हो गया। मन ऐसा ही चलता है। कभी थिर नहीं होता। थिर हो जाए तो मर जाए। अथिरता में ही उसका जीवन है।
और मन अथिर रहने के लिए हर चीज की खंडों में बांट देता है, हर चीज को दो में तोड़ देता है तभी तो अथिर रह सकता है। अगर एक ही हो तो फिर अथिर कैसे होगा? इसलिए मन द्वंद्व बनाता है। मन द्वंद्वात्मक है। रात और दिन एक हैं; रात और दिन दो नहीं, लेकिन मन दो कर लेता है। गर्मी—सर्दी एक हैं, इसलिए तो एक ही थर्मामीटर से तुम दोनों को नाप पाते हो; लेकिन मन दो कर लेता है। सफलता—असफलता एक हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू; लेकिन मन दो कर लेता है। जन्म और मृत्यु एक हैं, लेकिन मन दो कर लेता है। जिस दिन जन्में उसी दिन से मरना शुरू हो गया। जन्म की प्रक्रिया मृत्यु की प्रक्रिया है।
जरा गौर से देखो, अस्तित्व एक है, लेकिन मन हर जगह दो कर लेता है। मन ऐसे ही है जैसे तुमने कांच का प्रिज्म देखा! कांच के प्रिज्म से सूरज की किरण की गुजरो; एक किरण, प्रिज्म से गुजरते ही सात हिस्सों में बंट जाती है, सात रंगों में टूट जाती है। ऐसे ही तो इंद्रधनुष बनता है। इंद्रधनुष हवा में लटकी हुई पानी की बूंदों के कारण बनता है। हवा में पानी की बूंदें लटकी होती हैं वर्षा के दिनों में और सूरज की किरणें उन पानी की बूंदों से गुजराती हैं। हवा के मध्य में लटकी हुई पानी की बूंदें प्रिज्म का काम करती हैं और सूरज की किरणें सात हिस्सों में टूट जाती हैं। और तुम एक सुंदर इंद्रधनुष आकाश में छाया हुआ देखते हो।
ऐसे ही मन है। मन हर चीज को में तोड़ देता है। मन से कोई भी चीज गुजरो, वह दो हो जाती है। प्रेम और घृणा एक ही ऊर्जा के नाम हैं, मन दो कर देता है। मित्रता और शत्रुता एक ही घटना के दो नाम हैं, मन दो कर देता है। मन की तो आदत ऐसी—
एक रात उजली है,
एक रात काली है,
एक बनी मातम तो दूसरी दिवाली है।
एक सजी दुल्हन सी चांदनी लुटाती है,
एक दबे घावों को फिर—फिर सहलाती है।
एक रात तड़पाती जेठ की दुपहरी है,
एक रात वंशी की गुंजित स्वरलहरी है।
एक मुखर प्याला है,
एक मूक हाला है,
एक बनी पतझर तो दूजी हरियाली है।
एक लिए प्रियतम को मिलन गीत गाती है,
एक विरह स्मृति सी मन को तड़पाती है।
एक रात दीपक सी ज्योति जगमगाती है,
एक अंधकार पीए भावना जगाती है।
एक रात आहों की,
एक रात भावों की,
एक जहर ज्वाला तो एक सुधा प्याली है।
एक रात रो—रोकर शबनम बिखरती है,
एक शरद पूनम में डूबी मदमाती है।
एक रात सपनों की लोरियां सजाती है,
एक रात दर्दीली नींद चुरा जाती है।
एक रात कुंदन हैं,
एक रात मधुबन है,
एक रात मस्ती तो एक पीर वाली है।
एक रात गाती है ऊंचे प्रासादों में,
एक रात रोती है गंदे फूटपाथों में।
रात वही होती हर बात वही होती है,
रंग बदल कर केवल जीवन को धोती है।
एक रात बचपन है,
एक रात यौवन है,
एक जरा झंझा तो एक मृत्यु व्याली है।
एक है, लेकिन दो होकर मालूम पड़ रहा है। इधर दूल्हे ही बारात सह रही और उधर किसी की अर्थी उठ रही। ये दो घटनाएं नहीं हैं; यह एक ही घटना है। यह सजती बारात, यह उठती अर्थी—एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह मान यह अपमान।
और मन दो करके फिर डांवांडोल होता है। जब हो गए तो यह करूं कि वह करूं, ऐसा करूं कि वैसा करूं! फिर हर चीज में खंडित हो जाता है मन।
महेंद्र, ऐसा कुछ तुम्हारा ही मन नहीं है। सबका मन ऐसा है। मन का ऐसा स्वभाव है। तुम कहते हो, बड़ी डांवांडोल स्थिति में हूं। जब तक मन को पकड़े रहोगे, डांवांडोल स्थिति रहेगी। साक्षी बनो! चुनो ही मत, सिर्फ देखो। सिर्फ मन के खेल देखो। मन के जटिल खेल पहचानो।
और धीरे—धीरे, साक्षी में जैसे ही ठहर जाओगे वैसे ही मन का द्वंद्व विदा हो जाएगा। मन विदा हो जाएगा। सारा डांवांडोल पन चला जाएगा। चंचलता विलीन हो जाएगी।
अथिरता खो जाएगी। तुम थिर हो जाओगे।
और थिर होने में आनंद है। थिरता परमात्मा का स्वाद है।

आज इतना ही।



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