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बुधवार, 8 जून 2016

काहे होत अधीर--(प्रवचन--17)

कारज धीरे होत है—(प्रवचन—सत्ररहवां)
दिनांक 27 सितम्‍बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना

सारसूत्र :

सोई सिपाही मरद है, जग में पलटूदास।
मन मारै सिर गिरि पड़ै, तन की करै न आस।।
ना मैं किया न करि सकौं, साहिब करता मोर।
करत करावत आपु है, पलटू पलटू सोर।।
पलटू हरिजन मिलन को, चलि जइए इक धाप।
हरिजन आए घर महैं, तो आए हरि आप।।
वृच्छा बड़ परस्वारथी, फरैं और के काज।
भवसागर के तरन को, पलटू संत जहाज।।

पलटू तीरथ को चला, बीच मां मिलिगे संत।
एक मुक्ति के खोजते, मिलि गई मुक्ति अनंत।।
पलटू मन मूआ नहीं, चले जगत को त्याग।
ऊपर धोए क्या भया, भीतर रहिगा दाग।।
सीस नवावै संत को, सीस बखानौ सोय।
पलटू जो सिर न नवै, बेहतर कद्दू होय।।
सुनिलो पलटू भेद यह, हंसि बोले भगवान।
दुख के भीतर मुक्ति है, सुख में नरक निदान।।
बिन खोजे से न मिलै, लाख करै जो कोय।
पलटू दूध से दही भा, मथिबे से घिव होय।।
गारी आई एक से, पलटे भई अनेक।
जो पलटू पलटै नहीं, रहै एक की एक।।
जल पषान के पूजते, सरा न एकौ काम।
पलटू तन करु देहरा, मन करु सालिगराम।।
कारज धीरे होत है, काहे होत अधीर।
समय पाय तरुवर फरै, केतिक सींचो नीर।।


खंजर है कोई, तो तेगे-उरियां कोई
सरसर है कोई, तो बादेत्तूफां कोई
इंसान कहां है? किस कुर्रे में गुम है?
यां तो कोई हिंदू है, मुसलमां कोई

जिस वक्त झलकती है मनाजिर की जबीं
रासिख होता है जाते-बारी का यकीं
करता हूं जब इंसान की तबाही पे नजर
दिल पूछने लगता है, खुदा है कि नहीं?

जीना है तो जीने की मुहब्बत में मरो
गारे-हस्ती को नेस्त होऱ्हो के भरो
नौ-ए-इन्सां का दर्द अगर है दिल में
अपने से बुलंदतर की तखलीक करो

मखलूक की खिदमत से बहुत डरता है
अपने ही लिए आठ पहर मरता है
अफसोस तेरा इना-ए-जामिद ऐ शख्स
अपने से तजावुज ही नहीं करता है

मनुष्य को देखो, जैसा मनुष्य है, जैसा मनुष्य आज हो गया है, तो सच ही परमात्मा पर भरोसा नहीं आता कि परमात्मा भी हो सकता है।
वृक्षों को देख कर शायद आस जगे, पक्षियों को देख कर शायद तुम्हारे भी पंख फड़फड़ाएं, पशुओं की आंखों में झांक कर शायद परमात्मा की थोड़ी झांई पड़े। पर आदमी! आदमी इतने दूर निकल गया है, आदमी ने परमात्मा की तरफ पीठ कर ली है।
खंजर है कोई, तो तेगे-उरियां कोई
सरसर है कोई, तो बादेत्तूफां कोई
इंसान कहां है? किस कुर्रे में गुम है?
यां तो कोई हिंदू है, मुसलमां कोई
मुसलमान मिल जाएगा, हिंदू मिल जाएगा, ईसाई मिल जाएगा, जैन मिल जाएगा, बौद्ध मिल जाएगा; मगर आदमी! आदमी मिलना बहुत कठिन है। और जो आदमी है वह हिंदू नहीं हो सकता, मुसलमान नहीं हो सकता। आदमियत उतनी छोटी सीमाओं में बंध नहीं सकती। आकाश को कैसे बंद करोगे आंगनों में? सत्य को कैसे जंजीरें पहनाओगे शब्दों की? अनिर्वचनीय के कैसे शास्त्र निर्मित करोगे? हार्दिक को बुद्धि से कैसे समझोगे? कैसे समझाओगे?
सब शास्त्र ओछे पड़ जाते हैं। सब मंदिर-मस्जिद छोटे पड़ जाते हैं। परमात्मा इतना बड़ा है, उस बड़े परमात्मा को तो सिर्फ आकाश जैसा हृदय ही सम्हाल सकता है। और आकाश जैसे हृदय पैदा हो सकते हैं; संभावना हमारी है; बीज हममें है।
जिस वक्त झलकती है मनाजिर की जबीं
रासिख होता है जाते-बारी का यकीं
करता हूं जब इंसान की तबाही पे नजर
दिल पूछने लगता है, खुदा है कि नहीं?
आज अगर परमात्मा पर संदेह उठा है तो उसका कारण यह नहीं है कि परमात्मा नहीं है; उसका कारण यह है कि आदमी परमात्मा का कोई प्रमाण ही नहीं दे रहा है। आदमी को देख कर परमात्मा के अस्तित्व की आशा नहीं बंधती। आदमी को देख कर, कुछ आशा रही भी हो, तो बुझ जाती है; कोई दीया टिमटिमाता भी हो भीतर, तो समाप्त हो जाता है, अमावस की रात घिर जाती है।
जीना है तो जीने की मुहब्बत में मरो
आदमी होने की कला एक ही है और वह है प्रेम--जीवन से प्रेम--इतना कि मरना भी पड़े उस प्रेम के लिए तो कोई हंसते हुए मर जाए, कोई गीत गाते हुए मर जाए, कोई नाचते हुए मर जाए!
जीना है तो जीने की मुहब्बत में मरो
और जीने की भी कला यही है। बड़ा उलटा लगेगा: जीने की कला है जीने की मुहब्बत में मरना। जो जीवन को जोर से पकड़ता है उसका जीवन नष्ट हो जाता है। जो जीवन को भी जीवन के लिए छोड़ने को तत्पर होता है उसके ऊपर विराट जीवन उतर आता है।
जीना है तो जीने की मुहब्बत में मरो
गारे-हस्ती को नेस्त होऱ्हो के भरो
अभी तो तुम्हारी जिंदगी क्या है? गारे-हस्ती! एक गङ्ढा है अस्तित्व का! एक खालीपन! एक सूनापन! एक रिक्तता! जहां न फूल खिलते हैं, न पक्षियों के गीत गूंजते हैं, न आकाश के तारे झलकते हैं। तुम्हारे भीतर अभी है क्या? सिर्फ एक उदासी है, एक ऊब है! किसी तरह जिंदगी को ढोए जाते हो, यह दूसरी बात है। सिर्फ श्वास लेते रहने का नाम जीना नहीं है। जब तक जीवन एक नृत्य न हो, एक रक्स न बने, एक उत्सव न हो, एक समारोह न हो; जब तक जीवन फूलों की एक माला न बन जाए; जब तक जीवन तारों की एक दीपावली न बन जाए--तब तक तुमने जीवन जाना ही नहीं जानना; समझ रखना कि जीवन समझा ही नहीं अभी; अभी जीवन में प्रवेश ही नहीं हुआ, जीवन के मंदिर के बाहर ही बाहर घूमते रहे हो।
जीना है तो जीने की मुहब्बत में मरो
गारे-हस्ती को नेस्त होऱ्हो के भरो
और जीवन का यह जो गङ्ढा तुम्हें अनुभव होता है--यह खालीपन, यह रिक्तता, यह अर्थहीनता, यह शून्यता--इसे भरने का उपाय जानते हो? इसे भरने का उपाय बड़ा अनूठा है। इसलिए संतों की वाणी अटपटी है। अपने को मिटा-मिटा कर ही इसको भरा जा सकता है। और तुम अपने को बचा-बचा कर भरना चाहते हो।
बचाओगे तो खाली रह जाओगे--जीसस कहते हैं--और मिट सको तो आज ही भर जाओ।
मिटने को मैंने संन्यास का नाम दिया है--मिटने की कला, मरने की कला। लेकिन मरने की कला केवल कदम है जीवन की कला की तरफ। मिटने की कला होने की कला का सूत्र है।
नौ-ए-इन्सां का दर्द अगर है दिल में
अपने से बुलंदतर की तखलीक करो
और अगर सच में ही मनुष्य होना चाहते हो, मनुष्य को जन्म देना चाहते हो अपने भीतर, एक नये मनुष्य का आविर्भाव करना चाहते हो...क्योंकि पुराना तो सड़-गल गया। तुम्हें जो पाठ पढ़ाए गए थे सब व्यर्थ साबित हुए। तुम्हें जो सूत्र समझाए गए थे वे काम नहीं आए। जिन्हें तुम सेतु समझ कर चले थे वे ही तुम्हें डुबाने का कारण हो गए हैं। तुमने कागज की नावों पर सवारी की है। तुमने शब्दों और ज्ञान के जाल से ही जीवन को जीने की कोशिश की है। और इसलिए जीवन तो तुम्हारे हाथ में नहीं है; जीवन के नाम पर एक धोखा है, एक आत्मवंचना है। अगर सच्चे जीवन को जीना हो, अगर अपने भीतर एक नये मनुष्य को जन्म देना हो तो एक काम करना पड़ेगा--
अपने से बुलंदतर की तखलीक करो
जो तुमसे विराट है उसका आविष्कार करो। और तुमसे विराट तुम्हें घेरे हुए है। उसी का नाम परमात्मा है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। परमात्मा उस विराट का नाम है जो तुम्हें घेरे हुए है; जो तुममें श्वास बन कर आता है; जो तुममें रक्त बन कर बहता है; जो तुम्हारे हृदय की धड़कन है; जो तुम्हारी आंखों की ज्योति है, चमक है; जो तुम्हारा प्रेम है, प्रार्थना है, तुम्हारा काव्य है, तुम्हारा संगीत है; जो तुम्हारा अस्तित्व है; जो तुम्हारे प्राणों का प्राण है; जिसने तुम्हें बाहर और भीतर सब तरफ से घेरा है--उस विराट का नाम ही परमात्मा है!
लेकिन आदमी अपने में बंद है। आदमी सोचता है मैं काफी। जिसने सोचा ऐसा कि मैं काफी, उसने अपनी कब्र बना ली जीते जी। उसकी जिंदगी सिर्फ सड़ने की एक लंबी प्रक्रिया होगी। उसके जीवन से दुर्गंध उठेगी, सुगंध नहीं। वह बीज की तरह ही आया और बीज की तरह ही सड़ जाएगा। फूल नहीं खिलेंगे, सुवास नहीं मुक्त होगी। वह अंडे में ही मर जाएगा, अंडे के कभी बाहर न आ पाएगा--कि पंख फैलाता, खुले आकाश की स्वतंत्रता का आनंद लेता, कि चांदत्तारों को छूने की अभीप्सा से भरता, कि बदलियों के पार उठता! उसके लिए कभी सूरज नहीं ऊगेगा। उसकी जिंदगी अमावस की रात ही रहेगी, जिसमें तारे भी नहीं; तारे तो दूर, एक टिमटिमाता दीया भी नहीं।
अपने से विराट का आविष्कार, अपने से बड़े की खोज...
लेकिन आदमी डरता क्यों है अपने से बड़े की खोज के लिए?
अपने से बड़े की खोज के लिए खुद को झुकना होता है। सिर झुकाने की कला, समर्पण की कला--तो ही अपने से विराट को पाया जा सकता है।
आज के पलटू के सूत्र उसी दिशा में बहुत अदभुत सूत्र हैं। खूब प्यार से सुनना! खूब प्रीति से अपने भीतर लेना!
सोई सिपाही मरद है, जग में पलटूदास।
मन मारै सिर गिरि पड़ै, तन की करै न आस।।
कह रहे हैं: वही सिपाही है मर्द--मन मारै सिर गिरि पड़ै! अपने मन को मिटा दे। अपने मैं को मिटा दे। अपने अहंकार को मिटा दे। ऐसा कि सिर गिर पड़े भूमि पर। बचे ही नहीं अस्मिता का कोई बोध। मैं हूं, यह भाव ही न रह जाए। और जहां मन मिटा वहां तन की आस मिट जाती है। मन ही तो तन की आस है। यह मन ही तो तुम्हें जन्मों-जन्मों में लाया है। यह मन ही तो तुम्हें चौरासी करोड़ योनियों में भटकाया है। यह मन ही तो तुम्हें कहां-कहां नहीं ले गया! इस मन ने तुम्हें जन्मों-जन्मों में कितनी यात्राएं करवाईं! और सब व्यर्थ! हाथ कुछ भी नहीं लगा। मुकाम आया नहीं, मंजिल आई नहीं। चलते रहे, चलते रहे, चलते रहे। थक गए हो, ऊब गए हो, मगर चले जाते हो, क्योंकि मन नई आशाएं बंधाए जाता है।
मन बड़ा कुशल है आशाएं बंधाने में। एक बार टूटती है आशा, जल्दी ही दूसरी जगा देता है। हजार बार टूटती हैं आशाएं, लेकिन मन नई-नई आशाओं का आविष्कार करता जाता है। वह कहता है: रुको, थोड़ा और रुको; कल! आज जो नहीं हुआ, कल होगा। कभी जो नहीं हुआ वह भी हो सकता है। मन बड़ा राजनीतिज्ञ है; वह आश्वासन पर जीता है। और आश्चर्य तो यह है कि तुम धोखे पर धोखा खाए जाते हो! कब जागोगे? यह तन की आशा कब छूटेगी? और-और नई देहें लेने का भाव कब विदा होगा?
मन मारै सिर गिरि पड़ै, तन की करै न आस।
यह सिपाही की परिभाषा की है पलटूदास ने। यह तो संन्यासी की परिभाषा है। संन्यासी ही असली सिपाही है। संन्यासी ही मर्द है।
मुहब्बत को हम एक दरियाए-बेसाहिल समझते हैं
किनारा उसका गिरदाबे-बला में डूब कर जाना
प्रेम को हम एक ऐसा सागर समझते हैं जिसका कोई किनारा नहीं है। लेकिन उसका भी किनारा जाना जाता है, मगर केवल वे ही जान पाते हैं जो बीच भंवर में डूब जाते हैं; जो मझधार में डूब जाते हैं; जिन्हें डूबना आ गया; जिनकी श्रद्धा इतनी प्रगाढ़ है कि जो जानते हैं मृत्यु के पार अमृत है; जो जानते हैं अगर मझधार में डूब गए तो किनारा मिल जाएगा--उस सागर का किनारा जिसका कोई किनारा नहीं है! उसका किनारा भी मझधार में डूबने वाले को मिल जाता है।
कैसे मन मारें? क्या अर्थ है मन को मारने का? कहां है तलवार जिससे मन मारें?
ध्यान से मरता है मन। ध्यान है तलवार। ध्यान का अर्थ होता है: विचार के प्रति साक्षी-भाव। मैं विचार नहीं हूं, ऐसे बोध की प्रगाढ़ता। देखो विचार की धारा को। आते हैं विचार, जाते हैं विचार। जैसे दिन आता और रात आती; और वर्षा आती और गरमी आती; जैसे वसंत आता और पतझड़ आता; फूल खिलते और झरते--ऐसे ही विचार की सतत धारा है। तुम देखो। तुम सिर्फ द्रष्टा हो। तुम न कर्ता बनो न भोक्ता, बस--और तुम्हारे हाथ तलवार लग गई जो काट देगी मन को और गिरा देगी शीश को और मिटा देगी अहंकार को। मझधार में डूब जाओगे और पा लोगे किनारा।
मन मारै सिर गिरि पड़ै, तन की करै न आस।
ना मैं किया न करि सकौं, साहिब करता मोर।
करत करावत आपु है, पलटू पलटू सोर।।
कर्ता-भाव जाने दो। करने वाला तो मालिक है। तुम नाहक ही सोच रहे हो कि मैं करने वाला हूं। करने वाला कोई और है, जो छिपा है। जैसे कठपुतलियां नाच रही हों और परदे के पीछे कोई उनके धागों को हाथ में लेकर नचा रहा हो। कठपुतलियों में भी अगर मन पैदा हो जाए तो वे भी सोचेंगी कि हम नाच रहे हैं। नाचती कठपुतली अहंकार से भर जाएगी। और जब लोग तालियां बजाएंगे तो कठपुतली की छाती फूल जाएगी। और उसे पता नहीं कि पीछे कोई धागे हाथ में लिए नचा रहा है, जो जब चाहेगा तब धागे खींच लेगा और नाच बंद हो जाएगा।
और तुम रोज देखते हो--आज किसी का नाच बंद हुआ, कल किसी का नाच बंद हुआ--और फिर भी तुम यह भरोसा किए चले जाते हो कि हम कर्ता हैं! इस जगत में सबसे बड़ी भ्रांति है यह भाव कि मैं कर्ता हूं। और कर्ता का ही दूसरा पहलू भोक्ता है। कर्ता और भोक्ता एक सिक्के के दो पहलू हैं। और इन दोनों के पार एक साक्षी का भाव है--कि मैं केवल द्रष्टा हूं, मैं सिर्फ देख रहा हूं।
पलटू ने प्यारा सूत्र कहा: ना मैं किया न करि सकौं...
मैंने कभी कुछ किया ही नहीं। और न करना मेरी सामर्थ्य है, न मैं कुछ कर सकता हूं।
ना मैं किया न करि सकौं, साहिब करता मोर।
वह साहिब, वह मालिक कर रहा है। मैंने देख लिए वे धागे, मैंने देख लिए वे हाथ जो पीछे छिपे हैं परदे के।
जो द्रष्टा बनता है उसे दिखाई पड़ जाता है यह रहस्य। क्योंकि द्रष्टा बनते ही तुम मालिक हो जाते हो; तुम नहीं रहते, मालिक ही बचता है। द्रष्टा होते ही तुम परमात्मा के साथ लीन हो जाते हो। जब तक तुम कर्ता और भोक्ता हो, कठपुतली हो। जैसे ही द्रष्टा हुए, तुम कठपुतली नहीं हो। कठपुतली तो फिर देह है, मन है, और सब कुछ है; तुम हट गए पीछे; तुमने तो स्रष्टा के साथ अपना तादात्म्य पा लिया।
करत करावत आपु है, पलटू पलटू सोर।
खुद करता है और इस बेचारे पलटू का शोर मचता है। लोग कहते हैं: पलटू ने ऐसा किया, पलटू ने वैसा किया!
करत करावत आपु है, पलटू पलटू सोर।
और जिसने ऐसा जान लिया, उसके जीवन में साधना के बड़े नये अर्थ हो जाते हैं। फिर साधना भी कृत्य नहीं रह जाती, करने की बात नहीं रह जाती। फिर साधना भी वही कर रहा है, करा रहा है। फिर भजन और कीर्तन भी वही कर रहा है और करा रहा है।
रामकृष्ण को ऐसा होता था कि रास्ते चलते धुन बंध जाती थी। उनको कहीं ले जाना मुश्किल होता था। क्योंकि चले जा रहे रास्ते पर और किसी ने कह दिया--जयरामजी! और बस काफी था उनके लिए। इतनी सी शराब, जयरामजी, बस एक घूंट--और वे वहीं बीच सड़क पर नाचने लगें! राम की जय हो तो बिना नाचे कैसे अंगीकार की जाए! तमाशा हो जाए। भीड़ लग जाए। ट्रैफिक रुक जाए। पुलिस का आदमी आकर लोगों को हटाने लगे। और जो भक्त उनके साथ गए होते थे उनको बड़ी बेइज्जती मालूम पड़े कि वे भी रामकृष्ण के साथ तमाशा बन रहे हैं। बीच बाजार में भद्द होती। रामकृष्ण को बहुत समझाया भक्तों ने कि आप ऐसा न किया करें।
रामकृष्ण ने कहा, तुम समझते ही नहीं।
ना मैं किया न करि सकौं, साहिब करता मोर।
करत करावत आपु है, पलटू पलटू सोर।।
मैं कुछ करता हूं? रामकृष्ण कहते। तुम सोचते हो मैं भजन कर रहा था? तुम सोचते हो मैं नाच रहा था? वही नाचता है, अब मैं क्या करूं? परमात्मा को रोकूं? ऐसा जघन्य अपराध मुझसे नहीं हो सकता है। जो होगा सो होगा। जब होगा तब होगा। जैसा वह चाहेगा वैसा होगा। मैं बीच में नहीं आ सकता हूं। मैं हूं कौन? मेरी सामर्थ्य क्या? मेरा बल क्या? मैं तो केवल माध्यम हूं। एक बांसुरी हूं; जो गीत चाहे गाए! एक वाद्य हूं; जो राग चाहे छेड़े!
वो खुद अता करे तो जहन्नुम भी है बहिश्त
मांगी हुई निजात मेरे काम की नहीं
इसलिए किसी सूफी ने ठीक कहा है कि वह खुद दे दे तो मैं नरक भी लेने को राजी हूं, उसका दिया हुआ नरक भी स्वर्ग है।
वो खुद अता करे तो जहन्नुम भी है बहिश्त
मांगी हुई निजात मेरे काम की नहीं
मैं मांगूंगा भी नहीं, क्योंकि मांगने में भी कर्ता-भाव आ जाता है। और मांग कर अगर मुझे स्वर्ग भी मिलता हो तो किसी काम का नहीं, दो कौड़ी का है। मांगते ही वे हैं जिन्हें इस बात का पता नहीं कि वह तो स्वर्ग देने को प्रतिपल राजी है; तुम्हारी मांग के कारण स्वर्ग अटका हुआ है। क्योंकि तुम्हारी मांग के कारण तुम नहीं मिट पाते हो, मन नहीं मिट पाता है।
मन यानी मांग। मन यानी वासना। मन यानी आकांक्षा। यह मिले, वह मिले! और मिले, और मिले! इस सबके जोड़ का नाम मन है। फिर चाहे तुम बैकुंठ मांगो, चाहे मोक्ष मांगो, फर्क नहीं पड़ता। यह वही मन है जो धन मांगता था, पद मांगता था। मांग संसार है।
वो खुद अता करे तो जहन्नुम भी है बहिश्त
मांगी हुई निजात मेरे काम की नहीं
पलटू हरिजन मिलन को, चलि जइए इक धाप।
हरिजन आए घर महैं, तो आए हरि आप।।
पलटू कहते हैं: खबर मिल जाए कहीं कि कोई हरिजन आया, कोई प्रभु का प्यारा आया, कोई प्रभु को जाना, कोई प्रभु को पहचाना हुआ आया, कोई प्रभु के रंग में रंगा हुआ आया, डूबा हुआ आया...
पलटू हरिजन मिलन को, चलि जइए इक धाप।
तो छलांग मार कर जाना, धीरे-धीरे मत जाना, देर मत करना। कहीं चूक न हो जाए।
पलटू हरिजन मिलन को, चलि जइए इक धाप।
एक ही छलांग में पहुंच जाना। ऐसा मत कहना कि कल मिल लेंगे, परसों मिल लेंगे, अभी क्या जल्दी पड़ी है!
ऐसे ही लोग हैं। मैं बंबई इतने वर्ष था, वहां मुझे नहीं मिले, यहां मिलने आते हैं। कहते हैं, जब आपने बंबई छोड़ा तब हमें याद आई। तुम देखते हो चैतन्य और चेतना को! बंबई में ही नहीं थे वे, जिस मकान में मैं था, वुडलैंड में, उसी मकान में रहते थे। लेकिन सोचा होगा--मिल लेंगे। अब यहीं तो हैं, रोज तो मौजूद हैं। कल मिल लेंगे, परसों मिल लेंगे। जब मैं बंबई छोड़ दिया तब उन्हें स्मरण आया। और फिर आए पूना सो बंबई नहीं गए। फिर रुके सो रुके रह गए। फिर मैं ही उनका घर, फिर मैं ही उनका सब कुछ हो गया। ऐसा समझो कि चेतना और चैतन्य के लिए मुझे बंबई छोड़ना पड़ा। पूना में भी बहुत होंगे कि जब तक मैं उनके लिए पूना न छोडूं तब तक उनसे मेरा मिलन न हो सकेगा। क्या जल्दी है, रोज इसी रास्ते से तो गुजरते हैं!
एक बार लंदन में एक बात का सर्वेक्षण किया गया कि लंदन में टावर है, जिसे देखने दूर-दूर से लोग आते हैं। लंदन का टावर लंदन की प्रसिद्ध देखी जाने वाली चीजों में एक है। सर्वेक्षण किया गया कि एक करोड़ आदमी लंदन में रहते हैं, इनमें से कितने लोगों ने लंदन का टावर देखा और कितने लोगों ने नहीं देखा? दस लाख आदमियों ने नहीं देखा! लंदन में रहते हैं। रोज बस से या कार से या ट्रेन से टावर के पास से गुजरते हैं, मगर टावर पर चढ़ कर नहीं देखा। देख लेंगे, कभी भी देख लेंगे, जल्दी क्या है! और सारी दुनिया से लोग लंदन का टावर देखने आते हैं। हजारों मील का सफर करके लंदन का टावर देखने आते हैं। आदमी अजीब है!
एक बार तीन अमरीकी यात्री पोप से मिलने वैटिकन गए। पोप ने पूछा, कितनी देर रुकेंगे इटली में?
पहले यात्री ने कहा, तीन महीने रुकने का इरादा है।
पोप ने कहा, थोड़ा-बहुत देख लोगे।
सुन कर यात्री थोड़ा हैरान हुआ। तीन महीने कुछ कम समय होता है! और अमरीकी रफ्तार से देखने वाला आदमी तीन महीने में सारी दुनिया देख ले, चांदत्तारे होकर आ जाए। अमरीकनों के बाबत कहा जाता है कि एक फ्रेंच एक अमरीकी से कह रहा था कि प्रेम सीखना हो तो फ्रांसीसियों से सीखो--कि वे पहले माथा चूमते, फिर आंखें चूमते, फिर ओंठ चूमते, फिर गर्दन चूमते। अमरीकी ने कहा, ठहरो-ठहरो, इतनी देर में तो अमरीकी सुहागरात मना कर वापस आ जाते हैं।
अमरीकी तो गति से जाता है। तीन महीने, इटली जैसा छोटा देश और थोड़ा-बहुत देख लूंगा! पोप होश में है? लेकिन अमरीकी शिष्टाचारवश कुछ बोला नहीं।
दूसरे से पूछा, तुम कितनी देर रुकोगे?
उसने कहा, मैं तो केवल एक महीने ही रुकने आया हूं।
पोप ने कहा, तुम काफी देख पाओगे।
अब तो बात और जरा उलझी हो गई। पहले से कहा, कुछ थोड़ा-बहुत देख लोगे, जो तीन महीने रुकेगा। और दूसरे से कहा, तुम काफी देख लोगे। इसके पहले कि वह कुछ कहता, उसने तीसरे से पूछा। तीसरे ने कहा कि मैं तो केवल एक सप्ताह के लिए आया हूं।
पोप ने कहा, तुम कुछ भी न छोड़ोगे, तुम पूरा इटली देख लोगे।
और बात महत्वपूर्ण है। जो सहज उपलब्ध होता है, हम सोचते हैं--कल, परसों, कभी भी देख लेंगे! जो सहज उपलब्ध नहीं होता, लगता है क्षण भी खोना उचित नहीं है। और हरिजन सहज उपलब्ध नहीं हैं।
महात्मा गांधी ने तो इस अदभुत शब्द को खराब कर दिया। यह शब्द पुराना है। इसका अर्थ होता था: जिसने हरि को जान लिया। इसका वही अर्थ होता था जो बुद्धत्व का होता है--जो बुद्ध हो गया। उन्होंने इस प्यारे शब्द को खराब कर दिया। इसको जोड़ दिया शूद्रों से। इसकी महिमा खो गई। इस शब्द को आकाश से उतार कर धूल में डाल दिया।
ब्राह्मण भी हरिजन नहीं है, शूद्र तो क्या खाक हरिजन होगा! हरिजन कोई ऐसे होता है? सभी पैदाइश से शूद्र होते हैं। अगर मेरा गणित समझो तो सभी पैदाइश से शूद्र होते हैं। यहां दो ही वर्ण हैं दुनिया में--शूद्र और हरिजन। पैदाइश से सभी शूद्र होते हैं। लेकिन कुछ लोग अथक खोज से, आविष्कार से, अपने से बुलंदतर की तलाश से, विराट की तरफ आंखें उठाने से, मन को मारने से, सिर को चढ़ा देने से--हरिजन हो जाते हैं। हरिजन तो कोई कभी होता है--कोई बुद्ध, कोई कृष्ण, कोई महावीर, कोई कबीर, कोई नानक, कोई पलटू--कभी मुश्किल से कोई हरिजन होता है। महात्मा गांधी ने एक अदभुत शब्द को भ्रष्ट कर दिया, खराब कर दिया। शब्द की महिमा जाती रही। कहां शिखर था मंदिर का और कहां सड़क के किनारे पड़ा हुआ पत्थर हो गया!
पलटू ठीक कहते हैं: पलटू हरिजन मिलन को, चलि जइए इक धाप।
अगर पता चल जाए कि कहीं कोई हरि को उपलब्ध मौजूद है, तो फिर देर मत करना, इतनी भी देर मत करना। हजार काम छोड़ देना, अधूरे ही छोड़ देना। जो वाक्य बोल रहे हो, उसको भी आधे में छोड़ देना। उसका मतलब था--चलि जइए इक धाप! एक छलांग में निकल भागना। क्योंकि पता नहीं, हरिजन तो हवा की तरह आते हैं, हवा की तरह चले जाते हैं! कहीं ऐसा न हो कि हरिजन को बिना देखे जिंदगी बीत जाए।
क्यों हरिजन को देखने का इतना मूल्य है? क्योंकि काश तुम किसी व्यक्ति में खिले कमल को देख सको तो तुम्हें अपने भीतर के कमल की याद आ जाए!
लोग ताजमहल देखने आते हैं हजारों मील से, अजंता-एलोरा देखने आते हैं हजारों मील से। पश्चिम का बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्ताव जुंग भारत आया तो अजंता गया, एलोरा गया, ताजमहल देखा, दिल्ली देखी, बंबई देखी, कलकत्ता देखा। जहां भी गया, जिनके पास भी गया, उन्होंने कहा कि एक काम जरूर करो, दक्षिण भारत में अरुणाचल पर महर्षि रमण हैं, उन्हें बिना देखे मत चले जाना। लेकिन वहां नहीं गया जुंग। अहंकारी था। वह सोचता था, मैं तो सब जानता ही हूं मन के संबंध में। रमण के पास जाने से क्या होगा? रमण मुझे और क्या बता देंगे? वह तो सोचता होगा कि मैं ही रमण को कई बातें बता सकता हूं जो उनको पता नहीं होंगी। मन के संबंध में मैं जितना जानता हूं, कौन जानता है!
और मन के संबंध में जरूर ही जुंग खूब जानता था, लेकिन एक बात नहीं जानता था कि मन को कैसे मारा जाए। और मन के संबंध में जानना एक बात है और मन को मारना और बात है। नहीं गया रमण को मिलने। और भारत कोई आए और किसी हरिजन को बिना खोजे चला जाए तो समझना कि भारत आया ही नहीं। क्योंकि भारत न अजंता है, न एलोरा है, न ताजमहल है, न दिल्ली, न बंबई, न कलकत्ता। भारत अगर कहीं जीता है तो किसी हरिजन के हृदय की धड़कन में जीता है। भारत भूगोल नहीं है, इतिहास नहीं है। भारत तो किसी हरिजन के हृदय की धड़कन है। भारत अध्यात्म है। भारत तो, मनुष्य से जो बुलंदतर है, उसकी खोज का एक प्रतीक है। भारत राजनीति नहीं है। लेकिन भारत के तथाकथित राजनीतिज्ञ घसीट-घसीट कर उसे राजनीति की कीचड़ में डाल रहे हैं।
और हरिजन को तुम्हें खोजना पड़ेगा। प्यासे को कुएं के पास आना पड़ता है। कुआं चाहे भी तो भी प्यासे के पास नहीं जा सकता। और अगर चला भी जाए तो भी प्यासा ऐसे कुएं से पानी नहीं पीएगा जो उसके पास आ गया हो। वह तो दुत्कार देगा। प्यासा तो जब खोजता है और लंबी यात्राएं करता है और अनेक-अनेक तरह के कष्ट सहता है यात्रा में--चढ़ाइयों पर, पहाड़ों पर, पर्वतों पर, जहां पहुंचना दुर्लभ है पहुंचता है--तब प्यास जगती है! ज्वलंत प्यास! और तब पानी के स्वाद का और पानी में छिपे जीवन का पता चलता है। तभी पीने का मजा है।
पलटू हरिजन मिलन को, चलि जइए इक धाप।
हरिजन आए घर महैं, तो आए हरि आप।।
और खयाल रखना, अगर हरिजन के पैर तुम्हारे घर में पड़ जाएं, तुममें पड़ जाएं, तो स्वयं परमात्मा आ गया। क्योंकि हरिजन में और हरि में कोई भेद नहीं है। हरिजन में हरि से थोड़ा ज्यादा है। चौंकोगे तुम! हरि तो अप्रकट है। हरिजन अप्रकट भी है और प्रकट भी। हरिजन में हरि से थोड़ा ज्यादा है। हरि तो अदृश्य है। हरिजन अदृश्य भी और दृश्य भी। हरि तो बोलता नहीं, चुप है। हरिजन चुप भी है और बोलता भी। तो हरिजन में थोड़ा कुछ धन है; ऋण नहीं, थोड़ा धन।
और देर न करना, क्योंकि हरिजन जल्दी ही सरक जाएगा और हरि में विलीन हो जाएगा। कब यह बूंद कमल के पत्ते से सरक जाएगी और झील में खो जाएगी, नहीं कहा जा सकता। अब सरकी, अब सरकी। सरकी सरकी है। यह कभी भी हो सकता है। जरा सा हवा का झोंका आएगा और बूंद खो जाएगी। इसके पहले कि बूंद खो जाए झील में, देख लो उसके रूप को! भर लो उसके रूप से आंखें! देख लो उसके परम सौंदर्य को! उसके प्रसाद को पी लो जी भर कर! पलक-पांवड़े बिछा दो जब हरिजन का पता चले! बुला लाओ उसे, निमंत्रण दे दो! कोई भी कीमत चुकानी पड़े, चुका दो। लेकिन हरिजन के पैर के चिह्न तुम्हारे हृदय पर बन जाने दो।
हरिजन आए घर महैं, तो आए हरि आप।।
वृच्छा बड़ परस्वारथी, फरैं और के काज।
भवसागर के तरन को, पलटू संत जहाज।।
जैसे वृक्ष फलते हैं, लेकिन अपने लिए नहीं, सारे फल औरों के लिए--ऐसे ही संत भी फलते हैं, अपने लिए नहीं, सारे फल औरों के लिए। अपना काम तो पूरा हो चुका है। सच पूछो तो परार्थ तभी हो सकता है जब स्वार्थ पूरा हो चुका हो। जिसने स्वयं को जान लिया हो और स्वयं के अर्थ को जान लिया हो और स्वयं के अर्थ को सिद्ध कर लिया हो, उसमें से ही यह संभावना है कि अब ऐसे फल लगें जो दूसरों के हित लगें। जो आनंद को उपलब्ध हुआ है वह आनंद को बांट सकेगा। जिसके भीतर की वीणा बज उठी है, अब ये स्वर जाएंगे दूर-दूर! दूर-दूर तक जाएंगे! और जहां भी कोई हृदय थोड़ा भी जीवंत होगा उसमें तरंगें उठाएंगे। इन फूलों की गंध अब यात्रा करेगी हवाओं पर चढ़ कर, हवाओं का अश्व बनाएगी और जाएगी उन नासापुटों तक जिन्हें गंध की थोड़ी भी सुधि है, थोड़ा भी बोध है। यह जो दीया संत के भीतर जला है, यह जो हरि का दीया जला है जिससे वह हरिजन हो गया है, इसकी रोशनी जरूर पहुंचेगी उन आंखों तक जो देखने में समर्थ हैं, जो भीतर की तरफ मुड़ी हैं, जो अंतर्मुखी हैं।
और जब किसी व्यक्ति में फल लगने लगते हैं औरों के लिए, तभी समझना आदमी होना सफल हुआ। सफल शब्द प्यारा है। सफल का अर्थ है जिसमें फल लगे। और फल तो सदा दूसरों के लिए लगते हैं। संत ही सफल है; शेष सब तो निष्फल; शेष सब तो बांझ हैं।
आदमी हैं शुमार से बाहर
कहत है फिर भी आदमियत का
ऐसे तो भीड़ है आदमियों की और फिर भी आदमी की कमी है।
आदमी हैं शुमार से बाहर
कहत है फिर भी आदमियत का
दुनिया भरी है, भीड़ ही भीड़ है, चार अरब आदमी हैं, भीड़ रोज बढ़ती जा रही है। मगर आदमी कहां! खोजते फिरो तो एक भी आदमी मुश्किल से मिलता है। मिल जाए तो समझना हरिजन मिला।
वृच्छा बड़ परस्वारथी...
वृक्ष हैं, वे तो बड़े परस्वार्थी हैं।
...फरैं और के काज।
भवसागर के तरन को, पलटू संत जहाज।।
इस भवसागर से अगर तरना हो तो सिवाय संतों के कोई और नाव नहीं बन सकता, न कोई और माझी बन सकता है। जिन्होंने मझधार में डूब कर बे-किनारे वाले सागर का किनारा पा लिया है; जिन्होंने अपने में डूब कर, जिसे नहीं देखा जा सकता उसे देख लिया है--उनका ही सहारा मिल जाए। और उस सहारे के लिए कोई भी कीमत चुकानी पड़े तो कम है। जीवन भी देना पड़े तो कम है, क्योंकि जीवन तो वैसे ही चला जाएगा, वैसे ही जा रहा है।
पलटू तीरथ को चला, बीच मां मिलिगे संत।
एक मुक्ति के खोजते, मिलि गई मुक्ति अनंत।।
पलटू कहते हैं: मैं तो गया था तीर्थ की यात्रा को, मगर कृपा उसकी, अनुकंपा उसकी कि रास्ते में ही संत मिल गए, फिर तीरथ-वीरथ भूल गया। फिर तीरथ इत्यादि कौन पागल जाए! जीवित तीर्थ मिल गए!
पलटू तीरथ को चला, बीच मां मिलिगे संत।
एक मुक्ति के खोजते, मिलि गई मुक्ति अनंत।।
और पलटू ने कहा: हम तो सोचते थे एक मोक्ष मिलेगा, एक मुक्ति मिलेगी, तो धन्यभागी हो जाएंगे। लेकिन संतों को पाकर हमें अनंत मुक्ति मिल गई, अनंत मोक्ष मिल गए!
कुछ जज्बए-सादिक हो, कुछ इखलासो-इरादत
इससे हमें क्या बहस, वो बुत है कि खुदा है
असली बातों पर ध्यान दो!
कुछ जज्बए-सादिक हो...
कुछ सत्य की झलक हो। कुछ सत्य का प्रसाद हो, सौंदर्य हो। कुछ सत्य साकार हुआ हो।
कुछ जज्बए-सादिक हो...
निर्गुण सगुण बना हो, सत्य ने रूप धरा हो--उसी को हरिजन कहते हैं।
कुछ जज्बए-सादिक हो, कुछ इखलासो-इरादत
और कुछ प्रेम प्रकट हो रहा हो, ज्योतिर्मय हुआ हो। सत्य प्रकट हुआ हो और प्रेम प्रकट हुआ हो, बस। वही प्रेम प्रकट कर सकते हैं जिनके भीतर सत्य का दीया जला हो, बाकी तो सब प्रेम झूठ। सब बातें हैं। प्रेम तो तभी सच्चा हो सकता है जब तुम्हारे भीतर सत्य का पदार्पण हुआ हो। जब तुमने अपने को जाना हो तभी तुम औरों को प्रेम दे सकोगे, अन्यथा नहीं। अन्यथा प्रेम के नाम पर सब शोषण है।
कुछ जज्बए-सादिक हो, कुछ इखलासो-इरादत
इससे हमें क्या बहस, वो बुत है कि खुदा है
फिर कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम मस्जिद गए कि मंदिर। फिर कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुमने मूर्ति के सामने सिर झुकाया कि खुदा के सामने सिर झुकाया, कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारे पास समझ साफ होनी चाहिए। जहां सत्य हो और जहां प्रेम हो, जहां प्रेम की तरंगें आंदोलित हो रही हों, जहां सत्य की किरणें जगमगा रही हों--वहां झुक जाना।
तेरे कूचे में रह कर मुझको मर मिटना गवारा है
मगर दैरो-हरम की खाक अब छानी नहीं जाती
और एक बार हरिजन मिल जाए तो एक ही भाव उठता है फिर--
तेरे कूचे में रह कर मुझको मर मिटना गवारा है
अब तो तेरी गली में पड़ा-पड़ा मर जाऊं तो भी आनंद है।
तेरे कूचे में रह कर मुझको मर मिटना गवारा है
मगर दैरो-हरम की खाक अब छानी नहीं जाती
अब कौन जाए मस्जिद और मंदिर, काबा और कैलाश, और काशी और गिरनार! कौन खाक को छानता फिरे! जिसे हरिजन मिल गया उसे तो परमात्मा का द्वार मिल गया। अब सब तीर्थ फीके हैं और मुर्दा हैं। अब सब मंदिर खाली हैं, सब मस्जिदें सूनी हैं।
पलटू मन मूआ नहीं, चले जगत को त्याग।
ऊपर धोए क्या भया, भीतर रहिगा दाग।।
और पलटू कहते हैं: ध्यान रखना, जब तक मन न मर गया हो...
पलटू मन मूआ नहीं, चले जगत को त्याग।
तब तक जगत को त्याग कर भागने की कोशिश मत करना। जहां जाओगे वहीं जगत बन जाएगा। क्योंकि तुम्हारा मन ही तो जगत का सूत्र है। इस मन को लेकर तुम हिमालय पर भी बैठोगे तो जगत ही बनेगा। इस मन से जगत ही बन सकता है। यह मन संसार का मूल आधार है। तुम जहां बैठोगे वहीं यह मन उपद्रव करेगा, वहीं यह मन अपने फैलाव शुरू कर देगा। यह हर कहीं अपनी दुकान लगा लेगा। यह मन तो बनिया है, पलटू ने कहा। इस वणिक से सावधान रहना।
एक व्यक्ति मरने के करीब था। उसने अपने शिष्य से कहा कि देख, बिल्ली भर मत पालना। मरते वक्त! शिष्य ने पूछा, गुरुदेव, इस सूत्र का अर्थ भी समझा जाइए! किससे पूछूंगा? वेद के ज्ञाता हैं, उपनिषद के ज्ञाता हैं, गीता के ज्ञाता हैं। लेकिन यह, बिल्ली मत पालना, यह कौन सा अध्यात्म? लोग हंसेंगे अगर मैं किसी से पूछूंगा। इसका अर्थ बता जाइए जाने के पहले जल्दी से।
गुरु ने कहा, अब तू पूछता है तो बताए देते हैं। मेरे गुरु जब मरे थे तो मुझे यही कह गए थे कि बिल्ली मत पालना। लेकिन मैंने उनसे अर्थ नहीं पूछा। तू ज्यादा होशियार है, तू अर्थ पूछ रहा है। और मैंने उनकी बात पर कुछ ध्यान नहीं दिया, मैंने समझा सठिया गए हैं। बूढ़े हो गए थे काफी। ब्रह्मज्ञान की चर्चा करते-करते, यह भी कोई बात है--बिल्ली मत पालना! लेकिन तूने पूछा तो ठीक किया, मैं तुझे अपनी कहानी कह दूं। गुरु तो कह गए थे कि बिल्ली मत पालना, मैंने कुछ ध्यान दिया नहीं, मैं तो हंसा। मैंने कहा, हो गए बिलकुल...दिमाग से गए, काम से गए, इनकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई। यह कोई बात है! आई-गई हो गई। मैंने बात विस्मरण कर दी। फिर मैं जंगल में ध्यान करने लगा, तपश्चर्या करने लगा। लेकिन रोज मुझे गांव भिक्षा मांगने जाना पड़ता। और जब मैं गांव जाता तो चूहे मेरी लंगोटी कुतर जाते। जब तक मैं रहता तो लंगोटी पर नजर रखता, डंडा लिए बैठा रहता। लेकिन आखिर भीख मांगने मुझे जाना ही पड़ता गांव और चूहे कुतर जाते। या रात कभी मैं सोता तो चूहे कुतर जाते। मैंने गांव के लोगों से पूछा कि इन चूहों का क्या करें?
उन्होंने कहा, इसमें क्या है! एक बिल्ली पाल लो।
मैं अभागा कि मुझे तब भी याद न आई कि मेरा गुरु मुझसे कह गया है कि बिल्ली भर मत पालना। मैंने गांव वाले मूढ़ों की बात मान ली। गुरु को तो मैंने समझा सठिया गए हैं और गांव वालों को समझा कि समझदार हैं, सयाने हैं। बात तो सीधी है, एक बिल्ली पाल लो। बात खतम, बिल्ली चूहे खा जाएगी। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। सो मैं एक बिल्ली पाल लिया।
बिल्ली चूहे तो खा गई, लेकिन एक झंझट, अब बिल्ली के लिए मुझे दूध मांगने जाना पड़ता। क्योंकि बिल्ली को कुछ खाने को तो चाहिए, नहीं तो बिल्ली मर जाए। बिल्ली मरे, चूहे फिर आ जाएं।
गांव के लोग भी थक गए। उन्होंने कहा कि महाराज, एक काम करो, हम आपको एक गाय ही भेंट दिए देते हैं। आप वहीं गाय रख लो, आप भी पीओ दूध, बिल्ली भी पीए दूध। यह रोज-रोज दूध मांगते फिरना और भिक्षा!
बात जंची, गाय पाल ली। मगर गाय के लिए घास लेने फिर गांव वालों के सामने...।
गांव वालों ने कहा कि महाराज, आप पीछा ही नहीं छोड़ते। अब आप घास के लिए आने लगे! अरे इतनी जमीन पड़ी है जंगल में, हम साफ-सुथरी कर देते हैं। थोड़े में गेहूं बो दो, थोड़े में घास ऊगने दो। गाय के काम आ जाएगी घास, तुम्हारे काम आ जाएंगे गेहूं। आने की जरूरत न रहेगी।
बात जंची। फिर भी याद न आई कि बूढ़ा गुरु कह गया था कि बिल्ली मत पालना। अब तो बात बिल्ली से बहुत आगे भी निकल चुकी थी। सो गांव वालों ने जमीन साफ कर दी, कुछ में घास उगवा दिया, कुछ में गेहूं डलवा दिए, कुछ में चावल, दालें। मगर यह फैलाव बड़ा हो गया, अकेले से सम्हले नहीं। पानी भी सींचना है, रखवाली भी करनी है, जानवरों से भी बचाना है। गांव वालों से कहा कि भइया, एक बहुत झंझट बढ़ा दी। अब तपश्चर्या, ध्यान इत्यादि का मौका ही नहीं मिलता। चौबीस घंटे ये खेत के पीछे लग जाते हैं।
गांव वालों ने कहा, ऐसा करो, एक विधवा है गांव में...
देखते हो बिल्ली कहां तक पहुंची! चीजें ऐसे चलती हैं, बिल्ली से विधवा हो गई।
बड़ी साध्वी है, सच्चरित्र है। अकेली है, उसका कोई है भी नहीं। शरीर से भी मजबूत है। आप विधवा को वहीं अपने आश्रम पर रख लो। वह खेती-बाड़ी भी जानती है, आप जानते भी नहीं खेती-बाड़ी, वह खेती-बाड़ी भी कर देगी, आपकी भी सेवा कर देगी, सुख-दुख में काम पड़ेगी, भोजन भी बना देगी, गाय की भी फिक्र कर लेगी। किसान की बेटी है। और आप अपनी तपश्चर्या इत्यादि जो करना है सो करना, वह सब सम्हाल लेगी।
यह बात जंची। और फिर जो होना था सो हुआ। फिर विधवा से धीरे-धीरे प्रेम हो गया। विधवा पैर भी दबाए, रोटी भी खिलाए, स्नान भी करवाए। स्वभावतः, प्रेम हो गया। फिर बच्चे हुए। जो होना था सो हुआ! बिल्ली कहां तक पहुंची! फिर बच्चों के विवाह करने पड़े। बात बढ़ती ही गई, बढ़ती ही गई, बढ़ती ही गई। इस दुनिया में बात कोई रुकती ही नहीं, बढ़ती ही चली जाती है। फिर बात में से बात, बात में से बात।
तो उस मरते हुए गुरु ने कहा कि देख, तुझे मैं समझाए जाता हूं। यह मत समझना कि मैं सठिया गया हूं। बिल्ली भर मत पालना। यह भूल मैंने की, जिंदगी गई यह। अगली जिंदगी खयाल रखूंगा कि बिल्ली नहीं पालनी।
मन साथ होगा तो बिल्ली नहीं पालोगे तो कुत्ता पालोगे। इससे क्या फर्क पड़ने वाला है कि क्या पालोगे? कुछ पालोगे। मन होगा, खेती न करोगे तो दुकान करोगे; फिर चाहे वह दुकान पूजा की ही क्यों न हो, यज्ञ-हवन की ही क्यों न हो। मन कुछ न कुछ करवाएगा। मन बिना कर्ता हुए नहीं रह सकता है। मन के प्राण ही उसके कर्ता होने में हैं।
इसलिए पलटू ठीक कहते हैं:
पलटू मन मूआ नहीं, चले जगत को त्याग।
ऊपर धोए क्या भया, भीतर रहिगा दाग।।
ऊपर-ऊपर धोते रहोगे, तुम्हारा त्याग सब ऊपर-ऊपर रहेगा और भीतर तो दाग बना ही हुआ है। दाग यानी मन। मन को धोना है। मन को ऐसा धोना है कि बह ही जाए।
लेकिन यह भूल हुई है। और अब भी जारी है। और लगता नहीं कि आगे भी रुकेगी। लोग मन से तो मुक्त होते नहीं और संसार से भाग खड़े होते हैं।
भगवानदास भारती ने लिखा है कि मैं आचार्य तुलसी से मिला, तो जिसे भगवान बुद्ध ने विपस्सना कहा है और जिस प्रयोग को आप फिर से पुनरुज्जीवित कर रहे हैं, उसी को उन्होंने नया नाम दे दिया है--प्रेक्षा। और वही का वही ध्यान, सिर्फ नाम बदल दिया और वही का वही ध्यान लोगों को करवाते हैं। और वह भी ठीक से नहीं करवा पाते, क्योंकि खुद कभी किया हो तो ठीक से करवा पाएं।
भगवानदास ने देखा उसमें भी भूलें हो रही हैं, उसमें भी कुछ का कुछ समझा रहे हैं। तो पूछा कि महाराज, आपको ध्यान हुआ? आप ध्यान करके करवा रहे हैं?
तो उन्होंने कहा, पूरा चाहे न हुआ हो, कुछ न कुछ तो हुआ ही होगा!
उत्तर सुनते हो? पूरा चाहे न हुआ हो, कुछ न कुछ तो हुआ ही होगा। वह भी पक्का नहीं है! वह भी अनुमान है कि कुछ न कुछ तो हुआ ही होगा। ये कोई ज्ञानियों के वक्तव्य हैं? ये निर्बल नपुंसक वक्तव्य! ज्ञानी कहता है अपने अधिकार से कि ऐसा मैंने जाना है। मैं आया हूं होकर उस पार। तो बैठो मेरी नाव में!
अब ये कहते हैं, उस पार न पहुंचे होंगे तो कुछ न कुछ तो पहुंचे ही होंगे। पूरे न पहुंचे होंगे...
ध्यान भी कहीं पूरा और अधूरा होता है?
मैंने सुना है, दूसरे महायुद्ध में एक अंग्रेज सेनापति ने तोप से एक हवाई जहाज गिराया। और सब तो मर गए, लेकिन पायलट बच गया। वह भी जर्मन सेना का उतना ही बड़ा अधिकारी था जितने बड़े अधिकारी ने अंग्रेजी सेना के जहाज को गिराया था। उसे जिंदा देख कर अंग्रेज सेनापति ने उसे अस्पताल में भर्ती किया, उसकी बड़ी सेवा की। लेकिन चोटें बहुत लगी थीं उसे, उसका एक पैर काटना पड़ा। अंग्रेज सेनापति ने पूछा कि मैं कुछ सेवा कर सकता हूं?
तो उसने कहा, इतना भर करो, एक ही आकांक्षा है मेरी कि अपने देश की भूमि में ही दफनाया जाऊं। यह मेरा पैर तुम पार्सल से जर्मनी भेज दो मेरे घर।
पैर भेज दिया गया। फिर उसका एक हाथ भी काटना पड़ा। फिर पूछा अंग्रेज सेनापति ने तो उसने कहा, यह हाथ मेरा पार्सल से घर भिजवा दो। हाथ भेज दिया गया। फिर दूसरा हाथ कटा, वह भी भेज दिया। फिर दूसरा पैर कटा, वह भी भेज दिया। जब यह चौथी बार पैर को भेजा जाने लगा तो अंग्रेज सेनापति ने उस जर्मन सेनापति से कहा, मित्र, एक बात बताओ। ऐसे धीरे-धीरे करके तुम भागने की कोशिश तो नहीं कर रहे हो? एक पैर भेज दिया, फिर एक हाथ भेज दिया, फिर एक पैर भेज दिया, अब चौथा भी भेजने लगे। कल कहोगे सिर भेज दो, परसों कहोगे अब धड़ भेज दो। तुम भागने की कोशिश तो नहीं कर रहे हो?
आचार्य तुलसी कहते हैं, पूरा न हुआ होगा, कुछ न कुछ तो हुआ होगा। एक हाथ को ध्यान हो गया, एक पैर को हो गया, फिर यह दूसरी टांग को हो गया, फिर एक कान को हो गया, फिर एक... इस तरह होतेऱ्होते पूरा हो जाएगा। जैसे ध्यान के भी कोई खंड होते हैं! ध्यान या तो होता है या नहीं होता। सौ डिग्री पानी गरम होता है तो तत्क्षण भाप हो जाता है। निन्यानबे डिग्री तक भाप नहीं होता, पानी ही है। गरम है, खूब गरम है, लेकिन भाप नहीं हुआ है। सौ डिग्री पर तत्क्षण भाप हो जाता है। फिर ऐसा नहीं कि फिर थोड़ा सा भाप हुआ और थोड़ा सा नहीं हुआ और फिर थोड़ा सा हुआ और थोड़ा सा नहीं हुआ। सौ डिग्री पर जैसे ही कोई बूंद पहुंचती है, तत्क्षण छलांग लग जाती है।
ध्यान की कोई क्रमिकता नहीं होती। हां, ध्यान के पहले तैयारी की क्रमिकता होती है--कि कोई पचास डिग्री गरम है, कोई साठ डिग्री गरम है, कोई सत्तर डिग्री गरम है। मगर ये सब गैर-ध्यान की अवस्थाएं हैं। निन्यानबे डिग्री जो गरम है वह भी अभी ध्यान में नहीं है; उतने ही गैर-ध्यान में है जितना शून्य डिग्री वाला। हां, ध्यान की छलांग के करीब ज्यादा है, मगर छलांग अभी नहीं हुई। छलांग या तो लगती है या नहीं लगती।
भगवानदास, अब मिलो आचार्य तुलसी को तो कहना, महाराज, कितना परसेंट हुआ, यह और बता दें। कुछ न कुछ? और वह भी नहीं कहते कि कुछ न कुछ हो ही गया है; वह भी कहते हैं कुछ न कुछ तो हुआ ही होगा, तभी तो समझाते हैं। उसका भी खुद भरोसा नहीं है!
और इस तरह के बेईमान--साधु हैं, संत हैं, मुनि हैं, महात्मा हैं! आचार्य तुलसी सात सौ साधुओं के गुरु हैं। इनको खुद ध्यान का पता नहीं है और सात सौ लोगों को ये नेतृत्व दे रहे हैं! अंधा अंधा ठेलिया, दोनों कूप पड़ंत। ये खुद तो गिरेंगे किसी कुएं में और यह सात सौ की कतार, यह भी इनके साथ कुएं में जाएगी। और अगर मैं सच कहता हूं तो खलती है बात, अखरती है बात।
भगवानदास को उन्होंने कहा कि तुम्हारे गुरु मुझे गालियां देते हैं।
गालियां नहीं दे रहा हूं। अब बेईमान को बेईमान कहने में कोई गाली है? क्या बेईमान को ईमानदार कहना पड़े? मैं तो जैसा है वैसा ही कह रहा हूं। अंधे को, चलो अच्छी भाषा में कहो सूरदासजी कहो, और क्या कहो! लेकिन जब तुम सूरदासजी कह रहे हो तब भी तुम कह तो यही रहे हो कि भइया, हो तो अंधे ही, मगर कोई झगड़ा-फसाद खड़ा न हो, इसलिए सूरदासजी कह रहे हैं। अंधे को क्या आंख वाला कहना पड़ेगा? मैं किसी शिष्टाचार में बंधा हुआ नहीं हूं। सत्याचार! शिष्टाचार नहीं। जैसा है वैसा ही कहूंगा। वैसा का वैसा। किसी को चोट लगे, लगे। अच्छा है चोट लग जाए तो। चोट लग जाए तो शायद थोड़ी जाग आए।
आचार्य तुलसी मुझे मिले थे तो मुझसे भी पूछ रहे थे कि ध्यान कैसे करूं? ध्यान इत्यादि कुछ कभी नहीं किया है। और मुझसे भी जो पूछ रहे थे तो उनके पूछने का ढंग जिज्ञासु का नहीं था। वही बेईमानी, वही दुकानदारी। क्योंकि जब मैं उन्हें समझा रहा था, तब उनकी समझने में उत्सुकता नहीं थी। उनके पास ही बैठे हुए मुनि नथमल, जिनको मैं मुनि थोथूमल कहता हूं--क्योंकि मैंने बहुत मुनि देखे, मगर इनसे थोथा मुनि नहीं देखा--वे मुनि थोथूमल को कहते जाते थे: नोट करो! नोट करो! मैं क्या कह रहा था, उस पर न ध्यान था, न उसे समझने की चेष्टा थी। फिक्र यह थी कि थोथूमल नोट कर लें। क्योंकि फिर थोथूमल ध्यान-शिविर लेने लगेंगे और लोगों को ध्यान समझाने लगेंगे। अब थोथूमल ध्यान-शिविर लेते हैं और लोगों को ध्यान समझाते हैं।
फिर मुझे आचार्य तुलसी ने कहा कि हमारे साधु-साध्वियों को आप ध्यान करवाएं।
मैंने कहा कि मैं चकित हूं, साधु हैं, साध्वियां हैं आपकी, आप हैं, बिना ध्यान के आप साधु-साध्वी हो कैसे गए? और आप तो साधु-साध्वियों के आचार्य हैं, उनके गुरु हैं! बिना ध्यान के यह बात ही अजीब है। यह तो ऐसा ही है कि न कभी दंड लगाए, न कभी बैठक लगाई और पहलवान हो गए! तो फिर हालत वही होगी कि एक पहलवान एक डाक्टर के पास गया और उसने कहा कि मैं पहलवान हूं। डाक्टर ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा और उसने कहा, पहलवान? तुम और पहलवान? एक मसल तो कहीं दिखाई पड़ती नहीं!
उसने कहा, इसीलिए तो आपके पास आया हूं कि मैं पहलवान हूं, अर्थात पहलवान होना चाहता हूं। कोई ऐसी दवा दो, कोई टानिक, कि मेरी भी मसलें उभर आएं।
डाक्टर ने टानिक दिया। तीन दिन बाद उस आदमी का फोन आया कि और तो सब ठीक है, मगर मैं उसका कार्क नहीं खोल पा रहा हूं। अब मसल ही नहीं है! जो टानिक आपने दिया, वह पता नहीं, तीन दिन हो गए कोशिश कर रहा हूं, कार्क नहीं खुलता।
ऐसे ही तुम्हारे साधु-महात्मा हैं। कार्क खुलता नहीं, पहलवान होने का खयाल है।
मुझसे कहा, मेरे साधु-साध्वियों को ध्यान करवाएं। मैंने कहा, मैं जरूर करवा दूंगा। लेकिन सारी चेष्टा एक ही थी कि किसी तरह ध्यान के संबंध में कुछ समझ में आ जाए--कैसे करवाया जाता है, कैसे किया जाता है। करना नहीं है, लेकिन कैसे करवाया जाए!
शुरू करवा दिया, नाम बदल लिया। मैंने विपस्सना समझाया था, उन्होंने उसका नाम प्रेक्षा कर लिया। यह केवल शाब्दिक अनुवाद है। विपस्सना का अर्थ होता है: देखना। और प्रेक्षा का अर्थ भी होता है: देखना। तो नाम बदल लिया। नाम बदलने से लोगों को ऐसा लगता है कि कोई नई चीज है, क्योंकि प्रेक्षा का कहीं कोई शास्त्रों में उल्लेख नहीं है। नया शब्द गढ़ लिया। शब्द गढ़ने में क्या लगता है! वही जो मैं उनसे कह आया था वे करवा रहे हैं।
और भगवानदास, तुमने जो गलतियां देखीं, अब तुमसे क्या छिपाना! तुम्हें बताए देता हूं। वे गलतियां भी मैं उनको बता आया था। वे उन्होंने नोट कर ली थीं। उसमें उनका कसूर नहीं है। वह मेरा मजाक था। वह मैं यह देख रहा था कि होता क्या है अब! वे गलतियां भी करवाएंगे, क्योंकि वे उनके नोट्स में हैं। और उन गलतियों से बचने का उनके पास कोई उपाय नहीं है। वे लाख उपाय करें तो भी पता नहीं लगा सकते कि कौन-कौन सी गलतियां मैंने उनको नोट करवाई हैं। जब तक वे ध्यान न करें, उनको गलतियों का पता नहीं चलेगा।
इसलिए मैं यहां बैठे-बैठे जान लूंगा, जिस दिन वे गलतियां छोड़ देंगे, उसका अर्थ होगा कि उन्हें ध्यान का अब स्वयं अनुभव होना शुरू हुआ। जरा सी भूल पकड़ा दो, वह भूल ऐसी होती है जो कि परीक्षा बन जाती है। वह आदमी तभी तक पकड़े रहेगा जब तक उसको स्वानुभव न हो जाए। स्वानुभव होते से ही भूल छोड़ देगा।
पलटू मन मूआ नहीं, चले जगत को त्याग।
ऊपर धोए क्या भया, भीतर रहिगा दाग।
भीतर है असली दाग। मन जीवन को, सत्य को विकृत करता है। मन हर चीज को विकृत करता है। मन हर चीज को अपने रंग में, अपने ढंग में ढाल देता है। मन वही समझ सकता है जो समझ सकता है। तो मन अगर गीता पढ़े तो कृष्ण को नहीं समझता, अपने अर्थ निकालता है; कुरान पढ़े तो अपने अर्थ निकालता है।
चंदूलाल मुल्ला नसरुद्दीन से बोला, मुल्ला, मैं बहुत कम बोलने वाला आदमी हूं।
नसरुद्दीन ने कहा कि हां, वैसे तो शादी मेरी भी हो चुकी है।
तुम क्या अर्थ लोगे सुन कर, यह तुम पर निर्भर है।
शराबखाने में बैठे ढब्बूजी ने अपने जिगरी दोस्त चंदूलाल को बताया कि आजकल कम शराब पीने की मैंने नई तरकीब ईजाद की है। टेबल पर सामने ही घड़ी रख लेता हूं। घड़ी को देख कर ही शराब पीता हूं।
अरे, यह तो कुछ भी नहीं यार--चंदूलाल ने अपनी चांद पर हाथ फेर कर कहा--अगर मेरा बस चले तो मैं घड़ी तो क्या घड़ा सामने रख कर पीऊं!
ढब्बूजी की पत्नी धन्नो मायके गई हुई थी। ढब्बूजी ने खाली समय व्यतीत करने के लिए संगीत सीखना शुरू कर दिया। एक सुबह वे संगीत का अभ्यास करने में तल्लीन थे, आलाप जारी था, अभी एक घंटा भी न हुआ होगा कि किसी ने दरवाजा पीटना शुरू कर दिया। सुरों की गहराई में डूबे हुए ढब्बूजी उठे, दरवाजा खोला, तो एक पुलिस इंस्पेक्टर पिस्तौल ताने गुर्राते हुए बोला, मुझसे न बच सकोगे। बड़े-बड़े सूरमा मेरे नाम से थर्राते हैं। भागने की कोशिश मत करना। जल्दी बताओ, लाश कहां है? किधर छुपाई है? यह सब इंस्पेक्टर एक सांस में कह गया।
हकबकाए से ढब्बूजी बामुश्किल बोले कि आखिर बात क्या है?
इंस्पेक्टर ने कहा, ज्यादा बनो मत। अभी-अभी तुम्हारे पड़ोसी ने सूचना दी है कि तुमने राग बागेश्वरी की हत्या कर दी है।
अब पुलिस इंस्पेक्टर बेचारा...राग बागेश्वरी, और मुहल्ले वालों ने कहा, हत्या कर रहा है ढब्बू का बच्चा।
वही तो समझोगे न तुम जो समझ सकते हो! वही तो करोगे न तुम जो कर सकते हो! पहले इस समझने वाले और करने वाले मन को विदा कर दो। न कर्ता रह जाए तुम्हारे भीतर, न भोक्ता। तब तुम्हारे भीतर शुद्ध चैतन्य रह जाएगा--दर्पण की भांति निर्मल! उसमें वही झलकेगा जो है, वैसा का वैसा जैसा है। फिर तुम्हारे जीवन में एक नई क्रांति घटती है। सत्य जब तुममें झलकता है, बिना तुम्हारे मन के बीच में आए, तब तुम्हारे जीवन में अपने आप उस सत्य के अनुसार आचरण शुरू होता है। ध्यान पहले, फिर ज्ञान। ध्यान पहले, फिर साधुता। ध्यान पहले, फिर आचरण। ध्यान पहले, फिर मुनित्व।
सीस नवावै संत को, सीस बखानौ सोय।
पलटू जो सिर न नवै, बेहतर कद्दू होय।।
अब आचार्य तुलसी कहेंगे कि गाली दे रहे हैं पलटूदास। कह रहे हैं कि कद्दू है वह सिर जो संत के चरणों में न झुके। और मुझसे तुम पूछो तो मैं कहूंगा सड़ा कद्दू! क्योंकि कद्दू भी कुछ काम आ जाए।
सीस नवावै संत को, सीस बखानौ सोय।
पलटू कहते हैं: वही सिर सिर कहने के योग्य है। उसकी ही महिमा गाने योग्य है। उसकी स्तुति करने योग्य है। उस पर निछावर करो जो भी तुम कर सको। लेकिन वही शीश जो झुक जाए! बुद्धत्व को देख कर, किसी जले हुए दीये को देख कर, जो झुके तो फिर उठे नहीं।
चारागर, मस्त की दुनिया है जमाने से जुदा
होश में आ कि जहां हम हैं वहां होश नहीं
एक ऐसा भी होश है, जहां होश भी नहीं, जहां होश का भी कोई अहंकार नहीं निर्मित होता। मस्त की दुनिया है जमाने से जुदा! इन्हीं मस्तों को संत कहा है। इन्हीं पियक्कड़ों को संत कहा है--जिन्होंने परमात्मा के घाट से ऐसा पीया, ऐसा पीया कि होश है, मगर होश का भी पता नहीं!
और जिन्होंने ऐसा नहीं किया उनकी जिंदगी...उनकी जिंदगी बस ऐसी है--
हिचकियों पे हो रहा है जिंदगी का राग खत्म
झटके देकर तार तोड़े जा रहे हैं साज के
जिंदगी बस यूं ही, ढोते रहे एक लाश।
हिचकियों पे हो रहा है जिंदगी का राग खत्म
कुछ हाथ में उपलब्धि नहीं, भीतर सब कोरा-कोरा। हिचकियों पर जिंदगी खत्म हो रही है, बुद्धत्व पर नहीं।
हिचकियों पे हो रहा है जिंदगी का राग खत्म
झटके देकर तार तोड़े जा रहे हैं साज के
जबरदस्ती मौत छीन कर ले जा रही है प्राणों को। तुम पकड़ रहे देह को, तुम पकड़ रहे मन को। और मौत है कि झटके देकर ले जा रही है। यमदूत खड़े हैं और लिए जा रहे हैं।
जिंदगी या तो, झटके देकर जैसे तार तोड़े जाएं, इस तरह नष्ट होती है; या जिंदगी, जैसे कि सुगंध आकाश में उठे, ऐसे विलीन होती है। मगर जो संतों के सामने झुक जाएगा...। संत तो सिर्फ बहाना हैं, निमित्त हैं, कि किसी तरह तुम्हारा सिर झुकने की कला सीख ले।
सीस नवावै संत को, सीस बखानौ सोय।
पलटू जो सिर न नवै, बेहतर कद्दू होय।।
और तुम्हारे शीश झुकाते ही एक क्रांति घटती है, तुम्हारे भीतर आसमान झांकने लगता है। तुम छोटे नहीं रह जाते, तुम विराट के साथ संयुक्त हो जाते हो। तुम छोटे हो तभी तक जब तक अकड़े हो; जब तक कहते हो मैं-मैं-मैं! जब तक यह मैं है तब तक तुम क्षुद्र हो। जिस दिन कह सकोगे मैं नहीं, उसी दिन विराट हो गए; सीमा गई, परिभाषा गई।

आज कोई सतरंगा बादर
नीले खालीपन पर उभरे।

खिड़की के सूनेपन में
सारा सूर्योदय यों शरमाए
जैसे अधर-धरी अनबोली
कोई कथा नयन पा जाए
धूप मुंडेरों से सहमी सी
धीरे-धीरे जीना उतरे।

एक समूचा स्वर सपनों का
तन-मन पर ऐसे छा जाए
जनम-जनम अनखिली डाल को
ज्यों सारा मौसम दुलराए।
तट पर एक विहग अनमन सा
लहराई आतुरता कुतरे।

आज कोई सतरंगा बादर
नीले खालीपन पर उभरे।

जब तुम झुकते हो, तब तुम सिर्फ एक शून्य रह गए। इस शून्य में पूर्ण उतर सकता है। तुमने जगह खाली कर दी, तुमने सिंहासन छोड़ दिया। अब परमात्मा इस सिंहासन पर विराजमान हो सकता है।
सुनिलो पलटू भेद यह, हंसि बोले भगवान।
दुख के भीतर मुक्ति है, सुख में नरक निदान।।
पलटू कहते हैं कि जब मैं झुका, जब से झुका, तब से गुरु की वाणी गुरु की वाणी नहीं है; तब से गुरु से भगवान ही मुझसे बोलता है।
सुनिलो पलटू भेद यह...
और बड़े भेद खोलता है, भेदों पर भेद खोलता है!
...हंसि बोले भगवान।
दुख के भीतर मुक्ति है, सुख में नरक निदान।
यह बात महत्वपूर्ण है, जीवन के गहरे सूत्रों में से एक। दुख में क्यों मुक्ति है? क्योंकि दुख में दो खूबियां हैं। पहली तो खूबी यह कि तुम दुख से छूटना चाहते हो। दूसरी खूबी यह कि तुम दुख के साथ तादात्म्य करना कठिन पाते हो; दुख का साक्षी होना आसान है। क्योंकि तुम उससे छूटना चाहते हो, उससे बंधना नहीं चाहते, इसलिए साक्षी होना आसान है। साक्षी छूटने का उपाय है। तादात्म्य नहीं कर सकते तुम दुख के साथ, क्योंकि तादात्म्य बंधने का उपाय है।
दुख के भीतर मुक्ति है...
इसलिए ठीक है यह सूत्र कि दुख के भीतर मुक्ति है, अगर तुम दुख का राज समझ लो। और
सुख में नरक निदान।
और सुख में नरक है। क्यों? क्योंकि सुख में तुम तादात्म्य कर लेते हो। और सुख से तुम छूटना नहीं चाहते, बंधना चाहते हो।
दुख ऐसे है जैसे लोहे की जंजीर--भारी, कांटों वाली, कि चुभती है, घाव करती है, बोझिल है, ढोना मुश्किल है। घड़ी-घड़ी याद दिलाती है कि मैं कारागृह में हूं, कि मैं कैदी हूं; कि घड़ी-घड़ी अपमान अनुभव होता है। और सुख? सुख ऐसे है जैसे सोने की जंजीर, हीरे-जवाहरातों मढ़ी। लगता है जैसे मैं सम्राट हूं। बचाना चाहोगे तुम हीरे-जवाहरातों से जड़ी सोने की जंजीरों को। आभूषण कहोगे तुम उनको, जंजीर कहोगे ही नहीं। इसलिए सुख में आदमी परमात्मा को भूल जाता है, दुख में याद करता है। सुख में जरूरत ही क्या है!
एक बच्चे से स्कूल में पूछा गया कि तू परमात्मा को याद करता है?
उसने कहा, हां, रात रोज याद करता हूं। याद करते-करते ही सोता हूं।
उससे पूछा गया, सिर्फ रात में ही याद करता है, कभी दिन में?
उसने कहा, दिन में कभी याद नहीं करता।
पूछने वाले ने कहा कि ठीक से मुझे समझा, रात में ही क्यों याद करता है, दिन में क्यों नहीं?
उसने कहा, रात में मुझे डर लगता है और दिन में मुझे डर लगता ही नहीं।
अंधेरी रात हो और डर लगता हो, तो तुम भी परमात्मा की याद करने लगते हो।
अभी-अभी निरंजना जर्मनी से वापस लौटी। बंबई में चूंकि एयरपोर्ट जल गया था, इसलिए चार दिन उसे दक्षिण में कहीं पड़े रहना पड़ा। और जब हवाई जहाज मिला तो भयंकर तूफान, आंधी, बादल, बिजलियां, और उन्हीं में से हवाई जहाज का गुजरना! उसने तो सोचा कि खात्मा समझो, अब पहुंचना मुश्किल है। इस तरह की बिजलियां कड़क रही हैं हवाई जहाज के चारों तरफ, इस तरह बादल गरज रहे हैं और भयंकर धुआंधार वर्षा! और हवाई जहाज कभी नीचा, कभी ऊंचा, सैकड़ों फीट नीचे-ऊपर हो रहा है। मैंने उससे पूछा, तूने क्या किया फिर?
उसने कहा, और क्या करती! जल्दी से माला हाथ में ले ली, आपको खूब याद किया कि बस इस बार बचा लो, अब कभी जर्मनी न जाऊंगी!
दुख में याद आती है। शायद जर्मनी तीन सप्ताह रही, एक भी दिन माला न पकड़ी हो, जरूरत ही क्या है!
दो बच्चे बात कर रहे थे। एक बच्चे ने कहा कि हम जब भोजन के लिए बैठते हैं...तो ईसाइयों में पहले प्रार्थना की जाती है...तो हम प्रार्थना करते हैं, फिर भोजन करते हैं। तुम भी प्रार्थना करते हो?
उसने कहा कि नहीं, हमारी मां भोजन इतना अच्छा पकाती है कि कोई प्रार्थना करने की जरूरत नहीं। तुम्हारा मां का भोजन मैंने खाया है, बिना प्रार्थना किए कोई खा ही नहीं सकता। असल में, तुम्हारे पिताजी मरे क्यों? यह तुम्हारी माता जी का भोजन! तो कोई भी प्रार्थना करेगा, तुम्हारी माता जी का भोजन देखते ही प्रार्थना उठती है। मैं भी जब तुम्हारे घर भोजन करने आता हूं तो मैं भी प्रार्थना करता हूं कि हे प्रभु, आज बचा लो!
मुल्ला नसरुद्दीन कह रहा था चंदूलाल से, चंदूलाल, कुछ स्त्रियां ऐसे कपड़े पहनती हैं कि पुरुषों के प्राण निकलते हैं।
चंदूलाल ने कहा, हां, कुछ स्त्रियां भोजन भी ऐसा ही पकाती हैं।
दुख में याद; सुख में स्मरण भूल जाता है।
दुख के भीतर मुक्ति है, सुख में नरक निदान।।
बिन खोजे से न मिलै, लाख करै जो कोय।
पलटू दूध से दही भा, मथिबे से घिव होय।।
यहां एक महत्वपूर्ण सूत्र है जो विरोधाभासी लग सकता है और तुम्हें चिंता में डाल सकता है। संतों के बहुत से वक्तव्य विरोधाभासी होते हैं। मजबूरी है। सत्य ही कुछ ऐसा है कि विरोधाभास के बिना उसे प्रकट नहीं किया जा सकता। अब इन दो सूत्रों को साथ-साथ लो।
ना मैं किया न करि सकौं, साहिब करता मोर।
करत करावत आपु है, पलटू पलटू सोर।।
न मैं कुछ करता हूं, न कुछ कर सकता हूं; जो कुछ करता है, मालिक करता है। खुद करता-कराता है और पलटू-पलटू का शोर होता है।
अब इस दूसरे सूत्र को लो--
बिन खोजे से न मिलै, लाख करै जो कोय।
पलटू दूध से दही भा, मथिबे से घिव होय।
बिना खोजे नहीं मिलेगा, खोज करनी पड़ेगी। बिना खोजे तुम लाख आशा रखते रहो, बैठे रहो, नहीं मिलेगा। दूध से दही तो शायद अपने आप हो भी जाए; दूध रखा-रखा दही हो जाता है, फट जाए; मगर दही से घी अपने आप नहीं होता।
मथिबे से घिव होय।
और जब तक मथोगे नहीं, मंथन न करोगे, तब तक तुम्हारे भीतर भी आत्मा पैदा न होगी, परमात्मा का अवतरण न होगा।
ये सूत्र उलटे दिखाई पड़ेंगे। बस दिखाई पड़ते हैं, उलटे हैं नहीं। इन्हें समझ लो। पहली बात: जितना तुमसे बन सके, पूरा-पूरा करो। नहीं तो तुम्हारा न करना केवल आलस्य होगा, परमात्मा के प्रति समर्पण नहीं। और आलस्य समर्पण नहीं है। पहले सूत्र में खतरा है कि तुम आलसी हो जाओ।
ना मैं किया न करि सकौं, साहिब करता मोर।
करत करावत आपु है, पलटू पलटू सोर।।
तो तुम कहोगे: फिर क्या करना ध्यान? और क्या पूजा और क्या प्रार्थना और क्या अर्चना? और क्या खोज? क्यों सिर मारें विपस्सना में? क्यों परेशान हों? फिर जब वही करने वाला है तो जब करेगा तब करेगा। जैसी उसकी मर्जी! यह आलस्य बन सकता है। इसी तरह मलूक का वचन आलसियों के लिए आधारभूत हो गया। मलूक ने कहा है--
अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।
कि न तो अजगर नौकरी करता है, न पंछी काम करते हैं। और मलूकदास कह रहे हैं कि सबको देने वाला राम है।
मिल गया सूत्र आलसी के लिए! इस तरह के सूत्रों की हमने गलत व्याख्या कर ली। उस गलत व्याख्या से बचाने के लिए दूसरी बात कह देनी जरूरी है। मलूकदास ने तुम पर ज्यादा भरोसा किया, इसलिए दूसरी बात नहीं कही। सोचा कि तुम खुद ही समझ लोगे।
पंछी करै न काम।
नौकरी नहीं करते पंछी किसी दफ्तरों में और कारखानों में, यह सच है। मगर सुबह से सांझ तक काम तो करते हैं। दाना चुगते हैं, घोंसला बनाते हैं, अंडे रखते हैं, बच्चों के लिए भोजन लाते हैं, बच्चों को भोजन चुगाते हैं। दिन भर काम चल रहा है, सुबह से सांझ तक काम चल रहा है। हालांकि कोई नौकरी नहीं है किसी दफ्तर में कि गए साढ़े दस बजे और दस्तखत किए, फिर घड़ी देखी साढ़े पांच बजे तक, फिर बीच में चाय के लिए और काफी के लिए गए और फिर गपशप की और अखबार पढ़ा, और किसी तरह समय गुजारा और घड़ी में पांच बजे--साढ़े पांच या जो भी दफ्तर से भागने का समय हो--और घर की तरफ भागे। ऐसा नहीं करते। न कोई नौकरी मिलती उनको। हर महीने पहली तारीख को उनको तनख्वाह नहीं मिलती, न हफ्ता मिलता। इस अर्थ में तो कोई काम नहीं करते।
लेकिन आलसी तुमने कोई पक्षी देखा? असंभव! इस मेरी बगिया में बहुत पक्षी हैं, एक भी आलसी नहीं है! मैं बैठा देखता रहता हूं कि एकाध दिन कोई आलसी पक्षी तो दिखाई पड़े। मलूकदास को दिखता है कोई पक्षी ने पढ़ा ही नहीं। मलूकदास की फिक्र ही नहीं की--पंछी करै न काम! और किए ही चले जा रहे हैं! मलूकदास का एक भी अनुयायी नहीं मालूम होता पक्षियों में।
अजगर नौकरी नहीं करता, यह सच है। लेकिन अपने शिकार की तरफ सरकता है। अपने शिकार की तरफ अपनी श्वास को फेंकता है। और उसकी श्वास इतनी बलशाली है कि अपने शिकार को अपनी श्वास से ही खींच लेता है। इतने जोर से श्वास भीतर लेता है कि पक्षी उसकी श्वास के साथ अजगर के पेट में चले जाते हैं। मगर यह भी श्रम है। ऐसे आंख बंद करके कंबल ओढ़ कर नहीं पड़ा रहता कि जब होगी उसकी मर्जी तो पक्षी खुद ही खोजता हुआ कंबल के भीतर आएगा और कहेगा, भइया, क्या सो रहे हो? उसकी मर्जी, उसने हमें भेजा, हम आ गए!
खतरा है कि कहीं तुम आलसी न हो जाओ। समर्पण और आलस्य एक ही बात नहीं हैं। समर्पण तो श्रम है, आलस्य नहीं। समर्पण तो साधना है, आलस्य नहीं। इसीलिए दूसरा सूत्र--
बिन खोजे से न मिलै, लाख करै जो कोय।
तुम लाख सोचो, विचारो, बैठे रहो कि बिना किए मिल जाएगा, जब मिलना है तब मिल जाएगा, भाग्य में लिखा होगा तो मिल जाएगा--नहीं मिलेगा। तुम्हें प्रयास तो पूरे करने पड़ेंगे। तभी मथोगे बहुत अपने को, तो तुम्हारे भीतर घी निर्मित होगा। घी आत्मा का प्रतीक है, क्योंकि उसके ऊपर फिर कुछ और निर्माण नहीं हो सकता। दूध से दही बन सकता है, दही से मक्खन बन सकता है, मक्खन से घी बन जाता है; फिर घी से कुछ नहीं बनता। आखिरी अवस्था आ गई। पशु से मनुष्य बन सकते हो, मनुष्य से साधु बन सकते हो, साधु से संत बन सकते हो; बस आखिरी घड़ी आ गई। संतत्व, जैसे तुम्हारी आत्मा का घी! अब इसके पार और कुछ भी नहीं।
तुम अपना पूरा श्रम करो और फिर भी पलटू कहते हैं--
ना मैं किया न करि सकौं, साहिब करता मोर।
यह आखिरी बात है। यह तो सब करने के बाद, सब चेष्टाओं के बाद, जब तुम्हें परमात्मा मिलेगा तब पता चलेगा कि अरे, यह मेरे किए से नहीं हुआ, यह उसकी कृपा से हुआ है! लेकिन तुम्हारे बिना किए उसकी कृपा भी नहीं हो सकती थी। तुम्हारे करने से परमात्मा नहीं मिलता, लेकिन तुम इस योग्य होते हो, इस पात्र होते हो कि उसकी कृपा तुम पर बरसती है। वह तो बरस रहा है, जब तुम पात्र नहीं हो तब भी बरस रहा है, लेकिन पात्र तुम्हारा उलटा रखा हुआ है। वर्षा हो रही है, पात्र उलटा रखा है, भरेगा नहीं। या पात्र सीधा भी रखा है, लेकिन पात्र में छेद ही छेद हैं, तो भी पात्र भरता हुआ मालूम पड़ेगा, लेकिन कभी भरेगा नहीं। इधर भरेगा, उधर खाली हो जाएगा।
तुम्हारा श्रम तुम्हारे पात्र के छिद्रों को बंद करेगा। तुम्हारा श्रम तुम्हारे पात्र को सीधा रखेगा। मिलना तो उसकी ही अनुकंपा से है। ये दोनों ही सूत्र सत्य हैं। दोनों सूत्र एक साथ सत्य हैं। तुम श्रम करोगे तो उसकी कृपा के पाने के अधिकारी हो जाओगे। लेकिन जब पाओगे तब तुम्हें समझ में आएगा कि जो हमने किया था और जो हमने पाया है, उसमें कार्य-कारण का संबंध नहीं है; जो हमने किया था वह तो ना-कुछ था और जो हमने पाया है वह सब कुछ है।
गारी आई एक से, पलटे भई अनेक।
जो पलटू पलटै नहीं, रहै एक की एक।।
साधना के जगत में चलोगे, बहुत गालियां मिलेंगी। फूलों की तो आशा ही मत करना, कांटे ही कांटे मिलेंगे। क्योंकि संसार नहीं चाहता कि संसार से कोई मुक्त हो। जो संसार से मुक्त होता है वह सांसारिक लोगों को कष्ट देता है, पीड़ा देता है। उन्हें जलन औरर् ईष्या पैदा होती है। वे बदला लेंगे। वे तुम्हें सब भांति सताएंगे। तो तुम एक ही बात खयाल रखना--
गारी आई एक से, पलटे भई अनेक।
गाली आए तो लौटाना मत, पी जाना। जैसे मीरा को जहर भेजा और मीरा पी गई। और पी गई तो अमृत हो गया। ऐसा चाहे ऐतिहासिक रूप से न हुआ हो, लेकिन बात तो महत्वपूर्ण है। अगर गाली आए और तुम पी जाओ, तो गाली नहीं रह जाती; जहर आए और तुम पी जाओ, तो जहर नहीं रह जाता। जहर आए और तुम पी जाओ, आनंदमग्न, तो अमृत हो ही गया। और गाली आए और तुम पी जाओ, आनंदमग्न, मस्ती में, तो गाली भी स्वागत हो गई, सत्कार हो गया, सन्मान हो गया। गाली भी गीत हो सकती है, अगर तुममें पीने की क्षमता है तो।
गारी आई एक...
अगर लौटाई तो झंझट हो जाएगी। क्योंकि फिर दूसरे लोग तो संत नहीं हैं; तुम एक लौटाओगे, वे दस गालियां लेकर आ जाएंगे।
जो पलटू पलटै नहीं, रहै एक की एक।
जल पषान के पूजते, सरा न एकौ काम।
बहुत पूजे तीर्थ, जल, नदियां, पहाड़, पर्वत, पत्थर।
जल पषान के पूजते, सरा न एकौ काम।
पलटू कहते हैं: लेकिन एक भी काम हल नहीं हुआ। कोई सफलता न मिली, कोई सुफलता न मिली, कोई धन्यता न मिली।
पलटू तन करु देहरा, मन करु सालिगराम।
तो पलटू कहते हैं: फिर एक ही उपाय पाया कि अपने तन को ही मंदिर बना लो और अपने चैतन्य को ही परमात्मा मान लो। न जाओ किसी मंदिर, न किसी मस्जिद।
पलटू तन करु देहरा...
तन को मंदिर बना लो, तीर्थ बना लो।
मन करु सालिगराम।
और अगर मन को तुम मिटा दो तो वह जो मन के मिटने के बाद ऊर्जा मुक्त होती है मन की, मनन की, वही ऊर्जा सालिगराम! वही परमात्मा की प्रतिमा!
कारज धीरे होत है, काहे होत अधीर।
और जल्दी मत करना। कुछ बातें जल्दी-जल्दी में नहीं होतीं; होती भी हों तो नहीं होतीं। मौसमी फूल नहीं है परमात्मा। ये तो आकाश को छूने वाले गगनचुंबी वृक्ष हैं, ये धीरे-धीरे ऊगते हैं। समय लगता है और प्रतीक्षा करनी होती है।
कारज धीरे होत है, काहे होत अधीर।
इसलिए अधीर मत होना।
समय पाय तरुवर फरै, केतिक सींचो नीर।
समय आएगा, वसंत आएगा, वृक्ष में फल लगेंगे, फूल लगेंगे। तुम चाहे कितना ही पानी सींचो, समय के पहले वसंत नहीं आएगा। प्रतीक्षा करनी होगी। ठीक घड़ी में सब घटता है। देर है, अंधेर नहीं है। और देर भी जरूरी है, क्योंकि उतनी देर में ही कुछ चीजें हैं जो पकती हैं; नहीं तो पक नहीं पाएंगी, कच्ची रह जाएंगी।
यह मुद्दत हस्ती की आखिर यूं भी तो गुजर ही जाएगी
दो दिन के लिए मैं किससे कहूं आसान मेरी मुश्किल कर दे
यह तो गुजर जाएगा समय, प्रतीक्षा करो। परमात्मा से भी मत कहो कि मेरी मुश्किल आसान कर दे, कि जल्दी कर।
यह मुद्दत हस्ती की आखिर यूं भी तो गुजर ही जाएगी
दो दिन के लिए मैं किससे कहूं आसान मेरी मुश्किल कर दे
समय लगता है। बीज अंकुरित होगा, पौधा बनेगा, कलियां बनेंगी, फिर फूल खिलेंगे।
लो हम बताएं गुंचा-ओ-गुल में है फर्क क्या
इक बात है कही हुई, इक बे-कही हुई
कली में और फूल में फर्क क्या है?
लो हम बताएं गुंचा-ओ-गुल में है फर्क क्या
इक बात है कही हुई, इक बे-कही हुई
बहुत ज्यादा फर्क नहीं है--कली फूल बन जाए। तुम में और परमात्मा में भी इतना ही फर्क है जितना कली और फूल में। कली बे-कही बात है, अभी बिना गाया गीत है; और फूल कही हुई बात है, अभिव्यक्त हो गया, अभिव्यंजित हो गया, गीत गाया गया। कली ऐसे है जैसे सितार छेड़ा न गया हो; और फूल ऐसे है जैसे सितार छेड़ दिया गया। मगर प्रतीक्षा और प्रार्थना, प्रेमपूर्ण प्रतीक्षा और प्रेमपूर्ण प्रार्थना अनिवार्य शर्तें हैं। इसलिए ध्यान रखना: काहे होत अधीर!

देखिए किस-किस का बागे-आर्जू पामाल हो
अपनी जिद पर आज वह महशर-खिराम आ ही गया
मेरा शिकवा ही सही, मेरी मजम्मत ही सही
खुश हूं मैं कि उनकी जुबां पर मेरा नाम आ ही गया
अक्ल भी रखता था, आंखें भी, परे-परवाज भी
फिर यह क्या सूझी कि ताइर जेरे-दाम आ ही गया
जिस जगह आकर फरिश्ते भी फिघल जाते हैं "जोश'
लीजिए हजरत संभलिए वह मुकाम आ ही गया

वह मुकाम भी आ जाता है। आते-आते ही आता है। बात बनते-बनते ही बनती है। काहे होत अधीर!

आज इतना ही।


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