पद घुंघरू बाँध—(मीरा
बाई)
ओशो
(ओशो द्वारा मीरा बाई के
पदों पर दिये गये बीस अमृत प्रवचनों का अमुल्य संकलन)
प्रेम मीरा की इस झील में तुम्हें निमंत्रण देता
हूं। मीरा नाव बन सकती है। मीरा के शब्द तुम्हें डूबने से बचा सकते हैं। उनके
सहारे पर उस पार जा सकते हो।
मीरा तीर्थंकर है। उसका शास्त्र प्रेम का
शास्त्र है। शायद शास्त्र कहना भी ठीक नहीं।
नारद ने भक्ति-सूत्र कहे; वह
शास्त्र है। वहां तर्क है, व्यवस्था है, सूत्रबद्धता है। वहां भक्ति का दर्शन है।
मीरा स्वयं भक्ति है। इसलिए तुम रेखाबद्ध
तर्क न पाओगे। रेखाबद्ध तर्क वहां नहीं है। वहां तो हृदय में कौंधती हुई बिजली है।
जो अपने आशियाने जलाने को तैयार होंगे, उनका ही संबंध जुड़ पाएगा।
प्रेम से संबंध उन्हीं का जुड़ता है, जो
सोच-विचार खोने को तैयार हों; जो सिर गंवाने को उत्सुक हों।
उस मूल्य को जो नहीं चुका सकता, वह सोचे भक्ति के संबंध में,
विचारे; लेकिन भक्त नहीं हो सकता।
तो मीरा के शास्त्र को शास्त्र कहना भी ठीक
नहीं। शास्त्र कम है,
संगीत ज्यादा है। लेकिन संगीत ही तो केवल भक्ति का शास्त्र हो सकता
है। जैसे तर्क ज्ञान का शास्त्र बनता है, वैसे संगीत भक्ति
का शास्त्र बनता है। जैसे गणित आधार है ज्ञान का, वैसे काव्य
आधार है भक्ति का। जैसे सत्य की खोज ज्ञानी करता है, भक्त
सत्य की खोज नहीं करता, भक्त सौंदर्य की खोज करता है। भक्त
के लिए सौंदर्य ही सत्य है। ज्ञानी कहता है: सत्य सुंदर है। भक्त कहता है: सौंदर्य
सत्य है।
रवींद्रनाथ ने कहा है: ब्यूटी इज़ ट्रुथ।
सौंदर्य सत्य है। रवींद्रनाथ के पास भी वैसा ही हृदय है जैसा मीरा के पास; लेकिन
रवींद्रनाथ पुरुष हैं। गलते-गलते भी पुरुष की अड़चनें रह जाती हैं; मीरा जैसे नहीं पिघल पाते। खूब पिघले। जितना पिघल सकता है पुरुष, उतने पिघले; फिर भी मीरा जैसे नहीं पिघल पाते।
मीरा स्त्री है। स्त्री के लिए भक्ति ऐसे ही
सुगम है जैसे पुरुष के लिए तर्क और विचार।
वैज्ञानिक कहते हैं: मनुष्य का मस्तिष्क दो
हिस्सों में विभाजित है। बाईं तरफ जो मस्तिष्क है वह सोच-विचार करता है; गणित,
तर्क, नियम, वहां सब
शृंखलाबद्ध है। और दाईं तरफ जो मस्तिष्क है वहां सोच-विचार नहीं है; वहां भाव है, वहां अनुभूति है। वहां संगीत की चोट
पड़ती है। वहां तर्क का कोई प्रभाव नहीं होता। वहां लयबद्धता पहुंचती है। वहां
नृत्य पहुंच जाता है; सिद्धांत नहीं पहुंचते।
स्त्री दाएं तरफ के मस्तिष्क से जीती है; पुरुष
बाएं तरफ के मस्तिष्क से जीता है। इसलिए स्त्री-पुरुष के बीच बात भी मुश्किल होती
है; कोई मेल नहीं बैठता दिखता है। पुरुष कुछ कहता है,
स्त्री कुछ कहती है। पुरुष और ढंग से सोचता है, स्त्री और ढंग से सोचती है। उनके सोचने की प्रक्रियाएं अलग हैं। स्त्री
विधिवत नहीं सोचती; सीधी छलांग लगाती है, निष्कर्षों पर पहुंच जाती है। पुरुष निष्कर्ष पर नहीं पहुंचता, विधियों से गुजरता है। क्रमबद्ध--एक-एक कदम।
प्रेम में काई विधि नहीं होती, विधान
नहीं होता। प्रेम की क्या विधि और क्या विधान! हो जाता है बिजली की कौंध की तरह।
हो गया तो हो गया। नहीं हुआ तो करने का कोई उपाय नहीं है। ……………
जनूने अर्शो पैमां वालहाना
ले के आया हूं।
मीरा मस्ती से भरी हुई एक शराब लिए खड़ी है।
उसका रसास्वादन करो। मीरा शराब है--पीओ। समझो कम--पीओ ज्यादा। उसका तराना प्रेम का
तराना है।
मुझे मौका दो कि मैं तुम्हारे हृदय की वीणा
को थोड़ा बजा सकूं। तो ही तुम समझ पाओगे।
ये मीरा के जो वचन हम सुनेंगे, चर्चा
करेंगे, गुनगुनाएंगे, डूबेंगे--इन
वचनों में ऊपर से कोई तारतम्य नहीं है। ये तो भक्त की अनुभूतियां हैं। लेकिन भीतर
बड़ा तारतम्य है। ऊपर-ऊपर कुछ न दिखाई पड़ेगा कि इनमें क्या संबंध है। मीरा ने कोई
रामचरितमानस नहीं लिखा है कि शुरू किया बालकांड से और चले। ये तो भाव की अराजक
अभिव्यक्तियां हैं। जब उठा भाव, गाया। जैसा उठा वैसा गाया।
फिर यह लोगों के सामने भी गाई गई बातें नहीं हैं। ये तो उस परम प्यारे के सामने
गाए गए गीत हैं। इन गीतों में सुधार भी नहीं किया गया है। कवि लिखता तो खूब
सुधार-संशोधन करता है। ये तो कच्चे, कोरे, वैसे के वैसे जैसे खदान से हीरे निकलते हैं--तराशे नहीं गए--बेतराशे,
अनगढ़!
मीरा को फिकर नहीं है आदमियों की कि इनमें, गीतों में
भूल-चूक लगेगी, काव्य के नियम पूरे होंगे कि नहीं, मात्राएं ठीक बैठती हैं कि नहीं; इस सबका कोई हिसाब
नहीं है।
ओशो
मीरा को समझने के लिये मीरा ही बनना पड़ेगा।
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