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गुरुवार, 12 दिसंबर 2019

ऋतु आये फल होय-(प्रवचन-01)

ऋतु आये फल होय--The Gras grow by Itself--ओशो

ज़ेन : एक प्राकृतिक प्रवाह

(ज़ेन पर ओशो द्वारा फरवरी 1975 में अंग्रेजी में दिये गये अमृत प्रवचनों का हिन्दी में अनुवाद)
ज़ेन का महत्व क्या है?--(पहला प्रवचन)
प्रवचन : दिनांक 21 फरवरी 1975
सारसूत्र:
किसी व्यक्ति ने सद्‌गुरु बोकूजू से पूछा :
हमें कपड़े पहनने होते हैं और प्रतिदिन भोजन करना होता है,
इस सभी से हम कैसे बाहर आएं?

बोकूजू ने उत्तर दिया :
हम कपड़े पहनें, हम भोजन करें।
प्रश्नकर्त्ता ने कहा :
मैं कुछ समझा नहीं।
बोकूजू ने उत्तर दिया :
यदि तुम नहीं समझे,
तो अपने कपड़े पहन लो,
और खाना खा लो।
 ज़ेन क्या है?
ज़ेन है एक बहुत असाधारण विकास।

बहुत थोड़े से असाधारण लोग ही ऐसी सम्भावना को यथार्थ में बदल पाते हैं।
क्योंकि इसमें बहुत से खतरे और उलझनें आती हैं।
बहुत समय पूर्व जो एक सम्भावना अस्तित्व में थी, सौभाग्य से उसका आध्यात्मिक विकास हो सका--और ज़ेन जैसी अनूठी चीज का जन्म हुआ। लेकिन कभी भी उसे समग्रता से समझा नहीं गया। मनुष्य की चेतना के पूरे इतिहास में केवल एक बार ही ज़ेन जैसी कोई चीज अस्तित्व में आई।
ऐसा होना अति असाधारण है।
इसलिए पहले मैं तुम्हें यह समझाना चाहूंगा कि ज़ेन है क्या? क्योंकि यदि तुम इसे समझे ही नहीं, तो यह प्रसंग अधिक सहायक न होंगे, तुम्हें इनकी पूरी पृष्ठभूमि जानना आवश्यक है।
इसी पृष्ठभूमि और इसी संदर्भ में, यह प्रसंग स्पष्ट हो सकेंगे--तभी अकस्मात् तुम उसके अर्थ और महत्व को प्राप्त कर सकोगे, अन्यथा वे अलग-अलग इकाइयां हैं।
तुम उनका आनन्द ले सकते हो, कभी तुम उन पर हंस सकते हो; वे बहुत काव्यात्मक हैं; वे अपने आप में बहुत सुन्दर, और अनूठी कला के नमूने हैं, लेकिन इन प्रसंगों को केवल बाह्य दृष्टि से देखने पर कि ' ज़ेन क्या है  तुम उसके मर्म
तक गहरे न उतर सकोगे।
ज़ेन के विकास के साथ यह घटनाएं कैसे घटीं इन्हें समझने के लिए पहले आहिस्ता से मेरा अनुसरण करने का प्रयास करें। ज़ेन का जन्म भारत में हुआ, वह चीन में विकसित हुआ, और उसकी खिलावट जापान में हुई।
तुम कैसे सभी से सम्बन्ध तोड़कर अलग हो जाओ,
तुम कैसे अपने अन्दर प्रवेश कर बाहर को भूल जाओ।
यही कारण है कि ज़ेन का जन्म भारत में हुआ।
ज़ेन का अर्थ होता है--ध्यान।
'ध्यान' शब्द ही बदलकर जापानी भाषा में ज़ेन हो गया।
ध्यान है--भारत की चेतना का समग्र-प्रयास।
ध्यान का अर्थ होता है--इतना अधिक अकेले हो जाना,
स्वयं अपने ही अस्तित्व की इतनी अधिक गहराई में अन्दर उतर जाना,
कि जहां विचार की एक तरंग भी न रहे।
वास्तव में अंग्रेजी में ध्यान का सीधा अनुवाद नहीं किया जा सकता।
'कनटेश्वेशन' ठीक शब्द नहीं है ध्यान के लिए
'कनटेफ्लेशन' का अर्थ होता है--विचार करना, चिंतन करना,
'मेडीटेशन' भी इसके लिए ठीक शब्द नहीं है
क्योंकि मेडीटेशन को चित्त एकाग्र करने के लिए कोई वस्तु चाहिए
इसका अर्थ है कि वहां कुछ चीज है।
तुम क्राइस्ट पर अथवा उनके क्रॉस पर मन को एकाग्र या 'मेडीटेट' कर सकते
हो। लेकिन ध्यान का अर्थ होता है--इतने अकेले हो जाना कि वहां मन
एकाग्र करने के लिए भी कोई वस्तु न हो,
केवल वैयक्तिकता ही अस्तित्व में रहे--बिना बादलों की, शुभ्र निरभ्र
आकाश जैसी शुद्ध चेतना ही रहे।

जब यह शब्द चीन पहुंचा, तो वह 'चान' बन गया।
जब 'चान' जापान पहुंचा, वह 'ज़ेन' बन गया,
यह संस्कृत भाषा के मूल, ध्यान से ही उद्‌भूत है।
भारत, ध्यान को जन्म दे सकता है।
हजारों वर्षों तक भारत की पूरी चेतना, ध्यान के पथ पर यात्रा करती रही है,
कि कैसे विचारों को गिराकर
शुद्ध चेतना में जड़ें जमाई जाएं।
बुद्ध के साथ ही यह बीज अस्तित्व में आया।
गौतम बुद्ध से पहले भी
यह बीज कई बार अस्तित्व में आया था, लेकिन वह ठीक भूमि न पा सका था, इसीलिए विलुप्त हो गया।
और यदि यह बीज भारतीय चेतना को दे दिया जाए--तो वह मिट जाएगा,
क्योंकि भारतीय चेतना अधिक से अधिक अन्दर की ओर गतिशील होगी,
और बीज लघु से लघुतम, सूक्ष्म से और अधिक सूक्ष्म होता जाएगा,
जब तक कि वह क्षण नहीं आ जाता कि वह अदृश्य हो जाए।
केंद्र की ओर मुड़ती ऊर्जा, चीजों को छोटा और सूक्ष्म बनाती है--
उन्हें आणविक बना देती है--जब तक कि वह अकस्मात मिट न जाए
गौतम बुद्ध से भी काफी समय पूर्व उस बीज का जन्म हुआ था--गौतम बुद्ध
ध्यान करने वाले कोई पहले व्यक्ति न थे।
और एक ध्यानी बनने के लिए एक महान ध्यानी होने में--वास्तव में अतीत
की लम्बी संखला में वह अंतिम में से एक थे।
उन्हें स्वयं अपने से पूर्व हुए चौबीस बुद्धों का स्मरण था।
तब वहां चौबीस जैन तीर्थंकर भी हुए थे
और वे सभी ध्यानी थे।
वे कुछ और करते ही नहीं थे, सिवाय ध्यान के, वे बस ध्यान, ध्यान और
ध्यान करते थे।
और वे एक ऐसे बिंदु पर आए जहां केवल उनका होना भर रह गया,
और उसके अतिरिक्त प्रत्येक चीज मिट गई, भाप बन कर उड़ गई।
पारसनाथ, नेमिनाथ, महावीर और अन्य दूसरों के साथ ही--उस बीज का
जन्म हुआ।
तब से वह भारत की चेतना के साथ ही बना रहा।
भारत की चेतना इस बीज को जन्म तो दे सकती है,
लेकिन उसके विकास के लिए ठीक भूमि नहीं बन सकती।
वह उसी दिशा में काम किए चली जाती है,
और बीज सूक्ष्म से सूक्ष्म होता जाता है।
परमाणु अणु और तब वह विलुप्त हो जाता है।
ऐसा ही कुछ उपनिषदों के साथ घटा,
ऐसा ही कुछ वेदों के साथ घटा,
और ऐसा ही कुछ महावीर तथा अन्य लोगों के साथ ध्यान का हुआ।
बुद्ध के साथ भी ऐसा ही होने जा रहा था,
पर बोधिधर्म ने उसे बचा लिया।
यदि वह बीज भारत की चेतना के साथ छोड़ दिया जाता,
तो वह कभी अंकुरित होता ही नहीं, और विलुप्त हो गया होता। क्योंकि उसके अंकुरित होने के लिए एक अलग तरह की--
मिट्टी की जरूरत होती है, एक बहुत ही संतुलित भूमि,
और अंतर्मुखी होना बहुत गहरे में एक असंतुलन है, एक अति है। बोधिधर्म इस बीज को अपने साथ चीन लाए।
चेतना के इतिहास में उन्होंने महानतम कार्यों में से यह कार्य किया।
बुद्ध ने जो बीज संसार को दिया था, उन्होंने उसके विकास के लिए ठीक भूमि की खोज की।
ऐसा कहा जाता है कि बुद्ध ने स्वयं यह कहा था--
कि मेरा धर्म पांच सौ वर्षों से अधिक अस्तित्व में न रहेगा,
और तब वह विलुप्त हो जायेगा।
वह इसके प्रति सजग थे कि इसी तरह हमेशा होता रहा है
और भारत की चेतना, ध्यान के बीज को पीसती चली जाती है,
उसे छोटे से छोटे टुकड़ों में तोड़ती चली जाती है
और तब एक क्षण आता है
कि वह अत्यंत लघु और सूक्ष्म बनकर अदृश्य हो जाता है।
वह और आगे इस संसार का भाग रह ही नहीं जाता,
और आकाश के शून्य में विलीन हो जाता है।

बोधिधर्म का प्रयोग बहुत महान था
उन्होंने विश्व में गहराई से चारों ओर उस स्थान को खोजा,
जहां ध्यान का बीज विकसित हो सके।
चीन, भारत अथवा जापान की भांति नहीं है
वह एक बहुत संतुलित देश था,
कक्यूशियस की विचार धारा ने उसे सदा मध्य में बनाए रखा
न तो अंतर्मुखी और न बहिर्मुखी।
न तो इस संसार के बारे में बहुत अधिक सोचने वाला,
और न उस संसार के बारे में अधिक विचार करने वाला
ठीक मध्य में बने रहने वाला।



चीन ने किसी भी धर्म को जन्म नहीं दिया,
उसने केवल नैतिकता और आदर्शों को जन्म दिया।
वहां कभी किसी धर्म का जन्म हुआ ही नहीं
चीन की चेतना किसी धर्म को जन्म दे ही नहीं सकती थी।
वह किसी बीज का सृजन नहीं कर सकती थी।
चीन में जिन सभी धर्मों का अस्तित्व रहा है
वे सभी बाहर से आए हैं, वे सभी आयात किए गए।
बौद्ध धर्म, हिन्दुत्व, इस्लाम और ईसाइयत,
ये सभी बाहर के देशों से चीन में आए।
चीन की भूमि उपजाऊ और सुन्दर है, लेकिन वह किसी धर्म को जन्म नहीं
दे सकती,
क्योंकि धर्म को जन्म देने के लिए
किसी को भी अपने ही अन्दर के संसार में गहराई तक जाना होता है।
धर्म को जन्म देने के लिए
किसी को स्त्री के शरीर के गर्भ जैसा बनना होता है।
स्त्रैण चेतना अत्यधिक अंतर्मुखी होती है।

एक स्त्री स्वयं अपने तक सीमित रहती है,
उसके चारों ओर अपना एक छोटा सा संसार होता है,
जितना भी सम्भव हो सके, उतना कम से कम छोटा संसार।
यही कारण है कि एक स्त्री को तुम बहुत बड़ी और महत्वपूर्ण चीजों में--
दिलचस्पी लेते हुए नहीं देख सकते।
नहीं, तुम उससे वियतनाम के बारे में चर्चा-परिचर्चा नहीं कर सकते,
वह उसकी फिक्र करती ही नहीं।
वियतनाम बहुत अधिक दूर है, उसके सोचने के दायरे से बाहर है।
उसका सम्बन्ध तो अपने परिवार अपने पति, अपने बच्चों,
कुत्ते, फर्नीचर, रेडियो और टी.वी.सेट से ही होता है।
उसके चारों ओर एक छोटा सा सीमित संसार होता है।
क्योंकि उसके चारों ओर का संसार बहुत छोटा होता है
इसलिए पुरुष के लिए स्त्री से बुद्धिगत चर्चा करना बहुत कठिन है--वे दोनों
अलग-अलग संसार में रहते हैं।
स्त्री केवल तभी सुन्दर लगती है, जब वह खामोश रहती है,
जिस क्षण वह बात करना शुरू करती है, तो मूर्खतापूर्ण चीजें उसके बाहर निकलना शुरू हो जाती हैं। वह बुद्धिमत्तापूर्ण चर्चा-परिचर्चा कर ही नहीं सकती।
वह प्रेम कर सकती है, लेकिन बुद्धिमानी की बात नहीं कर सकती,
वह कोई बड़ी दार्शनिक नहीं बन सकती। नहीं, यह सम्भव ही नहीं है। यह चीजें उसकी पहुंच के बाहर हैं, वह उनकी फिक्र करती भी नहीं।
वह अपने ही संसार के एक छोटे से दायरे में रहती है,
और वह स्वयं ही उसका केंद्र होती है, और जो कुछ भी अर्थपूर्ण होता है, उसमें केवल वही अर्थपूर्ण होता है, जिसका सम्बन्ध स्वयं उससे ही हो--अन्यथा वह अर्थपूर्ण होता ही नहीं है।
वह यह समझ ही नहीं सकती कि तुम वियतनाम की चिंता क्यों कर रहे हो,
आखिर तुम्हारा उससे क्या मतलब है?
वियतनाम का तुमसे कहीं कोई सम्बन्ध है ही नहीं।
वहां कोई युद्ध हो रहा है अथवा नहीं, तुम्हारा उससे क्या लेना देना?
और घर में बच्चा बीमार है और तुम वियतनाम की फिक्र कर रहे हो।
वह विश्वास ही नहीं कर पाती कि वह तुम्हारे निकट बैठी है,
क्योंकि तुम तो अखबार पड़े जा रहे हो।
स्त्री एक पृथक संसार में रहती है
वह आत्मकेन्द्रित और अंतर्मुखी होती है। सभी स्त्रियां, भारतीय स्त्रियों की
तरह होती हैं--वे कहीं की भी हों, इससे कोई भी अंतर नहीं पड़ता।
पुरुष की प्रवृत्ति अपने केंद्र से दूर जाने की होती है, उसका रस बाहर में है।
जिस क्षण वह कोई बहाना खोज पाता है, वह घर से निकल भागेगा।
वह घर केवल तभी आता है, जब वह कहीं अन्यत्र नहीं जा सकता,
जब सभी क्लब और होटल बंद हो जाते हैं, तब आखिर किया क्या जाए?
जब कहीं भी नहीं जाना होता है, वह घर तभी वापस लौटता है।
एक स्त्री हमेशा गृह-केंन्द्रित होती है, घर ही उसका आधार होता है।
वह घर के बाहर केवल तभी जाती है, जब जाना बहुत जरूरी होता है,
उससे अन्यथा वह कुछ कर ही नहीं सकती।
जब उसके लिए बाहर जाना एक अनिवार्यता बन जाती है, वह तभी बाहर
जाती है, अन्यथा उसका आधार घर ही है।

पुरुष एक आवारा घुमक्कड़ है।
पूरा पारिवारिक जीवन स्त्री द्वारा ही सृजित किया जाता है, पुरुष द्वारा नहीं।
वास्तव में सभ्यता स्त्री के कारण ही अस्तित्व में है, पुरुष के द्वारा नहीं।
यदि उसे अनुमति मिले तो वह एक घुमक्कड़ ही बनना चाहेगा--
न कोई घर हो और न सभ्यता के बन्धन।
पुरुष की चेतना बाहर की ओर उम्मुख है, जब कि स्त्री की अन्दर की ओर,
पुरुष बहिर्मुखी है और स्त्री है-- अंतर्मुखी।
पुरुष की दिलचस्पी हमेशा स्वयं अपने से हटकर किसी अन्य चीज में होती
है, यही कारण है कि वह अधिक स्वस्थ दीखता है,
क्योंकि जब तुम स्वयं से अधिक सम्बन्ध रखने लगते हो
तुम अस्वस्थ हो जाते हो। पुरुष अधिक प्रसन्न दिखाई देता है।
स्त्री को तुम हमेशा अपने ही बारे में दिलचस्पी लेते उदास पाओगे,
जरा सा सिर दर्द हुआ नहीं,
कि वह सिरदर्द, स्वयं में अधिक दिलचस्पी लेने और घर में ही रहने के
कारण, अनुपात में कहीं अधिक बड़ा हो जाता है। लेकिन एक पुरुष अपने
सिरदर्द को भूल सकता है,
उसके पास बहुत से अन्य सिर दर्द भी हैं।
वह अपने चारों ओर बहुत से सिर दर्द स्वयं उत्पन्न करता है,
इसलिए उनसे बाहर आकर स्वयं के सिर दर्द बने रहने की
कोई सम्भावना रहती ही नहीं,
और वह दर्द इतना कम होता है, कि वह उसके बारे में भूल सकता है।

स्त्री हमेशा अपने ही बारे में सोचती रहती है
कभी उसका पैर दुख रहा है, कभी कुछ उसके हाथ में हो रहा है,
कभी उसकी पीठ में दर्द है, तो कोई गड़बड़ उसके पेट के साथ है,
उसे हमेशा कुछ न कुछ होता ही रहता है,
क्योंकि उसकी अपनी चेतना अपने अन्दर की ओर केन्द्रित है।
एक पुरुष की शारीरिक व्याधियां कम होती हैं, वह कहीं अधिक
स्वस्थ रहता है। कहीं अधिक बाहर जाते हुए उसकी दिलचस्पी दूसरों के
बारे में कहीं अधिक होती है।
यही कारण है कि सभी धर्मों में तुम यह पाओगे
कि यदि वहां पांच लोग उपस्थित हैं,
तो उनमें पुरुष एक ही होगा और स्त्रियां चार,
और वह एक पुरुष भी केवल किसी स्त्री के कारण ही आया हो सकता है पत्नी मंदिर जा रही थी, इसलिए पति को उसके साथ जाना पड़ा, अथवा वह कोई धार्मिक प्रवचन सुनने जा रही थी, इसलिए उसे उसके साथ जाना पड़ा।
सभी गिरजाघरों में भी
सभी पूजाघरों और मंदिरों में भी तुम जहां कहीं भी जाओ,
स्त्री-पुरुषों का तुम्हें यही अनुपात मिलेगा।
यहां तक कि बुद्ध और महावीर के पास भी जाने वालों में
स्त्री-पुरुषों का यही अनुपात था।
बुद्ध के पचास हजार भिक्षुओं में
चालीस हजार स्त्रियां और दस हजार पुरुष थे।

शारीरिक रूप से पुरुष अधिक स्वस्थ हो सकता है,
आध्यात्मिक रूप से स्त्री अधिक स्वस्थ हो सकती है,
क्योंकि उनकी दिलचस्पियां भिन्न-भिन्न हैं।
जब तुम दूसरों के बारे में अधिक दिलचस्पी लेते हो,
तुम अपने शरीर के बारे में भूल जाते हो,
तुम शारीरिक रूप से अधिक स्वस्थ हो सकते हो
लेकिन धार्मिक रूप में तुम इतनी सरलता से विकसित नहीं हो सकते। धार्मिक विकास के लिए अंतर्संबंध जोड़ना होता है।
एक स्त्री धर्म में बहुत-बहुत आसानी से विकसित हो सकती है
उसके लिए यह मार्ग आसान है,
लेकिन राजनीति में विकसित होना उसके लिए कठिन है।
और एक पुरुष के लिए धर्म में विकसित होना कठिन है।
अंतर्मुखी चेतना होने के अपने लाभ हैं, और बहिर्मुखी होने के अपने फायदे हैं, और दोनों के अपने- अपने खतरे भी हैं।
भारत एक अंतर्मुखी रुप-चित्त देश है,
वह एक गर्भ के समान है, बहुत अधिक ग्राहकतापूर्ण।
लेकिन यदि एक बच्चा गर्भ के अन्दर ही हमेशा-हमेशा के लिए वहीं बने रहना चाहे तो गर्भ ही उसकी कब्र बन जाएगा।
बच्चे को मां के गर्भ के बाहर आना ही होता है,
अन्यथा मां बच्चे को गर्भ के अन्दर ही मार देगी।
भले ही गर्भ बच्चे के लिए सुविधाजनक हो सकता है
लेकिन उसे बाहर का बहुत बड़ा संसार खोजने के लिए
गर्भ छोड़ना ही पड़ता है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि गर्भ से अधिक सुविधाजनक
हम आज तक कोई भी अन्य चीज निर्मित करने में समर्थ नहीं हो सके।
इतनी अधिक वैज्ञानिक प्रगति होने के बावजूद भी हम उससे अधिक सुविधाजनक कोई चीज बना ही न सके।
गर्भ ठीक एक स्वर्ग जैसा ही होता है,
लेकिन फिर भी बच्चे को वह स्वर्ग छोड़ना ही होता है
और एक निश्चित समय के बाद गर्भ के बाहर आना ही होता है,
मां ही बहुत खतरनाक बन सकती है, वह गर्भ उसे मार भी सकता है,
क्योंकि तब वही उसके लिए एक कारागृह बन जाएगा--
उस समय तक के लिए अच्छा है, जब बीज विकसित हो रहा है,
लेकिन तब बीज से विकसित हुए पौधे को, बाहर के संसार में रोपना होता
बोधि धर्म ने पूरे विश्व में चारों ओर निरीक्षण किया
और चीन की भूमि इसके लिए सर्वश्रेष्ठ पाई,
वह एक मध्यम तरह की भूमि थी, जहां कुछ भी अपनी पराकाष्ठा पर न था।
वहां की जलवायु भी अपनी चरम सीमा पर न होकर बीच की थी,
इसलिए वृक्ष सरलता से विकसित हो सकता था
और वहां के लोग भी संतुलित थे।
जहां संतुलन होता है, वहीं की भूमि ठीक होती है, जिससे कुछ चीज पनप
सके।
अधिक सर्दी भी हानिकारक होती है और अधिक गर्मी भी।
संतुलित और समशीतोष्ण जलवायु में
वृक्ष विकसित हो सकता है।
बोधिधर्म उस सभी को बचाकर जो भारत ने उत्पन्न किया था,
उसके बीज के साथ भारत से पलायन कर चीन आ गए।
कोई भी व्यक्ति इस बात के प्रति सचेत न था कि वह क्या कर रहे हैं, लेकिन वह एक महान प्रयोग था।
और उन्होंने सिद्ध कर दिया कि वह ठीक थे।
चीन में वृक्ष विकसित हुआ
और विशाल अनुपात में विकसित हुआ।
यद्यपि वह वृक्ष बहुत बड़ा और विशाल हो गया,
लेकिन उसमें फूल नहीं खिले। उसमें फूल आए ही नहीं,
क्योंकि फूलों को खिलने के लिए बहिर्मुखी चेतना की भूमि की जरूरत थी। ठीक जैसे कि एक बीज अंतर्मुखी होता है, फूल होता है--बहिर्मुखी। बीज, स्त्रैण चेतना की भांति होता है, और फूल होता है--पुरुष चेतना की भांति।
फूल बाहर के संसार में खिलता है
और बाहर के संसार में ही अपनी सुवास बिखेरता है।
तब वह सुगंध, हवा के पंखों द्वारा
सुदूर विश्व के कोने-कोने तक फैल जाती है।
जो ऊर्जा बीज में छिपी थी, फूल उसी ऊर्जा को सभी दिशाओं में फैला देता है। वह एक द्वार बन जाता है।
फूल वृक्ष को छोड्‌कर, तितलियों की तरह उड़ना चाहते हैं।
वास्तव में सूक्ष्म रूप में वे यह कर भी रहे हैं,
वे वृक्ष की आत्मा की सुवास,
और वृक्ष के होने के अर्थ और महत्व को विश्व में चारों ओर फैला रहे हैं। वे महान सहभागी हैं।
एक बीज, एक बहुत बड़े लोभी की भांति स्वयं अपने तक सीमित
और बंद रहता है
और एक फूल उसकी सम्पदा को चारों ओर बांटता है।

जापान एक बहिर्मुखी चेतना का देश है,
इसके लिए जापान की ही आवश्यकता थी।
वहां की जीवन-शैली और चेतना बहिर्मुखी है।
जरा देखें... भारत में तो कोई भी व्यक्ति बाहर के संसार के बारे में बहुत अधिक चिंता करता ही नहीं,
अपने कपड़ों के बारे में, अपने घर और अपने रहन-सहन के बारे में
कोई भी, कुछ भी फिक्र करता ही नहीं।
यही कारण है कि भारत एक गरीब देश बना रहा।
यदि तुम बाहर के संसार के बारे में फिक्र करोगे ही नहीं
तो तुम धनी और समृद्ध कैसे बन सकते हो?
यदि बाहर के संसार को बेहतर बनाने के लिए तुम दिलचस्पी लोगे ही नहीं, तो तुम गरीब ही बने रहोगे।
और भारत, जीवन से पलायन करने के मामले में हमेशा से,
पहले से ही तैयार रहा है।
सभी बुद्ध इस् बारे में ही बताते रहे--कि कैसे पूर्ण रूप से सभी कुछ का पूरी तरह त्याग किया जाए
न केवल समाज से बल्कि स्वयं इस अस्तित्व से भी
अंतिम रूप से कैसे मुक्त हुआ जाए!
पूरा संसार उन सभी के लिए बहुत ऊब उत्पन्न करने वाला था
भारतीय दृष्टि में, जीवन केवल मटमैला है उसमें दिलचस्पी लेने जैसा कुछ नहीं है, और प्रत्येक वस्तु व्यर्थ के भार और ऊब से भरी हुई है।
एक व्यक्ति को पिछले कर्मों के अनुसार उसे केवल ढोए जाना है।
यदि कोई भारतीय किसी के प्रेम में पड़ता भी है
तो वह कहता है कि ऐसा पिछले जन्मों के कर्मों के कारण है,
और उसे इसके द्वारा किसी तरह गुजर जाना है
प्रेम भी उसके लिए एक बोझ की तरह होता है, जिसे उसे घसीटना भर होता
है।
भारत का झुकाव, जीवन की अपेक्षा मृत्यु की ओर अधिक है।
एक अंतर्मुखी व्यक्ति का झुकाव मृत्यु की ओर होना ही है।
यही कारण है कि भारत में वह सभी विधियां विकसित हुईं,
कि कैसे पूर्ण रूप से ऐसी मृत्यु को प्राप्त किया जाए
कि तुम्हारा जन्म फिर से न हो।
उनके लिए जीवन नहीं, मृत्यु ही लक्ष्य है,
जीवन है मूर्खों के लिए और मृत्यु है उनके लिए जो प्रज्ञावान हैं।
बुद्ध और महावीर कितने भी सुन्दर और महान क्यों न हों,
तुम उन्हें अपने आप में बंद ही पाओगे।
उनके चारों ओर अनासक्ति का एक आभामंडल हमेशा बना रहता है।
उनके आसपास चाहे कुछ भी घट रहा हो, उनका उससे कोई भी सम्बन्ध
नहीं होता।
वह चाहे इस ढंग से हो, और चाहे उस ढंग से,
उन्हें उससे कोई भी अंतर नहीं पड़ता है,
चाहे पूरा संसार जीवित रहे अथवा मर जाए
इससे उन्हें कोई भी फर्क नहीं पड़ता है।
एक भयंकर उपेक्षा और तटस्थता है उनमें,
इस तटस्थता में खिलावट का होना सम्भव ही न था।
जापान पूरी तरह एक भिन्न देश है।
जापान के लिए चेतना कुछ ऐसी है, जैसे मानो, अन्दर का कुछ अस्तित्व है
ही नहीं।
केवल बाह्य जगत ही अर्थपूर्ण है।
जरा जापानी लोगों की पोशाक देखो,
उनमें फूलों और इन्द्रधनुष के सारे रंग हैं--
जैसे मानो बाहर का संसार ही सबसे अधिक अर्थपूर्ण है।
अब जरा पुराने समय की भारतीय पोशाक को देखो,
फिर जापानी वस्त्रों की ओर देखो।
जरा किसी भारतीय को भोजन करते हुए देखो,
और फिर किसी जापानी की ओर देखो।
किसी भारतीय को चाय पीते हुए देखो-- और फिर जापानी की ओर देखो। एक जापानी साधारण सी चीजों में भी एक समारोह सृजित करता है,
चाय पीने को लो, वह उसे एक उत्सव बना देता है, वह एक कला बन जाती है।
उनके लिए जो कुछ बाहर है, वह बहुत महत्वपूर्ण है;
वस्त्र पहनना भी बहुत महत्वपूर्ण है
आपसी रिश्ते-नाते भी बहुत महत्वपूर्ण हैं।
तुम संसार भर में जापानी की अपेक्षा कोई अन्य बहिर्मुखी व्यक्ति नहीं खोज सकते, हमेशा मुस्कराता हुआ और प्रसन्न।

भारतीयों के लिए वे लोग उथले दिखाई देंगे
वे गम्भीर नहीं दिखाई देंगे।
भारतीय लोग अंतर्मुखी हैं
और जापानी हैं--बहिर्मुखी
वे दोनों एक दूसरे के विपरीत हैं।
एक जापानी व्यक्ति समाज में सदा क्रियाशील रहता है।
पूरी जापानी संस्कृति की दिलचस्पी इसी बात में रहती है
कि कैसे एक सुन्दर समाज सृजित किया जाए
कैसे सम्बन्धों को मधुर बनाया जाए
कैसे प्रत्येक छोटी से छोटी चीज को कितने सुन्दर ढंग से किया जाए और कैसे प्रत्येक वस्तु को महत्व दिया जाए?
उनके मकान इतने अधिक सुन्दर और सजे हुए होते हैं,
कि एक निर्धन व्यक्ति के भी घर का अपना एक अलग-सौंदर्य होता है। वह कलापूर्ण होता है और उसका अपना अनूठापन होता है।
वह अधिक समृद्ध नहीं भी हो सकता।
लेकिन फिर भी एक विशिष्ट अर्थ में
अपने संयोजन, व्यवस्था और सौंदर्य के कारण वह समृद्ध होता है। प्रत्येक छोटी से छोटी चीज के विस्तृत विवरण में बुद्धि का
उपयोग किया जाता है--
कि किस स्थान पर खिड़कियां होनी चाहिए
उनमें किस तरह के पर्दे लगाने चाहिए--
और कैसे खिड़कियों के द्वारा चंद्रमा को आमंत्रित किया जाना चाहिए?
चीजें बहुत छोटी सी हैं, लेकिन प्रत्येक अपने विस्तार में बहुत महत्वपूर्ण है।
एक भारतीय के लिए कुछ भी अर्थ नहीं रखता यह सभी कुछ।

यदि तुम भारत के किसी प्राचीन मंदिर में जाओ, वह बिना खिड़कियों के
होगा:
उसमें स्वच्छता नहीं होगी, ताजी हवा के आने-जाने की व्यवस्था नहीं होगी,
वहां कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं होगा,
यहां तक कि वहां गंदगी और कुरूपता मिलेगी।
वहां धूल उड़ रही है, धुएं से दम घुट रहा है, लेकिन कोई कुछ भी फिक्र नहीं करता।
मंदिरों के ठीक सामने तुम गायों को बैठे हुए पाओगे।
लोग प्रार्थना कर रहे हैं और कुत्ते भौंकते हुए लड़ रहे हैं,
और कोई भी इससे परेशान नहीं होता।
उन्हें बाहर की व्यवस्था के प्रति संवेदनशीलता ही नहीं है
उनकी बाहरी चीजों में कोई दिलचस्पी है ही नहीं।
और ठीक इसके विपरीत दूसरी पराकाष्ठा पर जापान है,
जिसकी बाहर की वस्तुओं में दिलचस्पी बहुत अधिक है।
और ज़ेन का पूरा वृक्ष चीन से जापान ले जाकर पुन: रोप दिया गया,
क्योंकि जापान की जलवायु ही इसके लिए अनुकूल थी,
वहां इस वृक्ष में हजारों रंगों के पुष्प खिले
और उसकी पूरी खिलावट हुई।
इसी तरह से यह घटना फिर घटने जा रही है।
मैं पुन: ज़ेन की ही बात कह रहा हूं।
इसे फिर वापस भारत लाना है, क्योंकि जापान में यह वृक्ष-जितना पुष्पित हो सकता था, हो चुका।
सभी पुष्प नीचे झर गए और जापान बीज का सृजन नहीं कर सकता।
जापान चूंकि अंतर्मुखी देश नहीं है, इसलिए वह बीज का सृजन नहीं कर सकता।
इसीलिए वहां प्रत्येक चीज अब एक बाह्य कर्मकाण्ड बनकर रह गई है। जापान में देन मर चुका है।
वहां अतीत में उसकी खिलावट जरूर हुई, लेकिन अब--
यदि तुम डाँडीटी. सुजूकी तथा अन्य लोगों की ज़ेन पर लिखी
पुस्तकें पढ़ो, यदि तुम जापान जाकर ज़ेन की खोज करो,
तुम खाली हाथों वापस लौट आओगे।
जापान में ज़ेन लुप्त हो गया, अब वह यहां भारत में है।
वह देश उसकी खिलावट में सहायक बन सका,
लेकिन अब सभी फूल पृथ्वी पर गिरकर लुप्त हो गए
और वहां अब कुछ और रहा ही नहीं।
अब वहां संस्कार और कर्मकाण्ड ही रह गए हैं,
क्योंकि जापानी बहुत अधिक कर्मकाण्डी और संस्कारित हैं।
ज़ेन मठों में अब भी प्रत्येक चीज उसी तरह से चल रही है
जैसे मानो उसकी अंतरात्मा अब भी वहां हो,
लेकिन अब वहाँ आतरिक समाधि नहीं है और सिंहासन खाली है घर का मालिक जैसे कहीं और चला गया है
अब वहां परमात्मा है ही नहीं--केवल कोरे कर्मकाण्ड रह गए हैं। और चूंकि वे बहिर्मुखी लोग हैं, वे इन कर्मकाण्डों को करते रहेगे।
प्रतिदिन सुबह वे पांच बजे उठेंगे,
वहां समय की सूचना देने को घंटी बजेगी,
वे चाय-घर की ओर प्रस्थान करेंगे, वहां वे चाय लेंगे,
फिर वे ध्यान कक्ष में जायेंगे,
और वे औखें बंद कर बैठ जायेंगे।
प्रत्येक चीज का अनुसरण ठीक वैसा ही किया जाएगा
जैसे मानो ज़ेन की आत्मा अब भी वहां अस्तित्व में हो,
लेकिन वह विलुप्त हो चुकी है।
वहां अब भी ज़ेन मठ हैं, वहां हजारों भिक्षु भी हैं
लेकिन वृक्ष जितना पुष्पित हो सकता था, हो चुका,
और अब वहां बीज का सृजन नहीं हो सकता।

इसीलिए मैं यहां ज़ेन पर इतना अधिक बोल रहा हूं
क्योंकि केवल भारत ही उस बीज का फिर से सृजन कर सकता है।
पूरा विश्व एक गहन ऐक्य और एक लयबद्धता के कारण ही अस्तित्व में है।
भारत उस बीज को पुन: जन्म दे सकता है।
लेकिन अब विश्व में चारों ओर बहुत सी चीजें बदल चुकी हैं।
चीन में अब वह सम्भावना नहीं रही
क्योंकि साम्यवादी होने के कारण वह एक बहिर्मुखी चेतना का देश बन चुका
है।
अब वहां आत्मा की अपेक्षा पदार्थ अधिक महत्वपूर्ण है
अब वह चेतना की नई तरंगों को ग्रहण करने के लिए
अपने द्वार बंद कर चुका है।
मैं समझता हूं यदि कोई देश ऐसा है
जो भविष्य में उसे फिर से भूमि दे सकता है
तो वह इंग्लैंड है।
तुम्हें आश्चर्य अवश्य होगा, क्योंकि तुम्हारे ख्याल में यह देश अमेरिका है।
विश्व में अब सबसे अधिक संतुलित देश इंग्लैंड ही है।
पुराने दिनों में ठीक जैसे चीन था।
अब ज़ेन के बीज को इंग्लैंड ले जाकर बोना है;
वहां वह विकसित होकर एक वृक्ष तो बनेगा, लेकिन उसमें खिलावट न
होगी।
इंग्लैंड की चेतना रूढ़िवादी है, हमेशा मध्य मार्ग में ही प्रवाहित होती है,
वहां का मन उदार है, वे लोग कभी किसी चरम सीमा पर नहीं जाते,
मध्य में ही बने रहते हैं--
और यही चीज सहायक बनेगी।
इसी कारण मैं अधिक से अधिक ब्रिटेन के लोगों को
अपने आस-पास चारों ओर बस जाने की अनुमति दे रहा हूं।
ऐसा केवल वीसा के कारणों से नहीं है, क्योंकि एक बार जब बीज तैयार हो
जाए मैं चाहूंगा कि वह इंग्लैंड ले जाया जाए।
फिर इंग्लैंड से वह अमेरिका जा सकता है,
और फिर वहां उसकी खिलावट होगी,
क्योंकि अमेरिका ठीक अभी सबसे अधिक बहिर्मुखी चेतना का देश है।
मैं तुम्हें बता चुका हूं कि ज़ेन एक दुर्लभ घटना है,
क्योंकि यदि ये सभी स्थितियां पूरी हों
केवल तभी कोई चीज घट सकती है।

अब इस बोध-कथा को समझने का प्रयास करें।
ये छोटे-छोटे प्रसंग बहुत अर्थपूर्ण हैं, क्योंकि ज़ेन के लोग कहते हैं--
कि जो कुछ तुम्हारे अस्तित्व की गहराई में घटता है,
उसे अभिव्यक्त नहीं किया सकता, लेकिन उसे दिखाया जा सकता है।
एक ऐसी स्थिति निर्मित की जा सकती है, जिसमें उस ओर इशारा किया जा
सकता है, उस सम्बन्ध में शब्द कुछ भी बताने में समर्थ नहीं हो सकते,
लेकिन एक जीवन्त प्रसंग इसे स्पष्ट कर सकता है।
यही कारण है कि ज़ेन में इतने अधिक वृत्तान्त और बोध कथाएं हैं
यह बोध-कथाएं ही संकेत देती हैं।
अन्य कोई दूसरा ऐसी सुन्दर बोध कथाएं सृजित करने में समर्थ न हो सका।
यहां सूफियों की भी कथाएं हैं, यहां हसीद की कथाएं भी हैं,
और यहां कई अन्य भी हैं, लेकिन ज़ेन कथाओं का कोई मुकाबला नहीं।
ज़ेन के पास ही सही चीज पर चोट करने की निर्दोष विधि है,
और उससे वह संकेत मिलता है, जिसे इंगित किया ही नहीं जा सकता।
और वह भी इतने सरल तरीके से, कि तुम उससे चूक सकते हो:
तुम्हें उसके लिए खोज करनी होगी, तुम्हें उसके लिए इधर-उधर टटोलना
होगा
कि वह वृत्तान्त अपने आप में इतना सरल है,
कि तुम उससे चूक सकते हो।
वह बहुत जटिल नहीं है, वास्तव में उसके लिए बुद्धि की जरूरत ही नहीं

वस्तुत, उसके लिए हृदय के द्वार खोलना है, जिससे तुम उसे समझ सको।
जरा इस छोटे से वृत्तान्त को देखें.. .जो ज़ेन के पूरे महत्व को दर्शाता है:
किसी व्यक्ति ने सद्‌गुरु बोकूजू से पूछा :
हमें प्रतिदिन कपड़े पहनने होते हैं और भोजन भी करना होता है
इस सभी से हम कैसे बाहर हो जाएं?
यही बात यदि उसने बुद्ध से भी पूछी होती,
तो ठीक ऐसा ही उत्तर उनसे न मिला होता।
वह उत्तर तो बीज के चित्त से आया होता।
बुद्ध ने कहा होता! यह सभी कुछ एक भ्रम और धोखा है।
और अधिक होशपूर्ण बनो,
इस संसार द्वारा सपने और भ्रम प्रक्षेपित करने वाली क्षमता को पहचानो,
जो तुम देख रहे हो, वह सभी कुछ माया है।
अधिक से अधिक सचेत बनो और यह खोजने का प्रयास मत करो
कि कैसे इससे बाहर हुआ जाए?
क्योंकि कोई भी स्वप्न से बाहर कैसे हो सकता है?
कोई भी व्यक्ति जैसे ही सचेत हो जाता है, वह उससे बाहर हो जाता है।
क्या तुमने कभी भी किसी व्यक्ति को सपने से बाहर आते हुए देखा है?
एक सपना तो झूठा होता है, तुम उससे बाहर कैसे हो सकते हो?
पहली बात तो यह चमत्कार है कि तुम उसमें प्रविष्ट हो गए
क्योंकि वह झूठा है, वह वहां है ही नहीं और तुमने उसमें प्रवेश पा लिया,
और अब पूछ रहे हो, कि उससे बाहर कैसे आएं?
जिस तरह से तुमने उसमें प्रवेश किया, उसी तरह उससे बाहर आ जाओ!
तुमने यह विश्वास करते हुए कि वह असली और सत्य है, उसमें प्रवेश
किया था।
यही वह तरीका है, जिससे कोई भी स्वप्न में प्रविष्ट होता है--
यह विश्वास करते हुए कि वह वास्तविक है।
इसलिए यह समझते हुए कि वह वास्तविक और सच नहीं है, अपना
विश्वास छोड़ दो।
और तुम स्वप्न के बाहर आ जाते हो।
उससे बाहर आने की अन्य कोई भी न तो विधियां हैं, न कोई तरकीबें हैं
और न कोई चरण हैं।
बुद्ध ने कहा होता: जरा देखो.. .तुम्हारा पूरा जीवन ही एक सपना है-- और
तुम उससे बाहर हो गए होते।

यदि चीन के सबसे बड़े बुद्धिमान व्यक्ति कच्चाशयस से,
जिसके पास बहुत संतुलित चित्त था, न तो बहिर्मुखी और न अंतर्मुखी,
यह प्रश्न पूछा गया होता, तो उसने कहा होता!
इससे बाहर आने की कोई जरूरत ही नहीं है।
इन नियमों का पालन करो, और तुम उसका आनंद लेने में समर्थ हो पाओगे।
कन्फ्यूशियस ने कुछ नियम दिए होते,
और उनका अनुसरण करने को कहा होता, और कहा होता--
किसी को उससे बाहर आने की जरूरत ही नहीं है,
किसी को बस ठीक तरह से अपनी जीवन की योजना बनानी चाहिए
किसी को ठीक तरह से अपने स्वप्न जीवन की भी योजना बनानी चाहिए।
कन्फ्यूशियस कहता है--यदि तुम अपने सपने में भी कुछ काम गलत करते
हो तो तुम्हें उस पर विचार करना चाहिए--
कहीं न कहीं अपनी जागृत दशा में तुम सत्पथ का अनुसरण नहीं कर रहे हो।
अन्यथा सपने में भी गलत की ओर तुम कैसे जा सकते थे?
कोई चीज तय करो, कुछ चीजों को संतुलित करो--
यही कारण है, उसने तीन हजार तीन सौ नियम बनाए।

लेकिन जापान में उन्होंने इसका पूरी तरह भिन्न उत्तर दिया होता:
बुद्ध के द्वारा दिया गया उत्तर, बीज से आया होता,
कन्फ्यशियस द्वारा दिया गया उत्तर वृक्ष से--
और बोकूजू से यह उत्तर खिले हुए फूल से आ रहा है।
निश्चित रूप से ये सभी उत्तर भिन्न हैं--
लेकिन सभी की जड़ें एक ही समान सत्य में हैं,
लेकिन वे एक जैसे संकेतों का प्रयोग नहीं कर रहे हैं, और कर भी नहीं
सकते।
जो कुछ बीकूजू कर रहा है--वह बस फूल के ही समान है,
यही सबसे अधिक ठीक सम्भावना है।
बीकूजू ने उत्तर दिया
हम कपड़े पहनें और भोजन करें।
इतना अधिक सरल उत्तर-- और इससे चूक जाने की प्रत्येक सम्भावना है।
तुम सोच सकते हो: आखिर क्या कह रहा है वह?
यह तो अर्थहीन बकवास जैसी है। उस व्यक्ति ने पूछा था--
''हमें प्रतिदिन कपड़े पहनने होते हैं, हमें प्रतिदिन खाना-खाना होता है--
हम सभी से बाहर कैसे निकलें?''
और बोकूजू ने उत्तर दिया--हम कपड़े पहनें और भोजन करें।
बोकूजू क्या कह रहा है, वह किस ओर इशारा कर रहा है?
यह बहुत ही सूक्ष्म है। वह कह रहा है:
हम भी यही करते हैं--हम भोजन करते हैं, हम कपड़े पहनते हैं--
लेकिन हम भोजन इतनी समग्रता से करते हैं
कि भोजन करने वाला नहीं बचता, केवल भोजन करना रह जाता है।
हम इतनी समग्रता से कपड़े पहनते हैं, कि कपड़े पहनने वाले का-- अस्तित्व
ही नहीं रह जाता, केवल कपड़े पहनना ही रह जाता है।
हम चलते हैं लेकिन वहां कोई चलने वाला नहीं होता, केवल चलना रह जाता है।
इसलिए यह कौन पूछ रहा है कि कैसे उससे बाहर हो जाएं?
इस बहुत बड़े अंतर को देखो।
बुद्ध ने कहा होता कि यह सभी कुछ एक सपना है,
तुम्हारा भोजन करना, तुम्हारे कपड़े पहनना, और तुम्हारा चलना--
और बोकूजू कहता है--कि तुम ही एक स्वप्न हो।
इन दोनों में अत्यधिक अंतर है।
बोकूजू कह रहा है: तुम स्वयं को इसके अन्दर मत लाओ,
बस भोजन करो, चलो और सो जाओ।
कृत्य से बाहर हो जाने की बात आखिर कौन पूछ रहा है?
अपना अहंकार छोड़, इसका कोई अस्तित्व है ही नहीं,
और जब तुम हो ही नहीं, तो तुम उससे बाहर ही कैसे हो सकते हो?
ऐसा नहीं कि चलना एक स्वप्न है, लेकिन चलने वाला एक स्वप्न है।
ऐसा नहीं कि भोजन करना एक स्वप्न है, लेकिन भोजन करने वाला एक
स्वप्न है।
और तुम बहुत सूक्ष्मता से इसका निरीक्षण करो--
यदि तुम वास्तव में चल रहे हो, तो क्या वहां, तुम्हारे अन्दर कोई चलने वाला
है?
चलना ही घट रहा है, यह एक प्रक्रिया है।
पैर आगे उठ रहे हैं, हाथ हिल रहे हैं, तुम श्वांस भी तेज ले रहे हो,
तुम्हारे चेहरे को स्पर्श करती हवा बह रही है, तुम इसका आनंद ले रहे हो
तुम जितने अधिक तेज चलते हो, तुम उतने ही अधिक जीवन का अनुभव
करते हो--प्रत्येक चीज बहुत सुन्दर है, लेकिन क्या वास्तव में वहां कोई
चलने वाला है?
क्या वहां कोई अन्य व्यक्ति, तुम्हारे अन्दर बैठा हुआ है?
यदि तुम होशपूर्ण हो जाओ, तो तुम पाओगे कि केवल प्रक्रिया, करना,
अथवा कृत्य का ही अस्तित्व है।
यह अहंकार भ्रमपूर्ण है, यह केवल मन का ही एक सृजन है
तुम भोजन कर रहे हो और तुम सोचते हो कि वहां ऐसा कोई व्यक्ति--
अन्दर होना ही चाहिए जो भोजन कर रहा है,
क्योंकि तर्क कहता है अपने अन्दर एक चलने वाले के बिना तुम कैसे चल सकते हो?
वहां किसी भोजन करने वाले के बिना तुम कैसे भोजन कर सकते हो?
बिना वहां अन्दर किसी प्रेमी के तुम कैसे प्रेम कर सकते हो?
जो तर्क है, वह यही कहता है। लेकिन यदि तुमने प्रेम किया है,
और यदि तुम उस क्षण तक पहुंचे हो, जहां वास्तव में प्रेम ही रह जाता है।
तो तुमने यह जरूर जाना होगा कि वहां अन्दर कोई प्रेमी था ही नहीं--
केवल प्रेम था, एक प्रक्रिया, एक ऊर्जा थी। लेकिन अन्दर कोई भी न था।
तुम ध्यान करते हो, लेकिन क्या वहां कोई ध्यान करने वाला होता है?
और जब ध्यान खिलावट पर आता है, और अन्दर कोई विचार बचते ही नहीं,
तो वहां कौन होता है अन्दर?
क्या वहां कोई व्यक्ति होता है जो कहता है--कि अब सभी विचार मिट
गए?
यदि वह वहां होता है, तो ध्यान की खिलावट हुई ही नहीं,
कम से कम एक विचार तो अब भी वहां है।
जब ध्यान की खिलावट होती है,
वहां इसको नोट करने वाला भी कोई नहीं होता,
उसे पहचान देने वाला भी कोई नहीं होता,
कोई यह कहने वाला भी नहीं होता कि--हां यह घट गया है।
जिस क्षण तुम यह कहते हो -- हां, वह घट चुका है--
वह उसके पहले ही खो जाता है।
जब वहां वास्तव में ध्यान होता है, सर्वत्र एक मौन छा जाता है,
एक असीम आनंद धड़कता रहता है,
बिना सीमाओं के पूरे अस्तित्व के साथ एक लयबद्धता हो जाती है,
लेकिन वहां इसे नोट करने वाला कोई भी नहीं होता।
वहां यह कहने वाला कोई भी नहीं होता  हां, यह घटा है।
इसीलिए उपनिषद कहते हैं कि जब कोई व्यक्ति यह कहता है
मैंने 'उसका' अनुभव कर लिया अथवा उसे पा लिया, तो समझना--उसने
नहीं पाया है।
इसी कारण सभी बुद्धों ने कहा है,
कि जब भी कोई व्यक्ति कुछ दावा करता है, तो उसका दावा करना ही यह
प्रदर्शित करता है कि वह अंतिम शिखर पर अभी पहुंचा ही नहीं, क्योंकि अंतिम शिखर पर पहुंचकर, दावा करने वाला ही मिट जाता है।
वास्तव में वह वहां कभी था ही नहीं।
भोजन करना एक स्वप्न नहीं है--भोजन करने वाला एक स्वप्न है।
बीज से फूल होने पर पूरा बल लगाकर वह बदलकर कुछ और हो जाता है।
इसी वजह से पश्चिम में बहुत से लोग यह सोचते हैं
कि ज़ेन को, 'ज़ेन बुद्धिज्म' पुकारना ठीक नहीं है,
क्योंकि उत्तरों में एक बहुत बड़े अंतर का अनुभव होता है।
लेकिन ये लोग गलत हैं।
ज़ेन बुद्धिज्म पूरी तरह से शुद्ध बुद्धिज्म है।
बुद्ध से भी कहीं अधिक शुद्धतम, बौद्ध धारणाओं से भी शुद्धतम।
जो सबसे अधिक सारभूत है जो शुद्धतम ध्यान है,
चेतना की जो शुद्धतम खिलावट और सुवास है।
तुम अस्तित्व में होते हो, पर बिना किसी केंद्र के,
वहां बिना किसी के होने पर भी तुम होते हो।
तुम होते हो, पर फिर भी नहीं होते हो
यही है वह जिस पर तिलोपा बल दे रहा है:
कोई भी आत्मा नहीं, ' अनन्ता  एक रिक्तता, परिपूर्ण (शून्यता)
बोकूजू क्या कह रहा है? वह कहता है--' 'हम वस्त्र पहनें, और भोजन करें।
उसका उत्तर पूरा हो गया, समाप्त हो गया। ''वह परिपूर्ण है। वह केवल यही
कह रहा है--' 'हम भोजन करें और वस्त्र पहनें। और हमें ऐसा करने में कभी
किसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा और न हमें कभी कोई ऐसा व्यक्ति
मिला, जो इनके बाहर आ सका हो।
अन्दर कोई भी नहीं है वहां।
भोजन करना है वहां, कपड़े पहनना है वहां, अहंकार नहीं है वहां।
वह कह रहा है--ऐसा मूर्खता भरा प्रश्न पूछो ही मत।
प्रश्नकर्त्ता ने कहा-- मैं आपकी बात समझा ही नहीं।
वह कुछ नियम और अनुशासन खोजने आया होगा,
कि कैसे एक धार्मिक व्यक्ति बना जाए
खाने और कपड़े पहनने जैसी कम महत्व की चीजों,
और रोज-रोज के एक जैसे ही रुटीन को कैसे छोड़ा जाए?
प्रत्येक दिन, बार-बार कोई भी वही सब कुछ किए जा रहा है उसका जी भर चुका होगा, वह ऊब गया होगा,
और प्रत्येक व्यक्ति एक दिन इसी समस्या का सामना करता है।
यदि तुम थोड़े से भी बुद्धिमान हो,
तो जब तुम्हें ऊबाहट का अनुभव होगा, तुम इसी नतीजे पर पहुंचोगे।
केवल मूर्ख और साधू-संत ही कभी नहीं ऊबते,
अन्यथा बुद्धिमान व्यक्ति तो ऊबने के लिए बाध्य हैं।
आखिर यह सब क्या चला जा रहा है?
प्रत्येक दिन तुम सोने इसीलिए जाते हो, जिससे फिर--
अगले दिन सुबह उठ सको,
और तब नाश्ता करो और फिर ऑफिस जाओ।
और यही सभी कुछ चलता चला जा रहा है।
और तुम जानते हो कि तुम यह सभी कुछ इसीलिए कर रहे हो,
जिससे सोने के बाद तुम फिर से जाग सको,
और तुम भली भांति जानते हो कि सुबह फिर से यही रुटीन, शुरू हो
जाएगा।
किसी को रोबोट की भांति पूरी दिनचर्या यंत्रवत् लगने लगती है।
और यदि तुम सचेत हो जाओ,
जैसे कि भारत में लोग अतीत के प्रति सचेत हो गए हैं,
कि ऐसा सभी कुछ लाखों जन्मों से चला आ रहा है,
तुम मृत्यु आने तक पूरी तरह ऊबाहट को महसूस करने के लिए बाध्य हो।
इसी वजह से तो वह पूछ रहा है: कैसे इसके बाहर हुआ जाए?
जीवन और मृत्यु का यह चक्र, हमें पीसते और क्षण- क्षण कुचलते हुए
चलता ही चला जा रहा है,
ठीक ग्रामोफोन के चटके रिकार्ड की तरह,
वही पंक्ति वह बार-बार दोहराए चला जा रहा है।
ऐसा तुम्हारे साथ लाखों बार घटा है
तुम प्रेम में पड़े हो, तुमने विवाह किया है, तुमने कठोर श्रम किया है,
तुमने बच्चों को जन्म दिया है, तुमने संघर्ष किया है, तुम मरे हो।
ऐसा बार-बार, फिर-फिर हमेशा होता ही रहा है।
इस तथ्य के प्रति सचेत बनने और निरंतर होते पुनर्जन्मों के कारण ही भारत
इससे ऊब गया भारत की पूरी चेतना इससे इतनी अधिक थक चुकी है
कि उनका पूरा प्रयास यही हो गया--कैसे इस चक्र से बाहर हुआ जाए?
इसी कारण वह व्यक्ति बोकूजू के पास पूछने आया--
इस रुटीन से बाहर आने में कृपया मेरी सहायता करें।
यह सभी कुछ बहुत अधिक हो चुका और मैं नहीं जानता--
कैसे इससे बाहर हुआ जाए?
रोज-रोज कपड़े पहनना, रोज-रोज भोजन करना-- इस मृत दिनचर्या और
इस लीक से कैसे हटकर, बाहर आया जाए
बोकूजू कहता है--हम वस्त्र पहनें, हम भोजन करें।
वह बहुत सी चीजें कह रहा है इसके साथ।
वह कह रहा है कि बाहर हो जाने वाला वहां कोई व्यक्ति है ही नहीं,
इसलिए यदि वहां कोई व्यक्ति है ही नहीं, तो तुम कैसे ऊब सकते हो?
वहां ऊबने वाला है कौन?
मैं भी प्रतिदिन सुबह उठ बैठता हूं स्नान करता हूं
भोजन करता हूं कपड़े पहनता हूं और वह प्रत्येक कार्य करता हूं
जिसे तुम भी करते हो, लेकिन मैं कभी भी ऊबता नहीं हूं।
मैं इसे शाश्वतता के अंत तक किए जा सकता हूं
और मैं क्यों नहीं ऊबता हूं?
क्योंकि मैं वहां होता ही नहीं, इसलिए कौन ऊबने जा रहा है वहां?
और यदि तुम वहां हो ही नहीं
तो यह कहने कौन जा रहा है कि यह सभी दोहराना भर है?
हर सुबह एक नई सुबह होती है, यह अतीत की पुनरावृत्ति नहीं है
हर नाश्ता नया होता है। हर क्षण नूतन और ताजगी से भरा हुआ--
सुबह घास पर पड़ी ओस की तरह होता है।
तुम ऊब का अनुभव अपनी स्मृति के कारण करते हो-- जिसे तुमने अतीत में
इकट्ठा किया है, और जिसे तुम साथ ढोते हुए चल रहे हो, और तुम इस नूतन
क्षण को भी अतीत के चश्मे से देख रहे हो, जिस पर अतीत की धूल लगी है
और वह धुंधला हो गया है।
बोकूजू इसी क्षण में जी रहा है
और इस क्षण की तुलना करने के लिए वह दूसरे क्षणों को साथ नहीं लाता
है--वहां कोई व्यक्ति है ही नहीं, जो अतीत को ढो रहा हो,
और वहां व्यक्ति है ही नहीं, जो भविष्य के बारे में सोच रहा हो।
वहां केवल एक जीवन शैली है, चेतना की एक नदी प्रवाहित हो रही है।
जो क्षण- क्षण हमेशा ज्ञात से अज्ञात की ओर,
और परिचित से अपरिचित स्थान की ओर आगे बढ़ती जा रही है।
इसलिए वहां इस बारे में चिंता करने वाला है कौन,
कि इससे बाहर होना है?
वहां कोई भी है ही नहीं।
बोकूजू कहता है : हम भोजन करें और कपड़े पहनें,
और काम पूरा हो गया। हम उससे कोई समस्या सृजित करते ही नहीं।
समस्या उत्पन्न होती है मनोवैज्ञानिक स्मृति के कारण।
तुम हमेशा अपने अतीत को ले आते हो,
तुम हमेशा उसे तुलना करने के लिए निर्णय करने,
और उसकी निंदा करने के लिए ले आते हो।
यदि मैं तुम्हें कोई फूल दिखलाता हूं तुम उसे प्रत्यक्ष रूप से नहीं देखते।
तुम कहते हो : हां, यह एक सुन्दर गुलाब है।
उसे गुलाब कहकर पुकारने की जरूरत क्या है?
जिस क्षण तुम उसे गुलाब कहकर पुकारते हो,
तो वे सभी गुलाब, जिन्हें तुमने अतीत में जाना है, याद आ जाते हैं।
जिस क्षण तुम उस फूल को गुलाब कहकर पुकारते हो,
तुम उसकी अन्य फूलों के साथ तुलना कर चुके होते हो।
जिस क्षण तुमने उसे गुलाब कहकर पुकारा,
तुमने उसे पहचान कर उसे श्रेणीबद्ध कर दिया।
जिस क्षण तुमने उसे गुलाब कहा,
और जिस क्षण तुमने उसे सुन्दर कहा,
तुम्हारी सौंदर्य की सारी धारणाएं कल्पनाएं
देखे गए सभी गुलाबों की स्मृतियाँ और सभी चीजें तुम्हारे सामने आ गईं,
और इस भीड़ में सामने का गुलाब कहीं खो गया।
वह गुलाब दृश्य पटल पर रह ही नहीं गया
तुम्हारी स्मृतियों, कल्पनाओं और धारणाओं में,
वह सुन्दर खिला ताजा फूल लुप्त हो गया, और फिर तुम्हारा मन उससे भी उकता जाता है
क्योंकि वह भी दूसरे गुलाबों जैसा ही दिखाई देगा।
क्या अंतर है इसमें?
यदि तुम इस गुलाब की ओर, अतीत की स्मृति के बिना कोरी, ताजी दृष्टि से,
समझ भरी स्पष्ट चेतना से विचारों के बादलों से रहित--
शून्याकाश में, हृदय के द्वार खोलकर, बिना शब्दों के अस्तित्व के,
प्रत्यक्ष रूप से सीधे ही देख सको,
यदि तुम कुछ देर के लिए यहीं और अभी इस फूल के साथ अकेले रह सको,
तुम तभी उसे समझ सकोगे। जब बोकूजू कहता है:
हम कपड़े पहनें और अपना भोजन करें।
वह कह रहा है वर्तमान में प्रत्येक कार्य इतनी अधिक समग्रता से करो,
कि तुम यह अनुभव ही न कर सको कि तुम उस कार्य की पुनरावृत्ति कर रहे
हो--
और क्योंकि तुम वहां हो ही नहीं, तुम अनुपस्थित हो, तो वहां है कौन,
जिसे अतीत को ढोना है, और जिसे भविष्य की कल्पना करना है।
और तब एक भिन्न गुणों की उपस्थिति घटती है तुममें
जो क्षण-क्षण नूतन, ताजी और स्वाभाविक रूप से बहती हुई शिथिल होती
है, जो एक क्षण से दूसरे क्षण में सरलता से सरक जाती है।
जैसे कभी भी एक सांप अपनी पुरानी केंचुल छोड्‌कर उससे सरकता हुआ.
बाहर आ जाता है।
पुरानी खाल पीछे छूट जाती है, जिसे वह कभी पीछे लौटकर देखता ही नहीं,
वह पुरानी खाल को अपने साथ लादने की कोशिश नहीं करता,
एक होशपूर्ण व्यक्ति एक क्षण से दूसरे क्षण में बस सरक जाता है
जैसे घास की पत्तियों पर पड़ी ओस की बूंदें नीचे फिसल जाती हैं,
वे अपने साथ कोई चीज लाद कर नहीं ले जातीं।
एक होशपूर्ण व्यक्ति कोई सामान ढोने वाला वाहन नहीं होता,
वह निर्भार बना घूमता है
तब उसके लिए हर चीज नई होती है और तब कोई समस्याएं निर्मित नहीं
होतीं।
जो कुछ बोकूजू कह रहा है, वह यही ऐ :
अच्छा यही है कि समस्याओं का सृजन मत करो।
क्योंकि हम ऐसे किसी व्यक्ति को जानते ही नहीं, जिसने कभी भी,
कोई भी समस्या सुलझाई हो।
एक बार उत्पन्न हो जायें, फिर वे समस्याएं सुलझ ही नहीं सकतीं।
उन्हें हल करने का एक ही मार्ग है कि उन्हें उत्पन्न ही मत करो।
क्योंकि एक बार उनके सृजित करने के दौरान तुमने एक गलत कदम उठा
लिया था,
अब चाहे तुम कुछ भी करो, वह उठाया गया गलत कदम तुम्हें हल करने ही
नहीं देगा।
यदि तुम पूछते हो कि अहंकार कैसे गिराया जाए
तो तुमने एक समस्या निर्मित कर दी, जिसे हल नहीं किया जा सकता।
यहां ऐसे हजारों शिक्षक हैं, जो तुम्हें निरंतर सिखाए चले जा रहे हैं,
कैसे विनम्र बना जाए कैसे निरहंकार हुआ जाए कैसे समस्याओं को हल
किया जाए?
और कुछ भी तो नहीं होता-- तुम दीन और विनम्र नहीं हो पाते,
तुम वैसे ही अहंकारी बने रहते हो,
तुम अपनी तथाकथित अहंकारशून्यता में भी, एक सूक्ष्म अहंकार लिए रहते
हो।
नहीं, वे लोग जो जानते हैं, जो विद्वान हैं, वे किसी भी समस्या को हल करने
में तुम्हारी कोई भी सहायता नहीं कर सकते।
वे तुमसे पूछेंगे-- अहंकार है कहां?
वे तुमसे पूछेंगे-- वह है कहां? वास्तव में समस्या जो भी है,
वे तुम्हें उस समस्या को हल करने में नहीं, उसे समझाने में सहायक होंगे,
क्योंकि जो समस्या है वह झूठी है।
यदि प्रश्न की जड़ें ही किसी गलत चीज से विकसित हुई हैं,
यदि प्रश्न ही गलत है तो उसका उत्तर भी ठीक नहीं हो सकता।
तब दिए गए सारे उत्तर व्यर्थ होंगे, और वे तुम्हें
और अधिक झूठे और नकली प्रश्नों की ओर ले जाएंगे।
यह एक दुम्बक्र बन जाएगा--
यही कारण है कि दार्शनिक पागल बन जाते हैं।
वे यह देखते ही नहीं कि प्रश्न ही गलत है,
वे उत्तर सृजित करते हैं,


और तब वह उत्तर और अधिक प्रश्नों को जन्म देता है,
और कोई भी उत्तर कोई भी चीज हल नहीं कर पाता।

फिर तब क्या किया जाए? ज़ेन क्या कहता है इस बारे में?
ज़ेन कहता है स्वयं समस्या को ही गौर से देखो,
उत्तर भी उसी में छिपा हुआ है।
प्रश्न में जरा गहराई से झांक कर देखो,
और यदि तुमने उसे भरपूर दृष्टि से देखा, तो प्रश्न मिट जाएगा।
किसी भी प्रश्न ने कभी उत्तर दिया ही नहीं, वह बस विसर्जित हो जाता है।
और जब वह मिट जाता है तो अपने पीछे अपना कोई चिह्न भी नहीं छोड़ता।
वह कह रहा है समस्या आखिर है कहां?
हम भी भोजन करते हैं, हम भी रोज कपड़े पहनते हैं,
लेकिन हम केवल खाते हैं और कपड़े पहनते हैं। फिर समस्या खड़ी क्यों
कर रहे हो? बोकूजू कह रहा है -- जीवन जैसा भी है उसे स्वीकार करो।
समस्याएं सृजित मत करो।
किसी को भोजन करना है-- भोजन करे।
तुम्हें भूख लगी है, तुमने उसे सृजित नहीं किया है
उसकी तृप्ति होनी ही चाहिए उसे पूरा करो।
लेकिन कोई समस्या सृजित मत करो।
जब लोग मेरे पास आते हैं, तो प्रत्येक दिन पूरी स्थिति यही होती है,
वे अपनी समस्याएं साथ लेकर आते हैं।
लेकिन मैं अभी तक ऐसी किसी एक भी समस्या से होकर नहीं गुजरा,
क्योंकि वहां कोई समस्या है ही नहीं।
तुम ही उन्हें सृजित करते हो, और तब तुम ही उनका उत्तर और हल चाहते
हो।
यहां ऐसे बहुत से लोग हैं, जो तुम्हें इनका उत्तर और हल बता देंगे:
वे छोटी-छोटी सिखावनें होंगीं।
और यहां ऐसे भी लोग हैं, जो तुम्हें अपनी समस्याओं में झांकने के लिए तुम्हें
अंतदृष्टि देंगे यही सबसे बड़ी सिखावन है।
छोटी-छोटी शिक्षाएं बलपूर्वक अनुशासन की ओर ले जाती हैं,
और महान शिक्षाएं तुम्हें शिथिल और सहज स्वाभाविक बनने की अनुमति देती हैं।
बोकूजू कहता है हम भोजन करें और वस्त्र पहनें।
लेकिन वह व्यक्ति उसे समझ ही नहीं सका।
वास्तव में ऐसी सीधी सरल चीज को समझना कठिन है।
लोग जटिल चीजें समझ सकते हैं,
लेकिन वे सीधी सरल चीजें नहीं समझ सकते।
क्योंकि एक उलझी और जटिल चीज को टुकड़ों में विभाजित किया जा
सकता है, उसका विश्लेषण किया जा सकता है, तर्कपूर्ण ढंग से उसे समझा
जा सकता है।
लेकिन एक सीधी सरल चीज के साथ क्या किया जा सकता है?
तुम उसका विश्लेषण नहीं कर सकते, तुम काटकर उसके खण्ड नहीं कर
सकते,
तुम उसका विच्छेदन नहीं कर सकते--क्योंकि वहां विच्छेदन करने को कुछ
है ही नहीं।
यह इतना अधिक साधारण और सरल है। और क्योंकि वह साधारण है,
इसीलिए तुम उससे चूक जाते हो।
वह व्यक्ति उसे समझ ही नहीं सका।
लेकिन फिर भी मेरे खयाल में वह व्यक्ति बहुत ईमानदार था।
क्योंकि उसने कहा: मैं इसे समझा नहीं
यहां ऐसे बहुत असाधारण लोग भी हैं, जो यह दिखाने के लिए कि वे समझ
गए हैं, अपना सिर हिला देंगे।
ये लोग महान मूर्ख हैं। कोई भी इनकी सहायता नहीं कर सकता।
क्योंकि ये बहाना बनाए चले जाते हैं, कि वे समझ गए हैं।
यदि वे ऐसा कहते हैं, तो वे स्वयं को ही मूर्ख जैसे दिखाई देंगे।
वे बहाना बनाते हैं, वे इतनी साधारण सी बात भी क्यों नहीं समझ सकते?
वे यह प्रदर्शित किए चले जाते हैं, कि वे समझ गए हैं,
और अब अधिक जटिलताएं उत्पन्न होंगी।
पहली बात तो यह कि वहां कोई समस्या है ही नहीं,
और दूसरी बात यह कि वे उत्तर को समझ गए हैं!
समस्या है ही नहीं, और उन्होंने समस्या के सम्बन्ध में-- अब ज्ञान प्राप्त कर
लिया है: वे कहते हैं--कि वे समझ गए हैं।
वे लोग और उलझते चले जाते हैं,
और उनके अन्दर केवल गलतफहमियां रह जाती हैं।

ऐसे लोग मेरे पास आते हैं और मैं उनके अन्दर यह देख सकता हूं-- वे लोग
एक गड़बड़झाला की स्थिति और एक गलतफहमी में पड़े हुए हैं।
वे लोग कोई भी चीज नहीं समझे हैं।
वे लोग यह भी नहीं समझे हैं कि उनकी समस्याएं क्या हैं,
और उनके पास उत्तर हैं। केवल इतना ही नहीं,
वे दूसरे लोगों की समस्याएं हल करने के लिए
उनकी सहायता करना भी शुरू कर देते हैं।
यह व्यक्ति जरूर ही ईमानदार होना चाहिए।
उसने कहा : मैं समझा नहीं।
यह समझ की दिशा में उठाया गया ठीक कदम है।
यदि तुम नहीं समझे हो, तो तुम समझ सकते हो,
सम्भावना खुली हुई है।
तुम विनम्र हो, तुम कठिनाई को पहचानते हो।
तुम जानते हो कि तुम अज्ञानी हो।
यह पहचानना, कि तुम नहीं समझते हो,
यह जानने और समझ की दिशा में उठाया गया पहला कदम है:
कम से कम वह इतना तो समझ ही गया।
और यह एक बड़ा कदम है।

बोकूजू ने उत्तर दिया:
यदि तुम नहीं समझे हो,
तो अपने कपड़े पहनो, और खाना खा लो।
बीकृजू बहुत करुणावान जैसा नहीं दिखाई देता, लेकिन वह है।
वह कह रहा है: तुम नहीं समझ सकते,
क्योंकि मन कभी समझता नहीं।
मन बहुत बड़ा नासमझ है,
यह मन ही सभी अज्ञान का मूल है।
मन क्यों नहीं समझ सकता?





? १-- ' का महत्व क्या है? 41

क्योंकि यह मन तुम्हारे अस्तित्व का एक बहुत छोटा सा खण्ड है,
और खण्ड नहीं समझ सकता
केवल अखण्ड ही समझ सकता है।
सदा इस बात का स्मरण रखो:
केवल तुम्हारा सम्पूर्ण अस्तित्व ही कुछ चीज समझ सकता है,
उसका कोई खण्ड या भाग नहीं समझ सकता,
न तो तुम्हारी बुद्धि समझ सकती है और न तुम्हारा हृदय,
न तुम्हारे हाथ समझ सकते हैं और न तुम्हारे पैर समझ सकते हैं--
केवल तुम्हारा समग्र अस्तित्व ही उसे समझ सकता है।
समझ, समग्रता की होती है,
नासमझी या गलतफहमी खण्ड या भाग की होती है।
खण्ड सदा गलत ही समझता है,
क्योंकि खण्ड, अखण्ड होने का बहाना बनाने का प्रयास करता है,
और यही है पूरी समस्या।
मन यह कहने का प्रयास करता है कि यही पूरी समझ है,
लेकिन वह तो केवल उसका एक भाग होता है।

जब तुम गहरी नींद में होते हो, तो तुम्हारा मन कहां होता है?
बिना उसके ही शरीर अपना काम किए ही जाता है।
शरीर भोजन पचाता है, उसमें मन की कोई जरूरत ही नहीं है।
तुम्हारा मस्तिष्क पूरी तरह अलग किया जा सकता है
और तुम्हारा शरीर अपना काम करना जारी रखेगा। वह भोजन पचाएगा,
वह विकसित होगा, वह मृत और व्यर्थ चीजें अपने बाहर फेंकेगा।
अब वैज्ञानिक यह अनुभव करने लगे हैं--
कि मन केवल एक विलासिता है।
शरीर के पास अपनी अलग प्रज्ञा होती है, वह मन की चिंता करता ही नहीं।
क्या तुमने कभी इसका निरीक्षण किया है,
कि मन थोड़े से भी अनुभव के बिना भी, बहुत बड़े जानकार बनने का खेल,
खेले ही जा रहा है

जबकि शरीर में जो कुछ भी महत्वपूर्ण है, वह उसके बिना ही चल रहा है।
तुम भोजन करते हो: शरीर मन से यह पूछता नहीं कि उसे कैसे पचाया जाए जबकि यह अत्यन्त ही जटिल प्रक्रिया है।
भोजन को रक्त में रूपान्तरित करना कोई आसान काम नहीं है,
लेकिन शरीर इसे रूपान्तरित करता है, और अपना काम किए चले जाता है,
यह बहुत ही जटिल प्रक्रिया है,
क्योंकि इसमें हजारों तत्व सम्मिलित रूप से कार्य करते हैं,
ठीक अनुपात में शरीर उन रसों और तत्वों को छोड़ता है,
जो भोजन को पचाने के लिए आवश्यक होते हैं।
तब शरीर के लिए जो आवश्यक होता है, वह भोजन से उन तत्वों को
अवशोषित कर लेता है। जो आवश्यक नहीं होते--
उन्हें मल-मूत्र और पसीने के रूप में बाहर फेंक देता है।
प्रत्येक क्षण शरीर में हजारों कोष मर रहे हैं,
शरीर उन्हें रक्तप्रवाह से बाहर फेंकता रहता है।
हारमोन्स और विटामिन्स के लिए वहां लाखों तरह की जरूरतें होती हैं,
हजारों-लाखों चीजों की जरूरत पड़ती है।
और शरीर बाहर के वातावरण से उन्हें खोजे चले जाता है।
जब शरीर को अधिक ऑक्सीजन की जरूरत होती है, वह गहरी सांस लेता है।
जब शरीर को उसकी जरूरत नहीं होती, वह सांस बाहर छोड़ देता है।
प्रत्येक कार्य स्वयं होता रहता है--
इस पूरी यांत्रिक प्रक्रिया में मन केवल एक छोटा सा भाग है,
और बहुत अधिक आवश्यक तथा सारभूत नहीं है।

बिना मन के पशु रह रहे हैं, बिना मन के वृक्ष जीवित है।
और बहुत सुंदर ढंग से जी रहे हैं।
लेकिन मन बहुत बड़े-बड़े झूठे दावे करता है,
वह विश्वास दिलाता है, कि वही सभी का आधार और नींव है,
वही पूरी प्रक्रिया का शिखर और चरम है,
वह झूठे दावे किए चले जाता है।
तुम केवल अपने इस मन का निरीक्षण करो और तुम यह सब कुछ देख
सकोगे।
इसी झूठे दावे करने वाले बहानेबाज मन के द्वारा ही,
जो तुम्हारे अन्दर केवल एक जाली हस्ताक्षर की भांति है,
तुम बोकूजूको समझना चाहते हो।
क्या कह रहा है बोकूजू
वह कहता है : यदि तुम नहीं समझे,
तो अपने कपड़े पहनो और अपना खाना खाओ।
समझने के बारे में फिक्र करो ही मत।
तुम हम जैसे बन जाओ--
भोजन करो और कपड़े पहनो, और इसे समझने का प्रयास करो ही मत।
समझने की बहुत अधिक कोशिश और गतिविधियां--
केवल गलतफहमियां ही सृजित करती हैं।
इसकी कोई आवश्यकता है ही नहीं।
साधारण और अखण्ड बनकर जीयो, और रहो।
यही है वह--जो बोकूजू कह रहा है:
भोजन करो और कपड़े पहनो और केवल होना भर रह जाओ।
समझने या न समझने के बारे में भूल ही जाओ,
उसकी जरूरत क्या है?
यदि बिना समझ के वृक्ष जीवित रह सकते हैं,
फिर तुम्हारे लिए समझने वाले मन की जरूरत क्या है?
यदि समझे बिना पूरा अस्तित्व चल रहा है, तो तुम फिक्र क्यों करते हो?
इस छोटे पिद्दी से मन को अपने अन्दर लाकर, क्यों समस्याएं उत्पन्न कर रहे
हो?
विश्राम करो और रहो।
बोकूजू कह रहा है कि समझ तो पूर्ण समग्रता से आती है।
तुम समग्रता से भोजन करो, समझने का प्रयास ही मत करो।
तुम समग्रता से चलो, टहलो, प्रेम करो, भोजन करो, स्नान करो और सो
जाओ।
पूर्ण और समग्र बनकर रहो। चीजों को स्वयं घटने दो।
अखण्ड बने रहो।
और समझने का प्रयास ही मत करो, क्योंकि प्रयास करने की वही कोशिश,
समझने का वह प्रयास ही समस्या उत्पन्न करता है।
तुम विभाजित हो जाते हो।
समस्या सृजित मत करो--बस समग्र बने रहो।

कभी इसे करने की कोशिश करो।
मैं चाहूंगा कि तुम इसे करने का प्रयास करो।
कभी तीन सप्ताह के लिए पहाड़ों में चले जाओ और वहां समग्र बनकर रहो।
कुछ भी समझने का प्रयास मत करो वहां, बस समग्रता से बने रहो,
स्वाभाविक रूप से विश्राममय होकर रहो।
जब तुम्हें नींद आए सोने चले जाओ।
जब तुम्हें भूख लगे, भोजन कर लो।
यदि भूख जैसा कुछ भी न लगे, तो मत करो भोजन।
वहां शीघ्रता करने की कोई जरूरत ही नहीं है।
हर चीज समग्र रूप से केवल शरीर पर छोड़ दो।
यह मन ही समस्याओं का जनक है।
कभी यह कहता है--उपवास करो, जब कि शरीर को भोजन की जरूरत
होती है।
कभी यह कहता है, और अधिक खाओ, क्योंकि भोजन बहुत स्वादिष्ट है।
और जब शरीर कहता है: बस, बहुत हो चुका, रुको,
कुछ और लेने को विवश मत करो--
तो तुम उस 'पूर्ण' और समग्र की बात सुनते ही नहीं।
वह पूर्ण बहुत प्रज्ञावान है।
उस पूर्ण में तुम्हारा मन, तुम्हारा शरीर और प्रत्येक चीज शामिल है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं--मन को काट कर अलग रख दो--
वह भी अप्राकृतिक है। वह केवल एक भाग है,
मन की अपनी एक जगह जरूर है, उसकी एक आनुपातिक सहभागिता है,
लेकिन उसे तानाशाह बनने की छूट नहीं देनी चाहिए।
यदि वह तानाशाह बन जाता है, तब समस्याएं खड़ी करता है।
और तब उसके समाधान खोजता है,
यह समाधान और अधिक समस्याएं उत्पन्न करते हैं,
उन्हें फिर हल करना, फिर और समस्याएं उत्पन्न होना, और यह प्रक्रिया--
तब तक चलती रहती है, जब तक अंत में तुम पागलखाने नहीं पहुंच जाते।
मन की मंजिल है पागलखाना।
जो लोग शीघ्रता से तेज चलते हैं, वे निश्चय ही वहां जल्दी पहुंच जाते हैं,
जो लोग धीमे चलते हैं, वे लोग कुछ देर बाद पहुंचते हैं--
लेकिन ऐसा प्रत्येक व्यक्ति पंक्ति में लगा है।
मन की मंजिल पागलखाना है, क्योंकि वह पूर्ण का एक भाग बनकर--
पूर्ण होने का दावा कर रहा है।
यह कोशिश करना ही पागलपन और नासमझी है।

और सभी धर्मों ने तुममें विभाजन सृजित करने में सहायता की है।
सभी धर्मों ने मन को सहायता दी है।
कि वह अधिक से अधिक तानाशाह बने।
वे कहते हैं--शरीर को सताओ, उसे मारो,
और तुम नहीं समझ पाते कि तुम क्या कर रहे हो?
तुम शरीर को सताना और मारना शुरू कर देते हो।
मन, शरीर और आत्मा-- ये सभी साथ-साथ
एक सहभागिता में एक दूसरे के साथ संयुक्त हैं।
इन्हें विभाजित मत करो, सभी विभाजन झूठे हैं, वे राजनैतिक हैं।
यदि तुम विभाजित हो जाते हो, तो मन तानाशाह बन जाता है
क्योंकि मन ही शरीर में सबसे अधिक होशियार भाग है,
वहां अन्य उस जैसा कुछ भी नहीं है।
ऐसा जीवन में भी रोज होता है:
यदि एक व्यक्ति अधिक होशियार है, तो वह लोगों का नेता बन जाएगा।
यदि वह बात करने में निपुण है, यदि वह एक वक्ता है
यदि भाषा पर उसका नियंत्रण है, तो वह एक नेता बन जाएगा।
इसलिए नहीं, कि उसमें एक नेता बनने की सामर्थ्य है,
बल्कि इसलिए क्योंकि वह बात करने में कुशल है,
वह लोगों के मनों को प्रभावित करता है,
वह लोगों को फुसलाने में कुशल है, एक अच्छा सेल्समैन है और पारंगत है।
यही कारण है अच्छे वक्ता ही विश्व का नेतृत्व करते हैं।
निश्चित रूप से वे लोग उसे गहरी से गहरी अव्यवस्था और गड़बड़ी में ले
जाते हैं,
क्योंकि वे लोग मनुष्यों के मार्गदर्शक नहीं हैं।
उनमें बातचीत करने के सिवा अन्य कुछ भी गुण नहीं है।
इसलिए तुम्हारा संसद भवन और कुछ भी नहीं, बल्कि बातों का एक घर मात्र
लोग वहां सिर्फ बातें ही बातें करते रहते हैं और उनमें से एक,
जो, अपनी भाषा पर अच्छा अधिकार और नियंत्रण रखता है, उनका प्रमुख
बन जाता है।
यही कारण है कि तुम्हारी संसद, विधानसभाएं और पागलखाने,
एक दूसरे से बहुत भिन्न नहीं हैं-- वे एक जैसे ही हैं।
पूर्ण बनने का गुण, पूरी तरह एक भिन्न बात है।
यह प्रश्न पारंगत या होशियार बनने का नहीं है,
वस्तुत: यह प्रश्न है--प्रत्येक भाग को आनुपातिक सहभागिता देने का।
यह एक लयबद्धता है।
यह तुम्हारे जीवन को एक लय, एक तान और एक मधुर स्वर देना है,
जिसमें प्रत्येक चीज सम्मिलित हो।
तब मन भी बहुत सुन्दर है।
तब यह तुम्हें पागलखाने की ओर न ले जाकर,
यह मन ही एक महान बोध का आलय बन जाता है,
यह मन ही बुद्धत्व बन जाता है।
तुम्हारा पूर्ण ही एक अखण्ड बन कर रहता है:
तुम अपने आप को विभाजित नहीं करते,
तुम्हारी प्रज्ञा अविभाजित बनी रहती है।
यही है वह, बोकूजू जिसकी बात कर रहा है,
और यही है वह सब कुछ, उस सभी के बारे में, जो ज़ेन है।

इसी कारण मैं कहता हूं कि ज़ेन एक दुर्लभ और अनूठी घटना है।
किसी भी अन्य धर्म में इतनी अधिक ऐसी खिलावट नहीं हुई।
क्योंकि ज़ेन ही यह समझ सका
कि समझ, समग्र या पूर्ण की होती है--
तुम भोजन करो, तुम सोने जाओ, तुम सहज, स्वाभाविक और समग्र बने रहो।
तुम अपने को विभाजित करने का प्रयास मत करो,
मन, शरीर, आत्मा और पदार्थ में अपने को विभाजित मत करो।
विभाजन करने के साथ ही संघर्ष और हिंसा आती है,
विभाजन करने के साथ ही लाखों समस्याएं आती हैं,
और तब उनका वहां कोई भी समाधान नहीं है।
वस्तुत: वहां केवल एक ही समाधान है
और वह है प्रत्येक चीज को स्वाभाविक पूर्णता पर छोड्‌कर
फिर से समग्र और अखण्ड बनना।
मन वहां होगा जरूर
लेकिन अब उसका कार्य पूरी तरह अलग होगा।
मैं भी मन का प्रयोग करता हूं। मैं तुमसे बात कर रहा हूं इसके लिए मन
आवश्यक है।
संवाद करने के लिए मन आवश्यक है,
वास्तव में यह एक संचार विधि है।
स्मृति के लिए मन आवश्यक है। यह एक कम्प्यूटर है।
लेकिन अखण्ड बने रहने के लिए शरीर में तुम्हारी समग्रता होना आवश्यक
और जब मैं कहता हूं--' शरीर '' तो मेरा अर्थ तुम्हारे पूर्ण से होता है--
शरीर, मन और आत्मा-प्रत्येक चीज का अपना अलग कार्य है।
यदि मैं कोई वस्तु पकड़ना चाहता हूं तो मैं अपने हाथ का प्रयोग करूंगा।
यदि मैं चलना चाहता हूं तो मैं पैरों का प्रयोग करूंगा।
यदि मैं तुमसे कुछ बातचीत करना चाहता हूं तो मैं मन का प्रयोग करूंगा।
बस सभी कुछ इतना ही। अन्यथा मैं पूर्ण ही बना रहूंगा।
और जब मैं अपने हाथों का उपयोग करता हूं मेरा पूर्ण मेरे हाथों का समर्थन
करता है।
उनका उपयोग पूर्ण के विरुद्ध नहीं किया गया है,
बल्कि पूर्ण के सहयोग के साथ ही किया गया है।
जब मैं चलने के लिए अपने पैरों का उपयोग करता हूं
उनका प्रयोग पूर्ण द्वारा ही सहयोग देते हुए ही किया जाता है।
वास्तव में वे स्वयं के लिए नहीं, पूर्ण के लिए ही चलने का कार्य कर रहे हैं।
यदि मैं तुमसे बातचीत करता हूं तुम्हें कुछ सम्प्रेषित करता हूं
तो मैं मन का पूर्ण के लिए ही प्रयोग करता हूं।
यदि मेरे पूर्ण अस्तित्व में कुछ चीज ऐसी मेरे पास है,
जिसे मैं सम्प्रेषित करना चाहता हूं तो मैं अखंड के लिए मन का प्रयोग करता
हू
मैं अपने हाथों का प्रयोग मुद्राएं बनाने के लिए करता हूं
मैं अपने नेत्रों का प्रयोग करता हूं लेकिन उन सभी का प्रयोग अखण्ड के द्वारा
ही किया जा रहा है।
अखण्ड ही सर्वोच्च बना रहता है।
वह अखण्ड ही मालिक बना रहता है।
जब भाग ही मालिक बन जाते हैं, तो तुम अलग दूर हो जाते हो,
तब तुम्हारी सहभागिता, सभी के एक दूसरे के साथ की युति भंग हो जाती
बोकूजू कहता है: यदि तुम नहीं समझे, तो उसकी कोई आवश्यकता ही नहीं
उस बारे में फिक्र करो ही मत।
तुम जाओ और जाकर अपने कपड़े पहनो और अपना भोजन करो।
मैं नहीं जानता कि उस व्यक्ति ने क्या किया,
लेकिन मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं
यदि तुम समझ गए--तो बहुत सुन्दर!
यदि तुम नहीं समझे--तो जाओ, जाकर अपने कपड़े पहनो और अपना भोजन
करो।
क्योंकि समझ तुम्हारे पूरे अस्तित्व से केवल एक छाया की भांति आएगी
जीवन को उसकी समग्रता में जीयो,
और अपने जीवन की पूर्णता से भय मत करो।
एक कायर मत बनो
और न भागकर पहाड़ों और मठों में जाने की कोशिश करो।
मैंने तुम्हें इसी संसार में, जितनी समग्रता से सम्भव हो सके, रहने के लिए ही
संन्यास दिया है।
इस संसार में केवल समग्रता से रहते हुए ही तुम इसके पार चले जाओगे।
अचानक तुम यह जान जाओगे, कि तुम संसार में तो हो, लेकिन उसके नहीं
हो।
मैं तुम्हें संन्यास की पूरी तरह नई धारणा दे रहा हूं।
पुराना संन्यास कहता है : संसार को छोड्‌कर भाग जाओ। सभी का त्याग कर
दो।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि जो लोग सब कुछ छोड्‌कर भाग गए वे कायर
और मैं तुमसे कहता हूं कि जो लोग भाग गए वे पूर्ण नहीं है, अखण्ड नहीं
मैं तुमसे कहता हूं जो संसार से पलायन कर गए वे अपंग हैं, लंगड़े हैं।
यह सब कुछ तुम्हारे लिए नहीं है। तुम जीवन को उसकी समग्रता में जीओ,
जितनी अधिक समग्रता से सम्भव हो सके, तुम उसे जीओ,
और तुम जितने अधिक समग्र और अखण्ड बनोगे, तुम उतने ही दिव्य हो जाओगे।
पवित्रता और दिव्यता का गुण तभी आता है, जब कोई--
बिना भय के बिना आशा और बिना किसी कामना के साहसपूर्ण जीवन जीता
कोई भी सरलता से एक क्षण से दूसरे क्षण में--
पूरी तरह नूतन और ताजा होकर आहिस्ते से सरक जाता है।
यही है वह संन्यास, जिसके बाबत मैं तुमसे कह रहा हूं।
जीवन को क्षण- क्षण समग्रता से जीना ही संन्यास है।
अपनी ओर से बिना किन्हीं शर्तों के उसे घटने की अनुमति देना ही संन्यास
और तब, यदि तुम इतने सब कुछ को घटने की अनुमति देते हो,
तो जीवन भी तुम्हें अपने पार जाने की अनुमति देता है।
घाटी में रहते हुए ही, तुम शिखर बन जाते हो,
और केवल तभी वह बहुत सुन्दर होता है।
यदि तुम शिखर पर जाते हो, तो घाटी खो जाती है,
और घाटी की अपनी अलग विशेषताएं और सौंदर्य हैं,
और मैं चाहता हूं कि तुम घाटी और शिखर--
दोनों पर एक साथ रहने वाले मनुष्य बनो।
तुम घाटी में रहते हुए ही एक शिखर बनो--
और केवल तभी तुम यह समझने में समर्थ हो सकोगे
कि ज़ेन क्या है?

आज इतना ही

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