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रविवार, 1 दिसंबर 2019

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-08)

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो 
सत्र--आठवां
एक साधक बनो--एक खोजी। पोस्टस्क्रिप्ट, पश्चलेख जारी है।
 पहली किताब है फ्रेड्रिक नीत्शे की: विल टु पॉवर। जब तक वह जीवित था, इसे प्रकाशित नहीं किया गया। यह उसके मरने के बाद प्रकाशित हुई, और इस बीच, पुस्तक के छपने से पहले ही, तुम्हारे बहुत से तथाकथित महान व्यक्ति इसकी पाडुंलिपी से चोरी कर चुके थे।
अल्फ्रेड एडलर महानतममनोवैज्ञानिकों में से एक था। मनोवैज्ञानिकों की त्रिमूर्ति में से वह एक था: फ्रायड, जुंग और एडलर। वह बस एक चोर है। एडलर ने अपना पूरा मनोविज्ञान फ्रेड्रिक नीत्शे से चुराया है।
एडलर कहता है: शक्ति पाने की आकांक्षामनुष्य की मौलिक प्रवृत्ति है। गजब! किसको वह धोखा देने की कोशिश कर रहा था? फिर भी लाखों मूर्ख धोखा खा गए। अभी भी एडलर को महान व्यक्ति माना जाता है। वह बस एक छोटा सा आदमी है, उसे भूल जाओ और क्षमा कर दो।

जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने अपना पूरा मौलिक दर्शनशास्त्र नीत्शे से चुराया है। महान जी. बी. एस.--नोबल पुरस्कार विजेता, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ। वह जो कुछ भी कहता है सभी नीत्शे के विल टु पॉवरके कुछ वाक्यों में लिखा हुआ है।
यहां तक कि एक तथाकथित महान भारतीय संत भी एडलर और बर्नार्ड शॉ से पीछे नहीं रहे। उनका नाम है, श्री अरविंदो। सारी दुनिया में लाखों लोगों द्वारा उन्हें इस युग के श्रेष्ठतम संत के रूप में पूजा जाता है। उन्होंने अपने सुपरमैनके विचार को विल टु पॉवरकी पाडुंलिपी से चोरी किया है। श्री अरविंदो केवल एक साधारण से विद्वान थे, उनकी प्रशंसा करने के लिए ज्यादा कुछ भी नहीं है।
नीत्शे की पुस्तक उसके मरने के वर्षों बाद प्रकाशित हुई थी। उसकी बहिन ने इसे रोका हुआ था। वह एक व्यापारिक बुद्धि की होशियार महिला थी। उसकी पूर्व-प्रकाशित पुस्तकों को वह बेच रही थी, और सही समय की प्रतीक्षा कर रही थी कि कब दि विल टु पॉवरको बेचा जा सके। उसे नीत्शे से, उसके दर्शन से, मानवता के प्रति उसके योगदान से कोई मतलब नहीं था।
जब वह जीवित था तब नीत्शे ने स्वयं यह पुस्तक प्रकाशित क्यों नहीं की? मैं जानता हूं क्यों। उसके लिए भी इसकी विषय-सामग्री भारी पड़ रही थी। वह कोई बुद्धपुरुष नहीं था। वह भयभीत था, उसे इस बात का भय था कि प्रकाशन के बाद पता नहीं उसके साथ क्या हो जाए। और पुस्तक शुद्ध डाइनामाइट है, आग है। सोते समय भी वह हमेशा इसे अपने तकिए के नीचे रखता था। उसे भय था कि कहीं यह पुस्तक गलत हाथों में न पड़ जाए। वह बहादुर आदमी नहीं था जैसा कि लोग आमतौर पर उसके बारे में सोचते हैं, वह एक कायर था। लेकिन अस्तित्व के ढंग भी अजीब हैं: कभी-कभी कायर पर भी सितारों की बरसात हो जाती है, और नीत्शे के साथ यही हुआ है।
एडोल्फ हिटलर ने अपना पूरा दर्शनशास्त्र नीत्शे से चुराया है। हिटलर कुछ भी ठीक से करने में असमर्थ था; वह एक तरह से मूर्ख था, सच में उसे भारत में होना चाहिए था, जर्मनी में नहीं, और मुक्तानंद का शिष्य हो जाना चाहिए था। उसके लिए मैं एक अच्छा सा नाम भी बता सकता हूं: स्वामी मूर्खानंदा। वह यही था, मानवीय इतिहास का सबसे बड़ा मूर्ख। वह सोचता था कि वह नीत्शे को समझता है। नीत्शे को समझना बहुत ही कठिन है; वह बहुत सूक्ष्म, बहुत गहरा और बहुत गंभीर है। वह किसी भी मूर्खानंदा की पहुंच के बाहर है।
फ्रेड्रिक नीत्शे ने अपनी सर्वश्रेष्ठ पुस्तक को अपनी मृत्यु के बाद प्रकाशित होने के लिए रखा था। उसकी एक पुस्तक दस स्पेक जरथुस्त्रामैं पहले ही लिखवा चुका हूं, लेकिन विल टु पॉवरके सामने वह फीकी पड़ जाती है। यह कोई दार्शनिक ग्रंथ नहीं है, जिसे व्यवस्थित ढंग से लिखा हो, इसमें केवल सूत्र हैं, घटनाएं हैं। तुम्हें उनके बीच संबंध खोजना होगा। इसे तुम्हारे पढ़ने के लिए नहीं लिखा गया है। इस कारण, हालांकि प्रकाशित हो जाने के बाद भी इसे बहुत अधिक नहीं पढ़ा गया है। कौन झंझट में पड़े! कौन प्रयास करना चाहता है?--और विल टु पॉवरको समझने के लिए अत्यधिक प्रयास चाहिए। यह फ्रेड्रिक नीत्शे की आत्मा का सारतत्व है। और वह एक दीवाना आदमी था! इसको समझ लेना, इससे पार चले जाना है।
यह पहली किताब है जिसे मैं आज शामिल करता हूं।

दूसरी: मैं फिर से पी. डी. ऑस्पेंस्की का जिक्र करने जा रहा हूं। पहले ही मैं उसकी दो पुस्तकों का उल्लेख कर चुका हूं: एक टर्शियम आर्गानम,’ जिसे उसने अपने सदगुरु गुरजिएफ से मिलने के पहले लिखा था। टर्शियम आर्गानमखासतौर पर गणितज्ञों के बीच प्रसिद्ध है, क्योंकि ऑस्पेंस्की ने जब यह पुस्तक लिखी तब वह एक गणितज्ञ था। दूसरी पुस्तक, ‘इन सर्च ऑफ दि मिरेकुलस,’ उसने उस समय लिखी जब वह गुरजिएफ के साथ कई वर्ष रह चुका था।
लेकिन एक तीसरी पुस्तक भी है जो इन दोनों पुस्तकों के बीच के समय में लिखी गई थी--टर्शियम आर्गानमके बाद और गुरजिएफ से मिलने के पहले। इस पुस्तक से बहुत कम लोग परिचित हैं, और इसका नाम है ए न्यू मॉडल ऑफ दि यूनिवर्स।यह एक अदभुत पुस्तक है, बहुत ही अदभुत।
ऑस्पेंस्की ने दुनिया भर में सदगुरु की खोज की, खासकर भारत में, क्योंकि अपनी मूढ़तावश लोग सोचते हैं कि सदगुरु केवल भारत में ही मिलते हैं। ऑस्पेंस्की ने भारत में खोज की और वह कई वर्षों तक खोजता रहा। यहां तक कि बंबई में भी उसने सदगुरु की खोज की। उन दिनों में उसने यह अत्यधिक सुंदर पुस्तक, ‘ए न्यू मॉडल ऑफ दि यूनिवर्सलिखी। यह एक कवि की कल्पना है, क्योंकि उसे खुद ही पता नहीं कि वह किसकी बात कर रहा है। लेकिन वह जो भी बात कर रहा है वह सत्य के बहुत, बहुत, बहुत करीब है...लेकिन बस करीब, याद रखना, और बाल बराबर दूरी भी तुम्हें दूर रखने के लिए काफी है। वह दूर ही बना रहा। और वह खोजता ही रहा, खोजता ही रहा...
इस पुस्तक में उसने अपनी खोज का वर्णन किया है। मास्को के एक कैफेटेरिया में, जहां उसे गुरजिएफ मिलता है, वहां पहुंच कर यह पुस्तक अजीब ढंग से समाप्त हो जाती है। गुरजिएफ निश्चित ही बहुत अनूठा सदगुरु था। वह कैफेटेरिया में बैठ कर लिखा करता था। लिखने के लिए भी क्या जगह चुनी! वह कैफेटेरिया में बैठा करता था--लोग खा रहे हैं, बातें कर रहे हैं, बच्चे इधर-उधर दौड़ रहे हैं, रास्ते से शोरगुल आ रहा है, हॉर्न की आवाजें आ रही हैं, और गुरजिएफ खिड़की के पास, इन सारे व्यर्थ के उपद्रवों से घिरा हुआ बैठा है, और अपनी पुस्तक ऑल एंड एवरीथिंगलिख रहा है।
ऑस्पेंस्की ने इस आदमी को देखा और उसके प्रेम में पड़ गया। प्रेम को कौन रोक पाया है? सदगुरु को देख कर उसके प्रेम में न पड़ना करीब-करीब असंभव है, हां, अगर तुम बिलकुल मरे हुए हो, अगर तुम पत्थर के बने हो, या प्लास्टिक से बने हो--तो बात और है! जैसे ही उसने गुरजिएफ को देखा... आश्चर्य: उसने देखा कि यही वे आंखें हैं जिन्हें खोजते हुए वह पूरी पृथ्वी पर घूम रहा था, भारत की धूलभरी गंदी सड़कों पर भटक रहा था, और यह कैफेटेरिया तो मास्को में उसके घर के बिलकुल पास ही था! तुम जिसे खोजते हो वह कभी-कभी बिलकुल पास में ही मिल जाता है।
ए न्यू मॉडल ऑफ दि यूनिवर्सकाव्यात्मक पुस्तक है, लेकिन यह मेरे दर्शन के बहुत करीब है; इसीलिए मैं इसे शामिल कर रहा हूं।

तीसरी: सनाई, और उनके सुंदर वक्तव्य। सनाई जैसे लोग तर्क नहीं करते, वे केवल वक्तव्य देते हैं। उन्हें तर्क करने की जरूरत नहीं है, उनका होना ही प्रमाण है; दूसरे किसी तर्क की आवश्यकता नहीं है। मेरे पास आकर मेरी आंखों में देखो, तो तुम्हें पता चलेगा कि यहां कोई तर्क नहीं है, बस वक्तव्य है। वक्तव्य सदा सत्य होता है। तर्क में चालाकी हो सकती है, लेकिन सत्य शायद ही हो।
सनाई से मुझे प्रेम है। अगर मैं उनके बारे में अतिशयोक्ति करना चाहूं, तो भी नहीं कर सकता, यह असंभव है। सनाई सूफी धर्म के सारतत्व हैं।
तसव्वुफके लिए अंग्रेजी भाषा में शब्द है--सूफीज्म। तसव्वुफ का अर्थ है शुद्ध प्रेम।’ ‘सूफीज्मसूफ से आता है, जिसका अर्थ है ऊन, और सूफी का अर्थ है ऐसा व्यक्ति जिसने ऊनी चोगा पहन रखा हो। सनाई काली टोपी पहना करते थे--सफेद चोगा और काली टोपी। कोई तर्क नहीं, कोई कारण नहीं, वे बस मेरी तरह एक दीवाने आदमी थे। लेकिन तुम कर भी क्या सकते हो, इन लोगों को जैसे वे हैं वैसे ही उन्हें स्वीकार करना पड़ता है। चाहे तुम उन्हें प्रेम करो या घृणा। प्रेम या घृणा, वे तुम्हें और कोई दूसरा विकल्प नहीं देते हैं। तुम उनके साथ हो सकते हो या उनके विरोध में, लेकिन तुम उनकी उपेक्षा नहीं कर सकते हो। संतों का यही चमत्कार होता है। मेरे निकट रहते हुए तुम अच्छी तरह से जानते हो कि मेरे पास जो भी आता है वह या तो मेरा मित्र बन जाता है या शत्रु। मेरे पास कोई ऐसा व्यक्ति नहीं आ सकता जो बिना मित्र या शत्रु बने वापस लौट जाए। देखो! कभी-कभी मैं भी काव्य की रचना कर सकता हूं। एक दीवाना आदमी कुछ भी कर सकता है।
सनाई बिना किसी तर्क के केवल बोलते हैं। बस वे कह देते हैं कि यह ऐसा है। तुम नहीं पूछ सकते क्यों; वे कहेंगे, ‘‘चुप रहो! वहां क्यों नहीं है!’’

तुम गुलाब से नहीं पूछते ‘‘क्यों?’’
तुम हिमपात से नहीं पूछते ‘‘क्यों?’’
तुम सितारों से नहीं पूछते ‘‘क्यों?’’
तो तुम क्यों सनाई जैसे लोगों से पूछ रहे हो?
वे संसार हैं--सितारों के, पुष्पों के, हिमपात के।
वे तर्क नहीं करते।

मैं सनाई को प्रेम करता हूं। मैं उन्हें भूल नहीं गया था; मैं उनका उल्लेख इसलिए नहीं करना चाहता था क्योंकि उन्हें मैं केवल अपने लिए अपने हृदय में रखना चाहता था। लेकिन एक पोस्टस्क्रिप्ट में भी अपने हृदय को उ़ंडेला जा सकता है।
मेरे पिता मुझे इसी तरह पत्र लिखा करते थे। पत्र बहुत छोटा होता था--लिखने के लिए ज्यादा कुछ था नहीं--तो वे एक पोस्टस्क्रिप्ट लिखा करते थे। मुझे आश्चर्य होता था कि पत्र में क्या छूट गया था, और सचमुच वे कोई मतलब की बात ही लिखते थे। फिर पोस्टस्क्रिप्ट भी पर्याप्त नहीं होता था। एक और पोस्ट पोस्टस्क्रिप्ट होता था। ‘‘हे भगवान,’’ मैं सोचा करता, ‘‘अब वे क्या भूल गए हैं?’’ फिर से वे सचमुच कोई सुंदर बात लिख देते थे जो पत्र में लिखी नहीं जा सकती थी। पोस्टस्क्रिप्ट एक ज्यादा अंतरंग घटना है, और पोस्ट पोस्टस्क्रिप्ट तो और भी अंतरंग।
मेरे पिता नहीं रहे, लेकिन ऐसे क्षणों में मुझे उनकी याद आती है, जब मैं अचानक देखता हूं कि उन्हीं की तरह व्यवहार कर रहा हूं। जब मैं उनका चित्र देखता हूं, तो मुझे ऐसा लगता है कि परमात्मा ने चाहा तो मैं भी पचहत्तर साल की उम्र में उन्हीं की तरह लगूंगा। और यह महसूस करना बहुत अच्छा है कि मैं उनसे भिन्न नहीं दिखूंगा, अपनी अंतिम श्वास तक उनका प्रतिनिधित्व करता रहूंगा।
देवराज--देवगीत के स्थान पर मैं गलती से देवराज नहीं कह रहा हूं; मेरा मतलब है देवराज... इस बात को तुम्हें याद रखना चाहिए। मेरा शरीर ठीक मेरे पिता के शरीर की तरह व्यवहार करता है, यहां तक की बीमारी में भी। मुझे इस बात पर गर्व है। मेरे पिता को अस्थमा की तकलीफ थी, इसलिए जब मैं अस्थमा से पीड़ित होता हूं तो मैं जानता हूं कि यह शरीर मेरे पिता का अंश है, और इसमें वे सभी दोष, समस्याएं और कमजोरियां हैं जो उनमें थीं। उनको डायबिटीज थी, मुझे भी है। उन्हें बात करना अच्छा लगता था, और मैंने जीवन भर बात करने के अलावा कुछ किया नहीं है। हर तरह से मैं उनका पुत्र हूं।
वे एक महान पिता थे--इसलिए नहीं कि वे मेरे पिता थे, बल्कि इसलिए कि पिता होते हुए भी उन्होंने अपने पुत्र के चरणस्पर्श किए और वे उसके शिष्य बन गए थे। यह उनकी महानता थी। किसी भी पिता ने पहले कभी ऐसा नहीं किया है, और मैं नहीं समझता कि इस सड़ी-गली पृथ्वी पर आगे भी कभी ऐसा हो पाएगा। ऐसा हो पाना असंभव लगता है। पिता अपने ही पुत्र का शिष्य बने? बुद्ध के पिता झिझके थे; मेरे पिता एक क्षण को भी नहीं झिझके।
अब बुद्ध के पिता के लिए उनका शिष्य बन जाना बहुत आसान है, क्योंकि बुद्ध तथाकथित धर्मों की आशा के अनुरूप एक संत थे। लेकिन किसी भी पिता के लिए मेरे जैसे आदमी का शिष्य हो पाना बहुत कठिन है। मैं किसी भी स्वीकृत मापदंड से संत नहीं हूं, और इस बात से मैं खुश हूं क्योंकि किसी भी श्रेणी में रखा जाना मुझे पसंद नहीं है। अगर मुझे स्वर्ग में भी तथाकथित संत दिखाई पड़ेंगे तो मैं वहां से भी लौट आऊंगा। मैंने पृथ्वी पर बहुत सारे संतों को देख लिया है। मैं कोई संत नहीं हूं। मैं एकदम ही अलग तरह का आदमी हूं--जिसे मैं जोरबा दि बुद्धा कहता हूं।
मेरी बदनामी को जानते हुए भी, तथाकथित सम्मानित जगहों से मेरी आलोचनाओं को अच्छी तरह जानते हुए भी वे मेरे शिष्य बन गए। यह साहस है, अत्यधिक साहस। जब पहली बार उन्होंने मेरे पैर छुए तो मैं भी आश्चर्यचकित रह गया। मैं रो पड़ा--निस्संदेह अपने कमरे में ही रोया, जिससे कोई मेरे आंसू न देख सके। अपनी आंखों में उन आंसुओं को मैं अब भी महसूस कर रहा हूं। जब उन्होंने मुझसे दीक्षा लेने की बात कही तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। उस समय मैं बस मौन रहा। मैं न तो हां कह सका और न ही न, मैं बस मौन था, भौचक्का, आश्चर्यचकित। हां, तुम्हारी भाषा में सही अभिव्यक्ति है; ‘आश्चर्य से भर गया था’--और बहुत अधिक आश्चर्य से भर गया था।
क्या संख्या थी? तुम मत बताना, आशु; तुम संख्याओं के पार चली जाती हो। मुझे संख्याओं में थोड़ा और उलझ जाने दो।
‘‘अगली संख्या चार है, ओशो।’’
अगली संख्या चार है--अच्छा है। होशियार हो तुम। तुमने तीसरी नहीं कहा, तुमने कहा, ‘‘अगली संख्या चार है।’’ तुम्हें पता है तुम मुझे धोखा नहीं दे सकते हो। तुम इस बात को अच्छी तरह जानते हो कि अगर तुमने कहा तीसरी, तो मैं अगली तीसरी की बात करना प्रारंभ कर दूंगा। ठीक है, कभी-कभी मैं अपने शिष्यों को उनके अपने मार्ग से चलने देता हूं।

चौथी: चौथा नाम है, डायोनिसियस। उनके वक्तव्यों के बारे में मैं बोल चुका हूं, ये उनके शिष्यों द्वारा नोट किए गए कुछ अंश हैं। लेकिन मैं उन पर इसीलिए बोला कि संसार को यह पता लग जाए कि डायोनिसियस जैसे लोगों को भुलाया नहीं जाना चाहिए। वे ही असली लोग हैं।
असली आदमियों को तुम्हारी अंगुलियों पर गिना जा सकता है। असली आदमी वह है जिसने वास्तविकता का साक्षात किसी वस्तु की भांति बाहर से नहीं, बल्कि स्वयं अपने ही भीतर किया है। डायोनिसियस बुद्धपुरुषों की श्रेणी में हैं। उनके कुछ वक्तव्य मुझे फिर से याद आ रहे हैं--इन वक्तव्यों के संकलन को मैं पुस्तक नहीं कह सकता; पुस्तक कहे जाने के लिए इसमें अंशों से अधिक कुछ और भी होना चाहिए।

पांचवीं...अब मैं इस श्रृंखला के सबसे अनूठे क्षणों की ओर आ रहा हूं। एट दि फीट ऑफ दि मास्टर’--‘श्री गुरु चरणों मेंनाम की एक पुस्तक है। इसके लेखक के रूप में जिद्दू कृष्णमूर्तिका नाम दिया गया है, लेकिन कृष्णमूर्ति का कहना है कि उन्हें बिलकुल भी स्मरण नहीं है कि उन्होंने इस पुस्तक को कब लिखा! यह पुस्तक पहले, बहुत पहले, जब कृष्णमूर्ति नौ या दस वर्ष के रहे होंगे, उस समय लिखी गई थी। उन्हें इतनी पुरानी बात कैसे स्मरण होगी कि यह पुस्तक किस समय प्रकाशित हुई थी। लेकिन यह एक महान रचना है।
मैं दुनिया के सामने पहली बार यह खुलासा करना चाहता हूं कि इसका असली लेखक कौन है: एनीबीसेंट! पुस्तक एनीबीसेंट ने लिखी है, कृष्णमूर्ति ने नहीं। तो फिर एनीबीसेंट ने इसे अपनी खुद की रचना क्यों नहीं बताया? इसके पीछे एक कारण था। वह चाहती थीं कि कृष्णमूर्ति को संसार एक सदगुरु के रूप में जाने। यह बस एक मां की महत्वाकांक्षा थी। उन्होंने कृष्णमूर्ति का पालन-पोषण किया था, और उन्होंने कृष्णमूर्ति को वैसा ही प्रेम किया था जैसे कोई मां अपने खुद के बच्चे से करती है। अपनी वृद्धावस्था में उनकी एक ही इच्छा थी कि कृष्णमूर्ति एक वर्ल्ड टीचर, एक जगतगुरु बन जाएं। अब कृष्णमूर्ति के पास जगत से कहने के लिए कुछ भी नहीं है, तो कैसे उन्हें जगतगुरु घोषित किया जा सकता है? इस पुस्तक एट दि फीट ऑफ दि मास्टरमें एनीबीसेंट ने वह उस मांग को पूरा करने की कोशिश की है।
कृष्णमूर्ति उस पुस्तक के लेखक नहीं हैं। वे स्वयं कहते हैं कि उन्हें याद नहीं है कि कभी उन्होंने इसे लिखा हो। वे एक प्रामाणिक व्यक्ति हैं, सच्चे और ईमानदार, लेकिन पुस्तक अब भी उनके नाम से बेची जा रही है। उन्हें इसे रोक देना चाहिए। उन्हें इस पुस्तक के प्रकाशकों को स्पष्ट कर देना चाहिए कि वे इसके लेखक नहीं हैं। यदि वे इसे प्रकाशित ही करना चाहते हैं, तो इसे बिना नाम के प्रकाशित करें। लेकिन उन्होंने ऐसा स्पष्ट किया नहीं है। इसीलिए मुझे कहना पड़ता है कि अब भी वे झेन के दस बैलों वाले कार्ड्‌स में नौवां चित्र हैं। वे इनकार नहीं कर सकते, वे सिर्फ इतना ही कहते हैं कि मुझे याद नहीं है। इसे इनकार करो! कहो कि यह मेरी रचना नहीं है।
लेकिन पुस्तक सुंदर है। सच पूछो तो इसको लिख कर किसी को भी गर्व होगा। वे सभी लोग जो इस मार्ग पर यात्रा करना चाहते हैं और गुरु के साथ लयबद्ध होना चाहते हैं, उन्हें एट दि फीट ऑफ दि मास्टरका अध्ययन अवश्य करना चाहिए। मैं अध्ययन करने को कह रहा हूं, पढ़ने के लिए नहीं, क्योंकि लोग उपन्यास पढ़ते हैं, या लोबसांग रम्पा की आध्यात्मिक कथाएं और उसकी दर्जनों पुस्तकें, या ऐसे अनेक काल्पनिक लोगों की पुस्तकों को पढ़ा जाता है। आजकल चारों ओर बहुत सारी पुस्तकें मिल रही हैं, क्योंकि उनकी जरूरत है, तो उनका एक बाजार है। अब कोई भी गुरु बन सकता है...
बाबा फ्रीजॉन... मुझे हंसी आती है। कैसा पतन है! फ्रीजॉन भी, जिसने अपने आप को नहीं, केवल अपना नाम बदल लिया है... अब वह अपने को बाबानहीं कहता है। वह अपने को बाबा कहता था क्योंकि वह बाबा मुक्तानंद का शिष्य था। भारत में, प्रेमवश गुरु को बाबा कहा जाता है, इसलिए उसने अपने आप को बाबा कहना शुरू कर दिया था। लेकिन फिर, यह समझ आने पर कि यह नकलची बन जाना है, उसने इसे छोड़ दिया। अब वह अपने को दादा फ्रीजॉनकहता है। यह वही बात है; चाहे दादा हो या बाबा, यह सब बकवास है। लेकिन ऐसे ही लोग चारों ओर हैं। इनसे सावधान रहना। जब तक तुम्हारे भीतर स्पष्ट बोध न हो, तो इस बात की पूरी संभावना है कि तुम किसी न किसी के जाल में फंस जाओगे।

छठवीं: एक और सूफी फकीर, जुन्नैद, अल-हिल्लाज मंसूर के गुरु... अल-हिल्लाज विश्वविख्यात हो गए, क्योंकि उनकी हत्या कर दी गई थी; इस कारण जुन्नैद अज्ञात रह गए। लेकिन जुन्नैद के कुछ वाक्य, कुछ अंश, जो बच गए हैं, वे सचमुच में श्रेष्ठ हैं। वरना अल-लिल्लाज मंसूर जैसा शिष्य वे कैसे तैयार कर सकते थे? बस उनकी कही कुछ कहानियां, सूत्र और वक्तव्य बच रहे हैं, और उनके भी कुछ अंश ही शेष हैं। रहस्यदर्शी का ढंग यही है; उन्होंने इन सबको पूरा करने की चिंता भी नहीं की। वे फूलों का हार नहीं बनाते, बल्कि बस उनका ढेर लगा देते हैं। अब यह तुम पर निर्भर है जो चाहे चुन लो।
जुन्नैद ने अल-हिल्लाज मंसूर से कहा था, ‘‘जो तूने जाना है, उसे अपने भीतर ही रख। अनलहककी घोषणा इतनी जोर से मत कर! यदि तुझे घोषणा करना ही है, तो इस ढंग से कर कि कोई तुझे सुन न सके।’’
जुन्नैद के प्रति कोई भी न्यायपूर्ण नहीं था। वे लोग सोचते थे कि जुन्नैद कुछ भयभीत थे। ऐसा नहीं है। सत्य जान लेना सरल है, इसे घोषित कर देना सरल है; इसे अपने हृदय में गोपनीय, गुप्त बनाए रखना बेहद मुश्किल है। जिनको तुम्हारे अस्तित्व के कुएं से, तुम्हारे मौन से अपनी प्यास बुझानी हो उन्हें अपने करीब आने दो।

सातवीं: यह पुस्तक जिन्होंने लिखी है उन्हें जुन्नैद अवश्य पसंद करते: मेहर बाबा। वे तीस वर्षों तक मौन रहे। कोई भी इतने लंबे समय तक मौन नहीं रह पाया है। महावीर केवल बारह वर्ष तक मौन रहे थे, वह एक रिकॉर्ड था। मेहर बाबा ने सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए। तीस वर्षों का मौन! वे अपने हाथों की मुद्राएं बना कर भाव व्यक्त करने के लिए उनका उपयोग करते थे, जैसा कि बोलते समय मैं करता हूं। क्योंकि कुछ बातें हैं जो केवल हाव-भाव से ही कही जा सकती हैं। मेहर बाबा ने शब्दों को छोड़ दिया था, लेकिन वे हाव-भाव को नहीं छोड़ सके। और हम सौभाग्यशाली हैं कि उन्होंने हाव-भाव नहीं छोड़े। वे निकटवर्ती लोग जो उनके साथ रहते थे उन्होंने हाव-भाव के नोट्‌स लिखने प्रारंभ कर दिए, और मेहर बाबा के तीस वर्ष के मौन के बाद यह पुस्तक प्रकाशित हुई, इसका शीर्षक अजीब सा है, जैसा कि होना भी चाहिए। पुस्तक का शीर्षक है गॉड स्पीक्स।
मेहर बाबा मौन में जीए और मौन में ही मर गए। वे कभी नहीं बोले, लेकिन उनका मौन ही अपने आप में उनका वक्तव्य, उनकी अभिव्यक्ति, उनका गीत था। इसलिए आश्चर्य नहीं है कि इस पुस्तक का शीर्षक गॉड स्पीक्सरखा गया।
एक झेन पुस्तक है जिसमें कहा गया है: फूल नहीं बोलते।यह गलत है, बिलकुल गलत। फूल भी बोलता है। निस्संदेह वह अंग्रेजी या जापानी या संस्कृत में नहीं बोलता; वह फूलों की भाषा में बोलता है। वह अपनी सुगंध के माध्यम से बोलता है। मैं इस बात को अच्छी तरह से जानता हूं, क्योंकि सुगंध से मुझे एलर्जी है। मैं मीलों दूर से फूल को बोलते हुए सुन सकता हूं, यह मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं। यह कोई भाषा का अलंकार नहीं है। मैं फिर से कहता हूं, फूल भी बोलता है, लेकिन उसकी भाषा वही है जो फूलों की होती है। गॉड स्पीक्स’--‘परमात्मा बोलता है,’ भले ही सुनने में कैसा भी लगे, मेहर बाबा के बारे में यही सच है। वे बिलकुल ही बिना बोले ही बोले हैं।
नंबर प्लीज, देवगीत?
‘‘नंबर आठ, ओशो।’’
हमने लंबे समय तक यात्रा की है; बस थोड़ा धैर्य और।

आठवीं एक बहुत ही अज्ञात सी पुस्तक है। इसे अज्ञात नहीं रहना चाहिए, क्योंकि इसे जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने लिखा है। पुस्तक का नाम है: मैक्सिम्स फॉर ए रेवोल्यूशनरी।’ ‘मैक्सिम्स फॉर ए रेवोल्यूशनरीको छोड़ कर उनकी सभी पुस्तकों से लोग अच्छी तरह से परिचित हैं। केवल मुझ जैसा दीवाना ही इसे चुन सकता है। जो भी उसने लिखा है मैं सब-कुछ भूल चुका हूं--वह सब बकवास है, बस कचरा है।
वैसे, यहां मेरे संन्यासियों में से एक का नाम है, बोधिगर्भ। गर्भका मतलब है गर्भिणी; इस नाम का अर्थ है गर्भ में बुद्ध है, बुद्ध की भांति जन्म लेने को तैयार।कुछ लोग उसे बोधि-गार्बेज बुलाते हैं--यह मुझे पसंद है। काफी हद तक यह ठीक भी है: बोधि गार्बेज--हां, यदि तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाओ, बोध को, तो कचरा भी दिव्य हो जाएगा; वरना पहले सब-कुछ कचरा है।
जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की छोटी सी पुस्तक मैक्सिम्स फॉर ए रिवोल्यूशनरीमुझे प्रिय है--सभी ने इसे भुला दिया, लेकिन मैंने नहीं। मैं अनोखी चीजें, अनोखे लोग, अनोखी जगहों को चुनता हूं। ऐसा लगता है कि मैक्सिम्स फॉर ए रिवोल्यूशनरीजॉर्ज बर्नार्ड शॉ पर उतरी है... अन्यथा वह तो सिर्फ एक संदेहवादी था। वह कोई संत भी नहीं था, न आत्मज्ञानी था और न ही आत्मज्ञान के बारे में उसने कभी सोचा होगा। उसने तो शायद इस शब्द को भी नहीं सुना होगा; वह एक अलग ही दुनिया का आदमी था।
वैसे, मैं यह बता दूं कि वह एक लड़की से प्रेम करता था। उसे प्रेम हो गया था और वह विवाह करना चाहता था, लेकिन वह लड़की संबोधि प्राप्त करना चाहती थी। वह सत्य की खोज करना चाहती थी, इसलिए वह भारत चली गई। वह महिला और कोई नहीं एनीबीसेंट थी। परमात्मा का शुक्र है
कि जी. बी. एस. उसे अपनी पत्नी बनने के लिए राजी नहीं कर पाया; वरना हम लोग एक अत्यंत प्रतिभावान महिला से वंचित रह जाते। उसकी अंतर्दृष्टि, उसका प्रेम, उसकी प्रज्ञा... हां, वह एक विच, एक प्रज्ञावान महिला थी। सच में ही मेरा मतलब यह है कि वह एक प्रज्ञावान महिला थी। मेरा मतलब बिच, कुतिया से नहीं है, मेरा मतलब है विच, प्रज्ञावान। विचसच में ही एक सुंदर शब्द है; इसका अर्थ है: प्रज्ञावान।
यह पुरुषों की दुनिया है। जब एक पुरुष प्रज्ञा को उपलब्ध होता है, तो उसे बुद्ध, क्राइस्ट, पैगंबर कहा जाता है; जब एक स्त्री प्रज्ञा को उपलब्ध होती है, तो उसे विच कहा जाता है। यह अन्याय तो देखो। लेकिन इस शब्द का मूल अर्थ सुंदर है।
मैक्सिम्स फॉर ए रेवोल्यूशनरी’--‘क्रांतिकारी के लिए कुछ स्वर्ण-सूत्रप्रारंभ होती है... पहला सूत्र है: कोई भी स्वर्ण-सूत्र नहीं है, यही पहला स्वर्ण-सूत्र है। अब, यह छोटा सा वक्तव्य भी अत्यंत सुंदर है। कोई भी स्वर्ण-सूत्र नहीं है... हां, कोई नियम नहीं है; यही स्वर्ण-नियम है। शेष सूत्रों के लिए तुम्हें इस किताब को पढ़ना होगा। याद रहे, जब भी मैं अध्ययन करने को कहता हूं, तो मेरा मतलब होता है, इस पर ध्यान करो। जब मैं कहता हूं, पढो, तो ध्यान करना आवश्यक नहीं है। केवल भाषा के परिचय से ही काम चल जाएगा।

नौवीं...क्या मैं सही हूं, देवगीत?
‘‘हां, ओशो।’’
कभी-कभार यह सुन कर कि मैं सही हूं कितना अच्छा लगता है। कम से कम चालीस सालों से मैंने यह नहीं सुना है। यहां तक कि मेरे परिवार में कभी किसी ने नहीं कहा। मैं हमेशा से गलत था। और मैं परमात्मा का धन्यवाद करता हूं कि मैं गलत था, उनके अनुसार मैं सहीनहीं था, बल्कि अपने स्वयं के अनुसार भी गलत था। मेरे किसी शिक्षक ने कभी नहीं कहा कि मैं सही था। मैं हमेशा से गलत था।
यह रोज की ही बात थी, करीब-करीब एक सामान्य प्रक्रिया थी कि मुझे हेडमास्टर के पास सजा के लिए भेजा जाता था। क्लास का मॉनिटर मुझे हेडमास्टर के पास ले जाया करता था, तब वे पूछा करते थे कि मैंने आज क्या किया था। लेकिन धीरे-धीरे हेडमास्टर ने पूछना बंद कर दिया। मैं जाता और वे मुझे सजा दे देते, मेरे मुंह पर थप्पड़ मार देते थे, और बस मामला खत्म। वे यह भी नहीं पूछते कि मैंने गलत क्या किया था।
एक बार ऐसा हुआ--उस घटना पर मुझे अब भी हंसी आती है--मेरी क्लास के मॉनिटर ने कोई गलती की। मेरे शिक्षक ने मजाक में मेरे साथ मॉनिटर को भेज दिया। मैं मॉनिटर को सजा दिलवाने हेडमास्टर के पास गया, लेकिन इसके पहले कि मैं कुछ कह पाऊं, उन्होंने मुझे सजा दे दी। मैं हंस पड़ा, तो उन्होंने पूछा: मामला क्या है?
मैंने कहा: आज आपको इसे सजा देनी चाहिए थी। मैं इसके साथ आया हूं। यह मुझे नहीं लाया है, मैं इसे लेकर लाया हूं और आपने पहले ही मुझे थप्पड़ मार दिया।
हेडमास्टर ने कहा: मुझे खेद है।
मैंने कहा: मैं शब्दों में भरोसा नहीं करता, अब मैं आपको एक थप्पड़ मारूंगा--और मैंने सच में ही उनको एक थप्पड़ मारा।
अब तो उन बुजुर्ग का स्वर्गवास हो चुका है। मुझे दुख है कि मैंने उन्हें थप्पड़ मारा, लेकिन मैंने उन्हें थप्पड़ जोर से नहीं मारा था... बस बहुत हलके से, जैसे देवदार के वृक्षों से हवा का गुजरना।
एक बार भी सुनना कि मैं सही हूं कितना अच्छा लगता है। फिर से सुनने के लिए... क्या यह आठवीं संख्या है? अब तुम कठिनाई में पड़ गए हो। नहीं, मुझे पहले ही पता है, यह नौवीं है। ठीक है।
नौवीं: नौवीं के लिए मेरा चुनाव है, हुई नेंग, वे बोधिधर्म के चीनी उत्तराधिकारी थे। दि टीचिंग्स ऑफ हुई नेंगअभी भी अज्ञात है, और जापान के बाहर अनुवादित नहीं हुई है।
हुई नेंग मानव-जाति के शिखरों में से एक हैं, वह सर्वोच्च शिखर जहां तक कोई व्यक्ति पहुंच सके। हुई नेंग ज्यादा कुछ नहीं कहते हैं, वे केवल इशारे करते हैं, बस थोड़े से इशारे। लेकिन वे इशारे काफी हैं। जैसे पदचिह्न, यदि तुम उन पर चलो तो तुम पहुंच जाओगे। वे जो कह रहे हैं वह दरअसल बुद्ध या जीसस से भिन्न नहीं है; लेकिन जिस ढंग से वे कहते हैं वह उनका अपना ढंग है, प्रामाणिक रूप से मौलिक। वे इसे अपने स्वयं के ढंग से कहते हैं, और इसी से सिद्ध होता है कि वे तोता नहीं हैं, न ही पोप और न ही पुरोहित।
हुई नेंग के संदेश को सरलता से संक्षिप्त किया जा सकता है, लेकिन उसे केवल वही लोग समझ सकेंगे जो सब-कुछ दांव पर लगा सकते हैं। उनकी बात को सरलता से संक्षिप्त किया जा सकता है, क्योंकि वे जो कह रहे हैं वह है: सोचो मत; हो जाओ।लेकिन इस बात को समझने के लिए कई जन्मों की जरूरत पड़ सकती है, हां, अगर कोई अतिशय बुद्धिमान है; तब, इसी क्षण, अभी और यहीं, यह तुम्हारे भीतर की वास्तविकता बन सकती है। मुझमें यह वास्तविकता पहले से ही उपस्थित है, तो तुम्हारे भीतर यह वास्तविकता क्यों नहीं बन सकती है? सिवाय तुम्हारे, इसे कोई और नहीं रोक रहा है।

दसवीं: और अंततः अंतिम। मुझे डर है--इसीलिए मैं थोड़ा झिझक रहा हूं कि कहूं या न कहूं--मुल्ला नसरुद्दीन। वे काल्पनिक व्यक्ति नहीं हैं, वे एक सूफी थे और उनकी कब्र अभी भी है। लेकिन वे एक ऐसे आदमी थे कि अपनी कब्र से भी मजाक करने में बाज नहीं आए। उन्होंने एक वसीयत लिखवाई थी कि उसकी कब्र पर केवल एक दरवाजा रहेगा, जिस पर ताला लगा होगा, और चाबियां सागर में फेंक दी जाएं।
अब यह अजीब है! लोग उनकी कब्र देखने जाते हैं, वे दरवाजे के चारों ओर घूमते हैं, क्योंकि दीवालें हैं ही नहीं, बस एक दरवाजा खड़ा है बिना दीवालों के!--और दरवाजे पर ताला लगा है। ये महाशय मुल्ला नसरुद्दीन अपनी कब्र में हंस रहे होंगे।
नसरुद्दीन से मैंने जितना प्रेम किया है उतना प्रेम मैंने किसी से भी नहीं किया है। वे उन लोगों में से एक हैं जिन्होंने हास्य और धर्म को एक साथ कर दिया है; वरना वे दोनों एक-दूसरे की ओर पीठ किए हुए खड़े रहते हैं। नसरुद्दीन ने उनकी पुरानी शत्रुता छोड़ने के लिए उन्हें विवश किया और दोस्ती करवा दी है, और जब धर्म और हास्य मिलते हैं, जब ध्यान हंसता है, और जब हास्य ध्यान बन जाता है, तब चमत्कार घटित होता है...चमत्कारों का चमत्कार।
बस दो मिनट मेरे लिए।
जब चीर्जे अपनी चरम सीमा पर होती हैं तो रुक जाना मुझे हमेशा प्रीतिकर रहा है।
ओशो 

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