जागरण—(प्रवचन-छठवां)
ऋतु आये फल होय--The Gras grow by Itself--ओशो
(ज़ेन पर ओशो द्वारा दिनांक 26 फरवरी 1975 में अंग्रेजी में दिये गये अमृत प्रवचनों का हिन्दी में अनुवाद)सूत्र:
महान सदगुरु गीजान के सान्निध्य में
तीन वर्षों के कठोर प्रशिक्षण के बाद भी
कोश सतोरी प्राप्त करने में समर्थ न हो सका था।
सात दिनों के विशिष्ट अनुशासन सत्र के प्रारम्भ में ही
उसने सोचा कि अंतिम रूप से उसके लिए यह अवसर आ पहुंचा है,
वह मंदिर के द्वार की मीनार के ऊपर चढ़ गया।
और बुद्ध की प्रतिमा के सामने जाकर उसने यह प्रतिज्ञा की:
या तो मैं यहां अपने सपने को साकार करूंगा,
अथवा इस मीनार के नीचे गिरे, वे मेरे मृत शरीर को पाएंगे।
वह बिना भोजन किए बिना सोए निरंतर ' जा जेन ' करता रहता,
अपने मनोबल को ऊंचा उठाने को वह प्राय: चिल्लाते हुए इस तरह की
बातें करता-ऐसे मेरे कौन से कर्म थे कि सभी प्रयासों के बावजूद भी
मैं इस मार्ग को समझ नहीं पाता।
अंत में उसने अपनी हार स्वीकार कर ली
और अपने जीवन का अंत करने का दृढ़ निश्चय किया।
वह मीनार पर चढ़ गया और रेलिंग से छलांग लगाने को
धीमे से अपना पैर ऊपर उठाया
ठीक उसी क्षण उसे जागरण हुआ।
आनंद के अतिरेक में वह तेजी से सीढ़ियां फलांगता, गिरता-पड़ता
सदगुरु गीजान के कक्ष में गया। इससे पहले वह कुछ कह पाता, सदगुरु हर्षित होकर बोले:
वाह! बहुत खूब! आखिर तेरे लिए वह दिन आ ही गया।
मनुष्य अकेला ऐसा प्राणी है, जो आत्महत्या के बारे में
सोच सकता है, प्रयास कर सकता है,
अथवा वास्तव में आत्महत्या कर भी सकता है।
आत्महत्या करना एक बहुत विशिष्ट चीज है। यह एक मानवीय कृत्य है।
जानवर जीते हैं, और वे मर जाते हैं लेकिन वे आत्महत्या नहीं कर सकते।
वे जीते हैं, लेकिन वहां कोई भी समस्याएं नहीं होतीं,
उनका जीवन उनके लिए कोई भी दुःख निर्मित नहीं करता।
उनके लिए जीवन में कोई व्यग्रता या उत्कंठा नहीं है-वे सामान्य रूप से
जीते हैं।
और तब जितने सामान्य रूप से वे जीते हैं, उतनी ही सामान्यता से वे मर जाते
हैं। जानवरों में मृत्यु के प्रति कोई चेतना नहीं होती।
वास्तव में वे न तो जीवन के प्रति सचेत होते हैं और न मृत्यु के ही प्रति,
इसलिए आत्महत्या करने का उनके लिए कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
वे इसके प्रति सचेत हैं ही नहीं।
वे अचेतन की गहरी मूर्च्छा में जीते हैं।
केवल मनुष्य ही आत्महत्या कर सकता है।
इसका अर्थ है कि जीवन और मृत्यु के बारे में मनुष्य ही कुछ कर सकता है।
इसका अर्थ है कि केवल मनुष्य ही जीवन के विरुद्ध खड़ा हो सकता है।
यह सम्भावना वहां इसलिए है क्योंकि मनुष्य चेतन है।
लेकिन स्मरण रहे, कि जीवन की समस्याएं-जैसे व्यग्रता, तनाव, दुःख,
और आत्महत्या करने का अंतिम निर्णय आदि
वे चेतना से नहीं आती हैं-
ये खण्डित चेतना से आती हैं।
यह गहराई से समझ लेने जैसा है
कि एक बुद्ध भी चेतन है, लेकिन वह आत्महत्या नहीं कर सकता,
वह उसके बारे में सोच भी नहीं सकता।
एक बुद्ध के लिए आत्महत्या, अस्तित्व में है ही नहीं,
लेकिन वह फिर भी चेतन है। क्यों?
सभी जानवर पूरी तरह अचेतन में हैं : बुद्ध पूरी तरह चैतन्य है।
सम्पूर्ण चेतना के साथ कोई समस्या नहीं होती
अथवा पूर्ण अचेतन के साथ भी कोई समस्या नहीं होती।
वास्तव में किसी भी तरह से अखण्ड होना, सभी समस्याओं के पार है।
एक मनुष्य की चेतना खण्डित होती है:
उसका एक भाग ही चेतन हुआ है।
यही पूरी समस्या उत्पन्न करता है।
शेष भाग, जो काफी बड़ा है, वह अचेतन ही रहता है।
मनुष्य इस तरह दो भागों में बंट गया है।
एक भाग चेतन है, और शेष पूरा भाग अचेतन है।
मनुष्य की निरंतरता खो गई है।
वह अखण्ड नहीं है। वह समग्र नहीं है। वह एक से दो हो गया है।
उसमें द्वैतता आ गई है।
वह सागर में तैरते हुए उस हिमखण्ड की भांति है
जिसका एक बटा दस भाग पानी से बाहर है
और नौ बटे दस भाग उसके नीचे छिपा है।
यही अनुपात मनुष्य की चेतनता और अचेतनता में है:
उसका एक बटा दस अचेतन ही अभी चेतन बना है,
नौ बटे दस चेतना, अभी भी अचेतन है।
केवल उसके ऊपर की पर्त ही चेतन है, और शेष पूरा अस्तित्व
अभी भी नीचे के अंधकार में ही रहता है।
निश्चित ही इससे समस्याएं खड़ी हो रही हैं
क्योंकि उसके अस्तित्व में संघर्ष उत्पन्न हो गया है।
तुम दो भागों में बंट गए हो; और चेतन भाग इतना अधिक छोटा है
कि तुम लगभग शक्तिहीन हो।
यह भाग बातचीत कर सकता है, बहुत पारंगत हो सकता है, विचार कर सकता है;
लेकिन जब कुछ करने का क्षण आता है
तो अचेतन भाग की आवश्यकता होती है,
क्योंकि अचेतन के पास ही उसे करने की ऊर्जा है।
तुम यह निश्चय कर सकते हो कि फिर से क्रोध नहीं करोगे,
लेकिन यह निर्णय मन के शक्तिहीन भाग का होता है
जो भाग थोड़ा सा चेतन है,
जो यह देख सकता है कि क्रोध करना अर्थहीन है, हानिप्रद और विषैला है;
जो पूरी स्थिति को देख सकता है और निर्णय करता है।
लेकिन इस निर्णय के पीछे कोई शक्ति नहीं होती, क्योंकि सारी शक्ति
उस शेष पूरे भाग के पास है, जो अभी भी अचेतन है।
चेतन भाग निर्णय करता है, 'मैं अब फिर से क्रोध नहीं करूंगा;'
लेकिन जब स्थिति उत्पन्न होती है, तो ऐसा हो नहीं पाता।
जब स्थिति उत्पन्न होती है तो चेतन भाग को एक किनारे धकेल कर
अचेतन भाग सतह पर आ जाता है।
यह शक्तिशाली है, ऊर्जावान और महत्वपूर्ण है;
और अचानक वह तुम पर अधिकार जमा लेता है।
चेतन भाग थोड़ी बहुत कोशिश तो कर सकता है, लेकिन वह
उस ज्वार के विरुद्ध कुछ भी न होकर, केवल व्यर्थ ही होती है।
जब अचेतन एक ज्वार-भाटा बन जाता है
और स्थिति को अपने अधिकार में ले लेता है, तो तुम असहाय हो जाते हो,
तुम और अधिक अपने स्व में नहीं रह पाते, जिसे तुम स्वयं अपना जानते थे,
तुम्हारा वह अहंकार दूर फेंक दिया जाता है।
तुम्हारे चेतन के द्वारा लिए गए सभी निर्णय
पूरी तरह से महत्वहीन हैं :
यह अचेतन ही है, जो सभी कुछ करता है।
फिर जब वह स्थिति चली जाती है, तो अचेतन पीछे लौट जाता है,
और चेतन फिर सिंहासन पर वापस आकर विराजमान हो जाता है।
चेतन तभी सिंहासन पर आ पाता है
जब वहां अचेतन नहीं होता।
वह ठीक एक सेवक की भांति है।
जब सम्राट नहीं होता वहां, तो सेवक ही सिंहासन पर बैठकर
आदेश देने लगता है।
लेकिन वास्तव में वहां कोई भी नहीं होता सुनने के लिए वह अकेला ही होता है।
जब सम्राट आ जाता है
तो सेवक को पूरी तरह सिंहासन छोड़ देना होता है
और सम्राट की आज्ञा सुननी होती है।
तुम्हारी चेतना का बड़ा भाग हमेशा ही सम्राट बना रहता है,
और छोटा भाग एक सेवक की भांति रहता है।
तभी अधिक संघर्ष उत्पन्न होता है।
क्योंकि चेतना का जो भाग निर्णय लेता है, उसे कर नहीं सकता,
और जो भाग कर सकता है, वह निर्णय नहीं ले सकता।
एक खण्ड जो सभी चीजों को देखता है, उनके बारे में विचार कर सकता है,
लेकिन उसके पास ऊर्जा नहीं है;
और वह भाग जो देख नहीं सकता, जो पूरी तरह अंधा है
सारी शक्ति उसी के पास है।
जानवरों में वहां दो खण्ड नहीं होते
केवल अचेतन ही होता है उनके पास और वह सोचता नहीं, कार्य करता है।
वहां कोई समस्या होती ही नहीं, क्योंकि वहां कोई अंतर्संघर्ष नहीं होता।
एक बुद्ध में भी दूसरे छोर पर ऐसा ही होता है:
उसका अचेतन पूर्ण सचेतन हो जाता है।
बुद्धत्व, सतोरी और समाधि का यही अर्थ होता है।
तुम फिर से एक पशु की भांति एक ही खण्ड बन गए हो।
अब बुद्ध जो भी निर्णय करता है, स्वत: वैसा ही होता भी है,
क्योंकि अब उसके अन्दर कोई भी उसके विरुद्ध नहीं है,
वहां कोई भी बेखबर नहीं है।
उसके घर में कोई दूसरा है ही नहीं।
बुद्ध अपने घर में अकेला ही रहता है,
इसलिए बुद्ध को संघर्ष करने की आवश्यकता ही नहीं है।
वह एक स्थिति को देखता है, निर्णय लेता है और कार्य करता है।
वास्तव में बुद्ध के अन्दर निर्णय लेना और क्रिया करना दो कार्य नहीं होते
उसका निर्णय ही क्रिया होती है।
वह पूरी तरह से देखता है कि क्रोध करना व्यर्थ है, और क्रोध विलुप्त हो
जाता है।
वैसा करने के लिए वह बलपूर्वक कुछ भी उस पर थोपने का प्रयास नहीं
करता।
एक बुद्ध सहज, सरल और विश्राममय रहता है।
तुम सहज, सरल और विश्राममय होना गवारा नहीं कर सकते,
क्योंकि जिस क्षण तुम विश्राममय और सहज होते हो अचेतन आ धमकता है।
तुम्हें अपने आपको नियंत्रित करना होता है,
और तुम जितना अधिक उसे नियंत्रित करते हो, उतने अधिक तुम नकली बन जाते हो।
एक सभ्य मनुष्य प्लास्टिक के एक फूल की भांति होता है,
उसमें न तो जीवन स्कूर्ति होती है और न कोई ऊर्जा-
और जब वहां कोई ऊर्जा नहीं होती तो वहां कोई आनंद भी नहीं होता।
अंग्रेजी साहित्य के एक महान कवि विलियम ब्लैक ने,
इस बारे में एक बहुत सुन्दर काव्य पंक्ति लिखी है, जिसमें गहरी अंर्तदृष्टि है।
वह कहता है ''ऊर्जा ही है खुशी, और यहां कोई दूसरी खुशी है ही नहीं।
वही प्रामाणिक जीवन स्कूर्ति है, वही प्रामाणिक अस्तित्वगत आनंद है
और वही है प्रसन्नता और परमानंद। केवल शक्तिहीनता और असहायता ही
दुःख और दुर्बलता है और द्वंद्व ही इस शक्तिहीनता को उत्पन्न करता है।''
तुम्हें दो में विभाजित करने के बाद
जो कुछ भी थोड़ी-सी ऊर्जा बच जाती है,
वह भी अंतर्संघर्ष में व्यर्थ नष्ट हो जाती है।
और तुम निरंतर अन्दर संघर्ष ही करते रहते हो,
निरंतर किसी चीज का दमन करते रहते हो,
निरंतर किसी अन्य चीज को विवश करने का प्रयास करते रहते हो।
क्रोध आता है, और तुम अक्रोध में बने रहना चाहते हो;
लोभ जागता है और तुम अलोभ में बने रहना चाहते हो;
परिग्रह आता है और तुम अपरिग्रही बने रहना चाहते हो;
हिंसा उत्पन्न होती है और तुम अहिंसक बने रहना चाहते हो;
वहां कुरता जागती है और तुम उस पर करुणा आरोपित किए जाते हो;
वहां बहुत अधिक कोलाहल और शोर है,
और तुम मौन और शांत बने रहना चाहते हो;
अन्दर कुछ और चल रहा है,
और तुम उस पर कोई चीज थोपते चले जाते हो;
और निरंतर संघर्ष बची हुई ऊर्जा को भी बिखेर देना चाहता है,
और यह सभी कुछ चलता ही रहता है, जब तक तुम फिर से एक न हो जाओ।
इस बिंदु पर एक बनने के दो रास्ते हैं-
या तो पतित होकर तुम पीछे लौटकर एक पशु बन जाओ,
अथवा ऊंचे उठकर तुम एक बुद्ध बन जाओ।
वस्तुत: पीछे लौटकर अचेतन में गिरना बहुत सरल है।
इसमें प्रयास करने की भी कोई जरूरत नहीं है।
तुम सामान्य रूप से सरक कर पीछे गिर सकते हो।
यह पहाड़ से नीचे आना जैसा है, जिसमें किसी प्रयास की कोई जरूरत नहीं
है। और पहाड़ के ऊपर चढ़ना कठिन है।
इसीलिए लाखों-करोड़ों मनुष्य पहाड़ से नीचे आने का मार्ग चुनते हैं।
जहां तक चेतना का सम्बन्ध है, यह पहाड़ से नीचे आने का मार्ग है क्या?
ड़ग्ज, शराब, सेक्स, यह चेतना के शिखर से नीचे आने के मार्ग हैं।
संभोग की गहरी प्रक्रिया में तुम फिर से एक पशु बन जाते हो,
तुम मनुष्य नहीं रह जाते। मनुष्य और पशु के अंतर पर तुम पुल बना देते हो;
संभोग के गहरे आनंद में यह द्वैतता मिट जाती है,
संभोग के कृत्य में वहां नियंत्रण करने वाला कोई भी नहीं रहता,
तुम्हारा पूरा शरीर एक इकाई बनकर कार्य करने लगता है।
फिर वहां न तो मन रहता है और न अहंकार बचता है,
नियंत्रण और नियंत्रक दोनों ही नहीं रह जाते वहां,
क्योंकि संभोग का कृत्य अनैच्छिक है।
इसमें तुम्हारी इच्छा शक्ति की कोई जरूरत नहीं है, और न तुम्हारे संकल्प
की। तुम अपनी संकल्प शक्ति का समर्पण कर देते हो,
अचानक तुम प्राकृतिक पशु जगत में वापस आ जाते हो,
तुम फिर से ईडेन के उद्यान में प्रविष्ट हो गए हो,
तुम एक सभ्य मनुष्य न होकर, फिर से आदम और ईव हो गए है।
यही कारण है कि सभी समाज सेक्स की निंदा करते हैं। वे उससे डरते हैं।
यह ईडेन के उद्यान में प्रविष्ट होने का पिछला दरवाजा है।
सभी सभ्यताएं सेक्स से भयभीत हैं। भय होता ही है,
क्योंकि एक बार तुम बिना नियंत्रण वाले अस्तित्व को जान लेते हो,
तब फिर तुम जरा से भी नियंत्रण में नहीं रहना चाहते।
तुम एक विद्रोही बन सकते हो।
तुम सभी नियमों और कानूनों को फेंककर हवा में उड़ा सकते हो,
तुम कनफ्यूशियस और उसकी नैतिक मान्यताओं को कूड़ेदान में फेंक सकते हो।
तुम फिर से एक पशु बन सकते हो;
और सभ्यता को इससे भय लगता है।
लेकिन फिर भी सेक्स करने की अनुमति दी जाती है,
क्योंकि यदि इसकी अनुमति नहीं दी गई, तो भी यह मुसीबतें खड़ी करेगा।
जैविक शरीर में यह मूल प्रवृत्ति, तुम्हारे शरीर विज्ञान और बहुत गहरे में
तुम्हारे रसायन में इतनी गहरी जड़ें जमाए हुए है,
कि यदि इसकी अनुमति नहीं दी जाती है
तो यह विकृतियां उत्पन्न करेगी,
तुम पागल हो सकते हो।
इसलिए समाज, होम्योपैथी की हल्की खुराक की भांति
इसे लेने की अनुमति देता है।
विवाह का यही अर्थ है, विवाह होम्योपैथी की हल्की खुराक जैसी है
जो तुम्हें एक विशिष्ट तरीके से नियंत्रित करती है।
तुम्हें समाज के बाहर झांकने की एक छोटी-सी खिड़की से अनुमति दी जाती
है, लेकिन फिर भी समाज एक बाहरी नियंत्रण की व्यवस्था करती है।
विवाह है प्रेम-कानून-
प्रेम के साथ कानून का यह जोड़ ही तुम्हें चारों ओर से नियंत्रित करता है।
यदि बिना किसी कानून या नियम के प्रेम करने की अनुमति दी जाती है,
तो भय यही है कि मनुष्य फिर से पशु जगत में गिर जाएगा।
और यह भय ठीक प्रतीत होता है; यह भय अर्थपूर्ण है।
प्रेम के द्वारा मनुष्य का पतन भी हो सकता है,
क्योंकि प्रेम के द्वारा ही उसका उत्थान भी हो सकता है,
उसके द्वारा मनुष्य का पतन भी हो सकता है, क्योंकि सीढ़ी वही एक है,
चाहे तुम उससे ऊपर जाओ अथवा नीचे उतरी।
प्रेम तुम्हें उन्हीं ऊंचाइयों तक उठा सकता है, जिसके लिए जीसस कहते हैं:
प्रेम ही परमात्मा है।
और प्रेम तुम्हें नीचे अनंत गहराइयों में भी ले जा सकता है
इसीलिए समाज निरंतर निरीक्षण करता रहता है,
सूक्ष्म रूप से पुलिस और मजिस्ट्रेट तुम्हें चारों ओर से बैठे घेरे रहते हैं।
प्रेम में स्वतंत्रता नहीं है।
क्यों? प्रेम में मनुष्य इतने नीचे क्यों गिर जाता है?
क्योंकि प्रेम में नियंत्रण नहीं रह जाता, और उस खाई पर पुल बनाना होता है,
तुम फिर से एक बन जाते हो-
लेकिन तुम पशु जगत में पीछे लौटकर चले जाते हो।
प्रेम ही तुम्हें दिव्यता की और भी ले जा सकता है,
लेकिन तब प्रेम को बहुत-बहुत ध्यानपूर्ण होना होगा।
तब प्रेम को 'प्रेम, ध्यान' बनना होगा।
इसी को तंत्र कहता है-'प्रेम पूर्ण ध्यान।'
तुम अपने अस्तित्व को पूर्ण रूप से स्वतंत्र होने की अनुमति देते हो
लेकिन फिर भी तुम गहरे में अपने केंद्र पर साक्षी बने रहते हो।
यदि साक्षी खो गया तो तुम फिर नीचे की ओर गिर पड़ोगे
और यदि साक्षी बना रहा तब प्रेम की वही सीडी-
तुम्हें सर्वोच्च स्वर्ग की ओर ले जाएगी।
शराब.. .सभी सामाजिक संगठन इसके विरुद्ध रहे हैं,
लेकिन फिर भी उन्हें इसकी अनुमति देनी पड़ी,
क्योंकि वे जानते हैं
कि बिना इसकी अनुमति दिए बहुत अधिक अव्यवस्था फैल जाएगी,
शराब लेने की उन्हें अनुमति देनी पड़ी, लेकिन बहुत कम मात्रा में,
दवा की खुराक की तरह, कानूनी रूप से उसकी स्वीकृति देनी ही पड़ी।
क्यों? क्योंकि लोगों को इससे चैन मिलता है, वह शांत करती है, नींद लाती
है। और लोगों के अन्दर इतने अधिक दुःख और पीड़ाएं हैं;
कि उन्हें ऐसी किसी चीज की आवश्यकता है, जिसे लेकर वे शांत हो जाएं।
अन्यथा वे पागल बनकर एक दूसरे से लड़ने लगेंगे।
इसलिए कोई भी समाज शराब के बारे में स्वतंत्रता देना गवारा नहीं कर सकता,
लेकिन कोई भी समाज पूरी तरह इस पर पाबंदी भी नहीं लगा सकता।
ऐसा करना सम्भव नहीं है। नहीं तो व्यवस्था करना कठिन हो जाएगा।
शराब एक जरूरत है लोगों की।
यह जरूरत इसलिए है क्योंकि लोगों के अन्दर बहुत बड़ा तनाव है,
और उसकी वजह से तुम पागल भी हो सकते हो।
और तब बहुत तरह की नशीली दवाएं और ड़ग्ज उत्पन्न हो गए-
और ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ, ऐसा हमेशा ही से होता रहा है
ऋवेद के समय सोमरस से लेकर एलएसडी. 25 तक..
हमेशा ही से ऐसा ही रहा है।
नशीली दवाएं या रसायन बार-बार धमाका करते रहे हैं
हर बार उन पर रोक और प्रतिबंध लगाए जाते हैं, उनकी आदत को कुचला
जाता है और समाज उन्हें भुला देना चाहता है।
लेकिन वे फिर वापस लौट आते हैं। उनकी कहीं एक गहरी जरूरत दिखाई देती है।
और जरूरत है
चेतन और अचेतन के मध्य एक पुल बनाने की जरूरत है।
जब तक कि एक व्यक्ति एक निष्ठावान ध्यानी न बन जाए
नशीली दवाओं की आवश्यकता बनी ही रहेगी।
जब तक तुम ऊपर की ओर नहीं उठते, तुम्हें नीचे की ओर गिरना ही होगा।
तुम स्थिर होकर नहीं बने रह सकते।
अस्तित्व के गूढ़ नियमों में से यह एक नियम है-
कोई भी स्थिर नहीं बना रह सकता,
या तो उसे ऊपर उठना होगा, अथवा उसे नीचे की ओर गिरना होगा।
ऊर्जा विश्राम में नहीं रह सकती, वह केवल गतिशील होना ही जानती है।
क्योंकि जीवन या तो तुम आगे की ओर बढ़ो,
अन्यथा तुम पीछे फेंक दिए जाओगे;
लेकिन तुम यह नहीं कह सकते कि तुम अपनी स्थिति में ही थिर बने
रहोगे-न तो तुम ऊपर की ओर जाओगे और न नीचे की ओर।
नहीं, ऐसा होना सम्भव ही नहीं है।
यदि तुम ऊपर की ओर नहीं बढ़ रहे हो, तो तुम पहले ही से नीचे गिर रहे हो-
तुम उसे जान भी सकते हो और नहीं भी जान सकते हो।
केवल एक ध्यानपूर्ण समाज ही शराब के नशे से मुक्त हो सकता है
नशीली दवाएं और रसायन इस खाई को पाटने के पुल की भांति हैं।
तुम अधिक सजग बने रहकर भी इस खाई या अंतराल का सेतु बन सकते हो,
इसी कारण सजग, सचेत, साक्षी और निरीक्षण कर्त्ता बने रहने पर
मैं इतना अधिक जोर देता हूं।
क्यों? क्योंकि तुम जितने अधिक सजग बने रहोगे,
तुम्हारा उतना ही अधिक अचेतन, चेतन बनता है।
केवल यही एक मार्ग है।
यदि तुम अधिक सजग बनते हो, यदि तुम होशपूर्वक चलते हो,
यदि तुम होशपूर्वक बात करते और सुनते हो,
यदि तुम होशपूर्वक ही भोजन और स्नान करते हो
किसी यंत्र की भांति, तुम कार्यों को नींद में चलने वाले मनुष्य की भांति नहीं,
और दूसरी चीजों के बारे में सोचते हुए
जो एक तरह की मूर्च्छा ही है
यदि होशपूर्वक और पूरे ध्यान से करते हो,
तो अचेतन की एक मोटी पर्त का रूपांतरण चेतना में हो जाता है,
और धीमे- धीमे सागर में डूबा तैरता हुआ हिमखण्ड
अधिक से अधिक अंधकारमय जल से बाहर आता जाता है।
जब तुम्हारा पूरा अस्तित्व अंधकार से बाहर आ जाता है
तो यही समाधि है और यही बुद्धत्व है,
यही बुद्ध अथवा अर्हत की स्थिति होती है:
एक वह, जिसके अन्दर अब अचेतन रह ही नहीं गया,
एक वह, जिसके अस्तित्व के किसी कोने में अब अंधकार रहा ही नहीं,
और उसका पूरा घर ही प्रकाशित हो उठा है।
अब तुम एक इकाई बने, अब तुम्हारी बिखरी तरल चेतना
एकीकृत होकर एक ठोस हीरा बन गई।
फिर से एक पशु की भांति तुम एक इकाई बने, लेकिन उच्च तल पर।
इसलिए बुद्ध भी शुद्ध रूप से एक पशु की भांति सरल और साधारण हो जाता
है, वह एक पशु की भांति ही निर्दोष हो जाता है-
लेकिन पूरी तरह एक पशु के समान नहीं होता।
पशु में निर्दोषिता उसके अज्ञान के कारण होती है,
और एक बुद्ध के पास जो निर्दोषता होती है,
वह उसके बोध की पूर्ण चेतना के कारण होती है।
उसका पूरा कारण ही परिवर्तित होता है।
इस बोध कथा में प्रवेश करने से पूर्व, यह है पहली बात,
कि कोई मनुष्य जब ऐसे बिंदु पर आ जाता है,
जहां उसे यह अनुभव होना शुरू हो जाता है
कि इस गड़बड़ की पूरी स्थिति में से बाहर जाने का केवल मात्र मार्ग
आत्महत्या ही है।
यह बिंदु प्रत्येक मनुष्य के जीवन में आता है,
जब तुम पूरा संघर्ष करते हुए थक जाते हो,
जब तुम अपने से पूरे प्रयास करने के बाद पूरी तरह ऊब जाते हो।
स्मरण रहे, आत्महत्या के विचार के साथ, ऊब होना भी बहुत विशिष्ट है,
यह भी मनुष्योचित है। कोई भी पशु कभी भी नहीं ऊबता।
घास चरते हुए किसी भैंस को देखो, प्रत्येक दिन वह वही घास बैठी हुई
चबाती रहती है, चबाती रहती है और कभी भी ऊबती नहीं।
तुम उसकी ओर देखते हुए ही ऊब जाते हो: लेकिन वह नहीं ऊबती।
कोई भी पशु कभी ऊबता ही नहीं, तुम किसी पशु को 'बोर' नहीं कर सकते।
उसका मन बहुत मोटा और उस्स होता है- तुम उसे कैसे उबा सकते हो?
ऊबने के लिए एक बहुत-बहुत उच्च संवेदनशीलता की आवश्यकता है।
जितनी ही उच्चकोटि की तुम्हारी संवेदनशीलता होगी,
उतनी ही ऊंची और उतनी ही अधिक तुम्हारी ऊबाहट भी होगी।
बच्चे नहीं ऊबते
वे अभी भी मनुष्य के संसार से कहीं अधिक पशु जगत में हैं,
वे मनुष्य के रूप में पशु ही हैं।
वे अभी भी साधारण सामान्य चीजों को पाकर खुश हो जाते हैं और ऊबते नहीं;
प्रतिदिन वे तितलियों को पकड़ने बाहर जा सकते हैं;
और वे कभी भी इससे ऊबेंगे नहीं-
वे प्रतिदिन बाहर जाने के लिए पहले ही से तैयार रहते हैं।
क्या तुमने कभी बच्चों से बातचीत की है, उन्हें कभी कोई कहानी सुनाई है?
वही एक कहानी, और वे कहेंगे: फिर से सुनाओ उसे।
और तुम उसे फिर से सुनाते हो, और वे फिर कहेंगे: फिर से सुनाओ।
तुम बच्चों को 'बोर ' नहीं कर सकते। तुम पशुओं को बोर नहीं कर सकते।
ऊबाहट मनुष्यों का वास्तव में एक बहुत बड़ा गुण है
क्योंकि यह केवल चेतना के उच्च तल पर ही होता है।
जब कोई भी बहुत अधिक संवेदनशील होता है, वह ऊब का अनुभव करता है-
जीवन अर्थहीन दिखाई देता है, जीने का कोई कारण ही-
नहीं दिखाई देता, और उसे ऐसा लगता है जैसे मानो-
वह केवल एक संयोग ही से यहां है,
तुम चाहे यहां रहो या नहीं, उससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता।
ऐसा क्षण जब आता है तो कोई भी बुरी तरह ऊब जाता है
और वह आत्महत्या करने के बारे में सोचना शुरू कर देता है।
आत्महत्या है क्या?
यह सामान्य रूप से अपने को हारा मानकर, नीचे गिर पड़ना है।
वह केवल यह कहना है कि बस अब बहुत हो चुका
मैं अब वही खेल फिर से नहीं खेलना चाहता।
मैं अब पूरे खेल से बाहर हो जाना चाहता हूं।
जब तक यह बिंदु नहीं आ जाता, धर्म की सम्भावना ही नहीं है;
क्योंकि इसी बिंदु पर आने पर ही तुम या तो आत्महत्या कर सकते हो,
अथवा अपना रूपांतरण कर सकते हो।
यही वह चौराहा है।
इसलिए यही मेरा निरीक्षण है
जो लोग समय से पूर्व या असामयिक ही धार्मिक बन जाते हैं
वे पूरी तरह से अपना समय नष्ट ही करते हैं।
समय से पूर्व धार्मिक बनने का अर्थ है
वास्तव में जीवन से अभी भी तुम हारे नहीं हो,
वास्तव में अभी भी तुम ऊबे नहीं हो।
जीवन के सांसारिक खेल के प्रति अभी भी तुममें कुछ आकर्षण है,
वह सेक्स हो सकता है, वह धन हो सकता है।
वह राजनीति और शक्ति या सत्ता हो सकती है।
लेकिन जीवन में अभी भी कुछ ऐसा है, जिसमें आकर्षण है,
तब तुम समय से पूर्व ही धार्मिक बन गए हो,
और इससे तुम्हें कोई भी सहायता नहीं मिलेगी, तुम पूरी तरह अपना समय
नष्ट ही करोगे।
कोई भी जब पूरी तरह ऊब जाता है,
उसके लिए जब जीवन में कोई आकर्षण नहीं रह जाता,
जब उसके सारे सपने बिखर जाते हैं,
जीवन के जब सारे इंद्र धनुषी रंग मिट जाते हैं
जब वहां और अधिक फूल नहीं, केवल कांटे ही रह जाते हैं;
जब तुम उसके साथ से संतप्त हो जाते हो, तो स्मरण रहे
तब वहां तुम्हें अपने से, उसे छोड़ने या त्यागने का कोई प्रयास करना ही नहीं होता,
यदि उसे छोड़ने या त्यागने का कोई प्रयास करना होता है
तो इसका अर्थ है कि अभी भी थोड़ा-सा आकर्षण बचा है,
अन्यथा प्रयास करने की जरूरत ही क्या है?
जब किसी चीज से तुम्हारा जी भर जाता है, तब क्या तुम उसे छोड़ते हो?
नहीं। उसका त्याग करने या छोड़ने की कोई जरूरत होती ही नहीं,
वह तो पहले ही से छूट जाती है।
यदि तुम संसार से पलायन कर जंगल में जाते हो,
तो तुम किससे कर रहे हो पलायन?
तुम उन थोड़े से आकर्षणों से दूर भाग रहे हो, जिनसे तुम अभी भी हिलगे
हुए हो,
अन्यथा क्यों, और कहां जाओगे तुम उन्हें छोड्कर?
उन्हें छोड़ने में ही तुम यह प्रदर्शित कर रहे हो
कि तुम अभी भी किसी चीज से बंधे हुए हो।
यही इसका नियम है, इसे स्मरण रखें:
तुम जहां से कुछ छोड्कर कहीं जाते हो, तो वहां तुम्हारा अभी आकर्षण है।
यदि तुम स्त्री से भागकर जा रहे हो, तो स्त्री तुम्हारा आकर्षण है।
यदि तुम राजनीति से भागकर कहीं जा रहे हो, तो राजनीति में तुम्हारी
आसक्ति है,
यदि तुम जितनी अधिक तेजी से भागकर जा रहे हो,
तुम्हारा आकर्षण उतना ही अधिक बढ़ा है।
अभी यह समय से पूर्व है। तुम फिर वापस लौटोगे।
तुम हिमालय पर जा सकते हो, लेकिन तुम सोचोगे, और सपना देखोगे,
कि तुम्हें देश का राष्ट्राध्यक्ष चुन लिया गया है।
हिमालय की अकेली गुफा में बैठे हुए तुम पाओगे
कि बहुत सी सुन्दर स्त्रियां और स्वर्ग की अप्सराएं आ रही हैं।
यह तुम्हारे ही मन द्वारा उत्पन्न की हुई संतानें हैं
कोई भी तुम्हारे लिए किसी अप्सरा को नहीं भेज रहा है,
यह उस स्त्री के कारण है जिसे तुम छोड्कर यहां आ गए हो।
समय से पूर्व, असामयिक मन से कोई संन्यास या आत्म-त्याग होता ही नहीं।
पूर्ण विकास या परिपक्वता आवश्यक है,
और परिपवक्ता या विकसित होने का अर्थ है,
कि तुमने जीवन को जी भरकर जी लिया।
तुमने उसे बहुत गहराई से जान लिया, और उसमें कमी पाई।
उसमें वहां तुमने कुछ भी तो नहीं पाया, यात्रा पूरी हो गई।
अब तुम बाजार के बीच भी रह सकते हो, अथवा तुम आश्रम में भी जा सकते
हो, इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता, सब कुछ एक जैसा ही है।
जीवन में कहीं कोई आकर्षण नहीं रह गया है,
तुम जहां कहीं भी हो, उससे कोई भी अंतर नहीं पड़ता।
यही बिंदु है, आत्महत्या करने का बिंदु।
और यही वह बिंदु अथवा स्थान है, संन्यास लेने का।
आत्महत्या अथवा संन्यास: यह दो ही विकल्प हैं
और जब तक तुम्हारा संन्यास, आत्महत्या करने का विकल्प नहीं है
वह बहुत अधिक महत्वपूर्ण नहीं है।
यही वह बिंदु है, जहां तुम एक धार्मिक और अधार्मिक चित्त के मध्य होने
वाले अंतर का अनुभव कर सकते हो।
अधार्मिक चित्त या मन के पास कोई विकल्प होता ही नहीं,
जब वह जीवन से ऊब जाता है, तो केवल आत्महत्या करने का ही
मार्ग रह जाता है,
कोई दूसरा विकल्प होता ही नहीँ।
एक नास्तिक व्यक्ति आखिर करेगा क्या, जब वह जीवन से ऊब जाए?
वह आत्महत्या कर सकता है।
यही कारण है कि पश्चिम में लोग इतनी अधिक आत्महत्याएं करते हैं।
इसी वजह से स्त्रियों की अपेक्षा पुरुष अधिक आत्महत्या करते हैं।
उनकी संख्या लगभग दो गुनी है, क्योंकि स्त्रियों की तुलना में पुरुष कहीं
अधिक नास्तिक और कहीं अधिक कम धार्मिक हैं।
पूरब में कम से कम लोग आत्महत्या करते हैं,
जबकि पश्चिम में अधिक से अधिक लोग।
तुम पश्चिम की ओर बढ़ो, तो समझो, तुम आत्महत्या के अर्द्ध गोलार्द्ध की
ओर बढ़ रहे हो।
महान विचारक, दार्शनिक और तार्किक लोग
सामान्य मनुष्यों की अपेक्षा कहीं अधिक आत्महत्या करते हैं
क्योंकि सोच विचार के साथ संदेह और उलझन बढ़ जाती है,
और एक व्यक्ति जो वास्तव में संदेह करता है,
उसका नास्तिकता में विश्वास हो जाता है।
तुम संदेह में नहीं बने रह सकते, क्योंकि संदेह में रिक्तता है।
तुम्हें किसी न किसी विश्वास के साथ बंधना होगा-या तुम परमात्मा में
विश्वास करो, अथवा मानो कि कहीं कोई परमात्मा नहीं है,
या तो मानो कि भविष्य में अगला जीवन है,
अथवा भविष्य में जीवन की किसी भी सम्भावना से इंकार करो,
या तो अज्ञात का सत्य मानकर, उच्चतम तल पर विश्वास करो
अथवा उच्चतम तल पर जाने की बात निरर्थक मानो।
लेकिन तुम्हें निर्णय लेना ही पड़ेगा,
तुम संदेह में ही नहीं बने रह सकते।
मैंने आज तक ऐसा कोई व्यक्ति देखा ही नहीं, जो संदेह में रहता हो।
वह अपने आपको संदेही या नास्तिक कह सकता है:
पर नहीं, नास्तिकता ही उसका विश्वास है
वह अपने को नास्तिक कहते हुए कह सकता है
मैं परमात्मा पर कोई भी विश्वास नहीं करता-
लेकिन वह अपने अविश्वास पर विश्वास करता है।
वह किसी आस्तिक की भांति ही अपने विश्वास पर गर्व करता है:
और वह अपने विश्वास की रक्षा करने के लिए
किसी आस्तिक की भांति ही पहले से ही तर्क द्वारा
यह सिद्ध करने को तैयार बैठा है।
कोई भी व्यक्ति संदेह ही में नहीं जी सकता।
इसलिए यहां दो तरह के मन हैं: अधार्मिक और धार्मिक मन।
पहले इन दोनों के बीच के अंतर को समझना ठीक होगा।
एक अधार्मिक मन, जो कुछ प्रकट और प्रत्यक्ष सामने है,
उस पर विश्वास करता है, जिसे वह देख सके,
एक धार्मिक चित्त न केवल प्रत्यक्ष दीखने वाली वस्तु पर ही,
बल्कि अस्पष्ट और अज्ञात सत्य पर भी विश्वास करता है।
एक धार्मिक चित्त वह है, जो कहता है कि आंखे वास्तविक सत्य को देखने
में सक्षम नहीं हैं।
जो कुछ आखें देख सकती हैं, वास्तविक सत्य उससे कहीं अधिक है।
हाथ सभी कुछ को पकड़कर अपने में बांध नहीं सकते, सत्य कहीं अधिक
विराट है।
कान वह सभी कुछ नहीं सुन सकते: सत्य उससे कहीं अधिक है।
एक धार्मिक चित्त कहता है:
तुम जो कुछ भी जानते हो, वह केवल उसका एक खण्ड है-
यह जीवन ही सब कुछ नहीं, 'वह' उसके पार है।
वहां जीवन से कहीं अधिक कुछ और भी है, और उसके अनेक द्वार हैं।
एक अधार्मिक चित्त चारों ओर से बंद मन है,
जब कि धार्मिक चित्त के द्वार खुले होते हैं, वह हमेशा आगे बढ़ने में,
हमेशा जांच और परीक्षण करने में, और अज्ञात की ओर यात्रा करने में पहले
ही से तैयार रहता है।
यदि तुम्हारे पास एक अधार्मिक चित्त है, तो यह नहीं कहा जा सकता,
कि तुम कब इस जीवन से ऊब जाओ।
क्योंकि तुम वह सभी कुछ भोग चुके हो, जो कुछ जीवन तुम्हें दे सकता था।
और तुमने उसे व्यर्थ और निरर्थक पाया।
एक खिलौना तुम्हें आखिर कब तक और कितनी देर तक
उलझा कर व्यस्त रख सकता है?
तब एक ऐसा क्षण आता है जब तुम विकसित हो जाते हो,
और खिलौना अलग फेंक दिया जाता है।
फिर उसमें कुछ भी आकर्षण नहीं रह जाता।
यह जीवन जो सब कुछ था, अब वह बुरा और व्यर्थ समझ कर
उससे मुक्त होने का मन होता है।
तुम आत्महत्या कर सकते हो। अब वहां तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं रह जाता।
केवल आत्महत्या करने के इस क्षण में ही
कोई एक धर्म के इस मनोरम जगत के बारे में जान पाता है।
और धर्म का आखिर क्या अर्थ होता है, केवल तभी उसका अनुभव होता है।
क्योंकि इस जीवन में तो सब कुछ समाप्त हो चुका, लेकिन यह सृष्टि विराट
है, एक आयाम तो समाप्त हो चुका,
लेकिन वहां लाखों आयाम हैं।
इस अस्तित्व में आत्मा की पर्त दर पर्त, अनेक पर्तें हैं
इसका वहां कोई अंत ही नहीं है।
एक खुला हुआ चित्त ही धार्मिक चित्त होता है,
सम्भावनाओं के इस विस्तार का अर्थ ही परमात्मा है।
परमात्मा में ही तुम्हारे विकसित होने की अनंत सम्भावनाएं हैं।
जब एक दिशा बंद हो जाती है, तो दूसरी दिशा खुलती है।
वास्तव में जब एक दरवाजा बंद हो जाता है, तो तुरंत ही दूसरा दरवाजा खुल
जाता है।
आत्महत्या के इस क्षण में ही, एक व्यक्ति उस दोराहे पर अपने को खड़ा
पाता है,
जहां या तो वह स्वयं को मिटा दे अथवा अपने लिए एक नए मार्ग का सृजन
करे।
पुराने जीवन का अब और कुछ भी अर्थ नहीं रह जाता,
या तो अपने आपको पूरी तरह नष्ट कर दिया जाए आत्महत्या कर ली जाए-
अथवा वह अपने लिए पूरी तरह से एक नए मार्ग का सृजन करे, जिससे वह
एक नए जीवन और एक नूतन प्रेम के संसार में प्रविष्ट हो जाए।
एक अधार्मिक चित्त पूरी तरह से विध्वंसक होता है,
और एक धार्मिक चित्त सृजनात्मक होता है।
धार्मिक चित्त कहता है कि एक संसार समाप्त हो चुका।
तो सामान्य रूप से उसने यह दिखा दिया कि जिस तरह से तुम जी रहे थे,
तुम्हारे जीवन का वह आधार ही सार्थक न होने से समाप्त हो गया।
अब तुम दूसरी तरह से जी सकते हो,
तुम्हारे अस्तित्व के लिए दूसरी जीवन शैली भी सम्भव है। उस नई शैली का
सृजन करो।
तुम अभी तक अपने को शरीर मानकर ही जीते रहे हो,
अब तुम अपने को आत्मा मानकर जी सकते हो।
अभी तक तुम भौतिकतावादी जीवन ही जीते रहे हो,
अब तुम आध्यात्मिक मार्ग पर चलते हुए जी सकते हो।
अभी तक तुम लोभ, क्रोध, सेक्स, ईर्ष्या और परिग्रह भरा जीवन जीते रहे हो,
अब अपरिग्रह और करुणा के भिन्न मार्ग पर जीकर देखो।
अभी तक तुम लोभ को जीवन का आधार बनाकर जीते रहे हो,
अब सहभागी बनकर जीयो, तुम्हारा पूरा अस्तित्व दूसरों के साथ सहभागिता
में जीये।
तुम अभी तक सोच विचार कें साथ जीते रहे, और वह ढंग असफल हो
गया।
अब एक ध्यानी बनकर परमानंद में जीकर देखो।
अभी तक तुम बाहर और केवल बाहर ही बाहर भटकते रहे
अब वापस लौटकर अपने अन्दर जाकर देखो।
धर्मांतरण का यही अर्थ है:
पीछे मुड़कर अपने स्रोत की ओर गतिशील होना।
बाहर की यात्रा समाप्त हो चुकी, अब वहां जो अन्दर है, उसी ओर जाना है।
तभी एक नूतन अस्तित्व का जन्म होता है।
हिंदू इस बिंदु को, पुनर्जन्म का बिंदु कहते हैं।
एक जन्म तो माता-पिता द्वारा दिया जाता है-
यह जन्म भौतिक संसार का है।
दूसरा जन्म तुम स्वयं अपने को देते हो-
यह जन्म ही प्रामाणिक जन्म है, यह तुम्हारी आत्मा का जन्म है।
हिंदू इसे पुनर्जन्म कहकर पुकारते हैं
और उस व्यक्ति के लिए जिसने उसे प्राप्त किया है
उनके पास एक विशिष्ट नाम है-
वे उसे द्विज बनना कहते हैं-दूसरा जन्म हुआ तुम्हारा।
अपने ही गर्भ से वह अब स्वयं ही एक नया जन्म लेता है।
एक नूतन आयाम का द्वार खुलता है: एक अर्थपूर्ण और महत्वपूर्ण आयाम
और एक शाश्वत महत्व के आयाम का।
लेकिन ऐसा तभी होता है
जब तुम जीते हुए ऊबाहट की एक ऐसी स्थिति तक आ जाते हो,
कि तुम अपने जीवन को समाप्त करने का निश्चय कर लेते हो।
अब हम इस सुन्दर जेन बोध कथा में प्रवेश करेंगे।
महान सद्गुरु गीजान के सानिध्य में
तीन वर्षों के कठोर प्रशिक्षण के बाद भी
कोश सतोरी तक को प्राप्त करने में समर्थ न हो सका था।
सतोरी, समाधि होती है, पहली समाधि,
समाधि में प्रामाणिक रूप से, एक अन्य जगत में प्रवेश है,
जो तुम्हारे लिए पूरी तरह से अनजाना और अज्ञात है
जो तुम्हारे लिए पूरी तरह से अकल्पनीय है,
जिसका तुम्हारे द्वारा कभी सपना तक नहीं देखा गया है।
इस जगत का तुम्हारे संसार की बगल में ही अस्तित्व है।
वास्तव में तुम्हें उसके लिए एक कदम भी नहीं उठाना होता,
ठीक तुम्हारे संसार की ही बगल में, ठीक उसके अन्दर ही उसका अस्तित्व
है। केवल तुम्हें अपना दृष्टिकोण बदलना होता है।
अचानक जब तुम इस नूतन दृष्टिकोण से इसी संसार को देखते हो तो एक
दूसरा ही जगत प्रकट होता है।
यह संसार तुम्हारा ही एक दृष्टिकोण है, वह और कुछ भी नहीं है।
यह संसार इसलिए कुरूप और भद्दा लगता है, क्योंकि तुम्हारा दृष्टिकोण ही
गलत है।
यदि यह संसार केवल एक दुःख अथवा एक नर्क है
तो केवल इसलिए क्योंकि तुम्हारा दृष्टिकोण ही गलत है।
वास्तव में यह संसार ऐसा है नहीं। जो तुम्हें नर्क लगता है:
वह तुम ही हो, जो अपने चारों ओर एक नर्क सृजित कर लेते हो, वह तुम्हारे
ही मन का प्रक्षेपण है।
यह संसार तो तटस्थ है, यह एक फिल्म के पर्दे की तरह है- श्वेत, कोरा
और शुद्ध।
और तब यह निर्भर करता है कि तुम उस पर क्या प्रक्षेपित करते हो।
तुम उस पर नर्क भी प्रक्षेपित कर सकते हो और स्वर्ग भी- अथवा तुम सभी
प्रक्षेपणों को गिरा देते हो,
तुम कोई भी चीज प्रक्षेपित ही नहीं करते, यही मोक्ष है,
यही है अंतिम मुक्ति।
महान सदगुरु गीजान के सानिध्य में
तीन वर्षों के कठोर प्रशिक्षण के बाद भी
कोश सतोरी तक को प्राप्त करने में समर्थ न हो सका था।
यहां कुछ बात समझने जैसी है।
यदि तुम कोई भी प्रयास नहीं करते, तुम कभी भी उसे प्राप्त न कर सकोगे,
लेकिन तुम अत्यधिक प्रयास भी कर सकते हो, और चूक जाओगे।
कभी-कभी तुम आवश्यकता से अधिक प्रयास कर सकते हो,
और यह अत्यधिक नाजुक मामला है-
कि कैसे संतुलन बनाकर मध्य में रहा जाए?
कुछ भी न करना सरल है
और आवश्यकता से अधिक करना भी सरल है,
लेकिन सबसे अधिक कठिन बात है
ठीक अनुपात में मध्य में बने रहना।
अहंकार के लिए पराकाष्ठाओं पर पहुंचना आसान है।
कोई भी कार्य न करना भी बहुत आसान है,
तब अत्यधिक करना भी आसान है।
जिन लोगों के शरीरों में चर्बी अधिक होने से वे मोटे हो गए हैं
वे लोग मेरे पास आकर पूछते हैं कि आखिर क्या किया जाए?
क्या उन लोगों को उपवास करना चाहिए?
और मैं जानता हूं
या तो वे लोग बहुत अधिक भोजन कर सकते हैं
क्योंकि उनके मन में हर समय भोजन ही घूमता रहता है
अथवा वे लोग उपवास कर सकते हैं। दोनों ही आसान हैं।
लेकिन यदि तुम उनसे कहो कि वे जितना भोजन करते हैं, उसका आधा कर
तो उनके लिए वैसा करना कठिन है।
वे लोग भूखे रह सकते हैं, वह उनके लिए कठिन न होकर आसान है।
वे लोग हंस-हंस कर गले तक खा सकते हैं, यह भी आसान है उनके लिए
क्योंकि दोनों ही तरह से वे अपने शरीर को हानि पहुंचा रहे हैं।
उनका शरीर को मारने का गुणात्मक व्यवहार ठीक वही रहता है।
वे बहुत अधिक खा सकते हैं, जो एक तरह की हिंसा या स्वयं को मारने
जैसा है। तब वे दूसरी तरह की भी हिंसा कर सकते हैं:
वे उपवास पर जा सकते हैं।
ये दोनों ही दो पराकाष्ठाएं हैं, और दोनों ही गलत हैं
कोई भी पराकाष्ठा हमेशा गलत ही होती है।
मध्य में बने रहना ही हमेशा ठीक होता है।
यह कोश भी जरूर आवश्यकता से अधिक ध्यान करता रहा होगा।
और जब तुम किसी सद्गुरु के पास जाते हो, तो ऐसा हमेशा होता है,
तुम बहुत अधिक उद्दीस हो जाते हो।
जब तुम एक सद्गुरु के निकट होते हो, तुम उसके अस्तित्व के प्रति इतने
अधिक आकर्षित हो जाते हो,
कि तुम एक छलांग लगाना चाहते हो,
तुम उसके ही समान बनना चाहते हो
तुम कोई भी काम करने के लिए तैयार रहते हो,
तुम्हारे क्रियाकलाप जैसे ज्वरग्रस्त हो जाते हैं-
और तुम बहुत अधिक शीघ्रता में होते हो।
कोश ने जरूर ही बहुत अधिक श्रम किया होगा,
अन्यथा गीजान जैसे सद्गुरु के साथ
तुम यदि सामान्य रूप से उसके निकट बैठे ही रहते
तब भी सतोरी घट सकती थी।
तीन वर्षों के कठोर प्रयासों के बाद भी वह क्यों चूक रहा था?
क्योंकि उसने आवश्यकता से अधिक प्रयास किया।
जब तुम एक खास कार्य को आवश्यकता से अधिक करते हो,
तो व्यग्रता उत्पन्न होती है,
जब तुम किसी विशिष्ट कार्य को आवश्यकता से अधिक करते हो,
तो अन्दर एक उपद्रव और कोलाहल उत्पन्न हो जाता है
तुम असंतुलित हो जाते हो, तुम शांति से नहीं रह सकते।
और सतोरी केवल तभी घटती है जब तुम अपने घर में होते हो,
वास्तव में सतोरी घटती ही तभी है,
जब तुम प्रामाणिक रूप से-विश्राममय होते हो।
केवल उतना ही कार्य करो, जो विश्राममय होने में सहायक हो।
उसे आवश्यकता से अधिक मत करो।
और एक व्यक्ति को अपने अनुभव से ही अपने कार्य करने का ढंग निश्चित
करना होता है, क्योंकि इसके लिए कोई थिर नियम नहीं दिया जा सकता,
क्योंकि यह प्रत्येक व्यक्ति के स्वभाव पर-निर्भर करते हुए अलग- अलग
होता है।
प्रत्येक व्यक्ति को अपना संतुलन स्वयं बनाना होता है,
और धीमे-धीमे ही एक व्यक्ति अपने संतुलन के प्रति सजग बनता है।
संतुलन, चित्त की वह दशा है, जहां तुम मौन और शांत हो जाते हो,
इस तरह या उस तरह कोई प्रयास नहीं करना होता।
जब तुम आलसी बनकर कुछ भी नहीं करते,
तब तुम्हारी ही ऊर्जा तुम्हारे ही अन्दर एक विप्लव बन जाती है।
क्योंकि अन्दर अधिक ऊर्जा का होना भी एक बेचैनी उत्पन्न करता है,
बच्चे हमेशा बेचैन रहते हैं
क्योंकि उनके अस्तित्व से बहुत अधिक ऊर्जा बाहर आ रही है,
और वे नहीं जानते कि उस ऊर्जा का क्या किया जाए और उसे कहां फेंका जाए?
यदि तुम आलसी हो
तो बहुत अधिक ऊर्जा तुम्हारे अन्दर उपद्रव खड़ा करेगी,
तुम्हारी अपनी ही ऊर्जा तुम्हारे लिए दुश्मन बन जाएगी।
और यदि तुम बहुत अधिक सक्रिय बनकर बहुत अधिक कार्य करते हो,
यदि तुम किसी विशिष्ट चीज को बहुत अधिक करते हो
जो तुम्हारी ऊर्जा को बहाकर बाहर ले जाती है
तो तुम एक रिक्तता और थकावट का अनुभव करते हो।
तब फिर तुम बेचैन हो जाओगे,
क्योंकि तुम्हें अपने अन्दर ऊर्जा के एक विशिष्ट तल की आवश्यकता होती है।
या तो बहुत अधिक ऊर्जा बेचैनी उत्पन्न करेगी
अथवा बहुत अधिक ऊर्जा के बाहर बह जाने से तुम अशांत हो जाओगे।
एक सद्गुरु के साथ हमेशा ऐसा ही होता है।
उसके अन्दर एक चुम्बकीय केंद्र होता है,
तुम उसके प्रेम में पड़कर उद्दीप्त हो! जाते हो।।
यह एक प्रेम प्रसंग के समान है-
जब तुम प्रेम में पड़ते हो तब तुम जैसे ज्वरग्रस्त हो जाते हो।
प्रेम एक तरह का बुखार ही होता है जिसमें तापक्रम बढ़ जाता है।
कोश के साथ ऐसा ही जरूर हुआ होगा
क्योंकि तीन वर्षों बाद भी उसे कुछ भी नहीं घटा।
सात दिनों के विशिष्ट अनुशासन-सत्र के प्रारम्भ ही में उसने सोचा कि अंतिम
रूप से उसके लिए यह अवसर आ पहुंचा है।
प्रत्येक वर्ष, अथवा प्रत्येक छ: माह, अथवा प्रत्येक तीन माह के बाद जेन
मठों में सात दिनों का एक विशेष अनुशासन-सत्र चलता है, जिसे जा-जेन
कहते हैं। इन सात दिनों में एक-एक व्यक्ति को और कुछ भी न करते हुए
केवल ध्यान करना होता है।
इसमें ही निरंतर सात दिनों तक पूरी ऊर्जा लगानी होती है,
केवल भोजन के लिए-वह भी बहुत थोड़े से समय के लिए और रात में
केवल दो या तीन घंटे की नींद के लिए ही ध्यान रुकता है।
शेष बचे बीस घंटों में प्रत्येक को ध्यान और केवल ध्यान ही करना होता है।
किसी को तो निरंतर एक ही ध्यान मुद्रा में छ: घंटे बैठकर ध्यान करना होता
और जब वह पूरी तरह थक जाता है और नींद आने लगती है
और वह और अधिक नहीं बैठ सकता,
तब उसे होशपूर्वक धीमे- धीमे चलते हुए ध्यान करना होता है।
और इस सात दिनों के सत्र में
सद्गुरु अपना डंडा लिए तुम्हारे चारों ओर तुम्हारे साथ होता है,
क्योंकि जब तुम निरंतर तीन से चार घंटे ध्यान करते हो
तो किसी को भी नींद आने के लिए आधे घंटे का समय ही पर्याप्त होता हे।
इसलिए सद्गुरु अपने डंडे से तुम्हारे सिर पर चोट करता है।
जो कोई उनींदा सा होगा, उस पर तुरंत डंडे से चोट कर
उसे ध्यान में वापस लाना होगा।
सात दिनों का यह बहुत ही ऊर्जा पूर्ण उत्साही प्रयास...
यह आलसी लोगों के लिए सहायक होता है।
लेकिन इस कोश के लिए तो यह सत्र पूरी तरह उसके प्रतिकूल रहा होगा,
ऐसा सत्र उसकी कोई सहायता नहीं कर सकता,
एक विशिष्ट प्रयास भी उसके लिए सहायक न होगा-
क्योंकि वह तो पहले ही तीन वर्षों से ऐसा करता आ रहा था।
वास्तव में उसे तो एक विशेष तरह के ध्यान की आवश्यकता थी- सात दिनों
के परिपूर्ण विश्राम की।
जेन अनुशासन में इसका अस्तित्व है ही नहीं, जो होना चाहिए।
क्योंकि यहां दो तरह के लोग होते हैं-
आलसी लोग और आवश्यकता से अधिक सक्रिय लोग।
आलसी लोगों के लिए यह ठीक है कि कुछ दिनों तक उन्हें,
अधिक से अधिक प्रयास करना चाहिए।
ऐसे सुस्त लोगों के लिए यह अच्छा है, और ऐसे लोग निन्यानबे प्रतिशत हैं।
यही कारण है कि एक प्रतिशत सक्रिय लोगों की कोई भी, फिक्र नहीं करता।
ऐसे एक प्रतिशत लोगों के लिए जो पहले ही से बहुत अधिक कर रहे हैं,
उन्हें इस सत्र से कोई भी सहायता नहीं मिलेगी।
लेकिन...
अनुशासन के सात दिनों के इस विशेष सत्र के प्रारम्भ ही में
उसने सोचा कि उसके लिए अब अंतिम अवसर आ पहुंचा है।
अब वह सब कुछ वही करेगा, जितना कि वह कर सकता है,
वह लगभग चौबीस घंटे ध्यान ही करता रहेगा
अब सतोरी उसकी पकड़ से कैसे दूर भाग सकती है?
वह बुद्ध मंदिर के द्वार पर बनी मीनार के ऊपर चढ़ गया
और अर्हत की प्रतिमा के आगे जाकर उसने यह प्रतिज्ञा की
या तो मैं यहां अपने सपने को साकार करूंगा
अथवा वे इस मीनार के नीचे गिरे मेरे मृत शरीर को देखेंगे।
अब उसने अपनी पूरी ऊर्जा ध्यान में ही लगानी चाही,
और वह बहुत गम्भीर और निष्ठावान था,
वह सच्चे हृदय से चाहता था कि उसे सतोरी लगे।
यदि इसके लिए उसे अपना जीवन भी गंवाना पड़े, तो वह इसके लिए भी
तैयार था।
उसने मीनार में बुद्ध की प्रतिमा के सामने कहा:
या तो मैं यहां अपने सपने को साकार करूंगा
अथवा वे इस मीनार के नीचे पडे मेरे मृत शरीर को देखेंगे।
वह आत्महत्या कर अपना जीवन समाप्त कर लेगा।
ऐसा बिंदु जीवन में आने वाला बहुत दुर्लभ क्षण होता है
जब तुम वास्तव में इतनी अधिक ईमानदारी से
इतना सब कुछ देने के लिए तैयार हो जाते हो।
तब आत्महत्या अथवा समाधि-केवल इनमें से एक ही विकल्प बचता है।
वह बिना सोए निराहार रहा,
इन सात दिनों में उसने न तो भोजन किया, और न सोया,
और निरंतर अपने आप को ' जा जेन ' ध्यान में लगाए रहा
बुद्ध की मुद्रा में केवल शांत और मौन बैठे रहना ही ' जा जेन ' है,
कोई भी कार्य न करते हुए पूरी तरह से सचेत बने रहना,
न कोई भोजन, न कोई नींद, चौबीस घंटे केवल बैठे रहना।
अंतिम रूप से वह जितना भी अधिक से अधिक कर सकता था वह उसे
श्रेष्ठतम रूप में कर रहा था।
प्राय: वह प्रलाप करते हुए चीखता...
मेरे कैसे कर्म हैं कि सभी प्रयासों के बावजूद भी मैं अपना मार्ग नहीं पा सका?
प्रत्येक खोजी के जीवन में ऐसा क्षण आता है, जब वह महसूस करता है,
कि वह जितना कुछ भी कर सकता है, वह सभी कुछ कर रहा है
उससे कुछ और कर पाना सम्भव ही नहीं है।
मेरे ऐसे कौन-से कर्म थे कि इन सभी प्रयासों के बावजूद भी मैं उसे प्राप्त न
कर सका।
लेकिन वास्तव में अपने इन प्रयासों के द्वारा ही
वह सतोरी तक जाने वाले मार्ग को आत्मसात् न कर सका।
अपने कर्मों के कारण नहीं, अपने प्रयासों के कारण ही...!
पहली समस्या है आलस्य,
तुम अपने आलस्य और सुस्ती से कैसे बाहर आ सको?
तब दूसरी समस्या है, मध्य में बने रहने में,
तुम्हारी किस तरह सहायता की जाए?
तुम्हें अत्यधिक सक्रियता के विपरीत ध्रुव की ओर न बढ़ते हुए संतुलन बनाए
रखना है।
कोश ने आवश्यकता से अधिक प्रयास किया,
लेकिन इसने उसकी एक अलग तरह से सहायता की, उसने जाना, कि
उसके द्वारा वह सतोरी तक कभी नहीं पहुंच सकता,
उसके द्वारा वह समाधि को उपलब्ध नहीं हो सकता।
उसने अंत में अपनी असफलता स्वीकार की, और अपने जीवन का अंत करने
का निश्चय किया
अब कुछ भी तो नहीं रह गया था वहां
वह जितना कुछ भी प्रयास कर सकता था, उसने कर लिया था।
इससे अधिक वह कर भी नहीं सकता था,
वहां इससे अधिक करने को कुछ था भी नहीं।
इसलिए अब कोई भी आशा बची ही नहीं थी,
आखिर अब प्रतीक्षा भी किसके लिए की जाए?
अंत में उसने अपनी हार स्वीकार कर ली...
यह हार कोई साधारण हार नहीं थी, यह मात्र असफलता ही नहीं थी,
यह बहुत सी असफलताओं को स्वीकार करना था, यह स्वयं की हार थी।
जब तुम किसी एक चीज में असफल होते हो, तो इससे कोई विशेष अंतर
नहीं पड़ता।
क्योंकि वहां बहुत सी अन्य चीजें हैं, जिनमें तुम सफल हो सकते हो।
जब तुम एक प्रयास में असफल होते हो,
तुम जानते हो कि तुम दूसरा प्रयास कर सकते हो।
लेकिन यह असफलता तो उसे सब कुछ करने के बाद मिली थी।
जो कुछ भी किया जा सकता था, उसने वह सभी कुछ किया था,
उससे अधिक कुछ और किया ही नहीं जा सकता था।
और अब वहां अन्य कुछ भी नहीं बचा था,
जीवन के साथ निराश होकर वह पहले ही मिट चुका था,
अब जीवन में कुछ घट सकता है, ऐसी कोई आशा नहीं रह गई थी,
खेल पूरी तरह समाप्त हो चुका था।
जितना कुछ भी करने के लिए वह सोच सकता था, उसने वह सभी कुछ किया था
उसने अपनी पराजय स्वीकार कर ली थी
क्योंकि उसे सतोरी नहीं घटी थी।
और अब सब कुछ समाप्त करने का उसने पक्का इरादा कर लिया...
अब केवल अंतिम सम्भावना आत्महत्या करना ही था।
समाधि वहां उसके लिए थी ही नहीं,
वह केवल आत्महत्या ही कर सकता था।
.. .वह मीनार पर लगी रेलिंग पर गया, और धीमे से नीचे छलांग
लगाने को उसने अपना पैर ऊपर उठाया।
उसी. प्रामाणिक क्षण में अचानक उसका जागरण हुआ।
अचानक उसके आगे समाधि के विस्तृत मुक्ताकाश का द्वार खुल गया,
और सतोरी घटित हुई।
यह भली- भांति समझ लेना है, क्योंकि ऐसा ही तुम्हारे साथ भी हो सकता
है। यह केवल एक ही प्रकरण या घटना नहीं है, बहुत से मामलों में ऐसा ही
हुआ है।
जब तुम असफल होते हो, पूरी तरह से असफल, तो तुम्हारे साथ बहुत सी
चीजें घटती हैं- अहंकार भाप की तरह उड़ जाता हैं।
जा जेन में भी सात दिनों तक बिना भोजन किए और बिना सोये
शांत और मौन बैठे रहने पर भी, वहां अहंकार था।
वास्तव में कौन मांग कर रहा है समाधि या सतोरी की?
कौन है वहां, जो कह रहा है कि समाधि घटनी चाहिए?
यह अहंकार का अंतिम प्रयास है
वह उसे दृढ़ता से पकड़ना चाहता है, और यही अवरोध है।
जब उसने अपनी असफलता स्वीकार कर ली, अहंकार विसर्जित हो गया।
क्योंकि अहंकार केवल सफलता के साथ ही रहता है।
सफलता ही उसका भोजन है, वही वह प्रामाणिक तत्व है, जिस पर अहंकार
जीवित रहता है।
यदि तुम वास्तव में असफल हो गए पूरी तरह हार गए
फिर वहां अहंकार कैसे रह सकता है?
अंतिम रूप से असफल हो जाने पर अहंकार रह ही नहीं सकता।
अहंकार विसर्जित हो गया, और अहंकार के साथ ही
आलस्य और अत्यधिक सक्रियता दोनों ही जाती रहीं।
बिना अहंकार के ही तुम संतुलित होते हो।
अचानक प्रत्येक चीज ठीक और अनुकूल बन जाती है और संतुलन सध जाता है।
बिना अहंकार के, वहां कोई पराकाष्ठा नहीं होती, वह रह ही नहीं सकती,
अहंकार के प्रयास से ही पराकाष्ठा या चरमसीमा अस्तित्व में होती है।
जब अकस्मात् अहंकार नहीं होता वहां, तब तुम मध्य में होते हो।
और अब आत्महत्या का प्रामाणिक प्रयास ही प्रामाणिक संतुलन ला देता है।
अंत में उसने अपनी पराजय स्वीकार कर ली और अपने जीवन का अंत करने
का दृढ़ निश्चय किया,
वह धीमे-धीमे चलता हुआ रेलिंग तक गया और अपने पैर को ऊपर उठाया।
धीमे-धीमे चलते हुए ही क्यों? अब आत्महत्या वास्तव में एक विचार मात्र
नहीं रह गया था
वह उसे करने जा रहा था।
आत्महत्या अब ऐसी बात थी, जो उसे घटने जा रही थी।
संसार उसके लिए समाप्त हो चुका था, इसलिए अब कोई शीघ्रता भी न थी,
क्योंकि उसे अब कहीं भी जाना नहीं था।
अब वह पूरी तरह अपने को नीचे गिराकर अस्तित्वहीन होने जा रहा था।
अब उसे कोई जल्दी ही नहीं थी।
बहुत खामोशी से धीमे-धीमे वह रेलिंग पर आया।
वास्तव में यह अत्यंत गहन, प्रामाणिक और सुन्दर क्षण था।
यह आत्महत्या पहले से ही कुछ अलग तरह की है।
तुम बहुत अधिक बड़े तनाव में आत्महत्या कर सकते हो
लोग बहुत अधिक तनाव के क्षणों में ही आत्महत्या करते हैं
यदि वे केवल एक क्षण की भी देर कर दें,
फिर वे आत्महत्या नहीं करेंगे।
वह केवल तभी की जा सकती है, जब तुम पूरी तरह से पागल बन गए हो,
यह तभी की जा सकती है, जब तुम वास्तव में इतने अधिक तनाव में हो,
कि तुम यह नहीं जानते कि तुम क्या कर रहे हो?
इसलिए यदि तुम एक क्षण के लिए भी, आत्महत्या करने में देर कर दोगे,
फिर वह कभी घटेगी ही नहीं।
मेरा एक मित्र था।
वह एक स्त्री के प्रेम में पड़ गया था, और उस स्त्री ने उन्हें अस्वीकार कर
दिया था, इसलिए एक भावुक कवि होने के कारण उसने आत्महत्या करने का
विचार किया।
उसका पूरा परिवार बहुत अधिक परेशान हो गया।
उन सभी ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन उन्होंने जितना
अधिक प्रयास किया, वे उतना ही अधिक स्वयं समझ गए-.
कि वह आत्महत्या करने ही जा रहा है। ऐसा होता ही है।
यह न जानते हुए कि अब आखिर क्या किया जाए उन्होंने दरवाजे पर ताला
लगा दिया।
उसने दरवाजे से अपना सिर फोड़ना शुरू कर दिया।
वे सभी लोग बहुत अधिक भयभीत हो गए। आखिर अब क्या किया जाए?
अचानक उन्हें मेरा स्मरण आया और उन्होंने मुझे बुलाया। मैं वहां गया।
वह दरवाजे से अपना सिर पीट रहा था।
वह वास्तव में बहुत अधिक क्रोध में था ओर पूरी तरह दृढ़प्रतिज्ञ था।
मैं दरवाजे के पास गया और उसने कहा:
तुम आखिर इतना अधिक दिखावा क्यों कर रहे हो?
यदि तुम आत्महत्या करना ही चाहते हो, तो शौक से करो।
लेकिन इतना अधिक शोर क्यों कर रहे हो?
और क्यों अपना सिर फोड़ रहे हो?
केवल दरवाजे से अपना सिर पीट कर तुम मरोगे नहीं।
इसलिए मेरी बात सुनो और मेरे साथ चलो।
हम नदी की ओर चल सकते हैं, जहां एक सुन्दर स्थान है,
जहां मैं हमेशा ध्यान करता रहा हूं।
यदि कभी मुझे आत्महत्या करनी होगी, तो वही है वह स्थान।
तुम मेरे साथ चलो, यह एक अच्छा अवसर है।
क्योंकि मैं आत्महत्या के विरोध में कुछ भी नहीं कह रहा था,
वह कुछ ठंडा पड़ा शांत हुआ। अब वह अपना सिर नहीं फोड़ रहा था।
वह वास्तव में उलझन में पड़ गया, क्योंकि तुम कभी भी यह आशा नहीं कर
सकते-
कि तुम्हारा मित्र ही आत्महत्या करने में तुम्हारी सहायता करेगा।
इसलिए मैंने उससे कहा: तुम स्वयं अपने को मूर्ख मत बनाओ,
और न यहां भीड़ को इकट्ठा होने में सहायक बनो। तुम दरवाजा खोलो।
इस बारे में इतना अधिक प्रदर्शन करने की जरूरत क्या है?
तुम सामान्य रूप से मेरे साथ चलो और अपने आप को नदी में गिरा दो।
वहां नदी एक प्रपात के रूप में गिरती है,
तुम उसमें पूरी तरह विसर्जित हो जाओगे।
इसलिए उसने दरवाजा खोला, और मेरी ओर देखने लगा।
वह बहुत बड़ी उलझन में पड़ गया था।
मैंने उसका हाथ पकड़ा और उसे अपने साथ घर ले गया।
उन्होंने पूछा: हम लोग वहां कब चल रहे हैं?
लेकिन वह थोड़े सा भयभीत था।
अब जब मैं उसे साथ ले जाने को पहले से तैयार था, तो मैं उसके लिए
खतरनाक था।
इसलिए मैंने उससे कहा: आज पूर्णिमा की चांदनी रात है और जल्दबाजी की
कोई जरूरत नहीं।
जब कोई मरना ही चाहता है, तो उसे शुभ मुहूर्त का चुनाव करना चाहिए।
इसलिए हम लोग आधी रात वहां चलेंगे।
तब पूरे चंद्रमा की भी वहां चांदनी फैली होगी,
और मैं तुमसे आखिरी सलाम कर सकता हूं और तुम तुरंत वहां से कूद सकते हो
वह और भी अधिक भयभीत हो उठा।
मैं सामान्य रूप से इसमें देरी लगा रहा था, और समय को टाल रहा था।
दस बजे हम लोग बिस्तरे पर सोने गए।
मैंने घड़ी में बारह बजे का अलार्म लगा दिया।
और उससे कहा: कभी ऐसा हो जाता है कि मुझे अलार्म सुनाई नहीं पड़ता,
इसलिए यदि पहले वह उसे सुनें तो मुझे जगा दें।
जब ठीक वक्त पर अलार्म बजने लगा तो उसने उसे बंद कर दिया।
मैंने कुछ मिनटों तक प्रतीक्षा करने के बाद उससे कहा:
तुम प्रतीक्षा क्यों कर रहे हो? मुझे जगा क्यों नहीं दिया?
वह अचानक नाराज होकर बोला: तुम मेरे मित्र हो या मेरे दुश्मन हो?
ऐसा लगता है कि तुम मुझे मार देना चाहते हो।
मैंने कहा: मैं अपने से कोई भी निर्णय नहीं ले रहा हूं।
यदि तुम मरना चाहते हो, और चूंकि मैं तुम्हारा मित्र हूं
तो मुझे तुम्हारी सहायता करते हुए तुम्हें सहयोग देना चाहिए।
यदि तुम नहीं मरना चाहते हो, तो यह तुम्हारा निर्णय होगा।
इसलिए मुझे साफ-साफ बतलाओ। मैं तो तटस्थ व्यक्ति हूं।
कार तैयार खड़ी है। मैं उसे चलाकर तुम्हें उस स्थान तक ले चलूंगा,
रात बहुत सुन्दर है और चारों ओर चांदनी बिखरी हुई है।
अब यह सब कुछ तुम्हारे ऊपर है।
उसने कहा: मुझे मेरे घर ले चलो। मैं अब मरने नहीं जा रहा हूं।
और तुम आखिर होते कौन हो, जो मुझे मरने के लिए विवश कर सको।
मैं किसी को भी विवश नहीं कर रहा था।
केवल उस क्षण को थोड़ी देर के लिए टाल दो,
और कोई भी व्यक्ति अपने होश में आ जाता है।
लेकिन यह उस तरह की आत्महत्या नहीं थी।
मैं तुम्हें यह भी जरूर बताना चाहता हूं कि संसार भर में अकेला एक-ऐसा
भी धर्म है, जो आत्महत्या करने की अनुमति देता है-वह है जैन धर्म।
यह एक दुर्लभ बात है, केवल महावीर आत्महत्या करने की अनुमति देते हैं।
वह कहते हैं कि यदि तुम बिना किसी भावुकता या भावावेश के
बहुत शांति से मर सकते हो, तो यह बहुत सुन्दर है,
इसमें गलत कुछ भी नहीं।
लेकिन इसे करने में बहुत अधिक समय लगाना है
अन्यथा तुम इसका महत्व नहीं जान पाओगे।
इसलिए तुम्हें भोजन लेना बंद करना होगा, सब कुछ बस इतना ही करना है।
बिना भोजन लिए एक मनुष्य को मरने के लिए लगभग तीन माह चाहिए
इन तीन महीनों में शरीर अपने अन्दर संरक्षित ऊर्जा, भोजन और प्रत्येक चीज
का उपयोग करते हुए जीता है।
कोई भी हड्डियों के ढांचे पर मढ़ी खाल जैसा बन जाता है
और उसे मरने में लगभग तीन माह लगते हैं।
इसलिए महावीर कहते हैं कि यदि तुम मरना ही चाहते हो,
और यदि यह आत्महत्या, धार्मिक रूप से शरीर से मुक्त होने की है
तो इसे करने में जल्दबाजी मत करो।
इसे प्रामाणिक रूप से करो, क्योंकि तुम्हारे पास विचार करने के लिए तीन
माह का समय है
और तुम वापस भी लौट सकते हो, कोई ऐसा करने से तुम्हें विवश नहीं कर
रहा है।
और अतीत में वहां ऐसे बहुत से लोग हुए हैं, जिन्होंने ऐसा किया भी है।
तीन माह तक पूरी तरह से शांत लेटे और ध्यान करते हुए ही वे अस्तित्व में
लीन हो गए।
तब इस तरह की आत्महत्या, तुम्हारे सामान्य जीवन से कहीं अधिक सुन्दर
है, क्योंकि वे लोग वास्तव में अपने आप को मार नहीं रहे थे, वे किसी दूसरे
साम्राज्य की ओर बढ़ रहे थे।
यह कोश बहुत धीमे- धीमे आगे बढ़ा, वह किसी भी जल्दी में न था।
वास्तव में जब जीवन का ही तुम्हारे लिए कुछ भी अर्थ नहीं रह जाता तो
मृत्यु का भी तुम्हारे लिए कुछ भी अर्थ नहीं रह जाता।
जब जीवन ही व्यर्थ हो गया, फिर मृत्यु भी अर्थहीन है,
क्योंकि मृत्यु और कुछ भी नहीं, बल्कि जीवन की ही पराकाष्ठा है।
मृत्यु का तुम्हारे लिए जितना अधिक अर्थ है, क्योंकि जीवन का भी तुम्हारे
लिए उतना ही अधिक अर्थ है।
यह हमेशा समान अनुपात में रहता है।
यदि जीवन तुम्हारे लिए अत्यधिक अर्थपूर्ण है,
तो तुम्हें मृत्यु से भय लगेगा।
जब जीवन अर्थहीन है तो वास्तव में मृत्यु भी अर्थहीन है।
फिर शीघ्रता किस बात की?
वह रेलिंग के पास आया
वह रेलिंग की ओर धीमे-धीमे गया और उसके ऊपर अपना पैर उठाया?
और उसी क्षण जरा इस चित्र की ओर दृष्टिपात करें-एक बौद्ध भिक्षु
मीनार पर खड़ा हुआ धीमे- धीमे रेलिंग पर अपने पैर को ऊपर उठा रहा है,
और अचानक वहां वह सभी कुछ घट गया, जो वह हमेशा से चाहता था।
बिजली की कौंध की भांति अचानक सतोरी घट गई।
उस क्षण हुआ क्या?
आत्महत्या करने के लिए जब उसने धीमे से अपना पैर ऊपर उठाया तो जीवन
उसके लिए पूरी तरह खत्म हो चुका था,
अब वहां मन में कोई भी लोभ नहीं था, स्तोरी का भी नहीं।
मन में कोई भी अहंकार नहीं था,
यहां तक कि किसी धार्मिक उपलब्धि का भी।
भविष्य पूरी तरह गिर चुका था
क्योंकि वह केवल इच्छाओं के ही साथ रहता है।
कामना का होना ही भविष्य है, इच्छा करना ही भविष्य है।
उसके अन्दर केवल एक सतोरी की ही कामना थी,
और वही कामना भविष्य और समय निर्मित कर रही थी
वही कामना अंतिम अवरोध थी
अब वह अंतिम बाधा भी गिर गई।
अब वहां न कोई कामना थी और न कोई भविष्य।
केवल वह क्षण ही अस्तित्व में था।
जिस क्षण कोश ने धीमे से अपना पैर ऊपर उठाया,
समय ही रुक गया-न कोई भी अतीत रहा और न कोई भी भविष्य:
अतीत इसलिए नहीं, क्योंकि अनुभव से जीवन की व्यर्थता जानी,
और भविष्य इसलिए नहीं, क्योंकि वहां अब कोई भी कामना नहीं थी,
सतोरी की भी नहीं।
जैसे ही उसने पैर ऊपर उठाया, समय रुक गया।
पैर ऊपर उठाते ही मन विसर्जित हो गया।
क्योंकि अब वहां न तो कुछ पाने को था, और न कुछ सोचने को।
उसी क्षण वह समय के पार हो गया।
उस क्षण वह समय का अतिक्रमण कर गया।
उसी क्षण उसका अस्तित्व ऊर्ध्वगामी और लम्बवत हो गया,
अब वह पृथ्वी के समानान्तर नहीं रहा।
न फिर कोई अतीत रहा और न फिर भविष्य रहा। सभी व्यर्थता विसर्जित हो गईं।
उस ऊपर उठाने के क्षण में, केवल उसका पैर ही ऊपर नहीं उठा,
उसका पूरा अस्तित्व ही ऊपर की ओर उठ गया।
ऊपर की ओर जाने वाले ऊर्ध्वगामी आयाम का जैसे वातायान खुल गया।
और तभी अचानक सतोरी घट गई।
अचानक उसी क्षण, उसका जागरण हुआ।
हमेशा ऐसा ही होता है:
स्वयं बुद्ध को भी इसी तरह से घटा।
उन्होंने महल छोड़ दिया, सुन्दर पत्नी छोड़ दी, नवजात शिशु को छोड़ दिया,
पूरा साम्राज्य और पूरा संसार छोड़ दिया।
संसार उनके लिए अब और अर्थपूर्ण नहीं रह गया था।
तब छू वर्षों तक वह प्रयास और प्रयास करते रहे,
और उन्होंने अत्यधिक प्रयास किया।
वह उस प्रत्येक शिक्षक और प्रत्येक उस गुरु के पास गए
जिसके बारे में भी उन्होंने सुना कि वह जानता है,
और उन्होंने कहा: आप जो कुछ भी कहें, मैं करने को तैयार हूं
लेकिन मैं जानना चाहता हूं कि जीवन क्या है और मैं हूं कौन?
और उन छ: वर्षों में उन गुरुओं और बहुत से सद्गुरुओं ने उनसे बहुत सी
साधनाएं करने का कहा और उन्होंने उन सभी को किया।
और उन्हें इतनी अधिक पूर्णता और निष्ठा से किया
कि कोई भी गुरु उनसे यह न कह सका-
कि वह इसलिए नहीं घट रहा है क्योंकि तुम उसे ठीक से नहीं कर रहे हो।
वैसा होना असम्भव था-
यहां तक कि सद्गुरु भी उतने पूर्ण निर्दोष और विकसित नहीं थे,
जितना कि शिष्य था।
इसीलिए सभी गुरुओं ने अपनी असफलता स्वीकार करते हुए कहा:
कि वे केवल इसी सीमा तक उनकी सहायता कर सकते थे,
और इसके पार वे स्वयं कुछ नहीं जानते।
इसलिए उन्हें कोई अन्य सद्गुरु खोजना चाहिए।
और तब सभी गुरु उनके लिए जैसे समाप्त हो गए।
तब उन्होंने स्वयं ही साधना करना शुरू किया,
और उन्होंने वे प्रत्येक उपाय किए जो सदियों से भारत में प्रचलित थे।
उन्होंने हठयोग और राजयोग की सभी विधियों से प्रयास किया।
उन्होंने वह सभी कुछ किया जो प्राप्य था, आवश्यकता से अधिक किया।
उनकी निष्ठा ही उनके अन्दर एक तनाव बन गई,
और वह उपलब्ध न हो सके।
तब एक दिन बोध गया के निकट निरंजना नदी को पार करते हुए
उपवास के कारण उनका शरीर इतना अधिक निर्बल हो गया था,
कि वे उसे पार नहीं कर सके।
उसकी बहुत छोटी सी धारा थी, लेकिन वह उसे तैर कर पार नहीं कर सके,
और अपना जीवन बचाने के लिए उन्होंने एक वृक्ष की जड़ पकड़ ली।
वह बहुत अधिक निर्बल थे उस समय।
उसी क्षण उन्होंने विचार किया:
मैंने अभी तक किया क्या? मैंने अपने शरीर को बरबाद कर दिया,
और मुझे किसी भी आत्मा का साक्षात्कार नहीं हुआ,
और मेरा पूरा प्रयास ही एक मूर्खता थी।
उसी क्षण उन्होंने सभी प्रयास छोड़ दिए।
संसार उनके लिए पहले ही व्यर्थ हो चुका था,
और प्रयासों से भरा अध्यात्म का संसार भी उनके लिए व्यर्थ हो गया।
उस दिन उन्होंने एक वृक्ष के नीचे विश्राम किया।
वही बोधि-वृक्ष बन गया,
जिसके नीचे वह बुद्धत्व को उपलब्ध हुए।
उन्होंने विश्राम किया। वह विश्राम परिपूर्ण और समग्र था।
पहली बार ही, वहां प्राप्त करने को कुछ भी नहीं था:
प्राप्त करने वाला मन ही विदा हो गया।
उन्होंने प्रत्येक कार्य किया था और इससे अधिक और कुछ भी किया ही नहीं
जा सकता था।
इसलिए अब करने को बचा क्या था? वह सामान्य रूप से सो गए।
उस रात कोई भी स्वप्न नहीं आया,
क्योंकि जब वहां कोई कामना ही नहीं थी, तो वहां स्वप्न भी नहीं थे।
सपने तो कामनाओं की छायाएं होते हैं,
सपने ही कामनाएं हैं जो तुम्हारी नींद में भी घूमते रहते हैं।
वह पूरी रात यों गुजर गई, जैसे मानो वह केवल एक क्षण था।
और सुबह के समय
जब आखिरी सितारा डूब रहा था
उन्होंने अपने नेत्र खोलकर शुक्र के तारे की ओर देखा।
वह ठीक वैसी ही स्थिति में थे, जैसी स्थिति कोश की थी।
जब कोश ने धीमे से अपना पैर ऊपर उठाया, वह अपने को मीनार से नीचे
गिराने जा रहा था।
अंतिम तारे के अस्त होते ही-उन्होंने अपने अन्दर, अमनी दशा में, बिना
किसी कामना के अपने नेत्र खोले।
समय रुक गया- और अकस्मात, 'वह' वहां प्रकट हो गया।
उनकी कामना ही अवरोध बन गई थी।
इसलिए किसी एक को लम्बी अवधि तक कठिन प्रयास करना होगा,
और उसे हर सम्भव प्रयास करने होंगे,
और उसे घूमते- भटकते हुए उसे खोजना और तलाशना होगा,
किसी भी एक को वह सभी कुछ करना होगा, जो वह कर सकता है,
और तभी उसे सभी कुछ गिरा देना होगा।
तुम ठीक अभी उसे नहीं गिरा सकते,
क्योंकि तुम्हारे पास गिराने को कुछ है ही नहीं।
पहले तुम्हें प्रयास करना होगा, तुम तभी उसे गिरा सकते हो।
तब तुम किसी मीनार पर चढ़कर, अपना पैर छलांग के लिए ऊपर उठा सकते हो।
बहुत आहिस्ते-आहिस्ते। लेकिन इससे कुछ भी घटेगा नहीं।
क्योंकि यह प्रश्न किसी बाह्य मुद्रा बनाने का नहीं है-
तुमने अपने अंतस के लिए वह सभी कुछ नहीं किया है, जो किया जाना था।
तुम एक बोधि वृक्ष के नीचे जाकर परिपूर्ण विश्राम में लेट सकते हो,
ठीक सुबह उसी समय, जब भोर का तारा अस्त हो रहा हो,
और तब तुम अपने नेत्र खोल सकते हो। कुछ भी नहीं घटेगा।
प्रत्येक को समग्र और परिपूर्ण विश्राम के लिए कठोर प्रयासों से होकर गुजरना होगा।
तभी 'वह' अकस्मात घटता है।
वास्तव में 'वह' सदा से ही तुम्हारे चारों ओर रहा है,
केवल तुम ही नहीं थे वहां। तुम वहां उपस्थित ही नहीं थे।
तुम अपने मन में उठती हुई कामनाओं में, भविष्य और अतीत में
स्मृतियों और विचारों में भटक रहे थे।
तुम उनके घुमड़ते बादलों से नाता जोड़ बैठे थे,
इसी कारण तुम उस निरभ्र आकाश को न देख सके।
वह सदा से ही वहां था,
वास्तव में आकाश में बादल तो आवारा बने घूम ही रहे थे।
समाधि तुम्हारे चारों ओर है, समाधि तो एक विराट सागर जैसी है।
और तुम हो उसमें रहने वाली एक मछली-लेकिन तुम उपस्थित नहीं हो।
आनंद के अतिरेक से उछलता हुआ वह तेजी से सीढियां फलांगता
गिरता-पड़ता, सदगुरु गीजान के कक्ष में गया।
इससे पहले वह कुछ कह पाता, सद्गुरु हर्षित होकर बोले:
वाह! बहुत खूब! आखिर तेरे लिए वह दिन आ ही गया।
जो सतोरी को उपलब्ध हुआ,
उस व्यक्ति में एक गुणात्मक परिवर्तन हो जाता है।
उसे कुछ बताने की आवश्यकता ही नहीं है-कम से कम सद्गुरु को-
उसे यह कहने की आवश्यकता ही नहीं: कि मैंने उसे पा लिया है।
क्योंकि जिसने पा लिया है उसका पूरा अस्तित्व ही पूर्ण रूप से बदलकर
तरंगित और झंकृत होने लगता है।
वह कुछ कह पाता, इससे पहले ही सद्गुरु ने कहा:
वाह वाह! बहुत खूब! तो तूने उसे पा लिया। वह घट गया तुझे?
उसके बारे में बात करने की कोई जरूरत थी ही नहीं।
एक बार वह घट जाता है, जो उसे जानते हैं, वह उसे देख ही लेंगे।
जो नहीं भी जानते हैं, उन्हें भी कुछ अनुभव होना शुरू हो जाएगा।
अज्ञात के बारे में कुछ भी अनुभव किए बिना, अज्ञात के रहस्यमय संसार की
पगध्वनि सुने बिना, तुम एक बोध को उपलब्ध व्यक्ति के पास आ ही नहीं सकते।
रहस्य उसे चारों ओर से घेरे हुए है,
उसी की घनी छांव में एक पावन महिमामय महान आत्मा निवास करती है।
उसकी प्रत्येक गतिविधि में पवित्रता और प्रसाद होता है,
क्योंकि वह पूर्ण और समग्र है।
सतोरी तुम्हें पूर्ण बनाती है, समाधि तुम्हें खण्ड से अखण्ड बनाती है।
अब वहां चेतन और अचेतन के मध्य कोई भी विभाजन नहीं रह जाता।
अचानक वह सेतु द्वारा एक हो जाता है।
पूरा अचेतन चेतन हो जाता है।
अखण्ड चैतन्य!
इसकी महिमा कुछ इस तरह की होती है:
जैसे रात में तुम कोई मकान देखो, जिसके अन्दर कोई भी प्रकाश न हो।
तभी कोई व्यक्ति उसके अन्दर प्रकाश कर दे
उस घर की पूरी शोभा, महिमा और सौंदर्य बदल जाता है।
उस सड़क से गुजरने वाले लोग भी अचानक देखते हैं
कि घर प्रकाशवान हो रहा है।
उस मकान के गुण बदल गए वह महिमामय हो उठा।
उसकी खिड़कियों से, उसके दरवाजों से, उसकी संदों से
प्रकाश चमकता और छनता हुआ बाहर आ रहा है।
उस घर में अब कोई अंधेरा रहा ही नहीं।
आज इतना ही
thank you guruji
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