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रविवार, 22 दिसंबर 2019

ऋतु आये फल होय-(प्रवचन-05)

मौन का सद्‌गुरु—(प्रवचन पांचवां)  



ऋतु आये फल होय--The Gras grow by Itself--ओशो
 (ज़ेन पर ओशो द्वारा दिनांक 25 फरवरी 1975 में अंग्रेजी में दिये गये अमृत प्रवचनों का हिन्दी में अनुवाद)
सूत्र:
वहां एक भिक्षु रहता था, जो अपने को 'मौन का सदगुरु' कहता था।
वास्तव में वह एक ढोंगी था, और उसके पास कोई प्रामाणिक समझ न थी।

अपने धोखा देने वाले निरर्थक ज़ेन का व्यापार करने के लिए-
उसने अपने पास सेवा के लिए दो वाक्पटु भिक्षुओं को,
लोगों के प्रश्नों के उत्तर देने के लिए रख छोड़ा था।
लेकिन वह, जैसे मानो ज़ेन के रहस्यमय मौन को प्रदर्शित करने के लिए
ही स्वयं कभी भी एक शब्द तक का उच्चारण न करता था।

एक दिन उसके दोनों सेवकों की अनुपस्थिति में सत्य का एक खोजी


आया और उसने उससे पूछा-
हे सदगुरु! एक बुद्ध क्या होता है?
क्या करना चाहिए, अथवा कैसे प्रश्न का उत्तर देना चाहिए यह न जानते हुए
अपने बंद मुंह के प्रवक्ता बने, दोनों शिष्यों के अभाव का अनुभव करते हुए
वह निराश होकर, सभी दिशाओं में चारों ओर देखने लगा।
वह खोजी संतुष्ट और अनुगृहीत होकर
सदगुरु को धन्यवाद देता हुआ अपने सफर पर फिर चल पड़ा।

रास्ते में अंतर्यात्रा के उस खोजी को, आश्रम की ओर जाते हुए
उस गुरु की देखभाल करने वाले वे दोनों भिक्षु मिले।
उसने उन्हें बहुत उत्साह से यह बताना शुरू किया
कि बुद्धत्व को उपलब्ध मौन के इस सद्‌गुरु का तो कहना ही क्या?
उसने कहा: मैंने उनसे पूछा: कैसाहोता है एक बुद्ध औरउसे कहां खोजा
जाए?

औरउन्होंने चेहरे को तुरंत पहले पूर्व की ओर औरफिरपश्चिम की ओर
घुमा लिया

जिसका अर्थ है कि लोग बुद्ध की खोज हमेशा यहां और वहां
करते रहते हैं, लेकिन वास्तव में बुद्ध,
किसी भी ऐसी दिशा में नहीं पाया जाता।
ओह! बुद्धत्व को उपलब्ध यह सदगुरु कितना महान है;
और कितनी गूढ़ हैं इसकी शिक्षाएं?
जब वे दोनों सेवक भिक्षु वापस लौटे
तो मौन के सद्‌गुरु ने उन्हें डांटते हुए कहा;
''तुम इतनी देर के लिए कहां चले गए थे?
कुछ देर पहले एक जिज्ञासु अंतर्यात्री के द्वारा प्रश्न पूछे जाने पर
मैं परेशान होकरलगभग मरणासन्न औरबरबाद होने की स्थिति तक जा
पहुंचा था।''


जीवन एक रहस्य है।
तुम जितना अधिक उसे समझते हो, वह उतना ही अधिक रहस्यमय बन जाता है।
तुम उसे जितना अधिक जानते हो, तुम्हें उतना ही कम-
यह अनुभव होता है कि तुम उसे जानते हो।
तुम उसकी गहराई और अनंत गहराई के प्रति जितने अधिक होशपूर्ण होते
हो, उतना ही अधिक उसके बारे में कुछ भी कहना लगभग असम्भव हो जाता है।
इसलिए अनुभव करने वाला मौन हो जाता है।
एक व्यक्ति, जो उसे जान लेता है, वह आदरयुक्त भय से विस्मय विमूढ हो जाता है।
ऐसे अनंत अद्‌भुत आश्चर्य का अनुभव कर, उसकी सांस तक रुक जाती है।
जीवन के रहस्य का साक्षात्कार कर वह पूरी तरह से मिट ही जाता है।

लेकिन इस बारे में समस्याएं भी हैं,
और जीवन के रहस्य के साथ पहली समस्या तो हमेशा-
ऐसे ढोंगियों की सम्भावना को लेकर है,
जो दूसरों को धोखा दे सकते हैं, लोगों को ठग सकते हैं।
विज्ञान के संसार में तो ऐसा करना असम्भव है
विज्ञान एक समतल भूमि पर अनंत सावधानी से फूंक-फूंक कर कदम रखता है-
वह तर्क पूर्ण और विचारशील है।
यदि तुम कुछ भी व्यर्थ की बात कहते हो, तो तुम तुरंत पकड़ लिए जाओगे,
क्योंकि तुम जो कुछ भी कहते हो, उसकी प्रामाणिकता का सत्यापन किया जा सकता है।
विज्ञान पदार्थगत है और उसके बाबत दिए गए किसी वक्तव्य को
प्रयोगशालाओं में प्रयोगों के द्वारा परखा जा सकता है।
धर्म के साथ प्रत्येक चीज अन्दर से संबंधित, वैयक्तिक और रहस्यपूर्ण है,
और उसका मार्ग समतल मैदान होकर नहीं जाता, वह पहाड़ी मार्ग है।
उसमें बहुत उतार-चढ़ाव हैं और वह मार्ग सर्पिल और घुमाव भरा है।
तुम चलते-चलते बार-बार उसी स्थान पर आ जाते हो,
भले ही वह स्थान थोड़ी अधिक ऊंचाई पर होता है।
और इस बारे में तुम जो कुछ भी कहो, उसका सत्यापन नहीं किया जा
सकता,
उसके जांचने का कोई मापदण्ड ही नहीं है।
क्योंकि वह आंतरिक और रहस्यमय है, इसलिए किसी भी प्रयोग से
उसे सिद्ध या असिद्ध नहीं किया जा सकता,
और किसी भी तर्क पूर्ण निष्पत्ति से यह निर्णय नहीं लिया जा सकता
कि 'यह' मार्ग ठीक है अथवा 'वह' मार्ग?

यही कारण है कि विज्ञान एक है,
लेकिन यहां इस संसार में लगभग तीन हजार धर्म हैं।
तुम किसी भी धर्म को झूठा सिद्ध नहीं कर सकते,
और न तुम किसी दूसरे धर्म को सच्चा और प्रामाणिक सिद्ध कर सकते हो।
ऐसा करना सम्भव नहीं है, क्योंकि निरीक्षण और प्रयोगों के द्वारा
उसका परीक्षण करना सम्भव ही नहीं है।
जब बुद्ध कहते हैं कि अन्दर कोई भी आत्मा नहीं है
तुम इसे कैसे सिद्ध करोगे, अथवा तुम इसे कैसे झूठा सिद्ध करोगे?
यदि कोई व्यक्ति यह कहता है: ''मैंने परमात्मा को देखा है''
और वह ईमानदार भी दिखाई देता है, तो क्या किया जाए?
लेकिन वह एक धोखेबाज पागल भी हो सकता है,
हो सकता है उसे विभ्रम हो गया हो,
अथवा हो सकता है उसने वास्तव में प्रामाणिक सत्य का साक्षात्कार किया हो?
लेकिन कैसे इसे सत्य या असत्य सिद्ध किया जाए?
वह अपने अनुभव में किसी अन्य व्यक्ति को सहभागी भी नहीं बना सकता, क्योंकि वह उसका आंतरिक अनुभव है।

वह किसी वस्तु की भांति नहीं है, जिसे तुम बीचोबीच रख दो
और प्रत्येक व्यक्ति उसका निरीक्षण कर सके, उसे काट-पीट कर उसका
परीक्षण कर सके। तुम्हें उसे विश्वास में लेना होगा।
वह पूरी तरह ईमानदार भी हो सकता है, और वह धोखेबाज भी हो सकता
हो सकता है वह तुम्हें धोखा न दे रहा हो या हो सकता है धोखा देने का
प्रयास कर रहा हो।
हो सकता है वह स्वयं अपने आप को धोखा दे रहा हो,
और यह भी हो सकता है कि वह सच्चा और प्रामाणिक हो?
अथवा उसने एक स्वप्न देखा हो, जिसे वह वास्तविक समझ रहा है।

कभी-कभी सपनों की गुणात्मकता ऐसी होती है,
कि वे स्वयं सत्य की अपेक्षा कहीं अधिक प्रामाणिक सत्य से लगते हैं।
तब सपने दिव्य दृष्टि जैसे लगने लगते हैं। वह कहता है
उसने परमात्मा की आवाज सुनी है, और वह उससे अधिक आप्लावित,
और रोमांचित है। लेकिन किया क्या जाए?
यह कैसे सिद्ध किया जाए कि वह कहीं पागल तो नहीं हो गया है,
और उसने अपने ही मन के विचारों का तो कहीं प्रक्षेपण नहीं कर लिया है?
यहां परीक्षण करना संभव ही नहीं है।
यदि यहां एक प्रामाणिक धार्मिक व्यक्ति है,
तो उसके चारों ओर निन्यानवे दूसरे लोग भी हैं।
उनमें से कुछ लोग धोखेबाज हैं, कुछ बेचारे सीधे-सादे शुद्ध हृदय के लोग
भी हैं
जो किसी भी व्यक्ति को हानि पहुंचाने की कोशिश तो नहीं करते,
लेकिन वे फिर भी नुकसान पहुंचा रहे हैं।
तब यहां थोड़े से धोखेबाज, ठग, लुटेरे, बेईमान और चालाक लोग भी हैं,
जो जान-बूझकर लोगों को नुकसान पहुंचा रहे हैं।
लेकिन यह व्यापार लाभप्रद है।
संसार में धर्म की अपेक्षा बेहतर धंधा तुम कोई दूसरा नहीं पा सकते।
तुम वायदा कर सकते हो, और वहां उन वस्तुओं को हस्तांतरित करने की
कोई आवश्यकता ही नहीं,
क्योंकि वे वस्तुएं अदृश्य हैं।

मैंने अमेरिका में हुए एक रोचक प्रसंग के बारे में सुना है-
उन लोगों ने महिलाओं के लिए अदृश्य बालों के पिनों का आविष्कार किया।
एक महिला सुपरमार्केट में उनकी खरीद कर रही थी
और सेल्समैन ने उसे अदृश्य बालों में लगाए जाने वाले क्लिपों का एक पैकेट
दिया।
उसने डिब्बे में झांककर देखा, उसे वहां कुछ भी नहीं दिखाई दिया।
वास्तव में वे तो अदृश्य पिन थे, इसलिए तुम उन्हें कैसे देख सकते थे?
और उसने कहा: लेकिन मैं तो इसके अन्दर कोई भी चीज नहीं देख रही हूं।
सेल्समैन ने कहा: वे अदृश्य हैं, आप उन्हें कैसे देख सकती हैं?
उस महिला ने पूछा: क्या वास्तव में वे अदृश्य हैं?
उस व्यक्ति ने उत्तर दिया: आप मुझसे पूछ रही हैं?  सात दिनों से इनका
स्टॉक समाप्त हो गया है, लेकिन हम उन्हें फिर भी बेच रहे हैं।
वे पूरी तरह अदृश्य हैं।
जब चीजें अदृश्य हैं, तुम उन्हें बेचे चले जा सकते हो। वायदे किए जा सकते हो।
वस्तुओं को हस्तांतरित करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है,
क्योंकि पहली बात तो यह कि वे अदृश्य हैं,
इसलिए कोई भी उन्हें कभी भी खोज नहीं सकता।
और तुम धर्म से अच्छा कोई दूसरा धंधा नहीं खोज सकते,
क्योंकि वस्तुएं अदृश्य हैं।
मैंने बहुत से लोगों को धोखा खाते हुए देखा है,
बहुतों को धोखा देते हुए देखा है।
और यह चीज इतनी अधिक सूक्ष्म है
कि इसके पक्ष अथवा विपक्ष में कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

उदाहरण के लिए मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूं
जो सीधा-सादा बेवकूफ व्यक्ति है।
लेकिन मूर्खता के भी अपने गुण और लाभ होते हैं, विशेष रूप से धर्म में।
एक मूर्ख और छू व्यक्ति भी परमहंस जैसा दिखाई देता है।

क्योंकि वह मूर्ख है, इसलिए उसका व्यवहार आशा के विपरीत होता है,
ठीक बोध को उपलब्ध एक व्यक्ति की भांति, यह समानता उसमें है।
क्योंकि वह छू है, इसलिए वह बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति की भांति एक
भी तर्कपूर्ण वक्तव्य नहीं दे सकता।
वह मूढ़ है, इसलिए वह नहीं जानता कि वह क्या कह रहा है,
और किस तरह का व्यवहार कर रहा है।
अचानक वह कोई भी चीज कर सकता है।
और उसका अचानक कुछ करना ही ऐसा लगता है, जैसे मानो वह दूसरे संसार का व्यक्ति हो।
उसे मिरगी के दौरे पड़ते हैं, लेकिन लोग सोचते हैं
कि वह समाधि में जा रहा है।
उसे बिजली के झटके देने वाले उपचार की जरूरत है।
अचानक उस पर दौरा पड़ेगा और वह बेहोश हो जाएगा,
और उसके अनुयायी ढोल बजाकर परमात्मा की महिमा के गीत गाने लगेंगे,
और घोषणा करेंगे: उनका गुरु समाधि में चला गया है, वह परमानंद में है।
उसका मुंह झागों से भर जाएगा और लार मुंह से बाहर गिरने लगेगी-
वह सिर्फ मिरगी के दौरे में होता है, उसके पास न बुद्धि है और न समझ।
लेकिन यही उसका गुण है, और उसके चारों ओर धोखेबाज लोग इकट्ठे हो गए हैं-
जो बाबा के बारे में तरह-तरह की झूठी बातें फैलाते रहते हैं।
और उसके निकट बहुत सी चीजें घटती हैं: यह एक चमत्कार है।
बहुत सी चीजें घटती हैं, क्योंकि बहुत सी चीजें यहां अपने आप घट रही हैं।
बाबा बेहोशी के दौरे में पड़ा है, और बहुत से लोग अनुभव कर रहे हैं
कि उनकी कुण्डलिनी जाग रही है। वे उसका प्रक्षेपण कर रहे हैं।
यदि तुम एक लम्बी अवधि तक शांत-थिर बैठे रहो,
तो एक विशिष्ट घटना यह घटती है, कि शरीर में ऊर्जा इकट्ठी हो जाती है
और तब शरीर बेचैनी का अनुभव कर हिलना-कंपना या डोलना शुरू हो
जाता है। अचानक झटके से आने लगते हैं और वे सोचते हैं कि कुंडलिनी जाग रही है।
और जब एक व्यक्ति में कुंडलिनी जाग रही है, तो तुम पीछे क्यों रह जाओ?
तब दूसरे भी वैसा करना शुरू कर देते हैं।

यह ठीक ऐसे ही है, जैसे एक व्यक्ति टॉयलेट जाता है,
तो दूसरों में भी टॉयलेट जाने की प्रवृत्ति हो जाती है।
यदि एक व्यक्ति को छींक आती है, तो दूसरों को बहुत अधिक छींकें आने लगती हैं।
यह छूत की बीमारी जैसे बन जाती है।
लेकिन चूंकि बहुत सी घटनाएं घट रही हैं, इसलिए बाबा को समाधि में होना ही चाहिए;
जबकि उसे केवल मिरगी के दौरे आ रहे हैं।

पूरब में ऐसा मैंने निरीक्षण किया है कि प्रामाणिक व्यक्ति केवल एक होता है,
और निन्यानवे लोग नकली होते हैं। या तो वे स्वयं को धोखा देने वाले
साधारण दीन-हीन व्यक्ति हैं: अथवा वे धोखेबाज, बेईमान और चालाक लोग हैं।
ऐसा चलते चला जा सकता है, क्योंकि पूरी चीज अदृश्य है।
आखिर किया क्या जाए? निर्णय कैसे किया जाए? तय कैसे किया जाए?
धर्म हमेशा ही खतरनाक रहा है। वह खतरनाक है।
क्योंकि यह हिस्सा बहुत रहस्यमय और अतर्कपूर्ण है।
कोई भी चीज हो जाती है, और बाहर से उसे परखने का कोई उपाय नहीं है।
और यहां कमजोर, मनों वाले लोग पहले ही तैयार बैठे हैं,
जो किसी भी चीज पर विश्वास कर लेते हैं।
क्योंकि वे अपने पैरों के नीचे सहारे के लिए स्थान तलाश रहे हैं
बिना विश्वास के वे अपने को जड़ों से उखड़े हुए अथवा बिना लंगर वाली
नाव सा डोलता हुआ अनुभव करते हैं,
उन्हें किसी भी ऐसे व्यक्ति की जरूरत है, जिस पर वे विश्वास कर सकें।
वे कहीं ऐसी जगह जाना चाहते हैं, जहां वे अपने को जड़ों से जुड़ा महसूस
कर सकें, जहां वे मजबूती से स्थिर खड़े हो सकें।

विश्वास, लोगों की एक गहरी जरूरत है। यह इतनी गहरी जरूरत है क्यों?
बिना विश्वास के तुम्हें लगता है, जैसे कहीं गड़बड़ी या अव्यवस्था जैसा कुछ है,
बिना विश्वास के तुम नहीं जानते कि तुम क्यों जीवित हो?

बिना विश्वास के तुम जीवन में किसी सार्थकता का अनुभव नहीं कर सकते।
यहां कुछ भी महत्वपूर्ण सा दिखाई ही नहीं देता।
तुम्हें यहां, बिना किसी कारण के हुई दुर्घटना जैसा होने का अनुभव होता है।
बिना विश्वास के प्रश्न उठता है: तुम क्यों हो यहां? तुम कौन हो?
तुम कहां से आ रहे हो? कहां तुम्हें जाना है?
और वहां तुम्हें उसका एक भी उत्तर नहीं मिलता-
बिना विश्वास के यहां कोई उत्तर है भी नहीं।
एक व्यक्ति पूरी तरह यह अनुभव करता है कि वह अस्तित्व में हुई एक
दुर्घटना की भांति निरर्थक जी रहा है;
उसकी कोई आवश्यकता ही नहीं है, जिसे अलग किया जा सकता है।
वह मर जाएगा और कोई भी फिक्र नहीं करेगा,
और वे सभी कुछ निरंतर वही करते रहेंगे।
तुम्हें किसी चीज की कमी का अनुभव होता है,
तुम सत्य के साथ जुड़ना चाहते हो, तुम एक विशिष्ट विश्वास चाहते हो,
धर्म का अस्तित्व तुझैं विश्वासों की आपूर्ति करने का है,
क्योंकि लोगों को उनकी बहुत आवश्यकता है।

बिना किसी विश्वास के एक व्यक्ति को अत्यधिक साहसी होना होगा।
बिना किसी विश्वास के जीना, अज्ञात में जीने जैसा है;
बिना किसी विश्वास कै रहना, एक महान साहस है।
सामान्यतया लोग इसे गवारा नहीं कर सकते।
बहुत अधिक साहसी होने पर दुःख आता है, व्यग्रता उत्पन्न होती है,
यह ख्याल में रखने जैसी बात है:
मेरे देखे, एक सच्चा धार्मिक व्यक्ति वही है, जो बिना विश्वास के होता है,
श्रद्धा होती है उसके पास, लेकिन विश्वास नहीं;
और इन दोनों में स्थिति  बहुत बड़ा अंतर है।
विश्वास करना बुद्धिगत है। तुम्हें उसकी जरूरत है, इसी वजह से वह तुम्हारे पास है।
वह इसलिए है वहां, क्योंकि तुम उसके बिना जीवित नहीं रह सकते।
विश्वास तुम्हें जीने के लिए एक सहारा देता है;
वह तुम्हें एक विशेष अर्थ देता है, भले ही वह नकली या झूठा हो:

वह तुम्हें जीवन के लिए एक विशिष्ट नक्शा देता है,
कि कैसे, कहां गतिशील हुआ जाए?
तुम हो राजमार्ग पर ही, जंगल में नहीं भटक रहे हो।
विश्वास तुम्हें एक समाज देता है, जिसमें तुम्हारी तरह विश्वास करने वाले
दूसरे तुम्हारे जैसे लोग भी होते है।
तुम भीड़ का एक भाग बन जाते हो।
तब तुम्हें अपने बारे में सोचने की कोई आवश्यकता नहीं होती,
तब तुम अपने अस्तित्व के लिए आगे के लिए जिम्मेदार नहीं रह जाते,
अब तुम जो कुछ भी कर रहे हो-
उसकी जिम्मेदारी तुम भीड़ पर डाल सकते हो।

व्यक्तिगत रूप से एक हिंदू कभी भी उतना बुरा नहीं होता, जितना भीड़ का
हिंदू। व्यक्तिगत रूप से एक मुसलमान भी, भीड़ में घिरे मुसलमान जितना
कभी भी बुरा नहीं होता।
होता क्या है? व्यक्तिगत रूप से लोग बुरे नहीं होते, भीड़ पूरी तरह पागल
होती है, क्योंकि भीड़ में कोई भी व्यक्ति जिम्मेदारी महसूस नहीं करता।
तुम भीड़ के बीच आसानी से हत्याएं कर सकते हो,
क्योंकि तुम जानते हो कि भीड़ ऐसा कर रही है।
और तुम भीड़ के सागर की एक लहर मार हो, तुम निर्णय करने वाले भाग
नहीं हो, और इसलिए तुम जिम्मेदार भी नहीं हो।

व्यक्तिगत रूप से अकेले तुम उत्तरदायित्व का अनुभव करते हो।
यदि तुम कुछ गलत काम करोगे तो तुम्हें अपराध बोध होगा।
यह मेरा अपना निरीक्षण है कि पाप का अस्तित्व भीड़ के द्वारा ही है,
व्यक्तिगत रूप से कभी भी कोई व्यक्ति पापी नहीं होता।
और व्यक्तिगत रूप से यदि वे कुछ गलत करते भी हैं
तो बहुत आसानी से उन्हें उससे बाहर निकाला जा सकता है,
लेकिन भीड़ के साथ ऐसा करना असम्भव है,
क्योंकि भीड़ के पास कोई आत्मा नहीं होती, उसका कोई केंद्र नहीं होता,
अपील भी किससे की जाए?
और संसार में यह जो सब कुछ हो रहा है-
वास्तव में ही समूह के बीच बैठे हुए शैतान, और उनकी शैतानी शक्तियां
इसके लिए जिम्मेदार हैं।

सारे राष्ट्र ही शैतान हैं;
धार्मिक संगठन ही वह शैतानी शक्तियां हैं।
विश्वास तुम्हें अपने से बड़ी भीड़ का एक भाग बना देता है,
और तुम्हें बहुत उल्लास होने जैसा अनुभव होता है,
जब तुम उससे भी अधिक बड़ी भीड़, एक राष्ट्र के
भारत, अथवा अमेरिका अथवा इंग्लैंड के एक भाग बन जाते हो,
तब तुम एक छोटे से तुच्छ प्राणी नहीं रह जाते।
तुम्हारे अन्दर एक बहुत बड़ी ऊर्जा आ जाती है, और तुम गौरवान्वित होने का
अनुभव करते हो, तुम्हें वह सभी कुछ बहुत अच्छा लगता है।
यही कारण है, जब एक देश में युद्ध हो रहा होता है,
तो लोगों को बहुत अच्छा लगने लगता है, उन्हें मजा आने लगता है,
अचानक उनके जीवन अर्थपूर्ण हो उठते हैं-
वे सोचने लगते हैं जैसे वे अपने देश के लिए जी रहे हैं,
अपने धर्म और अपनी सभ्यता की रक्षा के लिए जी रहे हैं,
और उन्हें उसके विशिष्ट कोष की रक्षा करनी है, उसे बचाना है।
अब वे साधारण व्यक्ति नहीं रह जाते,
अब उनका एक महान उद्देश्य होता है।
विश्वास, व्यक्तिगत रूप से एक व्यक्ति और भीड़ के बीच का सेतु है।

श्रद्धा, पूरी तरह भिन्न है।
श्रद्धा कोई बुद्धिगत धारणा नहीं होती।
श्रद्धा, सिर का नहीं, हृदय का एक गुण है।
विश्वास, व्यक्तिगत रूप से एक व्यक्ति और समाज के मध्य एक सेतु है
और श्रद्धा एक सेतु है-एक व्यक्ति और ब्रह्माण्ड के मध्य।
श्रद्धा हमेशा परमात्मा में ही होती है, और जब मैं कहता हूं-'परमात्मा' तो
मेरा अर्थ परमात्मा में विश्वास करने का नहीं है।
जब मैं कहता हूं परमात्मा, तो मेरा अर्थ अखण्ड अस्तित्व से होता है।

श्रद्धा वह गहरी समझ है, जिससे तुम्हें यह अनुभव होता है
कि तुम अखण्ड अस्तित्व के एक भाग हो,
अस्तित्व के महान आरकेस्ट्रा की एक लय हो,
सागर की केवल एक छोटी सी लहर हो।
श्रद्धा का अर्थ होता है, कि तुम्हें इस पूरे अस्तित्व का अनुसरण करना है,
उसके साथ-साथ बहना है
तुम्हें स्वेच्छा से उसके ही साथ बने रहना है।
श्रद्धा का अर्थ होता है: मैं यहां एक शत्रु की भांति नहीं हूं
मुझे यहां किसी से लड़ना नहीं है;
जो अवसर मुझे मिला है, मैं यहां उसका आनंद लेने के लिए हूं
मैं यहां उत्सव आनंद मनाने और कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए हूं।
श्रद्धा कोई सिद्धांत नहीं है; तुम्हें इसके लिए हिंदू होने की जरूरत नहीं है,
तुम्हें एक मुसलमान, जैन अथवा सिख होने की भी कोई जरूरत नहीं है।
श्रद्धा एक वचनबद्धता है, एक वैयक्तिकता और अखण्ड के मध्य।
श्रद्धा तुम्हें धार्मिक बनाती है
तुम्हें हिंदू मुसलमान या ईसाई न बनाकर पूरी तरह तुम्हें धार्मिक बनाती है।
श्रद्धा के पास कोई नाम नहीं होता।
विश्वास के पास नाम होता है, लाखों-करोड़ों नाम
विश्वास तुम्हें हिंदू मुसलमान अथवा ईसाई बनाता है।
नाम के साथ यहां हजारों तरह के विश्वास हैं-तुम कोई भी चुनाव कर सकते हो।
श्रद्धा के पास केवल एक गुण होता है:
पूरे अस्तित्व के प्रति समर्पण का गुण;
पूरे अस्तित्व के साथ स्वीकार भाव से चलने का गुण,
पूरी प्रकृति और अस्तित्व को अपना अनुसरण करने के लिए विवश न करने का गुण;
लेकिन तुम्हें स्वयं को अनुमति देनी होगी, कि वह पूरे अस्तित्व के साथ चले।
श्रद्धा एक रूपांतरण है, श्रद्धा को उपलब्ध होना होता है:
विश्वास तो जन्म से ही दिया जाता है।
कोई भी व्यक्ति श्रद्धा में नहीं जन्मता,

प्रत्येक व्यक्ति का जन्म विश्वास में ही होता है।
तुम एक हिंदू अथवा एक जैन अथवा एक बौद्ध बने जन्मे हो
यह विश्वास समाज के द्वारा दिया जाता है,
क्योंकि विश्वास तुम्हारे और समाज के मध्य एक सेतु है।
यदि समाज तुम्हें विश्वास न दे, तो इस बात का डर है वहां
कि तुम विद्रोही बन सकते हो।
वास्तव में ऐसा होना निश्चित है
कि यदि विश्वास न दिया जाए तो तुम विद्रोही बन जाओगे,
और समाज यह चाहता नहीं, वह कैसे गवारा कर सकता है यह?
इससे पहले तुम सचेत बनो, समाज तुम्हें ऐसे गहरे विश्वास देता है,
जो तुम्हारी मां के दूध के साथ तुम्हारे रक्त में घुल जाते हैं
इस विश्वासों का विष तुम्हारे अस्तित्व में रिसता रहता है।
जो कुछ हो चुका होता है, जिस समय तुम उसके प्रति होशपूर्ण होते हो,
तुम पाते हो, कि तुम पहले ही से एक हिंदू अथवा मुसलमान या ईसाई हो।
एक लौह-कवच पहले ही से तुम्हारी छाती पर है और तुम उससे जकड़े हुए हो।
और इससे निकल कर बाहर आना बहुत कठिन है
क्योंकि तुम्हारे अचेतन को भी जकड़ लेता है वह,
वह तुम्हारी पूरी बुनियाद बन जाता है।
यदि तुम इससे बाहर भी निकल आओ, यदि तुम उसके विरोध में भी जाओ,
फिर भी वह तुम्हारी बुनियाद में बना ही रहेगा,
क्योंकि अचेतन को साफ और शुद्ध करना बहुत कठिन है
सचेतन रूप से तुम इसे नहीं कर सकते।

मैंने सुना है, कुछ ऐसा हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन नास्तिक बन गया।
और चूंकि वह मर रहा था, इसलिए आखिरी वक्त पादरी बुलाया गया।
पादरी ने कहा: मुल्ला! अब तुम्हारे लिए यह आखिरी क्षण-
और अंतिम अवसर है। अभी भी तुम्हारे पास थोड़ा-सा समय बचा है,
तुम अपने पापों को स्वीकार करो
और यह भी स्वीकार करो कि गलत मार्ग पर जाकर ही तुम नास्तिक बन गए


एक आस्तिक बनकर और परमात्मा में विश्वास करते हुए ही प्राण छोड़ो।
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपनी आंखें खोलीं और कहा:
परमात्मा का शुक्र है कि मैं एक आस्तिक नहीं हूं।

तुम भले ही आस्तिक न हो, फिर भी परमात्मा को ही धन्यवाद दोगे,
क्योंकि तुम्हारे गहरे अचेतन में 'वह' बना ही हुआ है,
'वह' तुम्हारी बुनियाद बन चुका है।
अपने बचपन में सात वर्ष की आयु तक, तुमने जो कुछ भी सीखा है
वह तुम्हारी बुनियाद बन चुका है।
उसे जड़ से उखाड़ने के लिए बहुत बड़े प्रयास और ध्यान की आवश्यकता
तुम्हें अपने पीछे की ओर लौटना होगा, केवल तभी उसे रगड़ कर साफ
किया जा सकता है।

तुम अविश्वास उत्पन्न कर सकते हो, पर वे सहायक न होंगे,
वे कोई सहायता कर ही नहीं सकते।
तुम एक आस्तिक बन सकते हो,
तुम अपने बचपन में एक हिंदू हो सकते हो,
तब तुम धर्म बदल कर ईसाई भी बन सकते हो,
लेकिन तुम रहोगे एक हिंदू ही-
तुम्हारी ईसाइयत पर भी हिंदुत्व का रंग चढ़ा होगा।
तुम एक साम्यवादी या कम्मुनिस्ट बन सकते हो,
लेकिन गहरे में जो अचेतन है, वह तुम्हारे साम्यवाद को अलग रंग में रंग देगा।
अचेतन को साफ करने के लिए गहरे ध्यान की आवश्यकता है।

श्रद्धा पूरी तरह अलग चीज है।
श्रद्धा, शब्दों और शास्त्रों में नहीं है। श्रद्धा होती है जीवन के प्रति-उस
प्रामाणिक ऊर्जा के प्रति, जो इस अखण्ड अस्तित्व को गतिशील बनाती है।
तुम उस पर श्रद्धा करते हो और उसके साथ बहते हो।
यदि वह तुम्हें भंवर के चक्र के साथ नीचे तल में ले जाती है,
तुम गोल-गोल घूमते हुए नीचे चले जाते हो।
यदि वह तुम्हें भंवर के बाहर फेंक देती है, तुम उस भंवर के बाहर आ जाते
हो। तुम उसके साथ ही घूमते हो, तुम उस बारे में अपनी बुद्धि नहीं लगाते।
यदि वही ऊर्जा तुम्हें उदास बना देती है, तुम उदास हो जाते हो।
यदि वह तुम्हें प्रसन्न बना देती है, तुम प्रसन्न हो जाते हो।
तुम पूरी तरह से उसी के साथ चलते हो,
तुम उसके साथ अपनी बुद्धि लगाते ही नहीं,
और अचानक तुम महसूस करते हो कि अब तुम उस बिंदु पर आ पहुंचे हो
जहां शाश्वत रूप से आनंद बरस रहा है।
अपनी उदासी में भी तुम आनंदित ही बने रहोगे,
क्योंकि तुम्हारा उससे कुछ लेना-देना ही नहीं है
वह अखण्ड अस्तित्व ही जिस तरह से जो कुछ कर रहा है, तुम उसी के
साथ चल रहे हो।
प्रसन्नता आती है-ठीक। उदासी आती है-वह भी ठीक।
तुम्हारे लिए पूरी तरह से प्रत्येक चीज, प्रत्येक घटना ठीक ही होती है।
धार्मिक मनुष्य ऐसा ही होता है: उसके पास अपना कोई मन होता ही नहीं;
जब कि विश्वास के पास अपना एक बहुत शक्तिशाली मन होता है।

महान संत तुलसीदास के बारे में यह कहा जाता है,
कि उन्हें मथुरा के कृष्ण मंदिर में आमंत्रित किया गया,
और उनका विश्वास राम पर था।
वह वहां गए लेकिन उन्होंने वहां अपना सिर नहीं झुकाया,
क्योंकि वहां अधरों पर वंशी रखे हुए कृष्ण की मूर्ति थी।
यह कहा जाता है कि उन्होंने कृष्ण से कहा: ''मैं केवल राम के आगे ही-
झुक सकता हूं इसलिए यदि आप चाहते हैं कि मैं आपके सामने झुके,
तो आपको अपने हाथ में राम का धनुष धारण करना होगा।
जब मैं यह देखूंगा कि आप राम बन गए हैं,
केवल मैं तभी आपके सामने झुकूंगा।''
विश्वास का मन ऐसा ही होता है।
अन्यथा राम और कृष्ण के बीच भेद ही क्या है?
और क्या फर्क है एक बांसुरी और धनुष के बीच?

और कथा यूं ही आगे बढ़ती है: वह कहती है कि मूर्ति बदल गई,
कृष्ण की मूर्ति राम की मूर्ति बन गई,
और तब तुलसीदास ने प्रसन्नता से उसके सामने अपना सिर झुकाया।
अब समस्या यह है कि निश्चित रूप से क्या हुआ होगा?
मेरी समझ से तो मूर्ति जैसी थी, वैसी ही रही होगी, क्योंकि मूर्ति कोई भी
चिंता नहीं करती।
तुम उसके आगे झुको अथवा नहीं, उसकी उसे कोई चिंता नहीं होती।
लेकिन विश्वास करने वाले व्यक्ति का मन, कल्पना में कुछ भी निर्मित कर सकता है,
तुलसीदास ने जरूर ही प्रक्षेपण किया होगा:
राम की मूर्ति प्रक्षेपित की होगी।
उसे जरूर ही उनका विभ्रम होना चाहिए
उन्होंने राम देखे जरूर होंगे, यह निश्चित है।
उन्होंने दर्शन जरूर किए होंगे, अन्यथा वह झुकते ही नहीं।
सम्भावना यही है कि उनके मन ने ही वह सृजन किया होगा,
और जब तुम विश्वास से बहुत अधिक भरे हुए हो, तो तुम उसे सृजित कर सकते हो।
तुम उन चीजों को भी देख सकते हो, जो वहां हैं ही नहीं,
और तुम उन चीजों से चूक सकते हो, जो वहां हैं।
एक मन जो विश्वास से भरा हुआ है, वह मन है,
जो अपने विश्वास के अनुसार किसी भी चीज को प्रक्षेपित कर सकता है।
जब तुम किन्हीं भी वस्तुओं को देखो,
तो हमेशा इस बात का स्मरण रखना।
लोग मेरे पास आते हैं
यदि कोई व्यक्ति कृष्ण पर विश्वास रखने वाला है और जब वह ध्यान करता
है, तो उसकी दृष्टि में तुरंत ही कृष्ण आना शुरू हो जाते हैं।
लेकिन क्राइस्ट उसे कभी नहीं दिखाई देते।
जब एक ईसाई ध्यान करना शुरू करता है-
तो कृष्ण कभी उसके ध्यान को भंग नहीं करते, केवल उसे क्राइस्ट दिखाई देते हैं।
एक मुसलमान की दृष्टि में न कृष्ण आते हैं और न क्राइस्ट;

और मुहम्मद तो कभी आ ही नहीं सकते,
क्योंकि मुसलमानों के पास मुहम्मद का चित्र है ही नहीं।
वे यह जानते ही नहीं कि वह क्या देखना चाहते हैं,
इसलिए वे कुछ भी प्रक्षेपण नहीं कर सकते।
तुम जिस पर भी विश्वास करते हो, तुम उसे ही प्रक्षेपित कर लेते हो।

विश्वास एक प्रक्षेपण है।
वह ठीक सिनेमा के एक प्रोजेक्टर की भांति है
तुम पर्दे पर कुछ चीज ऐसी देखते हो, जो वहां है ही नहीं।
प्रोजेक्टर पीछे छिपा हुआ है, लेकिन तुम कभी भी प्रोजेक्टर को नहीं देखते,
तुम पर्दे की ओर देखते हो।
प्रोजेक्टर पीछे है, और सारा खेल तुम्हारे सामने चल रहा है,
लेकिन तुम पर्दे की ओर ही देखते हो।
सारा खेल तुम्हारे मन में ही चल रहा है, और मन विश्वास से भरा हुआ है,
वह संसार की सभी वस्तुओं को निरंतर प्रक्षेपित किए जा रहा है,
वह ऐसी चीजें भी देखता है, जो वहां हैं ही नहीं। यही समस्या है।
वह मन जो विश्वास करता है, उस पर हमेशा आघात किया जा सकता है,
क्योंकि वह धोखेबाजों को शोषण करने का हमेशा अवसर देता है-
और धोखा देने वाले ठग तो चारों ओर हैं ही।
धर्म का पूरा मार्ग लुटेरों से भरा पड़ा है, क्योंकि इस मार्ग का कोई नवा ही
नहीं है।
धर्म में प्रवेश करना उस अज्ञात में प्रवेश करना है,
जिसका न तो कोई नवा है और न जहां के बाबत कोई जानकारी उपलब्ध
है। इसीलिए डाकू और लुटेरे वहां बहुत सरलता से फलफूल रहे हैं।
वे तुम्हारी प्रतीक्षा कर सकते हैं- और वे प्रतीक्षा कर रहे हैं।
और कभी-कभी, यदि कोई व्यक्ति तुम्हें धोखा नहीं भी दे रहा है,
तुम धोखा खाना ही चाहते हो। तब तुम धोखा खाओगे ही।
तुम्हें कोई भी धोखा नहीं दे सकता,
यदि तुम अपनी गहराई में धोखा खाने के लिए तैयार नहीं हो।

कुछ ही दिन पहले एक व्यक्ति मेरे पास आया और उसने कहा:

मुझे एक बाबा ने ठग लिया, और वह एक महान योगी है।
मैंने उससे पूछा: आखिर उसने किया क्या?
उसने कहा; वह किसी भी धातु को सोने में बदल सकता है।
उसने ऐसा मुझे करके दिखलाया, और मैंने ऐसा होते हुए अपनी आंखों से देखा।
तब उसने कहा कि मैं अपना सारा सोना ले आऊं
और वह उसे दस गुना कर देगा।
इसलिए मैंने अपने सारे सोने के जेवर इकट्ठे कर उसे दे दिए
और वह उन्हें लेकर चम्पत हो गया। उसने मुझे बहुत बड़ा धोखा दिया।
प्रत्येक व्यक्ति यही सोचेगा कि उसने उसे धोखा दिया,
लेकिन मैंने उस व्यक्ति से कहा; ' यह तुम्हारा लालच है, जिसने तुम्हें धोखा
दिया। '
यह जिम्मेदारी किसी अन्य व्यक्ति पर मत थोपो।
तुम पूरी तरह मूर्ख हो। लालच करना सबसे बड़ी मूर्खता है।
तुम चाहते थे कि तुम्हारे आभूषण दस गुने हो जाएं।
तुम्हारे लालची मन ने ही तुम्हें धोखा दिया,
दूसरे व्यक्ति ने सामान्य रूप से उस अवसर का प्रयोग किया।
वह व्यक्ति केवल चालाक है,
असली समस्या तुम ही हो।
यदि उसने तुम्हें धोखा नहीं दिया होता, तो किसी अन्य व्यक्ति ने दिया होता।
इसलिए प्रश्न यह नहीं है कि धोखा कौन देता है?
मेरी समझ में यदि कोई व्यक्ति तुम्हें धोखा देता है,
तो यह तुम्हारे अन्दर धोखा खाने की निश्चित प्रवृत्ति को प्रदर्शित करता है।
और यदि कोई व्यक्ति तुमसे झूठ बोलता है,
तो इसका अर्थ है कि तुम्हारे ढांचे में झूठ से रिश्ता रखने वाली,
उस जैसी कोई निश्चित चीज है।
एक व्यक्ति, जो सत्य में जीता है, झूठ का शिकार नहीं बन सकता।
केवल एक झूठे व्यक्ति को ही किसी दूसरे झूठे व्यक्ति द्वारा धोखा दिया जा सकता है;
अन्यथा वहां ऐसी कोई सम्भावना ही नहीं है।

यहां लाखों लोग ऐसे हैं, जो धोखा खाने के लिए तैयार बैठे हैं,
जो किसी भी व्यक्ति के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं;
जिससे उनके लालच के कारण वह उन्हें धोखा दे सके,
जिससे वह उनकी भ्रष्ट इच्छाओं को पूरा करने के लिए
उनके विश्वासों के कारण उन्हें धोखा दे सके।
और भली भांति स्मरण रहे कि लालच तो आखिर लालच है,
चाहे वह भौतिक संसार के लिए हो अथवा आध्यात्मिक जगत के लिए
उससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता।
उसका गुण वही बना रहता है।
तुम चाहते हो कि कोई तुम्हारे सोने को दस गुना कर दे-यह लोभ है।

तब कोई व्यक्ति तुमसे कहता है' मैं तुम्हें बुद्ध बना दूंगा।
और तुम तुरंत लाइन में लग जाते हो। यह भी लोभ या लालच है
और मैं तुमसे कहता हूं
कि सोने को बढ़ाकर दस गुना कर देना बहुत सरल है
लेकिन किसी व्यक्ति को बुद्ध बनाना लगभग असम्भव है।
क्योंकि ऐसा करना कोई खेल नहीं है, क्योंकि मार्ग बहुत कठिन और श्रमपूर्ण
है, वास्तव में कोई भी व्यक्ति कभी भी आज तक किसी को बुद्ध बना ही नहीं सका-
तुम स्वयं ही बोध को उपलब्ध होते हो;
दूसरा अधिक से अधिक एक केटेलेटिक एजेन्ट हो सकता है, अधिक और कुछ भी नहीं,
वास्तव में प्रत्येक चीज स्वयं तुम्हारे अन्दर ही घटती है,
दूसरे की उपस्थिति इसमें सहायक हो सकती है।
और यदि तुम वास्तव में ईमानदार हो, यद्यपि यह भी जरूरी नहीं है,
यदि तुम निष्ठावान हो, तो जो तुम्हारी सहायता कर सकते हैं, वे तुम्हें स्वयं खोजेंगे,
यदि तुम बेईमान हो, तो तुम उन्हें खोजोगे, जो तुम्हें हानि पहुंचा सकते हैं।

जब एक शिष्य सद्‌गुरु को खोजता है, तो अंतर यह पड़ता है
कि लगभग हमेशा ही कुछ चीज गलत होने जा रही होती है।
जब एक सद्‌गुरु शिष्य को खोजता है,
केवल तभी कोई चीज प्रामाणिक रूप से घटती है।
तुम सद्‌गुरु को कैसे खोज सकते हो?
तुम जो कुछ भी सोच सकते हो वह तुम्हारा मन ही होगा,
और तुम पूरी तरह से अज्ञानी हो, तुम नींद में चलने वाले व्यक्ति की भांति
हो। तुम अपने मत से सहमति रखने वाले ही किसी व्यक्ति को खोजोगे
तुम्हीं उसकी कसौटी बनोगे।
तब तुम खोजते हुए किसी ऐसे व्यक्ति के पास जाओगे, जो चमत्कार कर रहा
है। तुम सत्य साईं बाबा को खोजने जा सकते हो,
क्योंकि वे तुम्हारे लोभ की गहरी आपूर्ति करेंगे।
तुम उन्हें देख कर कहोगे: यहां है वह व्यक्ति,
यदि वह हवा से चीजें उत्पन्न कर सकता है, तो वह कुछ भी कर सकता है।
अब तुम्हारा लोभ उद्दीप्त हो उठता है।
अब तुरंत एक ढांचागत समानता से सम्बन्ध जुड़ जाता है।
इसी कारण तुम हजारों लोगों को सत्य साईं बाबा के चारों ओर देख सकोगे।

जहां एक बुद्ध होता है, तुम वहां भीड़ न देखोगे,
क्योंकि तुम्हारे ढांचे में वह समानता नहीं है।
तुम अपने गहरे में सत्य साई बाबा के लिए एक आकर्षण पाते हो:
क्योंकि वे तुम्हारे लोभ को उत्तेजित करते हैं,
और तुम समझते हो कि यही ठीक व्यक्ति है
लेकिन तुम गलती पर हो।
तुम यह निर्णय कैसे ले सकते हो कि यही व्यक्ति ठीक है?
तुम धोखेबाजों को स्वयं उत्पन्न करते हो, तुम उन्हें अवसर देते हो।
तुम जादूगरों का अनुसरण करते हो, सद्‌गुरुओं का नहीं।
यदि तुम वास्तव में सद्‌गुरु की खोज करना चाहते हो,
अपने विश्वासों को छोड़ो, अपने लोभ को छोड़ो।
पूरी तरह नग्न मन से, बिना किन्हीं विश्वासों के साथ खोजो और जाओ
किसी सद्‌गुरु के पास।
जैसे मानो तुम एक ऐसा वृक्ष हो जिसकी सभी पत्तियां झर चुकी हैं,
जिसके साथ अब कोई भी विश्वास नहीं है।
मैं कहता हूं केवल तभी तुम बिना कोई प्रक्षेपण किए देखने में समर्थ हो
सकोगे;
केवल तभी तुम्हारे जीवन में कुछ चीज ऊपर से नीचे गहराई में प्रविष्ट हो
सकेगी।
तब कोई भी व्यक्ति तुम्हें धोखा नहीं दे सकता।
इसलिए धोखा देने वालों की न तो निंदा करो, और न उनकी कोई फिक्र करो,
वे एक जरूरत को पूरा करते हैं।
वे यहां इसीलिए हैं, क्योंकि तुम्हें उनकी आवश्यकता है।
कोई भी चीज बिना किसी कारण के अस्तित्व में नहीं है।
तुम्हारे चारों ओर जो भी व्यक्ति हैं, वे इसीलिए हैं क्योंकि तुम्हें उनकी आवश्यकता है।
यहां चोरों और डाकुओं का अस्तित्व है,
यहां शोषक और धोखेबाज लोग हैं, क्योंकि तुम्हें इन सभी की जरूरत है।
यदि ये सभी मिट जाएं तो तुम भी कहीं नहीं होगे;
यदि वे यहां नहीं होंगे तो तुम अपना जीवन जीने में समर्थ न हो सकोगे।

यह बोध कथा बहुत सुन्दर है, और इसे बहुत गहराई से समझना है।
वहां एक भिक्ष रहता था, जो अपने को 'मौन का सदगुरु' कहता था।
वास्तव में वह एक ढोंगी था, और उसके पास कोई प्रामाणिक समझ न थी।

तुम बहाने बना सकते हो, झूठे दावे कर सकते हो,
किसी अन्य स्थान की अपेक्षा धर्म में और भी अधिक झूठे दावे किए जा सकते हैं।
इसी कारण अपनी सांसारिक गतिविधियों वाले लोग चालाक हैं,
लेकिन जहां तक धर्म का सम्बन्ध है
लोग पूरी तरह अनजान हैं।
बाजार में जो कुछ चल रहा हैं, तुम उसके बारे में हर चीज जानने में-
समर्थ हो सकते हो, क्योंकि तुम वहां ही रहते हो,
तुम वहां के व्यवहारों के बारे में हर चीज और चाल जानते हो,

और तुम स्वयं भी वही सभी कुछ करते रहे हो।
जहां तक संसार का सम्बन्ध है, तुम बहुत बुद्धिमान हो,
लेकिन जब तुम धर्म स्थानों या मठों के संसार में जाते हो,
जब तुम बाजार से मठों में जाते हो, तो वहां बहुत बड़ा अंतर पाते हो।
मठों या धर्म स्थानों में तुम एक बच्चे की तरह पूरी तरह अनजान होते हो।
तुम पूर्ण वयस्क, साठ या सत्तर वर्ष के हो सकते हो,
लेकिन एक मठ या मंदिर में, तुम ठीक एक छोटे से बच्चे की भांति होते हो।
तुम वहां कभी रहे नहीं
लेकिन वहां भी वैसी ही चीजें हैं। वह भी एक बाजार है।

जब जीसस ने जेरूसलम के मंदिर या सिनेगॉग में प्रवेश किया,
तो प्रवेश करने के समय उनके हाथों में एक कोड़ा था,
तो उन्होंने कोड़े से लोगों को पीटना शुरू कर दिया,
क्योंकि मंदिर में बहुत से सूदखोर दूकानदार भी घुस पड़े थे।
उन्होंने उनकी मेजें नीचे उलट दीं और कहा:
तुम लोगों ने मेरे परमात्मा के मंदिर को एक बाजार बना दिया है।
तुम सभी धर्म के व्यापारी हो, तुम सभी बाहर निकल जाओ।
यह वास्तव में कुछ अद्‌भुत चीज है-एक अकेले व्यक्ति ने
धर्म के व्यापारियों की इतनी बड़ी भीड़ को मंदिर से खदेड़ दिया।
सत्य के पास अपनी एक विशेष शक्ति होती है।
जब कोई चीज या व्यक्ति सच्चा होता है, तुम तुरंत उसके सामने कमजोर हो जाते हो;
क्योंकि तुम झूठे हो, और तुम तुरंत समझ जाते हो कि ठीक वही है।
वे व्यापारी संघर्ष न कर सके;
वे सूदखोर जीसस की हत्या कर सकते थे,
वे अकेले थे और उनकी संख्या कहीं अधिक थी।
लेकिन शुद्ध सत्य के सामने वे बाहर भाग गए।
और केवल जब वे बाहर पहुंचे, तो उन लोगों ने-
योजना बनाना शुरू किया कि इस व्यक्ति का आखिर क्या किया जाए और
उनकी ही योजना थी कि अंत में जीसस को क्रॉस पर लटका दिया गया।

मठों, मंदिरों और आश्रमों में एक दूसरा ही संसार है।
तुम वहां के कानून को नहीं जानते, तुम उनके खेल के नियमों से अपरिचित
हो। तुम्हें वहां बहुत सरलता से धोखा दिया जा सकता है।
और झूठे दावे करने वाले वहां बहुत लोग हैं, क्योंकि यह बहुत आसान है।
यह मेरा अपना अनुभव है
कि धर्म की ओर दो तरह के लोग आकर्षित होते हैं।
एक वे लोग हैं, जिन्होंने इस संसार में रहकर संसार को भरपूर जिया है
और उनकी समझ में आ गया है कि यह संसार निरर्थक है, व्यर्थ है,
यहां रहकर जीवन को बरबाद करना है और यह ठीक एक सपने जैसा है;
और यह स्वप्न भी सुंदर स्वप्न न होकर एक दुःस्वप्न है।
यह पहली श्रेणी के लोग हैं, प्रामाणिक लोग,
जिन्होंने इस संसार को पूरी तरह जीकर इसे व्यर्थ पाया है,
एक ऐसा मरुस्थल पाया है जिसमें कोई नखलिस्तान नहीं, और उसे छोड़ दिया है।
उनका उस ओर से पीठ फेरना समग्र है! वे अब पीछे नहीं लौटेंगे।
अब वहां लौटकर पीछे देखने में कुछ भी नहीं बचा।
बुद्ध अपने शिष्यों से पूछा करते थे:
क्या तुमने वास्तव में संसार से पूरी तरह पीठ फेर ली है?
अथवा तुम्हारा थोड़ा-सा चित्त भी क्या पीछे की ओर देखना चाहता है?
क्योंकि मन का एक भाग हमेशा पीछे की ओर ही देखना चाहता है।
यह पहली श्रेणी के लोग वास्तव में प्रामाणिक हैं,
जिन्होंने इस संसार में रहकर उसे निष्फल पाया।
इसी कारण वे लोग धर्म की ओर उत्सुख हुए।

तब वहां एक दूसरी श्रेणी है, जो ठीक इसके विपरीत है।
पहली श्रेणी में एक प्रतिशत लोग हैं,
और दूसरी श्रेणी में निन्यानवे प्रतिशत लोग हैं।
ये लोग धर्म की ओर बहुत अधिक आकर्षित हैं।
इस श्रेणी में वे लोग हैं, जो इस संसार में सफल न हो सके,
जिनकी महत्वाकांक्षाएं वहां पूरी न हो सकीं
जो वहां महत्वपूर्ण न बन सके।

उन्होंने प्रधानमंत्री या राष्ट्राध्यक्ष बनना चाहा था, लेकिन न बन सके।
वहां संघर्ष करने के लिए उनमें इतनी शक्ति थी ही नहीं।
ऐसे भी लोग हैं, जिन्होंने रॉकफेलर अथवा फोर्ड की भांति धनी बनना चाहा
था, लेकिन बन न सके, क्योंकि वहां बहुत कड़ी प्रतियोगिता थी,
और वे लोग उस मजबूत धातु के नहीं थे, जिसकी आवश्यकता थी।
उनमें कमियां थीं और वे पूरी तरह हीन लोग थे,
इसी वजह से वे जीवन में संघर्ष न कर सके।
उनके अन्दर न तो उतनी अधिक बुद्धिमानी और प्रज्ञा थी,
अथवा न उस तरह की शक्ति थी, जो वहां लड़ते हुए
अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा कर सकें।
ऐसे लोग भी धर्म की ओर मुड़े।
ये लोग बहुत बड़े धोखेबाज और ठग हैं,
ऐसे लोग ही, धर्म के लिए और उन लोगों के लिए भी,
जिन्हें धर्म की खोज है, एक समस्या बन जाएंगे।
ये पूजाघरों के चारों ओर छा जाने वाले ठग होंगे;
ये लोग पूजाघरों को भी एक व्यापार केंद्र बना देंगे
क्योंकि उनकी वासनाएं अभी भी छिपी हुई ताक लगाए हुए बैठी हैं,
इन लोगों ने धर्म को राजनीति का अखाड़ा बना दिया है।

वास्तलृ में राजनीति के क्षेत्र में असफल हो जाने वाले ये राजनीतिक लोग ही
हैं। तुम पूरे देश में घूमते हुए हर कहीं चारों ओर ऐसे ही गुरु पाओगे,
तुम यहां असफल हो जाने वाले राजनीतिक लोग ही पाओगे।
तुम भूतपूर्व मंत्रियों को किसी न किसी गुरु के पास आते हुए पाओगे-
ये ऐसे लोग हैं जो संसार में बहुत कुछ चाहते थे, लेकिन पा न सके,
इसलिए ये लोग धर्म की ओर मुड़ गए क्योंकि यहां चीजें आसान हैं।
अधिक प्रतियोगिता भी नहीं है यहां, और तुम कुछ भी दावा कर सकते हो,
और तुम सरलता से यह विश्वास कर सकते हो,
कि तुम बहुत ही उच्च स्तर पर पहुंचे हुए व्यक्ति हो।
और यहां कोई प्रतियोगिता नहीं है।
तुम पूरे विश्वास से कह सकते हो: 'मैं बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया हूं
कोई भी इससे इंकार नहीं कर सकता।

और कोई भी इसे अस्वीकार नहीं कर सकता।
उसके निर्णय करने का यहां कोई सामान्य मापदण्ड है ही नहीं,
और तुम अपना अनुसरण करने वाले बेवकूफ लोग हमेशा पा सकते हो।
यहां मुक्तानंद जैसे लोग भी अनुयाइयों को पा सकते हैं।
मैं एक बार मुक्तानंद के आश्रम से गुजर रहा था
और केवल यह देखने के लिए कि वहां क्या हो रहा है, मैं उसके अन्दर गया।
मैंने कभी भी ऐसे साधारण व्यक्ति को,
लोगों का महान धार्मिक नेता बनते हुए नहीं देखा।
न उनमें कोई सम्भावना थी, न कोई उपलब्धि और न कोई अंतर्दृष्टि-
यदि तुमने उन्हें कभी सड़क पर टहलते हुए देखा हो
तो तुम पहचानोगे नहीं, कि उनमें कुछ भी सार है।
केवल सीधा सपाट साधारण व्यक्तित्व,
' ज़ेन ' जिस अर्थ में किसी को सहज सरल साधारण कहते हैं, वैसा साधारण
नहीं, केवल सपाट सीधा व्यक्तित्व। लेकिन ऐसे लोग भी अनुसरण करने
वाले लोग पा सकते हैं।

इस संसार में लाखों-करोड़ों लोग मूर्ख हैं;
और वे हमेशा विश्वास करने के लिए पहले से तैयार बैठे हैं।
वे किसी भी व्यक्ति के जाल में गिरने के लिए पहले ही से तैयार बैठे हैं।
और वास्तव में जब कहीं कोई जाल भी नहीं होता, लेकिन वे फिर भी गिर
जाते हैं,
क्योंकि वे यह विश्वास करना चाहते हैं कि कुछ चीज वहां घट रही है।
मनुष्य इतना अधिक कल्पनाशील है, और अपनी इस कल्पना के ही कारण
वह यह विश्वास करना शुरू कर देता है कि कुछ चीज घट रही है वहां।
ये लोग इस बारे में कम से कम कुछ इतना ही जानते हैं कि अब करना क्या है?
कोई व्यक्ति मेरे पास आता है और कहता है'
मैं अपने मेरुदण्ड में एक विशेष तरह की पीड़ा का अनुभव करता हूं।
अब यदि मैं उससे यह कहता हूं कि यह पूरी तरह दर्द ही है
तुम उपचार के लिए किसी चिकित्सिक के पास जाओ,

तो वह मुझ से पूरी तरह मुंह मोड़कर चला जाएगा और कभी वापस नहीं लौटेगा,
क्योंकि वह इसके लिए आया ही नहीं था। वह तो मेरी स्वीकृति पाने आया
था। यदि मैं कहता हूं: तुम्हारी कुण्डलिनी जाग रही है, तो वह प्रसन्न होगा।
ऐसे मूर्ख लोग हमेशा मुक्तानंद जैसों को खोज लेते हैं।
और केवल साधारण लोग ही नहीं
कभी-कभी बहुत बुद्धिमान लोग भी मेरे पास आ जाते हैं।
कुछ ही दिन पहले एक फिल्म निर्माता मेरे पास आए-
वह पूरे भारत भर में बहुत ख्याति प्राप्त व्यक्ति हैं।
उनके रक्त में शक्कर की मात्रा सभी साधारण सीमाओं का अतिक्रमण करती
पांच सौ तक पहुंच गई थी। वास्तव में उन्हें तो अब तक मर जाना चाहिए था।
वह एक पियक्कड़ और एक महान भोजन भगत हैं,
वह स्वादिष्ट भोजन के पीछे ही भागते रहते हैं और छककर शराब पीते हैं।
अब, रक्त में शक्कर की मात्रा अत्यधिक होने के कारण
उनका पूरा शरीर कांप रहा था।
ऐसा होना ही था, क्योंकि उनका पूरा शरीर रुग्ण है, उसका प्रत्येक रेशा रुग्ण
है, और उनके अन्दर भी एक गहरी कंपकंपाहट है।
जब मैं दूसरे लोगों से बातचीत कर रहा था,
वह वहीं बैठे-बैठे कांप रहे थे।
तब उन्होंने मुझसे आ- आपका क्या खयाल है मेरे इस कांपने के बारे में?
यह है क्या, कहीं मेरी कुण्डलिनी तो नहीं जाग रही है?
अब ऐसे लोगों के साथ क्या किया जाए? ऐसे ही लोग मुसीबत के शिकार है?
ये लोग ही खेगी ठगों को उत्पन्न करने के कार्य में सम्मिलित हैं;
और इसके लिए वे आधे जिम्मेदार हैं।
और मैं यह जानता हूं कि यह व्यक्ति मुक्तानंद का अनुयायी है।
अब मेरे लिए समस्या उठ खड़ी होती है- आखिर क्या किया जाए?
यदि मैं कहता हूं ' हां! तुम्हारी कुण्डलिनी ही जाग रही है, और यह तुम्हारा
अंतिम जीवन है। शीघ्र ही कुछ दिनों बाद तुम बुद्ध हो जाओगे;'
तो वह झुकेगा, मेरे चरणों को स्पर्श करेगा और खुश-खुश लौट जाएगा।
वह प्रसन्न होगा, मैं भी प्रसन्न रहूंगा, और हर चीज स्थायी रूप से ठीक होगी।

और वह चारों ओर मेरे बारे में कहता फिरेगा,
कि यही ठीक व्यक्ति है, वह अभी तक जितने भी लोगों को जानता है,
यह उन सभी में सबसे अधिक महान सद्‌गुरु है।
यह एक बहुत सरल सा और अच्छा व्यापार है।
लेकिन तब मैं उसे धोखा दे रहा हूं।
मैं उसे मार रहा हूं मैं एक हत्यारा हूं
क्योंकि मैं जानता हूं कि वह मधुमेह से मर रहा है
और उसका मधुमेह सारी सीमाओं का अतिक्रमण कर चुका है।
यदि मैं कहता हूं: तुम्हारी कुण्डलिनी जाग गई और बुद्धत्व निकट है,
और यह ठीक समाधि के समान है, और इसीलिए तुम कांप रहे हो;
यह तुम्हारे ऊपर परमात्मा का अवतरण है,
अथवा, तुम दिव्यता की ओर बढ़ रहे हो
अथवा, तुममें दिव्यता अवतरित हो रही है;
तो वह बहुत-बहुत खुश हो जाएगा। प्रत्येक व्यक्ति खुश है अब।
और वहां कोई समस्या ही नहीं है।
वह मेरे लिए कार्य करेगा,
और जब तक वह मर नहीं जाता, वह मेरे बारे में बात करता रहेगा।

लेकिन जिस क्षण मैंने कहा:
इसका किसी भी तरह बुद्धत्व से कोई लेना-देना नहीं;
यह तो रक्त में अत्यधिक शक्कर बढ़ जाने का सामान्य मामला है,
तुम्हारा पूरा शरीर ज्वर से कांप रहा है। तुम व्यर्थ समय नष्ट न कर
डॉक्टर के पास जाओ और उन लोगों की बात सुनो;
तुरंत मैंने उनके चेहरे के बदलते भावों को देखा। जैसे वे कह रहे थे:
यह व्यक्ति किसी तरह से कोई सद्‌गुरु है ही नहीं।
यह बुद्धत्व को उपलब्ध एक सद्‌गुरु कैसे हो सकता है,
जब वह इतनी साधारण सी बात भी नहीं समझ सकता, जो मुझमें घट रही है?

ऐसा वास्तव में हुआ।
पश्चिम का एक बहुत प्रसिद्ध व्पीक्त फ्रैंकलिन जोन्स मुक्तानंद का शिष्य था,।
और तब उसकी कुण्डलिनी जागृत हुई।
मुक्तानंद ने उसे सत्यापित करते हुए कहा: अब तुम एक सिद्ध बन गए हो।
न केवल उसे सत्यापित किया, वरन् उन्होंने उसे एक प्रमाणपत्र भी दिया।
जैसी मूर्खता चल रही थी, मैं उस पर विश्वास ही न कर सका-एक
प्रमाणपत्र देना कि तुम अब सिद्ध और बुद्ध हो गए हो।
इसलिए निश्चित रूप से एक सिद्ध हो जाने पर उसने अपना नाम बदल दिया।
वह केवल फ्रैंकलिन जोन्स था, अब वह बाबा फ्री जोन्स बन गया,
और उसके अपने बहुत से शिष्य भी बन गए।
समस्या तो तब खड़ी हुई, जब वह मुक्तानंद की आशा के विपरीत उनसे-
कहीं अधिक बुद्धत्व घटने का दावा करने लगा,
और वह अपने अधिकार से स्वयं सद्‌गुरु बन बैठा।
कुछ महीने पश्चात वह फिर आया- अब वह एक दूसरा प्रमाणपत्र चाहता
था।
अब वह यह प्रदर्शित करना चाहता था:
कि उसके लिए अब किसी सद्‌गुरु से जुड़े रहने की कोई जरूरत नहीं रह गई
है, क्योंकि वह स्वयं एक सद्‌गुरु बन गया है।
और उसके सभी कर्म मुक्तानंद के साथ पूरे हो चुके हैं।
इसलिए उसने मुक्तानंद से कहा: आप मुझे अब यह प्रमाणपत्र दीजिए कि मैं
पूरी तरह से मुक्त हो गया हूं।
अब मुक्तानंद हिचके-यह बात तो बहुत अधिक बढ़ गई।
इसलिए उन्होंने इंकार कर दिया कि वह उसे दूसरा प्रमाणपत्र नहीं देंगे।
लेकिन बात तो पहले ही से काफी अधिक बढ़ गई थी।
उस व्यक्ति ने अपने घर लौटकर एक पुस्तक लिखी, और उसमें कहा:
निश्चित रूप से मेरी अंतर्यात्रा में मुक्तानंद ने थोड़ी सी सहायता
अवश्य की, लेकिन वह बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति नहीं है,
और अब मैं अपने सभी सम्बन्ध उनसे तोड़ रहा हूं।
वह एक साधारण व्यक्ति हैं।

यह एक उदाहरण है कि यहां चीजें किस तरह से चल रही हैं।
वह एक बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति थे, क्योंकि उन्होंने प्रमाणपत्र दिया था,
वह संसार में सबसे अधिक महान सद्‌गुरु थे। अब वह वैसे नहीं रहे।
वह एक सामान्य व्यक्ति हैं-
मैं उनके साथ अपने सारे सम्बन्ध तोड़ रहा हूं।
ये चीजें इसी तरह से चले जा रही हैं। यह स्मरण रहे
कि इसी कारण तुम स्वयं इस खेल का एक भाग बन सकते हो।
तुम स्वयं पर बहुत अधिक भरोसा मत करो। होशपूर्ण बने रहो।
जब तुम मेरे पास आते हो तो मैं ठीक वही कहता हूं जो हो रहा होता है।
बहुत से लोग मुझसे इसीलिए दूर चले गए-
केवल इसी कारण, कि मैं उनके अहंकार को सहारा नहीं दूंगा
और मैं उनकी इच्छाओं की पूर्ति नहीं करूंगा,
और मैं वह नहीं कहूंगा, जो वे मुझसे कहलवाना चाहते हैं।
और एक बार जब वे चले जाते हैं, तो वे मेरे विरुद्ध हो जाते हैं।
वैसा उन्हें होना ही है।
ये सभी जाल हैं, जिन्हें ठग और धोखेबाज ही नहीं बनाते,
उनके बनाने में तुम उनकी सहायता करते हो।
किसी भी धोखा देने वाले कार्य में किसी के सहभागी मत बनो,
इस बारे में बहुत-बहुत सजग बने रहना है।

-यह भिक्षु जो एक ढोंगी था, और जिसके पास कोई प्रामाणिक समझ न थी,
अपने आपको 'मौन का सद्‌गुरु' कहा करता था।
यह बहुत सुन्दर चाल है
क्योंकि यदि तुम कुछ भी कहोगे, तो तुम पकड़े जा सकते हो,
इसलिए पूरी तरह से मौन बने रहना ही सबसे सुन्दर बात है,
तब कोई भी तुम्हें पकड़ नहीं सकता।
ऐसा कहा जाता है, कि दो तरह के लोगों का मौन रहना अच्छा होता है,
एक तो अत्यधिक प्रज्ञावान लोगों को मौन रहना चाहिए
क्योंकि वे जो कुछ जानते हैं, उसे अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता।
और दूसरे बहुत-बहुत मूढ़ लोगों को भी,
क्योंकि यदि वे मौन नहीं बने रहते, तो वे पकड़े जाएंगे।
इसलिए यहव्यक्ति, जो ढोंगी था, अपने को स्वयं ' मौन का सदगुरु
कहा करता था। वह एक शब्द का भी उच्चारण नहीं करता था।
लेकिन यदि तुम कुछ बोलोगे ही नहीं, तो तुम किसी चीज को बेच नहीं सकते।
यदि एक सेल्समैन मौन बना रहे, तो वह चीजों को कैसे बेच सकता है?
इसलिए उसने युक्ति भरी एक योजना बनाई।
अपने धोखा देने वाले निरर्थक ज़ेन का व्यापार करने के लिए
उसने अपने निकट सेवा में दो वाक्पटु भिलुओं को
लोगों के प्रश्नों का उत्तर देने के लिए रख छोड़ा था।
लेकिन वह, जैसे मानो ज़ेन के रहस्यमय मौन को प्रदर्शित करने के लिए
स्वयं कभी भी एक शब्द तक का उच्चारण नहीं करता था।
एक दिन उसके दोनों सेवकों की अनुपस्थिति में
सत्य का एक खोजी आया और उसने उससे पूछा:
'हे सद्‌गुरु!' एक बुद्ध क्या होता है?'

ज़ेन के प्रश्नों में से यह एक प्रमुख प्रश्न है।
इसका अर्थ है: धर्म क्या है? उसका स्वभाव क्या है?
इसका अर्थ है: चेतना क्या होती है?
इसका अर्थ है: एक जागा हुआ व्यक्ति क्या और कैसा होता है?
ज़ेन के सबसे अधिक आधारभूत प्रश्नों में से यह एक प्रश्न है-
एक बुद्ध क्या और कैसा होता है?
जिसे हम बुद्ध कहकर पुकारते हैं उसकी पूर्ण बुद्धत्व की स्थिति क्या और
कैसी होती है?
यह न जानते हुए कि उसे क्या करना चाहिए और कैसे उस प्रश्न का
उत्तर देना चाहिए
अपने बंद मुंह के प्रवक्ता बने, दोनों शिष्यों की कमी का अनुभव करते हुए
वह निराश होकर सभी दिशाओं में चारों ओर देखने लगा
वह अंतर्यात्री संतुष्ट और अनुग्रहीत होकर
सदगुरु को धन्यवाद देता हुआ अपनी यात्रा पर फिर चल पड़ा।
रास्ते में उस अंतर्यात्री को, आश्रम की ओर जाते हुए
उस गुरु की देखभाल और सेवा करने वाले वे दोनों शिष्य मिले।
उसने उन्हें बहुत उत्साह से यह बताना शुरू किया-




कि बुद्धत्व को उपलब्ध मौन के इस सद्‌गुरु का तो कहना ही क्या?

निश्चित रूप से उसने प्रक्षेपण किया।
उसने जरूर ही यह सुन रखा होगा कि जो लोग जानते हैं, वे मौन रहते हैं।
उसने ऐसा शास्त्रों में भी जरूर पढ़ा होगा
जहां लाखों बार यह कहा गया है
कि कोई एक जो जानता है, कभी कुछ कहता नहीं;
और वह एक जो कहता है, तो समझो उसने अभी तक उसे जाना नहीं।
लेकिन ये सभी बहुत-बहुत आत्मविरोधी चीजें हैं।
'ताओ-ते-चिंग' के बिस्कूल प्रारम्भ ही में लाओत्थू कहता है;
कि सत्य कहा नहीं जा सकता,
और जो कुछ उसके बारे में कहा जाता है, वह सत्य नहीं है।
लेकिन लाओत्थू ने यह कहा तो, उसे अभिव्यक्त तो किया।
इसलिए इस बारे आखिर क्या सोचा जाए?
यह कथन सत्य है अथवा नहीं?
उसने शब्दों का उच्चारण किया, उसे कहा गया।
अब तुम बहुत बड़ी मुसीबत में पड़ जाओगे।
लाओंच्छू कहता है कि सत्य कहा नहीं जा सकता, लेकिन इतना कुछ तो वह
कह ही रहा है।
इसलिए उसका यह कहना सत्य है अथवा नहीं?
यदि यह सत्य नहीं है, तो इसका अर्थ होगा कि सत्य कहा जा सकता है;
यदि यह सत्य है, तब यह भी नहीं कहा जा सकता।

धर्म विरोधाभासों से भरा हुआ है और इसके साथ यही समस्या है।
इस व्यक्ति ने बहुत से ज़ेन सद्‌गुरुओं के वचन पड़े होंगे
जिनमें कहा गया है कि सत्य को कहा नहीं जा सकता।
यह ठीक है: सत्य को कहा नहीं जा सकता।
लेकिन इतना तो जरूर ही कहा जा सकता है कि
बहुत सी चीजें कही भी जा सकती हैं,
लाखों ऐसी चीजें कही जा सकती हैं, जो उसे खोजने में सहायक होंगी,
जिसे कहा नहीं जा सकता।

बहुत सी चीजों की ओर संकेत किया जा सकता है,
और जिसे नहीं कहा जा सकता, कम से कम उसे दिखाया जा सकता है।
पूरा अर्थ केवल इतना ही है:
कि सत्य, शब्दों की अपेक्षा कहीं अधिक बड़ा है।
वह मौन से भी कहीं अधिक बड़ा है।
सत्य इतना अधिक विराट है
कि उसे शब्दों के खोल या आवरण में बने रहने के लिए विवश नहीं किया
जा सकता,
और उसे मौन की सीमा में भी विवश नहीं किया जा सकता।
वास्तव में सत्य में मौन का अस्तित्व है,
और सत्य में शब्दों का भी अस्तित्व है।
सत्य तो पूर्ण विराट आकाश है, पूर्ण शून्यता है, जिसमें सभी कुछ समाहित
है। इस गुरु ने इस कठिनाई में सफल होने के लिए एक चालबाजी की।
यह सोचते हुए कि सत्य कहा नहीं जा सकता,
सबसे अच्छा रास्ता यही है कि मौन रहा जाए-
लेकिन तब कोई भी उसकी ओर आकर्षित नहीं होगा
इसलिए इस बारे में बात करने के लिए उसने प्रवक्ता के रूप में दो सेवक रखे।
यह व्यवस्था बहुत अच्छी है,
क्योंकि यदि वे दोनों कोई गलत बात भी कहते हैं तो वह फंस नहीं सकता।
यदि वह कोई बात ठीक कहते हैं-तो सब कुछ अच्छा है ही।
लेकिन एक दिन वह पकड़ा गया।
तुम कुछ समय तक ही लोगों को धोखा दे सकते हो,
लेकिन तुम सदैव के लिए लोगों को धोखा नहीं दे सकते।
किसी दिन, कहीं भी तुम पकड़े ही जाओगे।
तुम झूठ की कोई ऐसी व्यवस्था नहीं बना सकते
जो हमेशा-हमेशा चलती ही चली जाए। सत्य का विस्फोट तो होगा ही।
तुम निन्यानवे अवसरों पर सफल हो सकते हो
लेकिन एक प्रतिशत तो तुम असफल होगे ही
और यह एक प्रतिशत ही पूरी सफलता को असफल बना देगी,
वह तुम्हारी पूरी योजना को बरबाद कर देगी।

एक दिन सत्य का एक खोजी आया और उसने पूछा: 'बुद्ध क्या और कैसा होता है?'
वह गुरु निराश होकर
अपने प्रवक्ता बने दोनों शिष्यों की कमी अनुभव कर वह चारों दिशाओं में
इधर-उधर देखने लगा।
सत्य क्या है, इसका उत्तर उसके पास था ही नहीं।
और चारों दिशाओं में देखते हुए वह न तो सत्य को, और न बुद्ध को
इंगित करने के लिए कुछ देख रहा था,
और न अपनी मुद्राओं द्वारा किसी चीज की ओर संकेत कर रहा था।
लेकिन उस खोजी के मन ने प्रक्षेपण कर लिया।
उसके चारों दिशाओं में इधर-उधर देखने से उसने सोचा
कि वह वास्तव में एक ज़ेन सद्‌गुरु, एक महान ज़ेन सद्‌गुरु था।
वह शब्दों का उच्चारण नहीं कर सकता, लेकिन वह यह दिखला रहा है
कि तुम प्रत्येक आयाम और प्रत्येक दिशा में उसे देख सकते हो,
और तुम कहीं भी बुद्ध न पाओगे, क्योंकि बुद्ध तो अपने अन्दर है।
तुम उसकी खोज और तलाश कर सकते हो और तुम उसे कहीं पाओगे नहीं,
क्योंकि वह स्वयं खोजी के ही अन्दर है।
यह उसका प्रक्षेपण था, और यह वह है जिसे तुम सरलता से कर सकते हो।
ऐसे ही लोग छले जाते हैं, उन्हें धोखा दिया जाता है-
और उनके पास अपने मन और विश्वास हैं, अपनी धारणाएं और अपने
सिद्धांत हैं और वे उन्हीं को प्रक्षेपित करते हैं।

कई बार यह मेरे साथ भी हुआ। मैंने लोगों को प्रक्षेपण करते देखा।
एक व्यक्ति मेरे पास आया। वह अपने साथ एक थैला भी लाया था।
मैं नहीं जानता था कि उसने थैले में क्या रखा हुआ है?
उसने मेरे पैर छुए और उस समय भी थैला उसके हाथों में था,
इसलिए उसके थैले ने मेरे पैरों का स्पर्श किया।
मैंने सोचा कि केवल यह एक संयोग था।
लेकिन उस व्यक्ति ने अपने थैले में पानी से भरी हुई
एक बोतल रख छोड़ी थी, और वह एक संयोग नहीं था।
वह चाहता था कि वह बोतल मेरे पैरों का स्पर्श करे,
और जो कुछ वह कर रहा था, मैं उससे पूरी तरह बेखबर था।
तब कुछ दिनों के बाद वही व्यक्ति मेरे पास फिर आया,
और उसने मुझे धन्यवाद दिया, और वह बहुत-बहुत कृतज्ञ था।
उसने कहा: 'आपने मेरी बीमारी ठीक कर दी।'
मैंने पूछा: 'कैसी बीमारी? मैं तुम्हारी बीमारी के बारे में कुछ जानता ही
नहीं।'
उसने कहा: 'मुझे सालों से भयंकर सिर दर्द रहता था, एक तरह का माइग्रेन,
और पिछली बार मैं पानी से भरी बोतल के साथ आया था।
और आपने उसे अपने चरणों से छू दिया था।'
मैंने कहा: 'मैंने कभी किसी बोतल को अपने पैरों से नहीं छुआ।'
उसने कहा: 'अब जैसे कुछ भी हुआ, आपने बोतल को छुआ था
और मैं कुछ दिनों तक उसी पानी को पीता रहा
और मेरा सिर दर्द पूरी तरह जाता रहा।'
अब इसका क्या किया जाए?
यदि मैं उससे यह कहता हूं कि यह पूरी तरह से तुम्हारा अपना ही जादू है,
और तुमने ही आत्मसम्मोहन द्वारा इसे किया है, तब इस बात की सम्भावना
है कि उसका सिर दर्द फिर से वापस लौट सकता है;
क्योंकि तुम स्वयं अपने पर विश्वास नहीं कर सकते,
तुम हमेशा किसी अन्य व्यक्ति पर विश्वास करते रहे हो,
तुम स्वयं अपने पर विश्वास कर ही नहीं सकते-
लेकिन यदि तुम स्वयं पर विश्वास नहीं कर सकते,
फिर तुम किसी अन्य व्यक्ति पर विश्वास कैसे कर सकते हो?

लेकिन ऐसा ही चले जा रहा है।
तुम अन्दर शक्तिहीन होने का अनुभव करते हो, तुम स्वयं अपने पर ही
विश्वास नहीं कर सकते।
तुम किसी अन्य व्यक्ति को खोजते हो, और किसी अन्य व्यक्ति के विश्वास
के द्वारा ही, तुम्हारा अपना जादू और अपना आत्म सम्मोहन कार्य करना शुरू
कर देता है।

यह व्यक्ति ठीक हो गया। पहली बात तो यह,
उसका सिरदर्द स्वयं उसके ही द्वारा सृजित होना चाहिए-
क्योंकि एक प्रामाणिक सिर दर्द इस तरह से ठीक नहीं किया जा सकता,
केवल एक झूठा सिरदर्द, एक मनोवैज्ञानिक दर्द ही ठीक हो सकता है।
पहली बात यह कि वह एक सम्मोहित सिरदर्द था;
और दूसरी बात यह, उसने उसे ठीक कर लिया।
लेकिन यह व्यक्ति खतरनाक है,
क्योंकि यदि तुम सिरदर्द सृजित कर सकते हो,
तो तुम कैंसर भी सृजित कर सकते हो।
चीजों का प्रक्षेपण करना...

एक बार ऐसा हुआ कि एक व्यक्ति मेरे ही साथ ठहरा,
और हम दोनों एक ही कमरे में सो रहे थे।
रात में मैं टॉयलेट जरूर गया था,
और उस समय वह व्यक्ति आधा सोया और आधा जागा हुआ रहा होगा।
इसलिए उसने जब मेरा बिस्तर देखा तो मैं वहां नहीं था।
तब वह कुछ क्षणों के लिए जरूर ही फिर गहरी नींद में चला गया होगा।
जब मैं टॉयलेट से वापस आया तो उसने मुझे फिर से देखा होगा,
कि मैं वहां था
इसलिए उसने सोचा कि मैं कुछ क्षणों के लिए अंतर्धान हो गया था।
बिस्तरे से कूदकर उसने मेरे पैर पकड़ लिए और बोला:
आपने यह चमत्कार तो किया, केवल मुझे यह बता दें
कि आपने ऐसा किया कैसे?
अब मैं आपको कभी भी छोडूंगा नहीं। आप ही सच्चे सद्‌गुरु हैं।
इसलिए मैंने उससे कहा: जी, है। तुम मुझे मत छोड़ना
लेकिन कम से कम मुझे कुछ कहने का अवसर तो दो
कि मैं भी तुम्हारे साथ हमेशा रहना चाहता हूं अथवा नहीं?
क्योंकि कि तुम पूरी तरह से एक मूर्ख व्यक्ति हो।
लेकिन इस व्यक्ति ने कहा: नहीं, आप दूर जाने की कोशिश न करें।
मैं आपको छोड़ने वाला नहीं हूं।
मैंने चमत्कार होते स्वयं देखा है: मैं इसी की तो प्रतीक्षा कर रहा था

कि मैं एक ऐसा सद्‌गुरु चुनूंगा जो कभी भी अंतर्धान हो सके।
आपने ऐसा करके दिखा दिया, और इसे मैंने स्वयं अपनी आंखों से देखा।

मन के दांवपेंच और चालों को समझना बहुत कठिन है।
मैं जो नहीं कह रहा हूं तुम उन बातों को भी सुन सकते हो:
मैं जो कुछ नहीं कर रहा हूं तुम उन चीजों के भी आर-पार जा सकते हो;
और तुम स्वयं अपने आप को धोखा दे सकते हो।
इसलिए यह जरूरी नहीं है कि कोई दूसरा व्यक्ति ही तुम्हें धोखा दे,
तुम स्वयं अपने आप को धोखा दे सकते हो।
तुम एक आत्म प्रवंचक हो।

'मौन सद्‌गुरु को निराश होकर चारों ओर देखते हुए
उस व्यक्ति ने सोचा कि यही प्रामाणिक रूप से बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति
क्योंकि यह इशारा कर रहा है कि बुद्ध कहीं भी नहीं पाए जाते।
इसलिए अच्छी तरह से संतुष्ट होकर उसने सद्‌गुरु को धन्यवाद दिया,
और फिर अपनी यात्रा पर चल पड़ा।

रास्ते में उस खोजी को सद्‌गुरु की देखभाल करने वाले वे दोनों भिक्षु मिले,
जो आश्रम वापस लौट रहे थे।
उसने अति उत्साह से बतलाना शुरू कर दिया
कि यह मौन का सदगुरु कितना अधिक बोध को उपलब्ध व्यक्ति है?
उसने कहा: मैंने उनसे पूछा: युद्ध क्या और कैसा होता है?

और उन्होंने अपने चेहरे को तुरंत पूरब से पश्चिम की ओर मोड़ लिया।
जिसका सांकेतिक अर्थ है कि मनुष्य जाति बुद्ध को हमेशा इधर-उधर
खोजती रहती है, लेकिन बुद्ध वास्तव में ऐसी किसी भी दिशा में नहीं पाया जाता।

ओह, वह बुद्धत्व को उपलब्ध कितना महान सद्‌गुरु है
और कितनी गूढ़ हैं उसकी सिखावनें
जब देखभाल करने वाले वे प्रवक्ता भिक्षु वापस लौटे
तो मीन के सद्‌गुरु ने उन्हें डांटते हुए कहा:
तुम इतनी देर के लिए कहा चले गए थे?
कुछ देर पहले एक जिज्ञासु अंतर्यात्री के द्वारा प्रश्न पूछे जाने पर
मैं परेशान होकर लगभग मरणासन और बरबाद

होने की स्थिति तक जा पहुंचा था।'

इस बोध कथा का भलीभांति स्मरण रहे,
क्योंकि अपनी अंतर्यात्रा में यह तुम्हारी भी कथा हो सकती है।
लेकिन ऐसा होना नहीं चाहिए-
इस कथा को तुम्हारी कथा नहीं बनना चाहिए
मैं तुम्हें यह कहानियां सुनाकर उनके बारे में यह बतलाना चाहता हूं।
कि तुम निश्चित चीजों के प्रति सचेत बनो।
मैं इन कथाओं से बहुत प्रेम करता हूं क्योंकि ये इतने प्रामाणिक और इतने
अधिक प्रत्यक्ष रूप से और इतनी शीघ्रता से उन निश्चित घटनाओं की ओर
संकेत करती हैं
जिनकी प्रत्येक अंतर्यात्री को अपने पथ पर मिलने की सम्भावना है
कैसे उनसे बचा जाए जिससे तुम उनसे धोखा न खा सको?
ठगों और धोखेबाजों के बारे में कुछ भी नहीं किया जा सकता।
तुम आखिर कर ही क्या सकते हो?
वे यहां हैं, और पूर्ण अस्तित्व ने भी उन्हें अनुमति दी हुई है,
यहां तक तो यह ठीक है।
तुम उन ठगों के बारे में कुछ भी नहीं कर सकते।
इसलिए परेशान मत होओ, उन्हें उन्हीं के हाल पर छोड़ दो।
लेकिन तुम स्वयं अपने बारे में तो कुछ कर ही सकते हो,
आवश्यक बात केवल यही है।
मैं यह नहीं चाहता कि तुम क्रांतिकारी बनकर
ऐसे बाबाओं को जाकर मार डालो। उन्हें उनके ही हाल पर छोड़ दो।
मैं तुमसे क्रांतिकारी बनने के लिए नहीं कह रहा हूं
लेकिन तुमसे अधिक सचेत और सजग बनने के लिए कह रहा हूं
जिससे ऐसी घटनाएं तुम्हारे साथ न घट सकें। बस इतनी सी ही बात है।
ऐसे बाबा और ठग निरंतर और हमेशा बने रहेंगे
क्योंकि यहां बहुत से मूर्ख लोग हैं, ओर उन लोगों को उनकी जरूरत है:
वे एक विशिष्ट आवश्यकता की पूर्ति करते हैं।
इसलिए आखिर क्या किया जाए? तुम केवल एक ही चीज कर सकते हो,
तुम अपने अन्दर से उस जरूरत को गिरा दो। प्रक्षेपण मत करो।
अपने मन में विश्वासों को स्थाई रूप से जमने की अनुमति मत दो।
अपने मन की प्रतिदिन ऐसे सफाई करो, जैसे कोई अपने घर को साफ करता

दिन भर में गर्द इकट्ठी हो जाती है, तुम शाम को उसे साफ कर देते हो,
और सुबह फिर
रात में तुमने कुछ भी नहीं किया है, लेकिन रात में भी गर्द फिर इकट्ठी हो
जाती है, इसलिए सुबह तुम्हें फिर उसे साफ करना होता है।
तुम्हें अपने मन को, विश्वासों, धारणाओं, सिद्धांतों, विचारों,
आदर्शों, दार्शनिक विचारधाराओं धार्मिक निर्देशों और शास्त्रों से
निरंतर साफ और शुद्ध करते रहना है।
तुम्हें अपने मन को शाब्दिक बकवास से भी पूरी तरह साफ करना है
और तुम अपने अन्दर बिना मन के सत्य की ओर देखने का प्रयास करो।
केवल देखो, एक शुद्ध, थिर और नग्न दृष्टि से।

तिलोपा कहता है: स्थिर नग्न दृष्टि से देखते रहो और तुम्हें महामुद्रा घटित होगी।
स्थिर नग्न दृष्टि के द्वारा ही, मनुष्य की चेतना के लिए जो भी सम्भव है
तुम बुद्धत्व की सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त कर लोगे।
पहले तुम अपनी दृष्टि को सभी धारणाओं से मुक्त कर शुद्ध कर लो,
तभी सत्य तुम्हारे सामने प्रकट होगा,
क्योंकि तब तुम उसे विकृत न कर सकोगे,
तुम उसे प्रक्षेपित न कर सकोगे
और तुम उसमें किसी भी चीज का कोई वजन न रख सकोगे।
इस खोजी ने किया क्या? उसके पास कुछ विचार और धारणाएं थीं,
और उसने उन्हें सद्‌गुरु की मुद्राओं में
जो अपने प्रवक्ताओं को चारों ओर खोजते हुए देखा रहा था,
उसने उस स्थिति में अपने विचारों को स्थापित कर दिया

उसने कहीं यह जरूर पढ़ा होगा
कि बुद्ध को किसी भी दिशा में नहीं खोजा जा सकता,
उसने इसी विचार और धारणा को प्रक्षेपित कर दिया।
प्रक्षेपणकर्ता मत बनो, मन को सक्रिय मत रखो।
अपने मन को पूरी तरह निष्क्रिय और ग्रहण करने वाला ग्राहक बनाओ।
मन से कोई भी चीज लाकर अस्तित्व में मत उडेलो,
अन्यथा वह विकृत हो जाएगा।
पूरे अस्तित्व को मन में पूरी तरह प्रवेश करने की अनुमति दो,
और तुम एक निष्क्रिय निरीक्षणकर्ता और निष्क्रिय साक्षी बने रहो।
तब चाहे जो भी स्थिति हो, तुम उसे जानोगे
तब 'वह' जो कुछ भी है, तुम्हारे सामने प्रकट होगा,
और केवल वही तुम्हें विकसित कर पूर्ण बनाएगा।
और अंतिम रूप से तुम्हारी खिलावट होगी।

यदि तुम इस अस्तित्व को जानना चाहते हो, तो मन को विसर्जित कर दो,
यदि तुम सत्य को समझना चाहते हो, तो मन को एक तरफ उठाकर रख दो,
सत्य सदा वहां पहले से ही है,
लेकिन तुम्हारा मन ही ठीक बीच में बाधा बना खड़ा है।
मन को हटाकर एक ओर रख दो एक खिड़की बनाओ और देखो,
जीवन का आत्यंतिक रहस्य और प्रत्येक चीज तुम्हारे सामने
अपना घूंघट उघाड़ देगी।
मन के साथ कभी भी कोई भी व्यक्ति सत्य को जानने में समर्थ न हो सका
है। बिना मन के कोई भी व्यक्ति सत्य को जान सकता है।
क्योंकि मन ही एकमात्र बाधा है
सत्य को बने रहने के लिए मन का अंत करना ही होगा।
और मन के सिवा तुम्हारे पास कुछ और है ही नहीं, इसलिए मन को एक
ओर उठाकर रखना बहुत-बहुत कठिन और श्रमपूर्ण है,
लेकिन ऐसा होता है, यदि तुम निरंतर प्रयास करते रही।
प्रारम्भ में केवल कुछ क्षणों के लिए ही वहां उसकी झलकें मिलेंगी,
लेकिन वे झलकें भी तुम्हें एक नया आयाम देंगी।
मन कुछ क्षणों के लिए रुकता है, और तभी अचानक
जैसे मानो एक बिजली सो कौंध जाती है
और मन का पूरा संसार विलुप्त हो जाता है
और सत्य के संसार का दर्शन होता है।
ये बिजली जैसी कौंध तुम्हें भी घटेगी
और तब धीमे- धीमे तुम अमन की स्थिति में थिर होते जाओगे।
तब वहां बिजली की कौंध की भी कोई आवश्यकता नहीं होगी,
क्योंकि सूर्योदय हो चुका है।
अब सुबह मुस्करा रही है और सारा अंधकार विलुप्त हो गया है।
एक धार्मिक मनुष्य, वह मनुष्य है-जो बिना मन,
और बिना किसी विश्वास के होता है।
एक धार्मिक मनुष्य, वह मनुष्य होता है, जो श्रद्धावान हो।

आज इतना ही।

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