मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो
सत्र-सौलहवां
ओ. के.। पोस्ट-पोस्टस्क्रिप्ट में मैं कितनी पुस्तकों के बारे में चर्चा कर चुका हूं? हूंऽऽऽ...?
‘‘चालीस, ओशो।’’
चालीस?
‘‘हां, ओशो।’’
तुम्हें पता है कि मैं एक जिद्दी आदमी हूं। चाहे कुछ भी हो जाए मैं इसे पचास तक पूरा करके रहूंगा; वरना दूसरा पोस्ट-पोस्ट-पोस्टस्क्रिप्ट प्रारंभ कर दूंगा। सच में मेरी जिद ने ही मुझे लाभ पहुंचाया है: दुनिया में जो हर प्रकार की बकवास भरी पड़ी है, उससे मुकाबला करने में मुझे इससे मदद मिली है। दुनिया में हर जगह हर किसी के चारों ओर यह जो अति सामान्य योग्यता वाला आदमी है, उसके विरुद्ध अपनी बुद्धिमत्ता को बचाए रखने में इसने मेरी काफी मदद की है। इसलिए मैं इस बात से बिलकुल भी दुखी नहीं हूं कि मैं जिद्दी हूं; असल में, मैं भगवान का शुक्रिया अदा करता हूं कि उसने मुझे इस तरह से बनाया है: पूरी तरह से जिद्दी।
पहली पुस्तक है बेनेट द्वारा लिखित, जो एक अंग्रेज है, एक पक्का अंग्रेज। पुस्तक एक बिलकुल ही अज्ञात भारतीय रहस्यदर्शी के बारे में है--शिवपुरी बाबा। दुनिया को उनके बारे में बेनेट की पुस्तक के द्वारा ही पता चला।
शिवपुरी बाबा निश्चित ही दुर्लभतम पुष्पों में एक थे, खासकर भारत में जहां इतने सारे मूर्ख महात्मा होने का ढोंग कर रहे हैं। भारत में शिवपुरी बाबा जैसे व्यक्ति का मिलना वास्तव में या तो सौभाग्य की बात है या किसी गहरी खोज का परिणाम। भारत में पांच लाख महात्मा हैं; और यह वास्तविक संख्या है। इस भीड़ में एक असली आदमी को खोज पाना करीब-करीब असंभव है।
लेकिन बेनेट कई अर्थों में भाग्यशाली था। वही पहला व्यक्ति भी था जिसने गुरजिएफ को खोजा। यह काम न तो ऑस्पेंस्की कर सका और न ही निकोल, और न ही कोई अन्य सिवाय बेनेट के। बेनेट ने गुरजिएफ को कुस्तुनतुनिया के एक शरणार्थी शिविर में पाया। वे रूसी क्रांति के दिन थे। गुरजिएफ को रूस छोड़ना पड़ा था; रास्ते में इससे पहले कि वह वहां से भाग निकले, उस पर दो बार गोली चलाई गई। हमारी शैलियां अलग-अलग हैं, लेकिन नियति एक अजीब ढंग से फिर वही खेल खेल सकती है...
गुरजिएफ, और एक शरणार्थी शिविर में!--जरा इसके बारे में सोचो तो, मुझे विश्वास ही नहीं होता कि मानवता इतने नीचे भी गिर सकती है। किसी बुद्ध को, या गुरजिएफ को, जीसस या बोधिधर्म को एक शरणार्थी शिविर में रखना... जब बेनेट ने उसे देखा, गुरजिएफ भोजन के लिए एक लाइन में खड़ा था। भोजन दिन में केवल एक बार ही मिलता था, और लाइन लंबी थी। हजारों शरणार्थी थे जिन्होंने रूस छोड़ दिया था, क्योंकि कम्युनिस्ट बिना किसी सोच-विचार के लोगों की हत्या कर रहे थे कि वे किसकी हत्या कर रहे हैं, और किसलिए कर रहे हैं। तुम्हें जान कर आश्चर्य होगा कि उन्होंने लगभग एक करोड़ रूसियों की हत्या की थी।
बेनेट ने गुरजिएफ को कैसे खोज लिया? अपने शिष्यों के बीच बैठे हुए गुरजिएफ को पहचानना मुश्किल नहीं है, लेकिन बेनेट ने उसे गंदे फटे-पुराने, कई दिनों से अनधुले कपड़ों में पहचान लिया। उसने कैसे उसे उस लाइन में पहचाना? वे आंखें--उन्हें तुम छिपा नहीं सकते। वे आंखें--चाहे वह आदमी स्वर्ण सिंहासन पर बैठा हुआ है, या शरणार्थी शिविर में खड़ा हुआ है, वे एक जैसी हैं। पश्चिम में गुरजिएफ को बेनेट लेकर आया।
बेचारे बेनेट को इसके लिए कोई धन्यवाद भी नहीं देता, और उसका एक कारण है। कारण यह है कि वह एक अस्थिर स्वभाव का व्यक्ति था। गुरजिएफ जब तक जीवित रहा तब तक बेनेट ने उसे नहीं छोड़ा। उसकी हिम्मत नहीं पड़ी। वे आंखें बहुत प्रभावशाली थीं; उसने दो बार उन आंखों का अदभुत प्रभाव देखा था। गुरजिएफ पर लिखी अपनी पुस्तक में वह कहता है--जो कि कोई बहुत बढ़िया पुस्तक नहीं है, इसीलिए मैं उसकी गिनती नहीं कर रहा हूं, लेकिन मैं सिर्फ उसका उल्लेख कर रहा हूं--बेनेट कहता है: ‘मैं एक लंबी यात्रा के बाद थका-हारा गुरजिएफ के पास आया। मैं बीमार था, बहुत बीमार, मरने के करीब। मैं उन्हें देखने के लिए आया था सिर्फ इसलिए कि इसके पहले कि मैं मर जाऊं मैं उन दोनों आंखों को फिर से देख सकूं...मेरा आखिरी अनुभव।’
वह गुरजिएफ के कमरे में आया। गुरजिएफ ने उसे देखा, उठ कर खड़ा हुआ, करीब आया और उसे गले लगा लिया। बेनेट तो इस पर विश्वास न कर सका--यह गुरजिएफ का ढंग नहीं था। अगर वह उसे थप्पड़ मार देता इसकी तो ज्यादा उम्मीद थी, लेकिन गुरजिएफ ने उसे गले लगा लिया! लेकिन वहां इस गले लगाने से भी ज्यादा कुछ और था। जिस क्षण गुरजिएफ ने उसे स्पर्श किया, बेनेट ने ऊर्जा की एक तीव्र लहर महसूस की। उसी समय उसने देखा गुरजिएफ पीला पड़ चुका था। गुरजिएफ बैठ गया; उसके बाद बड़ी मुश्किल से उठ कर खड़ा हुआ और बाथरूम में चला गया, जाते हुए बेनेट से कहा: ‘‘फिकर मत करो, बस दस मिनट इंतजार करो और मैं वापस आता हूं, जैसा था वैसा ही।’’
बेनेट कहता है: ‘‘मैंने कभी इतना अच्छा महसूस नहीं किया था--इतना स्वस्थ, इतना शक्तिशाली। ऐसा लग रहा था कि मैं कुछ भी कर सकता हूं।’’
जो लोग ड्रग्स लेते हैं वे ऐसा महूसस करते हैं--एल.एस.डी. या मारीजुआना और अन्य नशीले पदार्थ--उनके प्रभाव में वे अनुभव करते हैं कि वे कुछ भी कर सकते हैं। एक महिला को लगा कि वह उड़ सकती है, तो वह न्यूयार्क की एक इमारत की तीसवीं मंजिल की खिड़की से बाहर उड़ गई। अब तुम अनुमान लगा सकते हो कि क्या हुआ होगा। महिला के टुकड़े भी नहीं मिले।
बेनेट कहता है: ‘‘मुझे लगा कि मैं सब-कुछ कर सकता हूं। उस समय मुझे नेपोलियन का प्रसिद्ध वचन समझ में आया: कुछ भी असंभव नहीं है। न केवल मुझे यह समझ में आया बल्कि महसूस हुआ कि मैं जो कुछ भी चाहता था वह कर सकता हूं। लेकिन मुझे पता था कि यह गुरजिएफ की करुणा थी। मैं मर रहा था, और उन्होंने मुझे बचा लिया।’’
ऐसा दो बार हुआ...कुछ वर्षों बाद फिर से। पूरब में इसे ‘शक्तिपात’ कहते हैं; जलते हुए एक दीये की लौ से ऊर्जा दूसरे बुझते हुए दीये की ओर छलांग लगा सकती है। हालांकि उसे इस तरह के गहन अनुभव हुए, फिर भी बेनेट एक अस्थिर चित्त का आदमी था। ऑस्पेंस्की की भांति न तो वह डगमगाया और न ही साथ छोड़ा, लेकिन जब गुरजिएफ की मृत्यु हुई, तब वह साथ छोड़ गया। उसने दूसरे सदगुरु की खोज शुरू कर दी। कितना दुर्भाग्य है!--मेरा मतलब है कि बेनेट का दुर्भाग्य है। यह दूसरे लोगों के लिए तो अच्छा रहा, क्योंकि इस तरह वह खोजते हुए शिवपुरी बाबा के पास आया। लेकिन शिवपुरी बाबा, कितने ही महान क्यों न हों, गुरजिएफ से उनकी तुलना नहीं की जा सकती है। मुझे बेनेट की इस बात पर विश्वास नहीं होता। और वह एक वैज्ञानिक था, एक गणितज्ञ...इसी से ही मुझे इशारा मिलता है। वैज्ञानिक ने अपने विशेष क्षेत्र के बाहर लगभग हमेशा मूर्खतापूर्ण व्यवहार किया है।
मैं विज्ञान की परिभाषा सदा इस प्रकार करता हूं: ‘कम से कम के संबंध में ज्यादा से ज्यादा जानना’, और धर्म की इस प्रकार: ‘ज्यादा से ज्यादा के संबंध में कम से कम जानना।’ विज्ञान की पराकाष्ठा होगी कुछ-नहीं के बारे में सब-कुछ जान लेना, धर्म की पराकाष्ठा होगी सब-कुछ जान लेने में--सब-कुछ के ‘बारे में’ नहीं जान लेना, बल्कि केवल जानना; किसी के बारे में नहीं, मात्र जानना। विज्ञान का अंत होगा अज्ञान में; धर्म का अंत होगा आत्मज्ञान में।
सभी वैज्ञानिक, यहां तक कि महान वैज्ञानिक, अपने विशेष क्षेत्र के बाहर कई बार मूर्ख सिद्ध हो चुके हैं। वे बच्चों जैसा व्यवहार करते हैं। बेनेट एक जाना-माना वैज्ञानिक और गणितज्ञ था, लेकिन वह डगमगाया, और चूक गया। फिर उसने दूसरे सदगुरु की खोज शुरू कर दी। और ऐसा भी नहीं कि वह शिवपुरी के साथ रहा हो...शिवपुरी बाबा बहुत वृद्ध हो चुके थे जब बेनेट उनसे मिला। वे लगभग एक सौ दस वर्ष की आयु के थे। वे सचमुच लौह पुरुष थे। वे लगभग डेढ़ शताब्दी तक जीवित रहे। वे सात फीट लंबे और एक सौ पचास वर्ष की आयु के थे और फिर भी वहां मृत्यु का कोई चिह्न नहीं दिखाई पड़ता था। उन्होंने शरीर छोड़ने का निर्णय लिया--यह उनका अपना निर्णय था।
शिवपुरी मौन रहने वाले आदमी थे, उन्होंने कभी कोई शिक्षा नहीं दी। विशेष रूप से वह आदमी जो गुरजिएफ को जानता हो और उसकी अदभुत शिक्षाओं को, उसे शिवपुरी बाबा बहुत साधारण प्रतीत होंगे। बेनेट ने शिवपुरी बाबा पर एक पुस्तक लिखी और फिर से वह एक दूसरे सदगुरु की खोज में निकल पड़ा। शिवपुरी बाबा ने उस समय तक शरीर नहीं छोड़ा था।
तब, इंडोनेशिया में, बेनेट को मिले मोहम्मद सुबुद, सुबुद आंदोलन के संस्थापक। सुबुद संक्षिप्त नाम है ‘सुशील-बुद्ध-धर्म’ का; यह बस इन तीनों शब्दों के पहले अक्षर से बना है। कैसी मूढ़ता! बेनेटे ने मोहम्मद सुबुद को परिचित कराना शुरू कर दिया। मोहम्मद सुबुद एक भले आदमी थे, लेकिन सदगुरु नहीं...शिवपुरी बाबा से उनकी कोई तुलना ही नहीं की जा सकती; और गुरजिएफ से तुलना का तो सवाल ही नहीं उठता। बेनेट मोहम्मद सुबुद को पश्चिम ले आया, और उन्हें गुरजिएफ के उत्तराधिकारी के रूप में परिचित कराना शुरू कर दिया। अब यह तो निरी मूर्खता है!
लेकिन बेनेट लिखता है सुंदर ढंग से, गणित के अनुसार, व्यवस्थित। ‘शिवपुरी बाबा’ उसकी सबसे अच्छी पुस्तक है। हालांकि बेनेट मूर्ख था। अब यदि तुम एक बंदर को भी टाइपराइटर पर बिठा दो तो संभव है कि वह भी कभी-कभी कुछ सुंदर वचन लिख सकता है--शायद एक ऐसा वचन जो केवल एक बुद्धपुरुष ही दे सकता है--बस यहां-वहां टाइपराइटर के बटनों को दबा कर। लेकिन बंदर को समझ में नहीं आएगा कि उसने क्या लिखा है।
बेनेट इसी तरह से चलता रहा। जल्दी ही मोहम्मद सुबुद से उसका मोहभंग हो गया और फिर उसने दूसरे सदगुरु की खोज शुरू कर दी। बेचारा, बेकार ही वह अपने पूरे जीवन भर खोजता रहा, खोजता रहा। गुरजिएफ सही आदमी था जो उसे पहले से ही मिल चुका था। गुरजिएफ के बारे में उसने लिखा है, और वह जो कहता है सुंदर है, प्रभावशाली है, लेकिन उसके हृदय में अंधकार है, वहां उसके हृदय में कोई प्रकाश नहीं है। फिर भी, मैं उसकी पुस्तक को सबसे अच्छी पुस्तकों में से एक गिनता हूं। तुम देख सकते हो कि मैं निष्पक्ष हूं।
दूसरी: यह एक अजीब पुस्तक है, कोई इसे पढ़ता भी नहीं। हालांकि यह अमरीका में लिखी गई थी, फिर भी शायद तुमने इसका नाम भी नहीं सुना होगा। विलहेम रेक की ‘लिसन लिटिल मैन।’ यह एक बहुत ही छोटी सी पुस्तक है। लेकिन यह ‘सरमन ऑन दि माउंट, ताओ तेहकिंग, दस स्पेक जरथुस्त्रा, दि प्रॉफेट’ की याद दिलाती है। सच बात तो यह है कि रेक की ऐसी सामर्थ्य नहीं थी कि वह इस तरह की कोई पुस्तक लिख सके, लेकिन लगता है कोई अज्ञात शक्ति उस पर सवार थी।
‘लिसन लिटिल मैन’ लिखने की वजह से रेक को बहुत विरोध का सामना करना पड़ा, खासकर व्यावसायिक मनोविज्ञानिकों और अपने सहयोगियों के बीच, क्योंकि वह हर किसी को ‘लिटिल मैन’ ‘छोटा आदमी’ कह कर बुला रहा था--और वह सोच रहा था कि वह बहुत महान है। मैं तुम्हें बताना चाहता हूं: वह था! एक बुद्ध की तरह नहीं, लेकिन सिग्मंड फ्रायड, कार्ल गुस्ताव जुंग, असागोली की तरह। वह इसी कोटि का था। निस्संदेह वह एक महान आदमी था, फिर भी आदमी ही था, महामानव, सुपरमैन नहीं, लेकिन महान। और ऐसा नहीं था कि उसके अहंकार से इस पुस्तक का जन्म हुआ; वह इसे रोक नहीं सकता था, उसे यह लिखनी पड़ी। यह बिलकुल वैसा ही है जैसे एक महिला गर्भवती हो, तो उसे बच्चे को जन्म देना ही होता है। वह वर्षों अपने भीतर इस छोटी सी पुस्तक को सम्हाले रहा, इसे लिखने के खयाल को दबाता रहा, क्योंकि वह बिलकुल अच्छी तरह से जानता था कि यह उसके लिए नरक बन जाने वाला है। और ऐसा ही हुआ। इस पुस्तक के बाद हर तरफ से उसकी निंदा हुई।
इस संसार में किसी भी महान चीज की रचना करना एक अपराध है। आदमी बिलकुल भी नहीं बदला है। सुकरात को वह मार डालता है, रेक को वह मार डालता है। कोई परिवर्तन नहीं। उन्होंने रेक को पागल करार दे दिया और उसे कारागृह में डाल दिया। वह कारागृह में मरा, निंदित, एक पागल कमजोर आदमी की तरह। बादलों के पार उठने की उसकी क्षमता थी, लेकिन उसे नहीं उठने दिया गया। अमरीका को अभी भी सुकरात, जीसस, बुद्ध जैसे लोगों के साथ जीना सीखना है।
मेरे सभी संन्यासियों को इस पुस्तक पर ध्यान करना चाहिए। मैं बिलकुल ही बिना किसी शर्त के इस पुस्तक का समर्थन करता हूं।
तीसरी पुस्तक है जिसे बर्ट्रेंड रसल और व्हाइटहेड दोनों ने मिल कर लिखा है। कोई इसे पढ़ता भी नहीं। पुस्तक का नाम है: ‘प्रिंसिपिया मैथेमेटिका।’ लोगों को डराने के लिए बस इसका नाम ही काफी है, और इस पुस्तक को अस्तित्व में सबसे जटिल होना चाहिए। इसलिए, इस पुस्तक पर जितना संभव हो सकता था मैंने उतना श्रम किया। हर कठिन चीज मुझे हमेशा आकर्षित करती है। पुस्तक मनमोहक और चुनौतीपूर्ण है, लेकिन मैं अपने संन्यासियों को इसे पढ़ने की सलाह नहीं दूंगा। इससे बचना! मैंने इसके हजारों पन्नों को पढ़ा और सिवाय गणित के कुछ भी नहीं पाया। यदि तुम्हारी गणित में रुचि है, खासकर उच्चतर गणित में...तो वह दूसरी बात है। मैं इसे शामिल करना चाहता था क्योंकि यह अति उत्तम कृति है--गणित की।
चौथा... यही नंबर है न?
‘‘हां, ओशो।’’
तुम्हें आश्चर्य होगा कि मेरा चौथा चुनाव है अरिस्टोटल की ‘पोएटिक्स।’ मैं अरिस्टोटल का जन्मजात शत्रु हूं। मैं इस आदमी को ‘अरिस्टोलाइटिस’ कहता हूं...एक प्रकार की बीमारी, लाइलाज। देवराज, इसके लिए कोई दवाई नहीं है। आशीष, तुम्हारा माइग्रेन तो कुछ भी नहीं है! ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करो है कि तुम ‘अरिस्टोलाइटिस’ से पीड़ित नहीं हो; वह एक असली कैंसर है।
अरिस्टोटल को पश्चिमी दर्शनशास्त्र और तर्कशास्त्र का जन्मदाता माना जाता है। निश्चित ही वह है, लेकिन केवल दर्शनशास्त्र और तर्कशास्त्र का, असली बात का नहीं। असली बात तो सुकरात, पाइथागोरस, प्लोटिनस, डायोजनीज और डायोनिसियस से आती है, लेकिन अरिस्टोटल से नहीं। लेकिन यह आश्चर्य है: उसने एक सुंदर पुस्तक लिखी--और यह उन पुस्तकों में से एक है जिसका अध्ययन अरिस्टोटल के विद्वानों द्वारा नहीं किया जाता है--‘पोएटिक्स।’ मुझे उसकी कई पुस्तकों में से इसे खोजना पड़ा। मैं सिर्फ जानना चाहता था कि क्या इस आदमी में मुझे कुछ भी सुंदर मिल सकता है या नहीं, और जब मुझे ‘पोएटिक्स’ मिली, बस कुछ ही पन्नों की एक किताब, मैं रोमांचित हो उठा था। इस आदमी के पास हृदय भी था। बाकी सब पुस्तकें तो उसने बुद्धि से लिखी हैं, लेकिन यह पुस्तक हृदय से लिखी गई है। निश्चित रूप से यह काव्यात्मकता के सार-सूत्र के संबंध में है--पोएटिक्स--और काव्यात्मकता का सार-सूत्र, प्रेम के सार-सूत्र के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता है। यह बुद्धि की नहीं बल्कि अंतःप्रज्ञा की सुवास है। मैं इस पुस्तक को पढ़ने की सलाह देता हूं।
पांचवीं: इधर बहुत सारी पुस्तकें मेरे सामने हैं और उनमें चुनाव करना बहुत मुश्किल है, लेकिन मैं रॉस की ‘थ्री पिलर्स ऑफ झेन’ को चुनता हूं। अनेक लोगों ने झेन के बारे में लिखा है--जिसमें सुजुकी भी शामिल है, जिसे कि झेन की सबसे ज्यादा समझ थी--लेकिन झेन के बारे में लिखी गई ‘थ्री पिलर्स ऑफ झेन’ सबसे सुंदर पुस्तक है। याद रहे, मेरा जोर है ‘के बारे में’--क्योंकि रॉस को झेन का कोई अनुभव नहीं था। वस्तुतः इसलिए यह और भी अधिक आश्चर्यजनक हो जाता है: कि बिना किसी अनुभव के, सिर्फ पुस्तकों का अध्ययन और जापानी मठों की यात्रा से, उसने एक अति उत्तम कृति लिखी है।
रॉस से मैं केवल एक ही बात कहना चाहता हूं: झेन में तीन स्तंभ नहीं हैं, बल्कि एक भी स्तंभ नहीं है। झेन में कोई स्तंभ नहीं होते। वह कोई मंदिर नहीं है, वह प्योर नो-थिंग-नेस है, वह शुद्ध शून्यता है। झेन को खंभों की कोई जरूरत नहीं है। अगर वह इस पुस्तक को फिर से प्रकाशित करती है, तो उसे इसका नाम बदल देना चाहिए। ‘थ्री पिलर्स ऑफ झेन’ नाम अच्छा तो लगता है, लेकिन यह झेन की आत्मा के लिए सही नहीं है। लेकिन इस पुस्तक को एक बहुत ही वैज्ञानिक ढंग से लिखा गया है। जो लोग झेन को बौद्धिक रूप से समझना चाहते हैं उन्हें इससे बेहतर पुस्तक नहीं मिल सकती है।
छठवीं: छठवें नंबर के लिए मेरी पसंद एक अदभुत आदमी की पुस्तक है। वे अपने आप को ‘एम’ नाम से पुकारते थे। मुझे उनका असली नाम मालूम है, लेकिन उन्होंने कभी भी किसी को अपना असली नाम मालूम नहीं होने दिया। उनका नाम है: महेंद्रनाथ। वे एक बंगाली थे, रामकृष्ण के शिष्य थे।
महेंद्रनाथ अनेक वर्षों तक रामकृष्ण के चरणों में बैठे, और अपने सदगुरु के आस-पास जो कुछ भी घटित हो रहा था, उसे लिखते रहे। पुस्तक का नाम है: ‘दि गॉस्पेल ऑफ रामकृष्ण’--जिसे ‘एम’ ने लिखा है। वे कभी भी अपने नाम का खुलासा करना नहीं चाहते थे, वे अनाम बने रहना चाहते थे। यही एक सच्चे शिष्य का ढंग है। उन्होंने अपने आप को पूरी तरह से मिटा डाला था।
तुम्हें जान कर हैरानी होगी कि जिस दिन रामकृष्ण की मृत्यु हुई, उसी दिन ‘एम’ की भी मृत्यु हो गई। अब उनके लिए और अधिक जीने का कोई अर्थ नहीं रह गया था। मैं समझ सकता हूं... रामकृष्ण की मृत्यु के बाद ‘एम’ के लिए मरने की तुलना में जीना कहीं अधिक मुश्किल था। अपने सदगुरु के बिना जीने के बजाय मृत्यु कहीं अधिक आनंददायी थी।
सदगुरु तो अनेक हो चुके हैं, लेकिन ‘एम’ जैसा शिष्य कभी नहीं हुआ जिसने अपने सदगुरु के बारे में इतना सही-सही लिखा हो। वे कहीं भी बीच में नहीं आते हैं। उन्होंने ज्यूं का त्यूं लिखा है--अपने और रामकृष्ण के संबंध में नहीं, बल्कि केवल रामकृष्ण के संबंध में। सदगुरु के सान्निध्य में उनका अस्तित्व ही नहीं रहता। मैं इस व्यक्ति से और उनकी पुस्तक से, और खुद को मिटा देने के उनके अथक प्रयास से प्रेम करता हूं। ‘एम’ जैसा शिष्य मिलना दुर्लभ है। रामकृष्ण इस मामले में जीसस से कहीं अधिक भाग्यशाली थे। मुझे उनका असली नाम मालूम है, क्योंकि मैंने बंगाल में यात्रा की है। रामकृष्ण पिछली सदी के अंत तक जीवित थे, इसलिए मैं जान सका कि उनका नाम ‘महेंद्रनाथ’ है।
सातवीं: अभी इसी सदी की शुरुआत में एक भारतीय रहस्यदर्शी थे। मुझे नहीं लगता कि वे संबुद्ध थे, क्योंकि उन्होंने तीन गलतियां कीं; वरना उनका साहित्य सुंदर है, शुद्ध काव्य है... लेकिन वे तीन गलतियां खयाल में रखनी चाहिए। रामतीर्थ जैसे व्यक्ति भी इतनी ओछी गलतियां कर सकते हैं।
रामतीर्थ अमरीका में थे। वे एक प्रतिभावान व्यक्ति थे और वहां उन्हें बहुत सम्मान मिला। जब वे भारत वापस आए तो उन्होंने सोचा कि सबसे पहले वाराणसी जाना चाहिए, जो हिंदू धर्म का गढ़ है, हिंदुओं का जेरुसलम--उनका मक्का है। उन्होंने सोचा कि अगर अमरीका के लोगों ने उनका इतना सम्मान किया है, तो वाराणसी के ब्राह्मण तो उनकी पूजा देवता की तरह करेंगे। वे गलत थे। जब वे वाराणसी में बोले तो एक ब्राह्मण बीच में उठ खड़ा हुआ और उसने कहा: ‘‘इससे पहले कि आप आगे बोलें, कृपया मेरे प्रश्न का उत्तर दें। आपको संस्कृत आती है?’’
रामतीर्थ ब्रह्मज्ञान के संबंध में बोल रहे थे, और यह ब्राह्मण उनसे पूछता है कि ‘‘आपको संस्कृत आती है? अगर नहीं आती है तो आपको ब्रह्मज्ञान के संबंध में बोलने का कोई अधिकार नहीं है। जाओ और पहले संस्कृत पढ़ो।’’
इसमें ब्राह्मण की कोई गलती नहीं है; सारी दुनिया में ब्राह्मण ऐसे ही होते हैं। मुझे आश्चर्य तो इस बात से होता है कि रामतीर्थ ने संस्कृत पढ़ना प्रारंभ कर दिया। इससे मुझे चोट लगी। उन्हें ब्राह्मण से कह देना चाहिए था, ‘‘चले जाओ, और अपने सारे वेदों और अपनी संस्कृत को भी साथ में ले जाओ! मुझे इनकी कोई परवाह नहीं है। मुझे सत्य का पता है, संस्कृत जानने के लिए मैं क्यों परेशान होऊं?’’
यह सच है कि रामतीर्थ संस्कृत नहीं जानते थे, और इसकी कोई जरूरत भी नहीं है--लेकिन उन्हें जरूरत महसूस हुई। तो यह तो पहली बात है जिसे खयाल में रखा जाए। उनकी पुस्तकें बहुत काव्यात्मक, उत्साहवर्धक और आनंदपूर्ण हैं, लेकिन कहीं न कहीं इस व्यक्ति से चूक हो रही है।
दूसरी बात: जब उनकी पत्नी सुदूर पंजाब से उनसे मिलने आई, तो उन्होंने मिलने से इनकार कर दिया। उन्होंने कभी किसी स्त्री को इनकार नहीं किया था, तो उन्होंने अपनी ही पत्नी से मिलने से क्यों इनकार कर दिया? क्योंकि वे भयभीत थे। वे अभी भी आसक्त थे। मुझे उनके लिए खेद है: पत्नी को छोड़ कर चले गए थे, फिर भी भयभीत थे।
तीसरी बात: उन्होंने आत्महत्या कर ली--हालांकि हिंदू ऐसा नहीं कहते, वे इसे ‘‘गंगा में स्वयं को विलीन कर देना’’ कहते हैं। कुरूप बातों को भी तुम सुंदर नाम दे सकते हो।
इन तीन बातों को छोड़ दिया जाए तो रामतीर्थ की पुस्तकें मूल्यवान हैं, लेकिन अगर तुम इन तीन बातों को भूल जाओ तो तुम समझोगे जैसे कि वे एक संबुद्ध व्यक्ति थे। वे इस तरह बोलते थे जैसे कि वे एक संबुद्ध हों, लेकिन यह बस ‘जैसे कि’ ही है।
आठवीं: जी. ई. मूर की ‘प्रिंसिपिया ईथिका।’ यह पुस्तक मुझे प्रिय है। तर्कशास्त्र का यह एक बहुत अच्छा अभ्यास है। उसने दो सौ से भी अधिक पेज केवल एक ही प्रश्न पर खर्च कर दिए कि ‘शुभ क्या है?’--और फिर वह इस निष्कर्ष पर आता है कि ‘शुभ’ अपरिभाष्य है। अदभुत! लेकिन उसने अपना काम पूरा किया, और वह किसी निष्कर्ष पर ऐसे ही नहीं पहुंच गया है जैसे कि संत अक्सर पहुंच जाते हैं। वह एक दर्शनशास्त्री था। वह धीरे-धीरे, एक-एक कदम आगे बढ़ता गया, लेकिन उसी निष्कर्ष पर पहुंचा जहां संत पहुंचते हैं।
‘शुभ’ अपरिभाष्य है, वैसे ही जैसे सौंदर्य, जैसे परमात्मा अपरिभाष्य है। असल में, जो कुछ भी मूल्यवान है वह अपरिभाष्य है। इसे ध्यान में रखें: यदि किसी भी चीज की परिभाषा की जा सकती हो तो वह मूल्यहीन है। जब तक कि तुम अपरिभाष्य पर नहीं पहुंच जाते, तब तक तुम किसी भी सार्थक चीज पर नहीं पहुंचते हो।
नौवीं... मैंने ‘रहीम के दोहे’ अपनी सूची से बाहर रखे थे, लेकिन अब नहीं रख सकता। वे मुसलमान थे, लेकिन उन्होंने दोहे हिंदी में लिखे हैं, इसलिए मुसलमान उन्हें पसंद नहीं करते, वे उनकी ओर कोई ध्यान ही नहीं देते। हिंदू उन्हें पसंद नहीं करते, क्योंकि वे मुसलमान थे। शायद मैं ही वह अकेला आदमी हूं जो उनका सम्मान करता है। उनका पूरा नाम है, रहीम खानखाना। उनके दोहों में वही ऊंचाई और वही गहराई है जो कि कबीर, मीरा, सहजो या चैतन्य में है। फिर उन्होंने हिंदी में क्यों लिखा? वे मुसलमान थे तो वे उर्दू में लिख सकते थे, और उर्दू हिंदी से कहीं ज्यादा सुंदर भाषा है। लेकिन उन्होंने जान कर उसे चुना; क्योंकि वे मुस्लिम कट्टरता से संघर्ष करना चाहते थे।
दसवीं: मिर्जा गालिब, उर्दू के महानतम कवि--और न केवल महानतम उर्दू कवि, बल्कि दुनिया की किसी भी भाषा में शायद ही उनके जैसा कोई कवि होगा जिससे उनकी तुलना की जा सकती हो। उनकी पुस्तक का नाम है: ‘दीवान।’ ‘दीवान’ का सीधा सा अर्थ है कविताओं का संग्रह। उन्हें पढ़ना कठिन है, लेकिन अगर तुम थोड़ा प्रयास कर सको तो बहुत कुछ पाओगे। ऐसा लगता है जैसे कि हर पंक्ति में पूरी पुस्तक समाई हुई है। और यही उर्दू की सुंदरता है। मैं कहता हूं कि दूसरी कोई भी भाषा इतने कम शब्दों में इतना अधिक अभिव्यक्त नहीं कर सकती है। केवल दो वाक्य ही पूरी पुस्तक को अपने भीतर समेट लेने के लिए पर्याप्त हैं। यह जादूई है। मिर्जा गालिब उस भाषा के जादूगर हैं।
ग्याहरवीं और अंतिम: एलन वाट्स की ‘दि बुक।’ मैंने इसे बचा कर रखा था। एलन वाट्स कोई संबुद्ध नहीं था, लेकिन वह एक दिन संबुद्ध हो सकता है। वह काफी करीब पहुंच गया है। ‘दि बुक’ अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यह उसकी बाइबिल है; यह उसे झेन सदगुरुओं, झेन ग्रंथों से मिले अनुभव का सार-तत्व है। और वह एक अत्यंत बुद्धिमान आदमी है; वह एक शराबी भी था। उसकी बुद्धिमत्ता और शराब दोनों ने साथ मिल कर वास्तव में एक रस से भरी हुई पुस्तक की रचना की। मैंने ‘दि बुक’ को प्रेम किया है और इसे अंत के लिए रख छोड़ा था।
जीसस का वचन तुम्हें याद है: ‘धन्य हैं वे जो अंतिम होने को राजी हैं?’ हां, यह पुस्तक धन्य है। मैं इसे आशीष देता हूं, और सत्रों की इस श्रृंखला को मैं एलन वाट्स की स्मृति में समर्पित करता हूं।
समाप्त
THANK YOU GURUJI
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