कुल पेज दृश्य

रविवार, 8 दिसंबर 2019

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-15)

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र-पंद्रहवां

ओ. के.। आज की इस पोस्टस्क्रिप्ट में जिस पहली पुस्तक के बारे में मैं चर्चा करने जा रहा हूं, उसके बारे में किसी ने सोचा भी नहीं होगाकि मैं उसकी चर्चा करूंगा। वह है महात्मा गांधी की आत्मकथा: ‘माइ एक्सपेरिमेंट्‌स विद ट्रूथ’--सत्य के साथ मेरे प्रयोग।’ सत्य के उनके प्रयोगों के बारे में चर्चा करना सच में अदभुत है। यह सही समय है।
आशु, तुम अपना काम जारी रखो; वरना मैं महात्मा गांधी की निंदा करना शुरू कर दूंगा। काम जारी रखो ताकि मैं इस बेचारे के प्रति नरम रह सकूं। अब तक तो मैं कभी भी नरम नहीं रहा। महात्मा गांधी के प्रति थोड़ा नरम रहने में शायद तुम मेरी मदद कर सको। हालांकि मुझे पता है कि यह लगभग असंभव है।

लेकिन मैं निश्चित रूप से कुछ सुंदर बातें कह सकता हूं। एक: किसी ने भी अपनी आत्मकथा इतनी प्रामाणिकता के साथ, इतनी ईमानदारी के साथ नहीं लिखी है। यह अब तक कि लिखी गई सबसे अधिक प्रामाणिक आत्मकथाओं में से एक है।


आत्मकथा एक बहुत ही अजीब मामला है: तुम खुद के ही बारे में लिख रहे हो। या तो तुम डींग हांकने लगते हो या बहुत ही विनम्रता दिखाते हो--जो डींग हांकने का ही दूसरा रूप है। इसकी चर्चा मैं अपनी दूसरी पुस्तक में करूंगा। लेकिन महात्मा गांधी इन दोनोंमें से नहीं हैं; वे सरल हैं, केवल तथ्यगत बोलते हैं, बिलकुल एक वैज्ञानिक की तरह... थोड़ा भी यह सोचे बिना कि यह अपनी ही आत्मकथा है। वे वह सब-कुछ कह देते हैं जिसे कोई भी दूसरों से छिपाना चाहेगा। लेकिन शीर्षक बिलकुल ही गलत है। सत्य के साथ प्रयोग नहीं किए जा सकते। सत्य या तो जाना जा सकता है या नहीं जाना जा सकता है, लेकिन सत्य के साथ प्रयोग नहीं किए जा सकते हैं।
यह शब्द ‘प्रयोग’ ऑब्जेक्टिव साइंस, वस्तुगत विज्ञान की दुनिया के अंतर्गत आता है। कोई भी सब्जेक्टिविटी, स्व-सत्ता के साथ प्रयोग नहीं कर सकता, और यही सच है। ध्यान रहे:
‘‘सब्जेक्टिविटी, स्व-सत्ता को प्रयोग एवं निरीक्षण के लिए वस्तु के तल पर नीचे नहीं लाया जा सकता है।’
सब्जेक्टिविटी, स्व-सत्ता अस्तित्व में सबसे रहस्यमय घटना है, और इसका रहस्य यह है कि यह सदा पीछे हटता चला जाता है। जिसका भी तुम निरीक्षण कर सकते हो, वह ‘वह’ नहीं है...वह स्व-सत्ता नहीं है। स्व-सत्ता सदा द्रष्टा है और द्रश्य कभी नहीं। सत्य के साथ तुम प्रयोग नहीं कर सकते हो, क्योंकि प्रयोग केवल चीजों के, वस्तुओं के साथ संभव है--न कि चेतना के साथ।
महात्मा गांधी सच में ही एक अच्छे आदमी थे, लेकिन वे ध्यानी नहीं थे। और अगर कोई ध्यानी नहीं है, तो चाहे वह कितना ही अच्छा क्यों न हो, सब बेकार है। उन्होंने अपने जीवन भर प्रयोग किए और कुछ भी उपलब्ध नहीं हुआ। उतने ही अज्ञान में उनकी मृत्यु हुई जितने कि वे पहले थे। यह दुर्भाग्यपूर्ण है, क्योंकि इतना प्रामाणिक, सच्चा और ईमानदार आदमी, और जिसे सत्य को जानने की प्रबल इच्छा हो, मिलना बहुत मुश्किल है। लेकिन वही इच्छा बाधा बन जाती है।
सत्य मुझ जैसे लोगों के द्वारा जाना जाता है, जो उसकी फिकर ही नहीं करते, जो सत्य की ओर ध्यान ही नहीं देते। यहां तक कि अगर परमात्मा भी मेरे दरवाजे पर दस्तक दे, तो भी मैं दरवाजा खोलने वाला नहीं हूं। दरवाजा खोलने के लिए परमात्मा को अपना ही उपाय खोजना होगा। सत्य इस तरह के आलसी लोगों के पास आता है; इसलिए मैं अपने आप को संबोधि के लिए आलसी लोगों का मार्गदर्शक कहता हूं। अब इसके साथ मैं एक चीज और जोड़ सकता हूं जिससे यह पूरा हो जाए: मैं संबोधि के लिए आलसी आदमी का मार्गदर्शक तो हूं ही, गैर-संबोधि वालों के लिए भी हूं! इसको कहते हैं संबोधि के पार।
इस आदमी पर मुझे दया आती है, हालांकि मैंने उनकी राजनैतिक सोच, सामाजिक विचारधारा, और समय के चक्र को पीछे की ओर मोड़ने के मूढ़तापूर्ण विचारों की हमेशा आलोचना की है--तुम इसे चरखा-युग कह सकते हो। वे चाहते थे कि आदमी फिर से आदिम युग में लौट जाए। वे सारी टेक्नालॉजी के विरोध में थे, यहां तक कि बेचारी रेलगाड़ी के भी विरोध में थे--टेलीग्राफ, डाक-व्यवस्था। विज्ञान के बिना तो आदमी बंदर हो जाएगा। माना कि बंदर बहुत ताकतवर हो सकता है...लेकिन बंदर तो बंदर है। आदमी को और आगे जाना है।
मुझे इस पुस्तक के शीर्षक पर भी आपत्ति है, क्योंकि यह केवल एक शीर्षक ही नहीं है, यह उनके पूरे जीवन का सार-संक्षेप है। वे ऐसा सोचते थे क्योंकि उनकी शिक्षा इंग्लैंड में हुई थी, वे एक आदर्श भारतीय अंग्रेज थे--पूरी तरह से विक्टोरियन। यही लोग नरक में जाते हैं, विक्टोरियन! वे पूरी तरह शिष्टाचार से भरे हुए थे, सदव्यवहार से भरे हुए थे, पूरी तरह से सब प्रकार की अंग्रेज मूढ़ताओं से भी भरे हुए थे। अब चेतना को चोट लगती होगी। चेतना, मुझे क्षमा करना। यह सिर्फ संयोग है कि तुम यहां हो, और तुम तो मुझे जानती ही हो--मुझे हमेशा किसी न किसी तरह लोगों पर चोट करने का रास्ता मिल ही जाता है।
लेकिन चेतना भाग्यशाली है: वह कोई अंग्रेज महिला नहीं है, वह ओशो दीवानी है! और वह एक गरीब अंग्रेज परिवार से आती है, यह बहुत अच्छा है। उसके पिता एक मछुआरे थे, सरल आदमी। चेतना अभिमानी नहीं है; वरना अंग्रेज महिलाएं, भद्रपुरुषों से भी अधिक, हमेशा अपनी नाक ऊंची रखती हैं, मानो वे हमेशा सितारे देख रही हों। उनसे वास्तव में बदबू आती है, अभिमान की बदबू!
महात्मा गांधी ने इंग्लैंड में शिक्षा प्राप्त की थी; शायद इसी कारण वे इतने उलझ गए। अगर वे अशिक्षित रहते, तो शायद यह अच्छा होता, तब उन्होंने ‘सत्य के साथ प्रयोग’ न किए होते, उन्होंने सत्य का अनुभव किया होता।
सत्य के साथ प्रयोग? असंगत! हास्यास्पद! यदि किसी को सत्य जानना है, तो उसे उसका अनुभव करना पड़ता है।

दूसरी: संत अगस्तीन की ‘कनफेशंस।’ अगस्तीन पहला आदमी है जिसने अपनी आत्मकथा बिना किसी भय के लिखी है, लेकिन वह दूसरी अति पर चला गया है। इसीलिए मैंने गांधी की प्रशंसा की। अगस्तीन ने अपनी पुस्तक ‘कनफेशंस’ में अपने पापों को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर स्वीकार किया है--उन पापों को भी जो उसने किए ही नहीं!--सिर्फ स्वीकार के आनंद के लिए। गजब का आनंद! सिर्फ दुनिया को यह कहने के आनंद के लिए कि ‘‘ऐसा एक भी पाप नहीं है जो मैंने न किया हो। आदमी जो भी पाप कर सकता है वे सभी मैंने किए हैं।’’
 यह सच नहीं है। कोई भी आदमी सभी पाप नहीं कर सकता। कोई आदमी सभी पाप करने में समर्थ नहीं है, यहां तक कि स्वयं ईश्वर भी नहीं। ईश्वर का तो कहना ही क्या, शैतान भी सोचेगा कि अगस्तीन जिन पापों को स्वीकार कर रहा है उनका मजा कैसे लिया जाए! अगस्तीन ने अतिशयोक्ति की है!
अतिशयोक्ति संतों की आम बीमारियों में से एक है। वे हरेक बात को बढ़ा-चढ़ा कर कहते हैं, यहां तक कि अपने पापों को भी; तब, स्वभावतः, वे अपने पुण्यों को भी बढ़ा-चढ़ा कर बता सकते हैं। यह कहानी का दूसरा पहलू है। जब तुम अपने पापों को बड़ा-चढ़ा कर कहते हो, तो निश्चित ही इस पृष्ठभूमि में तुम्हारे छोटे से पुण्य भी बहुत बड़े, बहुत चमकते हुए मालूम पड़ते हैं--काले बादलों में बिजली की चमक की तरह। वे काले बादल बिजली दिखाने में बहुत मददगार होते हैं। पापों के बिना तुम एक संत नहीं हो सकते हो। जितने बड़े पाप, उतना ही बड़ा संत--सीधा गणित है!
लेकिन फिर भी मैं इस पुस्तक को शामिल कर रहा हूं, क्योंकि यह बहुत सुंदरतापूर्वक लिखी गई है। मैं एक ऐसा आदमी हूं, कृपया नोट करो, यह बात रिकॉर्ड में रहे: कि यदि तुम सुंदरतापूर्वक झूठ भी बोलोगे तो मैं उसके सौंदर्य के लिए उसकी प्रशंसा करूंगा। उसके झूठ के लिए नहीं--कौन फिकर करता है कि वह झूठ है या नहीं! उसकी सुंदरता उसे तारीफ के लायक बनाती है, प्रशंसा के लायक बनाती है।
‘कनफेशंस’ झूठ की एक श्रेष्ठतम कृति है। यह झूठ से भरी हुई है। लेकिन इस आदमी ने अपना काम लगभग अच्छी तरह से किया है। लगभग कह रहा हूं, क्योंकि यह संभावना हमेशा होती है कि कोई भी इस कार्य को और अच्छे ढंग से कर सकता है। लेकिन उसने यह काम लगभग निन्यानबे प्रतिशत अच्छी तरह से किया है; किसी और के लिए ज्यादा गुंजाइश नहीं छोड़ी है। हां, उसके बाद कई लोगों ने कोशिश की, यहां तक कि लियो टालस्टाय जैसे महान आदमी ने भी। मैं टालस्टाय की पुस्तक ‘रिसरेक्शन’ और ‘वॉर एंड पीस’ पर चर्चा कर चुका हूं। टालस्टाय अपने पूरे जीवन भर अपने ही कनफेशंस, अपने ही पापों को लिखने की कोशिश करता रहा; लेकिन उसमें वह सफल नहीं हुआ। टालस्टाय जैसा आदमी भी अगस्तीन को पराजित नहीं कर पाता है। लेकिन, टाल्सटाय, बहको मत; मैं तुम्हें अपनी प्रिय पुस्तकों की सूची में शामिल करने जा रहा हूं।

तीसरी: लियो टाल्सटाय की ‘अन्ना कैरेनिना,’ एक छोटा परंतु बहुत ही सुंदर उपन्यास। तुम्हें आश्चर्य होगा कि अपनी मनपसंद पुस्तकों की सूची में मैं किसी उपन्यास को क्यों शामिल कर रहा हूं। बस इसलिए कि मैं एक दीवानगी से भरा हुआ आदमी हूं। मुझे हर तरह की चीजें पसंद हैं। ‘अन्ना कैरेनिना’ मेरी सबसे प्रिय पुस्तकों में एक है। मुझे याद नहीं है कि कितनी बार मैंने इसे पढ़ा होगा। मेरा मतलब है कितनी बार--मुझे यह पुस्तक पूरी तरह याद है, मैं इसे पूरी सुना सकता हूं।
यह देखो! आशु ने एक लंबी श्वास ली है। वह चिंतित हो गई कि अब यह पागल आदमी पूरी ‘अन्ना कैरेनिना’ सुनाने जा रहा है! नहीं आशु, चिंता मत करो, मैं सुनाने नहीं जा रहा। मुझे और भी कई काम हैं। शायद फिर कभी सुना दूं, पर अभी नहीं।
अगर मैं समुद्र में डूब रहा होऊं और संसार के लाखों उपन्यासों में से एक उपन्यास चुनना पड़े, तो मैं ‘अन्ना कैरेनिना’ को चुन लूंगा। इस सुंदर उपन्यास के साथ रहना बहुत आनंददायक होगा। इसको बार-बार पढ़ना चाहिए, केवल तभी इसका अहसास होगा, इसकी सुगंध मिलेगी, इसका स्वाद मिलेगा। यह कोई सामान्य पुस्तक नहीं है।
लियो टाल्सटाय एक संत के रूप में असफल रहा, जिस प्रकार महात्मा गांधी एक संत के रूप में असफल रहे। लेकिन लियो टाल्सटाय एक महान उपन्यासकार था। महात्मा गांधी ईमानदारी के एक शिखर के रूप में सफल रहे--और सदा रहेंगे! इस सदी में मैं किसी और आदमी को नहीं जानता जो इतना ईमानदार रहा हो। जब वे लोगों को पत्र लिखते थे: ‘सिंसयरली योर्स’--‘आपका अपना,’ तब वे सच में ईमानदार थे। जब तुम ‘सिंसयरली योर्स’ लिखते हो, तब तुम जानते हो, और हर कोई जानता है, और जिस व्यक्ति को तुम लिख रहे हो वह भी जानता है कि यह सब बकवास है। यह बहुत मुश्किल है, लगभग असंभव है: सचमुच में ‘आपका अपना’ होना। यही वह चीज है जो व्यक्ति को धार्मिक बनाती है--ईमानदारी।
लियो टाल्सटाय धार्मिक होना चाहता था, लेकिन हो नहीं सका। उसने पूरी तरह से कोशिश की। मुझे उसके प्रयासों से बड़ी सहानुभूति है, लेकिन वह धार्मिक व्यक्ति नहीं था। उसे कम से कम कुछ और जन्मों तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। एक तरह से यह अच्छा है कि वह मुक्तानंद जैसा धार्मिक आदमी नहीं था; नहीं तो हम ‘रिसरेक्शन’, ‘वॉर एंड पीस’, ‘अन्ना कैरेनिना,’ और दर्जनों बहुत सी सुंदर, अत्यंत सुंदर पुस्तकों से वंचित रह जाते। फिर वह एक और दूसरा स्वामी मूर्खानंद होता, और कुछ नहीं।

चौथी: अजित सरस्व...अजित मुखर्जी। उसने तंत्र के लिए महान कार्य किया है। मैं उसकी दो पुस्तकों को शामिल करने जा रहा हूं।
चौथी है: अजित मुखर्जी की ‘दि आर्ट ऑफ तंत्रा,’ और पांचवीं है: उसकी दूसरी पुस्तक ‘दि पेंटिंग्स ऑफ तंत्रा--या शायद ‘दि तंत्रा पेंटिंग्स।’ यह आदमी अभी जीवित है, और इन दो पुस्तकों के कारण मैंने उसे हमेशा प्रेम किया है, क्योंकि ये दोनों मास्टरपीस हैं, अति उत्तम रचनाएं हैं--वह पेंटिंग्स, वह कला, और उन पेंटिंग्स पर की गई उसकी व्याख्याएं। उनका जो इंट्रोडक्शन, उनका जो परिचय उसने लिखा है वह बहुत ही मूल्यवान है।
लेकिन यह आदमी बेचारा खुद एक बंगाली मालूम होता है। अभी कुछ दिन पहले ही वह दिल्ली में लक्ष्मी से मिला था। वह उससे मिलने आया था और उसने स्वीकार किया कि वह मुझको अपना पूरा तंत्र-संग्रह दे देना चाहता था। उसके पास तंत्रा पेंटिंग्स और तंत्र कला का सबसे मूल्यवान और सबसे कीमती संग्रहों में से एक रहा होगा। उसने लक्ष्मी से कहा: ‘‘मैं इसे ओशो को देना चाहता था, क्योंकि वे ही एक व्यक्ति हैं जो इसे समझने में समर्थ हैं और इसका अर्थ समझते हैं। लेकिन मैं बहुत भयभीत था।’’ उसने कहा: ‘‘ओशो से किसी भी तरह का संपर्क मेरे लिए मुसीबत खड़ा कर सकता था, इसलिए अंततः मैंने अपने जीवन भर का पूरा संग्रह भारत सरकार को भेंट कर दिया।’’
मुझे ये दोनों पुस्तकें प्रिय रही हैं--लेकिन इस आदमी के बारे में क्या कहा जाए--अजित मुखर्जी या अजित माउस (चूहा)? इतना भय!--और इतने भय के साथ क्या तंत्र को समझना संभव है? असंभव! उसने जो लिखा है वह सिर्फ बौद्धिक है। वह हृदय का नहीं है, और हो नहीं सकता है, हृदय का हो नहीं सकता है। उसके पास कोई हृदय नहीं है। जहां तक शरीर विज्ञान का संबंध है मैं जानता हूं कि चूहे के पास भी हृदय होता है--लेकिन यह हृदय नहीं है, यह केवल फुफ्फुस है। अकेला आदमी ही ऐसा है जिसके पास फुफ्फुस से अधिक कुछ है...एक हृदय; और हृदय केवल साहस, प्रेम और दुस्साहस के माहौल में ही विकसित होता है। कितना बेचारा है यह आदमी! फिर भी मैं उसकी पुस्तकों की प्रशंसा करता हूं। चूहे ने एक जबरदस्त काम किया है। ये दोनों पुस्तकें हमेशा तंत्र के लिए और सत्य के खोजियों के लिए अत्यंत महत्व की बनी रहेंगी। लेकिन अजित माउस को भूल जाओ और माफ कर दो--मेरा मतलब है अजित मुखर्जी को।
कृपया याद रखना कि मैं तुम्हारे खिलाफ नहीं हूं, अजित मुखर्जी, और न ही किसी और के। इस दुनिया में मैं किसी का भी शत्रु नहीं हूं, हालांकि लाखों लोग हैं जो मुझे अपने शत्रु की तरह देखते हैं। यह उनका अपना मामला है; मुझे उससे कुछ भी लेना-देना नहीं है। अजित मुखर्जी, मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, क्योंकि तुमने तंत्र का कार्य अच्छी तरह से किया है। तंत्र को अनेक विद्वानों, दार्शनिकों, चित्रकारों, लेखकों, कवियों की जरूरत है, ताकि प्राचीन ज्ञान दुबारा से जीवित हो सके, और इसमें तुमने एक छोटी सी मदद की है।

छठवीं--यह वह पुस्तक है जिसके बारे में मैं हमेशा से चर्चा करना चाहता था; इसे मेरे सुबह के अंग्रेजी प्रवचन के लिए चुना भी गया था। मैं पहले ही इस पर हिंदी में बोल चुका हूं और इसका भी अनुवाद किया जा सकता है। पुस्तक शंकराचार्य द्वारा लिखी गई है--इस समय वाला मूढ़ नहीं, बल्कि आदि शंकराचार्य, जो असली हैं।
पुस्तक एक हजार साल पुरानी है, इसमें सिवाय एक छोटे से गीत के और कुछ भी नही है: ‘‘भजगोविन्दम्‌ मूढ़मते--हे मूढ़...’’ अब, देवगीत, ध्यान से सुनो: मैं तुमको नहीं कह रहा हूं, यह पुस्तक का शीर्षक है। ‘‘भजगोविन्दम्‌’’--गोविंद को भजो--‘‘मूढ़मते,’’ हे मूढ़। हे मूढ़, गोविंद को भजो।
लेकिन मूढ़ नहीं सुनते हैं। वे कभी किसी की नहीं सुनते हैं, वे बहरे हैं। और अगर वे सुन भी लें, तो उनकी समझ में नहीं आता। वे जड़बुद्धि हैं। और अगर वे समझ भी लें, तो वे अनुसरण नहीं करते; और जब तक तुम अनुसरण नहीं करते, तब तक समझ अर्थहीन है। समझना केवल तभी समझना कहा जाएगा जब तक कि वह तुम्हारे अनुसरण से सिद्ध न हो जाए।
शंकराचार्य ने अनेक पुस्तकें लिखी हैं, लेकिन उनमें से कोई भी इस गीत जितनी सुंदर नहीं हैं: ‘‘भजगोविन्दम्‌ मूढ़मते।’’ इन तीन या चार शब्दों पर मैं बहुत बोल चुका हूं, लगभग तीन सौ पेज। किंतु तुम्हें पता है कि मुझे गीत गाना कितना पसंद है; अगर मुझे मौका मिले तो मैं निरंतर गाता ही रहूं। लेकिन मैं यहां किसी भी तरह इस पुस्तक का उल्लेख करना चाहता था।

सातवीं: लुडविग विटगिंस्टीन की एक और पुस्तक। यह भी मेरे प्रिय लेखकों में से एक है। पुस्तक का नाम है: फिलॉसफिकल पेपर्स। यह कोई पुस्तक नहीं है, लेकिन बल्कि अलग-अलग समय पर प्रकाशित लेखों का एक संग्रह है। प्रत्येक लेख सुंदर है। विटगिंस्टीन इसके सिवा कुछ और कर भी नहीं सकता था। उसमें वह क्षमता थी कि अतार्किक हुए बिना सुंदरता उत्पन्न कर सके, और गद्य के रूप में काव्य भी लिख सके। मुझे नहीं लगता कि उसने कभी खुद को एक कवि के रूप में सोचा भी होगा, लेकिन मैं उसे प्रथम श्रेणी का कवि घोषित करता हूं। वह उसी श्रेणी में है जिसमें कालिदास, शेक्सपियर, मिल्टन या गेटे हैं।

सातवीं: पॉल रेप्स की ‘झेन फ्लेश, झेन बोन्स।’ यह एक महान कृति है--हालांकि मौलिक नहीं, क्योंकि उसने इसका सृजन नहीं किया, लेकिन मौलिक न होते हुए भी यह अनुवाद से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। यह अपने आप में ही एक श्रेणी है। एक ओर से यह मौलिक है, दूसरे ओर से अनुवाद। यह पुरानी झेन-कथाओं और मूल लेखों का अनुवाद है। क्योंकि मैंने झेन के बारे में या झेन पर करीब-करीब सभी पुस्तकें देखी हैं--इसलिए मैं जानता हूं कि पॉल रेप्स की पुस्तक का जवाब नहीं। उसने एक झलक पा ली है। उसके पास वही सुगंध है जो बाशो या रिंझाई के पास है।
कैलिफोर्निया में कहीं पॉल रेप्स अभी भी जीवित है। उसने अपनी छोटी सी पुस्तक में न केवल झेन-कथाओं का संग्रह किया है, बल्कि विज्ञान-भैरव-तंत्र को भी सम्मिलित किया है--शिव के वे एक सौ बारह सूत्र, जिसमें शिव ने अपनी प्रियतमा पार्वती से सभी संभव कुंजियों की चर्चा की है। मैं कल्पना भी नहीं कर सकता कि ध्यान में विज्ञान-भैरव-तंत्र से अधिक कुछ जोड़ा जा सकता है। एक सौ बारह कुंजियां पर्याप्त हैं। वे पर्याप्त लगती हैं... एक सौ तेरह सही संख्या नहीं लगेगी, एक सौ बारह सचमुच गुह्य, सुंदर लगती है।
यह एक बहुत छोटी सी पुस्तक है, तुम इसे अपनी जेब में रख सकते हो; यह एक पॉकेटबुक है। लेकिन जेब में तुम कोहिनूर भी रख सकते हो... हालांकि कोहिनूर ब्रिटिश ताज में जड़ा है, और तुम उसे जेब में रख नहीं सकते। लेकिन पॉल रेप्स की सबसे सुंदर बात यह है कि उसने इसमें अपना एक शब्द भी नहीं जोड़ा है, जो आश्चर्यजनक है। उसने बस अनुवाद किया है, मात्र अनुवाद किया है--और न केवल अनुवाद किया है, बल्कि वह झेन के पुष्प को अंग्रेजी भाषा में ले आया है। झेन पर लिखने वाले किसी और अंग्रेज लेखक की रचनाओं में यह पुष्प नहीं मिलता है। यहां तक कि सुजुकी भी यह नहीं कर पाया, क्योंकि वह जापानी था। हालांकि वह संबुद्ध था, लेकिन अपनी संबोधि का स्वाद वह अपनी अंग्रेजी पुस्तकों में नहीं ला सका। सुजुकी की अंग्रेजी सुंदर है, लेकिन बुद्धत्व को नहीं दर्शाती, शायद ऊर्जामय लेकिन बिलकुल संबोधिरहित।
अमरीकन होते हुए भी पॉल रेप्स ने करीब-करीब एक असंभव काम किया है, और फिर भी, मैं फिर से दोहराता हूं, फिर भी उसने झेन का पूरा स्वाद पाया है। और केवल अपने लिए ही नहीं, बल्कि ‘झेन फ्लेश, झेन बोन्स’ में उसने पूरी दुनिया को झेन का स्वाद चखा दिया है। दुनिया को हमेशा के लिए उसके प्रति आभारी रहना चाहिए, हालांकि वह एक संबुद्ध व्यक्ति नहीं है। इसीलिए मैं कहता हूं कि उसने लगभग एक असंभव काम किया है।

नौवीं...मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं कि तुम थोड़ा ऊपर उठो, क्योंकि मैं परम शिखरों की कुछ ऊंचाइयों के बारे में बात करने जा रहा हूं। ठीक है...लेकिन रुको मत। ठीक है का मतलब यह नहीं है कि रुक जाओ, इसका केवल इतना ही अर्थ होता है कि चलते रहो, चलते रहो...चरैवेति, चरैवेति!
वैसे, जिस नौवीं पुस्तक का मैं उल्लेख करने जा रहा हूं वह है क्रिसमस हम्फ्रीस की ‘झेन बुद्धिज्म।’ प्रारंभ में वह चाहता था कि इसे ‘गो ऑन, गो ऑन’ कहा जाए--जो ‘चरैवेति, चरैवेति’ का अनुवाद है--या ‘चलते चलो, चलते चलो।’ फिर भी आखिरकार अंग्रेज तो अंग्रेज है; अंततः उसने यह विचार छोड़ दिया और पुस्तक का नाम रखा: ‘झेन बुद्धिज्म।’
पुस्तक सुंदर है, लेकिन शीर्षक कुरूप है, क्योंकि झेन का किसी ‘वाद’ से कोई लेना-देना नहीं है चाहे बुद्धिज्म हो या कोई और। ‘झेन बुद्धिज्म’ एक शीर्षक के रूप में सही नहीं है। बस ‘झेन’ पर्याप्त होता। हम्फ्रीस ने अपनी डायरी में लिखा है कि उसने ‘चरैवेति, चरैवेति’ शीर्षक अपनी पहली पसंद के रूप में चुना था, लेकिन फिर उसने सोचा कि यह बहुत लंबा है। ‘चलते चलो, चलते चलो...चलते रहो, चलते रहो।’ उसने शीर्षक बदल दिया और उसे थोड़ा कुरूप बना दिया: ‘झेन बुद्धिज्म।’ लेकिन पुस्तक सुंदर है। इसने पश्चिमी देशों के लाखों लोगों को झेन की दुनिया से परिचित करा दिया है। इसने महान कार्य किया है।
यह आदमी हम्फ्रीस, डी. टी. सुजुकी का एक शिष्य था, और विशेष रूप से पश्चिम में सदगुरु की जैसी सेवा उसने की है वैसी किसी और ने नहीं की है। वह अपने पूरे जीवन भर सुजुकी के प्रति समर्पित बना रहा।
गुड़िया कल मुझे बता रही थी कि उसने देवगीत से कहा था कि ‘‘अगर तुम मेरी तरह ओशो के साथ केवल एक महीना भी रह सको, तब तुम्हें पता चलेगा कि वह रहना क्या है--मुश्किल है।’’ मैं जानता हूं कि निश्चित ही यह मुश्किल है। एक संबुद्ध व्यक्ति के साथ रहना मुश्किल है--और उसके साथ रहना जो बुद्धत्व के पार चला गया हो और भी मुश्किल है।
लेकिन हम्फ्रीस वास्तव में एक शिष्य साबित हुआ; वह सुजुकी के जीवन की आखिरी श्वास तक सुजुकी के प्रति सच्चा और निष्ठावान और आज्ञाकारी बना रहा, और अपने खुद के लिए भी। एक क्षण के लिए भी वह डगमगाया नहीं। तुम उसकी पुस्तक में यह अटूट श्रद्धा पा सकते हो।

दसवीं...इस सत्र के लिए अंतिम। यह एक बहुत छोटी सी पुस्तक है, और संसार में बहुत थोड़े से लोगों को ही इसके बारे में पता है, लेकिन इसे पूरे जोर-शोर से बता देने की जरूरत है ताकि एक-एक आदमी तक बात पहुंच जाए। ‘दि सांग्स ऑफ चंडीदास’--‘चंडीदास के गीत’--एक बंगाली दीवाना, एक बाउल।
‘बाउल’ शब्द का अर्थ होता है: बावला, पागल। चंडीदास नाचते-गाते हुए एक गांव से दूसरे गांव घूमते रहते थे, और कोई नहीं जानता कि उनके गीतों का संग्रह किसने किया। वह कोई बहुत महान और उदार भावना वाला आदमी रहा होगा, इतना उदार कि उसने अपने नाम तक का भी उल्लेख नहीं किया है।
‘दि सांग्स ऑफ चंडीदास’...मैं बहुत विस्मयविमुग्ध हूं। चंडीदास का नाम लेते ही मेरा हृदय एक अलग ही लय में धड़कने लगता है। क्या गजब के आदमी थे, और कितने अदभुत कवि! हजारों कवि हो चुके हैं, लेकिन चंडीदास सोलोमन की श्रेणी के हैं, उससे कम नहीं। यदि सोलोमन की किसी से तुलना की जा सकती है, तो वह चंडीदास से।
चंडीदास के गीतों में अनूठी बातें हैं--परमात्मा के संबंध में, जो है ही नहीं। चंडीदास को भी यह पता है कि परमात्मा का अस्तित्व नहीं है, लेकिन वे परमात्मा के गीत गाते हैं इसलिए कि परमात्मा ही अस्तित्व का प्रतीक है। परमात्मा का अस्तित्व नहीं है; वह स्वयं अस्तित्व है।
चंडीदास ध्यान के भी गीत गाते हैं, हालांकि ध्यान के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता--लेकिन फिर भी वे कुछ कहते हैं, कुछ ऐसा जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। वे कहते हैं: ‘ध्यान अ-मन के बराबर है।’ कितना अदभुत सूत्र! अलबर्ट आइंस्टीन को भी चंडीदास से ईर्ष्या हो सकती है। अफसोस, आइंस्टीन को चंडीदास के बारे में कुछ भी पता नहीं था और न ही ध्यान का। इस युग के महानतम व्यक्तियों में एक, जो ध्यान के बारे में पूरी तरह से अनजान था। स्वयं को छोड़ कर वह सब-कुछ जानता था।
चंडीदास प्रेम के गीत गाते हैं--होश के, सौंदर्य के, प्रकृति के। और उनमें से कुछ गीत तो ऐसे हैं जिनका किसी से भी कोई संबंध नहीं है; मात्र आनंद, गीत गाने का आनंद--अर्थ का कोई महत्व ही नहीं है।

आज की यह मेरी दसवीं और अंतिम पुस्तक है। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें