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मंगलवार, 17 दिसंबर 2019

33-सांसों का एतबार (कविता)

सांसों का एतबार --(मेरी कविता)

कितनी सपनों को था देखा हमने,
  कितने तारे थे मेरे दामन में।।
    कितनी रुसवाईयां सही थी हमने,
      कितने बादों पर एतबार किया था।
        सांसों के कुछ हारों को गुथा हमने।
          रातों के तारों के छुपने से पहले,
            कितने आंसुओं की पिरोती थी माला!
              कितनी सिसकियाँ दबी घुटी सी,
             सिसक-सिसक कर कुछ कहना चाहा,
           सपनों को पलकों के जाने से पहले।
         कितनी सीने में दबी थी आहें।
      कोई तो जाकर उनसे कह दो।

एक मुकस्वर कोई दबा घुटा सा।
  दूर खड़ा अब सिसक रहा है।
     विरानी इन अंधी गलियों में
     कोई तड़पता खड़ा  इधर है।
     उनके आने का इन्‍तजार बहुत है।
     अपनी सांसों का एतबार कहां है।
--स्‍वामी आनंद प्रसाद मनसा

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