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रविवार, 15 दिसंबर 2019

ऋतु आये फल होय-(प्रवचन-03)

शून्यता और भिसु की नाक--(प्रवचन-तीसरा)
 ऋतु आये फल होय--The Gras grow by Itself--ओशो

 (ज़ेन पर ओशो द्वारा दिनांक 23 फरवरी 1975 में अंग्रेजी में दिये गये अमृत प्रवचनों का हिन्दी में अनुवाद)
सूत्र:
सीको ने अपने एक भिक्षु से कहा:
क्या तुम शून्यता को झपटकर पकड़ सकते हो?
भिक्षु ने कहा: मैं प्रयास करूंगा,
और उसने अपनी हथेलियों को प्यालानुमा बनाकर हवा में
उसे मुट्ठियों में पकड़ने का प्रयास किया।
सीको ने कहा: ऐसा करना ठीक नहीं है,
तुमने वहां कोई भी चीज नहीं पाई।
भिक्षु ने कहा : आप ही ठीक हैं, प्यारे सदगुरु, पर कृपया हमें इससे
बेहतर उपाय करके बतालाइए।
तब सीको ने भिक्षु की नाक पकड़कर
उसे तेजी से झटका देकर अपनी ओर खींचा।
'आउच' की ध्वनि के साथ भिक्षु चीखते हुए बोला--आपने मुझ पर
चोट की?
सीको ने कहा: शून्यता को पकड़ने का यही एक रास्ता है।


मनुष्य स्वयं अपने आप से ही इतना अधिक भरा हुआ है
और इसके लिए वह कुछ भी नहीं करता है।
मनुष्य को एक पोले बाँस की तरह होना चाहिए
जिससे अस्तित्व उसके द्वारा होकर गुजर सके।
मनुष्य को एक बहुत से छेदों वाले मुलायम स्पंज की भांति होना चाहिए
जिससे उसके अस्तित्व के सारे खिड़की और दरवाजे खुले रहें,
और अस्तित्व एक सिरे से उसमें प्रवेश कर दूसरे छोर से,
बिना किसी अवरोध के गुजर सके,
और वास्तव में अन्दर खोजने पर भी कोई न मिले।
हवाएं चलती हैं--वे एक खिड़की से अन्दर आती हैं
और उसके अस्तित्व की दूसरी खिड़की से बाहर निकल जाती हैं।
उन्हें अन्दर कोई भी नहीं मिलता
यह शून्यता ही सर्वोच्च परमानंद है।

लेकिन तुम तो बिना छेदों की एक कठोर और ठोस चट्टान हो,
अथवा कठोर स्टील रॉड की भांति हो, जिसके द्वारा कुछ भी नहीं गुज सकता।
तुम प्रत्येक चीज के आने में अवरोध बनते हो,
तुम उसे अन्दर आने की अनुमति ही नहीं देते।
तुम चारों ओर सभी दिशाओं से संघर्ष ही किए चले जाते हो,
जैसे मानो तुम अस्तित्व के साथ एक महान युद्ध लड़ रहे हो।
वहां युद्ध जैसा कुछ भी नहीं हो रहा है, तुम पूरी तरह से अपने को ही
बेवकूफ बना रहे हो।
वहां तुम्हें मिटाने के लिए कोई भी तो नहीं है,
पूर्ण अस्तित्व तुम्हारी सहायता कर रहा है
यह पूरी पृथ्वी, जिस पर तुम खड़े हुए हो,
यह पूरा आकाश, जिसमें तुम श्वांस लेते हो, जीवित रहते हो,
तुम्हें सहारा दे रहा है।
वास्तव में तुम नहीं हो, केवल अखण्ड ही है।
जब कोई इसे समझता है,
तो धीमे-धीमे वह अपने अन्दर की कठोरता छोड़ने लगता है,
फिर उसकी कोई जरूरत ही नहीं रह जाती।
वहां किसी से कोई शत्रुता है ही नहीं,
पूर्ण अस्तित्व तुम्हारे प्रति मित्रतापूर्ण है।
वह तुमसे प्रेम करता है, आशाएं करता है,
अन्यथा तुम यहां होते ही क्यों?
यह पूरा अस्तित्व ही तुम्हें आगे लाता है,
जैसे यह पृथ्वी एक वृक्ष को उत्पन्न कर ऊंचा उठाती है।
तुम्हारे ऊपर सभी आशीर्वादों की वर्षा करते हुए सभी सम्भव समारोहों में
पूरा अस्तित्व भाग लेना चाहता है।
इसीलिए जब तुम खिलते हो, 'वह पूर्ण' तुम्हारे द्वारा ही खिलेगा,
जब तुम गीत गाते हो, वह पूर्ण तुम्हारे द्वारा ही गाएगा,
जब तुम नृत्य करते हो, 'वह पूर्ण' तुम्हारे साथ ही नृत्य करेगा।
तुम उससे पृथक नहीं हो।
अलग होने की भावना भय उत्पन्न करती है,
और यह भय ही तुम्हें बिना छिद्र के कठोर बनाता है।
असुरक्षा का यह भाव कि जैसे मानो पूरा अस्तित्व ही तुम्हें नष्ट करने जा रहा
तुम्हारा यह खयाल, कि तुम यहां एक बाहरी व्यक्ति हो, एक अजनबी हो,
और तुम्हें इंच-इंच भूमि पर लड़ते हुए अपनी राह बनानी है,
तुम्हें अपनी मंजिल की ओर बढ़ते हुए स्टील रॉड की भांति सख्त बना देती
है।
फिर निश्चित रूप से तब बहुत सी चीजें तुम्हारे जीवन से पूरी तरह लुप्त हो
जाती हैं।
तुम दुखों में जीते हो, तुम व्यग्र होकर जीते हो।
तुम असह्य पीड़ा में जीते हो, लेकिन तुम्हारा इस तरह जीना,
तुम्हारी अपनी ही स्वेच्छा से है।

छिद्रयुक्त और बांस की पोंगरी बनकर बहते रही। संघर्ष करने की तो कोई
जरूरत है ही नहीं
वस्तुत: जरूरत है, उस पूर्ण के साथ एक होने की।

मनुष्य के सामने यहां दो तरह से व्यवहार करने के
विकल्प खुले हुए हैं:
एक है--एक योद्धा की भांति व्यवहार करना और दूसरा है--प्रेमी की तरह
व्यवहार करने का।
यह तुम्हारा अपना चुनाव है--तुम चुन सकते हो।
लेकिन स्मरण रहे.. .इसके कुछ निश्चित परिणाम, पीछा करते हुए आएंगे ही।
यदि तुम योद्धा का मार्ग चुनते हो,
और तुम अपने चारों ओर की प्रत्येक चीज से योद्धा बनकर,
संघर्ष करते हो, तो तुम हमेशा दुखी रहोगे।
इससे तुम अपने चारों ओर एक नर्क निर्मित करते हो।
संघर्ष करने के पूरे व्यवहार से, नर्क निर्मित हो जाता है।
अथवा तुम एक प्रेमी और सहभागी बन सकते हो,
तब यह पूर्ण अस्तित्व तुम्हारा ही घर है, तुम यहां अजनबी नहीं हो।
तुम अपने घर ही में हो। वहां कोई संघर्ष है ही नहीं।
तुम पूरी तरह नदी की धारा के साथ बहते हो।
तब तुम परमानंद में रहोगे
तब प्रत्येक क्षण अति सुन्दर और आनंददायक होगा,
एक खिलावट होगी उसमें।
तुम्हारे अतिरिक्त, नर्क कहीं और नहीं है,
और न तुम्हारे सिवा कहीं कोई स्वर्ग है।
यह तुम्हारे व्यवहार पर निर्भर करता है,
कि तुम इस पूरे अस्तित्व को किस दृष्टि से देखते हो।

धर्म एक प्रेमी का मार्ग है:
और विज्ञान एक योद्धा का मार्ग है।
विज्ञान, कामना का मार्ग है, जैसे मानो तुम्हें यहां जीतना है,
प्रकृति पर विजय प्राप्त करनी है, प्रकृति के रहस्यों को खोलना है,
जैसे मानो तुम यहां अस्तित्व पर अपनी कामनापूर्ति के लिए
दबाव डालकर उसे अपने अधिकार में लेना चाहते हो।
यह न केवल मूर्खता है, बल्कि यह व्यर्थ भी है।
मूर्खता इसलिए क्योंकि वह तुम्हारे चारों ओर एक नर्क निर्मित करेगी।
और व्यर्थ इसलिए क्योंकि अंत में तुम कम से कम जीवंत, और अधिक से
अधिक मृत बनते जाओगे,
और तुम आनंदित होने की सभी सम्भावनाएं खो दोगे।
और अंत में तुम्हें वापस लौटना ही होगा,
क्योंकि एक बार तुम कामना के पथ पर आगे तो बढ़ सकते हो,
लेकिन उसके द्वारा तुम्हें केवल निराशा और अवसाद ही मिलेगा
तुम अधिक से अधिक हारते जाओगे, तुम्हें अधिक से अधिक अपने शक्तिहीन
होने का अनुभव होगा,
और अपने चारों ओर तुम अधिक से अधिक शत्रुता का अनुभव करोगे।
तुम्हें प्रतिरोधों के कारण अनिच्छा से वापस लौटना ही होगा।
अंतिम रूप से कोई भी व्यक्ति संघर्षमय व्यवहार के कारण, चैन से नहीं रह
सकता,
क्योंकि संघर्षमय व्यवहार के साथ विश्राम मिलना सम्भव ही नहीं है।
तुम विश्राममय हो ही नहीं सकते।

धर्म का मार्ग, प्रेम का मार्ग है।
प्रारम्भ ही से तुम किसी से भी संघर्ष नहीं कर रहे हो।
पूर्ण अस्तित्व तुम्हारे लिए है, और तुम्हारा भी अस्तित्व पूर्ण के लिए है।
और वहां दोनों के मध्य एक आंतरिक लयबद्धता है।
यहां किसी भी दूसरे व्यक्ति को जीतना नहीं है। यह असम्भव है।
क्योंकि एक भाग, दूसरे भाग को कैसे जीत सकता है?
और एक भाग, कैसे अखण्ड को जीत सकता है?
यह सभी व्यर्थ के विचार हैं
जो तुम्हारे लिए कुछ और नहीं, केवल भयंकर स्वप्न ही निर्मित कर सकते
जरा इस पूरी स्थिति की ओर देखो तो.. .तुम उस अखण्ड से ही जन्मते हो
और उसी में विसर्जित हो जाते हो,

और इसके मध्य ही प्रत्येक क्षण तुम उसके एक भाग ही होते हो।
तुम उसी में सांस लेते हो और उसी में जीते हो,
और वह तुम्हारे द्वारा ही सांस लेता है, और तुम्हारे द्वारा ही जीता है।
उसका जीवन और तुम्हारा जीवन दो चीजें नहीं हैं-और तुम सागर में ठीक
लहरों के समान हो।

एक बार तुम इसे समझ जाओ, तो ध्यान करना सम्भव हो जाए।
एक बार तुम इसे समझ जाओ, तो तुम विश्रामपूर्ण हो जाओ।
तुमने अपनी सुरक्षा के लिए अपने चारों ओर जो एक कवच निर्मित कर रखा
है, तुम उसको फेंक दो।
अब तुम भयभीत नहीं हो।
जब भय मिट जाता है, तो प्रेम उत्पन्न होता है
प्रेम की इसी दशा में शून्यता घटती है।
अथवा यदि तुम शून्यता को घटने की अनुमति दो
तो उसमें प्रेम की खिलावट होगी।
प्रेम है--शून्यता का एक पुष्प, परिपूर्ण शून्यता--
शून्यता एक स्थिति है
वह दोनों तरह से कार्य कर सकती है।
इसलिए यहां दो तरह के धर्म हैं।
एक वह जो तुम्हारे अन्दर और तुम्हारे चारों ओर एक शून्यता निर्मित करते हैं,
जिससे खिलावट सम्भव हो सके:
तुमने एक स्थिति निर्मित कर दी,
अब स्वत: अपने आप ही पुष्प खिल उठता है।
कोई भी अवरोध न पाकर बीज अचानक पुष्प बन खिल उठता है।
तुम्हारे अस्तित्व में एक छलांग लगती है, एक विस्फोट होता है।
बुद्धिज्म और जेन इसी पथ का अनुसरण करते हैं--
वे तुम्हारे अन्दर और तुम्हारे चारों ओर एक शून्यता सृजित करते हैं।

यहां एक दूसरी तरह का मार्ग भी है, दूसरी तरह का धर्म
जो तुम्हारे अन्दर प्रेम और भक्ति उत्पन्न करता है
मीरा और चैतन्य प्रेम करते हैं, और वे इस सम्पूर्ण सृष्टि को--
इतना गहरा प्रेम करते हैं, कि वे अपने प्रेमी को हर कहीं पाते हैं,
बूटे-बूटे और प्रत्येक पत्थर पर उन्हें अपने प्रेमी के ही हस्ताक्षर दिखाई देते
हैं। वह उन्हें प्रत्येक स्थान, प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक व्यक्ति में दिखाई देता
वे नाचते हैं, क्योंकि वहां सिवाय उत्सव आनंद मनाने के और कुछ है ही
नहीं।
और हर चीज पहले ही से तैयार है--
केवल तुम्हारे हिस्से में समारोह प्रारम्भ करना ही है।
अन्य किसी चीज की कोई कमी ही नहीं है।
एक भक्त और प्रेमी पूर्ण रूप से उत्सव, आनंद ही मनाता है।
और प्रेम के इसी आनंद समारोह में
अहंकार विसर्जित हो जाता है और शून्यता उसका अनुसरण करती है।

या तो तुम बुद्ध, तिलोपा, सीको और अन्य बुद्धों की तरह शून्यता सृजित करो,
अथवा तुम मीरा, चैतन्य और जीसस की भांति प्रेम उत्पन्न करो।
एक को उत्पन्न करो और दूसरा उसका अनुसरण करता है,
क्योंकि वे अलग-अलग नहीं रह सकते,
उनका कोई पृथक अस्तित्व है ही नहीं।
प्रेम, शून्यता का ही एक चेहरा है,
शून्यता और कुछ भी नहीं, बल्कि प्रेम का ही दूसरा पहलू है।
वे दोनों साथ-साथ आते हैं।
यदि तुम एक को लाते हो, एक को आमंत्रित करते हो,
दूसरा छाया की भांति स्वत: पहले का अनुसरण करता है,
यह तुम्हीं पर निर्भर है।
यदि तुम ध्यान के मार्ग का अनुसरण करना चाहते हो, तो शून्य बनो।
फिर प्रेम की फिक्र ही मत करो--वह स्वयं अपने आप आएगा।

अथवा यदि तुम ध्यान करने को बहुत कठिन पाते हो, तब प्रेम करो,
तब एक प्रेमी बनो
और ध्यान और शून्यता उसका अनुसरण करेंगे।
ऐसा इसलिए भी होना चाहिए क्योंकि यहां मनुष्य के दो तरह के चित्त हैं:
स्त्रैण चित्त और पुरुष चित्त।
स्त्रैण चित्त आसानी से प्रेम कर सकता है
लेकिन उसके लिए शून्य बनना कठिन है।
और जब मैं स्त्रैण चित्त या मन की बात कहता हूं
तो मेरा अर्थ स्त्रियों से ही नहीं है,
क्योंकि बहुत सी स्त्रियों के पास पुरुष चित्त होता है,
और बहुत से पुरुषों के पास स्त्रैण-चित्त होता है।
इसलिए वे समान मूल्य के नहीं होते।
जब मैं कहता हूं स्त्रैण चित्त, तो मेरा अर्थ स्त्री के शरीर से नहीं होता--
तुम्हारे पास एक स्त्री का शरीर हो सकता है, लेकिन स्त्रैण चित्त नहीं,
स्त्रैण मन वह मन होता है जो प्रेम को सरलता से अनुभव करता है,
वही सब कुछ होता है उसके लिए।
स्त्रैण चित्त की मेरी यही परिभाषा है:
कोई भी, जो सरलता और स्वाभाविक रूप से प्रेम का अनुभव करता है,
और जो बिना किसी प्रयास के प्रेम में बह सकता है।

पुरुष चित्त वह होता है, जिसमें किसी से प्रेम करना, एक प्रयास होता है
वह प्रेम कर सकता है, लेकिन उसे प्रेम करना होता है।
प्रेम उसका पूरा अस्तित्व नहीं बन सकता--वह अनेक चीजों में से केवल
एक वस्तु भर होता है, यहां तक कि अधिक महत्वपूर्ण भी नहीं होता।
वह अपने प्रेम का विज्ञान के लिए बलिदान कर सकता है।
वह अपने प्रेम का अपने देश के लिए बलिदान कर सकता है।
वह अपने प्रेम का किसी साधारण सम्बन्ध के लिए अपने व्यापार के लिए
धन के लिए अथवा राजनीति के लिए बलिदान कर सकता है।
एक पुरुष चित्त के लिए प्रेम ऐसी कोई गहरी चीज नहीं होती,
वह उसके लिए वैसी प्रयासरहित नहीं होती, जैसी वह स्त्रैण चित्त के लिए
होती है।
उसके लिए ध्यान करना सरल होता है,
वह सरलता से अन्दर से खाली और शून्य हो सकता है।
इसलिए यही मेरी परिभाषा है:
यदि तुम सरलता से खाली और शून्य हो सकते हो, तब वैसा ही करो।
यदि तुम्हें यह कठिन लगता है, तो दुखी और निराश भी नहीं होना है,
तो तुम हमेशा प्रेम को ही सरल पाओगे।
मुझे अभी तक ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं मिला,
जो दोनों को ही कठिन पाता हो।
इसलिए यहां प्रत्येक व्यक्ति के लिए आशा है।
यदि ध्यान कठिन है, तो प्रेम आसान होगा, उसे होना ही चाहिए।
यदि प्रेम सरल है, तो ध्यान करना कठिन होगा।
यदि प्रेम कठिन है, तो ध्यान आसान होगा।
इसलिए केवल इसका अनुभव तुम स्वयं कर सकते हो।
और इसका सम्बन्ध तुम्हारे शरीर के साथ नहीं है,
न इसका सम्बन्ध तुम्हारे शारीरिक ढांचे ओर तुम्हारे हारमोन्स के साथ है।
नहीं, यह तुम्हारे आंतरिक अस्तित्व का एक गुण है।
एक बार तुम इसे खोज लो, तो चीजें बहुत-बहुत आसान हो जाती हैं
क्योंकि तब तुम गलत रास्ते पर कोशिश नहीं करते हो।
तुम गलत मार्गों पर कई जन्मों तक प्रयास कर सकते हो,
लेकिन तुम्हें कोई भी चीज प्राप्त न होगी।
और यदि ठीक मार्ग पर प्रयास करते हो तुम,
तो पहला उठाया गया कदम ही अंतिम भी बन सकता है,
क्योंकि तुम पूर्ण रूप से, स्वाभाविक रूप से उसमें बहते हो,
प्रयास करने जैसी कुछ चीज होती ही नहीं,
तुम बिना किसी प्रयास के उसके साथ बहते हो।

जेन है पुरुष चित्त के लिए।
मैं शीघ्र ही सूफियों के बारे में चर्चा करते हुए इसे संतुलित कर दूंगा
क्योंकि सूफियों का मार्ग स्त्रैण चित्त वालों के लिए है।
यह दो पराकाष्ठाएं हैं--जेन और सूफीइज्म।
सूफी लोग प्रेमी हैं, महान प्रेमी,
वास्तव में मनुष्य चेतना के पूरे इतिहास में,
सूफियों जैसे साहसी प्रेमी आज तक हुए ही नहीं,
क्योंकि वे ही अकेले ऐसे हैं

जिन्होंने परमात्मा को अपनी प्रेमिका के रूप में ही परिवर्तित कर लिया।
परमात्मा स्त्री है, और वे उसके प्रेमी हैं।
मैं शीघ्र ही इसकी चर्चा कर इसे संतुलित बना दूंगा।
जेन का आग्रह शून्यता पर है,
यही कारण है कि बौद्ध धर्म में, परमात्मा की कोई धारणा ही नहीं है।
उसकी कोई जरूरत भी नहीं है।
पश्चिम के लोग इसे नहीं समझ सकते, कि कोई धर्म-परमात्मा की धारणा
के बिना कैसे जीवित रह सकता है?
बौद्ध धर्म में किसी परमात्मा की कोई धारणा नहीं है,
वहां उसकी जरूरत भी नहीं है,
क्योंकि बौद्ध धर्म का आग्रह है, पूरी तरह से खाली या शून्य होने का
तब प्रत्येक चीज उसका अनुसरण करती है,
लेकिन कौन उसकी फिक्र करता है?
एक बार तुम अन्दर से खाली हो जाओ, तो चीजें स्वयं उसका अनुसरण करेंगी।
एक धर्म बिना परमात्मा के जीवित है। यह बहुत बड़ा चमत्कार है।
पश्चिम में जो लोग धर्म और धर्म के दार्शनिक पक्ष के बारे में लिखते हैं,
हमेशा इसी उलझन में रहते हैं, कि धर्म को कैसे परिभाषित किया जाए?
वे लोग हिन्दुत्व, इस्लाम और ईसाइयत को आसानी से--परिभाषित कर
सकते हैं, लेकिन बौद्ध धर्म कठिनाई उत्पन्न करता है।
वे परमात्मा को सभी धर्मों का केंद्र बनाकर परिभाषित कर सकते हैं,
लेकिन तब बौद्ध धर्म एक समस्या बन जाता है।
वे प्रार्थना को धर्म के सारतत्व के रूप में परिभाषित कर सकते हैं,
लेकिन बौद्ध धर्म फिर समस्या खड़ी कर देता है,
क्योंकि वहां न कोई परमात्मा है, न कोई प्रार्थना है, न मंत्र है
और कुछ भी नहीं है, तुम्हें केवल अन्दर से खाली या शून्य होना है।
परमात्मा की धारणा तुम्हें शून्य होने की अनुमति नहीं देगी,
प्रार्थना एक बाधा बन जाएगी,
मंत्रपाठ भी तुम्हें अन्दर से शून्य न होने देगा।
पूर्ण रूप से खाली या शून्य हो जाने से प्रत्येक चीज घटती है।
शून्यता ही बौद्ध धर्म के रहस्य की कुंजी है।
तुम बस इस तरह से बने रहो, जैसे तुम हो ही नहीं।

इस शून्यता के बारे में मैं तुम्हें थोड़ा और स्पष्ट कर दूं
तभी तुम्हारे लिए इस जेन प्रसंग में प्रवेश कर पाना सम्भव होगा।
भौतिक विज्ञानी, पदार्थ का सारतत्व, उसका आधार,
तीन सौ वर्षों से जानने के लिए कार्य कर रहे हैं,
और वे जितनी गहराई में पहुंचे, वे उतनी ही अधिक उलझन में पड़ गए।
क्योंकि गहराई में वे पदार्थ को कम से कम सूक्ष्म सारतत्व को,
जितना अधिक टटोलते हुए उसकी खोज करते गए
और जब वे वास्तव में पदार्थ के स्रोत से टकराए
तो वे पूरी तरह विश्वास ही न कर सके।
क्योंकि वह उनकी सभी धारणाओं के विरुद्ध था।
वह कोई पदार्थ किसी रूप में था ही नहीं, वह शुद्ध ऊर्जा थी।
ऊर्जा, अपदार्थगत होती है। उसका कोई भार नहीं होता है।
तुम उसे देख नहीं सकते। तुम केवल उसके प्रभाव को देख सकते हो।
तुम कभी भी उसे प्रत्यक्ष नहीं देख सकते।
सन् 1930 में एडिंगटन ने कहा कि हम केवल पदार्थ की खोज कर रहे थे
लेकिन अब पदार्थ के सम्बन्ध में सभी नई अंतर्दृष्टियों से
यह प्रदर्शित होता है कि वहां पदार्थ जैसा कुछ है ही नहीं,
वह अधिक से अधिक एक विचार जैसा,
और एक वस्तु जैसा कम से कम दिखाई देता है।

अकस्मात् तभी बुद्ध की अंतर्दृष्टि फिर से बहुत-बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है,
क्योंकि बुद्ध ने मनुष्य के पदार्थगत शरीर और उसकी सामग्री के बारे में ठीक
ऐसा ही देखा था।
भौतिक विज्ञानी तो पदार्थ का वस्तुगत तरीके से उसका विश्लेषण करने का
प्रयास कर रहे हैं
वे यह खोजने की कोशिश कर रहे हैं, कि उसके अन्दर आखिर है क्या?
और खोज करने पर उन्होंने उसके अन्दर कुछ भी नहीं पाया।
परिपूर्ण शून्यता थी वहां।
और बुद्ध ने भी अपनी अंतर्यात्रा में यही खोजा था।

वह यह खोजने का प्रयास कर रहे थे कि आखिर अन्दर है क्या?
मनुष्य की चेतना का सारतत्व क्या है?
लेकिन जितने वे गहरे उतरते गए उतने ही अधिक वे
अधिक से अधिक शून्यता में खोते गए।
और जब वे अचानक केंद्र पर पहुंचे
तो पाया--वहां कुछ भी नहीं है।
सब कुछ मिट गया था वहां। पूरा घर खाली या रिक्त था।
प्रत्येक चीज का अस्तित्व इसी शून्यता के चारों ओर था।
यह शून्यता ही तुम्हारी आत्मा है।
इसलिए बुद्ध को एक नया शब्द गढ़ना पड़ा, जो इससे पूर्व कभी भी न था।
नए आविष्कार के बाद तुम्हें अपनी भाषा भी बदलनी पड़ती है।
नए शब्द गढ़ने पड़ते हैं,
क्योंकि तुमने नए सत्यों को उद्‌घाटित किया है
और पुराने शब्दों में वह सार नहीं हो सकता।
बुद्ध को एक नया शब्द गढ़ना पड़ा।
भारत में लोग सदैव से आत्मा की सत्यता में विश्वास करते रहे हैं
लेकिन बुद्ध ने खोज की कि वहां आत्मा जैसी चीज है ही नहीं।
उन्हें एक नया शब्द गढ़ना पड़ा--'अनसा।'
'अनता' का अर्थ है--कोई आत्मा नहीं।
तुम्हारे अन्दर सबसे अधिक गहराई में केवल मात्र शून्यता है
एक अनात्मा की स्थिति। तुम हो ही नहीं वहां,
केवल तुम्हें लगता है कि तुम हो।

मैं तुम्हारे लिए इसे एक अलग तरह से भी स्पष्ट करना चाहता हूं
क्योंकि इसे समझना सबसे अधिक कठिन चीजों में से एक है।
यदि तुमने इसे बुद्धि से समझ भी लिया,
तो भी तुम्हारे लिए इस पर विश्वास करना लगभग असम्भव होगा।
तुम हो ही नहीं? ऐसा इसलिए मान लिया गया है, क्योंकि तुम्हारा होना
प्रतीत होता है।
जिससे तुम हमेशा मूर्खतापूर्ण प्रश्न पूछ सकते हो।
बुद्ध से यह बार-बार पूछा जाता था!
यदि आप हैं ही नहीं, तब फिर कौन उपदेश दे रहा है?
यदि आप हैं ही नहीं, तो फिर किसे भूख लगती है?
और कौन नगर में भिक्षाटन के लिए जाता है?
यदि आप हैं ही नहीं, तो फिर मेरे सामने कौन खड़ा है?
तभी चीन के सम्राट बू ने बोधिधर्म से पूछा:
यदि आप कहते हैं कि आप हैं ही नहीं, और यहां कुछ भी नहीं है,
और यदि आपके आंतरिक अस्तित्व का सार-तत्व शून्यता है,
तो फिर वह कौन सज्जन हैं, जो मेरे सामने खड़े मुझ से बात कर रहे हैं?
बोधिधर्म ने अपने कंधे उचकाते हुए उत्तर दिया: 'मैं नहीं जानता।'
कोई भी नहीं जानता, और बुद्ध कहते हैं कि कोई जान भी नहीं सकता,
क्योंकि यह कोई वस्तु या पदार्थ नहीं है जिसका तुम सामना कर सकते हो,
यह वस्तुगत है ही नहीं, तुम्हारा इससे आमना-सामना हो ही नहीं सकता।
इसे बुद्ध 'उपलब्धि' कहते हैं
जब तुम यह समझ जाते हो कि सबसे अधिक अन्दर की शून्यता को नहीं
जाना जा सकता, यह न जानने योग्य है
तभी तुम बोध को उपलब्ध व्यक्ति हो जाते हो।

यह फिर भी कठिन है समझना, इसलिए मैं इसे फिर स्पष्ट करना चाहता हूं
तुम एक फिल्म देखने जाते हो। वहां कोई चीज बहुत मनोरंजक होने जा रही
है।
पर सामने का पर्दा अभी खाली है। तब प्रोजेक्टर काम करना शुरू करता है।
पर्दा विलुप्त हो जाता है
क्योंकि प्रक्षेपित चित्र उसे पूरी तरह से ढक देते हैं।
और यह प्रक्षेपित तस्वीरें आखिर हैं क्या?
यह और कुछ भी नहीं, बल्कि प्रकाश और छाया का एक खेल है।
तुम देखते हो, कि कोई व्यक्ति पर्दे पर तुम्हारी ओर भाला फेंक रहा है
भाला तेजी से आगे बढ़ता है। लेकिन वास्तव में हो क्या रहा है?
उसका आगे की ओर बढ़ना केवल एक आकृति है,
ऐसा केवल दिखाई दे रहा है, यह वास्तव में हो नहीं रहा है।
ऐसा हो भी नहीं सकता। चलचित्र वास्तव में चलचित्र हैं ही नहीं,
क्योंकि उनमें कोई गति नहीं है, सभी चित्र थिर हैं।

लेकिन एक फरेब या चाल द्वारा आकृति सृजित की जाती है।
वह चाल यह है कि भाले के बहुत से स्थिर चित्र लिए जाते हैं,
पर्दे पर उसकी विभिन्न स्थितियों के चित्र इतनी अधिक तेजी से
दिखाए जाते हैं कि तुम दो चित्रों के मध्य का अंतराल नहीं देख पाते हो।
और तुम्हें ऐसी अनुभूति होती है कि भाला आगे बढ़ रहा है।
मैं अपना हाथ ऊपर उठाता हूं। तुम मेरे हाथ की विभिन्न स्थितियों की सौ
तस्वीरें खींचते हो, और तब उन्हें इतनी तेजी से पर्दे पर दिखलाते हो, कि
आखें दो चित्रों के बीच का अंतराल नहीं पकड़ सकतीं।
तब तुम हाथ को ऊपर उठता हुआ देखोगे।
सौ स्थिर चित्र अथवा लाखों स्थिर चित्र प्रक्षेपित करते हुए ही गतिशीलता
निर्मित की जाती है।
और यदि फिल्म त्रि-आयामी है, जिसमें लम्बाई-चौड़ाई के साथ गहराई भी
और कोई व्यक्ति एक भाला फेंक रहा है
तो तुम्हें उसके अपनी ओर आने का इतना अधिक निश्चय हो जाता है
कि तुम भाले से बचने के लिए दाएं या बाएं झुक सकते हो।
जब त्रि-आयामी चलचित्र पहली बार अस्तित्व में आए
तो उन्होंने लोगों को डरा दिया।
अपनी ओर दौड़ते हुए घोड़े को आते देख तुम डर गए
और उससे टकराने से बचने के लिए तुम दाएं या बाएं झुक गए।
वह गतिशीतला नकली है, ऐसा वहां हो नहीं रहा है,
यह केवल थिर चित्रों का तेजी से प्रदर्शित किया जाना है।
और इसका नकलीपन तब तक स्पष्ट नहीं होता,
जब तक तुम फिल्म को बहुत धीमी गति से प्रक्षेपित होता हुआ न देख लो।

एक भिन्न अर्थ में ठीक ऐसा ही जीवन में भी हो रहा है।
तुम्हारे मन के पर्दे पर विचार इतनी अधिक तेजी से प्रक्षेपित होते हैं,
कि तुम दो विचारों के मध्य के अंतराल को नहीं देख सकते।
मन का स्कीन पूरी तरह विचारों से ढका हुआ है
अरि वे इतनी तेजी से भाग रहे हैं
कि तुम प्रत्येक विचार को अलग से नहीं देख सकते।
इसी स्थिति के बारे में तिलोपा कहता है,
विचार बादलों की भांति हैं, जिनका न कोई मूल है और न कोई घर।

एक विचार का दूसरे विचार से संबंधित नहीं है,
एक विचार एक वैयक्तिक इकाई है।
ठीक धूल के कणों की भांति, जो हैं अलग-अलग
लेकिन वे इतनी तेजी से हवा के साथ गतिशील होते हैं
कि तुम उनके बीच का अंतर नहीं देख सकते।
तुम्हें अनुभव होता है कि वे इकट्ठे हैं, उनके बीच एक निश्चित साहचर्य है।
यह साहचर्य दिखाई देना एक झूठा या नकली विचार है
लेकिन इस साहचर्य के कारण अहंकार निर्मित होता है।
बुद्ध कहते हैं:
तेजी से चलते विचार एक भ्रम उत्पन्न करते हैं,
जैसे मानों उनका वहां कोई केंद्र है
जैसे मानो वे एक चीज से संबंधित हैं।
वे एक दूसरे से संबंधित हैं नहीं, वे बिना जड़ों के--बादलों की भांति हैं
जब तुम ध्यान करते हो, तुम समझोगे कि प्रत्येक विचार
किसी दूसरे विचार से संबंधित न होकर, एक अलग वैयक्तिक विचार है।
दो विचारों के मध्य तुम्हारे अस्तित्व की शून्यता है।
वे आते हैं और चले जाते हैं, लेकिन उनके आने-जाने की गति इतनी अधिक
तीव्र होती है। कि तुम उनके मध्य के अंतराल नहीं देख पाते
और अहंकार उत्पन्न हो जाता है।
और तब तुम्हें यह अनुभव होना शुरू हो जाता है
कि तुम्हारे अन्दर जैसे वहां कोई भी केंद्र में मौजूद है
जिससे प्रत्येक चीज, विचार और कार्य संबंधित हैं।
लेकिन बुद्ध कहते हैं--तुम्हारे अन्दर वहां कोई भी नहीं है।
जब तुम अपने अन्दर गहराई में उतरते हो, तब तुम इस सत्य को समझोगे:
यह कोई दार्शनिक सिद्धांत नहीं है।
तर्कों के द्वारा बुद्ध को सरलता से हराया जा सकता था,
उन्हें इस देश से बाहर फेंक दिया गया होता
क्योंकि भारत के लोग बहुत बड़े तर्क शास्त्री और तार्किक थे।

पांच हजार वर्षों में इसके अतिरिक्त उन्होंने और कुछ किया ही नहीं था,
लेकिन तर्क, और तर्क के द्वारा तो बुद्ध को हराया जा सकता था।
क्योंकि पूरी चीज ही असंगत दिखाई देती है।
बुद्ध कह रहे थे कि वहां कार्य तो हो रहा है, पर उसको करने वाला कोई भी
नहीं है,
वहां विचार तो हैं, पर वहां कोई भी विचारक नहीं है।
वहां भूख है, वहां तृप्ति है,
वहां बीमारी है, वहां स्वास्थ्य है
लेकिन वहां कोई ऐसा केंद्र नहीं है, जिसके वे सभी अधिकार में हों।
वे शून्याकाश में घूमने वाले केवल बादलों की भांति हैं
जिनका आपस में एक दूसरे से कोई सम्बन्ध ही नहीं है।
बुद्ध को अनुभव के द्वारा कोई भी नहीं हरा सकता था
लेकिन तर्क के द्वारा उन्हें हराना बहुत सरल था।
बुद्ध बहुत शीघ्र यह जान गए कि तर्क के द्वारा उन्हें बहुत सरलता से
पराजित किया जा सकता है। इसलिए आखिर किया क्या जाए?
भारत में उन दिनों महान विद्वान् महान पंडित, महान तर्क शास्त्री और तर्क
द्वारा सिर के बाल झाड़ देने वाले बहुत ही कुशल विद्वान मौजूद थे।
इसलिए बुद्ध ने घोषणा की:
मैं न कोई दार्शनिक हूं और न सिद्धांत शास्त्री हूं
और न आपको देने के लिए मेरे पास कोई सिद्धांत और उपदेश हैं।
जो कुछ मैं कह रहा हूं यह मेरे बुद्धिगत निष्कर्ष नहीं है,
यदि कोई भी व्यक्ति इन्हें समझना चाहता है
तो उसे मेरे निकट आकर कुछ समय रहना होगा,
और जो कुछ मैं कहूं उसे करना होगा।
और यदि वह ध्यान में मेरे साथ शांत होकर रहता है
तो एक वर्ष बाद मैं उससे तर्क करने को तैयार हूं पर इससे पहले नहीं।

और ऐसा ही हुआ। जैसी कि उनकी शर्त थी, उनके पास महान विद्वान आए।
सारिपुत्त आया। वह बहुत प्रसिद्ध विद्वान था,
और उसके पास स्वयं अपने ही पांच सौ शिष्य थे,
वह अपने समय का महान विद्वान था,
वह सभी वेदों और उपनिषदों का ज्ञान जानता था
वह सदियों की प्रज्ञा और पांडित्य का जानकार था
और उसकी मेधा शक्ति भी बहुत तीक्षण थी।
सारिपुत्त आया और बुद्ध ने उससे कहा:
तुम आ गए हो, यह अच्छी बात है।
लेकिन एक वर्ष तक तुम्हें मौन रहना होगा,
क्योंकि मेरी तुम्हें कुछ भी सिखाने की कोई योजना नहीं है
इसलिए वहां किसी तर्क की कोई सम्भावना ही नहीं है
मेरे पास अपने अस्तित्व में ही कुछ ऐसा है जिसमें,
मैं तुम्हें अपना सहभागी बनाना चाहता हूं
लेकिन मेरे पास न कोई सिद्धांत है और न कोई योजना,
इसलिए यदि तुम चाहो, तो यहां रह सकते हो।
तब दूसरा महान विद्वान मौलंकपुत आया
और बुद्ध ने उससे भी यही कहा:
तुम एक वर्ष तक मेरी बगल में, बिना कोई प्रश्न किए--
बस शांत बैठे रहो।
एक वर्ष तक तुम्हें अपने मन को उठाकर एक ओर रख देना होगा
और विचारों के अंतराल में गहरे जाना होगा।
एक वर्ष, ठीक एक वर्ष बाद
तुम्हारे जो भी प्रश्न होंगे, मैं उनके उत्तर दूंगा।
वहां सारिपुत्त भी बैठा हुआ था। सुनकर वह हंसने लगा।
मौलंकपुत ने पूछा : ''आखिर मामला क्या है? तुम क्यों हंस रहे हो?''
सारिपुत ने कहा: इस व्यक्ति द्वारा तुम मूर्ख मत बनो,
यदि तुम्हारे पास कुछ भी पूछने को है, तो तुरंत पूछ लो,
क्योंकि एक वर्ष बाद तो तुम कुछ भी पूछ ही नहीं सकोगे।
मेरे साथ भी यही हुआ।
एक वर्ष तक ध्यान में शांत बैठने से, सारे प्रश्न मिट गए।
एक वर्ष तक शांत बैठकर ध्यान करते हुए
वह तर्कयुक्त मन ही बिदा हो गया,
और वह तर्क करने वाला ही न बचा।
एक वर्ष तक, इस व्यक्ति के निकट बैठने से कोई भी शून्य बन जाता है,

और तब यह महाशय हंसते हैं, और तब यह अपना खेल खेलते हुए--पूछते
है अब तुम प्रश्न करो, तुम्हें क्या पूछना है?
कहां चले गए तुम्हारे सारे सिद्धांत, विश्वास और तर्क?
और अन्दर कुछ भी नहीं उठता।
इसलिए मौलकपुत्त यदि तुम्हें कुछ पूछना है-- तो ठीक अभी, इसी क्षण
पूछ लो, अन्यथा कभी नहीं पूछ पाओगे।

बुद्ध ने मौलंकपुत से कहा: मैं अपना वायदा पूरा करूंगा।
यदि तुम यहां एक वर्ष बने रहे, फिर तुम्हारे जो भी प्रश्न होंगे,
मैं उनका उत्तर दूंगा।
मौलंकपुत्त वहीं रुक गया। एक वर्ष बीत गया।
एक वर्ष गुजरने की बात वह पूरी तरह भूल ही गया,
लेकिन वर्ष पूरा होने का दिन, बुद्ध को भली भांति याद था,
ठीक एक वर्ष बाद उस दिन उन्होंने मौलंकपुत्त से कहा:
मौलंकपुत अब तुम खड़े हो जाओ। जो तुम पूछना चाहते हो--पूछो
मौलंकपुत वहां मौन खड़ा रहा। उसके दोनों नेत्र मुंदे हुए थे।
और तब उसने कहा
पूछने को वहां कुछ है ही नहीं, और न वहां कोई पूछने वाला ही बचा है
मैं तो पूरी तरह मिट गया हूं।

बुद्धिज्म एक अनुभव है
और जेन है बुद्ध की सभी सिखावनों का शुद्धतम
और प्रामाणिक सार तत्व।
और वह केंद्र जिसके चारों ओर पूरा अनुभव गतिशील है,
वह है--शून्यता।
कैसे बना जाए खाली अथवा शून्य?
इसके लिए ही हैं सारे ध्यान प्रयोग।
कैसे इतना शांत और मौन बना जाए
जिससे तुम स्वयं अपने आप को न देख सको--
क्योंकि वह भी एक अवरोध है।
यह अनुभव करना--मैं हूं यह भी बाधा है--इसे भी चले जाना है।
एक को पूरी तरह महत्वहीन बन जाना है, पूरी तरह मिट जाना है।
वह कोरा कागज जैसा बन जाता है,
वह गर्मियों के आकाश जैसा हो जाता है,
जिसमें कहीं कोई बादल नहीं होते, केवल गहराई होती है
अनंत नीलिमा का ऐसा विस्तार होता है, जिसका न कहीं प्रारम्भ और न कहीं
अंत होता है।

इसी को बुद्ध 'अनत्ता' कहकर पुकारते हैं,
अनात्मा और अनस्तित्व का सबसे अधिक आंतरिक केंद्र।
बुद्ध कहते हैं-- तुम चलो, लेकिन वहां कोई चलने वाला न हो,
तुम भोजन करो, लेकिन वहां कोई भोजन करने वाला न हो,
तुम जन्मे हो, लेकिन वहां ऐसा कोई भी नहीं है, जिसका जन्म हुआ हो।
तुम बीमार पड़ोगे, और तुम वृद्ध भी होगे
लेकिन वहां ऐसा कोई भी नहीं है, जो रुग्ण होता है, जो वृद्ध होता है।
और तुम मर जाओगे, लेकिन वहां ऐसा कोई भी नहीं है जो मरता है।
और यही है वह शाश्वत जीवन।
जब तुम्हारा जन्म ही नहीं हुआ, फिर तुम कैसे मर सकते हो?
जब तुम वहां हो ही नहीं, तो कैसे तुम बीमार या स्वस्थ हो सकते हो?
चीजें घटती हैं, और यदि तुम उनके गहरे साक्षी बन जाओ,
तो धीमे-धीमे तुम जानोगे कि वे स्वत-अपने आप ही घटती हैं।
तुम्हारे साथ उनका कोई सम्बन्ध ही नहीं है।
वे किसी भी तरह से तुमसे संबंधित होकर नहीं घट रही हैं।
सभी से असंबंधित गृहविहीन और आधार रहित हो जाना--यही है पूर्ण
बुद्धत्व।
यह जानते हुए कि सभी चीजें सपनों की तरह घटती हैं
कोई भी जो इस तरह अथवा उस तरह फिक्र नहीं करता,
कोई भी, जो न तो प्रसन्न होता है और न दुखी, और जो पूरी तरह से होता
ही नहीं।
बुद्ध कहते है' तुम कभी भी प्रसन्न हो ही नहीं सकते, क्योंकि
तुम्हारा बहुत अधिक जोर इसी बात पर पै कि तुम हो,
और इसी में तुम्हारी अप्रसन्नता छिप जाती है।

तुम कभी भी मुक्त नहीं हो सकते, क्योंकि तुम्हीं बंधन हो।
मुक्ति तुम्हारे लिए नहीं है, तुम्हें अपने से ही मुक्त हीना है।
यह सबसे अधिक गहनतम केंद्र है, जिसे कभी भी स्पर्श तक नहीं किया
गया।
महावीर कहते हैं तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाओगे।
बुद्ध कहते हैं तुम ही एक मात्र बाधा हो।
महावीर कहते हैं तुम मोक्ष में, चेतना की सर्वोच्च स्थिति में रहोगे--परम
आनंदित, शाश्वत रूप से आनंदपूर्ण।
बुद्ध कहते हैं जब तक, 'तुम' नहीं मरते, तुम इस स्थिति को कभी--उपलब्ध
नहीं हो सकते।
तुम ही एकमात्र अवरोध हो,
तुम्हारा होना ही एकमात्र बाधा है, केवल वही रुकावट है।
जब तुम नहीं होते हो, वही है 'वह' स्थिति।
वह स्थिति तुम्हारी नहीं है।
तुम दावा नहीं कर सकते, क्योंकि वास्तव में तुम हो।
उस स्थिति को होने की तुम अनुमति नहीं देते।
वह यहीं, इस क्षण भी, पहले से तुम्हारे ही अन्दर है,
लेकिन तुम उसे कार्य करने की अनुमति नहीं देते।
तुम उसे नियंत्रित और व्यवस्थित करने की कोशिश करते हो।
अहंकार ही वह सबसे बड़ा, व्यवस्थापक और नियंत्रण कर्त्ता है।
और सभी बुद्धों का पूरा प्रयास यही है
कि इस नियंत्रण को कैसे गिराया जाए?
एक बार यह नियंत्रण हट जाए तो नियंत्रण करने वाला भी मिट जाता है।

तुम्हारे साथ मैं इन बहुत से ध्यान प्रयोगों के द्वारा
यही करने का प्रयास कर रहा हूं।
प्रयास यही है कि कैसे इस नियंत्रण को हटाया जाए
कैसे उस बहुत बड़े नियंत्रणकर्त्ता और व्यवस्थापक को मिटाया जाए।
तुम सूफी दरवेश नृत्य में गोल-गोल घूमते हो,
शुरू में तुम वहां होते हो।
शीघ्र ही तुम्हें चक्कर आने लगते हैं, और वमन होने जैसा लगने लगता है,
लेकिन यह बीमारी शारीरिक नहीं है,
बहुत गहरे में यह आध्यात्मिक है।
जब मन का नियंत्रण गिरने का समय आता है,
उसी क्षण तुम्हारा जी घबड़ाने लगता है।
जब यह क्षण निकट होता है, तुम्हें वमन करने जैसा अनुभव होने लगता है।
यह वमन है संकेत-मन के नियंत्रण को खो देने का।
तुम्हें चक्कर आने लगते हैं, तुम्हें अनुभव होता है, जैसे तुम गिर पड़ोगे।
यह केवल शरीरगत चीजें नहीं हैं।
अन्दर गहरे में अहंकार यह अनुभव कर रहा है, जैसे मानो,
उसे रास्ते से अलग फेंका जा रहा हो। चक्कर अहंकार को आ रहे हैं।
वह यह अनुभव कर रहा है कि यदि यह गोल-गोल घूमना
यदि थोड़ी देर तक और जारी रहता है, तो वह वहां खड़े रहने में समर्थ न हो
सकेगा।
तुम्हें उल्टी करने जैसा अनुभव होने लगता है।
वास्तव में यह उल्टी केवल शारीरिक नहीं है,
इसका केवल एक भाग शारीरिक है।
जो गहरा भाग है वह वमन द्वारा अहंकार को बाहर फेंक रहा है।
यदि तुम्हें परेशानी का अनुभव बना ही रहता है,
तो वहां शरीरगत उल्टी भी होगी,
लेकिन इस बारे में यदि तुमने फिक्र नहीं की
तो शीघ्र शरीरगत उल्टी का भाव विसर्जित हो जाएगा,
और तब असली उल्टी घटित होगी:
एक दिन अचानक, अहंकार का वमन हो जाता है।
अकस्मात् तुम्हें अन्दर की एक कुरूप चीज से छुटकारा मिल जाता है,
अचानक तुम्हारी बीमारी बाहर फेंक दी जाती है,
और तुम अहंकार से मुक्त हो जाते हो।
ऐसा बिना आशा के अचानक घटता है।
जब ऐसा पहली बार घटता है, तुम उसका विश्वास ही नहीं कर पाते,
तुम्हें यह विश्वास हो ही नहीं पाता, कि तुम बिना अहंकार के हो।
तुम्हारे अन्दर अब कोई भी नहीं है, और तुम हो,
और तुम वहां बिना किसी की उपस्थिति के भी
इतने अधिक पूर्ण, इतने अधिक समृद्ध और अत्यधिक आनंदित होते हो।

अहंकार को, केंद्र से बाहर फेंक देना है,
क्योंकि यह तुम्हारे मन में जन्म-जन्मों से अपनी जड़ें गहरी जमा चुका है
यह तुम्हारे पूरे अस्तित्व पर अवैध अधिकार किए बैठा है?
इसने तुम्हारी शून्यता को अचेतन की पृष्ठभूमि में धकेल दिया है
और सिंहासन पर अवैध कब्जा कर लिया है।
अब अहंकार सम्राट बन बैठा है
और प्रत्येक चीज को नियंत्रित किए चले जाता है।
यह बोध कथा, यह छोटा-सा प्रसंग, तुम्हें बहुत सी चीजें बतलाएगा,
कि कैसे अहंकार को केंद्र से दूर फेंका जा सकता है।

सद्‌गुरु सीको ने अपने एक शिष्य भिक्षु से कहा:
क्या तुम शून्यता को झपट कर पकड़ सकते हो?
भिक्षु ने कहा: मैं प्रयास करूंगा।
और उसने हवा में अपनी हथेलियों को प्यालानुमा बनाकर
उसे मुट्ठियों में पकड़ने का प्रयास किया।
सद्‌गुरु एक चाल खेल रहा है।
उसने पूछा-क्या तुम शून्यता को झपटकर पकड़ सकते हो?
इस प्रश्न में ही एक चाल है।
और यदि शिष्य जरा भी समझदार होता,
तो उसने कोई प्रयास किया ही न होता।
शून्यता को पकड़ने का प्रयास ही एक मूर्खता है।
तुम किसी भी वस्तु को पकड़ सकते हो,
लेकिन तुम 'कुछ नहीं' को नहीं पकड़ सकते।
तुम 'कुछ नहीं' को पकड़ोगे कैसे?
वह शिष्य अभी भी अनुभव करता है कि जैसे शून्यता कोई वस्तु है:
वह अभी भी यह अनुभव करता है कि शून्यता, शून्य नहीं है--वह एक नाम
और लेबिल है किसी वस्तु का, जिसे पकड़ा जा सकता है।
यदि उसके पास थोड़ी सी भी समझ होती, बहुत थोड़ी सी भी,
तो शून्यता को पकड़ने की अपेक्षा उसने कुछ और किया होता।
यह उसकी परीक्षा थी।

वहां ऐसी भी कहानियां है, जहां सद्‌गुरु शिष्य से पूछता है:
क्या तुम शून्यता को पकड़ सकते हो?
और शिष्य सद्‌गुरु की नाक पकड़ लेता है
और उसे झटके से अपनी ओर खींचता है--
ऐसा करना पूरी तरह ठीक हुआ होता।
क्योंकि प्रश्न ही असंगत या मूर्खतापूर्ण है।
तुम चाहे जितना भी प्रयास करो
बिस्कूल शुरू से ही वह असफल होने जा रहा है।
इसमें कुछ भी सहायक न होगा।
यह ही जेन कुआन है।
एक जेन-सद्‌गुरु तुम्हें एक असंगत समस्या देता है,
जिसे हल किया ही नहीं जा सकता।
उसका कोई उत्तर होता ही नहीं।

मैंने कहीं अमेरिका की एक खिलौनों की दुकान के बारे में सुना है।
वहां एक पिता अपने बच्चे के लिए एक पहेली वाला खिलौना खरीद रहा था।
उसने उसे कई तरह से सैट करने की कोशिश की, वह कोशिश पर कोशिश
करता रहा,
लेकिन हमेशा कुछ न कुछ गलत हो जाता था।
वह पहेली हल ही नहीं हो रही थी।
इसलिए उसने दुकान के मैनेजर से पूछा:
यदि मैं ही इस खिलौने की पहेली का सिर और पूंछ न पा सका
तो क्या आपका ख्याल है कि एक छोटा बच्चा इसे हल करने में समर्थ हो
सकेगा?
मैनेजर ने कहा: इसे कोई भी सैट नहीं कर सकता।
यह खिलौना बच्चे को आधुनिक जीवन का स्वाद देने के लिए ही बनाया गया
है।
यह हल करने के लिए है ही नहीं, इसे कोई भी सैट या फिक्स नहीं कर
सकता,
उसके भाग, अलग-अलग सभी कठिनाई में डालने के लिए ही बनाए गए
है।
यह केवल आधुनिक जीवन का स्वाद देने के लिए था।
तुम जो कुछ भी करो, उससे कुछ भी सहायता नहीं मिलती,
अंत में तुम्हें निराश ही होना पड़ेगा।
यह करो अथवा वह, वहां इसके लाखों विकल्प हैं,
लेकिन सभी नकली हैं, क्योंकि वे शुरू से ही असफलता देते हैं।
वह पहेली कोई पहेली थी ही नहीं, बल्कि एक असंगत चीज थी।
पहेली तो वह होती है, जिसे बुद्धि से हल किया जा सके।
और असंगत या मूर्खतापूर्ण चीज वह होती है, जिसकी हल होने की प्रकृति
ही न हो,
जिसको हल किया ही नहीं जा सकता।
एक कुआन एक असंगत पहेली ही होती है।
सद्‌गुरु कहता है क्या तुम शून्यता को पकड़ सकते हो?
अब बिकुल प्रारम्भ ही से, वह किसी भी समाधान से उसे रोकता है।

प्रश्न के उन शब्दों में ही, उसने बहुत बड़ी असंगतता सृजित कर दी है।
तुम 'कुछ नहीं' को कैसे पकड़ सकते हो?
तुम निश्चित रूप से किसी वस्तु को तो पकड़ सकते हो।
लेकिन 'कुछ नहीं' को? शून्यता को?
बिकुल प्रारम्भ ही से तुम्हारे सभी प्रयासों को बरबाद होना ही है।
और यही है वह पूरी घटना:
सद्‌गुरु शिष्य को सचेत होने में सहायता करने का प्रयास कर रहा है,
लेकिन अहंकार उस समस्या को तुरंत चुनौती के रूप में ले लेता है,
और उसे हल करने का प्रयास करना शुरू कर देता है।
यही कारण है कि बहुत से लोग, वर्ग पहेली, अथवा 'इसे' और 'उसे' हल
करने की कोशिश करते हैं।
उन्हें अखबारों में देखते ही, उनके अहंकार को चुनौती मिलती है,
उन्हें उसे हल करना है, अन्यथा वही बात उनके दिमाग में घूमती रहती है।
वे इतने अधिक बुद्धिमान हैं, यह पहेली, एक पहेली कैसे बनी रह सकती
उन्हें उसे हल करना ही है, वही उनके मन में निरंतर घूमता रहता है।
लाखों लोग, इन मूर्खतापूर्ण चीजों को हल करने के लिए लाखों घंटों का
समय बरबाद करते हैं
क्योंकि अहंकार उसे चुनौती के रूप में लेता है।

जब सद्‌गुरु ने कहा: क्या तुम शून्यता को पकड़ सकते हो?
वह उसके अहंकार को उत्तेजित कर रहा है,
और मनुष्य के जीवन में अहंकार सबसे अधिक छूता भरी चीज है।
तुम उसे किसी भी चीज से उत्तेजित कर सकते हों--किसी भी चीज से।
समाचार-पत्र में यह विज्ञापन देखकर,
क्या आपके पास दो कारों को पार्क करने का गैरेज है, अथवा एक ही कार का
गैरेज?
अहंकार तुरंत ही परेशान हो उठता है,
क्योंकि दूसरे लोगों के पास दो कारों को पार्क करने वाला गैरेज है,
और तुम्हारे पास केवल एक का। तुम्हारा जीवन व्यर्थ बर्बाद हो गया।
तुम कुछ नहीं लेकर जी रहे हो। तेजी से भागो। धन उधार लो।
करो, कुछ भी करो। ऐसा करने के रास्ते में यदि अन्दर अल्सर या घाव भी हो
जाए फिर भी ठीक है।
कैंसर होना भी बरदाश्त किया जा सकता है,
लेकिन कोई भी कार का एक गैरेज बरदाश्त नहीं कर सकता।
भले ही आत्महत्या करो, लेकिन तुम्हें दो कारों वाला गैरेज चाहिए ही।
अहंकार सबसे अधिक मूर्खतापूर्ण चीज है,
और पूरा बाजार, उसके सेल्समैन और विज्ञापन कर्त्ता
तुम्हारे अहंकार पर ही निर्भर हैं।
वे तुम्हारे अहंकार को उत्तेजित कर तुम्हारा शोषण करते हैं।
और तब तक उन्हें रोक पाना कठिन है, जब तक तुम अपना अहंकार न गिरा
दो।
वे लोग ऐसा ही किए चले जाएंगे।
एक बड़ी कार अहंकार की रक्षा का प्रतीक बन जाती है।

मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक बार अमेरिका गया।

उसने अपने शहर में कभी भी फिएट कार से बड़ी कार नहीं देखी थी।
जब उसने इतनी बड़ी-बड़ी कारें देखीं, तो वह बहुत उलझन में पड़ गया:
उन्हें क्या कह कर पुकारा जाए? क्योंकि वे कारें नहीं थीं,
ओर वे बसें भी नहीं थीं : और इतनी बड़ी कार में केवल व्यक्ति
एक कुत्ते के साथ बैठा हुआ था। आखिर मामला क्या है?
उसने बड़े-बड़े मकान देखे-आखिर उन्हें क्या कहकर उनका उल्लेख किया
जाए?
उसके कस्बे में तो दोमंजिले मकान को एक अटारी या महल कहा जाता है।
और तब उसने सौ मंजिला बिल्डिंग देखी। उसका मन भयभीत हो उठा।
तुम उसे घर नहीं कह सकते, तुम उसे महल भी नहीं कह सकते--
उसके लिए सामान्यत: किसी शब्द का अस्तित्व ही नहीं है।
और तब उसने नियाग्रा प्रपात देखा।
उसने अपनी आखें बंद कर लीं और मन ही मन कहा:
ऐसा लगता है--मैं कोई सपना देख रहा हूं।
उसने अभी तक छोटे-छोटे झरने देखे थे। उसके कस्बे में भी एक छोटा सा
झरना था,
लेकिन वह केवल बरसात के दिनों में ही झरता था, आखिर यह है क्या?
और वह इतना अधिक परेशान हो उठा, कि उसके लिए असम्भव हो गया,
कि वह इतने अधिक विशाल और भयंकर रूप से बड़ी चीजों की प्रशंसा कर
सके
और वह अपने गाइड से कुछ भी कह पाने में समर्थ न हो पा रहा था,
इसलिए उसे अपराध बोध होने लगा--उसे प्रशंसा में कुछ तो कहना ही
चाहिए।
तब वे लोग एक छोटी सी नदी पार करके आगे बड़े
इसलिए मुल्ला नसरुद्दीन ने विचार किया, यही कहने का ठीक अवसर है।
और वह बोला--इसे देखकर ऐसा लगता है कि किसी कार के रेडिएटर से
पानी लीक कर रहा है।

चीजें, बड़ी और अधिक बड़ी, और उससे भी बड़ी होती चली जाती हैं--
केवल तुम्हारे अहंकार के ही कारण। उनकी कोई आवश्यकता नहीं है।
उन लोगों के लिए उनके होने की कोई अनिवार्यता नहीं है।
इस मूर्ख अहंकार के कारण ही जीवन अधिक से अधिक जटिल होता जाता
है।
और एक बार वह यह चुनौती स्वीकार कर लेता है,
बिना यह समझे हुए कि वह सम्भव या असम्भव है, तर्कपूर्ण अथवा
अतर्कपूर्ण है,
वह हमेशा उसे लेने को पहले ही से तैयार रहता है.।

सद्‌गुरु सीको ने कहा:
क्या तुम शून्यता को झपटकर पकड़ सकते हो?
भिक्षु ने उत्तर दिया--मैं प्रयास करूंगा।
यह उत्तर अहंकार का है--मैं प्रयास करूंगा।
वह सभी तरह की चुनौतियां स्वीकार करता है,
और एक कुआन, सबसे बड़ी चुनौती है।
वह इस तरह की बनाई ही गई है, कि तुम उसे हल नहीं कर सकते।
उसे हल करने के प्रयास में, तुम्हें इसके प्रति सचेत रहना होगा,
कि तुम्हारा उसे हल करने का अत्यधिक प्रयास ही मूर्खतापूर्ण है।
उसे हल करने के प्रयास में तुम्हें सचेत होना होगा
कि तुमने जो चुनौती स्वीकार की थी, वह गलत थी
तुम्हारे अन्दर वह एक, जो यह कहता है--मैं कोशिश करूंगा-मैं उसे पूरा
करूंगा, वह शक्तिहीन है।
एक शिष्य को एक कुआन उसे उसकी शक्तिहीनता का अनुभव--करने के
लिए ही दी जाती है--
तुम उसे हल नहीं कर सकते--वह असहायता का अनुभव कराने के लिए ही
दी जाती है।
क्योंकि अहंकार केवल असहाय स्थिति में ही विकसित हो सकता है,
अन्यथा नहीं।
अहंकार केवल तभी मिट सकता है, जब वह पूरी तरह असफल हो जाए
जब वहां सफलता की जरा सी भी सम्भावना उसके लिए न रह जाए--
केवल तभी वह मिट सकता है, अन्यथा वह आशा किए चले जाता है,
कि वह कुछ और उपाय करेगा, अन्य कुछ और करके देखेगा--
और वह इस, अथवा उस विकल्प को भी आजमा कर देखेगा।

शून्यता को पकड़ने के लिए वहां कोई न कोई सम्भावना जरूर होनी ही
चाहिए मैं प्रयास करूंगा।
यह कहने से पूर्व-मैं प्रयास करूंगा, हमेशा निरीक्षण करने की बात का
स्मरण रहे।

अहंकार को आने की अनुमति ही मत दो।
केवल निरीक्षण करो। बुद्धिमान बनो, अहंकारी नहीं।
बुद्धिमानी अच्छी चीज है। अहंकारी बनकर तुम वास्तव में बुद्धि के
कार्य करने में बाधा खड़ी करते हो।
यह इतनी सरल सी चीज थी,
शिष्य को चाहिए था कि उसी वक्त कहीं गुरु को ठोकर मारकर
उससे कहता-आप मुझसे क्या व्यर्थ की बात करने को कह रहे हैं?
लेकिन लोग सभी तरह की व्यर्थ की चीजों को हल करने का प्रयास करते हैं,
क्योंकि अहंकार कहता है: उस बारे में कुछ रास्ता जरूर होना ही चाहिए।
अहंकार कहता है : यदि समस्या है, तो उसका समाधान भी होना चाहिए।
आखिर जरूरत क्या है? तुम एक समस्या सृजित कर सकते हो,
लेकिन प्रकृति में उसका समाधान भी हो, इसकी आवश्यकता क्या है।
और जैसा कि मैंने देखा है, दर्शनशास्त्र की निन्यानवे प्रतिशत समस्याएं ही
मूर्खतापूर्ण हैं।
उनका समाधान किया ही नहीं जा सकता,
लेकिन महान मस्तिष्क उन्हें हल करने की उलझन में फंसे हैं।

उदाहरण के लिए जैसे एक सामान्य समस्या है: इस संसार को किसने बनाया?
यह समस्या ही मूर्खतापूर्ण है, लेकिन महान धर्मशास्त्री, विद्वान और धार्मिक
लोग इसी के लिए अपना पूरा जीवन व्यर्थ बरबाद कर देते हैं।
हजारों वर्षों से बहुत से लोग इसी सम्बन्ध में चिंतित रहे हैं,
कि यह संसार किसने बनाया?
और इसे हल नहीं किया जा सकता, यह एक 'कुआन' है।
यह प्रश्न ही व्यर्थ है, क्योंकि पूरे प्रश्न की प्रकृति ही कुछ इस तरह की है,
कि तुम चाहे कुछ भी करो,
वह फिर उछल कर अपने पैरों पर खड़ा हो जाएगा।
उसका अंत नहीं किया जा सकता।
उदाहरण के लिए यदि तुम कहते हो:
'' ने यह संसार बनाया
तो तुरंत ही यह प्रश्न उठता है:
'' को किसने बनाया?
तुम कहते हो--'' ने बनाया '' को।
तब फिर प्रश्न उठ खड़ा होता है:
'' को किसने बनाया? और यह सिलसिला चलता चला जाता है,
और अंत में तुम इस पूरी चीज से थक जाते हो,
तब तुम्हें यह कहना ही पड़ेगा:
इस 'ज्ञ' को किसी ने भी नहीं बनाया।
फिर 'ज्ञ' तक जाते ही क्यों हो? पहले ही क्यों नहीं कहते
कि इस संसार को किसी ने भी नहीं बनाया। '' से 'ज्ञ' तक जाने से लाभ
क्या?
जब तुम्हें यह मानना ही है कि परमात्मा को किसी ने नहीं बनाया,
तो यह क्यों कहते हो कि परमात्मा ने संसार को बनाया?
यदि बिना सृजित किए परमात्मा हो सकता है,
तो यह अस्तित्व या संसार क्यों नहीं हो सकता? इसका कोई कारण दिखाई
ही नहीं देता।
लेकिन लोग हैं, कि वे प्रयास किए जा रहे हैं, और वे सोचते हैं
कि वे बहुत गम्भीर धार्मिक कार्य कर रहे हैं।
यह धार्मिक चिंतन भी नहीं है,
और वास्तव में कोई भी चिंतन धार्मिक होता ही नहीं।
न सोचना अथवा निर्विचार ही धार्मिक होता है।
क्या तुम शून्यता को पकड़ सकते हो? कैसी व्यर्थ की बात है।
शून्यता है कुछ भी नहीं, फिर तुम उसे कैसे पकड़ सकते हो?
उसकी न कोई सरहदें हैं और न सीमाएं हैं,
उसे पकड़ना सम्भव है ही नहीं, लेकिन अहंकार कहता है : मैं प्रयास
करूंगा।

भिक्षु ने कहा--मैं प्रयास करूंगा।
और उसने हाथों को ऊपर हवा में उठाकर मुट्‌ठी बांधी

उसने न केवल किया ही, यह कहा भी--मैंने प्रयास किया।
उसने हाथों को ऊपर उठाकर हवा में मुट्‌ठी बांधी।
तुम सोच सकते हो कि तुमने उसकी अपेक्षा यह बेहतर ढंग से किया होता पर
पर तुम करोगे क्या? तुम जो कुछ भी करोगे, वह वैसा ही होगा।
बिना यह जाने हुए कि तुम करोगे क्या, मैं कहता हूं--वह वैसा ही होगा।
तुम इधर उछलो अथवा उधर, और उसे पकड़ने का प्रयास करो--
तुम पूर्ण रूप से एक पागल ही दिखाई दोगे।

...और उसने हाथों को हवा में उठाकर उसे मुट्ठियों में बांधा।
सीको ने कहा--ऐसा करना ठीक नहीं है
तुम वहां कोई भी चीज न पाओगे।

यहां कुछ बात समझने जैसी है--
यदि तुम्हारे हाथ खुले हुए हैं, तो खालीपन या शून्यता वहां है:
यदि तुम्हारे हाथ खुले हुए नहीं हैं और तुमने मुट्ठी बांध ली है,
तो खालीपन या शून्यता मिंट गई।
मुट्टी के अन्दर कोई स्थान रहा ही नहीं:
खुले हुए हाथों में वहां पूरा आकाश और शून्यता थी
लेकिन वह थी खुले हाथों में।
इसका अर्थ बहुत सूक्ष्म है, लेकिन अत्यंत सुन्दर है--
यदि तुम उसे पकड़ने का प्रयास करोगे, तो उससे चूक जाओगे।
यदि तुम प्रयास नहीं करते हो, तो वह पहले ही से वहां है।
यदि तुम प्रयास नहीं करते हो, तो तुम्हारे खुले हाथों में पूरे आकाश का
अस्तित्व है
उससे जरा भी कम नहीं।
यदि तुम आकाश को पकड़ने का प्रयास करते हो
तो हर चीज विलुप्त हो जाती है।
तुम्हारी बंधी मुट्‌ठी में वहां है क्या?
थोड़ी-सी बासी हवा हो सकती है--
और इससे भी यही प्रदर्शित होता है कि मुट्‌ठी पूरी तरह ठीक से बंधी नहीं
यही कारण है कि जब मुट्‌ठी ठीक से पूरी तरह बंद होती है,
तो उसमें से पूरा आकाश विलुप्त हो जाता है।
अंतिम सत्य अर्थात् शून्यता वहां पहले ही से है:
उसे पाने का प्रयास करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है।
उसका प्रयास करने में ही तुम चूक जाओगे और भटक कर उसे खो दोगे।

महान जेन सद्‌गुरु लिन ची के पास एक व्यक्ति आया,
और उसने कहा : मैं बहुत परेशान हूं। मैं स्वयं बुद्ध जैसा ही बनना चाहता
हूं। मुझे क्या करना होगा?
लिन ची ने अपने डंडे से उस पर प्रहार किया और वह व्यक्ति बाहर भागा,
लिनची ने डंडा लेकर बाहर तक उसका पीछा किया और न केवल उसे
आश्रम की सीमा तक, उसने और आगे तक उसका पीछा किया।
एक व्यक्ति जो वहीं खड़ा हुआ था, उसने कहा:
''यह तो बहुत अधिक कठोरता है। उस बेचारे व्यक्ति ने कोई गलत चीज तो
नहीं पूछी थी, वह एक शुद्ध धार्मिक प्रश्न ही तो पूछ रहा था,
और वह बहुत निष्ठावान दिखाई देता था--
आपको उसकी आंखों और चेहरे को तो देखना चाहिए था।
वह वास्तव में एक लम्बा सफर तय करके आपके पास आया था,
और वह एक सामान्य, ईमानदार और धार्मिक प्रश्न ही तो पूछ रहा था,
कि कैसे बुद्ध बना जाए। और आपने जो कुछ भी कठोरता उस गरीब के प्रति
दिखलाई, वह अन्यायपूर्ण दिखाई देती है।''

लिन ची ने कहा: मैंने उसको बाहर इसलिए खदेड़ा,
क्योंकि वह व्यर्थ की बात पूछ रहा था, वह पहले ही से बुद्ध है
यदि वह प्रयास करेगा, तो चूक जाएगा।
और यदि वह यह समझ सकता है कि मैंने क्यों उस पर चोट की
और उसे क्यों खदेड़ कर बाहर का रास्ता दिखलाया,
तो उसे सारे प्रयास छोड़ देने चाहिए--
वहां कुछ पाने के लिए है ही नहीं, उसे केवल वही बनना है, जो वह स्वयं
यही तिलोपा कहता है--विश्राममय और सहज बनो।
और तब पाओगे कि अन्दर वहां पहले ही से बुद्ध विराजमान है।
किसी को भी बुद्ध बनना नहीं है, वह हमेशा एक बुद्ध बना जन्म ही लेता है।
बुद्धत्व तुम्हारा आंतरिक स्वभाव है, तुम्हें उसके बारे में--
पूछना ही नहीं चाहिए: और न उसके लिए कोई प्रयास ही करना चाहिए।
वह बेचारा खोजी, यह सोचते हुए कि लिन थी तो पागल था,
मैंने उससे एक साधारण सा प्रश्न ही तो पूछा था, और उसने मुझ पर चोट की
और फिर खदेड़ कर आश्रम के बाहर निकाल दिया,
वह तो पूरी तरह पागल है--वह एक दूसरे सद्‌गुरु के पास गया,
जो लिन ची का विरोधी था।
उन दोनों के मठ एक ही पहाड़ की चोटी पर पास-पास थे।
उसने महसूस किया-यह व्यक्ति तो ठीक होगा, क्योंकि वह-लिन ची
का विरोधी है, और अब मैं समझ सकता हूं
कि वह क्यों उसका विरोध करता है, वह उसके पास गया।

उस दूसरे सद्‌गुरु के निकट जाकर भी
उसने उससे वही प्रश्न पूछा। सद्‌गुरु ने कहा:
क्या तुम पहले भी कभी किसी सद्‌गुरु के पास गए हो?
उसने कहा: हां, मैं गया तो था, लेकिन वहां जाना ही गलत हुआ।
मैं लिन ची के पास गया था और उन्होंने डंडे से मुझे पर तगड़ा प्रहार किया
और मुझे आश्रम के बाहर खदेड़ दिया।
अचानक वह सद्‌गुरु इतना अधिक कुरूर और भयानक हो उठा,
जैसे मानो वह उसे मार ही डालेगा।
उसने अपनी तलवार म्यान से बाहर निकाल ली और कहा :
''क्या तू सोचता है कि मैं अज्ञानी हूं?
यदि लिन ची, वह सब कुछ कर सकता है, तो मैं तो तुझे पूरी तरह मार ही
दूंगा।
और वह व्यक्ति तेजी से भाग खड़ा हुआ।
उसने रास्ते में एक व्यक्ति से पूछा : आखिर मुझे अब क्या करना चाहिए?
उस आदमी ने उत्तर दिया: तुम वापस लिन ची के पास जाओ,
वह कहीं अधिक करुणामय है। उसने वैसा ही किया।
जब वह वापस लौटा तो लिन ची ने पूछा : तू फिर यहां वापस क्यों आ
गया?
उसने कहा: दूसरा सद्‌गुरु तो बहुत खतरनाक है, आपसे भी कहीं अधिक
खतरनाक।
उसने तो मुझे जान से ही मार दिया होता। वह तो एक भयानक पागल लगता
लिन ची ने कहा : हम दोनों एक दूसरे की सहायता करते हैं।
यह एक साजिश है।
अब तुम यहां रहो लेकिन कभी यह मत पूछना कि बुद्ध कैसे बना जाए?
क्योंकि वह तुम पहले ही से हो। किसी को उसे बस जीना होता है।
तुम एक बुद्ध की भांति ही रहो और जरा भी फिक्र मत करो,
और न कुछ बनने का प्रयास करो।
और वह व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया।

संभवत: यह सबसे अधिक महानतम सिखावन है: तुम उसे जीयो,
और तुम उसका रहस्य पा लोगे।
और यही मैं तुमसे भी करने के लिए कहता हूं।
तुम उसे जीयो, और तुम उसका रहस्य पा लोगे।
तुम्हें कुछ होने या घटने की फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं है
तुम वह पहले ही से हो।
और बुद्धत्व कभी भी 'कुछ बनना' नहीं होता, वह तुम्हारा ही अस्तित्व है।
तुम कभी भी बुद्ध बन नहीं सकते। तुम बुद्ध कैसे बन सकते हो?
या तो तुम हो अथवा तुम नहीं हो।
तुम बन कैसे सकते हो?
एक साधारण पत्थर, हीरा कैसे बन सकता है?
वह या तो हीरा है, अथवा नहीं है, बनना सम्भव नहीं है।
इसलिए तुम ही तय करो: या तो तुम हो, अथवा तुम नहीं हो।
यदि तुम वह नहीं हो, तो उसके बारे में प्रत्येक चीज भूल ही जाओ।
और यदि तुम हो, तो उसके बारे में सोचने की कुछ जरूरत ही नहीं है।
प्रत्येक स्थिति में तुम पूर्ण रूप से वही रहोगे, तुम जैसे भी और जो कुछ भी
हो

और तुम्हारे उस होने में ही प्रत्येक चीज स्वयं पकड़ में आ जाती है--
तुम स्वयं को भी बिना प्रयास के लपक सकते हो।

सीको ने कहा: ऐसा करना जरा भी ठीक नहीं है।
तुमने वहां कोई भी चीज नहीं पाई।
भिक्ष ने कहा: आप ठीक कहते हैं, सद्‌गुरु!
लेकिन आप हमें इससे बेहतर उपाय प्रदर्शित करते हुए बतलाएं।

वहां कोई भी रास्ता है ही नहीं, न उससे अच्छा और न उससे बुरा।
किसी उपाय या रास्ते का कोई अस्तित्व है ही नहीं,
क्योंकि उपाय करने का अर्थ है कि कुछ ऐसा है, जो बनना है,
रास्ते का अर्थ है कि कोई फासला है, जिसे यात्रा करके पूरा करना है।
उपाय या रास्ते का अर्थ है कि तुम और लक्ष्य अलग-अलग हो।
रास्ते का होना सम्भव है, यदि मैं तुम तक आने के लिए यात्रा कर रहा हूं।
रास्ता तभी सम्भव है यदि तुम यात्रा करते हुए मेरे पास आ रहे हो।
लेकिन कोई भी उपाय करना कैसे सम्भव है, यदि मैं स्वयं होने का प्रयास
कर रहा हूं।
वहां बीच में कोई फासला है ही नहीं।
यदि तुम स्वयं अपने तक ही पहुंचने की कोशिश कर रहे हो, तो रास्ता कैसे
सम्भव है?
वहां कोई स्थान या दूरी ही नहीं है।
तुम पहले ही से स्वयं में हो, रास्ते का कोई अस्तित्व ही नहीं है।
यही कारण है कि जेन इसे 'पथ रहित पथ' अथवा 'द्वार हीन द्वार' कहते हैं।
वहां कोई भी द्वार नहीं है और यही द्वार है।
'पथरहित पथ' का कहीं कोई अस्तित्व ही नहीं है,
और इसे समझ लेना ही मार्ग है।
जेन का प्रयास है कि तुम्हें तुरंत तुम्हारी ही शून्यता में फेंक दिया जाए
उसे टालने की वहां कोई जरूरत ही नहीं है।

भिक्षु ने कहा--आप ठीक कहते हैं सद्‌गुरु!
कृपया मुझे इस से बेहतर उपाय करके वतलाइए।

वह अभी भी उसी जाल में फंसा है। उसका अहंकार ही पूछ रहा है:
तब क्या कोई दूसरा अन्य उपाय सम्भव है?
हो सकता है कुछ अन्य उपाय सम्भव है?
हो सकता है कुछ अन्य कार्य किया जा सकता हो,
और आप उस शून्यता को पकड़ सकते हैं?

तुरन्त ही सीको ने भिक्षु की नाक पकड़ ली
और उसे झटका देकर अपनी ओर खींचा।

जेन सद्‌गुरु इतने अक्खड़ क्यों होते हैं?
और केवल जेन सद्‌गुरु ही इतने कठोर और निर्दय क्यों होते हैं?
क्योंकि उनमें एक सच्ची करुणा भी होती है,
और तुम्हें स्वयं तुम्हारे अन्दर केंद्र पर केवल इसी तरह फेंका जा सकता है।
और वहां कोई दूसरा रास्ता है ही नहीं। तुम्हें एक बिजली के झटके की
जरूरत होती है। तुम्हें आघात पहुंचाने वाले इलाज की जरूरत है।
धक्का या आघात पहुंचाने वाला इलाज ही क्यों?
क्योंकि केवल आघात, समय के एक छोटे क्षण के लिए
तुम्हारी विचार प्रक्रिया को रोक देता है अन्यथा ऐसा नहीं हो पाता।
केवल एक आघात या धक्के से ही तुम सजग और सचेत हो जाते हो,
और तुम्हारी मूर्च्छा टूटती है,
अन्यथा तुम तो नींद में चलने वाले व्यक्ति की भांति हो।
जब तक तुम्हें कोई सख्त चोट न पहुंचाए तुम्हारी नींद नहीं टूट सकती।

तुरंत ही सीको ने उस भिक्षु की नाक पकड़ ली
और उसे झटका देकर अपनी ओर खींचा।
'आउच' की ध्वनि के साथ भिलु चीखते हुए बोला :
आपने तो मुझ पर आघात किया?

इस 'आउच' शब्द में ही पूरा रहस्य है।
कोई व्यक्ति तुम्हारी नाक को एक झटके से खींचता है तो तुम्हारे अन्दर होता
क्या है?
पहली बात तो यह कि ऐसी कभी भी आशा नहीं कर रहा था वह।
भिक्षु तो किसी बुद्धिगत उत्तर सुनने की आशा कर रहा था,
और वस्तुत. सारा काम एक साथ हो गया।
सद्‌गुरु उस पर समग्रता से झपटा,
जैसे एक बिल्ली झपट कर चूहे को पकड़ लेती है।
एक घटना समग्रता से घटी।
बिल्ली का केवल सिर नहीं, बल्कि पूरी बिल्ली ही झपटी,
और चूहा भी उसने पूरा पकड़ा, अकेला उसका सिर नहीं।
अप्रत्याशित रूप से यह घटना समग्रता से हुई।
और अप्रत्याशित रूप से होना ही पूरी कुंजी है
क्योंकि यदि मन वह आशा कर सकता है, तो कोई आघात होगा ही नहीं।
यदि मन आशा कर सकता है, तब वह पहले ही से मृत है।
इसलिए यदि तुम सीको के पास जाओ, तो भली भांति स्मरण रखना,
वह फिर वैसा ही नहीं करेगा,
क्योंकि अब तुम उससे यह आशा कर सकते हो।
वह कुछ चीज पूरी तरह अप्रत्याशित रूप से और ही करेगा।
क्योंकि जेन सद्‌गुरु डंडे से प्रहार करते हैं, लोगों को खिड़की के बाहर फेंक
देते हैं, उन पर कूद पड़ते हैं, अथवा कुछ भी कर सकते है
जेन के इतिहास में कभी-कभी ऐसी घटनाएं घटती रही हैं,
इससे लोग पहले ही से तैयार होकर आते हैं,
आयाम सीमित हैं, आप क्या कर सकते हैं? आप डंडे से प्रहार कर सकते हैं,
आप खिड़की से बाहर फेंक सकते हैं, आप उस व्यक्ति पर छलांग लगा
सकते हैं।
केवल थोड़े से ही विकल्प हैं वहां।
इसलिए लोग इन सभी के लिए पहले से तैयार होकर आएंगे।

लेकिन तुम सद्‌गुरु को धोखा नहीं दे सकते--
वह इनमें से कोई भी काम करेगा ही नहीं:
वह पूर्ण रूप से शांत और मौन बैठा रहेगा-और वह अप्रत्याशित होगा।
अप्रत्याशित रूप से होना ही कुंजी है, क्योंकि एक अप्रत्याशित क्षण में ही
मन कार्य नहीं कर सकता। यही है उस 'आउच' ध्वनि का अर्थ।
मन पूरी तरह से रुक गया।
'आउच' की यह ध्वनि मन से नहीं आई,
यह तुम्हारी समग्रता से आती है।
यह अहंकार के द्वारा नियंत्रित नहीं होती,
क्योंकि अहंकार के पास उसे नियंत्रित करने का समय होता ही नहीं।
यह सब इतना अकस्मात् हुआ
सद्‌गुरु तुम्हारे ऊपर इतने आकस्मिक रूप से झपटा
कि वहां पहले ही से तैयार होने अथवा कुछ करने का समय था ही नहीं।
यह 'आउच' तुम्हारे पूरे शरीर, मन और आत्मा से आता है।
यह तुम्हारे अन्दर की अतल गहराइयों की शून्यता से आता है,
जिसमें समग्रता की सुवास होती है।
और वहां कोई नियंत्रण करने वाला नहीं है,
किसी भी व्यक्ति ने कुछ किया नहीं है--वह घटा है।
और जब भी कोई चीज घटती है, और करने वाला कोई भी नहीं होता
वह शून्यता तभी पकड़ में आती है,
और उस तरह से तुम शून्यता से घिर जाते हो।
यह वही शून्यता है। यह 'आउच' की ध्वनि तुम्हारी आंतरिक शून्यता से आ
रही है।
उसका करने वाला कोई भी नहीं है।
उसे उस शिष्य ने निर्मित नहीं किया है, वह प्रामाणिकता से घटी है
और उसके घटने में, उस 'आउच' के आने में, मन ने कुछ भी कार्य नहीं
किया है।
वह मन से होकर गुजरी जरूर है, लेकिन वह ध्वनि मन से नहीं आई है।
और वह मन के द्वारा इतनी अधिक तेज रफ्तार से गुजरी है...
वास्तव में झटके से खींचने पर तुम्हारी नाक को चोट लगी,
यह जो 'आउच' घटता है, यह सभी ध्वनि की सीमाओं को तोड़ देता है।

तुम जाकर शरीर विज्ञानियों से पूछो : यह ध्वनि से भी अधिक तेज गति से

भागती है, उसमें समग्र ऊर्जा होती है और यह सुन्दर इसलिए है--क्योंकि
यह व्यक्ति अपने अस्तित्व की सहजता और स्वाभाविकता को पूरी तरह भूल
गया था।
वह वापस उसी अंतर्निहित सहजता में फेंक दिया गया।
वह मन से दूर, अपने अंतस की उस गहनतम घाटी की शून्यता में फेंक दिया
गया
जहां से यह 'आउच' की ध्वनि आती है।
जो करने से नहीं, अप्रत्याशित रूप से घटती है।
वह इसी शून्यता से घटती है, और तुम्हें पकड़ लेती है,
तुम्हें चारों ओर से घेर लेती है।
'आउच भिक्षु चीखा : आपने मुझे चोटिल कर दिया।
और तुरंत प्रतिध्वनि वापस लौटती है: आपने मुझ पर चोट की?
यह स्थिति केवल एक क्षण भर रही, एक क्षण भी नहीं,
उसके भी बहुत छोटे से भाग तक ही, एक झलक की तरह,
बिजली की एक कौंध की तरह।
और तुरंत ही मन ने फिर से नियंत्रण संभाल लिया:
और कहा: आपने मुझ पर चोट की?
जरा इन तीन शब्दों को ध्यान से देखो--आपने, मुझ पर चोट की?
यही है हम सभी का पूरा जीवन: 'तुमने' और 'मुझे' और 'चोट'
तुरंत ही पूरा मन वापस आ गया--
अपने उन सभी मूल तत्वों के साथ 'तुम' 'मैं' और 'चोट'
सीको ने कहा: शून्य को पकड़ने का यही है वह रास्ता।
उसने प्रत्यक्ष रूप से प्रकट कर दिया
उसने कोई व्याख्या कर उसे स्पष्ट नहीं किया, वह उसने पहले ही दे दी थी।
उसने न केवल उस ओर इशारा किया,
उसने एक स्थिति निर्मित की, जिसमें वह घटा।

एक सद्‌गुरु होता ही इसीलिए है,
एक ऐसी स्थिति सृजित करने के लिए जिसमें तुम्हें कुछ घटने लगे,
एक ऐसी स्थिति निर्मित करने के लिए जिसमें तुम मन की यांत्रिकता के
प्रति, और अपने आंतरिक अनस्तित्व के प्रति सचेत बन सको।
तब तुम धीमे-धीमे अपने मन से अपनी आंतरिक सहजता की ओर गतिशील
हो सकते हो।
तुम विश्राममय और स्वाभाविक बन सकते हो।
तुम्हें यह समझना होगा कि प्रत्येक चीज, बिना मन के जो नियंत्रित करने की
कोशिश करता है, कार्य कर सकती है और बहुत सुन्दरता से कार्य कर सकती
है।
कठिनाई शुरू तभी होती है जब तुम उसे अपने हाथों में लेने की कोशिश
करते हो,
जब तुम उसे नियंत्रित करने की कोशिश करते हो,
जब तुम चाहते हो कि मन तुम्हारे शरीर रूपी घोड़े का सवार बन जाए
मुसीबत तभी शुरू होती है।
अन्यथा प्रत्येक चीज स्वत: हो रही है, और इतनी सुन्दरता से हो रही है,
कि उसमें सुधार करने की अथवा उसे विकसित करने की कोई जरूरत ही
नहीं है।

सद्‌गुरु ने उसे अपने आंतरिक अस्तित्व की एक झलक दी,
क्योंकि 'आउच' की ध्वनि उसके केंद्र से आई थी,
वह न शरीर से आई थी और न मन से वह समग्रता से आई थी,
और उस क्षण में उसने एक कर्ता की भांति नहीं, एक सहज अस्तित्व के रूप
में कार्य किया।

इस तरह से कार्य करना तुम्हारा पूरा जीवन बन सकता है-
यही है वह चीज जिसे धर्म की जरूरत है।
एक धार्मिक जीवन होता है--सहज स्वाभाविक मनुष्य का कार्य करना।
यहां प्रत्येक क्षण स्थितियां सृजित होती हैं।
तुम कार्य तो करो, लेकिन कर्त्ता की भांति नहीं। जो करो सहजता से करो।
कोई व्यक्ति मुस्कराता है, तुम करोगे क्या?
तुम एक कर्ता बनकर मुस्करा सकते हो, तुम उसे व्यवस्थित कर सकते हो।
तुम इसलिए मुस्करा सकते हो, क्योंकि यदि तुम न मुस्कराए
तो वह एक असभ्यता होगी
तुम्हें इसलिए मुस्कराना है, क्योंकि जिस समाज में तुम रहते हो,
उसी समाज में यह व्यक्ति बहुत महत्वपूर्ण है,
वह तुम्हें देखकर मुस्कराया, इसलिए तुम्हें भी मुस्कराना होगा,
भले ही यह बहुत बड़ी चापलूसी समझा जाए।
यह एक व्यापारिक सौदा अथवा एक सामाजिक शिष्टाचार हो सकता है,
अथवा यह अचेतन की एक सामान्य आदत हो सकती है।
जब कोई व्यक्ति मुस्कराता है, तो प्रतिक्रिया स्वरूप तुम भी मुस्कराते हो।
यह बटन दबाकर लाई गई नकली मुस्कान है,
तुम्हारा अस्तित्व इससे पूरी तरह अप्रभावित रहता है।
वास्तव में उस मुस्कान में तुम किसी तरह उपस्थित नहीं रहते हो,
वह केवल होंठों पर चित्रित की गई या ओढ़ी हुई मुस्कान होती है।
वह होंठों का केवल एक व्यायाम होता है, उसमें कुछ भी नहीं होता,
वह खोखली होती है। तुम उसकी व्यवस्था करते हो।

एक बार ऐसा हुआ कि मैं जिस घर में रुका था
उस घर के मालिक की मृत्यु हो चुकी थी, और उसकी कोई पत्नी भी न थी,
इसलिए उसकी बहिन व्यवस्था में सहायता करने के लिए आई हुई थी।
चूंकि मैं वहां ठहरा हुआ था, इसलिए जो कुछ वहां हो रहा था,
उसका पूरी तरह से निरीक्षण कर रहा था मैं।
उसकी बहिन जब दरवाजे पर किसी को आते हुए देखती थी,
वह तुरंत ही रोना और विलाप करना शुरू कर देती थी,
और मृत व्यक्ति के बारे में बहुत सी बातें करना शुरू कर देती थी...
कि वह कितना प्यारा और सुन्दर था
और उसके चले जाने से उसके पूरे जीवन में सिर्फ उदासी रहेगी,
वह एक रोशनी की तरह था, उसके बुझ जाने से हर चीज अंधेरी हो गई।
और वह किसी भी व्यक्ति के आने पर तुरंत ही सब कुछ चीजें
वैसे ही यांत्रिक रूप से फिर करने लगती थी।
एक दिन उसने मुझसे खुलकर कहा--आप बाहर बगीचे में अधिक बैठा करें,
यदि कोई व्यक्ति दरवाजे पर आता दिखाई दे, तो मुझे खटखटा कर बता
दिया करें।
और जब आने वाला व्यक्ति चला जाता था, तो वह पूरी तरह सामान्य हो
जाती थी।
जब वह रोती हुई विलाप करती थी तो उसके गालों पर आसू बहने लगते थे,
लेकिन जैसे ही वह व्यक्ति घर के बाहर पीठ फेरता था,
उसके आंसू गिरना बंद हो जाते थे, और वह पूरी तरह ठीक हो जाती थी,
वह पहले की ही भांति हंसते-मुस्कराते बातें करती हुई सारे कार्य करने
लगती थी।
मैं उसे देखकर बहुत हैरान हो जाता था।
मैंने उससे पूछा--तुम यह सब कुछ कैसे कर लेती हो?
तुम्हें तो एक कुशल अभिनेत्री होना चाहिए था।
तुम साधारण रूप से अपनी परिपूर्णता से जब अभिनय करती हो,
तो तुम्हारी आंखों से आंसू भी बहने लगते हैं।

व्यवस्थित करना, नियंत्रित करना...
तुम न केवल किसी दूसरे व्यक्ति के शरीर को नियंत्रित कर रहे हो,
तुम अपने भी शरीर को नियंत्रित कर रहे हो--
और ऐसा निरंतर चलता चला जा रहा है।
सारी सहजता और स्वाभाविकता खो गई है, तुम एक यांत्रिक मनुष्य बन गए
हो
इसी तरह से जीवन कुरूप और अपंग बन जाता है
इसी तरह से एक नर्क निर्मित हो जाता है।
तब तुम्हारा प्रेम भी झूठा है, तुम्हारी घृणा भी नकली है
तुम्हारी मुस्कान भी झूठी है, तुम्हारे आंसू भी दिखावटी हैं।
ऐसे झूठे और नकली जीवन को जीते हुए तुम सोचते हो आध्यात्मिक आनंद
की बात
ऐसे झूठे और नकली जीवन को जीते हुए तुम सोचते हो
सत्य को उपलब्ध होने की बात,
ऐसे झूठे और नकली जीवन को जीते हुए तुम सोचते ही मुक्ति और मोक्ष,
एक नकली और झूठे व्यक्ति के लिए कहां कोई भी मोक्ष नहीं है।
इस झूठ को तुरंत छोड़ो
सहज और सरल बनो।
यहां खोने को कुछ भी नहीं है
और पाने के लिए सब कुछ है।
शुरू-शुरू में कभी-कभी तुम्हें यह थोड़ा सा भद्दा लग सकता है
क्योंकि सामाजिक शिष्टाचार के कारण ही तुम्हें मुस्कराना पड़ा,
जब कि सहज और स्वाभाविक दशा में वहां कोई मुस्कान थी ही नहीं।
लेकिन केवल शुरू-शुरू में ही ऐसा लगेगा।
शीघ्र ही तुम्हारी प्रामाणिकता को दूसरे लोग महसूस करेंगे,
और तुम्हारी प्रामाणिकता शीघ्र ही तुम्हें कुछ देने लगेगी।
वह इतना अधिक देती है, कि जब एक सच्ची मुस्कान--
तुम्हारे होंठों पर आती है, तो वह 'आउच' की भांति उतनी ही पूर्ण और
समग्र होती है।
तुम्हारा पूरा अस्तित्व मुस्कराता है।
तुम्हारा पूरा अस्तित्व ही एक मुस्कान बन जाता है
तुम्हारी मुस्कान तुम्हारे चारों ओर फैलकर जैसे चेतना को तरंगित कर देती है।
प्रत्येक व्यक्ति जो तुम्हारे निकट होता है एक पावनता और शुचिता का
अनुभव करेगा, एक स्नान करने के बाद मिलने वाली शुचिता और ताजगी
जैसी, और तुम अत्यधिक आनंद को घटते हुए महसूस करोगे।
एक प्रामाणिक सहजता से किए साधारण से कृत्य से
तुम तुरंत ही इस संसार से दूसरे संसार में यात्रा करते हुए पहुंच जाते हो।
प्रेम-अथवा वह क्रोध भी हो...
और मैं तुमसे कहता हूं कि यदि विधायक भावनाएं भी नकली हैं, तो वे
कुरूप हैं और नकारात्मक भावनाएं यदि प्रामाणिक हैं, तो वे सुन्दर हैं।

जब तुम्हारा पूरा अस्तित्व क्रोध का ही अनुभव करे,
जब तुम्हारे शरीर का रेशा-रेशा उसके साथ कांपने लगे,
तो क्रोध भी सुन्दर होता है।
तुम एक छोटे बच्चे को क्रोधित होते देखो--
और तब तुम उसके सौंदर्य का अनुभव करोगे।
उसका पूरा अस्तित्व उसी में डूब जाता है। उसका चेहरा लाल हो जाता है,
वह दीप्तिवान हो उठता है।
इतना छोटा सा बच्चा, इतना शक्तिशाली दिखाई देने लगता है
जैसे वह पूरे संसार को नष्ट कर सकता है।
एक बार क्रोधित होने पर बच्चे को भी क्या कुछ घटता है?
कुछ ही क्षणों, कुछ ही मिनटों के बाद हर चीज बदल जाती है,
और वह खुश हो उठता है। वह फिर घर में चारों ओर दौड़ने और नाचने
लगता है।
ऐसा तुम्हारे साथ क्यों नहीं होता?
तुम एक नकलीपन से दूसरे नकलीपन की ओर गतिशील हो जाते हो।
वास्तव में क्रोध बहुत देर तक रहने वाली घटना नहीं है,
अपने स्वभाव के अनुसार वह एक क्षणिक भावावेश है,
यदि क्रोध सच्चा और प्रामाणिक है, तो वह कुछ क्षणों तक रहता है,
और जब वह समाप्त होता है, वह प्रामाणिक और सुन्दर होता है।
वह किसी को भी नुकसान नहीं पहुंचाता।
एक सच्ची सहज चीज किसी को नुकसान पहुंचा भी नहीं सकती।
केवल नकलीपन और झूठ ही नुकसान पहुंचाता है।
एक मनुष्य में कौन सहजता से क्रोध में बने रह सकता है?
कुछ ही क्षणों के बाद ज्वार, भाटा बनकर उतर जाता है
और ठीक दूसरी अति पर जाकर पूरी तरह से विश्राममय हो जाता है।
वह अत्यधिक प्रेमपूर्ण बन जाता है
इस क्रोध ने उसके प्रेम को नष्ट नहीं किया।
कोई भी प्रामाणिक क्रोध कभी प्रेम को नष्ट नहीं करता,
इसके विपरीत वह उसे बार-बार सृजित करता है,
उसे नवीनता और ताजगी देता है।

यदि एक पति और पत्नी कभी भी एक दूसरे पर क्रोध नहीं करते
तो यह निश्चित है कि उनके मध्य प्रेम है ही नहीं।
यह बात पूरी तरह विश्वसनीय है।
यदि कभी-कभी वे क्रोधित होते हैं, प्रामाणिक रूप से क्रोधित,
तो वह क्रोध प्रत्येक चीज को एक ताजगी से भर देता है।
वास्तव में क्रोध के उतर जाने के बाद,
वे पुन: एक बार फिर हनीमून मनाएंगे।
अब हर चीज ताजी और नवीन है, तूफान गुजर चुका है,
उसने प्रत्येक चीज को साफ कर उजला बना दिया है,
अब वे फिर से नए हो गए हैं। वे फिर से चंचल हो उठे हैं,
और वे फिर प्रेम करेंगे।
प्रेम में बार-बार गिरना, बार-बार प्रेम करना, यही प्रेम की शाश्वतता है।
और यदि वहां सच्चा क्रोध नहीं है, तो वह क्रोध है ही नहीं
यदि तुम अन्दर ही अन्दर तो उबल रहे हो, लेकिन चूंकि तुम एक पति हो,
और वह तुम्हारी पत्नी है, और तुम उसके सामने चेहरे पर एक मुस्कान चस्पा
करके जाते हो,
तो वह दबा क्रोध समस्या उत्पन्न करेगा।
यदि अब तुम मुस्कराते हो, तो वह मुस्कान नकली है।
और पत्नी भी भली भांति जानती है, कि वह मुस्कान नकली है
और तुम भी जानते हो कि उसकी भी मुस्कान नकली है,
और घर में तुम लोग एक नकली जीवन जी रहे हो।
और यह बनावटीपन इतने गहरे में अंतर्निहित हो जाता है
कि वास्तव में एक सच्ची मुस्कान क्या होती है, तुम पूरी तरह से उस ओर
जाने वाले रास्ते को ही भूल जाते हो।
एक सच्चा चुम्बन क्या होता है, और एक सच्चा आलिंगन क्या होता है
तुम उस ओर जाने वाले मार्ग को पूरी तरह खो देते हो।
अब तुम चेष्टा करके पत्नी के पास जाते हो, उसे आलिंगन में लेते हो,
उसका चुम्बन लेते हो, और अन्य दूसरी चीजों के बारे में सोचते हो,
अब तुम प्रयास करके ही गतिशील होते हो,
लेकिन तुम्हारी सारी चेष्टाएं और मुद्राएं नपुंसक हैं, मृत हैं।
फिर तुम्हारा जीवन कैसे पूर्ण और तृप्त हो सकता है?

और मैं तुमसे कहता हूं कि यदि नकारात्मक भावनाएं भी सच्ची हों
तो अच्छा है, और यदि वे प्रामाणिक हैं तो धीरे-धीरे
उनकी वास्तविक प्रामाणिकता ही उनको रूपांतरित कर देती है।
वे अधिक से अधिक विधायक होते जाते हैं,
और एक क्षण ऐसा आता है, जब सारी विधायकता और नकारात्मकता लुप्त
हो जाती है।
तुम शुद्ध रूप से प्रामाणिक बन जाते हो:
तुम नहीं जानते कि क्या अच्छा है और क्या बुरा।
तुम यह भी नहीं जानते कि क्या विधायक है, और क्या नकारात्मक।
तुम शुद्ध रूप से प्रामाणिक हो जाते हो।
यह प्रामाणिकता ही तुम्हें अनुमति देगी, कि तुम सत्य की झलक पा सको,
केवल असली ही असली को जान सकता है
केवल सत्य ही सत्य को जान सकता है,
और प्रामाणिक ही प्रामाणिक सत्य को जान सकता है, जो तुम्हें-चारों ओर
से घेरे है।

यही एक मार्ग है शून्यता को पकड़ने का।
सद्‌गुरु ने एक स्थिति निर्मित की,
शिष्य को सहज स्वाभाविक कृत्य की ओर गतिशील होने की अनुमति दी।
वह कृत्य चाहे कितना भी छोटा क्यों न हो-केवल एक 'आउच' की
ध्वनि, और बिजली की कौंध की भांति घटना घट गई।
यह एक 'सतोरी' भी बन सकती है, जो बुद्धत्व का पहला चरण है।

इसलिए थोड़ी सी बातों का स्मरण बना रहे!
तुम्हें यांत्रिकता से सहजता और स्वाभाविकता की ओर गतिशील होना है,
तुम्हें बुद्धि से हृदय की ओर, और शब्द से निःशब्द की ओर,
खण्ड से अखण्ड की ओर
नकली से असली की ओर,
अहंकार से निरहंकार की ओर,
और आत्मा से अनात्मा की ओर गतिशील होना है।
वह अनात्मा अथवा शून्यता तुम्हारी आत्मा के निकट पहले ही से अस्तित्व में
है।
केवल ध्यान की दिशा बदलनी है,
बस एक गियर बदलने की जरूरत है।
यांत्रिकता के निकट ही सहजता और स्वाभाविकता भी अस्तित्व में है,
झूठ के निकट, सत्य सदा प्रतीक्षा करता रहता है--
केवल गेस्टाल्ट बदलना है।
सहजता की ओर केवल एक दृष्टि डालने की जरूरत है।
चौबीस घंटे, इसके लिए प्रयास करते रहो।
जब भी तुम्हें नकली से असली और प्रामाणिक की ओर गतिशील होने का अवसर मिले,
जब भी तुम्हें यांत्रिक कार्य से सहज सरल और प्रामाणिक की ओर गतिशील
होने का मौका मिले
तुरंत गिअर बदल दो।
नदी की धारा में यों बहते रहो, जैसे मानो तुम एक शून्यता हो।
अपने आपको बहुत अधिक नियंत्रित करने का प्रयास मत करो, बस विश्राममय
और सहज स्वाभाविक बने रहो।


आज इतना ही 

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