मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो
सत्र-बारहवां
ओ. के., अब यह पोस्ट-पोस्टस्क्रिप्ट है। मेरी परेशानी समझना मुश्किल है। जहां तक मुझे याद है मैं हमेशा से पढ़ता ही रहा हूं और दिन हो कि रात हो मैंने पढ़ने के सिवाय और कुछ भी नहीं किया है, लगभग आधी शताब्दी मैं पढ़ता ही रहा हूं। इसलिए स्वभावतः, किसी पुस्तक का चुनाव करना करीब-करीब एक असंभव सा कार्य है। लेकिन मैंने इन सत्रों में यह काम जारी रखा है, इसलिए जिम्मेवारी तुम्हारी है।पहली: मार्टिन बूबर... यदि मार्टिन बूबर को शामिल न करता तो मैं अपने आप को कभी माफ नहीं कर पाता। प्रायश्चित के रूप मैं उनकी दो पुस्तकें शामिल कर रहा हूं: पहली है, ‘टेल्स ऑफ हसीदिज्म।’ डी. टी. सुजुकी ने झेन के लिए जो किया है, वही बूबर ने हसीद धर्म के लिए किया है। दोनों ने साधकों के लिए अदभुत कार्य किया है, लेकिन सुजुकी बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए; पर अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि बूबर नहीं हो सके।
बूबर एक महान लेखक, दार्शनिक, विचारक थे, लेकिन ये सब खेलने के लिए खिलौने हैं। फिर भी, उनका नाम शामिल करके मैं उन्हें सम्मान दे रहा हूं। क्योंकि उनके बिना संसार को ‘हसीद’ शब्द का पता भी न चलता।
बूबर का जन्म हसीद परिवार में हुआ था। बचपन से ही वे हसीदों के बीच पल कर बड़े हुए। यह उनकी हड्डी-मांस-मज्जा में था, इसलिए जब वे उसका वर्णन करते हैं तो यह सत्य प्रतीत होता है, हालांकि वे वही वर्णन कर रहे हैं जो उन्होंने उसके बारे में सुना है, और अधिक कुछ भी नहीं। उन्होंने सही सुना है; इसे रिकॉर्ड में लिखा जाना चाहिए। सही-सही सुनना तो बहुत कठिन है ही, और फिर बड़े पैमाने पर पूरी दुनिया को बताना तो और भी कठिन है, लेकिन उन्होंने इसे सुंदर ढंग से किया है।
सुजुकी बुद्धपुरुष हैं, बूबर नहीं हैं--लेकिन सुजुकी महान लेखक नहीं हैं, बूबर हैं। सुजुकी एक सामान्य लेखक हैं। जहां तक लेखन की कला का संबंध है बूबर का स्थान बहुत ऊंचा है। लेकिन सुजुकी को सत्य का पता है, और बूबर को नहीं है; वे केवल अपनी परंपरा का वर्णन कर रहे हैं जिसमें उनका पालन-पोषण हुआ है... निस्संदेह, उनका वर्णन प्रामाणिक है।
‘टेल्स ऑफ हसीदिज्म’ सत्य के सभी खोजियों को पढ़ना चाहिए। इन कहानियों में, इन छोटी-छोटी कहानियों में एक तरह की सुगंध है। यह झेन से अलग है। यह सूफीज्म से भी अलग है। इसमें अपनी स्वयं की ही सुगंध है, जो किसी से उधार नहीं ली गई है, न कोई नकल, न कोई अनुकरण। हसीद प्रेम करते हैं, हंसते हैं, नृत्य करते हैं। उनका धर्म दमन का नहीं, बल्कि उत्सव का है। यही कारण है कि मेरे लोगों में और हसीदों के बीच एक सेतु है। यह संयोगवश नहीं है कि इतने सारे यहूदी मेरे पास आए हैं; वरना, जहां तक बन पड़ता है मैं हमेशा यहूदियों के सिर पर चोट करने से बाज नहीं आता हूं...और फिर भी वे जानते हैं कि मैं उन्हें प्रेम करता हूं। यहूदी धर्म के सारतत्व से मुझे प्रेम है, और वह हसीद धर्म है। मूसा ने निश्चित ही इसके बारे में सुना भी न होगा, लेकिन वे एक हसीद थे; चाहे वे इस बात को जानते हों या न जानते हों इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। मैं उन्हें हसीद घोषित करता हूं--और इसी तरह मैं बुद्ध, कृष्ण, नानक और मोहम्मद को हसीद घोषित करता हूं। हसीद धर्म बाल शेम के बाद अस्तित्व में आया। शब्द से कोई फर्क नहीं पड़ता, असली बात आत्मा है।
मार्टिन बूबर की दूसरी पुस्तक: ‘आइ एंड दाउ’--‘मैं और तू।’ यह उनकी सबसे प्रसिद्ध पुस्तक है, जिसके लिए उन्हें नोबल प्राइज दिया गया था। मुझे क्षमा करना, लेकिन मैं इससे पूरी तरह से असहमत हूं। मैं इसका उल्लेख कर रहा हूं, क्योंकि यह एक सुंदर पुस्तक है, कलात्मक ढंग से, बहुत गहराई और ईमानदारी के साथ लिखी गई है, लेकिन फिर भी इसमें आत्मा नहीं है, क्योंकि स्वयं बूबर में ही आत्मा नहीं थी। तो बेचारा बूबर अपनी पुस्तक में इसे कैसे ला सकता था, अपनी श्रेष्ठ रचना में?
‘आइ एंड दाउ’ का यहूदी लोग बहुत ज्यादा सम्मान करते हैं, क्योंकि वे सोचते हैं कि यह पुस्तक उनके धर्म का प्रतिनिधित्व करती है। लेकिन यह किसी भी धर्म का प्रतिनिधित्व नहीं करती है, न यहूदी धर्म, न हिंदू धर्म। यह केवल उस आदमी के अज्ञान का प्रतिनिधित्व करती है जिसे मार्टिन बूबर कहा जाता है। लेकिन निश्चित ही बूबर एक कलाकार थे, एक महान प्रतिभाशाली व्यक्ति। और जब कोई प्रतिभाशाली व्यक्ति उसके बारे में लिखना प्रारंभ करता है जिसके बारे में वह कुछ भी न जानता हो, तो भी वह श्रेष्ठतम कृति की रचना कर सकता है।
‘आइ एंड दाउ’ अपने मूल रूप में ही गलत है, क्योंकि बूबर कहते हैं कि यह व्यक्ति और परमात्मा के बीच एक संवाद है। ‘मैं और तू’...! बकवास! व्यक्ति और परमात्मा के बीच कोई संवाद नहीं हो सकता, बस केवल मौन हो सकता है। संवाद? किस विषय में बातचीत करोगे तुम परमात्मा से? डॉलर के अवमूल्यन के विषय में? या अयातुल्ला रूहोल्लाह खोमैनी के विषय में? तुम परमात्मा के साथ किस विषय में संवाद कर सकते हो? वहां कुछ भी नहीं है जिसके विषय में तुम संवाद कर सको। तुम बस एक विस्मय की स्थिति में हो सकते हो... निपट मौन।
उस मौन में न कोई ‘मैं’ बचता है और न कोई ‘तू’ बचता है; इसलिए मैं न केवल पुस्तक को बल्कि शीर्षक को भी मैं नकारता हूं। ‘आइ एंड दाउ’...? इसका मतलब है कि अभी भी कुछ अलगाव है। नहीं, यह तो ऐसा ही है जैसे एक कमल की पंखुड़ी से ओस की बूंद लुढक कर सागर में जा गिरे। ओस की बूंद खो जाती है, या दूसरे शब्दों में सागर हो जाती है, लेकिन वहां कोई मैं-तू नहीं रह जाता है। या तो वहां केवल मैं होता है या केवल तू होता है। लेकिन जब वहां मैं नहीं है, तो कोई तू भी नहीं हो सकता है, इसका कोई अर्थ ही न होगा। यदि वहां तू नहीं है, तो मैं भी नहीं हो सकता, वास्तव में तो केवल मौन है...यह विराम... मेरा क्षण भर का मौन उससे कहीं अधिक कह जाता है जो मार्टिन बूबर ‘आइ एंड दाउ’ में कहने का प्रयास करते हैं और असफल रहते हैं। लेकिन यह भले ही असफलता हो, यह एक अति उत्तम रचना है।
तीसरी...मार्टिन बूबर एक यहूदी थे, और अन्य यहूदी लाइन में खड़े हैं। हे भगवान, कितनी लंबी लाइन है, और बेचारे देवगीत और आशु... आखिरकार इन्हें भी तो भोजन की जरूरत है, ये सिर्फ मेरे शब्दों पर तो जिंदा रह नहीं सकते हैं। इसलिए मैं जल्दी करूंगा। जितना मुझसे संभव हो सकेगा ज्यादा से ज्यादा को मैं निपटाने की कोशिश करूंगा। लेकिन कुछ तो बहुत ही जिद्दी हैं, और मुझे पता है कि जब तक मैं उनके बारे में कुछ न कहूंगा तब तक वे जाने वाले नहीं हैं।
मार्टिन बूबर के बाद जो दूसरा आदमी है वह सबसे जिद्दी में से एक है--मुझसे ज्यादा जिद्दी नहीं। शायद किसी पिछले जन्मों में मैं यहूदी था; जरूर रहा होऊंगा। यह आदमी कार्ल मार्क्स है। पुस्तक वह जो अपने हाथ में थामे हुए हैं ‘दास कैपिटल’ है।
यह अब तक की लिखी गई सबसे निकृष्टतम पुस्तकों में से एक है। लेकिन एक तरह से यह एक बहुत बढ़िया पुस्तक है, क्योंकि लाखों लोगों पर इसका वर्चस्व है। लगभग आधी दुनिया कम्युनिस्ट है, और शेष आधे के बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। यहां तक कि जो लोग कम्युनिस्ट नहीं हैं, भीतर गहरे में उन्हें लगता है कि कम्युनिज्म में कुछ तो अच्छा है। इसमें कुछ भी अच्छा नहीं है। यह बस एक महान स्वप्न का शोषण भर है। कार्ल मार्क्स सपनों का सौदागर था--कोई अर्थशास्त्री नहीं, बिलकुल नहीं--सिर्फ सपने देखने वाला; एक कवि, वह भी तीसरे दर्जे की गुणवत्ता वाला कवि। वह एक महान लेखक भी नहीं है। ‘दास कैपिटल’ को कोई भी नहीं पढ़ता है। मैं अनेक प्रसिद्ध कम्युनिस्टों से मिला हूं, और उनकी आंखों में आंखें डाल कर मैंने उसने पूछा है, ‘‘आपने दास कैपिटल को पढ़ा है?’’ किसी एक ने भी हां नहीं कहा।
उन्होंने कहा, ‘‘केवल कुछ ही पन्ने... हमारे पास करने को और भी बहुत सारे काम हैं, हम इतनी बड़ी पुस्तक नहीं पढ़ सकते हैं?’’ हजारों पन्ने, और सब बकवास, न तो उसे कोई तर्कबद्ध रूप से लिखा गया है और न ही उसमें कोई सुसंगति है, वह ऐसे ही है जैसे कि कोई पागल हो गया हो। कार्ल मार्क्स के मन में जो कुछ भी आया वह वही लिखता चला गया। ब्रिटिश म्यूजियम में बैठे, हजारों किताबें चारों ओर फैलाए हुए, वह बस लिखता चला गया, लिखता ही चला गया। तुम्हें पता है, म्यूजियम बंद होने के समय यह रोज का कार्य होता था कि उसे खींच कर बाहर कर दिया जाता था। उसे निकालने के लिए बल का प्रयोग करना पड़ता था; वरना वह निकलता ही नहीं था। कभी-कभी तो उसे बेहोश ही उठाना पड़ता था।
अब यह आदमी एक भगवान बन गया है! यह एक अपवित्र त्रिमूर्ति की तरह है: कार्ल मार्क्स, फ्रेड्रिक एंजिल्स, और निस्संदेह लेनिन--ये तीनों व्यक्ति पृथ्वी पर लाखों लोगों के लिए लगभग देवताओं जैसे हो गए हैं। यह एक विपदा है, लेकिन फिर भी मैं इस पुस्तक का उल्लेख कर रहा हूं--इसलिए नहीं कि इसे पढ़ो, बल्कि इसलिए कि इसे मत पढ़ना। इसे रेखांकित करना मैंने जो कहा है: ‘इसे मत पढ़ना।’ तुम पहले ही एक झंझट में हो, वही काफी है। ‘दास कैपिटल’ को पढ़ने की कोई जरूरत नहीं है।
चौथी: याद रखना कि मार्क्स भी एक यहूदी है। यह पूरी कतार यहूदियों की है। चौथी है: सिग्मंड फ्रायड, एक और यहूदी। उसकी श्रेष्ठ कृति है ‘लेक्चर्स ऑन साइकोएनालिसिस।’ एनालिसिस, विश्लेषण शब्द मुझे पसंद नहीं है, न ही मैं इस आदमी को पसंद करता हूं, लेकिन इसने कार्ल मार्क्स की तरह एक बड़ा आंदोलन चलाया। यह भी दुनिया के प्रभावशाली लोगों में से एक है।
यहूदियों ने हमेशा दुनिया पर अपना वर्चस्व बनाए रखने का सपना देखा है। और वास्तव में उनका वर्चस्व रहा भी है। तीन सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति जिनके बारे में कहा जा सकता है कि इस आधुनिक युग में उनका वर्चस्व है: कार्ल मार्क्स, सिग्मंड फ्रायड, और अलबर्ट आइंस्टीन। ये तीनों यहूदी हैं। यहूदियों ने अपना सपना साकार कर लिया है, उनका वर्चस्व है। लेकिन जहां तक अर्थशास्त्र का संबंध है मार्क्स गलत है; फ्रायड गलत है, क्योंकि मन का विश्लेषण नहीं किया जाता है, बल्कि उसे हटा दिया जाए, जिससे कि तुम अ-मन की दुनिया में प्रवेश कर सको।
अपने सापेक्षवाद के सिद्धांत के बारे में अलबर्ट आइंस्टीन निश्चित ही सही है, लेकिन जब उसने प्रेसीडेंट रूजवेल्ट को एक पत्र लिख कर एटम बम बनाने का प्रस्ताव भेजा, तो उसने अपने आप को पूरी तरह से मूर्ख साबित कर दिया। हिरोशिमा और नागासाकी--हजारों लोग जो वहां थे मारे गए, जिंदा ही जला दिए गए, सभी अलबर्ट आइंस्टीन की ओर इशारा कर रहे हैं। वह आइंस्टीन का पत्र ही था जिससे अमरीका में एटम बम बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई। आइंस्टीन अपने आप को कभी क्षमा नहीं कर पाया; यह उस आदमी की अच्छी बात है। कम से कम उसने महसूस तो किया कि उससे कितना बड़ा पाप हो गया है। उसकी मृत्यु अत्यंत निराशा में हुई। मरने से पहले उसने कहा था: ‘‘मैं कभी भी, कभी भी, कभी भी फिर से एक भौतिकशास्त्री की भांति पैदा होना नहीं चाहूंगा, बल्कि बस एक प्लंबर होना चाहूंगा।’’
और आइंस्टीन मनुष्य के पूरे इतिहास में श्रेष्ठतम प्रतिभाशाली व्यक्तियों में से एक था। एक भौतिकशास्त्री होने के साथ क्यों वह इतना निराश था? क्यों? कारण सीधा साफ है कि उसे होश ही नहीं था कि वह क्या कर रहा है। जब तक वह होश में आता है बहुत देर हो चुकी थी... यही बेहोश आदमी का लक्षण है: उसे होश तभी आता है जब बहुत देर हो चुकी होती है। होश वाले आदमी पहले ही सावधान रहते हैं।
पांचवीं...इतने सारे यहूदी प्रतीक्षा कर रहे हैं, मेरे लिए यह इतना मुश्किल है कि किसको चुना जाए और किसको नहीं? और तुम्हें पता है कि यहूदियों सेपार पाना कितना कठिन है। इसलिए झंझट से बचने के लिए मैं पूरी लाइन को ही छोड़ रहा हूं। तो अब और कुछ शुरू करता हूं। कम से कम इस समय तो यहूदियों को जाने दो। आप सभी लोग जाओ! मैं यहूदियों से बात कर रहा हूं, तुमसे नहीं।
पांचवीं: मैं चिंतित था कि शायद मैं गुरजिएफ की पुस्तक ‘मीटिंग्स विद दि रिमार्केबल मेन’ का उल्लेख न कर पाऊं। इस पी.पी.एस. के लिए परमात्मा को धन्यवाद। यह एक महान रचना है।
गुरजिएफ ने दुनिया भर की यात्रा की, विशेष रूप से मध्य पूर्व और भारत की। वे ऊपर तिब्बत तक गए, सिर्फ इतना ही नहीं, वे स्वर्गीय दलाईलामा के शिक्षक भी रहे थे...वर्तमान दलाईलामा के नहीं--यह तो बुद्धू आदमी है--बल्कि पहले वाले के। तिब्बती भाषा में गुरजिएफ का नाम ‘दोरजेब’ लिखा जाता है, और कई लोगों ने समझा कि ‘दोरजेब’ कोई और है। वे कोई और नहीं बल्कि जॉर्ज गुरजिएफ हैं। क्योंकि यह तथ्य ब्रिटिश सरकार को मालूम था कि गुरजिएफ कई सालों तक तिब्बत में रहे हैं; सिर्फ यही नहीं, बल्कि कई वर्षों तक ल्हासा के महल में रहे थे--इसलिए उन्होंने गुरजिएफ को इंग्लैंड में रहने से रोक दिया। वे असल में इंग्लैंड में रहना चाहते थे, लेकिन उन्हें अनुमति नहीं मिली।
गुरजिएफ ने यह पुस्तक ‘मीटिंग्स विद दि रिमार्केबल मेन’ एक संस्मरण के रूप में लिखी है। यह पुस्तक उन सभी अदभुत लोगों के प्रति एक अति आदरणीय स्मृतिग्रंथ है जो उन्हें अपने जीवन में मिले थे--सूफी, भारतीय रहस्यदर्शी, तिब्बती लामा, जापानी झेन भिक्षु। मैं तुम्हें यह जरूर बताना चाहूंगा कि उन्होंने सभी के बारे में नहीं लिखा; उन्होंने बहुत से लोगों को इस पुस्तक से बाहर रखा, उसका सीधा सा कारण यह था कि पुस्तक बाजार में बिकने जाने वाली थी और यह बाजार की मांग को पूरा करने के लिए करना पड़ा।
मुझे किसी की मांग पूरी नहीं करनी है। मैं वह आदमी नहीं हूं जो बाजार की जरा भी चिंता करता हो, इसलिए मैं कह सकता हूं कि उन्होंने अपनी इस पुस्तक में सचमुच में सबसे उल्लेखनीय महत्वपूर्ण लोगों को बाहर छोड़ दिया है। लेकिन उन्होंने जो भी लिखा है वह बहुत ही सुंदर है। उससे अभी भी मेरी आंखों में आंसू भर आते हैं। जब भी कोई बात सुंदर लगती है मेरी आंखें भर आती हैं; सम्मान प्रकट करने का इसके अलावा और कोई उपाय नहीं है।
यह एक ऐसी पुस्तक है जिसका अध्ययन किया जाना चाहिए, यह सिर्फ पढ़ने के लिए नहीं है। अंग्रेजी में तुम्हारे पास ‘पाठ’ के लिए कोई शब्द नहीं है; यह हिंदी शब्द है जिसका अर्थ है पढ़ना, और एक ही चीज को रोज-रोज जीवन भर पढ़ना। इसका अनुवाद ‘पढ़ना’ नहीं हो सकता है, विशेषकर पश्चिम में जहां तुम कोई पुस्तक पढ़ते हो और एक बार पढ़ कर फेंक देते हो या ट्रेन में छोड़ देते हो। इसका अनुवाद ‘अध्ययन’ भी नहीं हो सकता है, क्योंकि अध्ययन एकाग्र होकर शब्द के अर्थ को, या शब्दों के अर्थ को समझने का प्रयास है। ‘पाठ’ न तो पढ़ना है और न ही अध्ययन है, बल्कि कुछ और ज्यादा है। यह है आनंदपूर्वक दोहराना, इतने आनंदपर्वक कि वह तुम्हारे हृदय में प्रवेश कर जाए, वह तुम्हारी श्वास ही बन जाए। इसके लिए पूरा जीवन चाहिए, और अगर तुम गुरजिएफ की ‘मीटिंग्स विद दि रिमार्केबल मेन’ जैसी वास्तविक पुस्तकों को समझना चाहते हो तो यह जरूरी है।
यह ‘डान जुआन’ की तरह कोई उपन्यास नहीं है--एक काल्पनिक आदमी जिसे एक अमरीकी कार्लोस कैस्टेनेडा द्वारा निर्मित किया गया था। इस आदमी ने मनुष्य-जाति का बहुत अहित किया है। आध्यात्मिक उपन्यास नहीं लिखे जाना चाहिए, इसका सरल सा कारण यह है कि फिर लोग यह सोचने लगते हैं कि आध्यात्मिकता भी बस एक उपन्यास से ज्यादा नहीं है।
‘मीटिंग्स विद दि रिमार्केबल मेन’ एक असली पुस्तक है। गुरजिएफ ने जिन लोगों का उल्लेख किया है उनमें से कुछ अभी भी जीवित हैं; मैं खुद उनमें से कई लोगों से मिल चुका हूं। मैं इस बात का गवाह हूं कि वे लोग काल्पनिक नहीं हैं, हालांकि मैं गुरजिएफ को भी माफ नहीं कर सकता क्योंकि उन्होंने कुछ सबसे उल्लेखनीय महत्वपूर्ण लोगों को छोड़ दिया।
बाजार से समझौता करने की कोई जरूरत नहीं है; समझौता करने की कोई भी जरूरत नहीं है। वे एक बहुत शक्तिशाली आदमी थे, मुझे आश्चर्य है कि उन्होंने समझौता क्यों किया, क्यों उन्होंने असली महत्वपूर्ण लोगों को छोड़ दिया। मैं उनमें से कुछ लोगों से मिल चुका हूं जिन्हें गुरजिएफ ने इस पुस्तक में छोड़ दिया है, उन्होंने खुद मुझे बताया कि गुरजिएफ उनके साथ रह चुके हैं। वे लोग अब बहुत वृद्ध हो चुके हैं। लेकिन फिर भी पुस्तक अच्छी है--आधी, अधूरी है, पर मूल्यवान।
छठवीं: मैंने एक पुस्तक को हमेशा ही पसंद किया है, इसके लेखक का पता नहीं है, वह अज्ञात है, हालांकि ऐसा जाना जाता है कि यह कबीर के किसी शिष्य द्वारा लिखी गई है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि किसने लिखी है, लेकिन जिसने भी लिखी है, इतना बिना किसी झिझक के कहा जा सकता है कि वह जरूर संबुद्ध रहा होगा।
यह छंदों की एक छोटी सी पुस्तक है, बहुत ही साधारण ढंग से लिखी गई है। हो सकता है लिखने वाला आदमी बहुत पढ़ा-लिखा नहीं रहा होगा, लेकिन उससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता। असली बात यह है कि उसके अंदर क्या है। हां, असली बात अर्थ रखती है--और वह है विषय-वस्तु। पुस्तक को कभी प्रकाशित भी नहीं किया गया है। जिन लोगों के पास यह पुस्तक है वे इसे प्रकाशित करने के खिलाफ हैं, और मैं उनकी भावनाओं को समझ सकता हूं और पूरी तरह से उनके साथ सहमत हूं।
वे कहते हैं कि जब कोई पुस्तक प्रकाशित हो जाती है तो वह बाजार का हिस्सा हो जाती है, और इसीलिए वे इसे प्रकाशित नहीं करना चाहते हैं। यदि किसी को पुस्तक चाहिए तो वह आए और अपने हाथों से इसकी नकल उतार ले। तो इसकी बहुत सी हस्तलिखित प्रतियां भारत में चारों ओर उपलब्ध हैं, लेकिन उन सभी ने वादा कर रखा है कि इसे प्रकाशित नहीं करेंगे। प्रकाशन निश्चित ही पुस्तक के साथ कुछ करता है; यह यांत्रिक हो जाती है, प्रेस में जाकर उसका कुछ खो जाता है। उसकी आत्मा खो जाती है; वहां से वह एक मुर्दा लाश होकर बाहर निकलती है।
इस पुस्तक का कोई नाम नहीं था; क्योंकि यह कभी प्रकाशित नहीं हुई इसलिए किसी शीर्षक की आवश्यकता भी न थी। जिन लोगों के पास मूल प्रति थी मैंने उनसे पूछा: ‘‘आप इसे किस नाम से बुलाते हैं?’’
उन्होंने उत्तर दिया: ‘‘ग्रंथ।’’
अब, ‘ग्रंथ’ का अर्थ तुम्हें समझना पड़ेगा। यह एक प्राचीन शब्द है, जब पुस्तकें कागज पर नहीं, पत्तों पर लिखी जाती थीं। कुछ विशेष पत्तों का लिखने के लिए उपयोग किया जाता है, और जब आप उन पत्तों को एक साथ बांधते हैं तो वह एक ‘ग्रंथ’ कहलाता है। ‘ग्रंथ’ का सही अर्थ है--‘पत्तों का एक साथ बंधा होना।’
पुस्तक में कुछ अत्यंत मूल्यवान वक्तव्य हैं। मैं कुछ का परिचय तुम्हें करवाता हूं। एक, यह कहता है: जो कहा जा सकता है, उसके बारे में चिंता मत करो, वह सत्य नहीं होता। सत्य कहा नहीं जा सकता। दूसरा: ‘ईश्वर’ केवल एक शब्द है--महत्वपूर्ण है, लेकिन उसका अस्तित्व नहीं है। ‘ईश्वर’ सिर्फ एक प्रतीक है जो एक अनुभव का प्रतिनिधित्व करता है, किंतु वह कोई वस्तु या व्यक्ति नहीं है। तीसरा: ध्यान मन की गतिविधि नहीं है, वह मन का हिस्सा नहीं है। इसके विपरीत, मन का छूट जाना ध्यान है। और इसी तरह इत्यादि, इत्यादि।
मैं ‘ग्रंथ’ का उल्लेख करना चाहता था, क्योंकि कहीं इसका उल्लेख नहीं हुआ है और कभी इसका अनुवाद भी नहीं हुआ है।
सातवीं...क्या मैं अब भी संख्या में सही हूं?
‘‘हां, ओशो।’’
मैं कार्ल मार्क्स और फ्रेड्रिक एंजिल्स के विरुद्ध हूं, लेकिन मुझे इन दोनों लोगों के द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘दि कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ की तारीफ करनी चाहिए--और याद रखना, मैं कम्युनिस्ट नहीं हूं! तुम मुझसे अधिक कम्युनिस्ट विरोधी आदमी कहीं नहीं पाओगे, लेकिन फिर भी मैं इस छोटी सी पुस्तक ‘दि कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ को प्रेम करता हूं। जिस ढंग से यह लिखी गई है उससे मुझे प्रेम है--इसकी विषय-वस्तु से नहीं, बल्कि इसकी शैली से।
तुम्हें पता है कि मेरी पसंद बहुआयामी है और मैं शैली की भी तारीफ करूंगा। बुद्ध ने तो अपनी आंखें और कान बंद कर लिए होते, महावीर तो भाग खड़े होते: शैली...? लेकिन मैं अपनी श्रेणी खुद हूं। हां, जिस शैली में ‘दि कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ लिखी गई है वह मुझे प्रिय है, और उसकी विषय-वस्तु से मुझे घृणा है। क्या तुम मेरी बात समझ रहे हो? कोई वेशभूषा से प्रेम कर सकता है और व्यक्ति से घृणा! क्योंकि असल में यही स्थिति मेरे साथ है। ‘दि कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ में अंतिम वचन है: ‘दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ! तुम्हारे पास खोने के लिए सिवाय जंजीरों के और कुछ भी नहीं है, और जीतने के लिए सारी दुनिया है।’
क्या तुम यह शैली देखते हो? बात को किस ताकत से कहा गया है: एक हो जाओ! तुम्हारे पास खोने के लिए सिवाय जंजीरों के और कुछ भी नहीं है, और जीतने के लिए सारी दुनिया है। यही मैं अपने संन्यासियों से कहता हूं, हालांकि मैं ‘एक हो जाने’ के लिए नहीं कहता, मैं कहता हूं: ‘मात्र होना, जस्ट बी’--और तुम्हारे पास खोने के लिए सिवाय जंजीरों के और कुछ भी नहीं है।
और मैं यह नहीं कहता कि तुम्हें दुनिया जीतनी है--किसे परवाह है, कौन चिंता करता है! क्या तुम मुझे राजी कर सकते हो कि मैं महान सिकंदर बन जाऊं, या नेपोलियन बोनापार्ट, या एडोल्फ हिटलर, या जोसफ स्टैलिन, या माओत्से तुंग? इन सभी बेवकूफों की लंबी लाइन है और मेरा इनके साथ कुछ भी लेना-देना नहीं है। मैं अपने संन्यासियों से नहीं कहता कि जीतो--जीतने के लिए कुछ भी नहीं है। ‘मात्र होना’--यही मेरा घोषणा-पत्र है। होना, क्योंकि होने में ही तुम्हें सब-कुछ मिल जाता है।
आठवीं...क्या मैं अब भी सही हूं?
‘‘हां, ओशो।’’
अच्छा। क्या तुमने अभी भी व्यवस्था बनाई हुई है? क्या तुमने पहले से ही कोई योजना बना ली है?...क्योंकि आज मुझे तुम्हारी फुसफुसाने की आवाज नहीं सुनाई दे रही है। थोड़ा-बहुत फुसफुसाओ, यह अच्छा लगता है।
आठवीं है: मार्सेल की पुस्तक ‘दि मिथ ऑफ सिसिफस’--‘सिसिफस की कथा।’ मैं साधारण अर्थ में कोई धार्मिक आदमी नहीं हूं; मैं अपने ही ढंग का धार्मिक आदमी हूं। इसलिए लोग आश्चर्य करते होंगे कि मैं उन पुस्तकों को क्यों शामिल कर रहा हूं जो धार्मिक नहीं हैं। वे धार्मिक हैं, लेकिन तुम्हें गहरी खुदाई करनी होगी, और तब तुम्हें उनमें धार्मिकता मिलेगी। ‘दि मिथ ऑफ सिसिफस’ एक प्राचीन पुराण-कथा है, और मार्सेल ने अपनी पुस्तक के लिए इसका उपयोग किया है। मैं तुम्हें इसकी कहानी सुनाता हूं।
सिसिफस, जो कि एक देवता थे, उन्हें स्वर्ग से बाहर निकाल दिया गया था, क्योंकि उन्होंने सर्वशक्तिमान परमात्मा की आज्ञा मानने से इनकार कर दिया और उन्हें सजा दी गई थी। सजा यह थी कि उन्हें एक बड़ी चट्टान घाटी से उठा कर पहाड़ के शिखर तक ले जानी थी, और शिखर इतना छोटा था कि हर बार जब भी वे उस भारी चट्टान को लेकर वहां पहुंचते और उसे वहां रखने की कोशिश करते, चट्टान फिर से घाटी की ओर नीचे लुढ़कना शुरू कर देती। सिसिफस हैं कि फिर जाते हैं घाटी में, फिर उठाते हैं चट्टान को, हांफते हुए, पसीने से लथपथ--एक अर्थहीन काम--अच्छी तरह से यह जानते हुए भी कि चट्टान फिर से फिसल जाएगी, लेकिन क्या कर सकते हैं?
आदमी की पूरी कहानी यही है। इसीलिए मैं कहता हूं कि यदि तुम खुदाई करोगे तो तुम्हें इनमें शुद्ध धर्म मिलेगा। यह स्थिति है आदमी की, और हमेशा से ऐसी ही रही है। तुम क्या कर रहे हो? बाकी सब लोग क्या कर रहे हैं? तुम एक चट्टान एक बिंदु तक ढोते हो जहां से वह बार-बार उसी घाटी में वापस फिसल जाती है, शायद हर बार और भी गहरे में। और अगली सुबह, निश्चित ही नाश्ते के बाद, तुम इसे फिर से ढोने लगते हो। और जब ढो रहे हो तुम्हें पता है कि क्या होने वाला है। यह फिर से फिसल जाएगी।
यह कहानी सुंदर है। मार्सेल ने फिर से इससे परिचित करा दिया है। वह एक बहुत धार्मिक व्यक्ति था। वास्तव में, वह असली अस्तित्ववादी था, ज्यां पाल सात्र नहीं, लेकिन वह प्रसिद्धि पाने के लिए कोई शोर-शराबा नहीं करता था, इसलिए वह कभी भी प्रसिद्ध नहीं हुआ। वह चुप रहा, चुपचाप लिखता रहा, और चुपचाप विदा हो गया। दुनिया में बहुत से लोग नहीं जानते हैं कि वह अब नहीं रहा। वह इतना शांत व्यक्ति था--लेकिन उसने जो लिखा है, ‘दि मिथ ऑफ सिसिफस’ वह बहुत ही अर्थपूर्ण है। ‘दि मिथ ऑफ सिसिफस’ आज तक की श्रेष्ठतम रचनाओं में से एक है।
नौवीं: मुझे बार-बार खयाल आता है, पता नहीं क्यों, मुझे लगता है कि बर्ट्रेंड रसल को शामिल करना चाहिए। मैंने सदा उसे प्रेम किया है, यह अच्छी तरह से जानते हुए भी कि हम दो अलग ध्रुव हैं--बल्कि एक-दूसरे से बिलकुल विपरीत हैं। शायद यही कारण है। विपरीत ध्रुव एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं। क्या तुम फिर से मेरी आंखों में आंसू देख रहे हो? ये बर्ट्रेंड रसल के लिए हैं--अपने मित्रों के बीच वह ‘बर्टी’ नाम से जाना जाता था। नौवीं पुस्तक है: बर्ट्रेंड रसल की: ‘दि हिस्ट्री ऑफ वेस्टर्न फिलॉसफी’--‘पाश्चात्य दर्शनशास्त्र का इतिहास।’
जहां तक पाश्चात्य दर्शन का संबंध है पहले किसी ने भी इस तरह का कार्य नहीं किया है। केवल एक दर्शनशास्त्री ही ऐसा कर सकता है। इतिहासकारों ने कोशिश की है, और दर्शनशास्त्र के कई इतिहास हैं, लेकिन इतिहासकारों में एक भी दर्शनशास्त्री नहीं था। यह पहली बार बर्ट्रेंड रसल की कोटि के दार्शनिक ने इतिहास भी लिखा है--‘दि हिस्ट्री ऑफ वेस्टर्न फिलॉसफी।’ और वह इतना ईमानदार है कि वह इसे ‘दर्शनशास्त्र का इतिहास’--‘दि हिस्ट्री ऑफ फिलॉसफी’ नहीं कहता, क्योंकि उसे अच्छी तरह पता है कि वह पूरब के दर्शनशास्त्र के बारे में कुछ भी नहीं जानता है। वह बस, विनम्रतापूर्वक कहता है कि वह क्या जानता है, और वह यह भी कहता है कि यह दर्शनशास्त्र का पूरा इतिहास नहीं है, बल्कि केवल एक अंश है अरस्तू से लेकर बर्ट्रेंड रसल तक के पाश्चात्य दर्शनशास्त्र का।
मुझे दर्शनशास्त्र पसंद नहीं है, लेकिन रसल की पुस्तक न सिर्फ एक इतिहास है, बल्कि एक कलाकृति है। यह इतनी व्यवस्थित है, इतनी सौंदर्यपूर्ण है, एक ऐसी सुंदर रचना है, शायद इसलिए कि मूल रूप से रसल एक गणितज्ञ था।
भारत को भी एक बर्ट्रेंड रसल की जरूरत है जो भारतीय दर्शन और उसके इतिहास के बारे में लिख सके। इतिहास तो कई हैं, लेकिन वे इतिहासकारों द्वारा लिखे गए हैं, दर्शनशास्त्रियों के द्वारा नहीं, और साफ जाहिर है कि एक इतिहासकार केवल एक इतिहासकार होता है; वह एक विचारक की आंतरिक लय और गहराई को नहीं समझ सकता है। राधाकृष्णन ने ‘हिस्ट्री ऑफ इंडियन फिलॉसफी’--‘भारतीय दर्शनशास्त्र का इतिहास’ लिखा है, शायद इस आशा में कि यह पुस्तक भी बर्ट्रेंड रसल की पुस्तक जैसी बन जाएगी, लेकिन यह एक चोरी है। पुस्तक राधाकृष्णन द्वारा नहीं लिखी गई थी, यह एक गरीब विद्यार्थी की थीसिस थी, जिसके राधाकृष्णन परीक्षक थे, और उन्होंने पूरी थीसिस चुरा ली। अदालत में उनके खिलाफ मुकदमा चला था, लेकिन विद्यार्थी इतना गरीब था कि वह मुकदमा नहीं लड़ सकता था। उस विद्यार्थी को चुप रहने के लिए राधाकृष्णन ने काफी पैसे दिए थे।
अब इस तरह के लोग भारतीय दर्शन के साथ न्याय नहीं कर सकते हैं। भारत को एक बर्ट्रेंड रसल की जरूरत है, चीन को...विशेषकर इन दोनों देशों को। पश्चिम सौभाग्यशाली है कि उसके पास बर्ट्रेंड रसल जैसा एक क्रांतिकारी विचारक है, उसने बहुत सुंदर इतिहास लिखा था जिसमें वह अरस्तू से लेकर अपने स्वयं तक के पश्चिमी विचार के पूरे विकास का वर्णन कर सका।
दसवीं: दसवीं पुस्तक जिसके बारे में अब मैं बात करने जा रहा हूं यह भी एक तथाकथित धार्मिक पुस्तक नहीं है। यदि तुम इस पर ध्यान करो...यदि तुम इसे पढ़ते नहीं हो, लेकिन इस पर ध्यान करते हो, तभी यह धार्मिक है। यह मूल रूप में हिंदी में है और अभी तक इसका अनुवाद नहीं हुआ है: ‘दि सांग्स ऑफ दयाबाई’--‘दयाबाई के गीत।’
मुझे थोड़ा अपराध-भाव अनुभव हो रहा था, क्योंकि मैंने राबिया, मीरा, लल्ला, सहजो का उल्लेख किया है, और मैंने सिर्फ एक स्त्री जो उल्लेख के लायक है: दया, उसको छोड़ दिया है। अब मैं निर्भार अनुभव कर रहा हूं।
‘दि सांग्स ऑफ दया’--‘दया के गीत।’ वह मीरा और सहजो की समकालीन थी, लेकिन दोनों की तुलना में कहीं अधिक गहरी। वह वास्तव में संख्या के पार है। दया थोड़ी सी कुक्कु है, पगली है--लेकिन चिंता मत करो... असल में, भारत में कुक्कु को ‘कोयल’ कहा जाता है, और इसका अर्थ पागल होना नहीं है। दया वास्तव में एक कोयल है--पागल नहीं, बल्कि एक मधुर गायिका भारतीय कोयल की तरह। भारत में गर्मियों की किसी रात में, दूर से आती कोयल की पुकार; ऐसी है दया...संसार की तपती गर्मी में एक दूर की पुकार।
मैं दया पर बोल चुका हूं; शायद किसी दिन उसका अनुवाद संभव हो सके। लेकिन मुझे डर है कि यह संभव नहीं हो सकता है, क्योंकि कोई कैसे इन कवियों और गायकों का अनुवाद कर सकता है? पूरब शुद्ध काव्य है, और पश्चिम और उसकी सभी भाषाएं सब गद्य हैं, शुद्ध गद्य हैं। अंग्रेजी में मुझे कभी वास्तविक काव्य नहीं मिला। कभी-कभी मैं महान क्लासिकल पश्चिमी संगीतकारों को सुनता हूं... उस दिन मैं बीथोवन को सुन रहा था, लेकिन मुझे बीच में ही रोक देना पड़ा। एक बार तुम पूर्वीय संगीत सुन लो तो किसी अन्य से उसकी तुलना नहीं हो सकती है। एक बार तुम भारतीय बांस की बांसुरी सुन लो तो उसके बाद बाकी सब साधारण लगने लगता है।
इसलिए मुझे पता नहीं इन गायकों, कवियों और दीवानों जिन पर मैं हिंदी में बोल चुका हूं, कभी उनका अनुवाद होगा, लेकिन उनके नाम का उल्लेख करने से मैं अपने आप को नहीं रोक पा रहा हूं। शायद उनके नाम का उल्लेख ही अनुवाद की स्थिति पैदा करेगा।
आज इतना ही
thank you guruji
जवाब देंहटाएंगुरजिएफ ‘मीटिंग्स विद दि रिमार्केबल मेन’का हिंदी में अनुवाद क्या उपलब्ध हैं ?
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