मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो
सत्र-चौदहवां
मुझे पता चला है, देवगीत, सुबह तुम बहक कर आपे से बाहर हो गए थे। कभी-कभी बहक जाना एक अच्छा व्यायाम है, लेकिन आपे से बाहर होने का मैं समर्थन नहीं करता हूं। यह एक सामान्य बात है--जिसे गार्डन वैरायटी भी कह सकते हैं। बहको भीतर की ओर! यदि तुम्हें बहकना ही है, तो आपे से बाहर क्यों? स्वयं के भीतर क्यों नहीं? यदि तुम भीतर की ओर बहक जाओ तो ओशो दीवाने बन जाओे, और यह मूल्यवान है। तुम ओशो दीवाना होने के मार्ग पर हो, लेकिन तुम बहुत सावधानीपूर्वक चल रहे हो; कहना चाहिए वैज्ञानिक ढंग से, तर्कसंगत उपाय से।मैं तुम्हें नोट्स भी नहीं लिखने देता हूं, बीच में ही बोल पड़ता हूं। क्षमा मांगने के बजाय मैं तुम पर चिल्लाता हूं, और जब तुम बीच में बोल भी नहीं रहे होते हो, तब भी मैं कहता हूं, ‘‘बीच में मत बोलो, देवगीत!’’ मैं जानता हूं कि इससे कोई भी बहक सकता है।
लेकिन तुम तो जानते ही हो कि मैं एक पागल आदमी हूं, और जब तुम एक पागल आदमी के साथ काम कर रहे हो तो तुम्हें वास्तव में उदार होना चाहिए--मात्र विनम्र ही नहीं, बल्कि सचमुच में ही प्रेमपूर्ण।
जब तुम बीच में नहीं बोल रहे होते हो, और मैं कहता हूं, ‘‘बीच में मत बोलो!’’ तो अवश्य ही मेरा कोई अभिप्राय होगा। तुम्हारे मन में अवश्य ही कोई विचार आया होगा। शायद तुम्हें स्वयं भी अपने बीच में बोलने के विचार के बारे में पता नहीं होगा। बीच में हस्तक्षेप करना कितना सुखदायी होता है। और निश्चित ही, तुम यहां पर मालिक हो। कम से कम इस कैबिन में तुम नूह हो। मैं तो बस एक यात्री हूं और वह भी बिना टिकट। लेकिन मैं तुम्हारे अचेतन में भी झांक सकता हूं, और जब मैं कहता हूं, ‘‘बीच में मत बोलो,’’ तो निश्चित ही यह अपमानजनक लगता है। किसी ने भी तुम्हें मेरे काम में बाधा डालते नहीं सुना है, खुद तुमने भी नहीं--लेकिन मैंने इसे सुना है। मैंने तुम्हारे अचेतन में होने वाली फुसफुसाहट सुनी है।
आज मुझे एक से एक विचार सूझ रहे हैं; वरना मैं एक गरीब आदमी हूं, मेरे पास बड़े विचार नहीं हैं। कृपया बाहर की ओर मत बहक जाना। संक्षेप में कहूं, सदा बहकने का उपयोग भीतर की यात्रा के लिए करो।
पोस्ट-पोस्टस्क्रिप्ट जारी है; यह सिर्फ एक पूर्वकथन था।
आज की पहली पुस्तक है लिन युतांग की ‘दि आर्ट ऑफ लिविंग’--‘जीने की कला।’ यह एक चीनी नाम है। मुझे अपनी पुस्तकों में से एक पुस्तक ‘दि आर्ट ऑफ डाइंग’ की याद आ रही है। लिन युतांग को जीवन के बारे में कुछ नहीं मालूम है, क्योंकि उसे मृत्यु के बारे में कुछ नहीं मालूम है। हालांकि वह एक चीनी है, वह एक बिगड़ा हुआ चीनी है, एक क्रिश्चियन। इसी को तो भ्रष्ट हो जाना कहते हैं। भ्रष्ट हो जाना तुमको एक ईसाई बना देता है। भ्रष्ट होना तुम्हें बिगाड़ देता है, और तुम एक ईसाई बन जाते हो।
लिन युतांग ने अपनी पुस्तक ‘दि आर्ट ऑफ लिविंग’ में बहुत सी बातों के बारे में सुंदरतापूर्वक लिखा है--बस मृत्यु को छोड़ कर। इसका अर्थ है कि जीवन को शामिल नहीं किया गया है। जीवन केवल तभी घटित हो सकता है जब तुम मृत्यु को स्वीकार करते हो, उसके बिना नहीं। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ऐसा नहीं हो सकता कि तुम एक पक्ष को स्वीकार करो और दूसरे पक्ष को अस्वीकार। लेकिन उसने सुंदरतापूर्वक लिखा है, कलात्मक ढंग से--वह निश्चित ही आधुनिक युग के महानतम लेखकों में से एक है--लेकिन जो कुछ भी उसने लिखा है वह सिर्फ कोरी कल्पना मात्र है, शुद्ध, शुद्ध कल्पना... बस सुंदर चीजों के बारे में सपना देख रहा है। कभी-कभी सपने सुंदर हो सकते हैं। सभी सपने बुरे सपने नहीं होते हैं।
‘दि आर्ट ऑफ लिविंग’ का जीवन से कुछ लेना-देना नहीं है और न ही कला से कुछ लेना-देना है, लेकिन फिर भी यह एक बहुत अच्छी पुस्तक है। बहुत अच्छी इस अर्थ में कि तुम इसमें खो सकते हो। तुम इसमें ऐसे खो सकते हो, जैसे कोई घने जंगल में खो जाए: आसमान में चमकते हुए तारे, चारों ओर वृक्ष ही वृक्ष, कोई पगडंडी नहीं, कोई मार्ग नहीं, कहीं जाना नहीं। यह तुम्हें कहीं ले नहीं जाती है। फिर भी यह बहुत अच्छी पुस्तकों में से एक है। क्यों?--क्योंकि पढ़ते समय तुम भूत और भविष्य को भूल जाते हो और वर्तमान के हिस्से हो जाते हो।
मुझे नहीं मालूम कि लिन युतांग को ध्यान के बारे में कभी भी कुछ पता था। दुर्भाग्य से वह एक ईसाई था; इसलिए वह न कभी किसी ताओ मठ में और न ही बौद्ध मंदिर में गया। काश, उसे पता होता कि वह क्या चूक रहा है। इसके बजाय वह बस ‘बाइबिल’ पढ़ता रहा था, जो दुनिया की सबसे घटिया पुस्तकों में से एक है--सिवाय दो छोटे अंशों को छोड़ कर: ‘दि ओल्ड टेस्टामेंट’ का ‘दि सांग्स ऑफ सोलोमन;’ और ‘दि न्यू टेस्टामेंट’ का ‘दि सरमन ऑन दि माउंटेन।’ अगर इन दोनों अंशों को निकाल दिया जाए तो बाइबिल सिर्फ कचरा है। काश, वह कुछ जान लेता बुद्ध, च्वांग्त्सु, नागार्जुन, कबीर, अल-हिल्लाज मंसूर के बारे में... इन दीवानों के बारे में कुछ भी जान लेता; तभी उसकी पुस्तक प्रामाणिक हो सकती थी। यह कलात्मक है, लेकिन प्रामाणिक नहीं है। इसमें वास्तविकता नहीं है।
दूसरी--लिन युतांग की दूसरी पुस्तक ‘दि व़िजडम ऑफ चाइना।’ लिन युतांग के पास लिखने की कला है इसलिए वह कुछ भी लिख सकता है, यहां तक कि ‘दि व़िजडम ऑफ चाइना’ भी, हालांकि वह लाओत्सु के बारे में कुछ भी नहीं जानता है, वह लाओत्सु जिसके भीतर न केवल चीन की बल्कि पूरे विश्व की प्रज्ञा समाई हुई है। लिन युतांग ने जरूर लाओत्सु के कुछ वाक्यों को शामिल तो किया है, लेकिन वे वही वाक्य हैं जो उसकी ईसाई मनोदशा के साथ मेल खाते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो वे वाक्य लाओत्सु के हैं ही नहीं। उसने च्वांग्त्सु के वचनों को शामिल किया है, लेकिन स्वाभाविक है कि उसका चुनाव बहुत तर्कसंगत होगा, और च्वांग्त्सु तर्कसंगत आदमी नहीं हैं; च्वांग्त्सु से ज्यादा अतार्किक व्यक्ति आज तक कभी नहीं हुआ।
च्वांग्त्सु मेरे सबसे प्रिय व्यक्तियों में से एक हैं, और जब तुम अपने किसी प्रिय के बारे में बात कर रहे होते हो तो अवश्य ही अति, अतिशयोक्ति कर देते हो, लेकिन मेरे लिए वे ऐसे नहीं प्रतीत होते। च्वांग्त्सु द्वारा लिखी गई किसी भी बोधकथा के लिए मैं उन्हें पूरी दुनिया का राज्य दे सकता हूं--और उन्होंने सैकड़ों बोधकथाएं लिखी हैं। उनकी हर बोधकथा सरमन ऑन दि माउंटेन, दि सांग ऑफ सोलोमन, भगवद्गीता है। प्रत्येक बोधकथा इतना संदेश देती है, और इतने बड़े पैमाने पर देती है कि उसको नापा नहीं जा सकता।
लिन युतांग च्वांग्त्सु का उल्लेख करता है, लेकिन वह एक ईसाई की तरह उल्लेख करता है, उस व्यक्ति की तरह नहीं जो समझता है। लेकिन वह निश्चित रूप से एक अच्छा लेखक है, और ‘दि व़िजडम ऑफ चाइना’ उन थोड़ी सी पुस्तकों के साथ रखी जानी चाहिए जो पूरे देश का प्रतिनिधित्व करती है, जैसे बर्ट्रेंड रसल की ‘हिस्ट्री ऑफ वेस्टर्न फिलॉसफी,’ या मूरहेड और राधाकृष्णन की ‘माइंड ऑफ इंडिया।’ यह इतिहास है, रहस्यवाद नहीं, लेकिन सुंदर ढंग से लिखी गई है, सही तरीके से लिखी गई है, व्याकरण और सब।
वह न केवल एक ईसाई है बल्कि उसकी शिक्षा-दीक्षा भी एक कॉनवेंट स्कूल में हुई है। अब, तुम क्या सोच सकते हो कि किसी बच्चे के साथ होने वाली दुर्घटना में कॉनवेंट स्कूल के अलावा और बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है? इसलिए ईसाइयों के अनुसार लिन युतांग हर ढंग से ठीक है, और इस पागल आदमी के अनुसार जो उसके बारे में बोल रहा है हर प्रकार से गलत है। लेकिन फिर भी मैं उसे पसंद करता हूं। वह प्रतिभाशाली है। मैं नहीं कह सकता कि वह कोई अपूर्व बुद्धि का मनुष्य है, मुझे क्षमा करना, लेकिन वह प्रतिभाशाली है, बहुत प्रतिभाशाली है। इससे अधिक मत पूछो। वह अपूर्व बुद्धि का मनुष्य नहीं है, और मैं विनम्र नहीं हो सकता, मैं बस सच्चा हो सकता हूं। मैं पूरी तरह सच्चा हो सकता हूं।
तीसरी: मैं इस पुस्तक से बचना चाहता था, लेकिन ऐसा लगता है बच नहीं सकता। यह बार-बार अपनी नाक भीतर घुसाती है। निस्संदेह यह एक यहूदी पुस्तक है; वरना इसकी नाक इतनी लंबी कैसे हो सकती है? ‘दि तालमुद।’
क्यों मैं इससे बचना चाहता था? अगर मैं यहूदियों के खिलाफ कुछ भी कहता हूं--जैसा कि मैंने हमेशा किया है और आगे भी करता रहूंगा... लेकिन इस क्षण मैं यहूदियों के खिलाफ कुछ भी नहीं कहना चाहता हूं; सिर्फ इस क्षण के लिए, ऐसे ही जैसे कि कोई छुट्टी पर है। यही कारण है कि मैं इस पुस्तक से बचना चाहता था।
इसमें केवल एक ही सुंदर वचन है, बस इतना ही, इसलिए मैं इसका उल्लेख कर रहा हूं। यह कहता है: ईश्वर भयानक है। वह तुम्हारा चाचा नहीं है, वह भला नहीं है। केवल यही वचन: ‘ईश्वर भला नहीं है, और तुम्हारा चाचा नहीं है--यही मुझे पसंद है। यह वास्तव में बहुत महत्वपूर्ण है। वरना पूरी किताब बकवास है। यह बिलकुल आदिम युग की है, फेंकने के काबिल। जब तुम इसे फेंको तो बस इस एक वचन को बचा लेना। अपने शयनकक्ष में लिख लो: ईश्वर तुम्हारा चाचा नहीं है, वह भला नहीं है--याद रखना! जब तुम अपनी पत्नी या अपने पति, या बच्चे, या नौकर--या अपने ही प्रति कुछ बेहूदगी करोगे तो यह वचन तुम्हें होश में ला देगा।
चौथी: मेरा जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ जो जैन धर्म के एक छोटे से समुदाय के अंतर्गत आता है। यह समुदाय एक दीवाने का अनुयायी है, जो मुझसे थोड़ा कम दीवाना रहा होगा। मैं नहीं कह सकता मुझसे ज्यादा दीवाना!
मैं उनकी दो पुस्तकों के बारे में चर्चा करने जा रहा हूं, जिनका अंग्रेजी में अनुवाद नहीं हुआ है, हिंदी में भी नहीं हुआ है, क्योंकि उनका अनुवाद हो ही नहीं सकता। मैं नहीं समझता कि उनको कभी भी अंतर्राष्ट्रीय श्रोता मिल सकेंगे--असंभव है। उन्हें किसी भी भाषा, व्याकरण में विश्वास नहीं है, किसी में भी नहीं। वे एकदम दीवाने आदमी की भांति बोलते हैं। आज की चौथी पुस्तक है: ‘शून्य स्वभाव’--‘दि नेचर ऑफ एंप्टीनेस।’
इसमें केवल कुछ ही पेज हैं, लेकिन अत्यंत महत्वपूर्ण। एक-एक वाक्य में शास्त्र समाहित हैं, लेकिन समझना बहुत मुश्किल है। स्वभावतः तुम पूछोगे कि मैं उन्हें कैसे समझ सका। जैसे मार्टिन बूबर का जन्म हसीद परिवार में हुआ था, वैसे ही मैं भी इस दीवाने आदमी की परंपरा में पैदा हुआ। उनका नाम है, तारण तरण। यह उनका यथार्थ नाम नहीं है, लेकिन किसी को भी उनका असली नाम ज्ञात नहीं है। ‘तारण तरण’ का सीधा अर्थ है ‘तारणहार।’ और यही उनका नाम हो गया।
मैंने अपने बचपन से ही उन्हें अपनी श्वास-श्वास में बसा लिया, उनके गीतों को सुनता, और जानने को उत्सुक होता कि उनका अर्थ क्या है। लेकिन एक बच्चे को अर्थ की कोई फिकर नहीं होती। गीत सुंदर थे, लय सुंदर थी, नृत्य सुंदर था, और यह काफी है। यदि कोई प्रौढ़ हो गया है तो ही उसे ऐसे लोगों को समझने की जरूरत पड़ती है; अन्यथा, अगर वे लोग जो बचपन से ही ऐसे वातावरण से घिरे रहे हैं, तो उन्हें समझने की जरूरत नहीं पड़ती है और फिर भी अपने चित्त की गहराई में वे समझ लेंगे।
मैं तारण तरण को समझता हूं--बौद्धिक रूप से नहीं, बिल्क अस्तित्वगत रूप से। और साथ ही साथ मैं यह भी जानता हूं कि वे किस बारे में बात कर रहे हैं। और भले ही अगर उनके अनुयायियों के परिवार में मेरा जन्म न भी हुआ होता तो भी मैं उन्हें समझ लेता। मैंने कितनी ही विभिन्न परंपराओं को समझा है--और ऐसा नहीं है कि उन सभी में मेरा जन्म हुआ है। मैंने इतने सारे दीवानों को समझा है कि कोई भी सिर्फ उन्हें समझने के प्रयास में ही पागल हो सकता है! लेकिन मेरी ओर देखो: उन्होंने मुझे बिलकुल प्रभावित नहीं किया। वे कहीं न कहीं मुझसे निचले तल पर ठहर गए हैं। मैं उन सभी के पार चला गया हूं।
फिर भी मैं तारण तरण को समझा होता। हो सकता है मैं उनके संपर्क में न आ पाया होता, यह असंभव सा है, क्योंकि उनके अनुयायी बहुत कम हैं, बस कुछ हजार, और केवल मध्य भारत में ही पाए जाते हैं। और अल्पसंख्यक होने के कारण वे इतना डरते हैं कि वे अपने आप को तारण तरण का अनुयायी भी नहीं बताते, वे अपने को जैन कहते हैं। वे लोग गोपनीय ढंग से अपने संप्रदाय के संस्थापक तारण तरण पर श्रद्धा रखते हैं, महावीर पर नहीं, जैसा कि अन्य जैन लोग महावीर पर रखते हैं।
जैन धर्म खुद ही एक छोटा सा धर्म है; इसको मानने वाले केवल तीस लाख लोग हैं। जैन धर्म के दो मुख्य संप्रदाय हैं: दिगंबर और श्वेतांबर। दिगंबर मानते हैं कि महावीर नग्न जीए, और नग्न ही रहे--‘दिगंबर’ शब्द का अर्थ होता है: ‘आकाश को ही जिसने अपना वस्त्र बना लिया’; प्रतीकात्मक रूप से इसका अर्थ है ‘नग्न।’ यह सबसे पुराना संप्रदाय है।
‘श्वेतांबर’ शब्द का अर्थ होता है: ‘सफेद वस्त्र पहनने वाले,’ और इस संप्रदाय के अनुयायियों का मानना है कि हालांकि महावीर नग्न थे पर देवताओं द्वारा उन्हें अदृश्य सफेद वस्त्रों से ढंक दिया था जो किसी को दिखाई नहीं पड़ते थे। हिंदुओं को संतुष्ट करने के लिए बस यह एक समझौता है।
तारण तरण के अनुयायी दिगंबर संप्रदाय के हैं, और वे जैनों में सबसे अधिक क्रांतिकारी लोग हैं। वे महावीर की मूर्तियों की पूजा तक भी नहीं करते हैं; उनके मंदिर खाली हैं, वे भीतरी शून्यता के प्रतीक हैं। संयोगवश अगर मेरा जन्म ऐसे परिवार में नहीं होता जो कि तारण तरण में श्रद्वा रखता है तो मेरे लिए तारण तरण को जानना करीब-करीब असंभव होता। लेकिन मैं परमात्मा को धन्यवाद देता हूं कि ऐसे परिवार में जन्म लेने पर जो परेशानी मुझे हुई वह मूल्यवान सिद्ध हुई। सिर्फ इस एक बात के लिए कि उन्होंने मुझे एक अदभुत रहस्यदर्शी से परिचित कराया, उन सभी परेशानियों को भुलाया जा सकता है।
उनकी पुस्तक ‘शून्य स्वभाव’ में वे किसी दीवाने की तरह एक ही बात को बार-बार कहते हैं। तुम मुझे जानते हो, समझ सकते हो कि पच्चीस वर्षों से मैं भी बार-बार वही बात कहता आ रहा हूं। मैंने बार-बार कहा है: जागो! उन्होंने भी ‘शून्य स्वभाव’ यही कहा है।
पांचवीं: तारण तरण की दूसरी पुस्तक, ‘सिद्धि स्वभाव’--‘दि नेचर ऑफ अल्टीमेट रियलाइजेशन,’ बहुत सुंदर शीर्षक है। वे एक ही बात को बार-बार कहते हैं: शून्य हो जाओ! लेकिन वे बेचारे क्या कर सकते हैं? और कोई भी इसके अलावा कुछ नहीं कह सकता। ‘‘जागो, होश में आओ...’’
अंग्रेजी शब्द ‘बीवेयर’ दो शब्दों से बना है: बी वेयर--इसलिए ‘बीवेयर’ ‘सावधान’ शब्द से भयभीत मत होना, बस अवेयर हो जाओ, होशपूर्ण हो जाओ, और जिस क्षण तुम होशपूर्ण होते हो, तुम अपने घर आ गए।
तारण तरण की अनेक पुस्तकें हैं, लेकिन इन दोनों पुस्तकों में उनका सारा संदेश समाहित है। एक बताती है कि तुम कौन हो--शुद्ध शून्यता; दूसरी, कि तुम उस तक कैसे पहुंच सकते हो; जागरूक होकर। लेकिन वे बहुत छोटी पुस्तकें हैं, मात्र कुछ ही पन्नों की।
छठवीं...मैं हमेशा ही इस पुस्तक के बारे में बात करना चाहता था, लेकिन मुझे डर था कि कहीं समय के अभाव में यह छूट न जाए। मैं योजना नहीं बनाता, मैं सदा की भांति बिना योजना के ही काम करता हूं। मैंने सोचा था कि केवल पचास पुस्तकों के बारे में बात करूंगा, लेकिन फिर पोस्टस्क्रिप्ट आया और वह चलता रहा, चलता रहा। फिर पचास और पुस्तकें पूरी हो गईं, लेकिन अभी भी इतनी सुंदर पुस्तकें शेष थीं कि मुझे बोलना जारी रखना पड़ा और पोस्ट पोस्टस्क्रिप्ट शुरू करना पड़ा। इसलिए अब मैं इस पुस्तक पर चर्चा कर सकता हूं। यह है दोस्तोवस्की की ‘नोट्स फ्रॉम दि अंडरग्राउंड।’
यह एक बहुत ही असाधारण पुस्तक है, वैसी ही असाधारण जैसा कि वह व्यक्ति था। सिर्फ नोट्स हैं--जैसे कि देवगीत के नोट्स हैं: टुकड़े-टुकड़े, सतह पर एक-दूसरे से अलग-अलग, लेकिन दरअसल एक जीवंत अंतर्धारा के साथ भीतर से जुड़े हुए। इस पर ध्यान किया जाना चाहिए। मैं इससे अधिक और कुछ नहीं कह सकता। यह सबसे अधिक उपेक्षित श्रेष्ठ कलाकृतियों में से एक है। ऐसा लगता है कि इस पर कोई भी ध्यान नहीं देता, इसका सीधा सा कारण है कि यह कोई उपन्यास नहीं है, सिर्फ नोट्स हैं, और ऐसे नोट्स कि गैर-ध्यानियों को लगेगा कि इनका आपस में कोई संबंध नहीं है। लेकिन मेरे संन्यासियों के लिए यह पुस्तक बहुत महत्व की हो सकती है; वे इसमें छिपे हुए खजाने को खोज सकते हैं।
फुसफुसाते रहो... मैं कुछ भी नहीं कह रहा हूं। सच पूछो तो मुझे यह भी नहीं कहना चाहिए था। यह भी एक तरह का हस्तक्षेप है। मुझे और अधिक जागरूक रहना चाहिए। लेकिन जितना जागरूक मैं हूं उससे और अधिक जागरूक होना बहुत मुश्किल है। इससे अधिक जागरूकता बिलकुल है ही नहीं, इसलिए मैं क्या कर सकता हूं? ज्यादा से ज्यादा मैं इसे अनदेखा कर सकता हूं। मैंने तुम्हारी हंसने की आवाज भी सुन ली है...लेकिन कृपया बहक कर आपे से बाहर मत हो जाना, बहकना भीतर की ओर।
सातवीं: एक पुस्तक कहीं से मेरे खयालों में उतर रही है। मैं इसके बारे में बिलकुल चर्चा नहीं करने वाला था, लेकिन यह वहां है। डरो मत, और बाद में बहक कर आपे से बाहर मत होना। यह पुस्तक लुडविग विटगिंस्टीन द्वारा लिखी गई है--दरअसल इसे पुस्तक की तरह नहीं लिखा गया है, बल्कि नोट्स की तरह लिखा गया है। ‘फिलॉसफिकल इनवेस्टीगेशंस’ के नाम से इसे उसके मरणोपरांत प्रकाशित किया गया था। वास्तव में, यह मनुष्य की सभी समस्याओं का एक गहरा मार्मिक अध्ययन है। निस्संदेह, स्त्री इसमें शामिल है; वरना आदमी को अपनी गहरी समस्याएं मिलेंगी कहां से? उसकी असली समस्या स्त्री है। कहा जाता है कि सुकरात ने कहा है: यदि तुम्हारा विवाह ऐसी स्त्री से हो जाए जो सुंदर भी हो और समझदार भी--जो कि दुर्लभ है--तो तुम सौभाग्यशाली हो।
लुडविग विटगिंस्टीन की पुस्तक ‘फिलॉसफिकल इनवेस्टीगेशंस’ मुझे प्रिय है--उसकी स्पष्टता, पारदर्शिता, उसकी निर्दोष बुद्धिमत्ता। यह मुझे पूरी तरह से प्रीतिकर रही है, और मैं चाहता हूं कि जो भी मार्ग पर हैं वे सब इसके अनुभव से गुजरें...लेकिन उस तरह से नहीं जिस तरह से थेरेपी ग्रुप में लोग ‘गुजरते हैं’--पीड़ा में नहीं। क्योंकि कई संन्यासी सोचते हैं कि पीड़ा से गुजरना आवश्यक है; ऐसा नहीं है, यह तुम्हारा चुनाव है। तुम सुखपूर्वक भी गुजर सकते हो, आनंदपूर्वक भी...यह तुम पर निर्भर है।
तो ‘‘इसके अनुभव से गुजरें’’ से मेरा अर्थ वही नहीं है जो तथाकथित मानवतावादी थेरेपिस्टों का अर्थ है। जब मैं कहता हूं ‘‘इसके अनुभव से गुजरो’’ तो इसका अर्थ है नृत्य करते हुए गुजरो, प्रेमपूर्वक गुजरो। मैं शाब्दिक रूप से सही हो सकता हूं, लेकिन व्याकरण की दृष्टि से गलत भी हो सकता हूं। और निश्चित ही मैं गलत हूं, क्योंकि मैं तुम्हारी हंसने की आवाज सुन सकता हूं। मुझे खेद है, देवगीत, क्योंकि मुझे अभी भी सुनाई पड़ रहा है... लेकिन यह मेरी ओर से एक हस्तक्षेप है--और मैं नहीं चाहता कि कोई बहक कर आपे से बाहर हो जाए, विशेषकर वे लोग जो मेरे इतने करीब हैं, और वे लोग जो नहीं जानते कि आज मैं यहां हूं, कल मैं नहीं भी हो सकता हूं।
देवगीत, एक दिन यह कुर्सी खाली होगी और तुम रोओगे और आंसू बहाओगे कि तुम बहक जाते थे। और मैं किसी भी क्षण रुक सकता हूं; और फिर तुम पछताओगे। तुम्हें पहले से ही यह बात पता है, लेकिन तुम भूल गए हो। सात वर्ष से मैं लगातार बोलता रहा हूं, लेकिन एक दिन--तुम इस बात के साक्षी हो--मैं अचानक रुक सकता हूं। मैं किसी भी क्षण रुक सकता हूं, शायद कल या परसों। इसलिए परेशान बिलकुल मत होओ, और मैं जो भी करूं, अगर मैं तुम्हें उकसाऊं या परेशान भी करूं, तो वह तुम्हारे भले के लिए है, क्योंकि इससे मुझे कुछ हासिल नहीं होने वाला है। पूरी दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे मुझे हासिल करना हो। मैंने पहले ही वह पा लिया है जिसे पाने के लिए मनुष्य कामना करता है और जिसके लिए हजारों जीवन जीता है।
आठवीं: आठवीं पुस्तक है... मैं तुम्हारी सिसकियां सुन रहा हूं, देवगीत, कभी-कभार के लिए यह अच्छा है। और अपने सदगुरु के साथ रोना... मेरी आंखें आंसुओं से भरी हुई हैं, और तुम सुबक रहे हो। कुछ आंतरिक सत्संग घटित हो रहा है। इसलिए आठवीं पुस्तक के लिए मैंने असागोली की ‘साइकोसिंथेसिस’--‘मनोसंश्लेषण’ को चुना है।
सिंग्मड फ्रायड ने साइकोएनालिसिस, मनोविश्लेषण को स्थापित करने में महान कार्य किया है, लेकिन यह मात्र आधा ही है। बाकी आधा असागोली द्वारा किया गया ‘साइकोसिंथेसिस’ है--लेकिन यह भी आधा है, दूसरा आधा भाग। मेरा कार्य संपूर्ण है: साइकोथीसिस, मन के पार।
साइकोएनालिसिस और साइकोसिंथेसिस, दोनों विज्ञान अध्ययन करने योग्य हैं। ‘साइकोसिंथेसिस’ बहुत कम ही पढ़ा जाता है, क्योंकि असागोली का व्यक्तित्व फ्रायड जैसा प्रभावशाली नहीं है; वह उन ऊंचाइयों तक नहीं पहुंच पाया। लेकिन मेरे सभी संन्यासियों को ‘साइकोसिंथेसिस’ पढ़ लेना चाहिए। ऐसा नहीं है कि असागोली सही है और फ्रायड गलत है; दोनों को अलग-अलग समझने में गलती हो जाएगी। वे सही तभी हैं जब वे दोनों एक साथ हैं। और मेरा कुल काम यही है: जिग्सा पजल, चित्र पहेली के सभी टुकड़ों को एक साथ जमा दूं।
नौवीं... मैंने हमेशा खलील जिब्रान की प्रशंसा की है; इससे पहले कि मैं उसकी आलोचना करूं, एक बार और मैं उसकी प्रशंसा करना चाहता हूं। घबड़ाओ नहीं, मैं बस यूं ही हलके ढंग से आलोचना नहीं कह रहा हूं, बल्कि सचमुच में कह रहा हूं। नौवीं है: खलील जिब्रान की पुस्तक ‘प्रोज पोएम्स’--‘गद्य कविताएं’--सुंदर है। आधुनिक दुनिया में रवींद्रनाथ टैगोर को छोड़ कर कोई भी इस तरह के गद्य गीत नहीं लिख सकता है।
यह आश्चर्य की बात है कि ये दोनों कवि अंग्रेजी भाषा के हिसाब से विदेशी हैं। शायद यही कारण है कि वे इतनी सुंदर काव्यात्मक भाषा लिख सकते हैं। दोनों अलग-अगल भाषाओं के व्यक्ति हैं: खलील जिब्रान अरबी भाषी हैं, जो अत्यधिक काव्यात्मक है, शुद्ध काव्य; और रवींद्रनाथ बंगाली भाषी हैं, जो अरबी से भी अधिक काव्यात्मक है। असल में, अगर तुम दो बंगालियों को लड़ते हुए देखोगे तो तुम हैरान हो जाओगे, क्योंकि तुम्हें लगेगा कि वे आपस में प्रेम की बातें कर रहे हैं। तुम सोच नहीं सकते कि वे लड़ रहे हैं। झगड़ा करते समय भी बंगाली भाषा काव्यात्मक होती है।
यह बात मैं अपने अनुभव से जानता हूं। मैं बंगाल में था और मैंने लोगों को लड़ते देखा है--शुद्ध काव्य! मैं आश्चर्यचकित था। जब मैं महाराष्ट्र आया तो देखा कि लोग सिर्फ बातचीत कर रहे हैं, गपशप कर रहे हैं, और मैं परेशान हो गया: वे लड़ रहे हैं? क्या पुलिस को सूचित किया जाना चाहिए? मराठी इस तरह की भाषा है कि इसमें तुम मीठा बोल ही नहीं सकते। यह कठोर है, कर्कश है। यह एक झगड़े वाली भाषा है।
यह आश्चर्यजनक बात है कि अंग्रेजों ने खलील जिब्रान और रवींद्रनाथ दोनों की प्रशंसा की है, लेकिन उनसे सीखा कुछ भी नहीं। उन्होंने उनकी सफलता का राज नहीं सीखा। उनकी सफलता का राज क्या है? उनकी सफलता का राज है: उनकी ‘काव्यात्मकता।’
दसवीं: यह खलील जिब्रान की वह पुस्तक है जिसकी मैं कभी सार्वजनिक रूप से निंदा नहीं करना चाहता था, क्योंकि मैं इस आदमी को प्रेम करता हूं। लेकिन मुझे यह करना ही पड़ेगा, जिससे यह रिकॉर्ड में रहे कि यदि उसके शब्द सत्य नहीं प्रकट करते हैं, तो मैं जिसे प्रेम करता हूं उसकी भी निंदा कर सकता हूं।
पुस्तक है ‘थाट्स एंड मेडिटेशंस’--‘विचार और ध्यान।’ अब, मैं इसके साथ सहमत नहीं हो सकता, और इसी से मुझे पता चला है कि
खलील जिब्रान कभी नहीं जान पाया कि ध्यान क्या है? इस पुस्तक में ‘मेडिटेशंस’ और कुछ नहीं बल्कि ‘मनन’ ही है; केवल तभी तो वे विचारों के साथ चल सकते हैं। आशु, तुम्हें विचारों के साथ नहीं जाना है, तुम्हें ध्यान में जाना है--मेरे साथ, खलील जिब्रान के साथ नहीं। इसलिए ऊपर उठो। यदि तुम ध्यान को उपलब्ध नहीं होते हो तो शीघ्र ही मुझे इस तरह बोलना बंद करना पड़ेगा। मैं अपनी पार से भी पार दशा को हर तरह से समर्थन देना चाहता हूं। किसी बुद्धपुरुष ने पहले ऐसा नहीं किया है। मैं एक नई शुरुआत होना चाहता हूं।
मैं इस दसवीं पुस्तक के विरोध में हूं, क्योंकि मैं विचार के विरोध में हूं। मैं इसलिए भी इसके विरोध में हूं, क्योंकि खलील जिब्रान ने ‘ध्यान’ शब्द का उपयोग पाश्चात्य अर्थों में किया है। पश्चिम में ध्यान का सीधा अर्थ है किसी भी बात पर एकाग्रतापूर्वक विचार करना। यह ध्यान नहीं है। पूरब में ध्यान का अर्थ है विचार का न होना। ‘इस या उस विषय से’ कुछ लेना-देना नहीं है, यह नॉन-ऑब्जेक्टिव है, यह विषयगत नहीं है। इसमें कोई विषय-वस्तु नहीं है, केवल प्योर सब्जेक्टिविटी है, शुद्ध स्व-सत्ता है।
सोरेन कीर्कगार्ड ने कहा है: मनुष्य का अंतर्तम सारतत्व शुद्ध स्व-सत्ता है। यही ध्यान है।
आज इतना ही
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