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शनिवार, 14 दिसंबर 2019

ऋतु आये फल होय-(प्रवचन-02)

सद्‌गुरु और शिष्ट--प्रवचन-दूसरा


ऋतु आये फल होय--The Gras grow by Itself--ओशो
 (ज़ेन पर ओशो द्वारा दिनांक 22 फरवरी 1975 में अंग्रेजी में दिये गये अमृत प्रवचनों का हिन्दी में अनुवाद)
लीहन्ध हर समय व्यस्त नहीं रहता था।
यिन शेंग ने अवसर पाकर उससे गुहा रहस्यों को दिए जाने की मांग की:
मुंह मोड़कर लहित्थू ने उसे दूर हटा दिया होता, और उससे कुछ कहा ही
नहीं होता।
लेकिन यह ख्याल कर
कि कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में वह भी विकसित हो सकता है--
उसने कहा
मेरा ख्याल था कि तुम मेधावी और होशियार हो,
पर वास्तव में तुम अन्य सभी लोगों से भिन्न नहीं हो।
आज मैं तुम्हें बताऊंगा कि मैंने अपने सद्‌गुरु से क्या सीखा?

सद्‌गुरु की सेवा करने के तीन वर्षों बाद--
मेरा मन यह सोचने का साहस भी नहीं कर सकता था--
कि क्या ठीक है और क्या गलत?
और न मैं मुंह से लाभ या हानि के बारे में ही कुछ कहने का
साहस कर सकता था।
केवल तभी
मैंने सद्‌गुरु की कृपा दृष्टि से इतना सब कुछ प्राप्त किया।

पांच वर्षों बाद--
मेरा मन सत्य और झूठ के सम्बन्ध में फिर विचार करने लगा,
और मैं लाभ और हानि के बारे में भी मुंह से कुछ कहने लगा।
तभी पहली बार मैंने सद्‌गुरु के चेहरे पर संतुष्टि की विश्राममय
मुस्कान देखी।
सात वर्षों बाद-मेरे मन में ठीक औरगलत के बीच बिना कोई भी भेद
किए जो कोई भी विचार आता था, मैं सोचता रहता था,
और जो कुछ मेरे मुंह में आता था, लाभ-हानि की फिक्र किए बिना
मैं उसे तुरंत कह देता था।
औरतभी पहली बार, सद्‌गुरु ने मुझे खींचकर अपने साथ-- उसी चटाई
पर बिठाया, जिस पर वह बैठे हुए थे।

नौ वर्षों बाद
मेरे मन में जो कुछ भी आता था, बिना किसी प्रतिबंध या नियंत्रण के
मैं वही सोचता रहता था।
बिना किसी अवरोध के,
और बिना यह जाने हुए क्या ठीक है और क्या गलत, वह लाभप्रद है
अथवा हानिकारक, और वह विचार मेरा है, अथवा किसी और का,
जो कुछ मेरे मुंह में आता था, मैं कह देता था।
और बिना यह जाने हुए कि सद्‌गुरु मेरा शिक्षक था भी या नहीं,
मेरे लिए प्रत्येक चीज एक जैसी थी।
अब तुम मेरे शिष्य बनने के लिए आए हो,
और एक साल पूरा बीतने के पहले ही
तुम हर समय असंतुष्ट और नाराज रहते हो।
संसार में सबसे महान कला है--एक शिष्य बनना।
इसकी किसी भी चीज से तुलना नहीं की जा सकती।
यह अनूठी और अतुलनीय है।
इस जैसा अन्य कोई भी रिश्ता या सम्बन्ध अस्तित्व में है ही नहीं
और न इस जैसी कोई भी चीज हो सकती है।
एक शिष्य बनना और एक सद्‌गुरु के साथ रहना
अज्ञात में गतिशील होना है।
तुम वहां आक्रामक नहीं हो सकते। यदि तुम आक्रामक हो,
तो वह अज्ञात कभी भी तुम्हारे सामने प्रकट न होगा।
वह आक्रामक चित्त के सामने प्रकट हो ही नहीं सकता।
उसका स्वभाव ही ऐसा नहीं है,
तुम्हें ही आक्रामक न होकर ग्रहणशील बनना होगा।
सत्य की खोज कोई सक्रिय खोज नहीं है,
वह एक गहरी निष्क्रियता है--
इसी गहरी निष्क्रिय दशा में तुम उसे प्राप्त कर सकोगे।
लेकिन यदि तुम बहुत अधिक सक्रिय होकर उसमें दिलचस्पी लेने लगे,
तो तुम चूक जाओगे।
यह एक गर्भ बनने जैसा है। यह स्त्रैण है।
तुम सत्य को इस भांति प्राप्त करते हो, जैसे एक स्त्री गर्भावस्था प्राप्त करती है।
इसे स्मरण रखें
तब बहुत सी चीजें समझने में आसान बन जाएंगी।
एक सद्‌गुरु के निकट रहना, ठीक निष्क्रिय ही बनकर रहना है,
जो कुछ सद्‌गुरु देता है, उसे अवशोषित कर लेना है।
अथवा किसी भी तरह यदि सद्‌गुरु कुछ भी नहीं पूछ रहा तुमसे--
उसी क्षण यदि तुमने कुछ पूछना शुरू कर दिया, तो तुम आक्रामक बन जाते
हो।
तुम्हारी ग्रहणशीलता समाप्त हो जाती है, और तुम सक्रिय बन जाते हो।
फिर निष्क्रिय, स्त्रैण चित्त, वहां और रहता ही नहीं।
पुरुष चित्त से कोई भी कभी सत्य को उपलब्ध हुआ ही नहीं--
आक्रामक और हिंसक होकर, यह असम्भव बात है।
तुम बहुत खामोशी से पहुंचते हो वहां,
वस्तुत: तुम प्रतीक्षा करते हो, और सत्य ही तुम तक आता है।
सत्य तुम्हें खोजता है, जैसे पानी पोली जमीन खोजता है,
वह नीचे की ओर बहता हुआ ऐसा स्थान खोजता है, जहां वह एक झील बन
जाए।
एक सक्रिय मन, स्वयं अपने आप से बहुत भरा होता है।
एक सक्रिय मन सोचता है कि वह जानता है कि सत्य क्या है?
किसी को केवल पूछना होता है कि कम से कम प्रश्न तो जान लिया,
उत्तर के लिए उसे स्वयं खोजकर उसकी तलाश करनी होती है।
लेकिन जब तुम निष्क्रिय बन जाते हो, तो प्रश्न भी ज्ञात नहीं होता।
फिर कैसे पूछा जाए? क्या पूछा जाए? किसके लिए पूछा जाए?
वहां कोई प्रश्न होता ही नहीं, कोई कुछ भी नहीं कर सकता सिवाय प्रतीक्षा
के।
धैर्य रखना होता है-- और यह धर्म अनंत है--
क्योंकि यह प्रश्न समय का नहीं है, यह प्रश्न तुम्हारे कुछ महीनों--
अथवा कुछ सालों की प्रतीक्षा का नहीं है।
यदि तुम्हारे पास कुछ ही वर्षों का धैर्य है, तो उससे काम चलने का नहीं,
क्योंकि एक मन जो सोचता है--वह तीन वर्षों की ही प्रतीक्षा नहीं है,
वास्तव में वह प्रतीक्षा करने के बाबत सोचता है।
वह सक्रिय बना देख रहा है कि कब तीन वर्ष पूरे हों,
जिससे वह आक्रामक बनकर उछल सके और पूछ सके,
तब वह मांग कर सकता है कि अब प्रतीक्षा की अवधि समाप्त हुई
अब वह जानने के लिए अधिकृत है।
वहां ऐसा कुछ भी नहीं है।
कोई भी व्यक्ति सत्य को जानने के लिए अधिकृत नहीं है।
अचानक वह क्षण आता है, जब तुम तैयार होते हो,
और तुम्हारा धैर्य किसी समय तक का नहीं, बल्कि शाश्वत होता है,
तुम किसी चीज के लिए प्रतीक्षा नहीं करते हो, बल्कि शुद्ध प्रतीक्षा करते हो,
क्योंकि प्रतीक्षा करना ही इतना अधिक सुन्दर है,
प्रतीक्षा करना अपने आप में एक ऐसी प्रार्थनापूर्ण चित्त वृत्ति है,
प्रतीक्षा करना अपने आप मैं एक ऐसा गहरा ध्यान है,
प्रतीक्षा करना अपने आप में इतनी बड़ी उपलब्धि है,
किसी भी चीज के बारे में फिर फिक्र कौन करता है,
जब प्रतीक्षा करना इतना अधिक समग्र, इतना अधिक सघन--और इतना
अधिक पूर्ण हो जाता है,
तो समय मिट जाता है,
और प्रतीक्षा में शाश्वतता का गुण आ जाता है,
तभी तुम तुरंत ही उसे ग्रहण करने को तैयार होते हो।
स्मरण रहे, तुम अधिकृत नहीं हो--तुम उसे मांग नहीं सकते।
तुम पूर्ण रूप से तैयार हो
और तुम इस ओर से सजग नहीं हो कि तुम तैयार हो।
क्योंकि वही सजगता तुम्हारे तैयार होने में एक बाधा बन जाएगी,
वही सजगता यह प्रदर्शित करेगी कि वहां अहंकार है,
जो कहीं कोने में छिपा हुआ निरीक्षण कर रहा है।
और अहंकार सदैव आक्रामक होता है,
चाहे वह छिपा हुआ हो या प्रकट हो, चाहे वह स्पष्ट हो या अस्पष्ट हो।
यद्यपि अचेतन के सबसे गहरे तल के कोने में छिपा अहंकार
और भी आक्रामक होता है। और जब मैं कहता हूं
कि पूरी तरह से निष्क्रिय बनना, शिष्य बनने की कला है,
तो मेरे यह कहने का अर्थ है-- अहंकार को विसर्जित करो।
तब वहां कोई भी नहीं होता, जो पूछ रहा या मांग कर रहा होता है,
तब वहां शुद्धतम रूप में 'कोई नहीं' होता है--
तुम एक खाली मकान होते हो, एक गहरी शून्यता होते हो, एक शुद्धतम
प्रतीक्षा होते हो।
और अचानक वह सभी कुछ जो तुम पूछ सकते थे, मांग सकते थे,
बिना मांगे हुए ही तुम्हें दे दिया जाता है।
जीसस कहते हैं: मांगो, और वह तुम्हें दिया जाएगा।
लेकिन यह कोई उच्चतम शिक्षा नहीं है।
जीसस के चारों ओर जो लोग थे, वे उन्हें वह उच्चतम शिक्षा नहीं दे सके
क्योंकि वे लोग यह जानते ही नहीं थे कि शिष्य कैसे बना जाए।
यहूदियों की परम्परा में शिक्षक और छात्र होते थे,
लेकिन गुरु शिष्य का सम्बन्ध बुनियादी रूप से पूरब की चीज है।
तब शिक्षक होते थे, जो बहुत सी चीजें सिखलाते थे:
और छात्र होते थे, ईमानदार छात्र
जो बहुत कुछ सीखते थे।
लेकिन जीसस वहां शिष्य न खोज सके,
वह उन्हें उच्चतम शिक्षा न दे सके।

वह कहते हैं--मांगो, और वह तुम्हें दिया जाएगा।
दरवाजा खटखटाओ, और तुम्हारे लिए वह खोला जाएगा।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं यदि तुमने मांगा, तो तुम चूक जाओगे,
यदि तुमने दरवाजा खटखटाया, तो तुम अस्वीकृत कर दिए जाओगे।
क्योंकि द्वार खटखटाना ही आक्रामकता है,
अधिक मांगना अहंकार है।
अधिक मांगने में ही तुम बहुत अधिक हो जाते हो,
और तुम्हारे लिए द्वार नहीं खोले जा सकते।
द्वार खटखटाते हुए तुम कर क्या रहे हो? तुम हिंसक हो रहे हो।
नहीं, मंदिर के द्वार पर जाकर उसे खटखटाने की अनुमति नहीं है।
तुम्हें उसके द्वार पर इतनी अधिक खामोशी से आना होगा
कि कहीं तुम्हारी पगध्वनि भी न सुनाई दे।
तुम्हें 'कुछ नहीं' की तरह आना होगा, जैसे मानो 'कोई नहीं' आया हो।
तुम द्वार पर प्रतीक्षा करो
और जब द्वार खुले, तुम प्रवेश कर जाओ।
तुम किसी शीघ्रता में नहीं हो।
तुम द्वार पर बैठकर विश्राम कर सकते हो,
क्योंकि द्वार तुम्हारी अपेक्षा बेहतर जानता है कि वह कब खुलेगा,
और उसके अन्दर बैठा सद्‌गुरु तुम्हारी अपेक्षा यह कहीं अच्छी तरह जानता
है, कि उसे कब देना चाहिए।
मंदिर के द्वार पर खटखटाना एक भद्दी बात है,
सद्‌गुरु से मांगना एक अशिष्टता है--
क्योंकि वह तुम्हें कोई भी चीज सिखलाने नहीं जा रहा है
वह कोई शिक्षक नहीं है।
वह अपने अंतर्तम के अस्तित्व का मूल्यवान खजाना
तुम्हारी ओर उछालने जा रहा है--
और जब तक तुम उसके लिए तैयार न हो, वह नहीं दिया जा सकता।
मोतियों को एक गंदे और नीच मनुष्य के सामने नहीं फेंका जा सकता।
सद्‌गुरु को प्रतीक्षा करनी होती है, जब तक कि तुम्हारे अन्दर का विद्या खाने
वाला गंदा सुअर विसर्जित न हो जाए
जब तक तुम जाग न जाओ, और एक प्रामाणिक मनुष्य न बन जाओ,
और तुम्हारे अन्दर का वह आक्रामक हिंसक और नीच पशु बिदा न हो जाए।
सद्‌गुरु और शिष्य के बीच का सम्बन्ध एक बलाल्कर न होकर,
एक बहुत गहरा प्रेम होता है।
विज्ञान और धर्म के बीच यही अंतर है।
विज्ञान है एक बलात्कार जैसा,
प्रकृति के रहस्य जानने के लिए उसके प्रति वहां एक आक्रामकता है।
विज्ञान, प्रकृति से बलात् उसके रहस्यों को जानने का एक हिंसक प्रयास है।
धर्म एक प्रेम है, वह एक समझाना-बुझाना है, वह एक मौन प्रतीक्षा है।
वह स्वयं अपने आपको तैयार बनाना है
जिससे किसी भी क्षण जब तुम्हारी आंतरिक तैयारी पूरी हो जाती है,
तो अकस्मात् एक लयबद्धता हो जाती है, प्रत्येक चीज एक पंक्ति में आ जाती
और प्रकृति अपना रहस्य स्वयं प्रकट कर देती है।
और यह रहस्योद्‌घाटन पूरी तरह भिन्न होता है।
विज्ञान, प्रकृति को थोड़े से रहस्य देने को विवश कर सकता है,
लेकिन क्या सत्य को भी? नहीं।
विज्ञान, सत्य को जानने में कभी भी समर्थ न होगा।
डाकू लुटेरे, हिंसक और आक्रमणकारी लोग अधिक से अधिक
कुछ रहस्यों को उससे छीन सकते हैं। इससे अधिक नहीं।
और यह रहस्य भी केवल परिधि के ही होंगे,
उसका सबसे अधिक आंतरिक केंद्र उनके लिए ढका ही रहेगा,
क्योंकि आंतरिक केंद्र पर पहुंचने के लिए
हिंसा का प्रयोग नहीं किया जा सकता, कोई भी प्रयास नहीं किया जा सकता
वह आंतरिक केंद्र तुम्हें स्वयं आमंत्रित करेगा,
केवल तभी तुम उसमें प्रवेश कर सकते हो।
अनिमंत्रित व्यक्ति के लिए वहां जाने का कोई उपाय ही नहीं है।
एक आमंत्रित अतिथि के रूप में ही तुम उस आंतरिक तीर्थ में
प्रवेश कर सकते हो।
एक सद्‌गुरु और शिष्य के मध्य का सम्बन्ध
प्रेम की उच्चतम सम्भावना है--
क्योंकि यह दो शरीरों का सम्बन्ध नहीं है।
यह सम्बन्ध किसी प्रसन्नता पाने अथवा संतुष्ट होने का नहीं है,
यह सम्बन्ध न तो दो मनों का है और न दो मित्रों का,
सूक्ष्म रूप में क्या यह मानसिक लयबद्धता है? नहीं।
न तो यह सम्बन्ध शारीरिक है और न सेक्स का
न तो यह बौद्धिक सम्बन्ध है और न भावनात्मक,
यह तो दो पूर्णताओं का योग है, जो एक दूसरे में समाहित
होने के लिए एक साथ एक दूसरे के निकट आ रहे हैं।
और यदि तुम प्रश्न पूछ रहे हो, तो तुम समग्र कैसे हो सकते हो?
यदि तुम आक्रामक हो, तो तुम समग्र या पूर्ण नहीं हो सकते।
एक पूर्णता सदा मौन होती है, वहां अंतर्तम में कोई संघर्ष होता ही नहीं।
यही कारण है कि उसके बिना तुम संघर्ष में--
नहीं बने रह सकते।
समग्रता शांत है, उसमें व्यग्रता नहीं है और वह एक गहरी सहभागिता में
इकट्ठी हो गई है।

एक सद्‌गुरु के सान्निध्य में प्रतीक्षा करते हुए ही एक शिष्य--यह सीखता है
कि कैसे थिर होकर उसका सहभागी बना जाए
एक अखण्ड और थिर केंद्र वास्तव में भूखे और प्यासे की भांति-केवल
प्रतीक्षा करता है। शरीर के प्रत्येक रेशे और प्रत्येक कोष-कोष में प्यास की
तड़प लिए हुए प्रतीक्षा और प्रतीक्षा करता है।
क्योंकि सद्‌गुरु ही अच्छी तरह जानता है कि कब ठीक घड़ी आ रही है।
द्वार खटखटाते हुए नहीं,
यद्यपि प्रलोभन वहां रहेगा--
और जब कि सद्‌गुरु उपलब्ध है--
यह लालसा बहुत अदम्य और गहरी हो जाती है, कि उससे पूछ क्यों न लें?
वह दे सकता है, फिर प्रतीक्षा क्यों की जाएं?
समय व्यर्थ नष्ट क्यों किया जाए?
नहीं, यह प्रश्न समय नष्ट करने का नहीं है।
वास्तव में धैर्य से प्रतीक्षा करना समय का सर्वश्रेष्ठ उपयोग है।
अन्य सभी से समय नष्ट हो सकता है, लेकिन प्रतीक्षा से नहीं,
क्योंकि प्रतीक्षा एक प्रार्थना है, प्रतीक्षा एक ध्यान है,
और प्रतीक्षा ही सब कुछ है। सब कुछ उसी के द्वारा घटता है।
और मैं इसी को महानतम कला कहता हूं। क्यों?
क्योंकि सद्‌गुरु और शिष्य के मध्य
जो एक महानतम रहस्य विद्यमान है, जिसे शिष्य अपनी गहराइयों में
ग्रहण करते हुए जीता है और तभी
सद्‌गुरु का सर्वोच्च प्रवाहित होता है।
गुरु और शिष्य के बीच का यह सम्बन्ध ज्ञात और अज्ञात का है,
यह ससीम और असीम के मध्य का है,
यह समय और शाश्वत के मध्य का है,
यह बीज और फूल के मध्य का है,
यह वास्तविकता और सम्भावित शक्ति के मध्य का है,
और यह अतीत और भविष्य के बीच का सम्बन्ध है।
एक शिष्य केवल एक अतीत है, सद्‌गुरु केवल एक भविष्य है।
और यहीं, इसी क्षण अपने गहन प्रेम और प्रतीक्षा में
उन दोनों का मिलन होता है।
शिष्य है समय और सद्‌गुरु है शाश्वतता।
शिष्य है मन, और सद्‌गुरु है अमन।
शिष्य उतना ही सब कुछ है, जितना वह जानता है,
और सद्‌गुरु वह सभी कुछ है, जो नहीं जाना जा सकता।
जब सद्‌गुरु और शिष्य के मध्य उस सेतु का बनना घटता है
तो वह एक चमत्कार होता है।
ज्ञात का अज्ञात के साथ, और समय का शाश्वतता के साथ।
सेतु बनना ही एक चमत्कार है।
सद्‌गुरु के हिस्से में--करना होता है,
क्योंकि वह जानता है कि क्या किया जाना है।
तुम्हारे हिस्से में कुछ भी न करना होता है
तुम्हारे हिस्से में--'कुछ भी नहीं करना चाहिए'--होता है,
क्योंकि तुम अपने करने से ही पूरी चीज को अव्यवस्थित कर दोगे।
तुम नहीं जानते कि तुम क्या हो--फिर तुम कोई भी चीज कैसे कर सकते
हो?
एक शिष्य भली भांति यह जानते हुए
कि वह कुछ भी नहीं कर सकता, केवल प्रतीक्षा करता है।
वह ठीक दिशा भी नहीं जानता,
वह यह भी नहीं जानता कि क्या शुभ है और क्या अशुभ,
वह स्वयं को ही नहीं जानता, फिर वह कोई भी चीज कैसे कर सकता है?
करना तो सद्‌गुरु के हिस्से में आता है।
लेकिन जब मैं कहता हूं कि 'करना' सद्‌गुरु के हिस्से में है,
तो मुझे गलत मत समझना।
एक सद्‌गुरु कभी कुछ करता ही नहीं--
यदि शिष्य प्रतीक्षा कर सकता है,
तो सद्‌गुरु का दिव्य अस्तित्व ही 'करना' बन जाता है।
केवल उसकी उपस्थिति ही एक कैटलेटिक एजेन्ट बन जाती है,
और बहुत सी चीजें स्वयं अपने आप घटना शुरू हो जाती हैं।

जब किसी ने महान सद्‌गुरु जेनेरिन से पूछा:
आप अपने शिष्यों के साथ क्या करते हैं?
उसने कहा: मैं क्या कर सकता हूं? मैं कुछ भी नहीं करता।
प्रश्नकर्ता ने फिर पूछा:
लेकिन आपके चारों ओर बहुत चीजें तो घटती हैं,
आप जरूर कुछ न कुछ करते हैं।
जेनेरिन ने कहा
शांत, मौन बैठे रहो, कुछ करो ही मत,
नई ऋतु आती है, तो घास अपने आप उगने लगती है।
यही है वह, जो एक सद्‌गुरु कर रहा है:
शांत और मौन बैठे हुए वह कुछ भी नहीं कर रहा है।
वह ठीक क्षण और खिलावट के मौसम की प्रतीक्षा कर रहा है।
जब अकस्मात् शिष्य और गुरु का मिलन होता है,
तो वहां बसंत होगा ही।
हरियाली का मौसम आता है, और घास स्वयं अपने आप उग आती है।
और यह इसी तरह से घटता है।
एक सद्‌गुरु अखण्ड बना, कुछ भी न करते हुए मौन बैठा रहता है,
और शिष्य, सद्‌गुरु द्वारा कुछ भी किए जाने की प्रतीक्षा करता है।
तब खिलावट का मौसम आता है
और जिस क्षण वे मिलते हैं, हरी घास स्वयं उग आती है।
वास्तव में सत्य की प्राप्ति एक घटना है, किसी को केवल उसे अनुमति देनी
होती है।
प्रत्यक्ष रूप से करना कुछ भी नहीं है, उसे होने देने की एक को अनुमति देनी
होती है।
जब तक वह घटती नहीं है,
तुम उसे जानने में समर्थ न हो सकोगे, क्योंकि तुम सब कुछ यही जानते हो,
कि केवल जब तुम कुछ करते हो, तभी कोई चीज घटती है।
जब तुम कुछ भी नहीं करते, तो कुछ भी नहीं होता है।
इसलिए तुम पूरी तरह भुलावे में पड़े हो,
क्योंकि यह चीजें पूरी तरह एक भिन्न आयाम की हैं।
लेकिन, यदि तुम अपने जीवन को देखो
तो तुम देखोगे कि बहुत सी चीजें, बिना तुम्हारे किए भी अब भी घट रही हैं।
जब प्रेम घटता है, तो तुम क्या करते हो?
हरी घास अपने आप उग आती है।
अचानक वहां बसंत ऋतु आ जाती है और तुम्हारे अन्दर किसी चीज की
खिलावट हो उठती है।
वह खिले हुए फूल किसी और के लिए हैं--
तुम बस प्रेम में डूबे हो, और तुमने किया क्या है?
यही कारण है कि लोग प्रेम से इतने डरे हुए हैं-- क्योंकि वह एक घटना है,
तुम उसे नियंत्रित नहीं कर सकते।
तुम उस पर अधिकार नहीं कर सकते।
इसी वजह से लोग कहते हैं कि प्रेम अंधा होता है।
वास्तव में जबकि मामला ठीक इससे विपरीत है--
प्रेम ही केवल दृष्टि को स्पष्ट करते हुए निर्मलता देता है।
प्रेम ही केवल आंख देता है, लेकिन लोग कहते हैं--प्रेम अंधा होता है,
क्योंकि वे उस सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कर सकते हैं।
वह उन्हें अपने अधिकार में ले लेता है, और उनका स्वयं को अपने पर कोई
नियंत्रण ही नहीं रह जाता।
वे केंद्र से दूर फेंक दिए जाते हैं। वे कहते हैं--वह अंधा है,
क्योंकि वहां कोई कारण नहीं होता--वह अतर्क होता है।
वह एक तरह का पागलपन होता है वह एक तेज ज्वर जैसा होता है
वह तुम्हें घटने वाली कुछ ऐसी चीज होती है, जैसे कोई रोग हो।
वह कुछ ऐसा ही लगता है, क्योंकि तुम पर तुम्हारा कोई वश नहीं रह
जाता--
जीवन तुम्हें अपने अधिकार में ले लेता है।
सत्य में भी प्रेम का ही गुण होता है।
इसी कारण जीसस कहे चले जाते हैं--प्रेम ही परमात्मा है,
अथवा 'परमात्मा है प्रेम'
क्योंकि यह गुण, समान स्रोत से आ रहा है।

प्रेम की तरह ही सत्य भी घटता है,
तुम उसके सम्बन्ध में कुछ करते ही नहीं,
यहां तक कि तुम द्वार भी नहीं खटखटाते।
लेकिन अहंकार ऐसी घटनाओं की ओर देखने से बचता है।
अहंकार केवल उन्हीं चीजों की ओर देखता है, जिन्हें तुम कर सकते हो।
वह चुनाव करता है, उन चीजों को इकट्ठा करता है,
जो की जा सकती हैं
और जो चीजें स्वत: घटती हैं, वह उन्हें टालता है
और अपने अचेतन के तलघर में फेंक देता है।
अहंकार चुन-चुन कर चुनाव करने वाला है,
वह जीवन को उसकी समग्रता में नहीं देखना चाहता।
सत्य एक घटना है, अंतिम रूप से घटने वाली अनूठी घटना,
वह सर्वोच्च घटना, जिसमें तुम पूर्ण अस्तित्व में घुल जाते हो,
और पूरा अस्तित्व तुममें घुल जाता है।
तिलोपा के शब्दों में यह महामुद्रा है,
यह परमानंद का सर्वोच्च शिखर है,
जो चेतना की एक इकाई और समग्र चेतना के महासागर के
एक बूंद और एक महासागर के मध्य घटता है,
यह परमानंद का वह सर्वोच्च शिखर अनुभव है,
जिसमें दोनों एक दूसरे में खो जाते हैं
और पहचान भी विलुप्त हो जाती है।

ऐसा ही एक सद्‌गुरु और शिष्य के बीच भी घटता है।
सद्‌गुरु में तो सागर जैसे गुण हैं
और शिष्य है अभी भी एक छोटी-सी बूंद--
ससीम, असीम से मिल रहा है,
काफी धैर्य की आवश्यकता है,
अनंत धैर्य की जरूरत है। शीघ्रता करने से कोई सहायता मिलने की नहीं।
अब इस सुन्दर जेन बोध कथा को समझने का प्रयास करो।
प्रत्येक शब्द को अनुमति दो कि वह तुम्हारे अस्तित्व के
गहरे केंद्र में उतर जाए
क्योंकि यही है वह, जिसकी खातिर तुम यहां आए हो।
यदि तुम इस कथा को समझ सके, तो तुम्हारे लिए
मेरे निकट से निकटतम आना आसान होगा।

प्रत्येक समय लीहत्थू व्यस्त नहीं होता था,
यिन शेंग ने यह अवसर पाया और गुहा रहस्यों को देने की मांग की।
लीहत्थू लाओत्से स्कूल का ही एक सद्‌गुरु था,
लाओत्से के बुद्धत्व को उपलब्ध शिष्यों में से एक।

और लीहत्थू कोई सामान्य सद्‌गुरु न था।
वह तुम्हारी छोटी-छोटी समस्याओं और तुम्हारे कार्यों से
कोई वास्ता नहीं रखता था।
छोटी-मोटी शिक्षाएं देने में भी, उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी।
लीहत्थू की दिलचस्पी थी केवल सर्वोच्च सत्य में।
उसके बहुत से शिष्य थे।
दो तरह की श्रेणियां होती हैं शिष्यों की।
पहली श्रेणी के शिष्य, सद्‌गुरु द्वारा चुने जाते हैं,
और दूसरी श्रेणी के शिष्य वह होते हैं जो स्वयं चुनते हैं सद्‌गुरु को।
दोनों के गुणों में बहुत भिन्नता है।
यह मनुष्य, यिन शेंग जरूर ही दूसरी श्रेणी का शिष्य रहा होगा--
और अंतर बहुत बड़ा है।
जब एक सद्‌गुरु तुम्हें चुनता है, तो पूरी तरह वह बात ही अलग होती है।
निश्चित रूप से तुम कभी यह जान भी न पाओगे
कि सद्‌गुरु ने तुम्हें चुना है।
वास्तव में सद्‌गुरु तुम्हें इस तरह विश्वास दिलाएगा
कि तुम यह अनुभव करोगे कि तुमने ही उसे चुना है।
इस बारे में उसकी बहुत गहरी अंतर्दृष्टि होती है,
क्योंकि यदि वह तुम्हें यह जानने की अनुमति देता है,
कि उसने ही तुम्हें चुना है,
तो तुम्हारा अहंकार बाधा उत्पन्न कर सकता है,
क्योंकि अहंकार मालिक बनना चाहता है,
अहंकार उसे अपने नियंत्रण में लेना चाहता है।
प्रत्येक दिन ऐसी ही परिस्थितियों से मेरा आमना-सामना होता है
मैं तुम्हें यह जानने की अनुमति नहीं देता, कि मैं तुम्हे चुन रहा हूं।
मुझे तुम्हें यह स्वतंत्रता देनी होती है कि तुम ही मुझे चुनो।
लेकिन अंतर बहुत बड़ा है,
क्योंकि जब एक सद्‌गुरु शिष्य को चुनता है
वह परिपूर्ण समझ के साथ चुनता है।
वह तुम्हारे द्वारा ही तुम्हारी भूत और भविष्य की सारी शक्तियों--
और सम्भावनाओं के साथ तुम्हें देखता है,
और भविष्य में घटने वाली सारी घटनाएं उसके सामने स्पष्ट हो जाती हैं।
लेकिन जब तुम कोई सद्‌गुरु चुनते हो, तो लगभग हमेशा, तुम गलत ही होते
हो।
क्योंकि तुम अंधेरे में टटोलते हो।
बिना यह जाने हुए कि वह कौन है, वह उसे कैसे चुन सकता है?
बिना यह जाने हुए कि सत्य क्या है, तुम कैसे एक सद्‌गुरु को चुन सकते
हो?
तुम कैसे निर्णय कर सकते हो?
तुम जो भी निर्णय करोगे, वह गलत होने जा रहा है।
मैं यह बात पूर्णता से कह सकता हूं प्रश्न इस बात का नहीं है
कि कोई व्यक्ति गलत हो सकता है अथवा ठीक? नहीं।
तुम जो कुछ भी चुनोगे वह गलत ही होगा,
क्योंकि तुम अंधेरे में टटोल रहे हो।
तुम्हारे पास अंतर्ज्योति है ही नहीं, जिससे तुम निर्णय ले सको,
तुम्हारे पास ऐसी कोई कसौटी या मापदण्ड है ही नहीं,
तुम जान ही नहीं सकते कि कौन सी धातु सोना है अथवा नहीं?
एक निष्ठावान खोजी, सद्‌गुरु को चारों ओर से छा जाने की अनुमति देता है।
एक ईमानदार खोजी, सद्‌गुरु को उसे चुनने की अनुमति देता है।
एक मूर्ख खोजी ही सद्‌गुरु को चुनने का प्रयास करता है,
और तब प्रारम्भ ही से परेशानी शुरू हो जाती हैं।

लीहत्थू और उसके सद्‌गुरु लाओत्थू के
पूर्ण रूप से अलग तरह के सम्बन्ध थे।
लाओत्से ने ही जीहच्छू को चुना था।
इस यिन शेंग ने लीहच्छू को चुना था,
और जब एक शिष्य चुनाव करता है, तो वह आक्रामक होता है--
क्योंकि उस चुनाव में ही आक्रामकता की शुरुआत हो जाती है।
और यदि तुम उसे चुनते हो, तो एक सद्‌गुरु तुम्हें--
अस्वीकार नहीं कर सकता,
केवल अपनी करुणा के कारण भी वह तुम्हें अस्वीकार नहीं कर सकता।
'' प्रत्येक समय लीहच्छू व्यस्त नहीं होता था,
यिन शेंग ने अवसर पाकर, उससे गुहा रहस्य को दिए जाने की याचना की।
वह मांगना या याचना वास्तव में मांगना न था,
वह केवल छीन लेने का एक तरीका था।
वास्तव में वह एक याचक न होकर आक्रामक था।
जब भी लहित्थू व्यस्त न होता था और वह अवसर पाता था
वह गुहा रहस्यों को दिए जाने की याचना करने लगता था।
लीहत्थू ने मुंह फेर कर उसे दूर हटा दिया होता,
और उससे कुछ कहा ही न होता,
लेकिन कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में वह भी विकसित हो सकता है
इसीलिए उसने कहा
कई बार लीहच्छू ने उसे टाल दिया था, कुछ कहना आगे के लिए स्थगित कर
दिया था और कहा था:
अभी ठीक क्षण आया नहीं है। तुम अभी परिपक्व नहीं हुए हो।
लेकिन यिन शेंग आग्रह ही करता रहा था

अंत में लीहच्छू को जो सत्य बात थी, वह कहनी ही पड़ी।
उसने कहा: मैं सोचता था तुम मेधावी और होशियार हो,
पर वास्तव में तुम अन्य लोगों से अलग नहीं हो।
इसमें असभ्यता क्या है?
रहस्यों की मांग नहीं की जा सकती, तुम्हें उन्हें अर्जित करना होता है।
तुम्हें उनके योग्य बनना होता है।
इतना योग्य और समर्थ कि सद्‌गुरु तुम्हें स्वयं उन्हें उपहार स्वरूप दे सके।
वह स्वयं तुम्हें उनमें सहभागी बनाना चाहेगा,
लेकिन तुम्हें अपने सामान्य मन से ऊपर उठना होगा
क्योंकि सामान्य मन उसमें सहभागी बनने में समर्थ न हो सकेगा।

यही है वह, जिसके बाबत जीसस कहे चले जाते हैं-- मोतियों को शूकरों के
सामने नहीं फेंका जा सकता,
क्योंकि वे उसे समझेंगे नहीं, वह समझ है ही नहीं उनके पास।
तुम शब्द समझ सकते हो: पर वह रहस्य, मात्र शब्द नहीं हैं।
तुम विचार समझ सकते हो, पर वह सत्य का रहस्य, मात्र विचार नहीं है।
वे कोई दर्शन शास्त्र या सिद्धान्त नहीं हैं।
वे रहस्य, सद्‌गुरु के गहरे अंतस. 'की ऊर्जा हैं,
वे उसके अस्तित्व की सम्पदा हैं।
यदि तुम विकसित होकर उच्च से उच्चतम तल पर उठ सको,
केवल तभी तुम सद्‌गुरु के निकट से निकटतम हो सकोगे,
और जब सद्‌गुरु को यह अनुभव होता है,
कि तुम भी उसकी चटाई पर बैठ सकते हो,
केवल तभी वे रहस्य तुम्हें दिए जा सकते हैं, उससे पहिले नहीं।
यदि वह उससे पूर्व देना भी चाहे, तो भी वह दे नहीं सकता।
वह उन्हें करुणावश ही देना चाहता है, लेकिन दे किसे?
वे तैयार नहीं हैं, इसलिए उन्हें देना व्यर्थ होगा।

इसी ढंग से ऐसा एक बार हुआ भी,
एक सूफी रहस्यदर्शी धुन-गुन का एक शिष्य था,
वह शिष्य भी जरूर यिन शेंग जैसा ही रहा होगा,
वह निरंतर बार-बार याचना कर उसे तंग करता रहता था।
एक दिन धुन-गुन ने उसे एक पत्थर दिया
और उससे कहा-वह उसे सब्जी मंडी ले जाकर बेचने का प्रयास करे।
वह पत्थर बड़ा था और खूबसूरत था।
लेकिन सद्‌गुरु ने कहा--उसे बेचना हरगिज नहीं,
केवल बेचने का प्रयास करना। कई लोगों को उसे दिखाना,
और बस लौटकर सारी बातें मुझे बताना--कि सब्जी मंडी में हम उसकी
कितनी कीमत प्राप्त कर सकते हैं?
वह शिष्य सब्जी मंडी गया। बहुत से लोगों ने उसे देखा और सोचा:
वह दिखावे की एक अच्छी चीज है, हमारे बच्चे उसके साथ खेल सकते हैं
अथवा हम उसका प्रयोग सब्जियों को तौलने वाले बांट की तरह कर सकते
इसलिए उन लोगों ने उसे केवल कुछ छोटे से सिक्कों
अर्थात् केवल दस पैसों में खरीदना चाहा।
वह शिष्य वापस लौटकर आया और सद्‌गुरु से कहा:
लोगों से अलग-अलग प्रत्युत्तर मिले, वे दो पैसों से दस पैसों--तक के थे।
अधिक से अधिक हमें इसके लिए वहां दस पैसे मिल सकते हैं।
सद्‌गुरु ने कहा: अब तुम इसे लेकर सर्राफा बाजार जाओ
और वहां लोगों से इसकी कीमत पूछो, कि वह कितना धन दे सकते हैं,
लेकिन बेचना हरगिज नहीं।
वह शिष्य सर्राफा बाजार से बहुत खुश होकर लौटा,
और उसने कहा : वे लोग तो अद्‌भुत हैं।
वे इसके लिए एक हजार रुपये तक देने को तैयार थे।
लोगों के प्रत्युत्तर अलग- अलग थे, पांच सौ रुपये से लेकर एक--हजार तक।
सद्‌गुरु ने कहा: अब तुम इसे लेकर जौहरी बाजार जाओ,
लेकिन बेचना मत।
वह जौहरियों के पास गया। वह विश्वास ही न कर सका।
वे लोग पचास हजार रुपये तक देने को तैयार थे।
और जब उसने बेचने से इंकार कर दिया, तो वे लोग बढ़ा-बढ़ा
कर कीमतें लगाते रहे, और एक लाख तक पहुंच गए।
लेकिन उसने कहा-- मैं इसे बेचने नहीं जा रहा हूं।
उन्होंने कहा--हम लोग इसके लिए दो लाख तीन लाख तक
दे सकते हैं, अथवा तुम जो कुछ मांगो, लेकिन इसे मुझे ही दो।
उसने कहा, मैं इसे बेच नहीं सकता। मुझे केवल कीमत पूछनी थी।
वह विश्वास ही न कर सका-- ये लोग तो पागल थे।
उसका स्वयं यह खयाल था कि सब्जी मंडी में
जो कीमत लगाई गई थी, वह काफी थी।
वह वापस लौट कर आया। सद्‌गुरु ने वह पत्थर उससे लेकर कहा:
हमें इसे बेचना नहीं है।

लेकिन अब तुम जानते हो, कि सब कुछ तुम्हीं पर निर्भर है,
यदि तुम्हारे पास कसौटी है, समझ है
तो तुम प्रश्न पूछे चले जाओ
और तुम सब्जी बाजार में ही रहोगे,
और तुम्हारी समझ भी उसी बाजार जैसी ही होगी।
तब यदि तुम बहुमूल्य रहस्यों के बाबत पूछते हो:
तो तुम हीरों के बारे में पूछ रहे हो।
लेकिन पहले एक जौहरी बनो और तब मेरे पास आना।
तब मैं तुम्हें सीख दूंगा।
एक निश्चित गुणों वाली समझ की जरूरत है,
केवल तभी विशिष्ट सत्य तुम्हें दिए जा सकते हैं।
और रहस्य? तुम उनकी मांग नहीं कर सकते,
क्योंकि बार-बार उनके मांगने से ही, तुम यह प्रदर्शित करते हो,
कि तुम सब्जीमंडी से आ रहे हो,
तुम्हें प्रतीक्षा करनी है, तुम्हें अनंत काल तक प्रतीक्षा करनी है।
तभी तुम यह दिखला सकोगे कि तुम उसके लिए
अपना पूरा जीवन तक बलिदान करने को तैयार हो।
तभी तुम यह प्रकट करते हो, कि तुम उन रहस्यों की कितनी अधिक कीमत
लगा सकते हो-- तुम पूरी तरह अपने जीवन तक को बलिदान कर सकते
हो।
तभी सद्‌गुरु पूर्ण रूप से तुम्हें अपने अस्तित्व के साथ सहभागी बनाता है।
कुछ भी दिया ही नहीं जा सकता, क्योंकि ये रहस्य कोई वस्तुएं नहीं हैं।
शुद्ध रूप से एक ऊर्जा ही सद्‌गुरु से एक दीपशिखा की भांति,
तुम पर छलांग लगाती है,
तुम्हारे अन्दर प्रविष्ट होती है और पूरी तरह तुम्हारा रूपान्तरण कर देती है।

मेरा खयाल था कि तुम मेधावी और होशियार हो,
क्या वास्तव में तुम अन्य सभी लोगों जैसे असभ्य नहीं हो?
तुम्हारा यह निरंतर याचना करना, तुम्हारे असभ्य मन को प्रदर्शित करता है,
तुम समझते ही नहीं कि तुम क्या मांग रहे हो।
युवा होकर भी अपना बचकानापन दिखाकर, तुम पूरी तरह असभ्य दिखाई
देते हो,
तुम यह भूल गए हो कि तुम किसके लिए यहां हो?
और यह नहीं जानते कि तुम क्या मांग रहे हो?

और तब उसने अपने सदगुरु के साथ रहने की अपनी कहानी सुनाई।
यह एक दुर्लभ और अनूठी कहानी है।
मैं तुम्हें बतलाऊंगा, कि मैंने अपने सद्‌गुरु से क्या सीखा?
उसका अपना सद्‌गुरु लाओत्थू था।
ताओवादी परम्परा का स्रोत अथवा उद्‌गम,
इस पृथ्वी पर अभी तक जितने भी महान् सद्‌गुरु हुए हैं,
उनमें से एक।
लीहत्थू ने कहा:
सद्‌गुरु की सेवा करने के तीन वर्षों बाद--
मेरा मन यह सोचने का साहस नहीं कर पाता था
कि क्या ठीक है और क्या गलत?
और न मैं अपने मुंह से लाभ या हानि के बारे में ही
कुछ कहने का साहस कर सकता था।
केवल तभी
मैंने सद्‌गुरु की कृपा दृष्टि से इतना सब कुछ प्राप्त किया।

तीन वर्ष बीत गए। वह पूर्ण रूप से सद्‌गुरु की सेवा ही करता रहा।
इसके अतिरिक्त तुम अन्य कुछ भी कैसे कर सकते हो?
तुम पूर्ण रूप से सद्‌गुरु की सेवा ही कर सकते हो।
एक शिष्य के द्वारा और कुछ भी किया ही नहीं जा सकता।
न कोई प्रश्न, न कुछ भी पूछना और न कुछ मांगना।
एक शिष्य पूरी तरह से अपने सद्‌गुरु की छाया बन जाता है,
और उसकी सेवा करता है,
और सेवा के द्वारा ही, अपने विश्वास प्रेम और श्रद्धा के कारण ही उसका मन
बदलना शुरू हो जाता है।
लीहत्थू कहता है, मेरा मन यह सोचने तक का साहस न कर पाता था
कि क्या ठीक है और क्या गलत?
यह लगभग असम्भव हो जाता है--इस बारे में सोचना
कि क्या ठीक है और क्या गलत।
जब तुम एक सद्‌गुरु के निकट रहते हो, तुम्हें सोचने की जरूरत ही नहीं।
तुम पूरी तरह से उसके साथ ही चलते हो
तुम पूर्ण रूप से उसकी गतिविधियों का अनुसरण करते हो।
तुम प्रत्येक चीज उसी पर छोड़ देते हो। तुम समर्पण कर देते हो।
लीहच्छू कहता है:
मेरा मन चाहने पर भी सोचने का साहस न कर पाता था...
और न मेरा मुंह कुछ और बोलने का साहस कर पाता था--
कि क्या लाभ है और क्या है हानि? क्या अच्छा है और क्या बुरा?
क्योंकि सद्‌गुरु के निकट रहते हुए
तुम्हारा पूरा व्यवहार बदलना शुरू हो जाता है।
पहली बार सद्‌गुरु के झरोखे से तुम अखण्ड को देखते हो,
जहां गलत और ठीक, सच और झूठ आपस में एक दूसरे में मिलकर,
मिश्रित हो जाते हैं
जहां अंधकार और प्रकाश, फिर अलग- अलग नहीं रह जाते।

हेराक्साईटस कहता है:
परमात्मा है-रात और दिन।
गर्मी और जाड़ा
भूख और तृप्ति, दोनों एक साथ।
सद्‌गुरु के द्वारा ही पहली झलक तुम तक आना शुरू हो जाती है।
जितना तुम उसके निकट आते हो, सद्‌गुरु एक झरोखा बन जाता है,
उतनी ही अधिक तुम अपनी समझ को शून्य में फेंक देते हो।
तुमने पहले जो कुछ भी जाना था, वह पूरी तरह व्यर्थ और
अनुपयोगी बन जाता है।
तुम कैप जाते हो। तुम्हारी पूरी बुनियाद हिल जाती है।
तुम अपने नियंत्रण चक्र या गिअर से दूर फेंक दिए जाते हो।
तुम आगे और यह नहीं जान पाते कि क्या ठीक है और क्या गलत?
तुम सद्‌गुरु के झरोखे के द्वारा उस अखण्ड को देखते हो--
और पाते हो कि सभी कुछ उस पूर्ण में ही समाया हुआ है।
सारे विरोधाभास उसी पूर्ण में समाए हुए हैं,
सारी असंगतियां उस पूर्ण ही में समाहित हैं,
सारी विपरीतताएं उसी पूर्ण में मिलकर एक हो गई हैं।
इसी कारण लीन्हत्थू ने कहा--कि वह और आगे यह सोचने तक का साहस
न कर सका,
कि क्या ठीक है और क्या गलत?
ठीक और गलत के सारे मापदण्ड व्यर्थ हो गए।

क्या लाभ है और क्या है हानि, यह सारी धारणाएं ही
पूरी तरह भाप बनकर उड़ गईं।
केवल तभी ऐसा हुआ
और मैंने सद्‌गुरु की कृपादृष्टि से इतना सब कुछ प्राप्त किया।
गहन श्रद्धा से सेवा करने के तीन वर्षों बाद,
जब सद्‌गुरु ने मेरी ओर देखा
तो पाया कि पुराना मन,
जो अच्छे और बुरे, कुरूपता और सुन्दरता ' यह ' अथवा ' वह
दो में विभाजित होकर, दो विपरीतताओं, में जीता था,
अब वह और अधिक रहा ही नहीं।
केवल तभी ऐसा हुआ,
कि मैंने सद्‌गुरु की एक दृष्टि से इतना सब कुछ प्राप्त किया।
इससे लीहच्छू का आखिर अर्थ क्या है?
क्या तीन वर्षों तक सद्‌गुरु ने लीहज्यू की ओर कभी देखा ही नहीं?
यह असम्भव है। सद्‌गुरु की निरंतर सेवा करते हुए
सद्‌गुरु ने उसे जरूर ही लाखों बार देखा होगा।
तब एक दृष्टि से उसका आखिर क्या अर्थ है?
देखना और दृष्टि, यह पूरी तरह से भिन्न हैं।
देखना एक निष्क्रिय चीज है।

जब मैं तुम्हारी ओर देखता हूं तो मेरी आंखें एक खिड़की
की भांति कार्य करती हैं।
तुम उसमें प्रतिबिम्बित होते हो, यह दृष्टि नहीं है।
एक दृष्टि का अर्थ होता है कि आंखें खिड़कियों की भांति--कार्य नहीं करतीं,
लेकिन मेरी आंखें ही तुम्हारे अन्दर मेरी ऊर्जा उड़ेलने का कार्य करना शुरू
कर देती हैं।
वे निष्क्रिय नहीं हैं, वे सद्‌गुरु की ऊर्जा से भरी हुई हैं।
जब देखने के साथ उसमें सद्‌गुरु की आंतरिक ऊर्जा का भी भार होता है,
तब वह दृष्टि बन जाती है।
वह बहुत बड़ी क्रियात्मक शक्ति होती है।
वह एक तीर की तरह सीधे तुम्हारे हृदय में उतर जाती है।
वह तुम्हारे सबसे अधिक गहरे केंद्र को बेध देती है।
एक अर्थ में वह एक तीर की भांति है, क्योंकि वह हृदय को बेध देती है,
और दूसरे अर्थ में वह एक बीज की भांति है, क्योंकि तुम गर्भ-- धारण करते
हो।
एक दृष्टि, वह देखना भर है,
जो तुम्हें सद्‌गुरु की ऊर्जा के साथ, गर्भवती बना देती है।
एक दृष्टि, मात्र देखने से पूरी तरह भिन्न है।
एक दृष्टि में सद्‌गुरु अपने स्वयं के अस्तित्व से,
तुम्हारे केंद्र तक की यात्रा करता है।
एक दृष्टि एक सेतु होती है।
उसके सद्‌गुरु ने तीन वर्षों में लीहत्थू को कई बार जरूर देखा होगा,
लेकिन वह दृष्टि नहीं थी।
और तुम इस अंतर को केवल तभी जानोगे,
जब मैं तुम्हें उस दृष्टि से देखूंगा।
जब कभी मैं वह दृष्टि तुम्हें देता हूं
लेकिन मैं वह दृष्टि किसी व्यक्ति विशेष को ही देता हूं
और केवल वही उसे जान पाता है।
कोई दूसरा व्यक्ति उसे नहीं जान पाता है।
दृष्टि को अर्जित करना होता है, तुम्हें उसके लिए तैयार होना होता है।
देखना तो ठीक है
लेकिन दृष्टि में एक प्रामाणिक सघन ऊर्जा होती है।
यह सद्‌गुरु के अस्तित्व का ही हस्तान्तरण है,
तुम्हारे अन्दर गहरे में प्रविष्ट होने का यह उसका पहला प्रयास है।

केवल तभी वैसा हुआ
कि मैंने सद्‌गुरु की एक दृष्टि से इतना अधिक प्राप्त किया।
मात्र देखने और एक दृष्टि के मध्य का अंतर स्मरण रहे।
देखना केवल देखना भर है, इससे अधिक और कुछ भी नहीं।
गुणात्मक रूप से एक दृष्टि नितांत भिन्न है--उसमें कुछ चीज-गतिशील
है।
यह देखना ही एक वाहन बन जाता है-- वह फिर और रिक्त नहीं रह जाता,

कुछ चीज और ही उसके साथ यात्रा कर रही होती है।
यदि तुम कभी किसी के प्रेम में पड़े हो, तो तुम इसे जान सकते हो कि एक
दृष्टि क्या होती है?
उसी स्त्री ने तुम्हें कई बार देखा है, लेकिन वह देखना सामान्य रूप से-- बस
देखना भर था--जैसे प्रत्येक अन्य व्यक्ति तुम्हें देखता है।
तब अचानक एक दिन, एक खिलती हुई खुशनुमा सुबह
वह तुम्हें दृष्टिभर कर देखती है।
वह देखना पूरी तरह भिन्न होता है, वह एक निमंत्रण होता है।
वह एक उपहार होता है, वह एक पुकार होती है।
अचानक कोई चीज तुम्हारे हृदय में गहरे तक उतर जाती है।
अब वह स्त्री, वही स्त्री नहीं रह गई,
और तुम भी अब पहले जैसे ही नहीं रहे।
तुम दोनों के बीच कुछ घटना घट गई।
कोई चीज ऐसी है, जिसे सिर्फ तुम दो ही जानते हो,
कोई पूरी तरह एकदम निजी चीज।
वह सार्वजनिक नहीं है, कोई दूसरा उसके प्रति सचेत नहीं होगा,
कि तुम लोगों के बीच कुछ घट चुका है: और एक देखना एक दृष्टि बन गई
है।

लेकिन यह कुछ भी नहीं है। एक प्रेम भरी दृष्टि भी,
एक सद्‌गुरु के तुम्हें उस तरह देखने की तुलना में कुछ भी नहीं है,
जब वह एक देखना न होकर एक दृष्टि होती है।
क्योंकि जब दो प्रेमी एक दूसरे को प्रेम भरी दृष्टि से निहारते हैं,
तो वे एक ही धरातल पर खड़े होते हैं,
वह दृष्टि पूरी तरह भरी- भरी नहीं हो सकती,
वह एक ही धरातल पर बहती हुई एक सरिता की भांति होती है।
और जब सद्‌गुरु तुम्हारी ओर देखता है, तो उसकी दृष्टि,
एक भयानक जलप्रपात की भांति होती है, क्योंकि धरातल भिन्न हैं।
यह कुछ ऐसा होता है, जैसे नियाग्रा जलप्रपात तुम पर गिर रहा हो।
तुम पूरी तरह धुल पुछकर, फिर वैसे ही नहीं बने रहोगे।
तुम फिर वैसे ही नहीं बने रह सकते--वहां से फिर पीछे लौटना होता ही
नहीं।
एक बार सद्‌गुरु ने तुम्हें दृष्टि भर कर देख लिया,
तो तुम्हारे अस्तित्व का सबसे आंतरिक केंद्र, एक भिन्न प्रकार के-- भ्रमर
गुंजार से भर उठता है, तुम एक अलग सुर-ताल में जीने लगते हो,
वास्तव में तुम फिर वही नहीं रह जाते,
उस दृष्टि के द्वारा पुराना विसर्जित हो जाता है,
और एक नूतन व्यक्ति, अस्तित्व में आता है।
लौह; इसी के बाबत कहता है--
तीन वर्ष तक निरंतर सद्‌गुरु की सेवा करते हुए
मैं प्रतीक्षा और बस प्रतीक्षा ही करता ही रहा, मांगा कुछ भी नहीं,
और एक दिन अचानक मुझे सद्‌गुरु की दृष्टि मिली।
पांच वर्ष बाद मेरा मन फिर से ठीक और गलत के बारे में सोचने लगा,
और मेरा मुख, हानि लाभ की बात फिर से करने लगा।
और पहली बार सद्‌गुरु का चेहरा विश्राममय हुआ, और वे मुस्कराए।

इस बोध-कथा के मर्मस्थल तक पहुंचने का प्रयास करें: यह तुम्हारी ही
कहानी है।
यह कोई ऐसी घटना नहीं है, जो कभी अतीत में घटी थी,
यह वह घटना है, जो अब भविष्य में घटने जा रही है।
सभी लेन बोध कथाएं तुम्हारे ही भविष्य की कथाएं हैं।
इसलिए यह सोचना ही मत, कि वे अतीत में घटी घटनाएं हैं।
जेन, कभी भी अतीत में होता ही नहीं, वह सदा भविष्य ही में होता है।
और तुम्हें उसे वर्तमान में लाना है।
हुआ क्या? सद्‌गुरु की सेवा करने के तीन वर्ष बाद--
वह यह सोचने का भी साहस नहीं कर पाता था कि क्या ठीक है और क्या
गलत?
यह कहने का भी साहस न कर पाता था कि क्या अच्छा है और क्या बुरा?
वह क्या हानिप्रद है और क्या है लाभदायक?
तब उस दृष्टि के मिलने के बाद हुआ क्या?
.. .मेरा मन फिर से ठीक और गलत के बारे में सोचने लगा,
और मेरा मुख फिर से हानि और लाभ के बारे में कहने लगा।
हुआ क्या?
पहले तुम सोचते हो कि कोई चीज ठीक है और कोई चीज गलत है,
क्योंकि समाज ने तुम्हें अपने अनुशासन और आदतों के ढांचे में इस तरह से
ढाल लिया है, कि वह विचार, तुम्हारा अपना विचार नहीं होता।
वह तुम्हारे अन्दर बैठा समाज ऐसा सोचता है।
समाज ने तुम्हारे मन को अनुशासन और आदतों के ढांचे में आबद्ध कर दिया
वह तुम्हारे अन्दर गहरे में प्रविष्ट हो गया है, और वह वहीं से तुम्हें नियंत्रित
करता है।

अब वैज्ञानिक कहते हैं कि देर-सबेर हम मन के सबसे गहरे भाग में--
एलेक्ट्रोड लगाने में समर्थ हो सकेंगे,
और उन एलेक्ट्रोड के द्वारा ही मनुष्य को नियंत्रित करना सम्भव हो सकेगा।
सरकार किसी भी व्यक्ति को नियंत्रित करने में सफल हो सकेगी,
और तुम जान भी नहीं पाओगे, कि कोई अन्य व्यक्ति
तुम्हें नियंत्रित कर रहा है।
तुम्हें अनुभव होगा कि तुम ही उन कार्यों को कर रहे हो।
केवल एक स्विच दबाना होगा, और तुम्हें तुरंत शांत किया जा सकेगा।
तुम्हें क्रोधित किया जा सकेगा, केवल एक दूसरी मुंडी घुमानी होगी।
डेलगाडो ने एक बहुत प्रसिद्ध प्रयोग किया।
उसने बैल के मस्तिष्क में एक बहुत छोटा-सा एलेक्ट्रोड लगा दिया।
तब उसने उसका सार्वजनिक प्रदर्शन किया।
उसके हाथ में एक छोटा सा यंत्र था, ठीक रिमोट कंट्रोल जैसा,
उसके कई बटनों में से एक बटन उसने दबाया,
और सांड भयानक रूप से अर्राता हुआ उसकी ओर बढ़ा,
और देखने वाले प्रत्येक व्यक्ति की यही दिलचस्पी थी कि सांड कहीं
डेलगाडो को जान से न मार दे?
और ठीक उस समय जब कि सांड, डेलगाडो पर झपटने ही वाला था,
उसने दूसरा बटन दबा दिया।
अचानक सांड एक पत्थर की मूर्ति की भांति, रुककर वहीं जड़ हो गया।
उसके अन्दर का एलेक्ट्रोड बेतार से नियंत्रित हो रहा था।
केवल एक बटन दबाकर सांड को उत्तेजित और क्रोधित बनाया जा सकता
था, और केवल दूसरा बटन दबाकर उसे रोका जा सकता था।
यह एक बहुत-बहुत नई खोज है,
लेकिन समाज इसे प्रागैतिहासिक समय से ही, कुछ भिन्न और सूक्ष्म रूप में
करता आ रहा है।
समाज तुम्हारे मनों में कोई एलेक्ट्रोड नहीं लगाता,
यद्यपि शीघ्र ही वह ऐसा करने भी लगेगा,
क्योंकि यह बहुत सस्ता और आसान होगा,
और तब मनुष्य की स्वतंत्रता की यहां कोई सम्भावना ही नहीं रह जाएगी।
डेलगाडो ने यह बहुत खतरनाक खोजों में से एक खोज की है,
जो एटम बम, हाइड़ोजन बम और आणविक शक्ति से भी अधिक खतरनाक
क्योंकि बम आदि तो तुम्हारे शरीरों को मार सकते हैं,
लेकिन डेलगाडो तुम्हारी आत्मा को ही नहीं, तुम्हारी स्वतंत्रता की सम्भावना
को भी मार सकता है।
और तुम यह जानने में समर्थ भी न हो सकोगे
कि तुम ऐसा किसी अन्य व्यक्ति के निर्देशों के अनुसार कर रहे हो,
तुम सोचोगे कि तुम्हीं ऐसा कर रहे हो।
ठीक ऐसा ही समाज द्वारा भी, बहुत सूक्ष्म और आदिम रूप से किया जा रहा
समाज तुम्हें सिखाता है कि क्या ठीक है और क्या गलत?
बहुत बचपन के शुरू से ही वह तुम्हारे मन को,
क्या ठीक है और क्या गलत, यह मानने को विवश करता है,
और तब निरंतर उसे दोहराते हुए तुम्हें सम्मोहित किया जाता है,
निरंतर दोहराते रहने से वह प्रगाढ़ होता जाता है।
जब भी तुम कुछ ठीक करते हो, तुम्हारी प्रशंसा की जाती है। और जब तुम
कुछ गलत करते हो, तुम्हें बुरा कहते हुए तुम्हारी निंदा की जाती है।
जब तुम, ठीक करते हो, तो एक विधायक प्रोत्साहन मिलता है, तुम्हारी
प्रशंसा करते हुए तुम्हें पुरस्कार दिए जाते हैं।
जब तुम कोई काम गलत करते हो,
नकारात्मक रूप से तुम्हारी टांग घसीटी जाती है,
तुम्हें निंदित करते हुए तुम्हें दण्ड दिया जाता है।

इसी तरह से समाज तुम्हारे अन्दर एलेक्ट्रोड फिट कर देता है,
और तब तुम्हें नियंत्रित करता है।
यदि तुम्हारे समाज ने तुम्हें एक शाकाहारी बनने के लिए अनुशासनबद्ध किया
है, तो तुम मांस नहीं खा सकते।
ऐसा नहीं कि तुम मांस खा नहीं सकते,
लेकिन समाज द्वारा थोपे गए अनुशासन और आदतों का ढांचा,
जो एक एलेक्ट्रोड की भांति मन में पैबस्त कर दिया गया था,
वह तुम्हें नियंत्रित करता है,
और मांस को देखते ही, तुम उल्टियां करना शुरू कर दोगे।
यह ऐसा कुछ भी नहीं है, जो तुम कर रहे हो,
यह तुमसे करवाया जा रहा है--समाज के द्वारा
और प्रत्येक समाज के पास अपनी तरह के अनुशासनों का एक ढांचा होता है,
यही कारण है कि दूसरे समाज में रहना बहुत कठिन है
विदेशी-देश में रहना बहुत कठिन हो जाता है।
तुम्हारी आदतों और अनुशासन का ढांचा भिन्न है।
और उनकी कंडीशनिंग अथवा ढांचा भिन्न है
और सभी नैतिकताएं और नियम और कुछ भी नहीं हैं,
केवल 'कनडीशनिंग' हैं।

इसलिए जब एक व्यक्ति सर्वोच्च सत्य और स्वतंत्रता की ओर बढ़ना शुरू
करता है।
तो सबसे पहले समाज द्वारा थोपी हुई यह कनडीशनिंग गिरती है।
यही लीहत्थू के साथ हुआ।
तीन वर्ष तक सद्‌गुरु के निकट रहते हुए उन्हें देखते-उनके साथ जीते हुए
और उनकी सेवा करते हुए उसने जाना कि सभी ठीक और गलत केवल
समाज की कंडीशनिंग हैं, वह गिर गईं।
तब तुम्हारी अपनी अंतस. चेतना जागृत होती है, तुम्हें भले-बुरे का बोध होता
है। अभी अपने अन्दर जो तुम भले-बुरे का ज्ञान लिए हुए घूम रहे हो,
वह नकली है, उधार का है।
तब तुम्हारे अन्दर अपना विवेक उत्पन्न होता है,
तब तुम्हारे पास अपनी अंतर्दृष्टि होती है, जो ठीक और गलत का निर्णय करसकती है।
जो कुछ हुआ, वह यही था।

पांच वर्ष बाद
मेरा मन फिर से सोचने लगा कि क्या ठीक है और क्या गलत,
और मेरा मुख फिर से कहने लगा कि क्या लाभ है और क्या हानि?
और पहली बार सद्‌गुरु के चेहरे पर संतोष की मुस्कान दिखाई दी।
ऐसा नहीं कि सद्‌गुरु निरंतर उदास रहता था,
इन आठ वर्षों में उसका गम्भीर बने रहना कठिन है।
नहीं, लाओत्से जैसा सद्‌गुरु हमेशा हंसता ही रहता था।
वह गम्भीर व्यक्ति था ही नहीं। गम्भीरता तो एक बीमारी है।
एक बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति हमेशा खेलपूर्ण रहता है,
उसका पूरा जीवन और कुछ भी नहीं केवल एक खेल ही होता है।
फिर वह गम्भीर हो कैसे सकता है?
हुआ क्या?
क्या इन आठ वर्षों में, लाओत्से कभी हंसा या मुस्कराया नहीं?
नहीं, ऐसी बात नहीं है। वह कई बार जरूर हंसा होगा,
वह कई बार जरूर मुस्कराया होगा।
लेकिन लीहच्छू के लिए उसके अन्दर गहरे अस्तित्व में,
उस दिन कुछ घट गया
तब पहली बार सद्‌गुरु के चेहरे पर संतोष भरी मुस्कान दिखाई दी।
एक सद्‌गुरु को निरंतर शिष्य का पीछा करना होता है,
उसे बहुत कठोर होना होता है,
करुणावश ही उसे निरंतर कार्य करना होता है,
लेकिन बाहर के चेहरे के बारे में नहीं, उसके अन्दर के चेहरे के बारे में।
इन आठ वर्षों तक लाओत्से, लीहत्थू के आंतरिक अस्तित्व का अनुसरण,
उसके आत्म अनुशासन को जगाने के लिए बहुत कठोरता से, सख्त चेहरे के
साथ जरूर करता रहा होगा।
तब यह देखकर कि लीहच्छू के अन्दर स्वयं भले-बुरे का ज्ञान उत्पन्न हो
गया, वह पहली बार जरूर मुस्कराया होगा।
वह मुस्कान बाहरी चेहरे की नहीं उसका सम्बन्ध उसके अन्दर के साथ था।
तब पहली बार लीहच्छू ने अनुभव किया होगा
कि सद्‌गुरु की मुस्कान उस पर फुहारों की तरह बरस रही है।
वह अनुभव कर सका होगा कि अब सद्‌गुरु उसके बारे में निश्चित और
विश्राममय हो सकते हैं।
अब उन्हें और कठोर न होना होगा, उनका कार्य अब इतना कठिन नहीं रह
गया है।
तभी वह मुस्कराए हैं।
एक बार तुम्हारे अन्दर स्वयं भले-बुरे का ज्ञान उत्पन्न हो जाए
फिर सद्‌गुरु के लिए तुम्हारे प्रति उतना कठोर होने की आवश्यकता नहीं रह
जाती।
उसे कठोर इसलिए होना होता है, क्योंकि तुम्हारे पास
भले-बुरे का ज्ञान नकली है।
उसका पहला काम यही है कि वह उस उधार ज्ञान को नष्ट करे।
क्योंकि तुम्हारे अन्दर उत्पन्न भले-बुरे के ज्ञान को अभी उसे एकीकृत करना
है, उसे कठोर होना ही होता है।
जब वह बोध तुम्हारे अन्दर एकीकृत हो जाता है,
और तुम स्वयं अपने अस्तित्व के केंद्र पर पहुंच जाते हो,
सद्‌गुरु तभी विश्राम लेकर मुस्करा सकता है।
अब आधा काम पूरा हुआ। अब सद्‌गुरु की ओर से तुम्हारे लिए वहां किसी
बाह्य अनुशासन की कोई आवश्यकता नहीं है।
तुम्हारे पास अब स्वयं ही भले-बुरे का अपना बोध है,
अब तुम्हारे पास अपने अन्दर स्वयं का प्रकाश है,
जो तुम्हें स्पष्ट करेगा कि क्या गलत है और क्या ठीक है?
अब तुम अपने आप आगे बढ़ सकते हो।
सद्‌गुरु के मुस्काने का यही अर्थ है--उसे अनुभव किया जाता है।
जब वास्तव में तुम स्वयं भले-बुरे का ज्ञान अर्जित करते हो,
तो तुम सद्‌गुरु की मुस्कानों को अपने अन्दर फुहारों के रूप में बरसने का
अनुभव करोगे।
वे तुम्हारे अस्तित्व के हर कोने में तुम्हें चारों ओर से घेर लेगी।
यही कारण है कि सद्‌गुरु, तुम्हारे अन्दर अंतर्बोध के जन्म होने का उत्सव
मनाता है।
सात वर्षों बाद, मेरे मन में ठीक और गलत, अच्छे या बुरे के बीच बिना कोई
भी भेद किए जो कुछ भी आता था, मैं वही सोचता था, लाभ और हानि के
बीच बिना कोई अंतर किए हुए जो कुछ मेरे मुंह में आता था, मैं वही कहता
था।
और तब पहली बार सद्‌गुरु ने खींचकर अपने साथ मुझे अपनी ही चटाई पर
बिठाया।
यह पूर्ण विश्राम की स्थिति है।
भले-बुरे का आंतरिक बोध होना भी आवश्यक है,
क्योंकि तुम अभी भी पूरी तरह से विकसित नहीं हो।
बाहर से भले-बुरे के ज्ञान की तभी जरूरत होती है,
क्योंकि अभी तुम्हारे पास वह आंतरिक बोध नहीं है।
अंतस. चेतना इसलिए जरूरी है
क्योंकि तुम अभी भी पूरी तरह से विकसित नहीं हुए हो।
लेकिन जब पूरी तरह विकसित हो जाते हो तुम,
जिसके बारे में तिलोपा कहता है--सहज और स्वाभाविक।
तब तुम्हारे द्वारा कोई भी नुकसान अथवा किसी की कोई हानि नहीं हो
सकती।
तुम सामान्यतया फिर और बचते ही नहीं,
तुम कोई हानि कर ही नहीं सकते।
इसलिए फिर भले-बुरे के आंतरिक बोध की भी जरूरत नहीं रह जाती
और वह भी विसर्जित हो जाता है।
अब तुम एक छोटे बच्चे की भांति निर्दोष हो जाते हो,
पूर्णत: शुद्ध और पवित्र।
तुम उन्हीं घटनाओं के बाबत कहते हो, जो तुम्हारे साथ होती हैं
जो चीजें तुम्हें घटती हैं, तुम उन्हीं के बारे में सोचते हो।
तुम्हारे मन में विचार बादलों से तैरते रहते हैं,
लेकिन तुम्हारी उनमें जरा भी दिलचस्पी नहीं होती।
तुम मुंह से वे बातें भी कह देते हो, जिनसे तुम्हारा
कोई मतलब या लेना-देना नहीं होता है।
यह स्थिति एक छोटे बच्चे के समान अथवा एक पागल जैसी है, पूरी तरह से
विश्रामपूर्ण।
जैसे मानो वहां तुम्हें नियंत्रित करने वाला कोई है ही नहीं।
और जब नियंत्रण पूरी तरह समाप्त हो जाता है, तो अहंकार मिट जाता है--
क्योंकि अहंकार और कुछ भी न होकर नियंत्रक होता है। जब कोई नियंत्रण
ही नहीं है कि तुम हो कौन?
तो तुम ठीक उस नदी की भांति हो जो सागर की ओर बही चली जा रही है,
अथवा तुम आकाश में उड़ते हुए बादल की भांति हो।
फिर तुम और वहां रहते ही नहीं, तुम्हारे मनुष्य होने का रूप, नाम, अहंकार
सभी कुछ विसर्जित हो जाता है।
अब तुम सहज और सरल हो जाते हो।

सात वर्षों के बाद, जो कुछ मेरे मन में आता था, मैं वही सोचता था।
तुम कोई काम कर ही नहीं सकते, क्योंकि वहां करने वाला कोई है ही नहीं।
यदि विचार आते हैं, तो वे आते हैं,
यदि वे नहीं आते हैं, तो ठीक, यदि वे आते हैं, तब भी ठीक।
मुंह से कोई बात निकलती है, तो वहां नियंत्रण करने वाला कोई है ही नहीं,
इसीलिए वह कुछ कहता है।
कभी वह कुछ भी नहीं कहता, बोलता ही नहीं।
कभी-कभी कोई अन्य व्यक्ति कुछ पूछता है और कोई भी उत्तर नहीं पाता,
ऐसा व्यक्ति मौन ही रहेगा।
कभी-कभी वहां पूछने को कोई भी व्यक्ति होता भी नहीं,
और यह शख्स हंसता है और उत्तर देता है, क्योंकि वह आ रहा है।
यह व्यक्ति एक पायल की तरह व्यवहार करता है।

भारत में एक सम्प्रदाय है, एक विशिष्ट सम्प्रदाय, जिसे बाउल कहते हैं?
बाउल शब्द का अर्थ ही है--पागल।
वे लोग निरंतर इसी तीसरी स्थिति में रहते हैं।
जो कुछ अपने आप होता है, वे वही करते हैं : न अच्छा, न बुरा,
उनका अपना कोई चुनाव होता ही नहीं।
वे हवा की भांति डोलते हुए चलते हैं।
और वे लोग विश्व के सुन्दरतम और उल्लेखनीय मनुष्यों में अनूठे हैं।
वे नाचते हैं और गाते हैं, और कभी-कभी जब वहां कोई भी नहीं होता-- तोn
सुनसान रास्ते पर, वे अब भी गीत गा रहे होते हैं,
ठीक एक पुष्प की भांति, जो सुनसान रास्ते में खिलने के लिए ही आया है,
जहां कोई व्यक्ति कभी आता-जाता ही नहीं।
लेकिन फूल के पास सुगंध तो बिखराने के लिए ही होती है,
और वह अपनी सुवास चारों और फैलाता चला जाता है।
वे लोग सामान्यतया सहज और सरल होते हैं।

और पहली बार--
सद्‌गुरु ने मुझे खींच कर अपने साथ अपनी ही चटाई पर बिठाया।
अब शिष्य विसर्जित हो गया, मिट गया, क्योंकि अब अहंकार न रहा।
अब गुरु और शिष्य दोनों एक हो गए।
अब कोई भेद रहा ही नहीं। सद्‌गुरु ने पहली बार लौह; को खींचकर अपने
साथ उसी चटाई पर बिठाया, जिस पर वह बैठा था।
यह केवल प्रतीकात्मक है। लेकिन अन्दर गहरे में--यह बहुत-बहुत महत्वपूर्ण
है।
अब सद्‌गुरु ने उसे अपनी ओर खींचा,
यह देखते हुए कि अब वहां न कोई अहंकार रहा और न कोई बाधा रही।
जब शिष्य मिट जाता है, तो सद्‌गुरु भी विलुप्त हो जाता है,
वास्तव में सद्‌गुरु तो वहां पहले शुरू से ही था ही नहीं।
शिष्य के अहंकार के कारण ही वह वहां उसे दिखाई देता था,
कि वह उसका सद्‌गुरु है।
वह केवल इसी कारण सद्‌गुरु था, क्योंकि शिष्य अज्ञानी था।
अब वहां न कोई शिष्य रहा, और न कोई सद्‌गुरु।
दोनों ही मिट गए।
सद्‌गुरु ने उसे अपनी चटाई पर ही खींच लिया,
अन्दर ही अन्दर सूक्ष्म रूप में सद्‌गुरु ने उसे अपनी ओर खींचा, और वे एक
हो गए।
यह है--महामुद्रा।
यह है--सर्वोच्च शिखर का परमानंद,
जो एक सद्‌गुरु और शिष्य के मध्य जब वे मिलते हैं, तब घटता है।
संभोग के सर्वोच्च शिखर के अनुभव द्वारा,

तुम्हें इसकी बहुत धुंधली, पीली-पीली सी टिमटिमाती हुई झलक मिल
सकती है।
लेकिन किसी अन्य चीज का इसके समानांतर होना कठिन है।
इसी वजह से मैं कह रहा हूं--संभोग के सर्वोच्च परमानंद के द्वारा भी कुछ--
कुछ ऐसा ही अनुभव होता है।
यह कुछ ऐसा है, जैसे एक बूंद की तुलना सागर से की जाए--ठीक उसी
तरह।
संभोग के सर्वोच्च शिखर का अनुभव एक बूंद की भांति है,
और जब एक आध्यात्मिक सर्वोच्च शिखर-अनुभव,
एक सद्‌गुरु और शिष्य के मध्य घटता है
वह अनुभव सागर जैसा असीम और विशाल होता है।

नौ वर्षों बाद
मेरे मन में जो कुछ भी आता था, बिना किसी नियंत्रण के
मैं वैसा ही सोचता रहता था।
बिना यह जाने हुए कि क्या ठीक है और क्या गलत?
वह लाभप्रद है अथवा हानिकारक, और वह विचार मेरा अपना है-- अथवा
किसी अन्य का?
जो कुछ मेरे मुंह में आता था, मैं कह देता था,
और बिना यह जाने हुए कि सद्‌गुरु मेरा शिक्षक था भी अथवा नहीं।
मेरे लिए हर चीज एक जैसी थी।
पहले तो अच्छे और बुरे का भेद मिटा,
तब लाभ और हानि का भी भाव मिटा,
और फिर यह विचार-कौन व्यक्ति कौन है?
'तेरा' और ' मेरा  'मैं' और' तू  यह भी विसर्जित हो गए।

मार्टिन बूबर ने एक सुन्दर पुस्तक लिखी है-- मैं और तू
यहूदी-रहस्यवाद भी इसी बिंदु तक आता है
तब वह वहीं तक आकर रुक जाता है।
उच्चतम धरातलों और बिंदुओं में, यह स्थिति ऐसी है
जहां शिष्य और सद्‌गुरु, खोजी और अखण्ड होते हैं।
'वे 'मैं' और 'तू' के मध्य प्रत्यक्ष संवाद के द्वारा ही, इस बिंदु तक आते हैं,
लेकिन वे वहां मौजूद रहते हैं।
पूरब का रहस्यवाद अंतिम छलांग भी लगाता है-- मैं और तू भी मिट जाता
है।
संवाद भी मिट जाता है। वहां रह जाता है केवल मौन।
हर चीज एक जैसी ही थी।
अब लीहत्थू इससे भी बेखबर हो गया था कि लाओंत्थू--उसका सद्‌गुरु है
अथवा नहीं?
वह इससे भी बेखबर हो गया था कि वह एक शिष्य भी है अथवा नहीं।
ऐसे क्षणों में, जेन इतिहास में बहुत सी अविश्वसनीय घटनाएं घटी हैं।
सदगुरु कई वर्षों में कई बार शिष्य पर चोट करता है
कभी वह उसे ठोकर मारकर दरवाजे के बाहर फेंक देता है।
जेन सद्‌गुरु बहुत कठोर होते हैं,
और तभी शिष्य बुद्धत्व को उपलब्ध होता है।
सद्‌गुरु के साथ रहते हुए बीस अथवा तीस वर्षों के कठोर श्रम और अनुशासन
के बाद। और ऐसा भी होता है-- कि एक दिन शिष्य आता है और सद्‌गुरु
को तमाचा मार देता है।
ऐसा कहीं भी इससे पूर्व कभी हुआ ही नहीं,
और आश्चर्य की बात यह, कि सद्‌गुरु हंसता है, पेट फाड़ देने-वाले ठहाकों
के साथ वह कहता है--
''बिस्कूल ठीक। तुमने बहुत अच्छा काम किया।''

एक बार ऐसा हुआ कि एक शिष्य एक यात्रा पर जा रहा था,
तभी सद्‌गुरु ने उसे बुलाकर, उसके सिर पर डंडे से तगड़ा प्रहार किया
और उसे तमाचा भी मारा।
शिष्य ने कहा: यह तो बहुत अधिक है। मैंने कोई भी ऐसा काम किया ही
नहीं।
मैंने एक शब्द तक का भी उच्चारण नहीं किया।
मैंने आपके कमरे में प्रवेश किया और आपने मुझे मारना शुरू कर दिया।
क्या यह बहुत अधिक नहीं है?
सद्‌गुरु ने कहा:
तू सफर पर जा रहा है, और मैं देख सकता हूं
कि जिस क्षण तू वापस लौटेगा, तू बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाएगा,
और यह अंतिम अवसर है मेरे लिए कि मैं तुझ पर चोट कर सकूं।

लीहत्थू ने यिन शेंग से कहा--
अब तुम मेरे शिष्य बनने यहां आए हो,
और एक साल बीतने के पहले ही
तुम हर वक्त असंतुष्ट और नाराज रहते हो।
लीहज्यू को उस बिंदु तक आने में सात वर्ष लगे थे
जब सद्‌गुरु ने उसे खींचकर अपनी चटाई पर बिठाया था,
और अपने अस्तित्व के सबसे अधिक गुह्यतम रहस्यों को प्रकट कर,
अपना हृदय खोल दिया था।
और यह शिष्य जो केवल एक वर्ष से यहां है,
वह आक्रामक और कुपित होकर इसलिए बुरा मान रहा है
क्योंकि लीहत्थू उसके प्रश्नों के उत्तर नहीं देता,
और उसे वे गुहा रहस्य नहीं देता, जिनकी लालसा से वह यहां आया है।
इस शाश्वतता के अनंत विस्तार में एक वर्ष होता ही क्या है?
कुछ भी तो नहीं। लेकिन तुम्हारी शीघ्रता, उस समय को--बहुत बहुत लम्बा
बना देती है।
लीहत्थू को गुजरे हुए पच्चीस शताब्दियां बीत गईं।
यदि वह आज वापस लौट कर आए तो वह यह विश्वास
करने में समर्थ ही न हो सकेगा
कि अब मनुष्यों के लिए एक वर्ष प्रतीक्षा करना भी
लगभग असम्भव हो गया है।
मैं ऐसे लोगों से मिला हूं जो कहते हैं:
हम यहां केवल तीन दिनों के लिए आए हैं।
मैं ऐसे लोगों को भी जानता हूं जिन्होंने केवल एक बार ही ध्यान किया है,
और वे मेरे पास आकर कहते हैं--
अभी तक कुछ भी नहीं हुआ।

मनुष्य अधिक से अधिक मूर्ख और असभ्य बन गया है।
तुम छोटी-छोटी चीजें तो आसानी से प्राप्त कर सकते हो,
वेमौसमी फूलों की तरह हैं: तुम जमीन में बीज रखो
और तीन हफ्तों में वे अंकुरित हो उठेंगे।
लेकिन मौसम समाप्त होने पर, वे भी मिट जाएंगे।
वे क्षणभंगुर हैं, थोड़े से ही समय तक हैं।
तुम इसी क्षण तुरंत तैयार कॉफी ले सकते हो,
लेकिन इसी क्षण तुम ध्यान को नहीं पा सकते।
विशेष रूप से पश्चिमी मन के लिए समय बहुत महत्वपूर्ण है,
बहुत भारी है उनके लिए प्रतीक्षा करना।
पश्चिम के मन में समय का बहुत मूल्य है।
पूरब की इन बोध कथाओं को सुनते हुए तुम उनका मजा ले सकते हो,
लेकिन तुम्हें अपने मन में घूमने वाले समय के बारे में भी सजग होना
चाहिए।
पश्चिम में प्रत्येक कार्य इतनी अधिक शीघ्रता में किया जाता है,
कि तुम किसी भी चीज का आनंद नहीं ले सकते।
तुम एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हो, हमेशा जाते ही रहते हो,
तेज से तेज गति के वाहनों से यात्रा करते हो।
तुम जितना अधिक तेज चलते हो,
उतना ही कम महत्व तुम अपनी यात्रा करने को देते हो,
क्योंकि तुम एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर जाते हो
और इसके मध्य में जो बहुत कुछ है, तुम उसे खो देते हो।
एक बैलगाड़ी से यात्रा करने का अपना सौंदर्य और आनंद अनूठा है।
जेट प्लेन से यात्रा करना बेवकूफी है,
क्योंकि वह यात्रा है ही नहीं। वह एक व्यापारिक भागदौड़ हो सकती है।
व्यापार के लिए वह ठीक है, तुम्हारा समय बचता है।
लेकिन यात्रा करने के लिए तुम्हें बहुत धीमे- धीमे गतिशील होना चाहिए।
पैदल घूमने जैसा और कुछ है ही नहीं,
तब तुम उसके प्रत्येक क्षण का आनंद लेते हो--
तुम हर गुजरते हुए वृक्ष को देखते हो,
तुम लाखों चीजों के साथ एक हो जाते हो
और इस अनुभव के द्वारा तुम समृद्ध होते हो।
क्योंकि मनों पर समय हावी है, इसलिए गति ही केवल लक्ष्य बन गई है।
तुम यह भी नहीं जानते, कि तुम कहां जा रहे हो?
लेकिन तुम खुश हो, क्योंकि तुम तेज जा रहे हो।
तुमने दिशा खो दी है, लेकिन गति तुम्हारे हाथ में है।
यह मन सर्वोच्च सत्य को खोजने में समर्थ न हो सकेगा।
यह चीज किसी मौसमी फूल की भांति नहीं है:
यह तो सर्वोच्च और अंतिम है, यह तो एक अक्षय वट की भांति है।
इसके लिए भूमि तैयार करनी है, इसके लिए जड़ों को तुम्हारे अन्दर ले जाकर
जमाना है,
इसके लिए अनंत धैर्य और प्रतीक्षा करने की आवश्यकता है।
यदि तुम केवल प्रतीक्षा और प्रतीक्षा कर सकते हो
तो शेष सभी के लिए मैं तुमसे वायदा कर सकता हूं
कि वह तुम्हारे पास आएगा।
तुम मेरे साथ केवल शुद्धतम रूप से प्रतीक्षा करो,
और प्रत्येक चीज उसका अनुसरण करेगी।
लेकिन शीघ्रता मत करो
और न रहस्यों को देने की याचना करो--
जब तुम तैयार होगे, वे तुम्हें दे दिए जाएंगे।
वास्तव में यह कहना भी कि वे तुम्हें दे दिए जाएंगे, ठीक नहीं है,
जब तुम तैयार हो जाओगे,
अकस्मात् तुम पाओगे, कि वे हमेशा से तुम्हारे ही साथ थे।
जब तुम तैयार होते हो, तुम अकस्मात् उन्हें पा लेते हो।
और जो कुछ तुम प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हो,
वह पहले ही से तुम्हारे पास है।
तुम हमेशा उसे अपने साथ ही रखते थे,
वह स्थिति पहले ही से थी।
सद्‌गुरु तो केवल एक कैटेलेटिक एजेन्ट है,
जो स्वयं कुछ नहीं करता, पर उसकी उपस्थिति आवश्यक है।
वह शांत, मौन, कुछ भी न करते हुए भी
खामोश बैठा रहता है।
हरियाली का मौसम आता है
तो घास स्वयं उग आती है।

आज इतना ही 

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