तंत्र-आर्ट: इट्स फिलॉसफी एंड फिजिक्स (अजित मुखर्जी)
Tantra Art: Its Philosophy & Physics -Ajit Mukerji
Tantra Art: Its Philosophy & Physics -Ajit Mukerji
एक अत्यंत दर्शनीय किताब की झलक हम प्रस्तुत करने जा रहे है। तंत्र कला: दर्शन और भौतिक तंत्र का दर्शन तो समझ में आता है लेकिन भौतिकी.....? इस के लेखक अजित मुखर्जी ने आधुनिक फ़िज़िक्स के ज़रिये तंत्र के प्रतीकों की व्याख्या कर तंत्र को एकदम बीसवीं सदी में ला खड़ा कर दिया है। तंत्र उसकी दुरूह संज्ञाओं और रेखा-कृतियों के कारण मनुष्य चेतना की मूल धारा से हटकर एकांत कोठरी में बंदी हो गया था। उसे भौतिकी के वैज्ञानिक नियमों की रोशनी में लाकर उन्होंने दिखा दिया है कि तंत्र जितना पुराना है उतना नया। या कहें, न नया, न पुराना; वह नित्य नूतन है।
155 पन्नों की इस लावण्यमयी किताब में कुल 55 पन्ने शब्दों के लिए है। बाकी सारे पन्ने चित्रों के लिए आरक्षित है। ये चित्र तांत्रिकों की पूजा स्थानों से, मठों और संग्रहालयों से उठाये गये है। इनका सृजन काल है दसवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी तक। इसके लेखक अजित मुखर्जी परंपरागत कला और कारीगरी के काविद है। कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्राचीन भारत के इतिहास और संस्कृति में एम. ए. की उपाधि लेने के बाद वे लंदन गये और वहां उन्होंने ‘’हिस्ट्री आफ आर्ट’’ विषय में पुन: एम. ए. किया। 1945 से लेकर आज तक वे भारत, योरोप और अमेरिका में भ्रमण कर अपनी किताबों की सामग्री जुटाते रहे।
तंत्र की रहस्यमयता किताब के प्रारंभ से ही प्रतीक होती है। पहले पृष्ठ पर लिख है: In Search of divine Life, ‘’दिव्य जीवन की खोज’’ दूसरे पृष्ठ पर किताब समर्पित की गई है( To her) स्त्री तत्व को। क्योंकि उसके बिना तंत्र अधूरा है।
यह आलेख मूलत: तांत्रिक कला के संबंध में है, अंत: उसमें तांत्रिक उपासना या ध्यान की विधियों का कोई खास विवेचन नहीं है। तांत्रिक उपासना के अंग है: यंत्र, मंत्र और चित्र। इन तीनों अंगों का भौतिकी के नियमों के अनुसार वैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है जो बहुत रोचक और क्रांतिकारी है। उन नियमों को पढ़कर तंत्र की और देखने की दृष्टि आमूल रूपांतरित हो जाती है।
तांत्रिक कला कोई बौद्धिक सृजन नहीं है; वह एक योग साधना है। इसलिए तंत्र के प्रतीकों के चित्र बनाने से पहले तांत्रिकों को बाकायदा ध्यान योग करना पड़ता है। ऐसे तांत्रिक शिल्पी योगी कहलाते है। स्वयं को शुद्ध और निर्मल बनाकर वे आराध्य देवता या प्रतीक का प्रतिबिंब बनाने में उद्युत होते है। इसलिए तांत्रिक चित्रों पर ध्यान करके विशिष्ट सिद्धियां प्राप्त की जा सकती है।
मंत्र का विवेचन करते हुए अजित मुखर्जी कहते है कि सारे मंत्र सारे संस्कृत के अक्षरों से बने है। और प्रत्येक अक्षर मूलत: ध्वनि है, और प्रत्येक ध्वनि एक तरंग है। भौतिक मानती है कि आस्तित्व तरंगों से बना हुआ है। ध्वनि दो प्रकार की होती है। आहत और अनाहत। मन से जैसे ही विचार उठा, कल्पना उभरी, वैसे ही ध्वनि पैदा होती है: लेकिन यह ध्वनि सुनाई नहीं देती।
दूसरी ध्वनि है जो दो वस्तुओं के आघात से उत्पन्न होती है। यह ध्वनि आहत है, श्रवणीय है। सूक्ष्म तल पर ध्वनि आहत है, श्रवणीय है। सूक्ष्म तल पर ध्वनि प्रकाश बन जाती है। इसलिए उसे पश्यन्ती कहते है।
तंत्र कहता है, प्रत्येक वस्तु गहरे में ध्वनि तरंग है। इस लिए पूरी साकार सृष्टि ध्वनियों के विभिन्न मिश्रणों का परिणाम है। ध्वनि के इस सिद्धांत से ही मंत्र शास्त्र पैदा हुआ है। मंत्र की शक्ति उसके शब्दों के अर्थ में नहीं है। उसकी तरंगों की सघनता में है। ध्वनि सूक्ष्म तल पन प्रकाशबन जाती है। और उसके रंग भी होते है। जो सामान्य चक्षु को नहीं दिखाई देते।
तांत्रिक यंत्र ऊपर से देखने पर ज्यामिति की भिन्न-भिन्न आकृतियां दिखाई देती है। लेकिन यंत्र का रहस्य समझने के लिए ज्यामिति की रेखाओं के पार जाना पड़ेगा। यंत्र एक शक्ति का रेखांकन है। वह विशिष्ट वैशिवक शक्ति का एक प्रकटीकरण है।
यंत्र की रेखाएं, कोण, बिंदु और इनका आपसी संबंध, इनका राग-रागिनियों से गहरा रिश्ता है। जैसे हर राम के सुनिश्चित सुर होते है, उनका परस्पर मेल होता है वैसे यंत्र की रेखाओं का आपसी स्वमेल होता है।
तंत्र और सारे आध्यात्मिक शास्त्र आस्तित्व के मूल में निहित एक अद्वैत तत्व की बात करते है। आधुनिक विज्ञान भी पदार्थों के केंद्र में बसी हुए एक ऊर्जा की बात करता है। विज्ञान की इस एकात्मता ने पदार्थ को अपार्थिव बना दिया है। वर्तमान कला भी इसी तत्व को अभिव्यक्त करती है। उसकी शैलियाँ भिन्न-भिन्न हो सकती है। लेकिन कोई भी महान रचना उसके रचेता से बड़ी हो जाती है। वह रचना सबकी होती है। और किसी की भी नहीं होती।
शिल्पी योगी का ध्यान आकार पर नहीं होता, उस निराकार शक्ति पर होता है जो आकार को जन्म देती है। वह उस संवेदना को प्रकट करता है जो विश्व में सर्वत्र मौजूद होता है। अपनी अंत: दृष्टि से वह उसे अनुभव करता है और अभिव्यक्त करता है। इस तरह की कला की जड़ें आध्यात्मिक मूल्यों में गहरी होती है। कलाकार खोज की अनंत यात्रा पर चलता है—स्वयं की नहीं, अस्तित्व के मूल स्त्रोत की खोज। और यह स्त्रोत उसे स्वयं के भीतर ही मिलता है।
तंत्र में विज्ञान, कला और धर्म का समन्वय है। उसके आधार दर्शन और भौतिकी में है। तंत्र मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। देखने का साधना है आँख, लेकिन तीन आयामों के अलावा आँख कुछ भी नहीं देख पाती है। और त्रिमिति को भी यह आंशिक रूप से देखती है। उसका एक हिस्सा हमेशा आँख से ओझल ही रहता है। यदि हम चार आयाम को देख सकें तो विश्व अलग ही नजर आयेगा। फिर पत्थर के सीने में थिरकते हुए अणुओं को हम देख सकेंगे, सुन सकेंगे। तंत्र संपूर्ण दृष्टि की और ले जाता है। इसलिए आश्चर्य नहीं कि तांत्रिक कलाकार अंतत: संत बन जाते है।
तंत्र की इस अभिनव और मौलिक व्याख्या के बाद तंत्र के एक से बढ़कर एक चित्र तथा यंत्र प्रस्तुत किये गये है। विदेशी आर्ट पेपर पर इन चित्रों की खूबसूरती चकाचौंध कर देती है। प्रत्येक चित्र के साथ उसका इतिहास और चित्र की व्याख्या भी है। इन चित्रों को प्रथम परिचय पढने के बाद उसकी और देखने का दृष्टि कोण बदल जाता है। निगाहें बरबस रेखाओं और बिंदुओं के पार कुछ खोजने का प्रयास करती है। चित्रों की गहराई बढ़ाने के लिए प्रत्येक परिच्छेद के पूर्व उपनिषदों के सार गर्भित वचन है। जैसे आठवें परिच्छेद से पहले चार वाक्य है:
मैं कौन हूं?
मैं कहां से आया हूं?
मैं कहां जा रहा हूं?
तंत्र कहता है: ये सब मैं हूं।
तंत्र कला की साज सज्जा अद्वितीय है। अत्यंत सुरुचिपूर्ण है। कलाकार है, पेरिस के रवि कुमार। पुस्तक के सह प्रकाशक भी वहीं है। खुशी की बात है कि दिल्ली के रूपा प्रकाशन ने यह किताब छाप कर भारत प्रेमियों के लिए उपलब्ध की है। तंत्र के रहस्य में जिन्हें डुबकी लगानी हो उसके लिए पता है।
रूपा एंड कंपनी
7116-अन्सारी रोड, दरियागंज,
नई दिल्ली
किताब की झलक:
''साsहम’’ या ‘’सोsहम’’ एक ही है। क्योंकि मुझमें और तुम में कोई फर्क नहीं है। तंत्र ने इस तरह का विचार और विधि विकसित की है जिससे हम ब्रह्मांड को इस भांति देख सकेत है मानो वह हमारे भीतर है और हम ब्रह्मांड के भीतर है। हमारी कल्पना जिस आकार को निर्मित करती है वह हमारे निराकार तत्व को अभिव्यक्त करती है।
तंत्र जीवन का अनुभव है और वैज्ञानिक प्रणाली भी, जिससे मनुष्य अपने भी निहित आध्यात्मिक शक्ति को प्रकट कर सके। इस दृष्टि से तांत्रिक क्रिया कांड अनेक दर्शनों के आधार स्तंभ हे जैसे शिव, शक्ति, जैन, बौद्ध या वैष्णव। उदाहरण के लिए, जैनों ने बहुत श्रेष्ठ कोटि का आणविक सिद्धांत, समय और स्थान का संबंध, खगोल विज्ञान के निरीक्षण और ब्रह्मांड के गणित जन्य धारण को विकसित किया है। वस्तुत: तंत्र का साधना पथ वैदिक समय से प्रचलित रहा है।
तंत्र संस्कृत धातु ‘’तन’’ से बना है जिसका अर्थ है विस्तार करना। अंत: तंत्र ज्ञान के विस्तार की और इंगित करता है। मनुष्य के शरीर में जो चक्र है उनकी खोज के लिए मानवीय अनुभव को तंत्र का अनुगृहीत होना पड़ेगा। तंत्र कहता है, प्रत्येक व्यक्ति उस ऊर्जा का प्रकट रूप है। और हमारे आसपास जो वस्तुएं है वह उसी चेतना का परिणाम है जो भिन्न-भिन्न रूपों में अपने आपको प्रकट करती रहती है।
मनुष्य सब वस्तुओं का मापदंड नहीं हो सकता। सभी व्यक्ति वस्तुओं के जीवन से वह आंतरिक रूप से बंधा है और जब भी वह किसी वस्तु के अंतर्निहित सार तत्व को खोजता है तब वह ब्रह्मांड के जीवन व्यापी सत्य को ही खोज रहा है। चेतना के इस तल पर विश्व को जो रूप गोचर हाता है उसे तंत्र शास्त्र सूक्ष्म जगत कहते है।
इस तरह आंतरिक ध्यान से मनुष्य स्वयं के संबंध और विश्व के संबंध में अपनी दृष्टि को बदल सकता है। इस बोध का अर्थ क्या है? उसे हम तब तक नहीं समझ सकते जब तक उसे प्रत्यक्ष बनाने का रास्ता नहीं खोज लेते। यह रास्ता तंत्र योग है। श्रेष्ठतर मानसिक एकाग्रता के लिए योग आवश्यक है। योग के द्वारा ही अवचेतन में प्रस्तुत तत्वों के विकसित किया जा सकता है। आध्यात्मिक अवस्था में जो देखा गया है उसे योग वास्तविक जीवन में उतारता है। हम उसे जीकर सीखते है। यह निर्णायक अनुभव हमारे आध्यात्मिक इतिहास का महत्वपूर्ण क्षण है।
जिन्हें हम ‘’रहस्य’’ कहकर अलग कर देते थे उन पर उच्चतर भौतिकी की नई खोजों ने नई रोशनी डाली है। इसके लिए तांत्रिक का वैज्ञानिक विश्लेषण होना जरूरी है। इतना ही नहीं, अमूर्त कला में जहां हम अभी भी समय और कला के बारे में सोचते है, तंत्र उससे आगे जाकर प्रकाश और ध्वनि की कल्पनाओं को ले आया है। ऐसा उदाहरण और कहीं भी नहीं है। आध्यात्मिक प्रक्रिया के दौरान मानव और विश्व के रिश्ते के प्रतीक एक नई चिह्न भाषा का अविष्कार और उपयोग किया गया है। इस प्रकार कला में योग पद्धति की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। तांत्रिक कला को योग का सारभूत रूप कहा जा सकता है। ब्रह्मांड के रहस्य को, उसके बेबूझ सन्नाटे को भेदने के लिए शिल्पी-योगियों ने यौगिक प्रक्रिया का इस्तेमाल किया है। तांत्रिक प्रतीक और आकृतियों के मूल-स्त्रोत के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। लेकिन यह बात स्पष्ट है कि यह शिल्पी योगी के आंतरिक आध्यात्मिक विकास से संबंधित होती है।
तांत्रिक योगी स्वयं को चारों और परि वेष्टित रहस्य का अंश बनाते है। तांत्रिक कलाकार के लिए आंतरिक और बह्म साधनाएं करना आवश्यक है क्योंकि वे उससे सत्य उद् धटित करते है जो संसार की शक्तियों को नये सिरे से समझने में उसकी मदद करे। आधुनिक कलाकार इन्ही को व्याख्यायित करने का प्रयत्न कर रह है।
श्री अरविंद कहते है, ‘’सत्य का दर्शन इस पर निर्भर नहीं करता कि तुम्हारी बुद्धि बड़ी है या छोटी। वह निर्भर करता है कि तुम्हारे पास सत्य का संस्पर्श करने की क्षमता और उसे ग्रहण करने के लिए शांत, स्तब्ध मन है कि नहीं।‘’
सत्य केवल तीव्रता में अनुभूत किया जा सकता है। तांत्रिक कलाकार अपनी दृष्टि को एकाग्र करने की साधना में संलग्न होते है। भारत में ये साधनाएं योग की शाखा में अंतर्भूत थी, और इसके अंतर्गत कलाकार योगिक अनुशासन और क्रिया कांड करते थे। ताकि उसके सृजनात्मक स्त्रोत कार्यरत हों।
एक बौद्ध विधि का उदाहरण लें: साधना या मांत्रिक या योगी शुद्धीकरण की विधि करने के पश्चात एकांत स्थान में जाए। वहां उसे सप्त भंगी प्रक्रिया से गुजरना होगा। पहले कई बुद्धों और बोधिसत्वों का आवाहन करना होगा। उन्हें वास्तविक या काल्पनिक पुष्प अर्पित करने होंगे। फिर वह मैत्री, करूणा, सहानुभूति, और निष्पक्षता इन चार भंगिमाओं को अपने विचारों में आश्रय दे। उसके बाद वह समस्त वस्तुओं के न होने पर अर्थात शून्यता पर ध्यान करे। क्योंकि शून्यता की धारण से जो अग्नि पैदा होती हे उससे अहंकार जल जाता है।
उसके बाद ही वह समुचित बीज मंत्र का जाप कर वांछित देवता का आवाहन करे। स्वयं को उस देवता के साथ पूरी तरह से तादात्म्य करे। उसके उपरांत वह ध्यान मंत्र का जाप करता है और उसके मनस पटल पर प्रतिबिंब की तरह या स्वप्न की तरह वह देवता प्रकट होता है। और वह दैदीप्यमान प्रतिमा कलाकार का मॉडल या विषय होती है।
हो सकता है यह विधि कुछ ज्यादा ही विस्तार से कही गई हो, लेकिन मूलत: वह कल्पना के मनोविज्ञान की सही समझ दर्शाती है। इन विशिष्ट विधियों से, सतत विचार करनेवाले मस्तिष्क को किनारे किया जाता है। कला के विषय से तादात्म्य किया जाता है ओर अंतिम प्रतिमा की स्पष्टता होती है।
कला एक व्यवसाय नहीं है, वरन सत्य का, आत्म–बोध का मार्ग है—स्वयं कलाकार के लिए और दर्शक के लिए भी। इस सजगता को सक्रिय करने में तंत्र बहुत बड़ा पथ प्रदर्शक है।
अजीत मुखर्जी
तंत्र आर्ट
ओशो का नज़रिया:
...अजित मुखर्जी। उसने तंत्र के लिए बहुत बड़ा काम किया है। मैं उसकी दो किताबों को सम्मिलित कर रहा हूं। ‘’दि आर्ट ऑफ तंत्र और दि पेंटिग्ज ऑफ तंत्र।‘’
यह आदमी अभी जीवित है। और इन दो किताबों के लिए वह मुझे हमेशा अच्छा लगा है। क्योंकि ये मास्टर पीस, सर्वोत्कृष्ट कृतियां है। वे चित्र, वह कला और उसकी अजित मुखर्जी ने की हुई व्याख्या। उनके परिचय में लिखा हुई भूमिका अपरिसीम रूप से बहुमूल्य है।
लेकिन वह आदमी एक बेचारा बंगाली मालूम होता है। अभी कुछ दिनों पहले वह दिल्ली में लक्ष्मी से मिला। वह उससे मिलने आया और बोला ‘’मैं अपना पूरा तंत्र का संग्रह भगवान को भेंट करना चाहता हूं।‘’ उसके पास तंत्र के चित्रों और कलाकृतियों का बहुत समृद्ध संग्रह रहा होगा। उसने कहा, ‘’मैं उसे भगवान को देना चाहता था क्योंकि वहीं एक व्यक्ति है जो उसे समझ पायेंगे और उसका अर्थ जान पायेंगे। लेकिन मैं बहुत भयभीत था। भगवान से किसी प्रकार से संबंधित होना मेरे लिए मुशिकल खड़ी कर सकता था। अंतत: मैंने मेरा पूरा संग्रह भारत सरकार को दे दिया।‘’
ये दो किताबें मुझे बहुत प्रिय रही है। लेकिन इस आदमी के बारे में क्या कहो? अजित मुखर्जी या अजित माउस (चूहा) इतना भय। और इतना भय लेकिर क्या तंत्र को समझा जा सकता है? असंभव उसने जो लिखा है वह सिर्फ बौद्धिक है। वह हार्दिक हो नहीं सकता। और है भी नहीं। उसके पास ह्रदय ही नहीं है। ह्रदय सिर्फ निर्भयता के वातावरण में, प्रेम में साहस में विकसित होता है। कितना दीन आदमी है। लेकिन मैं उसकी किताबों की प्रशंसा करता हूं। चूहे ने गजब का काम किया है। ये दो किताबें तंत्र के लिए और सत्य के खोजियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण रहेंगी।
अजित मुखर्जी कृपा करके ध्यान रखना, मैं तुम्हारे खिलाफ नहीं हूं, या किसी और के भी नहीं। इस संसार में मैं किसी का भी दुश्मन नहीं हूं, हालांकि लाखों लोग मुझे अपना दुश्मन मानते है। यह उनकी समस्या है। मुझे उससे कोई लेना-देना नहीं है। अजित मुखर्जी तुमने तंत्र की सेवा की है। इसलिए तुम मुझे प्यारे लगते हो। तंत्र को बहुत से विद्यावानों, दार्शनिकों, लेखकों, चित्रकारों, कवियों की जरूरत है ताकि वह प्राचीन प्रज्ञा फिर जीवंत हो उठे। और उसमें तुमने थोड़ी सी मदद की है।
ओशो
बुक्स आय हैव लव्ड
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