समयसार—आचार्य कुन्दकुन्द
(ओशो की प्रिय पुस्तकें)
दिगम्बर जैन संप्रदाय का महान ग्रंथ समयसार जैन परंपरा के दिग्गज आचार्य कुन्द कुन्द द्वारा रचित है। दो हजार वर्षों से आज तक दिगम्बर साधु स्वयं को कुन्कुन्दाचार्य की परंपरा का कहलाने का गौरव अनुभव करते है।
जैसी की भारत की अध्यात्मिक परंपरा रही है, अध्यात्म-ग्रंथों के रचेता स्वयं के व्यक्तिगत जीवन के संबंध में कभी-कभी उल्लेख नहीं करते। आचार्य कुन्दकुन्द भी उसके अपवाद नहीं है। चूंकि उनकी कोई ऐतिहासिक जानकारी नहीं है। उनके बारे में विभिन्न कथाएं प्रचलित है। उन कथाओं में ऐतिहासिक तथ्य चाहे कम हों, लेकिन सत्य बहुत है। कथाओं में वर्णित आलेखों तथा कुछ शिलालेखों को जोड़ कर जो कहानी बनती है वह इस प्रकार है:
आज से लगभग दो हजार साल पहले पूर्व विक्रम की प्रथम शताब्दी में कोण्डकुन्दपुर (कर्नाटक) में इनका जनम हुआ। माता-पिता ने इनका नाम रखा यह तो ज्ञात नहीं लेकिन इनके कई नाम प्रचलित है। वक्रगीव, एलार्चाय, पद्यनन्दी, गृद्धपृच्छ, इत्यादि। जो नाम लोकप्रिय हुआ: कुन्दकुन्द, उसका कारण यह होगा कि वे कोण्डकुन्दपुर के निवासी थे। कवि की काव्यात्मक दृष्टि से देखें तो चन्द्र गिरि का एक शिलालेख कहता है: कुन्द पुष्प समान धवन प्रभा होने से इन्हें यह नाम प्राप्त हुआ।
विंध्य गिरि शिलालेख में उनका वर्णन और भी सुन्दर है: यतिश्वर कुन्दकुन्द मानो धूल से भरी धरती से चार अंगुल ऊपर चलते थे। क्योंकि वे अन्तर-बाह्य धूल से मुक्त थे।
चौदहवीं शताब्दी तक आचार्य कुन्दकुन्द की महिमा इतनी वृद्धि गत हो गई थी कि उस समय के कवि वृन्दवादन दास को कहना पडा:
हुए है, न होहिंगे; मुदिन्द कुन्दकुन्द से।
भगवान महावीर की श्रुत परंपरा में गौतम गणधर के साथ केवल कुन्कुन्दाचार्य का ही नाम आता है। अन्य सभी आचार्य ‘’आदि’’ शब्द में सम्मिलित किए जाते है।
भगवान महावीर की अचेलक परंपरा में आचार्य कुन्दकुन्द का अवतरण उस समय हुआ जब उसे उनके जैसे तलस्पर्शी एवं प्रखर प्रशासन आचार्य की आवश्यकता थी। यह समय श्वेताश्वतर मत का आरंभ काल ही था। उस समय बरती हुई किसी भी प्रकार की शिथिलता भगवान महावीर के मूल मार्ग के लिए घातक सिद्ध हो सकती थी।
आचार्य कुन्दकुन्द पर दो अत्तर दायित्व थे: एक तो अध्यात्म शास्त्र को व्यवस्थित लेखन रूप देना और दूसरा शिथिल आचार के विरूद्ध सशक्त आन्दोलन चलाना। दोनों ही कार्य उन्होंने सामर्थ्य पूर्वक किये।
कुन्दकुन्द की ग्रंथ संपदा बड़ी है। उन्होंने लगभग आधा दर्जन ग्रंथ लिखे जिनमें समयसार( जिसका मूल नाम है समयपाहुड़) सर्वाधिक प्रभावशाली रहा।
कुन्दकुन्द के एक हजार वर्ष बाद ‘’समयसार’’ पर आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने संस्कृत में गंभीर टीका लिखी, जिसका नाम है ‘’आत्म ख्याति’’, समयसार का मर्म जानने के लिए आज इसी टीका का आश्रय लिया जाता है। समयसार की प्रशंसा करते हुए वे इसे ‘’जगत का अक्षय चक्षु’’ कहते है। उनका मानना है कि समयसार से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है।
समयसार क्या है?
यह ग्रंथ दो-दो पंक्तियों से बनी 415 गाथाओं का संग्रह है। ये गाथाएँ पाली भाषा में लिखी गई है। आधुनिक युग में समयसार का प्रसार करने वाले कान जी स्वामी इसे इस प्रकार प्रस्तुत करते है।
‘’ये समयसार शस्त्र शास्त्रों का आगम है। लाखों शास्त्रों का सार इसमें है यह जैन समाज का स्तंभ है। साधकों की कामधेनु है, कलाकृति है। इसकी हर गाथा छठवें सातवें गुण स्थान में झूलते हुए महामुनि के आत्मानुभव से निकली हुई है।‘’
इस समयसार के कुल नौ अध्याय है जो क्रमश: इस प्रकार है।
जीव-अजीव अधिकार
कर्ता कर्म अधिकार
पुण्य–पाप अधिकार
आस्त्रव अधिकार
संवर अधिकार
निर्जरा अधिकार
बंध अधिकार
मोक्ष अधिकार
सर्व शुद्ध ज्ञान अधिकार
इन नौ अध्यायों में प्रवेश करने से पहले एक आमुख है जिसे वे पूर्वरंग कहते है। यह मानों ‘’समयसार’’ का प्रवेशद्वार है। इसी में वे चर्चा करते है कि समय क्या है, यह चर्चा बड़ी अर्थ पूर्ण, अर्थ गर्भित है।
‘’समय’’ शब्द के दो हिस्से है: सम+अय। अयन का अर्थ है गमन करना, जाना। अर्थात समय का जब भी अनुभव होता है, वह ऐसे होता है जैसे वह गुजर रहा है। समय का अनुभव स्थिरता की तरह नहीं होता। ‘’सम’’ उपसर्ग है जिसका अर्थ है: एक साथ। जो एक साथ गतिमान है वह समय।
तथापि अयन का एक और अर्थ भी है: जानना, वेदना,। समय को जानता कौन है? जो समय को जानता है वह भीतर बैठा है। वही जानने वाला है। इसलिए कुन्दकुन्द समय को आत्मा भी कहते है। और वहीं अर्थ सम्यक है। क्योंकि समयसार आत्मा की पूरी यात्रा का सार-निचोड़ है। संक्षेप में देखा जाए तो समयसार वही कहता है जो भारत का हर मुख्य दर्शन कहता है। जीव बंधन में कैसे पडा और उससे मुक्त कैसे हो सकता है। सांख्य, वेदान्त या समस्त उपनिषाद जिस प्रकिया का ऊहापोह करते है। वहीं समयसार में है, कुछ खास शब्दों और धारणाओं के फर्क के साथ।
सृष्टि के जन्म की प्रक्रिया और उससे पार उठने के विषय में हर धर्म की अपनी प्रणाली और शब्दावली होती है: वैसी समयसार की भी है। लेकिन मूल प्रतिपादन एक ही है। इससे अन्यथा हो भी नहीं सकता। क्योंकि मनुष्य का मन जिस ढंग से काम करता है, और अस्तित्व के जो भी मूलभूत तत्व है, नियम है, वे तो एक जैसे है। चाहे हम जैन दृष्टिकोण से देखें चाहे बौद्ध, चाहे हिन्दू।
उदाहरण के लिए, धर्म कोई भी हो, इंद्रियाँ पाँच ही होंगी, और उनके विषय भी पाँच ही होंगे। उन विषयों के बारे में मन में उठने वाली इच्छाएं भी समान होंगी। यह तो संभव नहीं है कि बौद्ध व्यक्ति आँख से सुनता हो और कान से देखता हो। और जैन धर्मी किसी और बंदियों से देखता-सुनता हो। समयसार पढ़ते हुए उन सारे दर्शन शास्त्रों का पुन: स्मरण होता है जो प्रत्येक ने कभी न कभी पढ़े है।
समयसार की सर्वप्रथम गाथा भारत की प्राचीन परंपरा के अनुसार मंगलाचरण की है। यह एक खूबसूरत रिवाज था जो सभी प्रचीन भारतीय शास्त्रों में पाया जाता है। अपनी बात शुरू करने से पहले उस विषय में पारंगत पूर्व सिद्धों और ज्ञानी जनों को प्रणाम करके उनके आशीर्वाद की छाया में लेखक मार्गस्थ होते है। कुन्कुन्दाचार्य भी उसी का निर्वाह करते है। वे यह भी कहते है कि श्रतकेवलियों (गणधर) द्वारा कथित समयपाहुड़ को मैं आप तक पहुंचा रहा हूं।
आज के अहंकारी युग में यह वक्तव्य चिंतन मनन करने जैसा है। इतने महान ग्रंथ की रचना को प्रांरभ करते हुए, जिसे दो हजार वर्षों का अंतराल धूमिल न कर सका, लेखक इतना विनम्र है कि खुद इस विशाल कार्य का कर्ता बनना नहीं चाहता। वे कवल इस ज्ञान के वाहक है।
इस पश्चात वे दूसरी गाथा में समय की परिभाषा करते है जो कि पीछे हमने देखी।
पूरे ग्रंथ के अंत में आचार्य चेतावनी और एक प्रलोभन भी देते है: जो समय पाहुड़ के वचनों को पढ़ कर उसके अर्थ को अनुभव भी करेगा वह उत्तम सौरव्य को प्राप्त होगा।
इस ग्रंथ में जीवन को—जिसे हम जीवन समझते है—रंगमंच की उपमा दी गई है। जो कि बड़ी अर्थपूर्ण प्रतीत होती है। जीवन के नाटक में हम इसीलिए खो जाते है क्योंकि नाटक को सच मान लेते है। ‘’पाप-पुण्य अधिकार अध्याय में (गाथा नं. 145) कुन्कुन्दाचार्य प्रश्न करते है:
तुम अशुभ कर्म को कुशील ओ शुभ कर्म को सुशील मानते हो, लेकिन वह कर्म सुशील कैसे हो सकता है। जो तुम्हें संसार में या रंगमंच में प्रविष्ट कराता है।
इसके बाद वे कर्म का रहस्य समझाते है।
‘’वस्तुत: कोई कृत्य नहीं बाँधता। वह राग में डूबा हुआ मन ही है जो बंध जाता है। विरक्त होकर कुछ भी करो तो नहीं बांधगे; यहीं जिनोपदेश है।
अब यह पूरा कर्म सिद्धांत हर धर्म का, हर दर्शन का अधार है। और यहीं से मुक्ति का प्रयास शुरू होता है।
प्रत्येक प्रकरण का प्रारम्भ आचार्य ने इस प्रकार किया है मानो वह एक रंगमंच प्रवेश हो। प्रकरण के प्रारंभ में पात्र मंच-प्रविष्ट होता है अंत में निकल जाता है। और यह पात्र कौन है? पाप-पुण्य मंच पर प्रवेश करते है और अंत में द्वन्द्व समाप्त हो जाता है। इसलिए वे दोनों एक होकर मंच से बाहर निकल जाते है। चौथे अध्याय में आस्त्रव याने मनोविकार मंच पर आते है और अंत में बाहर निकल जाते है। क्योंकि चित में ज्ञान का उदय होते ही विकार ओस करण की तरह विलीन हो जाते है। क्योंकि मन की जो विभिन्न अवस्थाएं है—आस्त्रव या संवर या निर्जरा—ये सब कुन्कुन्दाचार्य की दृष्टि में विभिन्न स्वांग है जो मन रचता है। कभी वह विकार बनकर आयेगा, कभी निर्विकार बनकर, लेकिन वे सब स्वांग ही है, सत्य नहीं।
यहां तक कि उनकी दृष्टि में मोक्ष तत्व भी एक स्वांग ही है। आत्मा की रंगभूमि में जीवन-अजीव, कर्ता-अकर्ता, पुण्य-पाप, आस्त्रव-संवर, निर्जरा, बंध, और मोक्ष ये आठ स्वांग आते है। उनका नृत्य होता है। और अपना-अपना स्वरूप बताकर वे निकल जाते है। आखिर अध्याय में सब स्वाँगों के विदा होने पर सर्व विशुद्ध ज्ञान प्रवेश करता है। उसके बाद रंगमंच के पात्र और उनका अभिनय समाप्त हो जाता है। क्योंकि पूरा खेल ही खत्म हो जाता है। आत्मा को अपनी सुधि आ जाती है। कि न मैं कर सकता हूं, न भोग सकता हूं। मैं सिर्फ हूं।
वेदान्त दर्शन जिसे माया कहते है उसे ही कुन्कुन्दाचार्य नाटक की उपमा देते है। और आधुनिक मन के लिए इस दृष्टान्त को समझना अधिक सरल है। ‘’माया’’ शब्द घिस-घिस कर अपना मूल आशय खो बैठा है। वह इतना निन्दित हो चुका है कि अब यह शब्द ही मायावी लगता है।
वास्तव में समयसार को पुनरुज्जीवित करना हो तो उसके शब्दों की प्राचीनता की धूल झाड़ कर उन्हें सद्य स्नात, तरोताजा बनाना आवश्यक है। जैसे निर्जरा को मनोविज्ञान का सुपरिचित शब्द ‘’कैथार्सिस’’ या रेचन कहा जाये तो उसे समझना अधिक सरल होगा। ‘’संवर’’ और कुछ भी नहीं, योग शास्त्र में कथित चित वृति निरोध है। इस प्रकार निरंतर अन्य शब्दों को भी पुनरुज्जीवित की अग्नि से गुजारा जाये तो इनके आशय कुंदन की भांति निखरेंगे। जीव, आत्मा बंध, मोक्ष, कर्म-अकर्म, पाप-पूण्य, इन सभी शब्दों की गठरी बाँध कर समुद्र में फेंक देने का समय आ गया है। इससे इनमें निहित अनुभव तो विलीन नहीं होगा। उल्टे नए शब्दों के वस्त्र पहनकर जगमगाने लगेगा। कुन्कुन्दाचार्य का ही प्रतीक लें तो वे कहते है: स्वर्ण को कितना ही तपाओ, उसकी स्वर्णत्व खोता नहीं है। उसी प्रकार कर्मों की आग में तपकर भी ज्ञानी अपना ज्ञान खोता नहीं है। ज्ञानी के शब्दों में भी उसके ज्ञान का स्वर्ण भरा हुआ है। उसे आग से क्या भय।
कुन्कुन्दाचार्य के एक हजार साल बाद आचार्य अमृत चन्द्र देव ने ‘’अमृतख्याति’’ टीका लिखकर समयसार को समसामयिक बनाया। उनकी अभिव्यक्ति आधुनिक मनुष्य के अधिक निकट है बजाएं स्वयं कुन्कुन्दाचार्य के। आज फिर से एक हजार साल बाद उसे पुन: नवीन करने की आवश्यकता है।
कौन करेगा इसे?
ओशो ने इस पर प्रवचन करने के लिए सोचा पर नहीं हो सका। इस अपूर्व ग्रंथ को पढ़ने वाले आचार्य कुन्दकुन्द का एक निर्देश ग्रहण कर लें तो ग्रंथ लिखने का उनका उद्देश्य पूरा होगा। उनके वचनों का उपयोग अपना पांडित्य मजबूत करने के लिए न करें, वरन उसे विसर्जित करने के लिए करें।
इस ग्रंथ को पढ़ने वाला कम से कम कुन्कुन्दाचार्य का अंतिम संदेश ही समझ ले तो समयसार समसामयिक हो सकता है।
‘’जो भव्य जीव इस ग्रंथ को वचन रूप में तथा तत्व रूप में जानकर उसके अर्थ में स्थिर होगा वह उत्तम सौरव्य को प्राप्त होगा।‘’
ओशो का नजरिया:--
कुन्दकुन्द का ‘’समयसार’’ आज की मेरी सूची में चौथी किताब है। मैंने उस पर कभी प्रवचन नहीं किया। मैंने कई दफे सोचा लेकिन हमेशा उस ख्याल को छोड़ दिया। जैनियों द्वारा निर्मित की हुई श्रेष्ठतम पुस्तक है यह, लेकिन यह रूखा-सूखा गणित है। इसलिए मैंने यह ख्याल बार-बार छोड़ दिया। मुझे कविता से प्रेम है। यदि यह काव्यात्मक होता तो मैं उस पर प्रवचन करता।
मैंने उन कवियों पर भी प्रवचन किए है जो जागे हुए नहीं है। लेकिन जो बुद्ध होकर भी गणित और तर्क से अभिव्यक्ति करते थे उन पर नहीं। गणित इतना रूखा-सूखा है। तर्क रेगिस्तान है।
हो सकता है वे यहां, मेरे संन्यासियों के बीच कहीं होंगे......लेकिन नहीं-नहीं हो सकते। कुन्दकुन्द बुद्ध पुरूष थे। वे पुन: पैदा नहीं हो सकते है।
उनका ग्रंथ सुंदर है, इतना ही कह सकता हूं। इससे अधिक मैं कुछ नहीं कह सकता। क्योंकि वह गणित जैसा है। गणित का भी अपना सौंदर्य है, उसकी लय है। इसलिए में उसकी प्रशंसा करता हूं। गणित का अपना सत्य है लेकिन वह सीमित है और दाहिने हाथ का है।
‘’समयसार’’ का अर्थ है: सार-सूत्र। अगर कभी कुन्दकुन्द का समयसार तुम्हें मिला तो उसे दाहिने हाथ में पकड़ना। बाएं हाथ में नहीं। यह दाहिने हाथ की पुस्तक है—हर तरह से दाहिनी। यह इतनी सही है कि मुझे इससे थोड़ी वितृष्णा है—लेकिन आंखों में आंसू भर कर। क्योंकि मुझे उस आदमी को सौंदर्य विदित है—जिसने उसे लिखा। मुझे कुन्दकुन्द से प्रेम है, और उसकी गणित की अभिव्यक्ति मुझे जरा भी पसंद नहीं है।
ओशो
बुक्स आई हैव लव्ड
(ओशो की प्रिय पुस्तकें)
दिगम्बर जैन संप्रदाय का महान ग्रंथ समयसार जैन परंपरा के दिग्गज आचार्य कुन्द कुन्द द्वारा रचित है। दो हजार वर्षों से आज तक दिगम्बर साधु स्वयं को कुन्कुन्दाचार्य की परंपरा का कहलाने का गौरव अनुभव करते है।
जैसी की भारत की अध्यात्मिक परंपरा रही है, अध्यात्म-ग्रंथों के रचेता स्वयं के व्यक्तिगत जीवन के संबंध में कभी-कभी उल्लेख नहीं करते। आचार्य कुन्दकुन्द भी उसके अपवाद नहीं है। चूंकि उनकी कोई ऐतिहासिक जानकारी नहीं है। उनके बारे में विभिन्न कथाएं प्रचलित है। उन कथाओं में ऐतिहासिक तथ्य चाहे कम हों, लेकिन सत्य बहुत है। कथाओं में वर्णित आलेखों तथा कुछ शिलालेखों को जोड़ कर जो कहानी बनती है वह इस प्रकार है:
आज से लगभग दो हजार साल पहले पूर्व विक्रम की प्रथम शताब्दी में कोण्डकुन्दपुर (कर्नाटक) में इनका जनम हुआ। माता-पिता ने इनका नाम रखा यह तो ज्ञात नहीं लेकिन इनके कई नाम प्रचलित है। वक्रगीव, एलार्चाय, पद्यनन्दी, गृद्धपृच्छ, इत्यादि। जो नाम लोकप्रिय हुआ: कुन्दकुन्द, उसका कारण यह होगा कि वे कोण्डकुन्दपुर के निवासी थे। कवि की काव्यात्मक दृष्टि से देखें तो चन्द्र गिरि का एक शिलालेख कहता है: कुन्द पुष्प समान धवन प्रभा होने से इन्हें यह नाम प्राप्त हुआ।
विंध्य गिरि शिलालेख में उनका वर्णन और भी सुन्दर है: यतिश्वर कुन्दकुन्द मानो धूल से भरी धरती से चार अंगुल ऊपर चलते थे। क्योंकि वे अन्तर-बाह्य धूल से मुक्त थे।
चौदहवीं शताब्दी तक आचार्य कुन्दकुन्द की महिमा इतनी वृद्धि गत हो गई थी कि उस समय के कवि वृन्दवादन दास को कहना पडा:
हुए है, न होहिंगे; मुदिन्द कुन्दकुन्द से।
भगवान महावीर की श्रुत परंपरा में गौतम गणधर के साथ केवल कुन्कुन्दाचार्य का ही नाम आता है। अन्य सभी आचार्य ‘’आदि’’ शब्द में सम्मिलित किए जाते है।
भगवान महावीर की अचेलक परंपरा में आचार्य कुन्दकुन्द का अवतरण उस समय हुआ जब उसे उनके जैसे तलस्पर्शी एवं प्रखर प्रशासन आचार्य की आवश्यकता थी। यह समय श्वेताश्वतर मत का आरंभ काल ही था। उस समय बरती हुई किसी भी प्रकार की शिथिलता भगवान महावीर के मूल मार्ग के लिए घातक सिद्ध हो सकती थी।
आचार्य कुन्दकुन्द पर दो अत्तर दायित्व थे: एक तो अध्यात्म शास्त्र को व्यवस्थित लेखन रूप देना और दूसरा शिथिल आचार के विरूद्ध सशक्त आन्दोलन चलाना। दोनों ही कार्य उन्होंने सामर्थ्य पूर्वक किये।
कुन्दकुन्द की ग्रंथ संपदा बड़ी है। उन्होंने लगभग आधा दर्जन ग्रंथ लिखे जिनमें समयसार( जिसका मूल नाम है समयपाहुड़) सर्वाधिक प्रभावशाली रहा।
कुन्दकुन्द के एक हजार वर्ष बाद ‘’समयसार’’ पर आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने संस्कृत में गंभीर टीका लिखी, जिसका नाम है ‘’आत्म ख्याति’’, समयसार का मर्म जानने के लिए आज इसी टीका का आश्रय लिया जाता है। समयसार की प्रशंसा करते हुए वे इसे ‘’जगत का अक्षय चक्षु’’ कहते है। उनका मानना है कि समयसार से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है।
समयसार क्या है?
यह ग्रंथ दो-दो पंक्तियों से बनी 415 गाथाओं का संग्रह है। ये गाथाएँ पाली भाषा में लिखी गई है। आधुनिक युग में समयसार का प्रसार करने वाले कान जी स्वामी इसे इस प्रकार प्रस्तुत करते है।
‘’ये समयसार शस्त्र शास्त्रों का आगम है। लाखों शास्त्रों का सार इसमें है यह जैन समाज का स्तंभ है। साधकों की कामधेनु है, कलाकृति है। इसकी हर गाथा छठवें सातवें गुण स्थान में झूलते हुए महामुनि के आत्मानुभव से निकली हुई है।‘’
इस समयसार के कुल नौ अध्याय है जो क्रमश: इस प्रकार है।
जीव-अजीव अधिकार
कर्ता कर्म अधिकार
पुण्य–पाप अधिकार
आस्त्रव अधिकार
संवर अधिकार
निर्जरा अधिकार
बंध अधिकार
मोक्ष अधिकार
सर्व शुद्ध ज्ञान अधिकार
इन नौ अध्यायों में प्रवेश करने से पहले एक आमुख है जिसे वे पूर्वरंग कहते है। यह मानों ‘’समयसार’’ का प्रवेशद्वार है। इसी में वे चर्चा करते है कि समय क्या है, यह चर्चा बड़ी अर्थ पूर्ण, अर्थ गर्भित है।
‘’समय’’ शब्द के दो हिस्से है: सम+अय। अयन का अर्थ है गमन करना, जाना। अर्थात समय का जब भी अनुभव होता है, वह ऐसे होता है जैसे वह गुजर रहा है। समय का अनुभव स्थिरता की तरह नहीं होता। ‘’सम’’ उपसर्ग है जिसका अर्थ है: एक साथ। जो एक साथ गतिमान है वह समय।
तथापि अयन का एक और अर्थ भी है: जानना, वेदना,। समय को जानता कौन है? जो समय को जानता है वह भीतर बैठा है। वही जानने वाला है। इसलिए कुन्दकुन्द समय को आत्मा भी कहते है। और वहीं अर्थ सम्यक है। क्योंकि समयसार आत्मा की पूरी यात्रा का सार-निचोड़ है। संक्षेप में देखा जाए तो समयसार वही कहता है जो भारत का हर मुख्य दर्शन कहता है। जीव बंधन में कैसे पडा और उससे मुक्त कैसे हो सकता है। सांख्य, वेदान्त या समस्त उपनिषाद जिस प्रकिया का ऊहापोह करते है। वहीं समयसार में है, कुछ खास शब्दों और धारणाओं के फर्क के साथ।
सृष्टि के जन्म की प्रक्रिया और उससे पार उठने के विषय में हर धर्म की अपनी प्रणाली और शब्दावली होती है: वैसी समयसार की भी है। लेकिन मूल प्रतिपादन एक ही है। इससे अन्यथा हो भी नहीं सकता। क्योंकि मनुष्य का मन जिस ढंग से काम करता है, और अस्तित्व के जो भी मूलभूत तत्व है, नियम है, वे तो एक जैसे है। चाहे हम जैन दृष्टिकोण से देखें चाहे बौद्ध, चाहे हिन्दू।
उदाहरण के लिए, धर्म कोई भी हो, इंद्रियाँ पाँच ही होंगी, और उनके विषय भी पाँच ही होंगे। उन विषयों के बारे में मन में उठने वाली इच्छाएं भी समान होंगी। यह तो संभव नहीं है कि बौद्ध व्यक्ति आँख से सुनता हो और कान से देखता हो। और जैन धर्मी किसी और बंदियों से देखता-सुनता हो। समयसार पढ़ते हुए उन सारे दर्शन शास्त्रों का पुन: स्मरण होता है जो प्रत्येक ने कभी न कभी पढ़े है।
समयसार की सर्वप्रथम गाथा भारत की प्राचीन परंपरा के अनुसार मंगलाचरण की है। यह एक खूबसूरत रिवाज था जो सभी प्रचीन भारतीय शास्त्रों में पाया जाता है। अपनी बात शुरू करने से पहले उस विषय में पारंगत पूर्व सिद्धों और ज्ञानी जनों को प्रणाम करके उनके आशीर्वाद की छाया में लेखक मार्गस्थ होते है। कुन्कुन्दाचार्य भी उसी का निर्वाह करते है। वे यह भी कहते है कि श्रतकेवलियों (गणधर) द्वारा कथित समयपाहुड़ को मैं आप तक पहुंचा रहा हूं।
आज के अहंकारी युग में यह वक्तव्य चिंतन मनन करने जैसा है। इतने महान ग्रंथ की रचना को प्रांरभ करते हुए, जिसे दो हजार वर्षों का अंतराल धूमिल न कर सका, लेखक इतना विनम्र है कि खुद इस विशाल कार्य का कर्ता बनना नहीं चाहता। वे कवल इस ज्ञान के वाहक है।
इस पश्चात वे दूसरी गाथा में समय की परिभाषा करते है जो कि पीछे हमने देखी।
पूरे ग्रंथ के अंत में आचार्य चेतावनी और एक प्रलोभन भी देते है: जो समय पाहुड़ के वचनों को पढ़ कर उसके अर्थ को अनुभव भी करेगा वह उत्तम सौरव्य को प्राप्त होगा।
इस ग्रंथ में जीवन को—जिसे हम जीवन समझते है—रंगमंच की उपमा दी गई है। जो कि बड़ी अर्थपूर्ण प्रतीत होती है। जीवन के नाटक में हम इसीलिए खो जाते है क्योंकि नाटक को सच मान लेते है। ‘’पाप-पुण्य अधिकार अध्याय में (गाथा नं. 145) कुन्कुन्दाचार्य प्रश्न करते है:
तुम अशुभ कर्म को कुशील ओ शुभ कर्म को सुशील मानते हो, लेकिन वह कर्म सुशील कैसे हो सकता है। जो तुम्हें संसार में या रंगमंच में प्रविष्ट कराता है।
इसके बाद वे कर्म का रहस्य समझाते है।
‘’वस्तुत: कोई कृत्य नहीं बाँधता। वह राग में डूबा हुआ मन ही है जो बंध जाता है। विरक्त होकर कुछ भी करो तो नहीं बांधगे; यहीं जिनोपदेश है।
अब यह पूरा कर्म सिद्धांत हर धर्म का, हर दर्शन का अधार है। और यहीं से मुक्ति का प्रयास शुरू होता है।
प्रत्येक प्रकरण का प्रारम्भ आचार्य ने इस प्रकार किया है मानो वह एक रंगमंच प्रवेश हो। प्रकरण के प्रारंभ में पात्र मंच-प्रविष्ट होता है अंत में निकल जाता है। और यह पात्र कौन है? पाप-पुण्य मंच पर प्रवेश करते है और अंत में द्वन्द्व समाप्त हो जाता है। इसलिए वे दोनों एक होकर मंच से बाहर निकल जाते है। चौथे अध्याय में आस्त्रव याने मनोविकार मंच पर आते है और अंत में बाहर निकल जाते है। क्योंकि चित में ज्ञान का उदय होते ही विकार ओस करण की तरह विलीन हो जाते है। क्योंकि मन की जो विभिन्न अवस्थाएं है—आस्त्रव या संवर या निर्जरा—ये सब कुन्कुन्दाचार्य की दृष्टि में विभिन्न स्वांग है जो मन रचता है। कभी वह विकार बनकर आयेगा, कभी निर्विकार बनकर, लेकिन वे सब स्वांग ही है, सत्य नहीं।
यहां तक कि उनकी दृष्टि में मोक्ष तत्व भी एक स्वांग ही है। आत्मा की रंगभूमि में जीवन-अजीव, कर्ता-अकर्ता, पुण्य-पाप, आस्त्रव-संवर, निर्जरा, बंध, और मोक्ष ये आठ स्वांग आते है। उनका नृत्य होता है। और अपना-अपना स्वरूप बताकर वे निकल जाते है। आखिर अध्याय में सब स्वाँगों के विदा होने पर सर्व विशुद्ध ज्ञान प्रवेश करता है। उसके बाद रंगमंच के पात्र और उनका अभिनय समाप्त हो जाता है। क्योंकि पूरा खेल ही खत्म हो जाता है। आत्मा को अपनी सुधि आ जाती है। कि न मैं कर सकता हूं, न भोग सकता हूं। मैं सिर्फ हूं।
वेदान्त दर्शन जिसे माया कहते है उसे ही कुन्कुन्दाचार्य नाटक की उपमा देते है। और आधुनिक मन के लिए इस दृष्टान्त को समझना अधिक सरल है। ‘’माया’’ शब्द घिस-घिस कर अपना मूल आशय खो बैठा है। वह इतना निन्दित हो चुका है कि अब यह शब्द ही मायावी लगता है।
वास्तव में समयसार को पुनरुज्जीवित करना हो तो उसके शब्दों की प्राचीनता की धूल झाड़ कर उन्हें सद्य स्नात, तरोताजा बनाना आवश्यक है। जैसे निर्जरा को मनोविज्ञान का सुपरिचित शब्द ‘’कैथार्सिस’’ या रेचन कहा जाये तो उसे समझना अधिक सरल होगा। ‘’संवर’’ और कुछ भी नहीं, योग शास्त्र में कथित चित वृति निरोध है। इस प्रकार निरंतर अन्य शब्दों को भी पुनरुज्जीवित की अग्नि से गुजारा जाये तो इनके आशय कुंदन की भांति निखरेंगे। जीव, आत्मा बंध, मोक्ष, कर्म-अकर्म, पाप-पूण्य, इन सभी शब्दों की गठरी बाँध कर समुद्र में फेंक देने का समय आ गया है। इससे इनमें निहित अनुभव तो विलीन नहीं होगा। उल्टे नए शब्दों के वस्त्र पहनकर जगमगाने लगेगा। कुन्कुन्दाचार्य का ही प्रतीक लें तो वे कहते है: स्वर्ण को कितना ही तपाओ, उसकी स्वर्णत्व खोता नहीं है। उसी प्रकार कर्मों की आग में तपकर भी ज्ञानी अपना ज्ञान खोता नहीं है। ज्ञानी के शब्दों में भी उसके ज्ञान का स्वर्ण भरा हुआ है। उसे आग से क्या भय।
कुन्कुन्दाचार्य के एक हजार साल बाद आचार्य अमृत चन्द्र देव ने ‘’अमृतख्याति’’ टीका लिखकर समयसार को समसामयिक बनाया। उनकी अभिव्यक्ति आधुनिक मनुष्य के अधिक निकट है बजाएं स्वयं कुन्कुन्दाचार्य के। आज फिर से एक हजार साल बाद उसे पुन: नवीन करने की आवश्यकता है।
कौन करेगा इसे?
ओशो ने इस पर प्रवचन करने के लिए सोचा पर नहीं हो सका। इस अपूर्व ग्रंथ को पढ़ने वाले आचार्य कुन्दकुन्द का एक निर्देश ग्रहण कर लें तो ग्रंथ लिखने का उनका उद्देश्य पूरा होगा। उनके वचनों का उपयोग अपना पांडित्य मजबूत करने के लिए न करें, वरन उसे विसर्जित करने के लिए करें।
इस ग्रंथ को पढ़ने वाला कम से कम कुन्कुन्दाचार्य का अंतिम संदेश ही समझ ले तो समयसार समसामयिक हो सकता है।
‘’जो भव्य जीव इस ग्रंथ को वचन रूप में तथा तत्व रूप में जानकर उसके अर्थ में स्थिर होगा वह उत्तम सौरव्य को प्राप्त होगा।‘’
ओशो का नजरिया:--
कुन्दकुन्द का ‘’समयसार’’ आज की मेरी सूची में चौथी किताब है। मैंने उस पर कभी प्रवचन नहीं किया। मैंने कई दफे सोचा लेकिन हमेशा उस ख्याल को छोड़ दिया। जैनियों द्वारा निर्मित की हुई श्रेष्ठतम पुस्तक है यह, लेकिन यह रूखा-सूखा गणित है। इसलिए मैंने यह ख्याल बार-बार छोड़ दिया। मुझे कविता से प्रेम है। यदि यह काव्यात्मक होता तो मैं उस पर प्रवचन करता।
मैंने उन कवियों पर भी प्रवचन किए है जो जागे हुए नहीं है। लेकिन जो बुद्ध होकर भी गणित और तर्क से अभिव्यक्ति करते थे उन पर नहीं। गणित इतना रूखा-सूखा है। तर्क रेगिस्तान है।
हो सकता है वे यहां, मेरे संन्यासियों के बीच कहीं होंगे......लेकिन नहीं-नहीं हो सकते। कुन्दकुन्द बुद्ध पुरूष थे। वे पुन: पैदा नहीं हो सकते है।
उनका ग्रंथ सुंदर है, इतना ही कह सकता हूं। इससे अधिक मैं कुछ नहीं कह सकता। क्योंकि वह गणित जैसा है। गणित का भी अपना सौंदर्य है, उसकी लय है। इसलिए में उसकी प्रशंसा करता हूं। गणित का अपना सत्य है लेकिन वह सीमित है और दाहिने हाथ का है।
‘’समयसार’’ का अर्थ है: सार-सूत्र। अगर कभी कुन्दकुन्द का समयसार तुम्हें मिला तो उसे दाहिने हाथ में पकड़ना। बाएं हाथ में नहीं। यह दाहिने हाथ की पुस्तक है—हर तरह से दाहिनी। यह इतनी सही है कि मुझे इससे थोड़ी वितृष्णा है—लेकिन आंखों में आंसू भर कर। क्योंकि मुझे उस आदमी को सौंदर्य विदित है—जिसने उसे लिखा। मुझे कुन्दकुन्द से प्रेम है, और उसकी गणित की अभिव्यक्ति मुझे जरा भी पसंद नहीं है।
ओशो
बुक्स आई हैव लव्ड
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